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Raksha Bandhan : अल्पना, भाग 2

12वीं कक्षा तक मैं और अल्पना एक ही स्कूल में पढ़ते थे. 12वीं कक्षा पास करने के बाद इंजीनियरिंग करने के लिए मैं मुंबई चला गया. इंजीनियरिंग करतेकरते मेरी अपनी क्लास की मृणाल से दोस्ती हो गई, जो फिर प्यार में बदल गई. शादी करने के बाद मृणाल और मैं दोनों अमेरिका चले गए. उस के बाद अल्पना और उस के परिवार की यादें मेरे लिए धुंधली सी पड़ती गई थीं.

मैं अमेरिका में ही था. तभी अल्पना की शादी हो गई थी. यह खबर मुझे अपनी मां से मिली थी. मां बाबा थे तब तक अल्पना और उस के परिवार की कुछ न कुछ खबर मिलती रहती थी… 7-8 साल पहले मां का और फिर बाबा का देहांत हो जाने के बाद कभी इतने करीबी रहने वाले अल्पना के परिवार से मानों मेरा संबंध ही टूट गया था.

आजकल सचमुच जीवन इतना फास्ट हो गया है कि जो वर्तमान में चल रहा है बस उसी के बारे में हम सोच सकते हैं… बस उसी से जुड़े रहते हैं… कभीकभार भूतकाल इस तरह अल्पना के रूप में सामने आ जाता है तभी हम भूतकाल के बारे में सोचने लगते हैं.

मैं अपने ही विचारों में खोया हुआ था कि तभी अल्पना सामने आ खड़ी हुई तो मैं वर्तमान में लौटा. फिर कार का दरवाजा खोल कर अल्पना को बैठने को कहा.

‘‘क्यों, मन अमेरिका पहुंच गया था क्या?’’ कार में बैठते हुए अल्पना ने कहा, ‘‘अमेरिका से कब आए? अब क्या यहीं रहोगे या वापस जाना है?’’

‘‘वापस जाना है… यहां बस साल भर के लिए एक प्रोजैक्ट पर आया हूं…. यहां पास ही एक किराए पर मकान ले लिया है… आजकल इंडिया में काफी सुविधाएं हो गई हैं.’’

‘‘और मृणाल कैसी है? बच्चे क्या कररहे हैं?’’

‘‘एक ही बेटा है.’’

‘‘क्या पढ़ाई कर रहा है?’’

‘‘इंजीनियरिंग कर रहा है… आखिरी साल है उस का भी.’’

‘‘यानी तुम्हें भी एक ही लड़का है?’’

‘‘हांहां, बिलकुल तुम्हारी ही तरह हम दोनों एक जान और हमारी अकेली जान.’’

हम बातें करतेकरते अल्पना के घर तक पहुंच गए थे. अल्पना के कहने पर मैं उस का फ्लैट देखने ऊपर उस के घर गया.

छोटा सा 2 कमरों का फ्लैट था, लेकिन निहायत खूबसूरती से सजाया गया था. डाइनिंग टेबल के साथ लगी खिड़की के इर्दगिर्द लहराता हुआ मनीप्लांट, घर के द्वार पर रखा मोगरे का गमला. उस छोटे से ड्राइंगरूम में घर की हर चीज घर की गृहिणी की कलात्मक रुचि की गवाही दे रही थी.

घर को निहारते हुए अनायास ही मैं बोल पड़ा, ‘‘वाह, क्या बढि़या सजा रखा है तुम ने घर… नौकरी करते हुए भी कैसे कर लेती हो यह सब…?’’

मेरी बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि तभी अंदर से एक बेहद हैंडसम व्यक्ति लगभग चिल्लाता हुआ बाहर आया और अल्पना पर बरस पड़ा, ‘‘इतनी देर तक कहां मटरगस्ती हो रही थी… मुझे काम पर जाना है… याद भी है? तुम्हारी तरह औफ नहीं है मेरा.’’

अल्पना की बड़ी विचित्र स्थिति हो गई थी. मैं भी हैरान हो कर कभी अल्पना को कभी उस इनसान को देख बड़ी मुश्किल से खुद को संभाले खड़ा था.

‘‘ये मेरे पति हैं शशिकांत और शशि ये हैं अरुण… मैं ने तुम्हें इन के बारे में बताया था न… हमारे पड़ोस में रहते थे,’’ अल्पना ने कुछ झेंपते हुए अपने पति से मेरी मुलाकात करानी चाही थी.

‘‘अच्छा… ठीक है… लेकिन मेरे पास अब जरा भी फुरसत नहीं है और होती भी तो तुम्हारे पुराने यारों से परिचित होने का मुझे कोई शौक नहीं है…’’ कह वह मेरे हाथ मिलाने के लिए बढ़े हाथ को इग्नोर कर अंदर चला गया.

मैं अवाक खड़ा रह गया. फिर बोला, ‘‘ओके अंजू, मैं चलता हूं… मृणाल राह देख रही होगी,’’ और फिर उस की तरफ बिना देखे ही घर से बाहर निकल आया.

गाड़ी में बैठतेबैठते अनायास ही मेरी नजरें ऊपर गईं तो देखा अल्पना अपनी छोटी सी बालकनी में खड़ी हो कर बड़ी असहाय सी नजरों से मुझे देख रही थी. आंखों में आंसू थे, जिन्हें छिपाने का प्रयास कर रही थी. उस की वे असहाय सी नजरें मेरा घर तक पीछा करती रहीं.

घर पहुंचते ही मृणाल को सारी बात बताई तो वह भी अवाक सी रह गई. हमारी शादी के बाद से ही मृणाल अल्पना और उस के पूरे परिवार को जानती थी. अल्पना की मां की दी हुई कांजीवरम की साड़ी आज भी मृणाल ने संभाल कर रखी है. अल्पना की सुंदरता और मिलनसार स्वभाव से तो मृणाल उसे देखते ही प्रभावित हो गई थी और कभीकभी मुझे चिढ़ाते हुए कहती कि ऐसी माधुरी दीक्षित सी सुंदर लड़की पड़ोस में थी फिर भी तुम मेरे पीछे कैसे पड़ गए थे अरुण.

जाने कितनी देर तक हम दोनों अल्पना के बारे में ही बातें करते रहे.

तभी मेरे मोबाइल पर फोन आ गया.

‘‘मैं… मैं अल्पना बोल रही हूं.’’

‘‘बोलो.’’

‘‘तुम्हें सौरी कहने के लिए फोन किया है… तुम पहली बार हमारे घर आए और… और तुम्हारी बिना वजह इनसल्ट हो गई.’’

‘‘अरे, नहींनहीं… मेरी इनसल्ट की छोड़ो… तुम मुझे सचसच बताओ कि तुम दोनों में कोई प्रौब्लम चल रही है क्या?’’

‘‘प्रौब्लम? मेरी कोई प्रौब्लम नहीं. सारी प्रौब्लम्स शशि की ही हैं.’’

‘‘जरा खुल कर बताओ. शायद मैं कुछ मदद कर सकूं?’’

‘‘अब फोन पर नहीं बता सकती… लेकिन इतना जरूर कहूंगी कि शशि का गुस्सैल व शक्की स्वभाव मेरे लिए सहना मुश्किल होता जा रहा है. उस के इस स्वभाव की वजह से ही मैं किसी के घर नहीं जाती और न किसी को अपने घर बुलाती… कल अचानक तुम मिल गए… मुझे पहुंचाने घर तक आ गए… न जाने कैसे मैं ने तुम्हें ऊपर अपने घर में बुला लिया…’’

‘‘तुम ने ये सारी बातें मां बाबा को बताई हैं कि नहीं?’’

‘‘शुरूशुरू में कोशिश की थी बताने की उसी का परिणाम आज तक भुगत रही हूं.’’

‘‘मतलब?’’

‘‘तुम्हें तो पता ही है मेरे बाबा भी कितने गुस्सैल थे… उन्हें जब यह सब पता चला तो उन्होंने शशि को गुस्से में बहुत कुछ बोल दिया था… जो नहीं बोलना चाहिए था वह भी बोल गए थे…

धुंध, भाग 2

एक ही शहर में रहते हुए उन दोनों बहनों के बीच इतना बड़ा फासला यों ही नहीं आ खड़ा हुआ था. उन दो बहनों के बीच की दूरी ऐसे ही नहीं बढ़ गई थी, इस के पीछे का कारण साधना का अभिमानी स्वभाव था और साधना का यह अभिमानी स्वभाव एक दिन सारी हदें पार कर देगा. सानविका ने यह कभी सोचा भी नहीं था.

साधना को अपने रूपरंग का इतना अधिक घमंड था कि उस के आगे उस ने सानविका को कभी कुछ समझा ही नहीं.

सानविका और साधना दोनों जुड़वां बहनें हैं, दोनों के जन्म में तो वैसे सिर्फ कुछ मिनटों का अंतर है और यह अंतर भी कुछ ज्यादा बड़ा नहीं सिर्फ पंद्रह मिनट का, और इसी चंद मिनटों के अंतर ने साधना को सानविका की बड़ी बहन का खिताब दिला दिया और साथ ही रंगरूप में सानविका से श्रेष्ठ भी बना दिया. और फिर रंगरूप के इसी एक अंतर ने साधना को दादी और उस के पापा की चहेती भी बना दिया.

साधना दादी और पापा दोनों की लाड़ली बन बैठी. वे सभी साधना को हाथोंहाथ लिए रहते और मासूम सानविका का बालमन कभी यह भेद समझ ही नहीं पाता कि आखिर क्यों उसे दीदी जितना प्यार नहीं मिलता…? क्यों जिस गलती पर साधना दीदी से कोई कुछ भी नहीं कहता, उसी गलती पर उसे सजा दे दी जाती है? और फिर ऐसे में सानविका के लिए उसकी मां का आंचल ही एक अकेला सहारा होता, जिस में छिप कर सिसकते हुए अपने बालमस्तिष्क पर जोर दे कर इस रहस्य को सुलझाने की वह नाकाम सी कोशिश करती रहती.

सानविका वह हर कोशिश करती, जिस से दादी या फिर उस के पापा उसे साधना दीदी की तरह प्यार करे, परंतु फिर भी वह उन सभी का प्यार पाने में असफल रहती, जबकि उस की साधना दीदी की एक मुसकान पर दादी उसे अपने गोद में उठा लेती और फिर उस के गोलमटोल गालों पर चुंबन की झड़ी लगा देती और ऐसे समय सानविका दूर खड़ी रह कर इस उम्मीद से उन्हें देखती रहती कि शायद अब दादी उसे भी गोद में बिठा कर उस पर वैसे ही प्यार बरसाएं, लेकिन यह सब उस के हिस्से कभी नहीं आता और उस के पास रह जाता सिर्फ एक उम्मीद और कुछ नहीं, और तब सानविका घंटों आईने के सामने खड़ी रह कर साधना की तरह मुसकराने की प्रैक्टिस करती रहती, लेकिन बदले में दनदनाता हुआ एक जोरदार थप्पड़ उस के गाल पर जड़ दिया जाता. यह कहते हुए कि ”जब देखो आईने के सामने खड़ी हो कर ऊलजलूल हरकतें करती रहती है.” उस के पसंदनापसंद की भी किसी को परवाह नहीं थी, उस की दादी अकसर हाथ नचाते हुए कहा करती, ”चाहे कोई भी रंग के कपड़े पहनाओ इसे, दिखेगी तो काली ही…, अच्छे कपड़े पहन कर कौन सी इस की खूबसूरती में चारचांद लगने वाले हैं,” अपनी दादी के इस जटिल कथन का तात्पर्य वह समझ नहीं पाती और तब दादी के चेहरे को बस चुपचाप देखती रह जाती, पर यह पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पाती, “आखिर उस में और दीदी में ऐसा कौन सा अंतर है, जिस के कारण सब दीदी को ही प्यार करते हैं?”

लेकिन कुदरत ने उसे भले ही रंगरूप साधना से बेहतर नहीं दिए थे, परंतु उस की बुद्धि से साधना का कहीं कोई मुकाबला नहीं था. पढ़ाई में साधना से वह दस कदम आगे ही रहती और यही एक बात साधना के मन में उस के प्रति ईर्ष्या का कारण बन गई.

नजमा : भाग 2

दूसरे दिन तय समय पर वह आई. बाकी बातें तय कर के किसी तरह उसे 2,500 रुपए में मना लिया. काम ठीकठाक ही किया उस ने. मैं ने उस से थोड़ा जल्दी आने को भी कहा. लेकिन उस ने मना कर दिया, क्योंकि पहले से ही वह 2-3 घरों में काम करती थी. दिमाग थोड़ा निश्चिंत हुआ, लेकिन दूसरे दिन 2 घंटे ज्यादा इंतजार करने के बाद भी वह नहीं आई. मैं ने उसे बहुत फोन लगाया, लेकिन उस ने फोन उठाया ही नहीं. मैं समझ गई, अब वह काम नहीं करेगी. दोषी मैं ने खुद को ही करार दिया.

कामवाली को ढूंढ़तेढूंढ़ते 2 दिन हो गए थे. मैं ने एक बार सिक्योरिटी वाले से भी बात कर ली. उस ने मुझे कामवाली ढूंढ़ने की तसल्ली दे दी.

इधर शाम को बच्चों को पार्क में ले जाने के कारण 1-2 मम्मियों से परिचय भी हो गया था, तो मैं ने उन से कामवाली के बारे में बात छेड़ी. रिया की मम्मी ने मुझे नजमा के बारे में बताया और साथ में यह भी कहा कि देख लीजिए मुसलिम है, अगर आप को कोई समस्या नहीं है, तो काम करवा सकती है.

मैं ने कहा “ हिंदू हो या मुसलिम क्या फर्क पड़ता है? है तो इनसान ही. मुझे तो काम से मतलब है.”

उन्होंने मुझे उस का नंबर दिया. मैं ने सोचा कि कल बात कर लूंगी. अब अंधेरा घिर आया था. मैं वापस बच्चों के साथ घर आ गई.

दूसरे दिन सुबह उठी और काम में लग गई. रोज की तरह बच्चों के स्कूल और पति के औफिस जाने के बाद मैं चाय की प्याली ले कर बालकनी में बैठ गई. अपार्टमैंट के बगल की जमीन खाली थी और वहां लंबेलंबे यूकेलिप्टस के पेड़ लगे थे, जिस के कारण वहां पक्षी चहचहाते रहते थे.

तभी दरवाजे की घंटी बजी. दरवाजा खोला तो सामने खड़ी औरत बोल पड़ी, “मैं नजमा, रिया बेबी की मम्मी ने मुझे आप से मिलने को कहा.“

“हां, काम के लिए मैं ने उन से बात की थी.“

“कितने घर काम करती हो?” फिर मेरे सवालजवाब का सिलसिला चल पड़ा.

झाड़ूपोंछा, डस्टिंग, टायलेट, का 3,000 रुपया तय किया. थ्री रूम वाले फ्लैट का यही रेट चल रहा था यहां. कल से काम पर आने को कह वह चली गई.

दूसरे दिन से वह काम पर आने लगी.  कुछ महीने काम करने के बाद अचानक एक दिन 10 दिन की छुट्टी मांगी. मैं ने कारण पूछा तो बोली “दीदी, बेटी का निकाह है.”

मैं उस की बात सुन कर आश्चर्यचकित हो गई. उस को देखने से कभी लगा नहीं कि उस की बेटी शादी के लायक होगी, क्योंकि उस की उम्र 35 के आसपास ही थी. इस से पहले कभी मैं ने उस के बारे या उस के परिवार के बारे में नहीं पूछा था, न जानना चाहा था, लेकिन उस की बात सुन कर मैं पूछ पड़ी, “कितने बच्चे हैं तुम्हारे?”

“एक लड़की और एक लड़का है दीदी,“ उस ने कहा.

“दोनों बच्चे कितने साल के हैं? क्योंकि तुम इतनी कम उम्र की हो.”

“दीदी, मेरी बेटी 18 साल की और बेटा 10 साल का है. वह दीदी, मेरी शादी बहुत कम उम्र में हो गई थी और बच्चे भी,” उस ने कहा.

मैं ने उसे छुट्टी दे दी और कल जाने से पहले उसे मिलने के लिए बुलाया. शाम को बाजार गई और उस की बेटी के लिए 2 अच्छी सी कढ़ाई वाली साड़ी ले आई. हांलांकि उस ने मुझ से कोई मदद नहीं मांगी थी.

दूसरे दिन जब वह आई, तो मैं ने उसे दोनों साड़ी और 3,000 रुपए दे कर बोला, “ये मेरी तरफ से बेटी को दे देना.”

वह साड़ी और पैसे ले कर बहुत खुश हुई और मुझे भी परिवार सहित शादी में आने का न्योता दिया.

बेटी की शादी के बाद वापस लौटी तो बहुत खुश थी. मुझे बेटी और दामाद की तसवीरें दिखाईं. लड़का, लड़की से उम्र में काफी बड़ा था. लड़की मुश्किल से 13-14 साल की लग रही थी.

मैं ने पूछा, “दामाद की उम्र तो काफी ज्यादा लग रही है…?”

“दीदी, उम्र थोड़ी ज्यादा है, लेकिन खातेपीते घर का है और कारपेंटर का काम भी करता है. लड़की सुखी रहेगी,” वह बोली.

मैं ने भी सोचा, इन लोगों को रोटी, कपड़ा और मकान के सिवा और क्या चाहिए होगा. मैं ने उस से कहा, “सही किया, बेटी सुखी रहेगी.”

“हां दीदी, लड़की को घर पर रखना बहुत बड़ी जिम्मेदारी है. मेरा मर्द आटोरिकशा चलाता है, लेकिन उस को पीने की आदत है. सारे पैसै दारू में ही उड़ा देता है. मैं ने जैसेतैसे पैसे जोड़ कर बेटी की शादी का बंदोबस्त किया,“ इतना कह कर वह काम करने लगी.

काम खत्म करने के बाद वह जाने लगी, तो मैं ने उस से कहा कि कल गणेश पूजा है, तो थोड़ा जल्दी आ जाए.

दूसरे दिन सुबह आई और काम करने लगी.  मैं भी निश्चिंत हो कर पूजा की तैयारी में जुट गई, तभी उस की जोरजोर से चिल्लाने की आवाज आने लगी. मैं पूजाघर से लगभग दौड़ कर रसोईघर में आई.

मुझे देखते ही नजमा सकपका गई और फोन रख दिया. मैं ने पूछा, “क्या हुआ?”

“दीदी, बेटा होस्टल से भाग कर मेरे भाई के घर पहुंच गया है.“

“होस्टल से…?” मैं ने आश्चर्य से कहा.

“हां दीदी, मैं ने उस को होस्टल में पढ़ने के लिए रखा है, क्योंकि यहां वह पढ़ाई नहीं करता था और महल्ले के आवारा लड़कों के साथ घूमता था, लेकिन वहां से भी भाग आता है,” दुखी हो कर वह बोली.

उफ, कितना सहती हैं ऐसी औरतें, जिन्हें अपने दम पर घरपरिवार चलाना पड़ता है और जिन बच्चों की जिंदगी बनाने के लिए खुद की हड्डियां गलाती हैं. वही बच्चे उन का दुख नहीं समझते. एक मन तो किया कि फोन कर के उस के बेटे को मैं भी खूब सुनाऊं, लेकिन जो अपनी मां की भावनाओं की कद्र नहीं करता, वह मेरी क्या सुनेगा.

जाते हुए फिर से 3 दिन की छुट्टी ले कर गई. बच्चे को होस्टल पहुंचा कर आ जाएगी. अपनी जगह वह अपनी एक सहेली को काम पर रख कर गई.

शाम को पार्क में रिया की मम्मी मिली, तो उन्होंने पूछा, “नजमा काम कर रही है न?“

“काम तो कर रही है, लेकिन छुट्टियां बहुत लेती है, उस के जीवन में बड़ा संघर्ष है,” मैं ने कहा.

“हां, बेचारी किस्मत की मारी है. बचपन में ही उस की मां मर गई. चाची ने 12 साल की उम्र में ही उसे अधेड़ उम्र के शराबी के पल्ले बांध दिया. उस का पति उसे शराब के नशे में बहुत मारता था. इस कारण बेचारी के 2 मिसकैरेज हुए. बहुत कष्ट झेला है उस ने और अभी भी झेल रही है. बहुत दया आती है उस पर, लेकिन हम क्या कर सकते हैं?” रिया की मम्मी लंबी आह भरते हुए बोली.

साथी साथ निभाना : भाग 2

अपनी आदत के अनुरूप नेहा कुछ कहनेसुनने के बजाय रोने लगी. नीरजा उसे चुप कराने लगीं. राजेंद्रजी सिर झुका कर खामोश बैठ गए. संजीव को वहां अपना हमदर्द या शुभचिंतक कोई नहीं लगा.

कुछ देर बाद नेहा अपनी मां के साथ अंदर वाले कमरे में चली गई. संजीव के साथ राजेंद्रजी की ज्यादा बातें नहीं हो सकीं.

‘‘तुम मेरे प्रस्ताव पर ठंडे दिमाग से सोचविचार करना, संजीव. अभी नेहा की बिगड़ी हालत तुम से छिपी नहीं है. उसे यहां कुछ दिन और रहने दो,’’ राजेंद्रजी की इस पेशकश को सुन संजीव अपने घर अकेला ही लौट गया.

नेहा को वापस न लाने के कारण संजीव को अपने मातापिता से भी जलीकटी बातें सुनने को मिलीं.

गुस्से से भरे संजीव के पिता ने अपने समधी से फोन पर बात की. वे उन्हें खरीखोटी सुनाने से नहीं चूके.

‘‘भाईसाहब, हम पर गुस्सा होने के बजाय अपने घर का माहौल सुधारिए,’’ राजेंद्रजी ने तीखे स्वर में प्रतिक्रिया व्यक्त की, ‘‘नेहा को आदत नहीं है गलत माहौल में रहने की. हम ने कभी सोचा भी न था कि वह ससुराल में इतनी ज्यादा डरीसहमी और दुखी रहेगी.’’

‘‘राजेंद्रजी, समस्याएं हर घर में आतीजाती रहती हैं. मेरी समझ से आप नेहा को हमारे इस कठिनाई के समय में अपने घर पर रख कर भारी भूल कर रहे हैं.’’

‘‘इस वक्त उसे यहां रखना हमारी मजबूरी है, भाईसाहब. जब आप के घर की समस्या सुलझ जाएगी, तो मैं खुद उसे छोड़ जाऊंगा.’’

‘‘देखिए, लड़की के मातापिता उस के ससुराल के मसलों में अपनी टांग अड़ाएं, मैं इसे गलत मानता हूं.’’

‘‘भाईसाहब, बेटी के सुखदुख को नजरअंदाज करना भी उस के मातापिता के लिए संभव नहीं होता.’’

इस बात पर संजीव के पिता ने झटके से फोन काट दिया. उन्हें अपने समधी का व्यवहार मूर्खतापूर्ण और गलत लगा. अपना गुस्सा कम करने को वे कुछ देर के लिए बाहर घूमने चले गए.

सपना ने नींद की गोलियां खा कर आत्महत्या करने की कोशिश की है, यह बात किसी तरह उस के मायके वालों को भी मालूम पड़ गई.

उस के दोनों बड़े भाई राजीव से झगड़ने का मूड बना कर मिलने आए. उन के दबाव के साथसाथ राजीव पर अपने घर वालों का दबाव अलग से पड़ ही रहा था. सभी उस पर सविता से संबंध समाप्त कर लेने के लिए जोर डाल रहे थे.

सविता उस के साथ काम करने वाली शादीशुदा महिला थी. उस का पति सऊदी अरब में नौकरी करता था. अपने पति की अनुपस्थिति में उस ने राजीव को अपने प्रेमजाल में उलझा रखा था.

सब लोगों के दबाव से बचने के लिए राजीव ने झूठ का सहारा लिया. उस ने सविता को अपनी प्रेमिका नहीं, बल्कि सिर्फ अच्छी दोस्त बताया.

‘‘सपना का दिमाग खराब हो गया है. सविता को ले कर इस का शक बेबुनियाद है. मैं किसी भी औरत से हंसबोल लूं तो यह किलस जाती है. इस ने तो आत्महत्या करने का नाटक भर किया है, लेकिन मैं किसी दिन तंग आ कर जरूर रेलगाड़ी के नीचे कट मरूंगा.’’

उन सब के बीच कहासुनी बहुत हुई, मगर समस्या का कोई पुख्ता हल नहीं निकल सका.

संजीव की नाराजगी के चलते नेहा ही उसे रोज फोन करती. बातें करते हुए उसे अपने पति की आवाज में खिंचाव और तनाव साफ महसूस होता.

वह इस कारण वापस ससुराल लौट भी जाती, पर राजेंद्र और नीरजा ने उसे ऐसा करने की इजाजत नहीं दी.

‘‘वहां के संयुक्त परिवार में तुम कभी पनप नहीं पाओगी, नेहा,’’ राजेंद्रजी ने उसे समझाया, ‘‘अपने भैयाभाभी के झगड़ों व तुम्हारे यहां रहने से परेशान हो कर संजीव जरूर अलग रहने का फैसला कर लेगा. तेरे पास पैसा अपनी गृहस्थी अलग बसा लेने के बाद ही जुड़ सकेगा, बेटी.’’

नीरजा ने भी अपनी आपबीती सुना कर नेहा को समझाया कि इस वक्त उस का ससुराल में न लौटना ही उस के भावी हित में है.

एक रात फोन पर बातें करते हुए संजीव ने कुछ उत्तेजित लहजे में नेहा से कहा, ‘‘कल सुबह 11 बजे तुम मुझे नेहरू पार्क के पास मिलो. हम दोनों सविता से मिलने चलेंगे.’’

‘‘हम उस औरत से मिलने जाएंगे, पर क्यों?’’ नेहा चौंकी.

‘‘देखो, राजीव भैया पर उस से अलग होने की बात का मुझे कोई खास असर नहीं दिख रहा है. मेरी समझ से कल रविवार को तुम और मैं सविता की खबर ले कर आते हैं. उसे डराधमका कर, समाज में बेइज्जती का डर दिखा कर, उस के पति को उस की चरित्रहीनता की जानकारी देने का भय दिखा कर हम जरूर उसे भैया से दूर करने में सफल रहेंगे,’’ संजीव की बातों से नेहा का दिल जोर से धड़कने लगा.

‘‘मेरे मुंह से तो वहां एक शब्द भी नहीं निकलेगा. उस स्थिति की कल्पना कर के ही मेरी जान निकली जा रही है,’’ नेहा की आवाज में कंपन था.

‘‘तुम बस मेरे साथ रहना. वहां बोलना कुछ नहीं पड़ेगा तुम्हें.’’

‘‘मुझे सचमुच लड़नाझगड़ना नहीं आता है.’’

‘‘वह सब तुम मुझ पर छोड़ दो. किसी औरत से उलझने के समय पुरुष के साथ एक औरत का होना सही रहता है.’’

‘‘ठीक है, मैं आ जाऊंगी,’’ नेहा का यह जवाब सुन कर संजीव खुश हुआ और पहली बार उस ने अपनी पत्नी से कुछ देर अच्छे मूड में बातें कीं.

बाद में जब नेहा ने अपने मातापिता को सारी बात बताई, तो उन्होंने फौरन उस के इस झंझट में पड़ने का विरोध किया.

‘‘सविता जैसी गिरे चरित्र वाली औरतों से उलझना ठीक नहीं बेटी,’’ नीरजा ने उसे घबराए अंदाज में समझाया, ‘‘उन के संगीसाथी भले लोग नहीं होते. संजीव या तुम पर उस ने कोई झूठा आरोप लगा कर पुलिस बुला ली, तो क्या होगा?’’

‘‘नेहा, तुम्हें संजीव के भैयाभाभी की समस्या में फंसने की जरूरत ही क्या है?

तुम्हारे संस्कार अलग तरह के हैं. देखो, कैसे ठंडे पड़ गए हैं तुम्हारे हाथ… चेहरे का रंग उड़ गया है. तुम कल नहीं जाओगी,’’ राजेंद्रजी ने सख्ती से अपना फैसला नेहा को सुना दिया.

‘‘पापा, संजीव को मेरा न जाना बुरा लगेगा,’’ नेहा रोंआसी हो गई.

‘‘उस से मैं कल सुबह बात कर लूंगा. लेकिन अपनी तबीयत खराब कर के तुम किसी का भला करने की मूर्खता नहीं करोगी.’’

नेहा रात भर तनाव की वजह से सो नहीं पाई. सुबह उसे 2 बार उलटियां भी हो गईं. ब्लडप्रैशर गिर जाने की वजह से चक्कर भी आने लगे. वह इस कदर निढाल हो गई कि 4 कदम चलना उस के लिए मुश्किल हो गया. वह तब चाह कर भी संजीव के साथ सविता से मिलने नहीं जा सकती थी.’’

राजेंद्रजी ने सुबह फोन कर के नेहा की बिगड़ी तबीयत की जानकारी संजीव को दे दी.

रिश्तों का दर्द- भाग 2 : नीलू के मन में मां को लेकर क्या चल रहा था?

हादसा इतना भयानक था कि रोमी की जिंदगी के सारे रंग छीन ले गया और एक कभी न खत्म होने वाला इंतजार दे गया मांबेटी को. बेटा सात समंदर पार ही सही, उस की सलामती तसल्ली देती थी एक मां के दिल को. मगर इस हादसे ने ठकुराइन को जिंदा लाश बना दिया. उस की सारी ताकत मानो बेटे के साथ चली गई. वह अपनी बोलने की शक्ति खो बैठी. बस, बिस्तर पर पड़ीपड़ी आंखों से आंसू बहाती रहती. रणवीर के दोस्तों ने अंतिम संस्कार तो वहीं कर दिया. आज रोमी बाकी के कर्मकांड को संपन्न करने हेतु भारत आई है. विमान हवाई अड्डे के जैसेजैसे करीब आता जा रहा था, रोमी खुद को संभाल नहीं पा रही थी. कैसे जाएगी वह परिवार वालों के सामने. स्वयं को अपराधिनी महसूस कर रही थी वह. कभी सोलह शृंगार कर इसी हवाई अड्डे से अपना नया संसार रचने चली थी,

आज अपना सारा सुहाग उस धरती पर लुटा कर तमाम उदासियों को अपने दामन में समेटे लौट रही है. खैर, विमान अड्डे पर रुका, परिवार वाले बेसब्री से रोमी का इंतजार कर रहे थे. रोमी एक हाथ में नन्ही बेटी को संभाले, दूसरे में रणवीर का अस्थिकलश थामे विमान से बाहर उतरी. जन्मदात्री के आंसू न रुकते थे. कैसे ढाढ़स बंधाए अपनी बेटी को, शब्द और हिम्मत दोनों ही हार रहे थे. पलकों पर बैठाए रखने वाले पापा का बुरा हाल था. कैसे उन की मासूम बच्ची सात समंदर पार अकेली इतने बड़े संकट को ?ोल पाई. धिक्कार है पिता हो कर भी वे दुख की इस घड़ी में बेटी के साथ नहीं थे. हवाई अड्डे से बाहर आते ही रोमी को मांपापा दिखाई दिए. रणवीर के छोटे भाई कुंवर प्रताप ने दौड़ कर उस के हाथ से अस्थिकलश ले लिया तो रोमी के भाई ने नन्ही परी को. रोमी दौड़ कर मांपापा के सीने से लिपट गई.

आखिर इतने दिनों चट्टान बनी रोमी मातापिता के प्यार की आंच पा मोम की तरह पिघलती चली गई. आज अपनों को देख उस के दिल का सारा गुबार आंसू की धारा में बहने लगा. ‘‘मां.’’ ‘‘हाय, मेरी बच्ची. कैसे इतनी दूर, अकेली, इतना बड़ा दुख सहती रही. मेरी फूल सी बच्ची पर जरा भी रहम न किया. अरे, इस नन्ही बच्ची ने क्या बिगाड़ा था किसी का जो होते ही सिर से बाप का साया तक छीन लिया.’’ उजड़ी मांग और जिंदगी के सारे रंग खो चुकी रोमी ससुराल पहुंची तो सासुमां को निष्प्राण देख उस का जी भर आया. ठकुराइन बिस्तर पर पड़ेपड़े कभी बहू की उजड़ी मांग को देखती तो कभी नन्ही पोती को.

बस, बहते आंसू ही उस की व्यथा कह पाते और कर भी क्या सकती थी वह. अपने और परी के प्रति घर वालों का स्नेह देख रोमी को तसल्ली थी कि वह अपनी जमीन पर अपनों के बीच लौट आई. अब भला विदेश जा कर वह क्या करेगी. वहां रणवीर के संग बीते पलों के और क्या रखा है? वे यादें तो उस के जीवन का अटूट हिस्सा हैं वह कहीं भी रहे, उस के साथ रहनी ही हैं. यहां रह कर वह रणवीर के परिवार का हिस्सा बनी रहेगी. बेटी को भी स्नेह की छांव मिलेगी. ठाकुरों की ठकुराई भले ही चली गई हो मगर आज भी रणवीर का परिवार गांव का ठाकुर कहलाता है. बड़े घर के नाम से सभी सम्मान करते हैं उस परिवार का. कम से कम एक सुरक्षा का हाथ तो उस के सिर पर रहेगा, उसे और क्या चाहिए. सोचा वह लिख देगी अपने मित्रों को कि उस की प्रौपर्टी सेल कर दें,

 

जीवन चलने का नाम

‘‘ मम्मी, चाय,’’ सरिता ने विभा को चाय देते हुए ट्रे उन के पास रखी तो उन्होंने पूछा, ‘‘विनय आ गया?’’

‘‘हां, अभी आए हैं, फ्रेश हो रहे हैं. आप को और कुछ चाहिए?’’

‘‘नहीं बेटा, कुछ नहीं चाहिए,’’ विभा ने कहा तो सरिता ड्राइंगरूम में आ कर विनय के साथ बैठ कर चाय पीने लगी.

विनय ने सरिता को बताया, ‘‘परसों अखिला आंटी आ रही हैं, उन का फोन आया था, जा कर मम्मी को बताता हूं, वे खुश हो जाएंगी.’’

सरिता जानती थी कि अखिला आंटी और मम्मी का साथ बहुत पुराना है. दोनों मेरठ में एक ही स्कूल में वर्षों अध्यापिका रही हैं. विभा तो 1 साल पहले रिटायर हो गई थीं, अखिला आंटी के रिटायरमैंट में अभी 2 साल शेष हैं. सरिता अखिला से मेरठ में कई बार मिली है. विभा रिटायरमैंट के बाद बहूबेटे के साथ लखनऊ में ही रहने लगी हैं.

विनय के साथसाथ सरिता भी विभा के कमरे में आ गई. विनय ने मां को बताया, ‘‘मम्मी, अखिला आंटी किसी काम से लखनऊ आ रही हैं, हमारे यहां भी 2-3 दिन रह कर जाएंगी.’’

विभा यह जान कर बहुत खुश हो गईं, बोलीं, ‘‘कई महीनों से मेरठ चक्कर नहीं लगा. चलो, अब अखिला आ रही है तो मिलना हो जाएगा. मेरठ तो समझो अब छूट ही गया.’’

विनय ने कहा, ‘‘क्यों मां, यहां खुश नहीं हो क्या?’’ फिर पत्नी की तरफ देख कर उसे चिढ़ाते हुए बोला, ‘‘तुम्हारी बहू तुम्हारी सेवा ठीक से नहीं कर रही है क्या?’’

विभा ने तुरंत कहा, ‘‘नहींनहीं, मैं तो पूरा दिन आराम रतेकरते थक जाती हूं. सरिता तो मुझे कुछ करने ही नहीं देती.’’

थोड़ी देर इधरउधर की बातें कर के दोनों अपने रूम में आ गए. उन के दोनों बच्चे यश और समृद्धि भी स्कूल से आ चुके थे. सरिता ने उन्हें भी बताया, ‘‘दादी की बैस्ट फ्रैंड आ रही हैं. वे बहुत खुश हैं.’’

अखिला आईं. उन से मिल कर सब  बहुत खुश हुए. सब को उन से हमेशा अपनत्व और स्नेह मिला है. मेरठ में तो घर की एक सदस्या की तरह ही थीं वे. एक ही गली में अखिला और विभा के घर थे. सगी बहनों की तरह प्यार है दोनों में.

चायनाश्ते के दौरान अखिला ही ज्यादा बातें करती रहीं, अपने और अपने परिवार के बारे में बताती रहीं. मेरठ में वे अपने बहूबेटे के साथ रहती हैं. उन के पति रिटायर हो चुके हैं लेकिन किसी औफिस में अकाउंट्स का काम देखते हैं. विभा कम ही बोल रही थीं, अखिला ने उन्हें टोका, ‘‘विभा, तुझे क्या हुआ है? एकदम मुरझा गई है. कहां गई वह चुस्तीफुरती, थकीथकी सी लग रही है. तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’

‘‘मैं बिलकुल ठीक हूं. तुझे ऐसे ही लग रहा है,’’ विभा ने कहा.

‘‘मैं क्या तुझे जानती नहीं?’’ दोनों बातें करने लगीं तो सरिता डिनर की तैयारी में व्यस्त हो गई. वह भी सोचने लगी कि मम्मी जब से लखनऊ आई हैं, बहुत बुझीबुझी सी क्यों रहने लगी हैं. उन के आराम का इतना तो ध्यान रखती हूं मैं. हमेशा मां की तरह प्यार और सम्मान दिया है उन्हें और वे भी मुझे बहुत प्यार करती हैं. हमारा रिश्ता बहुत मधुर है. देखने वालों को तो अंदाजा ही नहीं होता कि हम मांबेटी हैं या सासबहू. फिर मम्मी इतनी बोझिल सी क्यों रहती हैं? यही सब सोचतेसोचते वह डिनर तैयार करती रही.

डिनर के बाद अखिला ने विभा से कहा, ‘‘चल, थोड़ा टहल लेते हैं.’’

‘‘टहलने का मन नहीं. चल, मेरे रूम में, वहीं बैठ कर बातें करेंगे,’’ विभा ने कहा.

‘‘विभा, तुझे क्या हो गया है? तुझे तो आदत थी न खाना खा कर इधरउधर टहलने की.’’

‘‘आंटी, अब तो मम्मी ने घूमनाटहलना सब छोड़ दिया है. बस, डिनर के बाद टीवी देखती हैं,’’ सरिता ने अखिला को बताया तो विभा मुसकरा भर दीं.

‘‘मैं यह क्या सुन रही हूं विभा?’’

‘‘अखिला, मेरा मन नहीं करता?’’

‘‘भई, मैं तुम्हारे साथ रूम में घुस कर बैठने नहीं आई हूं, चुपचाप टहलने चल और कल मुझे लखनऊ घुमा देना. थोड़ी शौपिंग करनी है, बहू ने चिकन के सूट मंगाए हैं.’’

सरिता ने कहा, ‘‘आप मेरे साथ चलना आंटी. मम्मी के पैरों में दर्द रहता है. वे आराम कर लेंगी.’’

अगले दिन अखिला विभा को जबरदस्ती ले कर बाजार गई. दोनों लौटीं तो खूब खुश थीं. विभा भी सरिता के लिए एक सूट ले कर आई थीं.

डिनर के बाद भी अखिला विभा को घर के पास बने गार्डन में टहलने ले गई. विभा बहुत फ्रैश थीं. सरिता को अच्छा लगा, विभा का बहुत अच्छा समय बीता था.

विभा को ले कर अखिला बहुत चिंतित  थीं. वे चाहती थीं कि विभा पहले की तरह ही चुस्तदुरुस्त हो जाए. पर यह इतना आसान न था. जिस दिन अखिला को वापस जाना था वे सरिता से बोलीं, ‘‘बेटा, कुछ जरूरी बातें करनी हैं तुम से.’’

‘‘कहिए न, आंटी.’’

‘‘मेरे साथ गार्डन में चलो, वहां अकेले में बैठ कर बातें करेंगे.’’

दोनों घर के सामने बने गार्डन में जा कर एक बैंच पर बैठ गईं.

‘‘सरिता, विभा बहुत बदल गई है. उस का यह बदलाव मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा है.’’

‘‘हां आंटी, मम्मी बहुत डल हो गई हैं यहां आ कर जबकि मैं उन का बहुत ध्यान रखती हूं, उन्हें कोई काम नहीं करने देती, कोई जिम्मेदारी नहीं है उन पर, फिर भी पता नहीं क्यों दिन पर दिन शिथिल सी होती जा रही हैं.’’

‘‘यही तो गलती कर दी तुम ने बेटा, तुम ने उसे सारे कामों से छुट्टी दे कर उस के जीवन के  उद्देश्य और उपयोगिता को ही खत्म कर दिया. अब वह अपनेआप को अनुपयोगी मान कर अनमनी सी हो गई है. उसे लगता है कि उस का जीवन उद्देश्यहीन है. मुझे पता है तुम तो उस के आराम के लिए ही सोचती हो लेकिन हर इंसान की जरूरतें, इच्छाएं अलग होती हैं. किसी को जीवन की भागदौड़ के बाद आराम करना अच्छा लगता है तो किसी को कुछ काम करते रहना अच्छा लगता है. विभा तो हमेशा से ही बहुत कर्मठ रही है. मेरठ से रिटायर होने के बाद भी वह हमेशा किसी न किसी काम में व्यस्त रहती थी. वह जिम्मेदारियां निभाना पसंद करती है. ज्यादा टीवी देखते रहना तो उसे कभी पसंद नहीं था. कहती थी, सारा दिन टीवी वही बड़ेबुजुर्ग देख सकते हैं जिन्हें कोई काम नहीं होता. मेरे पास तो बहुत काम हैं और मैं तो अभी पूरी तरह से स्वस्थ हूं.

‘‘जीवन से भरपूर, अपनेआप को किसी न किसी काम में व्यस्त रखने वाली अब अपने कमरे में चुपचाप टीवी देखती रहती है.

‘‘विनय जब 10 साल का था, उस के पिताजी की मृत्यु हो गई थी. विभा ने हमेशा घरबाहर की हर जिम्मेदारी संभाली है. वह अभी तक स्वस्थ रही है. मुझे तो लगता है किसी न किसी काम में व्यस्त रहने की आदत ने उसे हमेशा स्वस्थ रखा है. तुम धीरेधीरे उस पर फिर से थोड़ेबहुत काम की जिम्मेदारी डालो जिस से उसे लगे कि तुम्हें उस के साथ की, उस की मदद की जरूरत है.

सरिता, इंसान तन से नहीं, मन से बूढ़ा होता है. जब तक उस के मन में काम करने की उमंग है उसे कुछ न कुछ करते रहने दो. तुम ने ‘आप आराम कीजिए, मैं कर लूंगी’ कह कर उसे एक कमरे में बिठा दिया है. जबकि विभा के अनुसार तो जीवन लगातार चलते रहने का नाम है. उसे अब अपना जीवन ठहरा हुआ, गतिहीन लगता है. तुम ने मेरठ में उस की दिनचर्या देखी थी न, हर समय कुछ न कुछ काम, इधर से उधर जाना, टहलना, घूमना, कितनी चुस्ती थी उस में, मैं ठीक कह रही हूं न बेटा?’’

‘‘हां आंटी, आप बिलकुल ठीक कह रही हैं, मैं आप की बात समझ गई हूं. अब आप देखना, अगली बार मिलने पर मम्मी आप को कितनी चुस्तदुरुस्त दिखेंगी.’’

अखिला मेरठ वापस चली गईं. सरिता विभा के कमरे में जा कर उन्हीं के बैड पर लेट गई. विभा टीवी देख रही थीं. वे चौंक गईं, ‘‘क्या हुआ, बेटा?’’

‘‘मम्मी, बहुत थक गई हूं, कमर में भी दर्द है.’’

‘‘दबा दूं, बेटा?’’

‘‘नहीं मम्मी, अभी तो बाजार से घर का कुछ जरूरी सामान भी लाना है.’’

विभा ने पलभर सरिता को देख कर कुछ सोचा, फिर कहा, ‘‘मैं ला दूं?’’

‘‘आप को कोई परेशानी तो नहीं होगी?’’ सरिता धीमे से बोली.

‘‘अरे नहीं, परेशानी किस बात की, तुम लिस्ट बना दो, मैं अभी कपड़े बदल कर बाजार से सारा सामान ले आती हूं,’’ कह कर विभा ने फटाफट टीवी बंद किया, अपने कपड़े बदले, सरिता से लिस्ट ली और पर्स संभाल कर उत्साह और जोश के साथ बाहर निकल गईं.

विनय आया तो सरिता ने उसे अखिला आंटी से हुई बातचीत के बारे में बताया. उसे भी अखिला आंटी की बात समझ में आ गई. उस ने भी अपनी मम्मी को हमेशा चुस्तदुरुस्त देखा था, वह भी उन के जीवन में आई नीरसता को ले कर चिंतित था.

एक घंटे बाद विभा लौटीं, उन के चेहरे पर ताजगी थी, थकान का कहीं नामोनिशान नहीं था. मुसकराते हुए बोलीं, ‘‘आज बहुत दिनों बाद खरीदा है, देख लो, कहीं कुछ रह तो नहीं गया.’’

सरिता सामान संभालने लगी तो विभा ने पूछा, ‘‘तुम्हारा दर्द कैसा है?’’

‘‘थोड़ा ठीक है.’’

इतने में विनय ने कहा, ‘‘सरिता, आज खाने में क्या बनाओगी?’’

‘‘अभी सोचा नहीं?’’

विनय ने कहा, ‘‘मम्मी, आज आप अपने हाथ की रसेदार आलू की सब्जी खिलाओ न, बहुत दिन हो गए.’’

विभा चहक उठीं, ‘‘अरे, अभी बनाती हूं, पहले क्यों नहीं कहा?’’

‘‘मम्मी, आप अभी बाजार से आई हैं, पहले थोड़ा आराम कर लीजिए, फिर बना दीजिएगा,’’ सरिता ने कहा तो विभा ने किचन की तरफ जाते हुए कहा, ‘‘अरे, आराम कैसा, मैं ने किया ही क्या है?’’

विनय ने सरिता की तरफ देखा. विभा को पहले की तरह उत्साह से भरे देख कर दोनों का मन हलका हो गया था. वे हैरान भी थे और खुश भी कि सुस्त रहने वाली मां कितने उत्साह से किचन की तरफ जा रही थीं. सरिता सोच रही थी कि आंटी ने ठीक कहा था जब तक मम्मी स्वयं को थका हुआ महसूस न करें तब तक उन्हें बेकार ही इस बात का एहसास करा कर कुछ काम करने से नहीं रोकना चाहिए था, जबरदस्ती आराम नहीं करवाना चाहिए था. अच्छा तो यही है कि मम्मी अपनी रुचि का काम कर के अपनेआप को व्यस्त और खुश रखें और जीवन को उत्साह से जिएं. उन का व्यक्तित्व हमारे लिए आज भी महत्त्वपूर्ण व उपयोगी है यह एहसास उन्हें करवाना ही है.

सरिता ने अपने विचारों में खोए हुए किचन में जा कर देखा, पिछले 6 महीने से कभी कमर, कभी पैर दर्द बताने वाली मां के हाथ बड़ी तेजी से चल रहे थे.  वह चुपचाप किचन से मुसकराती हुई बाहर आ गई.

बिगड़ी बात बनानी है

रातभर नंदना की आंखों में नींद नहीं थी. उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि उस के साथ क्या हो रहा है. पूरा शरीर टूट रहा था. सुबह उठी तो ऐसे लगा चक्कर खा कर गिर जाएगी. गिरने से बचने के लिए बैड पर बैठ गई. नंदना चुपचाप अपने बैड पर बैठी थी कि तभी उसे अपनी भाभी तनुजा की आवाज सुनाई दी,’’ क्या बात है नंदू आज तुम्हें औफिस नहीं जाना है क्या?

नंदना ने किसी तरह भाभी को जवाब दिया कि हां भाभी जाना है… अभी तैयार हो रही हूं.नंदना की आवाज की सुस्ती को महसूस कर तनुजा अपना काम छोड़ कर उस के कमरे में चली आई. पूछा, ‘‘क्या बात है नंदू तुम्हारी तबीयत तो ठीक है?

‘‘हां, भाभी,’’ नंदू ने जवाब दिया.‘‘देखकर तो नहीं लगता,’’ तनुजा उस का माथा छूते हुए बोली, ‘‘अरे तुम्हें तो बहुत तेज बुखार है.’’‘‘हां भाभी,’’ कहते हुए नंदना बाथरूम की तरफ भागी, उसे बहुत तेज उबकाई आई. तनुजा भी उस के पीछेपीछे गई. नंदना उलटी कर रही थी.

तनुजा चिंतित हो गई कि पता नहीं क्या हो गया नंदू को. इस के भैया भी शहर से बाहर गए हुए हैं. समझ नहीं आ रहा क्या करे. तनुजा नंदना को सहारा दे कर बिस्तर तक ले आई और फिर बिस्तर पर लेटाते हुए सख्त आवाज में बोली, ‘‘कोई जरूरत नहीं है तुम्हें औफिस जाने की… तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है.’’

नंदना बिना कोई जवाब दिए चुपचाप लेट गई.तनुजा नंदना के लिए चाय लेने किचन में चली गई. जब वह चाय ले कर आई, तो देखा कि नंदना की आंखों से आंसू टपक रहे हैं.तनुजा उस के आंसू पोंछते हुए बोली, ‘‘रो क्यों रही है पगली. ठीक हो जाएगी.’’

‘‘आप मेरा कितना ध्यान रखती हो भाभी. आप ने कभी मुझे मां की कमी महसूस नहीं होने दी. हमेशा अपने स्नेह तले रखा. मेरी हर गलती को माफ किया… पता नहीं भाभी मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा है.’’‘‘क्या हो गया है तुझे? चायनाश्ता कर ले, फिर डाक्टर के पास ले चलती हूं.’’

तनुजा के कहने पर नंदना डाक्टर के पास चलने को तैयार हो गई. तनुजा की सहेली माधवी बहुत अच्छी डाक्टर हैं. वह नंदना को उसी के पास ले गई.माधवी ने नंदना का चैकअप करने के बाद तनुजा को अपने कैबिन में बुलाया और बोली, ‘‘तनुजा, नंदना की शादी हो गई है क्या?’’‘‘नहीं माधवी, अभी तो नहीं हुई. हां, उस के रिश्ते की बात जरूर चल रही है. पर तू ये सब क्यों पूछ रही है? कुछ सीरियस है क्या?’’

‘‘हां तनुजा, बात तो सीरियस ही है. नंदना प्रैगनैंट है… लगभग 4 महीने हो चुके हैं.’’माधवी की बात सुनते ही तनुजा के पैरों तले से जमीन ही निकल गई. वह मन ही मन बुदबुदाने लगी कि नंदना तूने यह क्या किया, 4 महीने हो गए और मुझे बताया तक नहीं.और फिर तनुजा नंदना को ले कर घर आ गई. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि उस से इस बारे में कैसे पूछे.

तनुजा ने नंदना को दवा और खाना दे कर सुला दिया. फिर सोचा शाम तक इस की तबीयत ठीक हो जाएगी तब इस से तसल्ली से पूछेगी कि ये सब कैसे हुआ.शाम को 5 बजे चाय ले कर तनुजा नंदना के कमरे में पहुंची तो देखा वह रो रही है.नंदना के सिरहाने बैठते हुए तनुजा बोली, ‘‘नंदू उठो चाय पी लो. फिर मुझे तुम से कुछ जरूरी बातें करनी हैं.’’

‘‘जी भाभी, मुझे भी आप से एक बात करनी है,’’ कह कर नंदना चाय पीने लगी.चाय पीने के बाद दोनों एकदूसरे का मुंह देखने लगीं कि बात की शुरुआत कौन पहले करे.आखिर मौन को तोड़ते हुए तनुजा बोली, ‘‘नंदना तुम्हें पता है कि तुम प्रैगनैंट हो?’’‘‘नहीं भाभी, पर मुझे कुछ अजीब सा महसूस हो रहा है.’’

नंदना की बात पर तनुजा को गुस्सा आ गया, तुम 30 साल की होने वाली हो नंदना और तुम्हें यह पता नहीं कि तुम प्रैगनैंट हो… 4 महीने हो चुके हैं.. कैसे इतनी बड़ी बात तुम ने मुझ से बताने की जरूरत नहीं समझी? तुम्हारे भैया को और पापाजी को क्या जवाब दूंगी मैं? दोनों ने तुम्हारी जिम्मेदारी मुझ पर छोड़ी है और तुम ने ऐसा कर दिया कि मैं उन्हें मुंह दिखाने लायक नहीं रही.’’

नंदना रोते हुए बोली, ‘‘आप को तो पता है न भाभी मेरे पीरियड्स अनियमित हैं… मुझे नहीं पता चला कि  ये सब कैसे हो गया.’’तनुजा अपने गुस्से पर काबू रखते हुए बोली, ‘‘कौन है वह जिसे तुम प्यार करती हो? किस के साथ रह कर तुम ने अपनी मर्यादा की सारी हदें लांघ दीं? अगर तुम्हें कोई पसंद था तो मुझे बताती न, मैं बात करती तुम्हारी शादी की.’’

‘‘भाभी, मैं और भैया के बौस वीरेंद्र,’’ इतना कह कर नंदना रोने लगी.‘‘सत्यानाश नंदना… वीरेंद्र तो शादीशुदा है और उस के बच्चे भी हैं… वह तुम से शादी करेगा?’’‘‘पता नहीं भाभी,’’ वंदना धीरे से बोली.‘‘जब भैया ने मुझे उन से पार्टी में मिलाया था, तो मुझे नहीं पता था कि वह शादीशुदा हैं. उन्होंने तो मुझे अभी भी नहीं बताया.. यह आप बता रही हैं.’’

नंदना की बात सुन कर तनुजा गुस्से से पगला सी गई. फिर नंदना के कंधे झंझोड़ते हुए बोली, ‘‘अब मैं क्या करूं नंदना, तुम्हीं बताओ? मुझे तो समझ में नहीं आ रहा है. 4 दिनों में पापाजी औैर तुम्हारे भैया आ जाएंगे… कैसे उन का सामना करोगी तुम?’’‘‘मुझे बचा लो भाभी.. भैया और पापा को पता चल गया तो मैं कहीं की नहीं रहूंगी… भैया तो मार ही डालेंगे मुझे.’’

‘‘कुछ सोचने दो मुझे,’’ कह कर तनुजा अपने कमरे में चली गई. सारी रात सोचते रहने के बाद उस ने यही तय किया कि उसे रजत को बताना ही होगा कि नंदना प्रैगनैंट है, भले ही गुस्सा होंगे, लेकिन कोई हल तो निकलेगा.’’सुबह ही तनुजा ने पति रजत को फोन कर के सारी बात बता दी. सब कुछ सुनने के बाद रजत सन्न रह गया. फिर बोला, ‘‘मैं दोपहर की फ्लाइट से घर आ रहा हूं. तब तक तुम अपनी सहेली माधवी से बात कर लो. अगर अबौर्शन हो जाए तो अच्छा है… बाकी बातें बाद में देखेंगे. मुझे नहीं पता था कि वीरेंद्र मुझे इतना बड़ा धोखा देगा,’’ कह कर रजत ने फोन रख दिया.

घर का काम निबटाने के बाद तनुजा नंदना के कमरे में गई. वह घुटनों पर मुंह रखे रो रही थी.तनुजा उस के कंधे पर हाथ रखते हुए बोली, ‘‘अब रोने से कुछ नहीं होगा. नंदू चलो हम डाक्टर के पास चलते हैं, और दोनों तैयार हो कर माधवी के पास पहुंचीं.तनुजा माधवी से बोली, ‘‘अबौर्शन कराना है नंदना का.’’‘‘ठीक है, चैकअप करती हूं कि हो सकता है या नहीं.’’

नंदना का चैकअप करने के बाद माधवी बोली, ‘‘आईर्एम सौरी तनु यह अबौर्शन नहीं हो पाएगा. इस से नंदना की जिंदगी को खतरा हो सकता है. साढ़े 4 महीने हो चुके हैं.’’माधवी की बात सुन कर तनुजा परेशान हो उठी. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या करे. थोड़े दिनों में तो सब को पता चल जाएगा नंदना के बारे में. फिर क्या होगा इस की जिंदगी का? कौन करेगा इस से शादी? अपनी नासमझी में नंदू ने इतनी बड़ी गलती कर दी है कि जिस की कीमत उसे जिंदगी भर चुकानी पड़ेगी. नंदू की हालत के बारे में सोच कर तनुजा की आंखों में आंसू आ गए.

‘‘क्या करूं… कैसे संवारूं मैं नंदू की जिंदगी को,’’ तनुजा अपना सिर हाथों में दबाए सोच ही रही थी कि तभी रजत की आवाज सुनाई दी, ‘‘क्या हुआ तनु? सब ठीक है न?रजत को देखते ही तनुजा उस से लिपट गई, ‘‘कुछ भी ठीक नहीं है रजत, इस बेवकूफ लड़की ने अपनी जिंदगी बरबाद कर ली… माधवी कह रही है अगर अबौर्र्शन हुआ, तो उस की जान चली जाएगी.’’

रजत झल्लाते हुए बोला, ‘‘चली जाए जान इस की… क्या मुंह दिखाएंगे हम लोगों को?‘‘कैसी बातें कर रहे हो आप? आखिर नंदू हमारी बेटी जैसी है… उस ने गलती की है, तो उसे सुधारना हमारी जिम्मेदारी है न? आप हिम्मत न हारें कोई न कोई रास्ता निकलेगा ही… फिलहाल हम नंदू को घर ले चलते हैं.’’

रजत और तनुजा नंदना को ले कर घर आ गए. गुस्से की अधिकता के चलते रजत ने नंदना की तरफ न तो देखा न ही उस से एक शब्द बोला. उसे अपनेआप पर भी गुस्सा आ रहा था कि क्यों उस ने नंदू से वीरेंद्र का परिचय कराया.. उसे पता तो था ही कि साला एक नंबर का कमीना है. रजत ने कभी सोचा भी नहीं था कि वीरेंद्र उस की बहन के साथ ऐसा करेगा.

घर पहुंच कर नंदू रजत के पैरों पर गिर कर बोली, ‘‘भैया मुझे माफ कर दो… आप बचपन से मेरी गलतियां माफ करते आए हो.. भले ही आप मुझे पीट लो, लेकिन मुझ पर गुस्सा न करो.’’रजत उस का माथा थपक कर अपने कमरे में चला गया.

उस दिन तीनों में से किसी ने भी खाना नहीं खाया. सब परेशान थे. किसी को भी कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए.तनुजा बोली, ‘‘3-4 दिन में पापाजी आ जाएंगे, उन से क्या कहेंगे? नंदना के बारे में सुन कर तो उन्हें हार्टअटैक ही आ जाएगा.’’रजत बोला, ‘‘मैं पापा से कह देता हूं कि वे अभी कुछ दिन और चाचा के यहां रह लें. तब तक हम कुछ सोच लेंगे.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर तनुजा अपने कमरे में चली गई औैर नंदना भी सोने चली गई.जब रजत कमरे में आया तो तनुजा उन से बोली, ‘‘मैं सोच रही थी कि कुछ दिनों के लिए शिमला वाले भैया के पास चली जाऊं नंदना को ले कर.’’‘‘वहां जा कर क्या करोगी? तुम्हारे भैया तो अकेले रहते हैं न,’’ रजत ने कहा.‘‘हां,’’ तनुजा ने जवाब दिया, ‘‘शादी नहीं की है उन्होंने… सोच रही हूं उन से नंदना से शादी करने की बात कहूं. वे मेरी बात नहीं काटेंगे.’’

‘‘यह तो ठीक नहीं है तनुजा कि तुम नंदना को जबरदस्ती उन से बांध दो. वैसे उन्होंने शादी क्यों नहीं की अभी तक 37-38 साल के तो हो ही गए होंगे न?’’‘‘दरअसल, वे जिस लड़की से प्यार करते थे उस ने उन्हीं के दोस्त के साथ अपना घर बसा लिया. तब से भैया का मन उचट गया. बहुत सारी लड़कियां बताईं पर उन्हें कोई भी नहीं जंची. मुझे लग रहा है नंदना और उन की जोड़ी ठीक रहेगी. मैं एक बार नंदना से भी पूछ लेती हूं.’’

‘‘जैसा तुम्हें ठीक लगे वैसा करो. अब तो दूसरा रास्ता भी नजर नहीं आ रहा… शहर में जा कर नंदना भी धीरेधीरे सब कुछ भूल जाएगी.’’अगले ही दिन तनुजा नंदना को ले कर शिमला चली गई. रजत ने अपने पापा को कुछ दिनों तक मुंबई चाचा के पास ही रुकने को कह दिया.शिमला पहुंच कर तनुजा ने अपने भैया विमलेश को सारी बात बताई, तो वे बोले, ‘‘तनु, मुझे कोई ऐतराज नहीं है. मुझे नंदना पसंद है, लेकिन तू पहले उस से पूछ ले.’’

तनुजा ने नंदना से इस बारे में पूछा तो उस ने अपनी स्वीकृति दे दी.तनुजा ने रजत को फोन कर के सारी बात बताई. रजत बहुत खुश हुआ. बोला, ‘‘समझ नहीं आ रहा तुम्हें कैसे धन्यवाद दूं. तनुजा तुम सही मानों में मेरी जीवनसंगिनी हो… तुम्हारी जगह कोई और होती तो बात का बतंगड़ बना देती, लेकिन तुम ने बिगड़ी बात को अपनी समझ से बना दिया… मैं सारी जिंदगी तुम्हारा आभारी रहूंगा.’’

‘‘कैसी बातें कर रहे हो आप? क्या नंदना मेरी कुछ नहीं है? उसे मैं ने हमेशा अपनी छोटी बहन की तरह माना है.’’रजत ने पापा को फोन कर के बुला लिया और उन्हें सारी बात बता दी, साथ ही यह भी बता दिया कि परेशान होने की जरूरत नहीं है. तनुजा के भैया विमलेश को नंदना बहुत पसंद है और उन्होंने उस से विवाह करने की इच्छा जताई है. फिर दोनों परिवारों की रजामंदी से नंदना का विमलेश के साथ विवाह हो गया. विदाई के समय नंदना अपनी भाभी तनुजा के गले लग कर खूब रोई. वह बस यही बोले जा रही थी कि आप ने मेरी जिंदगी फिर से संवार दी भाभी… आप जैसी भाभी सभी को मिले.

आज मैं रिटायर हो रही हूं

कुनकुनी धूप जाड़े में तन को कितना चैन देती है यह कड़कड़ाती ठंड के बाद धूप में बैठने पर ही पता लगता है. मेरी चचिया सास ने अचार, मसाले सब धूप में रख दिए थे. खाट बिछा कर अपने सिरहाने पर तकियों का अंबार भी लगा दिया था. चादरें, कंबल और क्याक्या.

‘‘चाची, लगता है आज सारी की सारी धूप आप ही समेट ले जाएंगी. पूरा घर ही बाहर बिछा दिया है आप ने.’’

‘‘और नहीं तो क्या. हर कपड़े से कैसी गंध आ रही है. सब गीलागीला सा लग रहा है. बहू से कहा सब बाहर बिछा दे. अंदर भी अच्छे से सफाई करवा ले. दरवाजे, खिड़कियां सब खुलवा दिए हैं. एक बार तो ताजी हवा सारे घर से निकल जाए.’’

‘‘सुबह से मुग्गल धूप जलने की तेज सुगंध आ रही है. मैं सोच रही थी कि पड़ोस के गुप्ताजी के घर आज किसी का जन्मदिन होगा सो हवन करवा रहे हैं, तो आप ने ही हवन सामग्री जलाई होगी घर में.’’

‘‘कल तेरे चाचा भी कह रहे थे कि घर में हर चीज से महक आ रही है. सोचा, आज हर कोने में सामग्री जला ही दूं.’’

सलाइयां लिए स्वेटर बुनने में मस्त हो गईं चाची. उन की उंगलियां जिस तेजी से सलाइयों के साथ चलती हैं हमारा सारा खानदान हैरान रह जाता है. बड़ी फुर्ती से चाची हर काम करती हैं. रिश्तेदारी में किसी के भी घर पर बच्चा पैदा होने की खबर हो तो बच्चे का स्वेटर चाची पहले ही बुन कर रख देती हैं. दूध के पैसे देने जाती हैं तो स्वेटर साथ होता है. 60-65 के आसपास तो उन की उम्र होगी ही फिर भी लगता नहीं है कभी थक जाती होंगी. उन की बहू और मैं हमउम्र हैं और हमारे बीच में अच्छी दोस्ती भी है. हम कई बार थक जाती हैं और उन्हें देख कर अपनेआप पर शरम आ जाती है कि क्या कहेगा कोई. जवान बैठी है और बूढ़ी हड्डियां घिसट रही हैं.

‘‘चाची, आप बैठ जाओ न, हम कर तो रही हैं. हो जाएगा न… जरा चैन तो लेने दो.’’

‘‘चैन क्या होता है बेटा. आधा काम कर के भी कभी चैन होता है. बस, जरा सा ही तो रह गया है. बस, हो गया समझो.’’

‘‘मां, तुम कोई भी काम ‘मिशन’ ले कर मत किया करो. तुम तो बस, करो या मरो के सिद्धांत पर काम करती हो. कल दिन नहीं चढ़ेगा क्या? बाकी काम कल हो जाएगा न… या सारा आज ही कर के सोना है.’’

‘‘कल किस ने देखा है बेटा, कल आए न आए. कल का नाम काल…’’

‘‘कैसी मनहूस बातें करती हो मां. चलो, छोड़ो, भाभी और निशा कर लेंगी.’’

विजय भैया, चाची को खींच कर ले जाते हैं तब कहीं उन के हाथ से काम छूटता है.

आज 15-20 दिन के बाद धूप निकली है और चाची सारा का सारा घर ही बाहर ले आई हैं. निशा के माथे के बल आज कुछ गहरे लग रहे हैं. सर्दी की वजह से उस की बांह में कुछ दिन से काफी दर्द चल रहा था. घर का जरूरी काम भी वह मुश्किल से कर पा रही थी. ऊपर से बच्चों के टैस्ट भी चल रहे हैं. सारी की सारी रसोई और सारे के सारे बिस्तर बाहर ले आने की भला क्या जरूरत थी. धूप कल भी तो निकलेगी. लोहड़ी के बाद तो वैसे भी धूप ही धूप है. सुबह तो सामान महरी से बाहर रखवा लिया, शाम को समेटते समय निशा की शामत आएगी. दुखती बांह से निशा रात का खाना बनाएगी या भारी रजाइयां और गद्दे उठाएगी. कैसे होगा उस से? कुछ कह नहीं पाएगी सास को और गुस्सा निकालेंगी बच्चों पर या विजय भैया पर.

मैं जानती हूं. आज चाची के घर परेशानी होग  बिस्तर तो परसों भी सूख जाते या 4 दिन बाद भी. टैस्ट को कैसे रोका जाएगा. और वही हुआ भी.

दूसरे दिन निशा धूप में कंबल ले कर लेटी थी और चाची उखड़ीउखड़ी थीं.

‘‘क्या हुआ चाची, निशा की बांह का दर्द कम नहीं हुआ क्या?’’

‘‘कल 4 बिस्तर जो उठाने पड़े. बस, हो गई तबीयत खराब.’’

‘‘चाची, उस की बांह में तो पहले से ही दर्द था. आप ने इतना झमेला डाला ही क्यों था. आप समझती क्यों नहीं हैं. ज्यादा से ज्यादा आप अपना तकियारजाई ले आतीं. जोशजोश में आप निशा पर कितना काम लाद देती हैं. मैं ने आप से पहले भी कहा था कि अब घर के काम में ज्यादा दिलचस्पी लेना आप छोड़ दीजिए. अपनी बहू को उस के हिसाब से सब करने दीजिए पर मानती ही नहीं हैं आप.’’

मैं ने कान में धीरे से फुसफुसा कर कहा. चाची ने गौर से मुझे देखा. मैं दावा कर सकती हूं कि चाची के साथ भी मेरा मित्रवत व्यवहार चलता है. दकियानूस नहीं हैं चाची और न ही अक्खड़. समझाओ तो समझ भी जाती हैं.

‘‘अब उस की बांह तो और दुख गई न. आप ने इतना बखेड़ा कर डाला. एक बिस्तर सुखा लेतीं. आज भी तो धूप है न… कुछ आज भी हो जाता.’’

सुनती रहीं चाची फिर धीरे से उठ कर नीचे चली गईं. वापस आईं तो उन के हाथ में लहसुन जला गरमगरम तेल था.

‘‘निशा, उठ बेटा.’’

चाची ने धीरे से निशा का कंबल खींचा. उठ कर बैठ गई निशा. उन्होंने उस की बांह में कस कर मालिश कर दी.

‘‘तुम ने बताया क्यों नहीं, बांह में दर्द है. मैं बादामसौंठ का काढ़ा बना देती. अभी नीचे गैस पर चढ़ा कर आई हूं. रमिया को समझा आई हूं कि उसे कब उतारना है…अभी गरमागरम पिएगी तो रात तक दर्द गायब हो जाएगा.’’

मैं कनखियों से देखती रही. निशा के माथे के बल धीरेधीरे कम होने लगे थे.

‘‘रात को खिचड़ी बना लेंगे,’’ चाची बोलीं, ‘‘तेरे पापा को भी अच्छी लगती है.’’

सासबहू की मनुहार मुझे बड़ी प्यारी लग रही थी. निशा चुपचाप काढ़ा पी रही थी. मेरी सास नहीं हैं और इन दोनों को देख कर अकसर मुझे यह प्रश्न सताता है कि अगर मेरी सास होतीं तो क्या चाची जैसी होतीं या किसी और तरह की. मुझे याद है, मेरे बेटे के जन्म के समय मुझे खुद पता नहीं कि चाची क्याक्या पिला दिया करती थीं. मैं मना करती तो चपत सिर पर सवार रहती.

‘‘खबरदार, फालतू बात मत करना.’’

‘‘चाची, इतना क्यों खिलाती हो?’’

‘मेरी सास कहा करती थीं कि बहू  और घोड़े को खिलाना कभी व्यर्थ नहीं जाता. तू चुपचाप खा ले जो भी मैं खिलाऊं.’’

‘‘घोड़ा और बहू एक कैसे हो गए, चाची?’’

‘‘घोड़ा ताकतवर होगा तो ज्यादा बोझ उठाएगा और बहू ताकतवर होगी तो बीमार कम पड़ेगी. बीमार कम पड़ेगी तो बेटे की कमाई, दवा पर कम लगेगी और कामों में ज्यादा. सेहतमंद बहू के बच्चे सेहतमंद होंगे और घर की बुनियाद मजबूत होगी. सेहतमंद बहू ज्यादा काम करेगी तो घर के ही चार पैसे बचेंगे न. अरे, बहू को खिलाने के फायदे ही फायदे हैं.’’

‘‘आप की सास आप को बहुत खिलाती थीं क्या?’’

‘‘तेरी सास नानुकर करती रहती थी. खानेपीने में नकारी…इसीलिए तो बीमार रहती थी. मुझे देख मैं अपनी सास का कहना मानती थी इसीलिए आज भी भागभाग कर सब काम कर लेती हूं.’’ चाची अपनी सास को बहुत याद करती हैं. अकसर मैं ने इस रिश्ते को बदनाम ही पाया है. सास भी कभी प्यार कर सकती है यह सदा एक प्रश्न ही रहा है. पराए खून और पराई संतान पर किसी को प्यार कम ही आता है. मुझे याद है जब निशा इस घर में आई थी तब मेरी शादी को 2 साल हो चुके थे. चाचाचाची अपनी दोनों बेटियां ब्याह कर अकेले रह रहे थे. विजय की नौकरी तब बाहर थी. हमारी कोठी बहुत बड़ी है. आमनेसामने 2 घर हैं, बीच में बड़ा सा आंगन. पूरे घर पर एक ही बड़ी सी छत.

मेरी भी 2 ननदें ब्याही हुई हैं और पापा की छत्रछाया में मैं और मेरे पति बड़े ही स्नेह से रहते हैं. चाचीचाचा का बड़ा सहारा है. विजय भैया शादी के बाद 2 साल तो बाहर ही रहे अब इसी शहर में उन की बदली हो गई है.  निशा के आने तक चाची ही मेरी सास थीं. मेरी दोनों ननदें बड़ी हैं. इस घर में क्या माहौल है क्या नहीं मुझे क्या पता था. मन में एक डर था कि बिना औरत का घर है, पता नहीं कैसेकैसे सब संभाल पाऊंगी, ननदें ब्याही हुई थीं…उन का भी अधिकार मित्रवत न हो कर शुरू में रोबदार था. चाची कम दखल देती थीं और लड़कियों को अपनी करने देती थीं. कुछ दिन ऐसा चला था फिर एक दिन पापा ने ही मुझे समझाया था :

‘‘मुझे अपने घर में लड़कियों का ज्यादा दखल पसंद नहीं है. इसलिए तुम जराजरा बात के लिए उन का मुंह मत देखा करो. तुम्हारी चाची हैं न. कोई भी समस्या हो, कुछ भी कहनासुनना हो तो उन से पूछा करो. लड़कियां अपने घर में हैं… जो चाहें सो करें, मेरे घर में तुम हो, मेरी छोटी भाभी हैं… एक तरह से वे भी मेरी बहू जैसी ही हैं. फिर क्यों कोई बाहर वाली हमारे घर के लिए कोई भी निर्णय ले.’’

मेरा हाथ पकड़ कर पापा चाची की रसोई में ले गए थे. सिर पर पल्ला खींच चाची ने अपने हाथ का काम रोक लिया था.

‘‘बीना, आज से इसे तुम्हें सौंपता हूं. तुम्हीं इस की मां भी हो और सास भी.’’

बरसों बीत गए हैं. मुझे वे क्षण आज भी याद हैं. चाची ने गुलाबी रंग की सफेद किनारी वाली साड़ी पहन रखी थी. माथे पर बड़ी सी सिंदूरी बिंदिया. तब चाची पूरियां तल रही थीं. आटा छिटक कर परात से बाहर जा गिरा था, हमारे घरों में ऐसा मानते हैं कि आटा परात से बाहर जा छिटके तो कोई मेहमान आता है. विजय भैया और चाचा तब नाश्ता कर रहे थे.

‘‘मां, तुम्हारा आटा छिटका…देखो आज कौन आता है.’’

ये दोनों बातें साथसाथ हुई थीं. रसोई में मेरा प्रवेश करना और चाची का आटा छिटकना.

‘‘जी सदके… मेहमान क्यों आज तो मेरी बहूरानी प्रीति आई है…आजा मेरी बच्ची…’’

अकसर ऐसा होता है न कभीकभी जब हम स्वयं नहीं जानते कि हम कितने उदास हो चुके हैं. मायका दूर था…घर में करने वाली मैं अकेली औरत, पापा और मेरे पति अजय के जाने के बाद घर में अकेली घुटती रहती थी या जराजरा बात के लिए अपनी ननदों को फोन करती. शायद पापा को उस दिन पहली बार मेरी समस्या का खयाल आया था.

…और चाची ने बांहें फैला कर जो उस पल छाती से लगाया तो वह स्नेहिल स्पर्श मैं आज तक भूली नहीं हूं. रोने लगी थी मैं. शायद उस पल की मेरी उदासी इतनी प्रभावी थी कि सब भीगभीग से गए थे. पापा आंखें पोंछ चले गए थे. विजय भैया ने मेरा सिर थपक दिया था.

‘‘हम हैं न भाभी. रोइए मत. चुप हो जाइए.’’

वह दिन और आज का दिन, चाची से ऐसा प्यार मिला कि अपना मायका ही भूल गई मैं. चाची मेरी सखी भी बन गईं और मेरी मां भी.

मेरे दोनों बेटों के जन्म पर चाची ने ही मुझे संभाला. विजय भैया की शादी में चाची ने हर जिम्मेदारी मुझ पर डाल रखी थी. निशा के गहनों में, चूडि़यों में, गले के हारों में, कपड़ों में सूटसाडि़यों से शालस्वेटरों तक चाची ने मेरी ही राय को प्राथमिकता दी थी. निशा भी हिलीमिली सी लगी. आते ही मुझ से  प्यार संजो लिया उस ने भी. लगभग 8 साल हो गए हैं निशा की शादी को और 10 साल मुझे इस घर में आए. बहुत अच्छी निभ रही है हम में. एक उचित दूरी और संतुलन रख कर हमारा रिश्ता बड़ा अच्छा चल रहा है. निशा के माथे पर जरा सा बल पड़े तो समझ जाती हूं मैं.

‘‘चाची, आप थोड़ाथोड़ा अपना हाथ खींचना शुरू कर दीजिए न. उसे उसी के तरीके से करने दीजिए, अब आप की जिम्मेदारी खत्म हो चुकी है. जरा देखिए, हम कैसेकैसे सब करती हैं, कहीं कोई परेशानी आएगी तो पूछ लेंगे न.’’

‘‘मैं बेकार हो जाऊंगी तब. हाथपैर ही न चलाए तो आज ही जंग लग जाएगा.’’

‘‘जंग कैसे लगेगा. सुबह उठ कर चाचाजी के साथ सैर करने जाइए, रसोई के अंदर जरा कम जाइए. बाहर से मदद कर दीजिए, सब्जी काट दीजिए, सलाद काट दीजिए. सूखे कपड़े तह कर के अलगअलग रख दीजिए. कितने ही हलकेफुलके काम हैं…जराजरा अपने अधिकार कम करना शुरू कीजिए.’’

‘‘तुझे क्या लगता है कि मैं अनावश्यक अधिकार जमाती हूं? निशा ने कुछ कहा है क्या?’’

‘‘नहीं चाची, उस ने क्या कहना है. मैं ही समझा रही हूं आप को. अब आप चिंता मुक्त हो कर जीना शुरू कीजिए, सुबहसुबह उठ कर नहाधो कर रसोई में जाने की अब आप को क्या जरूरत है, फिर आप के जोड़ भी दुखते हैं.

‘‘ऐसा कौन बरात का खाना बनाना होता है. 10 बजे तक सारे काम निबटा देना आप की कोई जरूरत तो नहीं है न. 7 बजे उठ कर भी नाश्ता बन सकता है. दोपहर का तो 2 बजे चाहिए, इतनी हायतौबा सुबहसुबह किसलिए. अपने वक्त किया न आप ने, अब निशा का वक्त शुरू हुआ है तो करने दीजिए उसे. रिटायर हो जाइए अब आप.’’

चाची चुपचाप सुनती रहीं. मुझे डर भी लग रहा था कि कहीं यह मेरी अनावश्यक सुलह ही प्रमाणित न हो जाए. कहीं निशा यही न समझ ले कि मैं ही सासबहू में दुख पैदा कर रही हूं. सच तो यह है कि सास कभीकभी बिना वजह अपनी हड्डियां तोड़ती रहती हैं, जो बेटे की गृहस्थी में योगदान नहीं बनता बल्कि एक अनचाहा बोझ बन जाता है.

‘‘अब मां ने कर ही दिया है तो ठीक है, यों ही सही.’’

‘‘मैं ने तो सोचा था आज कोफ्ते बनाऊंगी… मां ने सुबहसुबह उठ कर दाल चढ़ा दी.’’

‘‘हम सोच रहे थे कि इस इतवार नई पिक्चर देखने जाएंगे पर मां ने मामीजी को खाने पर बुला लिया.’’

‘‘जोड़ों का दर्द है मां को तो सुबहसुबह क्यों उठ जाती हैं. सारा दिन खाली ही तो रहते हैं हम. इतनी मारधाड़ भी किसलिए.’’

निशा का स्वर कई बार कानों मेें पड़ जाता है जिस कारण मुझे चिंता भी होने लगती है. चाची का ममत्व अनचाहा न बन जाए. वे तो सदा से इसी तरह करती आ रही हैं न. सो आज भी करती हैं. उन्हें लगता है कि वे बहू की सहायता कर रही हैं जबकि बहू को सहायता चाहिए ही नहीं. अकसर यह भी देखने में आता है कि बहू नकारा होती नहीं है बस, सास के अनुचित सेवादान से नकारी हो जाती है. जाहिर सी बात है, जिस तरह एक म्यान में 2 तलवारें नहीं समा सकतीं उसी तरह 2 मंझे हुए कलाकार, 2 बहुत समझदार लोग, 2 कमाल के रसोइए एक ही साथ काम नहीं कर सकते, क्योंकि दोनों ही ‘परफैक्ट’ हैं, दोनों ही संपूर्ण हैं.

रात भर मुझे नींद नहीं आई, पता नहीं सुबह क्या दृश्य मिलेगा, सुबह 6 बजे उठी तो देखा सामने चाची की रसोई में अंधेरा था. कहीं चाची बीमार तो नहीं हो गईं. वे तो 6 बजे तक नहाधो कर सब्जियां भी चढ़ा चुकी होती हैं. कहीं मेरी ही कोई बात उन्हें बुरी तो नहीं लग गई जो कुछ मन पर ले लिया हो.  लपक कर चाची का दरवाजा खटखटा दिया. ‘‘आ जाओ बेटी, दरवाजा खुला है,’’ चाचा का स्वर था.

भीतर जा कर देखा तो नया ही रंग नजर आया. चाची रजाई में बैठी आराम से अखबार पढ़ रही थीं. मेज पर चाय के खाली कप पड़े थे. मेरी तरफ देखा चाची ने. एक प्यारी सी हंसी आ गई उन के होंठों पर.

‘‘चाची, आप ठीक तो हैं न,’’ मैं ने पूछा.

‘‘यह तो मैं भी पूछ रहा हूं. कह रही है कि आज से मैं रिटायर हो रही हूं. रात को ही इस ने निशा को समझा दिया कि सुबह से वही रसोई में जाएगी मैं नहीं… पता नहीं इसे एकाएक क्या सूझा है… मैं समझाता रहा…मेरी तो सुनी ही नहीं… आज अचानक से इस में इतना बड़ा परिवर्तन…’’

चाचा अपनी ऐनक उतार स्नानागार में चले गए और मैं मंत्रमुग्ध सी चाची का एक और प्यारा सा रूप देखती रही.

Raksha Bandhan : मुंहबोली बहनें- भाग 2

‘‘रोहन भैया, कालेज तक तो ठीक था पर अब तो आप ने मेरी सहेलियों के घर के चक्कर काटना और उन के घर जाना भी शुरू कर दिया है. आखिर क्या चाहते हैं आप?’’ सोनाली ने नाराजगी जाहिर करते हुए कहा.

‘‘ऐ छिपकली, तेरी कौन सी सहेली हूर की परी है जिस के घर के चक्कर मैं काटने लगा. जरा मैं भी तो सुनूं,’’ रोहन भैया अपनी हेकड़ी जमाते हुए बोले.

‘‘कल अनाइका के घर नहीं गए थे आप?’’ मैं ने खा जाने वाली नजरों से उन्हें घूरा.

‘‘अच्छा जिस के घर कल मैं गया था, उस का नाम अनाइका है? तब तो निश्चय ही वह हूर की परी होगी. अच्छा किया तुम ने मुझे बता दिया. अब कल उसे कालेज में गौर से देखूंगा,’’ कह कर रोहन भैया जोरजोर से हंसने लगे.

‘‘हद हो गई रोहन भैया, आप की बेशर्मी की,’’ मैं ने भी चिढ़ कर अपनी मर्यादा की सीमा लांघते हुए कहा.

‘‘देख सोनाली, मैं तेरी बात को हंस कर टाल रहा हूं तो इस का मतलब यह नहीं कि तू जो मन में आए बोलती जाए और एक बात साफसाफ सुन ले, मैं नहीं गया था किसी अनाइका के घर का चक्कर काटने. मैं अपने दोस्त संवेग के घर गया था. तेरी उस हूर की परी का घर भी वहीं था, उस ने मुझे देख कर अपने घर आने को कहा तो मैं चला गया. इस में मेरी क्या गलती है?’’

‘‘आप की गलती यही है कि आप उस के घर गए. उस ने आप को बुलाया या आप वहां गए, मैं नहीं जानती पर आप का अनाइका के घर जाना ही आज कालेज में दिन भर चर्चा का विषय बना रहा था. सब बोल रहे थे कि अनाइका और रोहन के बीच कुछ चल रहा है. आप सोच भी नहीं सकते कि यह सब सुन कर मेरा दिमाग कितना खराब होता है. रोज किसी न किसी के साथ आप का नाम जोड़ा जाता है. मुझे लग रहा था अब आप सुधर रहे हैं कि तभी अनाइका का नाम लिस्ट में जुड़ गया.’’

‘‘मेरे और अनाइका के बीच कुछ चल रहा है, यह बात अनाइका ने मुझे क्यों नहीं बताई? इतनी बड़ी बात मुझ से छिपा कर रखी? मुझे भी बता देती तो मैं थोड़ा अपने पर इतरा लेता,’’ रोहन भैया ने चिंतित मुद्रा में मुंह बना कर कहा, ‘‘सोनाली, कमी मुझ में नहीं उन लड़कियों की सोच में है. किसी से दो बातें कर लो तो सीधा ‘चक्कर चलना’ ही मान बैठती हैं.’’

रोहन भैया मेरी किसी बात को गंभीरता से लेने को तैयार ही नहीं थे. मैं झक मार कर वहां से उठ ही गई, ‘‘ठीक है रोहन भैया, आप के लिए तो हर बात बस, मजाक ही होती है, पर कालेज में होने वाली बातों का मुझ पर असर पड़ता है. कोई मेरे भाई के बारे में अनापशनाप कहे तो मैं बरदाश्त नहीं कर पाती हूं. अगले साल मैं अपना कालेज ही बदल लूंगी. न आप के कालेज में रहूंगी, न आप के बारे में कुछ सुनूंगी और न ही मेरा दिमाग खराब होगा,’’ कह कर मैं अपना बैग उठा कर वहां से निकल पड़ी.

‘‘ओए मधुमक्खी, कालेज बदलना तो अकेली ही जाना, अपनी सहेलियों को मत ले जाना वरना मेरे कालेज में तो पतझड़ आ जाएगा,’’ कह कर रोहन भैया फिर होहो कर के हंसने लगे.

मुझे पता था कि रोहन भैया चिकने घड़े हैं. मेरी किसी बात का उन पर कोई असर नहीं पड़ेगा. फिर भी हर 10-15 दिन में मैं उन से इस बात को ले कर बहस कर ही बैठती थी.

12वीं के बाद बीकौम में जब मुझे दीनदयाल डिग्री कालेज में ऐडमिशन मिला था तो मैं फूली नहीं समाई थी. नामीगिरामी कालेज में ऐडमिशन पाने की खुशी के साथसाथ एक सुकून का एहसास यह सोचसोच कर भी हो रहा था कि रोहन भैया के होते हुए मुझे किसी काम के लिए भागदौड़ नहीं करनी पड़ेगी. मेरा सारा काम बैठेबिठाए हो जाएगा.

रोहन भैया उसी कालेज से एमकौम कर रहे थे और कालेज में उन के रोब के किस्से उन के मुंह से सालों से सुनती चली आ रही थी. कालेज पहुंची तो सचमुच रोहन भैया की कालेज में पहचान देख कर मैं दंग रह गई. छात्रसंघ के सक्रिय सदस्य होने के कारण सारे प्रोफैसर और विद्यार्थी न केवल उन्हें अच्छी तरह जानते थे बल्कि वाक्पटुता और आकर्षक व्यक्तित्व के कारण उन्हें पसंद भी बहुत करते थे. युवतियों के तो वे खासकर सर्वप्रिय नेता माने जाते थे. उन में वे किशन कन्हैया के नाम से मशहूर थे. लड़कियां उन के इर्दगिर्द मंडराने के अवसर तलाशती रहती थीं.

कालेज में उन के जलवे देख कर मैं भी अपना सिक्का जमाने के लिए सभी के सामने रोब जमाते हुए यह कहने लगी कि रोहन मेरे भैया हैं और मुझे बहुत प्यार करते हैं, लेकिन उस के बाद से ही मेरी मुसीबतों का सिलसिला शुरू हो गया. रोज कोई न कोई युवती अपना कोई न कोई काम ले कर मेरे पास हाजिर हो जाती कि मैं अपने भाई से उस का काम करवा दूं.

शुरूशुरू में तो मैं बड़े मन से सब के काम करवा देती थी, क्योंकि ऐसे छोटेमोटे काम करवाना रोहन भैया के बाएं हाथ का खेल था, पर धीरेधीरे मैं बोर हो कर जब उन्हें टालने लगी तब उन्होंने खुद रोहन भैया, रोहन भैया कह कर अपना काम निकलवाना शुरू कर दिया. युवतियां मुंह पर तो उन्हें भैया कहतीं लेकिन पीठ पीछे उन को देख कर आहें भरती थीं. ये सब देखसुन कर दिनप्रतिदिन मेरा दिमाग खराब होने लगा. ये रोहन भैया जो घर में एक गिलास पानी तक अपने हाथ से ले कर नहीं पीते हैं, इतनी समाज सेवा क्यों करते हैं, कालेज में ये सब भी मुझे बड़ी अच्छी तरह समझ में आने लगा था.

‘युवतियों को इंप्रैस करने की कला कोई रोहन से सीखे. रोहन से अपना काम करवाना हो तो किसी सुंदर युवती के माध्यम से कहलवाओ फिर देखो कैसे चुटकी बजाते काम हो जाता है,’ जैसी बातें जब मैं सुनती तो मुझे बहुत बुरा लगता. मुझे लगा कि रोहन भैया को पता नहीं होगा कि उन के बारे में ऐसीऐसी बातें की जाती हैं तो मैं उन्हें बता दूं ताकि वे संभल जाएं. पर धीरेधीरे मेरी समझ में आ गया कि दीवार से सिर टकराने का कोई फायदा नहीं है. उन के बारे में कोई क्या कह रहा है या क्या सोच रहा है इस का उन पर कोई फर्क नहीं पड़ता. वे करेंगे अपने मन की ही. मैं ने रोहन भैया से इस बारे में कोई भी बात करना बंद कर दिया. मैं ने तो अब ध्यान देना ही बंद कर दिया पर मेरे नाम का इस्तेमाल कर रोहन भैया की न जाने कितनी मुंहबोली बहनें दिनप्रतिदिन बनती रहीं.

कालेज की पढ़ाई खत्म होते ही साल भर के अंदर मेरी शादी भी हो गई. मेरी शादी के 3 साल बाद रोहन भैया की शादी तय होने की खबर जब मुझे मिली तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा. मुझे पक्का यकीन था कि रोहन भैया तो प्रेम विवाह ही कर रहे होंगे पर जब ताईजी ने बताया कि लड़की उन्होंने पसंद की है तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा.

भाभी सुंदर और समझदार थीं. शादी के बाद रोहन भैया के स्वभाव में भी बहुत परिवर्तन आ गया. अब वे काफी शांत और गंभीर रहने लगे थे. कालेज के समय वाली उच्छृंखलता अब कहीं उन के स्वभाव में नहीं दिखती थी. साल भर तक तो उन का दांपत्य जीवन बहुत अच्छी तरह चला पर अचानक न जाने क्या हुआ कि भैयाभाभी के बीच दूरियां बढ़ने लगीं. उन के बीच अकसर बहस होने लगी. ताईजी के लाख पूछने पर भी दोनों में से कोई भी कुछ बताने को तैयार नहीं होता. उसी दौरान मैं मायके गई थी तो ताईजी के यहां भी सब से मिलने चली गई. ताईजी ने उन लोगों के बिगड़ते रिश्ते के बारे में बताते हुए मुझे भाभी से बात कर के कारण जानने को कहा.

पहले तो भाभी ने बात को टालना चाहा किंतु मेरे हठ पकड़ लेने पर उन्होंने जो कहा उस पर यकीन करना मुश्किल था. भाभी ने कहा, ‘‘रोहन का शक्की स्वभाव उन के वैवाहिक जीवन पर ग्रहण लगा रहा है. मेरे एक मुंहबोले भाई को ले कर इन के मन में शक का कीड़ा कुलबुला रहा है. मैं उन्हें हर तरह से समझा चुकी हूं कि उस के साथ मेरा भाईबहन के अलावा और किसी तरह का कोई संबंध नहीं है पर इन्हें मेरी किसी बात पर यकीन ही नहीं है. मेरी हर बात के जवाब में बस यही कहते हैं, ‘ये मुंहबोले भाईबहन का रिश्ता क्या होता है मुझे न समझाओ. किसी अमर्यादित रिश्ते पर परदा डालने के लिए मुंहबोला भाई और मुंहबोली बहन का जन्म होता है.’ इन का कहना है कि या तो अपने मुंहबोले भाई से ही रिश्ता रख लो या मुझ से. अब तुम ही बताओ इतने सालों का रिश्ता क्या कह कर खत्म करूं? कितने अपमान की बात है मेरे लिए इतना बड़ा आरोप सहना.’’

स्मार्टफोन की लत, है ये गलत

स्मार्टफोन हम आप, सब की ज़िन्दगी का अटूट हिस्सा बन चुका है, सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक हम इस पर निर्भर रहते हैं, फिर चाहे वह मोर्निंग अलार्म से लेकर औंन लाइन पेमेंट या शौपिंग करनी हो या बोरियत के समय संगीत सुनना या फिल्म देखनी हो या कोई ज़रूरी मेल करना हो या अपने दोस्तों और रिश्तों से जुड़ने की बात हो, हम सभी का पूरा संसार इसी छोटे से उपकरण में समाया हुआ है, लेकिन क्या आप जानते है कि इस छोटे से उपकरण से हमारा यह जुड़ाव हमारे व्यवहार में कई समस्याएं भी पैदा कर रहा है.

अगर आप स्मार्टफोन से जरूरी जानकारी नहीं निकाल पा रहे, तो आप परेशान हो जाते हैं. अगर आप तक मैसेज या कॉल नहीं पहुंच रहे तो आप परेशान होने लगते हैं. अगर आपके पास प्रीपेड कनेक्शन है तो स्मार्टफोन में बैलेंस कम होते ही आपको घबराहट होने लगती है. कई लोगों में इंटरनेट की स्पीड भी तनाव को बढ़ाती है.

फेसबुक या अन्य सोशल नेटवर्किंग साइट पर खुद का स्टेटस अपलोड न कर पाने या दूसरों के स्टेटस न पढ़ पाने पर भी बेचैनी होती है. इसके अतिरिक्त कुछ लोगों को हमेशा अपने  स्मार्टफोन  के खोने का डर बना रहता है यानी अगर एक मिनट भी फोन उनकी नज़रों से दूर  हो जाए, तो वे बैचेन होने लगते  हैं. अपने स्मार्टफोन के खो जाने के डर से उन की दिल की धड़कने तेज़ हो जाती हैं.

नोमोफोबिया नामक बीमारी

लोवा स्टेट यूनिवर्सिटी में हुए हालिया शोध के अनुसार स्मार्टफोन लोगों में नोमोफोबिया नामक नई बीमारी पैदा कर रहा है. इस रोग में व्यक्ति को हर वक़्त  अपने मोबाइल फोन के गुम हो जाने का भय रहता है और कई बार तो यह फोबिया लोगों पर इस कदर हावी हो जाता है कि वे जब टॉयलेट भी जाते हैं तो अपना मोबाइल फोन साथ ले के जाते है और दिन में औसतन तीस से अधिक बार ये अपना फोन चेक करते है. असल में इन्हे डर होता है कि फोन घर पर या कहीं भूल जाने पर इनका कोई जरूरी मैसेज या कॉल छूट जायेगी और उनका यह यह डर इनके व्यवहार और व्यक्तित्व में बदलाव का कारण भी बनता है. इस डर से ग्रस्त लोगों को लगता है बिना फोन के वे दुनिया से पूरी तरह कट जायेंगे.

फोन के बिना जिंदगी अधूरी

लंदन में हुए एक अन्य अध्ययन में कहा गया है कि नोमोफोबिया आज के दौर की एक गंभीर समस्या है और इस समस्या की गंभीरता को जानने के लिए लंदन  में करीब एक हजार लोगों पर एक अध्ययन  हुआ, जिसमें 66 प्रतिशत लोगों ने कहा कि उन्हें अपने मोबाइल फोन के खोने का डर सताता रहता है. अध्ययन में यह भी पाया गया कि 18 से 24 वर्ष के बीच के युवाओं में मोबाइल के प्रति सबसे ज्यादा लगाव होता है. इस उम्र के करीब 77 फीसदी लोग अपने मोबाइल के बिना एक मिनट भी नहीं रह सकते.  ऐसे लोगों को लगता है कि मोबाइल फोन के बिना उनकी जिंदगी अधूरी है और इसके बिना वह रह नहीं पायेंगे. अध्ययन में यह भी पाया गया कि नोमोफोबिया का शिकार व्यक्ति औसतन एक दिन में करीब 37 बार अपना मोबाइल फोन जांचता है.

क्या है इलाज ?

माना कि स्मार्टफोन  की तकनीक आपको स्मार्ट और अपडेट रखती है लेकिन साथ ही  यह ध्यान रखने की  भी ज़रुरत है कि यह तकनीक आपके लिए सुविधा बनने के बजाय परेशानी का कारण न बने. मोबाइल फोन की इस लत से निकलने के लिए जरूरी है कि आप अपने जीवन के कुछ लक्ष्य बनायें, खुद को अपनी किसी मनपसंद हॉबी में व्यस्त रखने की कोशिश करें, ऑफिस में काम करते समय फोन को एरोप्लेन मोड पर रखें ऐसा करने से आप फालतू की कॉल्स और मेसेजेस से बच जायेंगे. अपने सभी सोशल मीडिया एप्स की नोटिफिकेशन बंद रखें, साथ ही फोन में फालतू के एप्स न रखें, इससे आप फोन पर निर्भर नहीं रहेंगे. वर्चुअल वर्ल्ड में रिश्तों को निभाने की बजाय वास्तविक जीवन में दोस्तों के साथ समय बिताएं. जितना हो सके फोन को खुद से दूर रखने की कोशिश करें. धीरे धीरे आत्म अनुशासन से ही आप इस लत से निकल पायेंगे.

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