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ऐसे नहीं चलता काम- भाग 2

अचानक मुझे होश हुआ, तो जीप की तरफ देखा. वह एक तरफ पलटी पड़ी थी. वहीं स्टेयरिंग के सहारे अरुण बेहोश पड़ा था. मुंह और माथे से खून बह रहा था. उसे तुरंत सीधा किया और चोट की जगह को कस कर अपनी हथेली से दबा दी.

शोर सुन कर कुछ स्थानीय लोग जमा हो गए थे. सूखी लकड़ियां, फलसब्जी, बांस की कोंपलें आदि लाने, खेती का काम और शिकार करने स्थानीय लोग प्रतिदिन जंगल का रुख करते ही हैं. रास्ते में उन्होंने जो जीप को दुर्घटनाग्रस्त होते देखा, तो अपनी बास्केट-थैले और भाला-दाव एवं दूसरे सामान आदि फेंकफांक कर इधर ही दौड़े चले आए थे. अपनी स्थानीय आओ भाषा में जाने क्याकुछ कह रहे थे, जो मेरी समझ के बाहर था. इतना अवश्य था कि वे हमारी सहायता करने और अस्पताल पहुंचाने की बात कर रहे थे. मुझे भी चोटें आई थीं और मैं मूर्च्छित सी हो रही थी कि एक नागा युवती ने मुझे सहारा दिया. एक नागा युवक ने अरुण के माथे की चोट पर अपना रंगीन नागा शौल बांध दी.

अचानक मैं अचेत हो गई. फिर तो कुछ याद न रहा. बस, इतना स्मरण भर रहा कि एक बुजुर्ग नागा किसी पौधे की पत्तियां तोड़ लाया था और उसे अपनी हथेलियों पर मसल कर उस की बूंदें अरुण के मुंह में टपका रहा था. एक दूसरी युवती उस के चेहरे पर पानी की छींटे मार रही थी.

आंख खुली तो मैं एकबारगी ही घबरा कर उठ बैठी. अरे, यह मैं कहां और कैसे आ गई. अरुण कहां, किस हालत में है, मन में सैकड़ों सवाल कुलबुलाने लगे थे. विपत्ति के वक्त व्यक्ति ऐसी ही अनेक आशंकाओं से घिर जाता है.

ठीक पहाड़ की चोटी पर बसा कोई गांव था, जहां वे लोग हमें उठा लाए थे. सामने ही सूर्य के तीखे प्रकाश से एक भव्य चर्च का क्रौस चमक रहा था. मैं एक झोंपड़ी में एक चारपाई पर पड़ी थी. मगर अरुण कहां है? गांव के अनेक लोग मुझे घेरे आओ भाषा में जाने क्या बातें कर रहे थे. और जैसी की इधर आदत है, बीचबीच में उन के ठहाके भी गूंज जाते थे. अधिसंख्य बुजुर्ग नागा स्त्री-पुरुष ही थे. उन में से एक नागा बुजुर्ग आगे बढ़ कर टूटीफूटी हिंदी में बोला- “अब कैसा है, बेटी?”

“मेरे पति कहां हैं,” मैं चीखी. अचानक मुझे एहसास हुआ कि शायद ये हिंदी न समझें. सो, इंग्लिश में बोली, “व्हेयर इज माई हसबैंड?”

“हम थोड़ी हिंदी जानता है,” वही बुढ़ा स्नेहसिक्त आवाज में बोला, “तुम्हारा आदमी घर के अंदर है. उसे बहुत चोट लगा. बहुत खून बहा. तुम लोग कहां से आता था. कहां रहता है?”

“हम मोकोकचुंग में रहते हैं. मेरे पति चुचुइमलांग के अपने एक मित्र से मिलने के लिए निकले थे. मगर गाड़ी का ब्रेक खराब हो गया और ऐक्सिडैंट हो गया,” घबराए स्वर में मैं बोली, “अभी वे कहां हैं. मैं उन्हें देखना चाहती हूं.”

बुजुर्ग ने अपनी आओ भाषा में बुढ़िया से कुछ कहा. बुढ़ी महिला मुझ से आओ भाषा में ही कुछ कहते हुए अंदर ले गई. काफी पुरानी और गंदी सी झोंपड़ी थी यह. बांस की चटाई बुन कर इस झोंपड़ी की दीवारें तैयार की गई थीं. ताड़ के पत्तों सरीखे बड़ेबड़े पत्तों से ऊपर छत का छप्पर छाया गया था. फर्श मजबूत लकड़ियों का था. और यह झोंपड़ी जमीन से लगभग हाथभर ऊपर मजबूत लकड़ी के खंभों पर टिकी थी. नागालैंड की ग्रामीण रिहाइश आमतौर पर ऐसी ही होती है.

कहने को यह झोंपड़ी थी मगर थी बहुत बड़ी. बांस की चटाइयों का घेरा दे कर 2 कमरे बने हुए थे. उसी में से एक कमरे में एक चौकी पर अरुण लेटा था. उस का चेहरा एकदम निस्तेज हो गया था. सांस धौंकनी की तरह चल रही थी.

मैं उसे देख कर फूट कर रो पड़ी. हमारे पीछे कुछ और लोग चले आए थे. वे आगे बढ़ आए और मुझे हिंदी, इंग्लिश और आओ भाषा में कुछकुछ कह कर दिलासा देने लगे. बूढ़ी महिला ने फिर आओ भाषा में मुझ से कुछ कहा. छाती पर क्रौस का निशान बनाया और मुझे वापस बाहर ले आई.

“यहां से चुचुइमलांग कितनी दूर है? न हो, तो इन के मित्र हमसेन आओ को बुला दें.” मैं सुबकते हुए बोली, “वे शायद कुछ मदद कर पाएं.”

वे बोले, “तुम चिंता मत करो. चुचुइमलांग यहां से दसेक मील दूर है. तुम्हारे उस परिचित फ्रैंड को भी हम खबर कर देगा. तुम्हारा हसबैंड को बहुत चोट लगा. मगर डाक्टर ने बताया कि वह खतरे से बाहर है. वह अच्छा हो जाएगा.”

“मगर यहां क्या व्यवस्था हो सकती है?” मैं बोली, “उन्हें अस्पताल पहुंचाना बहुत जरूरी है. अगर आप उस की व्यवस्था कर देते तो…”

“चर्च के पास ही तो एक हौस्पिटल है,” बुजुर्ग मेरी बात काटते हुए बोले, “वहीं तो हम सब से पहले तुम्हारे हसबैंड को ले गया था. डाक्टर ने चैक किया और दवाएं लिखीं. कंपाउंडर ने फर्स्ट एड दिया. लेकिन वह बोल रहा था कि हालत ठीक नहीं. बौडी से खून ज्यादा निकल गया है. खून चढ़ाना होगा. हम उसी की व्यवस्था में लगा है.”

बुढ़े ने बुढ़िया से कुछ कहा. वह अंदर चली गई थी. मैं अब कुछ सहज होने लगी थी. फिर भी मन में कुछ आशंका थी. अपरिचित लोग, अनजान जगह. हालांकि बातव्यवहार से कहींकुछ अजीब नहीं लग रहा था. मगर ये अभावग्रस्त लोग हमारी क्या मदद कर पाएंगे, यही विचार मन में घुमड़ रहा था. यह भी कि ये लोग हमारे बारे में क्या सोच रहे होंगे. इतने में बुढ़िया आई और जाने क्या कहा कि बूढ़ा उठते हुए बोला, “चलो बेटा, चाय पीते हैं.”

सांझ का भूला : भाग 2

मोनिका के कठोर व्यवहार के कारण घर में कलह शुरू हो गई. बालकृष्णन का व्यापार भाग्यलक्ष्मी के परिवार से जुड़ा था. वह पत्नी का रोनाधोना देख नहीं पा रहा था. वही हुआ जिस का सीता को डर था. बालकृष्णन अपने ससुर के यहां रहने चला गया. कुछ समय तक वह सीता से मिलने आताजाता रहा पर धीरेधीरे उस का आना कम हो गया.

मोनिका अपने पति के साथ संगीत के कार्यक्रमों में जुड़ी रहती थी. घर के कामों में उस की कभी रुचि रही ही नहीं. यहां तक कि सवेरे स्नान कर रसोईघर में आने के रिवाज का भी वह पालन नहीं करती थी.

मोनिका को जाने क्यों कभी सीता के साथ लगाव रहा ही नहीं. सीता बहू को प्रसन्न रखने के लिए काफी प्रयास करती थी. इस के बाद भी मोनिका का कटु व्यवहार बढ़ता ही जाता था. यहां तक कि वह अपने बेटे मोहन को उस की दादी सीता से हमेशा दूर रखने का यत्न करती थी. सीता अंदर से टूटती रही, अकेले में रोती रही और अंत में अलग फ्लैट ले कर रहने का कष्टपूर्ण निर्णय उस ने लिया था.

आदतवश सीता सुबह 4 बजे ही जग गई. आंख खुलते ही घर की नीरवता का भान हुआ तो झट से अपना मन घर के कामकाज में लगा लिया. रसोईघर में खड़ी सीता फिर एक बार चौंकी. भरेपूरे मायके और ससुराल में हमेशा वह 5-7 लोगों के लिए रसोई बनाती थी. आज पहली बार उसे सिर्फ अपने लिए भोजन तैयार करना है. लंबी सांस लेती हुई वह काम में जुटी रही.

मन में खयाल आया कि बहू मोनिका नन्हे चंचल मोहन को संभालते हुए नाश्ता और भोजन अकेले कैसे तैयार कर पाएगी? जगन्नाथ को प्रतिदिन नाश्ता में इडलीडोसा ही चाहिए. इडली बिलकुल नरम हो, सांभर के साथ नारियल की चटनी भी हो, यह जरूरी है. दोपहर के भोजन में भी उसे सांभर, पोरियल (भुनी सब्जी), कूट्टू (तरी वाली सब्जी), दही, आचार के साथ चावल चाहिए. इतना कुछ मोनिका अकेले कैसे तैयार कर पाएगी?

सीता ने अपना लंच बौक्स बैग में रख लिया. उसे अकेले बैठ कर नाश्ता करने की इच्छा नहीं हुई. केवल कौफी पी कर वह कालिज चल पड़ी. कालिज में उसे अपने इस नए घर का पता कार्यालय में नोट कराना था. मैनेजर रामलक्ष्मी ने तनिक आश्चर्य से पूछा, ‘‘आप का अपना मकान टी. नगर में है न? फिर आप उतने अच्छे इलाके को छोड़ कर यहां विरुगंबाकम में क्यों आ गईं?’’

सीता फीकी हंसी हंस कर बात टाल गई. कालिज में कुछ ही समय में बात फैल गई कि सीता बेटेबहू से लड़ कर अलग रहने लगी है. ‘जाने इस उम्र में भी लोग कैसे परिपक्व नहीं होते, छोटों से लड़तेझगड़ते हैं. जब बड़ेबूढ़े ही घर छोड़ कर भागने लगेंगे तो समाज का क्या हाल होगा?’ इस तरह के कई ताने सुन सीता खून का घूंट पी कर रह जाती थी.

सीता को अकेला, स्वतंत्र जीवन अच्छा भी लग रहा था. रोजरोज की खींचातानी, तूतू, मैंमैं से तो छुटकारा मिल गया. घर को सुचारु रूप से चलाने के लिए वह कितना काम करती थी फिर भी मोनिका ताने देती रहती थी. सीता ने अपने वैधव्य का सारा दुख अपने दोनों बेटों के चेहरों को निहारते हुए ही झेला था पर आज स्थिति बदल गई है. आज बेटे भी मां को भार समझने लगे हैं.

बहुओं की हर बात मानने वाले दोनों बेटे अपनी मां के दिल में झांक कर क्यों नहीं देखना चाहते हैं? बहुओं का अभद्र व्यवहार सहन करते हुए क्या सीता को ही घुटघुट कर जीना होगा. सीता ने जब परिवार से अलग रहने का निर्णय लिया तब दोनों बेटे चुप ही रहे थे. सीता की आंखों में आंसू भर आए.

सीता के पति रविचंद्रन का श्राद्ध था. सीता अपने बेटेबहुओं व पोतों के साथ गांव में ही जा कर श्राद्ध कार्य संपन्न कराती थी. गांव में ही सीता के सासससुर, बूआ और अन्य परिजन रहते हैं. जगन्नाथ ही सब के लिए टिकट लिया करता था. गांव में पत्र भेज कर पंडितजी और ब्राह्मणों से सारी तैयारी करवा कर रखता था. श्राद्ध में कुल 8 दिन बाकी हैं और अब तक सीता को किसी ने कोई खबर नहीं दी. क्या दोनों बेटे उसे बिना बुलाए ही गांव चले जाएंगे? सीता अकेले गांव पहुंचेगी तो बिरादरी में होहल्ला हो जाएगा. अभी तक तो उस के अलग रहने की बात शहर तक ही है. सीता का मन घबराने लगा. अपने अलग फ्लैट में रहने की बात वह अपने सासससुर से क्या मुंह ले कर कह पाएगी.

उस के वयोवृद्ध सासससुर आज भी संयुक्त परिवार में ही जी रहे हैं. ससुर की विधवा बहन, विधुर भाई, भाई के 2 लड़के, दूर रिश्ते की एक अनाथ पोती सब परिवार में साथ रहते हैं. उन्होंने सीता को भी गांव में आ कर रहने को कहा था, पर वह ही नहीं आई थी. क्या इतने लोगों के बीच मनमुटाव नहीं रहता होगा? क्या आर्थिक परेशानियां नहीं होंगी? पता नहीं ससुरजी कैसे इस उम्र में सबकुछ संभालते हैं?

सीता ने मन मार कर जगन्नाथ को फोन किया. मोनिका ने ही फोन उठाया. जगन्नाथ किसी फिल्म की रिकार्डिंग के सिलसिले में सिंगापुर गया हुआ था. सीता गांव जाने के बारे में मोनिका से कुछ भी पूछ नहीं पाई. बालकृष्णन भी बंगलुरु गया हुआ था. भाग्यलक्ष्मी ने भी गांव जाने के बारे में कुछ नहीं कहा.

सीता को पहली बार घर त्यागने का दर्द महसूस हुआ. क्या करे वह? ट्रेन से अपने अकेले का आरक्षण करा ले? पर यह भी तो पता नहीं कि लड़कों ने गांव में श्राद्ध करने की व्यवस्था की है या नहीं? उसे अपने दोनों बेटों पर क्रोध आ रहा था. क्या मां से बातचीत नहीं कर सकते हैं? लेकिन सीता अपने बेटों से न्यायपूर्ण व्यवहार की अपेक्षा कैसे कर सकती है? उस ने स्वयं परिवार त्याग कर बेटों से दूरी बना ली है. अब कौन किसे दोष दे? सीता ने अंत में गांव जाने के लिए अपना टिकट बनवा लिया और कालिज में भी छुट्टी की अर्जी दे दी.सीता विचारों के झंझावात से घिरी गांव पहुंची थी. उस के पहुंचने के बाद

ही जगन्नाथ, मोनिका, बालकृष्णन, भाग्यलक्ष्मी, मोहन और कुमार पहुंचे. सीता ने जैसेतैसे बात संभाल ली. श्राद्ध अच्छी तरह संपन्न हुआ. सीता की वृद्ध सास और बूआ उस के परिवार के बीच में अलगाव को देख रही थीं. मोहन अपनी दादी सीता के गले लग कर बारबार पूछ रहा था, ‘‘ ‘पाटी’ (दादी), आप घर कब आएंगी? आप हम से झगड़ कर चली गई हैं न? मैं भी अम्मां से झगड़ने पर घर छोड़ कर चला जाऊंगा.’’

‘‘अरे, नहीं, ऐसा नहीं बोलते, जाओ, कुमार के साथ खेलो,’’ सीता ने मुश्किल से उसे चुप कराया.

शहर वापसी के लिए जब सब लोग तैयार हो गए तब सीता के ससुर ने अपने दोनों पोतों को बुला कर पूछा, ‘‘तुम दोनों अपनी मां का ध्यान रखते हो कि नहीं? तुम्हारी मां काफी दुबली और कमजोर लगती है. जीवन में बहुत दुख पाया है उस ने. अब कम से कम उसे सुखी रखो.’’

जगन्नाथ और बालकृष्णन चुपचाप दादा की बात सुनते रहे. उन्हें साष्टांग प्रणाम कर सब लोग चेन्नई लौट गए थे.

गांव से वापस आने के बाद सीता और भी अधिक बुझ गई थी. कितने महीनों बाद उस ने अपने दोनों बेटों का मुंह देखा था. दोनों प्यारे पोतों का आलिंगन उसे गद्गद कर गया था. बहू मोनिका भी काम के बोझ से कुछ थकीथकी लग रही थी पर उस की तीखी जबान तो पहले जैसे ही चलती रही थी. जगन्नाथ काफी खांस रहा था. वह कुछ बीमार रहा होगा.

बालकृष्णन अपने चंचल बेटे कुमार के पीछे दौड़तेदौड़ते ऊब रहा था. भाग्यलक्ष्मी बालकृष्णन का ज्यादा ध्यान नहीं रख रही थी. खैर, मुझे क्या? चलाएं अपनीअपनी गृहस्थी. मेरी जरूरत तो किसी को भी नहीं है. सब अपना घर संभाल रहे हैं. मैं भी अपना जीवन किसी तरह जी लूंगी.

सीता के कालिज में सांस्कृतिक कार्यक्रम था. अध्यापकगण अपने परिवार के साथ आए थे. अपने साथियों को परिवार के साथ हंसताबोलता देख कर सीता के मन में कसैलापन भर गया. उसे अपने परिवार की याद सताने लगी. हर वर्ष उस के दोनों बेटे इस कार्यक्रम में आते थे. सीता इस कार्यक्रम में गीत गाती थी. मां के सुरीले कंठ से गीत की स्वरलहरी सुन दोनों बेटे काफी खुश होते थे. आज सांस्कृतिक कार्यक्रम में अकेली बैठी सीता का मन व्यथित था.

विश्वास : भाग 2

‘‘मुझे जल्दी कानपुर जाना होगा अंजू, पर मेरे पास इस वक्त 2 लाख का इंतजाम नहीं है. सुबह बिल्डर से पेशगी दिए गए 5 लाख रुपए वापस लेने की कोशिश करता हूं. वह नहीं माना तो मां ने तुम्हारे लिए जो जेवर रखे हुए हैं उन्हें किसी के पास गिरवी…’’

‘‘बेकार की बात मत करो. मु?ो पराया क्यों सम?ा रहे हो?’’ अंजू ने हाथ से उस का मुंह बंद कर आगे नहीं बोलने दिया.

‘‘क्या तुम मु?ो इतनी बड़ी रकम उधार दोगी?’’ राजीव विस्मय से भर उठा.

‘‘क्या तुम्हारा मु?ा से ?ागड़ा करने का दिल कर रहा है?’’

‘‘नहीं, लेकिन…’’

‘‘फिर बेकार के सवाल पूछ कर मेरा दिल मत दुखाओ. मैं तुम्हें 2 लाख रुपए दे दूंगी. जब मैं तुम्हारी हो गई हूं तो क्या मेरा सबकुछ तुम्हारा नहीं हो गया?’’

अंजू की इस दलील को सुन राजीव ने उसे प्यार से गले लगाया और उस की आंखों से अब ‘धन्यवाद’ दर्शाने वाले आंसू बह निकले.

अपने प्रेमी के आंसू पोंछती अंजू खुद भी आंसू बहाए जा रही थी.

लेकिन उस रात अंजू की आंखों से नींद गायब हो गई. उस ने राजीव को 2 लाख रुपए देने का वादा तो कर लिया था लेकिन अब उस के मन में परेशानी और चिंता पैदा करने वाले कई सवाल घूम रहे थे:

‘राजीव से अभी मेरी शादी नहीं हुई है. क्या उस पर विश्वास कर के उसे इतनी बड़ी रकम देना ठीक रहेगा?’ इस सवाल का जवाब ‘हां’ में देने से उस का मन कतरा रहा था.

‘राजीव के साथ मैं घर बसाने के सपने देख रही हूं. उस के प्यार ने मेरी रेगिस्तान जैसी जिंदगी में खुशियों के अनगिनत फूल खिलाए हैं. क्या उस पर विश्वास कर के उसे 2 लाख रुपए दे दूं?’ इस सवाल का जवाब ‘न’ में देते हुए उस का मन अजीब सी उदासी और अपराधबोध से भी भर उठता.

देर रात तक करवटें बदलने के बावजूद वह किसी फैसले पर नहीं पहुंच सकी थी.

अगले दिन आफिस में 11 बजे के करीब उस के पास राजीव का फोन आया:

‘‘रुपयों का इंतजाम कब तक हो जाएगा, अंजू? मैं जल्दी से जल्दी कानपुर पहुंचना चाहता हूं,’’ राजीव की आवाज में चिंता के भाव साफ ?ालक रहे थे.

‘‘मैं लंच के बाद बैंक जाऊंगी. फिर वहां से तुम्हें फोन करूंगी,’’ चाह कर भी अंजू अपनी आवाज में किसी तरह का उत्साह पैदा नहीं कर सकी थी.

‘‘प्लीज, अगर काम जल्दी हो जाए तो अच्छा रहेगा.’’

‘‘मैं देखती हूं,’’ ऐसा जवाब देते हुए उस का मन कर रहा था कि वह रुपए देने के अपने वादे से मुकर जाए.

लंच के बाद वह बैंक गई थी. 2 लाख रुपए अपने अकाउंट में जमा करने में उसे ज्यादा परेशानी नहीं हुई. सिर्फ एक एफ.डी. उसे तुड़वानी पड़ी थी लेकिन उस का मन अभी भी उल?ान का शिकार बना हुआ था. तभी उस ने राजीव को फोन नहीं किया.

शाम को जब राजीव का फोन आया तो उस ने झुठ बोल दिया, ‘‘अभी 1-2 दिन का वक्त लग जाएगा, राजीव.’’

‘‘डाक्टर बहुत जल्दी आपरेशन करवाने पर जोर दे रहे हैं. तुम बैंक के मैनेजर से मिली थीं?’’

‘‘मां को किस अस्पताल में भरती कराया है?’’ अंजू ने उस के सवाल का जवाब न दे कर विषय बदल दिया.

‘‘दिल के आपरेशन के मामले में शहर के सब से नामी अस्पताल में,’’ राजीव ने अस्पताल का नाम बता दिया.

अपनी मां से जुड़ी बहुत सी बातें करते हुए राजीव काफी भावुक हो गया था. अंजू ने साफ महसूस किया कि इस वक्त राजीव की बातें उस के मन को खास प्रभावित करने में सफल नहीं हो रही थीं. उसे साथ ही साथ यह भी याद आ रहा था कि पिछले दिन मां के प्रति चिंतित राजीव के आंसू पोंछते हुए उस ने खुद भी आंसू बहाए थे.

अगली सुबह 11 बजे के करीब राजीव ने अंजू से फोन पर बात करनी चाही तो उस का फोन स्विच औफ मिला. परेशान हो कर वह लंच के समय उस के फ्लैट पर पहुंचा तो दरवाजे पर ताला लटकता मिला.

‘अंजू शायद रुपए नहीं देना चाहती है,’ यह खयाल अचानक उस के मन में पैदा हुआ और उस का पूरा शरीर अजीब से डर व घबराहट का शिकार बन गया. रुपयों का इंतजाम करने की नए सिरे से पैदा हुई चिंता ने उस के हाथपैर फुला दिए थे.

उस ने अपने दोस्तों व रिश्तेदारों के पास फोन करना शुरू किया. सिर्फ एक दोस्त ने 10-15 हजार की रकम फौरन देने का वादा किया. बाकी सब ने अपनी असमर्थता जताई या थोड़े दिन बाद कुछ रुपए का इंतजाम करने की बात कही.

वह फ्लैट की बुकिंग के लिए दी गई पेशगी रकम वापस लेने के लिए बिल्डर से मिलने गया पर वह कुछ दिन के लिए मुंबई गया हुआ था.

शाम होने तक राजीव को एहसास हो गया कि वह 2-3 दिन में भी 2 लाख की रकम जमा नहीं कर पाएगा. हर तरफ से निराश हो चुका उस का मन अंजू को धोखेबाज बताते हुए उस के प्रति गहरी शिकायत और नाराजगी से भरता चला गया था.

तभी उस के पास कानपुर से रवि का फोन आया. उस ने राजीव को प्रसन्न स्वर में बताया, ‘‘भाई, रुपए पहुंच गए हैं. अंजूजी का यह एहसान हम कभी नहीं चुका पाएंगे.’’

‘‘अंजू, कानपुर कब पहुंचीं?’’ अपनी हैरानी को काबू में रखते हुए राजीव ने सवाल किया.

‘‘शाम को आ गई थीं. मैं उन्हें एअरपोर्ट से ले आया था.’’

‘‘रुपए जमा हो गए हैं?’’

‘‘वह ड्राफ्ट लाई हैं. उसे कल जमा करवा देंगे. अब मां का आपरेशन हो सकेगा और वह जल्दी ठीक हो जाएंगी. तुम कब आ रहे हो?’’

‘‘मैं रात की गाड़ी पकड़ता हूं.’’

‘‘ठीक है.’’

‘‘अंजू कहां हैं?’’

‘‘मामाजी के साथ घर गई हैं.’’

‘‘कल मिलते हैं,’’ ऐसा कह कर राजीव ने फोन काट दिया था.

उस ने अंजू से बात करने की कोशिश की पर उस का फोन अभी भी बंद था. फिर वह स्टेशन पहुंचने की तैयारी में लग गया.

उसे बिना कुछ बताए अंजू 2 लाख का ड्राफ्ट ले कर अकेली कानपुर क्यों चली गई? इस सवाल का कोई माकूल जवाब वह नहीं ढूंढ़ पा रहा था. उस का दिल अंजू के प्रति आभार तो महसूस कर रहा था पर मन का एक हिस्सा उस के इस कदम का कारण न समाझा पाने से बेचैन और परेशान भी था.

अगले दिन अंजू से उस की मुलाकात मामाजी के घर में हुई. जब आसपास कोई नहीं था तब राजीव ने उस से आहत भाव से पूछ ही लिया, ‘‘मु?ा पर क्यों विश्वास नहीं कर सकीं तुम, अंजू? तुम्हें ऐसा क्यों लगा कि मैं मां की बीमारी के बारे में ?ाठ भी बोल सकता हूं? रुपए तुम ने मेरे हाथों इसीलिए नहीं भिजवाए हैं न?’’

अंजू उस का हाथ पकड़ कर भावुक स्वर में बोली, ‘‘राजीव, तुम मु?ा विधवा के मनोभावों को सहानुभूति के साथ समझाने की कोशिश करना, प्लीज. तुम्हारे लिए यह सम?ाना कठिन नहीं होना चाहिए कि मेरे मन में सुरक्षा और शांति का एहसास मेरी जमापूंजी के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है.

ज्योति से ज्योति जले- भाग 2: उन दोनों की पहचान कैसे हुई?

‘‘क्रोध से अकसर बनती बात बिगड़ जाती है. अगर आप अपने मातृत्व को जीवित रखना चाहती हैं तो अपने गुस्से को मारना सीखिए, क्षमा करना सीखिए. इसे टीचर का भाषण नहीं, मित्र की नसीहत समझ कर याद रखिएगा.’’

मैं अपने किए पर बेहद शर्मिंदा थी. सच ही तो कह रही थी वह, मुझे गुस्से में बेकाबू हो कर अपने बच्चे को यों बेलन से नहीं मारना चाहिए था. मिहिर की पिंडली बेलन की मार से इस कदर सूज गई थी कि वह सही ढंग से चल भी नहीं पा रहा था.

‘मुझे क्षमा करना मेरे बच्चे. आज के बाद फिर कभी नहीं,’ मन ही मन निर्णय कर मैं सचमुच रो पड़ी.

और आज उसी की बदौलत मेरा बेटा न सिर्फ पढ़ाई में ही आगे है बल्कि क्रिकेट में भी खूब आगे निकल गया है. पहले अंकुर 12 फिर 14 और अब अंडर 19 के बैच में खेलता है. कई बार अखबार में उस की टीम के अच्छे प्रदर्शन के समाचार भी छपे हैं. मुझे अपने बेटे पर नाज है.

उस पल से ही हमारे बीच सच्ची मित्रता का सेतु बंध गया था. मैं हैरान थी उसे देख कर. सुंदरता, बुद्धिमत्ता और सहृदयता का संगम किसी एक ही शख्स में मिल पाना वह भी आज के दौर में किसी चमत्कार से कम नहीं लगा.

यह अनुभव सिर्फ मेरा ही नहीं, प्राय: उन सभी का है जो रश्मि को करीब से जानते हैं. पिछले 7 साल में उस ने न जाने कितने बच्चों पर ज्ञान का ‘कलश’ छलकाया होगा. वे सभी बच्चे और उन के मातापिता…सब के मुंह से, उस की सिर्फ प्रशंसा ही सुनी है, वह सब की प्रिय टीचर है.

वह है भी तो तारीफ के काबिल. वह अपनी कक्षा में पढ़ने वाले तकरीबन हर बच्चे की पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में जानने का प्रयास करती है. जैसे ही उसे पता चलता है कि किसी के परिवार में कोई समस्या है, वह झट से उस का हल ढूंढ़ने को तत्पर हो जाती है, उन की मदद करने के लिए कुछ भी कर गुजरती है.

सभी बच्चों की अकसर एक ही तकलीफ होती, पैसों का अभाव. हर साल वह न जाने कितने विद्यार्थियों की फीस, किताबें, यूनिफार्म आदि का इंतजाम करती है, जिस का कोई हिसाब नहीं. नतीजतन, वह खुद हमेशा पैसों के अभाव में रहती है.

एक दिन उस की आंखों में झांकते हुए मैं ने पूछा, ‘‘रश्मि, सच बताना, तुम्हारा बैंक बैलेंस कितना है?’’

‘‘सिर्फ 876 रुपए,’’ वह मुसकराती हुई बोली, ‘‘वर्षा दीदी, मेरा बैंक बैलेंस कम है तो क्या हुआ? इतने सारे लोगों के आशीर्वाद का बैलेंस मेरे जीवनखाते में इतना तगड़ा है, ये क्या कम है? मरते वक्त मैं अपना बैंक बैलेंस साथ ले कर जाऊंगी क्या? मैं तो इसी में खुश हूं. आप मेरी चिंता मत कीजिए.’’

‘‘नहीं रश्मि, तुम गलत सोचती हो. इस बात से मुझे इनकार नहीं कि मृत्यु के बाद इनसान सभी सांसारिक वस्तुओं को यहीं छोड़ जाता है, लेकिन यह बात भी इतनी ही सच है कि जब तक जिंदा होता है, मनुष्य को संसार के सारे व्यवहारों को भी निभाना पड़ता है और उन्हें निभाने के लिए पैसों की जरूरत पड़ती है…यह बात तुम क्यों नहीं समझतीं?’’

‘‘मैं बखूबी समझती हूं पैसों का महत्त्व लेकिन दीदी, मैं ने हमेशा अनुभव किया है कि जब कभी भी मुझे पैसों की जरूरत होती है, कहीं न कहीं से मेरा काम बन ही जाता है. यकीन कीजिए, पैसों के अभाव में आज तक मेरा कोई भी काम, कभी भी अधूरा नहीं रहा.’’

मैं समझ गई कि इस नादान को समझाना और पत्थर से सिर टकराना एक ही बात थी. मेरे लाख समझाने के बावजूद वह मेरी सलाह को अनसुना कर पुन: अपने उसी स्वभाव में लौट आती है.

वह भोलीभाली नहीं जानती कि कभीकभी कुछ लोग उस की इस उदारता को मूर्खता में शामिल कर उसे धोखा भी देते हैं.

ऐसा ही एक किस्सा 6 साल पहले हुआ था. यश नाम का एक लड़का पहली कक्षा में पढ़ता था. उस की मां को किसी ने बताया होगा कि रश्मि टीचर सब की मदद करती हैं.

स्कूल छूटने का वक्त था. मैं रश्मि के इंतजार में खड़ी थी. मुझे देख कर जब वह मुझ से मिलने आई तब यश की मम्मी शांति भी अपने मुख पर बनावटी चिंता ओढ़ कर हमारे पास आ कर खड़ी हो गईं.

‘‘टीचर, यश के पापा का पिछले साल वड़ोदरा में अपैंडिक्स का आपरेशन हुआ था. वह किसी काम से वहां गए थे. अचानक दर्द बढ़ जाने पर आपरेशन करना जरूरी था, वरना उन की जान को खतरा था. आपरेशन का कुल खर्च सवा लाख रुपए हुआ था. मेरे मायके वालों ने कहीं से कर्ज ले कर किसी तरह वह बिल भर दिया था, पर उस में से 17 हजार रुपए भरने बाकी रह गए थे जोकि आजकल में ही मुझे भेजने हैं, क्या आप मेरी मदद करेंगी?’’ वे रो पड़ीं.

 

15 अगस्त स्पेशल : स्वदेश के परदेसी, भाग 2

फिर सब को हम से इतना परहेज क्यों है? क्यों सब के सब यहां हमारे एल्कोहलिक और लूज कैरक्टर होने का पूर्वाग्रह पाल कर बैठे हैं?’ एंड्रिया अकसर अलाना से शिकायत करती.

‘एंड्रिया माई स्वीट, यह सिर्फ तुम्हारे साथ ही नहीं हो रहा बल्कि हमजैसे हरेक के साथ यही होता है. हर जगह पक्षपात है. ऐसा लगता है कि हमारे अस्तित्व की किसी के लिए कोई अहमियत ही नहीं है. फिर वह चाहे सरकार हो या मीडिया या मुख्य भूभाग के वासी, सभी खुलेआम नकारते हैं हमारे भारतीय होने को. न्यूजचैनल वाले मुख्यभूभाग के छोटे से छोटे, पिछड़े हुए गांव में पहुंच जाते हैं खबरों के लिए मगर नौर्थईस्ट इंडिया के प्रदेशों में जाने से उन्हें भी बड़ा परहेज है,’ अलाना ने कहा.

‘हम अंगरेजी अच्छे स्तर की बोलते हैं, अलग तरह के कपड़े पहनते हैं, म्यूजिक में रुचि रखते हैं और रिलैक्स्ड जिंदगी जीना चाहते हैं तो इस का मतलब यह नहीं कि हमारे चरित्र कमजोर हैं. बस, हम आधुनिकता की सीढि़यों पर मेनलैंड के लोगों से एक मंजिल ज्यादा चढ़ चुके हैं, इसलिए हमारी सोच भी प्रगतिशील है, पिछड़ी हुई नहीं. हम हिंदुस्तानियों को चाहिए कि जब पश्चिम से सूरज उगे तो हम उसे हिंदुस्तानी आसमां का सूरज मान कर प्रणाम करें. इस बात की कोई अहमियत नहीं होनी चाहिए कि हम वह सूरज दिल्ली में देख रहे हैं या मिजोरम, नगालैंड, त्रिपुरा में,’ एंड्रिया ने अपना मत व्यक्त किया.

‘ठीक कहती हो एंड्रिया, तुम. पर ये बातें औरों की भी समझ में आएं तब न. एक बार तो हद ही हो गई थी. तुम्हारे दिल्ली आने से पहले की बात है. मैं और यीरंग चांदनी चौक घूमने गए थे. वहां कुछ मवालियों का ग्रुप यीरंग के हेयरस्टाइल का मजाक उड़ाने लगा. वे सब मोमो, मोमो कह कर चिल्लाने लगे.

यीरंग ने उन से पूछा, ‘तुम मुझे मोमो क्यों बुला रहे हो, मैं भी तुम्हारे जैसा ही इंडियन हूं?’ तो उन में से एक ने उस के सिर में धौल जमा दी और दूसरा उस की गरदन पकड़ कर बोला, ‘साला, हमारी दिल्ली में आ कर हम से जवाबदारी करता है चाऊमीन कहीं का.’ इस के साथ ही भीड़ में से कुछ और लोगों ने आ कर यीरंग के चारों तरफ घेरा बना लिया और ‘चाइनीज चिनीमिनी चिंगचिंग चू, चाइनीज चिनीमिनी चिंगचिंग चू’ सुर में सुर मिला कर सब गाने लगे.’

‘और इतना सब होने पर आप ने और जीजू ने कुछ भी विरोध नहीं किया, दीदी, मेरे खयाल से आप को पुलिस में रिपोर्ट लिखवानी चाहिए थी.’

‘यह क्या कम है कि हमारी जान बच गई. मैं ने सुन रखा है कि पुलिस भी हमारे जैसों की नहीं सुनती और हमारे मामलों को दर्ज किए बिना रफादफा करने की कोशिश करती है. एंड्रिया माई स्वीट, हम तो ‘स्वदेश के परदेसी’ हैं. देश तो है अपना, पर हम हैं सब के लिए पराए. अपने ही देश में अपनी पहचान के मुहताज हैं हम.’

‘क्या करें अब आगे बढ़ना है तो हालात से तो जूझना ही पड़ेगा,’ कुछ रोंआसी सी एंड्रिया अपनी किताबें उठाती हुई कालेज जाने के लिए निकल गई. वह इस टौपिक में फंस कर और दिमाग खराब नहीं करना चाहती थी.

अलाना अब तक अपनी डिगरी पूरी कर चुकी थी और किसी अच्छी नौकरी की तलाश करती हुई अपना घर संभाल रही थी.

उस शाम एंड्रिया समय पर घर वापस नहीं आई. पहले तो अलाना ने सोचा कि एंड्रिया अपने किसी मित्र के घर चली गई होगी पर जैसेजैसे रात गहरी होने लगी तो उस की चिंता, घबराहट से डर में बदलने लगी. एंड्रिया के सभी मित्रों को फोन किया जा चुका था. उन से पता चला कि वह आज कालेज आई ही नहीं थी. यह खबर और भी होश उड़ाने वाली थी. सारी रात अपार्टमैंट की खिड़की से बाहर झांकते हुए और यहांवहां फोन करने में बीत गई थी. लेकिन एंड्रिया का कहीं कुछ अतापता नहीं चला. हार कर यीरंग और अलाना ने पुलिस में रिपोर्ट लिखाने का फैसला किया.

‘यह दिन तो आना ही था. तुम लोगों को समझना चाहिए कि तुम दिल्ली में रह रहे हो और तुम्हें यहां रहने वालों के तौरतरीके अपनाने चाहिए. तुम लोग यहां आते हो और न्यूसेंस क्रियेट करते हो. तुम इंडियन नहीं, बल्कि चायना से आए हुए घुसपैठिए लगते हो,’ पुलिस इंस्पैक्टर ने पान चबाते हुए सामने बैठे यीरंग से कहा.

‘क्या हैं यहां के तौरतरीके?’

‘जब आए थे तो दिल्ली पुलिस की व्यवहार नियमावली पत्रिका ले कर पढ़नीसमझनी चाहिए थी. इस में स्पष्ट किया गया है कि जब तुम्हारे जैसे चिंकी लोग दिल्ली में आएं तो उन्हें किस तरह का व्यवहार करना चाहिए और तुम्हारी औरतों को भारतीय परिधान पहन कर भारतीय नारियों की तरह रहना चाहिए.’

‘क्या आप सिखाएंगे हमें व्यवहार करना? हम क्या सर्कस के जानवर हैं और आप वहां के रिंग लीडर जो आप हमें अपने हिसाब से प्रशिक्षित करेंगे. हम भी दिमाग रखते हैं. थोड़ीबहुत समझ तो हमें भी है. वैसे भी, हम यहां अपनी गुमशुदा बहन की रिपोर्ट दर्ज कराने के लिए आए हैं, आप से आचार संहिता सीखने के लिए नहीं.’

एक घंटे की मगजमारी के बाद आखिरकार रिपोर्ट दर्ज हो ही गई. पुलिस ने अपने स्तर पर पूछताछ और जांच शुरू कर दी थी. मगर प्रक्रिया अत्यंत ही ढीलीढाली थी. जैसेजैसे वक्त बीत रहा था, वैसेवैसे एंड्रिया के जीवित मिलने की उम्मीद धूमिल पड़ती जा रही थी. उस को गायब हुए अब तक 5 दिन हो चुके थे.

और फिर एक दिन सुबहसुबह दिल्ली में अभी सूर्योदय हुआ ही था कि अलाना के मोबाइल पर थाने से फोन आ गया, ‘मैडम, यमुना नदी के एक धोबीघाट पर कल एक सूटकेस में किसी युवती की बौडी छोटेछोटे टुकड़ों में पड़ी मिली है. पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार, उस की उम्र 16 से 20 साल के बीच की होनी चाहिए. डीएनए रिपोर्ट आना अभी बाकी है. आप से निवेदन है कि आप शिनाख्त के लिए आ जाएं. हो सकता है कि ये एंड्रिया…’

इस से आगे सबकुछ शून्य हो चुका था. अलाना को इंस्पैक्टर की आवाज किसी गहरे कुएं से आती सी प्रतीत हो रही थी. वह और यीरंग जिस हालत में बैठे थे, उसी में पुलिस थाने पहुंच गए. बौडी छोटेछोटे टुकड़ों में पड़ी मिली, लाश का चेहरा तेजाब छिड़क कर बिगाड़ दिया गया था. फिर भी बाएं हाथ पर बना बिच्छू का टैटू उस मृत मानव शरीर को एंड्रिया की लाश होने की पुष्टि साफसाफ कर रहा था.

सबकुछ प्रत्यक्ष था. फिर भी अलाना का दिल इस हृदयविदारक सच को झुठलाने की असफल कोशिश कर रहा था. वह जानती थी कि यह विक्षिप्त देह खूबसूरत एंड्रिया की ही है पर मन को सच स्वीकार नहीं था. डीएनए रिपोर्ट के आने में अभी 24 घंटे बाकी थे. लमहालमहा एकएक सदी सा प्रतीत हो रहा था. आखिर वक्त गुजरा और डीएनए रिपोर्ट भी आई, वह भी एंड्रिया की हत्या की पुष्टि के साथ.

जब तक एंड्रिया जीवित थी, अलाना को उस से कुछ खास मोह न था. दोनों बहनों का परस्पर लगाव औसत दर्जे का ही था. अलाना ने यीरंग के साथ नईनई दुनिया बसाई थी. वे दोनों एकांत चाहते थे. परंतु एंड्रिया के साथ आ कर रहने से एकांत मिलना काफी हद तक नामुमकिन हो गया था. उन जैसों से मकान मालिक वैसे ही डेढ़दो गुना किराया वसूल करते थे, ऊपर से एंड्रिया की वजह से उन्हें एक बैडरूम ज्यादा लेना पड़ा था. इसलिए उन के खर्चे बढ़े थे. इस कारण भी अलाना को छोटी बहन महज एक जिम्मेदारी लगती थी.

वह मन ही मन मिन्नतें करती थी कि जल्दी से जल्दी एंड्रिया की पढ़ाई पूरी हो और वह उस की जिम्मेदारी से मुक्त हो कर चैन की सांस ले. अलाना को भान नहीं था कि उसे एंड्रिया की जिम्मेदारी से इतनी जल्दी, इस रूप में मुक्ति मिलेगी.

ग्लानिबोध से अलाना को अपनेआप से घृणा होती. वह घंटों एंड्रिया की तसवीर के आगे बैठी रहती, तो कभी वह एंड्रिया के वौयलिन के तारों को छूती उस की कोमल उंगलियों के स्पर्श को महसूस करने की कोशिश करती. वह बाथरूम में जा कर एंड्रिया के तौलिए से अपना चेहरा ढक कर तौलिए की खुशबू में छोटी बहन के एहसास के कतरों को ढूंढ़ने का प्रयास करती.

एंड्रिया जब तक थी तब तक अलाना के लिए कुछ खास नहीं थी, पर मरने के बाद वह उस के अंदर समा कर उस का हिस्सा बन गई. दिनरात छोटी बहन को याद कर के अलाना की आंखों से अविरल अश्रुधारा बहती रहती.

एंड्रिया के मर्डर की गुत्थी का कोई  सुराग नहीं मिल रहा था. मिजोरम सरकार केंद्र सरकार पर निरंतर दबाव डाल रही थी. जगहजगह सामूहिक प्रदर्शन और धरने हो रहे थे. मगर नतीजा वही ढाक के तीन पात. अलाना को अब दिल्ली से घृणा हो चुकी थी. वह सबकुछ छोड़ कहीं दूर चली जाना चाहती थी जहां इन रंजीदा यादों का कोई भी अवशेष न हो. उसे कहीं से पता चला कि आस्ट्रेलिया में डेटा साइंटिस्ट्स के पेशे में आगे बढ़ने के अच्छे अवसर हैं. इस तथ्य को केंद्र बना कर वह यीरंग पर आस्ट्रेलिया चलने के लिए दबाव डालने लगी.

फातिमा बीबी- भाग 2: भारतीय फौज दुश्मनों के साथ भी मानवीय व्यवहार करती है?

‘‘उस के डर को मैं बखूबी समझ रहा था. वह एकदम पत्थर हो गई थी. मैं ने मेजर रंजीत से कहा, तुरंत डाक्टर को भेजो और इस के शरीर को कंबल से ढंकने का प्रबंध करो. आदेश का पालन हुआ, कंबल से जब उस ने शरीर को ढक लिया तो अनायास ही मेरे मुख से निकला, ‘माफ करना, बहन, इस समय हमारे पास इस से अधिक कुछ नहीं है. लड़ाई के मैदान में जनाना कपड़े नहीं मिलेंगे.’ पहली बार उस ने अपनी बड़ीबड़ी आंखों से मेरी ओर देखा. पहली बार मैं ने भी उसे गौर से देखा. गोरा रंग, सुंदर व कजरारी आंखें. सांचे में ढला शरीर, ऐसी सुंदरता मैं ने अपने जीवन में पहले कभी नहीं देखी थी.

‘‘वह थोड़ी देर मुझे देखती रही फिर उस की आंखें छलछला आईं. उस की सीमा का बांध टूट गया था. परिवार को खोने का दुख, दुश्मनों के हाथों पड़ने का गम. भविष्य की अनिश्चितता. जीवन में अंधेरा ही अंधेरा था. उस का रोना जायज था. मैं उसे चुप नहीं कराना चाहता था. रोने से मन हलका हो जाता है. मैं ने मेजर रंजीत को पानी देने को कहा. उस ने पानी लिया. कुछ पीया, कुछ से अपना मुंह धो लिया. मैं ने मुंह पोंछने के लिए अपना रूमाल आगे किया. उस ने फिर एक बार मेरी ओर देखा. मैं बोला, ‘ले लो, गंदा नहीं है. बस, थोड़ी नाक पोंछी थी,’ और मुसकराया. मैं ने माहौल को हलका करने का भरसक प्रयत्न किया परंतु उस के चेहरे का दुख कम नहीं हुआ. थोड़ी देर बाद उस ने कहा, ‘बाथरूम जाना है.’ मैं ने अपने लिए निश्चित बाथरूम की ओर इशारा किया. वह अंदर गई.

‘‘‘सर, एक सुझाव है.’

‘‘‘यस, मेजर रंजीत.’

‘‘‘सर, अल्लड़ गांव में बहुत सा सामान पड़ा है जिसे हमारे जवानों ने छुआ तक नहीं. जैसे किचन का सामान, कपड़ों के टं्रक आदि. उन में इस लड़की के नाप के कपड़े मिल जाएंगे.’

‘‘‘गुड आइडिया.’

‘‘‘सर, वह लड़की.’

‘‘‘हमें पता ही नहीं चला, वह कब बाथरूम से निकल कर हमारे पीछे आ कर खड़ी हो गई थी. हम ने सोचा, उस ने हमारी बातें सुन ली थीं. ‘इस के अलावा हमारे पास कोई चारा नहीं है,’ मैं ने कहा, ‘हमें आप का नाम नहीं पता, नहीं तो हम आप को नाम से पुकारते.’

‘‘कुछ देर वह चुप रही, फिर उस के मुख से निकला, ‘फातिमा सिद्दीकी’. पहली बार हम जान पाए कि उस का नाम फातिमा है. उस की आंखें फिर छलछला आईं. वह रोने भी लगी.

‘‘‘अब आप क्यों रो रही हैं? आप यहां बिलकुल महफूज हैं. मैं कर्नल अमरीक सिंह, राजपूताना राइफल्स का कमांडिंग अफसर, इस बात का यकीन दिलाता हूं.’

‘‘‘एक सवाल मुझे बारबार  साल रहा है. मैं अपनी  पाकिस्तान की फौज के रहते महफूज नहीं थी तो यहां दुश्मन की फौज में कैसे महफूज हूं?’

‘‘‘यह हिंदुस्तान की फौज है जो दुश्मनों के साथ दुश्मनी निभाती है और इंसानों के साथ इंसानियत,’ थोड़ी देर बाद मैं ने फिर कहा, ‘यह बताओ, आप के परिवार वालों को किस ने मारा?’

‘‘‘पाकिस्तान की फौज ने, घर की औरतों की इज्जत लूटने के लिए वे बहुत सी औरतों को अपने साथ भी ले गए. मैं आप की टुकड़ी की वजह से बच गई.’

‘‘‘इतने समय में आप को हिंदुस्तान और पाकिस्तान की फौज में अंतर नजर नहीं आया?’

‘‘‘जी.’

‘‘‘मैं ने आप को बहन कहा है. मेरी पूरी रैजिमैंट मेरा परिवार है. इस नाते आप भी इस परिवार की सदस्य हैं. हमारे देश में जिस को भी बहन कह दिया जाता है उस की रक्षा फिर अपनी जान दे कर भी की जाती है. यही हमारे देश और हमारी फौज की रिवायत है, परंपरा है.’

‘‘इतने में एक जवान ट्रंक ले कर हाजिर हुआ. मैं ने फातिमा को अपने लिए कपड़े चुनने के लिए कहा, ‘मुझे दुख है, मैं आप के लिए इस से अच्छा इंतजाम नहीं कर सका.’

‘‘मैं बाहर जाने लगा कि फातिमा अपने लिए कपड़े निकाल कर पहन सके. उसी समय मेजर रंजीत ने आ कर बताया कि मोरचाबंदी पूरी हो चुकी है और अल्लड़ गांव क्लियर कर दिया गया है.

‘‘‘अच्छी बात है, पर सभी को आगाह कर दिया जाए कि पूरी चौकसी बरती जाए. दीपक जब बुझने लगता है तो उस की लौ और बढ़ जाती है. सांप घायल हो कर और खतरनाक हो जाता है, इसलिए सावधान रहा जाए.’

‘‘‘यस सर.’

‘‘‘देखो, अभी तक डाक्टर क्यों नहीं आया.’

‘‘‘सर, मैं हाजिर हूं. कुछ घायल जवानों को संभालना जरूरी था, इसलिए थोड़ी देर हो गई.’

‘‘‘ओके फाइन. ड्रैसिंग के साथ आप यह भी जांच करें कि कोई सीरियस चोट तो नहीं है. इस के बाद हमें इसे तुरंत पीछे कैंप में भेजना होगा. तब तक इस की सुरक्षा की जिम्मेदारी हमारी है.’

‘‘‘जी सर. अगर आप इजाजत दें तो मैं इलाज के लिए इसे एमआई रूम में ले जाऊं, वहां इस की अच्छी देखभाल हो सकेगी.’

भाभी : भाग 2

देखते ही देखते विवाह का दिन भी आ गया. उन दिनों औरतें बरात में नहीं जाया करती थीं. हम बेसब्री से भाभी के आने की प्रतीक्षा करने लगे. आखिर इंतजार की घडि़यां समाप्त हुईं और लंबा घूंघट काढ़े भाभी भाई के पीछेपीछे आ गईं. चाची ने  उन्हें औरतों के झुंड के बीचोंबीच बैठा दिया.

मुंहदिखाई की रस्मअदायगी शुरू हो गई. पहली बार ही जब उन का घूंघट उठाया गया तो मैं उन का चेहरा देखने का मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहती थी और जब मैं ने उन्हें देखा तो मैं देखती ही रह गई उस अद्भुत सौंदर्य की स्वामिनी को. मक्खन सा झक सफेद रंग, बेदाग और लावण्यपूर्ण चेहरा, आंखों में हजार सपने लिए सपनीली आंखें, चौड़ा माथा, कालेघने बालों का बड़ा सा जूड़ा तथा खुशी से उन का चेहरा और भी दपदपा रहा था.

वे कुल मिला कर किसी अप्सरा से कम नहीं लग रही थीं. सभी औरतें आपस में उन की सुंदरता की चर्चा करने लगीं. भाई विजयी मुसकान के साथ इधरउधर घूम रहा था. इस से पहले उसे कभी इतना खुश नहीं देखा था. उस को देख कर हम ने सोचा, मां तो जन्म देते ही दुनिया से विदा हो गई थीं, चलो कम से कम अपनी पत्नी का तो वह सुख देखेगा.

विवाह के समय भाभी मात्र 16 साल की थीं. मेरी हमउम्र. चाची को उन का रूप फूटी आंखों नहीं सुहाया क्योंकि अपनी बदसूरती को ले कर वे हमेशा कुंठित रहती थीं. अपना आक्रोश जबतब भाभी के क्रियाकलापों में मीनमेख निकाल कर शांत करती थीं. कभी कोई उन के रूप की प्रशंसा करता तो छूटते ही बोले बिना नहीं रहती थीं, ‘रूप के साथ थोड़े गुण भी तो होने चाहिए थे, किसी काम के योग्य नहीं है.’

दोनों ननदें भी कटाक्ष करने में नहीं चूकती थीं. बेचारी चुपचाप सब सुन लेती थीं. लेकिन उस की भरपाई भाई से हो जाती थी. हम भी मूकदर्शक बने सब देखते रहते थे.

कभीकभी भाभी मेरे व मां के पास आ कर अपना मन हलका कर लेती थीं. लेकिन मां भी असहाय थीं क्योंकि चाची के सामने बोलने की किसी की हिम्मत नहीं थी.

मैं मन ही मन सोचती, मेरी हमउम्र भाभी और मेरे जीवन में कितना अंतर है. शादी के बाद ऐसा जीवन जीने से तो कुंआरा रहना ही अच्छा है. मेरे पिता पढ़ेलिखे होने के कारण आधुनिक विचारधारा के थे. इतनी कम उम्र में मैं अपने विवाह की कल्पना नहीं कर सकती थी. भाभी के पिता के लिए लगता है, उन के रूप की सुरक्षा करना कठिन हो गया था, जो बेटी का विवाह कर के अपने कर्तव्यों से उन्होंने छुटकारा पा लिया. भाभी ने 8वीं की परीक्षा दी ही थी अभी. उन की सपनीली आंखों में आंसू भरे रहते थे अब, चेहरे की चमक भी फीकी पड़ गई थी.

विवाह को अभी 3 महीने भी नहीं बीते होंगे कि भाभी गर्भवती हो गईं. मेरी भोली भाभी, जो स्वयं एक बच्ची थीं, अचानक अपने मां बनने की खबर सुन कर हक्कीबक्की रह गईं और आंखों में आंसू उमड़ आए. अभी तो वे विवाह का अर्थ भी अच्छी तरह समझ नहीं पाई थीं. वे रिश्तों को ही पहचानने में लगी हुई थीं, मातृत्व का बोझ कैसे वहन करेंगी. लेकिन परिस्थितियां सबकुछ सिखा देती हैं. उन्होंने भी स्थिति से समझौता कर लिया. भाई पितृत्व के लिए मानसिक रूप से तैयार तो हो गया, लेकिन उस के चेहरे पर अपराधभावना साफ झलकती थी कि जागरूकता की कमी होने के कारण भाभी को इस स्थिति में लाने का दोषी वही है. मेरी मां कभीकभी भाभी से पूछ कर कि उन्हें क्या पसंद है, बना कर चुपचाप उन के कमरे में पहुंचा देती थीं. बाकी किसी को तो उन से कोई हमदर्दी न थी.

प्रसव का समय आ पहुंचा. भाभी ने चांद सी बेटी को जन्म दिया. नन्हीं परी को देख कर, वे अपना सारा दुखदर्द भूल गईं और मैं तो खुशी से नाचने लगी. लेकिन यह क्या, बाकी लोगों के चेहरों पर लड़की पैदा होने की खबर सुन कर मातम छा गया था. भाभी की ननदें और चाची सभी तो स्त्री हैं और उन की अपनी भी तो 2 बेटियां ही हैं, फिर ऐसा क्यों? मेरी समझ से परे की बात थी. लेकिन एक बात तो तय थी कि औरत ही औरत की दुश्मन होती है. मेरे जन्म पर तो मेरे पिताजी ने शहरभर में लड्डू बांटे थे. कितना अंतर था मेरे चाचा और पिताजी में. वे केवल एक साल ही तो छोटे थे उन से. एक ही मां से पैदा हुए दोनों. लेकिन पढ़ेलिखे होने के कारण दोनों की सोच में जमीनआसमान का अंतर था.

मातृत्व से गौरवान्वित हो कर भाभी और भी सुडौल व सुंदर दिखने लगी थीं. बेटी तो जैसे उन को मन बहलाने का खिलौना मिल गई थी. कई बार तो वे उसे खिलातेखिलाते गुनगुनाने लगती थीं. अब उन के ऊपर किसी के तानों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था. मां बनते ही औरत कितनी आत्मविश्वास और आत्मसम्मान से पूर्ण हो जाती है, उस का उदाहरण भाभी के रूप में मेरे सामने था. अब वे अपने प्रति गलत व्यवहार की प्रतिक्रियास्वरूप प्रतिरोध भी करने लगी थीं. इस में मेरे भाई का भी सहयोग था, जिस से हमें बहुत सुखद अनुभूति होती थी.

Raksha Bandhan : काश मेरी बेटी होती – भाग 2

जयंति की एक बेटी थी जो कालेज के फाइनल ईयर में थी. रक्षा ने 1 साल पहले बेटे का विवाह किया था और शोभा का बेटा इंजीनियर व प्रतिष्ठित कंपनी में अच्छे पद पर कार्यरत एक नखरेबाज युवा था जो विवाह के नाम पर नाकभौं सिकोड़ता और ऐसा दिखाता जैसे विवाह करना व बच्चे पैदा करना सब से निकृष्ट कार्य एवं प्राचीन विचाराधारा है और उस के जीवन के सब से आखिरी पायदान पर है. एक तरह से जब सब निबट जाएगा तो यह कार्य भी कर लेगा.

जयंति को अपनी युवा बेटी से ढेरों शिकायतें थीं, ‘‘घर के कामकाज को तो हाथ भी नहीं लगाती यह लड़की. कुछ बोलो तो काट खाने को दौड़ती है. कल को शादीब्याह होगा तो क्या सास बना कर खिलाएगी,”जयंति पति के सामने बड़बड़ा रही होती. अपनी किताबों में नजरें गड़ाए बेटी मां के ताने सुन कर बिफर जाती, ‘‘फिक्र मत करो. मुझे खाना बना कर कोर्ई भी खिलाए पर आप को तंग करने नहीं आऊंगी.’’

बेटी तक आवाज पहुंच रही है. बेवक्त झगड़े की आशंका से जयंति हड़बड़ा कर चुप हो जाती. पर बेटी का पारा दिल ही दिल में आसमां छू जाता. वह जब टाइट जींस और टाइट टीशर्ट डाल कर कालेज या कोचिंग के लिए निकलती तो जयंति का दिल करता कि जींस के ऊपर भी उस के गले में दुपट्टा लपेट दे. पर मनमसोस कर रह जाती. घर में जब बेटी शौर्ट्स पहन कर पापा के सामने मजे से सोफे पर अधलेटी हो टीवी के चैनल बदलने लगती तो जयंति का दिमाग भन्ना जाता,‘‘आग लगा दे इस लड़की के कपड़ों की आलमारी को.’’ और उस के दोस्त लङके जब घर आते तो वह एकएक का चेहरा बड़े ध्यान से पढ़ती. न जाने इस में से कल कौन उस का दामाद बनने का दावा ठोंक बैठे.

रोजरोज घर को सिर पर उठा मां से झगड़ा करने वाली बेटी ने जब एक दिन प्यार से मां के गले में बांहें डालीं तो किसी अनहोनी की आशंका से जयंति का हृदय कांप गया. जरूर कोई कठिन मांग पूरी करने का वक्त आ गया है.

‘‘मम्मी, मेरे कुछ फ्रैंड्स कल लंच पर आना चाह रहे हैं…मैं ने बताया कि आप चाइनीज खाना कितना अच्छा बनाती हैं. बुला लूं न सब को,’’ वह मासूमियत से बोली.

बेटी की भोलीभाली शक्ल देख कर जयंति का सारा लाड़दुलार छलक आया,”हां, बुला ले अपनी सहेलियों को. बना दूंगी मैं, कितनी हैं?’’

‘‘मुझे मिला कर 8 दोस्त हो जाएंगे मम्मी…वे सारा दिन यहीं बिताने वाले हैं,’’ बेटी आने वालों के लिए गोलमाल जैंडर शब्द का इस्तेमाल करती हुई बोली.

‘‘ठीक है…’’

दूसरे दिन जयंति सुबह से बेटी की फरमाइशें पूरी करने में लग गई. घर भी ठीक कर दिया. बेटी ने बाकी घर पर ध्यान भी नहीं दिया. सिर्फ अपना कमरा ठीक किया. ठीक 11 बजे डोरबेल बजी. दरवाजा खोला तो जयंति गिरतेगिरते बची. आने वालों में 4 लङके थे और 3 लड़कियां. जिन लङकों को वह थोड़ी देर भी नहीं पचा पाती थी, उन्हें उस दिन उस ने पूरा दिन झेला और वह भी बेटी के कमरे में. आठों बच्चों ने वहीं खायापिया, वहीं हंगामा किया और खापी कर बरतन बाहर खिसका दिए. जयंति थक कर पस्त हो गई.

बेटी फोन पर जब खिलखिला कर, चमकती आंखों से लंबीलंबी बातें करती तो जयंति का दिल करता, उस के हाथ से फोन छीन कर जमीन पर पटक दे. फोन से तो उसे सख्त नफरत हो गई थी. मोबाइल फोन के अविष्कारक को तो वह सपने में न जाने कितनी बार गोली मार चुकी थी. सारे झगड़े की जड़ है यह मोबाइल फोन.

बेटी कभी अपने दोस्तों के साथ पिकनिक पर जाती तो कभी लौंग ड्राइव पर. हां, इन मस्तियों के साथ एक बात जो उन सभी युवाओं में वह स्पष्ट रूप से देखती, वह थी अपने भविष्य के प्रति सजगता. लङके तो थे ही पर लड़कियां उन से अधिक थीं. अपना कैरियर बनाने के लिए उन्मुख, उन लड़कियों के सामने उन की मंजिल सपष्ट थी और वे उस के लिए प्रयासरत थीं, घरगृहस्थी के काम, विवाद आदि, इस के बारे में तो वे बात भी नहीं करतीं, न उन्हें कोई दिलचस्पी थी. जयंति जब इन युवा लड़कियों की तुलना अपने समय की लड़कियों से करती तो पेशोपेश में पड़ जाती. उस का जमाना भी तो कोर्ई बहुत अधिक पुराना नहीं था पर कितना बदल गया है सब. लड़कियों की जिंदगी का उद्देश्य ही बदल गया. कभी लगता कि उस का खुद का जमाना ठीक था, कभी लगता इन का जमाना अधिक सही है.

लङकेलड़कियों की सहज दोस्ती के कारण, इस उम्र में आए स्वाभाविक संवेगआवेग इसी उम्र में खत्म हो जाते हैं और बच्चे उन की पीढ़ी की अपेक्षा अधिक प्रैक्टिकल हो जाते हैं. पर फिर दिमाग धारा दूसरी तरफ मुड़ जाती है और वह शोभा व रक्षा के सामने अपनी बेटी को ले कर अपना रोना रोती और उस के भविष्य को ले कर अपनी निराधार काल्पनिक आशंकाएं जताती रहती.

उधर रक्षा की बहू भी तो कोई पुरानी फिल्मों की नायिका न थी. आखिर जयंति की बेटी जैसी ही एक लङकी रक्षा की बहू बन कर घर आ गर्ई थी. अभी 1 ही साल हुआ था विवाह हुए, इसलिए गृहस्थी के कार्य में वह बिलकुल अनजान थी. हां, बेटा बहुत दोनों एकदूसरे के प्यार में डूबे रहते. सुबह देर से उठते. बेटा भागदौड़ कर तैयार होता, मां का बनाया नाश्ता करता और औफिस की तरफ दौड़ लगा देता. थोड़ी देर बाद बहू भी चेहरे पर मीठी मुसकान लिए तैयार हो कर बाहर आती और रक्षा उसे भी नाश्ते की प्लेट पकड़ा देती. चेहरे पर दूरदूर तक कोई अपराधबोध न होता कि उसे थोड़ा जल्दी उठ कर काम में सास का हाथ बंटाना चाहिए था. इतना तो उस के दिमाग में भी न आता.

रक्षा सोचती, ‘चलो सुबह न सही अब लंच और डिनर में बहू कुछ मदद कर देगी. पर नाश्ते के बाद वह आराम से लैपटौप सामने खींचती और डाइनिंग टेबल पर बैठ कर नैट पर अपने लिए नौकरी ढूंढ़ने में व्यस्त हो जाती. वह अपनी लगीलगाई नौकरी छोड़ कर आई थी, इसलिए अब यहां पर नौकरी ढूंढ़ रही थी.

पायल छनकाती बहू का ख्वाब देखने वाली रक्षा का वह सपना तो ढेर हो चुका था. बहू के वैस्टर्न कपड़े पचाने बहुत भारी पड़ते थे. शुरूशुरू में आसपड़ोस की इच्छा रहती थी पर किसी ने कुछ न बोला. सभी अधेड़ इस दौर से गुजर रहे थे. वे इस नई पीढ़ी को अपनी पुरानी नजरों से देखपरख रहे थे. बेटा शाम को औफिस से आता तो रक्षा सोचती कि बहू उन के लिए न सही तो अपने पति के लिए ही चाय बनाए पर बेटा जो कमरे में घुसता तो गायब हो जाता. कभी दोनों तैयार हो कर बाहर आते, ‘‘मम्मी हम बाहर जा रहे हैं…खाना खा कर आएंगे…’’ उस के उत्तर की इंतजार किए बिना वे निकल जाते और रक्षा इतनी देर से मेहनत कर बनाए खाने को घूरती रह जाती,”पहले नहीं बता सकते थे.”

मैं शादीशुदा हूं, पर मैं एक लड़की से प्यार करता हूं और वो भी मुझसे प्यार करती है, क्या मेरा उससे शादी करना ठीक होगा?

सवाल

मैं 25 साल का एक शादीशुदा नौजवान हूं. मेरे 2 बच्चे हैं. एक लड़की मुझ से बहुत प्यार करती है और मैं भी उस से प्यार करता हूं. वह मेरे साथ शादी करने के लिए तैयार है. मैं क्या करूं?

जवाब
नाजायज संबंधों को प्यार का नाम देने से आप अपनी जिम्मेदारियों और गलती से बचने की कोशिश करने वाले पहले या आखिरी मर्द नहीं हैं. गलती यह है कि बीवी व 2 बच्चों के रहते आप किसी और लड़की से प्यार करतेहैं, तो फिर आप यह भी जानते होंगे कि माशूका से शादी करने के लिए आप को अपनी बीवी को तलाक देना पडे़गा. यह पत्नी और बच्चों के साथ ज्यादती नहीं तो क्या है. बेहतर होगा कि आप अपनी शादीशुदा जिंदगी को फिर से दिलचस्प बनाएं. अपनी माशूका से वक्त रहते धीरेधीरे किनारा कर अपनी घरगृहस्थी, कैरियर और बच्चों पर ध्यान दें.

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जब बहकने लगें इनके कदम

पुलिस की 25 साल से भी ज्यादा नौकरी कर चुके 59 साला सबइंस्पैक्टर मोहन सक्सेना को मध्य प्रदेश के मालवा इलाके के शहर शाजापुर में हर कोई जानता था. इस की एकलौती वजह यह नहीं थी कि वे पुलिस महकमे में थे और वरदी पहन कर शहर में निकलते थे, तो लोग इज्जत से सिर झुका कर उन्हें सलाम ठोंकते थे. दूसरी वजह थी उन का एक इज्जतदार कायस्थ घराने से होना. तीसरी अहम वजह जो बीते 2 साल में पैदा हुई थी, वह उन की बहू मालती (बदला नाम) थी, जिस के बारे में हर कोई जानता था कि वह ड्राइवर अंकित चौरसिया से अकसर चोरीछिपे मिला करती थी.

दुनियाभर के लोगों को सही रास्ते पर आने की नसीहत देने वाले दारोगाजी खुद अपनी बहू के बहकते कदम नहीं संभाल पा रहे थे. खून तो खूब खौलता था, लेकिन क्या करें यह उन की समझ में नहीं आ रहा था.

यों बहकी बहू

24 साला अंकित चौरसिया पेशे से ड्राइवर था, जो फिलहाल शाजापुर की ही एक मालदार व इज्जतदार औरत निर्मला गौर की कार चला रहा था. गोराचिट्टा खूबसूरत बांका अंकित खुशमिजाज और बातूनी था. जल्दी ही वह घर के सभी लोगों से घुलमिल गया था. इस के पहले वह मोहन सक्सेना की कार चलाता था. लेकिन 25 साला बहू मालती ड्राइवर अंकित चौरसिया से जरूरत से ज्यादा घुलमिल गई थी. शुरू में तो किसी ने इस बात पर गौर नहीं किया, लेकिन जल्दी ही वे दोनों चोरीछिपे मिलनेजुलने लगे और उन के प्यार की सुगबुगाहट दारोगाजी के कानों में पड़ी, तो उन्होंने तुरंत अंकित को नौकरी से निकाल दिया और आइंदा मालती से दूर रहने की धमकी दे डाली. यह नसीहत और धौंस बेकार साबित हुई. अंकित की नौकरी छूटी थी, महबूबा नहीं. लिहाजा, वह मोहन सक्सेना और नितिन की परवाह किए बिना मालती से मिलता रहा.

और एक दिन…

बदनामी का पानी तो काफी पहले ही सिर से गुजर चुका था, पर अब इतना लबालब भर गया था कि मोहन सक्सेना को सांस लेना भी मुहाल हो चला था. लिहाजा, उन्होंने नए साल की शुरुआत में कसम खा ली थी कि अगर अंकित सीधे बात नहीं मानता है, तो उसे सबक सिखाने के लिए जो भी रास्ता अख्तियार करना पड़े वे करेंगे. जब किसी भी तरह मानमनोव्वल और धौंस के अलावा तंत्रमंत्र से भी बात नहीं बनी, तो मोहन सक्सेना का अक्ल और सब्र से नाता टूट गया. लेकिन इस बाबत उन्होंने जो रास्ता चुना, वह बेहद खतरनाक था.

झमेला तंत्रमंत्र का

संजय व्यास जैसे तांत्रिकों की छोटे शहरों में बड़ी धाक और पूछपरख रहती है, जिन के बारे में यह मशहूर रहा है कि उन के नीबू काटने की देर भर है,  अच्छेअच्छे रास्ते पर आ जाते हैं. इस मामले में एक बात बड़ी दिलचस्प रही कि मोहन सक्सेना और नितिन तो इस तांत्रिक के चक्कर काट ही रहे थे, लेकिन इस बात से अनजान अंकित भी उस के फेर में आ गया था, जिस की परेशानी यह थी कि मालती उस के वश में पूरी तरह नहीं आ रही थी. वह उसे पसंद तो करती थी, पर शादी करने के लिए राजी नहीं हो रही थी. कुछ दिन तो मजे ले कर संजय व्यास ने उन दोनों से पैसा झटका, पर अंकित गरीब था, इसलिए अनुष्ठानों के नाम पर ज्यादा चढ़ावा नहीं दे पा रहा था. इसी बीच काम हो जाने के लिए लगातार दबाव बना रहे मोहन सक्सेना को वह यह समझा पाने में कामयाब हो गया कि बहू के ऊपर कोई बड़ी बला है, इसलिए अंकित को रास्ते से हटाने का एकलौता उपाय उसे इस दुनिया से ही उठा देना है.

योजना के मुताबिक, संजय व्यास ने अंकित को यह झांसा दिया कि मालती हमेशा के लिए उस के वश में हो सकती है, लेकिन इस के लिए एक खास किस्म का अनुष्ठान करना पड़ेगा. उम्मीद के मुताबिक, मालती के लिए पगलाया अंकित पूजा कराने को तुरंत तैयार हो गया. संजय ने उसे बताया था कि यह खास किस्म की तांत्रिक क्रिया दूर किसी सुनसान सिद्ध जगह पर करनी पड़ेगी. इस पर अंकित ने एतराज नहीं जताया, न ही कोई सवाल किया. 17 जनवरी, 2016 की सुबह अंकित अपनी मालकिन निर्मला गौर के पास गया और उज्जैन जाने के लिए उन की कार मांगी. उस ने बहाना यह बनाया कि वह कुछ दोस्तों के साथ महाकाल मंदिर के दर्शन करने जाना चाहता है. उस की बात पर निर्मला गौर को कोई शक नहीं हुआ, इसलिए उन्होंने अपनी कार उसे दे दी.

दोस्त तो नहीं, पर अपने कातिलों में से एक संजय व्यास को उस ने कार में बैठाया और बजाय उज्जैन जाने के तांत्रिक के बताए रास्ते पर गाड़ी दौड़ा दी. बैरसिया तहसील के पास भोजपुरा के घने जंगलों में संजय व्यास ने कार रुकवाई और कहा कि यहीं पूजा होगी. उधर पहले से ही बनाई योजना के मुताबिक, मोहन सक्सेना और नितिन बैरसिया होते हुए भोजपुरा पहुंच गए थे. एक सुनसान जगह को तांत्रिक क्रियाओं के लिए मशहूर बताते हुए संजय व्यास ने अंकित को पूजापाठ के लिए बैठाया. कुछ देर ऊलजलूल क्रियाएं करने के बाद तांत्रिक ने उसे आंखें बंद करने को कहा, तो अंकित ने तुरंत उस के हुक्म की तामील की. अंकित ने जैसे ही अपनी आंखें बंद कीं, तभी पीछे से मोहन सक्सेना और नितिन आ गए. अंकित ने आहट पा कर जैसे ही आंखें खोलीं, तो उन दोनों ने उस की आंखों में पिसी लाल मिर्च झोंक दी. तिलमिलाया अंकित समझ तो गया कि उस के साथ धोखा हुआ है, लेकिन कुछ कर पाता इस के पहले ही उन तीनों ने लोहे की छड़ उस के सिर पर दे मारी. कहीं वह जिंदा न बच जाए, इसलिए वहशी हो गए मोहन सक्सेना, नितिन और संजय ने उस पर पत्थरों से भी हमले किए. जब उस के मरने की तसल्ली हो गई, तो वे तीनों वहां से फरार हो गए.

यों पकड़े गए

17 जनवरी, 2016 की ही दोपहर को बैरसिया पुलिस को एक नौजवान की लाश जंगल में पड़ी होने की खबर मिली, तो लाश बरामद कर कातिलों को ढूंढ़ने का काम शुरू हो गया. हत्या की जगह से कुछ दूर ही खड़ी कार की पड़ताल से पता चला कि यह कार तो शाजापुर की निर्मला गौर नाम की औरत की है. जब उन से पुलिस ने पूछताछ की, तो उन्होंने तुरंत बता दिया कि उन का ड्राइवर अंकित उन से उज्जैन जाने की कह कर कार ले गया था. बैरसिया कैसे पहुंच गया, यह उन्हें नहीं मालूम. इधर मोहन सक्सेना इंदौर होते हुए शाजापुर लौट आए और थाने में शिकायत दर्ज करा दी. उन तीनों ने होशियारी दिखाते हुए मोबाइल फोन साथ नहीं रखे थे, क्योंकि इस से तुरंत लोकेशन पता चल जाती. लेकिन बैरसिया के पैट्रोल पंप पर अंकित ने कार में पैट्रोल डलवाया था. वहां के मुलाजिमों ने कार में संजय व्यास के होने की शिनाख्त की, तो पुलिस वालों के पास अब कहने और करने को ज्यादा कुछ नहीं रह गया था.

हत्या के जुर्म में गिरफ्तार होते ही संजय व्यास तमाम तंत्रमंत्र भूल गया और सारी बात सच उगल दी. जल्दी ही मोहन सक्सेना और नितिन को भी गिरफ्तार कर लिया गया. पूछताछ में मोहन सक्सेना ने अपने ही महकमे के मुलाजिमों को गुमराह करने की कोशिश की, लेकिन कहानी में दम नहीं रह गया था, इसलिए उन्होंने भी अपना जुर्म कबूल कर लिया.

क्या करें घर वाले

जैसे ही बहू, बेटी या घर की दूसरी किसी औरत के बाहरी मर्द से संबंध पकड़े जाते हैं या बदनामी की वजह बनने लगते हैं, तो घर वालों को समझ नहीं आता कि ऐसा क्या करें कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे. बहकी औरत अगर बहू है, तो ज्यादा रोकने या मारपीट करने पर दहेज का मुकदमा दर्ज कराने की धौंस देती है यानी ससुराल वालों की बेबसी का पूरा फायदा उठाती है और वहीं रह कर उन के सामने ही गलत रास्ते पर चलते रहना चाहती है, क्योंकि यह महफूज रहता है. अगर वह औरत बेटी है, तो डर उस के भागने या पेट से होने का बना रहता है. तीसरा बड़ा डर खुदकुशी कर लेने का होता है, जिस की धौंस पराए मर्द की मुहब्बत में पड़ चुकी औरत अकसर देती भी रहती है. जिस्मानी और जज्बाती तौर पर दूसरे की गिरफ्त में आ चुकी औरत किसी का कहना नहीं मानती और न ही उसे घर की इज्जत और समाज के कायदेकानूनों के अलावा नातेरिश्तों से कोई वास्ता रहता. बात उस समय और बिगड़ती है, जब उस का आशिक भी हौसले दिखाने लगता है. दोनों ही अपने मांबाप और दुनियाजहान के बारे में नहीं सोचते, तो साफ है कि उन्हें समझाने या रोकनेटोकने से कोई फायदा नहीं होता.

इसलिए बेहतर यही है कि जब औरत के कदम बहकने लगे और तमाम नसीहतों के बाद भी वह न माने तो बजाय जुर्म का रास्ता चुनने के उसे अपनी मरजी से जीने दिया जाना चाहिए. इज्जत और समाज की बात इसलिए माने नहीं रखती कि कोई इश्क कभी छिपता नहीं, बल्कि जितना छिपाया जाए उलटे ज्यादा ही विस्फोटक तरीके से दुनिया के सामने आता है. समझाने पर न माने जैसा कि ऐसे मामलों में अकसर होता है, तो कानूनी लिखापढ़ी कर औरत को उस के आशिक के साथ जाने दे कर अपना पिंड छुड़ा लेना एक बेहतर रास्ता है.

हालांकि इस में जगहंसाई भी होगी, पर वैसी और उतनी खतरनाक नुकसानदेह नहीं होगी, जैसी मोहन सक्सेना के मामले में हुई.

औरतें भी समझें हकीकत

पराए मर्द के प्यार में जिन औरतों के पैर संभाले नहीं संभलते हों, उन्हें इस मामले से सबक लेना चाहिए कि जो मर्द उन्हें ब्याह कर लाया है, उस में कोई कमी या कमजोरी हो सकती है, पर उस का यह मतलब कतई नहीं कि उस से इस तरह बदला लिया जाए. दूसरा, यह भी सोचसमझ लेना चाहिए कि ऐसे रिश्तों की उम्र ज्यादा नहीं होती और न ही अंजाम हमेशा अच्छा होता है. इस के अलावा दूसरा मर्द यानी आशिक वफादार ही होगा, इस की कोई गारंटी नहीं होती. कई मामलों से साफ हो चुका है कि वह जिस्म से खेलता है, पैसे ऐंठता है और जोर डालने पर बीच भंवर में छोड़ कर भाग भी जाता है. ऐसी औरत कहीं की नहीं रह पाती.

ऐसे ताल्लुकों से किसी को कुछ हासिल नहीं होता, सिवाय तांत्रिकों के, जो दोनों पार्टियों से पैसा ऐंठते हैं और फिर बात न बनने पर कत्ल जैसे संगीन जुर्म के लिए उकसाते हैं और ज्यादा पैसों के लालच में उस में साथ भी देते हैं. अगर वे नहीं पकड़े जाते तो तय है कि तांत्रिक संजय व्यास जिंदगीभर सक्सेना परिवार को ब्लैकमेल कर उन से रकम ऐंठता रहता. सब से बड़ा तनाव झेलने वाले घर वालों को चाहिए कि वे चार लोगों को बैठा कर सारा सच खुद उगलें और औरत को भी साथ बैठा लें, जिस से वह कोई झूठ न बोल सके और न ही गलत इलजाम लगा सके. इस से बदनामी जो आज नहीं तो कल होती जरूर होगी, लेकिन जिंदगी बची रहेगी और औरत की गलती भी सामने आ जाएगी.

क्यों बहकती हैं औरतें

* पति से जिस्मानी सुख न मिल पाना और शर्म के मारे इस की बात किसी से न कर पाना.

* ससुराल वालों खासतौर से पति से जज्बाती लगाव का पैदा न हो पाना.

* कम उम्र में ही पराए मर्दों से घुलनेमिलने या सैक्स की आदत पड़ जाना.

* घर या ससुराल में बंदिशों का ज्यादा होना और रोजरोज कलह होना.

* दिलफेंक, खूबसूरत जवां मर्दों पर दिल आ जाना, उन की लच्छेदार बातों में फंस जाना, फिर छुटकारा पाने की कोशिश में और उस के जाल में और फंसते जाना.

* पति से समय न मिलना.

* पति का उम्मीद के मुताबिक रोमांटिक न हो पाना.

* इस बात का फायदा उठाना कि ससुराल या घर वाले तो इज्जत के लिए खामोश रहेंगे.

* घर में मन न लगना और हमेशा रोमांटिक और सैक्सी खयालों में डूबे रहना.

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