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विश्वास : भाग 3

‘‘तुम्हारे प्यार में पागल मेरा दिल तुम्हें 2 लाख रुपए देने से बिलकुल नहीं हिचकिचाया था लेकिन मेरा हिसाबी- किताबी मन तुम पर आंख मूंद कर विश्वास नहीं करना चाहता था.

‘‘मैं ने दोनों की सुनी और रुपए ले कर खुद यहां चली आई. मेरे ऐसा करने से तुम्हें जरूर तकलीफ हो रही होगी… तुम्हारे दिल को यों चोट पहुंचाने के लिए मैं माफी मांग रही…’’

‘‘नहीं, माफी तो मुझे मांगनी चाहिए. तुम्हारे मन में चली उथलपुथल को मैं अब सम?ा सकता हूं. तुम ने जो किया उस से तुम्हारी मानसिक परिपक्वता और सम?ादारी ?ालकती है. अपनी गांठ का पैसा ही कठिन समय में काम आता है. हमारे जैसे सीमित आय वालों को ऊपरी चमकदमक वाली दिखावे की चीजों पर खर्च करने से बचना चाहिए, ये बातें मेरी सम?ा में आ रही हैं.’’

‘‘अपने अहं को बीच में ला कर मेरा तुम से नाराज होना बिलकुल गलत है. तुम तो मेरे लिए दोस्तों व रिश्तेदारों से ज्यादा विश्वसनीय साबित हुई हो. मां के इलाज में मदद करने के लिए थैंक यू वेरी मच,’’ राजीव ने उस का हाथ पकड़ कर प्यार से चूम लिया.

एकदूसरे की आंखों में अपने लिए नजर आ रहे प्यार व चाहत के भावों को देख कर उन दोनों के दिलों में आपसी विश्वास की जड़ों को बहुत गहरी मजबूती मिल गई थी.

15 अगस्त स्पेशल : स्वदेश के परदेसी, भाग 3

‘किस बात का अपना देश. पहले ही बहुतकुछ खो चुके हैं हम यहां. अब और क्या खोना चाहते हो तुम…सैप्टिक होता तो बौडी पार्ट भी काट देना पड़ता है. जब मेनलैंड के वासी हमें इंडियन नहीं मानते तो हम क्यों दिल जोड़ कर बैठे हैं सब से. कुछ नहीं हैं हम यहां, सिवा स्वदेश के परदेसी होने के.’

‘लोगों की सोच बदल रही है, अलाना. धीरेधीरे और बदलेगी. अब उत्तर भारत में से प्रोफैशनल लोग मुंबई, हैदराबाद और बेंगलुरु में जाने लगे हैं और दक्षिण भारत से दिल्ली, गुड़गांव में आने लगे हैं. 30 साल पहले यह चलन इतना नहीं था. यह मेलजोल समय के साथ और मिलनेजुलने पर ही संभव हो पाया है.

नौर्थईस्ट के लोगों का दिल्ली आना अभी नई शुरुआत है. वक्त के साथ इस संबंध में भी अनुकूलन बढ़ेगा और आपसी ताल्लुकात में सुधार आएंगे. टू रौंग्स कांट सेट वन राइट. अलाना समझने की कोशिश करो,’ यीरंग अलाना को समझाने का भरसक प्रयास करता.

‘भारतीय नागरिकता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है. फिर हमें अपने ही देश में बारबार अपना पासपोर्ट क्यों दिखाना पड़ता है. क्यों हम से उम्मीद की जाती है कि हम अपने माथे पर ‘हम भारतीय ही हैं’ की पट्टी लगा कर घूमें. हम से निष्ठापूर्ण आचरण की आशा क्यों की जाती है जब हमारे इतिहास का कहीं किसी पाठ्यक्रम में जिक्र नहीं, हमारे क्षेत्र के विकास से सरकार का कोई लेनादेना नहीं. मेनलैंड में हमें छूत की बीमारी की तरह माना जाता है. कुछ नहीं मिला हमें यहां, मात्र उपेक्षा के. क्या हमारी गोरखा रेजीमैंट के जवानों का कारगिल युद्ध में योगदान किसी दूसरी रेजीमैंट्स से कम था?’ अलाना सचाई के अंगारे उगलती.

उन्हीं दिनों एंड्रिया का एक मित्र, जो एंड्रिया के गायब होने वाले दिन ही गुवाहाटी चला गया था, अचानक दिल्ली वापस आ गया. वापस आने पर उसे जैसे ही एंड्रिया के दूसरे मित्रों से उस की संदिग्ध मौत का समाचार मिला तो वह तत्काल ही अलाना से मिलने पहुंचा. उस ने अलाना को बताया कि उस दिन एंड्रिया कालेज आने से पहले रास्ते में कोचिंग वाले ट्यूटर के घर से कुछ नोट्स लेने जाने वाली थी, उन्होंने ही उसे अपने फ्लैट पर आ कर नोट्स ले जाने को कहा था.

एंड्रिया के मित्र के बयान के आधार पर पुलिस ने जब उस ट्यूटर के घर की तलाशी ली तो सारा सच सामने आ गया. बिल्ंिडग में लगे सीसीटीवी कैमरे के पुराने रिकौर्ड्स की जांच करने पर पाया गया कि उस दिन एंड्रिया सुबह करीब

9 बजे ट्यूटर के अपार्टमैंट में आई थी. मगर उस के वापस जाने का कहीं कोई रिकौर्ड नहीं था. हां, उसी दिन दोपहर करीब 1 बजे ट्यूटर और उस का एक साथी एक बड़ा सा ब्रीफकेस घसीटते हुए बाहर ले जा रहे थे. पुलिस ने दोनों को गिरफ्तार कर लिया और पूछताछ के दबाव में उन्होंने जल्दी ही अपना जुर्म कुबूल कर लिया.

घटना वाले दिन जब एंड्रिया वहां नोट्स लेने पहुंची तो ट्यूटर के यहां उस का एक साथी भी मौजूद था. दोनों ने बारीबारी से एंड्रिया के साथ जोरजबरदस्ती की और अपने मोबाइल में उस का वीडियो भी बना लिया. उन्होंने एंड्रिया को धमकाया कि वह इस बारे में किसी से कुछ न कहे. बस, आगे भी ऐसे ही उन से मिलने आती रहे. अगर वह उन की बात नहीं मानेगी तो वे उस का वीडियो सोशल मीडिया पर पोस्ट कर देंगे. उन के लाख समझाने पर भी एंड्रिया चिल्लाचिल्ला कर कहती रही कि वह चुप नहीं बैठेगी और उन दोनों को उन के किए की सजा दिलवा कर चैन लेगी. जब वह नहीं मानी तो उन्होंने गला दबा कर उस की हत्या कर दी और लाश के टुकड़े कर के एक ब्रीफकेस में भर कर यमुना नदी में फेंक आए.

मुजरिमों की गिरफ्तारी के कुछ समय बाद ही यीरंग को आस्ट्रेलिया से एक अच्छा जौब औफर मिल गया. वह और अलाना एक नई शुरुआत करने के लिए वहां प्रवास कर गए. उन्हें आस्ट्रेलिया आए हुए अब तक करीब 5 साल हो चुके थे और मासूम एंड्रिया को दुनिया छोड़े हुए करीब 6 साल. मगर उस की मौत से मिले जख्म थे कि सूखने का नाम ही नहीं ले रहे थे. जबजब इन जख्मों में टीस उठती, दिल का दर्द शिद्दत पर पहुंच कर दिन का चैन और रातों की नींद हराम कर के रख देता.

एंड्रिया की सारी भौतिक यादें दिल्ली में ही छोड़ दी गई थीं पर क्या भावनात्मक यादों की परछाइयां पीछे छूट पाई थीं? कोई न कोई बात उत्प्रेरक बन कर यादों के बवंडर ले आती. आज मनमीत सिंह की कैंडिल विजिल की खबर उत्प्रेरक बनी थी तो कल कुछ और होगा…कुल मिला कर जीवन में अमन नहीं था. दुनिया के लिए एंड्रिया 6 साल पहले मर चुकी थी पर अलाना के लिए आज तक वह उस के दिलदिमाग में रह कर उस की सभी दुनियावी खुशियों को मार रही थी.

‘‘मैडम, एनीथिंग एल्स?’’ बैरे की आवाज पर अलाना चौंकी और यादों के भंवर से बाहर आई. उस ने घड़ी पर नजर डाली. उसे कैफे में बैठेबैठे 2 घंटे से ज्यादा हो चुके थे. शुष्क मौसम की वजह से कौफी का खाली प्याला सूख चुका था. मेनलैंड के लोगों के व्यवहार की शुष्कता ने अलाना के अंदर की इंसानियत को भी सुखा दिया था. इस शुष्कता का प्रभाव इतना ज्यादा था कि आज मनमीत सिंह की हत्या की खबर भी आंखों में नमी नहीं ला पाई. खुद के साथ हुए हादसों ने मानवता के प्रति उस के दृष्टिकोण को संकुचित कर दिया था.

अब आंखें नम होती तो थीं पर केवल व्यक्तिगत दुख से. वह नफरत बांट रही थी नफरत के बदले. क्या वह समस्या का निदान कर रही थी या फिर जानेअनजाने में खुद समस्या का हिस्सा बनती जा रही थी?

अलाना ने एक और कैपीचीनो और्डर की. शायद दिमाग को थोड़ी सी ताजगी की जरूरत थी. वह सड़ीगली यादों से छुटकारा चाहती थी. वो यादें जो कि उस के वर्तमान को कैद किए बैठी थीं भूतकाल की सलाखों के पीछे.

कैपीचीनो खत्म करते ही वह तेज कदमों से कैफे से बाहर निकल आई. एक निष्कर्ष पर पहुंच चुकी थी वह. एक ताजा हवा का झोंका उस के चेहरे को छूता हुआ गुजरा तो उस ने आकाश की ओर निहारा, जाने क्यों आकाश आज और दिनों की भांति ज्यादा स्वच्छ लग रहा था. उसे घर पहुंचने की जल्दी न थी, इसलिए उस ने स्वान नदी की तरफ से एक लंबा सा ड्राइव लिया. नदी, वायु, आकाश, पेड़पौधे, पक्षी सभी तो हमेशा से थे यहां. जाने क्यों कभी उस का ही ध्यान नहीं गया था अब तक इन खूबसूरत नजारों की ओर. उस ने सोचा, चलो कोई बात नहीं, जब आंख खुले उसी लमहे से एक नई सुबह मान कर एक नई शुरुआत कर देनी चाहिए.

शाम को यीरंग के घर वापस आते ही अलाना ने उस को अपना फैसला सुनाया, ‘‘यीरंग, मैं भी कल मनमीत सिंह की कैंडिल विजिल में चलूंगी तुम्हारे साथ. तुम ठीक ही कहते हो ‘टू रौं कांट सेट वन राइट’.’’

‘‘मुझे तुम से ऐसी ही उम्मीद थी, अलाना. गलती तो हम भी करते हैं. जो थोड़े से फ्रैंड्स मैं ने और तुम ने दिल्ली में बनाए थे, क्या दिल्ली से चले आने के बाद हम ने उन से कोई संबंध रखा? दोस्ती के पौधे के दिल के आंगन में उग आने के बाद, उस की परवरिश के लिए मेलमिलाप के जिस खादपानी की जरूरत होती है क्या वह सब हम ने दिया? नहीं न, तो फिर हम पूरा दोष दूसरे पर मढ़ कर खुद का दामन क्यों बचा लेते हैं.

‘‘जब कोई परिवर्तन लाने का प्रयास करो तो यह अभिलाषा मत रखो कि परिवर्तन तुम्हें अपने जीवनकाल में देखने को मिल जाएगा. हां, अगर सच्चे मन से परिवर्तन लाने की चेष्टा करो तो बदलाव जरूर आएगा और उस का लाभ आने वाली पीढि़यों को अवश्य होगा.’’

‘‘सही बात है, यीरंग. बहुत से वृक्ष ऐसे होते हैं जिन्हें लगाने वाले उन के फलों का आनंद कभी नहीं ले पाते. मगर फिर भी वे उन्हें लगाते हैं अपनी अगली पीढ़ी के लिए. शायद इसी तरह से कुछ इंसानी रिश्तों के फल भी देर में मिलते हैं. वक्त लगता है इन रिश्तों के अंकुरों को वृक्ष बनने में. एक न एक दिन इन वृक्षों के फल प्रेम की मिठास से जरूर पकते हैं. मगर, पहली बार किसी को तो बीज बोना ही होता है. तुम ने एक बार मुझ से कहा था कि ‘आज भी दुनिया में अच्छे लोगों की संख्या ज्यादा है, इसीलिए यह दुनिया चल भी रही है. जिस दिन यहां बुरे लोगों का प्रतिशत बढ़ेगा, यह दुनिया खत्म हो जाएगी.’ तुम सही थे, यीरंग, तुम बिलकुल सही थे.’’

और दूसरे दिन ‘स्वदेश के परदेसी’ अलाना और यीरंग आस्ट्रेलिया की भूमि पर पूर्णरूप से देसी बन कर अपने देसी भाई मनमीत सिंह की कैंडिल विजिल में शामिल होने के लिए सब से पहले पहुंच गए थे.

फातिमा बीबी- भाग 3: भारतीय फौज दुश्मनों के साथ भी मानवीय व्यवहार करती है?

‘‘‘ले जाओ पर ध्यान रहे, इस की जान को कुछ नहीं होना चाहिए. इस की सुरक्षा हमें अपनी जान से भी प्यारी है. पूरी रैजिमैंट की इज्जत का सवाल है.’

‘‘‘मैं समझता हूं, सर. जान चली जाएगी पर इस को कुछ नहीं होने दिया जाएगा,’ डाक्टर ने कहा.

‘‘‘इसे कुछ खिलापिला देना, सुबह से कुछ नहीं खाया.’

‘‘‘यस सर.’

‘‘‘एडयूटैंट साहब से बोलो, इस के बारे में सारी जानकारी हासिल करें और ब्रिगेड हैडक्वार्टर को इन्फौर्म करें,’ आदेश दे कर मैं अपने कमरे में आ गया.

‘‘थोड़ी देर बाद एडयूटैंट मेजर राम सिंह मेरे सामने थे.

‘‘‘सर, यह लड़की इसी गांव अल्लड़ की रहने वाली है. इस के साथ बहुत बुरा हुआ. सारा परिवार पाकिस्तानी फौजों के हाथों मारा गया. घर की जवान औरतों को वे साथ ले गए और बूढ़ी औरतों को बेरहमी से कत्ल कर दिया गया. इस भयानक दृश्य को इस ने अपनी आंखों से देखा है. यह किसी बड़े ट्रंक के पीछे छिपी रह गई और बच गई. पाक फौज इसे ढूंढ़ ही रही थी कि हमारी टुकड़ी से टक्कर हो गई. कुछ मारे गए, कुछ भाग गए. यह सियालकोट के जिन्ना कालेज के फर्स्ट ईयर की स्टूडैंट है. रावलपिंडी में इस का मामू रहता है जिस का उस ने पता दिया है.’

‘‘‘यह सब ब्रिगेड हैडक्वार्टर को लिख दो और आदेश का इंतजार करो.’

‘‘‘यस सर,’ कह कर एडयूटैंट साहब चले गए.

‘‘युद्ध के बाद चारों ओर भयानक शांति थी, श्मशान सी शांति. दूसरे रोज फातिमा के लिए आदेश आया कि 2 रोज के बाद पाकिस्तान के मिलिटरी कमांडरों के साथ कई मुद्दों को ले कर सियालकोट के पास मीटिंग है. उस में फातिमा के बारे में भी बताया जाएगा. यदि उन के कमांडर रावलपिंडी से उस के मामू को बुला कर वापस लेने के लिए तैयार हो गए तो ठीक है, नहीं तो वह पीछे कैंप में भेजी जाएगी, तब तक वह आप की रैजिमैंट में रहेगी, मेहमान बन कर. हमें ऐसे आदेश की आशा नहीं थी. सारी रैजिमैंट समझ नहीं पा रही थी कि ब्रिगेड ने ऐसा आदेश क्यों दिया.

‘‘हमारे अगले 2 दिन बड़े व्यस्त थे. मोरचाबंदी के साथसाथ घायल सैनिकों को पीछे बड़े अस्पताल में भेजना था. शहीद सैनिकों के शव भी पीछे भिजवाने थे. सब से महत्त्वपूर्ण था, लिस्ट बना कर पाकिस्तान के शहीद सैनिकों को दफनाना. उन की बेकद्री किसी भी कीमत पर बरदाश्त नहीं की जा सकती थी. इस में पूरे 2 दिन लग गए. हम जान ही नहीं पाए कि फातिमा कैसी है और किस हाल में है.

‘‘जब याद आया तो मेरे पांव खुद ही एमआई रूम की ओर उठ चले. जब वहां पहुंचा तो फातिमा नाश्ता कर रही थी. मुझे देखते ही उठ खड़ी हुई.

‘‘‘बैठोबैठो, नाश्ता करो. माफ करना, फातिमा, 2 दिन तक हम आप की सुध नहीं ले पाए. आप को कोई तकलीफ तो नहीं हुई?’

‘‘‘नहीं सर, कोई तकलीफ नहीं हुई, बल्कि सभी ने इतनी खिदमत की कि मैं अपने गमों को भूलने लगी,’ फिर प्रश्न किया, ‘आप सभी दुश्मनों के साथ ऐसा ही व्यवहार करते हैं?’

‘‘‘यह हिंदुस्तानी फौज की रिवायत है, परंपरा है कि हमारी फौज अपने दुश्मनों के साथ भी मानवीय व्यवहार करने के लिए पूरी दुनिया में जानी जाती है.’

‘‘फिर मैं ने ब्रिगेड के आदेश और 2 दिन बाद कमांडरों की मीटिंग के बारे में बताया कि यदि उन्होंने मान लिया तो बहुत जल्दी वह अपने मामू के पास भेज दी जाएगी.

‘‘‘सर, यदि ऐसा हो गया तो मरते दम तक मैं आप को, आप के पूरे परिवार को यानी आप की रैजिमैंट को, उन जांबाज जवानों को जिन्होंने

अपनी जान पर खेल कर पाक फौजी दरिंदों से मुझे बचाया था, कभी भूल नहीं पाऊंगी.’

‘‘‘हमारी फौज की यही परंपरा है कि जब कोई हम से विदा ले तो वह उम्रभर हमें भूल कर भी भूल न पाए.’

‘‘एक सप्ताह के भीतर फातिमा को हमारे और पाक कमांडरों की देखरेख में सियालकोट के पास उस के मामू के हवाले कर दिया गया.’’

कर्नल अमरीक सिंह पूरी कहानी सुना कर फिर भावुक हो उठे. उन की आंखें फिर नम हो गईं.

कैप्टन नूर मुहम्मद ने कहा, ‘‘सर, मेरे लिए क्या आदेश है? क्या फातिमा को आने के लिए लिखा जाए?’’

‘‘नहीं, कैप्टन साहब, फातिमा को उन की मीठी यादों के सहारे जीने दो. किसी भी मुल्क के सिविलियन को मिलिटरी यूनिट विजिट करने की इजाजत नहीं दी जा सकती. हां, उस के लिए हमारी ओर से तोहफा ले कर आप अवश्य जाएंगे, बिना किसी अंतर्विरोध के. उस का देश हमारे देश में आतंकवाद फैलाता है, लाइन औफ कंट्रोल पर जवानों के गले काटता है, 26/11 जैसे हमले करता है, सूसाइड बौंबर भेजता है.’’

भाभी : भाग 3

इसी तरह समय बीतने लगा और भाभी की बेटी 3 साल की हो गई तो फिर से उन के गर्भवती होने का पता चला और इस बार भाभी की प्रतिक्रिया पिछली बार से एकदम विपरीत थी. परिस्थितियों ने और समय ने उन को काफी परिपक्व बना दिया था.

गर्भ को 7 महीने बीत गए और अचानक हृदयविदारक सूचना मिली कि भाई की घर लौटते हुए सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई है. यह अनहोनी सुन कर सभी लोग स्तंभित रह गए. कोई भाभी को मनहूस बता रहा था तो कोई अजन्मे बच्चे को कोस रहा था कि पैदा होने से पहले ही बाप को खा गया. यह किसी ने नहीं सोचा कि पतिविहीन भाभी और बाप के बिना बच्चे की जिंदगी में कितना अंधेरा हो गया है. उन से किसी को सहानुभूति नहीं थी.

समाज का यह रूप देख कर मैं कांप उठी और सोच में पड़ गई कि यदि भाई कमउम्र लिखवा कर लाए हैं या किसी की गलती से दुर्घटना में वे मारे गए हैं तो इस में भाभी का क्या दोष? इस दोष से पुरुष जाति क्यों वंचित रहती है?

एकएक कर के उन के सारे सुहाग चिह्न धोपोंछ दिए गए. उन के सुंदर कोमल हाथ, जो हर समय मीनाकारी वाली चूडि़यों से सजे रहते थे, वे खाली कर दिए गए. उन्हें सफेद साड़ी पहनने को दी गई. भाभी के विवाह की कुछ साडि़यों की तो अभी तह भी नहीं खुल पाई थी. वे तो जैसे पत्थर सी बेजान हो गई थीं. और जड़वत सभी क्रियाकलापों को निशब्द देखती रहीं. वे स्वीकार ही नहीं कर पा रही थीं कि उन की दुनिया उजड़ चुकी थी.

एक भाई ही तो थे जिन के कारण वे सबकुछ सह कर भी खुश रहती थीं. उन के बिना वे कैसे जीवित रहेंगी? मेरा हृदय तो चीत्कार करने लगा कि भाभी की ऐसी दशा क्यों की जा रही थी. उन का कुसूर क्या था? पत्नी की मृत्यु के बाद पुरुष पर न तो लांछन लगाए जाते हैं, न ही उन के स्वरूप में कोई बदलाव आता है. भाभी के मायके वाले भाई की तेरहवीं पर आए और उन्हें साथ ले गए कि वे यहां के वातावरण में भाई को याद कर के तनाव में और दुखी रहेंगी, जिस से आने वाले बच्चे और भाभी के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ेगा. सब ने सहर्ष उन को भेज दिया यह सोच कर कि जिम्मेदारी से मुक्ति मिली. कुछ दिनों बाद उन के पिताजी का पत्र आया कि वे भाभी का प्रसव वहीं करवाना चाहते हैं. किसी ने कोई एतराज नहीं किया. और फिर यह खबर आई कि भाभी के बेटा हुआ है.

हमारे यहां से उन को बुलाने का कोई संकेत दिखाई नहीं पड़ रहा था. लेकिन उन्होंने बुलावे का इंतजार नहीं किया और बेटे के 2 महीने का होते ही अपने भाई के साथ वापस आ गईं. कितना बदल गई थीं भाभी, सफेद साड़ी में लिपटी हुई, सूना माथा, हाथ में सोने की एकएक चूड़ी, बस. उन्होंने हमें बताया कि उन के मातापिता उन को आने नहीं दे रहे थे कि जब उस का पति ही नहीं रहा तो वहां जा कर क्या करेगी लेकिन वे नहीं मानीं. उन्होंने सोचा कि वे अपने मांबाप पर बोझ नहीं बनेंगी और जिस घर में ब्याह कर गई हैं, वहीं से उन की अर्थी उठेगी.

मैं ने मन में सोचा, जाने किस मिट्टी की बनी हैं वे. परिस्थितियों ने उन्हें कितना दृढ़निश्चयी और सहनशील बना दिया है. समय बीतते हुए मैं ने पाया कि उन का पहले वाला आत्मसम्मान समाप्त हो चुका है. अंदर से जैसे वे टूट गई थीं. जिस डाली का सहारा था, जब वह ही नहीं रही तो वे किस के सहारे हिम्मत रखतीं. उन को परिस्थितियों से समझौता करने के अतिरिक्त कोई चारा दिखाई नहीं पड़ रहा था. फूल खिलने से पहले ही मुरझा गया था. सारा दिन सब की सेवा में लगी रहती थीं.

उन की ननद का विवाह तय हो गया और तारीख भी निश्चित हो गई थी. लेकिन किसी भी शुभकार्य के संपन्न होते समय वे कमरे में बंद हो जाती थीं. लोगों का कहना था कि वे विधवा हैं, इसलिए उन की परछाईं भी नहीं पड़नी चाहिए. यह औरतों के लिए विडंबना ही तो है कि बिना कुसूर के हमारा समाज विधवा के प्रति ऐसा दृष्टिकोण रखता है. उन के दूसरे विवाह के बारे में सोचना तो बहुत दूर की बात थी. उन की हर गतिविधि पर तीखी आलोचना होती थी. जबकि चाचा का दूसरा विवाह, चाची के जाने के बाद एक साल के अंदर ही कर दिया गया. लड़का, लड़की दोनों मां के कोख से पैदा होते हैं, फिर समाज की यह दोहरी मानसिकता देख कर मेरा मन आक्रोश से भर जाता था, लेकिन कुछ कर नहीं सकती थी.

मेरे पिताजी पुश्तैनी व्यवसाय छोड़ कर दिल्ली में नौकरी करने का मन बना रहे थे. भाभी को जब पता चला तो वे फूटफूट कर रोईं. मेरा तो बिलकुल मन नहीं था उन से इतनी दूर जाने का, लेकिन मेरे न चाहने से क्या होना था और हम दिल्ली चले गए. वहां मैं ने 2 साल में एमए पास किया और मेरा विवाह हो गया. उस के बाद भाभी से कभी संपर्क ही नहीं हुआ. ससुराल वालों का कहना था कि विवाह के बाद जब तक मायके के रिश्तेदारों का निमंत्रण नहीं आता तब तक वे नहीं जातीं. मेरा अपनी चाची  से ऐसी उम्मीद करना बेमानी था. ये सब सोचतेसोचते कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला.

‘‘उठो दीदी, सांझ पड़े नहीं सोते. चाय तैयार है,’’ भाभी की आवाज से मेरी नींद खुली और मैं उठ कर बैठ गई. पुरानी बातें याद करतेकरते सोने के बाद सिर भारी हो रहा था, चाय पीने से थोड़ा आराम मिला. भाभी का बेटा, प्रतीक भी औफिस से आ गया था. मेरी दृष्टि उस पर टिक गई, बिलकुल भाई पर गया था. उसी की तरह मनमोहक व्यक्तित्व का स्वामी, उसी तरह बोलती आंखें और गोरा रंग.

इतने वर्षों बाद मिली थी भाभी से, समझ ही नहीं आ रहा था कि बात कहां से शुरू करूं. समय कितना बीत गया था, उन का बेटा सालभर का भी नहीं था जब हम बिछुड़े थे. आज इतना बड़ा हो गया है. पूछना चाह रही थी उन से कि इतने अंतराल तक उन का वक्त कैसे बीता, बहुतकुछ तो उन के बाहरी आवरण ने बता दिया था कि वे उसी में जी रही हैं, जिस में मैं उन को छोड़ कर गई थी. इस से पहले कि मैं बातों का सिलसिला शुरू करूं, भाभी का स्वर सुनाई दिया, ‘‘दामादजी क्यों नहीं आए? क्या नाम है बेटी का? क्या कर रही है आजकल? उसे क्यों नहीं लाईं?’’ इतने सारे प्रश्न उन्होंने एकसाथ पूछ डाले.

मैं ने सिलसिलेवार उत्तर दिया, ‘‘इन को तो अपने काम से फुरसत नहीं है. मीनू के इम्तिहान चल रहे थे, इसलिए भी इन का आना नहीं हुआ. वैसे भी, मेरी सहेली के बेटे की शादी थी, इन का आना जरूरी भी नहीं था. और भाभी, आप कैसी हो? इतने साल मिले नहीं, लेकिन आप की याद बराबर आती रही. आप की बेटी के विवाह में भी चाची ने नहीं बुलाया. मेरा बहुत मन था आने का, कैसी है वह?’’ मैं ने सोचने में और समय बरबाद न करते हुए पूछा.

‘‘क्या करती मैं, अपनी बेटी की शादी में भी औरों पर आश्रित थी. मैं चाहती तो बहुत थी…’’ कह कर वे शून्य में खो गईं.’’

‘‘चलो, अब चाचाचाची तो रहे नहीं, प्रतीक के विवाह में आप नहीं बुलाएंगी तो भी आऊंगी. अब तो विवाह के लायक वह भी हो गया है.’’

‘‘मैं भी अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाह रही हूं,’’ उन्होंने संक्षिप्त उत्तर देते हुए लंबी सांस ली.

‘‘एक बात पूछूं, भाभी, आप को भाई की याद तो बहुत आती होगी?’’ मैं ने सकुचाते हुए उन्हें टटोला.

‘‘हां दीदी, लेकिन यादों के सहारे कब तक जी सकते हैं. जीवन की कड़वी सचाइयां यादों के सहारे तो नहीं झेली जातीं. अकेली औरत का जीवन कितना दूभर होता है. बिना किसी के सहारे के जीना भी तो बहुत कठिन है. वे तो चले गए लेकिन मुझे तो सारी जिम्मेदारी अकेले संभालनी पड़ी. अंदर से रोती थी और बच्चों के सामने हंसती थी कि उन का मन दुखी न हो. वे अपने को अनाथ न समझें,’’ एक सांस में वे बोलीं, जैसे उन्हें कोई अपना मिला, दिल हलका करने के लिए.

‘‘हां भाभी, आप सही हैं, जब भी ये औफिस टूर पर चले जाते हैं तब अपने को असहाय महसूस करती हूं मैं भी. एक बात पूछूं, बुरा तो नहीं मानेंगी? कभी आप को किसी पुरुषसाथी की आवश्यकता नहीं पड़ी?’’ मेरी हिम्मत उन की बातों से बढ़ गई थी.

‘‘क्या बताऊं दीदी, जब मन बहुत उदास होता था तो लगता था किसी के कंधे पर सिर रख कर खूब रोऊं और वह कंधा पुरुष का हो तभी हम सुरक्षित महसूस कर सकते हैं. उस के बिना औरत बहुत अकेली है,’’ उन्होंने बिना संकोच के कहा.

‘‘आप ने कभी दूसरे विवाह के बारे में नहीं सोचा?’’ मेरी हिम्मत बढ़ती जा रही थी.

‘‘कुछ सोचते हुए वे बोलीं,  ‘‘क्यों नहीं दीदी, पुरुषों की तरह औरतों की भी तो तन की भूख होती है बल्कि उन को तो मानसिक, आर्थिक सहारे के साथसाथ सामाजिक सुरक्षा की भी बहुत जरूरत होती है. मेरी उम्र ही क्या थी उस समय. लेकिन जब मैं पढ़ीलिखी न होने के कारण आर्थिक रूप से दूसरों पर आश्रित थी तो कर भी क्या सकती थी. इसीलिए मैं ने सब के विरुद्ध हो कर, अपने गहने बेच कर आस्था को पढ़ाया, जिस से वह आत्मनिर्भर हो कर अपने निर्णय स्वयं ले सके. समय का कुछ भी भरोसा नहीं, कब करवट बदले.’’

उन का बेबाक उत्तर सुन कर मैं अचंभित रह गई और मेरा मन करुणा से भर आया, सच में जिस उम्र में वे विधवा हुई थीं उस उम्र में तो आजकल कोई विवाह के बारे में सोचता भी नहीं है. उन्होंने इतना समय अपनी इच्छाओं का दमन कर के कैसे काटा होगा, सोच कर ही मैं सिहर उठी थी.

‘‘हां भाभी, आजकल तो पति की मृत्यु के बाद भी उन के बाहरी आवरण में और क्रियाकलापों में विशेष परिवर्तन नहीं आता और पुनर्विवाह में भी कोई अड़चन नहीं डालता, पढ़ीलिखी होने के कारण आत्मविश्वास और आत्मसम्मान के साथ जीती हैं, होना भी यही चाहिए, आखिर उन को किस गलती की सजा दी जाए.’’

‘‘बस, अब तो मैं थक गई हूं. मुझे अकेली देख कर लोग वासनाभरी नजरों से देखते हैं. कुछ अपने खास रिश्तेदारों के भी मैं ने असली चेहरे देख लिए तुम्हारे भाई के जाने के बाद. अब तो प्रतीक के विवाह के बाद मैं संसार से मुक्ति पाना चाहती हूं,’’ कहतेकहते भाभी की आंखों से आंसू बहने लगे. समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा न करने के लिए कह कर उन का दुख बढ़ाऊंगी या सांत्वना दूंगी, मैं शब्दहीन उन से लिपट गई और वे अपना दुख आंसुओं के सहारे हलका करती रहीं. ऐसा लग रहा था कि बरसों से रुके हुए आंसू मेरे कंधे का सहारा पा कर निर्बाध गति से बह रहे थे और मैं ने भी उन के आंसू बहने दिए.

अगले दिन ही मुझे लौटना था, भाभी से जल्दी ही मिलने का तथा अधिक दिन उन के साथ रहने का वादा कर के मैं भारी मन से ट्रेन में बैठ गई. वे प्रतीक के साथ मुझे छोड़ने के लिए स्टेशन आई थीं. ट्रेन के दरवाजे पर खड़े हो कर हाथ हिलाते हुए, उन के चेहरे की चमक देख कर मुझे सुकून मिला कि चलो, मैं ने उन से मिल कर उन के मन का बोझ तो हलका किया.

Raksha Bandhan : काश मेरी बेटी होती – भाग 3

बेटे के विवाह के बाद उस का काम बहुत बढ़ गया था. आई तो एक बहू ही थी पर उस के साथ एक नया रिश्ता आया था, रिश्तेदार आए थे, जिन को सहेजने में उस की ऐसी की तैसी हो जाती थी. बेटेबहू के अनियमित व अचानक बने प्रोग्रामों की वजह से उस की खुद की दिनचर्या अनियमित हो रही थी. अच्छी मां व सास बनने के चक्कर में वह पिस रही थी. बच्चों को हमेशा बेसिरपैर की दिनचर्या देख कर उस ने बच्चों को घर की एक चाबी ही पकड़ा दी कि वे जब भी कहीं जाएं तो चाबी साथ ले कर जाएं. क्योंकि उन की वजह से वे दोनों कहीं नहीं जा पाते. रसोई में मदद के लिए एक कामवाली का इंतजाम किया. तब जा कर थोड़ी समस्या सुलझी. फिर बहू को भी नौकरी मिल गई. वह भी बेटे के साथ घर से निकल जाती और उस से थोड़ी देर पहले ही घर आती व सीधे अपने कमरे में घुस कर आराम करती.

रक्षा सोचती कि मजे हैं आजकल की लड़कियों के. शादी से पहले भी अपनी मरजी की जिंदगी जीती हैं और बाद में भी. एक उस की पीढ़ी थी. पहले मां बाप का डर, बाद में सासससुर और पति का डर और अब बेटेबहू का डर. ‘आखिर अपनी जिंदगी कब जी हमारी पीढ़ी ने?’ रक्षा की सोच भी जयंति की तरह नईपुरानी पीढ़ियों के बीच झूलती रहती. कभी अपनी पीढ़ी सही लगती, कभी आज की.

उन की खुद की पीढ़ी ने तो विवाह से पहले मातापिता की भी मौका पङने पर जरूरत पूरी की. संस्कारी बहू रही तो ससुराल में सासससुर के अलावा बाकी परिवार की भी साजसंभाल की और अब बहू व बेटों के लिए भी कर रहे हैं. कल इन के बच्चे भी पालने पड़ेंगे.

शिक्षित रक्षा सोचती कि आखिर महिला सशक्तिकरण का युग इसी पीढ़ी के हिस्से आया है. पर उन की पीढ़ी कब इस सशक्तिकरण का हिस्सा बनेगी? जिन पर पति के नाम के जीव ने भी पूरा शासन किया, रुपए भी गिन कर दिए. जबकि खुद अच्छाखासा कमा लाने लायक शिक्षा अर्जित की थी.

‘‘कैसा महिला सशक्तिकरण?’’ वह आश्चर्य से कहती और जयंति व शोभा के आगे बड़बड़ा कर अपनी भड़ास निकालती. उस की यह विचारधारा उन दोनों शिक्षित महिलाओं को भी प्रभावित करती, पर बाहरी तौर पर. क्योंकि वे सीधी तौर पर तीसरी पीढ़ी से अभी प्रभावित नहीं हो रही थीं. पर शोभा उन दोनों के अनुभव सुनसुन कर बहू के बारे में तरहतरह के पुर्वाग्रहों से ग्रस्त हो बैठी थी. पहले तो बेटा ही इतना नखरेबाज था ऊपर से बहू न जाने कैसी हो. बहू की मनभावन काल्पनिक तसवीर उस ने अपने मस्तिष्क के कैनवास से पूरी तरह मिटा दी थी. रक्षा ठीक कहती है कि आजकल की ऐसी बिगड़ैल बेटियां ही तो बहुएं बन रही हैं। आखिर ऊपर से थोड़े ही न उतरेंगी. उस का सालों का मासूम सा सपना भी दिल ही दिल में दम तोड़ चुका था. जब वह सोचा करती थी कि काश, उस की भी बेटी होती. बेटी तो नहीं हुई पर बड़े होते बेटे को देख कर वह नन्हा सा ख्वाब पालने लगी थी कि उस की प्यारी सी बहू आएगी और उस का सालों का बेटी का सपना पूरा हो जाएगा. पर रक्षा की बातों से उस ने यह उम्मीद भी छोड़ दी थी.

अब वह मन ही मन हर आने वाले संकट के लिए तैयार हो गई थी. वह उम्र में उन दोनों से थोड़ी छोटी थी. पति की अच्छी आय के चलते उस का घर भी उन दोनों से बड़ा था. उस ने सोच लिया था कि बहू के साथ ज्यादा मुश्किल हुई तो बेटेबहू को ऊपर से पोर्शन में शिफ्ट कर देगी. रक्षा सही कहती है कि हमारे लिए महिला सशक्तिकरण के माने कब आकार लेगा?

बेटे ने 31वें साल में कदम रख दिया था. अब वह भी चाह रही थी कि बेटे का विवाह कर वह भी अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाए. शोभा के पति सुकेश भी सोचते थे कि उन के रिटायरमैंट से पहले बेटे का विवाह निबट जाए तो अच्छा है पर जैसे ही बेटे से विवाह की बात छेड़ते, बेटा बहाने बना कर उठ खड़ा होता. जब भी किसी रिश्ते के बारे में बात करती, बेटा हवा में उड़ा देता. जब भी किसी लङकी की तसवीर दिखाती तो परे खिसका देता. ये देखतेदेखते एक दिन वह उखड़ ही गई,”ऐसा कब तक चलेगा ॠषभ…कब तक शादी नहीं करेगा तू?’’

मां का आंचल अब नहीं : क्या अंकुर सुधर गया ?

कितना छोटा सा ही था अंकुर तब, पर उस की शिकायतें आनी शुरू हो गई थीं. उस की मां सुभाषिनी उसे कभी कुछ न कहती. बच्चा है, बड़े हो कर समझ आ जाएगी, हमेशा यही लगता रहा. टीचर, दोस्त, रिश्तेदार, महल्ले वालों की शिकायतों को हमेशा अपनी ममता की चादर तले ढंकती रही वह.

बमुश्किल अंकुर ने बड़े महंगे अमीर लोगों के स्कूल से पढ़ाई पूरी की. इतनी खानदानी प्रौपर्टी है, भला उसे डिग्रियों की बैसाखियों की क्या जरूरत. पर आएदिन उस के पास पैसों की कमी रहती. कभी पिता से मांगता, कभी मां से. जवान होते जरूरतें भी तो पूरी बड़ी हो गईं. कई लड़कियां दोस्त बन गईं. आएदिन ड्रिंक पार्टी होने लगी.

अंकुर शायद 14 वर्ष का रहा होगा जब एक लडक़ी और उस की मां ने घर पर आ कर सुभाषिनी से अंकुर की शिकायत की थी.

‘‘अपने बेटे को कृपया मना कर दें उस ने इस का स्कूल जाना दूभर कर दिया है. अपने दोस्तों संग गंदेगंदे कमैंट्स करता रहता है.’’

उस की मां का मन पहली दफा अंकुर के लिए आक्रोशित हुआ था. पर उसी दिन वह अपने नई बाइक से गिर ऐसा चोटिल हुआ कि वह कह ही नहीं पाई उसे कुछ. अंकुर के पिता अपने बिजनैस में कुछ ज्यादा ही व्यस्त रहते थे. उस दिन बिना लाइसैंस बाइक चला रहे अवयस्क बेटे के चलते थाना का चक्कर लग गया था, सो, एक शर्मिंदगीभरी क्रोधाग्नि भडक़ी थी.

‘‘खबरदार जो अब मोटरसाइकिल को हाथ लगाया, गलती की मैं ने जो तुम्हारी जिद के आगे झुक गया.’’ पिता ने यह कहा पर अंकुर ने अनसुना कर दिया. वे 8-10 लडक़े थे जो उसी आयु के थे और सडक़ों पर बाइकों से करतब दिखाने व ट्रैफिक को खराब करते.

शायद और डांटें पड़तीं पर उस की मां डेटौल-पट्टी इत्यादि ला उसे लगाने लगी. उस दिन के बाद से मां हमेशा अंकुर और बाप के बीच खड़ी रहती एक दीवार बन और उसी दीवार की आड़ में कब अंकुर की शरारतें अपराध की श्रेणी में आ गईं, सुभाषिनी जान ही न पाई. अजीबअजीब से उस के दोस्त बन गए थे और अंकुर को लगता, वे ही उस के सही हमदर्द हैं.

अंकुर की शैतानियां अब बचपना छोड़ चुकी थीं. पर बाप को अंकुर की करतूतें मालूम नहीं थीं. एक न एक दिन तो कलई खुलनी ही थी. एक दिन अंकुर ने मांग की कि वह गोवा 8 दिनों के लिए दोस्तों के साथ जाना चाहता है. उसे 2 लाख रुपए चाहिए. उसी दिन पिता के पास अटैची में 5 लाख रुपए थे. अंकुर अटैची खोलने लगा.

‘‘नहीं, मैं इतने पैसे नहीं दे सकता. क्या जरूरत है तुम्हें गोवा जाने की. अटैची छोड़ दे, किसी को भुगतान करना है, वही पैसे इस में हैं,’’ अंकुर के पिता सीढिय़ों से उतरने लगे और बोल रहे थे. अंकुर उतरता हुआ लगातार उन के हाथ से ब्रीफकेस छीनने का प्रयास करने लगा था. इस छीनाझपटी में भला 22-23 बरस के युवक से अधेड़ होता बाप कैसे जीतता.

रुपयों से भरे उस अटैची को छीन कर भागते वक्त अंकुर ने पलट कर भी नहीं देखा कि उस के पिता इस के बाद सीढिय़ों से लुढक़ते चले गए. पिता तो सिर्फ सीढ़ी से लुढक़े पर वह अब मां के आंखों से टपटप आंसुओं संग भी लुढक़ गया. पिता की न सिर्फ हड्डियां टूटीं बल्कि मन भी टूट गया. बचपन में अंकुर पर अंकुश न लगाने का ही यह नतीजा था.

अंकुर को अपने इकलौते होने का बड़ा गरूर था. पर थोड़ा ठीक होते ही उस के पिता ने एक पुराने वकील को बुलवा कर कानूनी तौर से उस के साथ संबंध विच्छेद कर लिया.

मां ने कुछ न कह अपनी सहमति ही जताई और शायद कोई राह शेष नहीं थी. अब आएदिन अंकुर की कुख्याति से अखबार पटने लगे क्योंकि घर से कुछ न मिलने पर वह राहजनी, लूट, रंगदारी करने लगा.

‘अंकुर ने एक लडक़ी को अगवा किया’

‘अंकुर पर बलात्कार का आरोप’

‘ड्रग रखने का आरोपी अंकुर’

आएदिन घर पर पुलिस व पत्रकारों के चक्कर लगते रहते. हालांकि, वह घर में आता ही नहीं था. वह कभी एक ठिकाना ढूंढ़ता, कभी दूसरा.

एक दिन उस के पिता की सहनशीलता की सीमा समाप्त हो गई और अपनी लाइसैंसी बंदूक से अपनी इहलीला समाप्त कर ली. अब मां अकेली थी जीवन प्रांगण में. खुद को जिम्मेदार मान लोहा लेती रही. कुपुत्र की कुख्याति से जाने कितने बरस गुजर गए, अंकुर का नाम अब खबरों से बाहर निकल गया था.

वह क्या सुधर गया था. मां के मन का एक कोना आशान्वित होता पर अगले ही क्षण दूसरे कोने जोरशोर से इसे नकारने लगते. मां पति की बचीखुची जमापूंजी को सहेज कर काम चलाती मनो बेटे के कुकर्मों का प्रायश्चित्त कर रही हो.

उधर, अंकुर ने अपनी तरफ से मांबाप दोनों को मरा मान लिया था. उस ने पता किया कि मां अकेली रह रही है तो एक योजना बनाई. और फिर एक रात अचानक वह मां के दरवाजे पर खड़ा था एक लडक़ी के साथ. सुभाषिनी ने मिचमिचाती आंखों से अधेड़ हो चले बेटे को देखा, मानो करंट लग गया उसे. विश्वास और अविश्वास की चौखट पर कुछ पल झूलती रही सुभाषिनी कि पुत्र को पार करने दे या नहीं.

आखिरकार ममता सब पर भारी पड़ी और विवेक हार गया.

‘‘मां, इस से मेरी शादी करा दे.’’

शुरूशुरू में वह सुभाषिनी की गोद में जब सिर रख कहता तो सुभाषिनी की आंखों में रसधार फूट पड़ते मानो पुराने दिन लौट आए हों. कुछ दिनों के लिए सुभाषिनी यह भूल गर्ई कि गया वक्त कभी नहीं लौटता. फिर धीरेधीरे अंकुर की हरकतें संदिग्ध लगने लगीं, वह कहीं आताजाता नहीं, अलबत्ता, वह लडक़ी बेबाक बाहर आतीजाती. कुछ ही दिनों में वह समझ गई कि अंकुर के रहते बच्चियां सुरक्षित नहीं हैं, बंदर ने गुलाटी मारना नहीं छोड़ा है.

सुभाषिनी परेशान रहने लगी. वह साए की तरह उन के साथसाथ रहती. फिर भी अंकुर की कुचेष्टाएं फन काढ़े उस का जीना हराम किए रहतीं.

रात को महरी और नौकर चले जाते तो सुभाषिनी ऊपर के कमरे में सोती. उस रात उस को खांसी का दौर ऐसा शुरू हुआ कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था. सो, वह दवाई लेने सीढिय़ों से उतर रही थी कि अंकुर के साथ आई लडक़ी की आवाज उसे सुनाई दी.

‘‘उफ. और कितने दिनों तक यहां छिपे रहोगे. तुम ने तो कहा था, तुम करोड़ों के वारिस हो. अब मैं और नहीं रह सकती यहां. उस ड्रग डीलर के फोन से भी मैं परेशान हो चुकी हूं.’’

‘‘अरे यार, आज ही मैं बुढिय़ा को टपकाता हूं और प्रौपर्टी के सारे कागजात व जेवर समेट अब यहां से निकला जाए.’’

अंकुर को एहसास नहीं था कि मां यह सब सुन रही है. सुभाषिनी जड़ हो गई उस की बातों को सुन. अंकुर बोला, “तुम रोजरोज मेरे पीछे न पड़ो. मैं देखता हूं कि कैसे वे करोड़ों मिलते हैं. मां ने कहीं गाड़ कर रखे हैं.

“यह पुलिस भी तो कुत्ते की तरह मेरे पीछे पड़ी है. दुनिया में अभी यहां से सुरक्षित कोई जगह नहीं है. पर मम्मीजी ने अब तक इतना माल दबाए रखा है कि छोड़ते नहीं भी नहीं बन रहा. इस घर के अलावा और भी कितने घरजमीन की यह मालकिन है, सब मेरा ही तो है. अब जो यहां से निकले तो देश वापस नहीं आना है. बस, किसी तरह निकल जाऊं उस ड्रग डीलर के मुंह पर पैसे मार कर.”

अंकुर ने ऐसा कहा तो उस लडक़ी ने कहा, ‘‘जो करना है, जल्दी करो, वरना पुलिस तो बाद में आएगी. वह ड्रग डीलर सूघंते यहां पहुंच गया तो न प्रौपर्टी बचेगी, न तुम्हारी मम्मी और न ही ये जेवर.’’

मां को अंदर कमरे की यह बातचीत और हलचल बेचैन करने लगी, जी किया कि उसी मनहूस रिवौल्वर से खुद को वह भी गोली मार ले पर इस से तो अंकुर को आसानी ही हो जाएगी. ऊपर कमरे से आ रही खांसी की आवाज ने उस की तंद्रा को भंग किया. वर्षों पहले पिता को सीढिय़ों से गिराने वाला बेटा आज मां को भी तर्पण दे कर ही जाएगा. खांसी की आवाज लगातार अपनी उपस्थिति जता रही थी.

सुभाषिनी चेयर पर झूल रही थी. अंकुर को नहीं मालूम था कि विचारों की अंधड़ मन में चल रही थी, थपेड़ों से उन का शरीर कांप रहा था. आंखों से क्रोधाग्नि से तप्त अश्क, गंगाजमना बन कलेजे पर बरछियां चला रहे थे. अंकुर का बचपन बारबार मानस पर चलचित्र की भांति चल रहा था.

शादी के बरसों बाद अंकुर गोद में आया था. काफी इलाज के बाद शारीरिक कमियों को हराते हुए उसे पाया था. शायद संकेत था कि निपूती रहना ही श्रेस्कर होगा. इतने वर्षों बाद गोद हरी हुई तो अंकुर की कोई गलती कभी महसूस ही नहीं हुई. कैसा कुलतारण कपूत निकला जैसे कोई वैर निकालने ही पैदा हुआ.

तभी दरवाजे पर किसी ने खटखटाया. अंकुर ने खिडक़ी से झांका और घबराते हुए दौड़ कर हौल में आया. सुभाषिनी को बैठा देख वह झट से उस की गोदी में सिर घुसा शुतुरमुर्ग बन कहने लगा, ‘‘मां, दरवाजा मत खोलना, पुलिस आई है तेरे बेटे को पकड़ कर ले जाएगी.’’

बेटे से यह नजदीकी और प्यारभरे बोल मां का मन फिर भरमाते कि सुभाषिनी जोर से बोल पड़ी, ‘‘दरवाजा खुला है, अंदर चले आएं. फोन मैं ने ही किया था.’’ गला भर्रा चुका था, कंठ अवरुद्ध हो चुका था.

दीवारें बोल उठीं

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ज्योति से ज्योति जले- भाग 3: उन दोनों की पहचान कैसे हुई?

रश्मि ने यश की मम्मी की पूरी बात धैर्य से सुनी फिर बिना मेरी ओर देखे ही उन को वचन दे दिया कि वह यथाशक्ति उन की मदद करेगी. रश्मि जानती थी कि अगर वह मेरी ओर देखती तो शांतिजी को मदद करने का वचन नहीं दे पाती क्योंकि मैं उसे ऐसा करने से जरूर रोकती.

मुझे विश्वास था कि उसे कुछ भी कहना व्यर्थ था. फिर सोचा, एक आखिरी कोशिश कर लूं, शायद सफलता मिल जाए.

तब प्रत्युत्तर में उस ने जो कुछ कहा, वह मेरे लिए अप्रत्याशित था.

‘‘वर्षा दीदी, मैं अपना दर्द सीने में दबा कर सिर्फ खुशियां बांटने में विश्वास करती हूं. इसीलिए अपने गमों से न तो कभी आप का परिचय करवाया, न ही किसी और का, पर आज ऐसा करना मेरे लिए जरूरी हो गया है.

‘‘दीदी, मैं ने बचपन और जवानी के चंद वर्षों का हर पल अभावों में गुजारा है. कभीकभी तो हमारे घर खाने को भी कुछ नहीं होता था. मैं भूखी रहती, पर कभी भी अपने ही पड़ोस में रहने वाले अपने सगे चाचा के घर जा कर रोटी का एक निवाला तक पाने की कोशिश नहीं की. धन के अभाव में मैं ने अपनी मां को तिलतिल मरते देखा है. मेरा इकलौता छोटा भाई इलाज के अभाव में मर गया. उस के हृदय में सुराख था.

‘‘ऐसी बात नहीं थी कि हम गरीब थे. पापामम्मी दोनों अध्यापक थे लेकिन पापा अपने वेतन का अधिकतर हिस्सा जरूरतमंदों की मदद में खर्च करते तब मां के सामने घर खर्च चलाने में कितनी दिक्कतें आती होंगी.’’

मैं सांस रोके उस की आपबीती सुनती रही.

‘‘मम्मी खुद भी अपने कर्तव्य एवं अपने विद्यार्थियों के प्रति पूर्णतया समर्पित एक आदर्श शिक्षिका थीं. वह हमेशा कहतीं, ‘बेटी, एक शिक्षिका के तौर पर मेरी यह दृढ़ मान्यता है कि किसी भी विद्यार्थी की असफलता के पीछे शिक्षक की नाकामयाबी छिपी होती है. इसलिए मैं हमेशा इसी प्रयास में रहती हूं कि विद्यार्थियों को मैं अपनी तरफ से बेहतरीन शिक्षा दूं.’ मम्मी का जीवन मंत्र था, ‘प्यार, विद्या और खुशियां बांटने से बढ़ते हैं.’ उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी इस मंत्र को आत्मसात करने में गुजार दी.

‘‘वर्षा दीदी, अब आप ही बताइए कि ऐसे आदर्श मातापिता की बेटी हो कर अगर मैं उन की राह न चलूं तो क्या यह उन के प्रति अन्याय नहीं होगा? मेरा हर कार्य मम्मी के प्रति मेरी श्रद्धांजलि है.’’

मैं रश्मि की जिंदगी का यह पन्ना आज ही पढ़ सकी. जब मातापिता इतने उदार और आदर्श शिक्षक थे तब बेटी का भी ऐसा होना स्वाभाविक ही था. शायद यही राज है उस की कुशाग्र बुद्धि व प्रतिभा का. वह भी एक तेजस्वी और निष्ठावान शिक्षिका है. जब भी वह किसी विद्यार्थी के लिए किसी प्रसंग, किसी विषय पर भाषण या फिर वादविवाद के लिए निबंध तैयार करती तो उस विद्यार्थी का पहला पुरस्कार निश्चित होता.

उस की बातें सुनने के बाद मैं ने अपनेआप को वचन दिया कि मैं कभी भी उसे दूसरों की मदद करने की बात को ले कर टोकूंगी नहीं.

यश की मम्मी शांति को उस ने बाद में भी 15 हजार रुपए दिए थे क्योंकि उस के पापा की बीमारी ने उन्हें घर बेच कर एक गंदी बस्ती में रहने पर मजबूर किया था. वहां उस की जवानी में कदम रख रही बहन सुरक्षित नहीं थी. यह बात जब शांति ने रश्मि को बताई तो उस ने खुद का फिक्स्ड डिपाजिट तुड़वा कर उन्हें पैसे दे कर अच्छी सी बस्ती में किराए पर कमरा दिलवाया था.

Raksha Bandhan : अल्पना, भाग 3

‘‘अरे, मेरी शादी के वक्त से ही शशि बाबा को पसंद नहीं था. उस की नौकरी, तनख्वाह कुछ भी उन्हें मेरे लायक नहीं लगा था. लेकिन शशि देखने में इतना हैंडसम था कि मैं देखते ही उस के प्यार में पागल हो गई थी. और मांबाप के लाख समझाने पर भी मैं शशि से ही शादी करने की जिद कर बैठी थी. आखिर मेरी जिद की वजह से मेरी शशि से शादी हो गई. शादी के बाद हम दोनों जब भी मांबाबा के घर जाते शशि को हमेशा ही लगता कि उस की नौकरी और कम तनख्वाह के कारण बाबा उसे नीची नजरों से देखते हैं.

‘‘मैं ने जब शशि की शिकायत बाबा से करी तो बाबा ने गुस्से में भर कर उसे सुना दिया कि तुम मेरी बेटी के लायक कभी थे ही नहीं और कभी हो भी नहीं सकते.

‘‘यह सब सुनने के बाद मेरा मायका छूट गया. शशि के स्वभाव ने और भयंकर रूप धारण कर लिया था… यही है मेरी गृहस्थी का असली रूप. मां बाबा और सुरेश अब अमेरिका में ही रहने लगे हैं… न वे कभी मेरे से मिलने आए और न मैं कभी उन के पास गई… जीवन में मुझे एक ही सुख मिला है और वह है मेरी बेटी प्रिया. उसे देख कर ही मैं जी रही हूं.’’

‘‘बेटी से कैसा सलूक है तुम्हारे पति का?’’

‘‘बेटी को तो वह बहुत प्यार करता है. लेकिन उस के स्वभाव के कारण प्रिया उस से डरी डरी सी रहती है… हम दोनों के झगड़े में पिसती जा रही है… हर समय सहमी सहमी सी रहती है.’’

‘‘तुम्हें कुछ दिन सुरेश के साथ मां बाबा के साथ जा कर रहना चाहिए.’’

‘‘मां बाबा सुरेश के साथ काफी सैटल हो गए हैं. उन्होंने वहां की सिटीजनशिप भी ले ली है. सुरेश और उस की पत्नी उन की बहुत सेवा करते हैं… ऐसे में मुझे अपना यह दुख उन के सिर पर डालना ठीक नहीं लगता. अच्छा यह सब रहने दो… तुम्हें और एक बात बतानी थी. मैं कल 4 बजे तक तुम्हारे घर आऊंगी… कुछ काम है… मां बाबा के कुछ पेपर्स देने हैं. तुम जब अमेरिका जाओ तो पेपर्स सुरेश को मेल कर देना.’’

‘‘हांहां, जरूर… जरूर आना कल. मैं और मृणाल वेट करेंगे… अपनी बेटी को भी लाना… उस से भी मुलाकात हो जाएगी,’’ कह कर मैं ने फोन बंद कर दिया.

मगर दूसरे दिन दोपहर 4 बजे तक का इंतजार हमें करना ही नहीं पड़ा. सुबहसुबह

7 बजे ही प्रिया का यानी अल्पना की बेटी का फोन आ गया. बहुत ही डरी आवाज में उस ने कहा, ‘‘अंकल, आप प्लीज अभी हमारे घर आ जाएं. कल पापा ने मम्मी को बहुत मारा है… मम्मी ने ही आप को फोन करने को कहा था.’’

मैं ने बिना कुछ सोचेसमझे अपनी गाड़ी निकाली. मृणाल को भी साथ ले लिया. फिर अपने एक पुलिस वाले दोस्त इंस्पैक्टर राणा को पुलिस की वरदी में अपने साथ ले लिया.

अल्पना के घर पहुंच गए. अल्पना की हालत बहुत खराब थी. उस की एक आंख सूजी हुई थी. दोनों गालों पर भी चोट के निशान दिखाई दे रहे थे. एक हाथ भी जख्मी था. वह बहुत घबराई हुई थी और कराह रही थी. प्रिया उस की बगल में बैठी थी. शशिकांत पलंग की दूसरी ओर सिर पकड़े बैठा था.

मुझे और मेरे साथ आए पुलिस इंस्पैक्टर को देख कर शशिकांत घबरा गया. फिर दूसरे  ही पल अपने तमाम पुरुष अहंकार को समेटते हुए अल्पना की तरफ देखते हुए बोला, ‘‘क्या तुम ने बुलाया है इन्हें यहां?’’

‘‘मैं इंस्पैक्टर राणा… आप की बेटी के फोन के आधार पर यहां इन्वैस्टिगेशन करने आया हूं.’’

शशिकांत इंसपैक्टर राणा की बात सुन कर हक्काबक्का रह गया.

मैं और मृणाल भी चुपचाप खड़े थे. पहले तो इंस्पैक्टर राणा ने शशिकांत को अपने कब्जे में किया. फिर मृणाल प्रिया के साथ घर पर रुकी रही और मैं और अल्पना पुलिस स्टेशन चले गए. अल्पना ने थाने में शशिकांत के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई.

इस के बाद अल्पना और प्रिया को ले कर हम दोनों अपने घर आ गए. घर आते ही मृणाल ने पहले सब के लिए चाय बनाई. अल्पना को पानी दे कर थोड़ा शांत  होने दिया और फिर थोड़ी देर बाद बहुत ही शांत संयत भाव से मैं ने अल्पना से पूछा, ‘‘क्या है यह सब अंजू? पत्नी पर इस तरह हाथ उठाना गुनाह है, यह क्या तुम्हारा पति जानता नहीं? क्या पहले भी कभी उस ने इस तरह मारा था?’’

‘‘ऐसा दूसरी बार हुआ है… 2-3 साल पहले मुझे औफिस में अचानक चक्कर आ गया था… मेरी तबीयत बहुत बिगड़ गई थी. तब मेरा एक कलीग मुझे घर छोड़ने आया था… तब भी शशि ने मुझे रात को इसी तरह मारा था… वह मेरे लिए बहुत पजैसिव है… मेरे साथ किसी और पुरुष को वह देख ही नहीं सकता.’’

‘‘वह देख नहीं सकता, लेकिन तुम यह सब सह कैसे लेती हो? पति को तुम्हारा नौकरी कर के पैसे कमाना मंजूर है, लेकिन तुम्हारे साथ किसी को देखना मंजूर नहीं? यह क्या बात हुई?’’

‘‘मैं ने भी यह सब हजार बार सोचा है अरुण… सिर्फ अपनी बेटी की सोच सब सहती रही हूं.’’

‘‘लेकिन सहन करने की कोई सीमा होती है, अंजू… मैं मानता हूं कि तुम मांबाबा, सुरेश और सब के बारे में सोच कर अपना दर्द आज तक छिपाती रही हो, लेकिन सहनशीलता की भी कोई सीमा होनी चाहिए… इतनी मार सहने की तुम्हें कोई जरूरत नहीं है. कभी न कभी सहनशीलता का भी अंत होना ही चाहिए.’’

‘‘वह आज हो गया अरुण… इतने दिनों तक मैं अपनी इस स्वीट बेटी के लिए चुप रही थी, लेकिन अब नहीं… अब वह सब समझ चुकी है… अब मुझे शशि से अलग होने से कोई नहीं रोक सकता.’’

‘‘वैरी गुड… हम सब तुम्हारे साथ हैं.’’

2-3 महीने तक प्रिया और अल्पना हमारे साथ ही रही. फिर अल्पना ने कोर्ट में तलाक का नोटिस दे दिया.

शशि काफी दिनों तक हमारे घर आ कर अल्पना को मनाने का नाटक करता रहा,

लेकिन अल्पना नहीं मानी. तलाक के लिए 6 महीने का सैपरेशन का समय जब शुरू हुआ तभी हमारा अमेरिका वापस जाने का समय भी आ गया. अल्पना और प्रिया के पास भी पासपोर्ट थे ही… जब हम दोनों अमेरिका वापस जा रहे थे तब अल्पना और प्रिया भी हमारे साथ अमेरिका जा रही थीं. उन दोनों को सुरेश तक पहुंचाने का जिम्मा मैं ने ही लिया था.

धुंध, भाग 3

रंगरूप में सानविका से अधिक श्रेष्ठ होने के भाव ने साधना को इतना अहंकारी बना दिया था, श्रेष्ठता का यह भाव उस के मन पर इस कदर हावी हो गया था कि सानविका की बुद्धि में श्रेष्ठ होने की बात साधना से बरदाश्त नहीं हो पा रही थी. अब वह हर बात पर सानविका को अपमानित करने लगी थी, और फिर धीरेधीरे यह उस की आदत भी बन गई.

धीरेधीरे साधना के दिलोंदिमाग पर उस के रंगरूप का घमंड इस तरह छा गया कि जिस के दंभ में उसे कुछ भी ना तो अब नजर आता था और न ही समझ में आता था.

साधना की बुद्धि पर अपने रंगरूप के अहंकार की ऐसी परतें जम गईं कि जिस की धुंध में वह अब कुछ भी देखसुन पाने में असक्षम थी, वह सानविका को अपमानित करने का कोई भी मौका अपने हाथ से जाने नहीं देती.

जहां सानविका पढ़ाई में एक के बाद एक सफलता प्राप्त करती जा रही थी, वहीं साधना का मन अब पढ़ाई से ही जी चुराने लगा था. वह अपनी सारी ऊर्जा, सारी शक्ति सिर्फ और सिर्फ सानविका को नीचा दिखाने में खर्च करने लगी थी. जैसे कि अब उस के जीवन का एकमात्र यही उद्देश्य रह गया हो…

सानविका ने जहां पीएचडी की डिगरी हासिल कर ली, वहीं साधना ग्रेजुएशन से आगे पढ़ ही नहीं सकी और फिर जल्द ही उस की शादी किसी बिजनैसमैन से कर दी गई. इधर सानविका ने भी अपने पसंद से समीर नाम के लड़के से शादी कर ली. लेकिन अपने घरगृहस्थी में जमने के बाद भी साधना के मन से सानविका के प्रति ईष्या एवं घृणा का भाव खत्म नहीं हुआ. सानविका को नीचा दिखाने का सिलसिला जारी ही रहा.

आएदिन साधना किसी न किसी बहाने सानविका को अपने घर पर बुला कर उसे अपमानित करती रहती. कई बार तो वह अपने घर के फंक्शन में मेहमानों के सामने ही उस का अपमान करने से नहीं चुकती. अकसर उस के रंगरूप का मजाक उड़ाया करती और दूसरी तरफ सानविका यह सभी कुछ चुपचाप मुसकरा कर सहन कर जाती.

साधना हर वह कोशिश करती, जिस में सानविका को छोटा या नीचा दिखा सके, लेकिन सानविका पर उस के इन बेकार की बातों का कुछ भी असर नहीं पड़ता.

सानविका पर असर न पड़ता देख साधना मन ही मन और भी चिढ़ जाती थी. और तब एक दिन साधना ने अपनी सारी हदें पार कर दी. उस दिन साधना ने बड़े प्यार से अपनी बहन सानविका को अपने घर बुलाया. उस के यहां बच्चे के जन्म की खुशी में पार्टी रखी गई थी, जिस में बहुत से मेहमान आमंत्रित थे. सभी बहुत खुश थे. डायमंड ज्वेलरी में सजीधजी साधना सब के आकर्षण का केंद्र बनी हुई थी. वह एकएक कर सभी मेहमानों से मिलती और सब का बड़े प्यार से स्वागत करती.

सानविका और समीर भी वहीं खड़े थे. लेकिन साधना ने उन की ओर देखा तक नहीं. समीर को साधना का यह व्यवहार अच्छा नहीं लग रहा था. इतने में साधना का पति अरूल वहां आया और उन दोनों का अन्य मेहमानों के साथ उस ने परिचय कराना चाहा, तभी साधना भी वहां पहुंच गई और सानविका की ओर देख कर बोली, ”अरे, तुम दोनों बाहर क्यों खड़े हो…? सानविका तू अंदर चल,” और फिर वह सानविका का हाथ पकड़े हुए अंदर कमरे की ओर बढ़ गई और अंदर जा कर साधना वापस दूसरे मेहमानों में व्यस्त हो गई. सानविका बच्चे को गोद में उठा कर उस के साथ खेलने लगी. उस दिन देर रात तक पार्टी चलती रही. रात 11 बजे के करीब सानविका और समीर अपने घर लौट आए, परंतु दूसरे दिन जब समीर औफिस के लिए और सानविका कालेज के लिए निकलने ही वाले थे कि उन के घर की डोर बेल बज उठी. समीर ने दरवाजा खोला तो देखा कि बाहर पुलिस खड़ी है. पुलिस को सामने खड़ी देख समीर ने आश्चर्यपूर्वक पूछा, “जी कहिए?”

”आप के घर की तलाशी लेनी है… आप के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई गई है…”

” किस बात की शिकायत?”

”डायमंड रिंग के चोरी होने की शिकायत, जिस की कीमत तकरीबन 5 लाख मिसेज अरूल ने बताई है.”

“आप को किसी प्रकार की गलतफहमी हुई है.”

”सारी गलतफहमियां अभी दूर हो जाएंगी… अरे, आप हटिए जरा… सामने से… पहले हमें घर की तलाशी लेने दीजिए…” और फिर दनदनाते हुए पुलिस अंदर घुस गई, और फिर सारे घर की तलाशी शुरू कर दी गई.

यह सब देखसुन कर समीर और सानविका को अपने आंखों पर जैसे भरोसा ही नहीं हुआ. वे बिलकुल स्तब्ध से खड़े रह कर पुलिस द्वारा की जा रही अपने घर की तलाशी को देखते रहे, उन के घर के हर एक समान की तलाशी ली गई और फिर बाद में सानविका के पर्स से डायमंड रिंग उन्होंने ढूंढ़ निकाली…

”क्या यह पर्स आप का है?” पर्स सानविका को दिखाते हुए पुलिस ने सवाल किया.

”हां, लेकिन यह रिंग इस में कैसे आई…? मुझे नहीं मालूम.”

”वह सब हमें नहीं पता… आप को हमारे साथ थाने चलना होगा,” और फिर सानविका को अपने साथ ले कर पुलिस वहां से चल देती है.

इधर घबराया हुआ सा समीर अरूल को फोन कर देता है. अरूल थाने पहुंच कर सानविका को छुड़ा लाता है और उन दोनों से माफी मांगते हुए कहता है, ”जो हुआ उस का मुझे बहुत अफसोस है. मेरा यकीन मानो, अगर मैं होता तो यह सबकुछ बिलकुल नहीं होने देता, कल रात बीच पार्टी में ही किसी जरूरी काम से बाहर जाना पड़ा. सुबह लौटा ही था कि समीर का फोन आया और मैं सीधा यहां पर आ गया. सच कहूं, तो मैं बेहद शर्मिंदा हूं… मुझे यकीन नहीं आता कि साधना इस हद तक गिर जाएगी…”

साधना द्वारा सानविका का यह अपमान समीर से बरदाश्त नहीं हुआ और उस ने तभी से उन दोनों बहनों के बीच एक लंबी रेखा खींच दी.

समीर ने सानविका को सख्त हिदायत दी कि अब से वह अपने बहन के बुलावे पर कभी भी उस के घर ना जाए, और तब से ले कर आज तक…, 20 वर्ष का एक लंबा अरसा गुजर गया. उन दोनों बहनों ने एकदूसरे का चेहरा देखना तो क्या आवाज तक नहीं सुनी थी.

सानविका उस रात ठीक से सो नहीं सकी. वह सारी रात यही सोचती रही कि आखिर वो ऐसी कौन सी बात है, जिस के कारण साधना दी उस से मिलना चाहती हैं.

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