बच्चा जिन खिलौनों से खेलता है, वे खिलौने उस के भविष्य की दिशा, उस का व्यक्तित्व, उस की आदतें, उस की इच्छाएं और उस के तमाम कार्यकलापों को तय करते हैं. ब्रिटेन की विदेश मंत्री एलिजाबेथ ट्रूस, जो पहले वहां की शिक्षा मंत्री भी रह चुकी हैं, ने 7 साल पहले बच्चों के खिलौनों और खिलौनों के जरिए लिंगभेद के मुद्दे को बड़ी गंभीरता से उठाया था.

उन्होंने कहा था कि खिलौने बच्चों के कैरियर को, उन के भविष्य को और उन की पूरी जिंदगी को प्रभावित करते हैं. उन्होंने खासतौर पर ऐसे खिलौनों पर आपत्ति उठाई थी जिन में लड़के और लड़की का फर्क नजर आता है. मिसाल के तौर पर लड़कियों के लिए गुडि़या, किचन सैट, टी सैट, ड्राइंगरूम-सैट, मेकअप किट जैसे खिलौने और लड़कों के लिए ट्रेन, कार, ऐरोप्लेन, रोबोट, बैटबौल, बैडमिंटन, फुटबौल जैसे खिलौने.

खिलौनों को ले कर पूरी दुनिया के लोगों की जो सोच व दृष्टिकोण है, उस के मुताबिक गुडि़या कभी भी लड़कों के खेलने की चीज नहीं है और कार या बंदूक से लड़कियां नहीं खेलती हैं. हमारा बेटा अगर बहन की गुडि़या से खेलने लगे तो हम उस को डांट कर कि ‘तुम लड़की हो क्या?’ उस से गुडि़या छीन लेते हैं.

वहीं हम और आप गिफ्ट में कभी अपनी बेटियों को इलैक्ट्रौनिक सामान, बिल्ंिडग ब्लौक या रोबोट जैसे खिलौने ला कर नहीं देते हैं. हम उन के लिए बाजार से सिर्फ गुडि़या या डौल हाउस जैसे खिलौने ही लाते हैं. क्या लड़कियां रोबोट या कार देने पर उस से नहीं खेलेंगी? जरूर खेलेंगी, मगर पितृसत्तात्मक समाज उसे ऐसे खिलौनों से खेलने नहीं देता है जो उन की गणितीय और तकनीकी क्षमता में इजाफा करे.

शिक्षा मंत्री एलिजाबेथ ट्रूस ने आगाह किया कि जैंडर बायस्ड (लिंग पक्षपाती) खिलौने बच्चे के कैरियर को प्रभावित करते हैं. एलिजाबेथ ने कहा कि लड़के लड़की में फर्क करने वाले खिलौने खासतौर पर लड़कियों के व्यक्तित्व और कैरियर को प्रभावित करते हैं. गुडि़या या किचन सैट से खेलने वाली बच्ची का ?ाकाव बचपन से ही घरगृहस्थी की चीजों के प्रति ही रहेगा. वह उन्हीं चीजों में सुख ढूंढ़ लेगी और हो सकता है वह साधारण गृहिणी मात्र ही बन कर रह जाए. एलिजाबेथ ट्रूस ने अभिभावकों को सावधान करते हुए कहा था कि कुछ खास तरह के खिलौनों की वजह से लड़कियां विज्ञान और गणित जैसे विषयों से दूर हो जाती हैं.

एलिजाबेथ ट्रूस की चिंता को औफिस फौर नैशनल स्टेटिस्टिक्स या ओएनएस के आंकड़े भी सही ठहराते हैं. ओएनएस का सर्वे कहता है कि ब्रिटेन में 80 प्रतिशत विज्ञान, शोध, इंजीनियरिंग और तकनीकी पेशेवर पुरुष हैं. भारत में तो ऐसा सर्वे कभी हुआ नहीं, मगर यहां भी इन क्षेत्रों में लड़कियों की संख्या नाममात्र की ही है.

ओएनएस की रिपोर्ट के अनुसार, ब्रिटेन में चिकित्सा और देखभाल से जुड़े अन्य सेवा क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों का 82 प्रतिशत हिस्सा महिलाओं का है और प्रशासनिक व सचिवालय संबंधी रोजगार में भी वहां महिलाओं का हिस्सा 78 प्रतिशत है. ये वे क्षेत्र हैं जिन में सेवाभाव की अधिकता है. दूसरों की देखभाल, उन की जरूरतें पूरी करने का जज्बा ज्यादा है, लेकिन तकनीकी क्षेत्रों, सैन्य क्षेत्रों और साहस दिखाने वाले अन्य क्षेत्रों से औरतें दूर हैं.

भारत में महिलाओं के सशक्तीकरण की खूब बातें होती हैं. हर राजनीतिक पार्टी औरत को सशक्त करने की योजनाओं की लंबीचौड़ी फेहरिस्त ले कर चुनाव में उतरती है, मगर उस का सशक्तीकरण कभी हो नहीं पाता, उलटे बलात्कार, घरेलू हिंसा और हत्या के मामले बढ़ते जा रहे हैं.

भारत में शायद ही कभी किसी नेता ने बेटियों के विषय में एलिजाबेथ ट्रूस जैसी गहरी सोच और चिंता जाहिर की हो. दरअसल, हम भारतीय तो कभी इस सोच और चिंता के निकट से भी नहीं गुजरे. हम ने कभी इतनी गहराई में जा कर नहीं सोचा कि खिलौनों का बच्चियों के कोमल मनमस्तिष्क पर कितना गहरा प्रभाव पड़ सकता है.

पढ़ेलिखे मांबाप जो अपनी बेटियों की पढ़ाई और कैरियर को ले कर गंभीर हैं उन्होंने भी अपनी बेटियों को उन के बचपन में कभी बस, कार, ट्रेन, मोटरसाइकिल, बंदूक, आउटडोर गेम्स के किट, बिल्ंिडग ब्लौक और रोबोट जैसे खिलौने ले कर नहीं दिए होंगे. उन के जन्मदिन पर गुडि़यों, किचन सैट जैसे खिलौने ही आते होंगे.

हम अपने बच्चों को बचपन से ही घुट्टी के साथ यह फर्क पिला रहे हैं, उन्हें कमजोर रख रहे हैं, उन में साहस और हिम्मत पैदा नहीं होने दे रहे हैं और उस के बाद यह उम्मीद भी करते हैं कि बेटियां बेटों के समान कुछ बड़ा करें, कुछ बन कर दिखाएं, यह कैसे संभव है?

आलोचकों का कहना है कि खिलौनों से जुड़ा कारोबार लड़केलड़कियों के लिए बनाए जाने वाले खिलौनों में फर्क करता है. वे कहते हैं कि लड़कियों के लिए गुडि़या, रसोई का सामान जैसे खिलौने बनाए जाते हैं, वहीं लड़कों के लिए ‘स्टाइल’ और ‘ऐक्शन से भरपूर खिलौने, जैसे रेसिंग कार वगैरह बनाए जाते हैं. यही खिलौने किसी बच्चे की रुचि को सीमित करने में अपनी भूमिका अदा करते हैं. अलगअलग तरह के खिलौने अलगअलग तरह के संदेश देते हैं.

खिलौनों के पीछे काम करने वाली पुरुष मानसिकता खिलौनों के जरिए समाज को यह संदेश पंहुचाती है कि लड़कों को मजबूत और आक्रामक होना है और लड़कियों को कोमल व निरीह बने रहना है. खिलौना कंपनियां लड़कों के लिए मारधाड़, मशीनी और इसी तरह के अन्य खिलौने बनाती हैं, जबकि लड़कियों के लिए ‘स्त्रीस्वभाव के अनुरूप’ खिलौने बनाए जाते हैं. यह ‘स्त्रीस्वभाव’ वाली बात वे खुद ही तय कर लेते हैं.

आरिफ, जो एक साइंस टीचर हैं, कहते हैं, ‘‘खिलौनों में शिक्षा के अलगअलग पहलू छिपे होते हैं. आप अपने बच्चों को खेलने के लिए जो खिलौने उन की 6 महीने की उम्र में दे रहे हैं, वे बहुत अहम होते हैं जो बाद में उन के कैरियर पर भी असर डालते हैं. रचनात्मक खेल (क्रिएटिव प्ले) बच्चों में आत्मविश्वास, रचनात्मकता और संचार कौशल को बढ़ाने में फायदेमंद होते हैं, लेकिन पुराने चले आ रहे स्टीरियोटाइप ने एक्टिविटीज पर एक ठप्पा लगा दिया है कि ये एक विशेष जैंडर के लिए हैं.’’

आरिफ सवाल उठाते हैं कि लड़कियों को बचपन से आउटडोर गेम्स किट क्यों नहीं दिए जाते? क्या आप ने कभी सोचा है कि यह किस ने तय किया कि किस खिलौने से लड़की और किस खिलौने से लड़का खेलेगा? बचपन पर यह बंधन क्यों हैं? गूगल पर अगर लड़के और लड़कियों के लिए खिलौने सर्च करें तो आप को खिलौनों में फर्क साफ नजर आएगा. क्या आप ने कभी सोचा है कि लड़की के लिए पिंक और लड़के के लिए ब्लू रंग ही क्यों सलैक्ट किया जाते हैं? क्योंकि पिंक सुंदरता का प्रतीक होता है और ब्लू को आप आसमान से जोड़ते हैं कि जो असीमित है यानी आकाश या समुद्र. नीला रंग मजबूती बताता है. यह बड़ी साजिश है औरतों के खिलाफ, जो सदियों से रची जा रही है.

आरिफ कहते हैं, ‘‘आप यह क्यों नहीं मानते कि आप की बेटी भी गुडि़या छोड़ कर फुटबौल खेल सकती है? आप उस को आउटडोर गेम्स और कोडिंग टौयज के लिए प्रोत्साहित तो करिए. आप क्यों अपनी बेटियों को ड्रैसिंगअप होने की ट्रेनिंग देते हैं, मधुर वाणी में बात करने की ट्रेनिंग देते हैं, सौफ्ट रहने की ट्रेनिंग देते हैं, घर सजाने और कुकिंग की ट्रेनिंग देते हैं? आप ये ट्रेनिंग लड़कों को दीजिए, देखिए समाज में कितना बेहतर परिवर्तन आएगा. लड़कों में थोड़ी शालीनता विकसित होगी और समाज में अपराध कम होंगे.’’

वे आगे कहते हैं, ‘‘लड़कियों के खिलौनों में पितृसत्तात्मक सोच साफ नजर आती है. उस के खिलौनों में उस की नर्चरिंग रोल या पालनपोषण करने वाली भूमिका दिखाई देती है. वहीं लड़कों के लिए एडवैंचर से जुड़े खिलौने, जैसे रोबोट, गाडि़यां या गन आदि पुरुषों की आक्रामकता को दिखाता है. कई दुकानोंमें तो लड़कियों और लड़कों के खिलौने के सैक्शन ही अलगअलग होते हैं, तो वहां जा कर बच्चों को लगता है कि यही खिलौने मेरे लिए हैं.’’

‘‘ये जैंडर स्टीरियोटाइप बच्चों के क्रिएटिव या रचनात्मक विकास पर प्रभाव डालते हैं और आगे जा कर वे कैसा कैरियर चुनें, उस पर भी असर पड़ता है. खिलौने एक बच्चे के विकास में अहम होते हैं. ऐसे में जैंडर न्यूट्रल के अलावा ऐसे खिलौने बनाए जाएं जो बच्चों का भावनात्मक, सामाजिक, नैतिक और संज्ञानात्मक विकास करने में मदद करें. मेरे हिसाब से खिलौनों का न कोई रंग तय होना चाहिए न जैंडर.’’

दुनिया में ज्यादातर खिलौना कंपनियां जैंडर आधारित खिलौने ही बना रही हैं. उन का मानना है कि लोग ऐसे ही खिलौने खरीदना पसंद करते हैं. उन के सामने मांग और सप्लाई की समस्या है. ऐसे में यदि लोगों की मांग बदल जाए तो ये कंपनियां जैंडर न्यूट्रल खिलौने बनाने के लिए मजबूर होंगी. इस से खिलौना इंडस्ट्री की छोटी कंपनियों को भी प्रेरणा मिलेगी और वे भी उन के नक्शेकदम पर चलेंगी और इस से ऐसे खिलौनों की मांग भी बढ़ेगी.

अगर हमें अपनी बेटियों को सशक्त बनाना है, हिम्मती और ताकतवर बनाना है तो इस की शुरुआत उन के खिलौने बदल कर करनी चाहिए. त्योहारों पर बेटी को बेटे की तरह ही एंजौय करने दीजिए जाकि उस में आत्मविश्वास पैदा हो. यही आत्मविश्वास बेटी को मजबूत करेगा और बेटी को भी लगेगा कि वह बेटों से कम नहीं है.

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