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चूक गया अर्जुन का निशाना: भाग 3

सजा सुनाए जाने के बाद दिनेश को अहमदाबाद की साबरमती जेल भेज दिया गया था. एक दिन केतन की दुकान पर चाय पीते हुए करसन ने अपने दिल की कही, ‘‘यार कान्हा, एक बार हमें अहमदाबाद चल कर दिनेश से मिलना चाहिए. मेरी आत्मा कहती है कि दिनेश इस तरह का घटिया काम नहीं कर सकता.’’

‘‘छोड़ न यार करसन, उस की कोई बात मुझ से मत कर. अब मैं उस कलमुंहे का मुंह भी नहीं देखना चाहता. अब तो उसे दोस्त कहने में भी शरम आती है.’’ कान्हा ने दुखी मन से कहा.

‘‘ऐसा मत कह यार कान्हा. बुरा ही सही, पर दिनेश हमारा बहुत अच्छा दोस्त है. दोस्ती की खातिर बस एक बार चल कर मिल लेते हैं. फिर दोबारा उस से मिलने के लिए कभी नहीं कहूंगा. एक बार मिलने से मेरी आत्मा को थोड़ा संतोष मिल जाएगा.’’ करसन ने कान्हा से दिनेश से मिलने की सिफारिश करते हुए कहा.

‘‘तू इतना कह रहा है तो चलो एक बार मिल आते हैं. पर इस मिलने से कोई फायदा नहीं है. ऐसे आदमी से क्या मिलना, जो इस तरह का घिनौना काम करे. मेरे खयाल से उस से मिल कर तकलीफ ही होगी.’’ कान्हा ने कहा.

‘‘कुछ भी हो, मैं एक बार उस से मिलना चाहता हूं.’’ करसन ने कहा.

अगले दिन दोनों दोस्त दिनेश से मिलने के लिए अहमदाबाद जा पहुंचे. जेल में मिलने की जो प्रकिया होती है, उसे पूरी कर दोनों दिनेश से मिलने जेल के अंदर पहुंचे.

अपने जिगरी दोस्त की हालत देख कर कान्हा और करसन की आंखों में आंसू आ गए. दाहिने हाथ की हथेली से आंसू साफ करते हुए भर्राई आवाज में कान्हा ने कहा, ‘‘यह सब क्या है दिनेश?’’

‘‘भाई कान्हा, मैं एकदम निर्दोष हूं. मैं ने कुछ नहीं किया. मैं कसम खा कर कह रहा हूं कि इस बारे में मैं कुछ नहीं जानता.’’ यह कहतेकहते दिनेश फफक कर रो पड़ा.

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‘‘जब तू ने कुछ किया ही नहीं था तो फिर थाने और अदालत में यह क्यों कहा कि सविता के साथ तू ने ही दुष्कर्म कर के उस की हत्या की है?’’ कान्हा ने प्रश्न किया.

‘‘पुलिस ने मुझे मारमार कर कहलवाया है कि मैं ने यह अपराध किया है. थानाप्रभारी ने कहा कि अगर मैं ने उस की बात नहीं मानी तो वह मेरे सारे दोस्तों को पकड़ कर जेल भिजवा देगा. मजबूरन मुझे वह सब कहना पड़ा, जो पुलिस ने कहा. क्योंकि मैं तो फंसा ही था. मै नहीं चाहता था कि मेरे दोस्त भी फंसें. तुम्हीं बताओ कि ऐसे में मैं क्या करता. पुलिस की बात मानने के अलावा मेरे पास दूसरा कोई रास्ता नहीं था.’’

दिनेश कुछ और कहता, जेल के सिपाही ने आ कर कहा, ‘‘चलिए भाई, आप लोगों का मिलने का समय खत्म हो चुका है.’’

‘‘दोस्त, तू धीरज रख, अगर तू ने यह अपराध नहीं किया है तो मैं असलियत का पता लगा कर रहूंगा.’’ चलतेचलते कान्हा ने कहा.

दिनेश दोनों मित्रों को तब तक ताकता रहा, जब तक वे आंखों से ओझल नहीं हो गए. गांव में दिनेश के निर्दोष होने की बात करने का अब कोई फायदा नहीं था.

इसलिए दोनों दोस्त दिनेश के निर्दोष होने के सबूत बड़ी ही गोपनीयता से खोजने शुरू कर दिए. पर कोई कड़ी हाथ नहीं लग रही थी. इसी तरह धीरेधीरे 7 महीने का समय बीत गया.

दूसरी ओर अर्जुन ने बेटे और पुत्रवधू की मौत के बाद गांव वालों से कहा था कि अब उस का गांव में है ही कौन, इसलिए वह  दुकानें, मकान और जमीन बेच कर हरिद्वार जा कर किसी आश्रम को सारा पैसा दान कर देगा और वहीं जब तक जीवित रहेगा, भगवान के भजन करेगा.

गांव में ऐसे तमाम लोग थे, जो इस तरह के मौके की तलाश में रहते थे. इसलिए अर्जुन की दुकानें, मकान और जमीनें अच्छे दामों में बिक गईं. करोड़ों रुपए बैंक में जमा कर अर्जुन एक दिन हरिद्वार जाने की बात कह कर हमेशा के लिए गांव छोड़ कर चला गया.

बहुत हाथपैर मारने के बाद भी कान्हा और करसन अपने दोस्त दिनेश को निर्दोष साबित करने का सबूत नहीं खोज सके. धीरेधीरे पूरा एक साल बीत गया.

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बरसात खत्म होते ही खेती के सारे काम निपटा कर करसन के बड़े भाई रामजी अपने 2 दोस्तों के साथ मोटरसाइकिलों से द्वारकाजी के दर्शन के लिए निकले. रात होने तक ये सभी खंभाडि़या पहुंचे.

आराम करने के लिए ये लोग एक गांव के पंचायत घर में रुके. गांव वालों ने पंचायत घर में एक कमरा अतिथियों के लिए बनवा रखा था. क्योंकि द्वारकाजी जाने वाले तीर्थयात्री अकसर उस गांव में रात में आराम करने के लिए ठहरते थे.

रामजी भी दोस्तों के साथ पंचायत घर के उसी कमरे में ठहरा था. अगले दिन सुबह उठ कर हलके उजाले में रामजी पंचायत घर के बरामदे में बैठे कुल्लादातून कर रहे थे, तभी अचानक उन की नजर सिर पर पानी का घड़ा रख कर ले जाती एक औरत पर पड़ी.

उन के मन में तुरंत एक सवाल उठा, ‘लगता है इस औरत को पहले कहीं देखा है.’ उन्होंने उसे दोबारा देखने के लिए नजर उठाई तो वह दूर निकल गई थी. अभी वह फिर पानी भरने आएगी तो उसे पहचान लूंगा, यह सोच कर रामजी वहीं बैठे रहे.

थोड़ी देर बाद वह औरत घड़ा ले कर फिर पानी के लिए आई तो रामजी ने उसे पहचान लिया. उसे पहचान कर उन के पैरों तले से जमीन खिसक गई.

उन्होंने खुद से ही कहा, ‘अरे, यह तो मोहन की पत्नी सविता है. पर सविता यहां कहां से आएगी? वह तो मर चुकी है. दिनेश ने उस की हत्या की बात खुद स्वीकार की है. उस की लाश भी बगल के गांव के कुएं से बरामद हुई थी.’ वह सोच में पड़ गया कि कहीं वह जागते में सपना तो नहीं देख रहा है. उस के मन में भूकंप सा आ गया. शंकाकुशंका के बादल उस के मन में घुमड़ने लगे.

द्वारिकाधीश के दर्शन कर के वह गांव लौटे तो उन्होंने यह बात अपने छोटे भाई करसन को बताई तो करसन ने अपने दोस्त कान्हा को. वे दोनों भी यह जान कर हैरान थे. अगर सविता जीवित है तो फिर वह लाश किस की थी? यह एक बड़ा सवाल उन दोनों के सामने आ खड़ा हुआ था.

परदे: भाग 2- क्या स्नेहा के सामने आया मनोज?

Writer- अपूर्वा चौमाल

स्नेहा एक उभरती हुई स्क्रिप्ट राइटर व रंगकर्मी है. मनोज भी हालांकि एक लेखक और रंगकर्मी है, लेकिन वह कभी अपना रचनाकर्म सा झा नहीं करता, क्योंकि वह खुद को अभी मिरर आर्टिस्ट ही सम झता है. हां, वह सब की पोस्ट पढ़ता जरूर है. आज भी ग्रुप में उंगलियां घुमातेघुमाते वह एक जगह ठिठक गया. होंठों की लंबाई दो इंच से बढ़ कर तीन इंच हो गई. आंखों की पुतलियां थिरकने लगीं.

‘आज पकड़ी गई,’ मनोज स्नेहा की पोस्ट देख कर उछल पड़ा. आज उस ने अपने मंचित नाटक की एक क्लिप ग्रुप में पोस्ट की थी.

मनोज ने तुरंत उस वीडियो को डाउनलोड किया और हरेक पात्र को गौर से देखने लगा. महिला पात्रों पर तो उस ने आंखें ही चिपका दीं.

पूरी क्लिप समाप्त हो गई और मनोज बाबू लौट के बुद्धू घर को आए सिर खुजाते रह गए, लेकिन स्नेहा को नहीं पहचान पाए, क्योंकि यह एक वृद्धाश्रम पर आधारित नाटक था, जिस में लगभग हरेक पात्र सफेद बालों की विग लगाए, एकाध दांत काला किए था. सब की कमर  झुकी हुई, आंखों पर चश्मा और हाथ में छड़ी थी.

नीचे लिखे स्नेहा के कमैंट ने जलते पर मिर्च बुरका दी सो अलग. लिखा था, ‘बू झो तो जानूं.’

यह देख मनोज खिसिया कर रह गया, लगा मानो कटाक्ष से निशाना साध कर उसे ही बेधा गया हो. मनोज ने उसे नाटक के प्रभावी मंचन पर बधाई दी. साथ ही, उत्तरोत्तर प्रगति करने व अपने क्षेत्र में ऊंचाइयां छूने के प्रतीक स्वरूप उड़ते हुए हवाईजहाज की इमोजी भेजी.

उस के बाद वह अकसर ऐसा ही करने लगा. जब भी स्नेहा अपनी किसी उपलब्धि की पोस्ट ग्रुप में डालती, वह उसे शुभकामनाओं के साथ हवाईजहाज की इमोजी अवश्य ही पोस्ट करता.

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धीरेधीरे यह अघोषित सा नियम ही बन गया. कभी वह हवाईजहाज भेंट करने से चूक जाता तो स्वयं स्नेहा चुहल करते हुए उस से जहाज मांग बैठती. मनोज ने भी उड़ता हुआ जहाज सिर्फ स्नेहा के लिए आरक्षित रखना शुरू कर दिया. वैसे भी, अमूमन इस तरह के प्रतीक कोई किसी को भेंट नहीं करता.

पिछले सप्ताह किसी ने ग्रुप में एक स्क्रिप्ट लेखन प्रतियोगिता की विज्ञप्ति पोस्ट की. हर नई पोस्ट की तरह इस पर भी सब से पहले उछलती हुई स्नेहा ही आई.

‘‘भई, हम तो इस प्रतियोगिता में अपनी ताजा, करारी और धमाकेदार स्क्रिप्ट भेजने वाले हैं. पहला इनाम तो अपना ही सम झो. यदि किसी को यह चुनौती लगती है तो वह अपना देख ले,’’ स्नेहा ने लिखा.

‘‘अग्रिम शुभकामनाएं. पुरस्कार में हमें हिस्सा मिले तो जुगाड़ की व्यवस्था की कोशिश की जा सकती है,’’ मनोज ने दांव पर प्रतिदांव मारा.

‘‘10 प्रतिशत पर डन करो तो प्रस्ताव पर विचार किया जा सकता है,’’ स्नेहा ने अगला पासा फेंका.

‘‘मैं 8 प्रतिशत पर राजी हूं,’’ एक अन्य कमैंट आया.

‘‘मैं 5 पर ही,’’ दूसरा कमैंट भी

आ गया.

धीरेधीरे इस चुहल में अन्य

लोग भी जुड़ते गए और हलकीफुलकी नोक झोंक का यह दौर देरशाम तक चलता रहा.

पता नहीं क्या सोच कर मनोज ने भी यहां अपनी प्रतिभा आजमाने की सोची. हालांकि वह पटकथा लेखक नहीं था, लेकिन लेखक तो था ही और वैसे भी पढ़ेलिखे को फारसी क्या? कौन जाने, वक्त ने क्या तय कर रखा है.

‘शायद नियति ने स्नेहा से मिलवाने का यही जरिया चुना हो,’ एक खयाल आया और मनोज स्क्रिप्ट लिखने में जुट गया. उस के प्रयास सफल हुए और उसे एक अछूता सा विषय मिल ही गया. बहुत मन लगा कर मनोज ने नाटक के प्लौट पर कल्पनाओं की नींव खोदी और चिनाई शुरू कर दी. 10 दिनों में स्क्रिप्ट का ढांचा खड़ा हो गया. अब उस पर रंगरोगन कर उसे प्रस्तुतीकरण के लिए तैयार करना था.

अगले 10 दिनों में यह काम भी हो गया. अब मनोज ने स्क्रिप्ट की इमारत की अंतिम रूप से साफसफाई कर के यानी उसे फाइनल टच दे कर उस पर ताला जड़ दिया.

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इधर प्रतियोगिता की अंतिम तारीख पास आ रही थी और उधर मनोज था कि स्क्रिप्ट के भवन का ताला खोलने यानी अपनी प्रविष्टि भेजने की हिम्मत ही नहीं जुटा पा रहा था. तभी एक दिन ग्रुप में स्नेहा का मैसेज पढ़ कर मनोज मुसकरा दिया.

‘‘भई, हम ने तो अपनी प्रविष्टि भेज दी. सोने वालो, जाग जाओ. अंतिम तिथि का इंतजार मत करो. आज ही अपनी प्रविष्टि भेजो, वरना कहोगे कि चेताया नहीं. पहला पुरस्कार तो खैर मेरा ही है, कहीं दूसरेतीसरे से भी न चूक जाओ, इसलिए आज अभी लिफाफा बनाओ और डाकघर जा कर पोस्ट कर आओ,’’ स्नेहा ने आंख दबाती ढेर सारी इमोजी के साथ लिखा था.

‘‘आधा हिस्सा मिलेगा क्या?’’ मनोज ने उसे फिर छेड़ा.

‘‘हम तो तैयार हैं, लेकिन ऐसी ही उम्मीद आप से भी करते हैं. है मंजूर तो बोलो हां,’’ स्नेहा ने एक हिंदी फिल्म के गीत की पंक्ति जोड़ते हुए लिखा.

‘‘सारा आप का. मगर कुछ मिले तो सही,’’ यह लिख कर मनोज ने प्रस्ताव स्वीकार करने वाला अंगूठा दिखा दिया. ग्रुप के शेष सदस्यों ने ताली बजा कर उस का उत्साहवर्धन किया.

आखिर मनोज ने भी कांपते हाथों से, मन ही मन खुद को शुभकामनाएं देते हुए अपनी प्रविष्टि पंजीकृत डाक से भेज दी.

अंतिम तिथि निकल गई. अब सब को प्रतियोगिता के परिणाम की प्रतीक्षा थी. इस बीच ग्रुप में हलकीफुलकी नोक झोंक और स्नेहा के चुलबुले कमैंट्स जारी थे.

आज सुबह जैसे ही मनोज ने मोबाइल चालू किया, ग्रुप में बहुत से बधाई संदेश देख कर माथे पर असमंजस की 3 रेखाएं तनिक अधिक गहरी हो गईं. देखा तो स्क्रिप्ट लेखन प्रतियोगिता का परिणाम जारी हो चुका था. परिणाम की पूरी सूची देखी तो मन खुशी से  झूम उठा. न… न, मनोज विजेता नहीं हुआ था, बल्कि स्नेहा को सांत्वना पुरस्कार मिला था. खुद उस का तो सूची में कहीं नाम तक न था.

मनोज स्नेहा की जीत पर अपनी खुशी का कारण नहीं सम झ पा रहा था. शायद मन अपनी खुशी से अधिक अपनों की खुशी में खुश होता है.

मनोज ने स्नेहा सहित सभी विजेताओं को बधाई दी और उत्साह के अतिरेक में यह मैसेज भी पोस्ट कर दिया कि वह विजेताओं की हौसलाअफजाई करने व उन के सम्मान में तालियां बजाने को समारोह में अवश्य आएगा.

‘‘यदि नहीं आए तो आप को काला कौआ काटेगा, क्योंकि  झूठ बोले कौआ काटे,’’ स्नेहा ने बधाई स्वीकारते हुए चुटकी ली.

‘‘चलिए, इस बहाने हवाईजहाज वाले पायलट बाबू के दर्शन भी हो जाएंगे,’’ स्नेहा ने आगे लिखा तो मनोज ने अंगूठा दिखाते हुए स्नेहा के आमंत्रण पर मुहर लगा दी.

मनोज इन दिनों बादलों पर चल रहा था. उस का मन स्नेहा की तसवीर में मनचाहे रंग भर रहा था, रहरह कर उस की आभासी छवि को साकार करने लगा था. कभी जींसटौप तो कभी सलवारदुपट्टे में लिपटी स्नेहा कभीकभार 6 गज की साड़ी में भी दिखाई देने लगती थी.

‘बस रे मन, बस कर. अब तो बस दीदार हुआ ही जाता है. जरा ठहर, धीरज धर, क्यों बावला हुआ जाता है,’ मनोज की कविताई मुखर होने लगी.

इन दिनों वह स्नेहा से ग्रुप में कम और व्यक्तिगत चैट अधिक करने लगा था, क्योंकि उसे भय था कि कहीं लोग ग्रुप में उन की उन्मुक्त चैटिंग का गलत मतलब न निकालने लगें. शायद इसी डर ने ‘चोर की दाढ़ी में तिनका’ वाली कहावत को जन्म दिया हो. कई बार उस का मन स्नेहा की आवाज सुनने और उसे देखने को बहुत उमड़ा भी, लेकिन अब जब नाव किनारे लगने ही वाली है तो फिर पानी में क्यों कूदना. अब तो इंतजार खत्म हुआ ही सम झो. मनोज किसी तरह खुद को रोके हुए था.

हर्ष लिंबाचिया नहीं करना चाहते थे Bharti Singh से शादी! सामने आया ये Video

भारती सिंह (Bharti Singh) और हर्ष लिंबाचिया (Haarsh Limbachiyaa) की जोड़ी को  घर-घर में पसंद किया जाता है. दोनों का कॉमेडी अंदाज दर्शकों का दिल जीत लेता है. अक्सर सेट पर ये दोनों एक-दूसरे का मजाक उड़ाते हैं तो कभी रोमांस करते नजर आते हैं. दर्शकों का इनका मस्ती भरा अंदाज काफी पसंद आता है. अब हर्ष और भारती का एक वीडियो सामने आया है, जिसमें हर्ष लिंबाचिया कह रहे हैं कि उन्हें भारती सिंह से शादी करने का पछतावा हो रहा है. आइए बताते हैं, क्या है पूरा मामला.

दरअसल भारती और हर्ष यूट्यूब पर ‘लाइफ ऑफ लिंबाचिया’ लेकर आते हैं.  दोनों अक्सर फैंस के लिए फनी वीडियोज अपलोड करते हैं. इन वीडियोज में दोनों का नोक-झोक देखने को मिलता है.  हाल ही में भारती और हर्ष ने एक नया वीडियो अपने यूट्यूब पर शेयर किया है जिसमें दोनों बहस करते हुए दिखाई दे रहे हैं.

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भारती सिंह और हर्ष लिंबाचिया के इस वीडियो में अपने बच्चे से जुड़े सवालों का जवाब फैंस को दे रहे होते हैं. तभी दोनों में तू-तू-मैं-मैं हो जाती है. भारती सिंह कहती हैं, अगर इतनी दिक्कत थी तो मुझसे शादी क्यों की. हर्ष मजाकिया अंदाज में जवाब देते हुए कहते हैं, दिमाग खराब हो गया था मेरा. आज तक पछतावा हो रहा है. ऐसे में भारती सिंह का मुंह देखने लायक होता है.

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किस ने सवाल किया कि बच्चा कॉमेडियन बनेगा या राइटर? इस पर भारती कहती हैं, बच्चा कॉमेडियन होगा क्योंकि राइटर्स को पैसे नहीं मिलते हैं. तो वहीं हर्ष लिंबाचिया फनी अंदाज में कहते हैं, वेब सीरीज लिखने ओटीटी पर लिखने वाले राइटर्स की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं, इतने पैसे मिलते हैं कि उतने में 5-6 भारती सिंह आ जाएं.

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कही अनकही: भाग 3- तन्वी की हरकतों से मां क्यों परेशान थी

Writer- Reeta Kumari

‘‘धीरेधीरे मम्मी और पापा के प्रति मेरे मन में एक गहरी असंतुष्टि  हलचल मचाए रहती और एक अघोषित युद्ध का गंभीर घोष मेरे अंदर गूंजता रहता. मैं मम्मीपापा की सुखशांति को, मानसम्मान को यहां तक कि अपनेआप को भी तहसनहस करने के लिए बेचैन रहती. हर वह काम लगन से करती जो मम्मीपापा को दुखी करता… मेरी उद्दंडता और आवारागर्दी की कहानी पापा तक पहुंच कर उन्हें दुखी कर रही है, यह जान कर मुझे असीम सुख मिलता. आज भी मेरी वही मानसिकता है, दूसरे को चोट पहुंचाना. शायद इसी कारण मैं ऐसी हूं.

‘‘मेरे बीमार पड़ने पर जिस प्यार और अपनेपन से आप ने मेरी देखभाल की वह मेरे दिल को छू गया. मुझे लगा आप ही वह पात्र हैं जिस के सामने मैं अपने दिल की व्यथा उड़ेल सकती हूं. अब सबकुछ जानने के बाद आप से मिली सलाह ही मेरी पथप्रदर्शक होगी. इसलिए प्लीज, आंटी, मेरी मदद कीजिए. मैं बहुत कन्फ्यूज्ड हूं.’’

तन्वी सबकुछ उगल चुपचाप बैठ गई. उस के गालों पर ढुलक आए आंसुओं को अपने आंचल से पोंछ कर मैं बोली थी, ‘‘कितनी मूर्ख हो तुम. बिना गहराई से परिस्थितियों का अवलोकन किए, तुम ने अपनी मां को ही अपना दुश्मन मान लिया और उन के दुखदर्द और शोक का कारण बनी रहीं. अपनी मम्मी की तरफ से सोचो कि वे अपनी मरजी से शादी कर, अपने सारे रिश्तों को खो चुकी थीं. वे मजबूर थीं. आवश्यकताओं की लंबी फेहरिस्त, दिल्ली जैसे महानगर के बढ़ते खर्चे, तुम्हारी देखभाल, सभी के लिए ज्यादा से ज्यादा पैसों की जरूरत थी और इस के लिए वे जीतोड़ कोशिशें कर रही थीं.

‘‘वहीं नौकरी में तुम्हारी मां का दिनोदिन बढ़ता कद तुम्हारे पापा के पुरुषार्थ के अहं को आहत कर रहा था. एक दिन वे अपने अहं की तुष्टि के लिए सारी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ कर परिवार से ही पलायन कर गए. रह गईं अकेली तुम्हारी मां, जिन्हें तुम्हारे साथसाथ नौकरी की भी जिम्मेदारी संभालनी थी. फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी… पर तकदीर की विडंबना देखो कि जिस बेटी के लिए वे इतना संघर्ष कर रही थीं, वही उन की व्यथा को समझने में सर्वदा असमर्थ रही और उन्हें चोट पहुंचा कर अपनी नादानियों से सबकुछ नष्ट करने पर उतारू हो गई.’’

तन्वी चुपचाप बड़े ही ध्यान से मेरी बातें सुन रही थी.

‘‘कभी तुम ने सोचा है कि जिंदगी बिगाड़ना बहुत आसान है पर जो एक बार बिगड़ गया, उसे संभालने में कभीकभी बरसों और कभीकभी तो पूरी जिंदगी निकल जाती है. खुद को चोट दे कर अपनों को दुख पहुंचाना कहां की बुद्धिमानी है. मेरी नानी अथर्ववेद का एक वाक्य मुझे हमेशा सुनाया करती थीं :

‘‘प्राच्यो अगाम नृत्ये हंसाय.’’

(अर्थात यह जीवन हंसतेखेलते हुए जीने के लिए है. चिंता, भय, शोक, क्रोध, निराशा, ईर्ष्या और तृष्णा में बिलखते रहना मूर्खता है.)

‘‘तुम्हारे जीवन में जो घटा वह तुम्हारे बस में नहीं था. वह वक्त का कहर था, मगर अब जो घट रहा है यह सब तुम्हारी विपरीत सोच का परिणाम है, जो तुम्हारी मां की खुशियों को ही नहीं तुम्हें भी बरबाद कर रहा है. जब कोई खुशियों का इंतजार करतेकरते अचानक दुखों को न्योता देने लगे तो समझो वह परिवार के विनाश को बुलावा दे रहा है. तुम विनाश का कारण क्यों बनना चाहती हो? क्या मिलेगा दुख बांट कर? एक बार सुख बांट कर देखो, तुम्हारे सारे दर्द मिट जाएंगे.

‘‘अपने सारे आक्रोश त्याग कर, बीते समय को भुला कर, अपनी खुशियों के लिए सोचो, उन्हें पाने की कोशिश करो तो तुम्हारे सारे मनस्ताप खुदबखुद धुल जाएंगे. वक्त का कर्म तुम्हारे साथ होगा, अगर तुम ने अब भी देर कर दी और वक्त को मुट्ठी में नहीं लिया तो धीरेधीरे समय तुम्हें तोड़ देगा. बस, मुझे इतना ही कहना है. अब फैसला तुम्हारे हाथों में है.’’

वह धीरे से उठी और मेरी गोद में सिर रख कर फर्श पर बैठ गई. प्यार से उस के बालों में उंगलियां फिराते ही वह निशब्द रोने लगी. मैं ने भी उसे रोका नहीं, जी भर रो लेने दिया. थोड़ी देर बाद शांत हो कर बोली, ‘‘आंटी, आज आप ने मेरी जिंदगी की उलझनों को कितनी आसानी और सरलता से सुलझाया, मेरे अंदर भरे गलतफहमियों के जहर को दूर कर दिया. अपनी गलतियों के एहसास ने तो मेरी सोच ही बदल दी. अब तक तो मैं सभी के दुख का कारण बनी रही, लेकिन अब सुख का कारण बनने की कोशिश करूंगी.’’

दूसरे दिन मैं बरामदे में बैठी सुन रही थी. वह बालकनी में खड़ी वहीं से अपने दोस्तों को लौट जाने के लिए कह रही थी.

‘‘नहींनहीं…तुम लोगों के साथ मुझे कहीं नहीं जाना. मुझे पढ़ना है.’’

उस के दोस्तों ने साथ चलने के लिए काफी मिन्नतें कीं, पर वह नहीं मानी. एक दिन मैं नेहाजी के साथ लौन में बैठी बातें कर ही रही थी कि तभी तन्वी हाथ में ट्रे ले कर पहुंच गई. 2 कप चाय के साथ पकौड़ों की प्लेट भी थी.

‘‘आंटी, आज मैं ने पकौड़े किताब पढ़ कर बनाए हैं. जरा चख कर तो देखिए.’’

अनाड़ी हाथों के अनगढ़ पकौड़ों में मुझे वह स्वाद आया जो आज से पहले कभी नहीं आया था. बेटी के बदले रूप को देख, नेहा की आंखों में मेरे लिए कृतज्ञता के आंसू झिलमिला रहे थे.

नई रोशनी: भाग 2- नईम का पढ़ालिखा होना क्यों गुनाह बन गया था

लेखिका- शकीला एस हुसैन

कुछ दिनों से वह महसूस कर रही थी कि नईम कुछ उलझाउलझा और परेशान है. न पहले की तरह दिनभर के हालात उसे सुनाता है न बातबेबात कहकहे लगाता है. अम्मी व बहनों की बातों का भी बस हूंहां में जवाब देता है. पहले की शोखी, वह बचपना एकदम खत्म हो गया था. उस रात सबा की आंख खुली तो देखा नईम जाग रहा है, बेचैनी से करवटें बदल रहा है. सबा ने एक फैसला कर लिया, वह उठ कर बैठ गई और बहुत प्यार से पूछा, ‘‘नईम, मैं कई दिनों से देख रही हूं, आप परेशान हैं. बात भी ठीक से नहीं करते, क्या परेशानी है?’’

नईम ने टालते हुए कहा, ‘‘नहीं, ऐसा कुछ खास नहीं, स्टोर की कुछ उलझनें हैं.’’

सबा ने उस के बाल संवारते हुए कहा, ‘‘नईम, हम दोनों ‘शरीकेहयात’ हैं यानी जिंदगी के साथी. आप की परेशानी और दुख मेरे हैं, उन्हें बांटना और सुलझाना मेरा भी फर्ज है, हो सकता है कोई हल हमें, मिल कर सोचने से मिल जाए. आप खुल कर मुझे पूरी बात बताइए.’’

‘‘सबा, मैं एक मुश्किल में फंस गया हूं. एक दिन एक सेल्सटैक्स अफसर मेरे स्टोर पर आया. ढेर सारा सामान लिया. जब मैं ने पैसे लेने के लिए बिल बना कर दिया तो वह एकदम गुस्से में आ गया. कहने लगा, ‘तुम जानते हो मैं कौन हूं, क्या हूं? और तुम मुझ से पैसे मांग रहे हो?’

‘‘मैं ने विनम्र हो कर कहा, ‘साहब, काफी बड़ा बिल है, मैं खुद सामान खरीद कर लाता हूं.’

‘इतना सुनते ही वह बिफर उठा, ‘मैं देख लूंगा तुम्हें, स्टोर चलाने की अक्ल आ जाएगी. तुम मेरी ताकत से नावाकिफ हो. ऐसे तुम्हें फसाऊंगा कि तुम्हारी सारी अकड़ धरी की धरी रह जाएगी.’ और सामान पटक कर स्टोर से निकल गया. उस के बाद उस का एक जूनियर आ कर सारे खातों की पूछताछ कर के गया और धमकी दे गया कि जल्द ही पूरी तरह चैकिंग होगी और एक नोटिस भी पकड़ा गया. इतना लंबा नोटिस अंगरेजी में है, पता नहीं कौनकौन से नियम और धाराएं लिखी हैं. तुम तो जानती हो मेरी अंगरेजी बस कामचलाऊ है, हिसाबकिताब का ज्यादा काम तो मुंशी चाचा देखते हैं.’’

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सबा ने सुकून से सारी बात सुनी और तसल्ली देते हुए कहा, ‘‘आप बिलकुल परेशान न हों, जब आप कोई गलत काम नहीं करते हैं तो आप को घबराने की जरा भी जरूरत नहीं है. अगर खातों में कुछ कमियां या लेजर्स नौर्म्स के हिसाब से नहीं हैं तो वह सब हो जाएगा. आप सारे खाते और नोटिस, नौर्म्सरूल्स सब घर ले आइए, मैं इत्मीनान से बैठ कर सब चैक कर लूंगी या आप मुझे स्टोर पर ले चलिए, पीछे के कमरे में बैठ कर मैं और मुंशी चाचा एक बार पूरे खाते और हिसाब नियमानुसार चैक कर लेंगे. अगर कहीं कोई कमी है तो उस का भी हल निकाल लेंगे, आप हौसला रखें.’’

सबा की विश्वास से भरी बातें सुन कर नईम को राहत मिली. उस के होंठों की खोई मुसकराहट लौट आई.

दूसरे दिन एक अलग तरह की सुबह हुई. सबा भी नईम के साथ जाने को तैयार थी. यह देख अम्मी की त्योरियां चढ़ गईं, ‘‘हमारे यहां औरतें सुबहसवेरे शौहर के साथ सैर करने नहीं जाती हैं.’’

नईम अम्मी का हाथ पकड़ कर उन्हें उन के कमरे में ले गया और उस पर पड़ने वाली विपदा को इस अंदाज में समझाया कि अम्मी का दिल दहल गया. वे चुप थीं, कमरे में बैठी रहीं. सबा नईम के साथ चली गई. बात इतनी परेशान किए थी कि अम्मी का सारा तनतना झाग की तरह बैठ गया.

सबा के लिए यह कड़े इम्तिहान की घड़ी थी. यही एक मौका उसे मिला था कि अपनी तालीम का सही इस्तेमाल कर सकती थी. उस ने युद्धस्तर पर काम शुरू कर दिया. एक तो वह सहनशील थी दूसरे, बीएससी में उस के पास मैथ्स था, और जनरलनौलेज व कानूनी जानकारी भी अच्छीखासी थी.

पहले तो उस ने नोटिस ध्यान से पढ़ा, फिर एकएक एतराज और इलजाम का जवाब तैयार करना शुरू किया. मुंशीजी ईमानदार व मेहनती थे पर इतने ज्यादा पढ़े न थे लेकिन सबा के साथ मिल कर उन्होंने सारे सवालों के सटीक व नौर्म्स पर आधारित, सही उत्तर तैयार कर लिए. शाम तक यह काम पूरा कर उस ने नोटिस का टू द पौइंट जवाब भिजवा दिया.

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एक बोझ तो सिर से उतरा. अब उन्हें बिलबुक के अनुसार सारे खाते चैक करने थे कि कहीं भी छोटी सी भूल या कमी न मिल सके. एक जगह बिलबुक में एंट्री थी पर लेजर में नहीं लिखा गया था. नईम ने उस बिल पर माल भेजने वाली पार्टी से बातचीत की तो खुलासा हुआ कि माल भेजा गया था पर मांग के मुताबिक न होने की वजह से वापस कर के दूसरे माल की डिमांड की गई थी जो जल्द ही आने वाला था. सबा ने उस के लिए जरूरी कागजात तैयार कर लिए. पार्टी कंसर्न से जरूरी कागजात पर साइन करवा के रख लिए.

3 दिन की जीतोड़ मेहनत के बाद नईम और सबा ने चैन की सांस ली. अब कभी भी चैकिंग हो जाए, कोई परेशानी की बात नहीं थी. शाम 4 बजे जब सबा घर वापस जाने की तैयारी कर रही थी उसी वक्त सेल्सटैक्स अफसर अपने 2 बंदों के साथ आ गया. आते ही उस ने नईम और मुंशीजी से बदतमीजी से बात शुरू कर दी.

दोनों जब तक जवाब देते, सबा उठ कर सामने आ गई और उस ने बहुत नरम और सही अंगरेजी में कहा, ‘‘सर, आप सरकारी नौकर हैं. जांच और पूछताछ करना आप का फर्ज है. आप तरीके से पूछें फिर भी आप को तसल्ली न हो तो आप लिखित में नोटिस दें, हम उस का जवाब देंगे. आप की पहली इन्क्वायरी का संतोषप्रद जवाब दिया जा चुका है. आप को जो भी मालूमात चाहिए, मुझ से पूछिए क्योंकि लेजर मैं मेंटेन करती हूं पर पूछताछ में अपने लहजे और भाषा पर कंट्रोल रखिएगा क्योंकि हम भी आप की तरह संभ्रांत नागरिक हैं.’’

इतनी सटीक और परफैक्ट अंगरेजी में जवाब सुन अफसर के रवैए में एकदम फर्क आ गया. काफी देर जांच चलती रही, सबा ने बड़े आत्मविश्वास से हर शंका का बड़े सही ढंग से समाधान किया क्योंकि पिछले 4 दिनों में वह हर बात को अच्छी तरह से समझ चुकी थी. सेल्सटैक्स अफसर कोई घपला न निकाल सका, इसलिए अपने साथियों के साथ वापस चला गया, पर धमकी देते गया कि उस की खास नजर इस स्टोर पर रहेगी. अकसर परेशान करने को नोटिस आते रहे जिन्हें सबा ने बड़ी सावधानी से संभाल लिया.

घर पहुंच कर नईम खुशी से पागल हो रहा था, अम्मी और बहनों को सबा की काबिलीयत विस्तार से जताते हुए बोला, ‘‘सबा का पढ़ालिखा होना, उस की गहरी जानकारी और अंगरेजी बोलना सारी मुसीबतों से टक्कर लेने में कामयाब रहे. पहले यही अफसर मुझ से ढंग से बात नहीं करता था. मेरा अंगरेजी मेें ज्यादा दखल न होने से और विषय की पकड़ कमजोर होने से मुझ पर हावी हो रहा था. अपनी जानकारी से सबा ने ऐसा मुंहतोड़ जवाब दिया है कि अब बेवजह मुझे परेशान न करेगा. मैं ने फैसला कर लिया है कि सबा हफ्ते में 2 बार आ कर हिसाबकिताब चैक करेगी ताकि आइंदा ऐसा कोई मसला न खड़ा हो.’’

जहर का पौधा: भाग 2

जब वह दरवाजे से हो कर अंदर गया तो भाभी सिर दबाए बैठी थीं. उस ने बड़ी कोमलता से पूछा, ‘क्या हुआ, भाभी?’ तब वे मुसकरा कर बोली  थीं, ‘कुछ नहीं.’ वह गुल्ली उठा कर वापस चला गया था.

लेकिन शाम को सब के सामने भैया ने मनीष को चांटे लगाते हुए कहा था, ‘बेशर्म, गुल्ली से भाभी के माथे पर घाव कर दिया और पूछा तक नहीं.’ भाभी के इस ड्रामे पर तो मनीष सन्न रह गया था. उस के मुंह से आवाज तक न निकली थी. निकलती भी कैसे? उम्र में बड़ी और आदर करने योग्य भाभी की शिकायत भैया से कर के उसे और ज्यादा थोड़े पिटना था.

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भैया घर के सारे लोगों पर नाराज हो रहे थे कि उन की पत्नी से कोई भी सहानुभूति नहीं रखता. सभी चुपचाप थे. किसी ने भी भैया से एक शब्द नहीं कहा था. इस के बाद भैया ने पिताजी, मां और भाईबहनों से बात करना छोड़ दिया था. वे अधिकांश समय भाभी के कमरे में ही गुजारते थे.

इस के बाद एक सुबह की बात है. भैया को सुबह जल्दी जाना था. भाभी भैया के लिए नाश्ता तैयार करने के लिए चौके में आईं. चौके में सभी सदस्य बैठे थे, सभी को चाय का इंतजार था. मनीष रो रहा था कि उसे जल्दी चाय चाहिए. मां उसे समझा रही थीं, ‘बेटा, चाय का पानी चूल्हे पर रखा है, अभी 2 मिनट में उबल जाएगा.’

उसी समय भाभी ने चूल्हे से चाय उतार कर नाश्ते की कड़ाही चढ़ा दी. मां ने मनीष के आंसू देखते हुए कहा, ‘बहू, चाय तो अभी दो मिनट में बन जाएगी, जरा ठहर जाओ न.’

इतनी सी बात पर भाभी ने चूल्हे पर रखी कड़ाही को फेंक दिया. अपना सिर पकड़ कर वे नीचे बैठ गईं और जोर से बोलीं, ‘मैं अभी आत्महत्या कर लेती हूं. तुम सब लोग मुझ से और मेरे पति से जलते हो.’

इतना सुन कर भैया दौड़ेदौड़े आए और भाभी का हाथ पकड़ कर अपने कमरे में ले गए. वे भी चीखने लगे, ‘मीरा, तुम इन जंगलियों के बीच में न बैठा करो. खाना अपने कमरे में ही बनेगा. ये अनपढ़ लोग तुम्हारी कद्र करना क्या जानें.’

भैया के आग्रह पर 4-5 दिनों बाद ही घर के बीच में दीवार उठा दी गई. सारा सामान आधाआधा बांट लिया गया. इस बंटवारे से पिताजी को बहुत बड़ा धक्का लगा था. वे बीमार रहने लगे थे. उन्होंने नौकरी से त्यागपत्र लिख दिया था.

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भैया केंद्र सरकार की ऊंची नौकरी में थे. अच्छाखासा वेतन उन्हें मिलता था. मनीष को याद नहीं है कि विवाह के बाद भैया ने एक रुपया भी पिताजी की हथेली पर धरा हो. पिताजी को इस बात की चिंता भी न थी. पुरानी संपत्ति काफी थी, घर चल जाता था.

एक दिन भाभी के गांव से कुछ लोग आए. गरमी के दिन थे. मनीष और घर के सभी लोग बाहर आंगन में सो रहे थे. अचानक मां आगआग चिल्लाईं. सभी लोग शोर से जाग गए. देखा तो घर जल रहा था. पड़ोसियों ने पानी डाला, दमकल विभाग की गाडि़यां आईं. किसी तरह आग पर काबू पाया गया. घर का सारा कीमती सामान जल कर राख हो गया था. घर के नाम पर अब खंडहर बचा था. भैया के हिस्से वाले घर को अधिक क्षति नहीं पहुंची थी. पिताजी ने कमचियों की दीवार लगा कर किसी तरह घर को ठीक किया था. मां रोती रहीं. मां का विश्वास था कि यह करतूत भाभी के गांव से आए लोगों की थी. पिताजी ने मां को उस वक्त खामोश कर दिया था, ‘बिना प्रमाण के इस तरह की बातें करना अच्छा नहीं होता.’

साहूकारी में लगा रुपया किसी तरह एकत्र कर के पिताजी ने मनीष की दोनों बहनों का विवाह निबटाया था.

उस समय मनीष 10वीं कक्षा का विद्यार्थी था. मां को गठियावात हो गया था. वे बिस्तर से चिपक गई थीं. पिताजी मां की सेवा करते रहे. मगर सेवा कहां तक करते? दवा के लिए तो पैसे थे ही नहीं. मनीष को स्कूल की फीस तक जुटाना बड़ा दुरूह कार्य था, सो, पिताजी ने, जो अब अशक्त और बूढ़े हो गए थे, एक जगह चौकीदारी की नौकरी कर ली.

भाभी को उन लोगों पर बड़ा तरस आया था. वे कहने लगीं, ‘मनीष, हमारे यहां खाना खा लिया करेगा.’ मां के बहुत कहने पर मनीष तैयार हो गया था. वह पहले दिन भाभी के घर खाने को गया तो भाभी ने उस की थाली में जरा सी खिचड़ी डाली और स्वयं पड़ोसी के यहां गपें लड़ाने चली गईं. उस दिन वह बेचारा भूखा ही रह गया था.

मनीष ने निश्चय कर लिया था कि अब वह भाभी के घर खाना खाने नहीं जाएगा. इस का परिणाम यह निकला कि भाभी ने सारे महल्ले में मनीष को अकड़बाज की उपाधि दिलाने का प्रयास किया.

मां कई दिनों तक बीमार पड़ी रहीं और एक दिन चल बसीं. मनीष रोता रह गया. उस के आंसू पोंछने वाला कोई भी न था.

पिताजी का अशक्त शरीर इस सदमे को बरदाश्त न कर सका. वे भी बीमार रहने लगे. अचानक एक दिन उन्हें लकवा मार गया. मनीष की पढ़ाई छूट गई. वह पिताजी की दिनरात सेवा करने में जुट गया. पिताजी कुछ ठीक हुए तो मनीष ने पास की एक फैक्टरी में मजदूरी करनी शुरू कर दी.

लकवे के एक वर्ष पश्चात पिताजी को हिस्टीरिया हो गया. उसी बीमारी के दौरान वे चल बसे. मनीष के चारों ओर विपत्तियां ही विपत्तियां थीं और विपत्तियों में भैयाभाभी का भयानक चेहरा उस के कोमल हृदय पर पीड़ाओं का अंबार लगा देता. उस ने शहर छोड़ देना ही उचित समझा.

एक दिन चुपके से वह मुंबई की ओर प्रस्थान कर गया. वहां कुछ हमदर्द लोगों ने उसे ट्यूशन पढ़ाने के लिए कई बच्चे दिला दिए. मनीष ने ट्यूशन करते हुए अपनी पढ़ाई भी जारी रखी. प्रथम श्रेणी में पास होने से उसे मैडिकल कालेज में प्रवेश मिल गया. उसे स्कौलरशिप भी मिलती थी.

फिर एक दिन मनीष डाक्टर बन गया. दिन गुजरते रहे. मनीष ने विवाह नहीं किया. वह डाक्टर से सर्जन बन गया. फिर उस का तबादला नागपुर हो गया यानी वह फिर से अपने शहर में आ गया.

मनीष ने भैया व भाभी से फिर से संबंध जोड़ने के प्रयास किए थे किंतु वह असफल रहा था. भाभी घायल नागिन की तरह उस से अभी भी चिढ़ी हुई थीं. उन्हें दुख था तो यह कि उन्होंने जिस परिवार को उजाड़ने का प्रण लिया था, उसी परिवार का एक सदस्य पनपने लगा था.

मनीष को भाभी के इस प्रण की भनक लग गई थी किंतु इस से उसे कोई दुख नहीं हुआ. उस के चेहरे पर हमेशा चेरी के फूल की हंसी थिरकती रहती थी. उस ने सोच रखा था कि भाभी के मन में उगे जहर के पौधे को वह एक दिन जरूर धराशायी कर देगा.

मनीष को संयोग से मौका मिल भी गया था. भाभी के पेट में एक बड़ा फोड़ा हो गया था. उस फोड़े को समाप्त करने के लिए औपरेशन जरूरी था. यह संयोग की ही बात थी कि वह औपरेशन मनीष को ही करना पड़ा.

वह जानता था कि यदि औपरेशन असफल रहा तो भैया जरूर उस पर हत्या का आरोप लगा देंगे. वह अपने कमरे में बैठा इसी बात को बारबार सोच रहा था.

‘अनुपमा’ को 22 साल के करियर में पहली बार मिला बड़ा अवॉर्ड, एक्ट्रेस की आंखों में आ गए आंसू

टीवी सीरियल ‘अनुपमा’ की लीड एक्ट्रेस रुपाली गांगुली (Rupali Ganguly) किसी पहचान की मोहताज नहीं हैं. वह अपने किरदार से दर्शकों के दिल पर राज करती हैं. एक्ट्रेस घर-घर में अनुपमा के नाम से पॉपुलर है. रुपाली गांगुली टीवी शो अनुपमा (Anupamaa) में अपने एक्टिंग की वजह से दर्शकों की मोस्ट फेवरेट टीवी एक्ट्रेस बन चुकी हैं

हाल ही में रुपाली गांगुली को दादा साहब इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल अवॉर्ड्स 2022 से सम्मानित किया गया है. जी हां, इस अवॉर्ड शो में अनुपमा को टेलीविजन सीरीज ऑफ द ईयर अवॉर्ड से नवाजा गया है. तो वहीं अनुपमा को मोस्ट प्रॉमिसिंग एक्ट्रेस इन टेलीविजन सीरीज अवॉर्ड मिला.

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बता दें कि ये अनुपमा के करियर का अब तक का पहला बड़ा अवॉर्ड है. अनुपमा ने खुद इस बात का खुलासा किया है. अनुपमा ने दादा साहब फालके अवॉर्ड जीतने के बाद एक इंटरव्यू में कहा कि मेरे 22 साल के करियर में ये मेरा पहला बड़ा अवॉर्ड है. जो मुझे अब मिला. कई लोगों को इस बात पर विश्वास नहीं हो रहा था.

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एक्ट्रेस ने कहा कि मैं आपको बता नहीं सकती हूं कि मुझे कितनी खुशी हो रही है. अनुपमा काफी इमोशनल भी हो गईं और उनकी आंखों में आंसू भी आ गए है. रुपाली गांगुली ने अपनी खुशी जाहिर करते बताया कि मेकर्स और लेकर मेरी फैमिली ने मुझे यहां तक पहुंचाने में बहुत सपोर्ट किया है. फैन्स भी हमें मोटिवेट करते हैं. मुझे विश्वास नहीं हो रहा है लगता है ये सपना है और मैं इससे कभी नहीं जागना चाहती हूं.

 

बता दें कि साल रुपाली गांगुली ‘अनुपमा’ के नाम से काफी फेमस हैं. इस शो का टीआरपी लिस्ट में लगातार दबदबा देखने को मिल रहा है. शो की कहानी में  दिखाया जा रहा है कि अनुपमा भी अपने जिंदगी में आगे बढ़ रही है. उसने अनुज से प्यार का इजहार कर दिया है तो वहीं वनराज अनुपमा के रास्ते में विलेन बनकर खड़ा रहेगा.

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Kumkum Bhagya की ‘रिया मेहरा’ ने मां बनने से पहले छोड़ा शो, टीम ने दी शानदार फेयरवेल पार्टी

टीवी सीरियल  ‘कुमकुम भाग्य’ (Kumkum Bhagya) की रिया मेहरा यानी पूजा बनर्जी ने शो को अलविदा कह दिया है. शो की टीम ने एक्ट्रेस को शानदार फेयरवेल पार्टी दी है. जी हां, पूजा बनर्जी की फेयरवेल की फोटोज सोशल मीडिया पर सामने आया है.

कुछ समय पहले ही ‘कुमकुम भाग्य’ की एक्ट्रेस ने अपनी प्रेग्नेंसी का ऐलान किया है. तो अब पूजा बनर्जी ने ‘कुमकुम भाग्य’ को अलविदा कहने का फैसला लिया है. बीते दिन सीरियल ‘कुमकुम भाग्य’ के सेट पर पूजा बनर्जी का आखिरी दिन था.

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रिया मेहरा ने अपनी शूटिंग के आखिरी दिन की फोटोज सोशल मीडिया पर फैंस के साथ शेयर की हैं. इस पार्टी में शो के कई सितारे दिखाई दे रहे हैं. एक्ट्रेस ने सेट पर पूरी टीम के साथ खूब मस्ती की है और एक से बढ़कर एक पोज दिए.

 

एक्ट्रेस सोशल मीडिया पर एक वीडियो शेयर कर इस बात की जानकारी दी है कि उन्होंने शो को अलविदा कह दिया है. वीडियो में पूजा बनर्जी ने ये बात साफ-साफ कह दी है कि उन्होंने सीरियल ‘कुमकुम भाग्य’ की शूटिंग खत्म कर ली है. उन्होंने फैंस से ये भी कहा है कि वो अपनी मैटरनिटी लीव खत्म होते ही शो में दोबारा वापसी करेंगी.

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सीरियल ‘कुमकुम भाग्य’ में अब पूजा बनर्जी नहीं नजर आएंगी. आपको बता दें कि पूजा बनर्जी से पहले शिखा सिंह ने भी प्रेग्नेंसी के दौरान ‘कुमकुम भाग्य’ को छोड़ दिया था. अब तक ये एक्ट्रेस भी शो में वापसी नहीं की है.

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परजीवी लोगों की एक नई किस्म वायरस की तरह फैल रही है!

समाज के 2 वर्ग हमेशा से महलनुमा मकानों से घर से निकले बिना मोटी कमाई करते रहे हैं. राजा और उस के दरबारी व पंडित व धर्म के सौदागर हमेशा ही बिना जमीनी मेहनत के सुख की ङ्क्षजदगी जीते रहे हैं. राजा कहता रहा कि उस ने या उस के पुरखों ने कभी लड़ाई में भाग लिया था इस के लिए उसे आराम से धूप, आंधी, बर्फ में मेहनत के काम से छूट मिली हुई है और यही पंडितपादरी कहता रहा है कि उसे भगवान ने नियुक्त किया है वह समाज को भगवान तक भलीभांति ले जाए इसलिए घर में बैठ कर खाने का हकदार है.

अब इस में एक नया वर्ग घुस गया है. टैक सैवी मैनेजरों का जो वर्कफ्रौम होम के सहारे टैक्नोलोजी का लाभ उठा कर घर बैठ कर ठाठ से कमा सकते है और कीड़ेमकोड़ों की तरह जमीन पर, खेतों में, कारखानों में, फौज में, पुलिस में, सेवाओं में काम करने को मजबूर हैं. आज पूरी चर्चा वर्क फ्रौम होम को ही रही है, इस के गुणगान गाए जा रहे हैं.

यह उन खास लोगों के लिए किया जा रहा है जिन्हे टैक्नोलौजी के बावजूद फिजिकल मीङ्क्षटगों में पहुंचने के लिए घंटों ट्रैफिक में फंसना होता था, मैट्रो या बसों में दफ्तरों में पहुंचना होता था. दिन के 24 घंटों में से 6-7 घंटे आनेजाने या दफ्तरों में इधर से उधर चलने में मजबूर होना पड़ता था. अब इस वर्ग के लिए कोविड 19 एक खास उपहार छोड़ गया है कि हर रोज दफ्तर आने की जरूरत क्या है, घर पर रहो, क्लब में रहो, रेस्ट्राओं में रहो, घूमोफिरो और फिर भी दफ्तर का काम करते रहो और कमाई करते रहो. यह ठीक है कि इन लोगों की उत्पादकता घटी नहीं है, उलटे हो सकता है बढ़ गई हो, पर जो भेद व्हाइट कौलर वर्कर और ब्लूकौलर वर्कर में पहले था अब और बढ़ गया है, उन की दूरिया बढ़ गई हैं.

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कोविड 19 ने तो कोई वर्ग नहीं रखा था पर आखिर ऐसा क्या हुआ कि दुनिया की सारी सरकारों ने लौकडाउन कर दिए पर कारखाने चलते रहने दिए, बिजली आती रही. खानेपीने पहनने का सामान बनता रहा, मनोरंजन का क्षेत्र सिनेमा से हट कर घर की स्क्रीन पर आ गया पर चालू रहा.

यह सब इस इंक्रास्ट्क्चर के कारण हुआ जिसे चलाने के लिए कोविड 19 के संपर्क में आ सकने वाले वर्करों को घरों से निकलना पड़ा. अस्पताल चले, एंबूलेंस चलीं, एंबूलेंस बनी, दवा कंपनियों ने रातदिन काम वर्करों की सहायता से किया, फौज ने काम किया, पुलिस वाले कदमकदम पर बाहर निकले. फिर वर्क फ्रौम होम का गुणगान करने वालों में कौन से ऐसी छूत लगी थी कि वे दफ्तरों में जाते तो कोविड 19 भयंकर हो जाता.

यह एक साजिश सा लगने लगा है कि राजाओं और धर्म बेचने वालों की तरह आज के नए हथियार, कंप्यूटर टैक्नोलौजी वालों ने अपने लिए खास जगह बना ली कि वे आलीशान मकानों में बने रहेंगे, आम लोग सडक़ों की धूल खाते रहेंगे.

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परजीवी लोगों की एक नई किस्म वायरस की तरह फैल गई है जो वर्क फ्रौम होम का लाभ उठा रही है और ढाई वर्क औन रोट्स एंड फ्रैक्ट्रीज को और ज्यादा चूस पा रही है. इतनी गुलामी कामगारों ने इतिहास में पहले कभी नहीं देखी होगी क्योंकि पहले मुखियाओं को मकान जरूर मिलता था पर प्रकृति की मार बारबार सहनी पड़ती थी. अब उन की ईजाद पर उसे इस्तेमाल कर सकने वाली लायक बनाने वाली गुलामों की गिनती भी बढ़ गई और उन पर काम का बोझ भी.

चक्कर हारमोंस का- भाग 1: मंजु के पति का सीमा के साथ चालू था रोमांस

कालेज की सहेली अनिता से करीब 8 साल बाद अचानक बाजार में मुलाकात हुई तो हम दोनों ही एकदूसरे को देख कर चौंकीं.

‘‘अंजु, तू कितनी मोटी हो गई है,’’ अनिता ने मेरे मोटे पेट में उंगली घुसा कर मुझे छेड़ा.

‘‘और तुम क्या मौडलिंग करती हो? बड़ी शानदार फिगर मैंटेन कर रखी है तुम ने, यार?’’ मैं ने दिल से उस के आकर्षक व्यक्तित्व की प्रशंसा की.

‘‘थैंक्यू, पर तुम ने अपना वजन इतना ज्यादा…’’

‘‘अरे, अब 2 बच्चों की मां बन चुकी हूं मोटापा तो बढ़ेगा ही. अच्छा, यह बता कि तुम दिल्ली में क्या कर रही हो?’’ मैं ने विषय बदला.

‘‘मैं ने कुछ हफ्ते पहले ही नई कंपनी में नौकरी शुरू की है. मेरे पति का यहां ट्रांसफर हो जाने के कारण मुझे भी अपनी अच्छीखासी नौकरी छोड़ कर मुंबई से दिल्ली आना पड़ा. अभी तक यहां बड़ा अकेलापन महसूस हो रहा था पर अब तुम मिल गई हो तो मन लग जाएगा.’’

‘‘मेरा घर पास ही है. चल, वहीं बैठ कर गपशप करती हैं.’’

‘‘आज एक जरूरी काम है, पर बहुत जल्दी तुम्हारे घर पति व बेटे के साथ आऊंगी. मेरा कार्ड रख लो और तुम्हारा फोन नंबर मैं सेव कर लेती हूं,’’ और फिर उस ने अपने पर्स से कार्ड निकाल कर मुझे पकड़ा दिया. मैं ने सरसरी निगाह कार्ड पर डाली तो उस की कंपनी का नाम पढ़ कर चौंक उठी, ‘‘अरे, तुम तो उसी कंपनी में काम करती हो जिस में मेरे पति आलोक करते हैं.’’

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‘‘कहीं वे आलोक तो तेरे पति नहीं जो सीनियर सेल्स मैनेजर हैं?’’

‘‘वही मेरे पति हैं…क्या तुम उन से परिचित हो?’’

‘‘बहुत अच्छी तरह से…मैं उन्हें शायद जरूरत से कुछ ज्यादा ही अच्छी तरह से जानती हूं.’’ ‘‘इस आखिरी वाक्य को बोलते हुए तुम ने अजीब सा मुंह क्यों बनाया अनिता?’’ मैं ने माथे में बल डाल कर पूछा तो वह कुछ परेशान सी नजर आने लगी. कुछ पलों के सोचविचार के बाद अनिता ने गहरी सांस छोड़ी और फिर कहा, ‘‘चल, तेरे घर में बैठ कर बातें करते हैं. अपना जरूरी काम फिर कभी कर लूंगी.’’

‘‘हांहां, चल, यह तो बता कि अचानक इतनी परेशान क्यों हो उठी?’’

‘‘अंजु, कालेज में तुम्हारी और मेरी बहुत अच्छी दोस्ती थी न?’’

‘‘हां, यह तो बिलकुल सही बात है.’’

‘‘उसी दोस्ती को ध्यान में रखते हुए मैं तुम्हें तुम्हारे पति आलोक के बारे में एक बात बताना अपना फर्ज समझती हूं…तुम सीमा से परिचित हो?’’

‘‘नहीं, कौन है वह?’’

‘‘तुम्हारे पति की ताजाताजा बनी प्रेमिका माई डियर फ्रैंड. इस बात को सारा औफिस जानता है…तुम क्यों नहीं जानती हो, अंजु?’’

‘‘तुम्हें जरूर कोई गलतफहमी हो रही है, अनिता. वे मुझे और अपनी दोनों बेटियों से बहुत प्यार करते हैं. बहुत अच्छे पति और पिता हैं वे…उन का किसी औरत से गलत संबंध कभी हो ही नहीं सकता,’’ मैं ने रोंआसी सी हो कर कुछ गलत नहीं कहा था, क्योंकि सचमुच मुझे अपने पति की वफादारी पर पूरा विश्वास था.

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‘‘मैडम, यह सीमा कोई औरत नहीं, बल्कि 25-26 साल की बेहद सुंदर व बहुत ही महत्त्वाकांक्षी लड़की है और मैं जो बता रही हूं वह बिलकुल सच है. अब आंसू बहा कर यहां तमाशा मत बनना, अंजु. हर समस्या को समझदारी से हल किया जा सकता है. चल,’’ कह वह मेरा हाथ मजबूती से पकड़ कर मुझे अपनी कार की तरफ ले चली. उस शाम जब आलोक औफिस से घर लौटे तो मेरी दोनों बेटियां टीवी देखना छोड़ कर उन से लिपट गईं. करीब 10 मिनट तक वे दोनों से हंसहंस कर बातें करते रहे. मैं ने उन्हें पानी का गिलास पकड़ाया तो मुसकरा कर मुझे आंखों से धन्यवाद कहा. फिर कपड़े बदल कर अखबार पढ़ने बैठ गए. मैं कनखियों से उन्हें बड़े ध्यान से देखने लगी. उन का व्यक्तित्व बढ़ती उम्र के साथ ज्यादा आकर्षक हो गया था. नियमित व्यायाम, अच्छा पद और मोटा बैंक बैलेंस पुरुषों की उम्र को कम दिखा सकते हैं. उन का व्यवहार रोज के जैसा ही था पर उस दिन मुझे उन के बारे में अनिता से जो नई  जानकारी मिली थी, उस की रोशनी में वे मुझे अजनबी से दिख रहे थे.

‘‘मैं भी कितनी बेवकूफ हूं जो पहचान नहीं सकी कि इन की जिंदगी में कोई दूसरी औरत आ गई है. अब कहां ये मुझे प्यार से देखते और छेड़ते हैं? एक जमाना बीत गया है मुझे इन के मुंह से अपनी तारीफ सुने हुए. मैं बच्चों को संभालने में लगी रही और ये पिछले 2 महीनों से इस सीमा के साथ फिल्में देख रहे हैं, उसे लंचडिनर करा रहे हैं. क्या और सब कुछ भी चल रहा है इन के बीच?’’ इस तरह की बातें सोचते हुए मैं जबरदस्त टैंशन का शिकार बनती जा रही थी. अनिता ने मुझे इन के सामने रोने या झगड़ा करने से मना किया था. उस का कहना था कि मैं ने अगर ये 2 काम किए तो आलोक मुझ से खफा हो कर सीमा के और ज्यादा नजदीक चले जाएंगे. रात को उन की बगल में लेट कर मैं ने उन्हें एक मनघड़ंत सपना संजीदा हो कर सुनाया, ‘‘आज दोपहर को मेरी कुछ देर के लिए आंख लगी तो मैं ने जो सपना देखा उस में मैं मर गई थी और बहुत भीड़ मेरी अर्थी केपीछे चल रही थी,’’ पूरी कोशिश कर के मैं ने अपनी आंखों में चिंता के भाव पैदा कर लिए थे.

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