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रूस-यूक्रेन युद्ध में बलि चढ़ी मैडिकल छात्रों की पढ़ाई

24 फरवरी से शुरू हुए रूस और यूक्रेन के बीच का भयंकर युद्ध कब रुकेगा, यह अभी साफ नहीं है. एक तरफ रूस का लगातार यूक्रेन पर आक्रमण जारी है, दूसरी तरफ यूक्रेन रूस की ताकत के आगे डट कर खड़ा है, हार नहीं मान रहा. युद्ध के बीच हर क्षण कुछ न कुछ नई बातें सुनाई पड़ रही हैं, जो पहले से ज्यादा डरावनी शक्ल में ही सामने आ रही हैं.

गौरतलब है कि इस युद्ध से होने वाले नुकसान की गणना होनी अभी बाकी है. इस का एक अलग अध्याय इतिहास के पन्नों में दर्ज होना बाकी है, लेकिन यह तय है कि इस युद्ध ने रूस और यूक्रेन की जनता को तो क्षति पहुंचाई ही, साथ ही यह भारत के लिए भी कम क्षति वाला नहीं रहा.

कुछ दिनों पहले ही यूक्रेन में पढ़ाई कर रहे कर्नाटक के रहने वाले छात्र नवीन शेखरप्पा की रूसी गोलीबारी में मौत की खबर सामने आई थी. 4 मार्च को पंजाब के रहने वाले भारतीय छात्र चंदन जिंदल की हार्टअटैक से मौत की खबर भी यूक्रेन से आई.

हालांकि सरकारी आंकड़ों के अनुसार यूक्रेन में फंसे तकरीबन 20 हजार भारतीय छात्र थे जिन में से अधिकतर छात्रों को सुरक्षित निकाल लिया गया है, पर अब यूक्रेन के मैडिकल कालेजों में पढ़ाई कर रहे इन भारतीय छात्रों के सामने एक भयंकर समस्या आ गई है. ये छात्र जान बचा कर यूक्रेन से निकल तो चुके हैं पर अब घबराए हुए हैं कि उन के भविष्य का क्या होगा? सरिता पत्रिका ने इस पर यूक्रेन से भारत लौटे छात्रों से बात की.

महाराष्ट्र के पनवेल के नजदीक रहने वाली 19 साल की प्रतीची दीपक पवार यूक्रेन के पश्चिमी इलाके इवानो फ्रैंकिव्स्क स्थित नैशनल मैडिकल यूनिवर्सिटी में सैकंड ईयर की छात्रा है. प्रतीची को बचपन से डाक्टर बनना था. प्रतीची ने अपने क्षेत्र में डाक्टर की कमी को देखा था और उन के दादा की मृत्यु हार्टअटैक के चलते हुई थी, जिस कारण वह डाक्टर बनना चाहती थी.

प्रतीची की माताजी सरकारी कर्मचारी हैं. दिसंबर 2019 में परिवार ने बड़े जतन से प्रतीची को यूक्रेन में मैडिकल की पढ़ाई करने भेजा था. उस ने गैरमुल्क में अपना मन लगाना शुरू किया ही था कि युद्ध छिड़ गया. प्रतीची कहती है, ‘‘मु?ो वहां (यूक्रेन) एडजस्ट करने में 2 महीने का समय लगा था और अब मैं खुश थी, पर युद्ध ने सब बेकार कर दिया.’’

प्रतीची आगे बताती है, ‘‘यूक्रेन में पिछले एक महीने से बारबार युद्ध शुरू होने की बात चल रही थी, पर किसी को लगा नहीं था कि युद्ध वाकई शुरू हो जाएगा.’’ वह कहती है, ‘‘मेरा कालेज यूक्रेन के पश्चिमी भाग में है, इसलिए वहां युद्ध की संभावना कम थी. रोज की तरह ही हम सभी कालेज जा रहे थे. एक दिन एक आर्टिकल पढ़ा तो पता चला कि कीव और खारकीव में लड़ाई शुरू हो गई है. बम गिराए जा रहे हैं, फिर पता चला कि इवानो एअरपोर्ट को भी उड़ा दिया गया है.

‘‘अब हमें डर लगने लगा था और एंबेसी से भी कालेज बंद करने को कह दिया गया था. हमारी टीचर्स हमें यह कह कर सांत्वना देती रहीं कि ‘वार नहीं होगा’. लेकिन आज हालात सब के सामने हैं. सब को यह डर था कि जब उन लोगों ने एअरपोर्ट को उड़ा दिया है तो हम सभी अब सुरक्षित नहीं हैं.’’

इस के आगे प्रतीची कहती है, ‘‘भारतीय एंबेसी से एडवाइजरी आई थी कि हम सभी को

4 बौर्डरों से निकाला जाएगा. एंबेसी ने कौन्ट्रैक्टर भेजा, पर हम सभी 4 से 5 हजार छात्र थे, इसलिए सब को एकसाथ निकालना संभव न था. पहले सुविधा केवल होस्टल के छात्रों के लिए थी.

‘‘मैं अपार्टमैंट में 2 लड़कियों के साथ रहती थी और इंतजार नहीं कर सकती थी, हम सभी सीनियर्स और जूनियर्स 50 स्टूडैंट्स ने मिल कर पैसे इकट्ठे कर प्राइवेट बस की और रोमानिया बौर्डर की ओर चल दिए. यहां हमें 2 बौर्डर क्रौस करने थे, यूक्रेन और रोमानिया. यूक्रेन बौर्डर पार करने में हमें अधिक मुश्किल नहीं आई, क्योंकि हम सभी पहले निकल चुके थे. बाद में आने वालों को अधिक कठिनाई ?ोलनी पड़ी, क्योंकि यूक्रेन से यूक्रेनी, इंडियन और दूसरे देश के लोग भी निकलना चाह रहे थे.’’

प्रतीची बताती है, ‘‘जब वह बौर्डर पहुंची तो यूक्रेनी ह्यूमन चैन बना कर छात्रों को रोक रहे थे, क्योंकि वे पहले यूक्रेनियों को रोमानिया भेजना चाह रहे थे.’’

वह आगे कहती है, ‘‘एंबेसी से स्टूडैंट्स को यह निर्देश दिया गया था कि यूक्रेन से निकलते वक्त इंडिया का फ्लैग चिपका लेना. हम सभी ने ऐसा ही किया. इस से हमें किसी ने नहीं रोका. लेकिन यूक्रेन के बौर्डर पर थोड़ी मुश्किलें आईं. यूक्रेनी थोड़ा रेसिस्ट हुए, क्योंकि उन्हें भी निकलना था. उस में भी पहले लड़कियों को, फिर लड़कों को करीब 5 घंटे बाद छोड़ा गया.’’

प्रतीची बताती है कि रोमानिया पहुंचने के बाद उन्हें खानेपीने से ले कर सोने की सही जगह सबकुछ दिया गया.

प्रतीची ने बताया कि उन्हें खानेपीने की समस्या अधिक नहीं आई. जहां वह रह रही थी वहां का तापमान शून्य डिग्री था तो सभी ने मौसम के हिसाब से कपड़े पहन लिए थे. बाद में स्नोफौल शुरू हुआ और तापमान घटा.

प्रतीची 26 फरवरी को अपना ग्रुप बना कर इवानो से निकल पड़ी थी. यूक्रेन में तो खानेपीने की कोई व्यवस्था नहीं थी, पर रोमानिया पहुंचते ही उन्हें जरूरत की चीजें मिलीं. वह बताती है कि रोमानिया के लोगों ने उन सभी की अच्छी देखभाल की.

वह कहती है, ‘‘हम सभी यूक्रेन के बौर्डर तक पहुंचे थे तो आगे जाने नहीं दिया जा रहा था. फिर हम सभी ने एंबेसी को ट्वीट कर समस्या बताई थी. उन्होंने बच्चों की लिस्ट मांगी थी, लेकिन तब तक हमें रोमानिया जाने दिया गया. वहां इंडिया और रोमानिया की एंबेसी ने बहुत सहयोग दिया. फ्लाइट का खर्चा नहीं देना पड़ा. दिल्ली के बाद राज्य सरकार भी मुंबई फ्री में ला रही थी. लेकिन मैं ने पहले ही टिकट ले लिया था और 28 फरवरी को मुंबई आ गई.’’

प्रतीची बताती है, ‘‘यूक्रेन में मैडिकल का पूरा कोर्स 6 साल का होता है, जिस में से 4 साल पढ़ाई उन की बाकी है. यूक्रेन में रहने और खाने को ले कर पूरा मैडिकल का खर्चा 40 से 50 लाख तक औसतन हर छात्र का पहुंच जाता है. अधिकतर छात्र पढ़ाई पूरी कर दूसरी कंट्री के लिए कोशिश करते हैं. इंडिया की ‘फौरेन मैडिकल ग्रेजुएट्स एग्जामिनेशन’ यानी एफएमजीई बहुत कठिन है और कम बच्चे ही उसे क्लीयर कर पाते हैं. इसलिए छात्र यूक्रेन पढ़ाई के लिए जाते हैं.’’

हालांकि प्रतीची उस समय के इंतजार में है जब युद्ध जल्द से जल्द खत्म हो और वह वापस यूक्रेन जा कर अपनी पढ़ाई पूरी कर सके. वह कहती है, ‘‘युद्ध रुकने पर मैं वापस अपनी यूनिवर्सिटी में पढ़ना चाहती हूं. अब परिवार वाले भी बहुत खुश हैं लेकिन मेरी पढ़ाई खराब न हो, इस की चिंता सभी को है.’’

स्टडी इंटरनैशनल के मुताबिक, 2011 से ले कर 2020 के दौरान यूक्रेन में पढ़ने वाले विदेशी छात्रों की संख्या में

42 फीसदी का इजाफा हुआ. यूक्रेन में करीब 76 हजार विदेशी छात्र पढ़ रहे थे, जिन में से 24 फीसदी भारतीय हैं. रिपोर्ट में बताया गया है कि हर साल करीब

6 हजार भारतीय छात्र एमबीबीएस और बीडीएस की पढ़ाई के लिए यूक्रेन का रुख करते हैं.

द्य ऐसे ही मैडिकल की पढ़ाई के लिए 19 वर्षीय आर्यन पाटिल वर्ष 2019-20 में यूक्रेन गए थे. उन्होंने मुंबई के निकट अलीबाग से 12वीं की परीक्षा पास की, जिस के बाद वे यूक्रेन चले गए. आर्यन कहते हैं, ‘‘इंडिया में नीट के एग्जाम में अच्छे मार्क्स पाने पर ही एडमिशन मिलता है. मेरा स्कोर कम था, इसलिए मैं ने दूसरे देश में जा कर पढ़ने का मन बनाया. मेरे पेरैंट्स टीचर हैं और मैं बेहद साधारण परिवार से हूं.’’

आर्यन को बचपन से ही डाक्टर बनने का शौक था. वे डाक्टरों की देश में जरूरत को ले कर कहते हैं, ‘‘मैं ने देखा है कि डाक्टर के सही इलाज से ही मरीज ठीक होते हैं और मैं भी वैसे ही समर्पण के साथ इलाज करना चाहता हूं.’’

बता दें, यूक्रेन से मैडिकल डिग्री को वैश्विक स्तर पर स्वीकार्यता भी मिली हुई है. वर्ल्ड हैल्थ काउंसिल के साथ इंडियन मैडिकल काउंसिल और यूरोपीय मैडिकल काउंसिल भी इसे मान्यता देती हैं. जिस के चलते यहां से जिन छात्रों ने मैडिकल की पढ़ाई की होगी, वे अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोप समेत बड़े देशों में जा कर प्रैक्टिस कर सकते हैं. यही कारण है कि बहुत से भारतीय यूक्रेन में डाक्टरी की पढ़ाई के लिए जाते हैं.

आर्यन का एडमिशन यूक्रेन के नैशनल पिरोगोव मैमोरियल मैडिकल यूनिवर्सिटी, विनयातस्य में हुआ था. यह जगह यूक्रेन की राजधानी कीव से 4 घंटे की दूरी पर है. उन का कोर्स भी 6 साल का है. इस समय आर्यन सैकंड ईयर

में है.’’

आर्यन ने बताया, ‘‘अमेरिका से लगातार इनफौर्मेशन आ रही थी कि वार होने वाला है. पहले 16 फरवरी, फिर

19 फरवरी को आया लेकिन वार नहीं हुआ. फिर एक रात 24 फरवरी की सुबह को कीव में बम गिरा और 13 मार्च तक कालेज बंद कर दिया गया. अभी तक पता चला है कि यूक्रेन के बाउंड्री के सभी शहर नष्ट हो गए हैं. यूक्रेन बहुत सुंदर व अच्छा देश है. वहां के लोग काफी अच्छे और मिलनसार हैं.’’

आर्यन बताते हैं, ‘‘एमबीबीएस पूरी करने के बाद अगर वे फौरन मैडिकल ग्रेजुएट एग्जामिनेशन क्वालीफाई कर लेते हैं तो उन्हें इंडिया में डाक्टरी का लाइसैंस मिल जाएगा और वे प्रैक्टिस करने के अलावा आगे भी पढ़ सकते हैं.’’

यूक्रेन से निकलने के प्रयास के बारे में पूछने पर आर्यन कहते हैं, ‘‘हम सभी कुछ सामान इकट्ठा कर बाहर निकलने की तैयारी कर रहे थे कि तभी साइरन की आवाज आने पर बंकर में चले जाना पड़ता था. फिर बाहर आते थे. फिर हम सभी फ्रैंड्स ने बौर्डर पर जाते हुए कुछ लोगों को देखा और हम सभी ने कोशिश की और निकल गए. बस में 80 से 100 छात्रों का समूह 10 से 12 घंटे बाद रोमानिया के बौर्डर के पास पहुंचे. मेरी यूनिवर्सिटी में लोग अधिक नहीं थे, सब अपनी जान बचाने के लिए व्यस्त थे.

‘‘भारत एंबेसी से फोन नंबर मिला रहे थे, उन लोगों ने थोड़ी सहायता की है. कौल करने की सुविधा मिल रही थी. यूक्रेन के बौर्डर पर सेना आगे जाने नहीं दे रही थी. धीरेधीरे कर भेज रहे थे. यूक्रेन बौर्डर को क्रौस करने के बाद सबकुछ थोड़ा स्मूथ हुआ. वहां भारत सरकार की तरफ से एंबेसी वालों ने अच्छे तरीके से फ्लाइट अरेंज करवाई और हम सभी के लिए सबकुछ ठीक हुआ.

‘‘मैं डायरैक्ट मुंबई आया. 190 छात्र मेरे साथ फ्लाइट में थे, जो अलगअलग राज्यों से थे. यूक्रेन से रोमानिया के बौर्डर तक 10 से 12 किलोमीटर चल कर जाना पड़ा. वहां यूक्रेन के लोग खाना दे रहे थे, पर खाना बहुत कम था. रोमेनिया पहुंचने पर सब आसान हो गया. बस से हमें बौर्डर से 12 किलोमीटर पहले छोड़ दिया गया. वहां से हमें पैदल जाना पड़ा. वहां जा कर देखा कि करीब 5 हजार छात्र वहां पहले से मौजूद थे. खानेपीने की बहुत समस्या थी.’’

आर्यन ने उदास स्वर में कहा, ‘‘मैं ने लोन लिया है, थोड़ा तनाव है, लेकिन यूरोपीय देश हमें वहां आ कर कोर्स पूरा करने के लिए बुला रहे हैं. इस बारे में अभी मैं ने सोचा नहीं है. इंडिया में अगर आगे पढ़ने को मिले तो अच्छी बात होगी. मेरे आने तक पेरैंट्स बहुत चिंतित थे, मां ने खाना छोड़ दिया था. अब सब ठीक है और आगे सब ठीक होने पर वापस अवश्य जाऊंगा.’’

देखा जा रहा है कि जिस समय से यूक्रेन में युद्ध शुरू हुआ, सत्तापक्ष से छात्रों को निकालने के प्रयासों की जगह उन्हें ही इस हालत का जिम्मेदार ठहराया गया. भाजपा के नेता यहां तक बयान देते पाए गए कि ये छात्र नीट में फेल हुए छात्र हैं, पर हकीकत यह है कि भारत में वजह मैडिकल सीटों की भारी कमी इस का कारण है कि छात्र विदेशों में पढ़ने को जाते हैं.

जितनी संख्या में उम्मीदवार हैं, उस की तुलना में सीटों की संख्या बहुत कम है. गौरतलब है कि भारत में एमबीबीएस की मात्र 88 हजार सीटें ही हैं. हर साल लाखों की संख्या में छात्र मैडिकल की पढ़ाई के लिए एग्जाम देते हैं. सरकारी कालेजों में 10 फीसदी उम्मीदवारों को भी दाखिला नहीं मिल पाता.

जाहिर तौर पर इन में से अधिकतर छात्र ऐसे हैं जो आगे जा कर भारत में डाक्टरी करेंगे. जाहिर है ऐसे समय जब देश में डाक्टरों की भारी जरूरत है तब इन छात्रों को हर तरह से मोरल सपोर्ट देने की जरूरत है. कई छात्र इन में ऐसे हैं जिन के मातापिता ने जीवनभर की कमाई अपने बच्चे की पढ़ाई पर खर्च कर उन्हें विदेश पढ़ने भेजा. मौजूदा वक्त में इन छात्रों का भविष्य अधर में है, इसलिए सत्तापक्ष के नेताओं को चाहिए कि ओछी टिप्पणी करने की जगह इन छात्रों के भविष्य को ध्यान रखते हुए हर संभव मदद करें.

बिन चेहरे की औरतें: सुकुमार औऱ जयंती की प्रेम कहानी

प्यार हम सभी के जीवन में किसी खूबसूरत सपने की तरह प्रवेश करता है. सुकुमार के जीवन में भी 30 वर्षों पहले प्यार की शीतल बयार आई थी लेकिन उस के बाद ऐसा पतझड़ आया जिसे कोई बहार हराभरा नहीं कर पाई…

बिन चेहरे की औरतें: भाग 1

Writer- श्वेता अग्रवाल

मैं औफिस के लिए तैयार हो चुकी थी. घर से निकलने ही वाली थी कि संपादकजी का फोन आ गया.

‘‘गुडमौर्निंग सर.’’

‘‘मौर्निंग, क्या कर रही हो?’’

उन्होंने पूछा.

‘‘औफिस के लिए निकल रही थी.’’

‘‘औफिस रहने दो, अभी एक

काम करो…’’

‘‘जी?’’

‘‘मेघा, तुम सुकुमार बनर्जी को जानती हो न?’’

‘‘वह फेमस आर्टिस्ट?’’

‘‘यस, वही,’’ संपादकजी ने बताया, ‘‘वे आज शहर में हैं. मैं ने तुम्हें उन का नंबर मैसेज किया है. उन्हें फोन करो. अगर अपौइंटमैंट मिल जाए तो उन का इंटरव्यू करते हुए औफिस आना.’’

‘‘ओके सर.’’

‘‘बैस्ट औफ लक,’’ उन्होंने कहा और फोन डिस्कनैक्ट कर दिया.

मैं ने व्हाट्सऐप पर संपादकजी के मैसेज में सुकुमार का नंबर देख कर उन्हें फोन  लगा दिया. मेरी आशा के विपरीत उन्होंने मु?ो तुरंत ही होटल सिद्धार्थ बुला लिया, क्योंकि वे दोपहर को अपने एक मित्र के यहां लंच पर आमंत्रित थे.

तकरीबन 50 वर्षीय सुकुमार बनर्जी एक आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक थे. वे न सिर्फ उम्र से

10 साल कम दिखाई देते थे, बल्कि अपनी ऊर्जा व कर्मठता के मामले में नौजवानों को मात देने में सक्षम थे.

अविवाहित सुकुमार पेशे से आर्टिस्ट थे. कला जगत में उन का काफी नाम था. हाल ही में उन्हें इंडो-जरमन विजुअल आर्ट सैंटर की ओर से ‘जोश’ (ज्वैल्स औफ सोसाइटी एंड ह्यूमैनिटी) सम्मान से नवाजा गया था. उन के चित्रों की एक बड़ी विचित्र सी खासीयत अकसर लोगों का ध्यान खींचती थी. वह यह कि वे अपनी पेंटिंग्स में महिला किरदारों के चेहरे चित्रित नहीं किया करते थे. बाकी हर चीज में पूरी डिटेल्स होती थी. सिर्फ महिला पात्र के चेहरे को वे आउटलाइन बना कर छोड़ देते थे. लोग उन की इस शैली को ले कर तरहतरह की अटकलें लगाते थे. जब भी उन से इस बारे में पूछा जाता, वे टाल जाते थे. शायद उन्हें अपने इर्दगिर्द रहस्यमयता का वातावरण बनाए रखने में मजा आता था. कुछ ही देर बाद मैं होटल सिद्धार्थ की लौबी में उन के सामने बैठ उन का इंटरव्यू कर रही थी.

‘‘प्यार हम सभी के जीवन में किसी खूबसूरत सपने की तरह प्रवेश करता है. लेकिन वे लोग समय के बलवान होते हैं जिन के लिए यह हकीकत का रूप ले कर अकेलेपन के पत?ाड़ में किसी बहार की तरह जज्बातों के जंगल को हराभरा बनाए रखता है. मेरे जीवन में तो 30 वर्षों पहले एक ऐसा पत?ाड़ आया जिसे कोई बहार अब तक हराभरा नहीं कर पाई है,’’ कहतेकहते उन्होंने दाएं हाथ से अपना चश्मा उतार, बाएं हाथ में पकड़े छोटे से रूमाल से अपनी आंखें पोंछी और वापस चश्मा आंखों पर लगा लिया.

उन की यह हालत देख मैं थोड़ा असहज हो गई. इस से पहले मैं ने कला व उन के जीवन से संबंधित बहुत सारे सवाल उन से पूछ डाले थे और सभी का जवाब उन्होंने बड़ी परिपक्वता व गंभीरता के साथ दिया था. लेकिन जैसे ही मैं ने उन के अविवाहित रहने की वजह और प्रेम से संबंधित उन के खयाल जानने के लिए सवाल किया तो उन की हालत ऐसी हो गई थी जैसे किसी ने उन की दुखती रग पर हाथ रख दिया हो.

‘‘आप पानी लेंगे या वेटर को कौफी लाने के लिए बोल दूं?’’ मैं ने उन की ओर देखते हुए पूछा.

‘‘जी, कुछ नहीं.’’ वे संयत होते हुए बोले, ‘‘माफ कीजिए, मैं थोड़ा इमोशनल किस्म का इंसान हूं.’’

‘‘जी, कोई बात नहीं,’’ मैं उन्हें सांत्वना देते हुए बोली, ‘‘वी कैन अवौइड दिस क्वैश्चन, इफ यू आर फीलिंग अनकंफर्टेबल विद इट?’’

‘‘नो, नो, इट्स ओके,’’ वे सीधे हो कर बैठ गए, ‘‘सच कहूं तो मु?ो अच्छा ही लगेगा किसी के साथ अपनी फीलिंग शेयर कर के. कम से कम उस घुटन से तो आजादी मिलेगी जिसे मैं

31 सालों से अपने भीतर समेटे हुए हूं.’’

‘‘जी, जैसा आप ठीक सम?ों,’’ मैं ने धीरे से कहा.

‘‘लेकिन इस से पहले कुछ वादा करना होगा आप को मु?ा से…’’ वे मेरी ओर ?ाके और मेरा हाथ अपने दोनों हाथों में थाम लिया, ‘‘वह यह कि आप मु?ो बीच में कहीं भी टोकेंगी नहीं और दूसरा यह कि आप इंटरव्यू में सिर्फ उतनी ही जानकारी शामिल करेंगी, जितनी जरूरी है.’’

‘‘जी, मैं पूरा खयाल रखूंगी कि आप को शिकायत का मौका न मिले,’’ मैं ने उन्हें आश्वस्त किया और वे मेरा हाथ छोड़ कर फिर से सीधे हो कर बैठ गए.

मैं ने अपने फोन को फिर से फ्लाइट मोड में डाल दिया और उस का वौयस रिकौर्डर औन कर उन की ओर देखा.

‘‘जयंती नाम था उस का,’’ उन्होंने कहना शुरू किया, ‘‘यह संयोग ही था जो हम एकदूसरे के संपर्क में आए थे. यों ही एक दिन फोन की घंटी बजी थी और मैं ने फोन उठा लिया था. ‘हैलो?’ मैं ने पूछा.

‘‘‘जी, क्या मैं सुकू से बात कर सकती हूं?’ उधर से एक लड़की की आवाज आई.

‘‘‘हां, मैं बोल रहा हूं. आप कौन?’ मैं ने असमंजस से पूछा.

‘‘‘सुकू, मैं जया बोल रही हूं.

कैसे हो?’ वह तो ऐसे

पूछ रही थी, जैसे जाने मेरी कितनी पुरानी परिचित हो.

‘‘‘कौन जया?’ मैं ने उल?ानभरे स्वर में पूछा. मैं इस नाम के किसी व्यक्ति को नहीं जानता था.

‘‘‘क्यों मजाक कर रहे हो?’ उस

ने कहा.

‘‘‘देखिए, मजाक मैं नहीं, आप कर रही हैं,’ मैं ने कड़े स्वर में कहा, ‘मैं आप को नहीं जानता.’

‘‘‘सुकुमार कहां है?’ वह भी कुछ उल?ान सी महसूस करने लगी थी.

‘‘‘कहा न, बोल रहा हूं,’ मैं और शुष्क हो गया था.

‘‘‘इज इट नौट टू फोर सिक्स नाइन थ्री फोर?’ उस ने परेशान हो कर पूछा.

‘‘‘यस, नंबर इज करैक्ट, लेकिन आखिर में आप ने शायद फोर की जगह वन प्रैस कर दिया,’ मैं रिलैक्स होने लगा, सोचा कि उस से जल्दी में गलत बटन दब गया होगा.

‘‘‘कमाल है, नंबर गलत, बंदा गलत, पर नाम वही,’ वह धीरे से बोली, फिर ‘सौरी’ कह कर फोन डिस्कनैक्ट कर दिया.

‘‘अगले दिन फिर रिंग बजी.

‘‘‘यस?’ मैं ने फोन उठा कर कहा.

‘‘‘सुकुमारजी, मैं जयंती बोल रही हूं और मु?ो उम्मीद है कि आज आप यह नहीं पूछेंगे कि कौन जयंती,’ वह मजाकिया स्वर में बोली.

‘‘‘ठीक है, नहीं पूछूंगा. लेकिन यह तो पूछ ही सकता हूं कि फोन कैसे किया,’ मैं ने नौर्मल टोन में पूछा.

‘‘‘सौरी बोलने के लिए, और…’

‘‘‘और किसलिए? क्योंकि सौरी तो आप ने कल ही बोल दिया था,’ मैं अपनी उत्सुकता को दबा नहीं पा रहा था, ‘‘‘दूसरी वजह क्या है?’

‘‘वह चुप रही. मैं ने फिर से अपना सवाल दोहराया कि उस ने फोन क्यों किया था.

‘‘‘इस उम्मीद में कि शायद रौंग नंबर पर एक राइट पर्सन से दोस्ती हो जाए,’ उस ने मधुर स्वर में जवाब दिया.

‘‘और फिर हम दोस्त बन गए. हर 2-3 दिनों के अंतर से हमारी फोन पर बातें होतीं. धीरेधीरे हम एकदूसरे से खुलने लगे और अपनी बातें, हौबीज, फीलिंग्स वगैरह शेयर करने लगे. उसे भी मेरी तरह आर्ट, मूवीज, म्यूजिक, डांस वगैरह में दिलचस्पी थी. हम देरदेर तक इन टौपिक्स पर बातें करते रहते. कई बार हमारी बात बीच में ही खत्म हो जाती तो मु?ो बहुत चिढ़ होती थी. यह 1990 की बात है. तब तक भारत में मोबाइल नहीं आया था और सारा संवाद या तो मिल कर या फिर बीएसएनएल के लैंडलाइन फोन के जरिए ही संभव था.

Summer Special: इस मौसम में बनाएं यह चटपटी चटनी

गरमी के मौसम में इमली की चटनी हमें दुष्प्रभाव से बचाता है. जैसे जी मचलाना, दस्त या ऊल्टी जैसी समस्याओं से भी बचाता है. इसके साथ-साथ यह पाचन के लिए भी फायदेमंद है.

सामग्री :

इमली – 1 कटोरी

पानी- आवश्यकतानुसार

हींग – 1 चुटकी

जीरा – आधा चम्मच

काला नमक – स्वादनुसार

नमक – स्वादनुसार

लाल मिर्च – दो चुटकी

नमक (स्वादनुसार)

बनाने की विधि :

इमली को कुछ समय तक गुनगुने पानी में गलाकर रखें.

अब इसके बीज निकाल लें और गुड़ एवं सभी मसाले डालकर इसे मिक्सर में पीस लें.

अब इस मिश्रण को उबाल लें और बने हुए पेस्ट को थोड़ा पतला कर लें.

अब इमली की चटनी तैयार है.

Shehnaaz Gill ने खेत में की मस्ती, देखें Video

पंजाब की कैटरीना कैफ और ‘बिग बॉस 13’ की फेमस कंटेस्टेंट शहनाज गिल (Shehnaaz Gill)  से जुड़ी हर खबर का फैंस को बसेब्री से इंतजार रहता है. आए दिन शहनाज गिल से रिलेटेड पोस्ट सोशल मीडिया पर वायरल होते रहते है. हाल ही में एक्ट्रेस अपने पिंड पहुंचीं हैं. उन्होंने वहां से एक वीडियो शेयर किया है. जिसमें वह खेतों में मस्ती करते हुए नजर आ रही हैं.

इस वीडियो में आप देख सकते हैं कि शहनाज गिल पिंड में खेतों में घूमते हुए, ट्रैक्टर चलाते हुए और वहां के माहौल का लुत्फ उठाती नजर आ रही है. वीडियो में एक्ट्रेस ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ की सिमरन की तरह खेतों में घूमती हुई दिखाई दीं. शहनाज गिल के इस वीडियो को अभी तक छह लाख से भी ज्यादा बार देखा जा चुका है. फैंस भी इसपर जमकर कमेंट कर रहे हैं. शहनाज गिल का क्यूट अंदाज फैंस का दिल जीत रहा है.

 

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सिद्धार्थ शुक्ला के निधन के बाद शहनाज गिल बुरी तरह टूट चुकी थी और पब्लिक से दूरी बना ली थी लेकिन अब वह धीरे-धीरे संभलती हुई नजर आ रही है. अब वह काम पर वापसी कर चुकी हैं. हाल ही में शहनाज को एयरपोर्ट पर स्पॉट किया गया. इस दौरान एक फैंस ने उनके फोन के वॉलपेपर को कैप्चर किया. दरअसल शहनाज ने फोन के वॉलपेपर पर अपने और सिद्धार्थ के हाथ की फोटो लगाई है. फोटो में दोनों ने एक-दूसरे का हाथ पकड़ा हुआ है.

 

बता दें कि बिग बॉस में शहनाज ने कई बार खुद को पंजाब की कटरीना कैफ बताया था. जिसके बाद से वह इसी नाम से मशहूर हो गईं. एक्ट्रेस ने  ‘पिंडा दीया कुड़ियां’ और ‘ये बेबी रिमिक्स’ जैसे कई गानों में अपना जलवा बिखेरा है.

 

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राजन शाही ने अनुपमा के बर्थडे पर दी शानदार पार्टी, देखें Photos

अनुपमा (Anupamaa) फेम रुपाली गांगुली (Rupali Ganguly) इन दिनों काफी व्यस्त चल रही हैं. जी हां, इस शो की प्रीक्वल की शूटिंग चल रही है. जिसमें रुपाली गांगुली यानी अनुपमा 28 साल की महिला के किरदार में नजर आने वाली है. जिसके दो छोटे-छोटे बच्चे है. ‘अनुपमा नमस्ते अमेरिका’ की शूटिंग की फोटोज सोशल मीडिया पर जमकर वायरल हो रहा है. इसी बीच सेट पर अनुपमा का बर्थडे सेलिब्रेट किया गया है, इस सेलिब्रेशन की फोटोज सामने आई है.

सोशल मीडिया पर मिली जानकारी के अनुसार, बीती रात ‘अनुपमा’ के प्रोड्यूसर राजन शाही ने रुपाली गांगुली के लिए एक शानदार पार्टी का आयोजन किया था. इस पार्टी में अनुपमा की पूरी टीम हंगामा मचाती दिखी. आइए दिखाते हैं आपको अनुपमा के बर्थडे बैश की तस्वीरें.

 

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अनुपमा के बर्थडे सेलीब्रेशन के दौरान पूरा शाह परिवार एक साथ दिखाई दिये. तो वही पार्टी के दौरान गौरव खन्ना यानी अनुज अपने हाथों से रुपाली गांगुली को केक खिलाते नजर आए. पार्टी में गौरव खन्ना, रुपाली गांगुली के साथ जमकर मस्ती करते दिखे.

 

अनुपमा के फैंस ने भी उनके लिए एक खूबसूरत केक भेजा था. रुपाली गांगुली ने इस केक की तस्वीर शेयर करते हुए अपने फैंस को धन्यवाद कहा है. आपको बता दें कि अनुज के असली पेरेंट्स भी अनुपमा के बर्थडे सेलिब्रेशन में शामिल हुए थे.

 

सोशल मीडिया पर रुपाली गांगुली के बर्थडे सेलीब्रेशन की तस्वीरें तेजी से वायरल हो रही हैं. फैंस अनुज और अनुपमा को साथ देखकर काफी खुश हैं. हालांकि अनुपमा के बर्थडे पर बा औऱ वनराज ने भी अपनी दुश्मनी भुलाकर पोज देते हुए नजर आ रहे हैं.

 

लोकतंत्र पर ग्रहण

चुनावी चक्कर

उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा व मणिपुर में अच्छेखासे बहुमत से विधानसभा चुनाव जीत कर भारतीय जनता पार्टी ने साबित कर दिया है कि अभी धर्म के नाम पर वोट पाना संभव है और बराबरी, स्वतंत्रताओं, विविधताओं के सवाल व आर्थिक समृद्धि, वैज्ञानिक चेतना की आवाज आदि इस देश में अभी भी खास महत्त्व नहीं रखतीं. यह इस देश में सदियों से चला आ रहा है और अंगरेजों के आने के बाद जो नई सोच व शिक्षा आई, उस को बड़ी आसानी से पुराने मटके में डाल दिया गया.

कांग्रेस 1947 में सत्ता में आईर् और लगभग 60 साल राज करती रही पर उस का एजेंडा कोई खास अलग नहीं रहा है. यही नहीं, आम आदमी पार्टी, बीजू जनता दल, तृणमूल कांग्रेस खास अलग की सोच रहे हों, ऐसा भी नहीं है. जिन वैयक्तिक स्वतंत्रताओं पर आज की वैज्ञानिक व तकनीकी प्रगति टिकी हुई है, वह किसी भी पार्टी की पहली वरीयता नहीं है. सभी पार्टियां अपना लोहे का पंजा लोगों के गले पर रखती हैं और लोग अब इसे पुरातन चलन मान कर सिरमाथे पर रखते हैं.

पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर व गोवा से कांग्रेस को उम्मीदें थीं पर वे सब बह गईं. उत्तर प्रदेश में अखिलेश को उम्मीद थी पर वह असफल हुई. ये दोनों पार्टियां शायद जनता की निगाहों में कुछ नया नहीं देने वाली थीं.

भारतीय जनता पार्टी जहां हिंदू राष्ट्र, भारतीय प्राचीन संस्कृति के गौरव, देशप्रेम, राष्ट्रशक्ति की बातें करती थी चाहे इस के पीछे कोरी धर्म की दुकानदारी और वर्णव्यवस्था का उद्देश्य छिपा हो, वहां दूसरी पार्टियां इन का कोई पर्याय न दे रही थीं, न उन का पुराना इतिहास यह दर्शा रहा था कि उन का शासन कुछ अलग होगा. पूरे चुनावी कैंपेन में इन 2 मुख्य पार्टियों का जन विकास का कोई मुद्दा आगे नहीं रहा. ये सरकार की मुखालफत करती रहीं पर बदले में वे सपने भी नहीं दे रही थीं. जहां भारतीय जनता पार्टी हिंदू के नाम पर जीती, वहीं आम आदमी पार्टी शहरी लोगों से सुविधाजनक जीवन के वादे कर रही थी. कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के पास ऐसा कुछ नहीं था.

लोकतंत्र में कई पार्टियों का होना जरूरी है वरना एक पार्टी दंभी और क्रूर हो ही जाएगी.

नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने साम, दाम, दंड, भेद की नीति अपना कर चुनावी प्रबंध किया और विरोधियों की कमर वर्षों के लिए तोड़ दी. हतोत्साहित कांग्रेस अब जल्दी ही अपने शासन के दो राज्य छत्तीसगढ़ एवं राजस्थान से भी हाथ धो बैठेगी और शिवसेना को फिर से विचार करना पड़ेगा कि वह किस खेमे में रहे.

जनता को कुछ मिलेगा, यह नहीं कहा जा सकता पर जनता आमतौर पर हर देश में भीड़ होती है जो अपने नेता के पीछे चलती है चाहे उस का अपना रंग या भाषा कैसी भी हो या वह किसी भी रंग के कपड़े पहनती हो. हर सत्तारूढ़ नेता को इतनी भीड़ मिल जाती है जो उस की जयजय करकर के फूलमाला भी पहनाती है और उस के जुल्मों को व्यक्तिगत दंड मान कर सह लेती है.

यूक्रेन पर रूसी हमले के मद्देनजर

पूरा यूरोप, जापान, आस्ट्रेलिया और अफ्रीका व दक्षिण अमेरिका के देश तेजी से लोकतंत्र को बचाने में जुट गए हैं. यह एक राहत की बात है. जो ढीलढाल दूसरे विश्व युद्ध के समय की गई थी, अब न की जाए और यूक्रेन चेकोस्लोवाकिया की तरह खूनी हिटलर का पहला निवाला न बए जाए, इस के लिए अब सारे देश जुट गए हैं.

इस में ज्यादा श्रेय व्लोदोमीर जेलेंस्की  को जाता है जिन्होंने देश छोड़ने से इनकार कर दिया. रूस ने साम्राज्य का पहले अंग रहते हुए भी अब हर सड़क, हर खेत, हर फैक्ट्री, हर घर, हर जंगल, हर पहाड़ से लड़ने को अपने देश को तैयार किया है. यूरोप ने जिस तेजी से रूस के हाथपैर बांधने के लिए आर्थिक प्रतिबंध लगाए और जिस तत्परता से यूक्रेन को हथियार भेजने शुरू किए, वह अद्भुत है.

यह एक देश की जनता के अपने अधिकारों की रक्षा की परीक्षा है और फिलहाल यह दिख रहा है कि यूरोप और एशिया तक फैला विशाल रूस छोटे से यूक्रेन के आगे ढीला पड़ रहा है.

इतिहास में यह पहली बार नहीं हो रहा है. छोटेछोटे देशों ने अकसर बड़े देशों को हराया है.

भारत एक क्लासिक उदाहरण है जहां मुट्ठीभर लोग दशकों नहीं, सैकड़ों साल बाहर से आ कर राज करते रहे हैं. कई बार वे इसी मिट्टी में घुलमिल कर वैसे ही बन गए तो परिणाम उन्होंने ?ोला जो कुछ दशकों या सदी पहले यहां के निवासियों ने ?ोला था.

यूक्रेन कोई धर्मराष्ट्र नहीं बन रहा था. वहां की जनता, जो कई दशकों तक रूसी तानाशाही शासन ?ोल चुकी थी, अब फिर से गुलामी का जीवन जीने को तैयार नहीं है. यूक्रेन वाले अब कठपुतली बन कर नहीं रहना चाहते. उन्हें एक कौमेडियन में एक कर्मठ, हिम्मत वाला नेता मिल गया जो आर्मी का भी हिस्सा बन चुका है, जो दिलेर है, जो अपने घर का पता भी दुश्मन को देने से नहीं हिचकता.

यूक्रेन में रूसी समर्थक नहीं हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता पर आज उन के मुंह और हाथ बंद हो गए हैं क्योंकि उन्हें एहसास हो गया है कि जनता के अधिकार एक बड़े देश, धर्म की धौंस से ज्यादा महत्त्व के हैं. यूरोप ने यूक्रेन को पूरा सहयोग दिया है और यूक्रेनियों को न भूखे मरने दिया जा रहा है, न निहत्थे छोड़ा जा रहा है.

जोड़फोड़ व तोड़ नीति

जोड़ लो, फोड़ लो और अगर न माने तो तोड़ दो. भारतीय जनता पार्टी की यह नीति हमारी संस्कृति में नई नहीं है. अमृत मंथन करना था तो पहले दस्युओं को जोड़ लिया, फिर उन में से कुछ को फोड़ा और जब अमृत मिल गया तो भगवान विष्णु स्वयं एक युवती बन कर मोहिनी अवतार के रूप में दस्युओं को तोड़ने पहुंच गए और उन्हें शराब पिला दी.

यह आज भी हो रहा है. भारतीय जनता पार्टी की चुनावी नीति रही है कि पहले तो सभी मंदिरों, मठों को जोड़ लो ताकि जातियों और उपजातियों में बंटे लोगों को एक मकसद के लिए तैयार किया जा सके. राममंदिर को ले कर उन्हें जोड़ा गया. जो इस खेल को सम?ा गए कि यह दिखावा है, वे फोड़ लिए गए. किसी को राज्यसभा मिली, किसी को विधायकी. जो फिर भी नहीं माने, उन पर तोड़ने की ताकत लगा दी गई. पुलिस, एनफोर्समैंट डायरैक्टोरेट, ?ाठे मुकदमों के जरिए उन को डराया व प्रताडि़त किया गया.

संसद के बजट सत्र में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा के दौरान राहुल गांधी ने भारतीय जनता पार्टी की इस जोड़, फोड़ और तोड़ की नीति का बहुत ही प्रभावशाली ढंग से विश्लेषण किया तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तिलमिला गए. दुर्वासा की तरह क्रोधित हो कर उन्होंने उत्तर में 100 मिनट का भाषण दिया जिस में 90 मिनट उस कांग्रेस को कोसने में लगाए.

इस अभिभाषण में नरेंद्र मोदी ने उन भूखे मजदूरों को भी दोषी ठहरा दिया जो पहले लौकडाउन में नौकरी खत्म होने के बाद गांवों को लौटने को मजबूर हो गए थे और उन को टिकट या बसें दिलवाने वालों को राष्ट्रद्रोही घोषित कर दिया. कांग्रेस और दिल्ली सरकार को तो कोसा ही, अपरोक्ष रूप से सोनू सूद जैसे भी लपेटे में आ गए जो अपनी जेब से बसें या खाने का इंतजाम करते रहे थे.

भारतीय जनता पार्टी बारबार उन पौराणिक ऋषिमुनियों की याद दिलाती है जो दम तो भरते थे कि उन के पास समस्त ब्रह्मांड को नष्ट करने की दैविक शक्ति है लेकिन हर छोटे से छोटे संकट पर इंद्र, विष्णु, राजाओं या बंदरों की शरण में जा पहुंचते थे.

जिस महान वक्ता, विचारक, देश परिवर्तक, सामाजिक क्रांति के सूत्रधार नरेंद्र मोदी की आस में देश पलकें बिछाए था, वह कहीं खो गया है. नरेंद्र मोदी की पार्टी विधानसभा चुनावों में बड़ी जीत हासिल कर पाई है पर देश को जो चाहिए वह शायद अभी कहीं नहीं दिख रहा.

शहरी निकायों में क्षेत्रीय दल

पश्चिम बंगाल के शहरी निकायों के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी का ‘जयश्रीराम’ का छद्म नारा एक भी शहर में नहीं चला. 107 शहरी निकायों में से 102 पर ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने कब्जा कर लिया.

दक्षिण में तमिलनाडु में भी यही हुआ जब नगर पंचायतों के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी समर्थक अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम को न के बराबर सीटें मिलीं और कांग्रेस व द्रविड़ मुनेत्र कषगम के

सहयोग वाले गठबंधन ने लगभग सारे

जिले जीत लिए. 21 कौर्पोरेशनों, 138 म्युनिसिपलिटीज और 489 शहरी पंचायतों की 12,500 सीटों में से दोतिहाई से ज्यादा एम के स्टालिन की ?ाली में जा गिरीं.

ओडिशा के स्थानीय चुनावों की 852 सीटों में से 766 सीटों पर नवीन पटनायक की पार्टी बीजू जनता दल को जीत मिली, दूसरे नंबर पर 42 सीटें भारतीय जनता पार्टी को मिलीं. भाजपा ने 5 वर्षों पहले 297 सीटों पर कब्जा किया था. गरीब मेधावी दुनिया में भटके भारत सरकार की विदेश नीति के परखच्चे अगर किसी ने उड़ाए हैं तो वे यूक्रेन में फंसे छात्र रहे. यूक्रेन में करीब 20 हजार छात्र मैडिकल की पढ़ाई कर रहे थे और वे बहुत साधारण घरों से आते हैं जो बड़ी मुश्किल से पैसा जुटा कर डिग्री पाने के लिए ठंडे, बेगाने देश में मांबाप से दूर रह कर पढ़ रहे थे. उम्मीद थी कि जिस भारत सरकार ने यूक्रेन पर रूसी हमले में रूस का साथ दिया है, बदले में रूस इन छात्रों को सुरक्षित रखने की गारंटी देगा.

ऐसा कुछ नहीं हुआ. राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने एक शब्द भी इन छात्रों के लिए नहीं बोला. उधर, यूक्रेन के लोगों ने इन छात्रों के साथ कोई खास दुर्व्यवहार तो, उन के देश के खिलाफ भारत के रूस को नंगे समर्थन के बावजूद, नहीं किया पर जब खुद उन की जान के लाले पड़े हों तो वे दूसरों की सहायता कैसे करते.

यूक्रेन में 19 से 25 साल के अनुभवहीन भारतीय छात्रों, जिन की जेब में पैसे न के बराबर होते हैं, की सहायता बहुत देर बाद की गई जब वे कईकई दिन मौत के दरवाजे पर खड़े रहे.

यूक्रेन में भारतीय एंबैसी ने एक नोट जारी कर दिया कि यूक्रेन में स्थिति खराब हो रही है, छात्र सतर्क रहें और तैयारी कर लें. उस ने न हवाईजहाज भेजे जब एयरपोर्ट चल रहे थे, न पैसे दिए, न भारत सरकार का कोई मंत्री कीव पहुंचा था. बाद में पोलैंड और रोमानिया में मंत्री अवश्य गए.

‘आज जो हो रहा है, वह आप के भाग्य में लिखा हुआ है’ का पाठ पढ़ाने वाले जानते हैं कि भारतीय जनता दोचार रोज रोधो कर फिर पूजापाठ में पड़ कर अपने उन्हीं नीतिनिर्माताओं का गुणगान करने लगेगी जिन की वजह से उसे भयंकर कष्ट हुए.

इन छात्रों के मांबापों के लाखों रुपए तो बरबाद हुए ही. जो लौट आए वे भी मरतेपिटते, ठंड में ठिठुरते, मीलों पैदल चल कर यूक्रेन सीमा से बाहर पहुंचे.

कांग्रेस खत्म?

कांग्रेस का लगातार घटता जनाधार किसी सुबूत का मुहताज नहीं रह गया है. 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजों ने तो उस के खात्मे की तरफ इशारा कर दिया है. कांग्रेस के दिग्गज बैठकों में कुछ ठोस निर्णय नहीं ले पा रहे हैं. लगता है उन्हें पार्टी के भविष्य की परवा ही नहीं. कांग्रेस और इस का भविष्य क्या होगा, जानिए आप भी.

कभी किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि देश की सब से बड़ी राजनीतिक पार्टी रही कांग्रेस इतनी दुर्गति का शिकार होगी कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अप्रत्याशित तरीके से महज 2 सीटें और 2.×× फीसदी वोटों पर सिमट कर रह जाएगी. 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव के 10 मार्च को आए नतीजों ने फौरीतौर पर एहसास करा दिया है कि कांग्रेस कहीं गिनती में ही नहीं थी.

मणिपुर, उत्तराखंड और गोवा में भी उस का प्रदर्शन गयागुजरा रहा. सब से ज्यादा चौंकाया उस के गढ़ पंजाब ने, जहां सत्ता उस की हथेली से बालू की तरह फिसल गई जिसे आम आदमी पार्टी ने बड़ी आसानी से समेट लिया.

इन नतीजों ने साबित यह भी कर दिया है कि कभी देश के चारों कोनों पर एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस के पास अब खोने को कुछ बचा नहीं है. वह हर लिहाज से टूटफूट का शिकार हो चली है जिस में गैरों के साथसाथ अपनों का रोल भी अहम है. कांग्रेस खत्म हो गई है या उस के अभी और भी खत्म होने की संभावना है, इस से ज्यादा सोनिया, प्रियंका और राहुल गांधी के सामने यह सवाल मुंहबाए खड़ा है कि वे इस दुर्दशा में खुद को फिट करें या नहीं और कुछ करने के नाम पर अब करें तो क्या करें.

यह सब अचानक नहीं हुआ है बल्कि बहुत धीरेधीरे हुआ है जो दिखा तब जब साल 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले भाजपा ने नरेंद्र मोदी को बतौर प्रधानमंत्री पद का चेहरा पेश किया था. तब केवल गोधरा कांड के हीरो व गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर पहचाने जाने वाले नरेंद्र मोदी को सम?ा आ गया था कि बिना आग लगाए लंका जीतना हंसीखेल वाला काम नहीं होता. लिहाजा, उन्होंने कांग्रेसमुक्त भारत की बात करनी शुरू कर दी. इस नारे पर किसी को एतबार नहीं था. हर किसी को यह ख्वाबोंख्यालों सी यानी अकल्पनीय बात लगी थी.

हिंदुत्व बना हथियार

कांग्रेस सत्ता के दलालों की पार्टी है, कामधाम नहीं करती, भ्रष्टाचारियों का गिरोह है आदि जैसी चलताऊ बातों से ज्यादा उन्होंने गांधीनेहरू परिवार को कोसना शुरू किया कि दरअसल ये (कांग्रेस वाले) हिंदू हैं ही नहीं और आजादी के बाद से शासन चलाते हम हिंदुओं के देश को लूटखा रहे हैं. कांग्रेस के परिवारवाद पर उन्होंने ताबड़तोड़ हमले किए.

ठीक उसी वक्त भगवा गैंग सोशल मीडिया पर न जाने किनकिन स्रोतों से लिया गया इतिहास प्रचारितप्रसारित कर रहा था कि जवाहरलाल नेहरू के पिता फलां मुसलमान थे, इंदिरा गांधी के पति फिरोज गांधी आधे पारसी और आधे मुसलमान थे और खुद सोनिया गांधी इटालियन हैं. ऐसे में राहुल गांधी कैसे हिंदू हो गए. यह परिवार तो मुसलिमों का हिमायती है जिस का मकसद हिंदुत्व का खात्मा करना है.

इन चौतरफा हमलों, जो वास्तविकता को तोड़मरोड़ कर किए गए थे, का कांग्रेस के पास कोई जवाब नहीं था क्योंकि सवाल निहायत ही व्यक्तिगत और संवेदनशील थे जिन पर सफाई देना इन कथित घटिया आरोपों व दुष्प्रचार को और शह देने वाली बात होती. लिहाजा, बात बिगड़ती गई. बिगड़ी ऐसे कि आम सवर्ण हिंदू अपने धर्म, जाति और गोत्र तक को ले कर खुद को गांधीनेहरू परिवार से श्रेष्ठ मानने लगा और बड़े पैमाने पर देखते ही देखते हवा चली कि हम हिंदू तो पहले से ही सदियों की गुलामी मुगलों और अंगरेजों की भुगत चुके हैं और अब आजादी और लोकतंत्र की स्थापना के बाद भी वर्णसंकर ही हमें हांक रहे हैं. इन वर्णसंकरों को श्रीमद्भागवतगीता में कृष्ण ने धर्म और देश को बरबाद कर देने वाला बताया है.

यह प्रचार कतई नया नहीं था जिसे कट्टर हिंदूवादी संगठन आजादी के बाद से ही किताबों और परचों के जरिए एक मुहिम की शक्ल में फैला रहे थे.

नेहरू युग में इस के सर्वेसर्वा करपात्री महाराज जैसे कट्टर हिंदूवादी हुआ करते थे जिन्हें मिर्च इस बात पर भी लगी थी कि मनुस्मृति की जगह संविधान क्यों लागू किया जा रहा है और हिंदू कोड बिल हिंदू धर्म और समाज को कमजोर करने वाला है क्योंकि इस से दलितों और औरतों को कई हक व सहूलियतें मिल रही थीं.

कांग्रेस की दुर्गति में इस प्रचार का आम हो जाना और इस से लोगों का बिना सच जाने, सहमत होते जाना प्रमुख बात रही, जिस से घर के भेदिए वे कांग्रेसी भी खुश और सहमत थे जिन के सीने में ब्रह्मा, विष्णु, महेश और दिमाग में गायगोबर बसते हैं. हिंदुत्व को बल देते इस प्रचार पर कांग्रेसियों की खामोशी से भगवा गैंग को और बढ़ावा मिला.

जब सत्ता या कुरसी जानी होती है तो कई वजहें एक वक्त में एकसाथ पैदा भी हो जाती हैं. यही 2014 के आम चुनाव में हुआ. अन्ना हजारे का आंदोलन इन में से एक था जिस के पीछे दिमाग आरएसएस का, पैसा अंबानी और अडाणी जैसे नामी उद्योगपतियों का और योगदान ब्रैंड बनते रामदेव जैसे ताजेतरीन बाबाओं का भी योगदान था जो नतीजों के दिन 10 मार्च को न्यूज चैनल पर ज्ञान बांट रहे थे कि अब जो भी देश में जातपांतत व धर्म की राजनीति करेगा, उसे सम?ादार होती जनता बाहर का रास्ता दिखा देगी.

कहने का मतलब यह कतई नहीं कि नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस खत्म कर ही दी और वह खत्म हो भी गई बल्कि मतलब बहुत साफ यह है कि कांग्रेस के पास जनता को देने को कुछ रहा या बचा ही नहीं. इस से ज्यादा अहम बात जो इन नतीजों से स्थापित हुई वह यह है कि राहुल गांधी अब असफल साबित होने लगे हैं. वे भाजपा के आरोपों के जवाब में जनेऊ दिखाने लगे, माथे पर त्रिपुंड पोत कर पूजापाठ करने लगे, तीर्थयात्राएं करते खुद को ब्राह्मण बताने लगे तो भाजपा की राह और भी आसान हो गई.

राहुल ने हिंदुत्व को इन लोगों के बराबर नहीं पढ़ा होगा कि आजकल इस देश में हिंदू वही होता है जिसे आरएसएस सर्टिफिकेट दे दे. लिहाजा, खुद को दत्तात्रेय गोत्र का ब्राह्मण हिंदू बताने से उन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ.

राहुल गांधी की इस गलती, जिस में सवर्ण हिंदू कांग्रेसियों का पूरा प्रोत्साहन और योगदान था, ने कांग्रेस के भीतर की गुटबाजी को अंदरूनी तौर पर और खलबला दिया. इन में नएपुराने सब शामिल थे जिन्हें सम?ा आ रहा था कि सत्ता की मुफ्त की मलाई जो गांधी परिवार की मेहरबानी से बिना कुछ किएधरे मिल जाती थी, अब नसीब नहीं होनी. सो, उन में से कई भगवा खेमे में चले गए. उन में ज्योतिरादित्य सिंधिया और जितिन प्रसाद जैसे दर्जनों नाम शुमार हैं.

एक बहुत बड़े पेड़ यानी कांग्रेस की डालें उन्हीं लोगों ने ज्यादा काटीं जो इस में पनाह लिए पसरे रहते थे. इस से कांग्रेस संगठनात्मक रूप से कमजोर होने लगी और इतनी होने लगी कि रेस में रहने के लिए उस ने क्षेत्रीय दलों से हाथ मिलाना शुरू कर दिया. मिसाल उत्तर प्रदेश की ही लें, सपा से उस की दोस्ती बिना कोई गुल खिलाए गुल हो गई.

इसी तरह बिहार में राजद से उस का गठबंधन कोई करिश्मा नहीं कर पाया. दिलचस्प बात यह है कि सपा और राजद का वोटबैंक उस के ही अकाउंट का हुआ करता है, यानी, दलितपिछड़ों की यह पार्टी अपने ही वोटों के लिए दूसरों की मुहताज हो गई. इस गलती को बजाय सुधारने के या कमजोरियों को दूर करने के, उस ने सहूलियतभरा रास्ता गठबंधन का चुना जिस का खमियाजा वह भुगत भी रही है.

2019 के लोकसभा चुनाव में भी वह होने भर को रही तो लोगों का मोह उस से भंग होने लगा. यह वही कांग्रेस है जिस से टूट कर सैकड़ों कांग्रेस बनीं और मिटीं भी. लेकिन पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और महाराष्ट्र में शरद पवार की नैशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी बहुत ताकतवर व लोकप्रिय बन कर उभरीं और आज सत्ता में भी हैं. खुद को शाश्वत और अजरअमर मानने व सम?ाने की गलतफहमी भी उस के खात्मे की बड़ी वजह बन रही है. 2014 के बाद तो कांग्रेस के नेताओं ने मेहनत करना ही छोड़ दिया. वे सिर्फ किसी करिश्मे की आस में चुनाव के वक्त ही बाहर निकलते थे, जो जनता को रास नहीं आया.

बेअसर रहे राहुल और प्रियंका

उत्तर प्रदेश चुनाव के दौरान प्रियंका गांधी की रैलियों में खासी भीड़ उमड़ी थी. उन का ‘लड़की हूं लड़ सकती हूं’ वाला नारा चला भी था. लेकिन नतीजों में कहीं इस का असर व ?ालक नहीं दिखी तो साफ लगा कि गांधी परिवार की यह पीढ़ी अपने पूर्वजों जैसी चमत्कारिक और लोकप्रिय नहीं है.

प्रियंका ने आम लोगों से जुड़ने और संवाद स्थापित करने की ईमानदार कोशिश भी की पर अब तक कांग्रेस आम लोगों का भरोसा खो चुकी थी, इसलिए राहुल गांधी के हिंदुत्व की तरह यह कोशिश भी बेकार गई. लोगों ने प्रियंका को सुना और सराहा भी, लेकिन साथ नहीं दिया. जाहिर है, भीड़ वोटों में तबदील नहीं हुई.

बात अकेले एक राज्य की नहीं बल्कि पूरे देश की है, जिस में कांग्रेस का गढ़ पंजाब भी शामिल है. 2017 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस ने खासे बहुमत से जीता था जिस की एक बड़ी वजह मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह भी थे, जिन्हें अब चुनाव के ठीक पहले हटाने का फैसला आत्मघाती साबित हुआ. दलित सिख चरणजीत सिंह चन्नी नकार दिए गए. उत्तराखंड में भी कांग्रेस 19 सीटों पर सिमट कर रह गई जबकि वहां उस की वापसी के कयास लगाए जा रहे थे. कमोबेश यही छोटे से राज्य गोवा में हुआ.

इस असफलता ने स्पष्ट कर दिया कि राहुलप्रियंका गांधी दोनों प्रभावहीन हैं.

शशि थरूर जी23 समूह के कपिल सिब्बल और गुलाम नबी आजाद के बाद तीसरा बड़ा चेहरा हैं. इस ग्रुप ने गांधी परिवार के खिलाफ मोरचा खोल रखा है. हालांकि पिछले 5 साल से कांग्रेस के कई और बड़े और वरिष्ठ नेता भी नेतृत्व परिवर्तन की मांग करते रहे हैं लेकिन सोनिया गांधी हालात को लगातार जैसेतैसे मैनेज करती रहीं, अब और ज्यादा कर पाएंगी, ऐसा लग नहीं रहा क्योंकि अब सवाल अस्तित्व का है.

सोनिया की दिक्कत

जी23, दरअसल, वही बात कहता रहा है जो नरेंद्र मोदी पिछले 8 वर्षों से कह रहे हैं कि कांग्रेस एक परिवारवादी पार्टी है. यह कोई नई या चौंकाने वाली बात नहीं है क्योंकि जवाहरलाल नेहरू से इंदिरा गांधी तक और अब सोनिया राहुल के हाथ में कांग्रेस की कमान है जिसे वक्तवक्त पर कांग्रेस के अंदर से ही चुनौती मिलती रही है.

सोनिया गांधी चाहतीं तो 2004 में ही भारत की प्रधानमंत्री बन सकतीं थीं लेकिन जैसे ही उन के नाम की चर्चा हुई थी तो धाकड़ कट्टर हिंदूवादी 2 नेत्रियां सुषमा स्वराज और उमा भारती विलाप करते हुए सार्वजनिक रूप से अपना मुंडन कराने की धमकी देने लगीं थीं जो हिंदू धर्म के लिहाज से स्त्री जीवन के सब से अशुभ मौके पर ही किया जाता है.

सोनिया गांधी के इस त्याग और उदारता से अब किसी को कोई सरोकार नहीं खासतौर से उन कांग्रेसियों को जो बेहद महत्त्वाकांक्षी हैं और कांग्रेस को हाईजैक कर लेना चाहते हैं. उन में से कोई भी राष्ट्रीय और जमीनी नेता नहीं है, फिर चाहे वे कपिल सिब्बल हों, गुलाम नबी आजाद हों, शशि थरूर हों या मनीष तिवारी जैसे जानेमाने नाम हों. फिर मुकुल वासनिक, आनंद शर्मा, रेणुका चौधरी, संदीप दीक्षित का तो जिक्र करना ही उन्हें बेवजह भाव देने वाली बात है. ये नेता तो अपने दम पर पार्षदी का चुनाव जीतने की भी कूवत नहीं रखते और जो जमीनी हैसियत रखते हैं, उन विभीषणों को भाजपा ने हाथोंहाथ लिया है.

10 मार्च के नतीजे देख हर कोई इस बात से सहमत है कि अब कांग्रेस में सिरे से बदलाव होना चाहिए और सोनिया को कांग्रेस की कमान किसी और को सौंप देनी चाहिए क्योंकि कई दिग्गज कांग्रेसी राहुल गांधी की क्षमताओं पर उंगली उठा चुके हैं जिन्होंने आलोचनाओं से घबरा कर अध्यक्ष पद छोड़ दिया था जो हालांकि रहा गांधी परिवार के पास ही. राहुल के पद छोड़ते ही सोनिया गांधी अध्यक्ष बन गई थीं. उन्हें भी सम?ा आने लगा है कि राहुलप्रियंका अपने पिता और दादी के बराबर लोकप्रिय नहीं हैं.

कांग्रेस का मुखिया अगर उन के परिवार से बाहर का कोई नेता बना तो वह पार्टी को पटरी पर ले ही आएगा, इस बात की कोई गारंटी नहीं है. दूसरे अगर वह मनुवादी हुआ तो अब तक की मेहनत मिट्टी में मिला देगा और मुमकिन है, सवर्ण कांग्रेसी भाजपा की गोद में ही बैठ जाएं तो पूरा खमियाजा उन के परिवार को ही भुगतना पड़ेगा जिस की वजह से जैसी भी है, कांग्रेस अभी है.

जरूरी है कांग्रेस

कांग्रेस का रहना क्यों जरूरी है, इस सवाल का जवाब बेहद साफ है कि वह इकलौती पार्टी है जो चारों तरफ है और सब की है. क्षेत्रीय दल अपनेअपने राज्यों में तो भाजपा का मुकाबला कर सकते हैं लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर नहीं. मजबूत लोकतंत्र में विपक्ष मजबूत हो, तभी देश का विकास हो सकता है और सत्तापक्ष पर अंकुश लगा रह सकता है. बिखरा विपक्ष राज्यों में तो एक बार कारगर हो सकता है लेकिन दिल्ली में नहीं. इसी समीकरण को भांपते पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने 10 मार्च के नतीजों के बाद भाजपाविरोधी सभी दलों से भाजपा से 2024 के चुनाव में एकसाथ लड़ने की बात कही है.

ममता ने कांग्रेस को इस कथित संयुक्त विपक्ष में आने को तो न्योता दिया पर यह कहने से हिचकिचा गईं कि सभी दल कांग्रेस की अगुआई में लड़ने के लिए तैयार हैं. यह सवाल बहुत बड़े पैमाने पर फसाद की शक्ल में सामने आने वाला है कि अगर एकसाथ लड़े तो प्रधानमंत्री कौन होगा.

जाहिर है, ममता बनर्जी, अखिलेश यादव या एम के स्टालिन जैसे महत्त्वाकांक्षी नेता आसानी से तो क्या, मुश्किल से भी कांग्रेस और राहुल गांधी के नाम पर तैयार नहीं होंगे. अगर होते, तो अभी तक 2024 के आम चुनावों के मद्देनजर विपक्ष की रणनीति तैयार हो गई होती. अब तो भावी प्रधानमंत्रियों की लिस्ट में अरविंद केजरीवाल का नाम भी शुमार होने लगा है. उलट इस के, इन नेताओं के नाम पर कांग्रेस सहमत होगी, ऐसा कहने और सोचने की भी कोई वजह नहीं.

तो फिर हल क्या? इस का दूरदूर तक अतापता नहीं. अगर जल्द कोई फार्मूला आकार नहीं लेता है या सहमति नहीं बनती है तो तय है फायदा भाजपा को ही होगा क्योंकि उस के विरोधी दल जो खुद को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं, एकजुट नहीं हो पा रहे हैं. वक्त रहते कोई हल नहीं निकला तो जाहिर है कांग्रेस सभी राज्यों से अपने बचेखुचे दम पर लड़ेगी. मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और गुजरात की 100 लोकसभा सीटों पर वह किसी सहारे की मुहताज नहीं. लेकिन उस में दम कितना बचा है, यह इन राज्यों के विधानसभा चुनाव के बाद पता चलेगा.

इस में कोई शक नहीं कि आज के हालात के मद्देनजर देखा जाए तो 2024 के लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस के खाते में किसी भी क्षेत्रीय दल से कहीं ज्यादा सीटें होंगी. लिहाजा वह त्याग के नाम पर शहीद होना पसंद नहीं करेगी और अगर किया तो जरूर उस का खात्मा तय है.

गौरतलब और दिलचस्प बात यह है कि 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद मशहूर इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने भविष्यवाणी सी करते हुए कहा था कि कांग्रेस अगले

5-6 साल में खत्म हो जाएगी या फिर बिना गांधी परिवार के चलेगी, पार्टी के अंदर नया नेतृत्व उभरेगा. अब कांग्रेस को गांधी परिवार की नहीं, बल्कि गांधी परिवार को कांग्रेस की जरूरत है. इस परिवार ने भारतीय राजनीति में अपनी भूमिका अदा कर दी है.

आज भाजपा की वही ताकत और हैसियत है जो कभी कांग्रेस की हुआ करती थी. भाजपा में नरेंद्र मोदी का कोई विकल्प नहीं है ठीक वैसे ही जैसे कांग्रेस में गांधी परिवार का कभी कोई विकल्प नहीं रहा, पर अब कांग्रेस दिक्कत में है क्योंकि इस बार वाकई जम कर किरकिरी हुई है.

Summer Special: इस मौसम में होने वाली बीमारियों से ऐसे बचें

गरमी का मौसम अपने साथ बहुत सी बीमारियां ले कर आती है. इस दौरान हमारा इम्यून सिस्टम काफी प्रभावित होता है. इसके अलावा गरमी हमारे पाचन और त्वचा को बुरी तरह प्रभावित होती है. इस दौरान लोगों को मौसमी फ्लू और संक्रमण का खतरा अधिक रहता है. ऐसे में जरूरी है कि आप पहले से इन परेशानियों से लड़ने के लिए तैयार रहें. इसलिए हम आपको कुछ जरूरी टिप्स देने वाले हैं जो आपको इन चुनौतियों के सामने मजबूती से खड़े रखने में मदद करेंगे.

रहें हाइड्रेटेड

drink water in morning

यदी आप दिनभर में पर्याप्त पानी पी रहे हैं तो आपके अंदर बहुत से रोगों से लड़ने की क्षमता विकसित हो जाती है. पानी को शरीर के फाइबर द्वारा हमारे कोलोन में खींच लिया जाता है और यह नरम मल बनाने में शरीर की मदद करता है.

फाइबर इनटेक लें

prevention for asthma patients

अनाज, फल, सब्जियां और फलियां जैसे खाद्य पदार्थ फाइबर के प्रमुख स्रोत होते हैं. इसके साथ ही ये कब्ज की आशंका को भी दूर करता है.

कम कैफीन

गरमी में कैफीन का सेवन कम करें. इससे आपका पाचन तंत्र का फंग्शन प्रभावित होता है. इसके कारण आगे चल कर अल्सर, एसिडिटी और जलन होती है.

वर्कआउट

tips of mental peace

पसीने के निकलने से शरीर के बहुत से विकार दूर होते हैं. पसीने के रास्ते शरीर की सारी गंदगी निकल जाती है. इसके साथ ही आपके शरीर को फिट और स्वस्थ रखने में भी ये काफी सहायक होता है. हम जितना अधिक शारीरिक तौर पर सक्रिय रहेंगे, हमारे लिए जीवन खुशहाल होगा.

धूप से बचें

धूप से दूरी बनाने की कोशिश करें. ध्यान रखें कि तेज धूप में तीन घंटे से अधिक रहने से स्वास्थ संबंधित बहुत सी परेशानियां होती हैं.

ध्यान दें कि गरमी में जौंडिस, टाइफाइड और फूड प्वाइजनिंग जैसी समस्याओं के होने का खतरा काफी अधिक रहता है. इनसे बचने के लिए जरूरी है कि आप अपने खानपान की आदतों में बदलाव लाएं और धूप में कम समय बिताएं. बाहर के खाने से परहेज, मील्स नहीं छोड़ना और बाहरी ड्रिंक एवं अल्कोहल की बजाय स्वास्थ्यकर विकल्पों जैसे छोटे बदलाव बड़ा अंतर ला सकते हैं. ये छोटे लेकिन अनहेल्दी आदतें आपके शरीर को नुकसान पहुंचा सकती हैं.

Summer Special: ऐसे पाएं डैंड्रफ से छुटकारा

गरमी हो या सरदी डैंड्रफ हर किसी की प्रौब्लम होती है, जिसके लिए हम मार्केट से महंगे-महंगे शैम्पू खरीद लेते हैं. शैम्पू हमारे सिर से डैंड्रफ निकाले या न निकाले ये बालों को डैमेज कर देती है. डैंड्रफ से छुटकारा पाने के लिए होममेड तरीका सबसे बेस्ट होता है जिससे न हमारे बाल डैमेज होते हैं और न ही हमारी स्किन को नुकसान पहुंचता है. ये आपकी बालों से बिना किसी साइड इफेक्ट के डैंड्रफ दूर कर देते हैं. आइए आपको बताते हैं डैंड्रफ दूर करने के कुछ होममेड टिप्स…

1. नींबू का रस से दूर करें डैंड्रफ प्रौब्लम

डैंड्रफ की प्रौब्लम को दूर करने के लिए नींबू के रस का इस्तेमाल करना बहुत फायदेमंद है, सरसों के तेल में या फिर कोकोनट औयल में एक नींबू को अच्छी तरह निचोड़ लें. इस तेल से स्कैल्प में हल्की मसाज करें और कुछ देर के लिए इसे यूं ही छोड़ दें. इसके बाद बालों को अच्छी तरह धो लें. हफ्ते में दो बार दोहराएं.

2. टी ट्री औयल से पाएं डैंड्रफ की प्रौब्लम से छुटकारा

टी-ट्री औयल में एंटीबैक्टीरियल और एंटीवायरल गुण होते हैं. अपने शैंपू में इसकी कुछ बूंदें मिलाकर सिर धो लें. चार से पांच बार के इस्तेमाल से ही डैंड्रफ की प्रौब्लम दूर हो जाएगी.

3. दही का करें इस्तेमाल

रूसी की समस्या में दही का इस्तेमाल करना बहुत फायदेमंद होता है. एक कप दही में एक चम्मच बेकिंग सोडा मिला लें. इस पैक को स्कैल्प में लगाएं. कुछ ही दिनों में आपको फर्क नजर आने लगेगा.

4. नीम और तुलसी का पानी करें ट्राय

नीम और तुलसी की कुछ पत्तियों को पानी में डालकर अच्छी तरह उबाल लें. जब बर्तन का पानी आधा रह जाए तो इसे छान लें और ठंडा होने के लिए रख दें. इस पानी से बालों को धोएं. कुछ बार के इस्तेमाल से ही डैंड्रफ की प्रौब्लम दूर हो जाएगी.

5. मुल्तानी मिट्टी है डैंड्रफ दूर करने के लिए बेस्ट

मुल्तानी मिट्टी पाउडर ले लें. इसमें सेब का सिरका मिलाएं. बाद में इसे शैंपू की तरह इस्तेमाल करके हफ्ते में दो बार आजमाएं.

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