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हंसने की चाह : बेटे को सफल बनाने के लिए दिलीप क्या प्रयास कर रहा था?

उस दिन दिलीप को कितनी खुशी हुई थी कि वह अपने बेटे अमित के डाक्टर बनने के सपने को पूरा कर पाएगा। आईएससी करने के बाद 1 साल अमित ने जम कर मैडिकल ऐंट्रैंस की तैयारी की थी। 1 वर्ष उस ने बीएससी में ऐडमिशन भी नहीं कराया था। पर जब सफलता नहीं मिली थी तो उस ने बीएससी में ऐडमिशन ले लिया था। पर तैयारी मैडिकल ऐंट्रैंस की ही करता रहा था।

दूसरे प्रयास में भी सफलता नहीं मिली थी। और यही परिणाम रहा था तीसरे प्रयास में भी। बस संतोष की बात यही थी की हर बार कटऔफ मार्क्स के ज्यादा नजदीक होता गया था वह। पर इस से ऐडमिशन तो नहीं मिलना था। निराश हो अमित ने अपना ध्यान बीएससी पर लगा दिया था। जितना दुख अमित को था उतना ही दुख दिलीप को भी था। उस की भी चाहत थी कि उस का बेटा डाक्टर बने। पर कुछ भी किया नहीं जा सकता था।

फरवरी में उस के पास किसी व्यक्ति ने कौल किया था। उस ने खुद को मैडिको हैल्प डेस्क का कर्मचारी बताया था। उस ने उसे आश्वस्त किया था कि वह उस के बेटे को एमबीबीएस में ऐडमिशन दिलवा देगा। इस के लिए उस ने 2 विकल्प सुझाए थे। महाराष्ट्र के कालेज में नामांकन के लिए ₹90 लाख और कर्नाटक के कालेज में नामांकन के लिए ₹95 लाख का भुगतान करना था। अफरात पैसे तो थे नहीं उस के पास कि कितने भी पैसे लगे दे देगा इसलिए ₹5 लाख कम होने के कारण उस ने महाराष्ट्र में ऐडमिशन करवाना बेहतर समझा।

दिलीप ने महाराष्ट्र के एक कालेज के बारे में पूछा तो उसे बताया गया कि ₹58 लाख फीस के और ₹32 लाख कैपिटेशन चार्ज के जमा करने होंगे। विशेष जानकारी के लिए उसे नोएडा के औफिस के पते पर आ कर मिलने के लिए कहा गया था।

खुशी से रात भर वह सो नहीं पाया था। उस की यह हालत खुशी के मौके पर और गम के मौके पर भी होती थी। गम के मौके पर तो फिर भी देरसवेर सो जाता था पर खुशी के मौके पर उसे नींद नहीं आती थी। करवटें बदलते, कभी वाशरूम जाने किए लिए उठते हुए रात बिताई। वह तो खुश था ही उस की पत्नी और उस के बेटे को भी कम खुशी नहीं थी। सभी इसे ईश्वर की कृपा समझ रहे थे। उस की पत्नी यह समाचार सुन कर चहक कर बोली थी मैगजीन में उस ने राशिफल पढ़ा था। अमित के राशिफल में अप्रत्याशित सुखद समाचार मिलने की इस महीने संभावना बताई गई थी।

ऐसा नहीं था कि ₹90 लाख उस के लिए बहुत छोटी रकम थी। पर बेटे के सपने को पूरा करने के लिए वह कृतसंकल्प था। उस ने मन ही मन अनुमान लगाया कि ₹40 लाख तो उस के खाते में हैं फिक्स्ड डिपौजिट के रूप में। पीपीएफ खाते में भी ₹8 लाख जमा थे और उस से 3-4 लाख रुपए निकाल ही सकता था। शेष रकम वह उधार ले लेगा। और नहीं तो ऐजुकेशन लोन तो मिल ही जाएगा। उस ने सुना था कि विद्यालक्ष्मी पोर्टल पर जा कर पसंद के बैंक में और पसंद की शाखा से ऐजुकेशन लोन के लिए अप्लाई किया जा सकता है।

उस ने मन ही मन अपने बैंक की उसी शाखा से लोन लेने की योजना बना ली जिस में उस का वेतन खाता है। आखिर पुराने ग्राहक होने के नाते बैंक वाले उस की सहायता जरूर करेंगे। 1-2 स्टाफ से उस की अच्छी जानपहचान भी थी।

खुशी में रात बाहर नींद नहीं आई थी। सुबह प्रतीक्षा की घड़ियां उसे काफी लंबी लग रही थी। उस ने अपने औफिस में छुट्टी के लिए आवेदन दे दिया था बीमारी का बहाना बना कर। और नोएडा स्थित मैडिको हैल्प डेस्क के औफिस पहुंच गया था।

औफिस खुलने का समय 10 बजे बताया गया था पर वह 9 बजे ही वहां पहुंच चुका था। जब वह औफिस में पहुंचा तो सिर्फ चौकीदार था वहां। उस ने बताया कि 10 बजे ही साहब लोग आते हैं। 1 घंटा इधरउधर घूमते हुए उस ने समय बिताया। इस बीच वह बेटे के कैरियर के हसीन सपनों में खो जाता था। 5 साल बाद बेटा एमबीबीएस हो कर निकलेगा फिर वह एमडी या एमएस भी करवा देगा। आजकल एमडी या एमएस किए बिना अच्छे हौस्पिटल में नौकरी नहीं मिलती डाक्टरों को। उस ने निश्चय कर लिया।

जैसे ही औफिस खुला वह अंदर गया। वहां रामकुमार नामक व्यक्ति ने उस का स्वागत किया। उस ने उस का परिचय राजेश नामक व्यक्ति से करवाया जो वहां का हैड था। राजेश ने उस से उस के बेटे का मार्कशीट, आधार कार्ड और फोटो मांगा ताकि ऐडमिशन के लिए प्रोसेसिंग किया जा सके। वह कुछ भी ले कर नहीं आया था क्योंकि फोन पर उसे इस बारे में कुछ भी नहीं बताया गया था।

“मैं 1-2 घंटे में ला कर सभी चीजें दे दूंगा,” उस ने घबराते हुए कहा था। उसे लगा कहीं इस कारण से बेटे के ऐडमिशन में परेशानी न आ जाए।

“अरे ऐसी कोई जल्दीबाजी नहीं। आप कल सभी कागजात दे जाएं। साथ ही बेटे को भी ले आएं। इंटरव्यू की औपचारिकता भी पूरी कर लेंगे,” राजेश ने एहसान जताते हुए कहा था।

अगले दिन वह बेटे अमित के साथ आया था, मार्कशीट, आधार कार्ड और फोटो ले कर। साथ ही उस ने पैनकार्ड और अन्य दस्तावेज भी रख लिए थे। कहीं किसी दस्तावेज की आवश्यकता न पङ जाए। राजेश ने अमित से कुछ मामूली सवाल पूछे थे जिस का अमित ने पूरे विश्वास से जवाब दिया था। दिलीप को काफी गर्व हुआ था अपने बेटे की काबिलियत पर।

राजेश ने आश्वस्त किया कि वांछित कालेज में अमित का मैनेजमेंट कोटा में नामांकन हो जाएगा। इस के लिए उसे एमओयू साइन करना होगा और ₹12लाख 1 सप्ताह के अंदर जमा करने होंगे। वहां और भी कुछ अभिभावक अपनेअपने बच्चों के साथ आए हुए थे।

1 सप्ताह की प्रतीक्षा कौन करता? दिलीप ने अगले ही दिन अपना फिक्स्ड डिपौजिट तुड़वा कर चेक से भुगतान कर दिया। उस चेक को अगले ही दिन भूना भी लिया गया। कुछ दिनों के बाद उस से ₹70लाख की मांग की गई और इस के अतिरिक्त ₹8लाख रुपए देने के लिए कहा गया। चूंकि नामांकन की कोई प्रक्रिया प्रारंभ नहीं की गई थी और फीस तो साल दर साल जमा होना चाहिए था इसलिए दिलीप ने पहले नामांकन करवाने की जिद की। इस पर उसे महाराष्ट्र स्थित कालेज में जाने के लिए कहा गया।

इतनी जल्दी टिकट मिलना मुश्किल था। हवाई जहाज के टिकट काफी मह॔गे थे। किसी प्रकार तत्काल में टिकट बुक कर दोनों बापबेटे कालेज गए। कालेज में उन्हें अंदर नहीं जाने दिया गया तो उस ने रामकुमार को फोन किया। रामकुमार ने जवाब दिया कि वे विलंब से आए हैं और अब कुछ नहीं हो सकता। इस के बाद उस ने फोन काट दिया और फिर रामकुमार के साथ ही राजेश का फोन भी अनरिचेबल आने लगा।

दिनभर प्रतीक्षा करने के बाद कोई चारा नहीं था दोनों के पास। फिर तत्काल में टिकट बुक करवा कर वापस आए। वापस आ कर दिलीप तमतमाता हुआ नोएडा स्थित कार्यालय गया। पर वहां लटका ताला उस का इंतजार कर रहा था।आसपास पता करने पर मालूम हुआ के वे अपराधी किस्म के व्यक्ति थे और कई लोगों को उन्होंने इसी प्रकार छला था। अब एक ही उपाय था पुलिस में शिकायत करना।

पुलिस थाने में उस ने एफआईआर तो कर दिया पर अपनी बुद्धि पर उसे तरस आ रहा था कि बिना कोई छानबीन किए वह कैसे अपराधियों के जाल में फंस गया। हंसने की चाह ने उसे रुला दिया। मगर अब हो भी क्या सकता था, ₹12 लाख तो पानी में डूब गए थे। अब न ईश्वर काम आ रहा था और न ही राशिफल।

हाई लिविंग लो थिकिंग का जमाना

आज का यूथ लग्जरी जीवन जीने में विश्वास करता है. उसे लगता है कि अगर पैसा है तो हर सुखसुविधा खरीदी जा सकती है, खुद की फ्रैंड्स में पैठ जमाई जा सकती है, समाज में अपनी अलग पहचान बनाई जा सकती है, जब चाहे पैसे फैंक कर कोई भी काम निकलवाया जा सकता है. भले ही उन्हें पैसे कमाने व लग्जरी जीवन जीने के चक्कर में अपनों से दूर होना पड़े, वे इस से भी पीछे नहीं रहते, जबकि असल में उन की ऐसी सोच सही नहीं है. क्योंकि आज भले ही पैसों की इंपौर्टेंस कही अधिक बढ़ गई है, लेकिन यह भी सच्चाई है कि जहां अपने काम आ सकते हैं, वहां पैसा नहीं. इसलिए पैसों की अंधीदौड़ में इस कदर न बह जाएं कि जीवन में कभी अपनों का साथ ही हासिल न हो.

1. देखादेखी बढ़ा लग्जरी लाइफ जीने का चलन

आज युवा अधिकांश चीजें देखादेखी ही खरीदते हैं. उन्हें लगता है कि उन के फ्रैंड के पास महंगा मोबाइल फोन है जिस के फीचर्स उन के फोन से कही अधिक हैं तो वे भी बिना सोचेसमझे वैसा ही फोन और कई बार तो उस से भी महंगा फोन खरीद लेते हैं, जबकि वे ऐसा करते वक्त एक बार भी यह नहीं सोचते कि इस की उन्हें जरूरत है भी या नहीं. उन का देखादेखी इस तरह चीजें खरीदना सही नहीं है क्योंकि वे अपनी ऐसी सोच के कारण भविष्य के लिए कुछ जमा नहीं कर पाते, जिस से भविष्य में पछतावे के सिवा उन के पास कुछ नहीं रहता.

2. जल्दी पैसा कमाने की चाह

आज वे जल्दी ऊंचाइयों तक पहुंचने के लिए स्टेप बाई स्टेप चलना नहीं, बल्कि शौटकर्ट रास्ता अपनाना पसंद करते हैं, भले ही ऐसा रास्ता कांटों से भरा हुआ ही क्यों न हो. उन्हें तो हर हाल में जल्दी पैसा कमाना होता है. इस के लिए वे गलत काम करने में भी पीछे नहीं रहते. उन की इस के पीछे ऐसी सोच होती है कि चाहे रास्ता कैसा भी हो पैसा तो हाथ में आ ही रहा है और इस से उन की सारी हाई डिमांड्स भी पूरी हो रही हैं.

3. खुद को रिच दिखाने के लिए

भले ही अंदर से कितने भी खोखले क्यों न हो, लेकिन फिर भी सब के सामने यह जताने की कोशिश करना कि हम कितने रिच हैं, इस के लिए वे महंगे ब्रैंडेड कपड़े, घड़ी, परफ्यूम वगैरा खरीदने पर हजारों रुपया पानी की तरह बहाते हैं. भले ही चीजें खरीदने के लिए उन्हें पापा की डांट का भी सामना क्यों न करना पड़े, लेकिन वे इस में भी पीछे नहीं रहते क्योंकि वे नहीं चाहते कि उन का स्टेटस डाउन हो.

4. गर्लफ्रैंड पर इंप्रैशन जमाने के लिए

चाहे खुद की पौकेट में कुछ हो या न हो, लेकिन गर्लफ्रैंड पर तो हर सूरत में इंप्रैशन झाडऩा ही है, जिस के लिए वे उसे लंच या डिनर करवाने के लिए अपनी सारी पौकेटमनी तक उड़ा देते हैं और उसे महंगे गिफट्स देने के लिए पापा से उधार मांगने में भी पीछे नहीं रहते. क्योंकि उन का पूरा फोकस सिर्फ गर्लफ्रैंड के सामने खुद को रिच शो करना जो होता है.

5. खुद की कमी छिपाने के लिए

पता है कि वे प्रैजेंटटेबल नहीं है, उन में ढेर सारी कमियां हैं और उन्हीं को छिपाने के लिए वे हाई लिविंग स्टाइल में जीना पसंद करते हैं ताकि उन की कमियों पर परदा पड़ सके. इस चक्कर में वे यह नहीं सोचते कि अगर आज बिना सोचेसमझे इस कदर पैसा बरबाद करेंगे तो उन का कल सुरक्षित नहीं हो पाएगा.

6. ज्यादा कमाई भी रीजन

कम उम्र में ज्यादा इनकम होने के कारण वे लग्जरी जीवन जीने में विश्वास करने लगे हैं, जिस से अब उन्हें कुछ भी खरीदने से पहले सोचने की जरूरत नहीं पड़ती.

1. फ्यूचर सिक्योर नहीं होता

देखादेखी पैसे की बरबादी करने से या खुद को ऐडवांस दिखाने के चक्कर में उन का फ्यूचर सिक्योर नहीं हो पाता, जिस का एहसास उन्हें जब होता तब तक बहुत देर हो चुकी होती है, ऐसे में पछतावे के सिवा उन के हाथ कुछ नहीं लगता.

2. जल्दी पैसा कमाने के लिए गलत रास्ता

रातोंरात अमीर बनने का ख्वाब देखने वाले आज के यूथ जल्दी पैसा कमाने के लिए शौर्टकट रास्ता अपनाने में भी पीछे नहीं रहते, जिस से कई बार गलत हाथों में पडऩे के कारण उन की पूरी जिंदगी बरबाद हो जाती है.

3. नौलेज को इंपौर्टेंस नहीं देते

पैसों की दुनिया में खोने के कारण वे ये भूल जाते हैं कि हर जगह पैसा ही काम नहीं आता बल्कि नौलेज से वे अच्छेअच्छों के छक्के उड़ा सकते हैं. लेकिन वे इस चक्कर में नौलेज में जीरो होने के कारण हर जगह हंसी के पात्र बनते हैं, जो उन की नैगेटिव पर्सनैलिटी को दर्शाता है.

4. रिसपैक्ट नहीं मिलती हमेशा

अपने बारे में ही सोचते रहने के कारण वे न घरपरिवार में और न समाज में रिसपैक्ट पा पाते हैं जिस से न कोई उन की फीलिंग को समझ पाता है और न वे औरों की, जो सही नहीं है. इसलिए भले ही आप खुद को आज के जमाने में ढालें लेकिन हाई लिविंग में जीने के कारण अपनी पर्सनैलिटी को नैगेटिव न बनाएं.

नए तेवर में कांग्रेस

कर्नाटक चुनाव में जीत के बाद से राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी ने अपनी नीतियों में बड़े बदलाव किए हैं. इस में सब से प्रमुख बात यह रही की जहां अबतक कांग्रेस बीजेपी पर सूटबूट के साथ 2 मित्रों को फायदा पहुंचाने का आरोप लगाते हुए सरकार पर निशाना साधती थी, वहीं अब कांग्रेस आम जनता और दलितों की बात करते नजर आ रही है.

इस की शुरुआत कांग्रेस ने हिमाचल से की जहां सब से पहले पार्टी ने पुरानी पैंशन स्कीम की बात करते हुए हिमाचल की जनता के दिल में जगह बनाई और जीत दर्ज की. इस के बाद कर्नाटक में कांग्रेस ने अहिंदा कार्ड खेला और दलित, मुसलिम और पिछड़ों की बात करते हुए राज्य में अच्छे वोटों से जीत हासिल की.

चौंकाने वाला ऐलान

इस से पहले राहुल गांधी मोदी सरकार पर अडानीअंबानी का नाम ले कर आक्रामक रहे, लेकिन जमीन पर पार्टी को उस का कोई फायदा मिलता नजर नहीं आ रहा था. राफेल मामले को ले कर कांग्रेस के आरोपों पर भी जनता पर कोई असर पड़ता नजर नहीं आ रहा था. यही वजह है कि कांग्रेस अब पूंजीवाद, अडानीअंबानी जैसे मुद्दों को छोड़ अब आरक्षण, मुसलिम उत्पीड़न के साथ दलितों की बात कर रही है.

हाल ही में यूपी कांग्रेस की बैठक में ऐलान किया गया कि पार्टी जातीय जनगणना कराने और ओबीसी आरक्षण बढ़ाने की मांग को ले कर आंदोलन करेगी. कांग्रेस का यह ऐलान बेहद चौंकाने वाला था, क्योंकि इस से पहले पार्टी ऐसे मुद्दों पर ज्यादात्तर चुप्पी साधना ही पसंद करती थी. लेकिन अब जातीय जनगणना और ओबीसी की बात कर कांग्रेस अब नए तेवर में नजर आ रही है.

अमेरिका में राहुल क्या बोले

इस का एक और उदाहरण राहुल गांधी के 6 दिवसीय अमेरिका दौरे में देखने को मिल रहा है जहां राहुल गांधी बीजेपी और आरएसएस पर हमला करते हुए संविधान पर चोट की बात कर रहे हैं. इस के अलावा राहुल ने अपने पहले दिन की बातचीत में दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और गरीबों की बात करते हुए कहा कि आज भारत इन के लिए सही जगह नहीं रह गई है.

राहुल ने अमेरिका में बातचीत के दौरान कहा,”आज भारत में मुसलिम खुद को असुरक्षित महसूस कर रहा है, क्योंकि उन के साथ सब से ज्यादा ज्यादती की जा रही है और मैं गारंटी से कह सकता हूं कि मेरे सिख, ईसाई, दलित और आदिवासी भाई भी ऐसा महसूस कर रहे होंगे.”

क्या कहते हैं राजनीतिक विश्लेषक

राजनीतिक जानकारों का मानना है की राहुल गांधी और कांग्रेस के ये बयान पार्टी की नई रणनीति का हिस्सा है. क्योंकि अबतक अडानीअंबानी और अमीरों की सरकार वाली बात पर जनता कांग्रेस के साथ जुड़ नहीं पा रही थी.

जातिवादी हकीकत दिखाते मीठे अंगूर बन गई कटहल

ओटीटी पर रिलीज हुई फिल्म ‘कटहल’ जातिवाद पर कड़ा प्रहार करती है. फिल्म शुरू होने से पहले लगा था कि यह उत्तर प्रदेश या बिहार की राजनीति पर बनने वाली आम सी हलकी फिल्म होगी पर इस की गंभीरता इसे देखने बाद समझ आती है.

इस फिल्म में बारीकी से बताया गया है कि कैसे हमारे सिस्टम की नसनस में जातिवादी और गरीबविरोधी भावना भरी पड़ी है. हंसीठट्ठे और हलकी कौमेडी के साथ यह फिल्म सामाजिक संदेश देने का काम बखूबी करती है. कटहल के नाम पर फिल्म ‘अंगूर’ बन गई सी लगती है.

फिल्म की मुख्य किरदार एक महिला है जो बसोर जाति से है. बसोर जाति के लोग अतीत से बांस से बने उत्पादों को बनाते रहे हैं. इन्हें दलित जाति में गिना जाता है जो उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश से संबंधित हैं. इस लिहाज से निर्देशक यशोवर्धन मिश्रा की तारीफ तो बनती है कि उन्होंने ऐसे समय किसी दलित नायिका को लीड लेने का विचार किया जब लगभग सभी फिल्मों में ऊंची जातियों के नायकनायिकाएंही दिखाए जा रहे हैं.

फिल्म में प्रशासनिक सिस्टम पर भी कटाक्ष किया गया है, जैसे हमारे देश की पुलिस नेताओंके दबाव में रहती है. अगर किसी गरीब की बच्ची गुम हो जाए या जवान बेटी को कोई उठा ले तो पुलिस उसे ढूंढनेमें उतनी मेहनत और संसाधन खर्च नहीं करती. मगर वहीं किसी वीवीआईपी या मंत्री की भैंस, कुत्ता या कटहल चोरी हो जाए तो पूरा पुलिस महकमा उसे ढूंढने में लग जाता है, भले ही प्रशासन के इस पर लाखों रुपए खर्च क्यों न हो जाएं.

ओटीटी पर रिलीज हुई ‘कटहल’ यानी जैकफ्रूट इसी तरह की फिल्म है. फिल्म में माननीय विधायक (मुन्नालाल पटेरिया) के बगीचे में पेड़ पर लगे 15-15 किलो के विदेशी प्रजाति के 2 कटहल चोरी हो जाते हैं. विधायक पटेरिया को मंत्री बनना है, जिस के लिए वे प्रदेश के सीएम को इंप्रैस करने के लिए कटहल का अचार भेजना चाहते हैं. समस्या यह है कि यही कटहल चोरी हो गए हैं. मामला हाईप्रोफाइल बन जाता है. कटहल को ढूंढने की जिम्मेदारी पुलिस अफसर महिमा बसोर को दी जाती है.

इस फिल्म में सान्या मलहोत्रा ने महिमा बसोर की भूमिका निभाई है. फिल्म में कई मौकों पर जातिवाद पर कटाक्ष किया गया है. छानबीन करने के दौरान महिमा बसोर के पैर विधायक पटेरिया के घर मेंबिछी महंगी कालीन पर पड़ जाते हैं. अब पटेरिया तिलमिला जाते हैं और महिमा को लताड़ते हुए पीछे हटने को कहते हैं, साथ ही, अपनी पत्नी से कालीन में गंगाजल छिड़कने को कह देते हैं.

महिमा केस की छानबीन करती है तो उसे पता चलता है कि विधायक के घर से माली गायब है. शक माली पर जाता है.माली जब मिलता है तो पता चलता है कि उस की खुद की किशोरी बेटी घर से गायब हो गई है.यहां एक घटना घटित होती है. जब वह थाने में माली को बैठने को कहती है तो माली जमीन पर बैठ जाता है. फिर महिमा उसे कुरसी पर बैठने को कहती है.

महिमा बसोर अब चिंता में आ जाती है कि कटहल ढूंढना जरूरी है या माली की बेटी. इस बीच, उसे पता चलता है कि ऐसी कई लड़कियां हैं जो लापता हो जाती हैं जिन्हें कोई ढूंढ ही नहीं रहा, और ये सारी गरीब, दलितों व अल्पसंख्यकों की लड़कियां हैं. वह दिमाग लगाती है और अनाउंस कर देती है कि माली की बेटी ने ही कटहल चुराया है ताकि पुलिस अब माली की बेटी को ढूंढने लग जाए.

इस बीच, कई घटनाक्रम हैं जो काफी गंभीर हैं, जैसे माली की बेटी को ढूंढते हुए पुलिस जब छानबीन करती है तो, चूंकि लड़की नीची जाति से होती है तो कहा जाता है कि उस के लक्षण ठीक नहीं हैं, गुटखा खाती थी, फटी जीन्स पहनती थी.

फिल्म में पैरलर लवस्टोरी भी है. महिमा बसोर अपने कलीग कांस्टेबल सौरभ द्विवेदी से प्यार करती है. सौरभ चूंकि ऊंची जाति से है और बसोर नीची से तो सौरभ के परिवार वाले शादी के लिए राजी नहीं, ऊपर से बसोर उस से रैंक मेंआगे है.महिमा एक जगह सौरभ से कहती है, ‘हम दोनों के बीच की दीवार मैं हर बार तोड़ने की कोशिश करती हूं लेकिन तुम हो कि उस में 2-3 ईंट जोड़ ही देते हो.

जांच में महिमा को एक बाहुबली हलवाई (रघुवीर यादव) के बारे में पता चलता है. वह ऐसी फरार लड़कियों को खरीदने का काम करता है और उन्हें आगे बेच देता है. महिमा उस हलवाई के प्रतिष्ठान पर छापा मारती है. माली की बेटी को उस बाहुबली ने 15 हजार रुपए में खरीदा था. वहां खूब मारधाड़ होती है. हलवाई को गिरफ्तार कर लिया जाता है.

फिल्म के क्लाइमैक्स में अदालत में जज महोदया चोरी हुई कटहलों की कीमत मंडी से पता कराती हैं तो पता चलता है कि इन 15-15 किलो के 2 कटहलों की कीमत 12 रुपए प्रतिकिलो है यानी कि 360 रुपए. जज महोदया की यह टिप्पणी कि 360 रुपए के कटहलों के लिए प्रशासन ने हजारों रुपए स्वाहा कर डाले. तो ऐसी है हमारे सिस्टम की बदहाली की कहानी.

फिल्म में किरदार बहुत बढ़िया से लिखे गए हैं, जैसे कांस्टेबल मिश्रा जी हैं जिन की बेटी की शादी होनी है लेकिन दहेज़ में देने वाली उन की गुलाबी रंग की नैनो कार चोरी हो गई है. इस के अलावा एक दूसरी महिला कांस्टेबल है जिस का पति जिला कोर्ट में जज है. उस के ऊपर घर के कामों को करने की जिम्मेदारी है. उस का पति उस के काम को कम ही आंकता है.

इन सब के बीच सब से ज्यादा लाइमलाइट लेने वाले यूट्यूब चैनल चलाने वाले अनुज पत्रकार (राजपाल यादव) हैं. वे चतुर किस्म के हैं. हर छोटी खबर को सनसनी बनाने पर तुले रहते हैं. एक जगह उन एक डायलौग है कि, ‘“धक्का काहे मार रहे हो, चौथे खंबे को गिरा दोगे क्या?’” अनुज के किरदार में राजपाल जमा है. उसे दलित लड़कियों की खबर चलाने के मामले में द्रोह के केस में जेल हो जाती है.

फिल्म में अमीरगरीब, ऊंचीनीची जाति इन सबके भेददिखाते हुए बिलकुल नाजायज नहीं लगती. फिल्म में दिखाया गया है कि कैसे खुद को समाज का स्वयंभू समझने वाला तबका अपनी जाति की अकड़ और घमंड अब भी साधे हुए है. पटेरिया है जो सत्ता तक पहुंचा है और जातीय घमंडसे लबालब है. मिश्रा जो कि गरीब है और रीतिनीति से परेशान है पर जातीयता का भाव उस में भी है. गांव के सवर्ण की दलितों के प्रति घृणा वाली ही नजर है. प्रेमी द्विवेदी है जो जातिवाद नहीं मानता पर उसे मिले उच्चजातीय संस्कार ऐसे हैं कि वह निचलों की भावनाओं को भी नहीं समझ पा रहा.

फिल्म की इस कहानी में कुछ कमियां भी हैं. पुलिस सिस्टम में एक कांस्टेबल प्रमोशन पा कर सीधे सब इंस्पैक्टर नहीं बन सकता. सान्या मलहोत्रा ने इंस्पैक्टर के रोल में बढ़िया अभिनय किया है. विजयराज छोटे रोल में है, मगर दमदार है. अन्य कलाकार साधारण हैं. फिल्म में सामाजिक व्यवस्था पर भी प्रहार किया गया हैजहां समर्थ आदमी के कटहल चोरी होने पर उस की सुनवाई है वहीं गरीब आदमी की बेटी के गुम होने पर भी कोई सुनवाई नहीं है.

गीतसंगीत साधारण है. कहानी और पटकथा और मेहनत मांगती है. सिनेमेटोग्राफी अच्छी है.

सुशांत के फैंस के निशाने पर आईं अंकिता लोखंडे, इस वजह से हुई ट्रोल

जब भी सीरियल पवित्र रिश्ता कि बात आती है उस वक्त अर्चना और मानव की याद सबको आ जाती है, यह दोनों एक आइडियल कपल थें, दोनों को साथ में देखना लोगों को काफी ज्यादा पसंद था. इस शो को टेलीकास्ट हुए 14 साल हो गए हैं, अब इस शो का मानव इस दुनिया में नहीं रहा, लेकिन फैंस आज भी मानव को याद करते हैं.

अंकिता लोखंडे ने सोशल मीडिया पर एक वीडियो शेयर किया है जिसमें पुरानी यादों का काफी ज्यादा पिटारा भरा हुआ है, फैंस भी इस पोस्ट को देखकर एक बार भावुक हो गए हैं, अंकिता ने पोस्ट शेयर करते हुए लिखा है 14 साल पवित्र रिश्ता के. वहीं इस पोस्ट के बाद से कुछ यूजर्स अंकिता को ट्रोल करना भी शुरू कर दिए हैं.

दरअसल, अंकिता ने जो वीडियो शेयर किया है, उसमें सुशांत सिंह राजपूत कहीं भी नजर नहीं आ रहे हैं, अंकिता ने लिखा है कि पवित्र रिश्ता के 14 साल फ्रैश कनेक्टेड फिल होता है. जब भी नाम आता है तो एक नाम अर्चू का हमेशा याद रहता है.

मैं इस सीरियल को देखने के लिए हमेशा से अभारी हूं, दरअसल, जो बात ध्यान खींचा है वो है अंकिता लोखंडे ने इस वीडियो से सुशांत सिंह राजपूत को हटा दिया है, सुशांत सिंह राजपूत किसी भी वीडियो में नहीं है.

यूजर्स ने एक कमेंट करते हुए लिखा है कि सॉरी ये पोस्ट मानव के बिना अधूरा है इसलिए इस पोस्ट में मानव को डालना चाहिए था, बता दें कि सुशांत सिंह राजपूत की मौत 14 जून 2020 को हुई थी.

Yrkkh: अबीर पूछेगा अभिनव से तीखे सवाल, जानें फिर क्या होगा

टीवी सीरियल ये रिश्ता क्या कहलाता है में इन दिनों लगातार नए-नए ड्रामे देखने को मिल रहे हैं,  इन दिनों सीरियल में दिखाया जा रहा है कि अबीर को सारी सच्चाई का पता चल गया है, इस बात का पता लगते ही सभी घर वाले हैरान हो जाते हैं.

आने वाले एपिसोड में देखऩे को मिलेगा कि अभिनव से अबीर तीखे सवाल करता दिखेगा, सीरियल में दिखेगा कि अबीर अभिमन्यु और अभिनव से चिल्ला-चिल्ला कर सवाल करता नजर आएगा,

 

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अबीर अभिनव से पूछता है कि आप मुझे इतना प्यार क्यों करते हो, तो अभिनव कहता है कि आप मेरे पड़ोसी ही नहीं मेरे निक्की जी भी हो, इसलिए आपको प्यार करता हूं, तो फिर अबीर कहता है कि आप मेरे असली पापा नहीं है, तब भी आप मुझे इतना प्यार क्यों करते हैं. इस सवाल पर अभिनव की बोलती बंद हो जाती है.

वहीं आगे सीरियल में देखने को मिलेगा कि कायरव अपने बड़े पापा के गोद में आकर बैठ जाता है और कहता है कि वह मुस्कान के बिना नहीं जी सकता है. वहीं सुरेखा को मुस्कान पसंद नहीं आती है. कायरव की बात सुनकर मनीष गोयनका कहते हैं कि बस मुस्कान को मना लो,

सीरियल में आगे पता चलता है कि अक्षरा अभिमन्यु को एग्जाम हॉल में छोड़ने जाता है, लेकिन रास्ते में अभि को रूही का फोन आ जाता है कि वह जल्दी से मिलना चाहती है.

आकाश से भी ऊंचा: क्या रानो को अपना बना पाया शलभ

लेखिका- छाया श्रीवास्तव

त्याग की गाथा- भाग 2: पापा को अनोखा सबक

‘‘ऐसा नहीं कहते, बेटा,’’ साधना ने आगे बढ़ कर रज्जू के होंठों पर हथेली रखते हुए कहा, ‘‘तेरे पापा तो देवता हैं, बेटे. हमारे सुख के लिए निर्वासित सा जीवन बिता रहे हैं. हम सब मिल कर इस बार तेरे पापा से साफ कह देंगे कि या तो हमें साथ ले चलें या नौकरी छोड़ कर यहां चले आएं. रज्जू, मेहनत की तो तुम भी लैक्चरर बन ही जाओगे.’’

रज्जू ने मां से पैसे ले, आज्ञानुसार पर्स में रख और मुसकराता हुआ चल दिया.
साधना गृहस्थी के कामों में व्यस्त हो जाना चाहती थी, क्योंकि उस के पास यही तो एक तरकीब थी, जिस से श्रीकृष्ण शर्मा की मचलती स्मृतियों को समझाया करती थी. उस ने सिटकनी लगा दी. रज्जू के पिता की तसवीर को स्नेहपूर्वक आंचल से साफ किया और नतमस्तक खड़ी हो गई. उस की आंखें श्रद्धावश स्वत: ही मूंदने लगीं. सपने उमड़नेघुमड़ने लगे. उसे अब तक का सबकुछ चलचित्र सा तैरने लगा. उस के समक्ष, श्रीकृष्ण का रस भीगा मादक स्वर लहराया, ‘‘साधना, रज्जू को यह अहसास तक न हो कि तुम उस की मां नहीं हो. औलाद का सुख और विमाताओं के व्यवहारगत दुख को सुन कर, मैं तो दूसरी शादी के लिए कतई तैयार नहीं हूं, साधना आज से रज्जू और दोनों बच्चों की तमाम जिम्मेदारियां तुम्हें सौंप कर, मैं मुक्त होता हूं… इसी आशा के साथ तुम कभी भी मेरे विश्वास को आहत न होने दोगी.’’

‘‘अब आप के विश्वास की रक्षा करना ही तो मेरा धर्म है. आप ने जो किया है, वह तो कोई अपने सगों के लिए भी नहीं करता,’’ वह केवल इतना ही बोल पाई थी.

समय कब आया, कब गया, उस को पता तक नहीं चल पाया, क्योंकि उस का सारा ध्यान तो श्रीकृष्ण के विश्वास की रक्षा में संलग्न रहा. रज्जू, दीपू, मंजू को किसी भी तरह के अभाव का एहसास नहीं होने दिया.
श्रीकृष्ण पूरी तरह आश्वस्त हो चले थे कि कहीं कोई गड़बड़ नहीं हो सकती. और शायद तभी करीबकरीब दो साल पहले उन्होंने खुश हो कर कहा था, ‘‘साधना यह देखो, यह और्डर, तुम्हें याद होगा, कुछ माह पहले मैं ने दिल्ली के एक कालेज में प्रोफैसर की जगह के लिए इंटरव्यू दिया था, वह मुझे मिल गया है. सब तुम्हारे आने से ही हुआ है.

“साधना, वरना जिंदगीभर मैं इस प्राइवेट कालेज में ही सड़ता रहता.’’

‘‘कब तक ज्वाइन करना है?’’ वह बमुश्किल अपनी खुशी को दबाते हुए बोली.

‘‘बस, इसी सप्ताह में.’’

वह असमंजस में पड़ गई कि इतनी जल्दी यहां का सबकुछ कैसे समेटा जा सकेगा. दुविधापूर्ण स्थिति भांप कर वह बोले, ‘‘क्या सोच रही हो, नहीं ज्वाइन करूं यह नौकरी?’’

‘‘नहीं, नहीं, यह बात नहीं है. भला ऐसी नौकरी बारबार मिलती है? मैं तो सोच रही थी कि इतनी जल्दी यह सब कैसे हो सकेगा? रज्जू को कालेज से निकालना होगा, दीपू और मंजू को स्कूल से… इस अपने मकान की भी व्यवस्था करनी होगी, क्योंकि आजकल के किराएदार तो…’’

‘‘लेकिन साधना, अभी तो मुझे अकेले ही जाना है,’’ बात काट कर वह बोले.

‘‘बच्चों की पढ़ाई है, मकान की देखभाल है और… मैं एकदो माह में आताजाता रहूंगा ही, भला भोपाल और दिल्ली में फासला ही क्या है, बैठे कि 12 घंटे में यहां से वहां, वहां से यहां. इस पत्र के बाद जैसे ही मकान की व्यवस्था होगी, हम वहां चले जाएंगे.’’

श्रीकृष्ण का आदेश, भगवान का आदेश, अत: वह बोलती भी क्या. मन श्रद्धा से भर गया कि उस के वह वास्तव में कितने महान हैं, जो पत्नी, बच्चों के सुख के निमित्त इतनी दूर अकेले जा रहे हैं. पहली बार दो माह में आए थे. सब के लिए ढेर सारी चीजें भी लाए थे, लेकिन मकान न मिलने की शिकायत करते हुए बोले थे, ‘‘सच, साधना, तुम्हारे और बच्चों के बिना एकएक दिन वर्षों सा लगता है. बच्चों की इतनी याद आती है कि अकसर सबकुछ बरदाश्त करना पड़ता है. सबकुछ.’’

धीरेधीरे आने का समय लंबा होता गया और मकान न मिलने का जिक्र भी.
अकसर अड़ोसपड़ोस के लोग और जो नए दोस्त बने थे, वे भी पति के इस त्याग की सराहना करते हुए कहते हैं कि भई डाक्टर शर्मा आदमी के रूप में फरिश्ता हैं, फरिश्ता, जो अपने परिवार के लिए समस्त सुखों को इस प्रकार तिलांजलि दे कर बाहर पड़े हैं.

पति की इस तरह प्रशंसा सुनसुन कर साधना का मन पुलकित हो जाता है, क्योंकि उन की प्रशंसा में उस को अपनी प्रशंसा का भी तो अहसास होता है.
साधना उद्विग्न हो चली. उस के कोमल हृदय से कई शंकाएं आ कर टकराने लगीं. गंभीरता से बोली भी, ‘‘रज्जू, एमएससी में प्रथम श्रेणी मिलने की खबर पापा को, मेरा मतलब, अपने पापा को दी? कितनी खुशी होगी यह जान कर कि उन के रज्जू ने यूनिवर्सिटी में टौप किया है.’’

‘‘माफ करना, मां, पापा को खबर देना तो भूल ही गया मैं.’’

इस बार साधना खीज कर बोली, ‘‘तुम्हें याद रहता ही क्या है, रज्जू? उस दिन पर्स रखवाए.”

‘‘मां, उस दिन तो मैं ने पापा को मैसेज तो दे दिया था,’’ नम्रता से बोला रज्जू, ‘‘लेकिन, अपनी सफलता की बात मैं पापा को आप के मुंह से कहलवाना चाहता था यहां आने पर, क्योंकि मेरी इस सफलता का सारा श्रेय आप को है, मां.’’

इस बार साधना उदास हो कर बोली, ‘‘लेकिन, तेरे पापा अब शायद ही आएं. गरमी की छुट्टियां तो…’’

‘‘पापा को किसी विशेष काम की व्यस्तता होगी, मां,’’ रज्जू ने भाईबहन की तरफ देख कर कहा. ‘‘आप, तो बेकार चिंतित रहती हैं.’’

‘‘ऐसी भी क्या व्यस्तता, रज्जू, कि बच्चों को ही भूल जाएं.’’

मां की रोआंसी आवाज से रज्जू जमीन ताकने लगा. मां की व्यथा उस की अपनी व्यथा थी. लेकिन वह कर भी क्या सकता था?

‘‘रज्जू बेटे, एक काम करें?’’ साधना ने उस की विचार श्रृंखला को तोड़ते हुए कहा, ‘‘क्यों न हम ही दिल्ली हो आएं. अभी तो बच्चों की कुछ छुट्टियां बाकी हैं. लगे हाथ आगरा का ताजमहल भी देखते आएंगे. हो सकता है, तुम्हारे पापा वहीं तुम्हारी नौकरी की भी व्यवस्था करवा दें. क्या विचार है?’’

रज्जू को मां का प्रस्ताव बहुत ही अच्छा लगा – काश, ऐसे ही प्रस्ताव मां यदाकदा रखतीं, तो शायद आज उस को इस कदर परेशान नहीं होना पड़ता. दिल्ली और आगरा घूमने की बात सुन कर दीपू, मंजू ने तो सारा घर ही सिर पर उठा लिया. साधना मन ही मन पति मिलन की अदम्य लालसावश शून्य में झांकने लगी, जहां शायद उस के जीवन के विविध चित्र बनतेमिटते जा रहे थे.

रज्जू गंभीर था, जबकि दीपू, मंजू चहक रहे थे. साधना शिकायत करने के लिए, लंबाचौड़ा शिकायतनामा तैयार कर रही थी. शताब्दी ट्रेन की गति तीव्र ही थी, लेकिन प्राय: सभी को उस के धीमेपन का एहसास हो रहा था. न खाने में मन था, न सोने में दिलचस्पी और न ही बतियाने की इच्छा ही.

‘‘रज्जू, अपने पापा को मैसेज दे दिया था न?’’

रज्जू ने चौंक कर कहा, ‘‘हां, मां. पर मां, आप अपना मोबाइल क्यों नहीं…’’ फिर कहताकहता वह रुक गया. वह जानता था कि मां किसी तरह का कागज अपने नाम से नहीं बनवाती थीं.

‘‘तब तो स्टेशन पर आएंगे वह?’’

‘‘आएंगे ही देखो, मां, पता नहीं क्या होता है और क्या नहीं.’’

रज्जू की अटपटी बातों से साधना को जरा गुस्सा आ गया और वह एक तरफ मुंह कर के बैठ गई, सोचती हुई कि शिकायतनामे में एक शिकायत यह भी जोड़नी है कि रज्जू की शादी कर दो, ताकि इस का तीखापन कम हो सके.

नई दिल्ली स्टेशन पर भीड़भाड़ भी थी. लोगों को बाहर निकलने की जल्दी थी. सब की आंखें चुंधिया गईं. महानगर का सजासंवरा विशाल स्टेशन. रज्जू दो बार यहां से वहां तक प्लेटफार्म से प्लेटफार्म चक्कर लगा आया, लेकिन पापा का कहीं पता नहीं था. हताश हो कर वह भी मां के पास आ कर बैठ गया. काफी समय बैठेबैठे ही बीत गया, तो साधना बोली, ‘‘रज्जू, तुम ने अपने पापा को मैसेज तो कर दिया था न, कहीं जल्दीजल्दी में भूल गए हों?’’

इस बार सारी खीज निकालने की गरज से रज्जू बोला, ‘‘आप बातबात पर अविश्वास करने लगी हैं आजकल, यह क्या अच्छी आदत है? यह देखिए, मैसेज फिर?’’

एक प्यार पड़ोस में- भाग 2

“सुधा कुछ पूछना चाह रही थी. अब आप हमारे पड़ोसी हैं, आप को तो इस की मदद करनी ही पड़ेगी,’’ मम्मी का मातृत्व सुधा के लिए था.

‘‘जी… बिलकुल. वैसे तो सुधा स्वयं ही बहुत होशियार है, पर फिर भी यदि उसे मेरी मदद की जरूरत होगी, तो मैं जरूर करूंगा.”

मम्मी मौन हो गईं. वे चाहती थीं कि अब आगे सुधा ही बोले.

‘‘जी… मैं आप से माफी मांगने आई हूं. अनजाने में मैं ने आप के लिखे लेख को ही आप के सामने बोल दिया,’’ सुधा का सिर झुका था.

कमिल को सुधा का यों संस्कारित रूप बहुत अच्छा लगा.

‘‘नहीं, मैं पहले भी बोल चुका हूं कि इस में माफी मांगने जैसा कुछ नहीं है.’’

‘‘पर, फिर भी.’’

कमिल उठते हुए बोला, ‘‘मैं चाय बनाता हूं.’’

‘‘नहीं, हमें कुछ नहीं पीना. आप बैठिए,’’ सुधा समझ गई थी कि कमिल इस विषय पर बात नहीं करना चाह रहे हैं.

‘‘चाय तो पीनी ही पड़ेगी. आप लोग पहली बार मेरे घर… नहीं, कमरे पर आए हैं,’’ कमिल ने उठ कर स्टोव जलाना शुरू कर दिया था.

‘‘आप बैठिए, मैं चाय बना देती हूं,’’ सुधा उस के करीब पहुंच चुकी थी.

चाय सुधा ने ही बनाई.

लौटते समय सुधा की मम्मी कमिल को शाम का खाना उन के यहां खाने का निमंत्रण दे गईं.

उन दोनों के बीच बातों का सिलसिला प्रारंभ हो चुका था. धीरेधीरे रिश्ते अनौपचारिक होते चले गए. कमिल अकसर सुधा के घर ही खाना खाता या सुधा खाने का डब्बा ले कर उस के कमरे पर आ जाती.

कमरे की एक चाबी अब सुधा के पास रहने लगी थी. शाम को जब कमिल लौटता, तो उसे अपना कमरा सजासंवरा मिलता. वह समझ जाता कि सुधा ने कालेज से लौटने के बाद यहां साफसफाई की होगी. कई बार तो सुधा उस के कमरे में उस का इंतजार करती मिलती.

‘‘आज लेट क्यों हो गए आप…?’’ सुधा के प्रश्न में उस का अधिकार नजर आता.

‘‘अरे, वह एक प्रैस कौंफ्रैंस में जाना पड़ा…’’

जब तब कमिल कपड़े बदल कर मुंहहाथ धोता, तब तक सुधा उस के लिए चाय बना देती.

‘‘तुम्हारे हाथों की चाय में अजीब सी मिठास आती है,’’ कमिल ऐसा सच ही कहता था. यह सुन कर सुधा के चेहरे पर आत्मीय मुसकान आ जाती.

सुधा का परिवार कमिल को अपने परिवार के सदस्य के रूप में स्वीकार कर चुका था. सुधा और उस के बीच में एक अव्यक्त रिश्ता महसूस होने लगा था.

वैसे तो महल्ले में शायद ही कोई ऐसा घर होगा, जहां कमिल का आनाजाना न हो. घर के बुजुर्गबच्चे यहां

तक कि महिलाएं तक कमिल को अपने परिवार का सदस्य ही मानते थे. कमिल हरेक के सुखदुख में उन के साथ होता. पड़ोस की एक आंटी के घर बिटिया की शादी की रस्म तब तक शुरू नहीं हुई, जब तक कि कमिल वहां आ नहीं गया था.

‘‘मैं ने कहा था न आंटी कि मुझे देर हो जाएगी, पर आप भी…’’

आंटी ने कमिल के कान खींचे, “बहन की शादी है और साहब औफिस में बैठे हैं…’’

सुधा के लिए कमिल अब हवापानी से ज्यादा जरूरी हो गया था. अकसर वह कमिल के साथ ही कालेज जाती. यहां तक कि बाजार भी जाना हो तो कमिल का ही इंतजार करती.

‘‘तुम से कितनी बार कहा है कि अपनी जरूरतों की चीजें खुद खरीदा करो… मेरा इंतजार मत किया करो…. मैं महिलाओं के चक्कर में पड़ कर अपना समय खराब नहीं करना चाहता… समझी न…’’

कमिल वाकई झल्ला पड़ता, पर सुधा हंसती रहती, ‘‘मैं क्या करूं… सड़क पर खड़े किसी भी व्यक्ति के साथ बाजार चली जाऊं… फिर तुम ही कहोगे कि कैसे आवारा सी घूमती फिरती हो…’’

ऐसा सुन कर कमिल हाथ जोड़ लेता.

‘‘अब चलो जल्दी से. मुझे एक आर्टिकल भी लिखना है,’’ कमिल की मोटरसाइकिल पर बैठ कर सुधा बाजार चली जाती.

‘‘आंटी, जरा सुधा को समझा लो. बाजार में लगभग 2 घंटे लगा दिए. मेरा तो समय ही बेकार कर दिया. मुझे कितना जरूरी आर्टिकल लिखना था.’’

यह सुन कर आंटी हंस पड़तीं, ‘‘मैं तुम्हारे झगड़े में नहीं पड़ने वाली.’’

कमिल रामलीला के मंचन से अपनेआप को दूर रखना चाहता था, पर महल्ले की कमेटी उसे ऐसा करना नहीं देना चाहती थी.

कमिल के बिना महल्ले में पत्ता भी हिल जाए, यह तो संभव है नहीं, फिर इतनी बड़ी रामलीला में कमिल दूर रहे, यह कैसे हो सकता है.

बेमन से कमिल ने निर्देशन का काम अपने हाथ में ले लिया था, ताकि वह इस में सहभागी भी रहे और काम का बोझ भी न रहे. पर, सुधा ने सब गड़बड़ कर दिया.

राम का अभिनय कमिल के सिर पर आ कर बैठ गया, तो उसे ज्यादा समय इस के लिए निकालना पड़ रहा था. ऊपर से सुधा सिर पर सवार रहती. उसे भी अभिनय सिखाना पड़ता. इस के बाद भी वह राम की जगह कमिल बोल देती. वह सिर पकड़ कर बैठ जाता.

‘‘सिर दुखने लगा क्या… सिर में इतनी खाली जगह रखोगे तो वह दुखेगा ही, मेरी तरह कुछ नहीं तो भूसा ही भर लो. कम से कम दुखेगा तो नहीं,’’ सुुधा उसे चिढ़ाने का प्रयास करती.

‘‘मैं तुम्हारी चोटी पकड़ कर तुम्हें मारीच बना दूंगा, पगली कहीं की.’’

‘‘चलो, अच्छा है, इस बहाने तुम मुझे छू तो लोगे और वैसे भी महिलाओं को शूर्पणखां बनाया जाता है, मारीच नहीं,’’ ऐसा कह सुधा हंस पड़ती.

सुधा की कालेज की पढ़ाई पूरी हो चुकी थी. सुधा उस के साथ ही अखबार के दफ्तर में काम करने लगी थी. कमिल ने उसे बहुत समझाया था कि पत्रकारिता बहुत आसान काम नहीं है, पर वह नहीं मानी थी. सच तो यह है कि वह इसलिए भी इस काम को करना चाह रही थी कि उसे कमिल के साथ ज्यादा वक्त बिताने को मिलेगा और मिल भी रहा था. कमिल जहां जाता, मजबूरन उसे सुधा को भी साथ ले कर जाना पड़ता.

फर्ज की याद : गणेशी के हाथ से सुनील ने क्यों नही पिया पानी

जब से सुनील शर्मा इस दफ्तर में प्रमोशन ले कर आए हैं तब से वे कभी चपरासी गणेशी से पानी नहीं मंगाते हैं. वे खुद ही उठ कर पी आते हैं, चाहे मेज पर कितना भी काम हो.

गणेशी कई दिनों से सुनील शर्मा की इस आदत को देख रहा था. आज भी जब वे पानी पी कर अपनी मेज पर आ कर बैठे तब गणेशी आ कर बोला, ‘‘बाबूजी, एक बात कहूं…’’

‘‘कहो,’’ सुनील शर्मा ने नजर उठा कर गणेशी की तरफ देखा.

‘‘जब से आप आए हो, उठ कर पानी पीते हो.’’

‘‘हां, पीता हूं,’’ सुनील शर्मा ने सहजता से जवाब दिया.

‘‘आप मुझे आदेश दे दिया करें न, मैं पिला दिया करूंगा. आखिर मेरी ड्यूटी पानी पिलाने की ही है,’’ गणेशी ने सवालिया निगाहों से पूछा.

‘‘देखो गणेशी, मेरा उसूल है कि अपना काम खुद करना चाहिए,’’ सुनील शर्मा ने अपनी बात रखी.

‘‘ऐसी बात नहीं है बाबूजी, आप मेरे हाथ का पानी पीना नहीं चाहते हैं,’’ गणेशी ने यह कह कर गुस्से से सुनील शर्मा को देखा.

सुनील शर्मा तुरंत कोई जवाब नहीं दे पाए. गणेशी फिर बोला, ‘‘मगर, मैं सब जानता हूं बाबूजी, आप मेरे हाथ का पानी क्यों नहीं पीना चाहते हैं.’’

‘‘क्या जानते हो?’’

‘‘मैं अछूत हूं, इसलिए आप मेरा दिया पानी नहीं पीना चाहते हो.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है गणेशीजी, मैं छुआछूत को नहीं मानता हूं.’’

‘‘फिर मुझ से पानी मंगा कर क्यों नहीं पीते हो?’’

‘‘देखो गणेशीजी, आप चपरासी हो. मैं जब से इस दफ्तर में आया हूं, किसी को आप ने अपनी मरजी से पानी नहीं पिलाया. जिस बाबू ने पानी पीने के लिए कहा तब कहीं जा कर आप ने पिलाया…’’ समझाते हुए सुनील शर्मा बोले, ‘‘इसी बात को मैं कई दिनों से देख रहा था, जबकि तुम्हारा यह फर्ज बनता है कि बाबुओं को बिना मांगे पानी पिलाना चाहिए.’’

‘‘बाबूजी, जब प्यास लगती है तभी तो पानी पिलाना चाहिए.’’

‘‘नहीं, यही तो आप गलती कर रहे हो. बिना मांगे पानी ले कर हर मेज पर पहुंच जाना चाहिए. यही एक चपरासी का फर्ज होता है…’’ समझाते हुए सुनील शर्मा बोले, ‘‘यही वजह है कि मैं खुद उठ कर पानी पीता हूं. आप ने आज तक अपनी मरजी से मुझे पानी नहीं पिलाया है.’’

‘‘अरे बाबूजी, आप ही पहले ऐसे आदमी हो वरना सभी बाबू मांग कर पानी पीते हैं. आप ही ऐसे हैं जो मुझे अछूत समझ कर पानी नहीं मंगाते हो,’’ गणेशी ने आरोप लगाते हुए कहा.

सुनील शर्मा सोच में डूब गए. गणेशी उन की बात का उलटा मतलब ले रहा है. वे कुछ और जवाब दें, इस से पहले ही साहब की घंटी बज उठी. गणेशी साहब के केबिन में चला गया.

सुनील शर्मा मन ही मन झुंझला उठे. पास की मेज पर बैठे मुकेश भाटी बोले, ‘‘शर्माजी, देख लिए गणेशी के तेवर. आप की बात का उस पर कोई असर नहीं पड़ा.’’

‘‘हां भाटीजी, असर तो नहीं पड़ा,’’ उन्होंने भी स्वीकार करते हुए कहा.

‘‘इसलिए मैं कहता हूं कि अपने उसूल छोड़ दो वरना यह आप पर छुआछूत बरतने का केस दायर कर देगा…’’ समझाते हुए मुकेश भाटी बोले, ‘‘फिर कचहरी के चक्कर काटते रहना क्योंकि कानून भी इस का ही पक्ष लेगा.’’

‘‘देखो भाटीजी, मैं तो उस को अपने फर्ज की याद दिला रहा था.’’

‘‘कोई जरूरत नहीं है शर्माजी. जिस को अपना फर्ज समझना ही नहीं है उसे याद दिलाना फुजूल है. उस से बहस कर के खुद का सिर फोड़ना है. फिर मेरा काम था समझाने का समझा दिया. आप अपने उसूलों पर ही रहना चाहते हो तो रहो. कल को कुछ हो जाए, तो फिर मुझे कुछ मत कहना,’’ कह कर मुकेश भाटी अपने काम में लग गए.

सुनील शर्मा के भीतर इन बातों को सुन कर हलचल मच गई. अब पहले वाला जमाना नहीं है. सरकार भी रिजर्वेशन के तहत सब महकमों में इन की भरती करती जा रही है, इसलिए चपरासी से ले कर अफसर तक ये ही मिलेंगे.

जिस परिवार में सुनील शर्मा का जन्म हुआ है, वह ब्राह्मण परिवार है. 1970 के पहले उन का ठेठ देहाती गांव था. छुआछूत का जोर था. किसी अछूत को छूना भी पाप समझा जाता था, इसलिए वे गांव में ही अलग बस्ती में रहते थे.

सुनील शर्मा के पिता गंगा सागर गांव में शादीब्याह कराने और कथा बांचने का काम करते थे. वे यह काम केवल ऊंची जाति वालों के यहां किया करते थे. निचली जाति के लोगों के यहां कर्मकांड के लिए वे मना कर दिया करते थे.

गांव की दलित बस्ती गंगा सागर से बहुत नाराज रहती थी. मगर वे कर कुछ नहीं पाते थे, क्योंकि उन की चलती ही नहीं थी.

जब कोई दलित किसी काम से गंगा सागर के पास आता था, तो वे उन्हें बाहर बिठा कर संस्कार करा देते थे. बदले में वे कुछ सिक्के देते थे, जिन्हें वे जमीन पर ही रखवा देते थे. तब यजमान मखौल उड़ा कर कहते थे, ‘पंडितजी, यह कैसा नियम. मेरे हाथ से नहीं लिया, मगर हाथ से अपवित्र सिक्के को आप ने ग्रहण कर लिया तो अपवित्र नहीं हुए.’

बदले में गंगा सागर संस्कृत में शुद्धीकरण के श्लोक पढ़ कर उसे शुद्धी का पाठ पढ़ा देते थे.

उस समय दलितों में कूटकूट कर अपढ़ता भरी थी. विरोध करने के बजाय वे सबकुछ सच मान लेते थे. गांव में कोई गंगा सागर को दलित दिख जाता, तो वे उस से बच कर निकलते थे.

मगर जैसेजैसे दिन बीतते रहे, छुआछूत की यह परंपरा शहरों में खत्म होने के साथसाथ गांवों में भी खत्म होने लगी थी. अब तो न के बराबर रही है. अब भी कुछ पुराने लोग हैं जो छुआछूत को मानते हैं क्योंकि वे उसी जमाने में जी रहे हैं.

सुनील शर्मा को आज नौकरी करते हुए 32 साल हो गए हैं. इन 32 सालों में उन्होंने बहुतकुछ देख लिया है. रिटायरमैंट में 3 साल बचे हैं. गणेशी जैसे कितने ही लोग हैं जो इस दलित अवसर को भुनाना चाहते हैं. इन को सामान्य वर्ग के प्रति हमेशा से नफरत थी, जो विष बीज बन कर वट वृक्ष

बन गई है. सरकार ने साल 1989 में इन के लिए जातिसूचक शब्द का इस्तेमाल करने पर बैन लगा दिया है, तब से ही इन के हौसले बढ़ने लगे हैं.

‘‘अरे शर्माजी, पानी पीयो,’’ इस आवाज से सुनील शर्मा की सारी विचारधारा भंग हो गई.

गणेशी गिलास लिए उन के सामने खड़ा था. उन्होंने गटागट पानी पी कर वापस उसे गिलास थमा दिया.

गणेशी बोला, ‘‘बाबूजी, आप ने मुझे मेरा फर्ज याद दिला दिया.’’

‘‘वह कैसे गणेशीजी?’’ हैरानी से सुनील शर्मा ने पूछा.

‘‘देखिए बाबूजी, अब तक जो मांगता था, उसे ही मैं पानी पिलाता था, मगर आप ने यह कह कर मेरी आंखें खोल दीं कि पानी तो हर मेज पर जा कर पिलाना चाहिए, इसलिए आज से ही मैं ने आप से शुरुआत की है.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छा काम किया गणेशीजी. चलो, मेरी बात पर आप ने गौर तो किया.’’

‘‘हां बाबूजी, अब मुझे किसी को फर्ज की याद दिलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी,’’ कह कर गणेशी चला गया.

मगर सुनील शर्मा उस में अचानक आए इस बदलाव को देख कर हैरान थे.

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