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क्षितिज ने पुकारा- भाग 3: क्या पति की जिद के आगे नंदिनी झुक गई

अब तक आप ने पढ़ा:
दिल की कोमल नंदिनी थिएटर आर्टिस्ट थी. नंदिनी का थिएटर में काम करना पति रूपेश को पसंद नहीं था. एक दिन रिहर्सल के दौरान देर हो गई. घर जाने के लिए बस नहीं मिली तो उस के साथ काम करने वाला प्रीतम अपने स्कूटर पर उसे घर तक छोड़ने गया. घर पर उस का पति रूपेश गुस्से से भरा बैठा उस का इंतजार कर रहा था, जिस ने उसे खूब खरीखोटी सुनाई. रूपेश उसे बहुत कष्ट देता था. सास की मृत्यु के बाद घर में बूआ सास की हुकूमत चलती थी, जिस की खुद की जिंदगी काफी संघर्ष से बीती थी.
अभाव में पलीबढ़ी जिंदगी से बूआ सास हमेशा नकारात्मक सोच ही रखती थीं, जिस का प्रतिबिंब पति रूपेश पर भी गहरा पड़ा था.

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ज्योत्सना की खिलीखिली अनुभूतियां कितनी ही रातें नंदिनी को आसमान की सैर करा देती थीं, मगर आज रिसते दर्द पर शूल सा चुभ रहा था यह चांद. भूखीप्यासी वह तंद्राच्छन्न होने लगी ही थी कि अचानक लड़ाकू सैनिक सा रूपेश कमरे में आ धमका. बत्ती जला दी उस ने. वितृष्णा और प्रतिशोध से धधकते रूपेश को नंदिनी की शीलहीनता और कृतध्नता ही दिखाई देने लगी थी.

टूटी, तड़पती नंदिनी उठ कर बिस्तर परबैठ गई. ‘‘महारानी इधर आराम फरमा रही हैं… यह नहीं कि देखे बूआ सास और पति को क्या दिक्कतें हैं? बहुत सह ली मैं ने तुम्हारी मनमानी… बूआ ने सही चेताया है… ब्राह्मण परिवार की बहू को पराए मर्दों के साथ हजारों लोगों के सामने नौटंकी कराना हमारी बिरादरी में नहीं सुहाता. हमारे घर बेटी है. कभी बेटी की फिक्र भी करती हो? तुम्हारे 4-5 हजार रुपयों से हमें कोई फर्क नहीं पड़ने वाला… सोच लो वरना चली जाना हमेशा के लिए.’’

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रूपेश ने नंदिनी के थिएटर के प्रेम पर, उस के काम पर दफन की आखिरी मिट्टी डाल दी थी. थिएटर का काम अब फायदे वाला नहीं रह गया. इस में खर्चे तो बहुत पर कला के कद्रदान कम हो गए हैं. ऐसे में थिएटर में काम करने वालों को बहुत कम पैसे दिए जाते हैं. जो पुराने कलाकार हैं, जो कला के प्रति समर्पित हैं, उन्हें अपने फायदे का त्याग करना पड़ता है.

औडिटोरियम, लाइट्स, स्टेज सज्जा, वस्त्र सज्जा, साउंड इफैक्ट, स्पैशल इफैक्ट पर हर स्टेज शो के लिए कम से कम क्व30-40 हजार का खर्चा बैठता ही है और वह भी कम पैमाने के नाटक के लिए. ऊपर से प्रचार और विज्ञापन का खर्चा अलग से. ऐसे में शुभंकर दा या प्रीतम जैसे लोग अपना पैसा तो लगाते ही हैं, बाहर से भी मदद का जुगाड़ करते हैं. उन के समर्पण को देखते हुए नंदिनी जैसे कलाकार जो सिर्फ अपना थोड़ा समय और थोड़ी सी कला ही दे सकते हैं कैसे उन के साथ पैसे के लिए जिद करें?

अपने परिवार की ओछी सोच के आगे अगर नंदिनी जैसे लोग हार मान लें तो थिएटर जैसा रचनात्मक क्षेत्र लुप्तप्राय हो जाए. नंदिनी निढाल सी बिस्तर पर पड़ी रही. रूपेश नीचे जा चुका था.

सुबह के 5 बज रहे थे. नंदिनी बिस्तर समेट नहाधो आई. फिर वेणु को उठाया,

सोई निबटा कर वेणु को स्कूल बस तक छोड़ आई. आ कर सब को नाश्ता कराया. किसी ने उस से नहीं पूछा. वह खा नहीं पाई. घर के बाकी काम निबटाती रही.

रूपेश के औफिस जाने से पहले जिस का फोन आया, उस से वह बहुत उत्साहित हो कर बातें करने लगा. नंदिनी के पास इतना अधिकार नहीं रह गया था कि वह रूपेश से कुछ पूछ सके. फोन रख कर जैसाकि हमेशा बात करता था एक बौस की तरह अभी भी उसी अंदाज में नंदिनी से बोला, ‘‘ये रुपए पकड़ो, बाजार से जो भी इच्छा लगे ले आना. बढि़या व्यंजन बना कर रखना. शाम को मेरा दोस्त नयन और उस की पत्नी शहाना आ रहे हैं. कहीं जाने की गलती न करना वरना मुझ से बुरा कोई नहीं होगा.’’ यह कहीं का मतलब थिएटर ही था.

पत्नी से बात करना रूपेश ने कभी सीखा ही नहीं. अत: नंदिनी ने भी अपनी जिंदगी के अभावों से समझौता कर लिया था. मगर कल तक उस के नाटक का आखिरी रिहर्सल था. परसों से शो. कोलकाता के 2 हौल्स में टिकट बिकने को दिए गए थे. अब यह धोखा नंदिनी कैसे करे?

शाम को घर का माहौल काफी बदला सा था. करीने से सजे घर में महंगे डिजाइनर सैटों की साजसज्जा के बीच सलीके से सजी नंदिनी इतने शोर के बीच बड़ी शांत सी थी. शहाना शोरगुल के बीच भी नंदिनी पर नजर रखे थी. वेणु को भी वह काफी कटाकटा सा पा रही थी. कौफी का कप हाथ में लिए शहाना नंदिनी के पास जा पहुंची. फिर उस का हाथ पकड़ते हुए बोली, ‘‘चलो कहीं घूम आती हैं. अभी तो शाम के 6 ही बजे हैं… खाना 10 बजे से पहले खाएंगे नहीं.’’ ‘‘आप कहें तो मेरी पसंदीदी जगह चलें?’’

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‘‘नंदिनी मुझे तुम आप न कहो. चलो, चलें.’’ शहाना नंदिनी को ले पति बिरादरी के पास पहुंच चुकी थी. उन की बातें सुन नंदिनी अवाक रह गई. नयन भी तो पुरुष हैं, पति हैं, यह कैसे संभव हो पाया.

‘नथ: जेवर या जंजीर’ फेम करण खन्ना का बड़ा बयान- टीवी का उसूल है, ‘जो दिखता है वही बिकता है’

‘‘मुकद्दर का सिकंदर’’ सहित चार सौ फिल्मों के एक्शन डायरेक्टर रवि खन्ना के पोते और ‘जंजीर’,‘सुहाग’, ‘शपथ’,‘शराबी’ सहित तीन सौ से अधिक फिल्मों के एक्शन डायरेक्टर बब्बू खन्ना के बेटे करण खन्ना को लोग बतौर अभिनेता पहचानते हैं. जबकि करण खन्ना बतौर सहायक एक्शन डायरेक्टर व सहायक डांस डायरेक्टर के रूप में भी काफी काम कर चुके हैं.

सीरियल ‘महाभारत’ में एक्शन डिजायनर के रूप में काम करने के बाद करण खन्ना ने सीरियल ‘मनमर्जियां’ से अभिनय के क्षेत्र में कदम रखा था. वह ‘इश्कबाज’, ‘दिव्यदृष्टि’ और ‘बहू बेगम’ जैसे सीरियलों में निगेटिब किरदार निभाकर जबरदस्त शोहरत बटोर चुके हैं. अब वह ‘दंगल’ टीवी पर प्रसारित हो रहे ‘नथ उतराई ’ की कुप्रथा पर आधारित सीरियल ‘‘नथः जेवर या जंजीर’’ में अधिराज का निगेटिव किरदार निभा रहे हैं.

प्स्तुत है करण खन्ना से हुई एक्सक्लूसिब बातचीत के अंश..

आपके दादा व पिता एक्शन निर्देशक थे, इसलिए आपने भी बौलीवुड से जुड़ने का फैसला लिया?

– मैं बचपन से उनके साथ सेट पर जाता रहा हूं. तो मेरी परवरिश फिल्मी माहौल व फिल्मों के सेट पर ही हुई है. पढ़ाई का माहौल मेरे घर पर कभी नही रहा. हम हर दिन अपने आस पास जिस माहौल में रहते हैं, उसी से प्रेरित होते रहते हैं. मैं अपने पिता जी का काम देखकर ही प्रेरित हुआ हूं. क्योंकि दादा जी के साथ जब सेट पर जाता था, तब मेरी उम्र इतनी छोटी थी कि उस वक्त हम खेल में ही मस्त रहते थे. उस वक्त एक्शन वगैरह की बात समझ से परे थी. मेरे पिता जिस तरह से सेट पर काम करते थे, उनके अंदर जो लीडरशिप क्वालिटी थी, उससे मुझे काफी कुछ सीखने को मिला.

यह मनोरंजन जगत है, पर यहां भी लीडरशिप व अनुशासन का गुण आवश्यक है. मुझे लीड करना अच्छा लगता था. मेरा स्वभाव ऐसा है कि मैं किसी के अंदर काम नहीं कर सकता. वहां से ही कहीं न कहीं मेरी शुरूआत हुई थी. मगर मेरे पिता जी नही चाहते थे कि मैं स्टंट मैन बनूं. वह मुझे बतौर अभिनेता देखना चाहते थे. वह मुझसे कहते थे कि मेरे अंदर अभिनेता बनने के गुण हैं. मेरे पिता मेरे लिए सच का आइना हैं. यदि मैं खराब काम करता हूं, तो मेरे पिता मुझे सीधे जमीन पर गिरा देते हैं और कहते हैं कि यह तूने बहुत गंदा काम किया है. मेरे पिता जी बड़ी इमानदारी के साथ मेरे काम की समीक्षा करते हैं. इस कारण मुझे बाहरी आलोचकों की जरुरत नही पड़ती. तो कहीं न कहीं मैने भी अपने पिता के सपने को पूरा करने के लिए अभिनय को कैरियर बनाया.

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वैसे आज भी जब बतौर अभिनेता मैं काम नहीं कर रहा होता हूं, तो अपने पिता के साथ बतौर सहायक काम करने के लिए जाता हूं. पर पिता की बात मानकर एक्शन डायरेक्टर के रूप में कैरियर नहीं बनाया. दूसरी बात सीरियल ‘महाभारत’ के सेट पर सिद्धार्थ कुमार तिवारी ने मुझे एक्शन डिजाइन करते देखकर कहा कि मुझे अभिनेता होना चाहिए और उन्होंने मुझे सबसे पहले सीरियल ‘मनमर्जियां’ में अभिनय करने का अवसर दिया. इस सीरियल के सेट पर एक सीन को अंजाम देते समय मेरे अंदर से भी अभिनेता बनने की आवाज आयी, तो दोनों का मिश्रण है कि मैं अभिनय में ही धीरे धीरे कदम आगे बढ़ा रहा हूं.

पर आपने तो नृत्य का प्रशिक्षण हासिल किया और कुछ नृत्य निर्देशन भी किया है?

-जब मैं कालेज में पढ़ रहा था,उन दिनों मेरी रूचि नृत्य में काफी थी. मेरे पिता भी मेरा डांस देखकर कहते थे कि ‘यू आर फैंटास्टिक डांसर. अभिनेता बनने के लिए तुझे फाइट व डांस सहित सब कुछ आना चाहिए. ’नृत्य सीखने के लिए मैं टेरिंस लुईस की कक्षा में जाया करता था. मेरी प्रतिभा को देखकर टेरेंस लुईस सर ने मुझे तीन वर्ष की स्कॉलरशिप दी. इस तरह मुझे तीन वर्ष तक उनके साथ मुफ्त में डांस सीखने व काम करने का अवसर मिला था. तो मेरी डांस की यात्रा वहां से शुरू हुई, जब तक मेरी कालेज की पढ़ाई चल रही थी, तब तक मैने डांस सीखा और टेंरेस लुईस सर के साथ काम किया. उसके बाद नृत्य का प्रशिक्षण लेने के लिए मैं छह माह के लिए अमरीका भी गया था. अमरीका से वापस आते ही मुझे टीवी के रियालिटी शो ‘‘जस्ट डांस’’ से जुड़ने का अवसर मिला. इसमें रितिक रोशन, फरहा खान व वैभवी मर्चेंट जज थीं. इस शो का मैं फाइनालिस्ट था.फिर मैने अभिनय के क्षेत्र में कदम रख दिया.

उसके बाद फिर काफी नृत्य निर्देशन की इच्छा नहीं हुई?

मैने अपने पिता द्वारा निर्मित दो तीन म्यूजिक वीडियो में नृत्य निर्देशन किया. हम लोग राजेश खन्ना की अंतिम फिल्म ‘रियासत’ कर रहे थे, उसमें एक छोटा सा आइटम नंबर था, मैं सेट पर था, तो फिल्म के निर्देशक के कहने पर मैने उसका नृत्य निर्देशन किया था. इसके अलावा मैने एक वेब सीरीज के लिए एक गाने में कोरियाग्राफी किया था,बाद में वह वेब सीरीज में नजर नहीं आया. मैने डांस सीखा है. कैमरे की समझ है, तो उसे करने में तकलीफ नहीं होती. मैं घर पर खाली बैठने की बनिस्बत अपने ज्ञान का उपयोग करता रहता हूं.

एक बेहतरीन डांसर और कैमरे की समझ होना अभिनय में किस तरह से मदद करता है?

-सबसे पहले तो अच्छा डांसर होने पर कलाकार का पॉस्चर ही बदल जाता है. आपके अंदर एक ग्रेस आ जाता है. किसी भी किरदार को निभाते समय उसके पॉस्चर को पकड़ कर कलाकार पूरा गेम बदल सकता है. इसके लिए संवाद बोलना भी आवश्यक नही है. डांस मे महारत होने से आपका पॉस्चर, आपका अलाइनमेंट, आपका फ्लो व रिदम सटीक बन जाता है. हम संवाद अदायगी भी एक रिदम में ही करते हैं. हर चीज संगीत व रिदम पर आधारित है. मेरा मानना है कि नृत्य हर क्षेत्र में मदद करता है. मान लीजिए एक कलाकार बूढ़े इंसान का किरदार निभा रहा है. आपको पता है कि आपका यह पॉस्चर होना चाहिए.

बतौर अभिनेता सीरियल ‘‘मनमर्जिया’’ के बाद आपकी यात्रा कैसी रही?

-यूं तो ‘जस्ट डांस’ के बाद मुझे काफी आफर आए थे. पर वह कुछ वजहों से कर नहीं पाया. उस दौरान मेरे पिता जी का काम भी कुछ ज्यादा ही चल रहा था. उन दिनों मेरे पिता अंग्रेजी फिल्म ‘फारेन बी’ कर रहे थे. फिर सीरियल ‘महाभारत’ मिल गया था. सीरियल ‘महाभारत’ में मुझे स्पेशल पद दिया गया था. मैं इस सीरियल के लिए एक्शन को कागज पर डिजाइन करता था. सात आठ माह तो इसी में चले गए थे. फिर सिद्धार्थ तिवारी ने मुझे ‘मनमर्जिया’ में अभिनेता बनाया था.

‘मनमर्जिया’ के बाद मेरा अलग तरह का संघर्ष शुरू हुआ. इतना ही नहीं मुझे पैसे की तंगी का भी सामना करना पड़ा. मैने उन्नीस वर्ष की उम्र से ही कमाना शुरू कर दिया था. इसलिए पिता जी के सामने हाथ नहीं फैलाना चाहता था. पर मैं अपनी मर्जी के अनुसार खर्च नहीं कर पा रहा था. फिर मुझे सीरियल ‘इश्कबाज’ का ऑफर मिला. मुझे निगेटिव किरदार दक्ष खुराना करने के लिए कहा गया. मैने बिना कुछ सोचे ऑडीशन दे दिया.

सच कह रहा हूं मैने ‘इश्कबाज’ में निगेटिव किरदार दक्ष खुराना के लिए ऑडीशन महज पैसे के लिए दिया था. लेकिन इस सीरियल की टीम बहुत अच्छी थी. इसके निर्देशक ललित मोहन व आतिफ सर से काफी कुछ सीखने को मिला. इस सीरियल में मेरा एंट्री का सीन आतिफ सर ने फिल्माया था, जो कि आज तक का मेरा फेवरेट एंट्री सीन है. इस सीरियल से मेरे काम को सराहना मिली. सीरियल ‘इश्कबाज’ से ही मुझे बतौर अभिनेता पहचान मिली. लोग आज भी मुझे दक्ष के नाम से बुलाते हैं. मैं अभी यूट्यूब के लिए एक विज्ञापन फिल्म की शूटिंग कर रहा था. उनका पहला एडी बार बार कह रहा था कि दक्ष थोड़ा लेफ्ट में आ जाएं. जब मैंने टोका, तो उसने कहा कि करण भाई, मेरे दिमाग में तो दक्ष ही घुसा हुआ है. मैं सीरियल ‘इश्कबाज़’ की निर्माता गुल मैम का शुक्रगुजार हूं कि मुझे एक बेहतरीन टीम के साथ काम करने का मौका दिया और एक कलाकार के तौर पर मुझे विकसित होने का भी अवसर मिला. मुझे समझ में आया कि मेरी सीमाएं कितना पीछे हैं और उसे आगे ले जाना है.

‘इश्कबाज’ के बाद भी कुछ दिन का संघर्ष रहा. इसके बाद मुझे सीरियल ‘बहू बेगम’ करने का अवसर मिला. फिर मैने ‘दिव्य दृष्टि’ किया. आप यकीन नही करेंगे मेरे पास पूरे एक वर्ष तक काम नहीं था. मैं छुट्टी मनाने के लिए अपने दोस्त के घर पर दिल्ली में था. वहां पर मुझे फोन आया कि सीरियल ‘दिव्य दृष्टि’ के लिए मैं ऑडीशन दे दूं. मैं सिर्फ ऑडीशन देने के लिए पैसे खर्च कर दिल्ली से आना नहीं चाहता था. पर उसने कहा कि सीरियल की निर्माता मुक्ता मैम को सेल्फ टेस्ट चाहिए, तो मैने दिल्ली से ही सेल्फ टेस्ट वीडियो बनाकर भेजा. दूसरे दिन फोन आया कि मेरा चयन हो गया है और मैं दिल्ली से मुंबई आ गया. मैने काम किया, पर संघर्ष रहा है. मैं सोने का चम्मच लेकर नहीं पैदा हुआ. लोग आरोप लगाते हैं कि यहां पर नेपोटिजम है.

आपके दादा व पिता दोनो इसी इंडस्ट्री से हैं, तो फिर आपको संघर्ष क्यों करना पड़ा?

-मेरे दादा जी बोलते थे कि ‘किस्मत से बढ़कर,मुकद्दर से ज्यादा न कभी किसी को मिला है और न कभी किसी को मिलेगा.मेरे दादा रवि खन्ना जी ने ‘मुकद्दर का सिकंदर’ में एक्षन किया था,तो वह हमेषा यही संवाद सुनाया करते थे.जबकि मेरे पिता जी कहते हैं कि ‘यदि मैने तुझे किसी के पास सिफारिष लगाकर भेजा,पर तेरी किस्मत में नहीं होगा,तो वह काम नही मिलेगा.’ऐसे में हमने इतने वर्षों में जो इज्जत कमायी है, उसे दांव पर लगाएं.इसलिए तू खुद मेहनत कर.यदि तेरी किस्मत मंे लिखा होगा,तो तेरी मेहनत से तुझे काम मिलेगा.और उस काम में तुझे ज्यादा खुषी मिलेगी.इसलिए मेेरे पिता ने मेरे लिए किसी फिल्म या सीरियल वगैरह मेें पैसा लगाने से भी मना कर दिया.जब लोग नेपोटिजम की बात करते हैं,तो मुझे लगता है कि हर जगह नेपोटिजम काम नहीं करता,आपके अंदर टैलेंट का होना जरुरी है.मैं सीरियल ‘महाभारत’ में एक्षन डिजायनर था. सिद्धार्थ सर ने देखा,तो उन्होने ‘मनमर्जिया’ में मुझे अभिनेता बना दिया.

सीरियल ‘‘नथ जेवर या जंजीर’’ से जुड़ने की वजह क्या महज यह रही कि आपको काम की जरुरत थी?

-सर, टीवी का उसूल है ‘जो दिखता है,वही बिकता है.’टीवी की पहचान ऐसी होती है कि सीरियल का प्रसारण बंद होने के पांच छह माह बाद लोग कलाकार को भूल जाते हैं. लाक डाउन व कोरोना की वजह से मेरा पूरा परिवार बहुत गंदे फेज से गुजरा था.हमारे घर पर नौकरानी सहित सब कोरोना पाॅजीटिब हो गए थे. मैं पच्चीस दिन तक घर के अंदर कैद था.उससे पहले ‘‘अम्मा के बाबू की बेबी’ की पंद्रह पंद्रह घंटे चलने वाली षूटिंग पूरी हुई थी. उस वक्त जिम भी करता था.लेकिन फिर घर पर बैठ जाना मानसिक रूप से परेषान कर देने वाली स्थिति थी.मेरे मन में बार बार आ रहा था कि मुझे घर नही बैठना है.कोरोना का डर भी कम हो चुका था.मेरा वजन बढ़ गया था.मुझे दो सीरियल मिले थे,पर एन वक्त पर मेरे हाथ से निकल गए थे.ऐसे वक्त में मुझे ‘नथः जेवर या जंजीर’ का आफर मिला.इस सीरियल के निर्माता के साथ मैं पिछला सीरियल कर चुका था.इसलिए मैने इसे स्वीकार कर लिया.लोग कहते है कि कलाकार स्टीरियो टाइप काम कर रहा हे,मगर हकीकत में कलाकार को नही पता होता है कि उसे कौन देख रहा है? मैने सोचा कि हमारी झोली मंे जो गिर रहा है,उसे लपक लेना चाहिए.

सीरियल ‘‘नथः जेवर या जंजीर’’ में आपका किरदार क्या है?

-इसमें मैं अधिराज का किरदार निभा रहा हॅंू. आप नथ उतराई के बारे में तो जानेही है.गांव के ठाकुर अवतार ने अपने परिवार की वारिस के लिए तेजो संग नथ उतराई करता है और दो बच्चे पैदा होते हैं.एक बच्चे षंभू को लेकर ठाकुर चले जाते हैं,उन्हे लगता है कि दूसरा बच्चा मरा हुआ है.जबकि वह जिंदा था और वह अधिराज है.अधिराज अपनी मां तेजो के पास ही रहता है.वह नथ उतराई का परिणाम होता है,इसलिए काफी जलील किया जाता है.उसके मन में बार बार सवाल उठता है कि उसकी मां के साथ ही ऐसा क्यों हुआ?यदि ठाकुर मुझे भी अपने साथ ले जाते तो मेरा नाम व वजूद कुछ अलग होता.अब उसकी मां पागल हो गयी है.इसलिए अधिराज को वह खुन्नस है और वह ठाकुर खानदान से बदला लेना चाहता है.इसलिए वह बदला लेने के लिए अपने जुड़वा भाई षंभू और उसके परिवार से बदला लेने आया है.वह षतरंज का खेल खेलते हुए परिवार के एक एक सदस्य की वाट लगाने वाला है.

आपने एक स्क्रिप्ट भी लिखी है.तो आपको लिखने का शौक कब से है?

-सच कहॅंू तो मुझे लिखने का षौक नही रहा.मैं सोच सकता हॅूं,वीज्युलाइज कर सकता हॅंू.पर मुझसे लिखा नही जाता.लेकिन कोरोना के चलते कमरे में बंद था.अपने माता पिता से भी वीडियो काल पर ही बात कर पाता था.मैं बगल के कमरे मंे मौजूद अपने पिता से स्क्रिप्ट पर विचार विमर्ष भी फोन पर ही कर पाता था.उस दौरान मैने फिल्म ‘कभी खुषी कभी गम’ पांच बार देखी.तो करने को कुछ था नही.तो फरसत में मैने जो कुछ दिमाग मंे था,उसी पर स्क्रिप्ट लिख डाली.

क्या आपकी यह स्क्रिप्ट किसी सत्य घटनाक्रम पर है?

-जी हाॅ!ऐसा ही है.यह एक लड़की की यात्रा है.उसका काॅफीडेंस का स्तर षून्य पर होता है और कैसे उसका काॅफीडेंस का स्तर सौ पर पहुॅचता है. पर वह जमीन से जुड़ी रहती है.उसी की कहानी है.यह कहानी लोगों के लिए संदेष भी है कि आपको जो मुकाम मिल जाता है,वह कई बार आपकी प्रतिभा पर नहीं,बल्कि ईष्वर की मेहरबानी से मिलता है.उसका आप नाजायज फायदा मत उठाओ.सोषल मीडिया की वजह से एक रात में ही स्टार बन जाने वाले लोग यह नही जानते कि लोगों के साथ किस तरह सेव्यवहार किया जाए,तो ऐसे लोगों को मेरी यह फिल्म सीख देने वाली है.हम आज कल देख रहे हंै कि सोषल मीडिया की वजह से स्टार बने कलाकार को निर्माता अनुबंधित कर लेता है,जबकि उन्हे अभिनय का ‘ए’ भी नही पता होता.यह देखकर प्रतिभाषाली कलाकार को दुख पहुॅचता है.

सोशल मीडिया के फालोवअर्स कलाकार की फिल्म या सीरियल देखते हैं,यह कैसे माना जा सकता है?

-इसकी कोई गारंटी नही है.यह बात निर्माता निर्देषक को समझनी चाहिए कि केवल सोषल मीडिया पर फालोवअर्स आने से कलाकार की प्रतिभा को अंाकना गलत है.फालोवअर्स फिल्म या सीरियल देखेगा, यह सोचना भी पूरी तरह से गलत है. मुझे लगता है कि सोषल मीडिया को बहुत ही अलग अंदाज में लिया जा रहा है. नायरा बनर्जी के साथ आपके रिष्ते की भी चर्चाएं रही हैं? -वास्तव में हम आठ वर्ष पहले मिले थे.हमने ‘जय हो’’ गाने के नृत्य निर्देषक लाॅजनिस फर्नाडिष के एक षो को किया था.यह डांस षो ‘इफ्फी’ मंे हुआ था और इसमें मैं मुख्य डांसर था.इसमें नायरा ने दक्षिण की अदाकारा के रूप में डांस करने आयी थी.तब हम अच्छे दोस्त बन गए थे.फिर बात आयी गयी हो गयी.कुछ समय बाद मेरे पिता जी एक फिल्म बनाने वाले थे,उसकी कहानी सुनने के लिए वह हमारे घर आयी थी.पर बाद में यह फिल्म नही बनी.फिर चार वर्ष बाद हमारी मुलाकात सीरियल ‘‘दिव्यदृष्टि’’ मंे हुई.तब से हम अच्छे दोस्त हैं.फिर सना के साथ भी अच्छे संबंध रहे हैं. ‘दिव्यदृष् िट’ में नायर व मेरी जोड़ी थी,तो स्वाभाविक तौर पर हम ज्यादा करीब आते गए.लेकिन रिष्ते वाली बात नही हुई.पर हमारे बीच कोई रिष्ता नही रहा.

शरणागत- भाग 3: डा. अमन की जिंदगी क्यों तबाह हो गई?

यह सुन कर नीरा बेबसी से रो पड़ी. घर जाना नहीं चाहती थी और कोई ठौरठिकाना था नहीं. अमन उसे प्यार से समझाने लगा पर वह जिद पर अड़ गई. बोली, ‘‘मैं तो आप की शरण में हूं. आप मुझे अपना लो नहीं तो आत्महत्या का रास्ता तो खुला ही है,’’ और वह अमन के पैरों में झुक गई.

अमन बहुत बड़ी दुविधा में पड़ गया. उस ने नीरा को दिलासा दे कर पलंग पर बैठाया और फिर तेजी से बाहर निकल डा. जावेद के कमरे में पहुंच गया. वह उन्हें अपना बड़ा भाई व मार्गदर्शक मानता था. अमन ने अपनी सारी उलझन उन्हें कह सुनाई.

सब सुन कर डा. जावेद गंभीर हो गए. बोले, ‘‘मेरे विचार से तुम नीरा और उस के पारिवारिक झगड़े से दूर ही रहो. नीरा अभी नासमझ है. बहुत गुस्से में है, इसलिए ऐसा कह रही है. जब और कोई सहारा न मिलेगा तो खुद ही घर लौट जाएगी. अपनी सगाई न हो पाने का गुस्सा अपने परिवार पर निकाल रही है.’’

डा. जावेद की बातें उस के सिर के ऊपर से निकल रही थीं. अत: वह वहां से चुपचाप चला आया.

अमन सोच रहा था कि लड़की बेबस है, दुखी है. बड़ी उम्मीद से उस की शरण में आई है. अब वह उसे कैसे ठुकरा दे? इसी उधेड़बुन में वह अपने घर पहुंच गया.

अमन को देख मां और पिता खुश हो गए. मां जल्दी से चाय बना लाई. अमन गुमसुम सा अपनी बात कहने के लिए मौका ढूंढ़ रहा था.

पिता ने उस का चेहरा देख कर पूछा, ‘‘कुछ परेशान से लग रहे हो?’’

बस अमन को मौका मिला गया. उस ने सारी बात उन्हें बता दी. मातापिता हैरानपरेशान उसे देखते रह गए. थोड़ी देर कमरे में सन्नाटा छाया रहा. फिर पिताजी ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘‘ऐसा फैसला तुम कैसे ले सकते हो? अपने सगे मातापिता को ठुकरा कर आने वाली दूसरे धर्म वाली से विवाह? यह कैसे मुमकिन है? माना हम गरीब हैं पर हमारा भी कोई मानसम्मान है या नहीं?’’

मां तो आंसू भरी आंखों से अमन को देखती ही रह गईं. उन के इस योग्य बेटे ने कैसा बिच्छू सा डंक मार दिया था.

1 घंटे तक इस मामले पर बहस होती रही पर दोनों पक्ष अपनीअपनी बात पर अडिग रहे.

पिता गुस्से में उठ कर जाने लगे तो अमन भी उठ खड़ा हुआ. बोला, ‘‘मैं नहीं मानता आप के रूढि़वादी समाज को, आडंबर और पाखंडभरी परंपराओं को… मैं तो इतना जानता हूं कि एक दुखी, बेबस लड़की भरोसा कर के मेरी शरण में आई है. शरणागत की रक्षा करना मेरा फर्ज है,’’ कहता हुआ वह बार निकल गया.

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अस्पताल पहुंच कर अमन ने अपने खास 2-3 मित्रों को बुला कर उन्हें बताया कि वह नीरा से शादी करने जा रहा है. शादी कोर्ट में होगी.

यह सुन कर सारे मित्र सकते में आ गए. उन्होंने भी अमन को समझाना चाहा तो वह गुस्से में बोला, ‘‘तुम सब ने मेरा साथ देना है बस. मैं उपदेश सुनने के मूड में नहीं हूं.’’

‘विनाश काले विपरीत बुद्धि,’ कह कर सब चुप हो गए.

अमन अस्पताल से मिलने वाले क्वार्टर के लिए आवेदन करने चला गया. इस समय उस के दिमाग में एक ही बात चल रही थी कि नीरा उस की शरण में आई है. उसे उस की रक्षा करनी है.

नीरा का प्लस्तर खुल गया था. छड़ी की मदद से चलने का अभ्यास कर रही थी. धीरेधीरे बिना छड़ी के चलने लगी. 4 दिन बाद अस्पताल से छुट्टी होनी थी. अमन ने 2 दिन बाद ही अपने मित्रों के साथ जा कर कोर्ट में नीरा से शादी कर ली. फिर मित्रों के साथ जा कर घर का कुछ सामान भी खरीद लिया. क्वार्टर तो मिल ही गया था. नीरा अमन के साथ जा कर अपने और अमन के लिए कुछ कपड़े, परदे वगैरा खरीद लाई. दोनों ने छोटी सी गृहस्थी जमा ली.

डिस्चार्ज की तारीख को नीरा के पिता उसे लेने आए, परंतु जब उन्हें नीरा की अमन के साथ शादी की सूचना मिली तो उन के पैरों तले की जमीन खिसक गई. मारे गुस्से के वे अस्पताल के प्रबंध अधिकारी और डाक्टरों पर बरसने लगे. वह पुलिस को बुलाने की धमकी देने लगे. ये सब सुन कर अमन और नीरा अस्पताल आ पहुंचे. नीरा को देख पिता आगबबूला हो गए. नीरा पिता के सामने तन कर खड़ी हो गई. बोली, ‘‘आप पहले मुझ से बात करिए. मैं और अमन दोनों बालिग हैं… किसी पर तोहमत न लगाइए. हम ने अपनी इच्छा से शादी की है.’’

नीरा के पिता यह सुन कर हैरान रह गए. फिर पैर पटकते हुए वहां से चले गए.

उधर जब अमन के घर यह खबर पहुंची तो मातापिता दोनों टूट गए. पिता तो सदमे के कारण बुरी तरह डिप्रैशन में चले गए. मां के आंसू न थम रहे थे. डाक्टर ने बताया कि मानसिक चोट लगी है. इस माहौल से दूर ले जाएं. तब शायद तबीयत में कुछ सुधार आ जाए. दोनों बहनों ने अपनी बचत से मांपिताजी का हरिद्वार जाने और रहने का इंतजाम कर दिया.

2 महीने में ही नीरा अपनी दिनचर्या से ऊब गई. उसे अपने कालेज के लुभावने दिनों की याद आने लगी. कभी खाना बनाने का भी मूड न करता. कभी दालसब्जी कच्ची रह जाती, कभी रोटी जल जाती. उस ने अमन के सामने आगे पढ़ाई करने का प्रस्ताव रखा जिसे उस ने तुरंत मान लिया और घर के कामकाज के लिए एक नौकरानी का इंतजाम कर दिया.

अमन की सादगी का फायदा उठाते हुए नीरा ने अपने परिवार से भी मोबाइल के जरीए टूटे रिश्ते जोड़ लिए. अब वह कभीकभी कालेज के बाद अपने मायके भी जाने लगी. अमन इन सब बातों से बेखबर था. वह जीजान से नीरा को खुश रखने की कोशिश करता.

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कुछ समय बाद अमन को लगा कि नीरा में बहुत बदलाव आ गया है. वह कालेज से आ कर या तो लैपटौप पर चैट करती है या फिर मोबाइल पर धीरेधीरे बातें करती रहती है. अमन कब आया, कब गया, खाना खाया या नहीं उसे इस बात का कोई ध्यान नहीं रहता. उस ने सबकुछ नौकरानी पर छोड़ दिया था.

अमन अंदर ही अंदर घुटने लगा. उस ने पाया कि आजकल नीरा बातबात में किसी राहुल नाम के प्रोफैसर का जिक्र करती है जैसे कितना अच्छा पढ़ाते हैं, बहुत बड़े स्कौलर हैं, देखने में भी बहुत स्मार्ट हैं आदिआदि.

अमन ने कहा, ‘‘भई, ऐसे सभी गुणों से पूर्ण व्यक्ति से हम भी मिलना चाहेंगे. कभी उन्हें घर बुलाओ.’’

यह सुन कर नीरा कुछ सकपका सी गई.

पीएम ने दिया महिला सशक्तिकरण पैकेज

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने प्रयागराज में महिला सशक्तिकरण के लिए विशेष पैकेज की घोषणा की. महिलाओं को सहायता प्रदान करने के क्रम में प्रधानमंत्री ने ₹1,000 करोड़ की धनराशि स्वयं सहायता समूहों के खातों में अंतरित किया, जिससे स्वयं सहायता समूहों की लगभग 16 लाख महिला सदस्यों को फायदा होगा. यह अंतरण दीनदयाल अंत्योदय योजना-राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (डीएवाई-एनआरएलएम) के तहत किया गया, जिसके अनुसार प्रति समूह ₹1.10 लाख के हिसाब से 80 हजार समूहों को समुदाय निवेश निधि (सीआईएफ) तथा ₹15 हजार प्रति स्वयं सहायता समूह के हिसाब से 60 हजार समूहों को परिचालन निधि प्राप्त हो रही है.

प्रधानमंत्री द्वारा 20 हजार बीसी सखियों (बैंकिंग कॉरेस्पॉन्डेन्ट सखी) के खातों में पहले महीने का ₹4,000 मानदेय हस्तांतरित किया गया.

बीसी-सखियां जब घर-घर जाकर जमीनी स्तर पर वित्तीय सेवायें उपलब्ध कराती हैं, तो उन्हें छह महीने के लिये ₹4,000 मानदेय दिया जाता है, ताकि वे स्थायी रूप से काम कर सकें और उसके बाद लेन-देन से मिलने वाले कमीशन से उन्हें आय होने लगे.

प्रधानमंत्री ने मुख्यमंत्री कन्या सुमंगल योजना के तहत एक लाख से अधिक लाभार्थियों को ₹20 करोड़ से अधिक की धनराशि भी हस्तांतरित किया. इस योजना से कन्याओं को उनके जीवन के विभिन्न चरणों में शर्तों के साथ नकद हस्तांतरण मिलता है. प्रति लाभार्थी हस्तांतरित की जाने वाली कुल रकम 15 हजार रुपये है. विभिन्न चरणों में: जन्म (₹2,000), एक वर्ष होने पर सारे टीके लग जाना (1,000), कक्षा-प्रथम में दाखिला लेना (₹2,000), कक्षा-छह में दाखिला लेना (₹2,000), कक्षा-नौ में दाखिला लेना (₹3,000) कक्षा-दस या बारह उत्तीर्ण होने के बाद किसी डिग्री/डिप्लोमा पाठ्यक्रम में दाखिला लेना (₹5,000) शामिल हैं.

प्रधानमंत्री ने 202 पूरक पोषण निर्माण इकाइयों की आधारशिला भी रखी. इन इकाइयों का वित्तपोषण स्वसहायता समूह कर रहे हैं तथा इनके निर्माण में प्रति इकाई के हिसाब से लगभग एक करोड़ रुपये का खर्च बैठेगा. यह इकाइयां राज्य के 600 प्रखंडों में एकीकृत बाल विकास योजना (आईसीडीएस) के तहत पूरक पोषण की आपूर्ति करेंगी.

क्रिसमस स्पेशल: कुट्टू के आटे का केक

फेस्टिवल के मौके पर कुछ नयी रेसिपी आपको बताते हैं. क्रिसमस के दौरान आप कुट्टू के आटे का केक बनाकर अपने मेहमानों को सरप्राइज दे सकती हैं. यह रेसिपी बच्चों के साथ साथ बड़ों को भी काफी पसंद आएगी.

सामग्री

  • 1 चम्मच शहद
  • 1/4 चम्मच बेकिंग पाउडर
  • 1/4 चम्मच बेकिंग सोडा
  • 2 बड़े चम्मच तेल
  • 2 बड़े चमच्च काजू, बादाम कटे हुए
  • 1 चम्मच किशमिश
  • 1 कप कुट्टू का आटा
  • 1/2 कप केला मैश किया हुआ
  • 1/4 कप दही
  • 1/4 कप दूध
  • 1/4 कप चीनी

बनाने की वि​धि

  • एक बोल में कुट्टू का आटा, बेकिंग पाउडर, बेकिंग सोडा डालकर मिक्स करें.
  • दूसरे बाउल में दही, तेल, शहद, मैश किया हुआ केला, चीनी डालकर उसे मिला लें.
  • फिर इसमें आटे वाला मिक्सचर डालकर मिक्स करें। अब दूध डालकर मिला लें और केक का घोल बनाएं.
  • इसके बाद एक कटोरी में ड्राई फ्रूट और किशमिश डालकर थोड़ा-सा कुट्टू का आटा डालकर मिक्स कर लें.
  • अब इस मिश्रण वाले बोल में डालकर मिलाएं और केक मोल्ड को ग्रीस करें और कुट्टू के आटे से डस्ट करे.
  • अब ओवन को 180डिग्री पर 10 मिनट तक प्री-हीट करें.
  • केक के मिश्रण को मोल्ड में डालें और ऊपर से बचा हुआ ड्राई फ्रूट डाल दें.
  • केक को 25 मिनट तक बेकिंग मोड पर बेक होने दें.
  • इसके बाद स्ट्रौबेरी से सजाएं, ऊपर से कटे हुए काजू डालें.
  • आपका केक तैयार है, आप ठंडा होने के बाद काटकर सर्व करें.

क्यों फरहान अख्तर की नई फिल्म की वजह से डूबेंगे नए फिल्ममेकर वाईन अरोड़ा के लाखों रूपए

चंडीगढ़ निवासी निर्माता, निर्देशक व अभिनेता वाईन उर्फ विनय अरोड़ा इन दिनों काफी परेशान हैं. मशहूर अभिनेता फरहान अख्तर की महज एक छोटी सी जिद के चलते विनय अरोड़ा को लाखों रूपए की चपत लगने जा रही है. वास्तव में मार्च 2019 में विनय अरोड़ा ने चंडीगढ़ में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस करके हिंदी फीचर फिल्म ‘जी ले जरा‘ के निर्माण की घोशणा कर शूटिंग शुरू करने की तैयारी में लग गए.

विनय अरोड़ा अपनी इस फिल्म के माध्यम से महिलाओं के बर्ताव व उनके रवैये आदि को लेकर पुरूश सशक्तिकरण की बात करना चाहते हैं. उनकी राय में महिलाओं के ऊपर तो काफी फिल्में बनी और महिला सशक्तिकरण की बातें भी होती हैं. लेकिन पुरुष इम्पॉवरमेंट की बात कभी भी नहीं होती है. लेकिन जब तक वह शूटिंग शुरू करते तब तक कोरोना महामारी के चलते लॉक डाउन लग गया और सब कुछ ठप्प पड़ गया.

कोरोना महामारी व लॉक डाउन के शिथिल होने पर जैसे ही विनय अरोड़ा ने अपनी फिल्म ‘‘जी ले जरा’’ की शूटिंग शुरू करनी चाही, तो उन्हें खबर मिली कि मशहूर निर्माता निर्देशक व अभिनेता फरहान अख्तर ने उन्हीं के फिल्म के नाम पर यानि ‘जी ले जरा‘ नामक फिल्म बनाने की घोषणा कर दी. इससे निर्माता निर्देशक व अभिनेता वाईन अरोड़ा सदमे में आ गए और काफी परेशान है. जिसके कारण वाईन अरोड़ा के मित्र व निर्देशक गुरुदेव अनेजा ने उन्हें मीडिया के जरिए अपनी बात पहुंचाने की सलाह दी.

इस संबंध में मीडिया से बात करते हुए वाईन उर्फ विनय अरोड़ा ने कहा- ‘‘हम लोग नए थे. हमने फिल्म बनाने का ऐलान चंडीगढ़ में मार्च 2019 में कर दिया था. उस वक्त हमने सोचा था कि जब हम मुंबई जाएंगे, तो इम्पा में जाकर फिल्म का टाइटल रजिस्टर करवा लेंगे. फिर हमने यह भी सोचा कि हमने तो प्रेस कॉन्फ्रेंस कर दिया और हर जगह छप गया, तो अब यह टाइटल हमारा हो गया. अब इस नाम से कोई दूसरा निर्माता फिल्म नहीं बनाएगा. इसलिए हम शांत रहे. इसी बीच कोरोना आ गया और हमारा मुंबई जाना नहीं हुआ. इसलिए टाइटल रजिस्टर करवाना बाकी रह गया. जिसका फायदा फरहान अख्तर ने उठा लिया.‘‘

फरहान अख्तर के संदर्भ में वाईन अरोड़ा कहते हैं- ‘‘वह बड़े लोग हैं. उनकी फिल्मे मुझे काफी अच्छी लगती हैं. उनको शायद पता नहीं होगा कि मैं ‘जी ले जरा‘ नाम से फिल्म की तैयारी कर चुका हूं और करीब तीन साल पहले ही इसके लिए प्रेस कॉन्फ्रेंस इत्यादि भी कर चुका हूं.

मैं फरहान अख्तर जी से निवेदन करता हूं कि वह यह टाईटल मुझे देने की कृपा करें. क्योंकि मेरी पूरी फिल्म के लिए यह सबसे उचित टाइटल है. हमने इस पर कई लाख रूपए खर्च कर दिए हैं. जबकि फरहान जी की फिल्म अभी शुरुवाती चरण में है. मैं अपनी फिल्म के प्रचार, लेखन व बाकी चीजों पर लाखो खर्च किया और मैं इतना बड़ा इंसान नहीं हूं कि फिर से दुबारा लाखों खर्च कर पाउंगा. यदि फरहान अख्तर जी यह टाइटल दे देते हैं, तो उनका तो कुछ नहीं जाएगा. लेकिन मेरे लाखों बर्बाद होने से बच जाएंगे.

जब मां का इश्क चढ़ा परवान, ले ली अपने ही बेटे की जान

सौजन्या- सत्यकथा

10अगस्त को भागवत नाम के एक बुजुर्ग व्यक्ति की शिकायत सुन कर थाना समानपुर के प्रभारी उमाशंकर यादव सन्न रह गए. उन्होंने हैरत से उस बुजुर्ग पर नाराजगी जताते हुए कहा, ‘‘क्या अनापशनाप बोल रहे हो? ऐसा भी भला कहीं होता है क्या?’’

‘‘जी साहब, मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि मेरी बहू कविता ने ही 15 साल के अपने बेटे को मारा है क्योंकि वह बदचलन है,’’ बुजुर्ग विश्वास दिलाते हुए बोला.

‘‘तुम्हारे पोते की लाश कहां है?’’ थानाप्रभारी ने पूछा.

‘‘साबजी, लाश दफना दी गई है. आप उस का पोस्टमार्टम करवा लेंगे तो सच्चाई सामने आ जाएगी,’’ बुजुर्ग बोले.

थानाप्रभारी यादव को जब बुजुर्ग भागवत ने अपनी बहू कविता के बारे में विस्तार से जानकारी दी तो वह माजरा समझ गए. भागवत ने थानाप्रभारी को जो कुछ बताया, वह इस प्रकार है—

3 अगस्त, 2021 की सुबह 9 साढ़े 9 बजे के करीब भागवत को अपने 15 वर्षीय पोते सोनू की मृत्यु की खबर मिली थी. सोनू अपने गांव में ही अपनी मां कविता के साथ रहता था. वह घर पास में ही था. कविता का पति शिवराज घर वालों से अलग गांव के बाहर ही रहता था. काम की वजह से उस का आसपास गांवों में आनाजाना लगा रहता था. वह अपने पिता से 8-10 दिनों बाद मिलने आ जाया करता था.

शिवराज डिंडोरी में पिछले कुछ महीने से रह रहा था. उस के अलग रहने का कारण उस की पत्नी कविता ही थी. वह उस के व्यवहार और आचरण से वह दुखी था.

भागवत की बातें सुनने के बाद थानाप्रभारी यादव ने मामले को गंभीरता से लिया. उन्होंने इस की जानकारी एसपी संजय कुमार सिंह को दी. उस के बाद अदालत के आदेश पर सोनू की दफन लाश को निकलवा कर उस का पोस्टमार्टम कराया. पोस्टमार्टम से यह स्पष्ट हो गया कि उस की मृत्यु किसी बीमारी से नहीं, बल्कि सिर में चोट लगने से हुई थी.

पोस्टमार्टम में हत्या की बात सामने आते ही पुलिस ने तुरंत सोनू की मां कविता और उस के तथाकथित प्रेमी लालसिंह को पूछताछ के लिए थाने बुलवा लिया. उन से सख्ती से पूछताछ की गई.

थाने में उन के खिलाफ सबूत होने की बात कही गई तो कविता ने भी सोनू की मौत से जुड़ी सारी बातें बता दीं. इस के बाद सोनू की हत्या का सच कुछ इस प्रकार सामने आया—

कविता की जब शिवराज के साथ शादी हुई थी, तब वह मात्र 16-17 साल की थी. आदिवासी परिवार में जन्मी कविता सांवली हो कर भी काफी सुंदर दिखती थी. उस के जैसा समाज में दूरदूर तक कोई नहीं था.

उस की नाकनक्श, बड़ीबड़ी आंखें, काले लहराते केश, उन्नत उभार, सुडौल मांसल देह के कमर की लचक आदि पहली नजर में ही किसी को भी आकर्षित करने के लिए काफी थी.

इसलिए उस के चाहने वालों की कमी नहीं थी. इस में कविता को भी अच्छा लगता था कि वह कइयों की पसंद बन चुकी है. वह गांव में सभी से हंसबोल कर बातें करती थी, लेकिन किसी को अपने करीब आने से रोकने में भी चतुर थी. बड़ी चतुराई से अपने दीवानों से पल्ला झाड़ लिया करती थी.

शिवराज की दुलहन बनने के बाद कविता और भी बेफिक्री के साथ कभी अपने मायके तो कभी ससुराल आतीजाती रहती थी. क्योंकि उस की ससुराल मायके के पास स्थित गांव में ही थी. बहुत जल्द ही उस के अल्हड़पन से ससुराल के युवक और दूसरे उम्रदराज मर्द भी परिचित हो गए थे.

उस पर प्यार का भूत सवार हो चुका था. वह चाहती थी कि पति शिवराज हमेशा उस के साथ रहे. सारे कामधंधे को छोड़ उस की मरजी के मुताबिक उस के साथ बना रहे. और वह हमेशा शिवराज की बाहों में ही सिमटी रहे.

लेकिन रोज खानेकमाने वाले शिवराज के लिए यह कतई संभव नहीं था. कविता तन की प्यासी थी, जबकि उस का पति शिवराज पेट की आग बुझाने की चिंता में घुलता रहता था.

उस ने प्यार से कविता को समझाया कि वह उस के साथ हमेशा कमरे में ही बंद रहेगा तो उन का और परिवार का पेट कैसे भरेगा. कविता को शिवराज की बातों का कोई असर नहीं होता था.

तन की प्यासी कविता अपने मन को नहीं समझा पाई. नतीजा यह हुआ कि वह दूसरी राह तलाशने लगी. सुंदर तो वह थी ही, इसलिए ससुराल के गांव में भी उस के चाहने वालों की कमी नहीं थी. फिर क्या था, उस ने शिवराज की गैरमौजूदगी का नाजायज फायदा उठाया और कई युवकों से संबंध बना लिए. किसी के साथ मजेदार बातें कर दिल बहलाया तो किसी के साथ हमबिस्तर हो कर तनमन की प्यास बुझाई.

इस की जानकारी जल्द ही शिवराज के मातापिता को भी हो गई. लोग गांव में ही दबी जुबान से कविता की बदचलनी की चर्चा करने लगे. भागवत को इस से काफी दुख पहुंचा.

भागवत ने बहू पर लगाम लगाने की कोशिश की. किंतु कोई नतीजा नहीं निकला. उल्टे घर में आए दिन विवाद होने लगा. फिर एक दिन विवाद इतना अधिक बढ़ गया कि शिवराज और कविता गांव में ही अलग रहने लगे.

अपनी ससुराल के घर से अलग रहना कविता के लिए यह और भी अच्छी बात हुई. उस की एक तरह से मन की मुंहमांगी मुराद पूरी हो गई थी. संयोग से पड़ोस में ही रहने वाले लालसिंह को वह पहले से जानती थी.

वह भी कविता का आशिक बना हुआ था, लेकिन उस ने कभी भी अपनी मंशा जाहिर नहीं की थी. कविता के पड़ोस में आने पर एक दिन उस ने मौका पा कर अपने दिल की बात कह डाली.

बदले में छोटीमोटी जरूरतों के लिए घर और बाजार के काम में वह उस की मदद करने लगा. इस तरह से वह शिवराज का दोस्त बन गया. संयोग से दोनों शराब के प्रेमी थे. अभी तक शिवराज घर से बाहर ही शराब पीता था, लेकिन लालसिंह के कहने पर शिवराज घर पर ही शराब पीने लगा.

लालसिंह उस के लिए शराब लाया करता था. दोनों शराब की पार्टी करने लगे. शिवराज और लालसिंह के साथसाथ कविता भी शराब पीने लगी.

उधर कविता ने मर्दों की आशिकी और मतलबी दुनिया को काफी नजदीक से देखा था. इसलिए वह जल्द ही लालसिंह की मंशा को भी भांप गई. एक समय ऐसा भी आया जब लालसिंह ने शिवराज को नशे में धुत कर दिया और कविता को अपनी बाहों में भर लिया. कविता इसी इंतजार में थी. उस की मंशा पूरी हो गई.

गांव में काम नहीं मिलने की स्थिति में शिवराज मजदूरी करने के लिए कई हफ्तों और महीनों तक बाहर रहता था. इस का फायदा उठाकर कविता की रातें लालसिंह के जरिए ही रंगीन होती थी.

समय बीतते देर नहीं लगती है. कविता एक बच्चे की मां बनी और धीरेधीरे उस का बेटा सोनू 15 साल को भी हो गया. फिर भी कविता के चालचलन में कमी नहीं आई.

थोड़ा फर्क यह हुआ कि अब वह शिवराज के अलावा सिर्फ लालसिंह की ही चहेती थी. एक के लिए वैध बीवी थी, तो दूसरे के साथ अवैध रखैल की जिंदगी से खुश थी. उसे भी शराब की लत लग चुकी थी.

उधर उस का बेटा सोनू किशोरावस्था में पहुंच चुका था. उस का लगाव जितना अपनी मां और पिता से नहीं था, उस से कहीं अधिक वह दादादादी के करीब था. उस का ज्यादा समय दादादादी के साथ ही बीतता था. वे भी सोनू को बहुत प्यार करते थे.

वह कभीकभार ही अपने घर जाता था. कविता के लिए यह और भी अच्छा था. क्योंकि लालसिंह बेफिक्री से उस के पास आताजाता था.

सोनू के दादा भागवत को भी कविता और लालसिंह के संबंधों के बारे में भनक लग चुकी थी. इस कारण वह रात के समय सोनू को अपनी मां के पास सोने के लिए भेजने लगे थे.

इसे ले कर कविता और लालसिंह के अवैध संबंधों की जिंदगी में खलल पड़ने लगी. कविता ने जल्द ही इस का हल निकाल लिया. वह बेटे सोनू के सो जाने के बाद लालसिंह को पीछे के दरवाजे से घर बुलाने लगी.

सब कुछ पहले जैसा चलने लगा. घटना 2 अगस्त, 2021 की है. सोनू अपने नियत समय पर मां कविता के पास आया और सीधे अपने कमरे में सोने के लिए चला गया.

आधी रात होने पर लालसिंह शराब की बोतल ले कर कविता के पास पहुंचा. दोनों ने पहले बोतल खाली की, फिर अय्याशी के नशे मे डूब गए.

उस रोज कविता को कुछ ज्यादा ही नशा हो गया था. इसलिए उसे इस बात का ध्यान नहीं रहा कि उस का किशोर उम्र का बेटा भी घर में मौजूद है.

नशे में दोनों कुछ ज्यादा ही मस्ती करने लगे, जिस से शोर होने पर सोनू की नींद टूट गई. उसे मां अपने कमरे में नहीं दिखी तो वह पास वाले दूसरे कमरे में चला गया. कमरे के खुले दरवाजे पर जा कर उस ने जो देखा तो उस की आंखें फटी की फटी रह गईं. मां और पड़ोस के काका लालसिंह को निर्वस्त्र लिपटे देख कर वह सन्न रह गया.

सोनू इतना तो समझ ही गया था कि उस की आंखों के सामने जो कुछ था, वह गलत था. वह समझ नहीं पाया कि क्या करे. वह तुरंत वहां से भाग कर अपने बिस्तर में आ कर एक चादर के नीचे दुबक गया.

दरवाजे पर सोनू के आने और उस के हड़बड़ा कर भागने से हुई आवाज की आहट कविता और लालसिंह को भी हुई. वह समझ गए कि उन्हें सोनू ने देख लिया है. लालसिंह तुरंत कपड़े पहन कर भागने लगा, तो कविता ने उसे रोक दिया.

उस ने धीमी आवाज में कहा, ‘‘सोनू ने हम दोनों को रंगेहाथों देख लिया है. सुबह होते ही वह सारी बात अपने दादादादी को बता देगा. उस के बाद बखेड़ा खड़ा हो जाएगा. फिर हम दोनों के खिलाफ कुछ भी कदम उठाए जा सकते हैं.’’

‘‘इस पर क्या किया जाए?’’ लालसिंह ने पूछा तो कविता चुपचाप उठी और कमरे में गई, वहां कोने से 2 लाठी निकाल लाई. एक लाठी लालसिंह को पकड़़ाई और दूसरी अपने हाथ में ले कर सोनू के कमरे की ओर जाने के लिए मुड़ी.

तब तक लालसिंह भी समझ चुका था कि आगे क्या करना है. कुछ पल में ही दोनों बिछावन पर चादर के नीचे बिस्तर में दुबके सोनू के कमरे में थे. उन्होंने एकदूसरे को देखा और एक साथ लाठी से उस के ऊपर वार करने लगे. लगातार लाठी की मार से सोनू की वहीं मृत्यु हो गई.

यह देख कर कविता ने राहत की सांस ली. उस के बाद सुबह होते ही लालसिंह अपने घर चला गया और कविता ने फोन लगा कर अपने पति को बेटे सोनू के मौत की खबर दे दी. उस ने पति को बताया कि रात में उठी खांसी से उस की मौत हो गई. चूंकि सोनू किशोर था, इसलिए उस की लाश दफन कर दी गई थी.

कविता अपनी योजना मे सफल हो गई थी, लेकिन सोनू की मौत उस के दादा के गले नहीं उतर रही थी. इसलिए उन्होंने 8 दिन बाद थाने में जा कर अपना शक जाहिर करते हुए थानाप्रभारी से हत्या की शिकायत दर्ज की.

उस के बाद पुलिस ने काररवाई कर आरोपी कविता और उस के प्रेमी लालसिंह के खिलाफ काररवाई कर उन दोनों को कोर्ट में पेश किया, जहां से उन्हें जेल भेज दिया गया.

परिवार: खिलौने बदल दें लड़कियां बदल जाएंगी

बच्चा जिन खिलौनों से खेलता है, वे खिलौने उस के भविष्य की दिशा, उस का व्यक्तित्व, उस की आदतें, उस की इच्छाएं और उस के तमाम कार्यकलापों को तय करते हैं. ब्रिटेन की विदेश मंत्री एलिजाबेथ ट्रूस, जो पहले वहां की शिक्षा मंत्री भी रह चुकी हैं, ने 7 साल पहले बच्चों के खिलौनों और खिलौनों के जरिए लिंगभेद के मुद्दे को बड़ी गंभीरता से उठाया था.

उन्होंने कहा था कि खिलौने बच्चों के कैरियर को, उन के भविष्य को और उन की पूरी जिंदगी को प्रभावित करते हैं. उन्होंने खासतौर पर ऐसे खिलौनों पर आपत्ति उठाई थी जिन में लड़के और लड़की का फर्क नजर आता है. मिसाल के तौर पर लड़कियों के लिए गुडि़या, किचन सैट, टी सैट, ड्राइंगरूम-सैट, मेकअप किट जैसे खिलौने और लड़कों के लिए ट्रेन, कार, ऐरोप्लेन, रोबोट, बैटबौल, बैडमिंटन, फुटबौल जैसे खिलौने.

खिलौनों को ले कर पूरी दुनिया के लोगों की जो सोच व दृष्टिकोण है, उस के मुताबिक गुडि़या कभी भी लड़कों के खेलने की चीज नहीं है और कार या बंदूक से लड़कियां नहीं खेलती हैं. हमारा बेटा अगर बहन की गुडि़या से खेलने लगे तो हम उस को डांट कर कि ‘तुम लड़की हो क्या?’ उस से गुडि़या छीन लेते हैं.

वहीं हम और आप गिफ्ट में कभी अपनी बेटियों को इलैक्ट्रौनिक सामान, बिल्ंिडग ब्लौक या रोबोट जैसे खिलौने ला कर नहीं देते हैं. हम उन के लिए बाजार से सिर्फ गुडि़या या डौल हाउस जैसे खिलौने ही लाते हैं. क्या लड़कियां रोबोट या कार देने पर उस से नहीं खेलेंगी? जरूर खेलेंगी, मगर पितृसत्तात्मक समाज उसे ऐसे खिलौनों से खेलने नहीं देता है जो उन की गणितीय और तकनीकी क्षमता में इजाफा करे.

शिक्षा मंत्री एलिजाबेथ ट्रूस ने आगाह किया कि जैंडर बायस्ड (लिंग पक्षपाती) खिलौने बच्चे के कैरियर को प्रभावित करते हैं. एलिजाबेथ ने कहा कि लड़के लड़की में फर्क करने वाले खिलौने खासतौर पर लड़कियों के व्यक्तित्व और कैरियर को प्रभावित करते हैं. गुडि़या या किचन सैट से खेलने वाली बच्ची का ?ाकाव बचपन से ही घरगृहस्थी की चीजों के प्रति ही रहेगा. वह उन्हीं चीजों में सुख ढूंढ़ लेगी और हो सकता है वह साधारण गृहिणी मात्र ही बन कर रह जाए. एलिजाबेथ ट्रूस ने अभिभावकों को सावधान करते हुए कहा था कि कुछ खास तरह के खिलौनों की वजह से लड़कियां विज्ञान और गणित जैसे विषयों से दूर हो जाती हैं.

एलिजाबेथ ट्रूस की चिंता को औफिस फौर नैशनल स्टेटिस्टिक्स या ओएनएस के आंकड़े भी सही ठहराते हैं. ओएनएस का सर्वे कहता है कि ब्रिटेन में 80 प्रतिशत विज्ञान, शोध, इंजीनियरिंग और तकनीकी पेशेवर पुरुष हैं. भारत में तो ऐसा सर्वे कभी हुआ नहीं, मगर यहां भी इन क्षेत्रों में लड़कियों की संख्या नाममात्र की ही है.

ओएनएस की रिपोर्ट के अनुसार, ब्रिटेन में चिकित्सा और देखभाल से जुड़े अन्य सेवा क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों का 82 प्रतिशत हिस्सा महिलाओं का है और प्रशासनिक व सचिवालय संबंधी रोजगार में भी वहां महिलाओं का हिस्सा 78 प्रतिशत है. ये वे क्षेत्र हैं जिन में सेवाभाव की अधिकता है. दूसरों की देखभाल, उन की जरूरतें पूरी करने का जज्बा ज्यादा है, लेकिन तकनीकी क्षेत्रों, सैन्य क्षेत्रों और साहस दिखाने वाले अन्य क्षेत्रों से औरतें दूर हैं.

भारत में महिलाओं के सशक्तीकरण की खूब बातें होती हैं. हर राजनीतिक पार्टी औरत को सशक्त करने की योजनाओं की लंबीचौड़ी फेहरिस्त ले कर चुनाव में उतरती है, मगर उस का सशक्तीकरण कभी हो नहीं पाता, उलटे बलात्कार, घरेलू हिंसा और हत्या के मामले बढ़ते जा रहे हैं.

भारत में शायद ही कभी किसी नेता ने बेटियों के विषय में एलिजाबेथ ट्रूस जैसी गहरी सोच और चिंता जाहिर की हो. दरअसल, हम भारतीय तो कभी इस सोच और चिंता के निकट से भी नहीं गुजरे. हम ने कभी इतनी गहराई में जा कर नहीं सोचा कि खिलौनों का बच्चियों के कोमल मनमस्तिष्क पर कितना गहरा प्रभाव पड़ सकता है.

पढ़ेलिखे मांबाप जो अपनी बेटियों की पढ़ाई और कैरियर को ले कर गंभीर हैं उन्होंने भी अपनी बेटियों को उन के बचपन में कभी बस, कार, ट्रेन, मोटरसाइकिल, बंदूक, आउटडोर गेम्स के किट, बिल्ंिडग ब्लौक और रोबोट जैसे खिलौने ले कर नहीं दिए होंगे. उन के जन्मदिन पर गुडि़यों, किचन सैट जैसे खिलौने ही आते होंगे.

हम अपने बच्चों को बचपन से ही घुट्टी के साथ यह फर्क पिला रहे हैं, उन्हें कमजोर रख रहे हैं, उन में साहस और हिम्मत पैदा नहीं होने दे रहे हैं और उस के बाद यह उम्मीद भी करते हैं कि बेटियां बेटों के समान कुछ बड़ा करें, कुछ बन कर दिखाएं, यह कैसे संभव है?

आलोचकों का कहना है कि खिलौनों से जुड़ा कारोबार लड़केलड़कियों के लिए बनाए जाने वाले खिलौनों में फर्क करता है. वे कहते हैं कि लड़कियों के लिए गुडि़या, रसोई का सामान जैसे खिलौने बनाए जाते हैं, वहीं लड़कों के लिए ‘स्टाइल’ और ‘ऐक्शन से भरपूर खिलौने, जैसे रेसिंग कार वगैरह बनाए जाते हैं. यही खिलौने किसी बच्चे की रुचि को सीमित करने में अपनी भूमिका अदा करते हैं. अलगअलग तरह के खिलौने अलगअलग तरह के संदेश देते हैं.

खिलौनों के पीछे काम करने वाली पुरुष मानसिकता खिलौनों के जरिए समाज को यह संदेश पंहुचाती है कि लड़कों को मजबूत और आक्रामक होना है और लड़कियों को कोमल व निरीह बने रहना है. खिलौना कंपनियां लड़कों के लिए मारधाड़, मशीनी और इसी तरह के अन्य खिलौने बनाती हैं, जबकि लड़कियों के लिए ‘स्त्रीस्वभाव के अनुरूप’ खिलौने बनाए जाते हैं. यह ‘स्त्रीस्वभाव’ वाली बात वे खुद ही तय कर लेते हैं.

आरिफ, जो एक साइंस टीचर हैं, कहते हैं, ‘‘खिलौनों में शिक्षा के अलगअलग पहलू छिपे होते हैं. आप अपने बच्चों को खेलने के लिए जो खिलौने उन की 6 महीने की उम्र में दे रहे हैं, वे बहुत अहम होते हैं जो बाद में उन के कैरियर पर भी असर डालते हैं. रचनात्मक खेल (क्रिएटिव प्ले) बच्चों में आत्मविश्वास, रचनात्मकता और संचार कौशल को बढ़ाने में फायदेमंद होते हैं, लेकिन पुराने चले आ रहे स्टीरियोटाइप ने एक्टिविटीज पर एक ठप्पा लगा दिया है कि ये एक विशेष जैंडर के लिए हैं.’’

आरिफ सवाल उठाते हैं कि लड़कियों को बचपन से आउटडोर गेम्स किट क्यों नहीं दिए जाते? क्या आप ने कभी सोचा है कि यह किस ने तय किया कि किस खिलौने से लड़की और किस खिलौने से लड़का खेलेगा? बचपन पर यह बंधन क्यों हैं? गूगल पर अगर लड़के और लड़कियों के लिए खिलौने सर्च करें तो आप को खिलौनों में फर्क साफ नजर आएगा. क्या आप ने कभी सोचा है कि लड़की के लिए पिंक और लड़के के लिए ब्लू रंग ही क्यों सलैक्ट किया जाते हैं? क्योंकि पिंक सुंदरता का प्रतीक होता है और ब्लू को आप आसमान से जोड़ते हैं कि जो असीमित है यानी आकाश या समुद्र. नीला रंग मजबूती बताता है. यह बड़ी साजिश है औरतों के खिलाफ, जो सदियों से रची जा रही है.

आरिफ कहते हैं, ‘‘आप यह क्यों नहीं मानते कि आप की बेटी भी गुडि़या छोड़ कर फुटबौल खेल सकती है? आप उस को आउटडोर गेम्स और कोडिंग टौयज के लिए प्रोत्साहित तो करिए. आप क्यों अपनी बेटियों को ड्रैसिंगअप होने की ट्रेनिंग देते हैं, मधुर वाणी में बात करने की ट्रेनिंग देते हैं, सौफ्ट रहने की ट्रेनिंग देते हैं, घर सजाने और कुकिंग की ट्रेनिंग देते हैं? आप ये ट्रेनिंग लड़कों को दीजिए, देखिए समाज में कितना बेहतर परिवर्तन आएगा. लड़कों में थोड़ी शालीनता विकसित होगी और समाज में अपराध कम होंगे.’’

वे आगे कहते हैं, ‘‘लड़कियों के खिलौनों में पितृसत्तात्मक सोच साफ नजर आती है. उस के खिलौनों में उस की नर्चरिंग रोल या पालनपोषण करने वाली भूमिका दिखाई देती है. वहीं लड़कों के लिए एडवैंचर से जुड़े खिलौने, जैसे रोबोट, गाडि़यां या गन आदि पुरुषों की आक्रामकता को दिखाता है. कई दुकानोंमें तो लड़कियों और लड़कों के खिलौने के सैक्शन ही अलगअलग होते हैं, तो वहां जा कर बच्चों को लगता है कि यही खिलौने मेरे लिए हैं.’’

‘‘ये जैंडर स्टीरियोटाइप बच्चों के क्रिएटिव या रचनात्मक विकास पर प्रभाव डालते हैं और आगे जा कर वे कैसा कैरियर चुनें, उस पर भी असर पड़ता है. खिलौने एक बच्चे के विकास में अहम होते हैं. ऐसे में जैंडर न्यूट्रल के अलावा ऐसे खिलौने बनाए जाएं जो बच्चों का भावनात्मक, सामाजिक, नैतिक और संज्ञानात्मक विकास करने में मदद करें. मेरे हिसाब से खिलौनों का न कोई रंग तय होना चाहिए न जैंडर.’’

दुनिया में ज्यादातर खिलौना कंपनियां जैंडर आधारित खिलौने ही बना रही हैं. उन का मानना है कि लोग ऐसे ही खिलौने खरीदना पसंद करते हैं. उन के सामने मांग और सप्लाई की समस्या है. ऐसे में यदि लोगों की मांग बदल जाए तो ये कंपनियां जैंडर न्यूट्रल खिलौने बनाने के लिए मजबूर होंगी. इस से खिलौना इंडस्ट्री की छोटी कंपनियों को भी प्रेरणा मिलेगी और वे भी उन के नक्शेकदम पर चलेंगी और इस से ऐसे खिलौनों की मांग भी बढ़ेगी.

अगर हमें अपनी बेटियों को सशक्त बनाना है, हिम्मती और ताकतवर बनाना है तो इस की शुरुआत उन के खिलौने बदल कर करनी चाहिए. त्योहारों पर बेटी को बेटे की तरह ही एंजौय करने दीजिए जाकि उस में आत्मविश्वास पैदा हो. यही आत्मविश्वास बेटी को मजबूत करेगा और बेटी को भी लगेगा कि वह बेटों से कम नहीं है.

न्याय, कानून, लोकतंत्र

जब प्रधानमंत्री ने राष्ट्र को संबोधन में कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा कर दी तो भी किसानों के नेता बिना न्यूततम मूल्य की गारंटी और किसानों पर दर्ज हुए मुकदमे वापस लेने की जिद पर क्यों अड़े रहे? इसलिए कि वे जमीनी आदमी हैं और जानते हैं कि सरकारी मशीनरी कैसे हर अधिकार को तोड़मरोड़ कर नागरिकों को सिर्फ परेशान ही नहीं करेंगी, जेलों में सड़ा भी सकती है.

उन्हें भरोसा था कि बिना गारंटी के न्यूततम मूल्य की नीति कभी बनेगी नहीं और मुकदमे वापस नहीं हुए तो पुलिस अफसर किसानों और उन के नेताओं को वर्षों जेलों व अदालतों में घसीटेंगे. एक उदाहरण तेलंगाना का ले जहां सरकार भारतीय जनता पार्टी की भी नहीं है. वहां एक आदमी ने कुछ के साथ बेईमानी की, वादा किया कि पैसा लगाओ, दोगुना हो जाएगा. यह ऐसा गुनाह था जिस के लिए आमतौर पर मजिस्ट्रेट ही जमानत दे देता है और बाद में यदि पैसा न लौटाया, तो ही जेल में डाला जाता है.

पर न जाने क्यों उस पर भारीभरकम नाम वाले तेलंगाना प्रिवैंशन औफ डैंजरस एक्टिविटीज औफ बूटलैगर्स, ड्रग औफैंडर्स, गुंडाज, इममोरल ट्रैफिक औफैंडर्स, लैंड ग्रैबर्स, स्पूरियस सीड औफैंडर्स, इंसैक्तिसाइड औफैंडर्स, फर्टिलाइजर औफैंडर्स, फूड एडलट्रेशन औफैंडर्स, फेक डौक्यूमैंट औफैंडर्स, एसेंशियल कौमोडिटीज औफैंडर्स, फौरेस्ट औफेंडर्स, गेमिंग औफैंडर्स, सैक्सुअल औफैंडर्स, एक्सप्लोसिव सब्सटैंस औफैंडर्स, आर्म्स औफैंडर्स, साइबर क्राइम औफैंडर्स एंड व्हाइट कौलर औफैंडर्स और फाइनैंशियल औफैंडर्स एक्ट 1910 के अंतर्गत उसे प्रिवैंटिव डिटैंशन में ले कर जेल में बंद कर दिया गया.

आदेश में साफ था कि सारे गुनाह भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत प्रावधानों वाले किए गए हैं और उन से सार्वजनिक अव्यवस्था फैलने की कोई गुंजाइश न थी पर पुलिस को किसी के इशारे पर तो उसे बंद करना ही था और इसलिए ऊपर लिखे कानूनों का इस्तेमाल किया गया जिन में मजिस्ट्रेट के पास कोई जमानत देने का अधिकार नहीं है. कुछ लोगों को धोखा देकर उन से पैसे जमा करवा कर न लौटाना एक अनुबंध के न मानने का काम है जिस के लिए सिविल कोर्ट में मुकदमा दायर किया जाता है और जीत जाने पर दूसरा पक्ष सपंत्ति कुर्क तक करा सकता है.

शायद किसी की कहीं पहुंच होगी कि इस मामले में भारतीय दंड संहिता और भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता कानूनों को भी छोड़ कर उपद्रवी कानून लगा डाला गया और कमिश्नर औफ पुलिस, साइबराबाद, तेलंगाना ने अभियुक्त को बिना किसी मुकदमे के केवल एतियातन जेल में एक साल के लिए बंद कर डाला. लंबी अदालती कार्रवाई के बाद 2 अगस्त, 2021 को लगभग 10 महीने बाद सुप्रीम कोर्ट से वह रिहा हुआ.

क्या यह न्याय है? क्या यह लोकतंत्र है? अगर किसान इस बात को समझते हैं तो इसलिए कि उन्हें मालूम होता है कि गांव का कौनकौन बेगुनाह जेल में पुलिस की घौंस की वजह से सड़ रहे हैं. जिस देश में इस तरह के कानून हों जिन में किसी भी नागरिक को सार्वजनिक उपद्रव होने के अंदेशे को ले कर महीनोंसालों बंद किया जा सकता है, उसे लोकतंत्र कहना गलत है. उस के प्रधानमंत्री को कोई हक नहीं कि वह अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन की समिट औफ डैमोक्रेसी, लोकतंत्र के शिखर सम्मेलन, में भारत के लोकतंत्र का बखान करे.

देशभर की जेलें बेगुनाहों से भरी हैं. जनवरीफरवरी 2020 में उत्तरपूर्व दिल्ली में हिंदू भीड़ों द्वारा मुसलिम घरों पर किए गए हमलों में बीसियों पीड़ितों को आज भी जेल में बंद कर रखा है और हिंदू दंगाई खुलेआम भगवा पट्टा डाले घूम रहे हैं. जब तक उपद्रवी कानून है, यह होगा और किसानों व नेताओं ने इसी के बचाव की गारंटी ले कर ही कुछ आगे बढऩे का फैसला किया.

एमएसपी : ठगा जा रहा है अन्नदाता

अगर किसान को उस की फसल की लागत से थोड़ा अधिक पैसा मिल जाए तो वह संतुष्ट हो कर अगली फसल के लिए बेहतर बीज, खाद और पानी का इंतजाम कर सकेगा. इस से फसल भी अच्छी, अधिक और उम्दा होगी और इस का सीधा असर उस की खुशहाली पर दिखेगा.

कमजोर तबकों को जो अनाज बांटा जाता है, उस की क्वालिटी भी अच्छी होगी. अच्छे अनाज, दालें और सब्जियों का सीधा संबंध हमारी सेहत से है. लेकिन केंद्र और राज्य की सरकारें किसान की फसल के लिए एमएसपी तय करने में नानुकुर करती हैं. लिहाजा, न तो किसान अच्छे बीज खरीद पाता है, न खाद, न पानी, कीटाणुनाशक दवाओं आदि की व्यवस्था भी नहीं कर पाता है. कई बार तो पैसे के अभाव में अगली फसल की बोआई तक नहीं होती. खेत खाली ही पड़े रहते हैं.

हम में से बहुत से लोग वाकिफ नहीं होंगे कि यह एमएसपी क्या होता है और यह कैसे तय किया जाता है, इस से किसानों को क्या फायदा है. न्यूनतम सर्मथन मूल्य यानी एमएसपी किसानों की फसल की सरकार द्वारा तय कीमत होती है.

एमएसपी के आधार पर ही सरकार किसानों से उन की फसल खरीदती है. राशन सिस्टम के तहत जरूरतमंद लोगों को अनाज मुहैया कराने के लिए इस एमएसपी पर सरकार किसानों से उन की फसल खरीदती है. हालांकि उन किसानों की तादाद महज 6 फीसदी है, जिन को एमएसपी रेट मिल रहे हैं.

हर साल फसलों की बोआई से पहले उस का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय हो जाता है. बहुत से किसान तो एमएसपी देख कर ही फसल की बोआई करते हैं. सरकार विभिन्न एजेंसियों, जैसे एफसीआई आदि के माध्यम से किसानों से एमएसपी पर अनाज खरीदती है. एमएसपी पर खरीद कर सरकार अनाजों का बफर स्टौक बनाती है.

सरकारी खरीद के बाद एफसीआई और नैफेड के गोदामों में यह अनाज जमा होता है. इस अनाज का इस्तेमाल गरीब लोगों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली यानी राशन प्रणाली में वितरण के लिए होता है.

केरल सरकार ने तो सब्जियों के लिए भी आधार मूल्य तय करने की पहल की है. सब्जियों का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने वाला केरल पहला राज्य बन गया है. सब्जियों का यह न्यूनतम या आधार मूल्य उत्पादन लागत से तकरीबन 20 फीसदी अधिक होता है. केरल में एमएसपी के दायरे में फिलहाल 16 तरह की सब्जियों को लाया गया है.

एमएसपी कौन तय करता है

सरकार हर साल रबी और खरीफ सीजन की फसलों का एमएसपी घोषित करती है. फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य कृषि लागत और मूल्य आयोग तय करता है. यह आयोग तकरीबन सभी फसलों के लिए दाम तय करता है, जबकि गन्ने का समर्थन मूल्य गन्ना आयोग तय करता है.

मूल्य आयोग समय के साथ खेती की लागत के आधार पर फसलों की कीमत तय कर के अपने सु?ाव सरकार के पास भेजता है. सरकार इन सु?ाव पर स्टडी करने के बाद एमएसपी की घोषणा करती है.

किन फसलों का होता है एमएसपी

कृषि लागत एवं मूल्य आयोग हर साल खरीफ और रबी सीजन की फसल आने से पहले एमएसपी की गणना करता है. इस समय  23 फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य सरकार तय करती है, जिन में मुख्य हैं : धान, गेहूं, मक्का, जौ, बाजरा, चना, तुअर, मूंग, उड़द, मसूर, सरसों, सोयाबीन, सूरजमुखी, गन्ना, कपास और जूट वगैरह. एमएसपी के लिए अनाज की 7, दलहन की 5, तिलहन की 7 और 4 कमर्शियल फसलों को शामिल किया गया है. जाहिर है कि तय राशि मिलने से किसान आढ़तियों और कालाबाजारी करने वालों की साजिश का शिकार होने से बच जाते हैं.

सब को नहीं मिलती एमएसपी

कोई किसान नहीं चाहता कि उस की फसल एमएसपी से कम दाम पर बिके, लेकिन 94 फीसदी किसानों को अपनी फसल औनेपौने दामों पर आढ़तियों को बेचनी पड़ती है. जिन किसानों की फसलें एमएसपी पर बिकती हैं, उन के सामने भी संकट कम नहीं हैं.

कई बार जब फसल की बिक्री का समय आता है, तो मंडियों में सरकारी खरीद केंद्रों पर फसलों से भरे ट्रैक्टरों व ट्रकों की लंबी लाइनें लग जाती हैं. किसानों को अपनी फसल बेचने के लिए कईकई दिनों इंतजार करना पड़ता है.

इस के अलावा अधिकतर सरकारी केंद्रों पर कुछ न कुछ दिक्कतें रहती हैं. कभी लेबर की कमी, तो कभी सरकारी खरीद केंद्र तय समय से बहुत देरी से खुलते हैं. इस के चलते किसानों को अपनी फसल कम दाम पर आढ़तियों को बेचनी पड़ती है, जिस से उन्हें काफी नुकसान होता है.

कई बार तो किसानों को नुकसान इतना अधिक होता है कि अगली फसल के लिए बीज, खाद, पानी, बिजली, कीटनाशक और लेबर का खर्चा निकालना उन के लिए संभव नहीं  होता है. ऐसे में वह कर्ज के बोझ तले दबता चला जाता है.

एक अनुमान के मुताबिक, देश में केवल 6 फीसदी किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी का फायदा मिलता है, जिन में से सब से ज्यादा किसान उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा के हैं.

यह दर बहुत ही कम है. इस को बढ़ाए जाने की जरूरत है, ताकि ज्यादा से ज्यादा किसान अपनी लागत पर कुछ अतिरिक्त कमा सकें और उस पूंजी का इस्तेमाल अपनी अगली फसल को बेहतर बनाने में कर सकें.

एमएस स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें

प्रख्यात कृषि वैज्ञानिक प्रो. एमएस स्वामीनाथन को हरित क्रांति का जनक कहा जाता है. उन की अगुआई में 18 नवंबर, 2004 को राष्ट्रीय किसान आयोग का गठन किया गया था. इस आयोन ने 4 अक्तूबर, 2006 को अपनी 5वीं और अंतिम रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी.

रिपोर्ट का उद्देश्य कृषि क्षेत्र में व्यापक और स्थायी बदलाव लाने के साथसाथ खेती को कमाई व रोजगार का जरीया बनाना था. उन्होंने किसानों की आय बढ़ाने के लिए जो सु?ाव दिए थे, अगर वे लागू कर दिए जाते तो देशभर के किसानों की दशा बदल जाती. लेकिन मोदी सरकार ने उन की 201 सिफारिशों में से मात्र  25 को ही बमुश्किल लागू किया है और वह भी जमीनी स्तर पर पूरी तरह फायदा नहीं दे रही हैं.

महात्मा गांधी ने 1946 में कहा था कि जो लोग भूखे हैं, उन के लिए रोटी भगवान है. देश में जबजब किसान आंदोलन होता है व किसान जब सड़क पर आते हैं, तबतब स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों की चर्चा होती है.

भूमि सुधार के लिए आयोग की सिफारिशें

इस रिपोर्ट में भूमि सुधारों की गति को बढ़ाने पर खास जोर दिया गया है. सरप्लस व बेकार पड़ी जमीनों को भूमिहीनों में बांटना, आदिवासी क्षेत्रों में पशु चराने के हक यकीनी बनाना व राष्ट्रीय भूमि उपयोग सलाह सेवा सुधारों के विशेष अंग हैं.

किसानों की आत्महत्या रोकने के लिए आयोग की सिफारिशों में किसान आत्महत्या की समस्या के समाधान, राज्य स्तरीय किसान कमीशन बनाने, सेहत सुविधाएं बढ़ाने व वित्त बीमा की स्थिति पुख्ता बनाने पर भी विशेष जोर दिया गया है.

एमएसपी औसत लागत से 50 फीसदी ज्यादा रखने की सिफारिश भी की गई है ताकि छोटे किसान भी मुकाबले में आएं, यही ध्येय खास है. किसानों की फसल के न्यूनतम समर्थन मूल्य कुछेक नकदी फसलों तक सीमित न रहें, इस लक्ष्य से ग्रामीण ज्ञान केंद्र व मार्केट दखल स्कीम भी लौंच करने की सिफारिश रिपोर्ट में है.

सिंचाई के लिए

सभी को पानी की सही मात्रा मिले, इस के लिए रेन वाटर हार्वेस्टिंग व वाटर शेड परियोजनाओं को बढ़ावा देने की बात रिपोर्ट में है. इस लक्ष्य से पंचवर्षीय योजनाओं में ज्यादा धन आवंटन की सिफारिश की गई है.

फसली बीमा के लिए

रिपोर्ट में बैंकिंग व आसान वित्तीय सुविधाओं को आम किसान तक पहुंचाने पर विशेष जोर दिया गया है. सस्ती दरों पर फसल लोन मिले यानी ब्याजदर सीधे 4 प्रतिशत कम कर दी जाए. कर्ज उगाही में नरमी यानी जब तक किसान कर्ज चुकाने की स्थिति में न आ जाए, तब तक उस से कर्ज न वसूला जाए. उन्हें प्राकृतिक आपदाओं में बचाने के लिए कृषि राहत फंड बनाया जाए.

उत्पादकता बढ़ाने के लिए

भूमि की उत्पादकता बढ़ाने के साथ ही खेती के लिए ढांचागत विकास संबंधी बातें भी रिपोर्ट में कही गई हैं. मिट्टी की जांच व संरक्षण भी एजेंडे में है. इस के लिए मिट्टी के पोषण से जुड़ी कमियों को सुधारा जाए व मिट्टी की टैस्टिंग वाली लैबों का बड़ा नैटवर्क तैयार हो.

खाद्य सुरक्षा के लिए

प्रति व्यक्ति भोजन की उपलब्धता बढ़े, इस मकसद से सार्वजनिक वितरण प्रणाली में आमूल सुधारों पर बल दिया गया है. कम्यूनिटी फूड व वाटर बैंक बनाने व राष्ट्रीय भोजन गारंटी कानून की संस्तुति भी रिपोर्ट में है.

इस के साथ ही वैश्विक सार्वजनिक वितरण प्रणाली बनाने की सिफारिश की गई है, जिस के लिए जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) के एक फीसदी हिस्से की जरूरत होगी. उन्होंने लिखा है, ‘महिला स्वयंसेवी ग्रुप की मदद से ‘सामुदायिक खाना और पानी बैंक’ स्थापित करने होंगे, जिन से ज्यादा से ज्यादा लोगों को खाना मिल सके. कुपोषण को दूर करने के लिए इस के अंतर्गत प्रयास किए जाएं.’

वादा तो था स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश लागू करने का, पर अब एमएसपी ही खतरे में है.

स्वामीनाथन आयोग की एक प्रमुख सिफारिश एमएसपी को ले कर थी. उन्होंने कहा कि किसानों को उन की फसलों के दाम उन की लागत में कम से कम 50 प्रतिशत जोड़ कर दिया जाना चाहिए. देशभर के किसान इसी सिफारिश को लागू करने की मांग ले कर सड़कों पर कई बार आंदोलन कर चुके हैं.

कभी गन्ने के बकाया भुगतान को ले कर, तो कभी प्याज की अचानक घट जाती कीमतों को ले कर, तो कभी कारपोरेट के इशारे पर जमीन के जबरन अधिग्रहण को ले कर, तो कभी बिजली, खाद, डील को रियायती दर पर देने की मांग को ले कर, तो कभी अपनी उपज की वाजिब कीमत को ले कर देश का किसान सड़कों पर उतरता रहा है. लेकिन तमाम वादे करने के बाद भी स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को न तो संप्रग सरकार ने लागू किया और न ही वर्तमान भाजपा सरकार ने.

भाजपा ने साल 2014 के आम चुनाव के समय अपने घोषणापत्र, जिसे वह ‘संकल्पपत्र’ कहती है, में वादा किया है कि वह फसलों का दाम लागत में 50 प्रतिशत जोड़ कर के देगी. लेकिन जब हरियाणा के एक आरटीआई एक्टिविस्ट पीपी कपूर ने आरटीआई दायर कर के सरकार से इस वादे के बारे में पूछा, तो सरकार ने जवाब दिया कि वह इसे लागू नहीं कर सकती है.

विडंबना है कि जो लोग सरकारी नौकरियों में हैं, उन का वेतन तो 150 गुना तक बढ़ाया गया है और किसान के लिए यही वृद्धि 70 बरस में सिर्फ 21 गुना तक बढ़ी है. लगता यही है कि पूरा तंत्र ही किसानों का विरोधी है.

सरकार क्यों नहीं दे रही एमएसपी की गारंटी

सरकार का सोचना है कि एमएसपी से देश में महंगाई बढ़ेगी. इस से सरकारी खजाने पर बो?ा के साथसाथ आम उपभोक्ताओं की जेब पर भी भारी बो?ा पड़ेगा. कृषि उपज में महंगाई की आग भड़केगी, जिस से रसोईघर की लागत बढ़ जाएगी.

सरकार कहती है कि किसानों के लिए कहने को तो यह न्यूनतम समर्थन मूल्य है, लेकिन बाजार में यही अधिकतम मूल्य बन कर महंगाई का दंश देगा. इस से मुट्ठीभर किसानों का हित भले ही हो, पर उपभोक्ताओं के लिए एमएसपी मुश्किलों का सबब बन जाएगा.

आमतौर पर एमएसपी पर होने वाली सरकारी खरीद में अनाज की गुणवत्ता भी सवालों के घेरे में होती है. इस से सरकारी खरीद एजेंसी भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) को सालाना कई हजार करोड़ रुपए की चपत लगती है.

खराब अनाज ही राशन में बांटने की होगी मजबूरी

एमएसपी की गारंटी पर खाद्यान्न की खरीद बढ़ने के साथ कम गुणवत्ता वाले अनाज की खरीद भी अधिक करनी पड़ेगी. लिहाजा, सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत गरीब उपभोक्ताओं को घटिया अनाज प्राप्त करना उन की नियति बन जाएगी.

आमतौर पर मुफ्त अनाज मिलने की वजह से उन का मुखर विरोध कहीं सुनाई नहीं पड़ता. लिहाजा, इस का पूरा खमियाजा सरकारी खजाने के साथ गरीबों और आम उपभोक्ताओं को भुगतना पड़ेगा. इन्हीं गंभीर चुनौतियों को ध्यान में रख कर पहले की सरकारें भी एमएसपी की गारंटी देने से बचती रही हैं.

पीडीएस में जाता है 90 फीसदी अनाज

सरकारी एजेंसियां सालाना 3.50 करोड़ टन से ले कर 3.90 करोड़ टन तक गेहूं और 5.19 करोड़ टन तक चावल की खरीद करती हैं. गेहूं व चावल की ही सर्वाधिक खरीद होती है, जो कुल पैदावार का 30 फीसद होता है. सरकारी खरीद का 90 फीसदी हिस्सा पीडीएस में वितरित किया जाता है, जबकि 10 फीसदी हिस्सा स्ट्रैटेजिक बफर स्टौक के तौर पर रखा जाता है. एमएसपी पर होने वाली खरीद केवल 6 फीसद किसानों से ही होती है.

एमएसपी को ले कर ज्यादातर किसान अनजान

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) के मुताबिक, देश के मुश्किल से 10 फीसदी किसानों को ही एमएसपी अथवा न्यूनतम समर्थन मूल्य के बारे में जानकारी है. एमएसपी पर होने वाली सरकारी खरीद का कोई निश्चित क्वालिटी मानक न होने से जैसा भी अनाज बिकने को आता है, सरकारी एजेंसियों पर उन्हें खरीदने का दबाव होता है. यही वजह है कि एफसीआई हर साल कई लाख टन अनाज डैमेज क्वालिटी के नाम पर कौडि़यों के भाव नीलाम करती है.

बढ़ रहा है खाद्य सब्सिडी का बोझ

एमएसपी में लगातार होने वाली वृद्धि और पीडीएस पर बहुत ज्यादा रियायती दरों पर खाद्यान्न के वितरण से खाद्य सब्सिडी का बो?ा बढ़ता जा रहा है. पिछले 20 सालों में खाद्य सब्सिडी 18,000 करोड़ रुपए से बढ़ कर 1.50 लाख करोड़ रुपए हो गई है.

समर्थन मूल्य की गारंटी के साथ सरकारी खरीद कई गुना तक बढ़ सकती है. इतने अधिक अनाज को रखने और उस की खपत कहां होगी, इस का बंदोबस्त करना संभव नहीं होगा. स्वाभाविक तौर पर खुले बाजार में अनाज की कमी का सीधा असर कीमतों पर पड़ेगा, जो महंगाई को सातवें आसमान पर पहुंचा देगा.

ये तमाम बातें सरकार को एमएसपी की गारंटी देने से रोकती हैं. एमएसपी पर सरकारी खरीद चालू रहे और उस से कम पर फसल की खरीद को अपराध घोषित करना इतना आसान नहीं हैं जितना किसान संगठनों को लग रहा है.

यह भी सच है कि सरकार हर किसान का अनाज नहीं खरीद सकती. लिहाजा, खुला बाजार और मंडी में बैठे कालाबाजारियों के हाथों किसान लुटता व बरबाद होता रहेगा.

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