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विद्या का मंदिर- भाग 3: क्या थी सतीश की सोच

“राहुल के पापा,” रमा तो किसी और ही दुनिया में विचरण कर रही थी. आराधना स्थलों की चकाचौंध से अभिभूत थी. सतीश का कहा तो वह ग्रहण ही न कर पाई. भावातिरेक में बोलती चली जा रही थी, “देवी मां का मंदिर इतना आलीशान हो गया, आप पहचान भी न पाओगे. सुना है मैं ने कि आसपास के लोगों ने मंदिर के लिए जमीन दान की है.”

“अच्छा, पर मैं ने तो लोगों को सरकारी स्कूलों की जमीन का अतिक्रमण करते देखा है. वहां इन की दान प्रवृत्ति कहां चली जाती है.”

“आप भी…मूड खराब कर देते हो, बात को पता नहीं कहां से कहां ले जाते हो,” तमक कर रमा बोली.

“नहीं रमा, समझ में नहीं आता कि हम सरकारी स्कूलों और अस्पतालों की जर्जर स्थिति पर शर्म करें या फिर आराधना स्थलों की भव्यता पर गर्व? बात को समझने की कोशिश करो.”

“पूजास्थल भी तो हमारी शान है. तमाम स्कूल और नर्सिंग होम हैं तो शहर में.”

“हां हैं, लेकिन क्या वे सब की पहुंच में हैं?

“मंदिर में लोग दुआएं मांगने आते हैं, मन्नतें करते हैं. कितना चढ़ावा चढ़ता है… है न राहुल?” रमा ने उत्कंठा से राहुल की ओर समर्थन की अपेक्षा से देखा.

“उं…मैं तो परेशान हो गया था,” मम्मी की देवी मां की पूजा से मुक्त, चायपकौड़ों से तृप्त, सोफे पर अलसाए सा लेटे हुए, फोन पर उंगलियां घुमाते राहुल ने अनमने मन से कहा.

“दुआ तो मन के कोने में भी हो जाती है, लेकिन इलाज के लिए अस्पताल चाहिए होते हैं,” अपने विचारों में खोए सतीश चंद्र के मुंह से बरबस ही निकल गया.

“आप से तो बात करना ही बेकार है,” झुंझलाती हुई कपप्लेटों को समटते हुए रमा बोली.

“पापा, पहले मैं ने कभी नोटिस नहीं किया था यह, बस. आज जब मम्मी ने इतने सारे मंदिरों में रुकवाया, तो ध्यान गया कि जराजरा सी दूरी पर इतने धार्मिकस्थल क्यों हैं.”

“तुम्हें, इस से क्या समस्या है? ” तुनकती हुई रमा बोली.

“समस्या मुझे नहीं है, देश को है. एक बैड के न मिलने से तड़पतड़प कर प्राण गंवाने वाले समाज की प्राथमिकता कम से कम मंदिरमसजिद या चर्चमठ तो नहीं होने चाहिए,” थोड़ा चिंतित स्वर में राहुल बोला.

“दिमाग खराब हो गया इस का,” कह रमा वहां से उठ किचन में खाना बनाने चली गई.

“पापा, अमेरिका, यूरोप, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड व अन्य विकसित राष्ट्रों में चर्च की संख्या बढ़ने के स्थान पर कम हो रही है, और हमारे देश में…” अब तो राहुल मोरचे पर आ गया, “यूरोप में तो कुछ चर्चों को तो अन्य कार्यों के लिए इस्तेमाल  करना शुरू कर दिया.”

“हमारे देश में लोग आज भी लोकपरलोक में ही उलझे हुए हैं,”  बेहद अफसोस से सतीश चंद्र के मुंह से निकल पड़ा.

“हमारे देश में आज भी लोग रोजगार, सड़क, बिजली, पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं. विकास सिर्फ शहरों तक ही सीमित है. गांवों से लगातार हो रहा पलायन हमारे गांवों की स्थिति को दर्शाता है. सरकारी योजनाएं भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं. गरीबी, अशिक्षा, विस्फोटक रूप से बढ़ती जनसंख्या आज भी मुंहबाए खड़ी हैं. अंधविश्वास की जड़ें और गहराई से फैलती जा रही हैं. जिस देश में इतनी समस्याएं हों  और जहां पहले से ही इतने धार्मिकस्थल हो, वहां पर आएदिन नित नए धार्मिकस्थल का निर्माण क्या सही है?” राहुल ने पापा की ओर देखते हुए कहा.

पापाबेटे धार्मिक स्थलों के मुद्दे पर इतना मशगूल हो गए कि उन्हें समय का पता ही नहीं  चला. रमा ने जब खाने के लिए बुलाया, तब उन्हें समय का एहसास हुआ.

“पापा, मैं कह रहा था कि मंदिर…”

“उफ्फ, क्या मंदिरमंदिर लगा रखा है. ऐसा तो नहीं हैं कि हमारे देश ने कोई तरक्की नहीं की. आज घरों में गाड़ी आम बात हो गई है. क्या जमघट था गाड़ियों का देवी मां के मंदिर में,” रमा के संस्कार उसे इस महिमा जगत से निकलने की इजाजत ही नहीं दे रहे थे.

“हां, आंकड़ों में खूब तरक्की की है,” सतीश चंद्र ने खिन्नता से कहा.

“क्या मतलब?” रमा ने उत्तेजित होते हुए कहा.

“रमा, सरकारी संस्थाओं की एक आत्मा होती है, जो सामाजिक सरोकारों के प्रति हमारी संवेदनशीलता से अस्तित्व में रहती है.”

“अभी भी तो हैं सरकारी स्कूल,” रमा बेफिक्री से बोली.

“हां हैं, टिमटिमाते दीये की तरह. याद है तुम्हें ‘इंगलिश मीडियम’ मूवी का वह डायलौग जो इरफान के मुख से बेसाख्ता निकल गया था- ‘सरकारी स्कूलों की इतनी बुरी दशा तो हमारे समय में भी नहीं थी.’ हम ने बहुतकुछ खो दिया है,” एक अफसोस स्वर में उभर आया.

“आप भी क्या बात करते हो, कहां मंदिर और कहां स्कूल.”

“रमा, स्कूल ही असली मंदिर है- विद्या का मंदिर. हम ने अपनी सामाजिक संस्थाओं को कमजोर किया है. किसी चीज का न होना या मामूली सा होना अलग बात है, लेकिन किसी अच्छी चीज का खराब होना एक खतरनाक संकेत है. हमारे समय में कितनी प्रतिष्ठा हुआ करती थी सरकारी स्कूलों की. हम सब भी तो सरकारी स्कूलों में पढ़े हैं. आज थोड़ी सी आय वाला भी अपने बच्चों को इन सरकारी स्कूलों में भेजने से कतरा रहा है. ऐसे में तो हम उन को रौंदते जा रहे हैं जो इस भगदड़ में चल ही नहीं पा रहे है. बहुतकुछ करना चाहता था इन बच्चों के लिए, इन स्कूलों के लिए, किया भी है, लेकिन वह पर्याप्त नहीं था,” ढहता सरकारी स्कूलों का ढांचा, समर्पित शिक्षकों का अभाव, प्रधानाचार्य की स्कूल के प्रति उदासीनता अनायास ही सतीश चंद्र की आंखों के आगे घूमने लगे. वे खामोश हो खाना खाने लगे.

कुछ पलों तक तो डाइनिंग टेबल पर बस चम्मचों, खाने और डोंगों के खुलने व बंद होने की आवाजें ही आती रहीं.

“एक से बढ़ कर एक स्कूल खुले हुए हैं,” रमा अभी भी हथियार डालने को तैयार न थी.

“क्या वे सब की पहुंच में हैं? नहीं…हम ने ऐसे पेड़ लगा दिए हैं, जिन के फल तोड़ना हरेक के बस की बात नहीं. हम अंतिम छोर में रहने वालों के स्कूलों और अस्पतालों को लील गए.”

“ऐसा नहीं कि दुआएं कुबूल नहीं होतीं. आराधना भी सफल होती है. इन के लिए पूजास्थल तो चाहिए ही.  काश, आप कभी तो मेरे साथ, मेरी आस्था में शामिल हो जाया करो,” बोलतेबोलते रमा का स्वर भीगने लगा.

“जिस दिन तुम नहीं, राहुल गाड़ी रोक कर कहेगा, ‘जरा रुक कर चलते हैं, यहां पर एक सरकारी स्कूल देखने लायक है और यहां के बच्चे देश के विभिन्न उच्च पदों पर आसीन हैं,’ उस दिन मैं समझूंगा कि हमारी आराधना सफल हो गई और उस दिन इन धार्मिक स्थानों की भव्यता देखने को मैं अवश्य जाऊंगा,” खाने की मेज से उठते हुए सतीश चंद्र के उद्गार शब्द बन बह निकले.

GHKKPM: सई से शादी के बाद विराट बदलेगा अपना नाम, भवानी का फूटेगा गुस्सा

टीवी सीरियल  ‘गुम है किसी के प्यार में’ इन दिनों बड़ा ट्विस्ट देखने को मिल रहा है. शो में अब तक आपने देखा कि सई-विराट, राजीव-शिवानी की शादी हो चुकी है. शादी के बाद सई-विराट और चौहान परिवार कुल देवी की मंदिर जाते हैं. वहां भवानी सई को घर की जिम्मेदारी सौंपती है. शो के आने वाले एपिसोड में खूब धमाल होने वाला है. आइए बताते है, शो के नए एपिसोड के बारे में.

शो में दिखाया जाएगा कि परिवार वाले शादी के बाद सई का नाम बदलने के लिए पंडित जी को बुलाते है. सई अपना नाम बदलते हुए सई विराट चौहान रखती है. विराट सबको ये कहकर चौंका देता है कि वो भी अपना नाम बदलना चाहता है.

 

विराट अपना नाम बदलकर विराट सईं चौहान कर लेता है. ये देखकर सई इमोशनल हो जाती है. अश्विनी पूछती है कि वह अपने नाम से अपने पिता का नाम कैसे हटा सकता है. विराट कहता है कि वह अपने पिता का नाम नहीं छोड़ रहा है बल्कि सिर्फ सई का नाम जोड़ रहा है.

 

दूसरी तरफ भवानी विराट के फैसले से काफी गुस्सा होती है. मानसी भवानी को समझाते हुए कहती है कि वो विराट को गलत समझ रही है, वो सिर्फ सई के लिए अपना प्यार दिखा रहा है. विराट कहता है कि वो अपने हर सर्टिफिकेट और पुलिस नेमप्लेट पर अपना नाम बदलकर विराट सई चौहान करेगा.

 

काव्या-अनुपमा की होगी दोस्ती, तो बा मारेगी ताना

टीवी सीरियल ‘अनुपमा’ में इन दिनों लगातार हाईवोल्टेज ड्रामा देखने को मिल रहा है. जिससे दर्शकों का फुल एंटरटेनमेंट हो रहा है. शो के बिते एपिसोड में आपने देखा कि अनुपमा की मेहंदी और संगीत की शानदार तैयारी चल रही है. शो के अपकमिंग एपिसोड में खूब धमाल होने वाला है. आइए बताते हैं शो के नए एपिसोड के बारे में.

शो में दिखाया जाएगा कि अनुज और अनुपमा की मेहंदी और संगीत का पर्पल थीम रखा जाएगा. सभी शानदार आउटफिट में नजर आएंगे. शो में दिखाया जाएगा कि जीके, हसमुख की हेल्थ रिपोर्ट छुपा कर रख देगा. जीके इसे अलमारी में छिपा देंगे. लेकिन गिफ्टस पैक करते समय ये रिपोर्ट किसी और पैकेट में रखा जाएगा.

 

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दूसरी तरफ काव्या भी अनुपमा की मेहंदी को लेकर काफी एक्साइटेड होगी.  अनुपमा, काव्या को शुक्रिया कहेगी. काव्या कहेगी कि उसने उसकी शादी में हाथ बंटाया था और अब उसकी बारी है. उन दोनों की बातें सुनकर बा को मिर्ची लगेगी. वह दोनों को उनकी दोस्ती को लेकर ताना मारेगी. काव्या बा को  कहेगी कि वह भी अनुपमा की खुशी में शामिल हो जाये.

 

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शो में ये भी दिखाया जाएगा कि अनुपमा ये जानकार इमोशनल होगी कि पाखी, समर और पारितोष ने अपने हाथों से दोनों के लिए मेहंदी तैयार की है. अनुज-अनुपमा की संगीत में सिंगर मीका सिंह की एंट्री होगी और वो धमाकेदार परफॉर्मेंस देंगे.

 

सौतेली- भाग 2: शेफाली के मन में क्यों भर गई थी नफरत

जानकी बूआ ने अपनी सहेली की बेटी को वंदना कह कर बुलाया था इसलिए उस के नाम को जानने के लिए किसी को कोई कोशिश नहीं करनी पड़ी थी.

मेहमान को घर के लोगों से मिलवाने की औपचारिकता पूरी करते हुए जानकी बूआ ने अपनी भतीजी के रूप में शेफाली का परिचय वंदना से करवाया था तो उस ने एक मधुर मुसकान लिए बड़ी गहरी नजरों से उस को देखा था. वह नजरें बडे़ गहरे तक शेफाली के अंदर उतर गई थीं.

शेफाली समझ नहीं सकी थी कि उस के अंदर गहरे में उतर जाने वाली नजरों में कुछ अलग क्या था.

‘‘तुम सचमुच एक बहुत ही प्यारी लड़की हो,’’ हाथ से शेफाली के गाल को हलके से थपथपाते हुए वंदना ने कहा था.

उस के व्यवहार के अपनत्व और स्पर्श की कोमलता ने शेफाली को रोमांच से भर दिया था.

शेफाली तब कुछ बोल नहीं सकी थी.

जानकी बूआ वंदना की जिस प्रकार से आवभगत कर रही थीं वह भी कोई कम हैरानी की बात नहीं थी.

एक ही घर में रहते हुए कोई कितना भी अलगअलग और अकेला रहने की कोशिश करे मगर ऐसा मुमकिन नहीं क्योंकि कहीं न कहीं एकदूसरे का सामना हो ही जाता है.

शेफाली और वंदना के मामले में भी ऐसा ही हुआ. दोनों अकेले में कई बार आमनेसामने पड़ जाती थीं. वंदना शायद उस से बात करना चाहती थी लेकिन शेफाली ही उस को इस का मौका नहीं देती थी और केवल एक हलकी सी मुसकान अधरों पर बिखेरती हुई वह तेजी से कतरा कर निकल जाती थी.

एक दिन शेफाली को चौंकाते हुए वंदना रात को अचानक उस के कमरे में आ गई.

शेफाली को रात देर तक पढ़ने की आदत थी.

वंदना को अपने कमरे में देख चौंकी थी शेफाली, ‘‘आप,’’ उस के मुख से निकला था.

‘‘बाथरूम जाने के लिए उठी थी. तुम्हारे कमरे की बत्ती को जलते देखा तो इधर आ गई. मेरे इस तरह आने से तुम डिस्टर्ब तो नहीं हुईं?’’

‘‘जी नहीं, ऐसी कोई बात नहीं,’’ शेफाली ने कहा.

‘‘रात की शांति में पढ़ना काफी अच्छा होता है. मैं भी अपने कालिज के दिनों में अकसर रात को ही पढ़ती थी. मगर बहुत देर रात जागना भी सेहत के लिए अच्छा नहीं होता. अब 1 बजने को है. मेरे खयाल में तुम को सो जाना चाहिए.’’

वंदना ने अपनी बात इतने अधिकार और अपनत्व से कही थी कि शेफाली ने हाथ में पकड़ी हुई किताब बंद कर दी.

‘‘मेरा यह सब कहना तुम को बुरा तो नहीं लग रहा?’’ उस को किताब बंद करते हुए देख वंदना ने पूछा.

‘‘नहीं, बल्कि अच्छा लग रहा है. बहुत दिनों बाद किसी ने इस अधिकार के साथ मुझ से कुछ कहा है. आज मम्मी की याद आ रही है. वह भी मुझ को बहुत देर रात तक जागने से मना किया करती थीं,’’ शेफाली ने कहा. उस की आंखें अनायास आंसुओं से झिलमिला उठी थीं.

शेफाली की आंखों में झिलमिलाते आंसू वंदना की नजरों से छिपे न रह सके थे. इस से वह थोड़ी व्याकुल सी दिखने लगी. उस ने प्यार से शेफाली के गाल को सहलाया और बोली, ‘‘जो बीत गया हो उस को याद कर के बारबार खुद को दुखी नहीं करते. अब सो जाओ, सुबह बहुत सारी बातें करेंगे,’’ इतना कहने के बाद वंदना मुड़ कर कमरे से बाहर निकल गई.

इस के बाद तो शेफाली और वंदना के बीच की दूरी जैसे सिमट गई और दोनों के बीच की झिझक भी खत्म हो गई.

एकाएक ही शेफाली को वंदना बहुत अपनी सी लगने लगी थी. जाहिर है अपने व्यवहार से शेफाली के विश्वास को जीतने में वंदना सफल हुई थी. अब दोनों में काफी खुल कर बातें होने लगी थीं.

शेफाली के शब्दों में सौतेली मां के प्रति आक्रोश को महसूस करते हुए एक दिन वंदना ने कहा, ‘‘आखिर तुम दूसरों के साथसाथ अपने से भी इतनी नाराज क्यों हो?’’

‘‘क्या जानकी बूआ ने मेरे बारे में आप को कुछ नहीं बतलाया?’’

‘‘बतलाया है,’’ गंभीर और शांत नजरों से शेफाली को देखती हुई वंदना बोली.

‘‘क्या?’’

‘‘यही कि तुम्हारे पापा ने किसी और औरत से दूसरी शादी कर ली है. वह भी तुम्हारी गैरमौजूदगी में…और तुम को बतलाए बगैर,’’ शेफाली की आंखों में झांकती हुई वंदना ने शांत स्वर में कहा.

‘‘इतना सब जानने के बाद भी आप मुझ से पूछ रही हैं कि मैं नाराज क्यों हूं,’’ शेफाली के स्वर में कड़वाहट थी.

‘‘अधिक नाराजगी किस से है? अपने पापा से या सौतेली मां से?’’

‘‘नाराजगी सिर्फ पापा से है.’’

‘‘सौतेली मां से नहीं?’’ वंदना ने पूछा.

‘‘नहीं, उन से मैं नफरत करती हूं.’’

‘‘नफरत? क्या तुम ने अपनी सौतेली मां को देखा है या उन से कभी मिली हो?’’ वंदना ने पूछा.

‘‘नहीं.’’

‘‘फिर सौतेली मां से नफरत क्यों? नफरत तो हमेशा बुरे इनसानों से की जाती है न,’’ वंदना ने कहा.

‘‘सौतेली मांएं बुरी ही होती हैं, अच्छी नहीं.’’

‘‘ओह हां, मैं तो इस बात को जानती ही नहीं थी. तुम कह रही हो तो यह ठीक ही होगा. बुरी ही नहीं, हो सकता है सौतेली मां देखने में डरावनी भी हो,’’ हलका सा मुसकराते हुए वंदना ने कहा.

शेफाली को इस बात से भी हैरानी थी कि जानकी बूआ ने अपने घर की बातें अपनी सहेली की बेटी से कैसे कर दीं?

वंदना अपने मधुर और आत्मीय व्यवहार से शेफाली के बहुत करीब तो आ गई मगर वह उस के बारे में ज्यादा जानती न थी, सिवा इस के कि वह जानकी बूआ की किसी सहेली की लड़की थी.

फिर एक दिन शेफाली ने उस से पूछ ही लिया, ‘‘आप की शादी हो चुकी है?’’

‘‘हां,’’ वंदना ने कहा.

‘‘फिर आप अकेली यहां क्यों आई हैं? अपने पति को भी साथ में लाना चाहिए था.’’

‘‘वह साथ नहीं आ सकते थे.’’

‘‘क्यों?’’ शेफाली ने पूछा.

‘‘क्योंकि कोई ऐसा काम था जो उन के साथ रहने से मैं नहीं कर सकती थी,’’ बड़ी गहरी और भेदपूर्ण मुसकान के साथ वंदना ने कहा.

‘‘ऐसा कौन सा काम है?’’ शेफाली ने पूछा भी लेकिन वंदना जवाब में केवल मुसकराती रही. बोली कुछ नहीं.

अब पढ़ाई के लिए शेफाली जब भी ज्यादा रात तक जागती तो वंदना उस के कमरे में आ जाती और अधिकारपूर्वक उस के हाथ से किताब पकड़ कर एक तरफ रख देती व उस को सोने के लिए कहती.

शेफाली भी छोटे बच्चे की तरह चुपचाप बिस्तर पर लेट जाती.

‘‘गुड गर्ल,’’ कहते हुए वंदना अपना कोमल हाथ उस के ललाट पर फेरती और बत्ती बुझा कर कमरे से बाहर निकल जाती.

वंदना शेफाली की कुछ नहीं लगती थी फिर भी कुछ दिनों में वह शेफाली को इतनी अपनी लगने लगी कि उस को बारबार ‘मम्मी’ की याद आने लगी थी. ऐसा क्यों हो रहा था वह स्वयं नहीं जानती थी.

एक दिन रंजना ने शेफाली को यह बतलाया कि वंदना अगले दिन सुबह की ट्रेन से वापस अपने घर जा रही हैं तो उस को एक धक्का सा लगा था.

‘‘आप ने मुझ को बतलाया नहीं कि आप कल जा रही हैं?’’ मिलने पर शेफाली ने वंदना से पूछा.

‘‘मेहमान कहीं हमेशा नहीं रह सकते, उन को एक न एक दिन अपने घर जाना ही पड़ता है.’’

शेफाली का मुखड़ा उदासी की बदलियों में घिर गया.

‘‘आप जिस काम से आई थीं क्या वह पूरा हो गया?’’ शेफाली ने पूछा तो उस की आवाज में उदासी थी.

‘‘ठीक से बता नहीं सकती. वैसे मैं ने कोशिश की है. नतीजा क्या निकलेगा मुझ को मालूम नहीं,’’ वंदना ने कहा.

‘‘आप कितनी अच्छी हैं. मैं आप को भूल नहीं सकूंगी,’’ वंदना के हाथों को अपने हाथ में लेते शेफाली ने उदास स्वर में कहा.

‘‘शायद मैं भी नहीं,’’ वंदना ने जवाब में कहा.

‘‘क्या हम दोबारा कभी मिलेंगे?’’ शेफाली ने पूछा.

‘‘भविष्य के बारे में कुछ बतलाना मुश्किल है और दुनिया में संयोगों की कमी भी नहीं है,’’ शेफाली के हाथों को दबाते हुए वंदना ने कहा.

वेटिंग रूम- भाग 5: सिद्धार्थ और जानकी की जिंदगी में क्या नया मोड़ आया

कालेज देखने के बाद प्रधानाचार्य ने जानकी से अगले दिन से लैक्चर्स लेने को कहा. जानकी कालेज से बाहर निकली तो क्या देखा, सामने सिद्धार्थ खड़ा था. उसे पहचानने में जानकी को कुछ क्षण लगे, क्योंकि सिद्धार्थ का हुलिया बिलकुल बदला हुआ था. फटी जीन्स, फंकी टीशर्ट की जगह शर्टपैंट पहने था, बेढंगे बाल आज अच्छे कढ़े हुए थे और वह स्केचपैन जैसी दाढ़ी तो गायब ही थी. जानकी उसे देख कर आश्चर्य से चिल्ला पड़ी, ‘‘आप…यहां?’’ सिद्धार्थ के चेहरे की खुशी छिपाए नहीं छिप रही थी, मुसकराते हुए बोला, ‘‘हां, आप ने बताया था न कि आज आप  पुणे आने वाली हैं, तो मैं ने सोचा कि आप को सरप्राइज दिया जाए. यह भी सोचा, पता नहीं आप यहां किसी को जानती होंगी या नहीं, पता नहीं आप के साथ कोई आया होगा या नहीं, आप काफी परेशान होतीं, इसलिए मैं आ गया.’’ जानकी ने भरपूर अचरज से पूछा, ‘‘लेकिन आज की तारीख आप को कैसे पता चली?’’

‘‘अब वह सब छोडि़ए, पहले यह बताइए कि आप अकेली ही आई हैं, कोई जानपहचान का है क्या यहां, रहने के बारे में क्या सोचा है,’’ सिद्धार्थ ने उस के सवाल को टालते हुए कई सारे सवाल उस के सामने रख दिए. जानकी हंस पड़ी, बोली, ‘‘अरे सांस तो ले लो जरा, मैं सब बताती हूं. मैं अकेली ही आई हूं, यहां आप के सिवा किसी को नहीं जानती और अभी स्टेशन के पास एक होटल में रुकी हूं. रहने की व्यवस्था अभी नहीं हुई है.’’

‘‘आप मेरे साथ चलें,’’ कहता हुआ सिद्धार्थ उसे काले रंग की कार की तरफ ले गया और पूछा, ‘‘आप ने ब्रेकफास्ट किया है या नहीं?’’

‘‘हां, सुबह चाय के साथ थोड़े स्नैक्स लिए थे,’’ जानकी ने थोड़े संकोच के साथ जवाब दिया.

‘‘बस, इतना ही, अब तो 2 बज चुके हैं,’’ कार का गेट खोलते हुए सिद्धार्थ बोला. जानकी कार में बैठने के लिए हिचकिचा रही थी. सिद्धार्थ को उस की हिचकिचाहट को समझने में देर नहीं लगी. वह बोला, ‘‘आय कैन अंडरस्टैंड जानकीजी. आप मुझे जानती ही कितना हैं जो मेरे साथ चलने को तैयार हो जाएं. मैं ने ऐक्साइटमैंट मेंयह सब सोचा ही नहीं.’’

‘‘कैसा ऐक्साइटमैंट?’’

सिद्धार्थ जबान पर काबू न रख पाया और बोल पड़ा, ‘‘आप के आने का ऐक्साइटमैंट.’’ जानकी थोड़ी असहज हो गई और सिद्धार्थ को भी अपनी गलती तुरंत समझ आ गई. बात को बदलते हुए उस ने कहा, ‘‘मैं सोच रहा था आप लंच कर लेते तो…’’ जानकी कार में बैठते हुए सिद्धार्थ के लहजे में बोली, ‘‘तो चलें सिद्धार्थजी?’’ दोनों एक होटल में गए, साथ में खाना खाया. सिद्धार्थ ने जानकी से कालेज के बारे में काफी पूछताछ कर डाली.

जानकी ने भी पूछ लिया, ‘‘आप इतने बदल कैसे गए?’’

इस पर सिद्धार्थ बोला, ‘‘डोंट टेक इट अदरवाइज, लेकिन उस रात जब आप से मुलाकात हुई और जो बातें हुईं, उस का मेरे जीवन पर बहुत गहरा असर पड़ा. मैं ने कहा था न कि आप मेरे लिए प्रेरणास्रोत हैं और वही हुआ, मैं समझ गया कि मेरे पास क्या है और मुझे कितना खुश होना चाहिए. मैं ने अब पापा के साथ औफिस जाना भी शुरू कर दिया है ऐंड आय एम रियली एंजौइंग इट और हां, अब मैं ने डैड को पापा कहना भी शुरू कर दिया है. ऐक्चुअली, आप को बताऊं, मौम और पापा बहुत सरप्राइज्ड हैं इस बदलाव से. मौम ने मुझ से पूछा भी था लेकिन मेरी समझ में नहीं आया कि क्या बताऊं. एनी वे, अब आप ने रहने के बारे में क्या सोचा है?’’ इस सवाल से जानकी मानो आसमान में उड़तेउड़ते अचानक जमीन पर आ गिरी हो. चेहरे पर उदासी लिए बोली, ‘‘पता नहीं, यहां पर तो किराए के लिए डिपौजिट भी देना पड़ता है और मैं वह अफोर्ड नहीं कर सकती.’’

‘‘अगर आप बुरा न मानें तो एक रिक्वैस्ट कर सकता हूं?’’

‘‘कहिए.’’

‘‘मैं यह कह रहा था कि जब तक आप के रहने का इंतजाम नहीं हो जाता, तब तक आप मेरे घर पर रह सकती हैं.’’ जानकी के चेहरे के बदले भाव देख कर सिद्धार्थ ने तुरंत बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘वहां मेरी मौम भी हैं. एक आउटहाउस अलग से है, वहां आप को कोई परेशानी नहीं होगी.’’ जानकी को यह सब बहुत अटपटा लग रहा था. उसे लगा कि थोड़ी सी पहचान में कोई आदमी क्यों किसी की इतनी मदद करेगा. पहली छवि के आधार पर सिद्धार्थ पर भरोसा करना कोई समझदारी नहीं थी. जो कुछ यह बोल रहा है, न जाने उस में कितना सच है. जरा देर की पहचान है इस से. इस के साथ जा कर मैं कहीं किसी मुसीबत में न फंस जाऊं. अनजान शहर है, अनजान लोग. कैसे किसी पर भरोसा कर लूं?

‘‘आप क्या सोचने लगीं? जानकीजी?’’

सिद्धार्थ की आवाज से जानकी विचारों की उधेड़बुन से बाहर आई और बोली, ‘‘देखिए सिद्धार्थजी, आप ने मेरे लिए इतना सोचा, इस के लिए मैं आप की बहुत शुक्रगुजार हूं, लेकिन आप के घर मैं नहीं चल सकती. आप अपना नंबर दे दीजिए, यदि कोई जरूरत पड़ी तो मैं आप को फोन जरूर करूंगी.’’ सिद्धार्थ जानकी की बात को समझ रहा था, इसलिए उस ने कोई जबरदस्ती नहीं की. बस, इतना कहा, ‘‘मैं अपना नंबर तो आप को दे देता हूं, अगर आप का भी नंबर मिल जाए तो…’’

जानकी बोली, ‘‘अभी तक तो मुझे मोबाइल की जरूरत नहीं पड़ी है, सौरी.’’

सिद्धार्थ बोला, ‘‘मैं आप को होटल तक छोड़ सकता हूं?’’

‘‘ओ श्योर,’’ जानकी ने मिजाज बदलते हुए कहा.

सिद्धार्थ जानकी को होटल छोड़ कर घर चला गया. मन काफी भारी था और उदास भी. घर पहुंचा तो मां ने पूछा, लेकिन सिद्धार्थ ने बताया कि उस ने एक दोस्त के साथ बाहर खाना खा लिया है. सिद्धार्थ के चेहरे की उदासी उस के मन की जबान बन रही थी. मां ने उस से पूछा, ‘‘कौन दोस्त था तेरा?’’ सिद्धार्थ ने इस प्रश्न की कल्पना नहीं की थी. वह बस बोल गया, ‘‘मौम, आप नहीं जानतीं उसे,’’ और सिद्धार्थ अपने कमरे में चला गया. मां का शक पक्का हो गया कि सिद्धार्थ कुछ छिपा रहा है उस से. वे सिद्धार्थ के कमरे में गईं और पूछा, ‘‘आज तू पापा के साथ औफिस क्यों नहीं गया, इसी दोस्त के लिए?’’

सिद्धार्थ समझ नहीं पा रहा था कि मां इतना खोद कर क्यों पूछ रही हैं. वह बोला, ‘‘हां मौम, वह बाहर से आया है न, इसलिए उस का थोड़ा अरेंजमैंट देखना था.’’ 

‘‘तो क्या हो गया अरेंजमैंट?’’

‘‘अभी नहीं, मौम,’’ सिद्धार्थ बात को खत्म करने के लहजे में बोला. लेकिन मां तो आज ठान कर बैठी थीं कि सिद्धार्थ से आज सब जान कर रहेंगी.

‘‘फिर तू उसे घर क्यों नहीं ले आया? जब तक उस का कोई और इंतजाम नहीं हो जाता, वह हमारे साथ रह लेता,’’ मां ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा.

‘‘मौम, उसे हैजिटेशन हो रहा था, इसलिए नहीं आया,’’ सिद्धार्थ बात को जितना समेटने की कोशिश कर रहा था, मां उसे और ज्यादा खींच रही थीं.

‘‘अच्छा यह बता, पिछले 10-12 दिन से तो तू बहुत खुशखुश लग रहा था, आज सुबह दोस्त से मिलने गया तब भी बड़ा खुश था, अब अचानक इतना गुमसुम क्यों हो गया है. सच बताना, मैं मां हूं तेरी मुझ से कुछ मत छिपा, कोई समस्या हो तोबता, शायद मैं मदद कर सकूं,’’ कह कर अब तो मां ने जैसे मोरचा ही खोल दिया था. अब सिद्धार्थ के लिए बात को छिपाना मुश्किल लग रहा था. इतने कम समय में उस ने जानकी को बहुत अच्छी तरह से पहचान लिया था लेकिन इतना बड़ा फैसला लेने में घबरा रहा था. इस बारे में मां और पिताजी को समझाना उसे काफी मुश्किल लग रहा था. सब से बड़ी बात है कि जानकी अनाथालय में पलीबढ़ी थी. जमाना कितना भी आगे बढ़ जाए लेकिन ऐसे समय सभी खानदान और कुल जैसे भंवर में फंस जाते हैं. वह उच्च और रईस घराने से था, ऐसे में एक ऐसी लड़की जिस के न मातापिता का पता है न खानदान का. अनाथालय में पलीबढ़ी एक लड़की के चरित्र पर भी लोग संदेह करते हैं. ऐसे में वह क्या करे क्या न करे, फैसला नहीं ले पा रहा था.

दूसरी तरफ उसे जानकी की चिंता सता रही थी. जब तक उस के रहने की व्यवस्था नहीं हो जाती तब तक उसे होटल में ही रुकना पड़ेगा जो उस के लिए बहुत खर्चीला होगा. वह कहां से लाएगी इतना पैसा? आखिर उस ने मां को सबकुछ बताने का फैसला किया. ‘‘मौम, आप बैठिए प्लीज, मुझे आप से कुछ बातें करनी हैं,’’ और उस ने मनमाड़ रेलवे स्टेशन के प्रतीक्षालय से ले कर आज तक की सारी बातें मां को बता दीं. सबकुछ सुनने के बाद मां कुछ देर चुप रहीं फिर बोलीं, ‘‘देखते हैं बेटा, कुछ करते हैं,’’ और उठ कर चली गईं.

अब सिद्धार्थ पहले से अधिक बेचैन हो गया. बारबार सोचता कि उस ने सही किया या गलत? फिर रात को पापा आए. सब ने साथ खाना खाया. खाने की टेबल पर पापा और सिद्धार्थ की थोड़ीबहुत बातें हुईं. पापा ने भी अनजाने में उस से पूछ लिया, ‘‘बेटा, तेरा वह दोस्त आया कि नहीं?’’

‘‘आया न पापा,’’ सिद्धार्थ ने मां की ओर देखते हुए कहा.

‘‘फिर उसे ले कर घर क्यों नहीं आया,’’ वही मां वाले सवाल पापा दुहराए जा रहे थे.

‘‘पापा, बाद में आएगा,’’ कह कर सिद्धार्थ ने बड़ी मुश्किल से जान छुड़ाई. खाना खा कर तीनों सोने चले गए. अगले दिन शाम को लगभग 4:30 बजे पिताजी ने औफिस में सिद्धार्थ को अपने कक्ष में बुला कर कहा, ‘‘तुम्हारी मौम का फोन था, वह आ रही हैं अभी, तुम्हारे साथ कहीं जाना है उन्हें. तुम अपना काम वाइंडअप कर लो.’’

कई वर्षों बाद ऐसा होगा जब सिद्धार्थ अपनी मौम के साथ कहीं जा रहा हो, वरना अब तक तो मां के साथ पिताजी ही जाते थे और सिद्धार्थ अपने दोस्तों के साथ. अचानक मां को उस के साथ कहां जाना है, वह समझ नहीं पा रहा था.

बुलडोजर तानाशाही

पहले उत्तर प्रदेश में, फिर मध्य प्रदेश में और अब दिल्ली की जहांगीरपुरी में बुलडोजर तानाशाही का इस्तेमाल कोई चौंकाने वाला नहीं है. यह तो दिख ही रहा है कि समाज का एक वर्ग किसी भी तरह अपना वर्चस्व बनाए रखने बौर बढ़ाने के लिए हर तरह के हथकंडे अपना रहा है और अपनाता रहेगा. बुलडोजर तानाशाही का इस्तेमाल कांग्रेस के ही जमाने में 1975-77 में जम कर किया गया था और इसीलिए अब कांग्रेसी ज्यादा बोल नहीं पा रहे.

कहने को सरकारी जमीन पर गैरकानूनी ढंग से बने मकानों और निर्माणों की बुलडोजरों से गिराया जा रहा है पर यह हो रहा है एक समाज ‘मुसलिम समाज’ के खिलाफ ही. सत्ता में बैठे लोगों की सोच दूरगामी है. वे आज मुसलिम समाज को पार्टीशन और आंतकवाद से जोड़ कर डरा देना चाहते हैं ताकि बाद में इस डर का इस्तेमाल हर उस जने के खिलाफ किया जा सके जो उन की नहीं मान रहे हो.

लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि बुलडोजर और उसे चलाने वाले न कपड़े पहचानते हैं, माथे पर लगे रहं, न जाति या धर्म. वे तो हुक्त देने वाले को जानते हैं. पी. चिदंबरम जब वित्तमंत्री और गृहमंत्री थे तो उन्होंने बहुत से कठोर कानून बनाए थे क्योंकि उन के हिसाब से सब व्यापारी चोर हैं और नागरिक आतंकवादी है. उन्हें जब 100 दिन से ज्यादा जेल अपने बनाए कानूनों में भुगतनी पड़ी तो अहसास हुआ होगा कि कानून का राज क्या होता है और क्यों अच्छा होता है.

बुलडोजर तानाशाही सीधेसीधे कानूनी मान्याओं के खिलाफ  है. सजा पहले दे दो, सुनवाई पहले कर दो. समाज में यह बहुत होता है. रोड रेड में होता है. नौकरानी का टीसैट तोडऩे पर होता है. पत्नी की पिटाई पर होता है. स्कूलों में रैङ्क्षगग पर होता है. एक पूरे समाज को कुछ के दोष के लिए सजा देना इसी बुलडोजर तानाशाही को पैदा करता है.

भारतीय जनता पार्टी का यह सोचना कि बुलडोजर तानाशाही कम पैदा कर देगी और लोगों को घुटने टेकने को मजबूर कर देगी, गलत है, यूक्रेन में हजारों मर रहे है शहर के शहर नष्ट हो रहे हैं पर व्लादिमीर जेलेंस्की के नेतृत्व में यूक्रेनी रूस मिसाइलों और टैंकों से डरे बिना लड़ रहे हैं. विश्वयुद्ध के बाद हारे जर्मनी और जापान ने नष्ट ही कर भी फिर अभूतपूर्व उन्नति की. सदियों से दबाए गए पिछड़े व दलित जिन्हें आज ओवीसी एसीसी सरकारी भाषा में कहा जाता है आज आगे बढ़चढ़ कर आगे आ रहे हैं. मुसलिम समुदाय या किसी और समुदाय का बुलडोजरों से दबा कर नहीं रख सकते. कुछ दिनों के लिए चुप कर सकते हैं.

आज ङ्क्षहदू समाज जो इस तानाशाही में पुराने जख्मों पर कुछ ठंडक महसूस कर रहा है, कल खुद ही अपनों द्वारा ही दिए जख्मों से कराहेगा. नोटबंदी, जीएसटी, मंहगाई, औक्सीजन की कमी के दौरान कोविड से मौतें इसी तानाशाही सोच का नतीजा है, हम जो चाहे कर लें वाली सोच सिर्फ बुलडोजर तक ही नहीं रूकी रहती, वह समाज के हर हिस्स्से में दिखती है. सरकार इस तानाशाही शासन शैली में लग रही है और इस का व्यापक असर होगा कि देश का टेलेंट जो तानाशाही से गुस्सा हो जाएगा या तो भाग जाएगा या फिर क्रांतिकारी बन जाएगा.

सुप्रीम कोर्ट ने 4 घंटे में इस तानाशाही को दिल्ली में रोक लिया पर पूरे देश में नहीं. यह न भूलें कि पंजाब, राजस्थान, महाराष्ट्र, पश्चिमी बंगाल, तमिलनाडू, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखंड, केरल में बुलडोजर तानाशाही के महंतों का राज नहीं है. इन बुलडोजर महंतों के सगेसंबंधियों के यहां यह तानाशाही इस्तेमाल होने लगे तो सारा कराधरा बेकार हो सकता है. तानाशाहों के जाने के बाद आंसू नहीं बहते, पटाके चलाए जाते हैं. बुलडोजर तो आंधी और भूकंम की तरह हैं, आज आए फिर गए पर जब नुकसान होता है तो सबका होता है, कुछ को तुरंत दिखता है कुछ को बाद में कभी.

खेती के लिए ड्रोन खरीदने पर सब्सिडी

खेती में काम आने वाले अनेक कृषि यंत्रों पर सरकार की ओर से किसानों को इन यंत्रों की खरीद पर सब्सिडी का लाभ दिया जाता है. इन  यंत्रों की सूची में अब ड्रोन भी शामिल हो गया है.

पूसा इंस्टीट्यूट, नई दिल्ली में आयोजित  एक समारोह में केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने किसानों के लाभ और विभिन्न हितधारकों के लिए ड्रोन के उपयोग को बढ़ावा देने पर जोर दिया और बताया कि सरकार ने ड्रोन प्रशिक्षण देने के लिए सौ फीसदी सहायता यानी अनुदान देने का निर्णय लिया है. कृषि के विद्यार्थी इस में बेहतर भूमिका निभा सकते हैं. कृषि के छात्रछात्राओं के लिए सब्सिडी का प्रावधान भी है.

केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय ने कृषि क्षेत्र के हितधारकों के लिए ड्रोन तकनीक को किफायती बनाने के दिशानिर्देश जारी कर दिए हैं. इस में अलगअलग कृषि संस्थानों, उद्यमियों, कृषक उत्पादक संगठनों (एफपीओ) और किसानों के लिए सब्सिडी का प्रावधान किया गया है.

इन के अनुसार, कृषि मशीनरी प्रशिक्षण और परीक्षण संस्थानों, आईसीएआर संस्थानों, कृषि विज्ञान केंद्रों और राज्य कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा ड्रोन की खरीद पर कृषि ड्रोन की लागत का सौ फीसदी तक या 10 लाख रुपए, जो भी कम हो, का अनुदान दिया जाएगा.

कृषक उत्पादक संगठन (एफपीओ) किसानों के खेतों पर इस के प्रदर्शन के लिए कृषि ड्रोन की लागत का 75 फीसदी तक अनुदान पाने के लिए पात्र होंगे.

मौजूदा कस्टम हायरिंग सैंटरों द्वारा ड्रोन और उस से जुड़े सामानों की खरीद पर 40 फीसदी मूल लागत का या 4 लाख रुपए, जो भी कम हो, वित्तीय सहायता के रूप में उपलब्ध कराए जाएंगे.

कस्टम हायरिंग सैंटर की स्थापना कर रहे कृषि स्नातक ड्रोन और उस से जुड़े सामानों की मूल लागत का 50 फीसदी हासिल करने या ड्रोन खरीद के लिए 5 लाख रुपए तक अनुदान समर्थन लेने के पात्र होंगे.

ग्रामीण उद्यमियों को किसी मान्यताप्राप्त बोर्ड से 10वीं या उस के समकक्ष परीक्षा उत्तीर्ण होनी चाहिए और उन के पास नागर विमानन महानिदेशालय (डीजीसीए) द्वारा निर्दिष्ट संस्थान या किसी अधिकृत पायलट प्रशिक्षण संस्थान से दूरस्थ पायलट लाइसैंस होना चाहिए.

कृषि में ड्रोन के उपयोग के लिए कुछ नियमों का भी पालन करना होगा.

डर- भाग 2: समीर क्यों डरता था?

‘यह नीरज एक सिरफिरा इंसान है, समीर. उस दिन यह अकेला ही उन पांचों से लड़भिड़ गया था. यह माथे का घाव जनाब को उस दिन अपने उसी दुस्साहस के कारण मिला था,’ नेहा ने नीरज का कंधा आभार प्रकट करने वाले अंदाज में दबाते हुए समीर को जानकारी दी.

‘और लगे हाथ यह भी बता दो कि इस जख्म से नीरज को क्या मिला?’ मैं ने नेहा से मुसकराते हुए पूछा.

‘मुझे नेहा की दोस्ती मिली,’ नेहा के कुछ बोलने से पहले ही नीरज ने जवाब दिया.

‘और मेरे सब से अच्छे दोस्त को मिली यह प्यारी सी हमसफर,’ नेहा ने कविता का हाथ पकड़ कर नीरज के हाथ में पकड़ा दिया, ‘समीर, उस दिन नीरज के इस घाव की मरहमपट्टी कविता ने अपनी स्कूटी में रखे फर्स्टएड बौक्स को निकाल कर की थी. यह हमारी जूनियर थी. नीरज की हिम्मत ने इस का दिल उस पहली मुलाकात में ही जीत लिया था.’

‘वैसे कायदे से तो समीर को ऐसी हिम्मत दिखाने का इनाम नेहा के प्यार के रूप में मिलना चाहिए था,’ मेरे इस मजाक ने उन तीनों को एकाएक ही गंभीर बना दिया तो बात मेरी समझ में नहीं आई.

मेरी उलझन को नीरज ने दूर करने की कोशिश की, ‘उस दिन होली खेल कर लौट रहा कमल नाम का एक सीनियर मेरी मदद को आगे आया था. उस के हाथ में हौकी देख कर वे बदमाश भाग निकले थे. उस दिन नेहा का दिल कमल ने जीता था पर…’

‘बात अधूरी मत छोड़ो, नीरज.’

‘यह कमल नेहा का विश्वसनीय और वफादार प्रेमी नहीं बन सका. सिर्फ 3 महीने बाद नेहा ने उस के साथ सारे संबंध तोड़ लिए थे.’

‘क्या किया था उस ने?’ यह सवाल मैं ने नेहा से पूछा.

‘रितु के साथ वह एक पुराने खंडहर में पकड़ा गया था. कमल ने दोस्ती और प्रेम दोनों के नाम को कलंकित किया था. नेहा के होंठों पर उदास सी मुसकान उभरी.’

‘रितु गुप्ता नेहा की सब से अच्छी सहेली थी. कमल के साथ नेहा की दोस्ती बढ़ी तो रितु को भी उस के साथ हंसनेबोलने के  खूब मौके मिलने लगे. नेहा सोचती थी कि वह अपने होने वाले जीजा से अच्छी नीयत के साथ हंसीमजाक करती है पर रितु की नीयत में खोट आ गया था. उसे लग रहा था कि बहती गंगा में हाथ धो ले. वह बहुत सैक्सी किस्म की लडक़ी है.’

‘नेहा को जिस दिन असलियत पता लगी उसी दिन उस ने कमल को दूध में पड़ी मक्खी की तरह से निकाल अपनी जिंदगी से दूर फेंक दिया था. रितु गुप्ता को धोखा देने की जो सजा नेहा ने दी थी वह कालेज में महीनों चर्चा का विषय बनी रही थी,’ मुझे ये सारी बातें बताने के बाद नीरज चौधरी रहस्यमयी अंदाज में मुसकुराने लगा.

मैं ने नेहा की तरफ सवालिया नजरों से देखा तो वह बेचैनीभरे अंदाज में बोली, ‘कमल कटियार से मेरी जानपहचान तो नई थी पर रितु के साथ मेरी दोस्ती 5 साल से ज्यादा पुरानी थी. उस ने मुझे धोखा दिया तो मैं गुस्से से पागल हो गई थी, समीर. म…मैं ने तब उसे जान से मारने की कोशिश भी की थी.’

‘यह क्या कह रही हो?’ मैं बुरी तरह  से चौंक पड़ा.

‘अरे, कोई जहर दे कर नहीं बल्कि जुलाब की गोलियां खिला कर नेहा ने उसे विश्वासघात करने की सजा दी थी. उस धोखेबाज के उस दिन कपड़े खराब हो गए थे क्योंकि शौचालय के दरवाजे पर गुस्से से लालपीली हो रही नेहा खड़ी हुई थी और उस में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह इस के सामने आ जाए. उस घटना के कई चश्मदीद गवाह थे. अपना मजाक उड़वाने से बचने के लिए वह महीनेभर तक कालेज आने की हिम्मत नहीं कर सकी थी,’ नीरज ने पूरी घटना का ब्योरा ऐसे मजाकिया अंदाज में सुनाया कि उस समय घटे दृश्य की कल्पना कर हम सभी जोर से हंस पड़े थे.

‘अच्छे दोस्त जीवन में बड़ी मुश्किल से मिलते हैं, समीर. समझदार इंसान को उन की बहुत कद्र करनी चाहिए,’ कविता ने अचानक भावुक हो कर अपनी राय जाहिर की थी.

‘बिलकुल ठीक कह रही हो तुम,’ मैं ने फौरन अपनी सहमति जताई.

‘दोस्तों से कोर्ई भी अहम बात छिपाना गलत होता है.’

‘यह भी बिलकुल सही बात है.’

‘तब यह बताओ कि मौडलिंग करने वाली शिखा के साथ तुम्हारे किस तरह के संबंध हैं?’ कविता द्वारा अचानक पूछे गए इस सवाल ने मेरे दिल की धडक़नें बहुत तेज कर दी थीं.

‘वह मेरी अच्छी दोस्त है,’ मैं ने अधूरा सच बोला.

उन तीनों ने मेरा जवाब सुन कर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की. बस, खामोशी के साथ मेरी तरफ ध्यान से देखते हुए वे मेरे आगे बोलने का इंतजार कर रहे थे.

‘तुम सब शिखा को कैसे जानते हो?’ कुछ और सचझूठ बोलने के बजाय मैं ने यह सवाल पूछना बेहतर समझा था. शिखा मेरी मौसी के गांव की लडक़ी थी और दिल्ली में रह कर पढ़ाई कर रही थी.

‘वह कल शाम मुझ से मिलने मेरे घर आर्ई थी,’ नेहा ने मुझे बताया.

‘क्या कह रही थी वह?’ मेरे मन की बेचैनी बहुत ज्यादा बढ़ गई.

‘किस बारे में?’

‘मेरे बारे में, अपने और मेरे बारे में उस ने कुछ ऊटपटांग बातें तो तुम से नहीं कही हैं?’

नेहा ने गहरी सांस छोड़ी और गंभीर लहजे में बोली, ‘इस बात को लंबा खींचने के बजाय मुझे जो कहना है, वह मैं तुम से साफसाफ कहे देती हूं.’

‘शिखा तुम्हें धोखेबाज इंसान बता रही थी क्योंकि तुम ने उस के साथ शादी करने के अपने वादे को तोड़ा है. तुम्हारे साथ अपनी अति निकटता को सिद्ध करने के लिए उस ने अपने मोबाइल में सेव किए कुछ फोटो भी मुझे दिखाए थे.’

‘ओह.’

‘लेकिन तुम्हारे खिलाफ लगातार जहर उगलते रहने के कारण वह मुझे तुम्हारी प्रेमिका कम और दुश्मन ज्यादा लगी, तो उस की बातें मेरे दिल को गहरी चोट पहुंचाने में सफल नहीं रही थीं. अब मैं तुम से एक महत्त्वपूर्ण सवाल पूछना चाहूंगी, समीर.’

Mother’s Day 2022- टूटते सपने: क्या उसके सपने पूरे हुए?

दोपहर के भोजन का समय हो चुका था. मनोरमा ने आवाज लगाई, ‘‘चल खाना खाने, रोज तो तू मुझे याद दिलाती है लेकिन आज मैं तुझे बुला रही हूं.

Mother’s Day 2022: मां, तुम गंदी हो

कहीं दूर रेडियो बज रहा था. हवा की लहरों पर तैरती ध्वनि शेखर के कानों में पड़ी.

मन रे, तन कागद का पुतला,

लागै, बूंद बिनसि जाइ छिन में,

गरब करै क्यों इतना.

शेखर पहचान गया कि यह कबीरदास का भजन है. जीवन की क्षणभंगुरता को जतला रहा है. कौन नहीं जानता कि जीवन के हासविलास, रागरंग और उल्लास का समापन अंतिम यात्रा के रूप में होता है, फिर भी मनुष्य का पागल मन सांसारिक सुखों के लिए भटकना नहीं छोड़ता.

कुछ मिल गया तो खुशी से बौरा जाता है. कुछ छिन गया तो पीड़ा से सिसक उठता है.

यही पुरानी कहानी हर बार नई हो कर हर जिंदगी में दोहराई जाती है. उस का खुद का जीवन इस का एक उदाहरण है.

ऊंची नौकरी, नंदिता के साथ विवाह और निधि का जन्म. ये जीवन के वे सुख हैं जिन्हें पा कर वह खुशी से बौरा उठा था. फिर एक दुर्घटना में सदा के लिए अपाहिज हो जाना, नौकरी छूटना और बेटी को साथ ले कर पत्नी का घर छोड़ जाना वे दुख हैं जिन्होंने दर्द की तीखी लहर उस के सर्वांग में दौड़ा दी.

अनायास ही शेखर की आंखों में दो बूंद आंसू झिलमिला उठे. जब से तन जर्जर हुआ है, मन भी न जाने क्यों बेहद दुर्बल हो गया है. तनिक सी बात पर आंखें भर आती हैं. यह सच है कि पुरुष की आंखों में आंसू अच्छे नहीं लगते लेकिन क्या किया जाए.

जिस का सब कुछ लुट गया है, ब्याहता पत्नी तक ने जिसे छोड़ दिया है, उस एकाकी पुरुष की वेदना नारी की प्रसव पीड़ा से कम भयंकर नहीं. वह तो कहो कि अम्मां जिंदा थीं वरना…

शेखर के मुंह से एक ठंडी सांस निकल गई. सिरहाने बैठी अम्मां नीचे झुक कर मृदु स्वर में बोलीं, ‘‘कुछ चाहिए, बेटा?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘थोड़ा दूध लाऊं? सुबह से तुम ने कुछ नहीं खायापिया है.’’

‘‘निधि के आने पर खाऊंगा पर नंदिता ने निधि को भेजने से इनकार कर दिया तो?’’

‘‘इनकार कैसे करेगी? पड़ोस के मनोहरजी अदालत का हुक्मनामा ले कर गए हैं. पुलिस के 2 सिपाही साथ हैं. वे लोग अब आते ही होंगे.’’

‘‘उफ, कैसी विडंबना है कि बाप को अपनी बच्ची से मिलने की खातिर अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ा है, पुलिस भेजनी पड़ी है. अगर कहीं जज साहब भी नंदिता की तरह तंगदिल होते तो मुझे अपनी आखिरी इच्छा को मन में लिए हुए ही दुनिया से जाना पड़ता,’’ यह कह कर शेखर ने एक ठंडी सांस खींची.

अम्मां कुछ नहीं बोलीं. चुपचाप बेटे के कमजोर चेहरे पर अपना झुर्रियों भरा हाथ फिराती रहीं.

वर्षों से गुमसुम हो चुका शेखर आज न जाने क्यों इतना बोल रहा था. नंदिता के चले जाने के बाद उस ने ‘हां’ ‘हूं’ के अलावा कोई बात ही नहीं की थी. उस की बोलने की इच्छा ही जैसे मर गई थी. अब तो यह हाल हो चुका है कि चाहने पर भी वह बातचीत नहीं कर पाता.

कमजोरी इतनी हो गई है कि पूरी ताकत लगा कर बोलने पर भी चिडि़या की तरह ‘चींचीं’ से ज्यादा तेज आवाज नहीं निकलती. उस को सुनने के लिए अम्मां को झुक कर उस के मुंह के पास अपना कान ले जाना पड़ता है.

वैसी ही धीमी आवाज में वह बोला, ‘‘बड़ी गलती हो गई अम्मां जो नाई को बुलवा कर दाढ़ी नहीं बनवा ली. जरूर मेरा चेहरा भयानक लगता होगा. निधि बच्ची है, देख कर डर जाएगी.’’

‘‘लेकिन अब वे लोग आते ही होंगे. नाई को बुलाने का समय नहीं बचा है,’’ अम्मां ने जवाब दिया.

शेखर ने आंखें मूंद लीं. 4 साल पहले देखी बिटिया की छवि याद करने लगा. बच्ची का मुसकराता चेहरा ही तो वह औषध था जिस के सहारे इस लंबी बीमारी को उस ने काटा था. तकिए के नीचे संभाल कर रखा बेटी का फोटो निकालनिकाल कर इतनी बार देखा था कि फोटो की हर रेखा मन में पूरी तरह उतर गई थी.

लंबी बीमारी में पुरानी यादें रोगी की अनमोल थाती होती हैं. बीते हुए दिनों की सुहानी याद उस के घायल मन पर मरहम का काम करती है. यदि यह सहारा न हो तो आदमी पागल हो जाए. अकेले पड़ेपड़े छत और दीवारों को कोई कितनी देर देख सकता है.

हर सुबह खिड़की से जब धूप का पहला टुकड़ा भीतर घुसता था तो शेखर यह कल्पना करता था कि निधि दबेपांव भीतर घुस रही है. यह कल्पना बड़ी मधुर होती थी पर कल्पना आखिर कल्पना थी. यथार्थ से उस का क्या संबंध. संयोग से आज जीतीजागती निधि इस कमरे में आएगी. जाड़े की सुहानी धूप की तरह कमरे को उजास से भर देगी.

शेखर के पपडि़याए होंठों पर हलकी सी मुसकान दौड़ गई.

तभी अचानक अम्मां उठते हुए बोलीं, ‘‘लगता है वे लोग आ गए,’’ फिर वह उठ कर दरवाजे पर गईं. वहीं उन्होंने मनोहरजी से पूछा, ‘‘किसी ने इसे भेजने में आनाकानी तो नहीं की?’’

‘‘सरकारी हुक्म की तौहीन करने की जुर्रत कौन कर सकता है? लेकिन इतना तय है कि मुहलत सिर्फ 8 घंटे की है,’’ मनोहरजी ने जवाब दिया.

‘‘8 घंटे तो बहुत हैं. बाप के तड़पते सीने में इसे देखते ही ठंडक पड़ जाएगी,’’ कहते हुए अम्मां ने 7 साल की पोती को सीने से चिपका लिया और भीगी आंखें पोंछ कर उसे साथ लिए भीतर आ गईं. आ कर देखा कि शेखर की दोनों आंखों से आंसुओं की धाराएं बह कर दाढ़ी के जंगल में समा रही हैं.

अम्मां ने प्यार से झिड़का, ‘‘बेटा, अब आंसू मत बहा. बच्ची सहम जाएगी. कितने इंतजार के बाद तो इसे देख सका है तू. पास बैठ कर बातचीत कर.’’

शेखर लटपटाती जबान से बोला, ‘‘तुम ने मुझे पहचान लिया, बेटी?’’

मुंह खोलते ही सामने के 2 टूटे दांतों की खाली जगह नजर आई. लंबी, कष्टदायक बीमारी ने उसे 35 वर्ष की आयु में ही बूढ़ा बना दिया था. सचमुच उस का चेहरा काफी विकृत और भयानक लगने लगा था.

निधि बड़े धैर्य से रोगी के सिरहाने बैठ गई. उस की आंखों में न भय था, न जान छुड़ा कर भागने की छटपटाहट. मीठी आवाज में बोली, ‘‘पहचानूंगी क्यों नहीं? आप मेरे पापा हैं.’’

शेखर तो जैसे निहाल हो गया. जल्दीजल्दी अपने कमजोर हाथों से बच्ची को स्पर्श करने लगा. पितापुत्री के इस भावविह्वल मिलन को अम्मां न देख सकीं. उधर से मुंह घुमा लिया उन्होंने और आगे बढ़ कर अलमारी से एक खूबसूरत कीमती गुडि़या निकाल लाईं. उन्होंने यह कल ही बाजार से मंगवाई थी.

निधि ने गुडि़या की ओर आंख उठा कर भी नहीं देखा. 7 साल की उस बच्ची में न जाने कहां से  इतनी समझ आ गई थी कि उस के भोले बाल मन ने भावी अमंगल को सूंघ लिया था. जैसे संयोग से हासिल हो जाने वाले पिता के दुर्लभ प्यार का वह एकएक क्षण आत्मसात कर लेना चाहती थी.

अपने हाथों से उस ने शेखर को एक प्याला दूध पिलाया. किसी कुशल परिचारिका की तरह एकएक चम्मच दूध पिता के मुंह में डालती रही. फिर तौलिया उठा कर बड़ी सफाई और जतन से मुंह पोंछ दिया.

वह एक मिनट भी पिता के पास से हिली नहीं. दादी का दिया साग, परांठा भी उस ने वहीं बैठ कर खाया. अपने नन्हेनन्हे कोमल हाथों से वह पिता का सिर दबाती रही. बैठेबैठे अपने स्कूल की, अपनी सहेलियों की, अपने खिलौनों की ढेरों बातें सुनाती रही. उस ने पिता को अंगरेजी और हिंदी के शिशु गीत भी बड़ी लय में सुनाए. पिता को थका जान कर उस ने पिता से कुछ देर सोने का अनुरोध भी किया.

अम्मां वहीं जमीन पर चटाई बिछाए आराम करती रहीं. जितनी बार वह शेखर को दवा पिलाने उठतीं, निधि उन के हाथ से दवा ले लेती और पिता को खुद दवा पिलाती. कौन कह सकता था कि यह लड़की 4 साल बाद अपने पिता से मिली है.

वक्त गुजरता गया. 8 घंटे पलक झपकते बीत गए.

‘‘चलो, निधि,’’ सख्त आवाज में दिया यह आदेश सुन कर शेखर के कमरे में सब चौंक पड़े. नंदिता अपने बड़े भाई दीपक के साथ दरवाजे पर खड़ी हुई थी.

निधि ने घबरा कर पिता की कमजोर कलाई मजबूती से पकड़ ली, ‘‘मैं नहीं जाऊंगी. यहीं पापा के पास रहूंगी.’’

‘‘चलोगी कैसे नहीं?’’ कहते हुए दीपक ने उसे झपट कर गोद में उठा लिया और उस के रोनेमचलने की परवा किए बिना उसे ले कर चल दिया.

पल भर तो कमरे में मौत की सी खामोशी छाई रही. फिर शेखर की करुण हंसी उभरी जो रोने जैसी लग रही थी. वह बोला, ‘‘अम्मां, बेकार ही निधि को बुलवाया, आखिरी समय में मेरे मन में मोह जगा गई है. सालों अकेले पड़ेपड़े संन्यासी की तरह दुखसुख से ऊपर हो गया था. मन में कोई चाह ही बाकी नहीं रही थी लेकिन अब चाहता हूं कि 10-5 दिन और जिंदगी मिल जाए जिसे निधि के साथ गुजार सकूं. तब चैन से प्राण निकलेंगे.’’

‘‘इस बात को भूल जाओ, बेटा. वह अब तुम्हें देखने को भी नहीं मिलेगी. उस की तरफ से अपना मन हटा लो,’’ अम्मां ने कांपते स्वर में समझाया.

‘‘सच कहती हो अम्मां,’’ एक ठंडी सांस ले कर शेखर बोला.

पर कहने से ही क्या बच्ची को भूला जा सकता था. वह ध्यान हटाने की जितनी कोशिश करता, बच्ची मानस पटल पर उतनी ही शिद्दत से छा जाती. लगता, जैसे झुक कर पूछ रही हो, ‘पापा, आप को संतरे की एक फांक छील कर और दूं?’

खींच कर ले जाते वक्त कैसी मचल रही थी, ‘मैं अपने पापा के पास रहूंगी. मुझे यहां से मत ले जाओ.’

अपने घर जा कर निधि पांव पटकते हुए मचल गई, ‘‘हांहां, मैं अपने पापा के पास रहूंगी. मुझे वहां से क्यों ले आए तुम लोग?’’

नंदिता ने खिसिया कर उस के गाल पर एक तमाचा जड़ दिया, बोली, ‘‘पापा के पास लड्डू मिल रहे थे तुझे. घंटों से उसी एक बात को रटे जा रही है. दिमाग खराब कर दिया है मेरा.’’

दरवाजे के पास आ कर दीपक ने गंभीर स्वर में समझाया, ‘‘बच्ची के साथ तुम भी बच्ची मत बनो नंदिता. उसे प्यार से समझाबुझा कर चुप कराओ. मारनेपीटने से कुछ नहीं होगा.’’

दीपक चला गया तो नंदिता पल भर खामोश रही. फिर उस ने बेटी की पीठ पर प्यार से हाथ फेरा, बोली, ‘‘अच्छे बच्चे जिद नहीं करते हैं. तुम तो बहुत अच्छी बिटिया हो. आंसू पोंछ कर दूध पी लो. देखो, कितनी रात हो गई है.’’

‘‘मैं क्यों तुम्हारा कहना मानूं? तुम ने भी तो मेरा कहना नहीं माना है. जबरदस्ती मुझे ले आईं वहां से. मेरा मन क्या अपने पापा के पास रहने को नहीं होता? निशा, गौरव, सोनू सब बच्चे अपने मम्मीपापा के घर रहते हैं. मैं नानी के घर क्यों रहूं?’’ निधि ने हिचकियां लेते हुए मान भरे स्वर में कहा.

नंदिता समझ नहीं पा रही थी कि बच्ची को क्या कह कर बहलाए. पर उसे बहलाना जरूरी था. वह हिचकिचाते हुए बोली, ‘‘देखो बेटे, बात यह है… असल में तुम्हारे पापा बीमार हैं. वहां रहने से तुम्हारी पढ़ाईलिखाई कुछ नहीं हो सकती थी. उन की बीमारी कब तक चलेगी, इस का कोई ठीक पता नहीं. रातदिन बीमार आदमी के साथ कहां तक रहा जा सकता था? हमारी भलाई इसी में थी कि हम यहां आ जाते.’’

‘‘छि:, मां, तुम कितनी गंदी हो,’’ नफरत भरे स्वर में निधि बोल पड़ी.

‘‘क्यों?’’ नंदिता ने पूछा.

‘‘गंदी न होतीं तो ऐसी बात नहीं सोचतीं. तुम से हजार गुना अच्छी दादी हैं जो बीमार पापा की देखभाल कर रही हैं. मैं अब उन्हीं के पास रहूंगी. तुम इतनी मतलबी हो कि बीमारी में मुझे भी छोड़ सकती हो. दादी कम से कम मुझे छोड़ेंगी तो नहीं,’’ निधि की आवाज में नफरत और डर दोनों थे.

नंदिता सहम गई. उसे लगा जैसे मासूम बच्ची ने उसे निरावरण कर दिया है. बेटी की परवरिश तो एक बहाना थी. क्या सचमुच अपने स्वार्थ की खातिर वह रोगी पति को नहीं छोड़ आई थी.

उस के कानों में 4 वर्ष पहले की वे बातें गूंजने लगीं जो मां और भैया ने उस से कही थीं.

‘अभी तेरी उम्र ही क्या है? महज 22 साल. न जाने जिंदगी कैसे कटेगी?’

‘जीवन भर अपाहिज पड़े रहने से तो मरना भला था. अगर शेखर इस दुर्घटना में मर जाता तो उसे भी मुक्ति मिलती और घर वाले भी एक बार रोपीट कर सब्र कर लेते.’

‘भई, मरने वाले के साथ मरा तो जाता नहीं है. शेखर के लिए तू कहां तक खुद को तबाह करेगी?’

‘अपनी न सही, अपनी बच्ची की फिक्र कर. उस की पढ़ाईलिखाई की बात सोच. यहां रह कर वही एक बीमारीपुराण चलता रहेगा.’

‘साल 2 साल की बात हो तो धीरज से मरीज की सेवा भी की जाए. शेखर 4-6 साल भी जी सकता है और 15-20 साल भी. उस की जिंदगी की डोर अगर लंबी खिंच गई तो तू कहीं की नहीं रहेगी.’

नंदिता के कानों में हर रोज यही मंत्र फूंके गए थे. उस के स्वार्थ और कर्तव्य भावना में कुछ दिन संघर्ष चला था. आखिर स्वार्थ ही जीता था पर छोटी सी बच्ची ने आज बता दिया कि दुनिया स्वार्थ से नहीं त्याग से चलती है. स्वार्थ के वशीभूत हो कर राम को वनवास दिलाने वाली कैकेयी भी क्या बाद में अपने कुकृत्य पर नहीं पछताई थी.

नंदिता का मन भी उसे धिक्कारने लगा. वह अपराधबोध से भर कर बोली, ‘‘सचमुच मैं ने बहुत बड़ी भूल की है. मुझे माफ कर दो बेटी. मैं वादा करती हूं कि कल सुबह तुझे साथ ले कर तेरे पापा के पास चलूंगी और अब हमेशा वहीं रहूंगी.’’

‘‘सच कह रही हो, मां?’’ निधि ने चहक कर पूछा. उस की आवाज में खुशी भी थी और अविश्वास भी.

‘‘बिलकुल सच,’’ नंदिता ने भर्राए स्वर से उत्तर दिया.

मां के आश्वासन पर निधि दूध पी कर सो गई. नंदिता की आंखों के सामने कभी शेखर का विवाह के वक्त का हंसमुख चेहरा घूमता तो कभी दुर्घटना के बाद का मुर्झाया चेहरा. वह मुर्झाया चेहरा नंदिता से बारबार कह रहा था, ‘तुम ने मुझ से किस बात का बैर निकाला था, प्रिय? जीवन भर साथ निभाने का वादा कर के मुझे अकेला छोड़ गईं. यही दुर्घटना यदि तुम्हारे साथ घटी होती और मैं ने तुम्हें अकेला छोड़ दिया होता तो? तो तुम पर क्या गुजरती?’

‘मैं भी इनसान था. मेरे सीने में भी एक धड़कता हुआ दिल था. मुझे अकेला छोड़ते हुए तुम्हें तनिक भी तड़प नहीं हुई. अकेले पड़ेपड़े तुम्हें न जाने कितनी आवाजें दीं मैं ने. उन में से एक भी तुम्हारे कानों में नहीं पड़ी?’

‘अपने जीवन के लिए मुझे एक ही उपमा याद आ रही है… पतझड़ की सूनी शाख. वसंत में जो डाली फूलों से लदी हुई थी वह पतझड़ में बिलकुल वीरान पड़ी है. खैर, अकेलेपन से क्या डरना. आदमी अकेला ही दुनिया में आया है और अकेला ही जाएगा.’

‘बंधुसंबंधी अधिक से अधिक श्मशान तक उस का साथ निभा सकते हैं. तुम ने वह भी नहीं निभाया. जिंदगी के सफर में बीच रास्ते में साथ छोड़ गईं. परंतु अब मैं उस मोड़ पर पहुंच गया हूं जहां सारे गिलेशिकवे खत्म हो जाते हैं. यकीन मानो, मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है.’

नंदिता की आंखों से आंसू बरसने लगे. हृदय में ग्लानि का ज्वार उमड़ने लगा. उधर रात भी आहिस्ताआहिस्ता ढलने लगी.

भोर की पहली किरण के साथ वह उठ खड़ी हुई. किसी को कुछ बताए बिना वह निधि को साथ ले कर घर से निकल पड़ी. रिकशा जब ससुराल की गली के मोड़ पर पहुंचा तो सूरज निकल आया था.

रिकशा वाले को पैसे दे कर नंदिता ने बेटी की उंगली थामी और आगे बढ़ी. तभी दिल को चीरने वाला रुलाई का स्वर कानों से टकराया. निधि और नंदिता दोनों ने अम्मां की आवाज पहचान ली. आवाज उसी मकान से आ रही थी जहां एक दिन नंदिता मांग में सिंदूर सजाए डोली में चढ़ कर पहुंची थी. रात को निधि ने नफरत भरी आवाज में कहा था, ‘मां, तुम गंदी हो.’

नंदिता को महसूस हुआ जैसे यही वाक्य हर ओर से उस पर लांछन बन कर बरस रहा है, ‘तुम गंदी हो.’

हथेलियों से चेहरा ढांप कर वह रो पड़ी पर इन खारे मोतियों का मोल पहचानने वाला जौहरी अब कहां था.

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