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जब मेरे गाने को लोगों का प्यार मिलता है, तभी मुझे खुशी मिलती है -अमन त्रिखा

मुंबई के ठाकुर कालेज से इलेक्ट्रानिक इंजीनियरिंग की पढ़ाई करते करते संगीत से जुड़ने का निर्णय करने वाले गायक अमन त्रिखा को लंबा संघर्ष करना पड़ा. लगभग छह वर्ष तक संघर्ष करने के बाद अमन त्रिखा को संगीत रियालिटी शो ‘‘सुरक्षेत्र‘‘ से जुडऩे का अवसर मिला और इसी से उन्हे काफी शोहरत भी मिली. फिर 2012 में अमन ने फिल्म ‘‘ओह माई गॉड‘‘ में ‘‘गो गो गोविंदा‘‘ नमक गीत गाकर हंगामा बरपा दिया था. जिसके बाद‘‘ सन ऑफ सरदार‘‘, ‘‘स्पेशल 26‘‘ सहित तमाम फिल्मों में पाश्र्व गायन करते आए.  

इतना ही नहीं फिल्म खिलाड़ी 786‘ के गीत हुक्का बार‘ को गाकर जबरदस्त शोहरत बटोरी थी. अमन त्रिखा ने फिल्म ‘‘भूतनाथ‘‘ में अमिताभ बच्चन के लिए भी एक गाना गाया था. आमन त्रिखा के कई सिंगल गाने लोकप्रिय हो चुके हैं.  हाल ही में अमन त्रिखा ने संगानी ब्रदर्स मोशन पिक्चर्स’ के लिए एक गणपति का गाना अपनी आवाज में रिकॉर्ड कराया. उसी अवसर पर अमन त्रिखा से हमारी लंबी बातचीत हुई. . . . .

अमन त्रिखा से हुई एक्सक्लूसिब बातचीत इस प्रकार रही. . .

आपने इलेक्ट्रानिक इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है. . पर बन गए गायक?

 -जी हां! जब मैं इलेक्ट्रानिक इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा थातो फस्ट ईअर में मुझे अहसास हुआ कि मुझे तो संगीत जगत में कुछ करना है. हालांकि मैं बचपन से ही संगीत से जुड़ा हुआ यानी कि की बोर्ड’ बजाया करता था. इसे ईष्वर की देन ही कहा जाएगा कि बिना किसी ट्रेनिंग के ही मैं की बोर्ड’ बजाया करता था. मुझे सुर का भी थोड़ा ज्ञान था. क्रिकेट खेलने का भी शौक था. उस वक्त मैं उन्नीस वर्ष का था. तो संगीतक्रिकेट वगैरह बहुत कुछ चल रहा था. पर जब इंजीनियरिंग कालेज पहुंचातो एक दिन कक्षा में मैं यूं ही कुछ गुनगुना रहा थाक्योंकि उस दिन लेक्चर बहुत बोरिंग था. कुछ देर बाद मेरे बगल में बैठे हुए लड़के ने मुझसे कहा कि तू अच्छा गाता है,तू रोज गाया कर. दो तीन दिन बाद हम मेकेनिकल वर्कशॉप के लिए गए. वहां पर बड़े बड़े हाल होते हैं.  हां बात करने पर या गाने पर आवाज गूंजती है. ऐसी जगह पर गाने और अपनी आवाज को सुनने में बड़ा मजा आता है. वहां पर मैं गुनगुनाता थातो बाहर से आकर लोग मुझे अपनी पसंद का गाना गुनगुनाने के लिए फरमाइश किया करते थे. फिर मैने कालेज में गायन प्रतियोगिता में हिस्सा लिया. वहां मुझे सुनने के बाद मेरे दोस्तो ने मुझे टीवी के रियालिटी शो में हिस्सा लेने के लिए मुझ पर दबाव बनाया. उन दिनों इंडियन आयडल’ व सारेगामापा’ का बुखार पूरे देश में छाया हुआ था. मैं यह 2005 की बात कर रहा हॅू.

सब की बात मानकर मैने भी आॅडीशन दिया. मेरा टाॅप छह में चयन भी हो गया. इस खबर से मेरे घर वाले हैरान हो गए. क्यांेकि उन्हें पता था कि मैं की बोर्ड’ बजाता हॅूं,पर यह गायन की बात उनकी समझ से परे थी. मैने देखा कि टाॅप छह में जितने गायक थे,उनमें से कोई षास्त्रीय संगीत सीख रहा थाकोई कुछ सीख रहा था. खैरमैने कोशिश की और मैं दूसरे नंबर पर आया था. मैं तो ठाकुर कालेजकांदीवालीमंुबई का छात्र हॅूं. हमारे कालेज का ऑडीटेरियम भी काफी बड़ा है. वहां पर सात आठ सौ लोग मौजूद थेउन सभी ने खुब तालियां बजायी. इससे मेरा हौसला बढ़ गया.  उसके बाद मैं ज्यादा समय संगीत में देने लगा. जिसके चलते मैं तीसरे सेमिस्टर में छह विशय में फेल हो गया. जबकि पहले मैं हमेषा 95 प्रतिशत नंबर लाया करता था. बारहवीं में मैने पीसीएम में 95 प्रतिशत नंबर पाए थे. ऐसे में तीसरे सेमिस्टर में छह विशयांे में फेल होना अचंभित करने वाली बात थी. मैने सोचा कि इंजीनियरिंग छोड़कर संगीत में ही रम जाता हॅूं. उसके बाद मैने पढ़ाई पर भी ध्यान देना शुरू किया. तो पढ़ाई पूरी की. उसके बाद फिल्म इंडस्ट्ी की भागदौड़ शुरू हुईइससे तो आप भी वाकिफ हैं. मेरे परिवार के किसी भी सदस्य का फिल्म इंडस्ट्ी से कोई संबंध नहीं था.

इंडियन आयडल में ऑडिशन देने से कोई फायदा मिला?

 -सच कहूं तो संगीत के रियालिटी शो में भी मुझे अहमियत नही दी गयी. वहां पर मैने देखा कि वहां भी सारे निर्णय सिफारिश पर हो रहे हैं. 2006 से 2011 तक मैने कई आॅडीशन दिए. पर हर बार एक मुकाम पर जाकर रोक दिया जाता था. हर शो में किसी न किसी प्रतियोगी की कोई न कोई सिफारिश जरुर होती थी. जिसके चलते हर बार मुझ पर गाज गिरती थी. मेरे साथ कोई नहीं था. मैं तो सिर्फ अपनी प्रतिभा का झंडा लेकर चल रहा थाजिसकी कद्र नहीं हो रही थी. पर मेरा मन कह रहा था कि एक न एक दिन अवसर मिलेगा. इसलिए मैने हार नही मानी. मैने अपना संघर्ष जारी रखा. मुझे भी समझ में आ गया था कि जिनके बाप दादा कई वर्षांे से इस इंडस्ट्ी में हैंउन्हे ही प्राथमिकता मिलेगी. मुझे अपने आप पर व ईष्वर पर भरोसा था.

जब ऑडिशन में आपको रिजेक्षन मिल रहे थेतब क्या अहसास हो रहे थे?

-बहुत दुख होता था. तकलीफ भी होती थी. गुस्सा बहुत आता था. कई बार मैं बहुत हताश हो जाता था. दिल टूटता था. लेकिन मैने सोच लिया था कि अब जिस राह पर चला हूंउस राह पर जितने भी कंकड़पत्थरकीलें हैं,उन्हें तो झेलना ही पड़ेगा.

पहला ब्रेक कैसे मिला था?

-मुझे सबसे पहले संगीतकार हिमेश रेशमिया ने फिल्म ‘‘ओह माय गाॅड’’ का गाना ‘‘गो गो गोविंदा’ गाने का अवसर दिया था. इस फिल्म में अक्षय कुमार,परेश रावल व सोनाक्षी सिन्हा थे. वास्तव में संगीत के रियालिटी शो ‘‘सुरक्षेत्र’’ में मैने हिस्सा लिया था. इसमें भारत व पाकिस्तान के गायको के बीच द्वंद था. उसमें भारतीय टीम के कैप्टन हिमेश रेशमिया जी थे.  इस शो में करीबन तीस एपीसोड में मुझे अलग अलग तरह के गाने गाते हुए हिमेश रेशमिया जी ने सुना था.  मैने गजल व रॉक सहित सब कुछ गाया था. मेरे गायन में इतनी विविधता से हिमेश जी ख्ुाश थे. इस शो में हिमेश जी ने वादा किया था कि वह मुझे एक मौका जरुर देंगेंजिसे उन्होेने ओह माय गाॅड’ में पूरा किया था. गो गो गोविंदा’ काफी लोकप्रिय हुआ. इसके बाद मुझे सन आफ सरदार’ में गाने का अवसर मिला. इसका शीर्ष गीत मैने गाया था. फिर फिल्म खिलाड़ी 786’ का गाना हुक्काबाज’,तो आज भी लोग गुनगुनाते मिल जाएंगे. उसके बाद

स्पेशल 26’ के लिए गाया. उसके बाद मुझे 2014 में फिल्म ‘‘भूतनाथ रिटर्न’ में अमिताभ बच्चन के लिए गाने को मिला. फिर सिलसिला रूका नही.

दस वर्ष के आपके कैरियर के टर्निंग प्वाइंट्स क्या रहे?

-देखिए,मेरा सफर आसान नही रहा. बहुत उतार चढ़ाव रहे. पहले मुझे लगा कि शुरूआत में ही तीन माह के अंदर पांच सुपरहिट गाने आ गए हैंतो अब संघर्ष खत्म हो जाएगा. पर वैसा कुछ भी नहीं हुआ. मैं इंडस्ट्ी के चलन से वाकिफ नही था. मुझे लगता था कि मैने गाना गा दिया. गाना बाजार में आ गया. बस मेरा काम खत्म. लोग ख्ुाद सुनेंगें और सवाल करेंगे कि गायक कौन हैउस वक्त मुझे प्रचार और मीडिया की कोई समझ ही नहीं थी. बाद मंे समझ मंे आया कि बाजार में गाने के आने के बाद एक अलग जंग शुरू होती है. गाने के बाजार में आने के बाद उसे हिट बनाने और लोगों तक पहुॅचाने का एक संघर्ष होता है. मीडिया से बात करनी होती हैवगैरह वगैरह समझ मंे आया. पर पहले में नासमझ थाइसलिए लोग गो गो गोविंदा ’ गुनगुना रहे थेपर उन्हे पता नहीं था कि इसका गायक कौन है.  हुक्का बार’ इतना बड़ा गाना हैपर लोगों को लगता है कि हिमेश भाई ने गाया है. अब मैं लोगो को बताने लगा कि हुक्का बार’ को मैने गाया है और हिमेश भाई ने संगीत दिया है. तो पूरे दस वर्ष संघर्ष में ही बीते हैं.  उस वक्त तो सोशल मीडिया भी नहीं था. पर अब सोशल मीडिया के माध्यम से लोगांे तक पहुंचना आसान हो गया है.  पहले जिनके इंटरव्यू टीवी पर आते थे या अखबारों मंे छपते थेलोग उन्हे ही जानते थे.

तो क्या यह माना जाए कि लोगों को अपने नाम व चेहरे से परिचित कराने के लिए 2014 में आपने अपना संगीत अलबम निकाला था?

 -जी हाॅ! मैने पहला सिंगल गाना गाया था. इसकी वजह यह थी कि मैं फिल्मों में उसी तरह के गीत गा रहा थाजिन्हे संगीतकार मुझसे गवा रहे थे. मैं वहां अपनी पसंद या नापंसद नही चला सकता था.  तो मैने अपनी पसंद का गाना गाने के लिए यह तरीका अपनाया था.

किसी भी फिल्म को गाने से पहले क्या स्क्रिप्ट पढ़ना पसंद करते हैं?

-हमें स्क्रिप्ट नही मिलती. केवल निर्देशक की तरफ से पूरी सिच्युएशन बतायी जाती है. वह बताते हैं कि गाना कहना क्या चाहता है. गाने के पात्र क्या सोच रहे हैंक्या महसूस कर रहे हैं. जिससे मैं वह सारे भाव गाते हुए गाने में ला सकॅूं.

मैं कहां आ गई- भाग 4

इस से भी ज्यादा गजब यह हुआ

कि उस ने सिर्फ यह बताया था कि मेरा घर मुमताजाबाद, मुलतान में है. इस से पहले कि वह मकान नंबर या अब्बा का नाम

बताता, उस की रूह उड़ गई. यह भी हो सकता है कि इतने दिन गुजर जाने के बाद वह यह मालूमात भूल ही गया हो. उसे

सिर्फ मुमताजाबाद याद रह गया हो.”

“उस बेहूदा आदमी ने तुम्हें हम से जुदा कर दिया और तुम उसे मोहसिन कहती हो. सोचो, अगर वह उसी वक्त तुम्हें हमारे

पास ले आता तो आज यह दिन देखने को नहीं मिलता.” रशीद अहमद ने गुस्से से कहा.

“मैं उसे इसलिए मोहसिन कहती हंू कि उस ने अपनी मौत से पहले मेरी हकीकत मुझे बता कर मुझ पर एहसान किया.

अगर वह न बताता तो आज मैं वहां होती, जहां से अगर वापस आती तो आप मुझे अपनी बहन जानते हुए भी कबूल करने से

इनकार कर देते.”

नरगिस ने आगे बताया, “अब यह बताना जरूरी नहीं कि अब मेरा वहां रहना मुश्किल नहीं रहा था. मैं उन के घर से निकली

और मुलतान का टिकट ले कर गाड़ी में बैठ गई. गाड़ी में मुझे सरफराज की वालिदा मिल गई. फिर जो कुछ हुआ, वह

सरफराज साहब आप को बता ही चुके हैं.”

नरगिस को कराची आते ही यह खबर मिल चुकी थी कि उस के वालिदैन का इंतकाल हो चुका है. अब रशीद भाईजान ही उस

के सब कुछ हैं. उस की खुशी आधी रह गई थी, लेकिन यह खुशी फिर भी थी कि अब वह एक शरीफ घर में शरीफाना

ङ्क्षजदगी गुजारेगी.

नई जगह थी, इसलिए सुबह जल्दी ही नींद टूट गई. सुबह से कुछ पहले ही वह बिस्तर से उठी. जब से वह बड़ी बी के घर आई

थी, नमाज की पाबंद हो गई थी. नमाज अदा की और फिर लौन में आ कर टहलने लगी. कुछ देर बाद वह वापस आ गई. घर

में अभी तक सब लोग सो रहे थे. नरगिस कुछ देर अपनी ङ्क्षजदगी पर गौर करती रही. कोई व्यस्तता तो थी नहीं. लेटेलेटे

नींद आ गई. आंख खुली तो घड़ी में साढ़े नौ बज रहे थे. नरगिस घबरा कर उठी और एक बार फिर हाथमुंह धो कर बाहर

निकली तो भाई रशीद को अकेले नाश्ता करते देखा.

नरगिस ने सलाम करने के बाद कहा, “मैं तो समझ रही थी, आप औफिस जा चुके होंगे.”

“अरे, अपना औफिस है. तेरा भाई किसी का मुलाजिम तो है नहीं. आओ, तुम भी नाश्ता कर लो.” रशीद बोला.

“इमराना और फरहाना कहां हैं?” नरगिस ने पूछा.

“उन्हें कालेज जाना होता है, 8 बजे चली गई होंगी.”

“और इमरान?”

“उस की मत पूछो. बरखुरदार नींद के ऐसे शौकीन हैं कि दोपहर की शिफ्ट में दाखिला लिया है. वह 11 बजे उठेंगे.”

“भाभी को तो नाश्ते की मेज पर होना चाहिए था. आप अकेले नाश्ता कर रहे हैं.”

“वह रात को देर तक जागती हैं. उन्हें कहीं जाना तो होता नहीं. अपनी मर्जी से उठती हैं. हमारी मुलाकात शाम की चाय पर

होती है या रात के खाने पर.”

नरगिस सोच में पड़ गई. यह कैसा घर है, जहां लोग एकसाथ बैठ कर नाश्ता भी नहीं करते. हर शख्स अपनी अलग

ङ्क्षजदगी गुजार रहा है.

रशीद अहमद ने नाश्ता किया और तैयार होने के लिए ड्रेङ्क्षसगरूम में चले गए. तैयार हो कर आए तो नरगिस भी नाश्ता

कर चुकी थी.

“अच्छा नजमा, मैं औफिस जा रहा हूं. तुम्हारी खातिर दोपहर को आ जाऊंगा. उस वक्त तक तुम्हारी भाभी भी उठ जाएंगी.

तुम उन से गपशप करना.”

नरगिस अपने भाई को छोडऩे दरवाजे तक गई और उस वक्त तक वहां खड़ी रही, जब तक ड्राइवर ने गाड़ी गेट से बाहर नहीं

कर ली. यह पहला मौका था, जब कोई रशीद अहमद को छोडऩे दरवाजे तक आया था.

इतने बड़े घर में नरगिस अकेली घूमती रही. अल्लाहअल्लाह कर के 11 बजे इमरान सो कर उठा. उठते ही उस ने पूरे घर को

सिर पर उठा लिया. मजबूरन उस की मां को भी उठना पड़ा. मांबेटे जल्दीजल्दी तैयार हुए. इमरान ने नाश्ता किया और

स्कूल चला गया.

थोड़ी देर में रशीद अहमद आ गए. उन्हें देख कर बीवी चौंकी, “आप आज इतनी जल्दी आ गए.”

“भई, मैं ने सोचा, नजमा अकेली बोर हो रही होगी. इमरानाफरहाना आ जाएं तो कहीं घूमने निकलते हैं.”

इमराना और फरहाना आ गईं. दोपहर का खाना सब ने मिल कर खाया. नरगिस को खुशी हो रही थी कि नाश्ते पर न सही,

खाने पर तो सब मौजूद हैं.

“कराची बाद में घूमेंगे, पहले तुम लोग नजमा को घर तो दिखा दो.” खाने के बाद रशीद अहमद ने बेटियों से कहा.

“अच्छा डैडी.” उन्होंने बेदिली से कहा और नरगिस को ले कर चली गई. तमाम कमरे दिखाने के बाद वे उसे एक हौलरूपी

कमरे में ले गईं. उस कमरे में कालीन के सिवा कोई फर्नीचर नहीं था. संगीत के जितने वाद्य हो सकते हैं, सब उस कमरे में

मौजूद थे. तबले की जोड़ी, हारमोनियम, ड्रम, गिटार. क्या था, जो वहां नहीं था. एक कोने में घुंघरू पड़े हुए थे. नरगिस को

फुरेरी आ गई. उसे बहुत दिनों बाद दिलशाद बेगम का कोठा याद आ गया.

“यह सब क्या है इमराना?” नरगिस ने भयभीत आवाज में पूछा.

“यह हमारा बालरूम है. यहां हम डांस करते हैं, संगीत सुनते हैं, शोर मचाते हैं, मौज उड़ाते हैं. यह साउंडप्रूफ कमरा है. यहां

हम कितना ही शोर मचाएं, बाकी घर वाले डिस्टर्ब नहीं होते.”

“तुम लोग डांस करती हो?” नरगिस को जैसे यकीन नहीं हुआ.

“हां, आप को भी दिखाएंगे किसी दिन. फरहाना तो ऐसा नाचती है कि बिजली भी क्या कौंधेगी. डैडी कहते हैं, पहले तालीम

पूरी कर लो, वरना फिल्मों के दरवाजे तो उस के लिए हर वक्त खुले हैं.”

नरगिस पर हैरतों के पहाड़ टूट रहे थे. तमाशबीनों के सिवा यहां तो सब कुछ दिलशाद बेगम के कोठे की तरह था.

नरगिस सोच रही थी. अगर वह यह सब कुछ न देखती तो अच्छा था. वह तो किसी पाकीजा माहौल की तलाश में आई थी,

मगर यह सब क्या है? उस ने सोचा, वह इस माहौल को बदलने की कोशिश करेगी. शरीफ घरों का नक्शा उस के जेहन में

कुछ और था, जो यहां नहीं था.

“घर देख आईं नजमा?” रशीद अहमद ने पूछा.

“जी, आप का घर बहुत पसंद आया.” उस की आवाज में छिपे व्यंग्य को रशीद अहमद महसूस नहीं कर सका.

“आओ, अब तुम्हें कराची घुमाने चलते हैं.” रशीद अहमद ने कहा. उस के बाद इमराना और फरहाना से कहा कि वे भी चलें.

छिताई का कन्यादान- भाग 4

राजा कुछ समझ न सका. परंतु देवगिरि दुर्ग की दुर्गमता के आगे अलाउद्दीन की एक न चली. अत: अब अलाउद्दीन ने छिताई को उसे सौंपने पर घेराबंदी उठाने की शर्त पेश की तो राजा ही नहीं, पूरी प्रजा इस अपमान पर भडक़ उठी.

परिणामस्वरूप युद्ध छिड़ गया. सौंरसी वहां फंस गया था और विशेष क्रोध में था. अत: उस के नेतृत्व में देवगिरि के वीर आतताई पर टूट पड़े. अनेक वीर मारे गए. अलाउद्दीन के साधन बड़े थे और वह दूसरे स्थानों से सेना मंगा कर क्षति को पूरी कर लेता था. इसलिए देवगिरि सेना बारबार आक्रमण कर के भी विजयी नहीं हो पाती थी. परंतु जैसे आज देवगिरि दुर्ग की

रक्षा व्यवस्था 7 सौ वर्षों के बाद भी रोमांचित कर देती थी, उसी तरह उस समय भी वह अपराजेय थी. इस से अलाउद्दीन पूरी कोशिश के बावजूद जीत न सका. महीने पर महीने बीत रहे थे. किले में रसद और सैन्य बल की प्रतिदिन कमी होती जा रही थी. अतएव राजा ने विचार प्रकट किया कि सौंरसी और छिताई को किसी तरह सुरक्षित निकाल कर और निश्चिंत हो कर अत्याचारी अलाउद्दीन पर टूट पड़ा जाए.

पहले तो सौंरसी रणक्षेत्र से हटने को कतई तैयार न था. उसे उस शाप की भी याद थी कि दुर्ग से बाहर निकलते ही कहीं छिताई आक्रामकों के हाथ न पड़ जाए. परंतु जब उसे सैनिकों की कमी बताई गई तो वह इस शर्त पर अकेले बाहर जाने को तैयार हो गया कि वह अपने राज्य द्वारसमुद्र जा कर वहां की सेना लाएगा और बाहरभीतर दोनों तरफ से अलाउद्दीन पर जोरदार आक्रमण किया जाएगा.

सौंरसी को भेष बदलना पड़ा था. उस ने अपने सारे राजकीय शृंगार छिताई को सौंप दिए. तरुण पतिपत्नी एकदूसरे पर मर मिटने की कसम खाते हुए विलग हुए. जब तक नीचे उतरता हुआ सौंरसी दिखाई दिया, छिताई देखती रही. फिर सिसकते हुए उस ने अपने भी सारे आभूषण उतार दिए और तपस्विनी का जीवन जीने लगी.

कई दिनों बाद जब सुलतान को सौंरसी के निकल जाने की खबर मिली तो वह आशंकित हो गया कि कहीं छिताई भी उस के साथ फुर्र न हो गई हो. अलाउद्दीन को यह भी उम्मीद बंधी कि सौंरसी के चले जाने से वृद्ध राजा लाचार हो गया होगा. अत: उसेे पुरानी दोस्ती की याद दिला कर छिताई मांग ली जाए. इस से दोस्ती स्थाई हो जाएगी. छिताई के दुर्ग में होने का सही पता करने के लिए महिला गुप्तचर भेजे गए. जब इत्मीनान हो गया तो अलाउद्दीन ने विशेष कुटनी दूतियों को छिताई के पास भेजा जो उसे सौंरसी से विमुख कर के सुलतान की तरफ ललचा सकें. लेकिन दूतियां छिताई पर कोई प्रभाव न डाल सकीं. वे

यह खबर ले आईं कि छिताई प्रतिदिन राम सरोवर आती है. अलाउद्दीन को चित्तौड़ और रणथंभौर में सौंदर्य के प्रति अपनी आसक्ति को पूर्ण करने का अवसर नहीं मिला था. अत: यहां वह विशेष सजग था. सुलतान ने अपने एक ब्राह्मïण दरबारी राघव चेतन को छिताई सौंपने के आग्रह के साथ राजा रामदेव को समझाने भेजा.

ब्राह्मïण होने से यह अंदेशा नहीं था कि दूत राघव चेतन का वध होगा. साथ ही अलाउद्दीन ने दूतियों को ङ्क्षहदू साध्वी का रूप बना कर भेजा जो छिताई को फिर से राजी करें. अलाउद्दीन ने अपनी एक योजना मन में बना ली थी. उसे छिताई को देखे बिना चैन नहीं था. अतएव राघव चेतन के सेवक के रूप में वह खुद परकोटे के भीतर प्रवेश कर गया.

राघव चेतन दरबार में गया. दूतियां रनिवास की ओर गईं. सुलतान रामसरोवर में छिताई के दर्शन करने आने की प्रतीक्षा करने लगा. आसपास का वातावरण रमणीय था और तरहतरह के पंछी जलक्रीड़ा कर रहे थे. सुलतान ने समय बिताने के लिए पंछियों का शिकार करना शुरू कर दिया, जिस में वह इतना रम गया कि जब छिताई सखियों सहित आई तो वह जान न सका.

पंछियों के आर्तनाद तथा बेबस कलरव से आकृष्ट हो कर छिताई तो दर्शन कर के चली गई, किंतु मैनरूह को उस ने कारण पता लगाने भेजा. मैनरूह ने सुलतान को छिताई की बेटी मानने की ईमान से कौल उठाने की बात मनवा कर मुक्त किया. सुलतान ने घेरा उठा लिया और लौटने की तैयारी करने लगा.

मैनरूह ने पूरी घटना राजा रामदेव को बता दी. वह प्रसन्न हुआ कि मुसीबत टली. उस ने दासी की खूब प्रशंसा की. जलने वाले हर दरबार में होते हैं. सौंरसी की अनुपस्थिति में जो प्रधान सेनापति थे, उन्होंने इस में भी अलाउद्दीन शासक की कोई चाल बताई. उन्होंने कहा कि दासी की बातों पर विश्वास कर के वे अलाउद्दीन की पकड़ में आ जाएंगे. उन्होंने यहां तक डींग मारी कि जब सुलतान हारने वाला है तो वह शराफत की आड़ में बचना चाहता है. उन्होंने दासी के विरुद्ध काररवाई करने को कहा. यदि वह सचमुच सुलतान था तो उसे किसी भी शर्त पर छोडऩे के बजाय पकड़ कर राजा के सम्मुख प्रस्तुत करना चाहिए था. अत: या तो दासी झूठी है या सुलतान.

प्रधान सेनापति की बातों से लोग असमंजस में पड़ गए. सचमुच यह अजीब बात थी कि इतना बड़ा सुलतान निपट अकेले वाटिका में आए, फंसे और निकल जाए. प्रधान सेनापति चित्तौड़, गुजरात और रणथंभौर में अलाउद्दीन की मक्कारियों का विवरण देते हुए जोर देने लगे कि सुलतान की यह भी कोई जालसाजी है. अतएव देवगिरि को युद्ध करना चाहिए. अन्य दरबारी भी सशंकित थे.

पुराना पापी पाप छोड़ भी दे तो शक उस का पीछा नहीं छोड़ता. सब की आशंका एवं आक्रोश से राजा को कहना पड़ा कि मैनरूह को अलाउद्दीन ने बहन कहा है तो एक बार आजमाइश की जाए. बात सही है तो उस के कहने पर अलाउद्दीन फिर से घेरा डाल दे.

दासी के माध्यम से सुलतान को खबर मिली. सेनापति की आज्ञा से देवगिरि के सैनिकों ने आक्रमण जारी रखा. इस पर सुलतान का क्रोध उबल पडा़. उस ने फिर से मोर्चे बांधे. अबकी बार लड़ाई प्रतिष्ठा की थी. अलाउद्दीन ने अपनी योजना के अनुसार शह दी. छिताई जहां दर्शन के निमित्त आती थी, वह स्थान मुख्य दुर्ग तथा उस की खाई के बाहर था. अलाउद्दीन के कमंद के सहारे उस जगह आहिस्ताआहिस्ता अपने सैनिक उतारे और उन्हें पेड़ों पर छिप कर बैठा दिया. रक्षकों का ध्यान बंटाने के लिए दुर्ग की दूसरी ओर शोरगुल के साथ आग जलवा दी.

दूसरे दिन जब छिताई आई तो अलाउद्दीन के छिपे सैनिक उस की टोली पर टूट पड़े. छिताई के साथ आई 40 दासियां मार डाली गईं. दूसरी तरफ निकटस्थ फाटक पर अलाउद्दीन के सैनिक पूरे वेग से टूट पड़े. छिताई पकड़ ली गई और सुलतान के सामने पेश की गई. छिताई एकदम भावशून्य हो गई थी. सुलतान ने उसे दिलासा दिया कि वह छिताई को बेटी की तरह रखेगा. कह तो दिया मगर छिताई के ललित सौंदर्य को सम्मुख पा कर एक बार सुलतान का चित्त चंचल हो उठा. मगर अपने कौल को याद कर के वह सहम गया. छिताई के पीछे कुटनियां लगा दी गईं, जो उसे सजनेधजने और पथभ्रष्ट होने के लिए तैयार करें. छिताई ने उन का मर्म समझते ही आंखकान मूंद लिए. अब उस ने खाना तो दूर, पानी पीना भी छोड़ दिया. उस ने प्रतिज्ञा की कि उस विधर्मी महल में अनशन कर के वह प्राण त्याग देगी. जब यह खबर बादशाह को मिली तो वह खुद छिताई के पास आया और उसे समझाने की कोशिश की.

चालबाजी- भाग 4 : कृष्ण कुमार की अद्भुत लीला

‘दो हजार कम पड़ रहे हैं सर.’ उस का सिर फिर झुक गया.

‘एक मिनट.’ मैं उठा – ‘मैं जरा बाथरूम हो लूं. बस एक मिनट.’

वह वैसे ही बैठा रहा. मैं उठ कर बाथरूम में आया व दरवाजा बंद कर के उस से पीठ लगा कर खड़ा हो गया.

ओह…

तो ये कहानी है. अब तस्वीर धुंधली से स्पष्ट हो गई थी. पहले चार सौ जमा करा कर मेरा विश्वास जीत लिया. धीरेधीरे आत्मीय हो गया. और फिर ये भयानक आंधी पानी का माहौल और एक लंबी भावनात्मक कहानी. उस के बाद दो हजार उधार की मांग.

क्या मुझे बेवकूफ समझा है.

अब इतना बेवकूफ तो नहीं ही हूं. अपने हाथ से बना कर आमलेट स्लाइज खिला दी, गमछा दे दिया, कुर्तापाजामा तो दे ही दिया. चलो वो तो पुराना था. इस के पीछे यही भावना थी कि उस के रुपए मेरे आड़े वक्त में काम आए थे. पर शायद मेरा फर्ज पूरा हुआ.

पर वो चरित्र प्रमाणपत्र.

उस का क्या है. बाजार में छपाछपाया मिलता है. भर कर फोटो ही तो लगानी है.

मैं ने कल ही बैंक से पांच हजार निकाल कर लाया था व अटैची के पीछे वाले फ्लैप में रख कर लाक लगा दिया था. वह मेरी आंखों के सामने घूम गए. पर उसे क्या मालूम.

वह प्रतिदन का छ: सौ कमाता है, ऐसा कहता है. आठ सौ हजार कमाता होगा. महीने का पचीस हजार से तीस हजार. मेरी तनखाह का दो गुना. वह तो मुझसे बड़ा आदमी है.

पर अगर कहीं उसे सचमुच जरूरत हुई तो. उस के चार सौ रुपए मेरे बड़े काम आए थे. पर अगर… क्या बेवकूफी है यार.

मैं बाथरूम का दरवाजा खोल कर अंदर आया व खाट पर बैठ गया. तभी लाइट आ गई. अनुपम ने लालटेन का शीशा ऊपर कर के लालटेन बुझा दी.

‘तो तुम को दो हजार की जरूरत है. क्यों अनुपम.’

‘जी हां.’ उस ने सर हिलाया.

‘पर भाई दो हजार तो मेरे पास अभी नहीं है. दोचारसौ की बात हो तो बात अलग है. फिर पहली तारीख आने में तो अभी कई दिन हैं. तुम ने गलत समय पर मुझे धर्म संकट में डाल दिया है. अभी तो मैं चाह कर भी इंतजाम नहीं कर पाऊंगा.’ मैं ने हाथ मले.

‘कोई बात नहीं साहब.’ अनुपम ने पहली बार मुझे साहब कहा था- ‘मैं कोई और इंतजाम कर लूंगा. बहन का दाखिला तो कराना ही है. अब मैं चलूंगा साहब.’

उस के स्वर की दृणता से मैं लज्जित हो गया. वह बाथरूम में गया और अपनी जींस और टीशर्ट जो अभी गीली ही थी ले आया. पालीथीन को संभाल कर पाजामें में उड़ेस कर उस ने स्टोव के नीचे दबे रुपए उठा लिए.

‘अनुपम मैं तुम्हें छाता दे दूं क्या. आना तो लेते आना.’

‘नहीं साहब. अब जरूरत नहीं है. पानी रुक गया है. चलता हूं. नमस्ते साहब.’

वह दरवाजा खोल कर नीचे उतर गया. मैं दरवाजे पर खड़ा उसे दूर सडक़ पर जाते देखता रहा लाइट तो आ ही गई थी व स्टीट लाइट जल रही थी.

मैं दरवाजा बंद कर के अंदर आया व स्टोव किनारे कर के खाट पर जा लेटा. अंदर से पता नहीं क्यों ग्लानि की सी कोई भावना घेरे ले रही थी.

तभी फिर बाहर के दरवाजे की कुंडी खटकी. मुझे हल्की सी झपकी सी आई थी. मैं ने लाइट आन की व दरवाजा खोला. सामने मेरा कुर्तापाजामा पहने अनुपम खड़ा था.

‘साहब ये आपने पचास रुपया ज्यादा दे दिया है.’ वह हाथ में पकड़ा पचास रुपए का नोट मेरी तरफ बढ़ा रहा था – ‘अभी जब मैं रुपया जेब में रखने लगा तो मैं ने देखा. लीजिए.’

मैं कुछ कह ना पाया. चुपचाप हाथ बढ़ा कर नोट ले लिया.

‘नमस्ते साहब.’ वह घूमा और चला गया.

वह मेरी अनुपम से आखिरी मुलाकात थी.

तीन साल बीत गए.

इन तीन सालों में सामान्य रूप से बहुत सी घटनाएं हुईं.

मां की तबीयत ठीक हो गई. भाई के यहां एक लडक़ा हो गया. पिताजी नहीं रहे. मेरी शादी हो गई. मेरी पत्नी सीतापुर की थी जो वहीं नौकरी करती थी. वह वहीं रही और मैं आताजाता रहा.

अभी पिछले माह जब मैं सुषमा से मिलने उस के मायके गया तो अजीब वाकया हुआ. शाम के समय मैं थोड़ा टहलने के इरादे से अकेले बाहर निकला तो ठहलते हुए दूर निकल गया. थोड़ी थकान भी लगने लगी. तब मैं ने वापसी की सोची क्योंकि इतना ही वापसी में भी चलना था. तभी मुझे एक अच्छी व बड़ी स्टेशनरी की दुकान दिखाई दी. मैं ने सोचा अपने छोटे साले के लिए एक बढिय़ा सा पेन सेट ले लूं. वह खुश हो जाएगा. मैं दुकान की तरफ बढ़ा. सामने ही काउंटर था जिस के पीछे एक गौर वर्ण हृष्टपुष्टï युवक बैठा था. दो तीन ग्राहक खड़े थे.

‘एक अच्छा सा पेन सेट दिखाइये.’ मैं ने युवक से कहा.

उस ने मुझे देखा व देखता ही रह गया. पर दूसरे ही क्षण वह झटके से उठा व काउंटर का फ्लैप हटा कर बाहर आ गया व मेरे चरणस्पर्श करने लगा – ‘सर आप. आप यहां कैसे.’

मैं अचकचा गया व थोड़ा पीछे हट गया.

‘सर आप ने मुझे पहचाना नहीं.’ उस के चेहरे पर कौतुक भरी मुस्कराहट आ गई.

‘अनुपम.’ मैं आश्चर्य से चीख सा पड़ा – ‘तुम तो मोटे हो गये भाई. एकदम बदल गए.’

‘चलिए आप ने मुझे पहचान तो लिया.’ वह हंस पड़ा – ‘समय भी तो काफी बीता है सर. पर आप नहीं बदले. एकदम वैसे ही हैं. आइये सर अंदर आइए.’

वह मुझे हाथ पकड़ कर अंदर ले गया. दुकान के अंदर भी एक कमरा था जिस में सामान भरा था पर तीन कुॢसयां भी पड़ी थीं.

‘आप बैठिए सर. बस एक मिनट. मैं लडक़ों से बोल दूं. वे काउंटर संभाल लेंगे.’ अनुपम बाहर चला गया.

अनुपम की प्रसन्नता छुपाए नहीं छिप रही थी. यह उस की हाॢदक प्रसन्नता थी. अनुपम का शरीर भर गया था. उस का रंग खिल गया था. सर के बाल अच्छी तरह से कटे हुए थे. उस ने लालपीले रंग की टीशर्ट व नीली जींस ही पहन रखी थी. पर कपड़े नए थे. पैरों में ब्राउन सैंडल थे.

‘सौरी सर.’ उस ने आ कर बैठते हुए कहा- ‘मुझे देर तो नहीं हुई.’

‘नहीं.’ मैं ने कहा – ‘क्या ये दुकान तुम्हारी है.’

‘आप की ही है सर.’ उस ने मुस्करा कर सिर झुकाया- ‘पर पहले यह बताइये आप यहां कैसे. क्या आपकी बदली यहां हो गई है.’

‘नहीं अनुपम.’ मैं ने बताया, ‘दरअसल मेरी शादी हो गई है और मेरी पत्नी का मायका यहीं है. मैं वहीं आया हूं.’

‘अरे वाह.’ वह उछल पड़ा. ‘मैडम को भी ले आए होते.’

‘मुझे ही क्या मालूम था कि तुम से यहां मुलाकात हो जाएगी.’ मैं भी मुस्कराया- ‘तुम से तो अचानक मुलाकात हुई है. ये सब कैसे क्या हुआ बताओ.’

तभी एक लडक़ा कोल्ड ङ्क्षड्रक की दो बोतलें ले आया.

‘बताता हूं सर. सब बताता हूं. पर पहले आप ये ङ्क्षड्रक तो लीजिए.’ उस ने एक बोतल मेरी तरफ बढ़ाई. मैं ने ले लिया.

‘सब आप का ही आशीर्वाद है सर. आप के यहां से उस भयानक बरसाती रात में वापस आने के तीसरे दिन बाद ही चाचा लोगों ने दो लाख नकद दे दिए थे. माताजी ने उन के नाम से पक्की लिखापढ़ी कर दी. इन रुपयों से हमें बड़ा आराम हो गया. मैं ने माताजी से पचास हजार रुपए उधार लिए. उस समय यहां इतनी मारामारी नहीं थी. दस हजार डिपाजिट और दो हजार महीना किराए पर यह दुकान मिल गई. सात हजार में पूरा फर्नीचर लग गया. मैं ने पचीस हजार नकद पर चालीस हजार का माल बाजार से उठा लिया. दुकान जल्द ही चल निकली क्योंकि यहां पर कोई स्टेशनरी की दुकान नहीं थी व पीछे की रोड पर दो हाईस्कूल और पास ही एक कालेज खुल गया था. अब तो दुकान में ही पांच लाख से ज्यादा का माल है. माताजी की उधारी भी चुका दी.’

‘अनुपम एक बात बताओ.’ मैं ने झिझकते हुए पूछा – ‘उस दिन फिर तुम्हारी बहन का एडमिशन हो गया था या कुछ परेशानी आई थी.’

‘हो गया था सर.’ उस का सिर झुक गया, ‘परेशानी तो आई ही थी. माताजी ने खुद ही अपना टाप्स निकाल कर दे दिया था. मैं ने उसे बेच ही दिया और दो हजार मिल गए. उसी से बहन का दाखिला हो पाया. बाद में तो ढ़ेरों रुपया मिल गया था. पर माताजी का नया व उस से भी अच्छा टाप्स मैं ने अपनी कमाई से बनवा कर दिया. बहन इस वर्ष बीए प्रथम वर्ष में आ गई है. इंटर में उस की प्रथम श्रेणी आई थी.’

‘तुम ने शादी की कि नहीं.’ मैं ने बोतल नीचे रख दी.

‘नहीं सर. पहले बहन पढ़ाई पूरी कर ले. फिर पहले उस की शादी करूंगा. उस के बाद ही अपनी शादी करूंगा. छोटी वाली तो अभी छोटी है.’

‘अब मैं चलूंगा अनुपम. देर हो गई है. घर में लोग परेशान हो रहे होंगे.’

‘अरे नहीं सर. आप को घर चलना पड़ेगा. नहीं तो माता जी सुनेंगी तो बेहद नाराज होंगी.’

‘मैं फिर आऊंगा अनुपम. वादा करता हूं. बल्कि वाइफ को भी ले कर आऊंगा.’

‘ज्यादा दूर नहीं है सर. पास ही है. दस मिनट लगेंगे बस. प्लीज सर.’

अनुपम का विनीत चेहरा देख कर मैं मना नहीं कर पाया.

अनुपम अपने स्कूटर से मुझे घर ले गया.

उस का घर किराए का पर ठीक था. उस की माताजी सुसंस्कृत महिला लगीं. बहनों ने मेरे पैर छुए. उन्होंने जबरदस्ती मुझे चाय पिलाई, मिठाई खिलाई.

‘अच्छा अनुपम अब मैं चलूंगा.’ अंतत: मैं उठ गया, ‘काफी देर हो गई है भाई.’

‘चलिए मैं आप को स्कूटर से छोड़ देता हूं.’

‘नहीं तुम दुकान जाओ. मैं रिक्शा कर लेता हूं.’

‘एक मिनट.’ अचानक माताजी ने कहा व अंदर चली गईं. जब वे वापस आईं तो उन के हाथ में एक पैकट था- ‘यह स्वीकार कीजिए हम सब की तरफ से.’

‘यह क्या है.’ माताजी ने पैकेट मेरे हाथ में दे दिया था. मैं ने पैकिट में झांक कर देखा. पैकिट में बढिय़ा सिल्क का बादामी कुर्ता व सफेद पाजामा था.

‘यह…यह…क्या है. किसलिए है.’ मैं हक्काबक्का रह गया.

‘यह मेरी माताजी की तरफ से आपको धन्यवाद स्वरूप एक छोटी सी भेंट है और आप के शिष्य यानी मेरी तरफ से प्रणाम है.’

‘पर…पर…अनुपम…मैं ने तो ऐसा कुछ भी नहीं किया है.’ मैं अभी भी हलका रहा था.

‘आइये सर. बाहर चलते हैं.’ अनुपम की माताजी व दोनों बहनों ने मकान के दरवाजे से हाथ जोड़ कर प्रणाम किया. थोड़ा आगे बढ़ते ही रिक्शा मिल गया. मैं रिक्शे में बैठ गया तो अनुपम ने फिर मेरे पैर छुए.

‘अनुपम एक बात बताऊं.’ मैं ने अनुपम के सिर पर आशीर्वाद का हाथ रखते हुए कहा – ‘उस दिन मेरे पास दो हजार रुपए थे पर मैं ने तुम्हें दिए नहीं थे.’

‘मुझे पता है सर.’ अनुपम के चेहरे पर विनोद भरी मुस्कराहट थी – ‘आपने विश्वास नहीं किया था. कोई भी नहीं करता. पर आप का आशीर्वाद तो मेरे साथ था ही ना. जाने के पहले एक बार फिर आइयेगा सर. मैडम को भी लाइयेगा सर. नमस्ते सर.’

रिक्शा आगे सडक़ पर बढ़ गया. पीछे अनुपम मुस्कराते हुए खड़ा हाथ हिलाता रहा.

इस सफर की कोई मंजिल नहीं- भाग 3

भीतर से मुझे भय था कि कहीं रजनी नहीं आई तो? उस ने और मनोज ने कुछ और योजना तो नहीं बनाई है? यह सोच कर गुस्सा भी आ रहा था। जब मुझे रजनी की हर बातों से इतनी चिढ़ है तो मैं क्यों उस की बातों में आ गई ? आज मैं ने उस की बातों का विरोध क्यों नहीं किया? उस के लिए मैं ने झूठ क्यों बोला? सभी चले गए और मैं मूर्खों की तरह इस होटल में अकेली उस का इंतजार कर रही हूं। मेरा भय और गुस्सा बढ़ता जा रहा था।

बाहर तेज बारिश हो रही थी। मैं बेचैन हो इधरउधर टहल रही थी। बहुत समय बीत गया, “आज इस रजनी की बच्ची को मैं छोङूंगी नहीं। समझती क्या है वह अपनेआप को? मुझ को मूर्ख बना गई…” मैं गुस्से से पांव  पटक रही थी कि तभी होटल का दरवाजा खुला। सामने रजनी पूरी तरह से भीगी खड़ी थी। जी में तो  आया कि उसे 2 तमाचा लगा दूं। मैं ने गुस्से में पूछा,”इतनी देर क्यों कर दी तुम ने और मनोज कहां है?”

“वह स्टेशन चला गया,” रजनी ने कहा।

“वाह, तुम्हें अकेली छोड स्टेशन चला गया?” मैं ने रजनी से और उलझ कर अपना समय बरबाद करना नहीं चाहा। संयोग से ट्रेन लेट थी, नहीं तो हमारी ट्रेन छूट जाती। ट्रेन में सभी बैठे हुए थे। मैं रजनी को ले कर खिड़की के पास बैठ गई जहां हमारी बातें कोई नहीं सुन सके।

मैं रजनी पर बरस पड़ी,”हद कर दी रजनी तुम ने। तुम्हारी शरमहया सब खत्म हो गई है। तुम इतनी देर मनोज के साथ कहां थीं? ऊपर से भीग भी गई थी,” रजनी बिलकुल खोई सी थी। उस ने धीरे से कहा,”समय का मुझे पता ही नहीं चला।”

“तुम्हें नहीं चला मगर मुझे तो समय का ज्ञान था। झूठ बोलने पर तुम ने मुझे मजबूर क्यों किया?” मैं ने उस से गुस्से में सवाल किया।

“जानती हैं मीनाक्षी दी, मैं ने मनोज का एक नया रूप देखा। उस रूप को मैं ने कभी नहीं देखा था। सच, आज वह सब से बहुत अलग लगा। उस रूप को देख कर मैं इतनी खो गई कि उस के प्रस्ताव को ठुकरा नहीं पाई,” रजनी ने अंधेरे में कहीं दूर देखते हुए     कहा।

मैं चौंक गई, “कैसा प्रस्ताव?” उत्तेजित थी मैं। मैं ने जोर से चिल्लाते हुए कहा,”अरे आजकल के लड़कों को तुम जानती नहीं, तुम क्या समझती हो वह तुम से प्यार करता है? कभी नहीं, वह मौके का फायदा उठा रहा है। रजनी तुम बिलकुल भोली हो। फ्लर्ट करता है वह तुम से। मैं ने उस की आंखों में तुम्हारे प्रति कभी प्यार नहीं देखा।”

रजनी ने मेरी तरफ देखते हुए कहा,”मैं नहीं जानती कि वह मुझ से सच में प्यार करता है या नहीं लेकिन जब भी पास होता है मुझे प्यार महसूस होने पर मजबूर तो करता है। मेरे लिए यही बहुत है, मीनाक्षी दी। मेरे ठहरे हुए जीवन को सफर बना दिया उस ने, जो अब लगातार चलने पर मजबूर है।”

“तुम क्या समझती हो वह कि तुम से शादी करेगा? तुम्हें मंजिल मिल जाएगी? कभी नहीं, ” मैं ने उसे समझाते हुए कहा।

“मैं सफर में विश्वास करती हूं, मंजिल में नहीं। अगर मंजिल मिल गई तो मैं फिर से ठहर जाऊंगी। सफर के आनंद को आप नहीं समझेंगी। हर मोड़ पर नया उत्साह, नया उल्लास, नई उमंग, यह आनंद मंजिल में कहां है, मीनाक्षी दी,” रजनी की आंखों में चमक थी।

“पागल हो गई हो तुम, तुम्हारे पांव इस वक्त जमीं पर नहीं हैं। हवा में उड़ रही हो तुम। जिस दिन गिरोगी तुम पछताओगी,” मैं ने फिर गुस्से में कहा।

“इस जीवन के बाद मुझे कुछ भी पाने की चाहत नहीं है न ही कोई मलाल,” यह कहते हुए उस ने मुसकरा दिया।

मुझे उस की मुसकराहट अच्छी नहीं लगी। मैं ने अपना मुंह फेर लिया।

शनिवार को स्कूल में जल्दी छुट्टी हो जाती थी। रजनी को यह बिलकुल अच्छा नहीं लगता, क्योंकि उसे जल्दी  घर जाना पड़ता था। वह हमेशा घर से दूर रहना चाहती थी। मगर आज शनिवार के दिन वह बहुत खुश थी। मेरे पास दौड़ती हुई आई, “मैं कैसी लग रही हूं दी?”

“बिलकुल भूतनी लग रही हो। अरे एक तो तुम्हारा रंग ऐसा उस पर से तुम ने काले कपड़े पहन रखे हैं। तुम्हारा दिमाग कहां चला गया है?” मैं ने चिल्लाते हुए कहा।

“जानती हैं, मैं ने काले कपड़े इसलिए पहने हैं कि काला रंग मुझे पसंद है। मैं मनोज के साथ फिल्म देखने जा रही हूं।”

रजनी ने काले कपड़े पर अपने काले घने बाल खोल रखे थे। वह मेरे करीब आई,”मैं ने अपनेआप को आईने में देखा है। मैं जानती हूं कि मैं कैसी लग रही हूं फिर भी मैं आप के मुंह से एक बार सुनना चाहती थी। झूठ ही सही कि मैं अच्छी लग रही हूं,” वह खिलखिला रही थी ।

“तुम जानती हो कि मैं झूठ नहीं बोलती,” मैं ने चिढ़ते हुए कहा।

“मगर मैं ने तो झूठ को ही सच मान लिया है। झूठ में ही विश्वास करती हूं क्योंकि जब जीवन में सत्य था तो सिवा कड़वाहट के कुछ नहीं था। आज जीवन एक झूठ है तो आनंद ही आनंद है। अब आप ही बताइए कि मैं किसे मानूं, झूठ को या सत्य को?” उस ने दोनों हाथों से मेरे चेहरे को उठा कर आंखों में झांकते हुए कहा। मैं ने उस की बातों का कोई जवाब नहीं दिया। बैग उठा कर मैं घर की तरफ चल दी और वह फिल्म में अपनेआप को तलाश करने जा रही थी।

7वीं घंटी चल रही थी। मेरा क्लास नहीं था। कौपियों के ढेर के सामने बैठी मैं उन्हें चेक कर रही थी, तभी दौडती हुई रजनी मेरे पास आई। मैं ने उस की तरफ देखा तक नहीं।

“मीनाक्षी दी, कल मनोज का जन्मदिन है। मैं ने उस के लिए उपहार खरीदा है। देखिए न आप कि कैसा है?”

“रजनी मेरे पास बहुत काम है। मुझे परेशान मत करो,” मैं ने रूखे स्वर में कहा। मगर वह तो जिद पर अड़ गई। “देखिए न, यह घड़ी मैं ने मनोज के लिए खरीदी है। कैसी है?” मैं ने एक नजर उसे देखा,”बिलकुल पपीते जैसी है।”

“क्या?” रजनी चौंक उठी।

“हद कर दी मीनाक्षी दी आप ने। दिल के आकार की इस घड़ी को आप ने पपीता कहा?” उस के बाद तो

इस सफर की कोई मंजिल नहीं- भाग 2

मैं फिर पूछती,”तुम इतनी सजतीसंवरती हो, एक टीचर होने के नाते यह अच्छा नहीं लगता। तुम यहां शिक्षा देने आती हो या मौडलिंग करने…” इस बात पर वह और तेज हंसती।

“जानती हैं, मैं जितना सजतीसंवरती हूं, अपनेआप को जीवन के करीब पाती हूं। अपना जीवन मुझे सजासंवरा लगता है।”

मैं रजनी को हमेशा देखती कि वह स्कूल के एक साइंस टीचर जिस का  नाम मनोज था, हमेशा घुलमिल कर बात किया करती थी। जब भी समय मिलता तो वह मनोज के पास ही होती। जब भी लंच करती तो अपना आधा लंच उस के लिए रख देती। रजनी की तरह मुझे मनोज भी पसंद नहीं था। इस का कारण था कि जब मैं नईनई आई थी तो वह हमेशा मेरे पीछे पड़ा रहता था, मजाक करता था। मुझे यह सब बिलकुल पसंद नहीं था। मैं ने उसे झिङक दिया था, तब से वह मुझ से दूर ही रहता। रजनी के विपरीत वह गोराचिट्टा था। उस की तुलना में वह बहुत सुंदर था।

एक दिन मुझ से रहा नहीं गया। मैं ने रजनी से पूछा,”मनोज से तुम्हारा क्या रिश्ता है?” रजनी ने मेरी तरफ देखा “रिश्ता… क्या मतलब…”

“क्यों तुम रिश्तों का अर्थ नहीं समझतीं?” मैं ने फिर पूछा।

“रिश्ते तो जीवन में ढेर सारे होते हैं, जो जीवन के भीतर कैद होते हैं। वह तो मेरा संपूर्ण जीवन ही है, फिर मैं कैसे बताऊं कि उस से मेरा क्या रिश्ता है,” रजनी ने गंभीरता से कहा।

“वह तुम्हें पसंद करता है?” मैं ने पूछा।

“पसंद?” वह चौंक गई फिर खुल कर बोली,”वह मुझे प्यार करता है।”

मैं हंसने लगी और व्यंग्य से उस से पूछा, “क्या तुम्हें ऐसा लगता है?”

“हमारे बीच लगने जैसा कुछ भी नहीं है। कुछ भी अप्रत्यक्ष नहीं है, सबकुछ  प्रत्यक्ष है। हम बहुत खुले हैं,” कहती हुई रजनी जीने से उतर कर अपना क्लास लेने चली गई।

स्कूल में वार्षिक परीक्षा शुरू हो गई थी। हमलोग बहुत व्यस्त रहते। साथ ही काम के बोझ का टैंशन बना रहता। मन हमेशा थकाथका रहता। मगर रजनी वह तो सदाबहार थी। न कभी थकती न ही काम का उसे टैंशन  रहता। मैं परीक्षा की कौपी चेक कर रही थी। वह भी मेरी बगल में बैठी हुई गुनगुनाती हुई अपनी ड्राईंग की कौपियां चेक कर रही थी। अब उस के गुनगुनाने पर मैं उसे टोकती नहीं थी।

“यह अंकों की जोङतोङ आप को बोर नहीं करती?” मेरी गणित की कापियों को देख कर उस ने व्यंग्य से कहा।

“बिलकुल नहीं, ” मैं ने रूखे स्वर में कहा।

“आप झूठ बोल रही हैं, ” उस ने कहा तो मैं चौंक गई। “आप का चेहरा साफ बता रहा है कि आप थक गई हैं और थकान तभी होता है जब आदमी उस काम में बोरियत महसूस करता है।”

“तुम्हारे विचार गलत हैं। जब आदमी के पास अधिक काम हो तो वह थक जाता है। शरीर है कोई मशीन नहीं,” मैं ने कहा।

“पर मैं तो थकी नहीं हूं।”

“तुम्हारे पास काम ही क्या है,” मैं ने कहा तो वह हंसने लगी।

“अच्छा मीनाक्षी दी, आप को ड्राइंग में रुचि नहीं है?”

“उस में है क्या जो रुचि हो, आङेतिरछे रेखाओं के भीतर रंग भरे रहते हैं,” मैं ने कहा।

“यही तो कला है, आप बहुत रुखी हैं, आप क्या जानें कला को,” उस ने कहा।

“तुम ही बताओ कला क्या है?” मैं ने बात को टालने के लिए यों ही पूछ लिया।

“यह जीवन है मीनाक्षी दी, जिसे आप आड़ेतिरछे रेखाओं में रंग भरना कहती हैं, वही तो हमारा जीवन है। हमारा जीवन सादे कागज की तरह होता है, जिस का न कोई आकार होता है, न कोई रंग। हम इस जीवन को आकार देते हैं और उसे रंगों से भर देते हैं, मगर आप जैसे लोग इस जीवन को सादे कागज की तरह ही छोड़ देते हैं।”

मैं उस की बातों से तिलमिला गई, पर कहा कुछ नहीं। तभी मनोज सामने आ गया। वह भी बहुत थका सा लग रहा था। मुझे मौका मिल गया,”यह लो रजनी, तुम्हारा जीवन तो बिलकुल थक गया है, बेजान। बिलकुल सादे कागज की तरह।”

“तो इस में गलत क्या है? वे तो सादे कागज की तरह हैं ही, रंग तो मैं भरती हूं उन में, मेरे बिना वे अधूरे हैं।

हमारी बातों को सुन कर मनोज हंसने लगा और रजनी की बालों को स्पर्श करते हुए आगे बढ़ गया। रजनी थोड़ी देर के लिए उस स्पर्श से अभिभूत हो उठी।

स्कूल का ट्रिप पहाड़ों पर घूमने गया। मैं भी गई थी। सारा दिन हम बच्चों को साथ लिए घूमते रहते पर रजनी हमारे साथ नहीं रहती। वह और मनोज चुपचाप सब से आंखें बचा कर कहीं दूर निकल जाते। मेरी निगाहें हमेशा रजनी का पीछा करती थीं। कभीकभी मैं उस के उत्साह और खुशी को देख कर दंग रह जाती। वैसे रजनी मुझ से कुछ भी नहीं छिपाती, मनोज की सारी बातें वह मुझ से बताती थी।

आज हमारे लौटने का दिन था। होटल से निकलने की हम सब तैयारी कर रहे थे। स्टैशन जाने का समय हो चुका था पर रजनी गायब थी। मैं जानती थी कि वह कहां गई होगी। सभी उस का ही इंतजार कर रहे थे। रजनी मुझ से कह कर गई थी कि कोई पूछे तो कह देना कि कि वह कुछ खरीदारी करने निकली है। वह मुझ से इंतजार करने के लिए कह कर गई थी। जब बहुत देर हो गई तो मैं ने रजनी की कही हुई बात सब को बताई और सब को यह कह कर स्टेशन भेज दिया कि वह उस को लेकर आ जाएगी। सभी चले गए। मैं होटल में अकेली थी। बाहर बारिश की हलकी बूंदें पङ रही थीं।

संबंधों का कातिल: जब आंखों पर चढ़ा स्वार्थ का चश्मा  

‘‘माफ करना भाई, तुम्हें तो बात भी करना नहीं आता,’’ इतना बोल कर सुबोध ने अपने हाथ जोड़ लिए तो मानव खीज कर रह गया.

अचानक बात करतेकरते दोनों को ऐसा करता देख मैं भी घबरा गया. कमरे में झगड़ा हो और नकारात्मक माहौल बन जाए तो बड़ी घुटन होती है. मैं तनाव में नहीं जी सकता. पता नहीं कैसाकैसा लगने लगता है. ऐसा लगता है जैसे किसी ने नाक तक मुझे पानी में डुबो दिया हो.

‘‘शांत रहो भाई, तुम दोनों को क्या हो गया है?’’

‘‘कुछ नहीं, मैं भूल गया था कि कुपात्र को सीख नहीं देनी चाहिए. जिसे कुछ लेने की चाह ही न हो उसे कुछ कैसे दिया जा सकता है. बरतन सीधे मुंह रखा हो तभी उस में कोई चीज डाली जा सकती है, उलटे बरतन में कुछ नहीं डाला जा सकता. चाहे पूरी की पूरी सावन की बदली बरस कर चली जाए पर उलटे पात्र में एक बूंद तक नहीं डाली जा सकती. जिस चरित्र का यह मालिक है उस चरित्र पर तो किसी की अच्छी सलाह काम ही नहीं कर सकती. ऐसे लोग कभी किसी के हो कर नहीं रहते.’’

मानव चेहरे पर विचित्र भाव लिए कभी मेरा मुंह देख रहा था और कभी सुबोध का…जैसे कोई चोरी पकड़ी गई हो, जैसे उस का कोई परदा उठा दिया हो किसी ने. अभी कुछ दिन पहले ही तो सुबोध हमारे साथ रहने आया है. हम तीनों एक ही कमरा शेयर करते हैं. हमारे पेशे अलगअलग हैं लेकिन रहने को छत एक ही है जिस के नीचे हमारी रात और सुबह बीतती है.

‘‘चरित्र से…क्या मतलब है तुम्हारा?’’

‘‘क्या इस का मतलब तुम्हें नहीं पता? इतने तो नासमझ नहीं हो तुम, जो तुम्हें चरित्र का मतलब पता ही न हो. पढ़ेलिखे हो, अच्छी कंपनी में काम करते हो, हर महीने अच्छाखासा वेतन पाते हो, जूता तक तो तुम्हारा ब्रांडेड होता है. कंपनी में ऊपर तक जाने की जितनी तीव्र इच्छा  तुम्हें है उस के लिए अनैतिकता के कितने गहरे गड्ढे में धंस चुके हो, तुम्हें खुद ही नहीं पता…तुम कहां से हो और कहां जा रहे हो तुम्हें जरा सी भी समझ है? क्या जानते भी हो, कहां जा रहे हो…और कहां तक जाना चाहते हो उस की कोई तो सीमा होगी?’’

‘‘सीमा…सीमा कौन? किस की बात कर रहे हो?’’

‘‘मैं तुम्हारी पत्नी सीमा की बात नहीं कर रहा हूं. मैं तो उस सीमा की बात कर रहा हूं जिसे हद भी कहा जाता है. हद यानी एक वह सूक्ष्म सी रेखा जिस के पार जाने से पहले मनुष्य को लाख बार सोचना चाहिए.’’

मैं आश्चर्यचकित रह गया. सीमा नाम की लड़की मानव की पत्नी है लेकिन मानव ने तो कहा था कि वह अविवाहित है और अपनी ही कंपनी में साथ काम कर रही एक सहयोगी के साथ उस के संबंध बहुत गहराई तक जुड़े हैं, सब जानते हैं. तो क्या मानव सब के साथ झूठ बोल रहा है? हाथ का काम छोड़ मैं सुबोध के समीप चला आया. मानव की शक्ल से तो लग रहा था जैसे काटो तो खून का कतरा भी न निकले. एक निश्छल सी मुसकान थी सुबोध के होंठों पर. बेदाग चरित्र है उस का. पहले ही दिन जब मिला था बहुत प्यारा सा लगा था. बड़े मस्त भाव से दाढ़ी बनाता जा रहा था.

‘‘हर इच्छा की सीमा होती है, कितनी भूख है तुम्हें पैसे की? सोचा जाए तो मात्र पैसे की ही नहीं, तुम्हें तो हर शह की भूख है. इतनी भूख से पेट फट जाएगा मानव, बदहजमी हो जाती है. प्रकृति ने इंसानों का हाजमा इतना मजबूत नहीं बनाया कि पत्थर या शीशा खा सके. हम अनाज या ज्यादा से ज्यादा जानवर खा सकते हैं.’’

यह कह कर मुंह धोने चला गया सुबोध और मानव मेरे सामने बुत बना यों खड़ा था मानो उसे बीच चौराहे पर किसी ने नंगा कर दिया हो.

‘‘तुम ये कैसी बातें कर रहे हो, सुबोध?’’ मैं ने पूछा.

‘‘क्या हुआ? जी मिचलाने लगा क्या? मानव का जी तो नहीं मिचलाता. पूछो, इसे इंसान का गोश्त कितना स्वाद लगता है. पिछले 4 साल से यह इंसान का गोश्त ही तो खा रहा है…अपने मांबाप का गोश्त, उस के बाद अपनी पत्नी और उस के पिता का गोश्त, यह तो एक बच्चे का पिता भी होता यदि पत्नी का गर्भपात न हो जाता. एक तरह से अपने बच्चे का गोश्त भी खा चुका है यह इंसान.’’

‘‘बकवास बंद करो सुबोध,’’ मानव ने चिढ़ कर कहा.

‘‘मेरी क्या मजाल है जो मैं बकवास करूं. उस का ठेका तो तुम ने ले रखा है. साल भर पहले घर गए थे तुम, सोचो, तब वहां क्या बकवास कर के आए थे? पत्नी को छोड़ना चाहते थे इसलिए उस पर चरित्रहीनता का आरोप लगा दिया.

‘‘एमबीए करने के लिए अपनी पत्नी के पिता से 8 लाख रुपए ले लिए. उन की बेटी का घरसंसार समृद्धि से भर जाएगा, उन को तुम ने ऐसा आश्वासन दिया था. पत्नी बेचारी घर पर इस के मातापिता की सेवा करती रही, इसी उम्मीद पर कि उस का पति बड़ा आदमी बन कर लौटेगा.

‘‘अजन्मा बच्चा अपने पिता का दोषारोपण सुनते ही चलता बना. मुड़ कर कभी नहीं देखता पीछे क्याक्या छूट गया. किसकिस के सिर पर पैर रख कर यहां तक पहुंचे हो, मानव. क्या जरा सा भी एहसास है?

‘‘अब क्या उस नेहा नाम की लड़की के कंधे पर पैर नहीं हैं तुम्हारे, जिस का भाई तुम्हें अमेरिका ले जाने वाला है? अमेरिका पहुंच कर नेहा को भी छोड़ देना. मानव नहीं हो तुम तो दानव बन गए हो. क्या तुम्हारे अंदर सारी की सारी संवेदनाएं मर गई हैं? पता है न तुम्हें कि कौनकौन कोस रहा है तुम्हें. तुम्हारे मातापिता, तुम्हारे ससुर…जिन की भविष्यनिधि भी तुम खा गए और उन की बेटी का घर भी नहीं बस पाया.’’

मानव की अवस्था विचित्र सी हो गई. बारबार कुछ कहने को वह मुंह खोलता तो सुबोध उस पर नया वार कर देता. प्याज के छिलकों की तरह परतदरपरत उस के भूतकाल की परतें उतारता जा रहा था. सफाई दे भी तो कैसे दे और शुरू कहां से करे, उस का तो आदि से अंत सब ही विश्वास और अपनत्व से शून्य था. जो इंसान अपने मांबाप का सगा न हुआ, अपनी पत्नी के प्रति वफादार न हुआ वह किसी और का भी क्या होगा? सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है. अपनी संतान के प्रति भी जिस ने कोई जिम्मेदारी न समझी, वह कहांकहां से पलायन कर रहा है समझा जा सकता है.

‘‘सुबोध, तुम यह सब कैसे जानते हो. जरा बताओ तो?’’ मैं ने सुबोध का हाथ पकड़ कर पूछा था. शांत रहने वाला सुबोध इस पल जरा आवेश में था.

‘‘तुम मुझ से क्यों पूछ रहे हो कि मैं यह सब कैसे जानता हूं. तुम इस नाशुक्रे इंसान से सिर्फ यह पूछो कि जो कुछ भी मैं ने इस के लिए कहा है वह सच है या नहीं. मैं कैसे जानता हूं कैसे नहीं, इस से क्या फर्क पड़ता है. पूछो इस से कि इस के मातापिता आजकल कहां हैं? जिंदा भी हैं या मर गए? तलाक के बाद इस की पत्नी और उस के पिता का क्या हुआ? क्या यह जानता है? अपने ससुर के 8 लाख रुपए यह कब लौटाने वाला है जो अब सूद मिला कर 10-12 लाख रुपए तो होने ही चाहिए.’’

‘‘सीमा ने अभी मुझे तलाक दिया कहां है…’’ पहली बार मानव ने अपने होंठ खोले, ‘‘और क्या सुबूत है उस के पास कि वे रुपए उस के पिता ने ही दिए थे.’’

‘‘जिस दिन अदालत का नोटिस तुम्हारे औफिस पहुंच जाएगा, उस दिन अपनेआप पता चल जाएगा किस के पास कितने और कैसे सुबूत हैं…इतना लाचार और बेवकूफ किसे समझ रहे हो तुम?’’

सुबोध इतना सब कह कर अपने कपड़े बदलने लगा.

‘‘आजकल मुंह छिपा कर भागना आसान कहां है. इंसान मोबाइल नंबर से पकड़ा जाता है, जिस कंपनी में काम करो वहां से छोड़ कर कहीं और भी चले जाओ तो भी सिरा हाथ में आ जाता है. यह दुनिया इतनी बड़ी कहां रह गई है कि इंसान पकड़ में ही न आए. जल्दी ही नेहा को भी पता चल जाएगा तुम्हारा कच्चा चिट्ठा. यह मत सोचो कि तुम सारी दुनिया को बेवकूफ बना लोगे.’’

बदहवास सा होने लगा मानव. 15 दिन पहले ही तो सुबोध हमारे साथ रहने आया है. उस ने कहा था जम्मू से है, मानव भी जम्मू से है, तब मुझे क्षण भर को लगा भी था कि मानव जम्मू का नाम सुन कर जरा सा परेशान हो गया था, बड़ी गहराई से परख रहा था कि वह किस हिस्से से है, किस कोने से है.

‘‘अगर इंसान जिंदा है और अच्छी नौकरी में है तो छिप नहीं सकता और मुझे पूरा विश्वास है तुम अभी जिंदा हो.’’

धड़ाम से वहीं बैठ गया मानव. सुबोध जल्दीजल्दी तैयार होने लगा. उस ने अपना नाश्ता किया और जातेजाते मानव का कंधा थपथपा दिया.

‘‘अभी भी देर नहीं हुई. मर जाओ या जिंदा रहो, अपने ही काम आते हैं. रोते भी अपने ही हैं, ऐसा दुनिया कहती है. अपना घरपरिवार संभालो, अपनों के साथ छल मत करो वरना वह दिन दूर नहीं जब यही छल घूमफिर कर तुम्हारे ही सामने परोसा जाएगा…अपने घर जाओ मानव, तुम्हारी मां बहुत बीमार हैं.’’

‘‘क्या?’’ मानव के होंठों से पहली बार यह शब्द अपनेआप ही निकला था.

‘‘अपनी मां तो याद हैं न. जाओ उन के पास. नेहा जैसी कल बहुत मिल जाएंगी. आज मां हाथ से निकल गईं तो पूरी उम्र जमीन से जुड़ने को ही तरस जाओगे. पत्नी को छोड़ा है, जाहिर है वह भी मर तो नहीं जाएगी. वह तो कल अपना रास्ता स्वयं ढूंढ़ लेगी, लेकिन आज जो छूट जाएगा वह कभी हाथ नहीं आएगा. अच्छे इंसान बनो मानव…मांबाप ने इतना अच्छा नाम रखा था…कुछ तो उसे सार्थक करो.’’

सुबोध चला गया. कहां से बात शुरू हुई थी और कहां आ पहुंची थी. हैरान हूं मानव के बारे में इतना सब जानते हुए वह 15 दिन से चुप क्यों था. और मानव का चरित्र भी कैसा था, जिस ने साल भर में कभी मांबाप का जिक्र तक नहीं किया. घर में पालतू जानवर पाल लो तो उस का भी नाम कभीकभार इंसान ले ही लेता है.

सुबोध ने बताया था कि उस के कई मित्र मानव के गांव से हैं. हो सकता है उन्हीं से उसे सारी कहानी पता चली हो. मैं तो कितना अच्छा दोस्त समझ रहा था मानव को. अब लग रहा है अपनी समझ को अभी मुझे और परिपक्व करना पड़ेगा. इंसान को परखना अभी मुझे नहीं आया.

मैं सोचने लगा हूं…मानव, जो अच्छा इंसान ही नहीं है वह अच्छा मित्र कैसे होगा. प्यार पाने के लिए तो प्यार बोना पड़ता है और विश्वास पाने के लिए विश्वास. मानव के तो दोनों हाथ खाली हैं, यह क्या लेगा जब कभी दिया ही नहीं. इस के हिस्से तो मात्र खालीपन और अकेलापन ही है.

मानव बुत बना चुपचाप बैठा रहा.

मेरी उम्र 33 साल है, 5 सालों में मेरा 3 बार गर्भपात हुआ है, क्या मैं आईवीएफ की मदद ले सकती हूं?

सवाल
मेरी उम्र 33 साल है. 5 सालों में मेरा 3 बार गर्भपात हुआ है. क्या मैं आईवीएफ की मदद ले सकती हूं?

जवाब
सब से पहले तो बारबार होने वाले गर्भपात के कारण का पता लगाएं. आप की उम्र भी 30 वर्ष से अधिक है, इसलिए आप को तुरंत अपनी जांचें करानी चाहिए. तभी सही स्थिति का पता लगेगा. अगर प्राकृतिक रूप से मां बनने की संभावना नहीं है तभी आईवीएफ के लिए जाएं. इस में भ्रूण को चैक कर के गर्भाशय में डालते हैं, जिस से हैल्दी बेबी होने की संभावना बढ़ जाती है.

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क्या है असुरक्षित गर्भपात

किसी भी महिला के जीवन में गर्भपात भावनात्मक रूप से बहुत व्यथित करने वाली घड़ी होती है. इस से जहां एक तरफ वह गर्भपात के कारण मानसिक तौर पर दुखी होती है, वहीं दूसरी तरफ शारीरिक स्तर पर भी उसे पीड़ा झेलनी पड़ती है. दोनों ही हालात में स्थिति चिंताजनक होती है. हालात तब और संजीदा हो जाते हैं जब गर्भपात असुरक्षित तौर पर करवाया गया हो.

ज्यादातर महिलाओं को असुरक्षित गर्भपात के बारे में कोई जानकारी नहीं होती. यहां तक कि उन्हें गर्भपात के बाद होने वाली दिक्कतों का भी पता नहीं होता. गर्भपात प्रसव के समय होने वाले दर्द से कम पीड़ादायक नहीं होता और अगर यह असुरक्षित स्तर पर और किसी नौसिखिए से करवाया गया है तब तो चिंता और बढ़ जाती है.

असुरक्षित गर्भपात वह है, जो किसी अप्रशिक्षित व्यक्ति से करवाया जाता है. उस के पास न तो कोई डिगरी होती है और न ही अनुभव. कानूनी तौर पर भी ऐसा व्यक्ति गर्भपात करने का अधिकार नहीं रखता है. असुरक्षित गर्भपात से दर्द, संक्रमण, संतानहीनता जैसी जटिलताएं पनप सकती हैं. यहां तक कि मौत भी हो सकती है.

1971 में एनटीपी ऐक्ट (गर्भ समाप्ति कानून 1971) को कुछ खास मामलों में मान्यता दी गई. वह भी तब जब महिला या बच्चे के स्वास्थ्य अथवा जान को खतरा हो. परिवार नियोजन की विफलता और बलात्कार के कारण गर्भ होने की स्थिति में भी गर्भपात की इजाजत है. इन निर्धारित सीमाओं के बाहर गर्भपात करवाना अवैध माना जाता है. असुरक्षित गर्भपात का असर महिला के स्वास्थ्य पर पड़ता है और 2 सप्ताह के बाद भी उस के पेट में असहनीय दर्द, बुखार, योनि से रक्त या दुर्गंधयुक्त स्राव जारी रह सकता है.

गर्भपात के कुछ कारण

अकसर कुछ कारणों से गर्भपात की नौबत आती है. फिर चाहे महिला का जीवन बचाने के लिए गर्भपात करवाना जरूरी हो गया हो या गर्भ में पल रहा बच्चा किसी विकार से पीडि़त हो. ऐसे हालात में गर्भपात ही अंतिम उपाय रह जाता है. अकसर बेटे की चाह भी गर्भपात का कारण बनती है. ग्रामीण इलाकों और कुछ अशिक्षित लोगों द्वारा संकोचवश या सस्ते में छूटने की वजह से भी असुरक्षित गर्भपात का सहारा लिया जाता है और इसे आसपास की कोई अप्रशिक्षित महिला या झोलाछाप डाक्टर कम रुपयों में और अकसर घर पर ही कर देता है.

पिछड़े क्षेत्रों में आज भी ज्यादातर गर्भपात इसी तरह के लोग कर रहे हैं, जो किसी अस्पताल या नर्सिंगहोम में कंपाउंडर होते हैं या मरीज की देखरेख आदि का काम करते हैं. यही वजह है कि असुरक्षित गर्भपात के मामले बढ़ते जा रहे हैं.

गर्भवती महिलाओं में से 15% के मामले में कोई न कोई जटिलता उभरने की आशंका रहती है. भारत में दोतिहाई मातृ मृत्यु दर यानी गर्भपात या प्रसव के दौरान होने वाली मृत्यु बिहार, झारखंड, ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, राजस्थान और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में होती है. यह तथ्य भी चौंकाने वाला है कि देश में ऐनीमिया और कुपोषण के बाद महिलाओं की मौत का सब से बड़ा कारण असुरक्षित गर्भपात बन रहा है.

गंभीर स्थिति

विश्व स्वास्थ्य संगठन की 2012 की रिपोर्ट के मुताबिक गांवों में 60 फीसदी महिलाएं दाइयों पर निर्भर हैं. स्वास्थ्य सेवाओं की कमी के कारण हर साल देश में प्रसव के दौरान 78 हजार महिलाओं की मृत्यु हो जाती है.

गर्भपात करवाना जानलेवा हो सकता है यदि:

– अप्रशिक्षित व अनुभवहीन डाक्टर के द्वारा और मान्यताप्राप्त, लाइसैंसशुदा मैटरनिटी होम में न करवाया गया हो.

– गंदे या रोशनी व हवा रहित कमरे में और कीटाणुयुक्त उपकरणों के जरीए करवाया गया हो.

– 12 सप्ताह के भीतर न किया गया हो. इस के अलावा भी कुछ घरेलू तरीके भ्रूण को समाप्त करने के लिए अपनाए जाते हैं. जैसे दादीमांओं के नुसखों या सुनीसुनाई बातों के आधार पर कुछ विशेष पेड़पौधों का रस योनि में डालना, कोई तार या ठोस वस्तु योनि में डाल कर भ्रूण को समाप्त करने की चेष्टा करना आदि.

असुरक्षित गर्भपात में गर्भपात के 2 सप्ताह बाद भी पेट में असहनीय दर्द, बुखार, योनि से रक्त या दुर्गंधयुक्त स्राव जारी रह सकता है. यह खतरनाक स्थिति है. हो सकता है कि गर्भपात अपूर्ण हुआ हो और गर्भाशय के भीतर भ्रूण का कोई अंश रह गया हो. इन हालात में जान जाने का खतरा भी बढ़ जाता है.

सुरक्षित गर्भपात

1 माह तक के गर्भ को दवा दे कर समाप्त किया जाता है, क्योंकि यह भ्रूण की शुरुआत होती है, इसलिए यह दवा से भी खत्म हो जाता है, लेकिन इस से अधिक समय के गर्भ की समाप्ति अबौर्शन से ही की जाती है जो कि उपकरणों के माध्यम से होता है.

सुरक्षित गर्भपात वैक्यूम ऐस्पिरेशन विधि से होता है. इस में योग्य डाक्टर द्वारा विशेष प्रकार की ट्यूब योनि के रास्ते गर्भाशय में डाल कर भ्रूण को बाहर खींच लिया जाता है. यह एक सरल और सुरक्षित तरीका है. डाइलेशन और क्यूरेटाज यह खुरच कर गर्भपात का तरीका है. गर्भ के बचेखुचे हिस्से को क्यूरेटर के जरीए निकाल दिया जाता है. क्यूरेटर चम्मच के आकार का एक उपकरण होता है.

दिल्ली की एक घनी बस्ती की 35 वर्षीय आसमां 5वीं पास है. 10 वर्षों से अपने क्षेत्र की महिलाओं का गर्भपात कर रही है. पहले वह किसी मैटरनिटी होम में मरीजों की देखरेख और इंजैक्शन लगाने का काम करती थी. जब काम छोड़ा तो घर पर ही गर्भपात करने को आमदनी का रास्ता बना लिया. वह कहती है, ‘‘अब तक बहुत गर्भपात किए हैं और कोई भी गलत नहीं हुआ. हालांकि कई दिनों तक हलकीहलकी ब्लीडिंग या दर्द की शिकायत कुछ महिलाओं को हुई, लेकिन सब कुछ ठीक रहा.’’

आसमां क्यूरेटर के जरीए गर्भपात करती है. वह दर्द का इंजैक्शन व दवा भी देती है.

असुरक्षित गर्भपात करवा चुकी नौरीन का कहना है, ‘‘मैं ने एक दाई से गर्भपात के लिए एक दवा ली थी. दवा खाने के बाद कई दिनों तक हलकी ब्लीडिंग और पेट में दर्द हुआ. उस के बाद करीब 1 साल तक कभीकभार दर्द की समस्या रही, लेकिन अब वह ठीक है.’’

वहीं अनीता बताती हैं, ‘‘मैं कई बार दाई से गर्भपात करवा चुकी हूं, लेकिन ठीक हूं.’’

डा. अनुराधा खुराना, लाजपत नगर, दिल्ली, कहती हैं, ‘‘एक अनुभवी डाक्टर कई वर्ष पढ़ाई करने के बाद गर्भपात करता है, जबकि अप्रशिक्षित महिलाएं महज दवाओं, इंजैक्शनों के नामों को जानती हैं. उन के पास अनुभव भी हो सकता है, लेकिन गर्भपात के दौरान जो जटिलताएं आती हैं उन्हें एक विशेषज्ञ ही संभाल सकता है. क्यूरेटर आदि उपकरणों का इस्तेमाल अगर अप्रशिक्षित दाई कर रही है, तो उस के हाथ से गर्भाशय को हानि पहुंचने और उस के फटने की आशंका बढ़ जाती है.

जब यही हानि किसी विशेषज्ञ से हो जाती है, तो वह उस स्थिति को काबू करने में प्रशिक्षित होता है और मरीज की जान को खतरा नहीं रहता.’’

गर्भपात के बढ़ते मामले

आधुनिकता की चकाचौंध कहिए या रिश्तों की नासमझ अकसर टीनऐज लड़केलड़कियां भी अपनी सीमाओं को लांघ जाते हैं. ऐसे में जब गर्भ ठहरता है, तो लड़की के घर वाले लोकलाज के डर से घर में असुरक्षित गर्भपात का रास्ता चुनते हैं. देश में प्रतिवर्ष करीब 60 लाख गर्भपात कराए जाते हैं और प्रत्येक सुरक्षित गर्भपात पर 17 अवैध गर्भपात होते हैं. 2008 में भारत में 65 लाख गर्भपात हुए, जिन में 66 फीसदी असुरक्षित थे. 2014-15 में 18 साल से कम उम्र की लड़कियों के गर्भपात के मामलों में 67 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई. इस में दिल्ली, बैंगलुरु, चेन्नई और मुंबई जैसे महानगरों के युवा सब से आगे रहे.

बिन मां की बेटियां: क्या उन बेटियों को पापा का प्यार मिला?

Father’s Day 2023: अब नहीं मिलते हिटलर पापा

पुरुष यानी एक बलिष्ठ, मजबूत, आक्रामक, दबंग, गुस्सैल प्रकृति का व्यक्ति, जिसे देखते ही कमजोर सिहर जाए. भारतीय मानक पर पुरुष की परिभाषा सदियों से यही रही है. ऐसे व्यक्ति को पुरुष के तौर पर देखा जाता रहा जो घर में अपनी औरत को काबू में रखे. बच्चे उस की आज्ञा की अवहेलना करने की हिम्मत न कर पाएं. जिस की राय परिवार में सर्वोपरि हो. किसी में उस की बात काटने की हिम्मत न हो और वह सब पर हावी रहे.

एक पीढ़ी पहले तक शाम को जब पिताजी के औफिस से लौटने का वक्त होता था तो घर के सारे बच्चे खेलकूद छोड़ कर, खिलौने छिपा कर, साफसुथरे बन कर पढ़ाई की टेबल पर आ बैठते थे. किताबकौपी सामने खुल जाती. हिलहिल कर आवाज के साथ पहाड़े रटे जाते थे ताकि घर की चौखट पर पहुंचते ही पिताजी के कान में पड़ जाए. ऐसी गंभीर मुद्रा बनाई जाती कि जैसे सारे दिन से बस पढ़ ही रहे हों. पिताजी घर में प्रवेश करते, एक नजर पढ़ाई में जुटे बच्चों पर डालते, अहंकार से सीना चौड़ा हो जाता, मूंछों पर ताव बढ़ जाता और बच्चों के दिल को तसल्ली हो जाती कि अब पिताजी का मूड ठीक रहेगा. बच्चों को ही नहीं, बल्कि बच्चों की मां को भी राहत मिलती. वह पेशानी पर छलक आए पसीने को पोंछ जल्दीजल्दी चायनाश्ते के इंतजाम में जुटती कि कहीं उस में देर हो गई तो बनाबनाया माहौल गालीगलौच की भेंट चढ़ जाएगा.

घर का स्वामी जो पैसा कमा कर लाता है और जो घर को चलाता है उस को ले कर सब के अंदर एक डर सा बना रहता. पितारूपी इंसान कहीं नाराज न हो जाए, इस डर से कोई खुल कर हंसखेल नहीं सकता था. अपने मन की बात नहीं कह सकता था, कोई इच्छा प्रकट नहीं कर सकता था, घर के किसी मामले में अपनी राय नहीं रख सकता था. मां भी किसी चीज की जरूरत होने पर दबीसहमी जबान में पिताजी को बताती थी. अधिकतर इच्छाएं तो उस के होंठों पर आने से पहले ही दम तोड़ देती थीं. पिताजी की हिटलरशाही के आगे पूरा घर सहमा रहता था. जो पिताजी ने कह दिया, वह बस पत्थर की लकीर हो गई. पिताजी ने कह दिया कि लड़के को डाक्टर बनाना है तो फिर भले लड़के का पूरा इंट्रैस्ट संगीत में क्यों न हो, उसे डाक्टरी की प्रवेश परीक्षा की तैयारी में पूरी जान लगानी पड़ती थी.

पिताजी ने कह दिया कि शर्माजी के बेटे से रज्जो की शादी तय कर दी है तो भले रज्जो अपने पड़ोसी आमिर के प्रेम में पूरी की पूरी डूब चुकी हो, उसे उस प्रेमसागर से निकल कर शर्माजी की बहू बनना ही होता था. मगर क्या आप ने गौर किया है कि बीते 2 दशकों में बहुत बड़ा परिवर्तन हमारे घरसमाज में आ चुका है. ‘पापा आजकल आप पढ़ाई को ले कर कुछ पूछते ही नहीं हो,’ ‘हां, क्योंकि अब तुम बदल गई हो, खुद से पढ़ने लगी हो, दूसरों को कौंसैप्ट सम झाने लगी हो, अब तुम्हारा पापा न तुम्हारा पार्टनर बन गया है.’ विज्ञापन की इन लाइनों में आप को ‘पुरुष की परिभाषा’ में आ चुका परिवर्तन साफ दिखाई देगा. आर्मी में सेवारत अधिकारी मां वीडियो कौल में चिंतित दिखती है क्योंकि उस के बेटे को सर्दीखांसी है. घर में नन्हे बेटे के साथ मौजूद उस का पति कैसे सिचुएशन को हैंडल कर पाएगा? मगर पति नन्हे बेटे के सीने पर विक्स की मालिश कर उस को आराम से सुला देता है और वीडियो कौल कर अधिकारी पत्नी को दिखाता है कि बेटा कैसे आराम की नींद सो रहा है.

देख कर पत्नी चैन की सांस लेती है. इस विज्ञापन में भी पुरुष की बदलती भूमिका साफ है. आज ऐसे कितने ही विज्ञापन हमारे चारों तरफ हैं जिन में पुरुष कपड़े धोते, घर साफ करते, पत्नी को कौफी बना कर सर्व करते नजर आ रहे हैं. क्या ऐसे विज्ञापन 2 दशकों पहले कहीं दिखते थे? तो क्या भारतीय पुरुष बदल रहा है? क्या पुरुषों के पुरुषार्थ में कमी आ रही है? क्या अपने पूर्वजों के मुकाबले उस में पौरुष हार्मोन का स्तर घटने लगा है? क्या वह स्त्रीयोचित गुणों को धारण कर रहा है? क्या उस के अंदर वात्सल्य का दरिया बह निकला है? क्या उस के दिल में ममता हिलोरें ले रही है? आइए इन सवालों के जवाब तलाशते हैं. सचिन की पत्नी नेहा का 2019 में देहांत हो गया. उन के पास 10 साल का बेटा है. घर में बूढ़े मातापिता हैं. पहले सचिन घर के कामों में रुचि नहीं रखते थे.

वे सुबह 9 बजे औफिस निकल जाते और शाम 6 बजे घर लौट कर बढि़या चायनाश्ता कर के टीवी इत्यादि देखने या महल्ले के दोस्तों के साथ गपशप में तल्लीन रहते थे. उन का एक काम था, पैसा कमा कर बीवी के हाथ में रखना. बाकी किसी बात से कोई मतलब न था. बेटे ने भी कभी उन से बहुत लाड़प्यार नहीं पाया था. वह पूरे वक्त मां से ही लिपटा रहता या फिर दादादादी उस से लाड़ लड़ाते और उस की ख्वाहिशें पूरी किया करते थे. लेकिन नेहा के अचानक चले जाने से बेटे की और मांबाप की पूरी जिम्मेदारी सचिन पर आ गई. मां हार्टपेशेंट थी. नेहा ही उन की दवादारु का खयाल रखती थी.

हर महीने चैकअप के लिए ले कर जाती थी. बेटे के स्कूल की पढ़ाई, पेरैंटटीचर मीटिंग, ट्यूशन, उस के सामान की खरीदारी सब नेहा अकेले करती थी. अब ये सारी जिम्मेदारियां सचिन पर पड़ीं तो उन में बड़ा भावनात्मक बदलाव आया. उन का व्यवहार भी पूरी तरह बदल गया. सुबह जल्दी उठ कर सब के लिए नाश्ता बनाना, बेटे का लंचबौक्स तैयार करना, बेटे को नहलानाधुलाना, स्कूल के लिए तैयार करना, स्कूल छोड़ने जाना, दोपहर में लेने जाना, शाम को होमवर्क करवाना, उस की एकएक जरूरत के लिए बारबार बाजार दौड़े जाना, बीमार पड़ने पर डाक्टर के, क्लीनिक के चक्कर काटना आदि, यानी सचिन पापा के साथसाथ मां का रोल भी निभाने लगे. बीते 2 सालों में सचिन अपने बेटे के बहुत नजदीक आ गए हैं. इन 2 सालों में शायद ही कभी उन्होंने उस को किसी बात के लिए डांटा हो. कोरोनाकाल में वर्क फ्रौम होम करते हुए सचिन पूरी तरह एक ममतामयी मां के किरदार में ढल चुके हैं.

2 वर्ष पहले और 2 वर्ष बाद वाले सचिन में जमीनआसमान का फर्क आ चुका है. बेटे के साथ वे वात्सल्य की दरिया में गोते लगाते हैं. मातापिता की देखभाल करते हैं. उन की दवाइयां व दवा का समय सचिन को याद रहता है. मगर इस का मतलब यह कतई नहीं है कि उन के पुरुषार्थ में कोई कमी आ गई है. घर के बाहर और औफिस के कर्मचारियों के साथ उन का व्यवहार पहले की तरह ही है. बल्कि, कुछ ज्यादा सम झदारीभरा हो गया है. वे अब दूसरों की परेशानियों को आसानी से सम झने लगे हैं. दरअसल, बढ़ी हुई जिम्मेदारियों ने उन की भावनाओं को जगाने का काम किया है. जिन भावनाओं को पुरुष अकसर नजरअंदाज कर देते हैं, उन के करीब नहीं जाना चाहते, सचिन के मन की वही कोमल भावनाएं अब जागृत अवस्था में हैं. गौरव के पिता पुलिस अधिकारी थे. आईजी की पोस्ट पर बड़ा रोब था.

दबंग दिखते थे, बाहर भी और घर में भी. पत्नी गृहिणी थी और पति से दबती थी. कभी हिम्मत नहीं हुई कि उन की किसी आज्ञा के आगे चूं भी कर दे. गौरव और सौरभ दोनों भाइयों पर बचपन से ही दबाव था कि उन्हें सरकारी अधिकारी ही बनना है. 12वीं के बाद से ही दोनों ने सिविल सर्विसेज की परीक्षा की तैयारी में रातदिन एक कर दिए. दोनों ने परीक्षा निकाल भी ली और आज अच्छी पोस्ट पर तैनात हैं. दोनों के दोदो बच्चे हैं. दोनों अलगअलग शहरों में कार्यरत हैं और दोनों की पत्नियां भी नौकरीपेशा हैं. दोनों अच्छा कमा रहे हैं. रोब वाली नौकरी है. मगर दोनों का व्यक्तित्व अपने पिता के व्यक्तित्व से बहुत अलग है. औफिस में काम के लिए अपने मातहतों पर पिले रहने वाले सौरभ से जब इस विषय पर बात करते हुए मैं ने पूछा कि क्या घर में भी ऐसे ही रोब में रहते हैं, तो मेरे इस सवाल पर दिल्ली में असिस्टैंट कमिश्नर, सेल्स टैक्स के पद पर तैनात सौरभ हंस कर बोले, ‘‘अरे नहीं, औफिस और घर में बहुत अंतर है. वहां मैं अलग किरदार में होता हूं. खाना बनाता हूं. किचन के सिंक में रखे गंदे बरतन मांज देता हूं.

कभी उन की (पत्नी की) अलमारी खोल कर सारे कपड़े ठीक से लगा देता हूं. छुट्टी वाले दिन बच्चों की बुकशेल्फ भी साफ कर देता हूं. किताबों पर नए कवर चढ़ा कर सजा देता हूं. मु झे उन के लिए ये सब करना अच्छा लगता है. अगर आप सचमुच अपने बीवीबच्चों से प्यार करते हैं तो इन कामों के जरिए अपने प्यार को बेहतर तरीके से जता सकते हैं.’’ सौरभ कहते हैं, ‘‘रूपाली (उन की पत्नी) एनजीओ चलाती है. काम के सिलसिले में कई बार बाहर भी जाना पड़ता है. कई बार वह घर देर से आती है. तो हम में से जो भी पहले घर पहुंचता है, रात का खाना बनाने की जिम्मेदारी वह लेता है. बच्चों का होमवर्क भी वही करवाता है. हमारे बच्चों से अगर आप पूछें कि मम्मीपापा में कौन ज्यादा अच्छा है, तो उन का जवाब होगा कि दोनों. लेकिन अगर आप मु झ से मेरे बचपन में यह सवाल पूछतीं तो मैं कहता कि मम्मी ज्यादा अच्छी हैं, बल्कि कहता कि, बस मम्मी ही अच्छी हैं, क्योंकि वही हमारे पास ज्यादा थीं. ‘‘पापा अनुशासन, भय और सम्मान का मिलाजुला व्यक्तित्व थे जिन से दूरी बना कर रखने में ही भलाई नजर आती थी. मम्मी हमारे सारे काम करती थीं. वही ज्यादा प्यार करती थीं. कई बार हमारे लिए वे पापा से डांट भी खाती थीं.

तो आज अगर बीवियां नौकरी करने के लिए घर से निकली हैं तो उस से पतियों को यह फायदा हुआ है कि उन के बच्चों से उन की निकटता और प्रेम बढ़ा है. वे बापबेटे से ज्यादा एकदूसरे के दोस्त हैं. मु झे पता है मेरे बच्चों को कब क्या चाहिए, मगर मेरे पिता को कभी नहीं पता चलता था कि हमें कब क्या चाहिए. वे, बस, यह जानते थे कि उन को क्या चाहिए. हमारी जरूरतें सिर्फ मां ही सम झती थीं.’’ औरतों की आर्थिक आजादी से पुरुषों की हिटलरशाही में गिरावट आई है. औरतोंबच्चों पर पति का रोब सिर्फ इस वजह से था कि वह कमाता है, उन्हें रोटी देता है.

उस की कमाई से ही घर चलता है. बच्चे पढ़ते हैं. घरभर की दवादारू होती है. बीते दोतीन दशकों में आदमी का सारा रोब और हिटलरशाही तब चली गई जब बढ़ती महंगाई के कारण एक आदमी की तनख्वाह से एक मध्यवर्गीय घर चलना मुश्किल हो गया. तब लड़के अपने लिए नौकरीपेशा दुलहन ढूंढ़ने लगे. अब कहींकहीं तो हालत यह है कि पत्नियां पति से ज्यादा कमा रही हैं, तो कहींकहीं सिर्फ पत्नियां ही कमा रही हैं और पति घर संभाल रहे हैं. ऐसे में वे बच्चों के ज्यादा निकट हैं. बच्चों से उन का भावनात्मक लगाव भी ज्यादा है. वे दिनभर उन के साथ रहते हैं तो उन की जरूरतें भी सम झते हैं. पुरुषों के एकछत्र प्रभाव वाले क्षेत्रों में महिलाओं की धमाकेदार एंट्री से घरसमाज का माहौल बदला है.

इस आर्थिक बदलाव को कई पुरुषों ने स्वीकार कर के स्वयं को बदल लिया है और जो नहीं बदल रहे हैं वे बच्चों की निगाह में विलेन बनते जा रहे हैं. एक ऐसा पिता जिसे बच्चों से प्रेम नहीं है और जो बहुत खड़ूस है, उन के मित्रों के पिताओं से अलग. पुरुषों के भावनात्मक बदलाव की वजह एक यह भी है कि उन में अपने पूर्वजों के मुकाबले टैस्टोस्टेरोन (पुरुष और पौरुष हार्मोन) का स्तर घटा है और संतानप्रेम के लिए जिम्मेदार औक्सिटोसिन हार्मोन (वात्सल्य हार्मोन) का स्तर बढ़ा है. विकासक्रम के चलते हालांकि अब भी संतान अपने दबंग पिता को पसंद करती है जिस का समाज में रुतबा, सम्मान और शान हो लेकिन उन्हें घर के हिटलर अब पसंद नहीं हैं. वे पिता में अब मां के कुछ गुण देखना चाहते हैं.

एक प्रेम करने वाला मजबूत पिता. किसी चाइल्ड क्लीनिक पर नजर दौड़ाइए, आप पाएंगे कि अधिकतर बच्चे पिता की गोद में चढ़े रहते हैं या पिता की उंगली पकड़ कर उन से सटे रहते हैं. पहले के पिता अपने बच्चों से एक दूरी बना कर रखते थे, उन्हें प्रेम से गोद में उठा कर नहीं लाते थे, उन की समस्याओं को सुनाते हुए भावुक नहीं होते थे और न ही उन की समस्याओं को सुनाते हुए रोने लगते थे लेकिन अब यह बदल गया है. वर्तमान पीढ़ी के मर्दों में हिटलरशाही काफी हद तक खत्म हो चुकी है. शाम को पतिपत्नी में से जो घर पहले पहुंचे, घर टाइडी करना, चायनाश्ता बनाना उस की जिम्मेदारी हो गई है. कोरोनाकाल में वर्क फ्रौम होम करते हुए मर्दों का ममतामयी रूप भी जाग पड़ा है. घर में सारा दिन बच्चों के करीब रहते उन के अंदर स्नेह और केयर कुछ ज्यादा नजर आने लगा है. अब पिता पहले से ज्यादा अपना प्रेम प्रदर्शित करने लगे हैं.

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