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वक्त बदल रहा है : भाग 1

‘सुश्री हरिनाक्षी नारायण ने आज जिला कलक्टर व चेयरमैन, शहर विकास प्राधिकार समिति का पदभार ग्रहण किया.’

आगे पढ़ने की जरूरत नहीं थी क्योंकि लीना अपने कालिज और कक्षा की सहपाठी रह चुकी हरिनाक्षी के बारे में सबकुछ जानती थी.

यह अलग बात है कि दोनों की दोस्ती बहुत गहरी कभी नहीं रही थी. बस, एकदूसरे को वे पहचानती भर थीं और कभीकभी वे आपस में बातें कर लिया करती थीं.

मध्यवर्गीय दलित परिवार की हरिनाक्षी शुरू से ही पढ़ाई में काफी होशियार थी. उस के पिताजी डाकखाने में डाकिया के पद पर कार्यरत थे. मां एक साधारण गृहिणी थीं. एक बड़ा भाई बैंक में क्लर्क था. पिता और भाई दोनों की तमन्ना थी कि हरिनाक्षी अपने लक्ष्य को प्राप्त करे. अपनी महत्त्वाकांक्षा को प्राप्त करने के लिए वह जो भी सार्थक कदम उठाएगी, उस में वह पूरा सहयोग करेंगे. इसलिए जब भी वे दोनों बाजार में प्रतियोगिता संबंधी अच्छी पुस्तक या फिर कोई पत्रिका देखते, तुरंत खरीद लेते थे. यही वजह थी कि हरिनाक्षी का कमरा अच्छेखासे पुस्तकालय में बदल चुका था.

हरिनाक्षी भी अपने भाई और पिता को निराश नहीं करना चाहती थी. वह जीजान लगा कर अपनी पढ़ाई कर रही थी. कालिज में भी फुर्सत मिलते ही अपनी तैयारी में जुट जाती थी. लिहाजा, वह पूरे कालिज में ‘पढ़ाकू’ के नाम से मशहूर हो गई थी. उस की सहेलियां कभीकभी उस से चिढ़ जाती थीं क्योंकि हरिनाक्षी अकसर कालिज की किताबों के साथ प्रतियोगी परीक्षा संबंधी किताबें भी ले आती थी और अवकाश के क्षणों में पढ़ने बैठ जाया करती.

लीना, हरिनाक्षी से 1 साल सीनियर थी. कालिज की राजनीतिक गतिविधियों में खुल कर हिस्सा लेने के कारण वह सब से संपर्क बनाए रखती थी. वह विश्वविद्यालय छात्र संघ की सचिव थी. उस के पिता मुखराम चौधरी एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल ‘जनमत मोर्चा’ के अध्यक्ष थे. इस राजनीतिक पृष्ठभूमि का लाभ उठाने में लीना हमेशा आगे रहती थी. यही वजह थी कि कालिज में भी उस की दबंगता कायम थी.

एकमात्र हरिनाक्षी थी जो उस के राजनीतिक रसूख से जरा भी प्रभावित नहीं होती थी. लीना ने उसे कई बार छात्र संघ की राजनीति में खींचने की कोशिश की थी. किंतु हर बार हरिनाक्षी ने उस का प्रस्ताव ठुकरा दिया था. उसे केवल अपनी पढ़ाई से मतलब था. जलीभुनी लीना फिर ओछी हरकतों पर उतर आई और उस के सामने जातिगत फिकरे कसने लगी.

‘अरे, यह लोग तो सरकारी कोटे के मेहमान हैं. थोड़ा भी पढ़ लेगी तो अफसर…डाक्टर…इंजीनियर बन जाएगी. बेकार में आंख फोड़ती है.’

कभी कहती, ‘सरकार तो बस, इन्हें कुरसी देने के लिए बैठी है.’

हरिनाक्षी पर उस के इन फिकरों का जरा भी असर नहीं होता था. वह बस, मुसकरा कर रह जाती थी. तब लीना और भी चिढ़ जाती थी.

लीना के व्यंग्य बाणों से हरिनाक्षी का इरादा दिनोदिन और भी पक्का होता जाता था. कुछ कर दिखाने का जज्बा और भी मजबूत हो जाता.

हरिनाक्षी ने बी.ए. आनर्स की परीक्षा में सर्वोच्च श्रेणी में स्थान प्राप्त किया तो सब ने उसे बधाई दी. एक विशेष समारोह में विश्वविद्यालय के उपकुलपति ने उस का सम्मान किया.

हरिनाक्षी ने उस समारोह में शायद पहली और आखिरी बार अपने उद्गार व्यक्त करते हुए परोक्ष रूप से लीना के कटाक्षों का उत्तर देने की कोशिश की थी :

‘शुक्र है, विश्वविद्यालय में और सब मामलों में भले ही कोटे का उपयोग किया जाता हो, मगर अंक देने के मामले में किसी भी कोटे का इस्तेमाल नहीं किया जाता है.’ यह कहते हुए हरिनाक्षी की आंखों में नमी आ गई थी. सभागार में सन्नाटा छा गया था. सब से आगे बैठी लीना के चेहरे का रंग उड़ गया था.

उस दिन के बाद से लीना ने हरिनाक्षी से बात करना बंद कर दिया था.

इस बीच हरिनाक्षी की एक प्यारी सहेली अनुष्का का दिन दहाडे़ एक चलती कार में बलात्कार किया गया था. बलात्कारी एक प्रतिष्ठित व्यापारी का बिगडै़ल बेटा था. पुलिस उस के खिलाफ सुबूत जुटा नहीं पाई थी. लिहाजा, उसे जमानत मिल गई थी.

क्षुब्ध हरिनाक्षी पहली बार लीना के पास मदद के लिए आई कि बलात्कारी को सजा दिलाने के लिए वह अपने पिता के रसूख का इस्तेमाल करे ताकि उस दरिंदे को उस के किए की सजा मिल सके.

लीना ने साफसाफ उसे इस झमेले में न पड़ने की हिदायत दी थी, क्योंकि वह जानती थी कि उस के पिता उस व्यापारी से मोटी थैली वसूलते थे.

अनुष्का ने आत्महत्या कर ली थी. लीना बुरी तरह निराश हुई थी.

हरिनाक्षी उस के बाद ज्यादा दिनों तक कालिज में रुकी भी नहीं थी. एम.ए. प्रथम वर्ष में पढ़ते हुए ही उस ने ‘भारतीय प्रशासनिक सेवा’ की परीक्षा दी थी और अपनी मेहनत व लगन के बल पर तमाम बाधाओं को पार करते हुए सफल प्रतियोगियों की सूची में देश भर में 7वां स्थान प्राप्त किया था. आरक्षण वृत्त की परिधि से कहीं ऊपर युवतियों के वर्ग में वह प्रथम नंबर पर थी.

उस के बाद लीना के पास हरिनाक्षी की यादों के नाम पर एक प्रतियोगिता पत्रिका के मुखपृष्ठ पर छपी उस की मुसकराती छवि ही रह गई थी. अपनी भविष्य की योजनाओं पर ध्यान केंद्रित करती हुई लीना ने जाने क्या सोच कर उस पत्रिका को सहेज कर रखा था. एक भावना यह भी थी कि कभी तो यह दलित बाला उस की राजनीति की राहों में आएगी.

लीना के पिता अपने राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में हर जगह बेटी को पेश करते थे. लीना की शादी भी उन्होंने एक व्यापारिक घराने में की थी. उस के पति का छोटा भाई वही बलात्कारी था जिस ने लीना के कालिज की लड़की अनुष्का से बलात्कार किया था और सुबूत न मिल पाने के कारण अदालत से बरी हो गया था.

लीना शुरू में इस रिश्ते को स्वीकार करने में थोड़ा हिचकिचाई थी, लेकिन पिता ने जब उसे विवाह और उस के राजनीतिक भविष्य के बारे में विस्तार से समझाया तो वह तैयार हो गई. लीना के पिता ने लड़के के पिता के सामने यह शर्त रख दी थी कि वह अपनी होने वाली बहू को राजनीति में आने से नहीं रोकेंगे.

लीना आज अपनी राष्ट्रीय पार्टी ‘जनमत मोर्चा’ की राज्य इकाई की सचिव है. पूरे शहर के लिए हरदम चर्चा में रहने वाला एक अच्छाखासा नाम है. आम जनता के साथसाथ ब्लाक स्तर से ले कर जिला स्तर तक सभी प्रशासनिक और पुलिस अधिकारी उसे व्यक्तिगत रूप से जानते हैं. अपने राजनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल वह अपने पति के भवन निर्माण व्यवसाय की दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति के लिए बखूबी कर रही थी. इन दिनों उस के पति कमलनाथ अपने एक नए प्रोजेक्ट का काम शुरू करने से पहले कई तरह की अड़चनों का सामना कर रहे थे.

लीना को पूरी उम्मीद थी कि हरिनाक्षी पुरानी सहपाठी होने के नाते उस की मदद करेगी और अगर नहीं करेगी तो फिर खमियाजा भुगतने के लिए उसे तैयार रहना होगा. ऐसे दूरदराज के इलाके में तबादला करवा देगी कि फिर कभी कोई महिला दलित अधिकारी उस से पंगा नहीं लेगी. कमलनाथ लीना को बता चुके थे कि इस प्रोजेक्ट में उन के लाखों रुपए फंस चुके थे.

दरअसल, शहर के व्यस्त इलाके में एक पुराना जर्जर मकान था. इस के आसपास काफी खाली जमीन थी. मकान मालिक शिवचरण उस मकान और जमीन को किसी भी कीमत पर बेचने को तैयार नहीं हो रहे थे. अपने बापदादा की निशानी को वह खोना नहीं चाहते थे. उस मकान से उन की बेटी अनुष्का की ढेर सारी यादें जुड़ी हुई थीं.

कमलनाथ ने एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी को अपने प्रोजेक्ट में यह कह कर हिस्सेदारी देने की पेशकश की थी कि वह शिवचरण को ‘येन केन प्रकारेण’ जमीन खाली करने पर या तो राजी कर लेंगे या फिर मजबूर कर देंगे.

उस पुलिस अधिकारी ने अपने रोबदाब का इस्तेमाल करना शुरू किया, लेकिन शिवचरण थे कि आसानी से हार मानने को तैयार नहीं हो रहे थे. पहले तो वह पुलिसिया रोब से भयभीत नहीं हुआ बल्कि वह अपनी शिकायत पुलिस थाने में दर्ज कराने जा पहुंचा. यहां उसे बेहद जिल्लत झेलनी पड़ी थी. भला पुलिस अपने ही किसी आला अधिकारी के खिलाफ कैसे मामला दर्ज कर सकती थी? उन्होंने लानतमलामत कर उसे भगा दिया.

शिवचरण ने भी हार नहीं मानी और उन्हें पूरा विश्वास था कि एक न एक दिन उन की फरियाद जरूर सुनी जाएगी.

नई कलक्टर के कार्यभार संभालने की खबर ने उन के दिल में फिर से आस जगाई.

हर तरफ से निराश शिवचरण कलक्टर के दफ्तर पहुंचे.

आज कलक्टर साहिबा से वह मिल कर ही जाएंगे. चाहे कितना भी इंतजार क्यों न करना पडे़.

क्या आप भी नाखून चबाने के आदी हैं ?

कई लोग नाखून चबाने की आदी होते हैं. अगर आपको भी इस तरह की आदत है तो तुरंत ही सावधान हो जाइये. ऐसा हम इसलिए कह रहे हैं, इससे ना सिर्फ नाखूनों की खूबसूरती बिगड़ती है बल्कि कई तरह के रोग को भी आप दावत देते हैं. आपके नाखूनों में कई तरह के रोगजनक विषाणु पाए जाते हैं. ये विषाणु आपको बीमार कर सकते हैं. तो आइए जानते हैं कि अगर आपने यह आदत नहीं छोड़ी तो आपको कितना नुकसान पहुंचा सकता है.

1. त्वचा संक्रमण

नाखून चबाने से उसके आस-पास की त्वचा की कोशिकाएं भी क्षतिग्रस्त होती हैं. ऐसे में पैरोनिशिया से पीड़ित होने का खतरा होता है. यह एक स्किन इन्फेक्शन है जो नाखून की आस-पास की त्वचा में होता है.

2. रोगजनक बैक्टीरिया

नाखून में साल्मोनेला और ई कोलाई जैसे रोग पैदा करने वाले बैक्टीरिया पनपते हैं. जब आप दांतों से नाखून काटते हैं तो ये बैक्टीरिया आपके मुंह में आसानी से प्रवेश कर जाते हैं. ऐसे में आपका बीमार होना तय है. कई शोध भी कहते हैं कि हमारे नाखून उंगलियों से दोगुने गंदे होते हैं. ऐसे में नाखून चबाना हमारे लिए बेहद हानिकारक हो सकता है.

3. कैंसर का भी खतरा

हमेशा नाखून चबाने से आंतों का कैंसर हो सकता है. दरअसल नाखून चबाने से नाखून में मौजूद बैक्टीरिया हमारी आंतों तक पहुंच जाते हैं जो कैंसर जैसे रोग भी दे सकते हैं.

4. तनाव

एक रिसर्च से ये बात सामने आई है कि अधिक नाखून चबाने वाले लोग तनाव में ज्यादा रहते हैं. नाखून चबाने से नाखूनों की गंदगी दांतों तक पहुंचती रहती है जिससे दांत भी कमजोर होने लगते हैं.

5. दांतों को नुकसान

नाखून चबाने से आपके दांतों पर बहुत बुरा असर पड़ता है. नाखूनों से निकलने वाली गंदगी आपके दांतों को कमजोर करने लगती है. कई शोधों में भी यह कहा गया है कि नाखून चबाने से दांत कमजोर होते हैं.

6. त्वचा में घाव

लगातार नाखून चबाने वाले लोग डर्मेटोफेजिया नाम की बीमारी के शिकार हो जाते हैं. इस बीमारी में त्वचा पर घाव बनने लगते हैं. यहां तक की इसके इंफेक्शन से नसों को भी नुकसान पहुंचता है.

तलाक के बाद शादी : भाग 1

न्यायाधीश ने चौथी पेशी में अपना फैसला सुनाते हुए कहा, ‘‘आप दोनों का तलाक मंजूर किया जाता है.’’ देव और साधना अलग हो चुके थे. इस अलगाव में अहम भूमिका दोनों पक्षों के मातापिता, जीजा की थी.

दोनों के मातापिता इस विवाह से खफा थे. दोनों अपने बच्चों को कोसते रहे विवाह की खबर मिलने से तलाक के पहले तक. दूसरी जाति में शादी. घरपरिवार, समाज, रिश्तेदारों में नाक कटा कर रख दी. कितने लाड़प्यार से पालपोस कर बड़ा किया था. कितने सपने संजोए थे. लेकिन प्रेम में पगलाए कहां सुनते हैं किसी की. देव और साधना दोनों बालिग थे और एक अच्छी कंपनी में नौकरी करते थे साथसाथ. एकदूसरे से मिलते, एकदूसरे को देखते कब प्रेम हो गया, उन्हें पता ही न चला. फिर दोनों छिपछिप कर मिलने लगे. प्रेम बढ़ा और बढ़ता ही गया. बात यहां तक आ गई कि एकदूसरे के बिना जीना मुश्किल होने लगा.

वे जानते थे कि मध्यवर्गीय परिवार में दूसरी जाति में विवाह निषेध है. बहुत सोचसमझ कर दोनों ने कोर्टमैरिज करने का फैसला किया और अपने कुछेक दोस्तों को बतौर गवाह ले कर रजिस्ट्रार औफिस पहुंच गए. शादीशुदा दोस्त तो बदला लेने के लिए सहायता करते हैं और कुंआरे दोस्त यह सोच कर मदद करते हैं मानो कोई भलाई का कार्य कर रहे हों. ठीक एक माह बाद विवाह हो गया. उन दोनों के वकील ने पतिपत्नी और गवाहों को अपना कार्ड देते हुए कहा, ‘यह मेरा कार्ड. कभी जरूरत पड़े तो याद कीजिए.’

‘क्यों?’ देव ने पूछा था.

वकील ने हंसते हुए कहा था, ‘नहीं, अकसर पड़ती है कुंआरों को भी और शादीशुदा को भी. मैं शादी और तलाक दोनों का स्पैशलिस्ट हूं.’

वकील की बात सुन कर खूब हंसे थे दोनों. लेकिन उन्हें क्या पता था कि वकील अनुभवी है. कुछ दिन हंसतेगाते बीते. फिर शुरू हुई असली शादी., जिस में एकदूसरे को एकदूसरे की जलीकटी बातें सुननी पड़ती हैं. सहना पड़ता है. एकदूसरे की कमियों की अनदेखी करनी पड़ती है. दुनिया भुला कर जैसे प्रेम किया जाता है वैसे ही विवाह को तपोभूमि मान कर पूरी निष्ठा के साथ एकदूसरे में एकाकार होना पड़ता है. प्रेम करना और बात है. लेकिन प्रेम निभाने को शादी कहते हैं. प्रेम तो कोई भी कर लेता है. लेकिन प्रेम निभाना जिम्मेदारीभरा काम है.

दोनों ने प्रेम किया. शादी की. लेकिन शादी निभा नहीं पाए. छोटीछोटी बातों को ले कर दोनों में तकरार होने लगी. साधना गुस्से में कह रही थी, ‘शादी के पहले तो चांदसितारों की सैर कराने की बात करते थे, अब बाजार से जरूरी सामान लाना तक भूल जाते हो. शादी हुई या कैद. दिनभर औफिस में खटते रहो और औफिस के बाद घर के कामों में लगे रहो. यह नहीं कि कोई मदद ही कर दो. साहब घर आते ही बिस्तर पर फैल कर टीवी देखने बैठ जाते हैं और हुक्म देना शुरू पानी लाओ, चाय लाओ, भूख लगी है. जल्दी खाना बनाओ वगैरा.’

देव प्रतिउत्तर में कहता, ‘मैं भी तो औफिस से आ रहा हूं. घर का काम करना पत्नी की जिम्मेदारी है. तुम्हें तकलीफ हो तो नौकरी छोड़ दो.’

‘लोगों को मुश्किल से नौकरी मिलती है और मैं लगीलगाई नौकरी छोड़ दूं?’

‘तो फिर घर के कामों का रोना मुझे मत सुनाया करो.’

‘इतना भी नहीं होता कि छुट्टी के दिन कहीं घुमाने ले जाएं. सिनेमा, पार्टी, पिकनिक सब बंद हो गया है. ऐसी शादी से तो कुंआरे ही अच्छे थे.’

‘तो तलाक ले लो,’ देव के मुंह से आवेश में निकल तो गया लेकिन अपनी फिसलती जबान को कोस कर चुप हो गया.

तलाक का शब्द सुनते ही साधना को रोना आ गया. अचानक से मां का फोन और अपनी रुलाई रोकने की कोशिश करते हुए बात करने से मां भांप गईं कि बेटी सुखी नहीं है. साधना की मां दूसरे ही दिन बेटी के पास पहुंच गई. मां के आने से साधना ने अवकाश ले लिया. देव काम पर चला गया. मां ने कहा, ‘मैं तुम्हारी मां हूं. फोन पर आवाज से ही समझ गई थी. अपने हाथ से अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारी है तुम ने. अगर दुखी है तो अपने घर चल. अभी मातापिता जिंदा हैं तुम्हारे. दिखने में सुंदर हो, खुद कमाती हो. लड़कों की कोई कमी नहीं है जातसमाज में. अपनी बड़ी बहन को देखो, कितनी सुखी है. पति साल में 4 बार मायके ले कर आता है और आगेपीछे घूमता है. एक तुम हो. तुम्हें परिवार से अलग कर के शादी के नाम पर सिवा दुख के क्या मिला.’

पति की बेरुखी और तलाक शब्द से दुखी पत्नी को जब मां की सांत्वना मिली तो वह फूटफूट कर रोने लगी. मां ने उसे सीने से लगा कर कहा, ‘2 वर्ष से अपना मायका नहीं देखा. अपने पिता और बहन से नहीं मिली. चलो, घर चलने की तैयारी करो.’

साधना ने कहा, ‘मां, लेकिन देव को बताए बिना कैसे आ सकती हूं. शाम को जब मैं घर पर नहीं मिलूंगी तो वे क्या सोचेंगे.’

मां ने गुस्से में कहा, ‘जिस आदमी ने कभी तुम्हारी खुशी के बारे में नहीं सोचा उस के बारे में अब भी इतना सोच रही हो. पत्नी हो, गुलाम नहीं. फोन कर के बता देना.’ साधना अपनी मां के साथ मायके आ गई.

शाम को जब देव औफिस से लौटा तो घर पर ताला लगा पाया. दूसरी चाबी उस के पास रहती थी. ताला खोल कर फोन लगाया तो पता चला कि साधना अपने मायके से बोल रही है.

देव ने गुस्से में कहा, ‘ तुम बिना बताए चली गई. तुम ने बताना भी जरूरी नहीं समझा.’

‘मां के कहने पर अचानक प्रोग्राम बन गया,’ साधना ने कहा.

देव ने गुस्से में न जाने क्याक्या कह दिया. उसे खुद ही समझ नहीं आया कहते वक्त. बस, क्रोध में बोलता गया. ‘ठीक है. वहीं रहना. अब यहां आने की जरूरत नहीं. मेरा तुम्हारा रिश्ता खत्म. आज से तुम मेरे लिए मर…’

उधर से रोते हुए साधना की आवाज आई, ‘अपने मायके ही तो आई हूं. वह भी मां के साथ. उस में…’ तभी साधना की मां ने उस से फोन झपटते हुए कहा, ‘बहुत रुला लिया मेरी लड़की को. यह मत समझना कि मेरी बेटी अकेली है. अभी उस के मातापिता जिंदा हैं. एक रिपोर्ट में सारी अकड़ भूल जाओगे.’

देव ने गुस्से में फोन पटक दिया और उदास हो कर सोचने लगा, ‘जिस लड़की के प्यार में अपने मातापिता, भाईबहन, समाज, रिश्तेदार सब छोड़ दिए, आज वही मुझे बिना बताए चली गई. उस पर उस की मां कोर्टकचहरी की धमकी दे रही है. अगर उस का परिवार है तो मैं भी तो कोई अकेला नहीं हूं.’

छठी इंद्रिय : भाग 1

अलार्मकी आवाज से गीत की नींद खुल गई. कल की ड्रिंक का हैंगओवर था, इसलिए सिर भारी था. उन्होंने ग्रीन टी बना कर पी और फिर मौर्निंग वाक के लिए चली गईं. सुबह की ठंडी हवा और कुछ लोगों से हायहैलो कर के ताजगी आ जाएगी. फिर तो वही रोज का रूटीन कालेज, लैक्चर बस…

कल से नैना उन की सहेली उन के मनमस्तिष्क से हट ही नहीं रही थी. उन की कहानियों की आलोचना करतेकरते कैसे अपना आपा खो बैठती थी.

‘‘गीत, तुम्हारी कहानी की नायिका पुरुष के बिना अधूरी क्यों रहती है?’’

‘‘नैना, मेरे विचार से स्त्रीपुरुष दोनों एकदूसरे के पूरक हैं. एकदूसरे के बिना अधूरे हैं.’’

वह नाराज हो कर बोली, ‘‘नहीं गीत, मैं नहीं मानती. स्त्री अपनी इच्छाशक्ति से आकाश को भी छू सकती है. सफल होने के लिए दृढ़इच्छा जरूरी है.’’

बड़ीबड़ी बातें करने वाली नैना पति का अवलंबन पाते ही सबकुछ भूल गई और पिया का घर प्यारा लगे कहती हुई चली गई.

नैना के निर्णय से गीत का मन खुश था. वे मन ही मन मुसकरा उठीं और फिर वहीं बैंच पर बैठ गईं. बच्चों को स्कैटिंग करता देखना उन्हें अच्छा लग रहा था. वे बच्चों में खोई हुई थीं, तभी बैंच पर एक आकर्षक युवक आ कर बैठ गया. उन्होंने उस की ओर देखा तो वह जोर से मुसकराया. उस की उम्र 30-32 साल होगी.

वह मुसकराते हुए बोला, ‘‘माई सैल्फ प्रत्यूष.’’

‘‘माई सैल्फ गीत.’’

‘‘वेरी म्यूजिकल नेम.’’

‘‘थैंक्यू.’’

उस का चेहरा और पर्सनैलिटी देख गीत चौंक उठी थीं, जिस पीयूष की यादों को वे अपने मन की स्लेट से धोपोंछ कर साफ कर चुकी थीं, उस व्यक्ति ने आज उन यादों को पुनर्जीवित कर दिया था.

वही कदकाठी, वही मुखाकृति, वही चालढाल, वही अंदाज और चेहरे पर लिखी मुसकान तथा वही लापरवाह अंदाज.

गीत डिगरी कालेज में लैक्चरर थीं. उम्र 38 साल थी, लेकिन लगती 30-32 की थीं. रूपमाधुर्य और सौंदर्य की वे धनी थीं. गोरा संगमरमरी रंग, गोल चेहरे पर कंटीली आकर्षक आंखें और होंठ के किनारे पर कुदरत प्रदत्त तिल उन के सौंदर्य को मादक बना देता था.

प्रत्यूष को देखते ही गीत को अपने कालेज के दिन याद आ गए. जब वे और पीयूष यूनिवर्सिटी की लवलेन में एकदूसरे से मिला करते थे. कौफीहाउस के कोने वाली मेज पर बैठ कर एक कौफी के कप के साथ घंटों गुजारा करते थे. कभी किसी पेपर के प्रश्न डिस्कस करते तो कभी अपने भविष्य के सपने संजोते. लेकिन एक हादसे ने क्षणभर में सबकुछ उलटपुलट कर दिया.

एक ऐक्सीडैंट में पापामम्मी दोनों ने एकसाथ दुनिया से विदा ले ली. उन पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा. वाणी 12वीं कक्षा में तो किंशुक 10वीं कक्षा में था. ऐसी स्थिति में भला वे अपनी खुशियों के बारे में कैसे सोच सकती थीं. उन्होंने पीयूष के प्यार को नकार दिया. यद्यपि वह उन के साथ जिम्मेदारी निभाने को तैयार थे.

अपने जीवन के लक्ष्य को बदल कर वे डिगरी कालेज में लैक्चरर बन गईं. कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़ गईं, कई पत्रिकाओं में नियमित कौलम लिखने लगीं. वाणी और किंशुक दोनों ही विदेश में सैटल हो गए. अब उन के लिए समस्या है उन के मन के रीतेपन की. उन्हें अपना अकेलापन सालता रहता है, अंदर ही अंदर कचोटता रहता है.

प्रत्यूष से रोज मिलनाजुलना होने लगा. मुसकराहट बातचीत में बदल गई. दोनों को एकदूसरे का साथ मनभावन लगने लगा. उस ने बातोंबातों में अपनी दर्दभरी कहानी बताई कि उस के पिता बचपन में ही एक ऐक्सीडैंट में उसे अकेला कर गए थे. मां ने दूसरी शादी कर ली. उन के पास पहले से एक बेटा था, इसलिए उसे न तो कभी मां का प्यार मिला और न पिता का. मां हर समय डरीसहमी रहतीं और वह स्वयं को अवाछिंत सा महसूस करता. हां, पढ़ने में तेज था, इसलिए इंजीनियर बन गया. यही उस के जीवन की पूंजी है. अब तो उन लोगों से उस का कोई रिश्ता नहीं है. इतनी बड़ी दुनिया में बिलकुल अकेला है, उस की आंखें डबडबा उठी थीं.

आहत : भाग 1

हैवलौक अंडमान का एक द्वीप है. कई छोटेबड़े रिजोर्ट्स हैं यहां. बढ़ती जनसंख्या ने शहरों में प्रकृति को तहसनहस कर दिया है, इसीलिए प्रकृति का सामीप्य पाने के लिए लोग पैसे खर्च कर के अपने घर से दूर यहां आते हैं. 1 साल से सौरभ ‘समंदर रिजोर्ट’ में सीनियर मैनेजर के पद पर काम कर रहा था. रात की स्याह चादर ओढ़े सागर के पास बैठना उसे बहुत पसंद था. रिजोर्ट के पास अपना एक व्यक्तिगत बीच भी था, इसलिए उसे कहीं दूर नहीं जाना पड़ता था. अपना काम समाप्त कर के रात में वह यहां आ कर बैठ जाता था. लोग अकसर उस से पूछते कि वह रात में ही यहां क्यों बैठता है?

सौरभ का जवाब होता, ‘‘रात की नीरवता, उस की खामोशी मुझे बहुत भाती है.’’ अपनी पुरानी जिंदगी से भाग कर वह यहां आ तो गया था, परंतु उस की यादों से पीछा छुड़ाना इतना आसान नहीं था. आज सुबह जब से प्रज्ञा का फोन आया है तब से सौरभ परेशान था.

अब रात के सन्नाटे में उस की जिंदगी के पिछले सारे वर्ष उस के सामने से चलचित्र की तरह गुजरने लगे थे… 4 साल पहले जब सौरभ और शालिनी की शादी हुई थी तब उसे लगा था जैसे उस का देखा हुआ सपना वास्तविकता का रूप ले कर आ गया हो. शालिनी और सौरभ गोवा में 2 हफ्ते का हनीमून मना कर अपनी नई जिंदगी की शुरुआत करने दिल्ली आ गए. इतनी अच्छी नौकरी, शालिनी जैसी सुंदर और समझदार लड़की को अपनी पत्नी के रूप में पा कर सौरभ जैसे बादलों पर चल रहा था.

मगर सौरभ भूल गया था कि बादल एक न एक दिन बरस जाते हैं और अपने साथ सब कुछ बहा ले जाते हैं. शादी के पहले 1 साल में ही सौरभ को उस के और शालिनी के बीच के अंतर का पता चल गया. शालिनी खूबसूरत होने के साथसाथ बहुत ही खुले विचारों वाली भी थी, सौरभ के विचारों के बिलकुल विपरीत. उसे

खुले हाथों से खर्च करने की आदत थी, परंतु सौरभ मितव्ययी था. छोटीमोटी नोकझोंक उन के बीच चलती रहती थी, जिस में जीत हमेशा शालिनी की ही होती थी. शालिनी के व्यक्तित्व के सामने जैसे सौरभ का व्यक्तित्व गौण हो गया था.

रात के अंतरंग पलों में भी शालिनी को सौरभ से कई शिकायतें थीं. उस के अनुसार सौरभ उसे संतुष्ट नहीं कर पाता. शालिनी जहां पार्टियों में जाना बहुत पसंद करती थी वहीं सौरभ का वहां दम घुटता था, परंतु शालिनी की जिद पर उस ने सभी पार्टियों में जाना शुरू कर दिया था. पार्टी में जाने के बाद शालिनी अकसर यह भूल जाती थी कि वह यहां सौरभ के साथ आई है.

ऐसी ही एक पार्टी में सौरभ की कंपनी का एक क्लाइंट विमल भी आया था. वह शालिनी के कालेज का मित्र था तथा एक बहुत बड़े उद्योगपति घराने का इकलौता चिराग था. उस से मिलने के बाद तो शालिनी जैसे यह भी भूल गई कि पार्टी में और लोग भी हैं. बातें करते हुए विमल के हाथों का शालिनी के कंधों को छूना सौरभ को अच्छा नहीं लग रहा था, परंतु वहां पार्टी में उस ने शालिनी को कुछ नहीं कहा.

घर आने पर जब सौरभ ने शालिनी से बात करनी चाही तो वह भड़क उठी, ‘‘कितनी छोटी सोच है तुम्हारी… सही में, कौन्वैंट स्कूल में पढ़ने से अंगरेजी तो आ जाती है, पर मानसिकता ही छोटी हो तो उस का क्या करेंगे?’’ ‘‘शालू, वह विमल बहुत बदनाम आदमी है. तुम नहीं जानती…’’

‘‘मैं जानना भी नहीं चाहती… जो स्वयं सफल नहीं हो पाते न वे औरों की सफलता से ऐसे ही चिढ़ते हैं.’’ सौरभ बात आगे नहीं बढ़ाना चाहता था, इसलिए चुप हो गया.

अगले दिन शालिनी की तबीयत ठीक नहीं थी तो सौरभ ने उसे परेशान करना ठीक नहीं समझा और बिना नाश्ता किए औफिस चला गया. दोपहर में शालिनी की तबीयत के बारे

में जानने के लिए लैंडलाइन पर सौरभ लगातार फोन करता रहा, परंतु शालिनी ने फोन नहीं उठाया. मोबाइल भी शालिनी ने बंद कर रखा था. काफी प्रयास के बाद शालिनी का फोन

लग गया. ‘‘क्या हुआ शालिनी? ठीक तो हो न तुम? मैं कितनी देर से लैंडलाइन पर फोन कर रहा था… मोबाइल भी बंद कर रखा था तुम ने.’’

‘‘हां, मैं ठीक हूं. विमल ने लंच के लिए बुलाया था… वहां चली गई थी… मोबाइल की बैटरी खत्म हो गई थी.’’ ‘‘क्या…विमल के साथ…’’

‘‘हां, क्यों?’’ ‘‘मुझे बता तो सकती थी…’’

‘‘अब क्या इतनी छोटी सी बात के लिए भी तुम्हारी इजाजत लेनी पड़ेगी?’’ ‘‘बात इजाजत की नहीं है, सूचना देने की है. मुझे पता होता तो इतना परेशान नहीं होता.’’

‘‘तुम्हें तो परेशान होने का बहाना चाहिए सौरभ.’’ ‘‘खैर, छोड़ो शालिनी… घर पर बात करेंगे.’’

रिसीवर रखने के बाद सौरभ सोच में पड़ गया कि सुबह तक तो शालिनी

उठने की भी हालत में नहीं थी और दोपहर तक इतनी भलीचंगी हो गई कि बाहर लंच करने चली गई. फोन पर भी उस का व्यवहार सौरभ को आहत कर गया था. रात में उस ने शालिनी से इस विषय पर बात करने का मन बना लिया. मगर रात में तो शालिनी का व्यवहार बिलकुल ही बदला हुआ था. पूरे घर में सजावट कर रखी थी उस ने. टेबल पर एक केक उस का इंतजार कर रहा था.

मैं अहम हूं : भाग 1

शशि ने बबलू की ओर देखा. उस का चेहरा कितना भोला मालूम होता है. बहुत ही प्यारा बच्चा है. हर मांबाप को अपने बच्चे प्यारे ही लगते हैं. बबलू गोराचिट्टा बच्चा था, जिस को देख कर सभी का उसे प्यार करने को मन होता. फिर शशि तो उस की मां थी. सारे दिन उस की शरारतें देख कर खुश होती. बबलू को पा कर तो उसे ऐसा लगता कि बस, अब और कुछ नहीं चाहिए. बबलू से बड़ी 7-8 साल की बेटी नीलू भी कम प्यारी नहीं थी. दोनों बच्चों को जान से भी ज्यादा चाहने वाली शशि उन के प्रति लापरवाह कैसे हो गई?

आज तो हद हो गई. सुबह जब वह आटो पर बैठने लगी तो बबलू उस के पांवों से लिपट गया. प्यार से मनाने पर नहीं माना तो शशि ने उसे डांटा. देर तो हो ही रही थी, उस ने आव देखा न ताव, उस के गाल पर एक चांटा जड़ दिया. चांटा कुछ जोर से पड़ गया था, उंगलियों के निशान गाल पर उभर आए थे. उस के रोने की आवाज सुन कर उस के दादाजी बाहर आ गए और बबलू को गोद में ले कर मनाने लगे. सास ने जो आंखें तरेर कर शशि की ओर देखा तो वह सहम गई. आटो में बैठते हुए ससुरजी की आवाज सुनाई दी, ‘‘जब करते नहीं बनता तो क्यों करती है नौकरी. यहां क्या खाने के लाले पड़ रहे हैं?’’

स्कूल में उस दिन किसी काम में मन नहीं लगा. इच्छा तो हो रही थी छुट्टी ले कर घर जाए पर अभी नौकरी लगे दोढाई महीने ही हुए थे. प्रधान अध्यापिका वैसे भी कहती रहती थीं, ‘‘भई, नौकरी तो बच्चों वाली को करनी ही नहीं चाहिए. रहेंगी स्कूल में और ध्यान रहेगा पप्पू, लल्ली में,’’ यह कह कर वे एक तिरस्कारपूर्ण हंसी हंसतीं. वे खुद 45 वर्ष की आयु में भी कुंआरी थीं. स्कूल का समय समाप्त होते ही शशि आटो के लिए ऐसे दौड़ी कि सामने से आती हुई प्रधान अध्यापिका व अन्य 2 अध्यापिकाओं को अभिवादन करना तक भूल गई. आटो में आ कर बैठने के बाद उसे इस बात का खयाल आया. दोनों अध्यापिकाओं की प्रधान अध्यापिका के साथ बनती भी अच्छी थी, और वे उस से वरिष्ठ भी थीं. खैर, जो भी हुआ अब क्या हो सकता था.

आटो वाले से उतावलापन दिखाते हुए कहा, ‘‘जल्दी चलो.’’

कुछ दूर जा कर आटो वाले ने पूछा, ‘‘साहब क्या करते हैं?’’

‘‘बहुत बड़े वकील हैं,’’ शशि ने सगर्व कहा.

आटो वाले ने मुंह से कुछ नहीं कहा, सिर्फ एक हलकी सी मुसकान के साथ पीछे मुड़ कर उसे देख लिया. उस की इस मुसकान से उसे सुबह की घटना फिर याद आ गई. जैसेजैसे घर करीब आता गया, शशि का संकोच बढ़ता गया. सासससुर से कैसे आंख मिलाए. सुबह तो पति अजय घर पर नहीं थे, पर अब अजय को भी मालूम हो गया होगा. बच्चों को वे कितना चाहते हैं. जहां तक हो सके वे प्यार से ही उन्हें समझाते हैं. बच्चे भी अपने पिता से बहुत हिलेमिले थे. घर के आगे आटो रुका. बबलू रोज की तरह दौड़ कर नहीं आया. नीलू भी सिर्फ एक बार झांक कर भीतर चली गई. अंदर जा कर उस ने धीरे से बबलू को आवाज दी. वह दूर से ही बोला, ‘‘अम नहीं आते. आप मालती हैं. आप से अमाली कुट्टी हो गई.’’

शशि वैसे ही बिस्तर पर पड़ गई. रोतेरोते उस के सिर में दर्द होने लगा. वह चुपचाप वैसे ही आंख बंद किए पड़ी रही. किसी ने बत्ती जलाई. सास ही थीं. उस के करीब आ कर बोलीं, ‘‘चलो बहू, हाथमुंह धो कर कुछ खापी लो.’’ सास की हमदर्दी अच्छी भी लगी और साथ ही शर्म भी आई. रात का खानपीना खत्म हुआ तो सब बिस्तर पर चले गए थे. अजय खाना खा कर दूसरे कमरे में चला गया, जरूरी केस देखने. शशि को उन का बाहर जाना भी उस दिन राहत ही दे रहा था.

दकियानूसी मौडर्न : क्या अलका पर पुरातनपंथी सोच हावी हो रही थी ?

घंटी की आवाज सुन कर अलका के दरवाजा खोलते ही नवागुंतक ने कहा, ‘‘नमस्कार, आप मुझे नहीं जानतीं, मेरा नाम पूनम है. मैं इसी अपार्टमैंट में रहती हूं.’’‘‘नमस्कार, मैं अलका, आइए,’’ कहते हुए अलका ने पूनम को अंदर आने का निमंत्रण दिया.

‘‘फिर कभी, आज जरा जल्दी में हूं. कल गुरुपूर्णिमा है, गुरुजी के आश्रम से गुरुजी के अनुयाई आए हैं. उन के सान्निध्य से लाभ उठाने के लिए गुरुपूर्णिमा के अवसर पर हम ने घर में सत्संग का आयोजन किया है. उस के बाद महाप्रसाद की भी व्यवस्था है. आप सपरिवार आइएगा,’’ पूनम ने अलका से कहा.
‘‘सत्संग…’’ अलका ने वाक्य अधूरा छोड़ते हुए कहा.

‘‘हमारी गुरुमाता हैं, उन का मुंबई में आश्रम है. वे तो देशविदेश धर्म के प्रचारप्रसार के लिए जाती रहती हैं, लेकिन उन के अनुशासित शिष्य उन के काम को आगे बढ़ाते रहते हैं. हम उन के प्रवचन औडियो, वीडियो सीडी के जरिए दिखाते हैं. हम चाहते हैं ज्यादा से ज्यादा लोग गुरुमाई के विचारों को आत्मसात कर धर्मकर्म को अपनाएं. इस से उन के जीवन में सुख व शांति का प्रवाह होने के साथ उन का जीवन सफल होगा. यही नहीं दूसरों को भी उन के विचारों से अवगत करा कर उन के जीवन को भी सफल बनाने में सहयोग दें.’’

अलका इस अपार्टमैंट में कुछ दिनों पहले आई थी. सो, अभी तक उस का किसी से ज्यादा परिचय नहीं हुआ था. पूनम के निमंत्रण पर सोच में पड़ गई. वह कभी सत्संग में नहीं गई थी. उस ने अपनी सासुमां को टीवी पर कई बाबाओं का सत्संग सुनते देखा था. सब की एक ही बातें. एक ही चालें. अपनी करनी के चलते जब आसाराम जेल गए तो सासुमां को तो विश्वास ही नहीं हो रहा था. बारबार वे यही कहती रहीं कि उन को फंसाया गया है. कई बार उस ने उन्हें सचाई बतानी चाही, तो उन्होंने उसे धर्म, कर्म से विमुख की उपाधि से विभूषित कर उस का मुंह बंद कर दिया था. नतीजा यह हुआ कि वह उन की बातें चुपचाप सुनती रहती थी, लेकिन कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करती थी. वैसे भी, उस का मानना था जिस ने अपने मनमस्तिष्क के दरवाजे बंद कर रखे हैं, उस को समझा पाना बेहद कठिन है.

अलका को इन बाबाओं पर कोई विश्वास नहीं था, क्योंकि उसे लगता था कि ये आम भोलेभाले इंसानों को फंसा कर उन्हें कर्म से विमुख कर, अकर्मण्य बना कर सिर्फ धर्म की अफीम चटा कर ही जीवनरूपी नाव को वैतरणी पार करने के लिए विवश कर रहे हैं.

साधुसंन्यासियों से सदा दूर रहने वाली अलका को इस समय पूनम के आग्रह को ठुकरा पाना उचित नहीं लग रहा था. अब उसे यहीं रहना है, सो, जल में रह कर मगर से बैर लेना उचित नहीं है. यह सोच कर उस ने जाने का मन बना लिया था. वैसे भी, इस अपार्टमैंट वालों से मेलजोल बढ़ाने का सुनहरा अवसर वह खोना नहीं चाहती थी.

सुबह 10 बजे से ही अपार्टमैंट में गहमागहमी शुरू हो गई. लगभग 11 बजे ढोलमंजीरों की आवाज सुनाई देने लगी. आवाज सुन कर घर का दरवाजा बंद कर वह पूनम के घर गई. वहां पूनम के अतिरिक्त कई अन्य स्त्रियां सुंदरसुंदर परिधानों में उपस्थित थीं, जबकि पुरुष बाहर खड़े थे, साधुओं के दल का इंतजार कर रहे थे.

कुछ ही देर में उस ने एक युवा को हाथ में चरणपादुकाएं तथा उस के पीछे भगवा वस्त्र पहने हुए लगभग 15-20 युवा युवकयुवती आते देखे. सभी लगभग 25 से 40 वर्ष की उम्र के होंगे. उन को देख कर अलका को आश्चर्य हुआ. जो उम्र किसी भी इंसान के कैरियर के लिए अत्यंत मूल्यवान होती है, उस उम्र में संन्यास लेना क्या उचित है? अभी वह सोच ही रही थी कि चरणपादुकाएं पकड़े युवक ने घर में प्रवेश किया. गृहस्वामिनी उस का स्वागत करते हुए उसे उस स्थान तक ले गई जहां गुरुमाई का एक बड़ा सा तैलीय चित्र एक लाल कपड़े वाले आसन पर रखा था. आगे वाले युवक ने चरणपादुकाएं आसन पर चित्र के सामने रख दीं.

दीप प्रज्ज्वलित कर सभी मेहमानों ने गुरुमाई के चित्र तथा चरणपादुका को फूलमालाएं पहना कर पूजा की. इस के बाद सभी लोगों ने अपनेअपने आसन ग्रहण किए. लगभग 2 घंटे तक पूजासत्संग चला. सब से पहले गुरुमाई की औडियो, वीडियो, सीडी द्वारा सभी अनुयाइयों को उन के संदेश सुनाए गए. आधा घंटा भजन चला तथा 10 मिनट का ध्यान व उस के बाद आरती हुई. आरती का थाल 50-100 रुपए के नोटों से भर गया था. आश्चर्य तो यह था कि किसी को 10-20 रुपए देने में आनाकानी करने वाली स्त्रियां थाल में बड़ेबड़े नोट डाल कर गर्वोन्मुक्त हो रही थीं.

आरती के बाद गुरुमाई का भोग लगा कर उन के शिष्यों को प्रसाद दिया गया. फिर दूसरे लोग महाप्रसाद के लिए बैठे. जो महिलाएं अभी आस्था से ओतप्रोत थीं, वही अब कपड़े, गहनों के साथ, सासबहू तो कुछ पतिपुराण पर भी आ गईं.एक महिला ने अपना परिचय देते हुए अलका का परिचय पूछा. अलका के परिचय देने के बाद उस महिला ने जिस ने अपना नाम अर्चना बताया था, कहा, ‘‘आप यहां नएनए आए हो. गृहप्रवेश की पूजा करा ली होगी. आप ने किसी को बुलाया नहीं?’’
उस की बात सुन कर कई दूसरी महिलाओं के चेहरे अलका की ओर घूमे.

‘‘अर्चना जी, मैं तथा आलोक इन सब में विश्वास नहीं करते. हमारे लिए तो हर दिन एकसमान है. जिस दिन हमें सुविधा लगी, उस दिन हम ने शिफ्ट कर लिया.’’‘‘अच्छा, विवाह तो शुभ मुहूर्त देख कर ही किया होगा,’’ अर्चना के बगल में बैठी शोभना ने पूछा.‘‘विवाह का फैसला तो मेरे तथा आलोक के मातापिता का था, किंतु गृहप्रवेश का हमारा अपना,’’ अलका ने शोभना की आंखों में व्यंग्नात्मक मुसकान देख कर कहा.
‘‘क्या गृहप्रवेश में आप के और भाईसाहब के मातापिता नहीं आए थे?’’ शोभना ने फिर पूछा.‘‘आए थे.’’
‘‘क्या उन्होंने विरोध नहीं किया?’’

‘‘नहीं,’’ कह कर अलका ने बेकार की चलती बहस को खत्म करने की कोशिश की.‘‘शुभ समय देख कर किया हर काम अच्छा होता है वरना बाद में परेशानी आती है,’’ शोभना की बात सुन कर उस की पड़ोसिन रूचि भी कह उठी.अलका ने किसी की भी बात का उत्तर देना अब उचित नहीं समझा. वैसे भी, उन लोगों की बात का क्या उत्तर देना जो अपनी सोच में इतने जकड़े हों कि दूसरों की बात व्यर्थ लगे.पूनम के घर हर सोमवार, शाम को 7 से 8 बजे सत्संग होता था. 10 मिनट के ध्यान के समय वह दरवाजे के बाहर आ कर खड़ी हो जाती, जिस से वह हर आनेजाने वाले पर निगाह रख कर ध्यान करने वालों का ध्यान भंग होने से बचा सके. इस सत्संग में पुरुषों से ज्यादा महिलाओं की भागीदारी होती थी वह भी उन महिलाओं की जो स्वयं को अत्याधुनिक मानती थीं. कुछ तो जौब भी करती थीं. पूनम स्वयं महिला विद्यालय में रसायनशास्त्र की प्रवक्ता थी, इस के बावजूद उस की इतनी अंधभक्ति अलका को आश्चर्यचकित कर रही थी.

इस से अधिक आश्चर्य तो अलका को तब हुआ जब उस की पड़ोसिन रुचि ने उसे अपार्टमैंट में चल रही ‘सुंदरकांड किटी’ में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रण दिया. महिलाओं की सामान्य किटी तो उस ने सुनी थी, पर ‘सुंदरकांड किटी…’ वह सोच ही रही थी कि रुचि ने कहा, ‘‘अलकाजी, इस किटी में सुंदरकांड के पाठ के साथ सामान्य किटी की तरह ही आयोजक को आए अतिथियों के लिए खानपान का भी आयोजन करना होता है. इस बहाने धर्मकर्म के साथ हम महिलाएं अपना मनोरंजन भी कर लेती हैं.’’अलका ने रुचि को नम्रतापूर्वक मना कर दिया था. लखनऊ में जेठ के महीने का हर मंगल ‘बड़ा मंगल’ माना जाता है. हर मंगल को किसी न किसी के घर से भंडारे का न्योता आ जाता. सुंदरकांड के साथ खानेपीने की अच्छीखासी व्यवस्था रहती थी.

प्रारंभ में अलका सामाजिकता निभाने चली जाती थी, किंतु धीरेधीरे उसे इन आयोजनों में अरुचि होने लगी. आस्था मन की चीज है, न कि दिखाने की. यही कारण था कि हर आयोजन उसे उस के करने वाले की प्रतिष्ठा का द्योतक लगने लगा था. आखिरकार, पहनावे से आधुनिक व विचारों से दकियानूसी महिलाओं का अपनी आस्था का भौंड़ा प्रदर्शन कर दूसरों को नीचा दिखाने को आतुर रहना उसे पसंद न था इसलिए ऐसी महिलाओं से उस ने दूरी बना लेना ही बेहतर समझा.नतीजा यह हुआ कि धीरेधीरे आस्था के रंग में डूबी महिलाओं ने उसे नास्तिक की उपाधि से विभूषित कर उस का सामाजिक बहिष्कार करना प्रारंभ कर दिया. लेकिन, उस ने उन की इस मनोवृत्ति को भी सहजता से लिया. कम से कम अब उसे ऐसे आयोजनों में सम्मिलित न हो पाने पर बहाना बनाने से मुक्ति मिल गई थी.

मुझे यकीन है : वलीमा को किस बात का अफसोस हो रहा था ?

पढ़ीलिखी गुलशन की शादी मसजिद के मुअज्जिन हबीब अली के बेटे परवेज अली से धूमधाम से हुई. लड़का कपड़े का कारोबार करता था. घर में जमीनजायदाद सबकुछ था. गुलशन ब्याह कर आई तो पहली रात ही उसे अपने मर्द की असलियत का पता चल गया. बादल गरजे जरूर, पर ठीक से बरस नहीं पाए और जमीन पानी की बूंदों के लिए तरसती रह गई. वलीमा के बाद गुलशन ससुराल दिल में मायूसी का दर्द ले कर लौटी. खानदानी घर की पढ़ीलिखी लड़की होने के बावजूद सीधीसादी गुलशन को एक ऐसे आदमी को सौंप दिया गया, जो सिर्फ चारापानी का इंतजाम तो करता, पर उस का इस्तेमाल नहीं कर पाता था.

गुलशन को एक हफ्ते बाद हबीब अली ससुराल ले कर आए. उस ने सोचा कि अब शायद जिंदगी में बहार आए, पर उस के अरमान अब भी अधूरे ही रहे. मौका पा कर एक रात को गुलशन ने अपने शौहर परवेज को छेड़ा, ‘‘आप अपना इलाज किसी अच्छे डाक्टर से क्यों नहीं कराते?’’

‘‘तुम चुपचाप सो जाओ. बहस न करो. समझी?’’ परवेज ने कहा.

गुलशन चुपचाप दूसरी तरफ मुंह कर के अपने अरमानों को दबा कर सो गई. समय बीतता गया. ससुराल से मायके आनेजाने का काम चलता रहा. इस बात को दोनों समझ रहे थे, पर कहते किसी से कुछ नहीं थे. दोनों परिवार उन्हें देखदेख कर खुश होते कि उन के बीच आज तक तूतूमैंमैं नहीं हुई है. इसी बीच एक ऐसी घटना घटी, जिस ने गुलशन की जिंदगी बदल दी. मसजिद में एक मौलाना आ कर रुके. उन की बातचीत से मुअज्जिन हबीब अली को ऐसा नशा छाया कि वे उन के मुरीद हो गए. झाड़फूंक व गंडेतावीज दे कर मौलाना ने तमाम लोगों का मन जीत लिया था. वे हबीब अली के घर के एक कमरे में रहने लगे.

‘‘बेटी, तुम्हारी शादी के 2 साल हो गए, पर मुझे दादा बनने का सुख नहीं मिला. कहो तो मौलाना से तावीज डलवा दूं, ताकि इस घर को एक औलाद मिल जाए?’’ हबीब अली ने अपनी बहू गुलशन से कहा. गुलशन समझदार थी. वह ससुर से उन के बेटे की कमी बताने में हिचक रही थी. चूंकि घर में ससुर, बेटे, बहू के सिवा कोई नहीं रहता था, इसलिए वह बोली, ‘‘बाद में देखेंगे अब्बूजी, अभी मेरी तबीयत ठीक नहीं है.’’ हबीब अली ने कुछ नहीं कहा.

मुअज्जिन हबीब अली के घर में रहते मौलाना को 2 महीने बीत गए, पर उन्होंने गुलशन को देखा तक नहीं था. उन के लिए सुबहशाम का खाना खुद हबीब अली लाते थे. दिनभर मौलाना मसजिद में इबादत करते. झाड़फूंक के लिए आने वालों को ले कर वे घर आते, जो मसजिद के करीब था. हबीब अली अपने बेटे परवेज के साथ दुकान में रहते थे. वे सिर्फ नमाज के वक्त घर या मसजिद आते थे. मौलाना की कमाई खूब हो रही थी. इसी बहाने हबीब अली के कपड़ों की बिक्री भी बढ़ गई थी. वे जीजान से मौलाना को चाहते थे और उन की बात नहीं टालते थे. एक दिन दोपहर के वक्त मौलाना घर आए और दरवाजे पर दस्तक दी.

‘‘जी, कौन है?’’ गुलशन ने अंदर से ही पूछा.

‘‘मैं मौलाना… पानी चाहिए.’’

‘‘जी, अभी लाई.’’

गुलशन पानी ले कर जैसे ही दरवाजा खोल कर बाहर निकली, गुलशन के जवां हुस्न को देख कर मौलाना के होश उड़ गए. लाजवाब हुस्न, हिरनी सी आंखें, सफेद संगमरमर सा जिस्म… मौलाना गुलशन को एकटक देखते रहे. वे पानी लेना भूल गए.

‘‘जी पानी,’’ गुलशन ने कहा.

‘‘लाइए,’’ मौलाना ने मुसकराते हुए कहा.

पानी ले कर मौलाना अपने कमरे में लौट आए, पर दिल गुलशन के कदमों में दे कर. इधर गुलशन के दिल में पहली बार किसी पराए मर्द ने दस्तक दी थी. मौलाना अब कोई न कोई बहाना बना कर गुलशन को आवाज दे कर बुलाने लगे. इधर गुलशन भी राह ताकती कि कब मौलाना उसे आवाज दें. एक दिन पानी देने के बहाने गुलशन का हाथ मौलाना के हाथ से टकरा गया, उस के बाद जिस्म में सनसनी सी फैल गई. मुहब्बत ने जोर पकड़ना शुरू कर दिया था. ऊपरी मन से मौलाना ने कहा, ‘‘सुनो मियां हबीब, मैं कब तक तुम्हारा खाना मुफ्त में खाऊंगा. कल से मेरी जिम्मेदारी सब्जी लाने की. आखिर जैसा वह तुम्हारा बेटा, वैसा मेरा भी बेटा हुआ. उस की बहू मेरी बहू हुई. सोच कर कल तक बताओ, नहीं तो मैं दूसरी जगह जा कर रहूंगा.’’

मुअज्जिन हबीब अली ने सोचा कि अगर मौलाना चले गए, तो इस का असर उन की कमाई पर होगा. जो ग्राहक दुकान पर आ रहे हैं, वे नहीं आएंगे. उन को जो इज्जत मौलाना की वजह से मिल रही है, वह नहीं मिलेगी. इस समय पूरा गांव मौलाना के अंधविश्वास की गिरफ्त में था और वे जबरदस्ती तावीज, गंडे, अंगरेजी दवाओं को पीस कर उस में राख मिला कर इलाज कर रहे थे. हड्डियों को चुपचाप हाथों में रख कर भूतप्रेत निकालने का काम कर रहे थे. बापबेटे दोनों ने मौलाना से घर छोड़ कर न जाने की गुजारिश की. अब मौलाना दिखाऊ ‘बेटाबेटी’ कह कर मुअज्जिन हबीब अली का दिल जीतने की कोशिश करने लगे. नमाज के बाद घर लौटते हुए हबीब अली ने मौलाना से कहा, ‘‘जनाब, आप इसे अपना ही घर समझिए. आप की जैसी मरजी हो वैसे रहें. आज से आप घर पर ही खाना खाएंगे, मुझे गैर न समझें.’’ मौलाना के दिल की मुराद पूरी हो गई. अब वे ज्यादा वक्त घर पर गुजारने लगे. बाहर के मरीजों को जल्दी से तावीज दे कर भेज देते. इस काम में अब गुलशन भी चुपकेचुपके हाथ बंटाने लगी थी.

तकरीबन 6 महीने का समय बीत चुका था. गुलशन और मौलाना के बीच मुहब्बत ने जड़ें जमा ली थीं. एक दिन मौलाना ने सोचा कि आज अच्छा मौका है, गुलशन की चाहत का इम्तिहान ले लिया जाए और वे बिस्तर पर पेट दर्द का बहाना बना कर लेट गए. ‘‘मेरा आज पेट दर्द कर रहा है. बहुत तकलीफ हो रही है. तुम जरा सा गरम पानी से सेंक दो,’’ गुलशन के सामने कराहते हुए मौलाना ने कहा.

‘‘जी,’’ कह कर वह पानी गरम करने चली गई. थोड़ी देर बाद वह नजदीक बैठ कर मौलाना का पेट सेंकने लगी. मौलाना कभीकभी उस का हाथ पकड़ कर अपने पेट पर घुमाने लगे.

थोड़ा सा झिझक कर गुलशन मौलाना के पेट पर हाथ फिराने लगी. तभी मौलाना ने जोश में गुलशन का चुंबन ले कर अपने पास लिटा लिया. मौलाना के हाथ अब उस के नाजुक जिस्म के उस हिस्से को सहला रहे थे, जहां पर इनसान अपना सबकुछ भूल जाता है. आज बरसों बाद गुलशन को जवानी का वह मजा मिल रहा था, जिस के सपने उस ने संजो रखे थे. सांसों के तूफान से 2 जिस्म भड़की आग को शांत करने में लगे थे. जब तूफान शांत हुआ, तो गुलशन उठ कर अपने कमरे में पहुंच गई.

‘‘अब्बू, मुझे यकीन है कि मौलाना के तावीज से जरूर कामयाबी मिलेगी,’’ गुलशन ने अपने ससुर हबीब अली से कहा.

‘‘हां बेटी, मुझे भी यकीन है.’’

अब हबीब अली काफी मालदार हो गए थे. दिन काफी हंसीखुशी से गुजर रहे थे. तभी वक्त ने ऐसी करवट बदली कि मुअज्जिन हबीब अली की जिंदगी में अंधेरा छा गया. एक दिन हबीब अली अचानक किसी जरूरी काम से घर आए. दरवाजे पर दस्तक देने के काफी देर बाद गुलशन ने आ कर दरवाजा खोला और पीछे हट गई. उस का चेहरा घबराहट से लाल हो गया था. बदन में कंपकंपी आ गई थी. हबीब अली ने अंदर जा कर देखा, तो गुलशन के बिस्तर पर मौलाना सोने का बहाना बना कर चुपचाप मुंह ढक कर लेटे थे. यह देख कर हबीब अली के हाथपैर फूल गए, पर वे चुपचाप दुकान लौट आए.

‘‘अब क्या होगा? मुझे डर लग रहा है,’’ कहते हुए गुलशन मौलाना के सीने से लिपट गई.

‘‘कुछ नहीं होगा. हम आज ही रात में घर छोड़ कर नई दुनिया बसाने निकल जाएंगे. मैं शहर से गाड़ी का इंतजाम कर के आता हूं. तुम तैयार हो न?’’ ‘‘मैं तैयार हूं. जैसा आप मुनासिब समझें.’’ मौलाना चुपचाप शहर चले गए. मौलाना को न पा कर हबीब अली ने समझा कि उन के डर की वजह से वह भाग गया है.

सुबह हबीब अली के बेटे परवेज ने बताया, ‘‘अब्बू, गुलशन भी घर पर नहीं है. मैं ने तमाम जगह खोज लिया, पर कहीं उस का पता नहीं है. वह बक्सा भी नहीं है, जिस में गहने रखे हैं.’’ हबीब अली घबरा कर अपनी जिंदगी की कमाई और बहू गुलशन को खोजने में लग गए. पर गुलशन उन की पहुंच से काफी दूर जा चुकी थी, मौलाना के साथ अपना नया घर बसान.

चुनावी बौंड : कराहता भारत का लोकतंत्र

देश में आजादी है तो इस का मतलब यह है कि जो अधिकार देश के सर्वोच्च नागरिक प्रधानमंत्री को होंगे वही आम आदमी के हैं. मगर राजनीतिक पार्टियों को चंदा बांड को ले कर अगर जानकारी आम आदमी को नहीं दी जा सकती, जैसे कानून हैं, तो फिर यह लोकतंत्र के गले घोटने की शुरुआत है.

सवाल यह है कि राजनीतिक पार्टियों को कौन चलाता है और इस का लाभ आखिरकार किस को मिलेगा. लोकतंत्र में राजनीतिक पार्टियों के इस अधिकार को लोकतंत्र को सेंध लगाने की कवायद कह सकते हैं. दरअसल, लोकतंत्र में ऐसी सोच और कानून का कोई स्थान नहीं है जो चाहे केंद्र की कितनी ही शक्तिशाली सरकार हो या फिर राजनीतिक पार्टियों को विशेष अधिकार मिले.

मगर अपने अधिकारों का दुरपयोग करते हुए नरेंद्र दामोदरदास मोदी की सरकार ने 2018 में राजनीतिक पार्टियों को असीमित अधिकार देने का काम किया. जिस के तहत असीमित आर्थिक सहयोग बांड लेने और उस की जानकारी को छुपाने का अधिकार दिया गया. अब लंबे समय बाद देश के उच्चतम न्यायालय में इस मामले में सुनवाई होने जा रही है.

आश्चर्य कि बात है कि देश के अटार्नी जनरल आर वेंकट रमणी ने सुप्रीम कोर्ट से कहा, “राजनीतिक दलों को चुनावी बांड योजना के तहत मिलने वाले चंदे के स्रोत के बारे में नागरिकों को संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत सूचना पाने का अधिकार नहीं है.”

वेंकट रमणी ने राजनीतिक वित्त पोषण के लिए चुनावी बांड योजना से दलों को ‘क्लीन मनी’ मिलने का उल्लेख करते हुए यह कहा, ” तार्किक प्रतिबंध की स्थिति नहीं होने पर ‘किसी भी चीज और प्रत्येक चीज’ के बारे में जानने का अधिकार नहीं हो सकता. जिस योजना की बात की जा रही है वह अंशदान करने वाले को गोपनीयता का लाभ देती है. यह इस बात को सुनिश्चित और प्रोत्साहित करती है कि जो भी अंशदान हो, वह काला धन नहीं हो. यह कर दायित्वों का अनुपालन सुनिश्चित करती है. इस तरह, यह किसी मौजूदा अधिकार से टकराव की स्थिति उत्पन्न नहीं करती.”

दरअसल, देश का सामान्य आदमी भी जो अपने आंख, कान खुले रखता है अटार्नी जनरल वेंकट रमणी की बात से सहमत नहीं हो सकता. अगर यह अधिकार राजनीतिक दलों को दिया गया तो फिर बहुत से ऐसे लोग और संस्थाएं हैं वह भी यही काम करेंगे और इस कानून के मध्य नजर उच्चतम न्यायालय से अनुतोष चाहेंगे. देश के सामाजिक कार्यकर्ताओं सामाजिक संस्थाओं को यह अधिकार नहीं है और केंद्र सरकार की एजेंसियां एक्शन में आ जाती हैं तो राजनीतिक दलों के लिए यह खुल्ले दरवाजे से लाभ कैसे दिया जा सकता है.

 राजनीतिक दल : सुर्खाब के पर निकल आए

देश में जिस तरह अन्य संस्थाएं हैं उस तरह लोकतंत्र में अपनी भूमिका निभाने के लिए राजनीतिक दलों की अवधारणा संविधान में की गई है. अब अगर एक महत्वाकांक्षी राजनीतिक दल अगर सत्ता मे हैं जो अपने स्वार्थ और लाभ के लिए इस तरीके का कानून लाता है तो इस का नीर क्षीर विवेक से विवेचन किया जाना चाहिए. मामले में 5 जजों की संविधान पीठ 31 अक्टूबर 2023 से सुनवाई कर रही है.

दूसरी तरफ शीर्ष विधि अधिकारी वेंकट रमणी ने कहा, “न्यायिक पुनर्विचार की शक्ति, बेहतर या अलग सुझाव देने के उद्देश्य से सरकार की नीतियों की पड़ताल करने के संबंध में नहीं है. एक संवैधानिक न्यायालय सरकार के कार्य की तभी समीक्षा करता है जब यह मौजूदा अधिकारों का हनन करता हो.”

वेंकटरमणी ने कहा आगे कहा, “राजनीतिक दलों को मिलने वाले इन चंदों या अंशदान का लोकतांत्रिक महत्व है और यह राजनीतिक बहस के लिए एक उपयुक्त विषय है. प्रभावों से मुक्त शासन की जवाबदेही की मांग करने का यह मतलब नहीं है. जिस योजना की बात की जा रही है वह अंशदान करने वाले को गोपनीयता का लाभ देती है. यह इस बात को सुनिश्चित और प्रोत्साहित करती है कि जो भी अंशदान हो, वह काला धन नहीं हो. यह कर दायित्वों का अनुपालन सुनिश्चित करती है. इस तरह, यह किसी मौजूदा अधिकार से टकराव की स्थिति उत्पन्न नहीं करती.”

उच्चतम न्यायालय के 5 न्यायाधीशों की संविधान पीठ याचिकाओं के उस समूह पर 31 अक्तूबर से सुनवाई शुरू कर रही है, जिन में पार्टियों के लिए राजनीतिक वित्त पोषण की चुनावी बांड योजना की वैधता को चुनौती दी गई है. वर्तमान नरेंद्र मोदी सरकार ने यह योजना 2 जनवरी 2018 को अधिसूचित की थी. इस योजना को राजनीतिक वित्त पोषण में पारदर्शिता लाने की कोशिशों के हिस्से के रूप में जनता को राजनीतिक चंदे का स्रोत जानने का अधिकार नहीं है.

पार्टियों को नकद चंदे के एक विकल्प के रूप में लाया गया. इस योजना के प्रावधानों के अनुसार, चुनावी बांड भारत का कोई भी नागरिक या भारत में स्थापित संस्था खरीद सकती है. कोई व्यक्ति, अकेले या अन्य लोगों के साथ संयुक्त रूप से चुनावी बांड खरीद सकता है. प्रधान न्यायाधीश से न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ 4 याचिकाओं के समूह पर सुनवाई शुरू कर चुकी है.

इन में कांग्रेस नेता जया ठाकुर और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) की याचिकाएं शामिल हैं. पीठ के अन्य सदस्य न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति बीआर गवई, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा हैं.

सनद रहे कि उच्चतम न्यायालय ने 20 जनवरी 2020 को 2018 की चुनावी बांड योजना पर अंतरिम रोक लगाने से इनकार कर दिया था और योजना पर स्थगन का अनुरोध करने संबंधी गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) की अंतरिम अर्जी पर केंद्र एवं निर्वाचन आयोग से जवाब मांगा था.

मजेदार बात यह है कि केवल जन प्रतिनधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 29ए के तहत पंजीकृत राजनीतिक दल और पिछले लोकसभा चुनाव या राज्य विधानसभा चुनाव में पड़े कुल मतों का कम से कम एक प्रतिशत वोट हासिल करने वाले दल ही चुनावी बांड प्राप्त करने के पात्र हैं. अधिसूचना के मुताबिक, चुनावी बांड को एक अधिकृत बैंक खाते के जरिये ही राजनीतिक दल नकदी में तब्दील कराएंगे.

केंद्र और निर्वाचन आयोग ने पूर्व में न्यायालय में एकदूसरे से उलट रुख अपनाया है. एक ओर, सरकार चंदा देने वालों के नामों का खुलासा नहीं करना चाहती, वहीं दूसरी ओर निर्वाचन आयोग पारदर्शिता की खातिर उन के नामों का खुलासा करने का समर्थन कर रहा है. अब यह मामला देश के उच्चतम न्यायालय में पहुंच चुका है. आम चर्चा है कि राजनीतिक दल विशेषाधिकार ले कर नहीं जन्मे है जो आम संस्था और नागरिकों और संवैधानिक अधिकार से हट कर उन्हें कानून का संरक्षण मिले.

 

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