कई बरस पुरानी बात है. लुधियाना के सीएमसी (क्रिश्चियन मैडिकल कालेज) अस्पताल में पीडिएट्रिक सर्जरी यूनिट के इंचार्ज हुआ करते थे डा. योगेश कुमार सरीन. सीएमसी से थोड़ा आगे डा. जेनी का नॄसगहोम था. डा. जेनी से डा. सरीन का अच्छा परिचय था. एक दिन वह किसी काम से उन के यहां गए तो देखा कि डा. जेनी किसी ङ्क्षचता में डूबी थीं. डा. सरीन ने उन्हें गुडमौॄनग कहा तो वह हड़बड़ा कर उठ बैठीं, “डा. सरीन, वैरी गुडमौनग. यह तो बहुत अच्छा हुआ कि आप आ गए. आइए, आप खुद देखिए यहां कैसी आश्चर्यजनक घटना घटी है.”

डा. जेनी डा. सरीन को लेबररूम के साथ वाले कमरे में ले गईं और एक बैड पर लेटी बच्ची उन्हें दिखाई. उस बच्ची को देख कर डा. सरीन चौंके. बैड पर एक नहीं, 2 नवजात बच्चियां लेटी थीं. आम इंसानों की तरह उन के भी 2-2 हाथ, 2-2 पैर थे.

मगर खास बात यह थी कि दोनों के धड़ बीच से जुड़े थे. एक का पेट कहां पर खत्म हुआ और दूसरी का कहां से शुरू हुआ, इस का पता गहराई से देखने पर भी नहीं चल रहा था. दोनों की एक ही नाभि थी, जबकि टांगें विपरीत दिशा में थीं. उन की स्थिति 180 डिग्री का कोण दर्शा रही थी.

उन बच्चियों को देख कर सरीन ने डा. जेनी से पूछा, “डिलीवरी कितने बजे हुई है?”

“सुबह करीब 7 बजे. हैरान करने वाली बात यह है डाक्टर साहब कि डिलीवरी पूरी तरह नौरमल थी. मेरी तो यही समझ में नहीं आ रहा कि मेरे हाथों एकदम सहज रूप से यह डिलीवरी हो कैसे गई?”

“कब क्या हो जाए, कहा नहीं जा सकता. खैर, बच्चियों को देख कर जच्चा का क्या रिएक्शन रहा? अभी वह कहां है?”

“वह तो बेहोश पड़ी है. लेकिन उस का पति यहीं है. उस से कोई बात करना चाहें तो बुला लेती हूं. ऐसी विचित्र संतान देख कर मेरी तरह वह भी काफी परेशान है.”

डा. सरीन चुपचाप खड़े सोचते रहे. उन्हें सोचते देख डा. जेनी भी चुप हो गईं. कुछ देर बाद वह बोले, “हां, बच्चियों के पिता को बुलवा लें.”

डा. जेनी ने एक कर्मचारी को भेज कर उन बच्चियों के पिता राजकुमार को बुलवा लिया. वह लुधियाना के धूरीलाइन एरिया का रहने वाला था और एक हौजरी कंपनी में मशीन औपरेटर था. उस ने बताया कि उस की पत्नी लता के प्रसव का समय नजदीक आने पर वह चैकअप के लिए इसी नॄसगहोम में लाया था. उसे बताया गया कि लता के गर्भ में जुड़वां बच्चे हैं.

यह पता लगने के बाद वह पत्नी का विशेष ध्यान रखने लगा. अब जब उस की पत्नी को अजीबोगरीब बच्चियां पैदा हुई हैं तो वह असमंजस में है कि क्या करे.

राजकुमार की बात खत्म होने पर डा. सरीन   बोले, “चलो जो होना था, वह हो गया. इन बच्चियों को ले कर अब आगे क्या सोच रहे हो?”

डा. सरीन की बात सुन कर राजकुमार की आंखों में आंसू भर आए. लग रहा था जैसे वह अभी रोने वाला है. वह किसी तरह अपनी भावनाओं पर काबू पाते हुए बोला, “डाक्टर साहब, यहां से घर जाते ही सब लोग हम पर हंसेंगे. मैं भला उन्हें क्या जवाब दूंगा. मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा. आखिर इन बच्चियों का हम करेंगे क्या?”

“ये तुम्हारी अपनी औलाद हैं न कि गैर की. इन के बारे में फैसला तुम्हीं को लेना पड़ेगा.”

“मैं क्या फैसला लूं डाक्टर साहब, लता अभी बेहोशी में है. होश में आने पर जब वह इन अजीबोगरीब बच्चियों को देखेगी तो उस का हार्ट फेल हो जाएगा. घबराहट में इस वक्त मेरी भी टांगें कांप रही हैं.”

“किस बात की घबराहट है तुम्हें, बताओ? इस सब में तुम्हारी तो कोई गलती नहीं है. बहरहाल, यह सब ठीक भी हो सकता है.”

“मतलब, क्या ये बच्चियां ठीक हो सकती हैं.” राजकुमार ने भावुक हो कर कहा.

डा. सरीन ने राजकुमार की पीठ पर हाथ रखते हुए उसे ढांढ़स बंधाते हुए कहा, “मैडिकल साइंस ने इतनी तरक्की कर ली है कि असंभव मानी जाने वाली बातें संभव होने लगी हैं. कोई बड़ी बात नहीं कि औपरेशन द्वारा अलग कर के इन्हें नौरमल जिंदगी जीने लायक बना दिया जाए.”

“ऐसा है तो डाक्टर साहब कर दीजिए इन का औपरेशन. मैं तो समझता हूं कि औपरेशन के बाद दोनों में से एक भी बच गई तो हमारे जीवन में खुशियां लौट आएंगी.” उस ने कहा.

“देखो, औपरेशन के बाद एक बचेगी, दोनों मर जाएंगी या फिर दोनों बच जाएंगीं, इस बारे में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता. इस मुद्दे पर कुछ भी सोचने के बजाय फिलहाल तुम यह बताओ कि औपरेशन का खर्च उठा सकते हो?”

डा. सरीन के सवाल का जवाब देने के बजाय राजकुमार ने उन्हीं से सवाल किया, “कितना खर्च आ सकता है?”

“कम से कम एक लाख रुपए तो मान कर चलिए.”

एक लाख रुपए का नाम सुन कर राजकुमार के चेहरे पर हवाइयां उडऩे लगीं. वह एकदम मरी सी आवाज में बोला, “डाक्टर साहब, जितना मैं कमाता हूं, उस से हमारी रोटी मुश्किल से चलती है. इतनी बड़ी रकम जुटाना हमारे बस की बात नहीं है.”

“ठीक है, तुम परेशान मत होओ. तुम्हारे जैसे असमर्थ लोगों के लिए हमारे यहां अस्पताल की तरफ से खर्च उठाने का प्रावधान है. इस बारे में मैं अस्पताल के अधिकारियों से बात करता हूं.” डा. सरीन ने कहा.

“डाक्टर साहब, अगर ऐसा हो जाए तो मैं आप का और अस्पताल वालों का एहसान कभी नहीं भूल पाऊंगा.”

इस के बाद राजकुमार को कमरे से बाहर भेज कर डा. सरीन ने डा. जेनी से इस बारे में चर्चा करते हुए कहा, “मेरी राय में बच्चियों को अभी सीएमसी ले जा कर उन के टेस्ट करा लेने चाहिए. जब सारे टेस्टों की रिपोर्ट आ जाएंगी, तभी इन के औपरेशन के बारे में सोचा जा सकेगा.”

“बच्चियों के पिता से आप की बात हो ही चुकी है. फिर हमें भला क्या एतराज हो सकता है. आप इन बच्चियों को सीएमसी ले जाएं.” डा. जेनी बोलीं.

“अभी इन्हें यहीं रहने दो. मैं इस बारे में पहले सीएमसी के अधिकारियों से बात कर लूं.” कह कर डा. सरीन वहां से चले आए. इस के बाद उन्होंने सीएमसी के डायरैक्टर डा. रिचर्ड डेनियल, डा. अब्राहम थौमस और मैडिकल सुपरिटैंडेंट डा. बसंत पवार से बात की. सब ने छूटते ही कहा, “डा. योगेश, यदि आप को लगता है कि ये बच्चियां औपरेशन द्वारा अलग हो सकती हैं तो उन्हें तत्काल यहां ले आओ. औपरेशन का खर्च अस्पताल वहन कर लेगा.”

इस तरह जन्म के 4 घंटों के अंदर ही बच्चियों को सीएमसी के आइसोलेशन रूम में भरती कर लिया गया. उस वक्त दिन के ठीक 11 बजे थे. तब तक राजकुमार के रिश्तेदारों को यह खबर मिल गई थी. उन में से कइयों ने तत्काल अस्पताल पहुंच कर अधिकारियों व डाक्टरों से अपनी नाराजगी जाहिर की. यह नाराजगी इस बात पर थी कि डाक्टर बच्चियों की जान की कीमत पर नया प्रयोग करने जा रहे थे.

कई वरिष्ठ डाक्टरों ने उन्हें समझाया कि वह इन बच्चियों पर प्रयोग नहीं कर रहे, बल्कि इन की सलामती के लिए औपरेशन कर रहे हैं. यह बात रिश्तेदारों की समझ में आई, तब कहीं जा कर वे लोग शांत हुए.

बाद में इन बच्चियों की बात पूरे शहर में फैल गई तो लोगों में उन्हें देखने की जिज्ञासा जाग उठी. वे बच्चियों की एक झलक देखने के लिए डाक्टरों से गुहार लगाने लगे. कई स्थानीय पत्रकार भी अस्पताल में उच्चाधिकारियों से मिले. लेकिन अस्पताल प्रशासन ने पत्रकारों से भी कह दिया कि अभी वे इस मामले को सार्वजनिक नहीं करना चाहते. अस्पताल की जिस ङ्क्षवग में उन बच्चिों के परीक्षण वगैरह चल रहे थे उस ङ्क्षवग के मुख्य दरवाजे पर ताला लगा दिया गया, ताकि कोई भी वहां न पहुंच सके.

डा. सरीन ने बच्चियों के भीतरी हिस्सों की जानकारी लेने के लिए एक्स-रे, सीटी स्कैन, एमआरआई आदि करवाए. इन की रिपोर्टों से पता चला कि बच्चियों के सैक्सुअल आर्गेंस कौमन हो चुके थे. पेशाब की 2 थैलियां थीं तो बड़ी आंत कौमन थी. योनि में 3-3 छेदों के बजाय 1-1 छेद था. एक छेद में से कभीकभी सिर्फ पेशाब आता था तो दूसरी के छेद में से मल व पेशाब दोनों आ रहे थे.

मतलब मल त्याग के लिए दोनों बच्चियों का एक ही द्वार था. एक बच्ची का दायां गुरदा और दूसरी बच्ची का बायां गुरदा एक ही पेडू में खुल रहे थे. दोनों में बड़ी आंत जहां एकसाथ जा रही थी, वहीं छोटी आंत एकदम अलग थी. अनेक टैस्ट करने पर भी योनि व बच्चेदानी का स्टेटस डाक्टरों को पता नहीं लग पा रहा था.

उक्त टैस्टों की रिपोर्टों के चलते निर्णय लिया गया कि बच्चियां जब 7 महीने की हो जाएं, तभी उन का औपरेशन किया जाना चाहिए. डाक्टरों को उम्मीद थी कि तब तक इन के भीतर कुछ अंग भी परिपक्व हो जाएंगे.

इस दौरान डाक्टरों व अधिकारियों  के बीच औपरेशन की बारीकियों पर वार्ताएं व तैयारियां चलती रहीं. उस वक्त इन लोगों के सामने एक अन्य समस्या भी आई. समस्या यह थी कि सीएमसी में पीडिएट्रिक सर्जरी के एक ही डाक्टर थे डा. योगोश कुमार सरीन. जबकि इस अति नाजुक तथा अहम औपरेशन के लिए उन्हें सहयोग करने के लिए एक और डाक्टर की आवश्यकता थी.

ऐसे किसी डाक्टर की तेजी से तलाश शुरू हुई. चंडीगढ़ के पीजीआई (पोस्टग्रैजुएट इंस्टीट्यूट औफ मैडिकल साइंसेज) अस्पताल के शिशु शल्य चिकित्सा विभाग में डा. जयकुमार महाजन एक साल के अनुबंध पर कार्यरत थे. अपने किसी सहयोगी के माध्यम से डा. सरीन को डा. महाजन के बारे में जानकारी मिली तो वह चंडीगढ़ जा कर उन से मिले. बातचीत होने पर वह उन्हें अपने लिए एकदम उपयुक्त लगे. डाक्टर महाजन भी उन के साथ काम करने के लिए तैयार हो गए. लेकिन वह पीजीआई के साथ हुए अनुबंध के बाद ही काम कर सकते थे.

डा. सरीन डा. महाजन के पीजीआई के अनुबंध के पीरिएड गुजरने का इंतजार करने लगे. जैसे ही डा. महाजन का पीजीआई चंडीगढ़ से अनुबंध खत्म हुआ, उन्होंने लुधियाना आ कर सीएमसी जौइन कर लिया. तब तक दोनों बच्चियां 7 महीने की हो चुकी थीं. लिहाजा डा. सरीन ने औपरेशन की तिथि निर्धारित कर दी. अपनी पूरी तैयारी और औपरेशन के रिहर्सल वगैरह डा. सरीन ने एक सप्ताह पहले ही से शुरू कर दिए.

अलगअलग विषयों वाले डाक्टरों की एक टीम इस कार्य को संपन्न करने के लिए तैयार की गई. डा. सरीन के औफिस में इस टीम के सदस्यों की रोजाना 2-3 घंटों की मीङ्क्षटग होने लगी. एकएक नुक्ते पर गहनता से विचार किया जाने लगा. फिर एक दिन डा. सरीन अपनी टीम के साथ औपरेशन थिएटर में गए और डमी पर औपरेशन कर के अपना रिहर्सल किया.

डा. सरीन ने पढ़ रखा था कि इश्चियो फेग्स टेटरीपस की श्रेणी में आने वाले केस के तहत भारत में इस तरह का पहला औपरेशन सन 1986 में कोलकाता में हुआ था. इसे डा. सुबीर चटर्जी ने किया था. इस औपरेशन की प्रक्रिया 4 महीनों तक चली थी. वह भी 2 चरणों में. दूसरी ओर डा. सरीन ऐसे औपरेशन को एक ही चरण में पूरा कर के नया कीॢतमान बनाने की योजना पर विचार कर रहे थे.

अपनी सभी तैयारियों के साथ डा. सरीन उस दिन भोर में ही तैयार हो कर अस्पताल पहुंच गए. अपने केबिन में एक घंटे से ज्यादा समय तक एकाग्रचित्त बैठ कर वह औपरेशन की तमाम स्थितियों पर गहराई से विचार करते रहे. सुबह के ठीक 7 बजे वह औपरेशन थिएटर में पहुंच गए.

पूरी तैयारी के बाद औपरेशन शुरू होने पर बच्चियों का मध्य भाग खुला तो एक आश्चर्यचकित करने वाली बात यह सामने आई कि बच्चियों की बच्चेदानी और योनि का एक ही रास्ता था. यूटेरस में ही आगे आंत के साथसाथ पेशाब के मसाने भी खुल रहे थे. यह जानकारी डा. सरीन को किसी भी टैस्ट से नहीं मिली थी. फिर भी उन्होंने औपरेशन शुरू किया. इस प्रक्रिया में उन्होंने बच्चियों की बड़ी आंत काट कर बराबर बांट दी. रेशों तक को उन्होंने पूरी बारीकी एवं सफाई के साथ आपस में जोड़ दिया.

औपरेशन में एनेस्थीसिया का भी अहम रोल रहा. डा. ललिता अफजल और डा. मेरी वर्गीज ने अपनी टीम के साथ इस भूमिका को बखूबी निभाया. बच्चियों के जिस्म को काट कर अलग कर दिए जाने के बाद आर्थोपीडियंस

डा. ए.के. माम और डा. अतुल ने अपनी टीम के साथ बच्चियों के कूल्हों की हड्डियों को पहले काटा, फिर सही स्थिति में जोड़ दिया. इस से उन की टांगें पूरी तरह सहज अवस्था में आ गईं. इस के बाद डा. अब्राहम थौमस की निजी देखरेख में हुए कौस्मैटिक सर्जरी के महत्त्वपूर्ण कार्य को भी संपन्न कर दिया गया.

इस तरह शाम के साढ़े 6 बजे एक बच्ची को औपरेशन थिएटर से निकाल कर इंटेसिव केयर यूनिट (आईसीयू) में भरती कर दिया गया. ठीक एक घंटे बाद दूसरी बच्ची को भी औपरेशन थिएटर से निकाल कर आईसीयू में शिफ्ट कर दिया गया.

अस्पताल के भीतर कितना बड़ा इतिहास रचा जा रहा था, इस बात की जरा भी भनक बाहर किसी को न लगे, इस के पूरे प्रबंध किए गए थे. औपरेशन सफल हो जाने के एक हफ्ते बाद तक भी अस्पताल के बाहर किसी को इस बात की खबर नहीं लगी कि दोनों बच्चियों का औपरेशन हो गया या नहीं? और यदि हो गया तो वे किस स्थिति में हैं.

मैडिकल सुपरिटेंडेंट डा. बसंत पवार ने जब बच्चियों के स्वास्थ्य की जांच कर ली तो सीएमसी के डाइरैक्टर डा. रिचर्ड डेनियल और एमएस डा. बसंत पवार ने एक संवाददाता सम्मेलन कर अपने मैडिकल संस्थान की यह बहुत बड़ी सफलता सार्वजनिक की.

अपनी बच्चियों के सफल औपरेशन पर राजकुमार और उस की पत्नी लता की आंखों में खुशी के आंसू छलक आए. निशुल्क औपरेशन करने पर उन्होंने सीएमसी के प्रशासनिक अधिकारियों और डाक्टरों का आभार व्यक्त किया.

सोलहवीं सदी के प्रख्यात चिकित्सक एंबरोस पारे ने अपनी एक पुस्तक में लिखा था कि प्रकृति के विपरीत असाधारण रूप से जुड़े हुए प्राणियों को दैत्य कहा जाता है और वे प्राय: कुछ समय तक ही जीवित रहते हैं.

मगर आज के युग में ऐसा नहीं है. स्वास्थ्य संबंधी साहित्य में ऐसे कई किस्से मशहूर हुए हैं. सर्वाधिक मशहूर किस्सा एंग और चांग भाइयों का है, जो कि साएम में सन 1811 में पैदा हुए थे. उन के पिता चीनी थे, मां आधी चीनी व आधी साइमीस थी. एंग और  चांग निचली छाती व नाभि की जगह आपस में जुड़े थे और उन के बीच के जुड़े भाग का दायरा 17 सेंटीमीटर था. 18 साल की उम्र में ये अमेरिका जा कर वारनस की सर्कस में भरती हो गए थे.

63 वर्ष जीने वाले इन भाइयों की नुमाइश कर वारनस ने खूब पैसे कमाए. यहीं से वारनस ने इन का नाम सिआमीज ङ्क्षट्वस रख दिया और यह संज्ञा आज भी विभिन्न तरह से जुड़े हुए बच्चों के लिए दी जाती है.

एंग और चांग ने जुड़वा बहनों से शादी की. एंग ने 9 बच्चे और चांग ने 10 बच्चे पैदा किए. अपने जीवन में एंग और चांग ने खूब पैसे कमाए, परंतु सारी ङ्क्षजदगी ये जानवरों की तरह दुनिया भर में प्रदॢशत किए गए. 63 वर्ष की उम्र में चांग की निमोनिया से मृत्यु हो गई. इस के 2 घंटे बाद एंग ने भी प्राण त्याग दिए. इन के पोस्टमार्टम में दोनों के बीच थोड़ा सा जिगर ही जुड़ा पाया गया. वर्तमान ज्ञान और शल्य चिकित्सा विशेषज्ञों के अनुसार ऐसे केस को आसानी से अलग किया जा सकता है.

इतिहास ऐसी कितनी ही कहानियों से भरा है. अब तक 600 के करीब सिआमीज दुनिया भर मेें पैदा हो चुके हें. लेकिन कुछ ही जुड़वां प्राणियों को अलग करने की कोशिश की गई है. ऐसी प्रथम शल्य चिकित्सा सन 1689 में डा. फेरियस ने की थी. अगले 260 सालों में यानी सन 1950 तक केवल 12 ऐसे जुड़वां बच्चों को अलग करने की कोशिश की गई.

दुनिया भर में आज तक केवल 50 के करीब ऐसे जुड़वां सफलतापूर्वक अलग किए जा सके हैं. इन में से प्राय: 2 में से केवल एक को ही जीवित बचाया जा सका है. भारत में अब तक कुल 10 ऐसे जुड़वां बच्चे अलग किए गए, मगर सभी केसों में जिंदा केवल एक ही रह पाया था. लुधियाना वाले केस में एक लडक़ी आज भी जीवित और स्वस्थ है, जबकि दूसरी की कुछ दिनों बाद ही मृत्यु हो गई थी.

मैडिकल सूत्रों के अनुसार 189000 मामलों में एक केस कंजौइंड ङ्क्षट्वस का होता है. इन में एक तिहाई बच्चे 24 घंटों के भीतर मर जाते हैं. यों ऐसे केसों में मेल चाइल्ड के मुकाबले फीमेल चाइल्ड का सरवाइवल रेट 3.1 प्रतिशत है.

लीवर से जुड़ी बच्चियों जन्नत और मन्नत का औपरेशन कर के उन्हें सफलतापूर्वक अलग किया गया है और दोनों स्वस्थ एवं चुस्तदुरुस्त हैं.

मूल रूप से उत्तर प्रदेश के जिला सहारनपुर के रहने वाले मोहम्मद सलीम की पत्नी सोनिया ने अंबाला के कस्बा बराड़ा के सरकारी अस्पताल में जन्नत और मन्नत को जन्म दिया था. इस से पहले इन के यहां 5 साल की नरगिस और 3 साल की नगमा नाम की बेटियां पैदा हुई थीं.

27 अगस्त, 2015 को पैदा होने वाली जन्नतमन्नत पेट और लिवर के निचले हिस्से से आपस में जुड़ी थीं. इन्हें अलग न किया जाता तो उन की मौत संभावित थी, यह सोच कर डाक्टरों ने इन्हें चंडीगढ़ के पीजीआई अस्पताल में रैफर करते हुए जन्म के 4 घंटों के भीतर वहां पहुंचा दिया.

पीजीआई में सर्जरी का फैसला करने के बाद पीडिएट्रिक सर्जरी टीम ने रेडियोलौजी डिपार्टमैंट की मदद ली. 3 महीनों तक दोनों बच्चियों के एमआरआई परीक्षण और सीटी स्कैन किए जाते रहे. इन इमेजिंग से पता चला कि दोनों बच्चियों के शरीर में एक ही लीवर था. अलबत्ता हार्ट, किडनी, इंटेस्टाइन व कुछ अन्य अंदरूनी अंग अलगअलग थे.

पैदाइश के वक्त बच्चियों का वजन काफी कम था, इस स्थिति में उन की सर्जरी करने के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था. 3 महीनों बाद जब उन का वजन बढ़ कर 4 किलोग्राम से ज्यादा हो गया, तब उन की सर्जरी करने पर विचार हुआ.

15 साल पहले भी ठीक इसी तरह का केस पीजीआई में आया था. मगर तब उन्हें अलग नहीं किया जा सका था. बाद में दोनों बच्चियों की मौत हो गई थी. लिहाजा इस बार पीजीआई प्रशासन इस मुद्दे पर बहुत चौकस था. किसी भी तरह के रिस्क के चलते वह अपने खाते में बदनामी लेने के हक में नहीं था.

जन्नत और मन्नत के पिता की आॢथक स्थिति ठीक न होने की वजह से इस औपरेशन पर होने वाला सारा खर्च अस्पताल प्रशासन द्वारा खुद वहन करने का भी निर्णय लिया गया. इस विशेष औपरेशन में इस्तेमाल होने वाले नए उपकरण खरीद कर 2 विशेष औपरेशन थिएटर भी तैयार करने की व्यवस्था की गई थी.

औपरेशन को अपने सफल अंजाम तक पहुंचाने के लिए डा. रवि कनौजिया, डा. जे.के. महाजन, डा. नीरजा और डा. संध्या की अगुवाई में 30 डाक्टरों की एक विशेष टीम तैयार की गई थी. इस टीम में पीडियाट्रिक, एनेस्थीसिया, पीडियाट्रिक आईसीयू व रेडियोलौजिस्ट विभागों से जुड़े तमाम अनुभवी डाक्टर थे. एक औपरेशन थिएटर में बच्चियों का औपरेशन कर के उन्हें अलग किया जाना था तो दूसरे में उन के आगे के अन्य औपरेशन किए जाने थे.

30 नवंबर, 2015 को इस औपरेशन की शुरुआत सुबह ही कर दी गई. यह क्रिया लगातार 8 घंटों तक चली. औपरेशन हर लिहाज से पूरी तरह कामयाब रहा. सर्जरी के बाद जन्नत तो जल्दी ठीक हो गई, लेकिन मन्नत को कुछ समय के लिए वैंटीलेटर पर रखना पड़ा था.

बहरहाल, अब दोनों बच्चियां पूरी तरह तंदरुस्त हो कर अपने मातापिता के साथ घर जा चुकी हैं.

इस औपरेशन के टीम लीडर डा. रवि कन्नौजिया के बताए अनुसार नारमल प्रेग्नैंसी में एंब्रयो फॢटलाइज होने के बाद टूटता नहीं है, जिस वजह से एक ही बच्चा पैदा होता है. यह एंब्रयो अगर फॢटलाइज होने के बाद टूटते हुए भी अगर कहीं से जुड़ा रह गया तो दोनों बच्चों के आपस में जुड़े रहने की संभावना बन जाती है. ऐसे ही बच्चों को मैडिकल साइंस में ‘कंजौइंड ट्विन्स’कहा जाता है

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