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माहौल : सुलझ गई आत्महत्या की गुत्थी

सुमन ने फांसी लगा ली, यह सुन कर मैं अवाक रह गया. अभी उस की उम्र ही क्या थी, महज 20 साल. यह उम्र तो पढ़नेलिखने और सुनहरे भविष्य के सपने बुनने की होती है. ऐसी कौन सी समस्या आ गई जिस के चलते सुमन ने इतना कठोर फैसला ले लिया. घर के सभी सदस्य जहां इस को ले कर तरहतरह की अटकलें लगाने लगे, वहीं मैं कुछ पल के लिए अतीत के पन्नों में उलझ गया. सुमन मेरी चचेरी बहन थी. सुमन के पिता यानी मेरे चाचा कलराज कचहरी में पेशकार थे. जाहिर है रुपएपैसों की उन के पास कोई कमी नहीं थी. ललिता चाची, चाचा की दूसरी पत्नी थीं. उन की पहली पत्नी उच्चकुलीन थीं लेकिन ललिता चाची अतिनिम्न परिवार से आई थीं. एकदम अनपढ़, गंवार. दिनभर महल्ले की मजदूर छाप औरतों के साथ मजमा लगा कर गपें हांकती रहती थीं. उन का रहनसहन भी उसी स्तर का था. बच्चे भी उन्हीं पर गए थे.

मां के संस्कारों का बच्चों पर गहरा असर पड़ता है. कहते हैं न कि पिता लाख व्यभिचारी, लंपट हो लेकिन अगर मां के संस्कार अच्छे हों तो बच्चे लायक बन जाते हैं. चाचा और चाची बच्चों से बेखबर सिर्फ रुपए कमाने में लगे रहते. चाचा शाम को कचहरी से घर आते तो उन के हाथ में विदेशी शराब की बोतल होती. आते ही घर पर मुरगा व शराब का दौर शुरू हो जाता. एक आदमी रखा था जो भोजन पकाने का काम करता था. खापी कर वे बेसुध बिस्तर पर पड़ जाते.

ललिता चाची को उन की हरकतों से कोई फर्क नहीं पड़ता था, क्योंकि चाचा पैसों से सब का मुंह बंद रखते थे. अगले दिन फिर वही चर्चा. हालत यह थी कि दिन चाची और बच्चों का, तो शाम चाचा की. उन को 6 संतानों में 3 बेटे व 3 बेटियों थीं, जिन में सुमन बड़ी थी.

फैजाबाद में मेरे एक चाचा विश्वभान का भी घर था. उन के 2 टीनएजर लड़के दीपक और संदीप थे, जो अकसर ललिता चाची के घर पर ही जमे रहते. वहां चाची की संतानें दीपक व संदीप और कुछ महल्ले के लड़के आ जाते, जो दिनभर खूब मस्ती करते.

मेरे पिता की सरकारी नौकरी थी, संयोग से 3 साल फैजाबाद में हमें भी रहने का मौका मिला. सो कभीकभार मैं भी चाचा के घर चला जाता. हालांकि इस के लिए सख्त निर्देश था पापा का कि कोई भी पढ़ाईलिखाई छोड़ कर वहां नहीं जाएगा, लेकिन मैं चोरीछिपे वहां चला जाता.

निरंकुश जिंदगी किसे अच्छी नहीं लगती? मेरा भी यही हाल था. वहां न कोई रोकटोक, न ही पढ़ाईलिखाई की चर्चा. बस, दिन भर ताश, लूडो, कैरम या फिर पतंगबाजी करना. यह सिलसिला कई साल चला. फिर एकाएक क्या हुआ जो सुमन ने खुदकुशी कर ली? मैं तो खैर पापा के तबादले के कारण लखनऊ आ गया. इसलिए कुछ अनुमान लगाना मेरे लिए संभव नहीं था.

मैं पापा के साथ फैजाबाद आया. मेरा मन उदास था. मुझे सुमन से ऐसी अपेक्षा नहीं थी. वह एक चंचल और हंसमुख लड़की थी. उस का यों चले जाना मुझे अखर गया. सुमन एक ऐसा अनबुझा सवाल छोड़ गई, जो मेरे मन को बेचैन किए हुए था कि आखिर ऐसी कौन सी विपदा आ गई थी, जिस के कारण सुमन ने इतना बड़ा फैसला ले लिया.

जान देना कोई आसान काम नहीं होता? सुमन का चेहरा देखना मुझे नसीब नहीं हुआ, सिर्फ लाश को कफन में लिपटा देखा. मेरी आंखें भर आईं. शवयात्रा में मैं भी पापा के साथ गया. लाश श्मशान घाट पर जलाने के लिए रखी गई. तभी विश्वभान चाचा आए. उन्हें देखते ही कलराज चाचा आपे से बाहर हो गए, ‘‘खबरदार जो दोबारा यहां आने की हिम्मत की. हमारातुम्हारा रिश्ता खत्म.’’

कुछ लोगों ने चाचा को संभाला वरना लगा जैसे वे विश्वभान चाचा को खा जाएंगे.

ऐसा उन्होंने क्यों किया? वहां उपस्थित लोगों को समझ नहीं आया. हो सकता है पट्टेदारी का झगड़ा हो? जमीनजायदाद को ले कर भाईभतीजों में खुन्नस आम बात है. मगर ऐसे दुख के वक्त लोग गुस्सा भूल जाते हैं.

यहां भी चाचा ने गुस्सा निकाला तो मुझे उन की हरकतें नागवार गुजरीं. कम से कम इस वक्त तो वे अपनी जबान बंद रखते. गम के मौके पर विश्वभान चाचा खानदान का खयाल कर के मातमपुरसी के लिए आए थे.

पापा को भी कलराज चाचा की हरकतें अनुचित लगीं. चूंकि वे उम्र में बड़े थे इसलिए पापा भी खुल कर कुछ कह न सके. विश्वभान चाचा उलटेपांव लौट गए. पापा ने उन्हें रोकना चाहा मगर वे रुके नहीं.

दाहसंस्कार के बाद घर में जब कुछ शांति हुई तो पापा ने सुमन का जिक्र किया. सुन कर कलराज चाचा कुछ देर के लिए कहीं खो गए. जब बाहर निकले तो उन की आंखों के दोनों कोर भीगे हुए थे. बेटी का गम हर बाप को होता है. एकाएक वे उबरे तो बमक पड़े, ‘‘सब इस कलमुंही का दोष है,’’ चाची की तरफ इशारा करते हुए बोले. यह सुन कर चाची का सुबकना और तेज हो गया.

‘‘इसे कुछ नहीं आता. न घर संभाल सकती है न ही बच्चे,’’ कलराज चाचा ने कहा. फिर किसी तरह पापा ने चाचा को शांत किया. मैं सोचने लगा, ’चाचा को घर और बच्चों की कब से इतनी चिंता होने लगी. अगर इतना ही था तो शुरू से ही नकेल कसी होती. जरूर कोई और बात है जो चाचा छिपा रहे थे, उन्होंने सफाई दी, ‘‘पढ़ाई के लिए डांटा था. अब क्या बाप हो कर इतना भी हक नहीं?’’

क्या इसी से नाराज हो कर सुमन ने आत्महत्या जैसा आत्मघाती कदम उठाया? मेरा मन नहीं मान रहा था. चाचा ने बच्चों की पढ़ाई की कभी फिक्र नहीं की, क्योंकि उन के घर में पढ़ाई का माहौल ही नहीं था. स्कूल जाना सिर्फ नाम का था.

बहरहाल, इस घटना के 10 साल गुजर गए. इस बीच मैं ने मैडिकल की पढ़ाई पूरी की और संयोग से फैजाबाद के सरकारी अस्पताल में बतौर मैडिकल औफिसर नियुक्त हुआ. वहीं मेरी मुलाकात डाक्टर नलिनी से हुई. उन का नर्सिंगहोम था. उन्हें देखते ही मैं पहचान गया. एक बार ललिता चाची के साथ उन के यहां गया था. चाची की तबीयत ठीक नहीं थी. एक तरह से वे ललिता चाची की फैमिली डाक्टर थीं. चाची ने ही बताया कि तुम्हारे चाचा ने इन के कचहरी से जुड़े कई मामले निबटाने में मदद की थी. तभी से परिचय हुआ. मैं ने उन्हें अपना परिचय दिया. भले ही उन्हें मेरा चेहरा याद न आया हो मगर जब चाचा और चाची का जिक्र किया तो बोलीं, ‘‘कहीं तुम सुमन की मां की तो बात नहीं कर रहे?’’

‘‘हांहां, उन्हीं की बात कर रहा हूं,’’ मैं खुश हो कर बोला.

‘‘उन के साथ बहुत बुरा हुआ,’’ उन का चेहरा लटक गया.

‘‘कहीं आप सुमन की तो बात नहीं कर रहीं?’’

‘‘हां, उसी की बात कर रही हूं. सुमन को ले कर दोनों मेरे पास आए थे,’’

डा. नलिनी को कुछ नहीं भूला था. नहीं भूला तो निश्चय ही कुछ खास होगा?

‘‘क्यों आए थे?’’ जैसे ही मैं ने पूछा तो उन्होंने सजग हो कर बातों का रुख दूसरी तरफ मोड़ना चाहा.

‘‘मैडम, बताइए आप के पास वे सुमन को क्यों ले कर आए,’’ मैं ने मनुहार की.

‘‘आप से उन का रिश्ता क्या है?’’

‘‘वे मेरे चाचाचाची हैं. सुमन मेरी चचेरी बहन थी,’’ कुछ सोच कर डा. नलिनी बोलीं, ‘‘आप उन के बारे में क्या जानते हैं?’’

‘‘यही कि सुमन ने पापा से डांट खा कर खुदकुशी कर ली.’’

‘‘खबर तो मुझे भी अखबार से यही लगी,’’ उन्होंने उसांस ली. कुछ क्षण की चुप्पी के बाद बोलीं, ‘‘कुछ अच्छा नहीं हुआ.’’

‘‘क्या अच्छा नहीं हुआ?’’ मेरी उत्कंठा बढ़ती गई.

‘‘अब छोडि़ए भी गड़े मुरदे उखाड़ने से क्या फायदा?’’ उन्होंने टाला.

‘‘मैडम, बात तो सही है. फिर भी मेरे लिए यह जानना बेहद जरूरी है कि आखिर सुमन ने खुदकुशी क्यों की?’’

‘‘जान कर क्या करोगे?’’

‘‘मैं उन हालातों को जानना चाहूंगा जिन की वजह से सुमन ने खुदकुशी की. मैं कोई खुफिया विभाग का अधिकारी नहीं फिर भी रिश्तों की गहराई के कारण मेरा मन हमेशा सुमन को ले कर उद्विग्न रहा.’’

‘‘आप को क्या बताया गया है?’’

‘‘यही कि पढ़ाई के लिए चाचा ने डांटा इसलिए उस ने खुदकुशी कर ली.’’

इस कथन पर मैं ने देखा कि डा. नलिनी के अधरों पर एक कुटिल मुसकान तैर गई. अब तो मेरा विश्वास पक्का हो गया कि हो न हो बात कुछ और है जिसे डा. नलिनी के अलावा कोई नहीं जानता. मैं उन का मुंह जोहता रहा कि अब वे राज से परदा हटाएंगी. मेरा प्रयास रंग लाया.

वे कहने लगीं, ‘‘मेरा पेशा मुझे इस की इजाजत नहीं देता मगर सुमन आप की बहन थी इसलिए आप की जिज्ञासा शांत करने के लिए बता रही हूं. आप को मुझे भरोसा देना होगा कि यह बात यहीं तक सीमित रहेगी.’’

‘‘विश्वास रखिए मैडम, मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगा जिस से आप को रुसवा होना पड़े.’’

‘‘सुमन गर्भवती थी.’’  सुन कर सहसा मुझे विश्वास नहीं हुआ. मैं सन्न रह गया.

‘‘सुमन के गार्जियन गर्भ गिरवाने के लिए मेरे पास आए थे. गर्भ 5 माह का था. इसलिए मैं ने कोई रिस्क नहीं लिया.’’

मैं भरे मन से वापस आ गया. यह मेरे लिए एक आघात से कम नहीं था. 20 वर्षीय सुमन गर्भवती हो गई? कितनी लज्जा की बात थी मेरे लिए. जो भी हो वह मेरी बहन थी. क्या बीती होगी चाचाचाची पर, जब उन्हें पता चला होगा कि सुमन पेट से है? चाचा ने पहले चाची को डांटा होगा फिर सुमन को. बच निकलने का कोई रास्ता नहीं दिखा तो सुमन ने खुदकुशी कर ली.

मेरे सवाल का जवाब अब भी अधूरा रहा. मैं ने सोचा डा. नलिनी से खुदकुशी का कारण पता चल जाएगा तो मेरी जिज्ञासा खत्म हो जाएगी मगर नहीं, यहां तो एक पेंच और जुड़ गया. किस ने सुमन को गर्भवती बनाया? मैं ने दिमाग दौड़ाना शुरू किया. चाचा ने श्मशान घाट पर विश्वभान चाचा को देख कर क्यों आपा खोया? उन्होंने तो मर्यादा की सारी सीमा तोड़ डाली थी. वे उन्हें मारने तक दौड़ पड़े थे. मेरी विचार प्रक्रिया आगे बढ़ी. उस रोज वहां विश्वभान चाचा के परिवार का कोई सदस्य नहीं दिखा. यहां तक कि दिन भर डेरा डालने वाले उन के दोनों बेटे दीपक और संदीप भी नहीं दिखे. क्या रिश्तों में सेंध लगाने वाले विश्वभान चाचा के दोनों लड़कों में से कोई एक था? मेरी जिज्ञासा का समाधान मिल चुका था.

हत्या-आत्महत्या : ससुराल पहुंचने से पहले क्या हुआ था अनु के साथ ?

अनु के विवाह समारोह से उस की विदाई होने के बाद रात को लगभग 2 बजे घर लौटी थी. थकान से सुबह 6 बजे गहरी नींद में थी कि अचानक अनु के घर से, जो मेरे घर के सामने ही था, जोरजोर से विलाप करने की आवाजों से मैं चौंक कर उठ गई. घबराई हुई बालकनी की ओर भागी. उस के घर के बाहर लोगों की भीड़ देख कर किसी अनहोनी की कल्पना कर के मैं स्तब्ध रह गई. रात के कपड़ों में ही मैं बदहवास उस के घर की ओर दौड़ी. ‘अनु… अनु…’ के नाम से मां को विलाप करते देख कर मैं सकते में आ गई.

किसी से कुछ पूछने की हिम्मत नहीं हो रही थी. लेकिन मुझे वहां की स्थिति देख कर समझने में देर नहीं लगी. तो क्या अनु ने वही किया, जिस का मुझे डर था? लेकिन इतनी जल्दी ऐसा करेगी, इस का मुझे अंदेशा नहीं था. कैसे और कहां, यह प्रश्न अनुत्तरित था, लेकिन वास्तविकता तो यह कि अब वह इस दुनिया में नहीं रही. यह बहुत बड़ी त्रासदी थी. अभी उम्र ही क्या थी उस की…? मैं अवाक अपने मुंह पर हाथ रख कर गहन सोच में पड़ गई.

मेरा दिमाग जैसे फटने को हो रहा था. कल दुलहन के वेश में और आज… पलक झपकते ही क्या से क्या हो गया. मैं मन ही मन बुदबुदाई. मेरी रूह अंदर तक कांप गई. वहां रुकने की हिम्मत नहीं हुई और क्यों कर रुकूं… यह घर मेरे लिए उस के बिना बेगाना है. एक वही तो थी, जिस के कारण मेरा इस घर में आनाजाना था, बाकी लोग तो मेरी सूरत भी देखना नहीं चाहते.

मैं घर आ कर तकिए में मुंह छिपा कर खूब रोई. मां ने आ कर मुझे बहुत सांत्वना देने की कोशिश की तो मैं उन से लिपट कर बिलखते हुए बोली, ‘‘मां, सब की माएं आप जैसे क्यों नहीं होतीं? क्यों लोग अपने बच्चों से अधिक समाज को महत्त्व देते हैं? क्यों अपने बच्चों की खुशी से बढ़ कर रिश्तेदारों की प्रतिक्रिया का ध्यान रखते हैं? शादी जैसे व्यक्तिगत मामले में भी क्यों समाज की दखलंदाजी होती है? मांबाप का अपने बच्चों के प्रति यह कैसा प्यार है जो सदियों से चली आ रही मान्यताओं को ढोते रहने के लिए उन के जीवन को भी दांव पर लगाने से नहीं चूकते? कितना प्यार करती थी वह जैकब से? सिर्फ वह क्रिश्चियन है…? प्यार क्या धर्म और जाति देख कर होता है? फिर लड़की एक बार मन से जिस के साथ जुड़ जाती है, कैसे किसी दूसरे को पति के रूप में स्वीकार करे?’’ रोतेरोते मन का सारा आक्रोश अपनी मां के सामने उगल कर मैं थक कर उन के कंधे पर सिर रख कर थोड़ी देर के लिए मौन हो गई.

पड़ोसी फर्ज निभाने के लिए मैं अपनी मां के साथ अनु के घर गई. वहां लोगों की खुसरफुसर से ज्ञात हुआ कि विदा होने के बाद गाड़ी में बैठते ही अनु ने जहर खा लिया और एक ओर लुढ़क गई तो दूल्हे ने सोचा कि वह थक कर सो गई होगी. संकोचवश उस ने उसे उठाया नहीं और जब कार दूल्हे के घर के दरवाजे पर पहुंची तो सास तथा अन्य महिलाएं उस की आगवानी के लिए आगे बढ़ीं. जैसे ही सास ने उसे गाड़ी से उतारने के लिए उस का कंधा पकड़ा उन की चीख निकल गई. वहां दुलहन की जगह उस की अकड़ी हुई लाश थी. मुंह से झाग निकल रहा था.

चीख सुन कर सभी लोग दौड़े आए और दुलहन को देख कर सन्न रह गए.

दहेज से लदा ट्रक भी साथसाथ पहुंचा. लेकिन वर पक्ष वाले भले मानस थे, उन्होंने सोचा कि जब बहू ही नहीं रही तो उस सामान का वे क्या करेंगे? इसलिए उसी समय ट्रक को अनु के घर वापस भेज दिया. उन के घर में खुशी की जगह मातम फैल गया. अनु के घर दुखद खबर भिजवा कर उस का अंतिम संस्कार अपने घर पर ही किया. अनु के मातापिता ने अपना सिर पीट लिया, लेकन अब पछताए होत क्या, जब चिडि़यां चुग गई खेत.

एक बेटी समाज की आधारहीन परंपराओं के तहत तथा उन का अंधा अनुकरण करने वाले मातापिता की सोच के लिए बली चढ़ गई. जीवन हार गया, परंपराएं जीत गईं.

अनु मेरे बचपन की सहेली थी. एक साथ स्कूल और कालेज में पढ़ी, लेकिन जैसे ही उस के मातापिता को ज्ञात हुआ कि मैं किसी विजातीय लड़के से प्रेम विवाह करने वाली हूं, उन्होंने सख्ती से उस पर मेरे से मिलने पर पाबंदी लगाने की कोशिश की, लेकिनउस ने मुझ से मिलनेजुलने पर मांबाप की पाबंदी को दृढ़ता से नकार दिया. उन्हें क्या पता था कि उन की बटी भी अपने सहपाठी, ईसाई लड़के जैकब को दिल दे बैठी है. उन के सच्चे प्यार की साक्षी मुझ से अधिक और कौन होगा? उसे अपने मातापिता की मानसिकता अच्छी तरह पता थी. अकसर कहती थी, ‘‘प्रांजलि, काश मेरी मां की सोच तुम्हारी मां जैसे होती. मुझे एक बात समझ में नहीं आती कि मातापिता हमें अपनी सोच की जंजीरों में क्यों बांधना चाहते हैं. तो फिर हमें खुले आसमान में विचरने ही क्यों देते हैं? क्यों हमें ईसाई स्कूल में पढ़ाते हैं? क्यों नहीं पहले के जमाने के अनुसार हमारे पंख कतर कर घर में कैद कर लेते हैं? समय के अनुसार इन की सोच क्यों नहीं बदलती? ’’

मैं उस के तर्क सुन कर शब्दहीन हो जाती और सोचती काश मैं उस के मातापिता को समझा पाती कि उन की बेटी किसी अन्य पुरुष को वर के रूप में स्वीकार कर ही नहीं पाएगी, उन्हें बेटी चाहिए या सामाजिक प्रतिष्ठा, लेकिन उन्होंने मुझे इस अधिकार से वंचित कर दिया था.

अनु एक बहुत ही संवेदनशील और हठी लड़की थी. जैकब भी पढ़ालिखा और उदार विचारों वाला युवक था. उस के मातापिता भी समझदार और धर्म के पाखंडों से दूर थे. वे अपने इकलौते बेटे को बहुत प्यार करते थे और उस की खुशी उन के लिए सर्वोपरि थी. मैं ने अनु को कई बार समझाया कि बालिग होने के बाद वह अपने मातापिता के विरुद्ध कोर्ट में जा कर भी रजिस्टर्ड विवाह कर सकती है, लेकिन उस का हमेशा एक ही उत्तर होता कि नहीं रे, तुझे पता नहीं हमारी बिरादरी का, मैं अपने लिए जैकब का जीवन खतरे में नहीं डाल सकती… इतना कह कर वह गहरी उदासी में डूब जाती.

मैं उस की कुछ भी मदद न करने में अपने को असहाय पा कर बहुत व्यथित होती. लेकिन मैं ने जैकब और उस के परिवार वालों से कहा कि उस के मातापिता से मिल कर उन्हें समझाएं, शायद उन्हें समझ में आ जाए,

लेकिन इस में भी अनु के घर वालों को मेरे द्वारा रची गई साजिश की बू आई, इसलिए उन्होंने उन्हें बहुत अपमानित किया और उन के जाने के बाद अनु को मेरा नाम ले कर खूब प्रताडि़त किया. इस के बावजूद जैकब बारबार उस के घर गया और अपने प्यार की दुहाई दी. यहां तक कि उन के पैरों पर गिर कर गिड़गिड़ाया भी, लेकिन उन का पत्थर दिल नहीं पिघला और उस की परिणति आज इतनी भयानक… एक कली खिलने से पहले ही मुरझा गई. मातापिता को तो उन के किए का दंड मिला, लेकिन मुझे अपनी प्यारी सखी को खोने का दंश बिना किसी गलती के जीवनभर झेलना पड़ेगा.

लोग अपने स्वार्थवश कि उन की समाज में प्रतिष्ठा बढ़ेगी, बुढ़ापे का सहारा बनेगा और दैहिक सुख के परिणामस्वरूप बच्चा पैदा करते हैं और पैदा होने के बाद उसे स्वअर्जित संपत्ति मान कर उस के जीवन के हर क्षेत्र के निर्णय की डोर अपने हाथ में रखना चाहते हैं, जैसे कि वह हाड़मांस का न बना हो कर बेजान पुतली है. यह कैसी मानसिकता है उन की?

कैसी खोखली सोच है कि वे जो भी करते हैं, अपने बच्चों की भलाई के लिए करते हैं? ऐसी भलाई किस काम की, जो बच्चों के जीवन से खुशी ही छीन ले. वे उन की इस सोच से तालमेल नहीं बैठा पाते और बिना पतवार की नाव के समान अवसाद के भंवर में डूब कर जीवन ही नष्ट कर लेते हैं, जिसे हम आत्महत्या कहते हैं, लेकिन इसे हत्या कहें तो अधिक सार्थक होगा. अनु की हत्या की थी, मातापिता और उन के खोखले समाज ने.

पति विवाद में पहली हिंसा में ही पत्नी करे विरोध

लखनऊ ठाकुरगंज थाना क्षेत्र में आनंदेश्वर अग्रहरी उर्फ आनंद और जान्हवीं अग्रहरि उर्फ संध्या पतिपत्नी के रूप में रह रहे थे. 2008 में दोनों ने प्रेम विवाह किया था. दोनों के 2 बेटे तनिष्क और शोर्य थे. तनिष्क मूक बधिर था. आनंद फिजियोथेरैपिस्ट के रूप में काम करता था. पतिपत्नी दोनों के बीच झगड़े होते रहते थे.

2019 में झगड़े को ले कर मसला पुलिस तक गया था. हर बार समझौता हो जाता था. 4 दिसंबर को पहला झगड़ा हुआ. आनंद जुआ खेलने और नशे का आदी था. कुछ माह से वह आपना काम भी नहीं कर रहा था. ऐेसे में पैसों को ले कर पतिपत्नी में झगड़ा बढ़ गया था.

आनंद के बड़े बेटे तनिष्क ने पुलिस को लिख कर और साइन लैग्वेंज (इशारो से अपनी बात बताना) के जरीए पुलिस को बताना चाहा तो पुलिस उस बात को समझ नहीं पाई थी. ऐसे में एडीसीपी चिरंजीवी नाथ सिन्हा ने साइन लैग्वेंज की जानने वाली प्रिंसिपल को बुलवाया. उन के साथ बातचीत कर के तनिष्क ने घर का नक्षा बनाते हुए लिख कर समझाया कि ‘डैड ने पहले पैकेट खोल कर नशीला पदार्थ बच्चों और पत्नी को धोखे से पिला दिया.’

जब बच्चे बेहोश हो गए तो आनंद ने बेहोश पत्नी संध्या पर चाकू से 22 वार कर के मार दिया.’ इस के कुछ देर बाद शौर्य उठा तो उस ने अपनी नानी को फोन पर सारी जानकारी दी. आनंद फरार हो चुका था. इस तरह से आनंद और संध्या की प्रेम कहानी का अंत हो गया. अगर संध्या ने पहली हिंसा पर ही विरोध कर के अलग रहने का फैसला किया होता तो शायद वह जिंदा होती.

इसी तरह की दूसरी घटना लखनऊ के 80 किलोमीटर दूर रायबरेली जिले की है. मीरजापुर जिले के फरदहा घाटमपुर निवासी डाक्टर अरूण सिंह लालगंज रायबरेली स्थित रेल डिब्बा कारखाना के अस्पताल में 6 साल से नौकरी कर रहा था. उस के साथ पत्नी अर्चना, बेटी अदीवा और आरव रहता था. रहने के लिए टाइप-4 आवास उन को मिला था. वह दिन से डयूटी पर नहीं गया तो अस्पताल के कर्मचारी उस को देखने घर गए. घर के दरवाजे पर ताला लगा था. दूसरे दरवाजे अंदर से बंद थे. खिड़की से झांक कर देखने पर पता चला कि घर में सब मरे पड़े थे.

पुलिस के अनुसार डाक्टर अरूण ने मिठाई में जहर खिला कर पत्नी और बच्चों को बेहोश कर दिया. इस के बाद चेहरों पर हथौड़ी मार कर पहले पत्नी और बच्चों की हत्या कर दी. इस के बाद ग्राइडर मशी से अपनी नस काटनी चाही, असफल होने पर फंसी लगा कर जान दे दी. डाक्टर अरूण भी नशा करता था. आईजी पुलिस तरूण गाबा और एसपी आलोक प्रियदर्शी ने कहा कि घटना दुखद है. पुलिस इस की जांच कर रही है. इस तरह की घटनाएं नई नहीं हैं. हर शहर में कभी न कभी सामने आती है. ऐसे में महिलाएं किस तरह से अपना बचाव कर सकती हैं यह समझना जरूरी है.

नशा, जुआ और मैंटल हैल्थ बन रहा कारण

पतिपत्नी विवाद में झगड़े की शुरूआत धीरेधीरे होती है. शुरूआत में पत्नी को यह लगता है कि हर पतिपत्नी के बीच ऐसा होता है. धीरेधीरे सब ठीक हो जाता है. लेकिन धीरेधीरे सब ठीक नहीं होता बल्कि और बिगड़ जाता है. पत्नी दो कारणों से पति का विरोध नहीं कर पाती है. पहला उस के बच्चे हो जाते हैं. उसे लगता है इन को ले कर कहां जाएगी. दूसरे शादी के बाद लड़कियों को अपने मायके में भी साथ और सहयोग नहीं मिलता.

धर्म ग्रंथों में लड़कियों को यही समझाया जाता है कि शादी के बाद उन का घर ससुराल होता है. मायके से डोली में वह जाती है और ससुराल से उन की अर्थी ही निकलती है. समाज में उन महिलाओं को अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता जो सुसराल छोड़ कर अलग रहती है. अधिकतर महिलाएं आर्थिक रूप से कमजोर होती हैं. वह अलग रह कर अपना जीवन यापन नहीं कर सकती. सिंगल रहने वाली महिलाओं के प्रति समाज अच्छी नजर नहीं रखता है.

इस वजह से वह अपने फैसले खुद नहीं ले पाती है और हिंसा सह कर पति के साथ उस के घर में रहने को मजबूर होती है. मनोचिकित्सक डाक्टर मधु पाठक कहती है ‘जुआ खेलने के आदी ज्यादातर लोग नशे के भी आदी हो जाते हैं. नशा करने वाले की सहनशीलता और सोचनेसमझने की ताकत खत्म हो जाती है. वह अचानक गुस्से में आ जाता है. कई बार वह क्रोध में कई बार डिप्रेशन में घातक कदम उठा लेता है.

जल्दी नहीं मिलता तलाक

इस तरह की घटनाओं की शिकार पूजा वाजपेई कहती है, “हिंसा का विरोध करने पर जब लड़की मायके वालों को अपनी बात बताती है तो वह सलाह देते हैं थोड़ा सहन करो हर रिश्ते में ऐसा होता है. जब लड़की तलाक लेने के लिए जाती है तो सालोंसाल उस को भटकना पड़ता है. जब तलाक मिल जाता है तो उस के लिए मायके में भी जगह बहुत बार नहीं मिलती है. जब वह किराए के मकान में रहती है तो मध्यम वर्गीय शहरों में किराए पर घर नहीं मिलता.

सिंगल महिला के कैरेक्टर को ले कर सवाल उठते हैं. कई बार उस के आसपास के पुरूष गलत फायदा भी उठाने का प्रयास करते हैं. इन हालातों से बचने के लिए महिलाएं पतियों की प्रताड़ना सहती रहती है.’

पूजा खुद सिंगल पैरेंट है. वह अपनी बेटी के साथ अलग रहती है. पति के साथ विवाद के बाद उस ने पति से तलाक लेने का काम किया. 6 साल में उसे तलाक मिला. पूजा की शादी कम उम्र में हो गई थी. 26 साल में उस का तलाक हो गया. उस के पास काम करने का मौका था. उस ने जौब करना शुरू किया. अपनी बेटी को अपने पास रखा. अब वह सोशल मीडिया पर मुहिम चला कर सिंगल रहने वाली महिलाओं की मुश्किलों को हल करने में मदद भी कर रही है.

आत्मनिर्भरता जरूरी

समाज में यह बदलाव आने लगा है कि लड़कियां अब नौकरी करने लगी हैं. ज्यादातर की प्राइवेट जौब है. जिस में 10-12 हजार ही वेतन मिलता है. बड़े शहरों में यह 20-25 हजार हो जाता है. ऐसे में शादी के बाद वह जौब करना वह छोड़ देती है. शादी में अगर सब ठीक नहीं चला तो उन के पास जीवन यापन का कोई साधन नहीं होता.

ज्यादातर पति अपने घर परिवार के साथ घर में रह रहे होते हैं. ऐसे में पत्नी को घर में झगड़े के बाद रहने को मिल भी जाए तो शांति से रहना मुश्किल रहता है.

इस के उलट सरकारी नौकरी करने वाली लड़कियों को शादी के बाद नौकरी छोड़ने के लिए नहीं दबाव डाला जाता है. जिस से पति के साथ झगड़ा होने पर भी वह अपना जीवन गुजारने की हालत में होती है.

वह सिंगल रह भी लेती है और समाज भी उन के साथ खड़ा हो जाता है. पतिपत्नी विवादों में पुलिस और कचहरी के तमाम चक्कर लगाने पड़ते हैं. प्राइवेट संस्थान छुट्टियां नहीं देते. ऐसे में लड़कियों के सामने दिक्कतें होती हैं.

पूजा कहती है, ‘पति का घर छोड़ते ही हालात बदल जाते हैं. संयुक्त परिवार में पति के घर रहना नामुमकिन होता है. उन की बहू के साथ कोई लगाव नहीं रहता. वह खराब से खराब हालत में अपने बेटे का ही सपोर्ट करते हैं. लड़की के मांबाप उस को मायके नहीं ला पाते. उन को लगता है कि मायके में बैठी बेटी को देख कर उस के दूसरे लड़के लड़की के लिए अच्छे रिश्ते नहीं आएंगे.’

इन कारणो से ही लड़की हिंसा सहती है. अगर घर परिवार समाज और कानून उस की मदद करे तो वह मरने के लिए कभी पति के साथ नहीं रहेगी. लड़की को बेचारी समझने की जगह पर अगर उस की मदद की जाए तो समाज में बेहतर हालात बन सकते हैं. आत्मनिर्भर लड़कियां खुद के फैसले ले सकती हैं. शादी के बाद भी उनको जौब नहीं छोड़नी चाहिए. उन के पास एक ठिकाना जरूर होना चाहिए जहां वह जरूरत पड़ने पर बिना किसी दबाव के रह सके.

फिर सवालों के घेरे में ईवीएम मशीन, भाजपा पक्ष में खड़ी

5 राज्यों में हुए चुनाव में देश के 3 महत्वपूर्ण राज्य राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी की विजय से एक बार फिर सवाल उठ खड़े हुए हैं कि ईवीएम मशीन को हैक कर के कुछ भी किया जा सकता है.

पहले पहल बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती और फिर मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने ईवीएम मशीन पर सवाल खड़े किए हैं. जिस से देश में एक बार फिर ईवीएम मशीन पर चर्चा का दौर शुरू हो गया है.

मजे की बात यह है कि इस से भारतीय जनता पार्टी बौखला गई है और खुल कर ईवीएम का पक्ष ले रही है. भाजपा के एक बड़े नेता ईवीएम के पक्षधर बन गए हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस तरह बयान दे रहे हैं अगर उस का विश्लेषण करें तो पाते हैं कि वह विपक्ष को गुस्सा भूल कर के सकारात्मक दृष्टि से आगामी लोकसभा चुनाव की तैयारी करने की सलाह दे रहे हैं.

इस का सीधा सा मतलब यह है कि ईवीएम पर सवाल खड़ा नहीं किया जाए. लाख टके का सवाल यह है कि ईवीएम के आप इतने बड़े पक्षधर क्यों बन गए हैं? अगर बैलेट पेपर से चुनाव होते हैं तो भारतीय जनता पार्टी को क्या नुकसान है? सांच को आंच क्या?

होना तो यह चाहिए था कि भारतीय जनता पार्टी उस के बड़े नेताओं को ईवीएम का खुल कर पक्ष नहीं लेना चाहिए. यह मामला चुनाव आयोग का है और या फिर देश की उच्चतम न्यायालय का. वह इस पर संज्ञान ले कर के आपत्तियों पर अपना फैसला दे सकते हैं.

मगर जिस तरह भारतीय जनता पार्टी और उस के नेता ईवीएम का समर्थन कर रहे हैं वह संदेह पैदा करता है और उचित नहीं कहा जा सकता. दरअसल, निष्पक्ष चुनाव देश की प्राथमिकता होनी चाहिए अगर ईवीएम के कारण सवाल उठ रहे हैं तो उस का जवाब तो देना ही होगा.

विधानसभा चुनाव के नतीजों से अडानी के शेयर आसमान क्यों छूने लगे ?

छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनावों में भाजपा को मिली जीत का असर से शेयर बाजार पर जबरदस्त पड़ा है. भाजपा की जीत से सेंसेक्स में 1000 अंकों से ज्यादा उछाल आया. उद्योगपति गौतम अडानी की सभी कंपनियों के शेयर में तीव्रता देखी जा रही है. अडानी एंटरप्राइजेज का शेयर 10 प्रतिशत , तो अडानी ग्रीन एनर्जी के स्टौक ने 15 फीसदी तक उछाल मारी.

5 राज्यों के विधानसभा चुनावों को अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल माना जा रहा था. चुनाव नतीजों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार की स्थिरता का संकेत दिया है और इस का बड़ा फायदा उन के खास मित्र अडानी की कंपनियों और उन के निवेशकों को हुआ है. गौतम अडानी की कंपनियों के शेयरों में 15 फीसदी तक उछाल आया है.

भाजपा की जीत का असर एसबीआई, एनटीपीसी पर भी दिखाई दे रहा है. मगर फोकस में अडानी की कंपनियों के शेयर ही रहे. ये इसलिए भी फोकस में रहे क्योंकि विपक्ष लगातार गौतम अडानी को मुद्दा बना कर मोदी सरकार को घेरती रही है. भाजपा की जीत ने निवेशकों की भावनाओं को ऐसा प्रभावित किया कि शेयर बाजार में तूफानी तेजी दिखी.

अडानी ग्रुप की प्रमुख कंपनी अडानी इंटरप्राइजेज ने बीएसई पर 2,584.05 रूपए पर 10 फीसदी के ऊपरी सर्किट को छुआ तो वहीं अडानी ग्रीन एनर्जी लिमिटेड के शेयर ने 14.75 फीसदी चढ़ कर 1,178 रूपए के हाई लेवल को टच किया. शेयर मार्किट का कारोबार शुरू होने के कुछ ही मिनटों में अडानी पावर लिमिटेड के शेयर 6.13 फीसदी बढ़ कर 467.40 रूपए के लेवल पर पहुंच गए.

निवेशक हुए मालामाल

गौतम अडानी के नेतृत्व वाली कंपनियों के शेयरों में आए उछाल से निवेशक गदगद हैं. अडानी पोर्ट्स 5.71 फीसदी उछल कर 875.05 रूपए के लेवल पर, अडानी टोटल गैस लिमिटेड का स्टौक 5.05 फीसदी की तेजी के साथ 736.90 रूपए पर ट्रेड करने लगा. अडानी एनर्जी सौल्यूशंस का शेयर 6.24 फीसदी चढ़ कर 908.00 रूपए और एनडीडटीवी के स्टौक ने 4.08 फीसदी की उछाल के साथ 228.05 रूपए पर कारोबार किया.

स्टौक मार्केट में लिस्टेड अडानी ग्रुप की 10 कंपनियों में शामिल सीमेंट सेक्टर की दिग्गज अंबुजा सीमेंट और एसीसी के शेयर भी तेजी से भाग रहे हैं. एसीसी लिमिटेड के शेयर 3.74 की उछाल ले कर 1,971.35 रूपए पर ट्रेड कर रहे हैं तो वहीं अंबुजा सीमेंट का शेयर 5 फीसदी की तेजी के साथ 464.10 रूपए पर कारोबार कर रहा है.

वहीं निफ्टी ने 20,600 के नए लेवल को छुआ. अडानी के शेयरों में आई इस जोरदार तेजी के चलते कंपनियों में निवेश करने वाले निवेशकों की संपत्ति में भी उछाल आया और एक झटके में ही उन की दौलत 1.14 लाख करोड़ रूपए बढ़ गई.

गौतम अडानी के लिए दूसरी बड़ी खुशखबरी यह है कि 22 जनवरी को अयोध्या में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा समारोह में शामिल होने का उन्हें न्योता मिला है. जहां वे मोदी के सब से निकट दिखेंगे. प्राण प्रतिष्ठा में देश की अनेक जानीमानी हस्तियों को बुलाया गया है जिस में अमिताभ बच्चन, अक्षय कुमार, आशा भोंसले, रतन टाटा, मुकेश अंबानी के नाम प्रमुख हैं.

आमंत्रित लोगों में अहम नाम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत और रामदेव बाबा का भी है. खेलों की दुनिया से सचिन तेंदुलकर और विराट कोहली के नाम भी लिस्ट में हैं. लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, विनय कटियार, साध्वी ऋतंभरा और उमा भारती को भी निमंत्रण भेजा गया है.

जैन धर्म के महागुरु आचार्य लोकेश मुनि को भी न्योता मिला है. देश के प्रसिद्ध फुटबौलर बाईचुंग भूटिया, ओलंपियन मैरी कौम, बैडमिंटन खिलाड़ी पीवी सिंधु, पी गोपीचंद, क्रिकेटर रोहित शर्मा, सुनील गावस्कर, कपिल देव, अनिल कुंबले, राहुल द्रविड़ के नाम निमंत्रण भेजने की तैयारी है.

कार्यक्रम की प्राण प्रतिष्ठा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रमुख मेहमान होंगे और प्राण प्रतिष्ठा उन के ही हाथों से होगी. उन के दाएंबाएं अमित शाह और गौतम अडानी ही विराजेंगे और ये दृश्य भी शेयर मार्केट को अवश्य प्रभावित करेगा.

विपक्ष की ताकत क्यों है ‘इंडिया’ गठबंधन

विपक्ष के ‘इंडिया’ गठबंधन का पहला उद्देश्य मोदी सरकार के निरकुंश होते शासन पर लगाम लगाने का था. आम आदमी पार्टी के मुद्दे को ले कर विपक्ष एकजुट रहा. सुप्रीम कोर्ट तक ईडी और सीबीआई के निरकुंश होते कामों की बात पहुंचाई गई. ममता बनर्जी का मसला हो या महुआ मोइत्रा का, विपक्ष ने एकजुटता दिखाने का काम किया. बड़ी पार्टी होने के नाते कांग्रेस ने हर मुद्दे पर अगुवाई भी की.

मोदी-अडानी के मसले पर लोकसभा में खुल कर सवाल पूछे. राहुल गांधी को लोकसभा की सदस्यता तक गंवानी पड़ी पर वह झुके नहीं. उस समय इंडिया गठबंधन पूरी ताकत से सत्ता के सामने खड़ा था. दोतीन मीटिंगों में ही लगने लगा था कि इंडिया गठबंधन मोदी के बढ़ते रथ की लगाम थाम लेगा. अचानक 3 राज्यों में कांग्रेस के चुनाव हारते ही इंडिया गठबंधन के तमाम दल कांग्रेस पर ही हमलावर हो गए. ऐसा लग रहा है जैसे इंडिया गठबंधन का उद्देश्य विधानसभा चुनाव लड़ना और जीतना था.

सत्ता से अधिक मत है विपक्ष के पास

लोकतंत्र में चुनावी जीत और हार राजनीति का एक हिस्सा है. इसी तरह से सत्ता और विपक्ष भी सरकार का एक हिस्सा है. इन चुनावों में भाजपा को 4 करोड़ 81 लाख 29 हजार 325 वोट और कांग्रेस को 4 करोड़ 90 लाख 69 हजार 462 वोट मिले हैं. क्या सत्ता पक्ष केवल अपने वोटर के लिए काम करेगा? ऐसा नहीं होता. सरकार सब की होती है. जिन लोगों ने वोट दे कर सरकार बनाई उन को घमंड नहीं होना चाहिए. जिन लोगों ने वोट नहीं दिया उन को भी घबराना नहीं चाहिए.

यह लोकतंत्र की खूबसूरती है कि जो ज्यादा वोट पाता है वह सरकार चलाता है. जो कम वोट पाता है उस की जिम्मेदारी खत्म नहीं होती. उसे विपक्ष के रूप में पूरी ताकत से काम करना होता है. यही वजह है कि लोकसभा हो या विधानसभा दोनों में एक नेता सदन होता है जिस को लोकसभा में प्रधानमंत्री विधानसभा में मुख्यमंत्री कहा जाता है. दूसरा नेता विपक्ष होता है. जो विपक्ष के सब से बड़े दल का नेता होता है. संविधान ने सदन में दोनों को ही बराबर का अधिकार दे रखा है. दोनों ही पद संविधान द्वारा दिए गए हैं.

संविधान ने दिया है बराबर का हक

संविधान नेता सदन और नेता विपक्ष दोनों को समान अधिकार इसलिए दिए हैं ताकि सत्ता सदन में निरंकुश न हो सके. सदन में मनमाने फैसले न कर सके. यहां तक की बजट बिना नेता विपक्ष के सामने रखे पास नहीं किया जा सकता. संविधान ने सदन के अंदर विपक्ष का पूरा अधिकार दिया है. सदन के बाहर यानि जनता के बीच अलग अलग दल हो जाते हैं. यह दल मजबूती से अपनी बात नहीं रख पाते. ऐसे में विपक्ष का एकजुट होना जरूरी हो जाता है. इसलिए ही विपक्ष का गठबंधन जरूरी होता है.

2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 37.36 फीसदी वोट मिले. उस के एनडीए गठबंधन को 45 फीसदी वोट मिले थे. इस का साफ मतलब यह है कि 55 फीसदी लोगों के मत भाजपा और उस के गठबंधन को नहीं मिले. अब अगर इंडिया गठबंधन एकजुट नहीं होगा तो इन 55 फीसदी लोगों के भरोसे का क्या होगा? इन लोगों ने जिन को वोट दिया वह सरकार नहीं बना पाए तो क्या इन के वोट का महत्व खत्म हो गया. इन की बात करना विपक्ष का अधिकार है.वोटर का मौलिक हक है कि विपक्ष उस की बात को सम्मान दे.

इसीलिए संविधान ने विपक्ष को चुनाव के बाद दरकिनार नहीं किया. उसे नेता सदन के बराबर महत्व देते हुए नेता विपक्ष का सम्मान और अधिकार दिया. जिन लोगों को कम वोट मिलते हैं वह अलगअलग दलों में बंटे होते हैं. संख्या में कम होने के कारण उन की आवाज नक्कार खाने में तूती की आवाज जैसे हो जाती है. यह आवाज दमदार दिख इस के लिए विपक्ष के गठबंधन की जरूरत है. आज अगर सारा विपक्ष बिखरा होगा तो सत्ता द्वारा उस का दमन सरल होगा.

इमरजेंसी में दिखी एकता

भारत के इतिहास में इस का भी रहा है. 1975 में इंदिरा गांधी ने विपक्षी नेताओं की आवाज को बंद करने के लिए देश में इमरजेंसी लगा दी. नेताओं को जेल में डाल दिया. सभी दलों के छोटेबड़े नेता जेल चले गए. इस के बाद भी विपक्षी एकता बनी रही. इस का प्रभाव यह हुआ कि 1977 में विपक्षी दलों ने एकजुट हो कर ताकतवर इंदिरा गांधी को चुनाव में करारी मात देने में सफलता पाई.

अगर यह लोग सीट और टिकट के बंटवारे को ले कर लड़ रहे होते तो इंदिरा सरकार को हटाने में सफल नहीं होते. जिस तरह का जुल्म इंदिरा सरकार में विपक्ष के साथ हुआ ईडी सीबीआई के बीच मोदी सरकार उतना जुल्म नहीं कर रही है. अगर 55 फीसदी लोगों को विपक्ष अपने साथ एकजुट कर लेगा तो मोदी सरकार को घेरा जा सकता है. 55 फीसदी अपने वोटरों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए विपक्ष की एकजुटता जरूरी है.

वोटर के अधिकार की रक्षा जरुरी

विपक्षी दल चुनाव चुनाव जैसे भी लड़े अपने वोटरों के प्रति जवाबदेही से दूर होंगे तो वोटरों से दूर होंगे और आने वाले चुनाव में वोटर उन से दूर हो जाएगा. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को मुसलमानों से शत प्रतिशत वोट दिए पर सपा उन की समस्याओं को ले कर लड़ती नहीं दिख रही है. ऐसे में आने वाले चुनाव में मुसलमान वोट को यह हक है कि वह अपना अलग ठिकाना देख सकता है.

जैसे बसपा के साथ हुआ. बसपा के साथ जब तक दलित वोटर के हक में खड़ी थी वोटर उस के साथ था. जैसे ही बसपा में ब्राहमणवाद बढ़ा ‘हाथी नहीं गणेश है ब्रम्हा विष्णु महेश है’ का नारा लगा दलित बसपा से दूर हो गया और बसपा सत्ता से बाहर हो गई. समाजवादी पार्टी भी इस का खामियाजा भुगत चुकी है. मुलायम सिंह यादव जब तक किसानों के नेता था उन का कद बढ़ता गया. मंडल आयोग का लाभ ले कर जैसे ही वह केवल यादवों तक सीमित हुए उन का राजनीतिक कद छोटा होने लगा.

जैसे 2012 में सत्ता बेटे अखिलेश को दी यादव छोड़ दूसरे पिछड़े वर्ग के नेताओं से समाजवादी पार्टी का दामन छोड़ दिया. इस का परिणाम यह हुआ कि पिछड़ा वर्ग सपा का साथ छोड़ भाजपा के साथ चला गया. इस के फलस्वरूप 2014 के बाद सपा उत्तर प्रदेश में एक भी चुनाव नहीं जीत पाई. अगर अपने वोटर का ध्यान नहीं रखा और सीट और सत्ता के मोह में एकजुट नहीं हुए तो मोदी सरकार का मुकाबला नहीं कर पाएंगे. 55 फीसदी वोटर की जिम्मेदारी भी नहीं उठा पाएंगे. ऐसे में वोटर आप को भूल जाएगा. दल को बचाना है तो एकजुटता जरूरी है.

मेनोपौज किस उम्र में होता है और क्या हैं इस के लक्षण

तकरीबन 12 साल की उम्र के आसपास किसी लड़की को माहवारी शुरू होती है. इस का सीधा सा मतलब होता है कि अब वह धीरेधीरे जवानी की दहलीज पर आने वाली है और पूरी तरह जवान होने पर शादी के बाद मां बन सकेगी. इसी तरह उम्र के 45 से 50 साल के पड़ाव पर मैनोपौज की शुरुआत होती है, जिस में बच्चा जनने से जुड़े हार्मोन में बदलाव होते हैं और फिर बच्चा जनने की गुंजाइश खत्म होती जाती है.

शहर की हो या गांव की, किसी भी औरत के लिए यह समय बड़ा ही तनाव भरा होता है, क्योंकि हार्मोन में बदलाव के चलते उन का मूड स्विंग होता है और उन में चिड़चिड़ापन बढ़ जाता है. इस के 3 चरण होते हैं, प्री मेनोपौज, मेनोपौज और पोस्ट मेनोपौज.

मेनोपौज के लक्षण

  • शरीर में अचानक से गरमी का एहसास होता है. रात को गरमी लगने के साथ पसीना आता है या फिर अचानक ठंड भी लग सकती है.
  • योनि में सूखापन आने लगता है, जिस से सैक्स संबंध बनाते समय दर्द होता है या बनाने की इच्छा ही नहीं रहती है.
  • बारबार पेशाब करने की इच्छा होती है और रात को नींद न आने की समस्या बढ़ने लगती है.
  • जितना ज्यादा चिड़चिड़ापन बढ़ता है, तनाव भी उतना ही हावी होने लगता है.
  • शरीर, आंखों और बालों में सूखेपन की शुरुआत होने लगती है. बाल झड़ने की समस्या भी पैदा हो सकती है.
  • हड्डियां कमजोर हो सकती हैं.
  • पेशाब संबंधित इंफैक्शन हो सकता है.
  • दिल से जुड़ी बीमारियों का खतरा बढ़ सकता है.

कंट्रोल करने के तरीके

  • डाक्टर की सलाह पर दवाएं ली जा सकती हैं, पर चूंकि यह कुदरती प्रक्रिया है, तो अपने रहनसहन और खानपान पर ध्यान देना चाहिए.
  • इस के अलावा जितना हो सके अपने शरीर को ठंडा रखने की कोशिश करें.
  • रात को अगर गरमी लगने से बहुत ज्यादा पसीना आता है तो नहा कर सोने जाएं. सूती और आरामदायक कपड़े पहनें.
  • रोजाना कसरत करें और वजन को कंट्रोल में रखें. तलाभुना खाना कम ही खाएं. इस से पेट सही रहता है और रात को नींद भी अच्छी आती है.
  • अगर मानसिक तनाव बहुत ज्यादा रहने लगा है, तो किसी माहिर साइकोलौजिस्ट या थैरेपिस्ट से बात की जा सकती है. समाज के डर से ऐसा करने में झिझके नहीं. साथ ही, अपनों से दिल की बात कहें. इस से मन हलका होता है.
  • डाक्टर से सलाह लें और उस के मुताबिक कैल्शियम, विटामिन डी, मैग्निशियम वगैरह के सप्लीमैंट ले सकते हैं.
  • बीड़ीसिगरेट और शराब का सेवन न करें.

अफसोस : दो सहेलियां क्यों बनी दुश्मन ?

‘वंदना के पति अरुण का तबादला कानपुर हो गया है, अगले सप्ताह वे लोग कालोनी छोड़ कर चले जाएंगे.’ यह खबर सविता को अपनी पड़ोसिन आंचल से मिली.

‘‘विदाई पार्टी देने के लिए तुम वंदना को अपने घर आमंत्रित करोगी.’’ मुसकराती हुई आंचल ने सविता को जानबूझ कर छेड़ा.

‘‘उसे पार्टी देगा मेरा ठेंगा,’’ सविता एकदम चिढ़ उठी.

‘‘2 साल पहले तक तुम दोनों कितनी अच्छी सहेलियां हुआ करती थीं.’’

‘‘अब वह मुझे फूटी आंख नहीं भाती. उस के जाने की बात सुन कर मेरे कलेजे में बहुत ठंडक पड़ी है.’’

‘‘अपने पति के साथ तुम्हारा नाम जोड़ कर उस ने तुम्हें बदनाम करने की जो कोशिश की थी उस के लिए आज तक माफ नहीं किया तुम ने उसे.’’

‘‘ऐसा गलत और गंदा आरोप क्या कभी कोई भुला सकता है. बहुत बार कोशिश की उस ने फिर से मेरे साथ दोस्ती करने की पर मैं ने ही उसे घास नहीं डाली,’’ सविता की आंखों से नफरत और गुस्से की चिनगारियां फूटने लगीं.

सविता को थोड़ा और भड़का कर आंचल ने उस के मुंह से कुछ अन्य चटपटी बातें वंदना के खिलाफ उगलवाईं और फिर उन्हें अपनी सहेलियों के बीच बताने को विदा हो गई.

आंचल के जाने के बाद सविता के मन में उस दिन की कड़वी यादें उभरीं जिस दिन वंदना ने उसे उस की सहेलियों के बीच बदनाम व अपमानित करने की कोशिश की थी.

उस दिन सविता के घर आंचल, नीलम और निशा वहीं थीं. सविता का मूड शुरू से खराब था. उस ने न चाय पी न कुछ खाया.

‘कल शाम तुम मेरे घर किसलिए आई थी.’ वंदना के बोलने का लहजा झगड़ा शुरू करने का इरादा साफ दिखा रहा था.

‘तुम से यों ही मिलने आई थी लेकिन इतने अजीब ढंग से यह सवाल क्यों पूछ रही हो तुम.’ सविता नाराज हो उठी थी.

‘मुझे आए आधा घंटा हो गया है मगर अब तक तुम ने मुझे क्यों नहीं बताया कि तुम मेरे घर आई थीं?’

‘क्या ऐसा कहना जरूरी है.’

‘मेरे सवाल का जवाब दो, सविता.’

‘मैं भूल गई थी तुम्हें बताना.’

‘भूल गईं या इस बात को छिपाना चाह रही हो?’ वंदना ने चुभते लहजे में पूछा.

‘मैं मामूली सी तुम्हारे घर जाने की बात भला क्यों छिपाना चाहूंगी?’ गुस्साए सविता की आवाज ऊंची हो गई.

‘अपनी गंदी हरकतों पर कौन परदा नहीं डालना चाहता?’

‘क्या मतलब?’

‘मतलब यह कि तुम अरुण पर डोरे डाल रही हो. कल शाम खिड़की से मैं ने तुम्हें अरुण के गले लगते अपनी आंखों से देखा. अपनी सहेली के साथ विश्वासघात करते हुए तुम्हें शरम नहीं आई?’ वंदना ने उसे सब के सामने अपमानित किया था.

‘क्या बकवास कर रही हो. ऐसा झठा आरोप मुझ पर मत लगाओ,’ सविता और ज्यादा जोर से चिल्लाई.

‘जो मेरी आंखों ने देखा है वह झठ नहीं है. खबरदार जो तुम कभी मेरे घर मेरी पीठ पीछे गईं या अरुण से अकेले में मिलने की कोशिश की. मेरी तुम्हारी दोस्ती आज से खत्म, सुना तुम ने,’ प्रश्नवाचक मुद्रा में देखा वंदना ने. फिर गुस्से से पैर पटकती हुई उस के घर से चली गई थी.

उस के जाने के बाद सविता खूब रोई. उसे पता था कि उस की सहेलियां इस घटना को चटखारे लेले कर पूरी कालोनी में फैला देंगी. अपनी छवि के खराब हो जाने की कल्पना ने उस के आंसुओं को कई दिन तक थमने नहीं दिया था.

इस घटना से 3 दिन पहले सविता का सोने का हार चोरी हो गया था. चोर कौन था, इस का उसे बिलकुल अंदाजा नहीं था पर अपनी सहेलियों के बीच वंदना को नीचा दिखाने के लिए उस दिन उस ने चोरी का इलजाम वंदना के मत्थे मढ़ दिया.

‘इतनी चालाक और काइयां औरत मैं ने अपनी जिंदगी में पहले कभी नहीं देखी,’ सविता ने आंखों में आंसू भर आहत भाव से कहा था, ‘आज की उस की जलील हरकत देख कर मेरा शक विश्वास में बदल गया है कि मेरा हार वंदना ने ही चुराया है. अब झठा लांछन लगा कर मुझ से लड़ रही है. मुझ से संबंध तोड़ कर बारबार मेरे सामने शर्मिंदा होने के झंझट से मुक्ति पा गई चोट्टी.’

कुछ देर उस की हां में हां मिला कर उस की सहेलियां विदा हो गई थीं. सिर्फ 24 घंटे के अंदर इस घटना की जानकारी पूरी कालोनी को हो गई.

सविता ने वंदना को आज तक कभी दिल से माफ नहीं किया. यों कुछ महीनों बाद उन के बीच औपचारिक सा वार्त्तालाप हो जाता, लेकिन न उन का एकदूसरे के घर आनाजाना शुरू हुआ और न ही कभी दोस्ती के संबंध फिर से कायम हुए.

अगली शाम सविता का वंदना से आमनासामना बाजार में हुआ. तब तक सविता अपनी दसियों सहेलियों के घरों में जा कर हार चोरी हो जाने व अपनी झठी बदनामी वाली बातों की चर्चा कर आई थी. वंदना की बुराई करने व अपनी सहेलियों की सहानुभूति पाने में उसे अब भी अजीब सा सुख व शांति मिलती थी. पिछले 2 सालों में ऐसा कम ही हुआ था कि वह कालोनी में किसी से मिली हो और इन दोनों घटनाओं की चर्चा कर वंदना को भलाबुरा न कहा हो.

‘‘सुना है अगले सप्ताह कानपुर जा रही हो.’’ सविता ने जबरदस्ती वाले अंदाज में मुसकरा कर वंदना से पूछा.

‘‘अरुण का तबादला हो गया है, इसलिए जाना तो पड़ेगा ही,’’ वंदना भी बेचैन नजर आ रही थी.

‘‘नई जगह जा कर नई सहेलियां बनाना अच्छी बात ही है.’’

‘‘नए को पुराना होते और दोस्ती को दुश्मनी में बदलते ज्यादा देर नहीं लगती,’’ वंदना कुछ उदास सी हो कर बोली.

‘‘ताली दोनों हाथों से बजती है, एक से नहीं,’’ सविता चुप न रह सकी.

‘‘अरे, अब छोड़ो भी ऐसी बातों को. मुझे बहुत सी पैकिंग करनी है. मैं चलती हूं,’’ वंदना ने हाथ मिलाने को अपना हाथ उस की तरफ बढ़ाया.

कल रात को तुम सब घर आ जाओ न,’’ अचानक यों आमंत्रित कर के सविता खुद भी हैरान हो उठी.

‘‘कल तो आंचल ने बुलाया है, ‘गुड बाय’ कहने के लिए मैं वैसे तुम्हारे यहां आऊंगी जरूर. अब चलती हूं,’’ वंदना इस अंदाज में अपने घर की तरफ चली मानो आगे कुछ कहने में उसे बहुत कठिनाई होती.

इस मुलाकात ने सविता के सोच और यादों की धारा को मोड़ दिया. वंदना के साथ झगड़ने से पहले के समय की बहुत सी मुख्य घटनाएं उस के जेहन में घूमने लगीं.

अपने बेटे राहुल के होने के समय वह 3 दिन तक नर्सिंगहोम में रही थी. तब और बाद में भी उस की घरगृहस्थी संभालने में वंदना ने पूरा योगदान दिया था.

सप्ताह में 3-4 बार वह एकदूसरे के यहां जरूर खाना खाते. कई बार पिकनिक मनाने व फिल्में देखने साथ ही गए. जन्मदिन या शादी की वर्षगांठ जैसे समारोहों में बिलकुल अपनों की तरह शामिल होते.

वंदना को अपनी ससुराल वालों की नियमित रूप से आर्थिक सहायता करनी पड़ती थी. इस कारण उस का हाथ कभीकभी बहुत तंग हो जाता. ऐसे मौकों पर 5-10 हजार रुपए की आर्थिक सहायता उस की कई बार सविता ने की थी.

एक समय सविता को लगता था कि उस ने वंदना के रूप में बहुत अच्छी सहेली पा ली थी. फिर एक ही झटके में उन की दोस्ती दुश्मनी में बदल गई.

सविता के दिल में वंदना के प्रति नफरत भी उतनी ही गहरी बनी जितना गहरा कभी प्यार होता था. उसे बदनाम करने या उस का काम बिगाड़ने का कोई मौका सविता कभी नहीं चूकी.

वंदना की आंखों में भी वह अपने प्रति सदा नाराजगी व नफरत के भाव पाती. झगड़े के बाद एकदूसरे से सिर्फ नमस्ते शुरू करने में उन्हें 6 महीने से ज्यादा का समय लगा. उन की सहेलियों ने उन के बीच मनमुटाव बनाए रखने में पूरा योगदान दिया. वह एक के मुंह से दूसरे के खिलाफ निकली बातों को नमकमिर्च लगा कर इधर से उधर पहुंचातीं. इन्हीं औरतों के सामने अपनी नाक ऊंची रखने के लिए वह बढ़ाचढ़ा कर एकदूसरे की बुराई करतीं व आमनासामना होने पर सीधे मुंह बात न करतीं.

जैसेजैसे वंदना के जाने का समय नजदीक आता गया, सविता की बेचैनी व उदासी बढ़ने लगी. ऐसा क्यों हो रहा है, यह वह खुद भी नहीं समझ पा रही थी.

‘वंदना जा रही है तो मैं क्या करूं. मैं ने तो बहुत पहले उस से दोस्ती का संबंध तोड़ डाला था,’ किसी भी परिचित महिला के सामने अब भी वह बड़ी बेरुखी से कहती लेकिन उस के दिल की इच्छा कुछ और थी.

झगड़ा होने के बाद से अब तक वंदना का खयाल उस के दिलोदिगाम पर छाया रहा. अब वह उस की जिंदगी से निकल कर बहुत दूर जा रही थी, इस बात से खुशी या राहत महसूस करने के बजाय वह अजीब सी बेचैनी, चिढ़ व गुस्सा महसूस कर रही थी. खुद को वंदना के हाथों ठगा गया सा महसूस कर रही थी.

दिन गुजरते गए और वंदना उस से न मिलने आई और न ही किसी और जगह दोनों का आमनासामना हुआ. सविता ने कई बार सोचा कि वह खुद वंदना के घर चली जाए, लेकिन हर बार मन ने उस के कदम रोक लिए. उस का आंतरिक तनाव उस की शांत रहने की हर कोशिश को विफल कर बढ़ता गया.

वंदना को जिस रात गाड़ी पकड़नी थी. उस दिन दोपहर को वह सविता से मिलने अकेली आई.

‘‘आखिर मुझ से मिलने आने की तुम ने फुरसत निकाल ही ली.’’ शिकायत करने से सविता खुद को रोक नहीं पाई.

‘‘पैकिंग का काम निबटने में ही नहीं आ रहा था,’’ वंदना मुसकराई.

‘‘अभी कुछ नहीं, पहले वह सब सुन लो जो मैं तुम से आज कहने आई हूं,’’ वंदना के मुंह से शब्द फंसेफंसे से अंदाज में निकले.

‘‘तुम से बहुतकुछ कहने की इच्छा मेरे मन में भी है, वंदना,’’ सविता भावुक हो उठी.

‘‘पहले मैं कहूं.’’

‘‘कहो.’’

‘‘आज के बाद न जाने कब मिलूंगी. अतीत में जिन गलतियों और भूलों के कारण मैं ने तुम्हारा दिल दुखाया है उन सब के लिए माफी मांगने आई हूं मैं,’’ वंदना का गला रूंध गया.

सविता की आंखों में आंसू छलक आए, ‘‘हमारी इतनी अच्छी दोस्ती को न जाने किस की नजर लग गई. पिछले 2 सालों में हमारे दिलों के बीच कितनी दूरियां हो गईं.’’

‘‘वह जो तुम्हारा हार चोरी हो गया.’’

‘‘उसे चुराने का झठा इलजाम मैं ने गुस्से में आ कर तुम पर लगाया था, वंदना. उस दिन मैं अपने आपे में नहीं थी. उस गंदे झठ के लिए मुझे माफ कर दो.’’

‘‘लेकिन तुम्हारा आरोप सच था सविता. हार मैं ने ही चुराया था,’’ अपना पर्स खोल कर 2 साल पहले चोरी किया हार वंदना ने सविता को पकड़ा दिया.

‘‘लेकिन… उफ, मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है. आखिर, तुम ने हार की चोरी क्यों की थी?’’ सविता गहरी उलझन का शिकार बन गई.

‘‘तुम्हें चोट पहुंचाने के लिए. तुम्हारा नुकसान करने के लिए.’’

‘‘तुम्हारे पति से मेरे गलत संबंध हैं, ऐसा सोच कर ही तुम ने मुझे चोट और नुकसान पहुंचाने की कोशिश की थी न.’’

‘‘हां.’’

‘‘लेकिन तुम्हारा वैसा सोचना गलत था,’’ सविता की आवाज में गहन पीड़ा के भाव उभरे, ‘‘तुम ने मुझे अरुण के गले से लगे हुए जरूर खिड़की से देखा होगा, लेकिन उस में मेरा दोष नहीं था.’’

‘‘मैं जानती हूं इस बात को,’’ गहरी सांस छोड़ते हुए वंदना बोली.

‘‘तुम जानती हो.’’ सविता हैरान हो उठी, ‘‘लेकिन उस दिन तो मुझे ही दोषी मान रही थीं.’’

‘‘गुस्से में आदमी कुछ का कुछ कह जाता है. मैं अरुण की दिलफेंक आदत से परिचित हूं. पता नहीं सुंदर औरतों के पीछे जीभ निकाल कर घूमने की उस की आदत कब और कैसे छूटेगी.’’

‘‘मेरे खुल कर उस के साथ हंसनेबोलने का अरुण ने गलत मतलब लगाया. शायद बहुत ज्यादा खुला व्यवहार कर के मैं ने ही उन्हें शह दी.’’

‘‘और मैं चाह कर भी तुम्हें आगाह नहीं कर सकी कि अरुण से कुछ दूरी बनाए रखना. अपने पति की कमजोरी बता कर तुम्हारे सामने मैं छोटी नहीं पड़ना चाहती थी. बस, तुम्हें उस के साथ खुल कर हंसनाबोलता देख कर मन ही मन किलसती रही. दोषी अरुण है, यह अच्छी तरह समझते हुए भी इसी कुढ़न के कारण तुम्हें चार औरतों के सामने बेकार की अपमानित कर गई,’’ वंदना अचानक ही हाथों में मुंह छिपा कर रोने लगी.

सविता वंदना के पास जा बैठी और उस की पीठ प्यार से थपथपाते हुए दुखी लहजे में बोली, ‘‘मुझे भी अपने खुले व्यवहार पर काबू रखना चाहिए था. तुम्हारे दिल की चिंता, तनाव और ईर्ष्या को पढ़ने की संवेदनशीलता मुझ में होनी चाहिए थी. अगर तुम मुझे जरा सा भी इशारा कर देती तो अरुणा को मैं किसी भ्रम का शिकार कभी न होने देती.’’

‘‘अपनी मूर्खता और नादानी के कारण मैं ने तुम्हारी जैसी अच्छी दोस्त को खो दिया,’’ कहतेकहते वंदना सविता के गले लग कर रोने लगी.

‘‘समझदार मैं भी नहीं निकली. अपनी दोस्ती की ढेर सारी अच्छी यादों को नजरअंदाज कर, बस, एक घटना के कारण तुम्हारे प्रति गुस्से और नफरत से भर कर कितनी दूर हो गई तुम से.’’

‘‘मुझे बहुत अफसोस है कि जैसे हम आज आमनेसामने बैठ कर अपने दिल की बातें एकदूसरे से कह रहे हैं, ऐसा हम ने पहले क्यों नहीं किया.’’

‘‘जिंदगी के पिछले 2 सालों में प्यार व दोस्ती का आनंद उठाने के बजाय नफरत और गुस्से की आग में सुलगते रहने का मुझे भी बेहद अफसोस है, वंदना,’’ वंदना को छाती से लगा सविता भी हिचकियां ले कर रोने लगी.

करीब घंटाभर और बैठ कर वंदना चली गईं. आपस में गले मिलते हुए दोनों ही बहुत उदास और थकीहारी सी नजर आ रही थीं.

कालोनी की औरतों को यह देख कर बेहद आश्चर्य हुआ कि एकदूसरे से पक्की दुश्मनी रखने वाली वंदना और सविता अंतिम विदाई के क्षणों में खूब रोईं. पिछले 2 सालों से नफरत उन की जीवनशक्ति को सक्रिय कर रही थी.

अब तबादले के कारण वह नफरत समाप्त हो गई. भीतर का खालीपन

और 2 साल तक प्यार व दोस्ती से वंचित रहने का अफसोस उन्हें इतना ज्यादा रुला रहा है, यह बात वहां उपस्थित कालोनी की औरतें नहीं समझ सकती थीं.

ढहते पहाड़ों ने विंटर का मजा किया खराब

अक्तूबर से जनवरी तक सर्दी और बर्फबारी का लुत्फ उठाने के लिए मैदानी इलाके के लोग कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखंड के पहाड़ों का रुख करते हैं. नईनई शादी हुई हो तो कपल हनीमून मनाने के लिए कश्मीर की सुंदर वादियों के ही सपने देखता है. बर्फ से ढके पहाड़ों पर अठखेलियां करते युवा हाथों में बर्फ के गोले लिए एकदूसरे पर फेंकते जिस आनंद में ओतप्रोत होते हैं उस की यादें हमेशा के लिए उन के दिलों पर नक्श हो जाती हैं. शाम के धुंधलके में एकदूसरे की बांहों में लिपटे युगल वादी की सुंदरता को निहारते हुए भविष्य के सपनों में खो जाते हैं.

गरम फर वाले कोट पहने बच्चे बर्फ के गोलों से खेलते हुए, बर्फ के घरोंदे बनाते हुए मजे करते हैं. ठंडी, बर्फीली हवाओं के बीच गरम चाय की चुस्कियां लेना, चारों तरफ खिले पहाड़ी फूलों की खुशबू अपनी सांसों में भर लेना, रंगबिरंगे चहचहाते पंछियों को देखना, कलकल करती नदियों का शोर सुनना, घर के भीतर तक घुस आने वाले बादल और पहाड़ों की चोटियों पर सोना बिखेरता सुबह का सूरज, ऐसे कितने ही लमहे हम पर्वतारोहण के बाद अपनी यादों में समेट कर लौटते हैं.

पहाड़ों की यह प्राकृतिक सुंदरता हमें बारबार वहां आने का निमंत्रण देती हैं. दिल्ली, नोएडा, गुरुग्राम, मेरठ में काम करने वाले या रहने वाले लोग तो दोतीन छुट्टियां आई नहीं कि आसपास के हिल स्टेशन पर घूमने निकल जाते हैं और प्रकृति की नजदीकियां प्राप्त कर दोगुनी ताजगी के साथ लौटते हैं.

भारत में 90 के दशक के बाद पहाड़ी पर्यटन में काफी तेजी आई है. पहले जहां गरमी की छुट्टियों में लोग बच्चों को ले कर उन के दादादादी या नानानानी के वहां जाते थे, अब वे शहर के शोरशराबे और रिश्तेदारों से दूर किसी हिल स्टेशन पर जाना ज्यादा पसंद करने लगे हैं. यही वजह है कि ज्यादातर हिल स्टेशन सीजन के वक्त सैलानियों से भरे रहते हैं. वहां के होटल, धर्मशालाएं, रिसोर्ट सब फुल रहते हैं. भीड़ का वह आलम होता है कि कई बार तो लोग दोगुना किराया देने को भी तैयार होते हैं फिर भी ठहरने के लिए उन्हें कोई अच्छा होटल नहीं मिल पाता.

सर्दी का इंतजार

मौसम गरमी का हो या जाड़ों का, पहाड़ों की आमदनी का मुख्य स्रोत पर्यटन ही है. राजधानी दिल्ली के नजदीक के हिल स्टेशन जहां गरमी में आगंतुकों की बाट जोहते हैं तो वहीं जम्मूकश्मीर, लेहलद्दाख के लोग बेसब्री से सर्दी का इंतजार करते हैं क्योंकि बर्फबारी का मजा लेने के लिए हजारों की संख्या में देशीविदेशी सैलानियों के जत्थे वहां पहुंचते हैं.

मगर इस बार शायद ऐसा न हो. बीते जुलाई, अगस्त और सितंबर माह, जोकि बारिश के महीने हैं, में बड़ी संख्या में पहाड़ों पर भूस्खलन हुआ है. दरकते पहाड़ों ने अनेक घरों, इमारतों, होटलों और व्यावसायिक स्थलों को जमींदोज कर दिया है. जिस तरह हिमाचल और उत्तराखंड में लैंडस्लाइड हुआ है और जानमाल का भारी नुकसान लोगों ने उठाया है उस ने पर्यटकों के मन में दहशत भर दी है. बहुतेरे लोगों ने अपनी बुकिंग कैंसिल करवा दी हैं.

इस भारी भूस्खलन और जानमाल के नुकसान के जो वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुए उस से लोगों में डर फैल गया है. यहां तक कि जो लोग दिल्ली, नोएडा, गुरुग्राम के प्रदूषण और शोर से तंग आ कर पहाड़ों पर जा बसने की प्लानिंग कर रहे थे उन्होंने भी अपना इरादा बदल दिया है.

लैंसडाउन के निवासी कर्नल रावत कहते हैं, ‘‘बारिशें पहले भी इतनी ही होती थीं मगर इस तरह पहाड़ों को नुकसान नहीं होता था. पानी पहाड़ों से बह कर नदियों में समा जाता था पर जिस तरह पिछले तीनचार सालों से पहाड़ टूटटूट कर गिर रहे हैं, ये भविष्य के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं. पहाड़ों पर जरूरत से ज्यादा भीड़ हो रही है. बहुत बड़ेबड़े निर्माण कार्य हो रहे हैं. ये निर्माण कार्य पहाड़ों को खोखला कर रहे हैं. अगर इन्हें रोका नहीं गया तो आने वाले 10 सालों में पहाड़ों का सारा सौंदर्य समाप्त हो जाएगा और पहाड़ समतल मैदानों में तबदील हो जाएंगे.’’

दरअसल पहाड़ों के सौंदर्य ने बीते कुछ सालों में धनकुबेरों को खासा आकर्षित किया है. बड़ेबड़े व्यवसायियों ने पहाड़ों पर जारी सरकारी, गैरसरकारी प्रोजैक्ट्स में अपना पैसा निवेश कर रखा है. जिन के पास पैसा है उन्होंने पहाड़ों पर वहां के निवासियों से सस्ते दामों में बड़ीबड़ी जमीनें खरीद ली हैं. इन जमीनों पर बड़ेबड़े होटल, रिसोर्ट, क्लब, मल्टीस्टोरी अपार्टमैंट बनाए गए हैं और सारे नियमकानूनों को धता बता कर लगातार बनाए जा रहे हैं. ये कई मंजिला ऊंचीऊंची इमारतें सीजन में सैलानियों से खचाखच भर जाती हैं और उन के मालिकों को लाखोंकरोड़ों का मुनाफा देती हैं. धनाढ्य वर्ग ने इन इलाकों में होटल व मकान बनाने को स्टेटस सिंबल भी बना लिया है. मगर पहाड़ों के लिए यह बोझ बहुत भारी है.

धर्म का दिखावा

2014, जब से मोदी सरकार सत्ता में आई है, हर तरफ हिंदुत्व का बोलबाला भी जोरों पर है. संघ और भाजपा की देश को हिंदू राष्ट्र बनाने की सोच और रणनीति के तहत जनता को पूजापाठ, चढ़ावाआरती की तरफ धकेला जा रहा है. धर्म का दिखावा बढ़ गया है. बड़ेबड़े आडंबरों में पैसा खर्च किया जा रहा है. अनेक कथावाचक मैदान में उतारे गए हैं जो लोगों को तीर्थयात्राओं के लिए प्रेरित कर रहे हैं. ऐसे में जो लोग पहले अपने घरों में पूजाआरती कर मन की शांति पाते थे, अब उन में तीर्थस्थलों पर जा कर दर्शन करने में ज्यादा पुण्यप्रताप पाने की आस जग गई है. पिछले 9 सालों से तमाम टीवी चैनलों, कथावाचकों, राजनेताओं, कारसेवकों द्वारा यह काम बहुत तेज गति से हो रहा है.

देशभर में पुराने मंदिरों और धर्मशालाओं का जीर्णोद्धार किया जा रहा है. हिमालय में भी बद्रीनाथ, केदारनाथ, कैलाश मानसरोवर, यमुनोत्री, गंगोत्री, पंच कैलाश, पंचबद्री, पशुपतिनाथ, जनकपुर, देवात्म हिमालय, अमरनाथ, कौसरनाग, वैष्णोदेवी, गोमुख, देवप्रयाग, ऋषिकेश, हरिद्वार, नंदादेवी, चौखंबा, संतोपथ, नीलकंठ, सुमेरु पर्वत, कुनाली, त्रिशूल, भारतखूंटा, कामेत, द्रोणागिरी, पंचप्रयाग, जोशीमठ जैसे अनेकानेक तीर्थस्थलों के दर्शनों के लिए बहुत बड़ी संख्या में लोगों ने जाना शुरू कर दिया है.

इतनी बड़ी संख्या का बोझ पहाड़ कैसे ढो पाएंगे? इस भीड़ को संभालना न तो पहाड़ों के वश का है और न ही सरकार के. यही वजह है कि आएदिन किसी न किसी बड़ी दुर्घटना या भगदड़ के कारण बड़ी संख्या में लोगों के मरने की खबरें भी आती रहती हैं.

जब तीर्थस्थलों के दर्शनों के लिए लोगों को उकसाया जा रहा है तो उन के रहने, खाने, आनेजाने का इंतजाम भी उसी गति से हो रहा है. व्यापारी, उद्योगपति, रियल एस्टेट, बस वाले, टैक्सी वाले, टट्टू वाले, होटल वाले सभी बहती गंगा में हाथ धोना चाहते हैं. पूरे हिमालयी क्षेत्र में अफरातफरी मची हुई है. पहाड़ों की शांति और सुकून खत्म हो गया है. एक तरफ सरकार बहुत तेजी से निर्माण कार्य करवा रही है, वहीं धनकुबेरों ने बड़ीबड़ी जमीनें खरीद कर उन पर होटल, रिसोर्ट, मौल, मल्टीस्टोरी बिल्ंिडग्स खड़ी कर दी हैं.

खोखले होते पहाड़

सरकार ने विकास के नाम सड़कें और राष्ट्रीय राजमार्ग बनाने के लिए सैकड़ों पहाड़ समतल कर दिए हैं. जहां पहले मिलिट्री और स्थानीय लोगों के आनेजाने के लिए पतली और घुमावदार सड़कें होती थीं, वहां अब सीधी फोरलेन सड़कें बन रही हैं. इस निर्माण के लिए पहाड़ों और जंगलों को काटा जा रहा है.

पहाड़ों में सीढ़ीनुमा खेतों को समाप्त कर दिया गया है, जिन में बारिशों के बाद फसलें लहलहाती थीं. हिमाचल और उत्तराखंड में चारों तरफ पहाड़ खुदे पड़े हैं. पहाड़ों के अंदर हजारों सुरंगें खोद दी गई हैं. इन टनल्स को बनाने के लिए मजबूत पत्थर के पहाड़ों में विस्फोट किए जाते हैं जिस से पहाड़ अंदर ही अंदर खोखले हो गए हैं. जिन ऊंचेऊंचे मजबूत वृक्षों की जड़ें मिट्टी और पत्थर को जकड़े रखती थीं उन्हें काट डाला गया है. लिहाजा, पहाड़ इतने भुरभुरे हो गए हैं कि थोड़ी सी ज्यादा बारिश हो जाए तो लैंडस्लाइड होने लगता है. पहाड़ ऊपर से टूटटूट कर गिरते हैं तो रास्ते में आने वाले पेड़ों, घरों और इमारतों को भी अपने साथ धराशायी करते हैं.

कर्नल रावत कहते हैं, ‘‘जानमाल की तबाही के लिए पानी से ज्यादा मलबा जिम्मेदार है. पहाड़ों पर जिस तरह भारी कंस्ट्रक्शन हो रहा है उस से सारे नालेनालियां चोक हो गई हैं. बारिश का पानी अब नालों से न हो कर पहाड़ों पर सीधा बहता हुआ नीचे की ओर बह रहा है. बहुत सारा पानी पहाड़ों द्वारा सोख भी लिया जाता है, जिस से पहाड़ और कमजोर हो रहे हैं. बड़ी तादाद में लोगों ने पहाड़ों पर आना शुरू कर दिया है तो वे यहां बहुत ज्यादा कचरा भी फैला रहे हैं. यह सारा मलबा पहाड़ों पर जगहजगह जमा है. यह भी पानी एब्जौर्ब कर लेता है और जब थोड़ी सी ज्यादा बारिश होती है तो यह मलबा नीचे गिरता है, सड़कों को अवरुद्ध कर देता है, वाहनों को क्षति पहुंचाता है, घरों को तोड़ता है और फिर टीवी पर एंकर चीखते हैं कि बादल फटने से हादसा हो गया, जबकि ये सब साधारण बारिश में ही हो रहा है.

‘‘हाल ही में शिमला के समरहिल इलाके में स्थित प्रसिद्ध शिव मंदिर भी इसी तरह बरबाद हुआ है. दरअसल यह मंदिर एक नाले के किनारे पर बना था. जब ऊपर से पानी आया तो वह अपने साथ भारी मात्रा में मलबा भी ले कर आया. उस मलबे के वेग ने मंदिर को उजाड़ दिया.’’

पेड़ों की कटाई से चिंता

कर्नल रावत आगे कहते हैं, ‘‘टूरिज्म को बढ़ावा देने के नाम पर सरकार सड़कें चौड़ी कर रही है. जहां 2 लेन हैं, वहां 4 लेन सड़क बनाई जा रही है. शिमलाकालका नैशनल हाईवे के निर्माण में बहुत ज्यादा पहाड़ काटे गए हैं. आमतौर पर जब पहाड़ पर कोई सड़क बनाई जाती है तो किनारेकिनारे रिटेनिंग वाल भी बनाई जाती है. यही दीवार सड़क को हादसे से बचाती है. यह रिटेनिंग वाल आमतौर पर कंक्रीट की बनती है, जो बहुत मजबूत होती है.

‘‘लैंडस्लाइड होने पर जब बड़ेबड़े पत्थर और मिट्टी तेजी से नीचे आती है तो सड़कों के किनारे बने ये कंक्रीट की वाल उस को रोक लेती है लेकिन शिमला कालका हाईवे पर कौन्ट्रैक्टर ने एक्सपैरिमैंट किया है और रिटेनिंग वाल पत्थर की बना दी है, जिस में सीमेंट से चुनाई की गई है और अंदर मिट्टी भरी हुई है. नतीजा यह कि यह सड़क थोड़ा भी पानी बरदाश्त नहीं कर पा रही और जगहजगह से धंस गई है. लैंडस्लाइड होने पर जो मलबा गिर रहा है वह सड़क पर आ कर रुकता नहीं है बल्कि रेलिंग तोड़ता हुआ नीचे के पहाड़ों पर बने घरों और इमारतों को भी अपनी चपेट में लेता हुआ चला जाता है.’’

सरकार जल्दीजल्दी सबकुछ हासिल करने के मोह में उन परंपरागत तौरतरीकों को नजरअंदाज करती जा रही है जो पहाड़ों में सड़क बनाने में इस्तेमाल किए जाते हैं. उन में ध्यान रखा जाता है कि पहाड़ के आधार को क्षति न पहुंचे. लेकिन अब फोरलेन हाईवे बनाने के प्रलोभन में ऐसे तमाम उपायों को नजरअंदाज कर दिया गया है. अपेक्षाकृत नए हिमालयी पहाड़ों पर बसे हिमाचल व उत्तराखंड के पहाड़ फोरलेन सड़कों का दबाव सहन करने को तैयार नहीं हैं.

पहले सड़कें लंबे घुमाव के साथ तैयार की जाती थीं ताकि पहाड़ के अस्तित्व को खतरा न पहुंचे लेकिन अब दावे किए जा रहे हैं कि शिमला से मनाली कुछ ही घंटों में पहुंच जाएंगे. मगर ये घंटे कम करने के उपक्रम की कीमत स्थानीय लोगों व पारिस्थितिकीय तंत्र को चुकानी पड़ रही है. पहाड़ों को काटने के साथ पेड़ों का कटान तेजी से हुआ है. ये पेड़ ही पहाड़ों की ऊपरी परत पर सुरक्षा कवच का काम कर के भूस्खलन को रोकते थे.

सब से बड़ी चिंता की बात यह है कि अवैज्ञानिक तरीकों से सड़कों के लिए कटान ने पहाड़ों के भीतर के वाटर चैनलों का प्राकृतिक प्रवाह भी बाधित कर दिया है जो न केवल जमीन के कटाव को बढ़ा रहा है बल्कि नई आपदाओं की जमीन भी तैयार कर रहा है. इतना ही नहीं, सड़कों को चौड़ा करने के नाम पर जगहजगह ब्लास्ट किए जा रहे हैं जो पहाड़ों का आधार कमजोर कर रहा है. पहाड़ों पर भारीभरकम व्यावसायिक विज्ञापनों के लिए होर्डिंग लगाने के लिए भी गहरी खुदाई चालू है. अतीत में हमारे पूर्वज मकानों का निर्माण पहाड़ों की तलहटी और समतल इलाकों में किया करते थे लेकिन हाल के वर्षों में खड़ी चढ़ाई वाले पहाड़ों को काट कर बहुमंजिला इमारतों व होटलों का निर्माण अंधाधुंध तरीके से हुआ है. इस बेतरतीब काम और बोझ को सहन न कर सकने वाले पहाड़ों में भूस्खलन की घटनाएं हो रही हैं. हमें याद रखना चाहिए कि भवन निर्माण हो या सड़कों का निर्माण, पहाड़ों को कोई शौर्टकट रास्ता स्वीकार नहीं होता है. उस की कीमत हमें तबाही के रूप में ही चुकानी होगी.

सरकार जिम्मेदार

पहाड़ का मूल निवासी जिस ने अब तक प्रकृति के साथ बेहतर संतुलन बनाया हुआ था, जो प्रकृति के अनुसार चलता था, जिसे पहाड़ों से प्यार था और जो उस का सम्मान करता था, जिसे मालूम था कि पहाड़ों और जंगलों से उसे कितना लेना है और कैसे उन्हें सुरक्षित रखना है, वह आज गरीबी के चलते अपनी जमीनें धनकुबेरों के हवाले करता जा रहा है. विकास के नाम पर बहुत सारी जमीन सरकार ने भी अधिग्रहीत कर ली है.

अब न ही इन धनकुबेरों और न ही सरकार को तमीज है कि पहाड़ों के साथ कैसा बरताव करना है. सब अपनेअपने आर्थिक फायदों के लिए पहाड़ों को निर्ममता से तोड़नेकाटने में जुटे हैं जिस का नतीजा दिखना शुरू हो चुका है. धर्म इस में सब से ज्यादा बड़ा योगदान दे रहा है क्योंकि हर जगह छोटीमोटी देवियों, अनजाने देवताओं के मंदिर बनाने का धंधा चालू है. हर गोल पत्थर को प्राचीन शिव मंदिर कह दिया जाता है.

गत 2 महीने की बारिश में भयानक भूस्खलन और बाढ़ के चलते हिमाचल में 600 से अधिक लोग अपनी जान गंवा चुके हैं. 3 हजार से अधिक घर और बिल्ंिडगें जमींदोज हो चुकी हैं. हजारों परिवार बेघर हो चुके हैं और इस प्राकृतिक आपदा के कारण हिमाचल प्रदेश को 12 हजार करोड़ रुपए से अधिक का नुकसान हुआ है. हिमाचल और उत्तराखंड में बड़ीबड़ी अट्टालिकाएं पानी में टूट कर ऐसे बह गईं मानो ताश के पत्तों के महल हों. भारी वाहन पानी पर तैरते नजर आए और बड़ी संख्या में इंसान और मवेशी मारे गए. अनेक सड़कें और राष्ट्रीय राजमार्ग मलबे के ढेर से ब्लौक हो गए.

बारिश, लैंडस्लाइड और बादल फटने की घटनाओं ने त्राहित्राहि मचा दी. जोशीमठ की तबाही हमारे सामने है. आज पूरा जोशीमठ धंसने की कगार पर खड़ा है. वहां लगभग हर घर में दरारें पड़ चुकी हैं. जगहजगह सड़कें फटी पड़ी हैं. लोग अपने घर छोड़ कर इधरउधर शरणार्थियों की तरह रह रहे हैं. केंद्रीय बिल्ंिडग बायलौज और उत्तराखंड के 2011 व 2013 में जारी हुए बायलौज को देखें तो इस पर्वतीय क्षेत्र में 12 मीटर यानी

4 मंजिल से अधिक ऊंचाई के भवन का निर्माण नहीं किया जा सकता था. इतनी ऊंचाई भी तभी संभव है जबकि निर्माण वाले क्षेत्र का अध्ययन हुआ हो. जोशीमठ में इन कायदों को दरकिनार कर सातसात मंजिला भवन बनाने के लिए संबंधित निकाय ने अनुमति जारी कर दी. सवाल यह है कि इतने बेतहाशा और बेतरतीब निर्माण और नुकसान का जिम्मेदार यदि सरकार नहीं तो कौन है?

लैंडस्लाइड डरा रहा

अगस्त में राजधानी शिमला में लैंडस्लाइड का डरावना मंजर दिखाई दिया. समरहिल इलाके में शिमला नगरनिगम का स्लौटर हाउस जमींदोज हो गया. पहले एक बड़ा पेड़ गिरा, फिर ताश के पत्तों की तरह स्लौटर हाउस ढलान की तरफ सरकता चला गया और फिर शिमला के स्लौटर हाउस के साथ लगे

5 घर भी जमींदोज हो गए. चारों तरफ चीखपुकार मच गई. मात्र 3 दिनों की बारिश में अकेले मंडी शहर में 20 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई और कई लोग लापता हो गए. लैंडस्लाइड के बाद कुल्लू, मनाली को जोड़ने वाला हाइवे बंद होने से सैकड़ों पर्यटक फंस गए.

15 अगस्त को शिमला में कृष्णा नगर इलाके में हुए लैंडस्लाइड में कई मकान ढह गए. आसपास दशकों से रह रहे लोगों के घर ढहते देख पड़ोसी अपनी चीखें नहीं रोक पाए. उन की आंखों के सामने पूरा इलाका जमींदोज हो गया. इस जगह से शाम तक 40-50 लोगों को रेस्क्यू किया गया. इस से एक दिन पहले ही

14 अगस्त को समरहिल इलाके का शिव मंदिर भी भूस्खलन की चपेट में आ गया. सोमवार का दिन होने के कारण वहां शिव भक्तों का भारी जमावड़ा था, तभी जमीन इतनी तेजी से धंसी कि किसी को कुछ सोचनेसमझने और बचने का मौका ही नहीं मिला.

आपदा गुजरने के बाद मंदिर के मलबे से 25 से ज्यादा शव निकाले गए. सैकड़ों घायलों को अस्पताल पहुंचाया गया. कइयों का अभी तक कुछ पता नहीं चला. इलाके के शर्मा परिवार के तो 7 लोग मंदिर के भीतर थे जो अचानक आई तबाही की भेंट चढ़ गए. इस हादसे में हिमाचल प्रदेश यूनिवर्सिटी की प्रोफैसर मानसी वर्मा की जान भी चली गई जो 7 महीने की प्रैग्नैंट थीं और पति के साथ मंदिर में खीर चढ़ाने गई थीं. मानसी के साथ उन के पति और गर्भस्थ शिशु को भी मौत लील गई. 14 अगस्त को ही शिमला के फागली में भी भूस्खलन हुआ जिस में 5 लोग मारे गए. इसी दिन सोलन में 7 लोगों के मारे जाने की खबर आई.

उत्तराखंड के हालात भी काबू के बाहर थे. भारी बारिश की वजह से जहां नदियां उफान पर रहीं, वहीं भूस्खलन के चलते तमाम सड़कें बाधित हो गईं और कई जानें चली गईं. उत्तरकाशी, जोशीमठ और ऋषिकेश सब से ज्यादा प्रभावित हुए. लोगों के घरों में पानी घुस गया और दरारें पड़ गईं. यहां भी 15 अगस्त को रुद्रप्रयाग के मद्हेश्वर मंदिर के मार्ग पर एक पुल ढह जाने से 100 से ज्यादा तीर्थयात्री फंस गए, जिन्हें राज्य आपदा प्रतिवादन बल (एसडीआरएफ) के जवानों ने भारी मशक्कत के बाद बचाया. उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदा ने 70 से ज्यादा लोगों की जानें ले लीं. कितने मवेशी मारे गए, इस की गिनती ही नहीं है. अनेक लोगों की लाशें कईकई दिनों बाद नदियों में तैरती मिलीं.

पहाड़ों पर अतिरिक्त बोझ

बारिश के मौसम में पहले भी पहाड़ों पर जम कर बारिश होती थी, मगर पहले इस भयावह तरीके से भूस्खलन नहीं होते थे. पेड़ पहाड़ों को अपनी जड़ों से जकड़े रहते थे. जंगल पानी के तेज बहाव को बाधित कर देते थे ताकि रास्ते में आने वाले घरों और खेतों को नुकसान न पहुंचे. सीढ़ीदार खेत आवश्यकतानुसार पानी सोख कर अतिरिक्त पानी को एक सलीके से नीचे की ओर जाने का रास्ता देते थे. मगर निर्माण कार्यों की वजह से जहां जंगल और खेत गायब हो चुके हैं वहीं खुदाई और लगातार जारी विस्फोटों ने पहाड़ों को कमजोर व भुरभुरा कर दिया है. अगस्त के महीने में हिमाचल और उत्तराखंड में हुए भूस्खलन के जो वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुए, उन्होंने सैलानियों के दिलों में ऐसी दहशत भर दी है कि इस बार सर्दी की छुट्टियां पहाड़ों पर मनाने का विचार अनेक लोगों ने त्याग दिया है.

पहले हिल स्टेशन पर जाना छुट्टियां बिताने, मौजमस्ती करने या हनीमून आदि के लिए होता था, मगर मोदी सरकार ने टूरिज्म को धर्म से जोड़ कर इसे धार्मिक टूरिज्म बना दिया है जिस से न सिर्फ पुराने मंदिरों और तीर्थस्थलों में भीड़ बढ़ रही है बल्कि नएनए मंदिरों का निर्माण भी बड़ी तेजी से और बड़ी संख्या में हो रहा है. सोलन जैसे दिल्ली के पास के हिल स्टेशन पर एक दशक पहले तक जहां कुछेक मंदिर ही थे, वहां अब हर दूसरेतीसरे घर के बाद एक नया मंदिर नजर आने लगा है. हर मंदिर पर भीड़ भी जुटने लगी है जो अपने पीछे गंदगी का अंबार छोड़ कर जाती है. चिप्सबिस्कुट के रैपर, पानी की खाली बोतलें, प्लास्टिक की थैलियों के ढेर जगहजगह दिखाई देते हैं.

हिमाचल प्रदेश के राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की एक रिपोर्ट कहती है कि 2017 और 2022 के बीच प्राकृतिक आपदाओं में 1900 से ज्यादा लोगों की जानें गई हैं. हिमाचल के लिए सब से खतरनाक साल था 2021 जब पहाड़ों के टूटने से 476 लोगों की मौत हुई और 700 से ज्यादा लोग घायल हुए. जाहिर है, यह पहाड़ों पर जरूरत से ज्यादा बढ़ते बोझ और पहाड व जंगलों को काटते जाने की वजह से हुआ. रिपोर्ट कहती है कि इन 5 सालों में आपदाओं के कारण 300 से ज्यादा मवेशियों ने भी अपनी जानें गंवाईं और प्रदेश को 7 हजार 500 करोड़ रुपए का आर्थिक नुकसान हुआ.

कुछ समय पहले ही हिमालय भूविज्ञान संस्थान के डा. सुशील कुमार ने पीटीआई को दिए एक इंटरव्यू में कहा था, ‘हिमालय शृंखला बहुत नई हैं. इस की ऊपरी सतह पर 30-50 फुट तक केवल मिट्टी है. जरा सी बारिश से ही भूस्खलन का खतरा पैदा हो जाता है. ऐसे में यहां जिस हिसाब से निर्माण कार्य हो रहे हैं, वे आने वाले समय में बहुत ज्यादा बुरी खबरें लाएंगे. आल वेदर रोड प्रोजैक्ट के निर्माण के लिए पहाडि़यों की जिस निर्ममता से कटाई हो रही है, चारधाम यात्रा के चलते तीर्थयात्रियों की जो भीड़ बढ़ी है और टिहरी बांध के जलग्रहण क्षेत्र में जो बढ़ोतरी हुई है, उस के कारण यह पूरा इलाका बेहद संवेदनशील हो चुका है.’

निर्माण कार्य से पहाड़ कमजोर

गौरतलब है कि 12,500 करोड़ रुपए का चारधाम प्रोजैक्ट मोदी सरकार का बहुउद्देशीय प्रोजैक्ट है, जिस का मकसद है 4 प्रमुख तीर्थस्थलों- यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ को सड़कमार्ग से जोड़ कर ज्यादा से ज्यादा तीर्थयात्रियों को वहां भेजा जाए. योजना में चारधाम के लिए 53 परियोजनाओं के तहत करीब 825 किलोमीटर तक 2 लेन सड़क का निर्माण चल रहा है.

यह परियोजना 2022 दिसंबर तक पूरी हो जानी थी, मगर इस के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में दाखिल याचिकाओं के कारण इस में 3 साल का विलंब हुआ. याचिकाकर्ताओं ने कोर्ट में कहा कि इस परियोजना से भारी भूस्खलन होगा, जंगलों की हानि होगी, हिमालय से निकली नदियों और वन्यजीवों के लिए बड़ा खतरा पैदा होगा. मगर सरकार ने नैशनल सिक्योरिटी का हवाला दे कर कहा कि इस से भारतचीन सीमा को देहरादून और मेरठ के सेना शिविरों से जोड़ा जाएगा, जहां मिसाइल बेस और भारी मशीनरी स्थित हैं. इस से सीमा सुरक्षा को मजबूती मिलेगी. सीमा सुरक्षा की बात पर कोर्ट ने इस परियोजना से होने वाले नुकसान का आकलन करने के लिए एक कमेटी गठित की, जिस के अध्यक्ष और 5 अन्य सदस्यों ने पर्यावरण को भारी नुकसान की चेतावनी दी मगर कमेटी के 21 सदस्यों ने राय रखी कि इस नुकसान को कम किया जा सकता है. आखिरकार, सुप्रीम कोर्ट ने कुछ शर्तों के बाद इस योजना पर काम चालू करने की अनुमति दे दी है.

हिमाचल सड़क परिवहन मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि 2014 तक हिमाचल प्रदेश में नैशनल हाईवे की लंबाई 2,196 किलोमीटर थी, मगर अब, यानी 2023 में हिमाचल प्रदेश में 6,954 किलोमीटर तक नैशनल हाईवे है. जैसेजैसे फोरलेन और सिक्सलेन नैशनल हाईवे बन रहे हैं, लैंडस्लाइड की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं. हिमाचल प्रदेश की स्टेट डिजास्टर मैनेजमैंट अथौरिटी के आंकड़ों के अनुसार साल 2020 में हिमाचल प्रदेश में लैंडस्लाइड के 16 बड़े मामले दर्ज किए गए थे लेकिन 2021 में 100 से ज्यादा बड़े स्तर की लैंडस्लाइड की घटनाएं हुईं. 2022 में पहाड़ दरकने के कम से कम 117 ऐसे मामले सामने आए जिन में जानमाल का भारी नुकसान हुआ. यहां पहाड़ों को सिर्फ सड़कों के लिए ही नहीं तोड़ा जा रहा, बल्कि पहाड़ों की चूलचूल हिलाने का काम वे टनल कर रही हैं, जो तेजी से पहाड़ी राज्यों में बनाई जा रही हैं.

अभी चारधाम रेलवे और टनल प्रोजैक्ट के तहत ऋषिकेश से कर्णप्रयाग तक 125 किलोमीटर की रेलवे लाइन बननी है. इस प्रोजैक्ट में 17 सुरंगें बननी तय हैं. इस के अलावा मुख्य मार्ग अलग होगा. सरकार यहां ब्लास्टलैस ट्रैक्स और 35 ब्रिज भी बनाएगी. इस का काम चालू है. यहां डीटी 821सी और डीटी 922आई एडवांस्ड औटोमैटिक जंबो ड्रिल्स के जरिए पहाड़ों के अंदर सुरंगें बनाई जा रही हैं.

सरकार का कहना है कि ये मशीनें पत्थरों में ड्रिलिंग कर के बड़ी सुरंगें बना रही हैं ताकि ब्लास्ट से बचा जा सके. मगर जानकारों का कहना है कि इन रेलवे सुरंगों का नुकसान भविष्य में यह होगा कि यहां पर भारी ट्रेनें चलेंगी, जिस से कंपन होगा. गौरतलब है कि उत्तराखंड में 66 नई बड़ी सुरंगें बनाने के प्रोजैक्ट चल रहे हैं. उत्तराखंड के पहाड़ ज्यादा देर तक और लंबे समय तक कंपन सहने की क्षमता नहीं रखते हैं. हलका सा भूकंप आया या भूधंसाव हुआ तो पूरा का पूरा रेलवे इंफ्रास्ट्रक्चर पलक झपकते तबाह हो जाएगा. अगर उस की चपेट में ट्रेनें आईं तो अनुमान लगाया जा सकता है कि किस भारी तबाही का मंजर होगा.

ऋषि गंगा हाइडल प्रोजैक्ट के तहत ऋषि गंगा नदी पर पावर प्रोजैक्ट बनना है. इस के विरोध में 2019 में एक पीआईएल फाइल हुई थी, जिस में कहा गया था कि निर्माणकर्ता  कंपनी नदी को खतरे में डाल रही हैं. साथ ही, रैणी गांव के लोगों की प्राकृतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक धरोहर को भी नुकसान होगा. देवीचा सैंटर औफ क्लाइमेट चेंज की 2018 की पौलिसी रिपोर्ट भी कहती है कि जब कोई पावर प्रोजैक्ट बनता है, तब वह पहले इलाके को प्रभावित करता है, फिर वहां ताकतवर प्राकृतिक आपदाएं आती हैं.

किरकिरा हुआ मजा

गौरतलब है कि 1991 के बाद से उत्तरपश्चिम हिमालय का तापमान ग्लोबल औसत से ज्यादा बढ़ा है. बावजूद इस के, पहाड़ों पर पावर प्रोजैक्ट्स की संख्या बढ़ती ही जा रही है. आज हिमाचल में 130 से अधिक छोटीबड़ी बिजली परियोजनाएं चालू हैं जिन की कुल बिजली उत्पादन क्षमता 10,800 मेगावाट से अधिक है. सरकार का इरादा 2030 तक राज्य में 1,000 से अधिक जलविद्युत परियोजनाएं लगाने का है जो कुल 22,000 मेगावाट बिजली क्षमता की होंगी. इस के लिए सतलुज, व्यास, रावी और पार्वती समेत तमाम छोटीबड़ी नदियों पर बांधों की कतारें खड़ी कर दी गई हैं.

पहाड़ों ने ऐसी तबाही पहले कभी नहीं देखी थी. आज हिमाचल के 2 दर्जन से ज्यादा जिले लैंडस्लाइड, बाढ़, बारिश से कराह रहे हैं. पहाड़ का पोरपोर धंस रहा है. टूट रहा है. बिखर रहा है. जो रेल की पटरियां अंगरेजों के जमाने से अब तक मजबूती से बिछी हुई थीं, उन के नीचे की जमीन सैलाब बहा ले गया है. कई रेल पटरियां हवा में लटक रही हैं. कुदरत इंसान को संभलने, सुधरने और सावधान हो जाने का संकेत बारबार दे रही है, बारबार आगाह कर रही है कि प्रकृति से छेड़छाड़ विनाश का कारण बन सकता है.

2013 में केदारनाथ त्रासदी और 2021 में चमोली त्रासदी के रूप में उत्तराखंड प्रकृति के रौद्र रूप के दर्शन कर चुका है. हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में एक बार फिर यह चेतावनी देखने को मिली है. वैज्ञानिकों का मानना है कि पहाड़ पर बन रही सड़कें, पहाड़ तोड़ने में विस्फोट, नदियों में गिरने वाली सड़क और दूसरे इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण का मलबा, पहाड़ों की गलत तरीके से कटाई, पहाड़ के नीचे लंबे सुरंग प्रोजैक्ट, पहाड़ी शहरों पर बढ़ती आबादी, पहाड़ में घर निर्माण की नई शैली, बिजली कारखाने, धार्मिक पर्यटन और तीर्थयात्रियों का बोझ, क्लाइमेट चेंज, टूटते ग्लेशियर और ज्यादा बारिश का बड़ा कारण बन रहा है. विकास के नाम पर सरकार जिस तरह नियमों में बदलाव कर रही है वह प्रकृति को नुकसान पहुंचाने के सिवा कुछ नहीं है. सार यही है कि विकास जरूरी है लेकिन इंसानी जीवन को दांव पर लगा कर अगर ऐसा किया जाएगा तो यह विनाश को न्योता देगा.

सर्दियों में पहाड़ की बर्फ और ठंड का आनंद लेना अब दूभर होता जा रहा है. पहले लोग अत्यधिक ठंड के कारण नहीं जाते थे पर अब बिजली के कारण ठंड से मुकाबला कर सकते हैं इसलिए सुकून में जाना चाहते हैं पर उसे नष्ट होते पहाड़ों के कारण लगभग बंद किया जा रहा है. सर्दियां मनाइए पर मैदानी इलाकों में फिलहाल.

क्या तूल पकड़ेगी दलित प्रधानमंत्री की मांग ?

कांग्रेसी नेता शशि थरूर के बारे में हरेक की अपनी राय हो सकती है जिस का औसत निचोड़ यह निकलेगा कि वे एक सैक्सी और रोमांटिक नेता हैं. यह पहचान दिलाने में भगवा गैंग और समूचे दक्षिणपंथ की पुरजोर कुंठित कोशिशें भी हैं. लेकिन हर कोई यह भी जानता है कि वे एक पर्याप्त शिक्षित बुद्धिजीवी, संभ्रांत और अभिजात्य जमीनी नेता हैं जिन के नाम वैश्विक स्तर के कई सम्मान और रिकौर्ड दर्ज हैं. एक सफल स्थापित लेखक और स्तंभकार भी वे हैं.

भारतीय राजनीति में सक्रिय और स्थापित हुए उन्हें अभी 15 साल भी पूरे नहीं हुए हैं पर इस अल्पकाल में वे अपनी खास पहचान गढ़ने में कामयाब हुए हैं. खासतौर से कांग्रेस की तो वे जरूरत बन चुके हैं. बावजूद इस हकीकत के कि गांधी-नेहरू परिवार के प्रति अंधभक्ति उन में नहीं है लेकिन कांग्रेस के मद्देनजर इस परिवार की जरूरत को वे भी नकार नहीं पाते.

इन्हीं शशि थरूर ने 18 अक्तूबर को एक अमेरिकी टैक कंपनी के दफ्तर के उद्घाटन कार्यक्रम में कहा कि ‘इंडिया’ गठबंधन 2024 के चुनाव में बहुमत ला भी सकता है. ऐसी स्थिति में कांग्रेस की तरफ से बतौर प्रधानमंत्री राहुल गांधी या मल्लिकार्जुन खड़गे नामांकित किए जा सकते हैं. यह एकाएक यों ही दिया गया वक्तव्य नहीं है बल्कि इसे कांग्रेसी रणनीति का एक हिस्सा ही माना जाना चाहिए जो भविष्य को ले कर काफी उत्साहित है और उस की अपनी ठोस वजहें भी हैं.

एक तरह से शशि थरूर ने एक बार फिर से दलित प्रधानमंत्री की सनातनी मांग को उठाया है, साथ ही, राहुल गांधी का नाम विकल्प के रूप में पेश कर दिया है. अगर कांग्रेस 200 से ऊपर सीटें ले गई तो तय है वह राहुल से कम पर तैयार नहीं होगी और 150 से 180 के बीच रही तो खड़गे का नाम आगे कर देगी. इस में कोई शक नहीं कि ‘इंडिया’ गठबंधन के सभी दल राहुल गांधी के नाम पर हाथ नहीं उठा देंगे. ममता बनर्जी इन में प्रमुख हैं क्योंकि क्षेत्रीय दलों में उन के पास लोकसभा की सब से ज्यादा सीटें रहने की उम्मीद है.

अरविंद केजरीवाल और आजकल नाराज चल रहे अखिलेश यादव भी अपने दलों और कांग्रेस की सीटों की संख्या देख सौदेबाजी करेंगे लेकिन यह तय है कि 2024 में इन में से किसी के पास भी कांग्रेस से एकचौथाई सीटें भी नहीं होंगी. नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव और स्टालिन ज्यादा ऐतराज राहुल के नाम पर जताएंगे, ऐसा हालफिलहाल लग नहीं रहा क्योंकि नरेंद्र मोदी का जादू अब उतार पर है. हालांकि हिंदीभाषी प्रदेशों में भाजपा बढ़त पर रहेगी लेकिन यह संख्या कितनी होगी, इस बारे में अभी नहीं कहा जा सकता. 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद तसवीर थोड़ी और साफ होगी. हालात ठीक वैसे या लगभग वैसे भी हो सकते हैं जैसे 1977 में जनता पार्टी के गठन के वक्त थे.

शशि थरूर ने दलित समुदाय के मन में एक उम्मीद तो जताई है कि अगर वे ‘इंडिया’ गठबंधन के पक्ष में वोट करते हैं तो देश को पहला दलित प्रधानमंत्री मिलने की उम्मीद बरकरार है जिस पर 1977 में जनता पार्टी ने पानी फेर दिया था. तब भी विरोध करने वालों में जनसंघ सब से आगे था जो आज भाजपा के नाम से जाना जाता है.

छले गए बाबू जगजीवन राम

बाबूजी के नाम से मशहूर उच्च शिक्षित जगजीवन राम का राजनीति में अपना एक अलग रुतबा हुआ करता था जिन्होंने महात्मा गांधी की प्रेरणा से आजादी की लड़ाई में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया था. देश आजाद होने के बाद वे एक ही सीट सासाराम से लगातार सांसद रहे. लगातार 30 साल कैबिनेट मंत्री रहने का रिकौर्ड आज भी उन के नाम है.

इस दौरान वे उपप्रधानमंत्री और कृषि मंत्री सहित रक्षा मंत्री भी रहे. बिहार के भोजपुर इलाके के इस कद्दावर दलित नेता ने कांग्रेस छोड़ जनता पार्टी का दामन थाम लिया था. वजह थी, आपातकाल के दौरान इंदिरा सरकार की मनमानी लेकिन उन के मन में कुछ और था. यह ‘कुछ और था’ प्रधानमंत्री बनने का सपना साकार करना था जिस के इंदिरा गांधी के रहते पूरा होने की कोई उम्मीद न थी.

70 के दशक में जयप्रकाश नारायण कांग्रेस और इंदिरा गांधी के विरोध में अलगअलग सिद्धांतों और विचारधारा वाले राजनीतिक दलों को एक मंच व निशान के नीचे लाने में कामयाब हो गए थे तब सब का एजेंडा ‘इंदिरा हटाओ’ था. लेकिन, उन की जगह कौन, यह विवाद सामने आया तो जनता पार्टी में रार पड़ गई.

सब से तगड़ी दावेदारी जगजीवन राम की ही थी लेकिन उन्होंने चूंकि इमरजैंसी का प्रस्ताव रखा था, इसलिए उन का विरोध शुरू हो गया जो एक बहाने से ज्यादा कुछ नहीं था. मकसद था एक दलित को देश की सब से ताकतवर कुरसी पर बैठने देने से रोकना. तब इस दौड़ में प्रमुखता से जनसंघ के चहेते मोरारजी देसाई और भारतीय क्रांति दल के चौधरी चरण सिंह थे. सांसदों में जनसंघ घटक के सब से ज्यादा 93 और इस के बाद भारतीय क्रांति दल के 71 सदस्य थे. जगजीवन राम की बनाई कांग्रेस फौर डैमोक्रेसी को 28 सीटें मिली थीं और इतने ही सदस्य सोशलिस्ट पार्टी के थे. इस पार्टी के वरिष्ठ नेता जौर्ज फर्नांडीज और मधु दंडवते जगजीवन राम के पक्ष में थे.

चरण सिंह न तो मोरारजी देसाई को चाहते थे और न ही जगजीवन राम को लेकिन जब इन दोनों में से किसी एक को चुनने का मौका आया तो वे मोरारजी के नाम पर सहमत हो गए. लेकिन यह सब आसान नहीं था. जगजीवन राम ने कांग्रेस छोड़ी ही इस उम्मीद और अघोषित शर्त पर थी कि उन्हें ही प्रधानमंत्री बनाया जाएगा. जनता पार्टी के जनक जयप्रकाश नारायण और जेबी कृपलानी ने जैसेतैसे मानमनौवल कर के जगजीवन राम को सहमत किया और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बन गए.

मोरारजी देसाई अति महत्त्वाकांक्षी और अहंकारी नेता थे जो जवाहरलाल नेहरू  के बाद से ही प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी पेश करते रहे थे लेकिन आज की तरह तब भी कांग्रेस नेहरू-गांधी परिवार के अलावा और उस से ज्यादा कुछ सोच नहीं पाती थी. लालबहादुर शास्त्री की मौत के बाद जब प्रधानमंत्री चुनने की बात चली तब मोरारजी दौड़ में थे लेकिन कांग्रेस और कांग्रेसियों ने उन्हें खारिज कर दिया था जिस के कुछ सालों बाद ही उन्होंने कांग्रेस छोड़ कांग्रेस (ओ) का गठन कर लिया था जिसे गुजरात में रिस्पौंस भी मिला था.

जनता पार्टी ने 1977 का चुनाव प्रधानमंत्री का चेहरा पेश कर नहीं लड़ा था लेकिन जब वह बहुमत में आई तो मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह और जगजीवन राम तीनों प्रधानमंत्री बनने को अड़ गए थे. तीनों ही किसी भी कीमत पर प्रधानमंत्री बनना चाहते थे और एकदूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाते थे. तनातनी और रस्साकशी इतनी बढ़ गई थी कि एक बार तो ऐसा लगने लगा था कि गांव बसने के पहले ही उजड़ने वाला है. थकेहारे जयप्रकाश नारायण ने फैसला इन तीनों के ऊपर ही छोड़ दिया.

शुरुआत में तटस्थ दिख रही जनसंघ ने दलित जगजीवन राम के मुकाबले ब्राह्मण मोरारजी देसाई का पक्ष लिया तो चरण सिंह को बाजी हाथ से निकलती दिखाई दी क्योंकि संख्या बल में वे पिछड़ रहे थे. लिहाजा, उन्होंने भी सवर्ण होने का धर्म निभाते मोरारजी के नाम पर हामी भर दी और विवादों से बचने को बीमारी का बहाना बना कर अस्पताल में भरती हो गए. इस तरह ब्रह्मा का मुख जीत गया और पैर हार गया.

कट्टर हिंदूवादी जनसंघ ने, दिखावे को ही, खुद को इस ?ामेले से दूर ही रखा था. लालकृष्ण आडवाणी का ?ाकाव और लगाव दोनों ही मोरारजी देसाई के प्रति थे. आडवाणी और दूसरे तत्कालीन संघी जानतेसम?ाते थे कि जगजीवन राम आज भले ही कांग्रेस छोड़ आए हों पर उन का दिलोदिमाग धर्मनिरपेक्ष है और वे नेहरू-अंबेडकर का हिंदुत्वविरोधी रास्ता छोड़ेंगे नहीं. ऐसे में उन का प्रधानमंत्री बनना हिंदू के दीर्घकालिक एजेंडे पर पलीता फेरने वाला ही साबित होगा. इस मानसिकता के लोगों में शुमार एक प्रमुख नाम इंडियन एक्सप्रैस के मालिक रामनाथ गोयनका का भी था.

मोरारजी देसाई के नाम का ऐलान करते जेबी कृपलानी ने नाटकीय भावुकता के साथ कहा था कि यह फैसला हम व्यथित मन से ले रहे हैं अगर हमारे पास 2 प्रधानमंत्री चुनने का विकल्प होता तो दूसरा नाम बाबू जगजीवन राम का ही होता. इस फैसले को गुस्साए जगजीवन राम ने सहजता से नहीं स्वीकार लिया था. वे मोरारजी देसाई के शपथ ग्रहण समारोह में ही नहीं गए थे और कहा जाता है कि फैसले को सुनते ही वे फिल्मी स्टाइल में घर के फर्नीचर को लात मारते धोखाधोखा चिल्ला रहे थे.

4 दिनों बाद जब उन का गुस्सा कुछ कम हुआ तो जयप्रकाश नारायण ने उन के घर जा कर उन्हें पुचकारा कि नए भारत के निर्माण में आप का सहयोग जरूरी है तो वे मान गए और रक्षा मंत्रालय लेने को तैयार हो गए. शायद ही नहीं, तय है, अपनी खिसियाहट ढकने के लिए उन्हें भी इस से बेहतर कुछ लगा भी न होगा कि एकलव्य तो एकलव्य ही रहेगा, यही उस की नियति है.

दलित नेता जगजीवन राम

आज भी दलित नेता के रूप में जगजीवन का नाम देश के बड़े नेताओं में लिया जाता है, क्योंकि इस शिखर तक वे ही जन से जुड़ कर पहुंच पाए हैं. कांग्रेस देशभर में यह बताने की कोशिश करती है कि उस में दलित नेता इतनी ऊंची कदकाठी के बने. लेकिन हकीकत यह है कि जगजीवन राम को कांग्रेस ने इसलिए नहीं स्वीकारा कि उन के पिता जूते काटने वाले थे या जगजीवन भी इसी पेशे से जुड़े रहे, बल्कि इसलिए कि वे उस समुदाय में समृद्ध थे. उन के पिता शोभी राम गांव के ‘महंत’ थे. उन की समाज में पहले से ही अच्छीखासी पूछ थी.

बाबू जगजीवन राम का जन्म

5 अप्रैल, 1908 को शोभी राम और वसंती देवी के घर हुआ. बाबू जगजीवन का एक भाई और 3 बहनें थीं. जगजीवन उन सब में सब से छोटे थे. जगजीवन का नाम पहले बुद्धराम रखा गया था लेकिन बाद में उन के पिता ने बदल कर जगजीवन राम रख दिया. यह नाम उन्होंने अपने गुरु शिवनारायणी के बुक टाइटल से लिया था.

जगजीवन के पिता शोभी राम ब्रिटिश राज के दौरान इंडियन आर्मी में थे. लेकिन धार्मिक मतभेदों के चलते उन्होंने आर्मी से इस्तीफा दे दिया था. उस के बाद वे कलकत्ता के मैडिकल कालेज में काम करने लगे. वहां से परमानैंट रिटायरमैंट ले कर वे अपने गांव चांदवा में रहने लगे. रिटायर होने के कुछ समय बाद ही जगजीवन के पिता शिव नारायणी के प्रमुख आध्यात्मिक महंत बन गए, जोकि हिंदू सुधारवादी धड़े का हिस्सा थे.

जगजीवन के पिता आध्यात्मिक थे जो अपने गांव में भक्ति गीत गा कर भगवान की आराधना किया करते थे. उन की आध्यात्म पर लिखी किताबें काफी फेमस थीं. जगजीवन राम को उन की प्रारंभिक शिक्षा के दौरान पंडित कपिल मुनि तिवारी से गाइडैंस मिल रही थी. 1914 में जगजीवन राम के पिता की मृत्यु हो गई. तब वे 6 साल के थे. पिता की मृत्यु के बाद उन की मां, जोकि बेहद धार्मिक महिला थीं, ने उन की पढ़ाई व भक्तिभाव दृष्टिकोण में अहम भूमिका अदा की.

‘फुट प्रिंट औफ डा. बाबू जगजीवन राम इन प्रोग्रैसिव इंडिया’ किताब के लेखक अब्राहम मुतलुरी अपनी किताब में लिखते हैं, ‘जनवरी 1914 में ही जगजीवन गांव के एक लोकल स्कूल में भरती हुए. वह बसंत पंचमी का दिन था. उन्होंने पीले रंग की धोती व सिर पर वेलवेट रंग की कैप पहनी थी. गुड़ का एक टुकड़ा उन के मुंह में था और हाथ में स्लेट थी. भाई के स्कूल जाने की खुशी में, उस दिन उन के बड़े भाई ने गांव के लोगों को चाय पिलाई थी.

‘अपने पिता की छाप, घर का धार्मिक वातावरण और पंडित कपिल मुनि तिवारी की शिक्षा से उन के चरित्र को आकार मिल रहा था. जगजीवन की शादी गांव के बाकी लड़कों की तरह सामान्यतया 8 साल की उम्र में हुई.

‘डा. जगजीवन राम ने आरा के मिडिल स्कूल से पढ़ाई की थी. दलित समाज के इस विद्यार्थी को भी विद्यालय के अंदर छुआछूत और अपमान का सामना करना पड़ा. गैरदलित छात्रों ने घड़े से पानी पीने से उन्हें रोका. उन के लिए अलग घड़े का इंतजाम किया गया. यह दीगर बात कि उन की विद्रोही चेतना ने इसे स्वीकार नहीं किया. 1925 में आरा छात्र सम्मेलन में उन्होंने हिस्सेदारी की और सम्मेलन को संबोधित किया. उन के भाषण का उपस्थित लोगों पर गहरा असर पड़ा. उन लोगों में मदन मोहन मालवीय भी शामिल थे. 1926 में उन्होंने प्रथम श्रेणी में मैट्रिक की परीक्षा पास की.

‘जगजीवन की पहली शादी सोनापुर गांव के मुखलाल की बेटी से हुई, जिस की मौत शादी के 17 साल युवा अवस्था में हुई. उस के बाद जगजीवन की दूसरी शादी डा. बीरबल, जोकि ब्रिटिश आर्मी में अच्छी रैंक में थे और सम्मानित थे, की बेटी इंद्राणी देवी से हुई. इंद्राणी होनहार लड़की थी. उस ने लखनऊ से बीएड किया था. पढ़ाई के दौरान इंद्राणी ने होस्टल में छुआछूत भी ?ोला और जगजीवन से शादी होने के बाद कानपुर में इंद्राणी ने स्कूल में शिक्षिका के रूप में काम किया.’

छुआछूत के शिकार

‘तय यह भी है कि जगजीवन राम का बचपन धार्मिक क्रियाकलापों में बीता. तुलनात्मक रूप से उन्होंने आम दलित जितना कष्ट नहीं ?ोला. यह सब इसलिए क्योंकि उन की शुरुआती परवरिश धार्मिक तौरतरीकों से हुई, उन्हें पढ़ने की उचित व्यवस्था प्राप्त हुई और उन के पिता के ‘महंत’ होने के चलते एक सम्मान बना हुआ था. लेकिन उन्हें याद जरूर रहा होगा कि बीएचयू में पढ़ते हुए क्यों उन के साथ भेदभाव किया जाता था. ऊंची जाति वाले उन के सहपाठी मेस में उन के साथ खाना खाने से भी बचते थे. वहां का नाई उन के बाल नहीं काटता था. याद उन्हें स्कूली दिन भी आए होंगे जहां दलित बच्चों के लिए अलग पानी का घड़ा रखा जाता था. ऐसे कई हादसों के शिकार जगजीवन राम राजनीतिक छुआछूत और भेदभाव से भी बच नहीं पाए.’

अब्राहम अपनी किताब में उन के जीवन में घटे एक अहम हिस्से के बारे में यह लिखते हैं जिस ने उन के जीवन पर गहरा असर छोड़ा, ‘सर्दी का समय था, जगजीवन अपने एक रिश्तेदार के साथ धान लेने के लिए बैलगाड़ी से खोपारी की ओर रवाना हुए. वे बाबू साहबों की कालोनी के आसपास थे. प्रथा के अनुसार, अछूतों को अपनी बैलगाड़ी से उतरना पड़ता था, अपने जूते उतारने पड़ते थे, अपनी छतरियां मोड़नी पड़ती थीं और सिर ?ाका कर गांव से निकलना होता था. अगर वे ऐसा न करें तो उन के साथ दुर्व्यवहार और उन पर हमला होने की संभावना बनी रहती थी.

‘जगजीवन ने इस प्रथा का उल्लंघन करने का फैसला किया. अपने रिश्तेदार से इस तरह की प्रथा को न मानने के लिए मनाया. उस का रिश्तेदार डरने लगा. रिश्तेदार ने जगजीवन से विनती की कि वे ऐसा न करें. लेकिन जगजीवन अपने में अड़े रहे. उस पुरानी व्यवस्था को रौंदने के साथ अपने काम को भी अंजाम दिया.’ कहते हैं इस घटना ने उन के जीवन पर छाप छोड़ी.

वहीं, मंत्री रहते जगजीवन खुद के लिए तो लड़ पाए लेकिन बाकियों के लिए नहीं. जगजीवन राम को पुरी के जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया गया था. तब बड़ी मुश्किल से प्रशासन के सम?ाने पर पंडे इस बात पर राजी हुए थे कि ठीक है, जनप्रतिनिधि होने के नाते हम उन्हें मंदिर में जाने की इजाजत देते हैं लेकिन उन की पत्नी और साथ आए दूसरे दलितों को मंदिर में नहीं जाने देंगे. इस ज्यादती से खिन्न जगजीवन राम ने मंदिर में जाने से मना कर दिया था लेकिन यह उन्हें सम?ा आ गया था कि मनुवाद की जड़ें कितनी गहरी हैं.

दलित नेता की अनदेखी

इधर, जनता सरकार में, सबकुछ क्या, कुछ भी ठीकठाक नहीं था. समाजवादी और जनसंघी एकदूसरे को आंखें दिखाते रहते थे. चंद्रशेखर, नानाजी देशमुख, मधु लिमये और सुब्रमण्यम स्वामी जैसे दर्जनभर जिन दिग्गजों को मंत्रिमंडल में नहीं लिया गया था, सो वे सरकार गिराने का मौका ढूंढ़ते ही रहते थे.

बाद में इस ग्रुप में रायबरेली सीट से इंदिरा गांधी को हराने वाले ड्रामेबाज नेता राजनारायण भी शामिल हो गए थे. मोरारजी सत्ता के नशे में इतने चूर हो गए थे कि उन्होंने जनता कुनबे के कई दिग्गजों के साथसाथ जयप्रकाश नारायण को भी बेइज्जत करना शुरू कर दिया था. वे भूल गए थे कि जो शख्स इंदिरा गांधी का साम्राज्य ढहा सकता है वह उसे बहाल करने की भी कूवत रखता है.

ऐसा हुआ भी. मई 1977 में बिहार के एक गांव बेलछी में ऊंची जाति वाले दबंगों ने दर्जनभर दलितों को बेरहमी से मार डाला था तब जनता सरकार ने तो इस का कोई खास नोटिस नहीं लिया लेकिन डिप्रैशन से उबर रहीं इंदिरा गांधी वहां गईं. भारी बारिश और कीचड़ के चलते उन की कार आधे रास्ते में धंस गई तो वे एक गांव वाले के हाथी पर सवार हो कर गई थीं.

यह फोटो तब देशभर के मीडिया ने प्रमुखता से छापा था. बेलछी के दलितों ने उन्हें हाथोंहाथ लिया था. वापसी में पटना में इंदिरा गांधी जनता कुनबे की अनदेखी के शिकार जयप्रकाश नारायण से मिलीं और घंटेभर उन के साथ गुफ्तगू की. बाहर छन कर एक ही बात आई कि जयप्रकाश नारायण ने उन्हें आशीर्वाद देते कहा है कि तुम्हारी राजनीति अभी खत्म नहीं हुई है.

इस के बाद जो हुआ वह भारतीय राजनीति के इतिहास का दिलचस्प अध्याय है. 3 साल में ही जनता पार्टी की सरकार विसर्जित हो गई. इस में इंदिरा गांधी और उन के उद्दंड बेटे संजय गांधी का अहम रोल रहा जिन्होंने चरण सिंह को समर्थन दे कर पहले मोरारजी देसाई की छुट्टी करवाई और फिर कुछ दिनों बाद उन्हें भी चलता कर दिया.

जगजीवन राम इस पिक्चर में यहां फिट बैठते हैं कि उन का पत्ता पहले ही संजय गांधी की पत्नी मेनका गांधी साफ कर चुकी थीं जो उन दिनों सूर्या नाम की मैगजीन का संपादन करती थीं. उन्हीं दिनों जगजीवन राम के बेटे सुरेश कुमार के कुछ नग्न फोटो चर्चा में थे जिन में वे एक कालेज गर्ल के साथ नग्न और आपत्तिजनक अवस्था में नजर आ रहे थे.

यह ज्ञात राजनीतिक इतिहास का पहला सब से बड़ा सनसनीखेज सैक्स स्कैंडल था. ये फोटो कहीं न छापें, इस बाबत जगजीवन राम ने कई संपादकों व पत्रकारों के पांवों में अपनी टोपी रख दी थी लेकिन मेनका गांधी ने ये फोटो छाप कर सास और पति का पुराना हिसाब चुकता कर लिया था.

ये फोटो बड़े सनसनीखेज तरीके से राजनारायण के हाथ लगे थे और संजय गांधी की चौकड़ी जिस में इन दिनों मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा के शिवराज सिंह के खिलाफ ताल ठोक रहे कमलनाथ का रोल अहम था जो इंदिरा गांधी के मैसेज यहांवहां पहुंचाया करते थे.

1980 में कांग्रेस ने शानदार वापसी की. यह चुनाव जनता पार्टी ने जगजीवन राम को प्रधानमंत्री पेश कर ही लड़ा था लेकिन जनता ने उन्हें नकार दिया. फिर धीरेधीरे जनता पार्टी खत्म हो गई. इस के साथ ही खत्म हो गई दलित प्रधानमंत्री की मांग जो बाद में रस्मी तौर पर छिटपुट उठती रही.

अब यह हो सकता है

2024 को ले कर भाजपा पिछली बार की तरह निश्ंिचत नहीं है. इस की बड़ी वजह प्रमुख विपक्षी दलों का लगभग जनता पार्टी की तरह एक हो जाना और ‘जितनी जिस की आबादी उतनी उस की भागीदारी’ वाला नारा लगाना, जो कभी बसपा के संस्थापक कांशीराम ने दिया था. अब सभी की प्राथमिकता आधी आबादी वाले पिछड़े हैं लेकिन 20 फीसदी वाले दलितों को भी कोई नजरअंदाज करने की स्थिति में नहीं है जिन का साथ 16 फीसदी मुसलमान और 9 फीसदी आदिवासी भी दे सकते हैं.

अगली लड़ाई अगर धर्म यानी सनातन बनाम जाति हुई, जिस की संभावना ज्यादा है तो भाजपा को सब से ज्यादा नुकसान होना तय है. इसलिए वह जातिगत जनगणना से कतरा रही है. ‘इंडिया’ गठबंधन 15 बनाम 85 के फार्मूले पर काम कर रहा है. 15 फीसदी सवर्णों के अलावा कितने फीसदी पिछड़े-दलित उस का साथ देंगे, इसी समीकरण पर 2024 का फैसला होगा.

दक्षिण भारत से तो भाजपा खारिज हो ही रही है लेकिन पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, ओडिशा में नवीन पटनायक, ?ारखंड में हेमंत सोरेन और दिल्ली-पंजाब में अरविंद केजरीवाल के चलते उसे कुछ खास हाथ नहीं लगना. लोकसभा सीटों के हिसाब से देखें तो कोई 280 सीटों पर वह कमजोर है लेकिन लगभग इतने पर ही गठबंधन दलों के साथ मजबूत भी है.

मल्लिकार्जुन खड़गे पर दांव

शशि थरूर का बयान ऐसे वक्त में आया है जब चुनाव वाले 5 राज्यों में मिजोरम को छोड़ कर दलित एक बड़ा फैक्टर है जो अगर हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक की तरह कांग्रेस की तरफ ?ाक गए तो अगली लोकसभा के नतीजे भी हैरान कर देने वाले होंगे जैसा कि थरूर अपने बयान में जोड़ते हैं.

यह कहना बहुत मुश्किल है कि ‘इंडिया’ गठबंधन अपने मकसद में कामयाब हो ही जाएगा. उस की राह में भी कम रोड़े और कम चरण सिंह व मोरारजी देसाई नहीं. इस के बाद भी गठबंधन की गंभीरता और मजबूरी को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. अगर उस का मकसद वाकई भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति को खत्म करना होगा तो त्याग कइयों को करना पड़ेगा.

मुद्दे ने अगर तूल पकड़ा और दलित समुदाय एकजुट हो गया तो त्याग भगवा खेमे को भी करना पड़ सकता है. नरेंद्र मोदी की बढ़ती अस्वीकार्यता और गिरती साख से बचने वह बसपा प्रमुख मायावती को बतौर प्रधानमंत्री पेश भी कर सकता है. यह दूर की कौड़ी नहीं है क्योंकि अरसे से मायावती भाजपा के सुर में सुर मिला रही हैं और भाजपा का उन के प्रति सौफ्ट कौर्नर भी किसी से छिपा नहीं है. वैसे भी, यह ब्राह्मणों की पुरानी आदत रही है कि वे धर्म से होने वाली कमाई को बनाए रखने के लिए दलितपिछड़ों को मोहरा बना लेते हैं. जैसे भाजपा सरकार ने कर्नाटक चुनाव से पहले कांग्रेसी दलित वोटरों को लुभाने के मकसद से जगजीवन राम पर फिल्म बनाने की बात कही लेकिन वह फिल्म पिछले 5 साल में कहां है, इस पर कोई जवाब नहीं.

अब कभी मायावती मनुवाद का विरोध नहीं करतीं और न ही राममंदिर निर्माण में फुंक रहा अरबों रुपया उन्हें फूजूलखर्ची लगता है. वे खुद मूर्तियों की राजनीति की आदी हो गई हैं. नया कोई भी समीकरण हिंदीभाषी राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ चुनाव के नतीजों पर भी निर्भर करेगा. अगर इन राज्यों में कांग्रेस 2018 का प्रदर्शन दोहरा पाती है तो स्पष्ट हो जाएगा कि दलितों ने उस पर भरोसा जताया है.भाजपा राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को भी इस पद की पेशकश कर सकती है जिस से दलितआदिवासी दोनों समुदायों के वोटों की घेराबंदी की जा सके.

तिरुअनंतपुरम से शशि थरूर ने 2 ही विकल्प दिए हैं. तीसरे को गिना ही नहीं तो इस के पीछे उन का संदेश साफ दिख रहा है कि मिशन तभी कामयाब होगा जब सभी घटक दल कांग्रेस को बौस मान लें. राष्ट्रीय दल होने के नाते वह इस की हकदार भी है और सीटों की गिनती में भी स्वाभाविक रूप से अव्वल रहेगी.

दलित प्रधानमंत्री का मुद्दा उछालना, हालांकि, पुराना शिगूफा है जिस में इकलौता फायदा यह है कि भाजपा के पास कोई राष्ट्रीय स्तर का दलित नेता ही नहीं, छोटेमोटे दलित दल उस ने ओला-उबर टैक्सीसेवाओं की तरह हायर कर रखे हैं. यह काम बड़ी पार्टियां करती रही हैं.

ऐसे में मल्लिकार्जुन खड़गे के नाम पर बात अगर बनती दिखती है तो इस में कांग्रेस को कोई घाटा भी नहीं है क्योंकि राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनना ही चाहेंगे, यह भी अभी स्पष्ट नहीं है. मुमकिन है वे एक बार फिर परदे के पीछे से सरकार चलाना पसंद करें ठीक वैसे ही जैसे 2003 से 2013 तक चलाई थी. दूसरा कांग्रेस को मल्लिकार्जुन खड़गे से समस्या भी नहीं होगी. लेकिन इस के लिए जरूरी है कि गठबंधन का हश्र जनता पार्टी सरीखा न हो. वह सफल हो भी सकता है क्योंकि उस के कुनबे में कोई जनसंघ या मोरारजी देसाई नहीं है जो दलितों के नाम पर नाक को रूमाल से ढक ले.

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