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नजमा : भाग 3

हम कर भी क्या सकते हैं. कभीकभी इनसान इतना मजबूर हो जाता है कि चाह कर भी किसी की मदद नहीं कर सकता. परिस्थितियां ऐसी बन जाती हैं, तब अपने इस मजबूरी पर बहुत गुस्सा आता है.

नजमा के बारे में जो बताया, उसे सुन कर बहुत दुख हुआ.

“देखिए न, कल उस का बेटा होस्टल से मामा के घर भाग गया है. 3 दिन की छुट्टी ले कर बेटे को होस्टल पहुंचाने गई है,” मैं ने कहा.

“क्या करें, सब का अपनाअपना नसीब है,” रिया की मम्मी बोली.

घर वापस आई तो देखा मनन आ चुके थे. उनके लिए चाय बनाई और नजमा के बारे में चर्चा करने लगी.

3 दिन बाद वह काम पर वापस आई, तो मैं ने बेटे के बारे में पूछा, तो बोली, “दीदी, उस को होस्टल पहुंचा दिया.”

मुझे भी सुन कर तसल्ली हुई.

नजमा काम कर के चली गई. तभी फोन की घंटी बजी, मां का फोन था. मां हमेशा बुलाती, लेकिन घरगृहस्थी के चक्कर में मैं जा नहीं पाती थी, तो इस बार मैं ने मांपापा को यहीं बुला लिया था. 2–4 दिन में वे लोग आने वाले थे. मां मुझ से मेरे सामान की लिस्ट बनवा रही थी. जी हां… जब भी मां आती तो वो मेरी पसंदीदा चीजें अचार, पापड़, सत्तू, वड़ी और भी बहुत सारे सामान ले आती. कोई चीज भूल न जाए, इसलिए मम्मी मुझ से लिस्ट बनवा लेती.

घर सैट हो चुका था. थ्री रूम होने के कारण रहने में कोई समस्या भी नहीं थी. पिछला फ्लैट 2 कमरे वाला था.

मैं बेसब्री से मम्मी के आने का इंतजार करने लगी. बच्चे भी नानीनाना के आने की खबर सुन कर खुश थे.

मम्मी के आने में 2 दिन रह गए थे. नजमा काम खत्म कर मेरे पास आ कर बोली, “दीदी, 3 दिन की छुट्टी चाहिए.”

छुट्टी की बात सुन कर मुझे गुस्सा आ गया. मम्मीपापा आने वाले थे और इस को इसी समय छुट्टी चाहिए थी.

मैं ने कड़क आवाज में बोला, “अभी कुछ दिन पहले तुम ने छुट्टी ली थी और अब फिर छुट्टी…?”

ये हम औरतों का सब से बड़ा सच है कि जब घर में कोई मेहमान आने वाला होता है, तो जाने कामवालियों को इस बात की भनक कैसे लग जाती है, ये मुझे आज तक समझ नहीं आया? कभी संकट के समय में ये काम नहीं आती.

“दीदी, मेरा पति बीमार है. गांव जा कर उस का इलाज कराना है,” नजमा ने कहा.

“गांव जा कर इलाज? लोग बीमार होते हैं, तो शहर जा कर इलाज कराते हैं और तुम शहर में रह कर गांव जा कर इलाज करवाओगी?”

मैं समझ गई थी कि ये झूठ बोल रही है, इसलिए मैं ने उसे सवाल कर दिया.

“हां दीदी, उस का इलाज वहीं चलता है,”.वह धीरे से बोली.

अब ठीक है कहने के अलावा, मेरे पास कोई चारा न था. मैं ने उसे डांटते हुए कहा, “3 से 4 दिन नहीं होना चाहिए. मेरे मम्मीपापा आने वाले हैं.”

“नहीं होगा दीदी,” इतना कह कर वह चली गई.

मेरा मन खिन्न हो गया था. अब 3 दिन तक घर का सारा काम मुझे करना था. जब शाम को पार्क में गई, तो नजमा की सहेली अल्पना पार्क में बच्चे को खिला रही थी. वह रत्ना के घर नैनी का काम करती थी. एक बार नजमा एक सप्ताह की छुट्टी ले कर गई थी, तो इसे काम करने के लिए बोल गई थी.

अल्पना ऐसे तो बड़ी बातूनी, लेकिन काम साफसुथरा करती थी. मुझे देखते ही उस ने नमस्ते किया.

“नमस्तेनमस्ते,” कह कर मैं ने उत्तर दिया.

“कैसी हैं दीदी?” उस ने पूछा.

“तुम्हारी सहेली के छुट्टी लेने से परेशान हूं. “

इतना सुनते ही वह खिलखिला कर हंस पड़ी. फिर थोड़ी गंभीर हो कर वह बोली, “दीदी, बड़ी अभागिन है बेचारी, उस की बेटी ने नस काट ली है. उसी को लाने वह उस की ससुराल चली गई.”

“क्या…? लेकिन, मुझे तो…” कहतेकहते मैं रुक गई.

“उस की बेटी ने नस क्यों काटी? ठीक तो है न? नजमा ने मुझे तो कुछ नहीं बताया,” मैं ने सवालों की झड़ी लगा दी.

“बेटी को ससुराल वाले अस्पताल ले गए हैं, अब वह ठीक है दीदी,” अल्पना ने बताया.

“14 साल की बच्ची है बेचारी, क्या करें, पति के साथ कैसे रहना चाहिए, नहीं मालूम उसे.”

“क्या…? नजमा ने तो कहा था कि उस की बेटी 18 साल की है. तभी मैं कहूं, उस की फोटो देख कर वह 13-14 साल की लग रही थी,” मैं अचंभित हो कर बोली.

“शादी करने के लिए उस का नकली आधारकार्ड का सर्टिफिकेट बनवाया गया था,” अल्पना ने कहा.

मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा. शादी करने की ऐसी भी क्या जल्दी थी कि खेलनेकूदने की उम्र में, उस के गले में शादी नाम की फांसी बांध दी गई और लड़का उस से दुगुनी उम्र का पूर्णतः परिपक्व. उफ, क्या जाने उस के साथ जबरदस्ती भी करता हो? यह सोच कर मेरा मन गुस्से से भर गया.

“बताओ तो बच्ची के खेलनेकूदने की उम्र में अधेड़ के साथ बांध दिया. सारे घर की जिम्मेदारी ऊपर से पति को संभालना, बेचारी नन्ही सी बच्ची कैसे करेगी? उस की शादी की इतनी भी जल्दी क्या मची थी नजमा को?” मैं ने फिक्र और गुस्से से कहा.

“दीदी, हम लोग जिस महल्ले में रहते हैं, वहां का माहौल ठीक नहीं है. नजमा का पति शराबी है. दारू पी कर कभी नाले में पड़ा रहता है, तो कभी सड़क पर, क्या करती बिचारी? अच्छा घर देख कर शादी कर देना ही उचित समझा,” अल्पना ने कहा.

ऐसा लगा जैसे अल्पना ने बस्ती में रहने वाले शायद हर गरीब की मजबूरी बता दी. ना जाने कितने आंधीतूफान इन औरतों को सहने पड़ते हैं.

“दीदी, मैं जाती हूं, बेबी इधरउधर भागने लगी.”

हमारी बातों में उलझे रहने के कारण बच्ची खेलतेखेलते थोड़ी आगे निकल गई थी. मैं वापस घर आ गई.

रातभर नजमा और उस के जैसे हजारों नजमा के बारे में सोचती रही. ठीक से नींद नहीं आई. सुबह मैं और मनन चाय पी रहे थे. मैं ने नजमा के बारे में उन्हें बताया और कहा, “मुझ से झूठ बोल के गई है कि पति बीमार है.”

“हां तो क्या कहती तुम से कि बेटी ने नस काट ली है, इसलिए जा रही हूं? तुम भी ना कभीकभी बेसिरपैर की बातें करती हो.”

बात तो सही कह रहे थे मनन. मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ, तो मैं झेंप गई. दूसरे दिन तय समय पर मम्मीपापा पहुंच गए. मनन उन्हें रेलवे स्टेशन लेने गए थे. बच्चे नानीनाना को देख कर बहुत खुश हुए.  दोनों बच्चों ने अपना कमरा नानीनाना को दिखाया. मैं ने जल्दी से चायनाश्ता बनाया, फिर हम सब ने साथ खाया. बच्चों के पास ढ़ेर सारी बातें थीं, उन की बात खत्म होने का नाम नहीं ले रही थी. मैं ने उन से कहा कि नानीनाना को आराम करने दो, वे लंबी जर्नी के बाद थक गए होंगे. तब कहीं जा कर बच्चों ने उन का पीछा छोड़ा.

3 दिन तक मैं ने मैनेज किया. चौथे दिन नजमा काम पर आई. मैं ने उस के पति की तबीयत के बारे में पूछा, तो उस ने बताया कि अब वह ठीक है.

कुछ दिन हमारे साथ रहने के बाद मम्मीपापा वापस चले गए.

कुछ महीने बाद नजमा ने बताया कि उस की बेटी मां बनने वाली हैं. वह उस के खानेपीने के लिए काफी चीजें बना कर उस के ससुराल ले जाती थी.  जन्नत की सास इस दुनिया में नहीं थी. इसलिए सारा दारोमदार नजमा के ऊपर आ गया था. उस के 8वें महीने में उसे अपने पास ही ले आई. उम्र कम होने के कारण उस की प्रेगनेंसी नौर्मल नहीं थी. जन्नत को 8वें महीने में ही अस्पताल में भरती करवाना पड़ा. वह मुझ से छुट्टी मांग कर गई.

मैं भी खुशखबरी सुनने को बहुत उत्सुक थी. 2 बार उसे मैसेज कर चुकी थी, लेकिन कोई उत्तर नहीं आया. जब मुझ से रहा नहीं गया, तो दूसरे दिन मैं ने नजमा को फोन किया, लेकिन उस ने फोन नहीं उठाया. पता नहीं, क्यों मन आशंकित होने लगा. उस के फोन नहीं उठाने से मन में तरहतरह के खयाल आने लगे.

मैं ने अल्पना को फोन किया और नजमा के फोन नहीं उठाने के बारे में डरतेडरते पूछा.

“दीदी, जन्नत को बेटी हुई है, लेकिन जन्नत अब इस दुनिया में नहीं रही.”

अल्पना ने जो कहा, उसे सुन कर मैं सन्न रह गई. मेरे सामने उस फूल सी बच्ची का चेहरा घूमने लगा. कम उम्र में मां बनने की उसे भारी कीमत चुकानी पड़ गई. नजमा के ऊपर एक और जिम्मेदारी आ गई. फिर एक और जन्नत और न जाने कितनी ही… ऐसी लड़कियां परिस्थितियों और समाज के खोखले मापदंडों की बलि चढ़ेंगी.

साथी साथ निभाना : भाग 3

संजीव को उन के कहे पर विश्वास नहीं हुआ. उस ने रूखे लहजे में उन से इतना ही कहा, ‘‘जरा सी समस्या का सामना करने पर जिस लड़की के हाथपैर फूल जाएं और जो मुकाबला करने के बजाय भाग खड़ा होना बेहतर समझे, मेरे खयाल से उस की शादी ही उस के मातापिता को नहीं करनी चाहिए.’’

राजेंद्रजी कुछ तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करना जरूर चाहते थे, पर उन्हें शब्द नहीं मिले. वे कुछ और कह पाते, उस से पहले ही संजीव ने फोन काट दिया.

उस दिन के बाद से संजीव और नेहा के संबंधों में दरार पड़ गई. फोन पर भी दोनों अजनबियों की तरह ही बातें करते.

संजीव ने फिर कई दिनों तक जब नेहा से लौट आने का जिक्र ही नहीं छेड़ा, तो वह और उस के मातापिता बेचैन हो गए. हार कर नेहा ने ही इस विषय पर एक रात फोन पर चर्चा छेड़ी.

‘‘नेहा, अभी भैयाभाभी की समस्या हल नहीं हुई है. तुम्हारे लौटने के अनुरूप माहौल अभी यहां तैयार नहीं है,’’ ऐसा रूखा सा जवाब दे कर संजीव ने फोन काट दिया.

विवाहित बेटी का घर में बैठना किसी भी मातापिता के लिए चिंता का विषय बन ही जाता है. बीतते वक्त के साथ नीरजा और राजेंद्रजी की परेशानियां बढ़ने लगीं. उन्हें इस बात की जानकारी देने वाला भी कोई नहीं था कि वास्तव में नेहा की ससुराल में माहौल किस तरह का चल रहा है.

समय के साथ परिस्थितियां बदलती ही हैं. सपना और राजीव की समस्या का भी अंत हो ही गया. इस में संजीव ने सब से ज्यादा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई.

अपने एक दोस्त और उस की पत्नी के साथ जा कर वह सविता से मिला, फिर उस के पति से टैलीफोन पर बात कर के उसे भी सविता के प्रति भड़का दिया.

संजीव की धमकियों व पति के आक्रोश से डर कर सविता ने नौकरी ही छोड़ दी. प्रेम का भूत उस के सिर से ऐसा उतरा कि उसे राजीव की शक्ल देखना भी गवारा न रहा.

कुछ दिनों तक राजीव घर में मुंह फुलाए रहा, पर बाद में उस के स्वभाव में परिवर्तन आ ही गया. अपनी पत्नी के साथ रह कर ही उसे सुखशांति मिलेगी, यह बात उसे समझ में अंतत: आ ही गई.

सपना ने अपने देवर को दिल से धन्यवाद कहा. नेहा से चल रही अनबन की उसे जानकारी थी. उन दोनों को वापस जोड़ने की जिम्मेदारी उस ने अपने कंधों पर ले ली.

सपना के जोर देने पर राजीव शादी की सालगिरह मनाने के लिए राजी हो गया.

सपना अपने पति के साथ जा कर नेहा व उस के मातापिता को भी पार्टी में आने का निमंत्रण दे आई.

‘‘उस दिन काम बहुत होगा. मुझे तैयार करने की जिम्मेदारी भी तुम्हारी होगी, नेहा. तुम जितनी जल्दी घर आ जाओगी, उतना ही अच्छा रहेगा,’’ भावुक लहजे में अपनी बात कह कर सपना ने नेहा को गले लगा लिया.

नेहा ने अपनी जेठानी को आश्वासन दिया कि वह जल्दी ही ससुराल पहुंच जाएगी. उसी शाम उस ने फोन कर के संजीव को वापस लौटने की अपनी इच्छा जताई.

‘‘मैं नहीं आऊंगा तुम्हें लेने. जो तुम्हें ले कर गए थे, उन्हीं के साथ वापस आ जाओ,’’ संजीव का यह रूखा सा जवाब सुन कर नेहा के आंसू बहने लगे.

राजेंद्रजी, नीरजा व नेहा के साथ पार्टी के दिन संजीव के यहां पहुंचे. उन के बुरे व्यवहार के कारण संजीव व उस के मातापिता ने उन का स्वागत बड़े रूखे से अंदाज में किया.

ससुराल के जानेपहचाने घर में नेहा ने खुद को दूर के मेहमान जैसा अनुभव किया. मुख्य मेजबानों में से एक होने के बजाय उस ने अपनेआप को सब से कटाकटा सा महसूस किया.

सपना ने नेहा को गले लगा कर जब कुछ समय जल्दी न आने की शिकायत की, तो नेहा की आंखों में आंसू भर आए.

‘‘मुझे माफ कर दो, भाभी,’’ सपना के गले लग कर नेहा ने रुंधे स्वर में कहा, ‘‘मेरी मजबूरी को आप के अलावा कोई दूसरा शायद नहीं समझे. मातापिता की शह पर अपने पति के परिवार से मुसीबत के समय दूर भाग जाना मेरी बड़ी भूल थी. मुझ कायर के लिए आज किसी की नजरों में इज्जत और प्यार नहीं है. अपने मातापिता पर मुझे गुस्सा है और अपने डरपोक व बचकाने व्यवहार के लिए बड़ी शर्मिंदगी महसूस हो रही है.’’

‘‘तुम रोना बंद करो, नेहा,’’ सपना ने प्यार से उस की पीठ थपथपाई, ‘‘देखो, पहले के संयुक्त परिवार में पली लड़कियों का जीवन की विभिन्न समस्याओं से अकसर परिचय हो जाता था. आजकल के मातापिता वैसी कठिन समस्याओं से अपने बच्चों को बचा कर रखते हैं. तुम अपनी अनुभवहीनता व डर के लिए न अपने मातापिता को दोष दो, न खुद को. मैं तुम्हें सब का प्यार व इज्जत दिलाऊंगी, यह मेरा वादा है. अब मुसकरा दो, प्लीज.’’

सपना के अपनेपन को महसूस कर रोती हुई नेहा राहत भरे भाव से मुसकरा उठी. तब सपना ने इशारा कर संजीव को अपने पास बुलाया.

उस ने नेहा का हाथ संजीव को पकड़ा कर भावुक लहजे में कहा, ‘‘देवरजी, मेरी देवरानी नेहा अपने मातापिता से मिले सुरक्षाकवच को तोड़ कर आज सच्चे अर्थों में अपने पति के घरपरिवार से जुड़ने को तैयार है. आज के दिन अपनी भाभी को उपहार के रूप में यह पक्का वादा नहीं दे सकते कि तुम दोनों आजीवन हर हाल में एकदूसरे का साथ निभाओगे?’’

नेहा की आंखों से बह रहे आंसुओं को देख संजीव का सारा गुस्सा छूमंतर हो गया.

‘‘मैं पक्का वादा करता हूं, भाभी,’’ उस ने झुक कर जब नेहा का हाथ चूमा तो वह पहले नई दुलहन की तरह शरमाई और फिर उस का चेहरा गुलाब के फूल सा खिल उठा.

रिश्तों का दर्द- भाग 3 : नीलू के मन में मां को लेकर क्या चल रहा था?

अब वह लंदन नहीं आएगी. अपनी ओर से रोमी पूरी कोशिश करती परिवार में घुलनेमिलने की. कुंवर प्रताप के बेटे को भी परी बहुत भाती. दोनों बच्चों के अबोध प्यार को देख रोमी को सुकून था. यह रिश्ता यों ही बना रहे, आखिर यही तो चाहती है वह. नीलू भी उस का बहुत मान करती. हर बात में जीजी ऐसा, जीजी वैसा. सवा महीना होते ही रोमी के मायके से दहलीज छुड़ाने की रस्म पूरी कराने उस के पिताजी आ पहुंचे. रोमी 8 दिन मायके में रह कर फिर ससुराल लौट आई. विदेश में रह कर भी वह नहीं भूली थी कि अब ससुराल ही उस का घर है, उस की निष्ठा अब उस घर के प्रति है.

आखिर यही संस्कार तो पाए थे उस ने कि ससुराल ही लड़की का अपना घर होता है. देहरी छुड़ा कर लौटी रोमी ने महसूस किया कि घर के माहौल में कुछ परिवर्तन हुआ है. जाने क्यों अब उसे आसपास की हवा उतनी साफ नजर नहीं आ रही थी. कहीं कुछ घुटाघुटा सा लगता था. हवाओं में उल?ो जाल नजर आते, कभी लगता वह जाल उसे ही उल?ाने के लिए तैयार किया गया है तो वहीं दीवारों में कहीं कुछ दरार सी लगती, लगता कहीं कुछ है जो उस के खिलाफ पक रहा है. ठाकुर साहब अब अकसर उस के सामने आने से कतराते. उन की बातों में अब वह अपनेपन का एहसास न होता. और कुंवर प्रताप… उस से तो उस की बातें वैसे भी कम ही हो पाती थीं. एक तो शादी के 15 दिन बाद ही लंदन के लिए रवाना हो गई थी.

दूसरे, रणवीर के मुंह से सुन चुकी थी कि कुंवर प्रताप पर ठाकुरों वाला पूरा असर है. खैर, वक्त से वफादारी की उम्मीद तो वैसे भी नहीं थी. फिर भी मन को सम?ा रही थी कि वक्त के साथ सब ठीक हो जाएगा. एक शाम अचानक ठाकुर साहब बोले, ‘‘बेटा नीलू, मु?ो तेरे मायके में कुछ काम है, कल तक लौट आऊंगा. चाह रहा था तू भी चल देती अपने मांबापू से मिल लेती.’’ नीलू, आखिर भोली, ठाकुरों की चाल भला क्या सम?ाती. मांबाप के स्नेह की डोर वैसे भी बड़ी रेशमी होती है. नीलू मायके का लोभ संवरण न कर सकी. ?ाट रोमी से बोली, ‘‘जीजी, सालभर हो गया मांपापा से मिले, आप कहें तो मैं हो आऊं?’’ ‘‘हांहां, क्यों नहीं. एक दिन की ही तो बात है, मैं मैनेज कर लूंगी.’’

हमारे पुरुषप्रधान समाज ने यों ही नारी को छली कह बदनाम कर रखा है, जबकि एक पहलू यह भी है पुरुषों की कुटिलता की थाह के लिए पानी भी उतना ही दुर्लभ है. रात रसोई के काम से निबट कर रोमी सासुमां के कमरे में परी के साथ लेटी थी कि कुंवर प्रताप के कराहने की आवाज सुनाई दी, ‘‘ओह, मर गया… मां लगता है अब नहीं बचूंगा…मेरा सिर जोरों से दर्द कर रहा है, कुछ मिल जाता लगाने को.’’ रोमी ?ाट उठ कर बाम की शीशी ले आई. ‘‘लाइए मैं लगा दूं.’’ और रोमी कुंवर प्रताप के सिर पर बाम लगा रही थी. वह कभी उस के हाथ को पकड़ कर कहता, ‘जरा जोर से… हां, हां… यहां… और जोर से. अपनत्व में पगी रोमी बेचारी कुंवर प्रताप के मन में बसे भावों को सम?ा नहीं पाई. वह तो जब कुंवर प्रताप का हाथ उस के हाथों को पार करता उस के कंधे और फिर नीचे को आने लगा तो उसे कुछ संदेह हुआ. रोमी संभलती, तब तक कुंवर प्रताप उसे अपनी गिरफ्त में ले चुका था.

रोमी बहुत चीखीचिल्लाई, कितनी गुहार लगाई, ‘मांजी बचाइए, छोड़ दो प्रताप भैया, मैं तुम्हारे भाई की अमानत हूं.’ रिश्तों की दुहाई दी, मगर उस की सारी कोशिश नाकामयाब रही. कुंवर प्रताप पर हवस का नशा चढ़ चुका था. रोमी की चीखपुकार रात के अंधेरे में कोठी की दीवारों से ही थपेड़े खा कर गुम होती जा रही थी. मांजी सुन रही थी मगर बेबस थी. आखिर ठाकुर की ऐयाशी के छींटों ने उस के दामन को दागदार कर ही दिया. रोमी ने बहुत बचने की कोशिश की. मगर कहां वह हट्टाकट्टा ठाकुर, कहां वह नाजुक सी रोमी. मुकाबला करती भी तो कैसे, कब तक? रोमी जैसेतैसे खुद को समेटे सासुमां के सीने पर जा गिरी. ‘‘मांजी, देखिए न क्या हुआ मेरे साथ. मैं यह सब सोच कर तो नहीं आई थी यहां. बताइए न मांजी, मैं कहां गलत थी? मां बोलिए न.’’ ठकुराइन आंखों से अपनी वेदना जताने के और कर भी क्या सकती थी. मन ही मन सोच रही थी कि आज तो वह बेबस है मगर तब…? जब वह बोल और चलफिर सकती थी… उस की आंखों के सामने ठाकुर ने जाने कितनी अबलाओं को अपने बिस्तर की सलवटों में रौंदा.

क्या कर पाई थी वह, कुछ भी तो नहीं. हम ठकुराइनों की हुकूमत तो बस अपने नौकरोंचाकरों तक ही रहती है. पति के आगे तो हमारा अपना कुछ भी निजत्व नहीं. आज शायद उसी खामोशी की सजा पा रही है वह. चाह कर भी अपनी बहू की अस्मत न बचा सकी. उस की पीड़ा देखिए कि वह प्यार से उस के सिर पर हाथ भी न रख सकी. रोमी कहे जा रही थी, ‘‘मां, मैं तो जमाने की बुरी नजरों से बचने के लिए आप की शरण में आई थी. मुझे क्या पता था यहां उलटे मु?ो… यह सब… क्या हो गया मां?’’ ठकुराइन जो खुद ही एक जिंदा लाश की तरह मात्र थी, भला क्या मदद कर सकती थी उस की. रोमी रातभर रोती रही. उसे रणवीर बहुत याद आ रहा था. कहां वह नारी के प्रति सुल?ा दृष्टि रखने वाला, कहां कुंवर प्रताप… आश्चर्य, यह उसी का भाई है? सच कहा था रणवीर ने कि कुंवर प्रताप में ठाकुरों वाली बुद्धि है. मगर मु?ो ही शिकार होना था… रोमी बेसब्री से सुबह होने का इंतजार कर रही थी कि ठाकुर साहब के आते ही उन से फरियाद करेगी. वे ही दुरुस्त करेंगे इस की अक्ल. अपने स्वर्गीय बेटे की धरोहर के साथ ऐसा अनाचार. वे जरूर सजा देंगे उसे. ठाकुर के आते ही रोमी ने रोरो कर सारी व्यथा बयान कर दी.

ठाकुर ने सुनते ही कुंवर प्रताप पर दहाड़ना शुरू कर दिया. क्याक्या न कहा, सिर्फ हाथ उठाना भर रह गया था. रोमी तो डर गई थी कहीं बात खतरनाक मोड़ न अख्तियार कर ले. वे रोमी को देख बोले जा रहे थे, ‘‘बेटी, क्या करूं इस नामुराद का. अब तू ही कह, इस बुढ़ापे में एक यही तो आसरा है हमारा, घर से निकाल भी नहीं सकता उसे.’’ नारी मन भावुक होता है. फिर, बाप जैसे रिश्ते पर तो संशय का प्रश्न ही नहीं उठता. आखिर उस से पावन रिश्ता और कौन सा है. रोमी का निच्श्छल मन सोच भी नहीं पाया कि ये सब ठाकुर साहब के घडि़याली आंसू हैं. उसे कहीं से कुछ अप्रत्याशित न लगा. बल्कि वह तो डर गई कि कहीं ऐसा न हो ठाकुर साहब गुस्से में कोई कठोर कदम उठा बैठें और लोग कहें ऐसी बहू आई कि एक बेटे को खा गई चैन न आया तो दूसरे बेटे को भी छीन लिया. वह बेचारी तो उलटे खुद को नीलू का गुनहगार सम?ा रही थी. नीलू के मन में अपने लिए कोई मैल पैदा न हो, सो उस से भी अपनी सफाई पेश की. तब नीलू ने आंखों में आंसू भर इतना ही कहा, ‘‘मैं जानती हूं जीजी, आप निर्दोष हैं.’’

रोमी अवाक नीलू को देखती रही. इस घटना को तकदीर का लेखा मान भीतर ही भीतर घुल रही थी रोमी. एक ही छत के नीचे अपनी अस्मत के लुटेरे के साथ रहना कितना त्रासद था उस के लिए. वह निर्णय नहीं ले पा रही थी कि क्या करे. यहां रहना उचित होगा या नहीं. असमंजस में थी. मन तो किया था उसी पल यह घर छोड़ दें मगर रणवीर के मातापिता क्या सोचेंगे. बेटा तो गया बहू भी उन्हें छोड़ गई… जो हुआ उस में भला उन का क्या दोष? अनचाही दिशा में ही सही, वक्त का दरिया अपनी गति से बह रहा था. सप्ताह भी न बीता था कि एक दिन रात में सासुमां की तबीयत ज्यादा खराब होने पर रोमी ने सोचा ठाकुर साहब को बुला लाऊं. जैसे ही वह उन के कमरे के करीब पहुंची, उसे कुछ खुसुरफुसुर की आवाजें सुनाई दीं. उस ने घड़ी देखी, रात के सवा दो बज रहे हैं.

कफन: अपने पर लगा ठप्पा क्या हटा पाए रफीक मियां?

‘‘आजकल कितने कफन सी लेते हो?’’ रहमत अली ने रफीक मियां से पूछा. ‘‘आजकल धंधा काफी मंदा है,’’ रफीक मियां ने ठहरे स्वर में कहा.

‘‘क्यों, लोग मरते नहीं हैं क्या?’’ इस बेवकूफाना सवाल का जवाब वह भला रहमत अली को क्या दे सकता था. मौतें तो आमतौर पर होती ही रहती हैं. मगर सब लोग अपनी आई मौत ही मर रहे थे. आतंकवादियों द्वारा कत्लेआम का सिलसिला पिछले कई महीनों से कम सा हो गया था.

कश्मीर घाटी में अमनचैन की हवा फिर से बहने लगी थी. हर समय दहशत, गोलीबारी, बम विस्फोट भला कौन चाहता है. बीच में भारी भूकंप आ गया था. हजारों आदमी एकदम से मुर्दों में बदल गए थे. सरकारी सप्लाई के महकमे में रफीक का नाम भी बतौर सप्लायर रजिस्टर्ड था. एकदम से बड़ा आर्डर आ गया था. दर्जनों अस्थायी दर्जियों का इंतजाम कर उसे आर्डर पूरा करना पड़ा था.

आर्डर से कहीं ज्यादा बड़े बिल और वाउचर पर उस को अपनी फर्म की नामपते वाली मुहर लगा कर दस्तखत करने पड़े थे. खुशी का मौका हो या गम का, सरकारी अमला सरकार को चूना लगाने से नहीं चूकता. रफीक पुश्तैनी दर्जी था. उस के पिता, दादा, परदादा सभी दर्जी थे. कफन सीना दोयम दर्जे का काम था. कभी सिलाई मशीन का चलन नहीं था. हाथ से कपड़े सीए जाते थे. दर्जी का काम कपड़े सीना मात्र था. कफन कपड़े में नहीं गिना जाता था. कपड़े जिंदा आदमी या औरतें पहनती हैं न कि मुर्दे.

घर में मौत हो जाने पर संस्कार या जनाजे के समय ही कफन सीआ जाता था. कोई भी दुकानदार या व्यापारी सिलासिलाया कफन नहीं बेचता था और न ही तैयार कफन बेचने के लिए रखता था. मगर बदलते जमाने के साथ आदमी ज्यादा पैदा होने लगे और ज्यादा मरने भी लगे. लिहाजा, तैयारशुदा कफनों की जरूरत भी पड़ने लगी थी. मगर अभी तक कफन सीने का काम बहुत बड़े व्यवसाय का रूप धारण नहीं कर पाया था.

फिर आतंकवाद का काला साया घाटी और आसपास के इलाकों पर छा गया तो अमनचैन की फिजा मौत की फिजा में बदल गई थी. कामधंधा और व्यापार सब चौपट हो गया था. सैलानियों के आने के सीजन में भी बाजार, गलियां, चौक सब में सन्नाटा छा गया था. कभी कश्मीरी फैंसी डे्रसें, चोंगे, चूड़ीदार पायजामा, अचकन, लहंगा चोली, फैंसी जाकेट, शेरवानी, कुरतापायजामा, गरम कोट सीने वाले दर्जी व कारीगर सभी खाली हो भुखमरी का शिकार हो गए थे.

फिर जिस कफन को हिकारत या मजबूरी की वस्तु समझा जाता था वही सब से ज्यादा मांग वाली चीज बन गई थी. यानी थोक में कफनों की मांग बढ़ने लगी थी. ढेरों आतंकी या दहशतगर्द मारे जाने लगे थे. उतने ही फौजी भी. आम आदमियों की कितनी तादाद थी कोई अंदाजा नहीं था. बस, इतना अंदाजा था कि कफन सिलाई का धंधा एक कमाई का धंधा बन गया था.

सफेद कपड़े से पायजामाकुरता भी बनता था. रजाइयों के खोल भी बनते थे और कभीकभार कफन भी बनता था. कपड़े की मांग तो बराबर पहले जैसी थी. मगर कपड़ा अब जिंदों के बजाय मुर्दों के काम ज्यादा आने लगा था. आखिर खुदा के घर भेजने से पहले मुर्दे को कपड़े से ढांकना भी जरूरी था. नंगा होने का लिहाज हर जगह करना ही पड़ता है…चाहे लोक हो या परलोक. विडंबना की बात थी, आदमी नंगा ही पैदा होता है. दुनिया में कदम रखते ही उस को चंद मिनटों में ही कपड़े से ढांप दिया जाता और मरने के बाद भी कपड़े से ही ढका जाता है.

जिंदों के बजाय मुर्दों के कपड़ों का काम करना या सीना हिकारत का काम था. मगर रोजीरोटी के लिए सब करना पड़ता है. वक्त का क्या पता, कैसे हालात से सामना करा दे? अलगअलग तरह के कपड़ों के लिए अलगअलग माप लेना पड़ता था. डिजाइन बनाने पड़ते थे. मोटा और बारीक दोनों तरह का काम करना पड़ता था. मगर, कफन का कपड़ा काटना और सीना बिना झंझट का काम था. लट््ठे के कपड़ों की तह तरतीब से जमा कर उस पर गत्ते का बना पैटर्न रख निशान लगा वह बड़ी कैंची से कपड़ा काट लेता था. फिर वह खुद और उस के लड़के सिलाई कर के सैकड़ों कफन एक दिन में सी डालते थे.

आतंकवाद के जनून के दौरान मरने वाले काफी होते थे. लिहाजा, धंधा अच्छा चल निकला था. दहशतगर्दी ने जहां साफसुथरा सिलाई का धंधा चौपट कर दिया था वहीं कफन सीने का काम दिला उस जैसे पुश्तैनी कारीगरों को काम से मालामाल भी कर दिया था.

जैसेजैसे काम बढ़ता गया वैसेवैसे मशीनों की और कारीगरों की तादाद भी बढ़ती गई. मगर जैसा काम होता है वैसा ही मानसिक संतुलन बनता है. सिलाई का बारीक और डिजाइनदार काम करने वाले कारीगरों का दिमाग जहां नएनए डिजाइनों, खूबसूरत नक्काशियों और अन्य कल्पनाओं में विचरता था वहां सारा दिन कफन सीने वाले कारीगरों का दिमाग और मिजाज हर समय उदासीन और बुझाबुझा सा रहता था. उन्हें ऐसा महसूस होता था मानो वे भी मौत के सौदागरों के साथी हों और हर मुर्दा उन के सीए कफन में लपेटे जाते समय कोई मूक सवाल कर रहा हो.

दर्जीखाने का माहौल भी सारा दिन गमजदा और अनजाने अपराध से भरा रहता था. सभी कारीगरों को लगता था कि इतनी ज्यादा तादाद में रोजाना कफन सी कर क्या वे सब मौत के सौदागरों का साथ नहीं दे रहे. क्या वे सब भी गुनाहगार नहीं हैं? दर्जीखाने में कोई भी खातापीता नहीं था. दोपहर का खाना हो या जलपान, सब बाहर ही जाते थे. रफीक के पास रुपया तो काफी आ गया था मगर वह भी खोयाखोया सा ही रहता था. कफन आखिर कफन ही था.

जैसे बुरे वक्त का दौर शुरू हुआ था वैसे ही अच्छे वक्त का दौर भी आने लगा. हुकूमत और आवाम ने दहशतगर्दी के खिलाफ कमर कस ली थी. हालात काबू में आने लगे थे. फिर मौत का सिलसिला थम सा गया तो कफन की मांग कम हो गई. एक मशीन बंद हुई, एक कारीगर चला गया, फिर दूसरी, तीसरी और अगली मशीन बंद हो गई, फिर पहले के समान दुकान में 2 ही मशीनें चालू रह पाईं. बाकी सब बंद हो गईं.

उन बंद पड़ी मशीनों को कोई औनेपौने में भी खरीदने को तैयार नहीं था क्योंकि हर किसी को लगता था, कफन सीने में इस्तेमाल हुई मशीनों से मुर्दों की झलक आती है. तंग आ कर रफीक ने सभी मशीनों को कबाड़ी को बेच दिया. कफन सीना कम हो गया या कहें लगभग बंद हो गया मगर थोड़े समय तक किया गया हिकारत वाला काम रफीक के माथे पर ठप्पा सा लगा गया. उस को सभी ‘कफन सीने वाला दर्जी’ कहने लगे.

धरती का स्वर्ग कही जाने वाली घाटी में दहशतगर्दी खत्म होते ही सैलानियों का आना फिर से शुरू हो गया था. ‘मौत की घाटी’ फिर से ‘धरती का स्वर्ग’ कहलाने लगी थी. मगर रफीक फिर से आम कपड़े का दर्जी या आम कपड़े सीने वाला दर्जी न कहला कर ‘कफन सीने वाला दर्जी’ ही कहलाया जा रहा था.

इस ‘ठप्पे’ का दंश अब रफीक को ‘चुभ’ रहा था. सारा रुपया जो उस ने दहशतगर्दी के दौरान कमाया था बेकार, बेमानी लगने लगा था. उस का मकान कभी पुराने ढंग का साधारण सा था मगर किसी को चुभता न था. आम आदमी के आम मकान जैसा दिखता था. मगर अंधाधुंध कमाई से बना कोठी जैसा मकान अब एक ऐसे आलीशान ‘मकबरे’ के समान नजर आता था जिस के आधे हिस्से में कब्रिस्तान होता है. मगर जिस में कोई भी संजीदा इनसान रहने को राजी नहीं हो सकता.

रफीक मियां और उस के कुनबे को इस हालात में आने से पहले हर पड़ोसी, जानपहचान वाला, ग्राहक सभी अपने जैसा ही समझते थे. सभी उस से बतियाते थे. मिलतेजुलते थे. मगर एक दफा कफन सीने वाला दर्जी मशहूर हो जाने के बाद सभी उस से ऐसे कतराते थे मानो वह अछूत हो. पिछली कई पीढि़यों से दर्जी चले आ रहे खानदानी दर्जी के कई पीढि़यों के खानदानी ग्राहक भी थे. कफन सीने का काम थोक में करने के कारण या मोटी रकम आने के कारण रफीक उन की तरफ कम देखने या कम ध्यान देने लगा था. धीरेधीरे वे भी उस को छोड़ गए थे.

दहशतगर्दी खत्म हो जाने के बाद हालात आम हो चले थे. मगर रफीक के पुराने और पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे ग्राहक वापस नहीं लौटे थे. कफन सीना बंद हो चला था, लिहाजा, कमाई बंद हो गई थी. सैलानियों से काम ले कर देने वाले या सैलानियों को आम कश्मीरी पोशाकें, कढ़ाईदार कपड़े बेचने वाले दुकानदारों ने उस पर लगे ठप्पे की वजह से उसे काम नहीं दिया था.

जिस तरह झंझावात, अंधड़, आंधी या मूसलाधार बरसात में कुछ नहीं सूझता उसी तरह दहशतगर्दी की आंधी में बहते आ रहे आवाम को वास्तविक जिंदगी का एहसास माहौल शांत होने पर ही होता था. यही हालात अब रफीक के थे. आतंकवाद से पहले इलाके में दोनों समुदाय के लोग थे. एक समुदाय थोड़ा बड़ा था दूसरा थोड़ा छोटा. जान की खैर के लिए एक समुदाय बड़ी तादाद में पलायन कर गया था.

अब घाटी में मुसलमान ही थे. हिंदू बराबर मात्रा में होते और वे भी काम न देते तो रफीक को मलाल न होता मगर अब जब सारी घाटी में मुसलमान ही मुसलमान थे और जब उसी के भाईबंदों ने उसे काम नहीं दिया तो महसूस होना ही था. कफन सिर्फ कफन होता है. उस को हिंदू, मुसलमान, सिख या अन्य श्रेणी में नहीं रखा जा सकता मगर उस को आम हालात में कौन छूना पसंद करता है?

एक कारीगर दर्जी से कफन सीने वाला दर्जी कहलाने पर रफीक को महसूस होना स्वाभाविक था. उसी तरह क्या उस की कौम भी दुनिया की नजरों में आने वाले समय या इतिहास में दहशतगर्दी फैलाने या मौत की सौदागरी करने वाली कहलाएगी?

रफीक से भी ज्यादा मलाल उस के परिवार की महिला सदस्यों को होता था कि उन का अपना ही मुसलिम समाज उन को अछूत मानने लगा था. रफीक को खानापीना नहीं सुहाता. शरीर सूखने लगा था. हरदम चेहरे पर शर्मिंदगी छाई रहती थी.

शुक्रवार की नमाज का दिन था. जुम्मा होने की वजह से आज छुट्टी भी थी. नमाज पढ़ी जा चुकी थी. वह मसजिद के दालान में अभी तक बैठा था तभी वहां बड़े मौलवी साहब आ पहुंचे. दुआसलाम हुई. ‘‘क्या हाल है, रफीक मियां? क्या तबीयत नासाज है?’’

‘‘नहीं जनाब, तबीयत तो ठीक है मगर…’’ रफीक से आगे बोला न गया. ‘‘क्या कोई परेशानी है?’’ मौलवी साहब उस के समीप आ कर बैठ गए.

‘‘आजकल काम ही नहीं आता.’’ ‘‘क्यों…अब तो माहौल ठीक हो चुका है. सैलानी तफरीह करने खूब आ रहे हैं. बाजारों में रश है.’’

‘‘मगर मुझ पर हकीर काम करने वाले का ठप्पा लग गया है.’’ ‘‘तो क्या?’’

रफीक की समस्या सुन कर मौलवी साहब भी सोच में पड़ गए. क्या कल की तारीख या इतिहास में उन की कौम भी आतंकवादियों का समुदाय कहलाएगी? रफीक की परेशानी तो फौरी ही थी. काम आ ही जाएगा, नहीं आया तो पेशा बदल लेगा. मगर जिस पर उस का अपना समुदाय चलता आ रहा था उस का नतीजा क्या होगा?

‘‘अब्बाजान, हमारा धंधा अब नहीं जम सकता. क्यों न कोई और काम कर लें?’’ बड़े लड़के अहमद मियां ने कहा. रफीक खामोश था. पीढि़यों से सिलाई की थी. अब क्या नया धंधा करें?

‘‘क्या काम करें?’’ ‘‘अब्बाजान, दर्जी के काम के सिवा क्या कोई और काम नहीं है?’’

‘‘वह तो ठीक है, मगर कुछ तो तजवीज करो कि क्या नया काम करें?’’ रफीक के इस सीधे सवाल का जवाब बेटे के पास नहीं था. वह खामोश हो गया. रफीक दुकान पर काम हो न हो बदस्तूर बैठता था. दुकान की सफाई भी नियमित होती थी. बेटा अपने दोस्तों में चला गया था. पेट भरा हो तो भला काम करने की क्या जरूरत थी? बाप की कमाई काफी थी. खाली बातें करने या बोलने में क्या जाता था?

हुक्के का कश लगा कर रफीक कुनकुनी धूप में सुस्ता रहा था कि उस की दुकान के बाहर पुलिस की जीप आ कर रुकी. पुलिस? पुलिस क्या करने आई थी? रफीक हुक्का छोड़ उठ खड़ा हुआ. तभी उस का चेहरा अपने पुराने ग्राहक सिन्हा साहब को देख कर चमक उठा.

एक दशक पहले 3 सितारे वाले सदर थाने में एस.एच.ओ. होते थे. अब शायद बड़े अफसर बन गए थे.

‘‘आदाब अर्ज है, साहब,’’ रफीक ने तनिक झुक कर सलाम किया. ‘‘क्या हाल है, रफीक मियां?’’ पुलिस कप्तान सिन्हा साहब ने पूछा.

‘‘सब खैरियत है, साहब.’’ ‘‘क्या बात है, बाहर बैठे हो…क्या आजकल काम मंदा है?’’

‘‘बस हुजूर, थोड़ा हालात का असर है.’’ ‘‘ओह, समझा, जरा हमारी नई वरदी सी दोगे?’’

‘‘क्यों नहीं, हुजूर, हमारा काम ही सिलाई करना है.’’ एस.एच.ओ. साहब एस.पी. बन गए थे. कई साल वहां रहे थे. ट्रांसफर हो कर कई जगह रहे थे. अब यहां बड़े अफसर बन कर आए थे.

रफीक मियां की उदासी, निरुत्साह सब काफूर हो गया था. वह आग्रहपूर्वक कप्तान साहब को पिस्तेबादाम वाली बरफी खिला रहा था, साथ ही मसाले वाली चाय लाने का आर्डर दे रहा था. आखिर उस के माथे से कफन सीने वाले दर्जी का लेबल हट रहा था. कप्तान साहब नाप और कपड़ा दे कर चले गए थे. रफीक मियां जवानी के जोश के समान उन की वरदी तैयार करने में जुट गए थे.

कप्तान साहब की भी वही हालत थी जो रफीक की थी. 2 परेशान जने हाथ मिला कर चलें तो सफर आसान हो जाता है.

हरिनूर: शबीना अपने घर नीरज को लेकर क्यों नहीं गई ?

‘‘अरे, इस बैड नंबर8 का मरीज कहां गया? मैं तो इस लड़के से तंग आ गई हूं. जब भी मैं ड्यूटी पर आती हूं, कभी बैड पर नहीं मिलता,’’ नर्स जूली काफी गुस्से में बोलीं.

‘आंटी, मैं अभी ढूंढ़ कर लाती हूं,’’ एक प्यारी सी आवाज ने नर्स जूली का सारा गुस्सा ठंडा कर दिया. जब उन्होंने पीछे की तरफ मुड़ कर देखा, तो बैड नंबर 10 के मरीज की बेटी शबीना खड़ी थी.

शबीना ने बाहर आ कर देखा, फिर पूरा अस्पताल छान मारा, पर उसे वह कहीं दिखाई नहीं दिया और थकहार कर वापस जा ही रही थी कि उस की नजर बगल की कैंटीन पर गई, तो देखा कि वे जनाब तो वहां आराम फरमा रहे थे और गरमागरम समोसे खा रहे थे.

शबीना उस के पास गई और धीरे से बोली, ‘‘आप को नर्स बुला रही हैं.’’

उस ने पीछे घूम कर देखा. सफेद कुरतासलवार, नीला दुपट्टा लिए सांवली, मगर तीखे नैननक्श वाली लड़की खड़ी हुई थी. उस ने अपने बालों की लंबी चोटी बनाई हुई थी. माथे पर बिंदी, आंखों में भरापूरा काजल, हाथों में रंगबिरंगी चूडि़यों की खनखन.

वह बड़े ही शायराना अंदाज में बोला, ‘‘अरे छोडि़ए ये नर्सवर्स की बातें. आप को देख कर तो मेरे जेहन में बस यही खयाल आया है… माशाअल्लाह…’’

‘‘आप भी न…’’ कहते हुए शबीना वहां से शरमा कर भाग आई और सीधे बाथरूम में जा कर आईने के सामने दोनों हाथों से अपना चेहरा ढक लिया. फिर हाथों को मलते हुए अपने चेहरे को साफ किया और बालों को करीने से संवारते हुए बाहर आ गई.

तब तक वह मरीज, जिस का नाम नीरज था, भी वापस आ चुका था. शबीना घबरा कर दूसरी तरफ मुंह कर के बैठ गई.

नीरज ने देखा कि शबीना किसी भी तरह की बात करने को तैयार नहीं है, तो उस ने सोचा कि क्यों न पहले उस की मम्मी से बात की जाए.

शबीना की मां को टायफायड हुआ था, जिस से उन्हें अस्पताल में भरती होना पड़ा था. नीरज को बुखार था, पर काफी दिनों से न उतरने के चलते उस की मां ने उसे दाखिल करा दिया था.

नीरज की शबीना की अम्मी से काफी पटती थी. परसों ही दोनों को अस्पताल से छुट्टी मिलनी थी, पर तब तक नीरज और शबीना अच्छे दोस्त बन चुके थे.

शबीना 10वीं जमात की छात्रा थी और नीरज 11वीं जमात में पढ़ता था. दोनों के स्कूल भी आमनेसामने थे. वैसे भी फतेहपुर एक छोटी सी जगह है, जहां कोई भी आसानी से एकदूसरे के बारे में पता लगा सकता है. सो, नीरज ने शबीना का पता लगा ही लिया.

एक दिन स्कूल से बाहर आते समय दोनों की मुलाकात हो गई. दोनों ही एकदूसरे को देख कर खुश हुए. उन की दोस्ती और गहरी होती गई.

इसी बीच शबीना कभीकभार नीरज के घर भी जाने लगी, पर वह नीरज को अपने घर कभी नहीं ले गई.

ऐसे ही 2 साल कब बीत गए, पता ही नहीं चला. अब यह दोस्ती इश्क में बदल कर रफ्तारफ्ता परवान चढ़ने लगी.

एक दिन जब शबीना कालेज से घर में दाखिल हुई, तो उसे देखते ही अम्मी चिल्लाते हुए बोलीं, ‘‘तुम्हें बताया था न कि तुम्हें देखने के लिए कुछ लोग आ रहे हैं, पर तुम ने वही किया जो 2 साल से कर रही हो. तुम्हारी जोया आपा ठीक ही कह रही थीं कि तुम एक लड़के के साथ मुंह उठाए घूमती रहती हो.’’

‘‘अम्मी, आप मेरी बात तो सुनो… वह लड़का बहुत अच्छा है. मुझ से बहुत प्यार करता है. एक बार मिल कर तो देखो. वैसे, तुम उस से मिल भी चुकी हो,’’ शबीना एक ही सांस में सबकुछ कह गई.

‘‘वैसे अम्मी, अब्बू कौन होते हैं हमारी निजी जिंदगी का फैसला करने वाले? कभी दुखतकलीफ में तुम्हारी खैर पूछने आए, जो आज इस पर उंगली उठाएंगे? हम मरें या जीएं, उन्हें कोई फर्क पड़ता है क्या?

‘‘शायद आप भूल गई हो, पर मेरे जेहन में वह सबकुछ आज भी है, जब अब्बू नई अम्मी ले कर आए थे. तब नई अम्मी ने अब्बू के सामने ही कैसे हमें जलील किया था.

‘‘इतना ही नहीं, हम सभी को घर से बेदखल भी कर दिया था.’’

तभी जोया आपा घर में आईं.

‘‘अरे जोया, तुम ही इस को समझाओ. मैं तुम दोनों के लिए जल्दी से चाय बना कर लाती हूं,’’ ऐसा कहते हुए अम्मी रसोईघर में चली गईं.

रसोईघर क्या था… एक बड़े से कमरे को बीच से टाट का परदा लगा कर एक तरफ बना लिया गया था, तो दूसरी तरफ एक पुराना सा डबल बैड, टूटी अलमारी और अम्मी की शादी का एक पुराना बक्सा रखा था, जिस में अम्मी के कपड़े कम, यादें ज्यादा बंद थीं. मगर सबकुछ रखा बड़े करीने से था.

तभी अम्मी चाय और बिसकुट ले कर आईं और सब चाय का मजालेने लगे.

शबीना यादों की गहराइयों में खो गई… वह मुश्किल से 6-7 साल की थी, जब अब्बू नई अम्मी ले कर आए थे. वह अपनी बड़ी सी हवेली के बगीचे में खेल रही थी. तभी नई अम्मी घर में दाखिल हुईं. उसे समझ नहीं आ रहा था कि यह सब क्या हो रहा है. उस की अम्मी हर वक्त रोती क्यों रहती हैं?

जब नई अम्मी को बेटा हुआ, तो जोया आपा और अम्मी को बेदखल कर उसी हवेली में नौकरों के रहने वाली जगह पर एक कोना दे दिया गया.

अम्मी दिनभर सिलाईकढ़ाई करतीं और जोया आपा भी दूसरों के घर का काम करतीं तो भी दो वक्त की रोटी मुहैया नहीं हो पाती थी.

अम्मी 30 साल की उम्र में 50 साल की दिखने लगी थीं. ऐसा नहीं था कि अम्मी खूबसूरत नहीं थीं. वे हमेशा अब्बू की दीवानगी के किस्से बयां करती रहती थीं.

सभी ने अम्मी को दूसरा निकाह करने को कहा, पर अम्मी तैयार नहीं हुईं. पर इधर कुछ दिनों से वे काफी परेशान थीं. शायद जोया आपा के सीने पर बढ़ता मांस परेशानी का सबब था. मेरे लिए वह अचरज, पर अम्मी के लिए जिम्मेदारी.

‘‘शबीना… ओ शबीना…’’ जोया आपा की आवाज ने शबीना को यादों से वर्तमान की ओर खींच दिया.

‘‘ठीक है, उस लड़के को ले कर आना, फिर देखते हैं कि क्या करना है.’’

लड़के का फोटो देख शबीना खुशी से उछल गई और चीख पड़ी. भविष्य के सपने संजोते हुए वह सोने चली गई.

अकसर उन दोनों की मुलाकात शहर के बाहर एक गार्डन में होती थी. आज जब वह नीरज से मिली, तो उस ने कल की सारी घटना का जिक्र किया, ‘‘जनाब, आप मेरे घर चल रहे हैं. अम्मी आप से मुलाकात करना चाह रही हैं.’’

‘‘सच…’’ कहते हुए नीरज ने शबीना को अपनी बांहों में भर लिया. शबीना शरमा कर बड़े प्यार से नीरज को देखने लगी, फिर नीरज की गाड़ी से ही घर पहुंची.

नीरज तो हैरान रह गया कि इतनी बड़ी हवेली, सफेद संगमरमर सी नक्काशीदार दीवारें और एक मुगलिया संस्कृति बयां करता हरी घास का

लान, जरूर यह बड़ी हैसियत वालों की हवेली है.

नीरज काफी सकुचाते हुए अंदर गया, तभी शबीना बोली, ‘‘नीरज, उधर नहीं, यह अब्बू की हवेली है. मेरा घर उधर कोने में है.’’

हैरानी से शबीना को देखते हुए नीरज उस के पीछेपीछे चल दिया. सामने पुराने से सर्वैंट क्वार्टर में शबीना दरवाजे पर टंगी पुरानी सी चटाई हटा कर अंदर नीरज के साथ दाखिल हुई.

नीरज ने देखा कि वहां 2 औरतें बैठी थीं. उन का परिचय शबीना ने अम्मी और जोया आपा कह कर कराया.

अम्मी ने नीरज को देखा. वह उन्हें बड़ा भला लड़का लगा और बड़े प्यार से उसे बैठने के लिए कहा.

अम्मी ने कहा, ‘‘मैं तुम दोनों के लिए चाय बना कर लाती हूं. तब तक अब्बू और भाईजान भी आते होंगे.’’

‘‘अब्बू, अरे… आप ने उन्हें क्यों बुलाया? मैं ने आप से पहले ही मना किया था,’’ गुस्से से चिल्लाते हुए शबीना अम्मी पर बरस पड़ी.

अम्मी भी गुस्से में बोलीं, ‘‘चुपचाप बैठो… अब्बू का फैसला ही आखिरी फैसला होगा.’’

शबीना कातर निगाहों से नीरज को देखने लगी. नीरज की आंखों में उठे हर सवाल का जवाब वह अपनी आंखों से देने की कोशिश करती.

थोड़ी देर तक वहां सन्नाटा पसरा रहा, तभी सामने की चटाई हिली और भरीभरकम शरीर का आदमी दाखिल हुआ. वे सफेद अचकन और चूड़ीदार पाजामा पहने हुए थे. साथ ही, उन के साथ 17-18 साल का एक लड़का भी अंदर आया.

आते ही उस आदमी ने नीरज का कौलर पकड़ कर उठाया और दोनों लोग नीरज को काफी बुराभला कहने लगे.

नीरज एकदम अचकचा गया. उस ने संभलने की कोशिश की, तभी उस में से एक आदमी ने पीछे से वार कर दिया और वह फिर वहीं गिर गया.

शबीना कुछ समझ पाती, इस से पहले ही उस के अब्बू चिल्ला कर बोले, ‘‘खबरदार, जो इस लड़के से मिली. तुझे शर्म नहीं आती… वह एक हिंदू लड़का है और तू मुसलमान…’’ नीरज की तरफ मुखातिब हो कर बोले, ‘‘आज के बाद शबीना की तरफ आंख उठा कर मत देखना, वरना तुम्हारा और तुम्हारे परिवार का वह हाल करेंगे कि प्यार का सारा भूत उतर जाएगा.’’

नीरज ने समय की नजाकत को समझते हुए चुपचाप चले जाना ही उचित समझा.

अब्बू ने शबीना का हाथ झटकते हुए अम्मी की तरफ धक्का दिया और गरजते हुए बोले, ‘‘नफीसा, शबीना का ध्यान रखो और देखो अब यह लड़का कभी शबीना से न मिले. इस किस्से को यहीं खत्म करो,’’ और यह कहते हुए वे उलटे पैर वापस चले गए.

अब्बू के जाते ही जो शबीना अभी तक तकरीबन बेहोश सी पड़ी थी, तेजी से खड़ी हो गई और अम्मी से बोली, ‘‘अम्मी, यह सब क्या है? आप ने इन लोगों को क्यों बुलाया? अरे, मुझे तो समझ में नहीं आ रहा है कि ये इतने सालों में कभी तो हमारा हाल पूछने नहीं आए. हम मर रहे हैं या जी रहे हैं, पेटभर खाना खाया है कि नहीं, कैसे हम जिंदगी गुजार रहे हैं. दोदो पैसे कमाने के लिए हम ने क्याक्या काम नहीं किया.

‘‘बोलो न अम्मी, तब ये कहां थे? जब हमारी जिंदगी में चंद खुशियां आईं, तो आ गए बाप का हक जताने. मेरा बस चले, तो आज मैं उन का सिर फोड़ देती.’’

‘‘शबीना…’’ कहते हुए अम्मी ने एक जोरदार चांटा शबीना को रसीद कर दिया और बोलीं, ‘‘बहुत हुआ… अपनी हद भूल रही है तू. भूल गई कि उन से मेरा निकाह ही नहीं हुआ है, दिल का रिश्ता है. मैं उन के बारे में एक भी गलत लफ्ज सुनना पसंद नहीं करूंगी. कल से तुम्हारा और नीरज का रास्ता अलगअलग है.’’

शबीना सारी रात रोती रही. उस की आंखें सूज कर लाल हो गईं. सुबह जब अम्मी ने शबीना को इस हाल में देखा, तो उन्हें बहुत दुख हुआ. वे उस के बिखरे बालों को समेटने लगीं. मगर शबीना ने उन का हाथ झटक दिया.

बहरहाल, इसी तरह दिनहफ्ते, महीने बीतने लगे. शबीना और नीरज की कोई बातचीत तक नहीं हुई. न ही नीरज ने मिलने की कोशिश की और न ही शबीना ने.

इसी तरह एक साल बीत गया. अब तक अम्मी ने मान लिया था कि शबीना अब नीरज को भूल चुकी है.

उसी दौरान शबीना ने अपनी फैशन डिजाइन के काम में काफी तरक्की कर ली थी और घर में अब तक सब नौर्मल हो गया था. सब ने सोचा कि अब तूफान शांत हो चुका है.

वह दिन शबीना की जिंदगी का बहुत खास दिन था. आज उस के कपड़ों की प्रदर्शनी थी. वह तेजतेज कदमों से लिफ्ट की तरफ बढ़ रही थी, तभी लिफ्ट का दरवाजा खुला, तो सामने खड़े शख्स को देख कर उस के पैर ठिठक गए.

‘‘कैसी हो शबीना?’’ उस ने बोला, तो शबीना की आंखों से आंसू आ गए. बिना कुछ बोले भाग कर वह उस के गले लग गई.

‘‘तुम कैसे हो नीरज? उस दिन तुम्हारी इतनी बेइज्जती हुई कि मेरी हिम्मत ही नहीं हुई कि तुम से कैसे बात करूं, पर सच में मैं तुम्हें कभी भी नहीं भूली…’’

नीरज ने उस के मुंह पर हाथ रख दिया, ‘‘वह सब छोड़ो, यह बताओ कि तुम यहां कैसे?

‘‘आज मेरे सिले कपड़ों की प्रदर्शनी लगी है, पर तुम…’’

‘‘मैं यहां का मैनेजर हूं.’’

शबीना ने मुसकराते हुए प्यारभरी निगाहों से नीरज को देखा. नीरज को लगा कि उस ने सारे जहां की खुशियां पा ली हैं.

‘‘अच्छा सुनो, मैं यहां का सारा काम खत्म कर के रात में 8 बजे तुम से यहीं मिलूंगी.’’

आज शबीना का मन अपने काम में नहीं लग रहा था. उसे लग रहा था कि जल्दी से नीरज के पास पहुंच जाए.

शबीना को देखते ही नीरज बोला, ‘‘कुछ इस कदर हो गई मुहब्बत तनहाई से अपनी कि कभीकभी इन सांसों के शोर को भी थामने की कोशिश कर बैठते हैं जनाब…’’

शबीना मुसकराते हुए बोली, ‘‘शिकवा तो बहुत है मगर शिकायत कर नहीं सकते… क्योंकि हमारे होंठों को इजाजत नहीं है तुम्हारे खिलाफ बोलने की,’’ और वे दोनों खिलखिला कर हंस पड़े.

‘‘नीरज, तुम्हें पता नहीं है कि आज मैं मुद्दतों बाद इतनी खुल कर हंसी हूं.’’

‘‘शायद मैं भी…’’ नीरज ने कहा. रात को दोनों ने एकसाथ डिनर किया और दोनों चाहते थे कि इतने दिनों की जुदाई की बातें एक ही घंटे में खत्म कर दें, जो कि मुमकिन नहीं था. फिर वे दोनों दिनभर के काम के बाद उसी पुराने गार्डन या कैफे में मिलने लगे.

लोग अकसर उन्हें साथ देखते थे. शबीना के घर वालों को भी पता चल गया था, पर उन्हें लगता था कि वे शादी नहीं करेंगे. वे इस बारे में शबीना को समयसमय पर हिदायत भी देते रहते थे.

इसी तरह साल दर साल बीतने लगे. एक दिन रात के अंधेरे में उन दोनों ने अपना शहर छोड़ एक बड़े से महानगर में अपनी दुनिया बसा ली, जहां उस भीड़ में उन्हें कोई पहचानता तक नहीं था. वहीं पर दोनों एक एनजीओ में नौकरी करने लगे.

उन दोनों का घर छोड़ कर अचानक जाना किसी को अचरज भरा नहीं लगा, क्योंकि सालों से लोगों को उन्हें एकसाथ देखने की आदत सी पड़ गई थी. पर अम्मी को शबीना का इस तरह जाना बहुत खला. वे काफी बीमार रहने लगीं. जोया आपा का भी निकाह हो गया था.

इधर शबीना अपनी दुनिया में बहुत खुश थी. समय पंख लगा कर उड़ने लगा था. एक दिन पता चला कि उस की अम्मी को कैंसर हो गया और सब लोगों ने यह कह कर इलाज टाल दिया था कि इस उम्र में इतना पैसा इलाज में क्यों बरबाद करें.

शबीना को जब इस बात का पता चला, तो उस ने नीरज से बात की.

नीरज ने कहा, ‘‘तुम अम्मी को अपने पास ही बुला लो. हम मिल कर उन का इलाज कराएंगे.’’

शबीना अम्मी को इलाज कराने अपने घर ले आई. अम्मी जब उन के घर आईं, तो उन का प्यारा सा संसार देख कर बहुत खुश हुईं.

नीरज ने बड़ी मेहनत कर पैसा जुटाया और उन का इलाज कराया और वे धीरेधीरे ठीक होने लगीं. अब तो उन की बीमारी भी धीरेधीरे खत्म हो गई. मगर अम्मी को बड़ी शर्मिंदगी महसूस होती. नीरज उन की परेशानी को समझ गया.

एक दिन शाम को अम्मी शबीना के साथ बैठी थीं, तभी नीरज भी पास आ कर बैठ गया और बोला, ‘‘अम्मी, जिंदगी में ज्यादा रिश्ते होना जरूरी नहीं है, पर रिश्तों में ज्यादा जिंदगी होना जरूरी है. अम्मी, जब बनाने वाले ने कोई फर्क नहीं रखा, तो हम कौन होते हैं फर्क रखने वाले.

‘‘अम्मी, मेरी तो मां भी नहीं हैं, मगर आप से मिल कर वह कमी भी पूरी हो गई.’’

अम्मी ने प्यार से नीरज को गले लगा लिया, तभी नीरज बोला, ‘‘आज एक और खुशखबरी है, आप जल्दी ही नानी बनने वाली हैं.’’

अब अम्मी बहुत खुश थीं. वे अकसर शबीना के घर आती रहतीं. समय के साथ ही शबीना ने प्यारे से बेटे को जन्म दिया, जिस का नाम शबीना ने हरिनूर रखा. शबीना ने यह नाम दे कर उसे हिंदूमुसलमान के झंझावातों से बरी कर दिया था.

Raksha Bandhan : मुंहबोली बहनें- भाग 3

मैं ने भाभी को आश्वस्त करते हुए कहा कि आप चिंता न करें मैं भैया से बात करती हूं. मैं जब रोहन भैया से इस बारे में बात करने गई तो बात शुरू करने से पहले ही उन्होंने मेरा मुंह यह कह कर बंद कर दिया, ‘‘सोनाली, अगर तुम मुझे कुछ समझाने आई हो तो बेहतर होगा कि वापस चली जाओ.’’ रोहन भैया के रूखे व्यवहार के आगे तो मेरी बात शुरू करने की हिम्मत ही नहीं हुई. बातबात पर उन से झगड़ने और बहस कर बैठने वाली मुझ सोनाली की बोलती ही बंद हो गई. पर बात चूंकि उन के वैवाहिक रिश्ते को बचाने की थी इसलिए हिम्मत कर के मैं उन के पास बैठ गई.

‘‘रोहन भैया, बात इतनी बड़ी नहीं है कि आप ने अपना और भाभी का रिश्ता दावं पर लगा दिया है. भाभी कह रही हैं कि उन का मुंहबोला भाई है तो उन की बात का आप यकीन क्यों नहीं करते? आखिर कालेज में आप की भी तो कई मुंहबोली बहनें थीं फिर…’’ मैं आगे कुछ और बोलूं उस से पहले ही रोहन भैया वहां से उठ खड़े हुए, ‘‘हां, सोनाली, मेरी कई मुंहबोली बहनें थीं और मैं कइयों का मुंहबोला भाई था इसीलिए इस रिश्ते की हकीकत मुझ से ज्यादा कोई नहीं जानता. कह दो अपनी भाभी से या तो मैं या वह मुंहबोला भाई, जिसे चुनना है चुन ले.’’

मैं अवाक सी भैया का मुंह देखती रह गई. कालेज वाले भैया तो वे थे ही नहीं जिन से मैं कुछ बहस कर सकती. ‘रोहन भैया, रोहन भैया’ कहने वाली कालेज की बहनों का उन्हें देख कर आहें भरना मैं भी कहां भूल पाई थी कि किसी तरह का तर्क दे कर उन की सोच को झुठलाने की कोशिश करने की हिम्मत जुटा पाती.

मेरे पास भाभी को समझाने के अलावा और कोई रास्ता शेष नहीं बचा था. रोहन भैया का शक उन के अपने अनुभव पर आधारित था. न जाने मुंहबोले भाईबहन के रिश्तों को उन्होंने किस तरह जिया था. दुनिया को तो वे अपने ही अनुभव के आधार पर देखेंगे.

‘‘रिश्ता बचाना है तो आप के सामने रोहन भैया की शर्त मानने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है भाभी, क्योंकि उन का शक उन के अनुभव पर आधारित है और अपने ही अनुभव को भला वे कैसे नकार सकते हैं. रिश्ता बचाने के लिए त्याग आप को ही करना पड़ेगा,’’ भारी मन से भाभी से यह सब कह कर मैं चुपचाप अपने घर की ओर चल दी.

रिश्तों मे प्यार बढ़ाने के लिए अपनाएं ये 10 उपाय

रिश्तों को बेहतर बनाने के कुछ ऐसे उपाय आजमाएं जो आप के पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों में मिठास भर कर उन्हें और भी सुखद बना दें.

पारिवारिक रिश्ते

सब से पहले बात करते हैं पारिवारिक रिश्तों की जो हमें विरासत में मिलते हैं और किसी पूंजी से कम नहीं होते. चलिए हम आप को बताते हैं वे 5 तरीके जिन से आप बना सकते हैं अपने पारिवारिक रिश्तों को मजबूत:

  • प्रपंच छोड़ें: प्रपंच बड़ा चटपटा शब्द है. लोग इसे चटखारे ले ले कर इस्तेमाल करते हैं. मसलन, बहू के भाई ने इंटरकास्ट मैरिज कर ली. बस फिर तो बहू का ससुराल के लोगों से नजरें मिलाना मुश्किल हो गया. सासूमां अपने दिए संस्कारों की मिसाल देदे कर बहू के मायके के लोगों की धज्जियां उड़ाने में मशगूल हो गईं.

क्यों, भई इसे प्रपंच का मुद्दा बनाने की क्या जरूरत है? इंटरकास्ट मैरिज कोई गुनाह तो नहीं है. हां, यह बात अलग है कि आप के समाज वाले इसे पचा नहीं सकते. लेकिन बहू तो आप के ही घर की है. उस के सुखदुख में शरीक होना आप का कर्तव्य है, जिस को आप प्रपंच में उड़ा रही हैं. आप को क्या लगता है, प्रपंच करने से आप खुद को दूसरों की नजर में महान बना लेते हैं और सामने वाले को दूसरों की नजरों से गिरा देते हैं. नहीं इस से आप की ही साख पर असर पड़ता है. आप के ही परिवार का मजाक बनता है, जिस में आप खुद भी शामिल होते हैं.

इसलिए नए वर्ष में तय करिए कि इस रोग से खुद को मुक्त करेंगे और दूसरों को भी सलाह देंगे.

  • अपना उत्तरदायित्व समझें: उत्तरदायित्व का मतलब सिर्फ मातापिता की सेवा करना ही नहीं, बल्कि अपने बच्चों के प्रति भी आप के कुछ उत्तरदायित्व होते हैं. आजकल के मातापिता आधुनिकता की चादर में लिपटे हुए हैं. बच्चों को पैदा करने और उन्हें सुखसुविधा देने को ही वे अपनी जिम्मेदारी मानते हैं. लेकिन इस से ज्यादा वे अपनी पर्सनल लाइफ को ही महत्त्व देते हैं. इस स्थिति में यही कहा जाएगा कि आप एक आदर्श मातापिता नहीं हैं. लेकिन इस नए वर्ष में आप भी आदर्श होने का तमगा पा सकते हैं यदि आप अपने उत्तरदायित्वों को पूरी शिद्दत से निभाएं.
  • झूठ का न लें सहारा: अकसर देखा गया है कि अपनी जिम्मेदारियों से बचने, अपनी साख बढ़ाने या फिर अपनी गलती छिपाने के लिए लोग झूठ का सहारा लेते हैं. संयुक्त परिवार में झूठ की दरारें ज्यादा देखने को मिलती हैं, क्योंकि एकदूसरे से खुद को बेहतर साबित करने की प्रतिस्पर्धा में लोगों से गलतियां भी होती हैं. लेकिन इन्हें नकारात्मक रूप से लेने की जगह सकारात्मक रूप से लेना चाहिए. जब आप ऐसी सोच रखेंगे तो झूठ बोलने का सवाल ही नहीं उठता. इस वर्ष सोच में सकारात्मकता ले कर आएं. इस से पारिवारिक रिश्तों के साथ आप का व्यक्तित्व भी सुधर जाएगा.
  • आर्थिक मनमुटाव से बचें: आधुनिकता के जमाने में लोगों ने रिश्तों को भी पैसों से तराजू में तोलना शुरू कर दिया है. रिश्तेदारियों में अकसर समारोह के नाम पर धन लूटने का रिवाज है. शादी जैसे समारोह को ही ले लीजिए. यहां शगुन के रूप में लिफाफे देने और लेने का रिवाज है. इन लिफाफों में पैसे रख कर रिश्तेदारों को दिए जाते हैं. जो जितने पैसे देता है उसे भी उतने ही पैसे लौटा कर व्यवहार पूरा किया जाता है. लेकिन ऐसे रिश्तों का कोई फायदा नहीं जो पैसों के आधार पर बनतेबिगड़ते हैं. इस वर्ष तय कीजिए कि रिश्तों में आर्थिक मनमुटाव की स्थिति से बचेंगे, रिश्तों को भावनाओं से मजबूत बनाएंगे.
  • अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता: अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लेख हमारे देश के संविधान में भी किया गया है, लेकिन परिवार के संविधान में यह हक कुछ लोगों को ही हासिल होता है, जो बेहद गलत है. अपनी बात कहने का हक हर किसी को देना चाहिए. कई बार हम सामने वाले की बात नहीं सुनते या उसे दबाने की कोशिश करते हैं अपने सीधेपन के कारण वह दब भी जाता है, लेकिन नुकसान किस का होता है? आप का, वह ऐसे कि यदि वह आप को सही सलाह भी दे रहा होता है, तो आप उस की नहीं सुनते और अपना ही राग अलापते रहते हैं. ऐसे में सही और गलत का अंतर आप कभी नहीं समझ सकते. इसलिए इस वर्ष से तय करें कि घर में पुरुष हो या महिला, छोटा हो या बड़ा हर किसी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी जाएगी.

सामाजिक रिश्ते

संतुलित और सुखद जिंदगी जीने के लिए पारिवारिक रिश्तों के साथसाथ सामाजिक रिश्तों को भी  मजबूत बनाना जरूरी है. आइए हम आप को बताते हैं सामाजिक रिश्तों को बेहतर बनाने के 5 तरीके:

  • ईगो का करें त्याग: ईगो बेहद छोटा लेकिन बेहद खतरनाक शब्द है. ईगो मनुष्य पर तब हावी होता है जब वह अपने आगे सामने वाले को कुछ भी नहीं समझना चाहता. उसे दुख पहुंचाना चाहता हो या फिर उस का आत्मविश्वास कम करने की इच्छा रखता हो. अकसर दफ्तरों में साथ काम करने वाले साथियों के बीच ईगो की दीवार तनी रहती है. इस चक्कर में कई बार वे ऐसे कदम उठा लेते हैं, जो उन के व्यक्तित्व पर दाग लगा देते हैं या कई बार वे सामने वाले को काफी हद तक नुकसान पहुंचाने में कामयाब हो जाते हैं.

लेकिन क्या ईगो आप को किसी भी स्तर पर ऊंचा उठा सकता है? शायद नहीं यह हमेशा आप से गलत काम ही करवाता है. आप को खराब मनुष्य की श्रेणी में लाता है, तो फिर ऐसे ईगो का क्या लाभ जो आप को फायदे से ज्यादा नुकसान पहुंचाता हो? इस वर्ष ठान लीजिए की ईगो का नामोनिशान अपने व्यक्तित्व पर से मिटा देंगे और दूसरों का बुरा करने की जगह अपने व्यक्तित्व को निखारने में समय खर्च करेंगे.

  • मददगार बनें: मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और हमेशा से समूह में रहता चला आया है. इस समूह में कई लोग उस के जानकार होते हैं तो कई अनजान भी. लेकिन मदद एक ऐसी प्रक्रिया है जो मनुष्य को मनुष्य से जोड़ती है. किसी की तकलीफ में उस का साथ देना या उस की हर संभव मदद करना एक मनुष्य होने के नाते आप का कर्तव्य है.
  • पुण्य नहीं कर्तव्य समझें: धार्मिक ग्रंथों में पुण्य कमाने का बड़ा व्याख्यान है. लोग किसी की मदद सिर्फ इस लालच में करते हैं कि उन्हें इस के बदले में पुण्य कमाने का मौका मिलेगा. लेकिन जहां उन्हें पुण्य कमाने का जरीया नजर नहीं आता वहां वे घास भी नहीं डालते. कहते हैं भूखे और प्यासे आदमी को खाना खिलाने से पुण्य की प्राप्ति होती है. इसे कमाने के लिए लाखों रुपए उड़ा कर लोग भंडारों का आयोजन करते हैं.

लेकिन दूसरी तरफ ऐसे ही लोग राह में मिलने वाले गरीब भूखे बच्चे को 2 रोटी देने की जगह दुतकार देते हैं. जबकि किसी भूखेप्यासे को खिलाना पुण्य नहीं बल्कि आप का कर्तव्य है. इस तरह धर्म के नाम पर या उस का सहारा ले कर किसी विशेष दिन का इंतजार कर के कोई कार्य करने की जगह जरूरतमंदों को देखते ही उन्हें सहारा दें और इसे अपना कर्तव्य समझें. तो इस वर्ष प्रतिज्ञा लें कि काम को पुण्य नहीं, बल्कि कर्तव्य समझ कर करेंगे.

  • खुल कर सोचें बड़ा सोचें: इस वर्ष अपनी सोच का विस्तार करें. ऐसा करने पर आप पाएंगे कि आप से ज्यादा संतुष्ट और चिंतामुक्त मनुष्य और कोई नहीं है. ऐसे कई लोग आप को अपने आसपास मिल जाएंगे जो अपना वक्त सिर्फ दूसरों के बारे में सोचने में जाया कर देते हैं. उन्हें हर वक्त यही लगता है कि उन के लिए कोई गलत कर रहा है या कह रहा है. लेकिन जरा सोचें, क्या इस भागतीदौड़ती दुनिया में किसी के पास दूसरे के लिए सोचनेसमझने का समय है? नहीं है. इसलिए आप भी अपने बारे में सोचें और किसी का नुकसान न करते हुए अपने फायदे का काम करें.
  • सम्मान करें और सम्मान पाएं: कई लोग जब किसी बड़े स्तर पर पहुंच जाते हैं तो वे हमेशा अपने से छोटे स्तर पर खड़े लोगों को हिकारत की नजर से देखने लगते हैं. अकसर दफ्तरों में ऐसा होता है कि खुद को सीनियर कहलवाने की जिद में लोग अपने से नीचे ओहदे वालों का शोषण और अपमान करना शुरू कर देते हैं. लेकिन आप ने यह कहावत तो सुनी ही होगी कि कीचड़ पर पत्थर फेंको तो खुद पर भी कीचड़ उछल कर आता है. उसी तरह अपमान करने वाले को भी अपमान ही मिलता है. इसलिए इस वर्ष तय कर लीजिए कि हर स्थिति व परिस्थिति में आप सभी से सम्मानपूर्वक ही पेश आएंगे.

मैंने अपने बौयफ्रैंड के साथ कई बार सैक्स किया है, क्या ये बात शादी के बाद मेरे पति को पता चल जाएगी?

सवाल

मैं 20 वर्षीय युवती हूं. मेरे बौयफ्रैंड ने मेरे साथ कई बार सैक्स किया है. अब मेरा विवाह होने वाला है. मैं यह जानना चाहती हूं कि क्या विवाह के बाद मेरे पति को मेरे विवाहपूर्व सैक्स संबंधों के बारे में पता चल जाएगा, मैं क्या करूं? सलाह दें.

जवाब

जिस उम्र में आप को अपना ध्यान कैरियर में लगाना चाहिए था उस उम्र में आप ने शारीरिक संबंध बना कर गलती की है. वैसे भी आप ने बौयफ्रैंड के साथ सैक्स संबंध रजामंदी से बनाए थे तो अब क्यों डर रही हैं? विवाह पूर्व सैक्स संबंधों के बारे में पति को तब तक पता नहीं चलेगा जब तक आप खुद नहीं बताएंगी. लोगों के बीच यह आम धारणा है कि जब भी कोई युवती सैक्स संबंध बनाती है तो उसे ब्लीडिंग होती है और यही उस के वर्जिन यानी कुंआरे होने का मापदंड होता है जबकि यह धारणा गलत है क्योंकि जहां कई महिलाओं में कौमार्य झिल्ली होती ही नहीं, वहीं कुछ में यह इतनी मुलायम और लचीली होती है कि बचपन में खेलतेकूदते समय ही फट जाती है. अगर आप के पति आप की वर्जिनिटी पर सवाल उठाएं तो उन्हें यही समझाएं.

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Crime Story : मौत की साजिश

19 नवंबर की सुबह 10 बजे राजू थाना लहरापुर पहुंचा और थानाप्रभारी धर्मपाल सिंह को बताया कि बीती रात किसी ने उस के भाई वीरेंद्र की गोली मार कर हत्या कर दी है. उस की लाश गांव के बाहर नलकूप वाले कमरे में पड़ी है.

हत्या की खबर पा कर धर्मपाल सिंह ने राजू से कुछ सवाल पूछे और पुलिस टीम के साथ घटनास्थल के लिए रवाना हो गए. रवानगी से पहले उन्होंने सीओ राकेश सिंह को भी घटना से अवगत करा दिया था.

राजू लहरापुर थाने के गांव अनेसों का रहने वाला था, जो थाने से 7 किलोमीटर दूर उत्तरपश्चिम दिशा में था. पुलिस को वहां पहुंचने में आधे घंटे का समय लगा. घटनास्थल पर भीड़ जुटी हुई थी. थानाप्रभारी धर्मपाल सिंह भीड़ को हटा कर उस कमरे के अंदर पहुंचे, जहां वीरेंद्र की लाश पड़ी थी.

लाश के पास मृतक की पत्नी शांति दहाड़ें मार कर रो रही थी. कमरे में पड़ी चारपाई पर वीरेंद्र की रक्तरंजित लाश पड़ी थी. बिस्तर खून से तरबतर था. दीवारों पर भी खून के छींटें पड़े थे. वीरेंद्र के सीने में गोली मारी गई थी, जिस से उस की मौत हो गई थी. मृतक की उम्र 35 साल के आसपास रही होगी.

थानाप्रभारी धर्मपाल सिंह अभी जांचपड़ताल कर ही रहे थे कि सीओ राकेश सिंह भी आ गए. उन्होंने फोरेंसिक टीम को भी घटनास्थल पर बुला लिया था. टीम ने कमरे से साक्ष्य एकत्र कर लिए. राकेश सिंह ने भी घटनास्थल का बारीकी से निरीक्षण किया, मृतक की पत्नी भाई तथा गांव के मुखिया से पूछताछ की.

पूछताछ में मृतक के भाई राजू ने बताया कि उस का बड़ा भाई वीरेंद्र नलकूप की रखवाली के लिए रात को नलकूप के कमरे में सोता था. कभीकभी वह खुद भी वहां सो जाता था. बीती रात 8 बजे खाना खा कर वह नलकूप पर सोने आ गए थे.

सुबह 8 बजे वह उन के लिए नाश्ता ले कर आया तो देखा कि किसी ने गोली मार कर उन की हत्या कर दी थी. उस ने हत्या की जानकारी पहले भाभी शांति को दी, उस के बाद गांव के अन्य लोगों को. इस के बाद हत्या की सूचना देने थाना लहरापुर चला गया.

“तुम्हारे भाई की गांव में किसी से रंजिश तो नहीं है?” राकेश सिंह ने पूछा.

“नहीं साहब, हमारी गांव में किसी से कोई रंजिश नहीं है.”

“कोई लेनदेन का विवाद?”

“नहीं, भैया किसी से कोई लेनदेन नहीं करते थे. हम अपनी हैसियत के मुताबिक ही रहते थे. कर्ज लेना भैया को बिलकुल पसंद नहीं था. हां, वह शराब के शौकीन जरूर थे, लेकिन खानेपीने में अपना ही पैसा खर्च करते थे.”

राकेश सिंह ने मृतक की पत्नी शांति से पूछताछ की तो वह फफकफफक कर रो पड़ी. चंद मिनट बाद उस के आंसुओं का सैलाब रुका तो बोली, “साहब, मेरे पति अच्छेभले थे. कोई तनाव या परेशानी नहीं थी. रात 8 बजे खाना खा कर वह नलकूप पर सोने आए थे. पता नहीं रात में किस ने मेरा सुहाग उजाड़ दिया. सुबह देवरजी उन्हें नाश्ता देने आए तो हमें उन की हत्या की जानकारी मिली.”

“तुम्हें किसी पर शक है?” धर्मपाल सिंह ने पूछा.

“साहब, मुझे चोरों पर शक है. लगता है, रात में चोर नलकूप की मोटर चुराने आए थे, वह जाग गए होंगे और चोरों को ललकारा होगा, तब उन्होंने गोली मार दी होगी.”

गांव के मुखिया भगवत ने सीओ राकेश सिंह को चौंकाने वाली जानकारी दी. उन्होंने बताया कि वीरेंद्र की हत्या का राज घर में ही छिपा है. वीरेंद्र की पत्नी शांति का चालचलन ठीक नहीं है. उस के अपने देवर राजू से नाजायज रिश्ते हैं.

वीरेंद्र उन अवैध रिश्तों का विरोध करता था, साथ ही शांति से मारपीट भी. शक है कि शांति और राजू ने मिल कर वीरेंद्र को मार डाला है.

यह जानकारी मिलते ही राकेश सिंह ने राजू को हिरासत में ले लिया और मृतक वीरेंद्र के शव को पोस्टमार्टम के लिए औरैया जिला अस्पताल भिजवा दिया. इस के बाद वह राजू को ले कर थाना लहरापुर आ गए.

थाने पर राकेश सिंह तथा धर्मपाल सिंह ने राजू से पूछताछ शुरू की तो वह घडिय़ाली आंसू बहाने लगा. उस की आंखों से बहते आंसू देख कर एक बार तो ऐसा लगा कि वह निर्दोष है. लेकिन जब धर्मपाल सिंह ने राजू से कड़ाई से पूछताछ की तो वह टूट गया और भाई की हत्या का जुर्म कबूल कर लिया.

अगले दिन पुलिस ने राजू की निशानदेही पर हत्या में प्रयुक्त तमंचा भी बरामद कर लिया, जिसे उस ने अपने खेत के पास झाडिय़ों में छिपा दिया था.

राजू गिरफ्तार हुआ तो शांति घबरा गई. वह अपना सामान समेट कर भागने की तैयारी कर रही थी कि पुलिस ने उसे भी पकड़ लिया. थाने पर जब उस का सामना अपने देवर राजू से हुआ तो उस ने भी सच बताना ठीक समझा. उस ने बड़ी आसानी से अपना जुर्म कबूल कर लिया.

चूंकि राजू और उस की भाभी शांति ने वीरेंद्र की हत्या का जुर्म कबूल कर लिया था, इसलिए धर्मपाल सिंह ने मृतक के चचेरे भाई ध्रुवपाल को वादी बना कर राजू व शांति के खिलाफ वीरेंद्र की हत्या का मुकदमा दर्ज कर लिया. इस के साथ ही दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया. दोनों से की गई पूछताछ में अवैध रिश्तों की सनसनीखेज कहानी प्रकाश में आई.

औरैया जनपद में तिरवाबिंदियापुर रोड पर  एक कस्बा है सहार. इसी कस्बे में रहने वाले राजकुमार की बेटी थी शांति. राजकुमार ने शांति का विवाह औरैया जिला के थाना लहरापुर के अंतर्गत आने वाले अनेसों गांव निवासी वीरेंद्र के साथ किया था.

वीरेंद्र के मातापिता की मौत हो चुकी थी. वह अपने छोटे भाई राजू के साथ रहता था. उस के पास 10 बीघा जमीन थी, जिस में अच्छी उपज होती थी. कुल मिला कर उन का जीवन खुशहाल था.

देखतेदेखते 5 साल बीत गए, पर शांति की गोद सूनी ही रही. गोद सूनी रहने का दोष शांति अपने पति पर देती थी,  जिस से दोनों में झगड़ा होता रहता था. इस झगड़े से वीरेंद्र इतना परेशान हो जाता था कि वह शराब के ठेके पर पहुंच जाता और फिर लडख़ड़ाते कदमों से ही घर लौटता.

धीरेधीरे 3 साल और बीत गए. लेकिन शांति को मातृत्व सुख नहीं मिला. शांति समझ गई कि वह अक्षम पति से मातृत्व सुख कभी प्राप्त नहीं कर सकती. इसलिए वह पति से घृणा करने लगी.

शराब पीने को ले कर दोनों में झगड़ा इतना बढ़ता कि वीरेंद्र शांति को जानवरों की तरह पीट देता. समय के साथ मनमुटाव इतना बढ़ा कि वीरेंद्र घर के बजाय खेत पर बनी नलकूप की कोठरी में सोने लगा.

शांति स्वभाव से मिलनसार थी. राजू भाभी के प्रति सम्मोहित था. जब दोनों साथ चाय पीने बैठते, तब शांति उस से खुल कर हंसीमजाक करती. शांति का यह व्यवहार धीरेधीरे राजू को ऐसा बांधने लगा कि उस के मन में शांति का सौंदर्यरस पीने की कामना जागने लगी.

एक दिन राजू खाना खाने बैठा तो शांति थाली ले कर आई और जानबूझ कर गिराए गए आंचल को ढंकते हुए बोली, “लो देवरजी खाना खा लो, आज मैं ने तुम्हारी पसंद का खाना बनाया है.”

राजू को भाभी की यह अदा बहुत अच्छी लगी. वह उस का हाथ पकड़ कर बोला, “भाभी, तुम भी अपनी थाली परोस लो, साथ खाने में मजा आएगा.”

खाना खाते वक्त दोनों के बीच बातों का सिलसिला जुड़ा तो राजू बोला, “भाभी, तुम सुंदर और सरल स्वभाव की हो, लेकिन भैया ने तुम्हारी कद्र नहीं की. मुझे पता है कि अभी तक तुम्हारी गोद सूनी क्यों है? वह अपनी कमजोरी की खीझ तुम पर उतारते हैं. लेकिन मैं तुम्हें प्यार करता हूं.”

यह कह कर राजू ने शांति की दुखती रग पर हाथ रख दिया था. सच में शांति पति से संतुष्टï नहीं थी. उसे न तो मातृत्व का सुख प्राप्त हुआ था और न ही शारीरिक सुख, जिस से उस का मन विद्रोह कर उठा. उस का मन बेर्ईमान हो चुका था. आखिरकार उस ने फैसला कर लिया कि अब वह असंतुष्टï नहीं रहेगी. इस के लिए उसे रिश्तों को तारतार क्यों न करना पड़े.

औरत जब जानबूझ कर बरबादी के रास्ते पर कदम रखती है तो उसे रोक पाना मुश्किल होता है. यही शांति के साथ हुआ. शांति जवान भी थी और पति से असंतुष्टï भी. वह मातृत्व सुख भी चाहती थी. अत: उस ने देवर राजू के साथ नाजायज रिश्ता बनाने का निश्चय कर लिया. राजू वैसे भी शांति का दीवाना था.

एक शाम शांति बनसंवर कर चारपाई पर लेटी थी. तभी राजू आ गया. वह उस की खूबसूरती को निहारने लगा. शांति को राजू की आंखों की भाषा पढऩे में देर नहीं लगी. शांति ने उसे करीब बैठा लिया और उस का हाथ सहलाने लगी. राजू के शरीर में हलचल मचने लगी.

थोड़ी देर की चुप्पी के बाद होश दुरुस्त हुए तो शांति ने राजू की ओर देख कर कहा, “देवरजी, तुम मुझे बहुत अच्छे लगते हो. लेकिन हमारे बीच रिश्ते की दीवार है. अब मैं इस दीवार को तोडऩा चाहती हूं. तुम मुझे बस यह बताओ कि हमारे इस नए रिश्ते का अंजाम क्या होगा?”

“भाभी, मैं तुम्हें कभी धोखा नहीं दूंगा. तुम अपना बनाओगी तो तुम्हारा ही बन कर रहूंगा.” कह कर राजू ने शांति को बाहों में भर लिया.

ऐसे ही कसमोंवादों के बीच कब संकोच की सारी दीवारें टूट गईं, दोनों को पता ही नहीं चला. उस दिन के बाद राजू और शांति बिस्तर पर जम कर सामाजिक रिश्तों और मानमर्यादाओं की धज्जियां उड़ाने लगे. वासना की आग ने उन के इन रिश्तों को जला कर खाक कर दिया.

राजू अपनी भाभी के प्यार में इतना अंधा हो गया कि उसे दिन या रात में जब भी मौका मिलता, वह शांति से मिलन कर लेता. शांति भी देवर के पौरुष की दीवानी थी. उन के मिलन की किसी को कानोकान खबर नहीं थी.

कहते हैं कि वासना का खेल कितनी भी सावधानी से खेला जाए, एक न एक दिन भांडा फूट ही जाता है. ऐसा ही शांति और राजू के साथ भी हुआ. एक रात पड़ोस में रहने वाली चचेरी जेठानी रूपा ने चांदनी रात में आंगन में रंगरलियां मना रहे राजू और शांति को देख लिया. इस के बाद तो इन की पापलीला की चर्चा पूरे गांव में होने लगी.

वीरेंद्र को जब देवरभाभी के नाजायज रिश्तों की जानकारी हुई तो उस का माथा ठनका. उस ने इस बाबत शांति से बात की तो उस ने नाजायज रिश्तों की बात सिरे से खारिज कर दी. उस ने कहा, “राजू सगा देवर है. उस से हंसबोल लेती हूं. पड़ोसी इस का मतलब गलत निकालते हैं. उन्होंने ही तुम्हारे कान भरे हैं.”

वीरेंद्र ने उस समय तो पत्नी की बात मान ली, लेकिन मन में शक पैदा हो गया, इसलिए वह चुपकेचुपके पत्नी पर नजर रखने लगा. परिणामस्वरूप एक रात वीरेंद्र ने शांति और राजू को रंगरलियां मनाते रंगेहाथों पकड़ लिया. वीरेंद्र ने दोनों की पिटाई की और संबंध तोडऩे की चेतावनी दी.

लेकिन इस चेतावनी का असर न तो शांति पर पड़ा और न ही राजू पर. हां, इतना जरूर हुआ कि अब वे सतर्कता बरतने लगे. जिस दिन वीरेंद्र, शांति को राजू से हंसतेबतियाते देख लेता, उस दिन शराब पी कर शांति को पीटता और राजू को भी भलाबुरा कहता. उस ने गांव के मुखिया से भी भाई की शिकायत की, साथ ही राजू को समझाने के लिए भी कहा कि वह घर न तोड़े.

शांति शराबी पति की मारपीट से तंग आ चुकी थी. इसलिए उस ने एक दिन शारीरिक मिलन के दौरान राजू से पूछा, “देवरजी, हम कब तक इस तरह चोरीछिपे मिलते रहेंगे? आखिर कब तक उस शराबी की मार खाते रहेंगे? कहीं किसी दिन उस ने शराब के नशे में मेरा गला घोंट दिया तो..?”

“ऐसा नहीं होगा भाभी. तुम साथ दोगी तो मैं भाई को ही ठिकाने लगा दूंगा.”

“मेरी मांग का सिंदूर मिटा कर क्या मुझे विधवा बना दोगे?”

“नहीं, मैं तुम्हारी मांग में सिंदूर भर कर तुम्हें अपना बना लूंगा.”

“तो ठीक है, मैं तुम्हारा साथ दूंगी.”

इस के बाद शांति और राजू ने वीरेंद्र की हत्या की योजना बना डाली. योजना के तहत राजू ने किसी अपराधी से 2 हजार रुपए में तमंचा व 2 कारतूस खरीदे और उन्हें घर में छिपा कर रख दिया. इस के बाद दोनों उचित समय का इंतजार करने लगे.

हत्या की योजना बनने के बाद वीरेंद्र के प्रति शांति का व्यवहार नरम पड़ गया. वह दिखावटी रूप से उस के प्रति प्यार जताने लगी. कभीकभी वह शारीरिक मिलन के लिए नलकूप वाली कोठरी पर भी चली जाती. पत्नी के इस व्यवहार से वीरेंद्र को लगा कि उस ने भाई से संबंध खत्म कर लिए हैं.

18 नवंबर, 2015 की रात 8 बजे वीरेंद्र घर आया. शांति ने उसे बड़े प्यार से खाना खिलाया. इस के बाद वह खेतों पर नलकूप वाली कोठरी पर सोने चला गया. उस के जाते ही राजू और शांति ने बात कर के अपनी योजना को अंजाम तक पहुंचाने का निश्चय कर लिया.

गांव के ज्यादातर लोग जब गहरी नींद सो गए तो राजू ने कमर में तमंचा खोंसा और शांति के साथ खेतों पर जा पहुंचा. शांति ने कोठरी के दरवाजे की कुंडी खटखटाई. इस पर वीरेंद्र ने पूछा, “कौन?”

“मैं हूं शांति. दरवाजा खोलो.”

वीरेंद्र ने सोचा, शांति शारीरिक मिलन के लिए आई है. इसलिए उस ने सहज ही दरवाजा खोल दिया. दरवाजा खुलते ही राजू ने कमर में खोसा तमंचा निकाला और वीरेंद्र के सीने पर 2 फायर झोंक दिए. गोली लगते ही वीरेंद्र खून से तरबतर हो कर चारपाई पर गिर पड़ा. चंद मिनट तड़पने के बाद उस ने दम तोड़ दिया. भाई की हत्या करने के बाद राजू ने तमंचा झाडिय़ों में छिपा दिया और शांति के साथ घर आ गया.

सुबह 8 बजे दिखावे के तौर पर राजू नाश्ता ले कर नलकूप पर गया और वहां से बदहवास भागता हुआ गांव आया. गांव वालों को उस ने भाई की हत्या हो जाने की जानकारी दी.

कुछ देर बाद वह थाना लहरापुर पहुंचा और थानाप्रभारी धर्मपाल सिंह को हत्या की सूचना दी. सूचना पाते ही धर्मपाल सिंह घटनास्थल पर पहुंचे और शव को कब्जे में ले कर जांचपड़ताल शुरू कर दी. जांच में देवरभाभी के नाजायज रिश्तों के चलते वीरेंद्र की हत्या का रहस्य उजागर हो गया.

21 नवंबर, 2015 को थाना लहरापुर पुलिस ने अभियुक्त राजू और शांति को औरैया कोर्ट में रिमांड मजिस्टे्रट के समक्ष पेश किया, जहां से उन्हें जिला जेल भेज दिया गया. कथा लिखे जाने तक उन की जमानत नहीं हुई थी.

वही परंपराएं, भाग 2 : 50 साल बाद जवान की जिंदगी में क्या आया बदलाव ?

‘‘जी, हां, मैं उन का बेटा हूं. वे आजकल घर पर ही रहते हैं.’’

‘‘वैसे वे ठीक तो हैं?’’

‘‘जी, नहीं, कुछ ठीक नहीं रहते.’’

‘‘कैसी बीमारी है?’’

‘‘जी, वही बुढ़ापे की बीमारियां, ब्लडप्रैशर, शुगर वगैरा.’’

‘‘पर तुस्सी कौन?’’ इतनी देर बातें करने के बाद उस ने मेरे बारे में पूछा था कि मैं कौन हूं.

‘‘मेरी गुरनाम से पुरानी दोस्ती है, 50 वर्षों पहले की.’’

कुछ देर देख कर वह हक्काबक्का रह गया, फिर अपने काम में व्यस्त हो गया. मैं ने गुरनाम के बेटे को आगे प्रश्न करने का मौका नहीं दिया. मेरा ध्यान राजिंद्रा अस्पताल के पीछे बने क्वार्टरों की ओर चला जाता है. यहां की एक लड़की शकुन, यहीं इन्हीं क्वार्टरों में कहीं रहती थी.

कालेज से आते समय हमें रात के साढ़े नौ, पौने दस बज जाते थे. वह केवल अपनी सुरक्षा के कारण मेरे साथ अपनी साइकिल पर चल रही होती थी. वह सैनिकों को पसंद नहीं करती थी. वह सैनिक यूनिफौर्म से ही नफरत करती थी. कारण, उस के अपने थे. उस की सखी ने मुझे बताया था. मेरी इस पर कभी कोई बात नहीं हुई थी. जबकि यूनिफौर्म हम सैनिकों की आन, बान और शान थी. हम थे, तो देश था. हम नहीं थे तो देश भी नहीं था.

हमें अपनेआप पर अभिमान था और हमेशा रहेगा. मेरा ध्यान अपनी पढ़ाई पर चला गया था. मन के भीतर यह बात दृढ़ हो गईर् थी कि कुछ भी हो, मुझे उस से अधिक नंबर हासिल करने हैं. और हुआ भी वही. जब परिणाम आया तो मेरे हर विषय में उस से अधिक नंबर थे. मैं ने प्रैप, फर्स्ट ईयर, दोनों में उसे आगे नहीं बढ़ने दिया. फिर मेरी पोस्ंिटग लद्दाख में हो गई और वह कहां चली गई, मुझे कभी पता नहीं चला. इतने वर्षों बाद यहां आया तो उस की याद आई.

अस्पताल से निकलते ही बायीं ओर सड़क मुड़ती है. वहां से शुरू होती हैं अंगरेजों के समय की बनी पुरानी फौजी बैरकें. मैं उस ओर मुड़ा तो वहां बैरियर लगा मिला और

2 संतरी खड़े थे. कार को देख कर उन में से एक संतरी मेरी ओर बढ़ा. मैं ने उस को अपना परिचय दिया, कहा, ‘‘मैं पुरानी बैरकें देखना चाहता हूं.’’

संतरी ने कहा, ‘‘सर, अब यहां पुरानी बैरकें नहीं हैं. उन को तोड़ कर फैमिली क्वार्टर बना दिए गए हैं. उन का कहीं नामोनिशान नहीं है.’’

मैं ने कुछ देर सोचा, फिर कहा, ‘‘मैं अंदर जा कर देखना चाहता हूं. कुछ न कुछ जरूर मिलेगा. मैं ने अपनी पढ़ाई यहीं से शुरू की थी. उस ने दूसरे संतरी से बात की. उन्होंने मुझ से आईकार्ड मांगा. मुझे खुशी हुई. किसी मिलीटरी संस्थान में घुसना आसान नहीं है. अपनी ड्यूटी के प्रति उन के समर्पण को देख कर मन गदगद हुआ.

मैं ने उन को अपना आईकार्ड दिखाया और मेरा रैंक देख कर उन्होंने मुझे सैनिक सम्मान दिया. एक संतरी कार में ड्राइवर के साथ बैठ गया. दूसरे संतरी ने बैरियर खोल दिया. कार अंदर की ओर मुड़ गई. बायीं ओर जवानों के लिए सुंदर और भव्य क्वार्टर और दूसरी ओर एक लाइन में बने लैंप पोस्ट थे. उस के साथ कोई 6 फुट ऊंची दीवार चल रही थी. क्वार्टरों को इस प्रकार सुरक्षित किया गया था कि बैरियर के अतिरिक्त और कहीं से कोई घुस न पाए.

कार बहुत धीरेधीरे चल रही थी. ‘‘रुक रुक’’, एक लैंप पोस्ट के पास मैं ने कार रुकवाई. मैं कार से नीचे उतरा. संतरी भी मेरे साथ उतरा. लैंप पोस्ट के पास एक बड़े पत्थर को देख कर मेरी आंखें नम हो गईं. मैं इस पत्थर पर बैठ कर पढ़ा करता था.

मैं इतना भावुक हो गया कि बढ़ कर मैं ने संतरी को गले लगा लिया. उस के कारण मैं यहां तक पहुंचा था. मेरे रैंक का आदमी इस प्रकार का व्यवहार नहीं करता है. तुम्हारे कारण आज मैं यहां हूं. 1966 में यह पत्थर मेरे लिए कुरसी का कार्य करता था. 50 साल बीत गए, यह आज भी यहां डटा हुआ है. सामने एक यूनिट थी जिस के संतरी मुझे चाय पिलाया करते थे.

मुझे आज भी सर्दी की भयानक रात याद है. जनवरी का महीना था. परीक्षा समीप थी. दूसरी यूनिट की सिक्योरिटी लाइट में पढ़ना मेरी मजबूरी थी. हालांकि कमांडिंग अफसर मेजर मेनन ने रातभर लाइट जलाने की इजाजत दी हुई थी, परंतु कोई हमारे ब्लौक का फ्यूज निकाल कर ले जाता था. मैं ने बाहर की सिक्योरिटी लाइट में पढ़ना शुरू किया तो किसी ने पत्थर मार कर बल्ब तोड़ दिए थे. फिर मैं यहां पत्थर पर बैठ कर पढ़ने लगा.

शाम को ही धुंध पड़नी शुरू हो जाती थी. मैं रात में 10 बजे के बाद गरम कपड़े पहन कर, कैप पहन कर यहां आ जाता था. उस रोज भी धुंध बहुत थी.

मैं कौपी के अक्षरों को पढ़ने का प्रयत्न कर रहा था कि एक जानीपहचानी आवाज ने मुझे आकर्षित किया. यह आवाज मेजर मेनन की थी, मेरे औफिसर कमांडिंग. मेमसाहब के साथ, बच्चे को प्रैम में डाले, कहीं से आ रहे थे.

‘तुम यहां क्यों पढ़ रहे हो? मैं ने तो तुम्हें सारी रात लाइट जलाने की इजाजत दी हुई है.’ मैं जल्दी से जवाब नहीं दे पाया था. जवाब देने का मतलब था, सब से बैर मोल लेना. जब दोबारा पूछा तो मुझे सब बताना पड़ा. मेजर साहब तो कुछ नहीं बोले परंतु मेमसाहब एकदम भड़क उठीं, ‘कैसे तुम यूनिट कमांड करते हो, एक बच्चा पढ़ना चाहता है, उसे पढ़ने नहीं दिया जा रहा है?’

15 अगस्त स्पेशल : औपरेशन, भाग 2

डाक्टर सारांश ने मेजर बलदेव का चैकअप किया और फौरन मैडिकल डाइरैक्टर के रूम की ओर भागे, ‘‘सर, मेजर साहब बुरी तरह जख्मी हैं, फौरन उन का औपरेशन करना पड़ेगा.’’ मैडिकल डाइरैक्टर मानो इस सवाल के लिए तैयार थे, ‘‘इन्हें फौरन अनंतनाग या उधमपुर भिजवाने का इंतजाम कराओ, वहीं इन का मुकम्मल इलाज हो पाएगा.’’

‘‘मगर सर, इतना वक्त नहीं है हमारे पास. जहर जिस्म में फैलता जा रहा है. अगर फौरन औपरेशन नहीं किया तो टांग काटनी पड़ जाएगी. फौज का एक तंदुरुस्त जवान अपाहिज हो जाएगा. अगर ज्यादा देर हुई तो उन की जान भी जा सकती है.’’

‘‘डाक्टर सारांश, आप से जो कहा जाए वही कीजिए, फैसला लेने का हक मेरा है, न कि आप का.’’

‘‘सुना है आप ने औपरेशन थिएटर और आसपास के कमरे मंत्रीजी को दिए हुए हैं ताकि वे इस सर्द और बरसाती रात में आराम फरमा सकें.’’ मेजर की टोली के एक जवान ने कहा तो एक बार के लिए मैडिकल डाइरैक्टर की पेशानी पर पसीने की बूंदें उभर आईं, लेकिन अगले ही पल उन्होंने बेशर्मी से कहा, ‘‘आप समय बरबाद कर रहे हैं अपना भी, मेरा भी और सब से ज्यादा घायल मेजर का. जल्दी ही इन्हें ले जाने का इंतजाम कीजिए. जरूरत पड़े तो एयरलिफ्ट करवाइए.’’

‘‘आप जानते हैं सर, इस बरसाती रात में एयरलिफ्ट करवाना मुमकिन नहीं है,’’ डा. सारांश ने आखिरी दावं खेला.

‘‘फिर तो आप को फौरन रवाना होना चाहिए. एकएक पल कीमती है आप के लिए,’’ मैडिकल डाइरैक्टर अड़े रहे.

डाक्टर सारांश पसोपेश में पड़ गए. वे घायल सिपाही, अपना फर्ज और लाल फीताशाही के बीच फंसे बेबस से खड़े किसी भी नतीजे पर पहुंच नहीं पा रहे थे.

डाक्टर सारांश ने कुछ ही पलों में मानो फैसला कर लिया. उन्होंने अस्पताल के कुछ कर्मचारियों को बुलाया और उन से रायमशवरा करने के बाद मेजर को टीले के उस ओर ले गए जहां पर बरसात का प्रकोप कम था. वहीं उन्होंने 2 पेड़ों के बीच रस्सी बांध कर मचान बनाया और अस्पताल से लाए औजारों की मदद से गोली निकालने का काम शुरू कर दिया. फौज की जीप की हैडलाइट्स की रोशनी में उन्होंने गोली निकाली और औपरेशन को अंजाम दिया. औपरेशन कामयाब रहा और पौ फटतेफटते मेजर को होश आ गया. फिर थोड़ी ही देर में हैलिकौप्टर मेजर को ले कर उधमपुर की ओर उड़ गया.

डाक्टर सारांश के इस औपरेशन की खबर पूरे जिले में फैल गई और जैसा कि डाक्टर सारांश को अंदेशा था, दफ्तर से आए एक कर्मचारी ने उन्हें सस्पैंशन और्डर थमा दिया. पत्र में उन पर कई तरह के इलजाम लगाए गए थे और उन की शिकायत मैडिकल काउंसिल में कर दी गई थी जिस में सिफारिश की गई थी कि डाक्टर सारांश का मैडिकल लाइसैंस रद्द कर दिया जाए.

डाक्टर सारांश के औपरेशन की खबर कुछ यों फैली कि शाम होतेहोते कई रोगी उन तक पहुंच गए और उन के परिजन हाथ जोड़जोड़ कर उन से रोगियों के औपरेशन की गुहार करने लगे. डाक्टर सारांश के समझानेबुझाने का उन पर कोई असर नहीं हुआ. आखिरकार डाक्टर सारांश ने दूसरी रात भी 4 औपरेशन उसी हालात में कर डाले, जो कामयाब भी हुए. फिर तो यह रोज का सिलसिला हो गया और डाक्टर सारांश की ख्याति दूरदूर तक फैल गई. भारी तादाद में रोगी उन तक पहुंचने लगे.

मैडिकल डाइरैक्टर ने बौखलाहट में डाक्टर सारांश के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवा दी जिस में उन पर गैरकानूनी ढंग से औपरेशन करने और अस्पताल के सामान की चोरी का इलजाम भी शामिल था.

डाक्टर सारांश ने जमानत लेने के बजाय जेल जाना पसंद किया और उन पर कई धाराएं लगा कर उन्हें फौजी जेल में डाल दिया गया. मामले की सुनवाई जिला अदालत में शुरू हो गई.

चंद ही दिन बीते थे कि एक ऐसी घटना हुई जिस की डाक्टर सारांश को भी उम्मीद न थी. कूरियर से एक लिफाफा उन के नाम आया जिस में उन के नाम का एक प्रशस्तिपत्र और सिंगापुर आनेजाने का टिकट था. डाक्टर सारांश हैरान थे कि यह कैसे हुआ. उन की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था. अगले ही दिन उन्हें अदालत के आदेश से छोड़ दिया गया और दिल्ली होते हुए वे सिंगापुर के जहाज में बैठ गए.

सिंगापुर पहुंचते ही उन का तहेदिल से स्वागत हुआ और एक समारोह में उन की उपलब्धियां गिनाई गईं, वे उपलब्धियां जो भारत में गुनाह समझी गई थीं और उन्हें जेल में डाल दिया गया था. उन्हें मानवता का रखवाला और कई जानें बचाने वाला महामानव बताया गया था. चर्चा हुई और उन से सवालजवाब हुए कि उन्होंने किस तरह संसाधन न होते हुए भी इतने औपरेशन किए जोकि कामयाब रहे. मानवता के नाम पर उठाया गया उन का एक कदम इतनी लंबी छलांग लगा देगा, इस का उन को गुमान न था.

भारतीय मैडिकल काउंसिल जहां उन पर अनुशासनहीनता की कार्यवाही कर रही थी, अदालत उन को मुजरिम की तरह कठघरे में खड़ी कर रही थी, मंत्रालय उन पर सख्त से सख्त कार्यवाही करने का मन बना रहा था, वहीं परदेस में डाक्टर सारांश को डाक्टरों के काम का सर्वोच्च आदर और मान मिल रहा था.

डाक्टर सारांश मंच पर खड़े लोगों के सवालों का जवाब दे रहे थे. तभी कोने से एक व्यक्ति ने वही प्रश्न किया जो उन के दिमाग पर दस्तक दिए जा रहा था. ‘‘क्या आप मानते हैं कि आज भी भारत में सारी व्यवस्था राजनीतिज्ञों के इर्दगिर्द घूमती है और पढ़ालिखा डाक्टर सारांश भी उसी व्यवस्था की भेंट चढ़ जाता है जब उसे एक भारतीय फौजी मेजर बलदेव राज की जान बचाने के लिए अपने कैरियर को जोखिम में डालना पड़ता है और बदले में उसे जिल्लत का सामना करना पड़ता है?’’

डाक्टर सारांश की आंख उस ओर मुड़ गई, उन्हें पहचानने में देर नहीं लगी कि प्रश्न मेजर बलदेव राज का था. ‘‘बात कुछ हद तक  सही भी है मगर मैं सकारात्मक सोच रखता हूं और मुझे यकीन है कि सबकुछ बदल रहा है, हर बदलाव में समय तो लगता ही है. जहां तक मेरा प्रश्न है, मुझे अनगिनत लोगों से प्यार मिला है और उस प्यार के सामने उस जिल्लत की मेरे लिए कई अहमियत नहीं है जो चंद सरकारी लोगों ने मुझे दी. मुझे इस के आगे कुछ नहीं कहना है.’’

समारोह के खत्म होने के बाद डाक्टर सारांश अपने होटल की ओर जा रहे थे. सामने से मेजर बलदेव आते नजर आए, ‘‘आप ने मेरी जान तो बचा ली लेकिन दुश्मन की गोली अपना काम कर चुकी थी. फौज के नियमों के तहत घायल सैनिक को दफ्तर की पोस्ंिटग दी जाती है. भला मुझ जैसा दौड़नेभागने वाला अफसर दफ्तर की चारदीवारी में क्या करेगा, लेकिन चाह कर भी फौज छोड़ न पाया. सेना से तो जीवनमृत्यु का गठबंधन है. कैसे तोड़ पाता यह संबंध. यहां मैं भारतीय दूतावास में हूं. यह दोस्त मुल्क है, इसलिए यहां कुछ ज्यादा करने को नहीं, मगर यहां से दुश्मन मुल्कों को देखना आसान है.’’

‘‘अगर मैं गलत नहीं सोच रहा तो, मुझे यहां तक लाने में आप का ही हाथ है,’’ डाक्टर सारांश ने कहा.

‘‘हां, डाक्टर साहब, मैं आप को फौलो कर रहा था. यहां काउंसिल में मैं ने आप के बारे में जानकारी दी. इन्होंने भारत सरकार की मदद ली और आप को यहां तक ले आए. मैं जानता हूं आप ने कितनी तकलीफ झेली. आप चाहते तो अपने उसूलों से हट सकते थे. मुझे उधमपुर या जम्मू भेजना आप के लिए बहुत आसान था, लेकिन यह भी तय था कि मैं वहां तक नहीं पहुंच पाता. हां, तिरंगे में लपेटा हुआ एक सैनिक जरूर पहुंचता, जिस पर कुछ दिन सियासत होती, फिर भुला दिया जाता. आप के उपकार के एवज में मैं ने जो भी कुछ किया वह कुछ नहीं था.’’

डाक्टर सारांश ने एक ठंडी सांस ली और मेजर को धन्यवाद दिया. इस बीच, मेजर साहब ने डाक्टर सारांश के हाथ में एक लिफाफा पकड़ा दिया.

‘‘यह क्या है?’’ डा. सारांश ने पूछा.

‘‘यहां के सब से बड़े अस्पताल का आप के नाम प्रशस्तिपत्र.’’ डाक्टर सारांश ने लिफाफा अपने ब्रीफकेस में डाल दिया.

‘‘बेहतर होता कि आप इस पर एक नजर डाल लेते,’’ मेजर साहब ने कहा तो डाक्टर सारांश ने लिफाफा खोल कर पत्र पढ़ना शुरू किया. एक ही सांस में पत्र पढ़ कर उन्होंने फिर से उसे अपने ब्रीफकेस में डाल दिया और होटल की ओर चल पड़े.

‘‘आप ने डाक्टर सारांश को हमारा पत्र दे दिया?’’ यह सिंगापुर के अस्पताल के डाइरैक्टर एक भारतीय डाक्टर निकुंज का फोन था.

‘‘हां, दे दिया, उन्होंने इनकार नहीं किया, बल्कि कुछ कहा भी नहीं.’’ ‘‘सबकुछ कहा नहीं जाता मेजर, कुछ चीजें समझी जाती हैं. आप कह रहे थे डाक्टर सारांश पत्र पढ़ कर उसे रद्दी की टोकरी के हवाले कर देंगे, मगर मैं जानता था कि इतना अच्छा औफर कोई पागल ही ठुकरा सकता है.’’ डा. निकुंज ने कहा तो मेजर ने फौरन कहा, ‘‘डाक्टर सारांश पागल ही हैं सर.’’

दूसरे दिन हवाईअड्डे पर डाक्टर सारांश को छोड़ने आए वीआईपी लोगों में सिंगापुर अस्पताल के निदेशक और मेजर बलदेव मौजूद थे.

‘‘मुझे आप का प्रस्ताव मंजूर है,’’ डाक्टर सारांश ने कोट की जेब से एक लिफाफा पकड़ाते हुए कहा, ‘‘इस में कुछ शर्ते हैं जिन के बारे में आप को सोचना है.’’

‘‘हमें आप की सारी शर्तें मंजूर हैं, बस, आप की हां चाहिए. मैं आज ही काउंसिल की मीटिंग में इन पर विचार कर के आप को जवाब भेज दूंगा.’’

मेजर बलदेव को डाक्टर सारांश से शायद कुछ और ही उम्मीद थी. उन के चेहरे पर निराशा के भाव थे. डाक्टर सारांश का हवाई जहाज उड़ चुका था. मेजर बलदेव अनमने से हवाई अड्डे पर ही खड़ेखड़े कौफी की चुस्कियों के साथ कुछ सोच रहे थे, ‘इंसानी जरूरतें, भारत में डाक्टर सारांश के साथ हुई बेइंसाफी, ऐसे में अगर उन्होंने सिंगापुर का औफर स्वीकार कर लिया तो क्या बुरा किया. उन की जगह कोई भी होता तो यही करता जो उन्होंने किया.’

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