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मृत्युभोज : मौत का जश्न और लूट

मृत्युभोज जीमने से पहले इस नन्हे से बालक पर गौर कीजिए. थाली पर बैठने से पहले इस बच्चे की मासूमियत पर अपनी नजर दौड़ाइए, फिर खाने का निवाला मुंह में लीजिए. इस बच्चे की 5 साल बाद की तसवीर देखिए. जब यह अपनी मां की मेहनत से तैयार की गई फसल को बेच कर आप के एक वक्त के भोजन का ब्याज चुकाएगा.

स्कूल तो दूर की बात, यह दिनरात खेत में धूप में पसीने से तरबतर फटे कपड़ों से शरीर को ढकते हुए आप के एक वक्त के भोजन के एकएक कोर का हिसाब करेगा. आप का एक दिन का पेट एक मासूम को जिंदगीभर भूखा रख देगा. यह बड़े अफसोस की बात है. आप खुद को पढ़ालिखा सभ्य इंसान मानते होंगे, मगर आप एक शैतान से भी बदतर प्राणी हो क्योंकि नरभक्षी शैतान एक झटके में ही मार डालता है, लेकिन आप ही समाज के लोग इस बच्चे को कर्ज में दबा कर तिलतिल मारने पर मजबूर कर रहे हो.

2 या 3 तरह की देशी घी की मिठाइयां, पूड़ी, 2-2 सब्जियां, फिर अफीम, डोडा पोस्त, बीड़ी, जर्दा लाओ तब जा के होता है मृत्युभोज. और वो ही लोग 12वें दिन तक खापी कर बोलेंगे, ‘इन्होंने किया ही क्या?’

इस मासूम बच्चे की तरह ही उन तमाम बच्चों को मृत्युभोज कराना पड़ता है जिन के मांबाप अचानक किसी ऐक्सीडैंट या बीमारी के चलते अकाल मौत के शिकार हो जाते हैं. मांबाप की मौत के बाद असहाय, रोतेबिलखते बच्चों को समाज व परिवार के सहारे व संबल की जरूरत होती है जबकि उन पर मृत्युभोज का बोझ  लाद दिया जाता है, चाहे वे जमीन बेच कर मृत्युभोज कराएं या कर्जा ले कर.

एक सच्ची दास्तान

इसी तरह की एक सच्ची दास्तान से गुजरे हैं प्रेमसिंह सिहाग जो आज दिल्ली एम्स हौस्पिटल में नर्सिंग औफिसर के पद पर सेवारत हैं और राजस्थान के जोधपुर के ग्रामीण इलाके के रहने वाले हैं.

वे कहते हैं, “मैं डेढ़ साल का था और मेरे पिताजी गुजर गए. समाज के सफेदपोश लोगों ने मिल कर मृत्युभोज किया. मेरी विधवा मां ने दशकों तक कर्ज के बोझ को ढोया. हम 2 भाई व एक बहन का पेट भरने के लिए रात में खुद के खेत में काम करती व दिन में मजदूरी के लिए दूसरों के खेतों में काम करती थी.

“बड़े भाई की पढ़ाई छूट गई. भाई 14 साल की उम्र में स्टील फैक्ट्री में एक मजदूर बन गया. हम दोनों बहनभाई स्कूल जाने लगे. अकाल पड़ गया. घर में कुछ खाने को नहीं था. आसपड़ोस में उम्मीदभरी नजरों से देखा, मगर मायूसी मिली. दोनों बहनभाई ननिहाल उम्मीद ले कर गए थे मगर उन की हालत भी ज्यादा ठीक नहीं थी.

“एक दिन उपवास में कटा व अगले दिन नानी कुछ बाजरी ले कर आई. उस साल अकाल में राशन वितरण हो रहा था मगर एक बोरी धान की 180 रुपए कीमत थी. मां 2-4 लोगों के पास गई. किसी ने कहा कि जमीन का क्या करेगी तो किसी ने तीसरे को संबोधित करते हुए कहा कि दे तो दें मगर वसूली कौनसे हुड़ (भेड़ का नर बच्चा) बेच कर करेंगे.

“भाई ने फैक्ट्री में मजदूरी कर के घर चलाने का बहुत प्रयास किया मगर मजबूरी में मेरी बहन को स्कूल छोड़ना पड़ गया. संघर्ष करतेकरते मेरे परिवार को गांव छोड़ना पड़ा. 15 साल बाहर बंटाई पर खेतीबाड़ी की और सहारा बना एक जैन परिवार. मैं ने शिक्षा को भविष्य समझा और रातदिन एक ही बात सोचता था कि दोबारा परिवार अगर जड़ों पर खड़ा हो सकता है तो सिर्फ मेरी शिक्षा से. सरकारी नौकरी के 2 साल बाद मैं परिवार को अपने बाप की जमीन व उन के द्वारा निर्मित घर मैं स्थापित कर पाया.

“पिताजी के मृत्युभोज पर समाज लूटने के बजाय सहारा बन जाता, खाने के बजाय मददगार बन जाता तो मेरे भाई को पढ़ाई छोड़नी न पड़ती, बहन को पढ़ाई न छोड़नी पड़ती. पूरे परिवार का दर्द व बेबसी के आंसू मेरी कौपियों में चलने वाली कलम के इर्दगिर्द मंडराते रहे. कई बार आत्महत्या करने का खयाल मन में आया, मगर दूसरे ही पल सोचता कि परिवार जिंदा ही मेरी शिक्षा व सफलता की उम्मीदों पर है. नहीं, यह खयाल लड़ाकों के नहीं होते, इस पर मुझे जीत हासिल करनी है.

“जीवन के इस संघर्ष में कई बार ढीठ बनना पड़ता है. घर में कई महीनों तड़का नहीं लगता था, स्कूल में कभी टिफिन साथ ले कर नहीं गया, मां के हाथ से सिला बैग ले कर जाता था. बहन के गौने में पहली बार पैंट पहनी थी. 11वीं कक्षा में पहली बार जूता पहना.

“जो लोग आज मृत्युभोज के समर्थक बन कर कह रहे हैं कि बाप ने तुम्हारे लिए इतना किया तो तुम उन के पीछे मिठाइयां तक नहीं करोगे. उन से मेरा एक ही सवाल है, मेरे बाप की मौत हुई थी उस दिन तक परिवार पर कोई कर्ज नहीं था. उन की मौत के बाद समाज ने परिवार को कर्ज में धकेला. किसी का बाप 5-10 लाख का कर्ज परिवार पर छोड़ कर गुजर जाए तो उन के पीछे मृत्युभोज करना चाहिए या मरने पर चौराहे पर पैट्रोल डाल कर फूंकना चाहिए?

“ये भामाशाह, दानदाता जो भजन संध्या लगाते हैं, मंदिरों पर इंडा चढ़ाने की बोलियां आदि लगाते हैं, उन में से ज्यादातर बाप या मां के पीछे मृत्युभोज कर के भाई की जमीन पर नजर गड़ाए, गांव के किसी गरीब की जमीन पर कब्जा करने, 24 फीसदी ब्याज गरीबों से वसूली करने वाले गिद्ध निकलेंगे.

“बड़ा बेदर्द समाज, संस्कृति की रवायत व धार्मिक पोंगापंथी है. जो इस से बच गया वो दुनिया के सब से बड़े आतंक से बच गया. सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक आतंक से बड़ा दुनिया में कोई आतंक नहीं है. इस आतंक को गुलजार करने की कहानियां सुनाई जाती हैं, इस के समर्थन में समाजसेवी, पंच, पटेल तैयार होते हैं. अपने जीवन के संघर्ष की कितनी ही सचाई सामने रख दो लेकिन सामाजिक आतंकियों के आगे आप जीत नहीं सकते.”

दिलचस्प घिनौना रिवाज

ऊंची/दबंग जातियों के यहां होने वाले मृत्युभोज में गांव की निम्न जातियों के लोग तेरहवीं खाने आ जाते हैं, लेकिन जब मृत्युभोज दलित जाति के यहां हो तो सवर्ण जातियों के लोग कभी नहीं जाते. चूंकि निम्न जाति के लोग आए थे तो इस लिहाज से सवर्णों को बदले का व्यवहार तो रखना ही है, सो, इस के लिए एक अलग तरीका निकाला जाता है.

तरीका यह है कि मृत्युभोज का पूरा पैसा वह देगा जिस के यहां मौत हुई है. तेहरवीं का खाना निम्न जाति वाले के यहां नहीं बनेगा. भोजन किसी ऊंची जाति वाले के खेत में बनेगा या फिर गांव के सरकारी स्कूल में. राशन खरीदी से ले कर टैंट, तंबू, हलवाई तक की सब व्यवस्था ऊंची जाति के लोग करेंगे.

जब तेरहवीं का खाना बन कर तैयार हो जाएगा तो पहले पंडितजी लोग भोजन करेंगे. फिर गांव के सवर्ण लोग भोजन करेंगे. खाना परोसने से ले कर खानेखिलाने तक का काम सवर्ण अपने हाथ में रखेंगे.

दलितों का उधर फटकना हरगिज मना है. यहां तक कि जिस के यहां मृत्यु हुई है और जो मृत्युभोज में पैसा लगा रहा है उस का व उस के परिवार का पैर रखना सख्त मना है. जब तक सवर्ण मृत्युभोज खा रहे हैं तब तक किसी बरतनभांडे, जगचमचे को छूना मना है.

जब सवर्ण व उन के परिवार की औरतेंबच्चे तक अच्छे से छक कर खापी लेंगे, तब शेष बचा खाना उस परिवार के लोगों के लिए छोड़ दिया जाता है कि अब वे अपने मृत्युभोज की व्यवस्था खुद संभालें, खुद खाएं और अपने नातेरिश्तेदारों को खिलाएं.

सब से बड़ा रोग, क्या कहेंगे लोग

सब से बड़ा है रोग, क्या कहेंगे लोग, इस बुनियाद पर मृत्युभोज टिका है. अपने प्रिय की मृत्यु पर किसी को खुशी नहीं होती, फिर भी ज्यादातर लोग लोकलाज के चक्कर में मृत्युभोज करते हैं. शादी समारोह की तरह मृत्युभोज पर लाखों रुपए खर्च करने को मजबूर हैं, भले ही कर्जा ले कर खर्च करना पड़े.

सभ्य और शिक्षित समाज में यह अजीबोगरीब लगता है कि शोक मनाने के लिए आने वाले परिचितोंरिश्तेदारों को लजीज पकवान परोसे जाते हैं. गांजा, अफीम, शराब तक पिलाई जाती है. इतना ही नहीं, तेरहवीं पर नाचगाना तक होता है और बेटियों को कपड़ों के साथसाथ सोनेचांदी के गिफ्ट तक दिए जाते हैं. शोक और जश्न में कोई फर्क नजर नहीं आता.

तेरहवीं तक मृत्युभोज पर एक सामान्य परिवार का औसत खर्च 2 लाख रुपए तक आता है. मोटा खर्चा खाना खिलाने के साथ लड्डुओं का है. व्यापारी केदार गुप्ता बताते हैं, “एक हजार किलो लड्डू बंटना सामान्य बात है. फिर पूरे कुनबे की बेटियों को कपड़ेगहने देने का खर्चा भी कम नहीं होता.”

सांवलिया गांव के सुखदेव चौधरी बताते हैं, “जाट, गूजर, मीना समुदाय में औसत 4 लाख रुपए तक खर्चा आता है. हलवे पर 25 से 30 टीन देसी घी और 5 से 6 क्विंटल चीनी खर्च हो जाती है.”

इस संवाददाता ने मृत्युभोज को ले कर विभिन्न जातियों के मौजिज व्यक्तियों और प्रतिनिधियों से बातचीत की. सभी ने मृत्युभोज को गलत ठहराते हुए शोक के दिनों को घटाने की बात भी कही. उन का कहना था कि मृत्युभोज करने को ले कर अनावश्यक सामाजिक दबाव बना हुआ है. उस से बाहर निकलने की जरूरत है.

चाय की तरह अफीम

नागौर निवासी शिवनारायण इनाणियां ने बताया कि मारवाड़ के इलाकों में तो शोक प्रकट करने के लिए आने वाले लोगों को चाय की तरह अफीम खिलाते हैं. डेढ़ से 2 लाख रुपए तो सिर्फ अफीम पर खर्च कर देते हैं. खर्चा पूरा करने के लिए जमीन तक बेचने को मजबूर हैं. लोगों की एक सोच बनी हुई है कि लोग क्या कहेंगे. ‘म्हारे बूढ़ा मरण पै खाग्या, खुद का बूढ़ा मरया तो दो लाडू तक नहीं खिलाया.’

शराब व रागिनी का चलन

गुर्जर समाज से रामविलास लांगडी ने बताया कि तेरहवीं पर शादी से ज्यादा खर्च होने लगा है. मृत्यु के तीसरे दिन चिट्‌ठी फाड़ी जाती है. उस के बाद शोक प्रकट करने लोग आने लगते हैं. शादीब्याह में भी 9 दिन तक मिठाई नहीं चलती होगी, मगर मृत्यु होने पर खिलाई जाती है. दूरदराज से आने वाले अगर लोग रुकते हैं तो उन के लिए शराब तक का इंतजाम किया जाता है.

अलवर, मेवात व हरियाणा के इलाकों में तो रागिनी कार्यक्रम तक करवाए जा रहे हैं. ऐसे खर्चों से संपन्न लोगों को फर्क नहीं पड़ता, मगर उन का अनुसरण करते हुए गरीब लोग कर्ज उठा कर खर्च करते हैं.

बिश्नोई समुदाय में 16 दिन के शोक के दौरान 3 बार रिश्तेदार इकट्ठा होते हैं. मृत्यु होने पर अंतिम संस्कार वाले दिन, फिर चौथे या पांचवें दिन और उस के बाद 16वें दिन. तीनों बार आगंतुकों के लिए खानपान का इंतजाम किया जाता है. देसी घी का हलवा और छोले जरूरी हैं, तो सब्जियां, पूरी, रोटी के अलावा मिठाइयां बनती हैं.

पहले संसाधनों का अभाव था तो रिश्तेदारों को मौत की खबर देरी से मिलती थी, इसलिए शोक के दिन लंबे रखे जाते थे. दूर से आने वाले लोगों के लिए खाने का इंतजाम करना पड़ता था. समय बदल चुका है पर परंपरा कायम है जो बदली जानी चाहिए.

बीकानेर निवासी रामलाल विश्नोई बताते हैं, “करीब 2 दशकों पहले तक बिश्नोई समाज में 29 दिनों का शोक होता था मगर अब यह 16 दिन का है. फिर भी ज्यादा है. पहले तो दिवाली से होली तक शोक मनता था. अगर किसी व्यक्ति की मृत्यु दिवाली के बाद हुई तो शोक होली खत्म होने के बाद पूरा होता था. इस समयावधि के दौरान संबंधित परिवार के लोग सप्ताह में 3 से 4 दिनों तक अपना कामकाज छोड़ कर घर बैठ जाते थे.”

पंडों की लूट का जरिया

किसी भी समाज की प्रगति का पैमाना शिक्षा होता है. जो समाज पाखंड व अंधविश्वास के बजाय अपने बच्चों की बेहतर शिक्षा पर पूंजी निवेश करता है वो समाज का भविष्य होता है. अर्थयुग में पूंजी के इर्दगिर्द ही नैतिकता के मापदंड घूमते हैं. पूंजी कमाना एक अलग बात है और पूंजी खर्च करना अलग बात.

किसानकमेरे वर्ग के लोग मेहनत के बल पर पूंजी का निर्माण करते हैं मगर निर्मित पूंजी पर कब्जा दूसरे कर लेते हैं. चाहे वो सरकार के नाम से हो या व्यापार का जरूरी हिस्सा बता कर हो. चाहे धर्म के नाम पर हो, चाहे मूढ़ परंपराओं के नाम पर, मगर पूंजी मेहनतकश लोगों के हाथ से फिसलती रहती है.

मृत्युभोज शुरू में एक परंपरा थी जिस में रिश्तेदार लोग दुख की घड़ी में सांत्वना देने के लिए मिलते थे. जिस घर में मौत होती थी उस घर में खाना नहीं बनता था. दूरदराज से जो रिश्तेदार आते थे व आवागमन के साधनों के अभाव में समय ज्यादा लगता था उन को खाना पड़ोसी अपने घर ले जा कर खिलाते थे.

धीरेधीरे इस परंपरा में धर्म घुसा और इस परंपरा को विकृत कर दिया. आज मौत पर मातम नहीं बल्कि जश्न व लूट का संगम होता है. घरवाले मिठाइयां बनाते हैं, ब्राह्मण कर्मकांड करता है और मरने वाले की आत्मा के विशेषज्ञ बन कर इलाज करते हैं. गले में फुलड़ा डाल कर हरिद्वार की यात्रा होती है व वहां पंडों के पंजों में लुटाया जाता है. सिर मुंडवाए, रोतेबिलखते बच्चों के बीच सफेदपोश ठहाके लगाते हुए मिठाइयों का आनंद लेते हैं.

अकसर किसी भी पाखंड व अंधविश्वास को स्थापित करने में धर्म का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है. हर कर्मकांड धर्म बता कर ही शुरू किया जाता है. ब्राह्मण ग्रंथों में हर पन्ने में लिखी नैतिकता आपस में उलझती है. अगर सारांश रूप में कुछ सीखना चाहें तो यह है कि इन में समय व्यर्थ करने का कोई सार नहीं है.

जब 16 संस्कारों में अंतिम संस्कार दाह संस्कार बताया था तो बात वहीं तक खत्म हो जानी चाहिए थी. उस से आगे की जो प्रक्रिया है वह खुद ही स्थापित नहीं हुई है बल्कि पंडितों ने बताया है कि अंतिम संस्कार के बाद अगले दिन सुबह अस्थियां घर लानी हैं, मंत्रोच्चार के साथ बेटों के गले में डालनी है, हरिद्वार ले जा कर उस का विसर्जन करना है. हर प्रक्रिया में पंडित मौजूद रहता है, मंत्रोच्चार करता है व मृत्युभोज के बाद दक्षिणा लेता है.

अगर दक्षिणा कम हो तो झगड़े तक करता है. यह मैं ने खुद अपनी आंखों से देखा है. बेटे लोकलिहाज से खामोश बैठे रहते हैं, नाराज होते हैं मगर बोल नहीं पाते क्योंकि समाज के लोग दक्षिणा की सौदेबाजी करते हैं.

अगर किसी को लगता है कि पंडित मृत्युभोज में कर्मकांड नहीं करवाते हैं और इसे धर्म की प्रक्रिया नहीं बताते हैं तो उस को मृत्युभोज के समय उपस्थित रहना चाहिए. अव्वल बात तो यह है कि मृतकों की आत्मा को पोषण देने के लिए वार्षिक हफ्तावसूली के रूप में श्राद्ध तक का कर्मकांड करते हैं और दक्षिणा लेते हैं और इस के लिए बाकायदा कहानियां रची गई हैं. जब मानव जीवन का अंतिम संस्कार ही दाह संस्कार है तो ये पंडित लोग बाद में कौन से संस्कार स्थापित कर रहे हैं?

कोरोना के संकट में जब बिना मृत्युभोज के काम चल रहा था तो फिर ये पढ़ेलिखे प्राचार्य औनलाइन दक्षिणा किस के लिए मांग रहे थे? ब्राह्मण समाज के लोगों को चाहिए कि वो ऐसे पंडितों व शिक्षकों पर खुद आगे आ कर रोक लगाएं. अन्यथा जिन के कंधों पर धर्म का टैंडर है तो त्रुटियां भी उन्हीं के हिस्से आएंगी. और इस को त्रुटियां भी नहीं मान सकते,  क्योंकि यह जानबूझ कर धर्म की आड़ में चलाया गया पंडितों का धंधा है.

कबीरदास ने कहा था-

जिंदा बाप कोई न पूजे, मरे बाद पूजवाए!

मुट्ठीभर चावल लेई, कौवे को बाप बनाए!!

ब्रह्मभोज ही मृत्युभोज

जयपुर में ताड़केश्वर मंदिर के महंत पंडित नवलकिशोर शर्मा ब्रह्मभोज यानी मृत्युभोज व तेरहवीं का पक्ष लेते हुए बताते हैं कि धार्मिक ग्रंथों, जैसे गरुड़ पुराण, पितृ संहिता और वेदों में अनेक जगह यह वर्णित है कि मृत प्राणी के नाम पर कराए गए सामूहिक भोजन का एक भाग मरने वाली आत्मा ग्रहण करती है. मृत्यु के बाद आत्मा को भोजन कराना धर्मग्रंथों में धर्म और संस्कृति का एक हिस्सा बताया गया है. शास्त्र अपने सामर्थ्य के अनुसार ब्राह्मणों एवं रिश्तेदारों को भगवान का प्रसाद बना कर भोजन की आज्ञा देते हैं.

पंडित नवलकिशोर आगे कहते हैं, “किंतु आजकल शास्त्रसम्मत इस रीति की अपव्यय कह कर आलोचना की जा रही है और आलोचना भी वो कर रहे हैं जो खुद को श्रेष्ठ सनातनी बताने का कोई अवसर नहीं चूकते. यदि किसी को अपव्यय की इतनी ही चिंता है तो शादीविवाह में हो रहे अनावश्यक खर्चों में क्यों नहीं कटौती की बात करते? क्यों वहां पर बड़ेबड़े कैटरर को बुला कर सैकड़ों/हजारों लोगों को 2-2 हजार की थाली खिलाने और महंगी शराब लुटाने का भोंडा दिखावा किया जाता है वह भी अपनी बेटी के कन्याभोज के नाम पर.

“मृत्युभोज देना कुरीति नहीं है. मृत्युभोज तो सामाजिक और शास्त्रीय ढांचे का अभिन्न हिस्सा है. मृत्युभोज के पीछे तो हमारे मनीषियों की सोच धार्मिक, वैज्ञानिक होने के साथसाथ मनोवैज्ञानिक भी थी. मृत्युभोज तो वह प्रथा है जिस के माध्यम से मृत्युभोज ग्रहण करने वाला व्यक्ति अपने द्वारा अर्जित पुण्य के कुछ अंश को मृत व्यक्ति को प्रदान कर ख़ुद को धन्य बनाता है.”

अनेकों शास्त्रों में मृत्युभोज का विधान है-

यजुर्वेद के पारस्कर गृह्यसूत्र में अन्त्येष्टि संस्कारविधा में श्लोक हैं,

”एकादश्यामयुग्मान् ब्राह्मणान् भोजयित्वा।  प्रेतायोद्दिश्य गामप्येके घ्नन्ति।।”

एकादश्यामेकादशेऽहनि ब्राह्मण: कर्ता चेत् आयुग्मान् त्रिप्रभृतिविषमसङ्ख्याकान् द्विजोत्तमान् भोजयित्वा भोजनं कारयित्वा एकोद्दिष्टश्राद्धविधिना  (३/१०/४९)

“कर्तव्यं विप्रभोजनम् ।प्रेता यान्ति तथा तृप्तिं बन्धुवर्गेण भुञ्जता।।“(विष्णु पुराण ३/१३/१२)

यानी, दाह संस्कार के 11वें दिन विषम संख्या में ब्राह्मणों को भोजन कराएं. मृतक के उद्देश्य से गांवगुवाड वालों को भी भोजन कराना चाहिए.

हिंदू धर्म में मृत्यु के बाद अंतिम संस्कार किया जाता है, इस के बाद 13 दिनों तक मृतक के निमित्त पिंडदान किए जाते हैं और आखिरी में 13वें दिन उस की तेहरवीं होती है.

गरुड़ पुराण में बताया गया है कि तेरहवीं तक आत्मा अपनों के बीच ही रहती है. इस के बाद उस की यात्रा दूसरे लोक के लिए शुरू होती है और उस के कर्मों का हिसाब किया जाता है.

गरुड़ पुराण के मुताबिक, जब किसी व्यक्ति के प्राण निकलते हैं तो यमदूत उस की आत्मा को यमलोक ले जाते हैं और वहां उसे वो सब दिखाया जाता है जो उस ने अपने जीवन में किया है. इस दौरान करीब 24 घंटे तक आत्मा यमलोक में ही रहती है. इस के बाद यमदूत उसे उस के परिजनों के बीच छोड़ जाते हैं. इस के बाद मृतक व्यक्ति की आत्मा अपने परिवार वालों के आसपास ही भटकती रहती है क्योंकि उस में इतना बल नहीं होता कि मृत्युलोक से यमलोक की यात्रा तय कर सके.

इस बीच, परिजन मृतक की आत्मा के लिए नियमित रूप से पिंडदान करते हैं. गरुड़ पुराण के अनुसार मृत्यु के बाद 10 दिनों तक जो पिंडदान किए जाते हैं, उन से मृत आत्मा के विभिन्न अंगों का निर्माण होता है. 11वें और 12वें दिन के पिंडदान से शरीर पर मांस और त्वचा का निर्माण होता है, फिर 13वें दिन जब तेरहवीं के दिन ब्रह्मभोज किया जाता है, उस से ही वह यमलोक तक की यात्रा तय करती है. इस से आत्मा को बल मिलता है और वह अपने पैरों पर चल कर मृत्युलोक से यमलोक तक की यात्रा संपन्न करती है.

आत्मा को मृत्युलोक से यमलोक पहुंचने में एक साल का समय लगता है. माना जाता है कि परिजनों द्वारा 13 दिनों में जो पिंडदान व ब्रह्मभोज किया जाता है वो एक वर्ष तक मृत आत्मा को भोजन के रूप में प्राप्त होता है. तेरहवीं के दिन कम से कम 13 ब्राह्मणों को भोजन कराने से आत्मा को प्रेत योनि से मुक्ति मिलती है. साथ ही, उस के परिजन शोकमुक्त हो जाते हैं.

जब कि जिस मृतक आत्मा के नाम से पिंडदान नहीं किया जाता, उसे तेरहवीं के दिन यमदूत जबरन घसीटते हुए यमलोक ले कर जाते हैं. ऐसे में यात्रा के दौरान आत्मा को काफी कष्ट उठाने पड़ते हैं. इसलिए मृतक की आत्मा की शांति के लिए तेरहवीं को जरूरी माना गया है.

जब तक इंसान जिंदा होता है तब तक कोई महत्त्व नहीं है, मगर मरने के बाद जो सब नहीं होना चाहिए वो सब किए जा रहे हैं. धर्म ने परंपरा का नाश किया ही था मगर बाजार के साथसाथ राजनेता भी इस में शामिल हैं. जो आज मृत्युभोज का विकृत स्वरूप हमारे सामने है वो धर्म-बाजार-सियासत द्वारा पोषित है. प्रतियोगिता सी चल पड़ी है बड़ा स्वरूप देने की.

समाज का नैतिक धर्म यही होता है कि अपने लोगों की सारसंभाल करें, शिक्षित कर के प्रगति के पथ पर ले जाएं, पूंजी के खर्च को सही दिशा दें मगर बहुतायत में समाज के सफेदपोश लोग अपना ईमानधर्म भूल गए हैं.

हालांकि धीरेधीरे जागरूकता भी आ रही है. नेक परंपरा से सामाजिक कलंक बने इस मृत्युभोज को मिटाने के लिए प्रयास तेज होने लगे हैं. सामाजिक चिंतक प्रेमाराम सियाग कहते हैं, “समाज के जागरूक लोगों से निवेदन है कि अब बस कर दो. बहुत घरपरिवार उजड़ गए. बहुत बच्चों का भविष्य खराब कर के पीढ़ियां बरबाद कर दीं. साधनसंपन्न लोग तो गलत जगह पैसा खर्च कर के भी बच निकलते हैं मगर गरीब इस दौड़ में लड़खड़ा कर गिरता ही जा रहा है और उस को उठने में पीढ़ियां खप जाती हैं.

“धीरेधीरे इस कलंक को पूरी तरह से मिटाने के लिए छोटेछोटे प्रयास ही असल माने रखते हैं. जब ऐसे लोग हमारे समाज में हों जो गिद्ध बन कर खाने को तड़प रहे हों,  तो ऐसे दौर में खिलाफ लिखनाबोलना भी साहस का कार्य होता है. जो खिलाफ लिखतेबोलते हैं उन की हौसलाअफजाई के जानी जरूरी है.”

व्यंग्य : राष्ट्रीयकरण गधे का

आज प्रजातांत्रिक जंगल की राजधानी दुर्गति का मैदान छोटेबड़े सभी तरह के जानवरों से खचाखच भरा हुआ है. अभी भी दूरदूर से सभ्य और सुसंस्कृत जंगली जानवर बसों व ट्रकों में ठुंसे हुए चले आ रहे हैं और जाहिल तथा शहरी आदमियों की तरह बाकायदा धक्कामुक्की और गालीगलौज जारी है.

आज की आमसभा की विशेषता है ‘शेर’ जो जंगल का प्रधानमंत्री होने के साथसाथ ‘राष्ट्रीय पशु’ भी है. ‘एक व्यक्ति, एक पद’ के सिद्धांत पर अमल करते हुए ‘शेर’ राष्ट्रीय पशु का ताज स्वयं छोड़ कर गधों को सौंपने वाला है. शुरूशुरू में तानाशाह शेर जंगल में प्रजातांत्रिक प्रणाली के नाम से हिचकिचाया था मगर जब विशेषज्ञों ने उसे सम?ाया कि इस से फायदे ही फायदे हैं, फर्क सिर्फ इतना पड़ेगा कि लोग उसे ‘राजा’ के बजाय प्रधानमंत्री कहेंगे बाकी सबकुछ यथावत रहेगा, तब शेर मान गया और वह मजे में था.

जब जनता भूख से रोती, शेर उस के हाथ में रोटी के बजाय लोकतंत्र का ?ान?ाना पकड़ा देता. प्रजा बेचारी बहल जाती, आराम से सो जाती और शेर का काम बन जाता. शेर के न आने की वजह से आज की सभा शुरू नहीं हो पा रही थी जैसा कि हमेशा होता है. ऐसे समय में मंत्री देर से ही आते हैं. फिर चमचे माइक पर आ कर उन का आभार मानते हैं कि वे अपना कीमती समय निकाल कर पधारे. खैर, शेर आया और आते ही उस ने माइक संभाल लिया. पहले एक घंटे के भाषण के दौरान उस ने जनता को बताया कि वह कितना ‘महान’ है, अगले एक घंटे तक यह सम?ाया कि असल में वह इतना महान क्यों है, फिर एक घंटे तक सरकार की पिछले 40 साल की उपलब्धियां गिनाईं और उन्हें डराया कि उन की सरकार का न होना जंगल के लिए कितना खतरनाक था.

अंत में आज के मुख्य विषय पर आते हुए उस ने कहा, ‘‘भाइयो और बहनो, मु?ो बड़ा दुख है कि गधों की सीधीसादी व मेहनती कौम, जो हमेशा से दलित और पिछड़ी रही है, का न केवल सदियों से शोषण किया गया है बल्कि ‘गधा’ शब्द सदैव गाली के रूप में प्रयुक्त होता है,’’ शेर ने रुक कर जेब से रूमाल निकाला और अपनी आंखों से उन आंसुओं को पोंछा जो थे ही नहीं, फिर आगे बढ़ा, ‘‘मगर अब ऐसा नहीं होगा, सरकार ने इस के लिए आवश्यक कदम उठाए हैं, जिन में गधों को सभी क्षेत्रों में आरक्षण व उच्च पदों पर नौकरियां दी जाएंगी.

आइंदा उन्हें ‘गर्दभराज’ जैसे सम्मानजनक शब्दों से संबोधित किया जाएगा तथा गधे को गधा कहना कानूनन अपराध होगा. इस के लिए जगहजगह ‘गधा कल्याण थाने’ बनाए जाएंगे जहां पुलिस वाले भी ‘गधे’ ही होंगे. इस के अलावा आज के इस मंच पर गधों को ‘राष्ट्रीय पशु’ के खिताब से सुशोभित भी किया जाएगा.’’ शेर की घोषणाएं सुन कर सभी ने जोरदार तालियां बजाईं. इस के बाद गधों के प्रतिनिधि को आमंत्रित किया गया ताकि वे मंच पर आ कर दो- सवा दो शब्द कहें और ‘राष्ट्रीय पशु’ का सम्मान स्वीकार करें. भीड़ में से एक शांत और सौम्य गधा, जो पिछले दिनों ही शहर से हिंदी माध्यम से ‘सत्य की सदा विजय होती है’ पढ़ कर लौटा था और नादानी में बेचारा इसे सच सम?ा बैठा था, मंच पर आया.

उस ने माइक हाथ में ले कर गंभीर वाणी में कहना शुरू किया, ‘‘प्यारे दोस्तो, ‘भाइयो’ कहने से आप को बुरा लग सकता है, जब अगला चुनाव नजदीक हो तो जंगल की सरकार पिछड़े वर्गों के लिए चिंतित हो जाती है और गाहेबगाहे ऐसे कार्यक्रमों की घोषणा करती रहती है जिस से कि उन की उन्नति होने का भ्रम पैदा होता रहे. ‘‘अभी माननीय प्रधानमंत्रीजी ने अपनी सरकार की उपलब्धियां गिनाईं, जब सरकार पिछले 40 सालों से मुल्क की तरक्की के लिए दिनरात जुटी है तब तो देश का यह हाल है कि आम जनता को पीने का पानी नसीब नहीं है, अगर सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी होती तो इस देश का क्या हाल होता, यह सोच कर ही मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं.’’ गधे की स्पष्ट और व्यंग्यभरी जबान सुन कर सब को सांप सूंघ गया. शेर की भृकुटि एक पल के लिए तनी फिर वह सामान्य दिखाई देने लगा.

उपहास उड़ाने वालों के चेहरों पर अब आश्चर्य के भाव थे. उन्हें गधे से ऐसी उम्मीद नहीं थी. गधा आगे बढ़ा, ‘‘‘राष्ट्रीय पशु’ होने की उपाधि लेने से पहले मैं चाहूंगा कि हम एक दृष्टि उन चीजों पर डाल लें जो ‘राष्ट्रीय’ हैं. ‘‘मोर हमारा ‘राष्ट्रीय पक्षी’ है, उस का हाल यह है कि मोर तो कहीं दिखते नहीं चारों तरफ कौवे ही कौवे हैं. जिसे बोलने में हमें सब से ज्यादा शर्म आती है. वह ‘राष्ट्रभाषा’ है जिस का गान न हो वह ‘राष्ट्रगीत’ है. जिस का मान न हो वह ‘राष्ट्रध्वज’ है. जो बुजुर्ग महोदय सब से उपेक्षित व अपमानित से किसी कोने में खड़े अपनी और देश की दुर्दशा पर आंसू बहा रहे होंगे वे जरूर ‘राष्ट्रपिता’ होंगे. जो संपत्ति लुटीपिटी, खाईअधखाई, सब के बाप की होगी वह ‘राष्ट्रीय संपत्ति’ होगी.

‘हौकी’ हमारा ‘राष्ट्रीय खेल’ है, क्या मैं उस के बारे में भी कुछ कहूं? सारांश कि जिस के बुरे दिन आते हैं उस का ‘राष्ट्रीयकरण’ हो जाता है.’’ इतना कह कर गधे ने एक लंबी सांस खींची. सन्नाटा ऐसे पसरा हुआ था कि हर कोई अपने बगल वाले के मन की आवाज सुन सकता था. अब लोगों के चेहरों पर गधे के लिए साफसाफ प्रशंसा के भाव थे. गधे ने आगे कहा, ‘‘मैं मानता हूं कि हम गधे हैं मगर इतने भी ‘गधे’ नहीं हैं जितना कि प्रधानमंत्रीजी हमें सम?ा रहे हैं. आज ‘राष्ट्रीय पशु’ शेर की नस्ल खत्म होने को है जबकि देश में गधों की संख्या सर्वाधिक है और इन्हीं ‘गधे मतदाताओं’ की वजह से कहें या मतदाताओं के गधेपन की वजह से, पिछले 40 सालों से एक ही पार्टी चुनाव जीतती आ रही है. ‘‘अब आप यह आसानी से सम?ा सकते हैं कि सरकार हमारी फिक्र में क्यों दुबली हो रही है.

अंत में मैं यही कहूंगा कि अपनी कौम की सुरक्षा को मद्देनजर रख कर मैं ‘राष्ट्रीय पशु’ की उपाधि को विनम्रतापूर्वक अस्वीकार करते हुए प्रधानमंत्रीजी से प्रार्थना करूंगा कि बजाय आरक्षण के वे हमारी कौम की समुचित शिक्षा आदि का प्रबंध करें क्योंकि गधे को बग्घी में जोत देने से वह घोड़ा नहीं हो जाएगा और बग्घी का तो जो अंजाम होगा सो होगा ही. इतना कह कर मैं अपना स्थान ग्रहण करता हूं, धन्यवाद.’’ भाषण समाप्त होते ही इतनी जोर से तालियां बजीं कि पूरा पंडाल हिल गया. पूरे भाषण के दौरान शेर की आंखें सर्द थीं मगर अब चेहरे पर बराबर मुसकराहट बनी रही, बल्कि तालियां भी सब से पहले उसी ने बजाईं, आखिर वह 40 सालों से राजनीति में था. अगले कुछ दिनों तक जंगल में चर्चा का विषय ‘गधा’ ही था.

लोग गधे से मिलना चाहते थे, गधे का आटोग्राफ लेना चाहते थे, देखना चाहते थे, उसे सुनना चाहते थे पर अगले दिन उन्होंने गधे को नहीं, उस के समाचार को सुना और यह सुन कर ‘स्तब्ध’ रह गए कि कुछ हमलावरों ने गधे पर हमला कर एक ‘धारदार’ हथियार से उस की ‘धारदार’ जबान काट दी. गधा गंभीर अवस्था में अस्पताल में था, हमलावर फरार थे. पुलिस बहुत मेहनत करने के बाद यह ज्ञात करने में सफल रही कि वे तत्त्व ‘अज्ञात’ थे. खबर सुन कर शेर को अत्यधिक दुख होना स्वाभाविक था.

उस रात शेर स्वयं विशेष रूप से टैलीविजन पर आया और गधे को होनहार और प्रतिभाशाली बताते हुए उस के और उस के परिवारवालों के प्रति जो संवेदना प्रकट की वह ‘गहरी’ थी और गुंडा तत्त्वों की जो भर्त्सना की वह ‘कड़ी’ थी और जिस जांच का आश्वासन दिया वह ‘निष्पक्ष’ थी और दोषी लोगों के खिलाफ की जाने वाली कार्यवाही ‘सख्त’ थी और इस संकट की घड़ी में जनता को धैर्य रखने व आने वाले चुनाव में उस की ही सरकार को वोट देने की जो अपील की वह ‘विनम्र’ थी.

मैं कहां आ गई

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प्यार से संवारें उस का कल

आज की व्यस्त जीवनशैली में मातापिता अपने काम व जिम्मेदारियों के बीच अपने शिशु के छोटेछोटे खास पलों को महसूस करने से वंचित रह जाते हैं. दरअसल हर दिन की छोटीछोटी गतिविधियां नवजात शिशु के विकास में मदद करती हैं और उन में आत्मविश्वास, जिज्ञासा, आत्मसंयम और सामाजिक कौशल की कला का विकास करती हैं.

यहां हम एक खास उम्र में होने वाले परिवर्तनों के बारे में बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि आप को यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि किस तरह से बातचीत के माध्यम से नवजात शिशु में सामाजिक, भावनात्मक ज्ञान का विकास किया जा सकता है. यह मातापिता और शिशु के बीच की एक विशेष पारस्परिक क्रिया है जो हर पल को खास व सुंदर बनाती है.

स्तनपान के समय

जब आप अपने शिशु को स्तनपान कराती हैं तब आप उसे केवल आवश्यक पोषण प्रदान करने के अलावा भी कुछ खास करती हैं, जो उसे उस की दुनिया में सुरक्षा का एहसास कराता है. शिशु को भूख लगने पर स्तनपान कराना उसे शांत महसूस करने में मदद करता है. आप के चेहरे को देख कर, आप की आवाज सुन कर और आप के स्पर्श को महसूस कर के वह महत्त्वपूर्ण काम पर ध्यान केंद्रित करने में सक्षम बनता है.

जब वह देखता है कि वह संचार करने के प्रयास में सफल हो रहा है तो आप उस की भाषा की कला विकसित करने में उस की मदद करती हैं. जब आप उसे स्तनपान कराएं तब उस से धीरेधीरे बात करें, उस का शरीर हाथों से सहलाएं और उसे आप के स्पर्श का अनुभव करने दें.

नवजात को आराम दें

जब आप अपने शिशु को आराम देती हैं तब आप उसे बताती हैं कि दुनिया एक सुरक्षित जगह है जहां कोई है जो उस की परवाह करता है, उस का ध्यान रखता है. शिशु जितना ज्यादा आराम महसूस करता है उसे दूसरों से जुड़ने में उतनी ही मदद मिलती है और वह सीखता है कि उस के आसपास की दुनिया कैसे काम करती है. जब आप का शिशु रोता है तब आप तुरंत जवाब दे कर उसे सिखाती हैं कि आप उस की हमेशा देखभाल करेंगी. यह सोच कर परेशान न हों कि आप तुरंत जवाब दे कर उसे बिगाड़ रही हैं. दरअसल, शोध बताते हैं कि जब बच्चे रोते हैं, तब तुरंत प्रतिक्रिया करने पर वे कम रोते हैं, क्योंकि इस से वे सीखते हैं कि उन का ध्यान रखने वाला आ रहा है. जब आप उसे आराम देती हैं तब आप उसे उस के तरीके से खुद को शांत रहना सिखाती हैं.

जब आप का शिशु रोता है या आप उसे परेशान देखती हैं तब अलगअलग चीजों पर ध्यान दें जैसे उसे भूख तो नहीं लगी है, उसे डकार तो नहीं लेनी, उस का डायपर चैक करें. अलगअलग तरीके से गोद में लें, गाना गाएं, प्यार से बात करें.

शिशु के संकेतों को समझें

नवजात शिशु कई तरह की नईनई चीजें करते हैं, जिन्हें हम समझ नहीं पाते हैं, लेकिन इन संकेतों को समझ कर उन के विकास में मदद की जा सकती है. लेकिन यह जरूरी नहीं है कि हर शिशु एक ही तरह का संकेत दे. आप को यह बात समझने की जरूरत है कि हर शिशु अलग होता है और सब की सीखने की क्षमता अलगअलग होती है. आप के साथ घनिष्ठ संबंध बनाना उस के सीखने की कला, स्वास्थ्य और विकास की नींव है इसलिए अपने शिशु के व्यवहार और विकास में हर बदलाव में ध्यान दें और शिशु चिकित्सक के संपर्क में रहें.

90% डाक्टर क्यों जौनसन बेबी की सलाह देते हैं?

क्योंकि डाक्टर जानते हैं कि आप के शिशु की मुसकान को कैसे बरकरार रखा जा सकता है. जौनसन बेबी प्रौडक्ट्स चिकित्सकीय रूप से आप के बच्चे की नाजुक त्वचा के लिए प्रमाणित हैं. इसलिए 90% से अधिक डाक्टरों के आश्वासन का आनंद लीजिए और हर दिन अपने शिशु को खुश व हंसताखिलखिलाता रखिए

प्यार की खातिर : मोहन ने क्यों उठाया ये कदम?

प्यार कभी भी और कहीं भी हो सकता है. प्यार एक ऐसा अहसास है, जो बिन कहे भी सबकुछ कह जाता है. जब किसी को प्यार होता है तो वह यह नहीं सोचता कि इस का अंजाम क्या होगा और ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वह इनसान किसी के प्यार में इतना खो जाता है कि बस प्यार के अलावा उसे कुछ दिखाई नहीं देता है. तभी तो कहते हैं कि प्यार अंधा होता है. सबकुछ लुटा कर बरबाद हो कर भी नहीं.

चेतता और गलती पर गलती करता चला जाता है. मोहन हाईस्कूल में पढ़ने वाला एक 16 साल का लड़का था. वह एक लड़की गीता से बहुत प्यार करने लगा. वह उस के लिए कुछ भी कर सकता था, लेकिन परेशानी की बात यह थी कि वह उसे पा नहीं सकता था, क्योंकि मोहन के पापा गीता के पापा की कंपनी में एक मामूली सी नौकरी करते थे.

मोहन बहुत ज्यादा गरीब घर से था, जबकि गीता बहुत ज्यादा अमीर थी. वह सरकारी स्कूल में पढ़ता था और गीता शहर के नामी स्कूल में पढ़ती थी.

लेकिन उन में प्यार होना था और प्यार हो गया. मोहन गीता से कहता, ‘‘तुम मुझ से कभी दूर मत जाना क्योंकि मैं तुम्हारे बिना एक पल भी नहीं रह पाऊंगा.’’

‘‘हां नहीं जाऊंगी, लेकिन मेरे घर वाले कभी हमें एक नहीं होने देंगे,’’ गीता ने कहा.

‘‘क्यों?’’ मोहन ने पूछा.

‘‘क्योंकि तुम सब जानते हो. हमारा समाज हमें कभी एक नहीं होने देगा,’’ गीता बोली.

‘‘हम इस दुनिया, समाज सब को छोड़ कर दूर चले जाएंगे,’’ मोहन ने कहा.

‘‘नहींनहीं, मैं यह कदम नहीं उठा सकती. मैं अपने परिवार को समाज के सामने शर्मिंदा होते नहीं देख सकती,’’ गीता ने अपने मन की बात कही.

‘‘ठीक है, तो तुम मेरा तब तक इंतजार करना, जब तक मैं इस लायक न हो जाऊं और तुम्हारे पापा के सामने जा कर उन से तुम्हारा हाथ मांग सकूं. बोलो मंजूर है?’’ मोहन ने कहा.

गीता हंसी और बोली, ‘‘क्या होगा, अगर मैं तुम से शादी कर के एकसाथ न रह सकी? हम चाहें दूर रहें या पास, मेरे दिल में तुम्हारा प्यार कभी कम नहीं होगा. तुम हमेशा मेरे दिल में रहोगे.’’

यह सुन कर मोहन दिल ही दिल में रो पड़ा और सोच में पड़ गया.

‘‘क्या तुम मुझे छोड़ कर किसी और से शादी कर लोगी? मुझे भूल जाओगी? मुझ से दूर चली जाओगी?’’ मोहन ने पूछा.

‘‘ऐसा तो मैं सोच भी नहीं सकती कि तुम्हें भूल जाऊं. मैं मरते दम तक तुम्हें नहीं भूल पाऊंगी,’’ गीता बोली.

‘‘फिर मेरा दिल दुखाने वाली बात क्यों करती हो? कह दो कि तुम मेरी हो कर ही रहोगी?’’ मोहन ने कहा.

समय अपनी रफ्तार से चल रहा था. मोहन दिनरात मेहनत कर के खुद को गीता के काबिल बनाने में लगा था, ताकि एक दिन उस के पिता के पास जा कर गीता का हाथ मांग सके.

इधर गीता यह सोचने लगी, ‘मोहन मेरी अमीरी की खातिर मुझ से दूर जा रहा है. वह मुझे पा नहीं सकता इसलिए दूरी बना रहा है.’

इधर गीता के घर वाले उस के लिए लड़का देखने लगे और उधर मोहन जीजान से पढ़ाई में लगा हुआ था. उसे पता भी नहीं चला और गीता की शादी तय हो गई.

जब यह बात मोहन को पता चली तो वह गीता की खुशी की खातिर चुप लगा गया, क्योंकि उस की शादी शहर के बहुत बड़े खानदान में हो रही थी. उस का होने वाला पति एक बड़ी कंपनी का मालिक था.

यह सब जानने और सुनने के बाद मोहन अपने प्यार की खुशी की खातिर उस से दूर जाने की कोशिश करने लगा, लेकिन यह तो नामुमकिन था. वह किसी भी कीमत पर जीतेजी उस से दूर नहीं हो सकता था. सचाई जाने बगैर ही उस ने एक गलत कदम उठाने की सोच ली.

गीता अंदर ही अंदर बहुत दुखी थी और परेशान थी क्योंकि वह भी तो मोहन को बहुत प्यार करती थी.

जिस दिन गीता की शादी थी उसी दिन मोहन ने एक सुसाइड नोट लिखा और फांसी लगा ली.

ठीक उसी समय गीता ने भी एक सुसाइड नोट लिखा और जब सब लोग बरात का स्वागत करने में लगे थे उस ने खुद को फांसी लगा कर खत्म कर लिया.

प्यार की खातिर 2 परिवार दुख के समंदर में डूब गए. बस उन दोनों की जरा सी गलतफहमी की खातिर.

हम मिटा देंगे खुद को प्यार की खातिर जी नहीं पाएंगे पलभर तुम से दूर रह कर. कर के सबकुछ समर्पित प्यार के लिए बिखरते हैं कितना हम टूटटूट कर.

विश्वास बहुत बड़ी चीज होती है. हमें अपनों पर और खुद पर भरोसा करना चाहिए, ताकि जो उन दोनों के साथ हुआ वैसा किसी के साथ न हो. अगर प्यार करो तो निभाना भी चाहिए और बात कर के गलतफहमियों को मिटाना भी चाहिए, क्योंकि प्यार वह अहसास है जो हमें जीने की वजह देता है.

अगर इस दुनिया में प्यार नहीं तो कुछ भी नहीं. प्यार अमीरीगरीबी, ऊंचनीच, धर्म, जातपांत कुछ भी नहीं देखता. अगर किसी को एक बार प्यार हो जाए तो वह उस की खुशी की खातिर अपनी जिंदगी की भी परवाह नहीं करता.

प्यार तो कभी भी कहीं भी किसी से भी हो सकता है, पर सच्चा प्यार होना और मिलना बहुत मुश्किल होता है. खुद पर और अपने प्यार पर हमेशा भरोसा बनाए रखना चाहिए, क्योंकि इस फरेबी दुनिया में सच्चा प्यार बहुत मुश्किल से मिलता है.

मैं दूसरी जाति के लड़के से प्यार करती थी, पर अचानक उस ने शादी करने से मना कर दिया, अब मैं क्या करूं?

 

सवाल
मैं 6 साल से दूसरी जाति के लड़के से प्यार करती थी, वह भी मुझे सच्चा प्यार करता था. वह मेरी और मेरी फैमिली की इज्जत भी करता था. हम दोनों ने बहुत सपने बुने. यहां तक कि  मेरे घर वालों से हमारे रिश्ते की बात करने आने वाला था कि अचानक से उस का फोन आया और वह रोते हुए बोला कि मैं तुम्हें और तुम्हारी फैमिली को खतरे में नहीं देख सकता. तुम मुझे यह सोच कर भूल जाना कि मैं ने तुम्हें धोखा दिया है.

मैं उस की ये बातें सुन जोरजोर से फोन पर रोने लगी तो उस ने कहा कि मैं तुम्हें अपनी मजबूरी नहीं बता सकता लेकिन पूरी जिंदगी तुम्हें ही प्यार करूंगा. हो सके तो मुझे समझने की कोशिश करना.

जवाब
6 वर्षों से किसी रिलेशन में रहने के बाद अगर किसी भी कारणवश न सुनने को मिले तो दिल तो दुखता ही है और वह भी तब जब आप दोनों ने एकसाथ जीने के सपने देखे हों.

बात कुछ समझ नहीं आ रही कि अचानक सही चीजें चलतेचलते कैसे पलट गईं. अकसर दूसरी जाति में प्यार के मामले में ऐसा होता है कि या तो 2 प्यार करने वालों को मरवा दिया जाता है या फिर उन्हें धमकी दे कर दूर करवा दिया जाता है. आप की बात से तो ऐसा ही लग रहा है कि वह किसी मजबूरीवश ही आप से और आप के परिवार से दूर जाने की बात कह रहा है ताकि उस की वजह से आप पर कोई आंच न आए. ऐसे में जरूरी है कि सिर्फ फोन की बात पर भरोसा न कर आप मिल कर बात करें. इस से आप की आशंका भी दूर हो जाएगी, और आप अपना मन पक्का कर जीवन में आगे भी बढ़ पाएंगी वरना आप पूरी जिंदगी यही सोचती रहेंगी कि उस ने आप के साथ ऐसा क्यों किया.

हमारे देश में इंटरकास्ट लवमैरिज यानी जाति से बाहर शादी करने वालों की तादाद आज भी महज 5 फीसदी ही है. 95 फीसदी लोग अपनी जाति में ही शादी करते हैं. नैशनल काउंसिल औफ एप्लाइड इकोनौमिक रिसर्च और यूनिवर्सिटी औफ मैरीलैंड की एक हालिया स्टडी से पता चलता है कि भारत में 95 फीसदी शादियां अपनी जाति के अंदर होती हैं. यह स्टडी 2011-12 में इंडियन ह्यूमन डवलपमैंट द्वारा कराए गए सर्वे पर आधारित है. इस सर्वे में 33 राज्यों व केंद्रशासित शहरी व गंवई इलाकों में बने 41,554 घरों को शामिल किया गया था. जब इन घरों की औरतों से पूछा गया कि क्या आप की इंटरकास्ट मैरिज हुई थी, तो महज 5 फीसदी औरतों ने ही हां में जवाब दिया. गंवई इलाकों की तुलना में कसबों के हालात थोड़ा बेहतर हैं. अपनी ही जाति में शादी करने वालों में मध्य प्रदेश के लोगों की तादाद सब से ज्यादा यानी 99 फीसदी रही, जबकि हिमाचल प्रदेश और छत्तीसगढ़ में यह तादाद 98 फीसदी थी.

भारत में कानूनी तौर पर जाति से बाहर शादी करने को मान्यता मिली हुई है. इंटरकास्ट मैरिज को ले कर 50 साल पहले ही कानून पास किया जा चुका है, फिर भी लोग ऐसा करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं. इस की अहम वजह यह है कि ऐसा करने पर अपने ही समुदाय के लोग इन लोगों का जीना मुश्किल कर देते हैं. झारखंड की रहने वाली काजल के घर वालों के साथ महज इस वजह से मारपीट की गई, क्योंकि काजल ने दूसरी जाति के सुबोध कुमार नामक लड़के से लवमैरिज की थी.

इस बात को 2 साल हो चुके हैं. शादी के वक्त दोनों बालिग थे और इस रिश्ते को उन के परिवार वालों की हामी भी मिली हुई थी, फिर भी यह बात उन के समुदाय के दूसरे लोगों को हजम नहीं हो रही थी. गांव के कुछ दबंगों द्वारा उन्हें धमकियां दी जाती थीं. जुर्माने के तौर पर उन्होंने रुपयों की भी मांग रखी थी. 16 मई, 2016 को समाज का गुस्सा इतना उबला कि 4-5 लोग लाठियां ले कर काजल के पिता एस. प्रजापति के घर पहुंच गए. काजल के मांबाप और दोनों भाइयों को पहले बंधक बनाया गया और फिर उन की जम कर पिटाई की गई. घायल परिवार रोताबिलखता थाने पहुंचा. दिल की आवाज सुनने का यह हश्र सिर्फ काजल का ही नहीं हुआ है, बल्कि ऐसे हजारों नौजवान जोड़े हैं, जिन्हें अपनी जाति से बाहर शादी करने की सजा भुगतनी पड़ी है. उन्हें जिस्मानी व दिमागी रूप से इतना सताया जाता है कि कई दफा थकहार कर वे खुदकुशी तक कर लेते हैं और यह सब करने वाले आमतौर पर उन के घर वाले नहीं, बल्कि उन की जाति और गांव के लोग होते हैं.

जरा सोचिए, भारत में तकरीबन 3 हजार जातियां और 25 हजार उपजातियां हैं. शादी के वक्त न सिर्फ जाति, बल्कि उपजाति का भी खयाल रखना पड़ता है. इस के बाद जाहिर है कि हर इनसान की अपनी खास पसंद होती है. उसे खास भाषा, माली हालत, प्रोफैशन, उम्र, सामाजिक बैकग्राउंड वगैरह भी देखना होता है. जाहिर है, इन सब के बीच अपने जीवनसाथी का चुनाव करना बहुत  ही मुश्किल हो जाता है. इस का नतीजा यह निकलता है कि डिमांड और सप्लाई  का सिद्धांत काम करने लगता है और शादी के बाजार में लड़कों की कीमत आसमान छूने लगती है. यहीं से दूसरी सामाजिक बुराइयां भी पनपने लगती हैं.

यूरिक एसिड को कंट्रोल करने के लिए करें इन फलों और सब्जियों का सेवन

Diet to control high Uric acid : आज के समय में हाई यूरिक एसिड की समस्या तेजी से लोगों में देखने को मिल रही है. दरअसल शरीर में यूरिक एसिड के बढ़ने से अपने आप कई समस्याएं होने लगती हैं. जैसे कि उंगलियां से लेकर एड़ियों और घुटने में तेज दर्द आदि. ऐसे में लोगों को अपनी सेहत का विशेष ध्यान रखना होता है.

हाई यूरिक एसिड की समस्या से ग्रसित लोगों को उस भोजन को खाने से बचना चाहिए, जिसमें प्यूरीन की अधिक मात्रा होती है, नहीं तो उनकी समस्या और ज्यादा बढ़ सकती है. तो आइए जानते हैं डाइट में किन-किन फलों और सब्जियों को शामिल करने से यूरिक एसिड की समस्या कम व खत्म हो जाती है.

यूरिक एसिड कंट्रोल करने के लिए खाएं ये फल-सब्जियां

  • नींबू

हाई यूरिक एसिड की समस्या से परेशान लोगों को अपनी डाइट में नींबू जरूर शामिल करना चाहिए, क्योंकि इससे प्यूरीन को डाइजेस्ट करने में मदद मिलती है.

  • नाशपाती

हाई यूरिक एसिड वाले लोगों के लिए नाशपाती का सेवन लाभदायक होता है. दरअसल नाशपाती खाने से यूरिक एसिड कंट्रोल में रहता है. साथ ही शरीर को प्यूरीन पचाने में मदद मिलती है.

  • जिमीकंद

जिमीकंद में हाई फाइबर होता है, जिसे खाने से यूरिक एसिड तो कंट्रोल में रहता ही है. साथ ही पाचन भी बेहतर होता है. इसके अलावा जिमीकंद डायबिटीज मरीजों के लिए भी फायदेमंद होता है, क्योंकि इससे ब्लड शुगर लेवल कंट्रोल में रहता है.

  • संतरा

यूरिक एसिड को कंट्रोल करने के लिए अपनी डाइट में संतरा को शामिल करना चाहिए. संतरे में रेशे होते हैं जिससे पाचन अच्छा रहता है.

Sidhu In Kapil Sharma Show : कपिल शर्मा के कॉमेडी शो में फिर होगी ‘सिद्धू’ की वापसी !

Sidhu In Kapil Sharma Show : ‘द कपिल शर्मा शो’ लंबे समय से दर्शकों का सबसे पसंदीदा शो बना हुआ है. लोग बेस्रबी से इसके नए एपिसोड का इंतजार करते हैं. इस शो को कपिल शर्मा होस्ट करते है, जिनके शानदार अंदाज पर लाखों लोग फिदा है. शो के लेटेस्ट एपिसोड की बात करें तो अब आपको जल्द ही एक्ट्रेस रेणुका शहाणे, ऋचा अनिरुद्ध, मिनी माथुर और परिजाद कोलाह देखने को मिलेंगे.

हाल ही में शो का नया प्रोमो वीडियो (Sidhu In Kapil Sharma Show) जारी किया गया है, जिसमें मजाकिया अंदाज में कपिल शर्मा ने अनाउंस किया है कि शो पर जल्द ही नवजोत सिंह सिद्धू वापसी करने वाले हैं.

सिद्धू-परिजात होस्ट करते थे ‘द ग्रेट इंडियन लाफ्टर चैलेंज’

आपको बता दें कि, परिजाद कोलाह और नवजोत सिंह सिद्धू (Sidhu In Kapil Sharma Show) ने एक साथ ‘द ग्रेट इंडियन लाफ्टर चैलेंज’ शो होस्ट किया है.  दरअसल, शो के ट्रेलर में कपिल शर्मा बता रहे हैं कि नवजोत शो पर तब वापसी करेंगे जब परिजाद उनके आने की अनाउंसमेंट करेंगी. इसके बाद कपिल परिजाद को कहते है कि वो शो में नवजोत के आने की अनाउंसमेंट करें. ये सुनते ही अर्चना पूरण सिंह के चहेरे पर थोड़ी चिंता दिखाई देती हैं. हालांकि वह अपने हाथ से ना का इशारा भी करती है.

अर्चना की बड़ी मुश्किलें

इसके बाद कपिल एंट्रेंस गेट की तरफ ईशारा करते हुए कहते हैं- ठोको ताली! आपको बता दें कि, ठोको ताली! सिद्धू का ट्रेडमार्क डायलॉग है. इसलिए ये सुनते ही अर्चना दरवाजे की तरफ देखती है. हालांकि उन्हें थोड़ी देर बाद एहसास हो जाता है कि कपिल ने एक बार फिर उनके साथ मजाक किया है.

बहरहाल पिछले हफ्ते कपिल शर्मा शो के आखिरी एपिसोड की शूटिंग पूरी हो चुकी है, जिसके बाद इस साल के अंत तक या अगले साल की शरुआत में शो एक बार फिर एयर किया जाएगा.

Anupamaa Spolier Alert: अपकमिंग एपिसोड में होगा बड़ा एक्सीडेंट, अनुपमा या माया किसकी होगी मौत?

Anupamaa Spolier Alert : छोटे पर्दे के मोस्ट पॉपुलर सीरियल ‘अनुपमा’ में रोजाना कुछ न कुछ ऐसा होता है जिससे दर्शकों का एंटरटेनमेंट बना रहता है. बीते एपिसोड में दिखाया गया था कि माया अनुपमा से सबके सामने बदसलूकी करती है. हालांकि इस बीच कांताबेन माया को चांटा मारती है और उसे खूब खरी-खोटी सुनाती है. इसके बाद अनुज अनुपमा से माफी मांगता है और उसे रोते हुए विदा करता है. इसके अलावा आज के एपिसोड (Anupamaa Spolier Alert) में दिखाया जाएगा कि माया अनुपमा को गाड़ी से उड़ाने का प्लान बनाती है लेकिन इसमें उसकी ही मौत हो जाएगी.

माया का शातिर प्लॉन

आगामी एपिसोड (Anupamaa Spolier Alert) में दिखाया जाएगा कि माया मन-मन में सोचती है कि वह अनुपमा को गाड़ी से उड़ा देगी. वह एक सपना देखती है जिसमें वह एक गाड़ी लेकर अनुपमा का पीछा करती है और मौका मिलते ही उसे उड़ा देती है. इसके बाद दिखाया जाएगा कि माया अपने कमरे में तोड़फोड़ कर रही होती है कि उसे अपनी आंखों के सामने अनुपमा दिखती है. फिर माया अनुपमा से कहती है तुम क्यों वापस आई हो? इसके बाद अनुपमा माया को पकड़ कर बैठाती है और उससे कहती है कि उसे कुछ बात करनी है.

माया को समझाएगी अनुपमा

आगे दिखाया जाता है कि बाहर अनुज और कांताबेन को माया की काफी चिंता हो रही होती है, जिसके बाद अनुज कहता है कि यहां अनुपमा को वापस नहीं आना चाहिए था. फिर कांताबेन कहती है पहले माया अपने मन का कर रही थी. अब अनुपमा को करने दो, तुम चिंता मत करों.

दूसरी तरफ अनुपमा माया से कहती है कि, ‘मैं तुम्हारी परेशानी हूं, लेकिन मैं तो अब जा रही हूं. इसलिए अब तुम अपने मन में मेरे लिए नफरत मत पालो और न ही मैं और अनुज तुम्हारे साथ कोई खेल खेल रहे हैं. वैसे भी अगर हमें साथ रहना होगा तो हम रह सकते हैं क्योंकि हम विवाहित है. इसके अलावा कानून भी हमें साथ रहने की इजाजत देता है, तो अपने मन से ये भ्रम निकाल दो कि हम किसी और की वजह से साथ नहीं रह रहे हैं.’

अनुपमा- अनुज सात जन्मों तक मेरे ही रहेंगे

इसके आगे अनुपमा (Anupamaa Spolier Alert) माया को समझाते हुए कहती है, ‘और अगर रही बात अनुज की तो वह मेरे थे, मेरे हैं, और हमेशा मेरे ही रहेंगे. सात जन्मों तक रहेंगे. मैंने अनुज को केवल और केवल अपनी बेटी के लिए छोड़ा है. जिंदगी काफी छोटी है इसलिए इसे खुलकर और खुशी से जियो.’

इसके आगे आने वाले एपिसोड में दिखाया जाएगा कि माया अनुपमा से माफी मांगती है. जब दोनों बात कर रहे होते है तो वहां एक ट्रक आ जाता है और अनुपमा की जान बचाने के लिए माया अपनी जान दे देती है.

उप मुख्यमंत्री : पावर कम झुनझुना ज्यादा

छत्तीसगढ़ में त्रिभुवन शरण सिंह और अब महाराष्ट्र में अजित पवार उप मुख्यमंत्री बन गए हैं जबकि सभी जानते हैं कि उप मुख्यमंत्री पद का संविधान में न तो कोई स्थान है और न ही कोई अतिरिक्त पावर। इन सब के बावजूद उप मुख्यमंत्री पद महत्त्वाकांक्षी नेताओं के लिए एक ऐसा झुनझुना बन गया है, जिसे हर वह नेता बजाना चाहता है जो राजनीति में थोड़ा भी रसुख बना लेता है.

यक्ष प्रश्न यही है कि जब संविधान में उप मुख्यमंत्री पद का कोई उल्लेख नहीं है फिर कोई मुख्यमंत्री अपने मनमरजी से किसी को यह उप मुख्यमंत्री पद का झुनझुना कैसे दे सकता है?

लाख टके का सवाल

अगर देश में संविधान है, कानून है उच्चतम न्यायालय है तो इस पर संज्ञान लिया जाना चाहिए क्योंकि लाख टके का सवाल है कि अगर यह सब चलता रहा तो जो व्यक्ति सत्ता पावर में होगा वह आगे चल कर ऐसे भी निर्णय ले सकता है जिस से देश को बड़ी क्षति का सामना करना पड़े.

आजादी के बाद संविधान इसीलिए बनाया गया ताकि उस के संरक्षण में काम किया जा सके और देश को आगे ले जाने की भूमिका अदा की जा सके. मगर संविधान को दरकिनार कर के उप प्रधानमंत्री, उप मुख्यमंत्री, संसदीय सचिव जैसे पदों का निर्माण किया गया है जो चिंता का सबब होना चाहिए.

जवाब कौन देगा?

इस मसले पर कुछ ऐसे तथ्य आप के सामने हैं जो आप को सोचने पर मजबूर कर सकते हैं. देश के नेताओं से एक सवाल है कि क्या उप मुख्यमंत्री का पद संवैधानिक पद है? निस्संदेह इस का कोई जवाब सरकार के पास नहीं है. यह भी सच है कि संविधान में उप मुख्यमंत्री, उप प्रधानमंत्री और संसदीय सचिव पद को ले कर कोई व्याख्या नहीं की गई है.

नेताओं की महत्त्वकांक्षा में आज इसे प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री के बाद दूसरे नंबर का सम्मानजनक पद बना दिया है. अब उप मुख्यमंत्री राजनीतिक हित साधने के लिए बनाया जाता है तो कभी गठबंधन धर्म निभाने के लिए.

राजनीतिक स्थिरता बनाए रखने के लिए कैबिनेट में उप मुख्यमंत्री को रखा जाता है. जैसे गत दिवस रातोंरात महाराष्ट्र में अजित पवार उप मुख्यमंत्री बन गए. तेलंगाना में मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के साथ 2 उप मुख्यमंत्री रह चुके हैं, जिन में एक मुसलिम तो दूसरा दलित था. दरअसल, यह संविधानिक रूप से गलत है कि अपने विशेषाधिकार से अपनी कैबिनेट में उप मुख्यमंत्री को रखे.

इस वक्त अनेक राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में उप मुख्यमंत्री मुख्यमंत्री के साथ काम कर रहे हैं. यह भी रोचक तथ्य है कि आंध्र प्रदेश में सब से ज्यादा 5 उप मुख्यमंत्रियों को रखा गया. इसी तरह दिल्ली में केजरीवाल ने मनीष सिसोदिया को उप मुख्यमंत्री बनाया जो वर्तमान में जेल में हैं.

पहले उप मुख्यमंत्री बने थे एक पूर्व राष्ट्रपति

यह जान कर आप को हैरानी होगी कि देश के पहले उप मुख्यमंत्री बने थे नीलम संजीव रेड्डी जो बाद में देश के राष्ट्रपति बने.

उप मुख्यमंत्री पद पर नियुक्ति की शुरुआत 1953 में हो गई थी. उस दौरान मद्रास प्रैसीडैंसी से तेलुगु भाषी क्षेत्र को अलग कर आंध्र प्रदेश राज्य का गठन किया गया था. इस राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने थे टी. प्रकाशम और उन्होंने नीलम संजीव रेड्‌डी को उप मुख्यमंत्री बनाया था.

इस महत्त्वपूर्ण विषय पर सुप्रीम कोर्ट में भी चर्चाएं होती रही हैं. उप मुख्यमंत्री या उप प्रधानमंत्री के अधिकारों पर बहस आज नहीं, बल्कि दशकों पूर्व हो चुकी है। देश के 2 बार उप प्रधानमंत्री रहे हरियाणा के दिग्गज नेता चौधरी देवी लाल ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई थी.

खत्म हो यह व्यवस्था

राष्ट्रीय लोक दल के प्रमुख रहे चौधरी देवी लाल 1989 से 1990 और 1990 से 1991 के बीच उप प्रधानमंत्री रहे. उन की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि उप प्रधानमंत्री का पद संवैधानिक नहीं है. उप प्रधानमंत्री भी बाकी मंत्रियों की तरह मंत्रिमंडल के सदस्य हैं. मंत्रियों की तरह की उन के भी अधिकार हैं.

अब समय आ गया है कि उप प्रधानमंत्री हो या फिर उप मुख्यमंत्री पद, वह केंद्र सरकार या फिर देश का उच्चतम न्यायालय कानून बना कर नियंत्रित करें. हो सके तो आप चिंतन करें कि अगर यह उप प्रधानमंत्री, उप मुख्यमंत्री पद का झुनझुना नहीं होता तो कितना अच्छा होता.

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