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स्वस्थ किडनी सेहतमंद जिंदगी

वर्तमान समय में बदलती जीवन शैली के कारण किडनी की बीमारी तेजी से फैल रही है. किडनी की बीमारी रोजमर्रा के जीवन की रफ्तार को कम न कर दे, इस के लिए किडनी के रोगों के कारणों और बचाव से संबंधित जानकारी दे रही हैं सोमा घोष.
देश में गुरदे के मरीजों की संख्या दिनोंदिन बढ़ रही है. मधुमेह और अधिक तनाव से पीडि़त व्यक्ति इस की चपेट में ज्यादा आते हैं. दर्दनिवारक दवाओं के अधिक सेवन और वैकल्पिक चिकित्सा में इस्तेमाल होने वाली विभिन्न धातुओं के सेवन से भी व्यक्ति गुरदे की बीमारी का शिकार हो जाता है. इस बीमारी का इलाज आज भी सीमित और महंगा है. प्रत्यारोपण द्वारा ही इस का इलाज संभव है. इलाज के बावजूद मरीजों की मृत्युदर अधिक है. लेकिन जो व्यक्ति इस रोग से पीडि़त हो जाते हैं उन की शुरू में जांच कर के इलाज करने से रोग अपनी अंतिम अवस्था तक नहीं पहुंच पाता.
इसी बात को ध्यान में रखते हुए 1993 में नर्मदाबेन की याद में नर्मदा किडनी फाउंडेशन की स्थापना की गई. इस संस्था का उद्देश्य था, किडनी दान के नाम पर होने वाली धोखाधड़ी को रोकना और जरूरतमंद मरीज तक किडनी का पहुंचना व उस का प्रत्यारोपण होना. इस संस्था के द्वारा लोगों को किडनी का महत्त्व, उस के कार्य और समस्याओं के बारे में भी बताया जाता है ताकि समय रहते लोगों का इलाज संभव हो सके.
मुंबई के लीलावती और नानावती अस्पताल के कंसल्टैंट नैफ्रौलोजिस्ट डा. भरत शाह का कहना है कि भारत में किडनी प्रत्यारोपण के औपरेशन का काम काफी कम है. 125 करोड़ की आबादी वाले इस देश में लगभग 12 करोड़ लोग किडनी रोग से पीडि़त हैं. इन में से 3,500 हजार लोगों को ही किडनी के दानदाता मिलते हैं. ब्रेन डैथ वालों से किडनी बहुत कम मिल पाती है. ज्यादातर किडनी उन के सगेसंबंधियों द्वारा ही मिलती है. इसलिए प्रत्यारोपण के समय अवयवों की कमी खलती है. इस की संख्या में बढ़ोतरी किए जाने की जरूरत है.
डा. भरत शाह का मानना है कि पहले लोग किडनी प्रत्यारोपण से डरते थे. लोगों में चेतना लाने के  लिए डा. भरत शाह को बताना पड़ा कि यह बीमारी क्या है. समूह में बहस के बाद नर्मदा किडनी फाउंडेशन नाम की यह संस्था इस नतीजे पर पहुंची कि किडनी का प्रत्यारोपण कर मरीज को स्वस्थ किया जाए. इस के लिए लोग किडनी दान करें.
वर्ष 1994 में फाउंडेशन को मान्यता मिली, तब उस ने अपील की कि जिंदा व्यक्ति चाहे तो अपनी एक किडनी दान कर सकता है. इस के बाद ‘ब्रेन डैथ’ की बात चली और पाया गया कि ‘बे्रन डैथ’ के बाद कई घंटे तक व्यक्ति की किडनी ली जा सकती है. 1995 तक इस दिशा में जितना काम होना चाहिए था उतना नहीं हो पाया पर डा. भरत शाह की लगातार कोशिश से इस कल्याणकारी काम में सुधार आ रहा है.
किडनी के कार्य
द्य मूत्र निर्माण एवं उत्सर्जन.
द्य शरीर के जलअंश का नियमन.
द्य ब्लडप्रैशर का नियमन.
द्य एरिथ्रोपोइटिन नामक पदार्थ का उत्पादन. यह पदार्थ लाल रक्त कणों के निर्माण एवं बाद में हीमोग्लोबिन बनाने में सहायता करता है.
द्य विटामिन डी को सक्रिय कर के अस्थि निर्माण करने में सहायता करता है.
किडनी निष्क्रियता के चरण
तत्काल किडनी निष्क्रियता : इस में किडनियां तात्कालिक रूप से अचानक बेकार हो जाती हैं.
तीव्र किडनी विफलता : इस में किडनी अचानक कुछ दिन या कुछ घंटे के लिए काम करना बंद कर देती है लेकिन कुछ घंटे बाद ही यह फिर सक्रिय हो जाती है.
दीर्घकालीन किडनी विफलता : इस स्थिति में व्यक्ति की किडनी धीरेधीरे क्षतिग्रस्त हो कर पूरी तरह निष्क्रिय हो जाती है.
किडनी रोग की अंतिम अवस्था : इस का अर्थ यह है कि व्यक्ति की दोनों किडनियां अब किसी भी तरह काम करने की पहले जैसी अवस्था में नहीं लाई जा सकतीं. इसे किडनी की मृत्यु कहा जा सकता है. इस अवस्था में मरीज को किडनी प्रत्यारोपण द्वारा ही बचाया जा सकता है.
किडनी रोग के प्रमुख कारण
द्य मधुमेह.
द्य अति तनाव.
द्य दीर्घकालीन स्तबकवृक्कशोथ.
द्य पेशाब के मार्ग में पथरी.
द्य पेशाब की थैली में संक्रमण.
द्य दर्द निवारक दवाओं का अधिक सेवन.
किडनी विफलता के लक्षण
द्य शरीर के अंगों में सूजन.
द्य उच्च रक्तचाप.
द्य सतत कमजोरी का बढ़ना.
द्य हड्डियों में दर्द.
द्य झागदार एवं रक्तमय मूत्र.
द्य पेशाब की मात्रा व संख्या में बदलाव या बारबार पेशाब के लिए जाना.
द्य अनीमिया का बढ़ना.
शुरुआती लक्षणों के जाहिर होने पर सतर्क हो जाना चाहिए ताकि इलाज संभव हो सके. इस के इलाज का खर्च किडनी निकाल कर लगाने तक लगभग 3 लाख 50 हजार रुपए और इसे शरीर द्वारा नकारे न जाने पर पहले महीने 15 हजार रुपए की दवाइयां और बाद में 3 हजार रुपए तक दवाइयों पर खर्च करना पड़ता है. मरीज के स्वास्थ्य को देखते हुए खर्च में कमीबेशी हो सकती है.
डा. भरत शाह कहते हैं कि जब भी कोई किडनी मिलती है तो उसे लगाने से ले कर उस के बाद में आने वाले  खर्चे का पूरा विवरण व्यक्ति को दिया जाता है ताकि वह उस की जिम्मेदारी उठा सके.

अक्षय कुमार को ‘हिंदू सेंटीमेंट’ की जरूरत क्यों पड़ी?

राजेश खन्ना की फिल्म ‘‘आनंद ’’ का एंक संवाद है-‘‘यह भी एक दौर है, वह भी एक दौर था.’’ फिल्म में यह संवाद किसी दूसरे संदर्भ में था, मगर यह संवाद अक्षय कुमार पर भी एकदम सटीक बैठता है. 2014 तक धर्म व इतिहास को लेकर अक्षय कुमार की सोच कुछ अलग थी.लेकिन 2014 के बाद वह जितना ‘भाजपा’ के नजदीक आते गए,उनकी सोच व उनके ज्ञान में ऐसा बदलाव हुआ कि अब वह अपनी फिल्म ‘‘सम्राट पृथ्वीराज’’ को बाक्स आफिस पर सफलता दिलाने के लिए एक तरफ काशी में गंगा आरती से लेकर गुजरात के सोमनाथ मंदिर में माथा टेक रहे है. तो वहीं वह अब गलत बयानी कर इतिहास के पाठ्यक्रम पर भी उंगली उठा रहे हैं. वास्तव में ‘बेलबॉटम’ और ‘बच्चन पांडे’ के बाक्स आफिस पर बुरी तरह से असफल होने के बाद अब अक्षय कुमार अपनी फिल्म ‘‘सम्राट पृथ्वीराज’ को सफल बनाने के लिए ‘हिंदु सेटीमेंट’ का सहारा ले रहे है. इतना ही नहीं अब वह भी हिंदू मुस्लिम करने लगे हैं.

जी हां! शुक्रवार, तीन जून को अक्षय कुमार के अभिनय से सजी और डा. चंद्र प्रकाश द्विवेदी निर्देशित व ‘यशराज फिल्मस’ निर्मित ऐतिहासिक फिल्म ‘‘सम्राट पृथ्वीराज ’ प्रदर्शित होने जा रही है. अक्षय कुमार,मानुशी छिल्लर और डां. चंद्रप्रकाश द्विवेदी अपनी इस फिल्म के प्रचार के लिए कई शहरों की यात्रा कर चुके हैं.वह वाराणसी में गंगा स्नान व गंगा आरती करते है तो वहीं सोमनाथ मंदिर जाकर भी आशिर्वाद ग्रहण करते हैं.

यूं तो अक्षय कुमार ने दावा किया है कि वह धर्म नहीं बल्कि कल्चर के लिए काशी व सोमनाथ गए. मगर जिस तरह की तस्वीरें सामने आयी हैं, उन तस्वीरो में डा.चंद्रकाश द्विवेदी और मानुशी छिल्लर के साथ अक्षय कुमार भी पूरी तरह से धर्म में सराबोर ही नजर आ रहे हैं.

यह वही अक्षय कुमार हैं,जिन्होने 28 सितंबर 2012 को प्रदर्शित अपनी फिल्म ‘‘ओह माय गॉड’’ के प्रमोशन के दौरान अक्षय कुमार ने भगवान शिव को दूध चढ़ाने से लेकर कई बातों का जमकर विरोध किया था. उन्होंने अपने बयानों में इन सभी कृत्यों की घोर आलोचना की थी. इस फिल्म में धर्म के नाम पर हो रहे आडंबर का पर्दाफाश किया गया था.पर दौर बदल चुका है. 2014 के बाद अचानक अक्षय कुमार कुछ ज्यादा ही आस्तिक हो गए हैं. अब वह ‘भाजपा’’के ज्यादा नजदीक हो गए हैं.इसलिए अब वह धर्म व हिंदू की भी अलग अंदाज में व्याखाएं करने लगे हैं.

इतिहास को लेकर अक्षय कुमार कर रहे हैं गलत बयानबाजी

इतना ही नहीं अब अक्षय कुमार कुछ ज्यादा ही ज्ञानी हो गए हैं.एक जून 2022 को अक्षय कुमार व डा. चंद्र प्रकाश द्विवेदी ने कई न्यूज चैनलों को इंटरव्यू दिए.एक चैनल को दिए इंटरव्यू में अक्षय कुमार ने कहा-‘‘बदनसीबी से हमारी इतिहास की किताबों में पृथ्वीराज चैहान के बारे में सिर्फ दो या तीन पंक्तियां हैं. हमारे देश पर जिन लोगों ने हमला किया, उन पर तो बहुत कुछ लिखा गया है.मगर हमारी संस्कृति,हमारे महाराजाओं के बारे में कुछ भी नही लिखा गया है.जबकि मुगल आक्रांताओं के बारे में काफी कुछ है. मैं हाथ जोड़कर सरकार से गुजारिष करता हॅूं कि पृथ्वीराज चैहान के बारे में हमारे बच्चों की इतिहास की किताबों में जानकारी डलवाइए.’’

अक्षय कुमार के इस इंटरव्यू के वायरल होते ही वह सोशल मीडिया पर ट्रोल हाने लगे हैं.लोग सवाल कर रहे हैं कि अगर इतिहास की किताबों में पृथ्वीराज चौहान के बारे में जानकारी ही नहीं है तो फिर उन्हें व फिल्म के निर्देशक डा. चंद्र प्रकाश को पृथ्वीराज चैहान के बारे में जानकारी कहां से मिली?

सोशल मीडिया पर एक शख्स अंबर ने लिखा है- ‘‘विदेशी आक्रांता तो आप भी हैं अक्षय पाजी, वह भी विदेशी थे और भारत से धन लूट के ले जाते थे और आप भी भारत से धन लूट कर ‘कनाडा’ ले जाते हैं.’’

वास्तव में अपनी फिल्म ‘‘सम्राट पृथ्वीराज’’ के लिए दर्शक जुटाने की नीयत से अक्षय कुमार ने सारी हदें पार कर दी.हमने तो बचपन में अमर चित्रकथा की मिक्स बुक्स काफी पढ़ी हैं. जिनमें पृथ्वीराज चैहान, शिवाजी सहित लगभग हर हिंदू राजा व मुस्लिम शासक पर कॉमिक्स उपलब्ध है.इतना ही नही एनसीईआरटी की सातवीं कक्षा की किताब में पृथ्वीराज चैहान पर दो तीन पंक्तियां ही नहीं बल्कि पूरा एक अध्याय है. यह चैप्टर नंबर 18 है.

एनसीईआरटी की किताबों में मुगल शासकों का जिक्र तो है, पर मुश्किल से दो तीन चैप्टर ही हैं. एनसीईआरटी की छठी कक्षा की इतिहास की किताब में ग्यारह अध्याय हैं.कक्षा सात में दस अध्याय है,कक्षा आठ में 12 अध्याय हैं.यानी कि कुल तेंतिस अध्याय हैं. इनमें से सिर्फ दो अध्याय मुगल शासकों के बारे में है. यह अध्याय हैं सातवीं कक्षा में अध्याय तीन व चार. इसके बावजूद अक्षय कुमार खोखला दावा करते हैं कि हमारे देश के बच्चों को पृथ्वीराज चैहान नहीं सिर्फ मुगल शासक पढ़ाए जाते हैं. महज अपनी फिल्म बेचने के लिए इस कदर झूठ बोलना कहां तक उचित है??

वास्तव में अक्षय कुमार 2014 के बाद से सिर्फ वही बातें करते है,जिससे ‘भाजपा’ को किसी भी तरह का फायदा पहुंच सके.2014 के पहले अक्षय कुमार ने देशभक्ति वाली फिल्मों में अभिनय नहीं किया, मगर 2014 के बाद ‘बेबी’,‘एअरलिफ्ट’, ‘रूस्तम’, ‘केसरी’,‘मिषन मंगल’जैसी फिल्में कर चुके हैं.

अब ‘सम्राट पृथ्वीराज’ तीन जून को आ रही है.इसके अलावा वह फिल्म ‘राम सेतु’भी कर रहे हैं. अक्षय कुमार और डां. चंद्रप्रकाश द्विवेदी के झूठे दावे अक्षय कुमार और फिल्म लेखक व निर्देषक डां. चंद्र्रप्रकाश द्विवेदी दावा कर रहे हैं कि वह पहली बार देष के अंतिम हिंदू राजा पृथ्वीराज चैहान पर कोई फिल्म या सीरियल नहीं बना. जो कि सबसे बड़ा झूठ हैं.

पृथ्वीराज चैहान पर सबसे पहले 1924 में ‘पृथ्वीराज चौहान’ नामक फिल्म बनी थी.इसके बाद 1962 में पृथ्वीराज चैहान की प्रेम कहानी पर तमिल फिल्मॉ ‘रानी संयुक्ता’ बनी थी,जिसमें एम जी रामचंद्रन ने पृथ्वीराज का पद्मिनी ने संयोगिता का किरदार निभाया है.1959 में फिल्म ‘‘सम्राट पृथ्वीराज चैहान’ बनी थी.इसका निर्देषन हरसुख भट्ट ने किया था.तथा इसमें जयराज, अनीता गुहा ने अभिनय किया था.

इतना ही नही 2006 में एक सीरियल ‘‘धरती का वीर योद्धा पृथ्वीराज चौहान’’ बना था, जो कि 12 मई 2006 से 15 मार्च 2009 तक ‘‘स्टार प्लस’’ पर प्रसारित हुआ था. कुल 790 एपीसोड बने थे. इसका निर्माण ‘‘सागर आर्ट्स’’ के बैनर तले रामानंद सागर के पुत्र मोती सागर ने किया था.

इसके अलावा ‘ज्ञान मंथन’, ‘एबीपी न्यूज’ आदि पर 2016 व 2017 में पृथ्वीराज चैहान पर काफी कुछ प्रसारित किया गया. क्या फिल्म ‘सम्राट पृथ्वीराज’ बनाने से पहले डां. चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने ठीक से शोधकार्य नहीं किया. यदि उन्होंने शोधकार्य किया होता, तो उन्हें पता होता कि अतीत में पृथ्वीराज चैहान पर कितना काम हुआ है और वह गलत बयानी न करते. पर शायद अक्षय कुमार और डा.चंद्र प्रकाश द्विवेदी इस कहावत में यकीन करते हैं कि- ‘‘प्यार, युद्ध और व्यापार में सब कुछ जायज है. ’वैसे भी अब इन लोगों के लिए सिनेमा, कला नहीं महज व्यापार बनकर रह गया है.

अक्षय कुमार व डा. चंद्रप्रकाश द्विवेदी अपनी फिल्म ‘‘सम्राट पृथ्वीराज’ को देश के गृहमंत्री अमित शाह को दिखाकर उनसे प्रशंसा करवा चुके हैं. दो जून को वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ व उनके मंत्रियों को भी दिखा रहे हैं. तो क्या अब इनकी प्रशंसा से फिल्म के दर्शकों की संख्या में बढ़ोत्तरी होगी.

मोहन भागवत का आशीर्वाद और “सम्राट पृथ्वीराज”

सत्ता में आने के बाद अपने ढंग से इतिहास लिखाने का काम भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं संघ बड़ी तेजी से कर रहे है सच एक बार फिर खिलाड़ी कुमार अक्षय कुमार की नई फिल्म सम्राट पृथ्वीराज के प्रदर्शन होने के बाद राष्ट्रीय स्वयं संघ के प्रमुख मोहन भागवत और उनकी सेना के प्रदर्शन से सामने आ गया है.

ऐसा लगता है मानो कहीं सत्ता हाथ से निकल गई तो क्या होगा.

कश्मीर फाइल्स के बाद सम्राट पृथ्वीराज  फिल्म पूरी तरह भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं संघ के आशीर्वाद से इन दिनों देश भर में सुर्खियां बटोर कर सुपरहिट करवाए जाने की कवायद में है.

मगर किसी भी फिल्म में सबसे पहली चीज होती है नायक का अपने दर्शकों के ऊपर यह प्रभाव की नायक तो वही है. जैसे दर्शकों को मुगले आजम में दिलीप कुमार का सलीम लगना पृथ्वीराज कपूर का बादशाह अकबर  महसूस होना. यहां अक्षय कुमार किसी भी दृष्टि से देश की आवाम के मन मस्तिष्क में बैठे पृथ्वीराज चौहान से कोसों दूर हैं. यह इस फिल्म की सबसे बड़ी खामी है.

दरअसल,चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण, ता उपर सुल्तान है,मत चूको चौहान।

इतिहास के विद्यार्थी के लिए पृथ्वी राज चौहान की क्लाइमेक्स स्टोरी में कवि चंद बरदाइ  की यह पंक्तियां क्या कभी भुलाई जा सकती हैं.

फिर फिल्म में सम्राट पृथ्वीराज चौहान मोहम्मद गौरी की कैद में होते हैं और वहां चंद बरदई बने सोनू सूद  ये लाइनें बोलते हैं. सम्राट का शौर्य देखकर उपस्थित  आवाम भी कह उठती हैं.दिल्ली के बादशाह को सलाम!!. दिल्ली के बादशाह की वीरता को सलाम!!

वस्तुतः सम्राट पृथ्वीराज चौहान एक ऐसा ऐतिहासिक पात्र है जिनकी वीरता के किस्से कहानियां बचपन में ही रौंगटे खड़े कर देते थे. और इस फिल्म में सम्राट की कहानी को शानदार तरीके सेल्यूलाइट पर उतारने की अपेक्षा जल्दी बाजी में जो मेहनत की जानी चाहिए थी वह नहीं हो पाई.

अक्षय कुमार की अपील का सच

खिलाड़ी कुमार के नाम से देशभर में प्रसिद्ध अभिनेता सम्राट पृथ्वीराज अभिनय करने के बाद जब फिल्म रिलीज हुई है  तो इसीलिए अपना पक्ष रखा है.

अक्षय कुमार ने लोगों से अपील की है- कृपया, रंग में भंग न डालें.

यह भारत के सबसे बहादुर राजाओं में से एक सम्राट पृथ्वीराज चौहान की जिंदगी को जल्दीबाजी में प्रस्तुत करने वाली फिल्म बन गई है, अक्षय कुमार ने अपील करते हुए कहा है कि इस फिल्म को देखने वाले सभी लोगों से हमारा नम्र निवेदन है कि दर्शकों के रंग में भंग डालने का प्रयास नहीं करें, क्योंकि हमारी फिल्म में कुछ पहलुओं को इस तरह प्रस्तुत किया गया है जिसे देखकर दर्शक हैरत में पड़ जाएंगे. हमें उम्मीद है कि कल हम इस फिल्म के जरिए सिर्फ बड़े पर्दे पर आपका भरपूर मनोरंजन करेंगे.

मगर सच यह है कि इस फिल्म को देख कर के आम आदमी जब थिएटर से बाहर आता है तो उसे कुछ कमियां महसूस होती है जिसमें सबसे बड़ी चीज है फिल्मों में गीत संगीत का कमजोर होना. कोई भी गीत ऐसा नहीं जो लोगों के जुबां पर अपनी जगह बना सके।

डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी जो इस फिल्म के निर्देशक हैं ने कई महत्वपूर्ण सीरियल फिल्म की हैं उनकी योग्यता का सभी लोहा मानते हैं मगर जिस तरह सम्राट पृथ्वीराज फिल्म में उन्होंने हिंदूवादी मानसिकता को तरजीह दे कर के फिल्म निर्माण के पश्चात राष्ट्रीय स्वयं संघ और भारतीय जनता पार्टी के समक्ष शरणागत हुए हैं उससे यह सच सामने आ गया है कि फिल्म बहुत कमजोर है. वरना एक सशक्त फिल्म को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के टैक्स फ्री की कृपा की दरकार नहीं होती. राष्ट्रीय स्वयं संघ प्रमुख मोहन भागवत से किसी सर्टिफिकेट की दरकार नहीं होती .

अनुज-अनुपमा के खिलाफ बरखा रचेगी साजिश, आएगा ये ट्विस्ट

टीवी शो ‘अनुपमा’ में  इन दिनों हाईवोल्टेज ड्रामा चल रहा है. जिससे दर्शकों को एंटेरटेनमेंट का डबल डोज मिल रहा है. शो में अब तक आपने देखा कि अनुज के भाई भाभी की एंट्री हुई है. अनुज-अनुपमा उनदोनों से मिलकर बेहद खुश है. लेकिन अनुज की भाभी यानी बरखा को अनुपमा से जलन हो रही है. तो दूसरी तरफ पाखी की जिंदगी में एक लड़के की एंट्री हुई है. शो के आने वाले एपिसोड में कई ट्विस्ट एंड टर्न देखने को मिल रहा है. आइए बताते है शो के नए एपिसोड के बारे में.

शो में आप देखेंगे कि बरखा खाना बनाती है जो अनुपमा को खाने में  काफी अलग लगेगा. इतने में जीके काका आ जाएंगे और बरखा उन्हें देखकर अजीबोगरीब मुंह बनाने लगेगी. तो वहीं जीके खाना खाने से मना कर देंगे और वहां से चले जाएंगे.

 

बरखा घर के बारे में पूछेगी तो अनुज कहेगा कि उसका नया घर बन रहा है, जिस पर बरखा कहेगी कि नए घर का इंटीरियर वो करेगी नए स्टाइल से. इस पर अनुज कहेगा कि इसकी इजाजत वो अनुपमा से ले. अनुज की ये बात सुनकर बरखा को झटका लगेगा.

 

शो में ये भी दिखाया जाएगा कि पाखी जिस लड़के को पसंद करेगी, उस लड़के का तोषू कॉलर पकड़कर धमकी देगा. पाखी उस लड़के का पक्ष लेगी और फिर तोषू उस लड़के से माफी मांगेगा.

 

अनुज की भाभी बरखा कहेगी कि उसने और अंकुश ने अपना घर ढूंढ़ना शुरू कर दिया है. जिस पर अनुज-अनुपमा उन्हें साथ में रहने के लिए फोर्स करेगी. बरखा कहेगी कि साथ में रहने से लड़ाइयां होंगी इस पर अनुपमा और अनुज उन्हें परिवार की अहमियत समझाएंगे.

शो में आप ये भी देखेंगे कि बरखा अपने पति को बिजनेस में हक मांगने के लिए उकसाएगी. बरखा अनुज-अनुपमा के खिलाफ साजिश रचेगी जिससे अनुज की प्रॉपर्टी का  हिस्सा उसके पति को भी मिले.

कानून: किराएदारों पर पुलिसिया कोड़ा

आम लोग सुकून की जिंदगी जिएं, इस के लिए तो सरकारें कुछ करती नहीं लेकिन सुकून छीनने के लिए वे बेकार के नियमकायदेकानून जरूर बनाती हैं. ऐसे में कोफ्त होना स्वाभाविक है. किराएदारों के लिए पुलिस वैरिफिकेशन कैसीकैसी परेशानियां खड़ी कर रहा है,

पढि़ए इस रिपोर्ट में.

सामाजिक बदलाव का जो दौर 15-20 वर्षों पहले शुरू हुआ था वह थमने का नाम नहीं ले रहा बल्कि कोरोनाकाल के थोड़े से ठहराव के बाद इस में और तेजी आई है. लोग गांवकसबे व छोटे शहर छोड़ कर महानगरों की तरफ भाग रहे हैं. पढ़ाई, रोजगार और बेहतर जिंदगी की तलाश ने गांवदेहात की आबादी को 20 फीसदी कम कर 60 फीसदी पर ला दिया है. शहर एक बड़ी आबादी का बो?ा उठा पा रहे हैं तो इस की एक बड़ी वजह वहां तेजी से बनते और बढ़ते मकान हैं. कोरोना के बाद रियल एस्टेट कारोबार फिर गुलजार हो उठा है. किसी भी शहर को देख लें, वहां चारों दिशाओं में ढेरों मकान बनते दिख जाएंगे.

आमतौर पर एक परिवार के लिए एक मकान पर्याप्त होता है लेकिन एक लाख रुपए महीने से ज्यादा आमदनी वाले अधिकतर लोगों के पास एक से ज्यादा मकान हैं. पूरे देश की तरह भोपाल जैसे बी कैटेगरी के शहर में सब से ज्यादा निवेश मकानों पर हो रहा है क्योंकि यह अपेक्षाकृत सुरक्षित व मुनाफा देने वाला है. यह मुनाफा बढ़ते दामों के अलावा किराए की शक्ल में होता है.

शहर आने वालों के लिए किराए का मकान बड़ा सहारा होता है जो आसानी से या थोड़ी भागादौड़ी के बाद मिल भी जाता है. सिर छिपाने को छत मिलने के बाद लोग इत्मीनान व बेफिक्री से अपने मकसद को पूरा करने में लग जाते हैं. सबकुछ ठीकठाक चलता रहे तो लोग सालोंसाल किराए के एक ही मकान में गुजार देते हैं और मकान मालिक से खटपट हो तो अपना बोरियाबिस्तर समेट कर दूसरा मकान ढूंढ़ लेते हैं. अब कहीं भी मकानों का टोटा नहीं है. बहुत पहले मकान सिर्फ जानपहचान वालों को ही दिया जाता था, अब अनजान लोगों से भी मकानमालिकों को परहेज नहीं होता.

कम हैरत की बात नहीं कि अब

पहले के मुकाबले किराएदार और मकानमालिक के बीच मुकदमों की तादाद बहुत कम हुई है. किसी एजेंसी के पास इस के ठीकठाक आंकड़े तो उपलब्ध नहीं हैं लेकिन वकीलों की मानें तो इस तरह के मुकदमे कम हुए हैं क्योंकि लोग अदालतबाजी में अपना वक्त और पैसा जाया करना ठीक नहीं सम?ाते.

भोपाल के एक वरिष्ठ अधिवक्ता राजेश सक्सेना की मानें तो अब से

20 साल पहले 100 में से 7 मुकदमे किराएदार और मकानमालिक के विवाद के हुआ करते थे जिन की तादाद अब एकडेढ़ तक कही जा सकती है.

ऐसा क्यों? इस का जबाब देते हुए जबलपुर हाईकोर्ट के अधिवक्ता सौरभ भूषण बताते हैं कि बढ़ते शहरीकरण के चलते अधिकतर किराएदार छात्र और नौकरीपेशा लोग हैं. छात्र अपनी पढ़ाई के तयशुदा वक्त के बाद मकान खाली कर जाते हैं और नौकरीपेशा अपना मकान बनाने के जुगाड़ में लग जाते हैं. अलावा इस के, अब लगभग हरेक किराएदारी में लिखित अनुबंध करने की जागरूकता आई है जिस से विवाद कम होने लगे हैं.

यानी अब किराएदारों में मकान हड़पने की मंशा पहले सी नहीं रही और मकानमालिक भी बेवजह किराएदारों को नहीं हड़काते और न ही उन की जिंदगी व घर में गैरजरूरी दखल देते. किराया वक्त पर मिल जाए, उन के लिए यही काफी होता है. अब परेशानियां खड़ी करने का जिम्मा सरकार ने संभाल लिया है जिस से मकानमालिक और किराएदार दोनों हलकान हैं, खासतौर से किराएदार, क्योंकि नएनए नियमकायदेकानूनों की आड़ में सरकार उन के बारे में सबकुछ जान लेना चाहती है.

वैरिफिकेशन की गाज

आमतौर पर किराएदारी के अनुबंध की शर्तें देशभर में एकसमान हैं कि यह अनुबंध 11 महीने का होगा और इस में प्रतिमाह जो किराया तय होगा वह हर साल इतने फीसदी की दर से बढ़ता रहेगा और दोनों पक्षों में से कोई एक 1 या

2 महीने का नोटिस दे कर मकान

खाली कर सकेगा. महीनेदोमहीने का सिक्योरिटी डिपौजिट या पगड़ी भी हर जगह अनिवार्य सी है. बाकी शर्तें यही रहती हैं कि किराएदार मकान का दुरुपयोग यानी तोड़फोड़ वगैरह नहीं करेगा और बिजली व पानी का खर्चा उठाएगा. सोसाइटी अगर है तो उस का मैंटेनैंस कौन देगा, यह भी अनुबंध में लिखा रहता है. यह एग्रीमैंट 100 रुपए के स्टांपपेपर पर नोटरी के यहां हो जाता है.

इस करार से किसी को दिक्कत नहीं होती क्योंकि यह मकानमालिक और किराएदार दोनों की मुश्कें कसता हुआ होता है. हालांकि ऐसा जरूर कभीकभार देखने में आता है कि किराएदार आखिरी महीने का किराया दिए बिना खिसक लेता है. इस की एक बड़ी वजह यह है कि ज्यादातर मकानमालिक किराए पर दिए मकान से दूर रहते हैं. एकाधदो महीने का किराया न मिले, इस से उन्हें खास नुकसान नहीं होता क्योंकि मकान निवेश और आमदनी के लिए बनाया हुआ होता है.

नया फसाद किराएदार के पुलिस वैरिफिकेशन को ले कर खड़ा होने लगा है जो हालांकि कानूनन अनिवार्य नहीं है और आदर्श किराएदारी अधिनयम 2021 में भी जिस का उल्लेख नहीं है लेकिन आईपीसी की धारा 188 के मुताबिक अगर किराएदार के वैरिफिकेशन न कराए जाने पर किसी को परेशानी होती है या फिर चोट लगती है तो एक महीने की सजा या 2 महीने की सजा हो सकती है.

जाहिर है, इस का किराएदार और मकानमालिक के संबंध और विवादों से कोई ताल्लुक नहीं है. इस के बाद भी किराएदार के किए की सजा मकानमालिक को देने का प्रावधान है. यानी कानून यह मानता है कि मकानमालिक को किराएदार की मंशा मालूम थी और अगर वह वैरिफिकेशन करा लेता तो अपराध घटित न होता. यह निहायत ही बचकानी व मूर्खतापूर्ण बात है क्योंकि आदमी तो क्या, कोई भी यह नहीं बता सकता कि कौन कब कहां अपराध करने वाला है.

वैरिफिकेशन का नेक काम कहने को ही पुलिस विभाग के जिम्मे है, नहीं तो हरेक मकानमालिक की यह जिम्मेदारी है कि वह अपने किराएदार की जानकारी अपने इलाके के थाने में जमा करे. इस के लिए बाकायदा एक प्रोफार्मा भी पुलिस विभाग ने बना रखा है. अलगअलग राज्यों में इस का मसौदा अलगअलग है.

कुछ दिनों पहले भोपाल के ऐशबाग इलाके में कुछ आतंकी पकड़े गए थे, जिस के बाद एक बार फिर भोपाल पुलिस ने किराएदारों के वैरिफिकेशन का फरमान जारी कर दिया था. इस

से मकानमालिकों में हड़कंप मचना स्वाभाविक था. लेकिन फसाद उस वक्त उठ खड़ा हुआ जब कई थानों में मकानमालिक से एग्रीमैंट मांगा गया. मकानमालिकों के एतराज के बाद पुलिस कमिश्नर, भोपाल, मकरंद देउस्कर ने ये निर्देश दिए कि एग्रीमैंट पेश करना जरूरी नहीं, मकानमालिक सामान्य प्रारूप में भी जानकारी जमा करा सकते हैं.

यह प्रारूप एकदम असामान्य है जो गए थे नमाज माफ कराने, रोजे गले पड़ गए की कहावत को चरितार्थ करता हुआ है जिस में किराएदार की ये जानकारियां मकानमालिक से चाही गई हैं.

किराएदार का नाम, उम्र, उस के पिता का नाम.

किराएदार का फोटो.

परिवार के सभी सदस्यों के नाम, उम्र एवं उन के स्थायी फोन नंबर.

किराएदार का व्यवसाय या उस के कार्यालय का पूरा पता.

किराएदार के वाहन का प्रकार व नंबर.

यदि किराएदार के पास कोई लाइसैंसी हथियार है तो उस का विवरण.

किराए के भवन की पूरी जानकारी.

किराएदार के गारंटर का पूरा नाम, पता आदि.

प्राइवेसी पर हमला

अव्वल तो पुलिस की यह दलील ही बेदम है कि वैरिफिकेशन के पीछे उस का मकसद यह जानना है कि कहीं अपराधी किस्म के लोग तो नहीं रह रहे. यानी वह उम्मीद करती है कि अपराधी शराफत से मकानमालिक के जरिए उसे बता देंगे कि वे इन दिनों कहां रह रहे हैं और मकानमालिक भी उन्हें मकान दे देगा और इस से अपराधों पर लगाम लग जाएगी.

भोपाल पुलिस के प्रोफार्मा में बस किराएदारों के अंडरगारमैंट्स का नंबर पूछना ही बाकी रह गया है वरना तो जानकारी के लिए एक आधारकार्ड ही काफी होता है. सवाल यह भी है कि कोई अपने बारे में जानकारी क्यों दे. यह बाध्यता किसी की भी निजता पर हमला है. अब अगर किराएदार अपने लाइसैंसी हथियार की जानकारी मकानमालिक को नहीं देता है तो इस में मकानमालिक का क्या दोष.

यही बात सभी जानकारियों पर लागू होती है. पुलिस क्यों इतनी जानकारियां इकट्ठा करना चाहती है, इस पर सीहोर कांग्रेस के एक पदाधिकारी बलबीर सिंह तोमर कहते हैं, ‘‘दरअसल, भाजपा और उस की सरकारें लोगों की जानकारियां हासिल कर उन्हें डराना चाहती है, जबकि हकीकत में वे खुद डरी हुई हैं. उन्हें लगता है कि लोगों को आजादी से जीने दिया गया तो वे उन के खिलाफ साजिश रचने लगेंगे और सोचनेसम?ाने भी लगेंगे. शुक्र तो इस बात का मनाइए कि सार्वजनिक शौचालयों में अभी आधारकार्ड मांगना अनिवार्य नहीं किया गया है. भाजपा लोगों को मानसिक रूप के साथसाथ हर लिहाज से गुलाम बनाना चाहती है, किराएदारों का वैरिफिकेशन उसी कड़ी का हिस्सा है.’’

उलट इस के, त्रिलंगा में रह रहे एक मकानमालिक राजेंद्र जैन (आग्रह पर बदला हुआ नाम) कहते हैं, ‘‘यह फुजूल का काम है कि हम किराएदारों की जिंदगी और घर में पुलिस की तथाकथित सहूलियत के लिए ताक?ांक करे. पुलिस को चाहिए तो वह खुद घरघर जा कर जानकारियां क्यों नहीं ले लेती, हम मकानमालिकों को क्यों भेदिया बना कर किराएदारों से हमारे संबंध बिगड़वा रही है. नए प्रोफार्मा ने तो सभी मकानमालिकों और किराएदारों को गुनाहगार ठहरा दिया है. जानकारी के लिए तो किराएदार का आधारकार्ड ही एक मुकम्मल कागज है. फिर बेवजह की कसरत हम से करवाए जाने की तुक क्या है.’’

राजेंद्र साफ कहते हैं कि वे जानकारी देने किसी पुलिस थाने नहीं जाएंगे, जहां जाने में डर लगता है कि कहीं पुलिस हमें ही किसी जुर्म में पकड़ कर अंदर न कर दे और जैसेतैसे हिम्मत जुटा कर चले भी गए तो वहां घंटों प्रोफार्मा के लिए जीहुजूरी व खुशामद करनी पड़ेगी. मुमकिन है उस के लिए भी घूस देनी पड़े. कुछ रुक कर तल्ख और मजाकिया लहजे में वे कहते हैं, ‘‘अपराधियों की सटीक जानकारी अगर किसी के पास रहती है तो वे पुलिस वाले ही हैं जो जेबकटी से ले कर सैक्स रैकेट तक खुद ठेके पर चलवाते हैं. हम शरीफ शहरियों का अपराध से कोई वास्ता नहीं होता. हम तो सुकून और इत्मीनान से जीने में यकीन करते हैं.’’

फायदे निल, नुकसान अपार

अभी तक जो मकानमालिक किराएदार को मकान देते वक्त सब से पहले यह देखते थे कि उस की आमदनी और हैसियत नियमित किराया चुकाने की है या नहीं, वे अब डर कर और भी चीजें देखेंगे व परखेंगे जिस से न तो उन्हें अच्छा किराएदार मिलेगा और न किराएदार को मनमाफिक मकानमालिक मिलने की गारंटी है, क्योंकि सरकार किराएदार की पूरी कुंडली चाह रही है, ठीक वैसे ही जैसे तीर्थस्थान के पंडे कुरेदकुरेद कर यजमान से लेते हैं. वे 7 पुश्तों से ले कर नई पीढि़यों तक का डाटा अपने रिकौर्ड में रखते हैं जिस का मकसद कारोबार चमकाना और उसे और बढ़ाना रहता है. यही काम पुलिस दूसरे मकसद से कर रही है जिस ने यह मान लिया है कि मुजरिम किराए के मकान में ही रहता है और मकानमालिक को यह मालूम रहता है पर वह पुलिस को बताता नहीं, हो न हो इस के बाबत वह ज्यादा किराया लेता होगा.

इस बेवजह के वैरिफिकेशन से नुकसान उन लोगों को है प्राइवेसी जिन की जरूरत है. लिवइन में रहने वाले कोई अपराध नहीं करते लेकिन उन्हें देखा अपराधियों की तरह ही जाता है. मकानमालिक अब सतर्क हो जाएंगे क्योंकि जानकारी उन्हें नहीं, बल्कि पुलिस को चाहिए है. इसी तरह सिंगल वूमन को भी लोग मकान देने में कतराएंगे क्योंकि वे अकेली हैं, यह भी अब गुनाह हो चला है कि आप अकेले क्यों रहती हैं और रहती हैं तो जरूर उलटासुलटा काम करती होंगी, जिस से छापा पड़ेगा और हम भी उस में नपेंगे. यह दिक्कत कुंआरे लोगों के खाते में भी जाएगी क्योंकि उन के यहां कई लोगों का आनाजाना लगा रहता है. अब इन में से कोई मुजरिम हुआ तो… यह सोचते ही मकानमालिक का इरादा बदल सकता है कि हम क्यों ?ां?ाट मोल लें.

सब से बड़ी गाज अपनी मरजी से शादी करने वालों पर गिरेगी क्योंकि बालिग होने के बाद भी  इस के लिए उन्हें घर से भागना ही पड़ता है. कोई इन्हें मकान देगा, यह सोचना बेमानी है क्योंकि कब लड़की या लड़के के घर वाले रिपोर्ट लिखा दें या दूसरा कोई फसाद खड़ा कर दें इस की कोई गारंटी नहीं. कोई मकानमालिक उन के इस गुनाह, जो उन्होंने किया ही नहीं, में शरीक नहीं होना चाहेगा क्योंकि पुलिस उस की गिरेहबान भी छोड़ेगी नहीं. छुटकारे के लिए उतनी दक्षिणा तो लग ही जाएगी जो सालभर के किराए से कम नहीं होगी.

इस से भी बड़ा पहाड़ मुसलमानों और छोटी जाति वालों पर टूटेगा. अव्वल तो इन्हें आसानी से वैसे भी मकान मिलते नहीं. अब वैरिफिकेशन के चलते इन्हें और मुश्किल पेश आएगी. जरूरतमंद मकानमालिक भी अब हिचकिचाएंगे. आजकल तो नया खौफ बुलडोजर का पैदा हो गया है. मध्य प्रदेश के खरगौन में हिंदूमुसलिम दंगा होने के बाद यह डर भी मकानमालिकों के दिलोदिमाग में बैठ गया है कि खुदा न खास्ता अगर उन का किराएदार दंगाई निकला तो मकान उन का जमींदोज किया जाएगा. यह गलत है या सही, इस का फैसला सालोंसाल बाद, बशर्ते कभी हो पाया, होगा. इस में तो अपना पक्ष रखने की गुंजाइश ही सरकार ने नहीं छोड़ी है और न ही नएनवेले इस कानून में यह स्पष्ट है कि अगर उपद्रवी किराए के मकान में रह रहा है तो मकानमालिक का क्या कुसूर क्योंकि बावजूद वैरिफिकेशन के भी उस के मकान को बख्शा नहीं जाएगा.

और भी हैं नुकसान

अभी तक ऐसे इनेगिने मामले भी सामने नहीं आए हैं जिन में पुलिस वैरिफिकेशन किसी अपराधी को पकड़ने का आधार बना हो. लौज और होटलों में ठहरने वालों से भी सिर्फ आधारकार्ड मांगा जाता है. ऐसे में गाज मकानमालिकों और किराएदारों पर ही क्यों? यह असल में नोटबंदी जैसे तुगलकी फैसलों का छोटा संस्करण है जिस से नुकसान और परेशानियां आम लोगों को उठानी पड़ती हैं. किसी थाना क्षेत्र में अगर अपराध होता है तो पुलिस सब से पहले मौका ए वारदात पर पहुंचती है और तफ्तीश करती है. वैरिफिकेशन का बंडल खोल कर मुजरिम की पहचान करने नहीं बैठ जाती.

अब हो यह रहा है कि थानों में वैरिफिकेशन के फौर्म पहाड़ की शक्ल लेते जा रहे हैं. यह तो तब है जब

80 फीसदी मकानमालिक वैरिफिकेशन जमा नहीं कर रहे क्योंकि राजेंद्र जैन की तरह उन्हें ज्ञान प्राप्त हो गया है कि यह एक बेकार की कवायद है. ऐसे में अगर पुलिस का दबाव बढ़ा तो थानों में जगह कम पड़ जाएगी और यह काम भी मुमकिन है ठेके पर या आउटसोर्सिंग से सरकार को करवाना पड़े जबकि इस का फायदा कोई नहीं. पुलिस महकमा अगर इस गैरजरूरी डाटा को कंप्यूटर में भरवाएगा तो भी यह काम किसी एजेंसी को ठेके पर उसे देना पड़ेगा. यानी एक अनावश्यक खर्च और बढ़ेगा.

जरूरत तो इस बात की है कि सरकार ऐसे फुजूल के कानूननियम बनाए ही नहीं जो आम लोगों को परेशान करने वाले होते हैं और इन से उसे भी कोई फायदा नहीं सिवा इस के कि बैठेबिठाए आम लोगों की जासूसी हो जाती है और लोग कानून के कोड़े से डरेसहमे रहते हैं.

भोपाल की ही एक प्रोफैसर की मानें तो उन के 2 मकान किराए पर चल रहे हैं जो उन्होंने निवेश के लिए खरीदे थे.

दोनों थानों के चक्कर उन्होंने काटे, वैरिफिकेशन का फौर्म भी जमा किया लेकिन इस की रसीद या पावती उन्हें थानों से नहीं दी गई. ?िक?िक करने पर जवाब मिला कि ऐसा कोई प्रावधान है ही नहीं यानी थाने से वैरिफिकेशन का प्रोफार्मा गुम हो जाए तो पुलिस वाले इस के जिम्मेदार नहीं होंगे. वे इस का ठीकरा मकानमालिक के सिर ही फोड़ेंगे. जब कटना खरबूजे को ही है तो इस कानून की तुक क्या?            —

इकलौती लड़की से शादी

लड़के के घर वाले ऐसी लड़की की खोज ज्यादा करते हैं जो इकलौती हो. वजह, पैसों के लोभ के साथसाथ प्रौपर्टी भी मिल जाती है, पर शादी हो जाने के बाद जो दिक्कत भुगतनी पड़ती है, यह भला पति या उस के घर वाले से ज्यादा कौन जानता है. इसलिए सोचसम?ा कर ही कदम उठाएं.

सीमा और रोहन में अकसर तनाव व टकराव रहता है. यह तनाव सीमा की मां को ले कर है. जब तक सीमा के पिता थे, वे सपत्नी दिल्ली के महारानी बाग में रहे थे. सीमा बीचबीच में आ कर उन्हें संभाल जाती थी. वही उन की इकलौती संतान है. पिता की कोविड में मृत्यु के बाद मां भी बीमार रहने लगी. सीमा के उन के घर के चक्कर ज्यादा लगने लगे. जब पति व उन के घर वालों को अखरा तो सीमा उन्हें अपने पास रहने को ले आई. फिर भी शांति नहीं है. आएदिन लड़ाई?ागड़े और तनाव होता है.

सीमा बहुत पहले ही पति को महारानी बाग में रहने का प्रस्ताव दे चुकी है, जिसे वे नकार चुके हैं. सीमा के दोनों बच्चे नानी की मनोयोग से देखभाल करते हैं. बहुत सेवा कर के उन्होंने नानी को बचा लिया.

सीमा घर के एक पोर्शन में मां के साथ रहती है. पति उखड़ेउखड़े से रहते हैं. यह वह स्थिति है, जिस में व्यावहारिक स्थिति जानने के बावजूद तनाव है.

सीमा का कहना है कि इन्हें (पति) पता है सबकुछ मेरे नाम है. हमें ही मिलेगा तो अब सेवा से क्या सरोकार. वहां रहूं तो दिक्कत और यहां रहूं तो दिक्कत. इन्हें जो करना हो करें, मैं परवा नहीं करती. मेरे बच्चे मेरे साथ हैं.

वहीं, सीमा के पति का कहना है, ‘‘मु?ा से तो यह उम्मीद करती है, पर जरा इस से भी पूछो कि यह मेरी मांबहनों को जरा सा भी पूछती है? मेरी मां को तो इस ने एक बार मारा भी. जब यह मेरी मां का सम्मान न करे तो मैं किसलिए सेवा करूं. मैं ने किसी का ठेका थोड़े ही ले लिया है. मु?ो कोई लोभ नहीं है. उस की मां जिस को चाहे अपना पैसा दे. मेरे घर वालों के साथ संबंध सुधारती तो मैं भी सोचता. यह तो कई सालों से मेरे साथ उठतीबैठती तक नहीं है. ताली दोनों हाथों से बजती है. मैं इस से शादी कर के पछता रहा हूं. इस ने मेरे बच्चे भी मेरे न रहने दिए. हमारी बहनों के घर आने पर शोर मचाती है. कानून मदद के लिए बने हैं, तानाशाही के लिए नहीं.’’

शादी से पूर्व सोचने की जरूरत

चौहान साहब और उन की पत्नी के बड़े बेटे की शादी एक इकलौती लड़की से पक्की हो गई है. बेटा वहीं रह लेगा. सगाई के बाद मेलजोल में यह बात जब लड़की को सासससुर की इस सोच का पता चला तो वह बिफर गई. लड़के वालों ने ये सब सोच कैसे लिया? आखिर हम से पूछ भी तो लिया होता.

लड़की ने ये बातें घर में कहीं तो उन के पिता ने लड़के के घर वालों से खुल कर बात की. उस में यह बात सामने आई कि सबकुछ तो लड़की का ही है. आगेपीछे फिर क्या दिक्कत है. दोनों पक्षों ने अपना मत स्पष्ट कर दिया.

लड़के वालों ने कहा कि यदि यह सुविधा न हो तो हम इकलौती नकचढ़ी लड़की से शादी क्यों करें अपने लड़के की.

लड़की के पिता ने कहा कि पहले लड़का अपनी योग्यता तो साबित करे.

लड़की ने ऐसे लालची लड़के से शादी करने से मना कर दिया. मजे की बात यह है कि अगले रिश्ते में लड़की ने घरजमाई बनने के इच्छुक होने के कारण मेरे मांबाप का दायित्व मेरा है, ऐसे में दोदो घरों की जिम्मेदारी कठिन है.

मेरे पति ने पहले ही कहा कि इस शहर में मैं अकेला हूं. मांबाप दूसरे शहर में रहते हैं. मु?ो भी मांबाप और घर मिल जाएगा और तुम भी 2 घरों की दौड़भाग से बच जाओगी. मु?ो इस के भीतर के भाव जान कर अच्छा लगा. हम मेरे पिता के घर में रहते हैं. साप्ताहिक अवकाश में इन के घर रहने चले जाते हैं. मेरे मांबाप मु?ा से ज्यादा मेरे पति को मानते हैं. वे अपने दामाद से पूछ कर ही हर काम करते हैं. बेटे जैसा सुख पा कर निहाल हैं. इतने एहसानमंद अनुभव करते हैं कि धन्य हैं वे मांबाप, जिन्होंने अपना बेटा हमें सौंप दिया.

मैं जब कहती हूं कि ये सब आप लोगों के पैसों की माया है तो भी वे कहते हैं, ‘बुरा नहीं है. कौन छाती पर बांध कर ले जाता है. जो बाद में देना है उस की क्या फिक्र करनी.’

पति कहता है, ‘मैं हर काम मन से करता हूं. मु?ो पता है कि इन्हें ही नहीं, मु?ो भी कितना बड़ा सहारा मिला है. मु?ो बाहर के लोग घरजमाई कह कर चिढ़ाते हैं, पर मैं नहीं चिढ़ता. मैं ने फर्ज और जिम्मेदारी सम?ा कर यह शादी की है.’

इस लड़की के सासससुर कहते हैं, ‘हमें महानगर में बेटे की फिक्र थी. शादी हो जाने के बाद वह कम हो गई. दोनों महीने में 2-3 बार आ कर मिल जाते हैं. पहले हमारा बेटा एक बार भी नहीं आ पाता था. सप्ताहभर के कामों की तैयारी करता था. हमारे 3 बेटे हैं. एक चला गया तो क्या हमारा नहीं रहा. ऐसी बात नहीं. दोनों पक्षों को सुविधा है. हम भी सुखी, वे भी सुखी. जिस को जो चाहिए, मिल रहा है. बहू हमारे साथ खुला हाथ रखती है. उसे हमारी जरूरत का पता है तो हमें उस की जरूरत का.

कई बार इकलौती लड़की से शादी लोभलालच से जो करते हैं, वे सोने की मुरगी का पेट फाड़ कर अंडे निकालने जैसी हरकत करते हैं. इकलौती लड़की से शादी करना बहुत बड़ी जिम्मेदारी भी है. सिर्फ मखमली एहसास ही नहीं. इकलौती लड़की के मांबाप को उस का ही सहारा होता है. लड़की का ?ाकाव और वरीयता भी उस ओर होना स्वाभाविक है. ऐसे में शादी के पूर्व सोचविचार आवश्यक है. अगर कोई गफलत है तो पूरी तरह खुल कर बात भी की जा सकती है.

महेंदु यादव ने बेटी की शादी की. बात चली तभी कह दिया कि उन्हें ऐसा लड़का चाहिए, जो उन की भी देखभाल करे. वे कहते हैं, ‘‘कुछ लड़के खुली मांग रख देते, कुछ दबे मुंह.’’

कुल मिला कर वे एक तरफ जाति का प्रहार सहते हैं तो दूसरी ओर इकलौती बेटी के सुख का जरूरत से ज्यादा ध्यान रख रहे हैं. उन की सोच अभी पक्की नहीं हैं. वे कहे पर ज्यादा निर्भर रहते हैं. उन के लिए अब तक समाज का दबाव काफी होता था, पर अब पैसा आने व ऊपर से इकलौती बेटी के मांबाप होने पर दोहरा दबाव बन रहा है.’’

उन के घरजमाई या इकलौते दामाद अगर ऊंची जातियों के हों और या तो प्यार के कारण या पैसे के कारण इकलौती बेटी से शादी कर इन मांबापों का बो?ा सहने को तैयार हों तो कई सवाल खड़े होते हैं, जिन के उत्तर कम से कम ग्रामीण पृष्ठभूमि की पहली पीढ़ी के पढ़ेलिखे अमीरों के पास अनुभव न होने के कारण नहीं होते. वे इस जिम्मेदारी की कीमत चाहते थे. ऐसे लड़कों को हम ने न कर दी.

कुछ लड़के ये आश्वासन चाहते थे कि अल्टीमेटली हम अपनी लड़की को ही देंगे या किसी भतीजेभांजे को गोद तो नहीं ले लेंगे.

एक लड़के ने यह जानना चाहा कि क्या कुछ, किस के नाम है. जिस से बेटी की शादी की, वह लड़का हमें अपने साथ रखने को तैयार था. हम उस की इस बात से खुश थे. ठीक है, हमारे साथ न रहे तो क्या. हम मुंबई में रहते हैं. हमारे समधीसमधन भी वहां आते हैं. हम साथसाथ रहते हैं. हम खुश हैं. दामाद के नानुकुर करने के बावजूद हम ने अपनी संपत्ति का कुछ हिस्सा बेच कर उन्हें बड़ा घर दिलवाया. ‘बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले न भीख’ वाली बात भी है इस रिश्ते में.

अब बड़ी संख्या में ऐसे लोगों की गिनती बढ़ रही है, जो हालफिलहाल ही एक पीढ़ी पहले गांवों से शहर आई और सफल हुई और शहरियों का रंगढंग अपनाया. उन के साथ नई समस्या पैदा हो रही है. दूध का छोटा व्यापार करने शहर आए एक परिवार के बेटे ने दूसरी पीढ़ी में रैस्तराओं की एक चेन खोल ली. उन की एक ही बेटी थी और काम बड़ा हो गया था.

उस व्यावसायिक दंपती ने मध्यम मार्ग अपनाया. बेटी और जमाई अपने घर खुश हैं. उन्होंने उस के बेटे को अपने पास रख लिया. बेटी कहती है, ‘मैं अकेली थी, इसलिए अकेलेपन का दर्द जानती थी. मु?ो भाईबहन का सुख न मिला, इसीलिए मैं ने बच्चे को अकेला न रहने दिया. बेटा मांबाप के पास रहता है. एक बेटाबेटी मेरे पास. हम एकदूसरे के जीवन में दखल नहीं करते. जिस में वे खुश उसी में हम खुश हैं. हां, हमारे रिश्तेदार जरूर हमारे बच्चों को भड़काते हैं कि यदि मां को प्रौपर्टी मिलती तो तुम सब बच्चों को मिलती. हमारे यहां इन बातों का कोई विचार नहीं करते. वे कहते हैं कि हमारे पापा का कमाया हुआ ही बहुत है. इकलौती लड़की अपने सासससुर को, अपनी ननदों को संपत्ति देने से रोकने का प्रयास भी कर रही है. कहती है कि वह अकेली है, इसलिए मजबूरी है मांबाप से प्रौपर्टी की. इस का मतलब यह नहीं कि जो लड़कियां इकलौती नहीं हैं, वे भी प्रौपर्टी लेने लगें. उस के सासससुर बहू के इस रवैए से दुखीपरेशान हैं. आएदिन इस से गृहकलह रहता है.

अलग होता है स्वभाव

कई इकलौती लड़कियों के पति या संबंधी कहते हैं कि इकलौती लड़कियां स्वभाव में साहचर्य भाव से अलग होती हैं. उन में अहम और आक्रामकता व मनमरजी बहुत ज्यादा होती है. कोई कहता है तो वे कुछ सुन तो सकतीं ही नहीं. एक, मातापिता कहते हैं कि हमारी बहू को हर चीज अपनी चाहिए, पति तक. उसे पति का सहज संपर्क भी किसी के साथ नहीं सुहाता. इकलौती लड़की के मांबाप कहते हैं कि उन्हें फिक्र है कि उन की बेटी की कहीं निभेगी कैसे? यह पलपल में उन के साथ ही हाथापाई करने लगती है. चीजें फेंक देती है, तोड़ देती है, कोई ढंग का सु?ाव भी इसे दखलंदाजी लगती है. सलाह में हस्तक्षेप महसूस करती है. इस ने जीना हराम कर रखा है. ससुराल वालों के साथ पता नहीं क्या करेगी. वे तो इस की शादी की बात चलाते हुए भी डरते हैं.

एक और मातापिता कहते हैं, यदि यह लड़का लालची न होता तो हमारी बेटी को और कोई मिलता भी नहीं. हम इस के लालच का सम्मान करते हैं. यह हमारा ध्यान रखता है. हमारी जिद्दी, अडि़यल लड़की के नखरे और कोई उठा भी नहीं सकता था. हम चीजों से प्यार जताते हैं. वह हमें सेवा से खुश रखता है. हमारी गाड़ी बढि़या चल रही है. हम 25 हजार रुपए की पैंशन राशि घरखर्च के लिए दे देते हैं. घर हमारे मरने के बाद इन्हें मिलेगा. पत्नी का 50 तोला सोना हम इन के बच्चों में 10-10 तोला बांट कर शेष अपने बहनोंभाइयों को देंगे. मरने के बाद क्या होगा, पता नहीं. पर इकलौती बेटी के मातापिता तनाव में भी हर समय रहते हैं.

बहुत सी इकलौती लड़कियों के मन में यह बात रहती है कि लड़का पैसे से प्यार करता है. इसलिए दांपत्य प्रेम में कहीं खटक या कसक भी रहती है. कई लड़के शादी कर तो लेते हैं, पर व्यावहारिक स्थिति का मुकाबला नहीं कर पाते. घुटन, आक्रोश आदि से भरी जिंदगी खींचते हैं. कभीकभी कुछ लोगों को यह भ्रम भी हो जाता है कि पैसे से प्यार है, जबकि ऐसा होता नहीं है.

कुमार आशु को उन की पत्नी अकसर ताना मारती है, जबकि वे कहते हैं, ‘‘उन्होंने सिर्फ तूलिका से प्यार होने के कारण शादी की है. वे उसे सब सुख मुहैया करा रहे हैं. फिर भी वह हावी रहती है. मैं इस के घर का एक तिनका तक न लूंगा. वे चाहे अपना सबकुछ दान कर दें, पर मेरे चेहरे पर शिकन तक नहीं आएगी.

मैं ने सोचा कि प्यार करने वाली लड़की प्यार को बेहतर जानती होगी, पर उसे सच्चे प्यार की सम?ा तक नहीं है.

नवनीत पंवार की सास उस के घर में रहती हैं. उस के घर वालों के साथ ही. नवनीत का पूरा घर उन की देखभाल करता है कि कमरा भी उस की सास का है. नवनीत व उस के पिता कहते हैं, ‘भाई माल खाने के लिए इतना तो सहना ही पड़ेगा. न करें तो इस की सास के पीहर वाले हड़पने को तैयार बैठे हैं. वे तो इस के पति के मरते ही पीहर ले जाने को तैयार थे. यों कौन रखता है वे अपने बच्चों के नाम प्रौपर्टी करवा लेते. हम दिल जीत कर हाथाजोड़ी कर के ले आए. ये दकियानूस थी. रीतिरिवाजों से बंधी थी. आने को तैयार न थी. बेटी के घर का पानी तक नहीं पीती थी. अब वहां रहूंखाऊं कैसे. बड़ी मुश्किल से मनाया. यहां तक कि इन के रिश्तेदारों ने पहले ही पति का श्राद्ध और अन्य दायित्वों से मना कर दिया. महंगी और क्रीम प्रौपर्टी इन्होंने बेच दी. हम अब यह न करते तो जो है वह भी चला जाता.

अब दोनों पार्टी खुश हैं

आजकल संतान कम होती है. अब तो एक संतान पर ज्यादा जोर है. इकलौती लड़की की शादी इकलौते लड़के से होने से जिम्मेदारियों व चुनौतियों में और भी इजाफा होता है. परंपरागत सोच में बदलाव ला कर इन्हें जीता जा सकता है. सदैव लोभलालच से ही ऐसी शादियां नहीं होतीं, पर उन का रोल भी रहता है. यदि लोभ पूरा दिया या अपनी प्रौपर्टी बेटी को दे दी, इस का मतलब यह नहीं कि जमाई को गुलाम सम?ा लें. बेटी की ससुराल वालों से उसे दूर ही कर दें. उसे रोज सिखाते रहें या निजी जीवन में दखल का अधिकार पा लें.

यदि दोनों परिवारों में इकलौते बच्चे हैं तो उन के मातापिता अपनी सेवा का कोई तीसरा विकल्प चुनना चाहें तो उस का खुलेमन से स्वागत करना चाहिए. अरमान से हुई इकलौती संतान उसे बो?ा या कलियुग की कपूती औलाद ही न लगने लगे.

जब भी इकलौती लड़की की शादी करनी हो या इकलौते लड़के की शादी करनी है, खुल कर बात कर लेना बेहतर है.

बड़ी लकीर छोटी लकीर- भाग 2: सुमित को अपनी पत्नी से क्यों समस्या होने लगी?

दिन बीतते गए और हफ्तों और महीनों में परिवर्तित होते गए. दोस्तो आप सोच रहे होंगे, गलती मेरी ही है, क्योंकि मैं इस तुलनात्मक खेल को खेल कर अपने और अपने परिवार को दुख दे रहा था. आप शायद सही बोल रहे होंगे पर तब कुछ समझ नहीं आ रहा था.

शिखा बहुत अच्छी पत्नी थी, कभी कुछ नहीं मांगती. मेरे परिवार के साथ घुलमिल कर रहती, पर उस का कोई भी शिकायत न करना मुझे अंदर ही अंदर तोड़ देता. ऐसा लगता मैं इस काबिल भी हूं…

आज मैं जब दफ्तर से आया तो शिखा बहुत खुश लग रही थी. आते ही उस ने मेरे हाथ में एक बच्चे की तसवीर पकड़ा दी. समझ आ गया, हम 2 से 3 होने वाले हैं. अनिल का फोन आया मेरे पास बधाई देने के लिए पर फोन रखते हुए मेरा मन कसैला हो उठा था. वह तमाम चीजें बता रहा था जो मेरी औकात के परे थीं. वह वास्तव में इतना भोला था या फिर हर बार मुझे नीचा दिखाता था, नहीं मालूम, मगर मैं जितनी भी अपनी लकीर को बड़ा करने की कोशिश करता वह उतनी ही छोटी रहती.

अनिल के पास शायद कोई पारस का पत्थर था. वह जो भी करता उस में सफल ही होता और मैं चाह कर भी सफल नहीं हो पा रहा था. जैसेजैसे शिखा का प्रसवकाल नजदीक आ रहा था मेरी भी घबराहट बढ़ती जा रही थी. मेरी मां तो हमारे साथ रहती ही थीं पर मैं ने खुद ही पहल कर के शिखा की मां को भी बुला लिया. मुझे लगा शिखा बिना झिझक के अपनी मां को सबकुछ बता सकेगी पर मुझे नहीं पता था यह उस के और मेरे रिश्ते के लिए ठीक नहीं है.

शिखा अपनी मां के आने से बहुत खुश थी. 1 हफ्ते बाद की डाक्टर ने डेट दी थी. शिखा की मां उस के साथ ही सोती थीं. पता नहीं वे रातभर मेरी शिखा से क्या बोलती रहती थीं कि सुबह शिखा का चेहरा लटका रहता. मैं गुस्से और हीनभावना का शिकार होता गया.

मुझे आज भी याद है अन्वी के जन्म से 2 रोज पहले शिखा बोली, ‘‘सुमित, हम भी एक नौकर रख लेंगे न बच्चे के लिए.’’

मैं ने हंस कर कहा, ‘‘क्यों शिखा, हमारे घर में तो इतने सारे लोग हैं.’’

शिखा मासूमियत से बोली, ‘‘अनिल जीजाजी ने भी रखा था, करिश्मा के जन्म के बाद.’’

खुद को नियंत्रित करते हुए मैं ने कहा, ‘‘शिखा वे अकेले रहते हैं पर हमारा पूरा परिवार है. तुम्हें किसी चीज की कमी नहीं होने दूंगा.’’

मगर अनिल का जिक्र मुझे बुरी तरह खल गया. शिखा कुछ और बोलती उस से पहले ही मैं बुरी तरह चिल्ला पड़ा. उस की मां दौड़ी चली आईं. शिखा की आंखों से झरझर आंसू बह रहे थे. मैं उसे कैसे मनाता, क्योंकि उस की मां ने उसे पूरी तरह घेर लिया था. मुझे बस यह सुनाई पड़ रहा था, ‘‘हमारे अनिल ने आज तक नीतू से ऊंची आवाज में बात नहीं करी.’’

मैं बिना कुछ खाएपीए दफ्तर चला गया. पूरा दिन मन शिखा में ही अटका रहा. घर आ कर जब तक उस के चेहरे पर मुसकान नहीं देखी तब तक चैन नहीं आया.

10 मई को शिखा और मेरे यहां एक प्यारी सी बेटी अन्वी हुई. शिखा का इमरजैंसी में औपरेशन हुआ था, इसलिए मैं चिंतित था पर शिखा की मां ने शिखा के आगे कुछ ऐसा बोला जैसे मुझे बेटी होने का दुख हुआ हो. कौन उन्हें समझाए अन्वी तो बाद में है, पहले तो शिखा ही मेरे लिए बहुत जरूरी है.

मैं हौस्पिटल में कमरे के बाहर ही बैठा था. तभी मेरे कानों में गरम सीसा डालती हुई एक आवाज आई, ‘‘हमारे अनिल ने तो करिश्मा के होने पर पूरे हौस्पिटल में मिठाई बांटी थी.’’

मैं खिड़की से साफ देख रहा था. शिखा के चेहरे पर एक ऐसी ही हीनभावना थी जो मुझे घेरे रहती थी. शिखा घर आ गई पर अब ऐसा लगने लगा था कि वह मेरी बीवी नहीं है, बस एक बेटी है. रातदिन अनिल का बखान और गुणगान, मेरे साथसाथ मेरे घर वाले भी पक गए और उन को भी लगने लगा शायद मैं नकारा ही हूं. घर के लोन की किस्तें और घर के खर्च, मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहा था. फिर मैं ने कुछ ऐसा किया जहां से शुरू हुई मेरे पतन की कहानी…

मैं ने इधरउधर से क्व1 लाख उधार लिए और बहुत बड़ा जश्न किया. शिखा के लिए भी एक बहुत प्यारी नारंगी रंग की रेशम के काम की साड़ी ली. उस में शिखा का गेहुआं रंग और निखर रहा था. उस की आंखों में सितारे चमक रहे थे और मुझे अपने पर गर्व हो रहा था.

फिर किसी और से उधार ले कर मैं ने पहले व्यक्ति का उधार चुकाया और फिर यह धीरेधीरे मेरी आदत में शुमार हो गया.

मेरी देनदारी कभी मेरी मां तो कभी भाई चुका देते. शिखा और अन्वी से सब प्यार करते थे, इसलिए उन तक बात नहीं पहुंचती थी.

ऐसा नहीं था कि मैं इस जाल से बाहर नहीं निकलना चाहता था पर जब सब खाक हो जाता है तब लगता है काश मैं पहले शर्म न करता या शिखा से पहले बोल पाता. मैं एक काम कर के अपनी लकीर को थोड़ा बढ़ाता पर अनिल फिर उस लकीर को बढ़ा देता.

यह खेल चलता रहा और फिर धीरेधीरे मेरे और शिखा के रिश्ते में खटास आने लगी.

शिखा को खुश करने की कोशिश में मैं कुछ भी करता पर उस के चेहरे पर हंसी न ला पाता. शिखा के मन में एक अनजाना डर बैठ गया था. उसे लगने लगा था मैं कभी कुछ भी ठीक नहीं कर सकता या मुझे ऐसा लगने लगा था कि शिखा मेरे बारे में ऐसा सोचती है.

अन्वी 2 साल की हुई और शिखा ने एक दफ्तर में नौकरी आरंभ कर दी. मुझे काफी मदद मिल गई. मैं ने नौकरी छोड़ कर व्यापार की तरफ कदम बढ़ाए. शिखा ने अपनी सारी बचत से और मेरी मां ने भी मेरी मदद करी.

Father’s Day Special: वरुण और मेरे बीच कैसे खड़ी हो गई दीवार

मुझे रात को जल्दी सोने की आदत है. बेटेबहू की तरह मैं देररात तक जागना पसंद नहीं करता. शाम का खाना जल्दी खा कर थोड़ी देर टहलने जाना और फिर गहरी नींद का मजा लेने के लिए बिस्तर पर लेट जाना मेरी रोज की दिनचर्या है. इस में मैं थोड़ा सा भी बदलाव नहीं करता.

उस दिन भी मैं अपनी इसी दिनचर्या के अनुसार अपने बिस्तर पर आ कर लेट गया. किंतु जाने क्या हुआ मुझे नींद ही नहीं आ रही थी. बिस्तर पर करवटें बदलतेबदलते जब मैं उकता गया तो सोचा क्यों न कुछ देर पोतापोती के साथ खेल कर मन बहला लूं.

मैं जब पोतापोती के कमरे में पहुंचा तो देखा वे लोग कुछ काम कर रहे थे. पहले तो मुझे लगा कि शायद वे पढ़ाई कर रहे हैं और उन की पढ़ाई में खलल डालना उचित नहीं होगा, मगर फिर ध्यान से देखने पर पता चला कि वे दोनों तो चित्रकारी कर रहे थे. मैं उन के पीछे जा कर खड़ा हो गया और उन की चित्रकारी देखने लगा. जल्द ही उन दोनों को एहसास हो गया कि मैं उन के पीछे खड़ा हूं. उन्होंने आश्चर्य से मेरी तरफ कुछ ऐसे देखा मानो पूछ रहे हों, ‘आप इस समय यहां क्या कर रहे हैं?’

‘‘क्या कर रहे हो बच्चो, किस का चित्र बना रहे हो, जरा मुझे भी तो दिखाओ.’’

आंखों ही आंखों में दोनों में कुछ इशारेबाजी हुई और फिर दोनों लगभग एकसाथ बोले, ‘‘कुछ खास नहीं दादाजी, हमें स्कूल में एक प्रोजैक्ट मिला है, वही कर रहे हैं.’’

‘‘अच्छा. लाओ मुझे दिखाओ, क्या प्रोजैक्ट मिला है. मैं मदद कर देता हूं.’’

‘‘नहींनहीं दादाजी, मुश्किल नहीं है, हम कर लेंगे. वैसे भी थोड़ा सा ही काम बचा है. आप अभी तक सोए नहीं, काफी देर हो गई है?’’ मेरी पोती ने पूछा.

‘‘मैं पानी पीने के लिए उठा था. तुम्हारे कमरे की लाइट जल रही थी, इसलिए तुम से मिलने आ गया.’’

‘‘मैं आप के लिए पानी लाती हूं,’’ पोती ने उठते हुए कहा.

‘‘नहीं, रहने दो, मैं पानी पी चुका हूं.’’

‘‘मैं आप को कमरे तक छोड़ आऊं दादाजी.’’ मेरे पोते ने बड़ी मासूमियत से यह कहा तो मुझे उन दोनों पर बड़ा प्यार आया. मैं उन दोनों के सिर पर हाथ फेर कर अपने कमरे में चला आया. यों तो मेरे पोतापोती बड़े अच्छे बच्चे हैं, दोनों मेरा हमेशा ही आदर करते हैं और मेरी परवा भी, किंतु उन का आज का व्यवहार मेरे प्रति कतई सम्मानजनक नहीं था बल्कि वे दोनों मुझे जल्दी से जल्दी अपने कमरे से बाहर करना चाहते थे.

खैर, मैं वापस अपने कमरे में आ गया. हालांकि बच्चों ने तो छिपाने की पूरी कोशिश की थी पर मुझे पता चल ही गया कि वे दोनों क्या कर रहे थे. वे फादर्स डे के मौके पर अपने पापा के लिए कार्ड बना रहे थे और कहीं मैं उन के इस सरप्राइज के बारे में जान न जाऊं, इसीलिए उन्होंने जल्द से जल्द मुझे अपने कमरे से टालने की कोशिश की.

फादर्स डे पर न जाने क्यों मेरे कदम अपनेआप ही अपनी अलमारी की तरफ उठ गए. मैं ने अलमारी खोली और उस में से एक डब्बा निकाला. यह डब्बा टाई का था. मैं ने डब्बे में से टाई निकाली और उसे प्यार से सहला दिया. यह टाई मेरे बेटे वरुण ने तोहफे में दी थी. वह फादर्स डे के मौके पर इसे मेरे लिए अपनी पहली तनख्वाह से खरीद कर लाया था. हालांकि मुझे इसे कभी पहनने का मौका नहीं मिला, लेकिन यह मेरे दिल के बेहद करीब है. मैं ने इसे संभाल कर रखा है.

सुबह नाश्ते की मेज पर दोनों बच्चों  ने अपने पापा को कार्ड भेंट  किया. मेरा बेटा कार्ड देख कर अपने बच्चों पर निहाल हो गया. उस ने दोनों को अपनी गोद में बैठा लिया और उन्हें अपने हाथों से नाश्ता करवाने लगा. बच्चों द्वारा बनाया गया कार्ड देखने को मुझे भी मिला. उन के द्वारा बनाई गई अपने बेटे की कार्टून जैसी सूरत देख कर मेरे होंठों पर मुसकान आ गई जिसे मैं बहुत कोशिश कर के भी अपने बेटे से छिपा नहीं पाया.

‘‘बच्चों की कोशिश बहुत अच्छी थी. हमें उन का हौसला बढ़ाना चाहिए. प्यार से दिया गया  हर तोहफा अनमोल होता है, हमें यह हमेशा ध्यान रखना चाहिए. मगर कुछ लोग दूसरों की भावनाओं को समझते ही नहीं या तो तोहफा देने वाले को डांट देते हैं या उस का मजाक उड़ाने लगते हैं,’’ वरुण ने सख्त शब्दों में अपनी नाराजगी व्यक्त की.

उस की यह नाराजगी उस के बच्चों के कार्ड का मजाक उड़ाने के लिए नहीं थी, बल्कि उस की इस नाराजगी की असली वजह वह टाई थी जिसे खरीदने पर मैं ने उसे डांटा था. वह पुराना वाकेआ हम पितापुत्र के बीच आज भी मौजूद है. न उस वाकए को कभी मैं भुला पाया और न ही कभी वो. यह बात उस के दिल में ऐसी घर कर गईर् कि उस के बाद मेरा बेटा मुझ से दूर हो गया.

हालांकि कोई भी यह कह सकता है कि मुझ से तब बहुत बड़ी गलती हो गई. मैं खुद भी कभी इस बात के लिए खुद को माफ नहीं कर सका. सफाई भी क्या दूं, जब यह हुआ उस समय मेरे हालात से वह बिलकुल अनजान तो नहीं था. एक तो उस समय मेरी आर्थिक स्थिति काफी नाजुक थी, उस पर पत्नी का स्वास्थ्य दिनोंदिन बिगड़ता जा रहा था और वह हमारा साथ छोड़ने की तैयारी में थी. ऐसे में इन औपचारिकताओं के लिए जिंदगी में जगह ही कहां थी.

मैं कुछ कहता तो बात और बढ़ती, उस से पहले मेरी बहू सुमी हमेशा की तरह आगे आई, ‘‘अच्छा अब छोड़ो पुरानी बातें और जल्दी से नाश्ता खत्म करो. फिर बाजार भी जाना है. आज बच्चे अपने पापा के लिए दोपहर के खाने में कुछ खास बनाना चाहते हैं.’’ वह बातें करतेकरते सब के लिए नाश्ता भी परोसती जा रही थी. सब पनीरसैंडविच खा रहे थे जबकि मुझे उस ने दूध व कौर्नफ्लैक्स खाने को दिए. यह भेदभाव देख कर मुझे बुरा लगा.

वरुण ने बाजार जाने से मना कर दिया. उसे दफ्तर की कोई जरूरी फाइल देखनी थी. सुमी भी इतवार की सुबह काफी व्यस्त रहती है. सो, बाजार जाने की जिम्मेदारी मैं ने ले ली. सुमी ने सामान की सूची और झोले के साथ यह हिदायत भी दे डाली कि मैं अधिक दूर न जा कर पास की मार्केट से ही सामान ले आऊं.

सुमी की हिदायत के बावजूद मैं दूर  सब्जी मंडी चला गया. शायद  सुबह की खीझ मिटाने और रास्ते में अपने मित्र रामलाल हलवाई की दुकान तक पहुंच कर मेरा सब्र टूट गया और वहां मैं ने डट कर कचौरी व जलेबी का नाश्ता किया. नाश्ता करते समय मैं ने ‘फादर्स डे’ के मौके पर बड़े ही भावपूर्ण तरीके से अपने पिताजी को याद किया और बेटे के लिए उस की सलामती की कामना की.

‘‘बड़ी देर लगा दी पापाजी, कहां चले गए थे?’’ घर पहुंचते ही सुमी ने इस सवाल के साथ मेरा स्वागत किया.

‘‘मैं मंडी चला गया था. वहां सब्जी सस्ती और अच्छी मिलती है न.’’ अपनी इस समझदारी पर दाद मिलने की उम्मीद से मैं ने उस की ओर देखा पर उस ने मेरा दिल तोड़ दिया.

‘‘सब्जी लेने ही गए थे न या फिर कुछ और भी?’’ उस के इस आधेअधूरे सवाल का मतलब मैं बखूबी समझ गया था और जवाब में उसे घूर कर भी देखना चाहता था मगर चोरी पकड़ी जाने के डर से ऐसा कर न सका. थकान का बहाना बना कर मैं अपने कमरे में चला आया.

रसोई में हंगामा सा मचा हुआ था. बच्चे खाना बना रहे थे और उन के मातापिता उन की मदद कर रहे थे. पता नहीं खाना ही बना रहे थे या कोई खेल खेल रहे थे, मुझे समझ नहीं आया. अच्छा ही हुआ जो मैं बाहर से खा कर आ गया, पता नहीं घर में तो आज खाना बनेगा भी या नहीं.

मेज पर खाना लग चुका था. मेरा पोता मुझे बुलाने आया. मेरा पेट जरा भारी सा हो रहा था. इस समय भोजन करने का बिलकुल भी मन नहीं था. पर मना करने का तो सवाल ही नहीं उठता, कमजोरी मेरी ही थी. मैं मन ही मन अपनी मधुमेह आदि बीमारियों को कोसते हुए, जो मुझे अपने बच्चों से झूठ बोलने को मजबूर कर देती हैं, बाहर चला आया.

यों तो आज भी मेरे लिए लौकी की सब्जी और चपाती बनी थी पर शायद आज बच्चों को मुझ पर थोड़ा ज्यादा प्यार आ गया, इसलिए उन्होंने अपने खाने में से भी थोड़ा सा चखने के लिए दे दिया. खाना बेहद स्वादिष्ठ बना था, शायद इसलिए कि उस में बच्चों का प्यार भी मिला था, पर मजा नहीं आ रहा था. इस का कारण भी मैं जानता था.

‘‘क्या बात है पापाजी, आप खाना नहीं खा रहे? अच्छा नहीं लग रहा है क्या?’’ बहू ने मुझे प्लेट में चम्मच घुमाते देख पूछा. वह खोजी नजरों से मुझे देख रही थी. मुझे उस की इस अदा से बड़ा डर लगता है, लगता है मानो अंदर झांक कर सारे राज मालूम कर लेगी.

‘‘नहीं बेटे, ऐसी कोई बात नहीं है. खाना बहुत अच्छा बना है,’’ मैं ने जल्दीजल्दी निवाले निगलते हुए कहा. उस समय मुझे अपनी पोल खुलने से अधिक फिक्र अपने बच्चों की भावनाओं की थी. मैं ने सब के साथ भरपेट भोजन किया और दिल खोल कर भोजन की तारीफ भी की.

शाम को बच्चों का बाहर जाने का प्लान था. जब वे लोग मुझ से इजाजत लेने आए तब मेरे पेट में बहुत तेज दर्द हो रहा था, लेकिन मैं ने उन्हें इस बाबत बताना ठीक नहीं समझा क्योंकि वे लोग अपना प्लान रद्द कर देते. मेरे पोतापोती मुझे बाय कर रहे थे और मैं किसी तरह अपने दर्द को दबाए हुए मुसकराने की कोशिश कर रहा था. सुमी अब भी मेरे लिए खाना बना कर गई थी. मुझे बड़ी खुशी हुई यह देख कर कि वह मेरी हर छोटीबड़ी जरूरत का हर तरह से ध्यान रखती है. मन तो किया कि उस के लिए ही सही, दो निवाले खा लूं, मगर मुझ से नहीं हुआ. हार कर मैं अपने बिस्तर पर पड़ गया.

मैं इतनी तकलीफ में था कि बच्चे कब घर वापस आए, मुझे पता ही नहीं चला. मुझे सोया जान उन्होंने मुझे नहीं जगाया. मैं रातभर दर्द से तड़पता रहा. सुबह खाई कचौरियां मेरे पेट में कुहराम मचाए हुए थीं. ऐसे में ठीक तो यही रहता कि मैं अपने बेटाबहू को जगा देता पर सब थके हुए थे और मुझे उस समय उन्हें परेशान करना ठीक नहीं लगा. मगर परेशान तो वे लोग फिर भी हो गए. मेरी लाख कोशिशों के बावजूद उन्हें मेरी तकलीफ के बारे में पता चल गया. मेरे वाशरूम से बारबार आती फ्लश की आवाज ने चुगली जो कर दी थी.

वरुण और सुमी मेरे कमरे में चले आए. मेरी हालत देख कर वे घबरा गए. वे तो उसी समय डाक्टर को बुलाना चाहते थे मगर इतनी रात डाक्टर का आना मुश्किल था. सो, खुद ही मेरी तीमारदारी में जुट गए. मुझे उस समय अपने बच्चों पर प्यार आ रहा था और शायद उन्हें गुस्सा, तभी तो वरुण मुझे घूर कर देख रहा था. वरुण के इस तरह घूरने से मुझे डर लगता था. उस के गुस्से से खुद को बचाने के लिए मैं आंखें बंद कर के लेट गया. थोड़ी देर में मुझे दवा के कारण नींद आ गई.

10 बजे के करीब मेरी नींद टूटी. मैं चौंक कर उठ बैठा. सुमी का दफ्तर जाने का समय हो रहा था. आज मैं अपनी आदत के उलट बहुत देर तक सोता रहा. मैं ने उठने की कोशिश की, पर उठ नहीं पाया. बड़ी कमजोरी महसूस हो रही थी. कुछ ही देर में सुमी मुझे देखने आई. मुझे जगा हुआ देख कर वह चाय बना लाई. तब तक वरुण ने मुझे सहारा दे कर बैठा दिया. दोनों को उस समय घर के कपड़ों में देख कर मुझे कुछ आश्चर्य हुआ, ‘‘तुम दोनों अब तक तैयार नहीं हुए. आज औफिस नहीं जाना है क्या?’’

‘‘आप को ऐसी हालत में छोड़ कर औफिस कैसे जाएं. आज हम दोनों ने दफ्तर से छुट्टी ले ली है,’’ वरुण ने जवाब दिया.

‘‘नहीं बेटा, इस की कोई जरूरत नहीं है. मैं अब ठीक महसूस कर रहा हूं. तुम लोग आराम से दफ्तर जाओ,’’ जाने मैं बच्चों से झूठ बोल रहा था या फिर खुद से, मुझे समझ नहीं आया.

‘‘हां, पता है हमें कितना ठीक महसूस कर रहे हैं आप. आप का चेहरा देख कर ही पता चल रहा है. अब आप कुछ नहीं बोलेंगे, सिर्फ आराम करेंगे. आज हम आप को छोड़ कर कहीं नहीं जाएंगे. पूरा दिन आप पर नजर रखेंगे और आप वो करेंगे जो हम कहेंगे. चलिए, लेट जाइए.’’ बहू की यह मीठी झिड़की मुझे अच्छी लगी. इस के बाद दोनों पूरा दिन मेरी इस तरह देखभाल करते रहे जैसे कि मैं एक छोटा बच्चा हूं और वे दोनों मेरे अभिभावक, मैं भी उन की हर आज्ञा का पालन करता रहा.

शाम तक मेरी हालत में काफी सुधार हो चुका था. मैं अपने कमरे में बैठेबैठे बोर हो गया था. सो, उठ कर हौल में चला आया. मुझे देख कर सुमी ने चाय का कप और एक प्लेट में बिस्कुट परोस कर मेरे सामने रख दिए. मुझे बड़ी हसरत से पैस्ट्री और समोसों की ओर ताकते देख उस के होंठों पर शरारती मुसकान आ गई जिसे देख कर मैं शरमा गया.

‘‘कल आप कहां गए थे पापा?’’ वरुण ने मेरी ओर सवाल दागा.

उस के इस सवाल के लिए मैं तैयार नहीं था, इसलिए कुछ पलों के लिए तो हड़बड़ा गया लेकिन फिर विरोध करने वाले अंदाज में बोला. ‘‘तुम्हारी याददाश्त अभी से कमजोर हो गई है क्या? याद नहीं तुम्हें, सब्जी लेने गया था, बहू ने ही तो भेजा था.’’

‘‘मेरी याददाश्त बिलकुल ठीक है. आप की बहू ने तो आप को पास वाली मार्केट भेजा था, पर आप रामलाल चाचा की दुकान पर पहुंच गए. पूछ सकता हूं क्यों?’’

‘‘मैं रामलाल की दुकान पर नहीं, मंडी गया था, अच्छी और सस्ती सब्जी लेने.’’ मैं जानता था अब मेरा झूठ ज्यादा देर तक नहीं चलेगा, पर फिर भी मैं ने एक आखिरी कोशिश की.

‘‘मेरे दोस्त दिनेश ने आप को रामलाल चाचा की दुकान पर देखा था वह भी जलेबी और कचौरी खाते हुए.’’मेरे बेटे के बिगड़े तेवरों ने मुझे सीधा कर दिया. दिनेश को तो मैं ने भी देखा था उस दिन पर यह नहीं सोचा था कि वह मेरे बेटे से मेरी चुगली कर देगा, चुगलखोर कहीं का. आजकल के लड़कों में बड़ों के लिए आदरसम्मान रहा ही नहीं. मैं ने अपने बेटे की ओर देखा. वह सच सुनने के इंतजार में लगातार मुझे घूर रहा था. अब और किसी झूठ के लिए जगह नहीं थी, बहाने भी लगभग खत्म हो चुके थे. सो, अब सच बोलने में ही भलाई थी.

‘‘कल तुम लोगों को फादर्स डे मनाते देख मेरा भी मन कर गया. मैं वहां फादर्स डे मनाने गया था.’’ मेरा यह मासूमियत भरा जवाब सुन कर मेरी बहू की हंसी छूट गई. जाने उस की हंसी में क्या था कि पहले मैं, फिर मेरा बेटा भी उस के साथ खुल कर हंस दिए. हम हंसे जा रहे थे और दोनों बच्चे हमारी ओर आश्चर्यभरी नजरों से देख रहे थे.

Manohar Kahaniya: टूट गया दिव्या के प्यार का सुर और ताल- भाग 2

एक दिन उस ने अपने दिल की बात दोस्त अनिल को बताई. उस से अपनी योजना में शामिल होने के लिए मदद मांगी. अनिल भी   रवि के साथ ही फाइनैंस कंपनी में काम करता था. फिर क्या था रवि ने सिरे से वीडियो शूट करने की योजना बनाई. अनिल के जरिए दिव्या को फोन करवाया. दिव्या भी काफी समय से काम की कमी होने से परेशान चल रही थी.

वह काम की तलाश में कई बार दूरदूर तक जाने लगी थी. स्टेज शो भी करने लगी थी. ऐसे में जब अनिल ने उस को फोन कर एक एलबम रिकौर्ड करने की बात बताई तो वह तुरंत तैयार हो गई. अनिल ने बदले में उसे एक गाने के 5 हजार रुपए मिलने का आश्वासन भी दिया.

अनिल ने उसे घर से ही रिसीव करने और हरियाणा के एक स्टूडियो में गाने की रिकौर्डिंग की बता कही. दिव्या पहले भी अनिल से मिल चुकी थी, इसलिए बगैर कोई सवाल किए उस के साथ जाने के लिए तैयार हो गई. इस सिलसिले में वह पहले भी दिल्ली से हरियाणा जा चुकी थी.

यही कारण था कि 11 मई, 2022 की सुबह जब अनिल कार से उसे लेने घर पहुंचा तब उस के मन कोई आशंका नहीं थी, बल्कि नया काम मिलने की खुशी थी. परिवार के सभी सदस्य खुश थे कि वह काम पर जा रही थी. उन्होंने खुशीखुशी उसे विदा किया था.

गन्ने के जूस में मिला दी नशे की दवा

घर से निकलने से पहले उस ने अनिल का फोन नंबर अपनी छोटी बहन को दिया और कहा कि वह एक गाने की रिकौर्डिंग करने भिवानी जा रही है. शाम तक गाना रिकौर्ड कर के वापस आ जाएगी. उस के गाने की रिकौर्डिंग अनिल के गाने के साथ होनी है.

अनिल दिव्या को ले कर हरियाणा की तरफ निकल गया था. रोहतक के मेहम में पहुंच कर उस ने दिव्या के साथ कलानौर गांव में स्थित गुलाटी ढाबे पर खाना खाया. ढाबे पर ही दोनों ने गन्ने का जूस पिया. उस के बाद जब वे दोनों वहां से निकले, तब रास्ते में खड़ा रवि भी उस गाड़ी में सवार हो गया.

रवि के साथ दिव्या की सुलह हो चुकी थी. रवि ने दिव्या को पुरानी रंजिश भूलने और नई जिंदगी जीने का आश्वासन दिया. रवि कार में बैठने पर कुछ समय तक चुपचाप रहा. कार में चुप्पी छाई हुई थी. अनिल ने दिव्या का गाना चला कर उसे छेड़ा. फिर वे इधरउधर की बातें करने लगे और गाने गुनगुनाने लगे.

थोड़े समय बाद दिव्या की आंखें बंद होने लगी थीं. असल में अनिल ने उस के गन्ने के जूस के गिलास में नींद की 10 गोलियों का पाउडर मिला दिया था.

दिव्या ने नींद में सीट से अपना सिर टिका दिया था. थोड़ी देर में अनिल और रवि जब एकांत इलाके में पहुंचे तो उन्होंने देखा कि दिव्या पूरी तरह से बेहोशी की हालत में है.

अर्द्धनग्न अवस्था में दफना दिया दिव्या को

रवि ने एक नजर अनिल पर डाली और दूसरी निगाह बेहोश दिव्या पर. अनिल ने भी दिव्या की हालत को देखा और रवि को इशारा कर दिया. सब कुछ उन की योजना के मुताबिक हो रहा था. रवि ने बेहोश दिव्या के सिर पर कार में रखे छोटे डंडे से जोरदार वार कर उसे एक झटके में निढाल कर दिया. फिर उस का गला दबा कर हत्या कर दी.

दिव्या को दोनों ने बड़ी आसानी से मौत की नींद सुला दिया था. आगे की योजना के अनुसार उस की लाश को इस तरह से ठिकाने लगाना था, जिस से उस की पहचान न हो सके और वे कभी पकड़ में न आएं.

उन्होंने कार में ही मृत दिव्या के सारे कपड़े उतार लिए. उसे सिर्फ अंडरगारमेंट में छोड़ा. उस का मोबाइल, पर्स, बैग और दूसरे सामान अपने कब्जे में ले लिए. फिर भैरो भैणी गांव में बरसाती नाले के पास हाईवे के फ्लाईओवर के पास सुनसान स्थान पर गाड़ी रोकी और झाडि़यों के बीच दिव्या की लाश को जमीन में दफना दिया.

पुलिस को अब लाश बरामद करनी थी, इसलिए पुलिस दोनों की निशानदेही पर उस जगह गई, जहां दिव्या की लाश को जमीन में दफनाया गया था. लेकिन वहां पुलिस को लाश नहीं मिली. वह लाश मेहम पुलिस पहले ही बरामद कर चुकी थी.

दरअसल, फ्लाईओवर के पास लघुशंका करने गए एक व्यक्ति को जमीन से निकला हुआ हाथ दिखाई दिया था. उस ने यह जानकारी नजदीक के चौकी इंचार्ज नफे सिंह को दी. नफे सिंह इस के बाद मौके पर पहुंचे तो हाथ देख कर उन्हें भी मामला संदिग्ध लगा.

हमारी बहू इवाना- भाग 2: क्या शैलजा इवाना को अपनी बहू बना पाई?

इवाना द्वारा पिता का पूरा नाम लिए जाने पर शैलजा को सांप सूंघ गया. सब के बीच चल रही बातचीत उस के कानों से टकरा कर लौट रही थी. मन में तूफान उठ रहा था, ‘सरनेम तो यही बता रहा है कि इवाना के पिता एक दलित हैं. मां विदेशी हैं, लेकिन पिता तो भारतीय हैं और यदि वे नीची जाति के हैं, तो इवाना भी…’

शैलजा के हृदय में अकस्मात भूकंप आ गया. कुछ देर पहले बनी सपनों की इमारतें पलभर में ढह गईं. बोलीं, ‘विशाल ने यह क्या किया? जिस का डर था वही हो गया.’

वीडियो काल समाप्त होने के बाद इस विषय में वह कुछ कहती, इस से पहले ही दिनेश बोल उठा, “एक ही बेटा है हमारा, वह भी नाम डुबोएगा खानदान का. विदेश जा कर सब भुला दिया. क्या इसलिए ही बाहर भेजा था कि इतने उच्च कुल का हो कर नीचे लोगों से रिश्ता जोड़े?”

“वही तो… गोरी ढूंढ़ी भी, लेकिन किएकराए पर पानी फेर दिया. जल्द ही कुछ करना पड़ेगा. याद है, लखनऊ वाली दीदी ने जो लड़की बताई थी, उस के कामकाजी न होने और केवल बीए पास होने के कारण हम चुप थे. सोच रहे थे कि विशाल न जाने ऐसी पत्नी चाहेगा या नहीं? दीदी कई बार पूछ चुकी हैं. गोरीचिट्टी, सुंदर नैननक्श वाली है वह लड़की. दीदी को फोन कर आज ही बात करती हूं. विशाल को रात में फोन कर के कह देंगे कि इवाना बहू नहीं बन सकती हमारी. कुछ दिन नानुकुर करने के बाद मान ही जाएगा वह. अभी कुछ नहीं किया तो खूब जगहंसाई होगी हमारी.”

‘न जाने इवाना और विशाल का रिश्ता कितना आगे बढ़ चुका होगा? एकदूसरे के साथ कितना समय बिताते होंगे? यदि भावनात्मक रूप से पूरी तरह जुड़ चुके होंगे, तो विशाल उन के मना करने पर मानेगा भी या नहीं?’ इन बातों पर विचार करने लगे दोनों.

शैलजा को अचानक याद आया कि कुछ दिन पहले जब वह अपने भाई के घर गई थी तो एक ज्योतिषी से भेंट हुई थी. उन्होंने विशाल की जन्मतिथि पूछ कर कुंडली बनाई थी और उसे देख कर बताया था कि ग्रह दशा के अनुसार इस के विवाह में थोड़ी बाधा आएगी. कुछ दिनों के पूजापाठ द्वारा यह बाधा दूर हो सकती है और अति उत्तम पत्नी मिलने का योग बन सकता है. आज भाई के घर जा कर ज्योतिषी से मिलना तो संभव नहीं है, किंतु पास वाले मंदिर के पंडितजी से सलाह तो ली जा सकती है.

इस विचार ने शैलजा को कुछ राहत दी. दिनेश को भी बात जंच गई.

शाम को तैयार हो कर दिनेश पार्क में इवनिंग वौक करने और शैलजा उस मंदिर की ओर चल दी, जहां वह कोविड से पहले प्रायः जाती रहती थी. कोरोना के बाद मंदिर खुले बहुत समय नहीं हुआ था. इस बार कई दिनों बाद जा रही थी वहां.

मंदिर में इन दिनों भीड़भाड़ पहले की तरह ही होने लगी थी, लेकिन इस समय ज्यादा लोग नहीं थे. दोपहर को 4 घंटे बंद रहने के बाद संध्याकाल में खुला ही था मंदिर.अहाते के बाहर लगी दुकानों से पुष्प व मिठाई खरीद वह भीतर चली गई.

मूर्ति के पास खड़े पुजारी को जैसे ही उस ने फूलों का दोना थमाया, वह बुरी तरह चौंक गई. पुजारी वह नहीं था, जो पहले हुआ करता था, लेकिन उस पुजारी का चेहरा जानापहचाना सा था. ‘यह तो माधव की तरह दिख रहा है, जो मेरे औफिस में सफाई कर्मचारी है.’

शैलजा को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था.

“आप को पहले कभी इस मंदिर में नहीं देखा था. सुखीराम पंडितजी हुआ करते थे यहां तो. वे दिख नहीं रहे,” शैलजा शंकित स्वर में बोली.

“हां, मैं पहले नहीं था यहां. सुखीरामजी कुछ दिनों के लिए अपने गांव गए हैं,” नए पुजारी ने बताया, तो आवाज सुन शैलजा का संदेह पुख्ता हो गया. ‘यह तो वास्तव में माधव है. क्या माधव उसे पहचान गया होगा? क्या वह चुपचाप चली जाए या और पूछताछ करे?’ एक सफाई करने वाले को पुजारी के स्थान पर देख उसे बहुत अटपटा लग रहा था. माधव मिठाई का भोग लगाकर डिब्बा उसे लौटाने आया तो हाथ आगे बढ़ाने के साथ ही एक प्रश्न भी शैलजा ने आगे कर दिया. “माधव ही हो न तुम? पहचाना मुझे?”

माधव पहचान तो गया था शैलजा को, लेकिन बिना कुछ बोले सिर झुकाए खड़ा रहा.

“मैं फोर्थ फ्लोर पर बैठती हूं. अकसर तुम्हारी ड्यूटी उसी फ्लोर पर लगती है. सुबह जब तुम मेरी टेबल से धूल झाड़ते हो तो मैं आई हुई होती हूं. रोज देखती हूं तुम्हें. मेरी आंखें धोखा नहीं खा सकतीं.”

“जी मैडम, मैं माधव हूं. आप को पहचानता हूं. मुझे तो यह भी याद है कि एक बार मेरी बेटी की बीमारी के दौरान दवाओं का बिल लंबा हो गया था. सब कह रहे थे कि मुझे पूरा पैसा वापस नहीं मिलेगा. आप ने फाइनेंस सैक्शन को सख़्ती से लिखा था कि मेरा एकएक पैसा रिइम्बर्स हो.”

“माधव, जब तुम सही थे, तो मैं ने साथ दिया था तुम्हारा, लेकिन यह क्या किया तुम ने? मुझे बेहद अफसोस हुआ देख कर कि तुम मंदिर में पुजारी बन कर धोखा दे रहे हो सब को.”

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