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मेनोपौज किस उम्र में होता है और क्या हैं इस के लक्षण

तकरीबन 12 साल की उम्र के आसपास किसी लड़की को माहवारी शुरू होती है. इस का सीधा सा मतलब होता है कि अब वह धीरेधीरे जवानी की दहलीज पर आने वाली है और पूरी तरह जवान होने पर शादी के बाद मां बन सकेगी. इसी तरह उम्र के 45 से 50 साल के पड़ाव पर मैनोपौज की शुरुआत होती है, जिस में बच्चा जनने से जुड़े हार्मोन में बदलाव होते हैं और फिर बच्चा जनने की गुंजाइश खत्म होती जाती है.

शहर की हो या गांव की, किसी भी औरत के लिए यह समय बड़ा ही तनाव भरा होता है, क्योंकि हार्मोन में बदलाव के चलते उन का मूड स्विंग होता है और उन में चिड़चिड़ापन बढ़ जाता है. इस के 3 चरण होते हैं, प्री मेनोपौज, मेनोपौज और पोस्ट मेनोपौज.

मेनोपौज के लक्षण

  • शरीर में अचानक से गरमी का एहसास होता है. रात को गरमी लगने के साथ पसीना आता है या फिर अचानक ठंड भी लग सकती है.
  • योनि में सूखापन आने लगता है, जिस से सैक्स संबंध बनाते समय दर्द होता है या बनाने की इच्छा ही नहीं रहती है.
  • बारबार पेशाब करने की इच्छा होती है और रात को नींद न आने की समस्या बढ़ने लगती है.
  • जितना ज्यादा चिड़चिड़ापन बढ़ता है, तनाव भी उतना ही हावी होने लगता है.
  • शरीर, आंखों और बालों में सूखेपन की शुरुआत होने लगती है. बाल झड़ने की समस्या भी पैदा हो सकती है.
  • हड्डियां कमजोर हो सकती हैं.
  • पेशाब संबंधित इंफैक्शन हो सकता है.
  • दिल से जुड़ी बीमारियों का खतरा बढ़ सकता है.

कंट्रोल करने के तरीके

  • डाक्टर की सलाह पर दवाएं ली जा सकती हैं, पर चूंकि यह कुदरती प्रक्रिया है, तो अपने रहनसहन और खानपान पर ध्यान देना चाहिए.
  • इस के अलावा जितना हो सके अपने शरीर को ठंडा रखने की कोशिश करें.
  • रात को अगर गरमी लगने से बहुत ज्यादा पसीना आता है तो नहा कर सोने जाएं. सूती और आरामदायक कपड़े पहनें.
  • रोजाना कसरत करें और वजन को कंट्रोल में रखें. तलाभुना खाना कम ही खाएं. इस से पेट सही रहता है और रात को नींद भी अच्छी आती है.
  • अगर मानसिक तनाव बहुत ज्यादा रहने लगा है, तो किसी माहिर साइकोलौजिस्ट या थैरेपिस्ट से बात की जा सकती है. समाज के डर से ऐसा करने में झिझके नहीं. साथ ही, अपनों से दिल की बात कहें. इस से मन हलका होता है.
  • डाक्टर से सलाह लें और उस के मुताबिक कैल्शियम, विटामिन डी, मैग्निशियम वगैरह के सप्लीमैंट ले सकते हैं.
  • बीड़ीसिगरेट और शराब का सेवन न करें.

अफसोस : दो सहेलियां क्यों बनी दुश्मन ?

‘वंदना के पति अरुण का तबादला कानपुर हो गया है, अगले सप्ताह वे लोग कालोनी छोड़ कर चले जाएंगे.’ यह खबर सविता को अपनी पड़ोसिन आंचल से मिली.

‘‘विदाई पार्टी देने के लिए तुम वंदना को अपने घर आमंत्रित करोगी.’’ मुसकराती हुई आंचल ने सविता को जानबूझ कर छेड़ा.

‘‘उसे पार्टी देगा मेरा ठेंगा,’’ सविता एकदम चिढ़ उठी.

‘‘2 साल पहले तक तुम दोनों कितनी अच्छी सहेलियां हुआ करती थीं.’’

‘‘अब वह मुझे फूटी आंख नहीं भाती. उस के जाने की बात सुन कर मेरे कलेजे में बहुत ठंडक पड़ी है.’’

‘‘अपने पति के साथ तुम्हारा नाम जोड़ कर उस ने तुम्हें बदनाम करने की जो कोशिश की थी उस के लिए आज तक माफ नहीं किया तुम ने उसे.’’

‘‘ऐसा गलत और गंदा आरोप क्या कभी कोई भुला सकता है. बहुत बार कोशिश की उस ने फिर से मेरे साथ दोस्ती करने की पर मैं ने ही उसे घास नहीं डाली,’’ सविता की आंखों से नफरत और गुस्से की चिनगारियां फूटने लगीं.

सविता को थोड़ा और भड़का कर आंचल ने उस के मुंह से कुछ अन्य चटपटी बातें वंदना के खिलाफ उगलवाईं और फिर उन्हें अपनी सहेलियों के बीच बताने को विदा हो गई.

आंचल के जाने के बाद सविता के मन में उस दिन की कड़वी यादें उभरीं जिस दिन वंदना ने उसे उस की सहेलियों के बीच बदनाम व अपमानित करने की कोशिश की थी.

उस दिन सविता के घर आंचल, नीलम और निशा वहीं थीं. सविता का मूड शुरू से खराब था. उस ने न चाय पी न कुछ खाया.

‘कल शाम तुम मेरे घर किसलिए आई थी.’ वंदना के बोलने का लहजा झगड़ा शुरू करने का इरादा साफ दिखा रहा था.

‘तुम से यों ही मिलने आई थी लेकिन इतने अजीब ढंग से यह सवाल क्यों पूछ रही हो तुम.’ सविता नाराज हो उठी थी.

‘मुझे आए आधा घंटा हो गया है मगर अब तक तुम ने मुझे क्यों नहीं बताया कि तुम मेरे घर आई थीं?’

‘क्या ऐसा कहना जरूरी है.’

‘मेरे सवाल का जवाब दो, सविता.’

‘मैं भूल गई थी तुम्हें बताना.’

‘भूल गईं या इस बात को छिपाना चाह रही हो?’ वंदना ने चुभते लहजे में पूछा.

‘मैं मामूली सी तुम्हारे घर जाने की बात भला क्यों छिपाना चाहूंगी?’ गुस्साए सविता की आवाज ऊंची हो गई.

‘अपनी गंदी हरकतों पर कौन परदा नहीं डालना चाहता?’

‘क्या मतलब?’

‘मतलब यह कि तुम अरुण पर डोरे डाल रही हो. कल शाम खिड़की से मैं ने तुम्हें अरुण के गले लगते अपनी आंखों से देखा. अपनी सहेली के साथ विश्वासघात करते हुए तुम्हें शरम नहीं आई?’ वंदना ने उसे सब के सामने अपमानित किया था.

‘क्या बकवास कर रही हो. ऐसा झठा आरोप मुझ पर मत लगाओ,’ सविता और ज्यादा जोर से चिल्लाई.

‘जो मेरी आंखों ने देखा है वह झठ नहीं है. खबरदार जो तुम कभी मेरे घर मेरी पीठ पीछे गईं या अरुण से अकेले में मिलने की कोशिश की. मेरी तुम्हारी दोस्ती आज से खत्म, सुना तुम ने,’ प्रश्नवाचक मुद्रा में देखा वंदना ने. फिर गुस्से से पैर पटकती हुई उस के घर से चली गई थी.

उस के जाने के बाद सविता खूब रोई. उसे पता था कि उस की सहेलियां इस घटना को चटखारे लेले कर पूरी कालोनी में फैला देंगी. अपनी छवि के खराब हो जाने की कल्पना ने उस के आंसुओं को कई दिन तक थमने नहीं दिया था.

इस घटना से 3 दिन पहले सविता का सोने का हार चोरी हो गया था. चोर कौन था, इस का उसे बिलकुल अंदाजा नहीं था पर अपनी सहेलियों के बीच वंदना को नीचा दिखाने के लिए उस दिन उस ने चोरी का इलजाम वंदना के मत्थे मढ़ दिया.

‘इतनी चालाक और काइयां औरत मैं ने अपनी जिंदगी में पहले कभी नहीं देखी,’ सविता ने आंखों में आंसू भर आहत भाव से कहा था, ‘आज की उस की जलील हरकत देख कर मेरा शक विश्वास में बदल गया है कि मेरा हार वंदना ने ही चुराया है. अब झठा लांछन लगा कर मुझ से लड़ रही है. मुझ से संबंध तोड़ कर बारबार मेरे सामने शर्मिंदा होने के झंझट से मुक्ति पा गई चोट्टी.’

कुछ देर उस की हां में हां मिला कर उस की सहेलियां विदा हो गई थीं. सिर्फ 24 घंटे के अंदर इस घटना की जानकारी पूरी कालोनी को हो गई.

सविता ने वंदना को आज तक कभी दिल से माफ नहीं किया. यों कुछ महीनों बाद उन के बीच औपचारिक सा वार्त्तालाप हो जाता, लेकिन न उन का एकदूसरे के घर आनाजाना शुरू हुआ और न ही कभी दोस्ती के संबंध फिर से कायम हुए.

अगली शाम सविता का वंदना से आमनासामना बाजार में हुआ. तब तक सविता अपनी दसियों सहेलियों के घरों में जा कर हार चोरी हो जाने व अपनी झठी बदनामी वाली बातों की चर्चा कर आई थी. वंदना की बुराई करने व अपनी सहेलियों की सहानुभूति पाने में उसे अब भी अजीब सा सुख व शांति मिलती थी. पिछले 2 सालों में ऐसा कम ही हुआ था कि वह कालोनी में किसी से मिली हो और इन दोनों घटनाओं की चर्चा कर वंदना को भलाबुरा न कहा हो.

‘‘सुना है अगले सप्ताह कानपुर जा रही हो.’’ सविता ने जबरदस्ती वाले अंदाज में मुसकरा कर वंदना से पूछा.

‘‘अरुण का तबादला हो गया है, इसलिए जाना तो पड़ेगा ही,’’ वंदना भी बेचैन नजर आ रही थी.

‘‘नई जगह जा कर नई सहेलियां बनाना अच्छी बात ही है.’’

‘‘नए को पुराना होते और दोस्ती को दुश्मनी में बदलते ज्यादा देर नहीं लगती,’’ वंदना कुछ उदास सी हो कर बोली.

‘‘ताली दोनों हाथों से बजती है, एक से नहीं,’’ सविता चुप न रह सकी.

‘‘अरे, अब छोड़ो भी ऐसी बातों को. मुझे बहुत सी पैकिंग करनी है. मैं चलती हूं,’’ वंदना ने हाथ मिलाने को अपना हाथ उस की तरफ बढ़ाया.

कल रात को तुम सब घर आ जाओ न,’’ अचानक यों आमंत्रित कर के सविता खुद भी हैरान हो उठी.

‘‘कल तो आंचल ने बुलाया है, ‘गुड बाय’ कहने के लिए मैं वैसे तुम्हारे यहां आऊंगी जरूर. अब चलती हूं,’’ वंदना इस अंदाज में अपने घर की तरफ चली मानो आगे कुछ कहने में उसे बहुत कठिनाई होती.

इस मुलाकात ने सविता के सोच और यादों की धारा को मोड़ दिया. वंदना के साथ झगड़ने से पहले के समय की बहुत सी मुख्य घटनाएं उस के जेहन में घूमने लगीं.

अपने बेटे राहुल के होने के समय वह 3 दिन तक नर्सिंगहोम में रही थी. तब और बाद में भी उस की घरगृहस्थी संभालने में वंदना ने पूरा योगदान दिया था.

सप्ताह में 3-4 बार वह एकदूसरे के यहां जरूर खाना खाते. कई बार पिकनिक मनाने व फिल्में देखने साथ ही गए. जन्मदिन या शादी की वर्षगांठ जैसे समारोहों में बिलकुल अपनों की तरह शामिल होते.

वंदना को अपनी ससुराल वालों की नियमित रूप से आर्थिक सहायता करनी पड़ती थी. इस कारण उस का हाथ कभीकभी बहुत तंग हो जाता. ऐसे मौकों पर 5-10 हजार रुपए की आर्थिक सहायता उस की कई बार सविता ने की थी.

एक समय सविता को लगता था कि उस ने वंदना के रूप में बहुत अच्छी सहेली पा ली थी. फिर एक ही झटके में उन की दोस्ती दुश्मनी में बदल गई.

सविता के दिल में वंदना के प्रति नफरत भी उतनी ही गहरी बनी जितना गहरा कभी प्यार होता था. उसे बदनाम करने या उस का काम बिगाड़ने का कोई मौका सविता कभी नहीं चूकी.

वंदना की आंखों में भी वह अपने प्रति सदा नाराजगी व नफरत के भाव पाती. झगड़े के बाद एकदूसरे से सिर्फ नमस्ते शुरू करने में उन्हें 6 महीने से ज्यादा का समय लगा. उन की सहेलियों ने उन के बीच मनमुटाव बनाए रखने में पूरा योगदान दिया. वह एक के मुंह से दूसरे के खिलाफ निकली बातों को नमकमिर्च लगा कर इधर से उधर पहुंचातीं. इन्हीं औरतों के सामने अपनी नाक ऊंची रखने के लिए वह बढ़ाचढ़ा कर एकदूसरे की बुराई करतीं व आमनासामना होने पर सीधे मुंह बात न करतीं.

जैसेजैसे वंदना के जाने का समय नजदीक आता गया, सविता की बेचैनी व उदासी बढ़ने लगी. ऐसा क्यों हो रहा है, यह वह खुद भी नहीं समझ पा रही थी.

‘वंदना जा रही है तो मैं क्या करूं. मैं ने तो बहुत पहले उस से दोस्ती का संबंध तोड़ डाला था,’ किसी भी परिचित महिला के सामने अब भी वह बड़ी बेरुखी से कहती लेकिन उस के दिल की इच्छा कुछ और थी.

झगड़ा होने के बाद से अब तक वंदना का खयाल उस के दिलोदिगाम पर छाया रहा. अब वह उस की जिंदगी से निकल कर बहुत दूर जा रही थी, इस बात से खुशी या राहत महसूस करने के बजाय वह अजीब सी बेचैनी, चिढ़ व गुस्सा महसूस कर रही थी. खुद को वंदना के हाथों ठगा गया सा महसूस कर रही थी.

दिन गुजरते गए और वंदना उस से न मिलने आई और न ही किसी और जगह दोनों का आमनासामना हुआ. सविता ने कई बार सोचा कि वह खुद वंदना के घर चली जाए, लेकिन हर बार मन ने उस के कदम रोक लिए. उस का आंतरिक तनाव उस की शांत रहने की हर कोशिश को विफल कर बढ़ता गया.

वंदना को जिस रात गाड़ी पकड़नी थी. उस दिन दोपहर को वह सविता से मिलने अकेली आई.

‘‘आखिर मुझ से मिलने आने की तुम ने फुरसत निकाल ही ली.’’ शिकायत करने से सविता खुद को रोक नहीं पाई.

‘‘पैकिंग का काम निबटने में ही नहीं आ रहा था,’’ वंदना मुसकराई.

‘‘अभी कुछ नहीं, पहले वह सब सुन लो जो मैं तुम से आज कहने आई हूं,’’ वंदना के मुंह से शब्द फंसेफंसे से अंदाज में निकले.

‘‘तुम से बहुतकुछ कहने की इच्छा मेरे मन में भी है, वंदना,’’ सविता भावुक हो उठी.

‘‘पहले मैं कहूं.’’

‘‘कहो.’’

‘‘आज के बाद न जाने कब मिलूंगी. अतीत में जिन गलतियों और भूलों के कारण मैं ने तुम्हारा दिल दुखाया है उन सब के लिए माफी मांगने आई हूं मैं,’’ वंदना का गला रूंध गया.

सविता की आंखों में आंसू छलक आए, ‘‘हमारी इतनी अच्छी दोस्ती को न जाने किस की नजर लग गई. पिछले 2 सालों में हमारे दिलों के बीच कितनी दूरियां हो गईं.’’

‘‘वह जो तुम्हारा हार चोरी हो गया.’’

‘‘उसे चुराने का झठा इलजाम मैं ने गुस्से में आ कर तुम पर लगाया था, वंदना. उस दिन मैं अपने आपे में नहीं थी. उस गंदे झठ के लिए मुझे माफ कर दो.’’

‘‘लेकिन तुम्हारा आरोप सच था सविता. हार मैं ने ही चुराया था,’’ अपना पर्स खोल कर 2 साल पहले चोरी किया हार वंदना ने सविता को पकड़ा दिया.

‘‘लेकिन… उफ, मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है. आखिर, तुम ने हार की चोरी क्यों की थी?’’ सविता गहरी उलझन का शिकार बन गई.

‘‘तुम्हें चोट पहुंचाने के लिए. तुम्हारा नुकसान करने के लिए.’’

‘‘तुम्हारे पति से मेरे गलत संबंध हैं, ऐसा सोच कर ही तुम ने मुझे चोट और नुकसान पहुंचाने की कोशिश की थी न.’’

‘‘हां.’’

‘‘लेकिन तुम्हारा वैसा सोचना गलत था,’’ सविता की आवाज में गहन पीड़ा के भाव उभरे, ‘‘तुम ने मुझे अरुण के गले से लगे हुए जरूर खिड़की से देखा होगा, लेकिन उस में मेरा दोष नहीं था.’’

‘‘मैं जानती हूं इस बात को,’’ गहरी सांस छोड़ते हुए वंदना बोली.

‘‘तुम जानती हो.’’ सविता हैरान हो उठी, ‘‘लेकिन उस दिन तो मुझे ही दोषी मान रही थीं.’’

‘‘गुस्से में आदमी कुछ का कुछ कह जाता है. मैं अरुण की दिलफेंक आदत से परिचित हूं. पता नहीं सुंदर औरतों के पीछे जीभ निकाल कर घूमने की उस की आदत कब और कैसे छूटेगी.’’

‘‘मेरे खुल कर उस के साथ हंसनेबोलने का अरुण ने गलत मतलब लगाया. शायद बहुत ज्यादा खुला व्यवहार कर के मैं ने ही उन्हें शह दी.’’

‘‘और मैं चाह कर भी तुम्हें आगाह नहीं कर सकी कि अरुण से कुछ दूरी बनाए रखना. अपने पति की कमजोरी बता कर तुम्हारे सामने मैं छोटी नहीं पड़ना चाहती थी. बस, तुम्हें उस के साथ खुल कर हंसनाबोलता देख कर मन ही मन किलसती रही. दोषी अरुण है, यह अच्छी तरह समझते हुए भी इसी कुढ़न के कारण तुम्हें चार औरतों के सामने बेकार की अपमानित कर गई,’’ वंदना अचानक ही हाथों में मुंह छिपा कर रोने लगी.

सविता वंदना के पास जा बैठी और उस की पीठ प्यार से थपथपाते हुए दुखी लहजे में बोली, ‘‘मुझे भी अपने खुले व्यवहार पर काबू रखना चाहिए था. तुम्हारे दिल की चिंता, तनाव और ईर्ष्या को पढ़ने की संवेदनशीलता मुझ में होनी चाहिए थी. अगर तुम मुझे जरा सा भी इशारा कर देती तो अरुणा को मैं किसी भ्रम का शिकार कभी न होने देती.’’

‘‘अपनी मूर्खता और नादानी के कारण मैं ने तुम्हारी जैसी अच्छी दोस्त को खो दिया,’’ कहतेकहते वंदना सविता के गले लग कर रोने लगी.

‘‘समझदार मैं भी नहीं निकली. अपनी दोस्ती की ढेर सारी अच्छी यादों को नजरअंदाज कर, बस, एक घटना के कारण तुम्हारे प्रति गुस्से और नफरत से भर कर कितनी दूर हो गई तुम से.’’

‘‘मुझे बहुत अफसोस है कि जैसे हम आज आमनेसामने बैठ कर अपने दिल की बातें एकदूसरे से कह रहे हैं, ऐसा हम ने पहले क्यों नहीं किया.’’

‘‘जिंदगी के पिछले 2 सालों में प्यार व दोस्ती का आनंद उठाने के बजाय नफरत और गुस्से की आग में सुलगते रहने का मुझे भी बेहद अफसोस है, वंदना,’’ वंदना को छाती से लगा सविता भी हिचकियां ले कर रोने लगी.

करीब घंटाभर और बैठ कर वंदना चली गईं. आपस में गले मिलते हुए दोनों ही बहुत उदास और थकीहारी सी नजर आ रही थीं.

कालोनी की औरतों को यह देख कर बेहद आश्चर्य हुआ कि एकदूसरे से पक्की दुश्मनी रखने वाली वंदना और सविता अंतिम विदाई के क्षणों में खूब रोईं. पिछले 2 सालों से नफरत उन की जीवनशक्ति को सक्रिय कर रही थी.

अब तबादले के कारण वह नफरत समाप्त हो गई. भीतर का खालीपन

और 2 साल तक प्यार व दोस्ती से वंचित रहने का अफसोस उन्हें इतना ज्यादा रुला रहा है, यह बात वहां उपस्थित कालोनी की औरतें नहीं समझ सकती थीं.

ढहते पहाड़ों ने विंटर का मजा किया खराब

अक्तूबर से जनवरी तक सर्दी और बर्फबारी का लुत्फ उठाने के लिए मैदानी इलाके के लोग कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखंड के पहाड़ों का रुख करते हैं. नईनई शादी हुई हो तो कपल हनीमून मनाने के लिए कश्मीर की सुंदर वादियों के ही सपने देखता है. बर्फ से ढके पहाड़ों पर अठखेलियां करते युवा हाथों में बर्फ के गोले लिए एकदूसरे पर फेंकते जिस आनंद में ओतप्रोत होते हैं उस की यादें हमेशा के लिए उन के दिलों पर नक्श हो जाती हैं. शाम के धुंधलके में एकदूसरे की बांहों में लिपटे युगल वादी की सुंदरता को निहारते हुए भविष्य के सपनों में खो जाते हैं.

गरम फर वाले कोट पहने बच्चे बर्फ के गोलों से खेलते हुए, बर्फ के घरोंदे बनाते हुए मजे करते हैं. ठंडी, बर्फीली हवाओं के बीच गरम चाय की चुस्कियां लेना, चारों तरफ खिले पहाड़ी फूलों की खुशबू अपनी सांसों में भर लेना, रंगबिरंगे चहचहाते पंछियों को देखना, कलकल करती नदियों का शोर सुनना, घर के भीतर तक घुस आने वाले बादल और पहाड़ों की चोटियों पर सोना बिखेरता सुबह का सूरज, ऐसे कितने ही लमहे हम पर्वतारोहण के बाद अपनी यादों में समेट कर लौटते हैं.

पहाड़ों की यह प्राकृतिक सुंदरता हमें बारबार वहां आने का निमंत्रण देती हैं. दिल्ली, नोएडा, गुरुग्राम, मेरठ में काम करने वाले या रहने वाले लोग तो दोतीन छुट्टियां आई नहीं कि आसपास के हिल स्टेशन पर घूमने निकल जाते हैं और प्रकृति की नजदीकियां प्राप्त कर दोगुनी ताजगी के साथ लौटते हैं.

भारत में 90 के दशक के बाद पहाड़ी पर्यटन में काफी तेजी आई है. पहले जहां गरमी की छुट्टियों में लोग बच्चों को ले कर उन के दादादादी या नानानानी के वहां जाते थे, अब वे शहर के शोरशराबे और रिश्तेदारों से दूर किसी हिल स्टेशन पर जाना ज्यादा पसंद करने लगे हैं. यही वजह है कि ज्यादातर हिल स्टेशन सीजन के वक्त सैलानियों से भरे रहते हैं. वहां के होटल, धर्मशालाएं, रिसोर्ट सब फुल रहते हैं. भीड़ का वह आलम होता है कि कई बार तो लोग दोगुना किराया देने को भी तैयार होते हैं फिर भी ठहरने के लिए उन्हें कोई अच्छा होटल नहीं मिल पाता.

सर्दी का इंतजार

मौसम गरमी का हो या जाड़ों का, पहाड़ों की आमदनी का मुख्य स्रोत पर्यटन ही है. राजधानी दिल्ली के नजदीक के हिल स्टेशन जहां गरमी में आगंतुकों की बाट जोहते हैं तो वहीं जम्मूकश्मीर, लेहलद्दाख के लोग बेसब्री से सर्दी का इंतजार करते हैं क्योंकि बर्फबारी का मजा लेने के लिए हजारों की संख्या में देशीविदेशी सैलानियों के जत्थे वहां पहुंचते हैं.

मगर इस बार शायद ऐसा न हो. बीते जुलाई, अगस्त और सितंबर माह, जोकि बारिश के महीने हैं, में बड़ी संख्या में पहाड़ों पर भूस्खलन हुआ है. दरकते पहाड़ों ने अनेक घरों, इमारतों, होटलों और व्यावसायिक स्थलों को जमींदोज कर दिया है. जिस तरह हिमाचल और उत्तराखंड में लैंडस्लाइड हुआ है और जानमाल का भारी नुकसान लोगों ने उठाया है उस ने पर्यटकों के मन में दहशत भर दी है. बहुतेरे लोगों ने अपनी बुकिंग कैंसिल करवा दी हैं.

इस भारी भूस्खलन और जानमाल के नुकसान के जो वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुए उस से लोगों में डर फैल गया है. यहां तक कि जो लोग दिल्ली, नोएडा, गुरुग्राम के प्रदूषण और शोर से तंग आ कर पहाड़ों पर जा बसने की प्लानिंग कर रहे थे उन्होंने भी अपना इरादा बदल दिया है.

लैंसडाउन के निवासी कर्नल रावत कहते हैं, ‘‘बारिशें पहले भी इतनी ही होती थीं मगर इस तरह पहाड़ों को नुकसान नहीं होता था. पानी पहाड़ों से बह कर नदियों में समा जाता था पर जिस तरह पिछले तीनचार सालों से पहाड़ टूटटूट कर गिर रहे हैं, ये भविष्य के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं. पहाड़ों पर जरूरत से ज्यादा भीड़ हो रही है. बहुत बड़ेबड़े निर्माण कार्य हो रहे हैं. ये निर्माण कार्य पहाड़ों को खोखला कर रहे हैं. अगर इन्हें रोका नहीं गया तो आने वाले 10 सालों में पहाड़ों का सारा सौंदर्य समाप्त हो जाएगा और पहाड़ समतल मैदानों में तबदील हो जाएंगे.’’

दरअसल पहाड़ों के सौंदर्य ने बीते कुछ सालों में धनकुबेरों को खासा आकर्षित किया है. बड़ेबड़े व्यवसायियों ने पहाड़ों पर जारी सरकारी, गैरसरकारी प्रोजैक्ट्स में अपना पैसा निवेश कर रखा है. जिन के पास पैसा है उन्होंने पहाड़ों पर वहां के निवासियों से सस्ते दामों में बड़ीबड़ी जमीनें खरीद ली हैं. इन जमीनों पर बड़ेबड़े होटल, रिसोर्ट, क्लब, मल्टीस्टोरी अपार्टमैंट बनाए गए हैं और सारे नियमकानूनों को धता बता कर लगातार बनाए जा रहे हैं. ये कई मंजिला ऊंचीऊंची इमारतें सीजन में सैलानियों से खचाखच भर जाती हैं और उन के मालिकों को लाखोंकरोड़ों का मुनाफा देती हैं. धनाढ्य वर्ग ने इन इलाकों में होटल व मकान बनाने को स्टेटस सिंबल भी बना लिया है. मगर पहाड़ों के लिए यह बोझ बहुत भारी है.

धर्म का दिखावा

2014, जब से मोदी सरकार सत्ता में आई है, हर तरफ हिंदुत्व का बोलबाला भी जोरों पर है. संघ और भाजपा की देश को हिंदू राष्ट्र बनाने की सोच और रणनीति के तहत जनता को पूजापाठ, चढ़ावाआरती की तरफ धकेला जा रहा है. धर्म का दिखावा बढ़ गया है. बड़ेबड़े आडंबरों में पैसा खर्च किया जा रहा है. अनेक कथावाचक मैदान में उतारे गए हैं जो लोगों को तीर्थयात्राओं के लिए प्रेरित कर रहे हैं. ऐसे में जो लोग पहले अपने घरों में पूजाआरती कर मन की शांति पाते थे, अब उन में तीर्थस्थलों पर जा कर दर्शन करने में ज्यादा पुण्यप्रताप पाने की आस जग गई है. पिछले 9 सालों से तमाम टीवी चैनलों, कथावाचकों, राजनेताओं, कारसेवकों द्वारा यह काम बहुत तेज गति से हो रहा है.

देशभर में पुराने मंदिरों और धर्मशालाओं का जीर्णोद्धार किया जा रहा है. हिमालय में भी बद्रीनाथ, केदारनाथ, कैलाश मानसरोवर, यमुनोत्री, गंगोत्री, पंच कैलाश, पंचबद्री, पशुपतिनाथ, जनकपुर, देवात्म हिमालय, अमरनाथ, कौसरनाग, वैष्णोदेवी, गोमुख, देवप्रयाग, ऋषिकेश, हरिद्वार, नंदादेवी, चौखंबा, संतोपथ, नीलकंठ, सुमेरु पर्वत, कुनाली, त्रिशूल, भारतखूंटा, कामेत, द्रोणागिरी, पंचप्रयाग, जोशीमठ जैसे अनेकानेक तीर्थस्थलों के दर्शनों के लिए बहुत बड़ी संख्या में लोगों ने जाना शुरू कर दिया है.

इतनी बड़ी संख्या का बोझ पहाड़ कैसे ढो पाएंगे? इस भीड़ को संभालना न तो पहाड़ों के वश का है और न ही सरकार के. यही वजह है कि आएदिन किसी न किसी बड़ी दुर्घटना या भगदड़ के कारण बड़ी संख्या में लोगों के मरने की खबरें भी आती रहती हैं.

जब तीर्थस्थलों के दर्शनों के लिए लोगों को उकसाया जा रहा है तो उन के रहने, खाने, आनेजाने का इंतजाम भी उसी गति से हो रहा है. व्यापारी, उद्योगपति, रियल एस्टेट, बस वाले, टैक्सी वाले, टट्टू वाले, होटल वाले सभी बहती गंगा में हाथ धोना चाहते हैं. पूरे हिमालयी क्षेत्र में अफरातफरी मची हुई है. पहाड़ों की शांति और सुकून खत्म हो गया है. एक तरफ सरकार बहुत तेजी से निर्माण कार्य करवा रही है, वहीं धनकुबेरों ने बड़ीबड़ी जमीनें खरीद कर उन पर होटल, रिसोर्ट, मौल, मल्टीस्टोरी बिल्ंिडग्स खड़ी कर दी हैं.

खोखले होते पहाड़

सरकार ने विकास के नाम सड़कें और राष्ट्रीय राजमार्ग बनाने के लिए सैकड़ों पहाड़ समतल कर दिए हैं. जहां पहले मिलिट्री और स्थानीय लोगों के आनेजाने के लिए पतली और घुमावदार सड़कें होती थीं, वहां अब सीधी फोरलेन सड़कें बन रही हैं. इस निर्माण के लिए पहाड़ों और जंगलों को काटा जा रहा है.

पहाड़ों में सीढ़ीनुमा खेतों को समाप्त कर दिया गया है, जिन में बारिशों के बाद फसलें लहलहाती थीं. हिमाचल और उत्तराखंड में चारों तरफ पहाड़ खुदे पड़े हैं. पहाड़ों के अंदर हजारों सुरंगें खोद दी गई हैं. इन टनल्स को बनाने के लिए मजबूत पत्थर के पहाड़ों में विस्फोट किए जाते हैं जिस से पहाड़ अंदर ही अंदर खोखले हो गए हैं. जिन ऊंचेऊंचे मजबूत वृक्षों की जड़ें मिट्टी और पत्थर को जकड़े रखती थीं उन्हें काट डाला गया है. लिहाजा, पहाड़ इतने भुरभुरे हो गए हैं कि थोड़ी सी ज्यादा बारिश हो जाए तो लैंडस्लाइड होने लगता है. पहाड़ ऊपर से टूटटूट कर गिरते हैं तो रास्ते में आने वाले पेड़ों, घरों और इमारतों को भी अपने साथ धराशायी करते हैं.

कर्नल रावत कहते हैं, ‘‘जानमाल की तबाही के लिए पानी से ज्यादा मलबा जिम्मेदार है. पहाड़ों पर जिस तरह भारी कंस्ट्रक्शन हो रहा है उस से सारे नालेनालियां चोक हो गई हैं. बारिश का पानी अब नालों से न हो कर पहाड़ों पर सीधा बहता हुआ नीचे की ओर बह रहा है. बहुत सारा पानी पहाड़ों द्वारा सोख भी लिया जाता है, जिस से पहाड़ और कमजोर हो रहे हैं. बड़ी तादाद में लोगों ने पहाड़ों पर आना शुरू कर दिया है तो वे यहां बहुत ज्यादा कचरा भी फैला रहे हैं. यह सारा मलबा पहाड़ों पर जगहजगह जमा है. यह भी पानी एब्जौर्ब कर लेता है और जब थोड़ी सी ज्यादा बारिश होती है तो यह मलबा नीचे गिरता है, सड़कों को अवरुद्ध कर देता है, वाहनों को क्षति पहुंचाता है, घरों को तोड़ता है और फिर टीवी पर एंकर चीखते हैं कि बादल फटने से हादसा हो गया, जबकि ये सब साधारण बारिश में ही हो रहा है.

‘‘हाल ही में शिमला के समरहिल इलाके में स्थित प्रसिद्ध शिव मंदिर भी इसी तरह बरबाद हुआ है. दरअसल यह मंदिर एक नाले के किनारे पर बना था. जब ऊपर से पानी आया तो वह अपने साथ भारी मात्रा में मलबा भी ले कर आया. उस मलबे के वेग ने मंदिर को उजाड़ दिया.’’

पेड़ों की कटाई से चिंता

कर्नल रावत आगे कहते हैं, ‘‘टूरिज्म को बढ़ावा देने के नाम पर सरकार सड़कें चौड़ी कर रही है. जहां 2 लेन हैं, वहां 4 लेन सड़क बनाई जा रही है. शिमलाकालका नैशनल हाईवे के निर्माण में बहुत ज्यादा पहाड़ काटे गए हैं. आमतौर पर जब पहाड़ पर कोई सड़क बनाई जाती है तो किनारेकिनारे रिटेनिंग वाल भी बनाई जाती है. यही दीवार सड़क को हादसे से बचाती है. यह रिटेनिंग वाल आमतौर पर कंक्रीट की बनती है, जो बहुत मजबूत होती है.

‘‘लैंडस्लाइड होने पर जब बड़ेबड़े पत्थर और मिट्टी तेजी से नीचे आती है तो सड़कों के किनारे बने ये कंक्रीट की वाल उस को रोक लेती है लेकिन शिमला कालका हाईवे पर कौन्ट्रैक्टर ने एक्सपैरिमैंट किया है और रिटेनिंग वाल पत्थर की बना दी है, जिस में सीमेंट से चुनाई की गई है और अंदर मिट्टी भरी हुई है. नतीजा यह कि यह सड़क थोड़ा भी पानी बरदाश्त नहीं कर पा रही और जगहजगह से धंस गई है. लैंडस्लाइड होने पर जो मलबा गिर रहा है वह सड़क पर आ कर रुकता नहीं है बल्कि रेलिंग तोड़ता हुआ नीचे के पहाड़ों पर बने घरों और इमारतों को भी अपनी चपेट में लेता हुआ चला जाता है.’’

सरकार जल्दीजल्दी सबकुछ हासिल करने के मोह में उन परंपरागत तौरतरीकों को नजरअंदाज करती जा रही है जो पहाड़ों में सड़क बनाने में इस्तेमाल किए जाते हैं. उन में ध्यान रखा जाता है कि पहाड़ के आधार को क्षति न पहुंचे. लेकिन अब फोरलेन हाईवे बनाने के प्रलोभन में ऐसे तमाम उपायों को नजरअंदाज कर दिया गया है. अपेक्षाकृत नए हिमालयी पहाड़ों पर बसे हिमाचल व उत्तराखंड के पहाड़ फोरलेन सड़कों का दबाव सहन करने को तैयार नहीं हैं.

पहले सड़कें लंबे घुमाव के साथ तैयार की जाती थीं ताकि पहाड़ के अस्तित्व को खतरा न पहुंचे लेकिन अब दावे किए जा रहे हैं कि शिमला से मनाली कुछ ही घंटों में पहुंच जाएंगे. मगर ये घंटे कम करने के उपक्रम की कीमत स्थानीय लोगों व पारिस्थितिकीय तंत्र को चुकानी पड़ रही है. पहाड़ों को काटने के साथ पेड़ों का कटान तेजी से हुआ है. ये पेड़ ही पहाड़ों की ऊपरी परत पर सुरक्षा कवच का काम कर के भूस्खलन को रोकते थे.

सब से बड़ी चिंता की बात यह है कि अवैज्ञानिक तरीकों से सड़कों के लिए कटान ने पहाड़ों के भीतर के वाटर चैनलों का प्राकृतिक प्रवाह भी बाधित कर दिया है जो न केवल जमीन के कटाव को बढ़ा रहा है बल्कि नई आपदाओं की जमीन भी तैयार कर रहा है. इतना ही नहीं, सड़कों को चौड़ा करने के नाम पर जगहजगह ब्लास्ट किए जा रहे हैं जो पहाड़ों का आधार कमजोर कर रहा है. पहाड़ों पर भारीभरकम व्यावसायिक विज्ञापनों के लिए होर्डिंग लगाने के लिए भी गहरी खुदाई चालू है. अतीत में हमारे पूर्वज मकानों का निर्माण पहाड़ों की तलहटी और समतल इलाकों में किया करते थे लेकिन हाल के वर्षों में खड़ी चढ़ाई वाले पहाड़ों को काट कर बहुमंजिला इमारतों व होटलों का निर्माण अंधाधुंध तरीके से हुआ है. इस बेतरतीब काम और बोझ को सहन न कर सकने वाले पहाड़ों में भूस्खलन की घटनाएं हो रही हैं. हमें याद रखना चाहिए कि भवन निर्माण हो या सड़कों का निर्माण, पहाड़ों को कोई शौर्टकट रास्ता स्वीकार नहीं होता है. उस की कीमत हमें तबाही के रूप में ही चुकानी होगी.

सरकार जिम्मेदार

पहाड़ का मूल निवासी जिस ने अब तक प्रकृति के साथ बेहतर संतुलन बनाया हुआ था, जो प्रकृति के अनुसार चलता था, जिसे पहाड़ों से प्यार था और जो उस का सम्मान करता था, जिसे मालूम था कि पहाड़ों और जंगलों से उसे कितना लेना है और कैसे उन्हें सुरक्षित रखना है, वह आज गरीबी के चलते अपनी जमीनें धनकुबेरों के हवाले करता जा रहा है. विकास के नाम पर बहुत सारी जमीन सरकार ने भी अधिग्रहीत कर ली है.

अब न ही इन धनकुबेरों और न ही सरकार को तमीज है कि पहाड़ों के साथ कैसा बरताव करना है. सब अपनेअपने आर्थिक फायदों के लिए पहाड़ों को निर्ममता से तोड़नेकाटने में जुटे हैं जिस का नतीजा दिखना शुरू हो चुका है. धर्म इस में सब से ज्यादा बड़ा योगदान दे रहा है क्योंकि हर जगह छोटीमोटी देवियों, अनजाने देवताओं के मंदिर बनाने का धंधा चालू है. हर गोल पत्थर को प्राचीन शिव मंदिर कह दिया जाता है.

गत 2 महीने की बारिश में भयानक भूस्खलन और बाढ़ के चलते हिमाचल में 600 से अधिक लोग अपनी जान गंवा चुके हैं. 3 हजार से अधिक घर और बिल्ंिडगें जमींदोज हो चुकी हैं. हजारों परिवार बेघर हो चुके हैं और इस प्राकृतिक आपदा के कारण हिमाचल प्रदेश को 12 हजार करोड़ रुपए से अधिक का नुकसान हुआ है. हिमाचल और उत्तराखंड में बड़ीबड़ी अट्टालिकाएं पानी में टूट कर ऐसे बह गईं मानो ताश के पत्तों के महल हों. भारी वाहन पानी पर तैरते नजर आए और बड़ी संख्या में इंसान और मवेशी मारे गए. अनेक सड़कें और राष्ट्रीय राजमार्ग मलबे के ढेर से ब्लौक हो गए.

बारिश, लैंडस्लाइड और बादल फटने की घटनाओं ने त्राहित्राहि मचा दी. जोशीमठ की तबाही हमारे सामने है. आज पूरा जोशीमठ धंसने की कगार पर खड़ा है. वहां लगभग हर घर में दरारें पड़ चुकी हैं. जगहजगह सड़कें फटी पड़ी हैं. लोग अपने घर छोड़ कर इधरउधर शरणार्थियों की तरह रह रहे हैं. केंद्रीय बिल्ंिडग बायलौज और उत्तराखंड के 2011 व 2013 में जारी हुए बायलौज को देखें तो इस पर्वतीय क्षेत्र में 12 मीटर यानी

4 मंजिल से अधिक ऊंचाई के भवन का निर्माण नहीं किया जा सकता था. इतनी ऊंचाई भी तभी संभव है जबकि निर्माण वाले क्षेत्र का अध्ययन हुआ हो. जोशीमठ में इन कायदों को दरकिनार कर सातसात मंजिला भवन बनाने के लिए संबंधित निकाय ने अनुमति जारी कर दी. सवाल यह है कि इतने बेतहाशा और बेतरतीब निर्माण और नुकसान का जिम्मेदार यदि सरकार नहीं तो कौन है?

लैंडस्लाइड डरा रहा

अगस्त में राजधानी शिमला में लैंडस्लाइड का डरावना मंजर दिखाई दिया. समरहिल इलाके में शिमला नगरनिगम का स्लौटर हाउस जमींदोज हो गया. पहले एक बड़ा पेड़ गिरा, फिर ताश के पत्तों की तरह स्लौटर हाउस ढलान की तरफ सरकता चला गया और फिर शिमला के स्लौटर हाउस के साथ लगे

5 घर भी जमींदोज हो गए. चारों तरफ चीखपुकार मच गई. मात्र 3 दिनों की बारिश में अकेले मंडी शहर में 20 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई और कई लोग लापता हो गए. लैंडस्लाइड के बाद कुल्लू, मनाली को जोड़ने वाला हाइवे बंद होने से सैकड़ों पर्यटक फंस गए.

15 अगस्त को शिमला में कृष्णा नगर इलाके में हुए लैंडस्लाइड में कई मकान ढह गए. आसपास दशकों से रह रहे लोगों के घर ढहते देख पड़ोसी अपनी चीखें नहीं रोक पाए. उन की आंखों के सामने पूरा इलाका जमींदोज हो गया. इस जगह से शाम तक 40-50 लोगों को रेस्क्यू किया गया. इस से एक दिन पहले ही

14 अगस्त को समरहिल इलाके का शिव मंदिर भी भूस्खलन की चपेट में आ गया. सोमवार का दिन होने के कारण वहां शिव भक्तों का भारी जमावड़ा था, तभी जमीन इतनी तेजी से धंसी कि किसी को कुछ सोचनेसमझने और बचने का मौका ही नहीं मिला.

आपदा गुजरने के बाद मंदिर के मलबे से 25 से ज्यादा शव निकाले गए. सैकड़ों घायलों को अस्पताल पहुंचाया गया. कइयों का अभी तक कुछ पता नहीं चला. इलाके के शर्मा परिवार के तो 7 लोग मंदिर के भीतर थे जो अचानक आई तबाही की भेंट चढ़ गए. इस हादसे में हिमाचल प्रदेश यूनिवर्सिटी की प्रोफैसर मानसी वर्मा की जान भी चली गई जो 7 महीने की प्रैग्नैंट थीं और पति के साथ मंदिर में खीर चढ़ाने गई थीं. मानसी के साथ उन के पति और गर्भस्थ शिशु को भी मौत लील गई. 14 अगस्त को ही शिमला के फागली में भी भूस्खलन हुआ जिस में 5 लोग मारे गए. इसी दिन सोलन में 7 लोगों के मारे जाने की खबर आई.

उत्तराखंड के हालात भी काबू के बाहर थे. भारी बारिश की वजह से जहां नदियां उफान पर रहीं, वहीं भूस्खलन के चलते तमाम सड़कें बाधित हो गईं और कई जानें चली गईं. उत्तरकाशी, जोशीमठ और ऋषिकेश सब से ज्यादा प्रभावित हुए. लोगों के घरों में पानी घुस गया और दरारें पड़ गईं. यहां भी 15 अगस्त को रुद्रप्रयाग के मद्हेश्वर मंदिर के मार्ग पर एक पुल ढह जाने से 100 से ज्यादा तीर्थयात्री फंस गए, जिन्हें राज्य आपदा प्रतिवादन बल (एसडीआरएफ) के जवानों ने भारी मशक्कत के बाद बचाया. उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदा ने 70 से ज्यादा लोगों की जानें ले लीं. कितने मवेशी मारे गए, इस की गिनती ही नहीं है. अनेक लोगों की लाशें कईकई दिनों बाद नदियों में तैरती मिलीं.

पहाड़ों पर अतिरिक्त बोझ

बारिश के मौसम में पहले भी पहाड़ों पर जम कर बारिश होती थी, मगर पहले इस भयावह तरीके से भूस्खलन नहीं होते थे. पेड़ पहाड़ों को अपनी जड़ों से जकड़े रहते थे. जंगल पानी के तेज बहाव को बाधित कर देते थे ताकि रास्ते में आने वाले घरों और खेतों को नुकसान न पहुंचे. सीढ़ीदार खेत आवश्यकतानुसार पानी सोख कर अतिरिक्त पानी को एक सलीके से नीचे की ओर जाने का रास्ता देते थे. मगर निर्माण कार्यों की वजह से जहां जंगल और खेत गायब हो चुके हैं वहीं खुदाई और लगातार जारी विस्फोटों ने पहाड़ों को कमजोर व भुरभुरा कर दिया है. अगस्त के महीने में हिमाचल और उत्तराखंड में हुए भूस्खलन के जो वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुए, उन्होंने सैलानियों के दिलों में ऐसी दहशत भर दी है कि इस बार सर्दी की छुट्टियां पहाड़ों पर मनाने का विचार अनेक लोगों ने त्याग दिया है.

पहले हिल स्टेशन पर जाना छुट्टियां बिताने, मौजमस्ती करने या हनीमून आदि के लिए होता था, मगर मोदी सरकार ने टूरिज्म को धर्म से जोड़ कर इसे धार्मिक टूरिज्म बना दिया है जिस से न सिर्फ पुराने मंदिरों और तीर्थस्थलों में भीड़ बढ़ रही है बल्कि नएनए मंदिरों का निर्माण भी बड़ी तेजी से और बड़ी संख्या में हो रहा है. सोलन जैसे दिल्ली के पास के हिल स्टेशन पर एक दशक पहले तक जहां कुछेक मंदिर ही थे, वहां अब हर दूसरेतीसरे घर के बाद एक नया मंदिर नजर आने लगा है. हर मंदिर पर भीड़ भी जुटने लगी है जो अपने पीछे गंदगी का अंबार छोड़ कर जाती है. चिप्सबिस्कुट के रैपर, पानी की खाली बोतलें, प्लास्टिक की थैलियों के ढेर जगहजगह दिखाई देते हैं.

हिमाचल प्रदेश के राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की एक रिपोर्ट कहती है कि 2017 और 2022 के बीच प्राकृतिक आपदाओं में 1900 से ज्यादा लोगों की जानें गई हैं. हिमाचल के लिए सब से खतरनाक साल था 2021 जब पहाड़ों के टूटने से 476 लोगों की मौत हुई और 700 से ज्यादा लोग घायल हुए. जाहिर है, यह पहाड़ों पर जरूरत से ज्यादा बढ़ते बोझ और पहाड व जंगलों को काटते जाने की वजह से हुआ. रिपोर्ट कहती है कि इन 5 सालों में आपदाओं के कारण 300 से ज्यादा मवेशियों ने भी अपनी जानें गंवाईं और प्रदेश को 7 हजार 500 करोड़ रुपए का आर्थिक नुकसान हुआ.

कुछ समय पहले ही हिमालय भूविज्ञान संस्थान के डा. सुशील कुमार ने पीटीआई को दिए एक इंटरव्यू में कहा था, ‘हिमालय शृंखला बहुत नई हैं. इस की ऊपरी सतह पर 30-50 फुट तक केवल मिट्टी है. जरा सी बारिश से ही भूस्खलन का खतरा पैदा हो जाता है. ऐसे में यहां जिस हिसाब से निर्माण कार्य हो रहे हैं, वे आने वाले समय में बहुत ज्यादा बुरी खबरें लाएंगे. आल वेदर रोड प्रोजैक्ट के निर्माण के लिए पहाडि़यों की जिस निर्ममता से कटाई हो रही है, चारधाम यात्रा के चलते तीर्थयात्रियों की जो भीड़ बढ़ी है और टिहरी बांध के जलग्रहण क्षेत्र में जो बढ़ोतरी हुई है, उस के कारण यह पूरा इलाका बेहद संवेदनशील हो चुका है.’

निर्माण कार्य से पहाड़ कमजोर

गौरतलब है कि 12,500 करोड़ रुपए का चारधाम प्रोजैक्ट मोदी सरकार का बहुउद्देशीय प्रोजैक्ट है, जिस का मकसद है 4 प्रमुख तीर्थस्थलों- यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ को सड़कमार्ग से जोड़ कर ज्यादा से ज्यादा तीर्थयात्रियों को वहां भेजा जाए. योजना में चारधाम के लिए 53 परियोजनाओं के तहत करीब 825 किलोमीटर तक 2 लेन सड़क का निर्माण चल रहा है.

यह परियोजना 2022 दिसंबर तक पूरी हो जानी थी, मगर इस के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में दाखिल याचिकाओं के कारण इस में 3 साल का विलंब हुआ. याचिकाकर्ताओं ने कोर्ट में कहा कि इस परियोजना से भारी भूस्खलन होगा, जंगलों की हानि होगी, हिमालय से निकली नदियों और वन्यजीवों के लिए बड़ा खतरा पैदा होगा. मगर सरकार ने नैशनल सिक्योरिटी का हवाला दे कर कहा कि इस से भारतचीन सीमा को देहरादून और मेरठ के सेना शिविरों से जोड़ा जाएगा, जहां मिसाइल बेस और भारी मशीनरी स्थित हैं. इस से सीमा सुरक्षा को मजबूती मिलेगी. सीमा सुरक्षा की बात पर कोर्ट ने इस परियोजना से होने वाले नुकसान का आकलन करने के लिए एक कमेटी गठित की, जिस के अध्यक्ष और 5 अन्य सदस्यों ने पर्यावरण को भारी नुकसान की चेतावनी दी मगर कमेटी के 21 सदस्यों ने राय रखी कि इस नुकसान को कम किया जा सकता है. आखिरकार, सुप्रीम कोर्ट ने कुछ शर्तों के बाद इस योजना पर काम चालू करने की अनुमति दे दी है.

हिमाचल सड़क परिवहन मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि 2014 तक हिमाचल प्रदेश में नैशनल हाईवे की लंबाई 2,196 किलोमीटर थी, मगर अब, यानी 2023 में हिमाचल प्रदेश में 6,954 किलोमीटर तक नैशनल हाईवे है. जैसेजैसे फोरलेन और सिक्सलेन नैशनल हाईवे बन रहे हैं, लैंडस्लाइड की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं. हिमाचल प्रदेश की स्टेट डिजास्टर मैनेजमैंट अथौरिटी के आंकड़ों के अनुसार साल 2020 में हिमाचल प्रदेश में लैंडस्लाइड के 16 बड़े मामले दर्ज किए गए थे लेकिन 2021 में 100 से ज्यादा बड़े स्तर की लैंडस्लाइड की घटनाएं हुईं. 2022 में पहाड़ दरकने के कम से कम 117 ऐसे मामले सामने आए जिन में जानमाल का भारी नुकसान हुआ. यहां पहाड़ों को सिर्फ सड़कों के लिए ही नहीं तोड़ा जा रहा, बल्कि पहाड़ों की चूलचूल हिलाने का काम वे टनल कर रही हैं, जो तेजी से पहाड़ी राज्यों में बनाई जा रही हैं.

अभी चारधाम रेलवे और टनल प्रोजैक्ट के तहत ऋषिकेश से कर्णप्रयाग तक 125 किलोमीटर की रेलवे लाइन बननी है. इस प्रोजैक्ट में 17 सुरंगें बननी तय हैं. इस के अलावा मुख्य मार्ग अलग होगा. सरकार यहां ब्लास्टलैस ट्रैक्स और 35 ब्रिज भी बनाएगी. इस का काम चालू है. यहां डीटी 821सी और डीटी 922आई एडवांस्ड औटोमैटिक जंबो ड्रिल्स के जरिए पहाड़ों के अंदर सुरंगें बनाई जा रही हैं.

सरकार का कहना है कि ये मशीनें पत्थरों में ड्रिलिंग कर के बड़ी सुरंगें बना रही हैं ताकि ब्लास्ट से बचा जा सके. मगर जानकारों का कहना है कि इन रेलवे सुरंगों का नुकसान भविष्य में यह होगा कि यहां पर भारी ट्रेनें चलेंगी, जिस से कंपन होगा. गौरतलब है कि उत्तराखंड में 66 नई बड़ी सुरंगें बनाने के प्रोजैक्ट चल रहे हैं. उत्तराखंड के पहाड़ ज्यादा देर तक और लंबे समय तक कंपन सहने की क्षमता नहीं रखते हैं. हलका सा भूकंप आया या भूधंसाव हुआ तो पूरा का पूरा रेलवे इंफ्रास्ट्रक्चर पलक झपकते तबाह हो जाएगा. अगर उस की चपेट में ट्रेनें आईं तो अनुमान लगाया जा सकता है कि किस भारी तबाही का मंजर होगा.

ऋषि गंगा हाइडल प्रोजैक्ट के तहत ऋषि गंगा नदी पर पावर प्रोजैक्ट बनना है. इस के विरोध में 2019 में एक पीआईएल फाइल हुई थी, जिस में कहा गया था कि निर्माणकर्ता  कंपनी नदी को खतरे में डाल रही हैं. साथ ही, रैणी गांव के लोगों की प्राकृतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक धरोहर को भी नुकसान होगा. देवीचा सैंटर औफ क्लाइमेट चेंज की 2018 की पौलिसी रिपोर्ट भी कहती है कि जब कोई पावर प्रोजैक्ट बनता है, तब वह पहले इलाके को प्रभावित करता है, फिर वहां ताकतवर प्राकृतिक आपदाएं आती हैं.

किरकिरा हुआ मजा

गौरतलब है कि 1991 के बाद से उत्तरपश्चिम हिमालय का तापमान ग्लोबल औसत से ज्यादा बढ़ा है. बावजूद इस के, पहाड़ों पर पावर प्रोजैक्ट्स की संख्या बढ़ती ही जा रही है. आज हिमाचल में 130 से अधिक छोटीबड़ी बिजली परियोजनाएं चालू हैं जिन की कुल बिजली उत्पादन क्षमता 10,800 मेगावाट से अधिक है. सरकार का इरादा 2030 तक राज्य में 1,000 से अधिक जलविद्युत परियोजनाएं लगाने का है जो कुल 22,000 मेगावाट बिजली क्षमता की होंगी. इस के लिए सतलुज, व्यास, रावी और पार्वती समेत तमाम छोटीबड़ी नदियों पर बांधों की कतारें खड़ी कर दी गई हैं.

पहाड़ों ने ऐसी तबाही पहले कभी नहीं देखी थी. आज हिमाचल के 2 दर्जन से ज्यादा जिले लैंडस्लाइड, बाढ़, बारिश से कराह रहे हैं. पहाड़ का पोरपोर धंस रहा है. टूट रहा है. बिखर रहा है. जो रेल की पटरियां अंगरेजों के जमाने से अब तक मजबूती से बिछी हुई थीं, उन के नीचे की जमीन सैलाब बहा ले गया है. कई रेल पटरियां हवा में लटक रही हैं. कुदरत इंसान को संभलने, सुधरने और सावधान हो जाने का संकेत बारबार दे रही है, बारबार आगाह कर रही है कि प्रकृति से छेड़छाड़ विनाश का कारण बन सकता है.

2013 में केदारनाथ त्रासदी और 2021 में चमोली त्रासदी के रूप में उत्तराखंड प्रकृति के रौद्र रूप के दर्शन कर चुका है. हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में एक बार फिर यह चेतावनी देखने को मिली है. वैज्ञानिकों का मानना है कि पहाड़ पर बन रही सड़कें, पहाड़ तोड़ने में विस्फोट, नदियों में गिरने वाली सड़क और दूसरे इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण का मलबा, पहाड़ों की गलत तरीके से कटाई, पहाड़ के नीचे लंबे सुरंग प्रोजैक्ट, पहाड़ी शहरों पर बढ़ती आबादी, पहाड़ में घर निर्माण की नई शैली, बिजली कारखाने, धार्मिक पर्यटन और तीर्थयात्रियों का बोझ, क्लाइमेट चेंज, टूटते ग्लेशियर और ज्यादा बारिश का बड़ा कारण बन रहा है. विकास के नाम पर सरकार जिस तरह नियमों में बदलाव कर रही है वह प्रकृति को नुकसान पहुंचाने के सिवा कुछ नहीं है. सार यही है कि विकास जरूरी है लेकिन इंसानी जीवन को दांव पर लगा कर अगर ऐसा किया जाएगा तो यह विनाश को न्योता देगा.

सर्दियों में पहाड़ की बर्फ और ठंड का आनंद लेना अब दूभर होता जा रहा है. पहले लोग अत्यधिक ठंड के कारण नहीं जाते थे पर अब बिजली के कारण ठंड से मुकाबला कर सकते हैं इसलिए सुकून में जाना चाहते हैं पर उसे नष्ट होते पहाड़ों के कारण लगभग बंद किया जा रहा है. सर्दियां मनाइए पर मैदानी इलाकों में फिलहाल.

क्या तूल पकड़ेगी दलित प्रधानमंत्री की मांग ?

कांग्रेसी नेता शशि थरूर के बारे में हरेक की अपनी राय हो सकती है जिस का औसत निचोड़ यह निकलेगा कि वे एक सैक्सी और रोमांटिक नेता हैं. यह पहचान दिलाने में भगवा गैंग और समूचे दक्षिणपंथ की पुरजोर कुंठित कोशिशें भी हैं. लेकिन हर कोई यह भी जानता है कि वे एक पर्याप्त शिक्षित बुद्धिजीवी, संभ्रांत और अभिजात्य जमीनी नेता हैं जिन के नाम वैश्विक स्तर के कई सम्मान और रिकौर्ड दर्ज हैं. एक सफल स्थापित लेखक और स्तंभकार भी वे हैं.

भारतीय राजनीति में सक्रिय और स्थापित हुए उन्हें अभी 15 साल भी पूरे नहीं हुए हैं पर इस अल्पकाल में वे अपनी खास पहचान गढ़ने में कामयाब हुए हैं. खासतौर से कांग्रेस की तो वे जरूरत बन चुके हैं. बावजूद इस हकीकत के कि गांधी-नेहरू परिवार के प्रति अंधभक्ति उन में नहीं है लेकिन कांग्रेस के मद्देनजर इस परिवार की जरूरत को वे भी नकार नहीं पाते.

इन्हीं शशि थरूर ने 18 अक्तूबर को एक अमेरिकी टैक कंपनी के दफ्तर के उद्घाटन कार्यक्रम में कहा कि ‘इंडिया’ गठबंधन 2024 के चुनाव में बहुमत ला भी सकता है. ऐसी स्थिति में कांग्रेस की तरफ से बतौर प्रधानमंत्री राहुल गांधी या मल्लिकार्जुन खड़गे नामांकित किए जा सकते हैं. यह एकाएक यों ही दिया गया वक्तव्य नहीं है बल्कि इसे कांग्रेसी रणनीति का एक हिस्सा ही माना जाना चाहिए जो भविष्य को ले कर काफी उत्साहित है और उस की अपनी ठोस वजहें भी हैं.

एक तरह से शशि थरूर ने एक बार फिर से दलित प्रधानमंत्री की सनातनी मांग को उठाया है, साथ ही, राहुल गांधी का नाम विकल्प के रूप में पेश कर दिया है. अगर कांग्रेस 200 से ऊपर सीटें ले गई तो तय है वह राहुल से कम पर तैयार नहीं होगी और 150 से 180 के बीच रही तो खड़गे का नाम आगे कर देगी. इस में कोई शक नहीं कि ‘इंडिया’ गठबंधन के सभी दल राहुल गांधी के नाम पर हाथ नहीं उठा देंगे. ममता बनर्जी इन में प्रमुख हैं क्योंकि क्षेत्रीय दलों में उन के पास लोकसभा की सब से ज्यादा सीटें रहने की उम्मीद है.

अरविंद केजरीवाल और आजकल नाराज चल रहे अखिलेश यादव भी अपने दलों और कांग्रेस की सीटों की संख्या देख सौदेबाजी करेंगे लेकिन यह तय है कि 2024 में इन में से किसी के पास भी कांग्रेस से एकचौथाई सीटें भी नहीं होंगी. नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव और स्टालिन ज्यादा ऐतराज राहुल के नाम पर जताएंगे, ऐसा हालफिलहाल लग नहीं रहा क्योंकि नरेंद्र मोदी का जादू अब उतार पर है. हालांकि हिंदीभाषी प्रदेशों में भाजपा बढ़त पर रहेगी लेकिन यह संख्या कितनी होगी, इस बारे में अभी नहीं कहा जा सकता. 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद तसवीर थोड़ी और साफ होगी. हालात ठीक वैसे या लगभग वैसे भी हो सकते हैं जैसे 1977 में जनता पार्टी के गठन के वक्त थे.

शशि थरूर ने दलित समुदाय के मन में एक उम्मीद तो जताई है कि अगर वे ‘इंडिया’ गठबंधन के पक्ष में वोट करते हैं तो देश को पहला दलित प्रधानमंत्री मिलने की उम्मीद बरकरार है जिस पर 1977 में जनता पार्टी ने पानी फेर दिया था. तब भी विरोध करने वालों में जनसंघ सब से आगे था जो आज भाजपा के नाम से जाना जाता है.

छले गए बाबू जगजीवन राम

बाबूजी के नाम से मशहूर उच्च शिक्षित जगजीवन राम का राजनीति में अपना एक अलग रुतबा हुआ करता था जिन्होंने महात्मा गांधी की प्रेरणा से आजादी की लड़ाई में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया था. देश आजाद होने के बाद वे एक ही सीट सासाराम से लगातार सांसद रहे. लगातार 30 साल कैबिनेट मंत्री रहने का रिकौर्ड आज भी उन के नाम है.

इस दौरान वे उपप्रधानमंत्री और कृषि मंत्री सहित रक्षा मंत्री भी रहे. बिहार के भोजपुर इलाके के इस कद्दावर दलित नेता ने कांग्रेस छोड़ जनता पार्टी का दामन थाम लिया था. वजह थी, आपातकाल के दौरान इंदिरा सरकार की मनमानी लेकिन उन के मन में कुछ और था. यह ‘कुछ और था’ प्रधानमंत्री बनने का सपना साकार करना था जिस के इंदिरा गांधी के रहते पूरा होने की कोई उम्मीद न थी.

70 के दशक में जयप्रकाश नारायण कांग्रेस और इंदिरा गांधी के विरोध में अलगअलग सिद्धांतों और विचारधारा वाले राजनीतिक दलों को एक मंच व निशान के नीचे लाने में कामयाब हो गए थे तब सब का एजेंडा ‘इंदिरा हटाओ’ था. लेकिन, उन की जगह कौन, यह विवाद सामने आया तो जनता पार्टी में रार पड़ गई.

सब से तगड़ी दावेदारी जगजीवन राम की ही थी लेकिन उन्होंने चूंकि इमरजैंसी का प्रस्ताव रखा था, इसलिए उन का विरोध शुरू हो गया जो एक बहाने से ज्यादा कुछ नहीं था. मकसद था एक दलित को देश की सब से ताकतवर कुरसी पर बैठने देने से रोकना. तब इस दौड़ में प्रमुखता से जनसंघ के चहेते मोरारजी देसाई और भारतीय क्रांति दल के चौधरी चरण सिंह थे. सांसदों में जनसंघ घटक के सब से ज्यादा 93 और इस के बाद भारतीय क्रांति दल के 71 सदस्य थे. जगजीवन राम की बनाई कांग्रेस फौर डैमोक्रेसी को 28 सीटें मिली थीं और इतने ही सदस्य सोशलिस्ट पार्टी के थे. इस पार्टी के वरिष्ठ नेता जौर्ज फर्नांडीज और मधु दंडवते जगजीवन राम के पक्ष में थे.

चरण सिंह न तो मोरारजी देसाई को चाहते थे और न ही जगजीवन राम को लेकिन जब इन दोनों में से किसी एक को चुनने का मौका आया तो वे मोरारजी के नाम पर सहमत हो गए. लेकिन यह सब आसान नहीं था. जगजीवन राम ने कांग्रेस छोड़ी ही इस उम्मीद और अघोषित शर्त पर थी कि उन्हें ही प्रधानमंत्री बनाया जाएगा. जनता पार्टी के जनक जयप्रकाश नारायण और जेबी कृपलानी ने जैसेतैसे मानमनौवल कर के जगजीवन राम को सहमत किया और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बन गए.

मोरारजी देसाई अति महत्त्वाकांक्षी और अहंकारी नेता थे जो जवाहरलाल नेहरू  के बाद से ही प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी पेश करते रहे थे लेकिन आज की तरह तब भी कांग्रेस नेहरू-गांधी परिवार के अलावा और उस से ज्यादा कुछ सोच नहीं पाती थी. लालबहादुर शास्त्री की मौत के बाद जब प्रधानमंत्री चुनने की बात चली तब मोरारजी दौड़ में थे लेकिन कांग्रेस और कांग्रेसियों ने उन्हें खारिज कर दिया था जिस के कुछ सालों बाद ही उन्होंने कांग्रेस छोड़ कांग्रेस (ओ) का गठन कर लिया था जिसे गुजरात में रिस्पौंस भी मिला था.

जनता पार्टी ने 1977 का चुनाव प्रधानमंत्री का चेहरा पेश कर नहीं लड़ा था लेकिन जब वह बहुमत में आई तो मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह और जगजीवन राम तीनों प्रधानमंत्री बनने को अड़ गए थे. तीनों ही किसी भी कीमत पर प्रधानमंत्री बनना चाहते थे और एकदूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाते थे. तनातनी और रस्साकशी इतनी बढ़ गई थी कि एक बार तो ऐसा लगने लगा था कि गांव बसने के पहले ही उजड़ने वाला है. थकेहारे जयप्रकाश नारायण ने फैसला इन तीनों के ऊपर ही छोड़ दिया.

शुरुआत में तटस्थ दिख रही जनसंघ ने दलित जगजीवन राम के मुकाबले ब्राह्मण मोरारजी देसाई का पक्ष लिया तो चरण सिंह को बाजी हाथ से निकलती दिखाई दी क्योंकि संख्या बल में वे पिछड़ रहे थे. लिहाजा, उन्होंने भी सवर्ण होने का धर्म निभाते मोरारजी के नाम पर हामी भर दी और विवादों से बचने को बीमारी का बहाना बना कर अस्पताल में भरती हो गए. इस तरह ब्रह्मा का मुख जीत गया और पैर हार गया.

कट्टर हिंदूवादी जनसंघ ने, दिखावे को ही, खुद को इस ?ामेले से दूर ही रखा था. लालकृष्ण आडवाणी का ?ाकाव और लगाव दोनों ही मोरारजी देसाई के प्रति थे. आडवाणी और दूसरे तत्कालीन संघी जानतेसम?ाते थे कि जगजीवन राम आज भले ही कांग्रेस छोड़ आए हों पर उन का दिलोदिमाग धर्मनिरपेक्ष है और वे नेहरू-अंबेडकर का हिंदुत्वविरोधी रास्ता छोड़ेंगे नहीं. ऐसे में उन का प्रधानमंत्री बनना हिंदू के दीर्घकालिक एजेंडे पर पलीता फेरने वाला ही साबित होगा. इस मानसिकता के लोगों में शुमार एक प्रमुख नाम इंडियन एक्सप्रैस के मालिक रामनाथ गोयनका का भी था.

मोरारजी देसाई के नाम का ऐलान करते जेबी कृपलानी ने नाटकीय भावुकता के साथ कहा था कि यह फैसला हम व्यथित मन से ले रहे हैं अगर हमारे पास 2 प्रधानमंत्री चुनने का विकल्प होता तो दूसरा नाम बाबू जगजीवन राम का ही होता. इस फैसले को गुस्साए जगजीवन राम ने सहजता से नहीं स्वीकार लिया था. वे मोरारजी देसाई के शपथ ग्रहण समारोह में ही नहीं गए थे और कहा जाता है कि फैसले को सुनते ही वे फिल्मी स्टाइल में घर के फर्नीचर को लात मारते धोखाधोखा चिल्ला रहे थे.

4 दिनों बाद जब उन का गुस्सा कुछ कम हुआ तो जयप्रकाश नारायण ने उन के घर जा कर उन्हें पुचकारा कि नए भारत के निर्माण में आप का सहयोग जरूरी है तो वे मान गए और रक्षा मंत्रालय लेने को तैयार हो गए. शायद ही नहीं, तय है, अपनी खिसियाहट ढकने के लिए उन्हें भी इस से बेहतर कुछ लगा भी न होगा कि एकलव्य तो एकलव्य ही रहेगा, यही उस की नियति है.

दलित नेता जगजीवन राम

आज भी दलित नेता के रूप में जगजीवन का नाम देश के बड़े नेताओं में लिया जाता है, क्योंकि इस शिखर तक वे ही जन से जुड़ कर पहुंच पाए हैं. कांग्रेस देशभर में यह बताने की कोशिश करती है कि उस में दलित नेता इतनी ऊंची कदकाठी के बने. लेकिन हकीकत यह है कि जगजीवन राम को कांग्रेस ने इसलिए नहीं स्वीकारा कि उन के पिता जूते काटने वाले थे या जगजीवन भी इसी पेशे से जुड़े रहे, बल्कि इसलिए कि वे उस समुदाय में समृद्ध थे. उन के पिता शोभी राम गांव के ‘महंत’ थे. उन की समाज में पहले से ही अच्छीखासी पूछ थी.

बाबू जगजीवन राम का जन्म

5 अप्रैल, 1908 को शोभी राम और वसंती देवी के घर हुआ. बाबू जगजीवन का एक भाई और 3 बहनें थीं. जगजीवन उन सब में सब से छोटे थे. जगजीवन का नाम पहले बुद्धराम रखा गया था लेकिन बाद में उन के पिता ने बदल कर जगजीवन राम रख दिया. यह नाम उन्होंने अपने गुरु शिवनारायणी के बुक टाइटल से लिया था.

जगजीवन के पिता शोभी राम ब्रिटिश राज के दौरान इंडियन आर्मी में थे. लेकिन धार्मिक मतभेदों के चलते उन्होंने आर्मी से इस्तीफा दे दिया था. उस के बाद वे कलकत्ता के मैडिकल कालेज में काम करने लगे. वहां से परमानैंट रिटायरमैंट ले कर वे अपने गांव चांदवा में रहने लगे. रिटायर होने के कुछ समय बाद ही जगजीवन के पिता शिव नारायणी के प्रमुख आध्यात्मिक महंत बन गए, जोकि हिंदू सुधारवादी धड़े का हिस्सा थे.

जगजीवन के पिता आध्यात्मिक थे जो अपने गांव में भक्ति गीत गा कर भगवान की आराधना किया करते थे. उन की आध्यात्म पर लिखी किताबें काफी फेमस थीं. जगजीवन राम को उन की प्रारंभिक शिक्षा के दौरान पंडित कपिल मुनि तिवारी से गाइडैंस मिल रही थी. 1914 में जगजीवन राम के पिता की मृत्यु हो गई. तब वे 6 साल के थे. पिता की मृत्यु के बाद उन की मां, जोकि बेहद धार्मिक महिला थीं, ने उन की पढ़ाई व भक्तिभाव दृष्टिकोण में अहम भूमिका अदा की.

‘फुट प्रिंट औफ डा. बाबू जगजीवन राम इन प्रोग्रैसिव इंडिया’ किताब के लेखक अब्राहम मुतलुरी अपनी किताब में लिखते हैं, ‘जनवरी 1914 में ही जगजीवन गांव के एक लोकल स्कूल में भरती हुए. वह बसंत पंचमी का दिन था. उन्होंने पीले रंग की धोती व सिर पर वेलवेट रंग की कैप पहनी थी. गुड़ का एक टुकड़ा उन के मुंह में था और हाथ में स्लेट थी. भाई के स्कूल जाने की खुशी में, उस दिन उन के बड़े भाई ने गांव के लोगों को चाय पिलाई थी.

‘अपने पिता की छाप, घर का धार्मिक वातावरण और पंडित कपिल मुनि तिवारी की शिक्षा से उन के चरित्र को आकार मिल रहा था. जगजीवन की शादी गांव के बाकी लड़कों की तरह सामान्यतया 8 साल की उम्र में हुई.

‘डा. जगजीवन राम ने आरा के मिडिल स्कूल से पढ़ाई की थी. दलित समाज के इस विद्यार्थी को भी विद्यालय के अंदर छुआछूत और अपमान का सामना करना पड़ा. गैरदलित छात्रों ने घड़े से पानी पीने से उन्हें रोका. उन के लिए अलग घड़े का इंतजाम किया गया. यह दीगर बात कि उन की विद्रोही चेतना ने इसे स्वीकार नहीं किया. 1925 में आरा छात्र सम्मेलन में उन्होंने हिस्सेदारी की और सम्मेलन को संबोधित किया. उन के भाषण का उपस्थित लोगों पर गहरा असर पड़ा. उन लोगों में मदन मोहन मालवीय भी शामिल थे. 1926 में उन्होंने प्रथम श्रेणी में मैट्रिक की परीक्षा पास की.

‘जगजीवन की पहली शादी सोनापुर गांव के मुखलाल की बेटी से हुई, जिस की मौत शादी के 17 साल युवा अवस्था में हुई. उस के बाद जगजीवन की दूसरी शादी डा. बीरबल, जोकि ब्रिटिश आर्मी में अच्छी रैंक में थे और सम्मानित थे, की बेटी इंद्राणी देवी से हुई. इंद्राणी होनहार लड़की थी. उस ने लखनऊ से बीएड किया था. पढ़ाई के दौरान इंद्राणी ने होस्टल में छुआछूत भी ?ोला और जगजीवन से शादी होने के बाद कानपुर में इंद्राणी ने स्कूल में शिक्षिका के रूप में काम किया.’

छुआछूत के शिकार

‘तय यह भी है कि जगजीवन राम का बचपन धार्मिक क्रियाकलापों में बीता. तुलनात्मक रूप से उन्होंने आम दलित जितना कष्ट नहीं ?ोला. यह सब इसलिए क्योंकि उन की शुरुआती परवरिश धार्मिक तौरतरीकों से हुई, उन्हें पढ़ने की उचित व्यवस्था प्राप्त हुई और उन के पिता के ‘महंत’ होने के चलते एक सम्मान बना हुआ था. लेकिन उन्हें याद जरूर रहा होगा कि बीएचयू में पढ़ते हुए क्यों उन के साथ भेदभाव किया जाता था. ऊंची जाति वाले उन के सहपाठी मेस में उन के साथ खाना खाने से भी बचते थे. वहां का नाई उन के बाल नहीं काटता था. याद उन्हें स्कूली दिन भी आए होंगे जहां दलित बच्चों के लिए अलग पानी का घड़ा रखा जाता था. ऐसे कई हादसों के शिकार जगजीवन राम राजनीतिक छुआछूत और भेदभाव से भी बच नहीं पाए.’

अब्राहम अपनी किताब में उन के जीवन में घटे एक अहम हिस्से के बारे में यह लिखते हैं जिस ने उन के जीवन पर गहरा असर छोड़ा, ‘सर्दी का समय था, जगजीवन अपने एक रिश्तेदार के साथ धान लेने के लिए बैलगाड़ी से खोपारी की ओर रवाना हुए. वे बाबू साहबों की कालोनी के आसपास थे. प्रथा के अनुसार, अछूतों को अपनी बैलगाड़ी से उतरना पड़ता था, अपने जूते उतारने पड़ते थे, अपनी छतरियां मोड़नी पड़ती थीं और सिर ?ाका कर गांव से निकलना होता था. अगर वे ऐसा न करें तो उन के साथ दुर्व्यवहार और उन पर हमला होने की संभावना बनी रहती थी.

‘जगजीवन ने इस प्रथा का उल्लंघन करने का फैसला किया. अपने रिश्तेदार से इस तरह की प्रथा को न मानने के लिए मनाया. उस का रिश्तेदार डरने लगा. रिश्तेदार ने जगजीवन से विनती की कि वे ऐसा न करें. लेकिन जगजीवन अपने में अड़े रहे. उस पुरानी व्यवस्था को रौंदने के साथ अपने काम को भी अंजाम दिया.’ कहते हैं इस घटना ने उन के जीवन पर छाप छोड़ी.

वहीं, मंत्री रहते जगजीवन खुद के लिए तो लड़ पाए लेकिन बाकियों के लिए नहीं. जगजीवन राम को पुरी के जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया गया था. तब बड़ी मुश्किल से प्रशासन के सम?ाने पर पंडे इस बात पर राजी हुए थे कि ठीक है, जनप्रतिनिधि होने के नाते हम उन्हें मंदिर में जाने की इजाजत देते हैं लेकिन उन की पत्नी और साथ आए दूसरे दलितों को मंदिर में नहीं जाने देंगे. इस ज्यादती से खिन्न जगजीवन राम ने मंदिर में जाने से मना कर दिया था लेकिन यह उन्हें सम?ा आ गया था कि मनुवाद की जड़ें कितनी गहरी हैं.

दलित नेता की अनदेखी

इधर, जनता सरकार में, सबकुछ क्या, कुछ भी ठीकठाक नहीं था. समाजवादी और जनसंघी एकदूसरे को आंखें दिखाते रहते थे. चंद्रशेखर, नानाजी देशमुख, मधु लिमये और सुब्रमण्यम स्वामी जैसे दर्जनभर जिन दिग्गजों को मंत्रिमंडल में नहीं लिया गया था, सो वे सरकार गिराने का मौका ढूंढ़ते ही रहते थे.

बाद में इस ग्रुप में रायबरेली सीट से इंदिरा गांधी को हराने वाले ड्रामेबाज नेता राजनारायण भी शामिल हो गए थे. मोरारजी सत्ता के नशे में इतने चूर हो गए थे कि उन्होंने जनता कुनबे के कई दिग्गजों के साथसाथ जयप्रकाश नारायण को भी बेइज्जत करना शुरू कर दिया था. वे भूल गए थे कि जो शख्स इंदिरा गांधी का साम्राज्य ढहा सकता है वह उसे बहाल करने की भी कूवत रखता है.

ऐसा हुआ भी. मई 1977 में बिहार के एक गांव बेलछी में ऊंची जाति वाले दबंगों ने दर्जनभर दलितों को बेरहमी से मार डाला था तब जनता सरकार ने तो इस का कोई खास नोटिस नहीं लिया लेकिन डिप्रैशन से उबर रहीं इंदिरा गांधी वहां गईं. भारी बारिश और कीचड़ के चलते उन की कार आधे रास्ते में धंस गई तो वे एक गांव वाले के हाथी पर सवार हो कर गई थीं.

यह फोटो तब देशभर के मीडिया ने प्रमुखता से छापा था. बेलछी के दलितों ने उन्हें हाथोंहाथ लिया था. वापसी में पटना में इंदिरा गांधी जनता कुनबे की अनदेखी के शिकार जयप्रकाश नारायण से मिलीं और घंटेभर उन के साथ गुफ्तगू की. बाहर छन कर एक ही बात आई कि जयप्रकाश नारायण ने उन्हें आशीर्वाद देते कहा है कि तुम्हारी राजनीति अभी खत्म नहीं हुई है.

इस के बाद जो हुआ वह भारतीय राजनीति के इतिहास का दिलचस्प अध्याय है. 3 साल में ही जनता पार्टी की सरकार विसर्जित हो गई. इस में इंदिरा गांधी और उन के उद्दंड बेटे संजय गांधी का अहम रोल रहा जिन्होंने चरण सिंह को समर्थन दे कर पहले मोरारजी देसाई की छुट्टी करवाई और फिर कुछ दिनों बाद उन्हें भी चलता कर दिया.

जगजीवन राम इस पिक्चर में यहां फिट बैठते हैं कि उन का पत्ता पहले ही संजय गांधी की पत्नी मेनका गांधी साफ कर चुकी थीं जो उन दिनों सूर्या नाम की मैगजीन का संपादन करती थीं. उन्हीं दिनों जगजीवन राम के बेटे सुरेश कुमार के कुछ नग्न फोटो चर्चा में थे जिन में वे एक कालेज गर्ल के साथ नग्न और आपत्तिजनक अवस्था में नजर आ रहे थे.

यह ज्ञात राजनीतिक इतिहास का पहला सब से बड़ा सनसनीखेज सैक्स स्कैंडल था. ये फोटो कहीं न छापें, इस बाबत जगजीवन राम ने कई संपादकों व पत्रकारों के पांवों में अपनी टोपी रख दी थी लेकिन मेनका गांधी ने ये फोटो छाप कर सास और पति का पुराना हिसाब चुकता कर लिया था.

ये फोटो बड़े सनसनीखेज तरीके से राजनारायण के हाथ लगे थे और संजय गांधी की चौकड़ी जिस में इन दिनों मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा के शिवराज सिंह के खिलाफ ताल ठोक रहे कमलनाथ का रोल अहम था जो इंदिरा गांधी के मैसेज यहांवहां पहुंचाया करते थे.

1980 में कांग्रेस ने शानदार वापसी की. यह चुनाव जनता पार्टी ने जगजीवन राम को प्रधानमंत्री पेश कर ही लड़ा था लेकिन जनता ने उन्हें नकार दिया. फिर धीरेधीरे जनता पार्टी खत्म हो गई. इस के साथ ही खत्म हो गई दलित प्रधानमंत्री की मांग जो बाद में रस्मी तौर पर छिटपुट उठती रही.

अब यह हो सकता है

2024 को ले कर भाजपा पिछली बार की तरह निश्ंिचत नहीं है. इस की बड़ी वजह प्रमुख विपक्षी दलों का लगभग जनता पार्टी की तरह एक हो जाना और ‘जितनी जिस की आबादी उतनी उस की भागीदारी’ वाला नारा लगाना, जो कभी बसपा के संस्थापक कांशीराम ने दिया था. अब सभी की प्राथमिकता आधी आबादी वाले पिछड़े हैं लेकिन 20 फीसदी वाले दलितों को भी कोई नजरअंदाज करने की स्थिति में नहीं है जिन का साथ 16 फीसदी मुसलमान और 9 फीसदी आदिवासी भी दे सकते हैं.

अगली लड़ाई अगर धर्म यानी सनातन बनाम जाति हुई, जिस की संभावना ज्यादा है तो भाजपा को सब से ज्यादा नुकसान होना तय है. इसलिए वह जातिगत जनगणना से कतरा रही है. ‘इंडिया’ गठबंधन 15 बनाम 85 के फार्मूले पर काम कर रहा है. 15 फीसदी सवर्णों के अलावा कितने फीसदी पिछड़े-दलित उस का साथ देंगे, इसी समीकरण पर 2024 का फैसला होगा.

दक्षिण भारत से तो भाजपा खारिज हो ही रही है लेकिन पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, ओडिशा में नवीन पटनायक, ?ारखंड में हेमंत सोरेन और दिल्ली-पंजाब में अरविंद केजरीवाल के चलते उसे कुछ खास हाथ नहीं लगना. लोकसभा सीटों के हिसाब से देखें तो कोई 280 सीटों पर वह कमजोर है लेकिन लगभग इतने पर ही गठबंधन दलों के साथ मजबूत भी है.

मल्लिकार्जुन खड़गे पर दांव

शशि थरूर का बयान ऐसे वक्त में आया है जब चुनाव वाले 5 राज्यों में मिजोरम को छोड़ कर दलित एक बड़ा फैक्टर है जो अगर हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक की तरह कांग्रेस की तरफ ?ाक गए तो अगली लोकसभा के नतीजे भी हैरान कर देने वाले होंगे जैसा कि थरूर अपने बयान में जोड़ते हैं.

यह कहना बहुत मुश्किल है कि ‘इंडिया’ गठबंधन अपने मकसद में कामयाब हो ही जाएगा. उस की राह में भी कम रोड़े और कम चरण सिंह व मोरारजी देसाई नहीं. इस के बाद भी गठबंधन की गंभीरता और मजबूरी को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. अगर उस का मकसद वाकई भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति को खत्म करना होगा तो त्याग कइयों को करना पड़ेगा.

मुद्दे ने अगर तूल पकड़ा और दलित समुदाय एकजुट हो गया तो त्याग भगवा खेमे को भी करना पड़ सकता है. नरेंद्र मोदी की बढ़ती अस्वीकार्यता और गिरती साख से बचने वह बसपा प्रमुख मायावती को बतौर प्रधानमंत्री पेश भी कर सकता है. यह दूर की कौड़ी नहीं है क्योंकि अरसे से मायावती भाजपा के सुर में सुर मिला रही हैं और भाजपा का उन के प्रति सौफ्ट कौर्नर भी किसी से छिपा नहीं है. वैसे भी, यह ब्राह्मणों की पुरानी आदत रही है कि वे धर्म से होने वाली कमाई को बनाए रखने के लिए दलितपिछड़ों को मोहरा बना लेते हैं. जैसे भाजपा सरकार ने कर्नाटक चुनाव से पहले कांग्रेसी दलित वोटरों को लुभाने के मकसद से जगजीवन राम पर फिल्म बनाने की बात कही लेकिन वह फिल्म पिछले 5 साल में कहां है, इस पर कोई जवाब नहीं.

अब कभी मायावती मनुवाद का विरोध नहीं करतीं और न ही राममंदिर निर्माण में फुंक रहा अरबों रुपया उन्हें फूजूलखर्ची लगता है. वे खुद मूर्तियों की राजनीति की आदी हो गई हैं. नया कोई भी समीकरण हिंदीभाषी राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ चुनाव के नतीजों पर भी निर्भर करेगा. अगर इन राज्यों में कांग्रेस 2018 का प्रदर्शन दोहरा पाती है तो स्पष्ट हो जाएगा कि दलितों ने उस पर भरोसा जताया है.भाजपा राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को भी इस पद की पेशकश कर सकती है जिस से दलितआदिवासी दोनों समुदायों के वोटों की घेराबंदी की जा सके.

तिरुअनंतपुरम से शशि थरूर ने 2 ही विकल्प दिए हैं. तीसरे को गिना ही नहीं तो इस के पीछे उन का संदेश साफ दिख रहा है कि मिशन तभी कामयाब होगा जब सभी घटक दल कांग्रेस को बौस मान लें. राष्ट्रीय दल होने के नाते वह इस की हकदार भी है और सीटों की गिनती में भी स्वाभाविक रूप से अव्वल रहेगी.

दलित प्रधानमंत्री का मुद्दा उछालना, हालांकि, पुराना शिगूफा है जिस में इकलौता फायदा यह है कि भाजपा के पास कोई राष्ट्रीय स्तर का दलित नेता ही नहीं, छोटेमोटे दलित दल उस ने ओला-उबर टैक्सीसेवाओं की तरह हायर कर रखे हैं. यह काम बड़ी पार्टियां करती रही हैं.

ऐसे में मल्लिकार्जुन खड़गे के नाम पर बात अगर बनती दिखती है तो इस में कांग्रेस को कोई घाटा भी नहीं है क्योंकि राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनना ही चाहेंगे, यह भी अभी स्पष्ट नहीं है. मुमकिन है वे एक बार फिर परदे के पीछे से सरकार चलाना पसंद करें ठीक वैसे ही जैसे 2003 से 2013 तक चलाई थी. दूसरा कांग्रेस को मल्लिकार्जुन खड़गे से समस्या भी नहीं होगी. लेकिन इस के लिए जरूरी है कि गठबंधन का हश्र जनता पार्टी सरीखा न हो. वह सफल हो भी सकता है क्योंकि उस के कुनबे में कोई जनसंघ या मोरारजी देसाई नहीं है जो दलितों के नाम पर नाक को रूमाल से ढक ले.

लड़की के सर्वाइवल की कहानी अपूर्वा

यह फिल्म एक लड़की की कहानी है जो चारचार रेपिस्टों से अकेली भिड़ जाती है और उन का काम तमाम कर देती है. फिल्म को क्रिकेट खिलाड़ी विराट कोहली की पत्नी एक्ट्रैस अनुष्का शर्मा ने बनाया है, अनुष्का ने अपनी पहली फिल्म ‘एनएच 10’ बनाई थी.

फिल्म ‘एनएच 10’ में नायिका फिल्म दर्शकों को यह सिखा गई थी कि किसी को इतना मत डराओ कि उस के अंदर का खौफ ही खत्म हो जाए. जब किसी के अंदर का डर खत्म हो जाता है तो उस के पास लड़ने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता और वह अपने से कई गुना ताकतवर प्राणी से भी भिड़ जाता है.

इस फिल्म ‘अपूर्वा’ की नायिका अपूर्वा (तारा सुतारिया) के साथ भी कुछ ऐसा ही घटा है. चारचार रेपिस्टों ने उसे इतना डराया कि वह अकेली होते हुए भी उन चारों से भिड़ गई. यहां अपूर्वा की हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी.

साल 2012 में निर्भया रेपिस्ट कांड ने पूरे भारत वर्ष को हिला कर रख दिया था. इस कांड के चारों रेपिस्टों को सजा दे दी गई थी. यह घटना सभी को यह बताती है कि युवतियों को कमजोर नहीं पड़ना चाहिए. अपनी रक्षा खुद करनी आनी चाहिए. होश में रह कर गुंडों और रेपिस्टों से दोदो हाथ करने वाली युवतियां मुसीबतों से निपट ही लेती हैं.

यह फिल्म मर्दवादी और सामंती सोच को सामना करना सिखाती है. फिल्म एनएच 10 सरीखी ही है. एक अकेली लड़की का गुंडों के बीच फंसना, किसी की मदद न मिलना और उस लड़की का हिम्मत करके उन गुंडों से भिड़ जाना फिल्म में तनाव पैदा करता है. फिल्म यह संदेश देने में सफल है कि आड़े वक्त में होश नहीं खोना चाहिए.

फिल्म की लंबाई बहुत कम है डेढ़ घंटा. इस डेढ़ घंटे में दर्शक खुद को बंधा सा महसूस करते हैं. फिल्म की कहानी 14 साल पहले लिखी गई थी. कहानी इतनी सी है कि शादी तय हो जाने के बाद अपूर्वा अपने प्रेमी के शहर जा कर उस के जन्मदिन पर उसे सरप्राइज देना चाहती है लेकिन रास्ते में ही उस का अपहरण हो जाता है. एक पूरी रात वह इन खूनी हमलावरों से बचने की कोशिशें करती है. इसी पर पूरी फिल्म बनी है.

फिल्म शुरू होती है चंबल, मध्य प्रदेश से. यह एक समय में डाकुओं का गढ़ था. फिल्म में 4 मौडर्न डाकू हैं. इन के नाम भी सुक्खा, छोटा, जुगनू हैं. ये लोग पैसे ले कर लूट मचाते हैं और अपना दिल बहलाने के लिए मर्डर. राजपाल यादव, अभिषेक बनर्जी, सुमित गुलाटी और आदित्य गुप्ता ने इन गुंडों का रोल किया है.

एक तरफ ये लोग बड़े फिगर जैसे दिखना चाहते हैं. किसी की जान ले ली, किसी को बख्श दिया, खुद सामने वाले के भगवान हो गए. ऐसे रफ एंड टफ दिखने वाले लोगों का चरित्र खोखली मर्दानगी पर गढ़ा गया है. कैसे कद पर कमैंट किया, मर्दानगी को लिंग से जोड़ कर देखा, इन बातों पर ट्रिगर हो जाते हैं.

फिल्म में उन चारों के घिनौनेपन की पीछे की जड़ यही खोखली मर्दानगी है. वे बिना सोचेसम झे फैसले लेते हैं. फिल्म इसी मर्दानगी वाले पार्ट पर कमैंट तो करती है पर उस की गहराई में ठीक से नहीं उतर पाती. फिल्म की लैंथ छोटी है और शुरुआती 15-20 मिनट के अंदर ही अपनी बात कहने लगती है.

कम लैंथ वाली फिल्म के साथ यही खामी होती है कि जितनी डैप्थ में जा कर यह अपनी बात कह सकती थी वह कह नहीं पाती. किरदारों के साथ कनैक्शन बन नहीं पाता. जैसे, अपूर्वा एक लड़के से मिली, एक गाना आया और दोनों की सगाई तक हो गई.

पटकथा लेखक ने बहुत ही छोटी कहानी पर अपनी सारी सिनेमाई सीख का इस्तेमाल की है, लेकिन इतनी जल्दी भी चीजें नहीं निपटानी होती हैं. यह पटकथा संवादों के जरिए दर्शकों के मन में डर पैदा करती रहती है.

निखिल का निर्देशन अच्छा है. उस ने कैमरे का संचालन दृश्यप्रकाश संयोजन की अच्छी परिकल्पना की है. फिल्म में राजपाल यादव ने बढि़या काम किया है. अब तक वह कार्टून टाइप का कौमेडी कलाकार के रोल ही किया करता था. इस फिल्म में उस ने खूंखार और क्रूर लुटेरों के गैंग लीडर का किरदार निभाया है.

राजपाल यादव के लिए यहीं से एक नई पारी शुरू हो सकती है. तारा सुतारिया ने इस बार पूरा मन लगा कर काम किया है. उस ने ‘स्टूडैंट औफ द ईयर’ वाली अपनी इमेज को बदलने की अच्छी कोशिश की है. इस से पहले वह हीरो की हीरोइन होती आई थी, जो ग्लैमरस है. लेकिन इस फिल्म में उस ने खुद को चैलेंज किया है. अपहरण के बाद रात में 4 खूंखार दरिंदों से बचने की कोशिशों के दौरान भी उस का अभिनय अच्छा है. अभिषेक बनर्जी इस फिल्म की सब से कमजोर कड़ी है.

फिल्म का संगीत कमजोर है. ऐसी फिल्मों में कम से कम एक ऐसा गाना जरूर होना चाहिए जो दहशत के माहौल को बदल ले. गांवदेहात के युवायुवतियों के साथ किए जाने वाले अपराधों के वीडियो बना कर वायरल होते रहते हैं. संदेश यह है कि हालात कैसे भी हों युवतियों को अपना हौसला नहीं खोना चाहिए.

मेरा बेटा मुझसे बेवजह बहस करता रहता है, कोई उपाय बताइए जिससे वो अच्छे से बात करें ?

सवाल 

मेरा बेटा 8वीं क्लास में पढ़ता है. आजकल पता नहीं क्यों कहना बिलकुल नहीं मानता. चिड़चिड़ा सा रहता है. उस में आए अचानक इस बदलाव से हम परेशान हैं. आप ही कुछ राय दें.

जवाब

बेटा आप का बड़ा हो रहा है और आप शायद हो सकता है उसे वैसे ही डील कर रहे हैं जैसे बचपन से करते आए हैं जैसा कि आप बेटे के बारे में बता रहे हैं तो ऐसा लगता है वह किसी फिजिकल या मैंटल परेशानी के कारण चिड़चिड़ा हो रहा है. कई बार बच्चे जब बड़े होने लगते हैं, अपनी फीलिंग्स मातापिता को बताने में  िझ झकने लगते हैं. ऐसे में बच्चे को अपने कौन्फिडैंस में लाएं और उस की परेशानी जानने की कोशिश करें.

घर में आप किसी के आगे उस के बदले व्यवहार की बात न करें. न ही गुस्सा करें. जिस तरह हमें अपने ऊपर किसी का चिल्लाना पसंद नहीं होता वैसे ही बच्चों को भी यह अच्छा नहीं लगता. बेहतर होगा कि खुद पर कंट्रोल रखें और बच्चे को अलग से ले जा कर बात करें.

याद करने की कोशिश कीजिए कि उस में यह बदलाव कब आना शुरू हुआ, कोई घटना विशेष हुई हो. जिन से वह जुड़ा हो, उन्हें बहुत प्यार करता हो, फिजिकली कुछ चेंज देख रहे हैं तो डाक्टर से मदद लें.

देखिए बच्चे के साथ रिश्ता बेहतर करने के लिए उस के साथ वक्त गुजारना जरूरी है. रिश्ता अच्छा होगा तो बेवजह की जिद और बहस में कमी अपनेआप आ जाएगी.

लंग्स को सुरक्षित रखने के उपाय

फेफड़े हमारे शरीर में औक्सीजन का संचार करते हैं. ये खून को शुद्ध करते हैं और सांस को फिल्टर करते हैं. यदि किसी व्यक्ति के फेफड़े में वायरस, बैक्टीरिया या फंगस विकसित हो जाएं तो फेफड़े संक्रमित हो जाते हैं. फेफड़े जिन छोटीछोटी थैलीनुमा संरचनाओं से मिल कर बने होते हैं उन में संक्रमण के चलते मवाद जमा होने लगता है. इस से सूजन होने लगती है और सांस लेने में दिक्कत होती है. इसे ही लंग इन्फैक्शन कहते हैं. इस की वजह से निमोनिया हो जाता है. जब यह संक्रमण बड़े क्षेत्र में फैल जाता है तो यह ब्रोंकाइटिस नामक बीमारी में बदल जाता है. फेफड़े की बीमारी पर शुरू में ही ध्यान दिए जाने की जरूरत होती है वरना यह बीमारी टीबी यानी ट्यूबरक्लोसिस भी बन सकती है.

फेफड़े की बीमारी आजकल बहुत तेजी से बढ़ रही है. प्रदूषण, धूम्रपान, नजला आदि के कारण फेफड़ों की बीमारी बहुत आम होती जा रही है. पहले सिर्फ हार्ट अटैक के बारे में सुनाई देता था लेकिन अब फेफड़ों के अटैक की खबर भी खूब सुनाई देने लगी है, जो लोगों की असमय मौत का दूसरा बड़ा कारण बन रहा है.

क्रोनिक औब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) के मरीजों में फेफड़ों का अटैक पड़ने की संभावना बहुत अधिक होती है. सीओपीडी फेफड़ों की एक बीमारी है जो फेफड़ों में हवा के प्रवाह को रोकती है. इस बीमारी में फेफड़ों में सूजन आ जाती है. इस के परिणामस्वरूप व्यक्ति को सांस लेने में दिक्कत, अतिरिक्त म्यूकस बनना, खांसी और अन्य समस्याएं होती हैं. करीब 20 वर्षों पहले तक सीओपीडी को विदेशी डाक्टर्स धूम्रपान से होने वाली बीमारी मानते थे लेकिन मौजूदा समय में यह बीमारी उन लोगों में भी देखी जा रही है जो धूम्रपान नहीं करते.

लकड़ी और कंडे की आग पर खाना बनाने वाली महिलाओं में यह बीमारी देखी गई है. वहीं कांच और पत्थर का काम करने वाले मजदूरों में, संगमरमर की घिसाई करने वाले कारीगरों में, कार मेकैनिक जो कार आदि की पेंटिंग का काम करते हैं, आदि सभी में फेफड़ों से जुड़ी क्रोनिक बीमारियां देखी जा रही हैं. यातायात पुलिस के वे कौंस्टेबल्स जो बड़े चौराहों पर दिनभर ट्रैफिक नियंत्रण का कार्य करते हैं, अकसर फेफड़े के रोग से ग्रस्त हो जाते हैं.

लंग अटैक की समस्या फेफड़ों से जुड़ी गंभीर बीमारियों के कारण होती है. लंग अटैक की समस्या होने पर मरीजों में ये लक्षण प्रमुखता से देखे जाते हैं-

  • अत्यधिक खांसी विशेषकर बलगम के साथ.
  • सांस लेने में कठिनाई.
  • हलके व्यायाम या शारीरिक गतिविधि करते समय सांस की दिक्कत.
  • घरघराहट.
  • चलने में समस्या.
  • हर समय अधिक थका हुआ महसूस करना.
  • बलगम में खून का आना.
  • टखनों और पैरों में सूजन.
  • अचानक वजन घटना या बढ़ना.
  • बेचैनी, भ्रम, विस्मृति, बोलने में गड़बड़ी और चिड़चिड़ापन.
  • बारबार सिरदर्द और चक्कर आना.
  • बुखार, विशेष रूप से सर्दी या फ्लू के लक्षणों के साथ.

कोरोना महामारी का सब से ज्यादा असर लोगों के फेफड़ों पर ही हुआ है. इस महामारी से उबरने के बाद भी यह महसूस किया जा रहा है कि मौसम बदलने पर होने वाला नजलाजुकाम ठीक होने में बहुत लंबा वक्त ले रहा है. फेफड़ों में इन्फैक्शन के मुख्य कारण 2 हैं- वायरस और बैक्टीरिया.

जब हम सांस लेते हैं तो ये रोगाणु सांस के साथ हमारे फेफड़ों में पहुंच जाते हैं और वहां हवा की छोटीछोटी थैलियों में जमा हो जाते हैं. इस के बाद इन की संख्या बढ़ने लगती है और फिर ये संक्रमण पैदा करते हैं. यदि समय पर उपचार न किया तो गंभीर बीमारियां हमें घेर लेती हैं.

शरीर के सभी अंगों की तरह फेफड़ों का भी पूरा खयाल रखना चाहिए. अगर फेफड़े स्वस्थ नहीं हैं तो वे औक्सीजन का अवशोषण कर शरीर के सभी अंगों को पहुंचाने में सक्षम नहीं होते. फेफड़ों के अस्वस्थ रहने से सेहत पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. इस से कई बीमारियां दस्तक देती हैं. खासकर, सर्दी के दिनों में हवा की गुणवत्ता खराब रहने की वजह से सांस संबंधी बीमारियां, जैसे अस्थमा, एलर्जी, ब्रोंकाइटिस और स्ट्रोक आदि का खतरा बढ़ जाता है.

इस मौसम में वायु प्रदूषण से फेफड़े और दिल को अधिक नुकसान पहुंचता है. इस के लिए फेफड़ों का स्वस्थ रहना बेहद जरूरी है. अगर आप भी फेफड़ों को स्वस्थ रखना चाहते हैं तो आज से ही इन आसान टिप्स को जरूर फौलो करें.

ऐसे रखें फेफड़ों का खयाल

मास्क : प्रदूषित वायु को शरीर में जाने से रोकने के लिए घर से बाहर निकलने पर मास्क का प्रयोग करें. एक अच्छा मास्क 2.5 माइक्रोन से छोटे कणों को भी शरीर में प्रवेश करने से रोक सकता है.

नाक में तेल लगाएं : इस को नस्य कर्म भी कहते हैं. गंदगी, धूल के कण, रोगाणु आदि फेफड़े तक न पहुचें, इस के लिए नित सुबह मुंह धोने के बाद एक एक बूंद सरसों का तेल अपने दोनों नथुनों में लगाएं. इसे प्रदूषित कण नाक में ही चिपके रहते हैं, श्वसन तंत्र तक नहीं पहुंच पाते हैं.

जलनेति : इस के अंतर्गत एक टोंटी लगे लोटे में हलके गुनगुने पानी को नाक के एक नथुने से खींच कर दूसरे नथुने से या मुंह से निकालते हैं. ऐसा करने से नाक एवं श्वास पथ की सफाई हो जाती है और यदि कोई वायरस-बैक्टीरिया वहां है तो वह बाहर निकल जाता है. जलनेति सावधानी से करें.

गरम पानी की भाप लें : एक पतीले में पानी गरम कर के उस के ऊपर चेहरा रख कर और सिर को तौलिए से ढांक कर कुछ देर गरम भाप को नाक के जरिए धीरेधीरे खींचें और निकालें. इस से जब गरम हवा फेफड़ों में जाएगी तो वहां जमा सारा बलगम और गंदगी पिघल कर बाहर की ओर आ जाएगा. इस बलगम को खंखार कर अथवा नाक से छिनक कर बाहर निकाल दीजिए और नाक को साफ सूती कपड़े से अच्छी तरह साफ कर लीजिए.

पानी का छिड़काव करें : अगर आप के घर में या घर के आसपास कच्ची जमीन है जहां धूल उड़ती है तो वहां सुबहशाम पानी का छिड़काव करें ताकि धूल के कण सांस के साथ अंदर न जाएं और बीमारी न पैदा करें.

काढ़ा पिएं : पुराने जमाने से ही सर्दीखांसी में काढ़ा पीने का चलन रहा है. काढ़ा फेफड़े में जमा बलगम और गंदगी आसानी से पिघला कर बाहर निकाल देते हैं. हलदी, तुलसी, अदरक, दालचीनी, कालीमिर्च, इलायची को पानी में उबाल कर उस में गुड़ डाल कर पीना नजला-खांसी के लिए अच्छा होता है. कुछ लोग दूध में खजूर, छोटी पीपली, मुनक्का और सोंठ उबाल कर भी पीते हैं जो फेफड़ों को लाभ पहुंचाता है.

परहेज : ठंड में या रात के समय चावल, दही, कढ़ी, गोभी, मटर, उड़द की दाल, आइसक्रीम जैसी ठंडी चीजों से परहेज करना चाहिए. हरी सब्जी, मूंग और मसूर की दाल, बाजरा, ज्वार जैसे गरम तासीर की चीजें खाने में शामिल करें.

कुम्भक : फेफड़ों में पूरी सांस भर कर कुछ देर उसे रोकें और फिर धीरेधीरे सांस छोड़ें. यह अभ्यास सुबहशाम करने से फेफड़े मजबूत होते हैं और पूरे शरीर को अच्छी औक्सीजन प्राप्त होती है. यदि आसपास हरियाली हो तो वहां जा कर इस क्रिया को करना फेफड़ों के लिए ज्यादा अच्छा होता है क्योंकि पेड़पौधे के पास औक्सीजन की अच्छी मात्रा होती है.

व्यायाम करें : नियमित रूप से व्यायाम करना भी बेहद जरूरी है. व्यायाम करने से न केवल सांस प्रणाली मजबूत होती है बल्कि इस से लंग्स पर सकारात्मक प्रभाव भी पड़ता है.

खाने का खयाल रखें : ऐक्सरसाइज के साथसाथ व्यक्ति को अपने खाने का खयाल रखना भी जरूरी होता है. अपने फेफड़ों को मजबूत रखना है तो आप अपनी डाइट में उन चीजों को जोड़ें जिन के अंदर भरपूर मात्रा में विटामिंस, मिनरल्स और एंटीऔक्सीडैंट मौजूद हों. इस के साथ ही भरपूर मात्रा में पानी का सेवन भी करना चाहिए. आमतौर पर व्यक्ति को 8 से 11 गिलास पानी का सेवन प्रतिदिन करना चाहिए, ऐसा करना सेहत के लिए फायदेमंद साबित होता है.

धूम्रपान से दूर हों : व्यक्ति को धूम्रपान से बचना चाहिए. धूम्रपान, तंबाकू आदि के सेवन से फेफड़ों को बहुत ज्यादा नुकसान होता है. धुएं के कण फेफड़ों में जमा होने से फेफड़े काले पड़ जाते हैं. यह कैंसर का कारण भी बनता है.

एयरफिल्टर का प्रयोग रहें : महानगरों में वाहनों के अत्यधिक इस्तेमाल से वायु प्रदूषण का स्तर खतरनाक बिंदु से भी ऊपर रहता है. दिल्ली को दुनिया के सब से प्रदूषित शहरों में सब से पहले स्थान पर रखा जाता है. ऐसे में कई मल्टीनैशनल कंपनियां अपने औफिसेज में एयरफिल्टर का इस्तेमाल करती हैं. अब तो लोग घर की वायु को स्वच्छ बनाने के लिए घरों में भी एयरफिल्टर लगवा रहे हैं. इस से इनडोर वायु की गुणवत्ता में अच्छा सुधार होता है.

सब से अधिक रैस्पिरेटरी इन्फैक्शन के मामलों वाले राज्य

(2021) (प्रति 10 लाख)

राज्य – मामले

राजस्थान – 3.65

बंगाल – 2.21

आंध्र प्रदेश – 1.9

कर्नाटक – 1.47

उत्तर प्रदेश – 1.21

ओडिशा – 1.14

तमिलनाडु – 0.9

गुजरात – 0.6

हिमाचल प्रदेश – 0.59

तेलंगाना – 0.57

2020 में प्रकाशित डब्लूएचओ के आंकड़ों के अनुसार भारत में 879,732 लोगों की मौत लंग्स की बीमारियों के चलते हुई जो कि कुल मौत का 10.38 प्रतिशत है. भारत इस मामले में दुनिया में तीसरे नंबर पर है.

शुक्रिया श्वेता दी : क्या हुआ था अंकिता और श्वेता के बीच ?

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उपलब्धि : नौकरानी और मालकिन की अद्भुत कहानी

इतवार को सोचा था पर मेहमान आ गए तो उन्हीं में व्यस्त होना पड़ा. आज भी छुट्टी है और नाश्ता भी पकौडि़यों का भरपेट हो चुका है. खाना आराम से बनेगा. रसोई का हर कोना उस ने रगड़रगड़ कर अच्छी तरह चमकाया. फिर रैकों पर साफ अखबार, प्लास्टिक बिछाए.

अंदर जब कुछ सर्दी लगने लगी थी तो सोचा थोड़ी देर धूप में बैठ कर अखबार पढ़ लूं फिर खाने का काम शुरू होगा. तब तक रसोईघर भी सूख जाएगा.

अखबार ले कर शीला छत पर अभी आई ही थी कि पति विनोद की आवाज सुनाई दी, ‘‘अरे भई, कहां हो? आज खाना नहीं बनेगा क्या?’’ यह कहते हुए वह भी छत पर आ गए.

‘‘अभी तो भरपेट नाश्ता हुआ है सब का. आप ने भी तो किया है.’’

‘‘शीला, जानती हो मैं नाश्ता नहीं करता हूं. बच्चों का मन रखने के लिए 2-4 पकौडि़यां ले ली थीं. मुझे तो हर रोज 10 बजे खाने की आदत है. फिर भी बहस किए जा रही हो.’’

‘‘क्यों? आप इतवार को सब के साथ देर से खाना नहीं खाते हैं?’’

‘‘पर आज इतवार नहीं है. अब नहीं बना है तो और बात है. मुझे तो पहले ही पता है कि आजकल तुम्हारी हर काम को टालने की आदत हो गई है. अब यह समय अखबार पढ़ने का है या घर के काम का. दूसरी औरतों को देखा है, नौकरी भी करती हैं और घर भी कितनी कुशलता से संभालती हैं. यहां तो बच्चे भी बड़े हो गए हैं, काम करने को नौकरानी है फिर भी हर काम देरी से होता है.’’

विनोद के ऊंचे होते स्वर के साथ शीला का मूड बिगड़ता चला गया.

शीला अखबार वहीं पटक कर नीचे रसोईघर में गई. उबले आलू रखे थे वे छौंक दिए और फटाफट आटा गूंध कर परांठे बना दिए. पर खाना देख कर विनोद का पारा और चढ़ गया.

‘‘यह क्या? सिर्फ सब्जी, परांठे. तुम जानती ही हो कि लंच के समय मैं पूरी खुराक लेता हूं. जब नाश्ता बंद कर दिया है तो खाना तो कम से कम ढंग का होना चाहिए. पता नहीं तुम्हें क्या हो गया है. सारे ऊलजलूल कामों के लिए तुम्हारे पास समय है, बस, मेरे लिए नहीं.’’

गुस्से में विनोद ने थाली सरका दी थी. शीला का मन हुआ कि वह भी फट पडे़. एक तो दिन भर काम में जुटे रहो उस पर फटकार भी सुनो.  आखिर कुसूर क्या था, रसोई की सफाई ही तो की थी. चाय, नाश्ता, खाना, घर की संभाल, बच्चों की देखरेख में उस ने जिंदगी गुजार दी पर किसी को संतोष नहीं. बच्चों को लगता है मां आधुनिक, स्मार्ट नहीं हैं जैसी औरों की मम्मी हैं. विनोद को तो अब नौकरीपेशा औरतें अच्छी लगने लगी हैं. चार पैसे जो कमा कर लाती हैं. घरगृहस्थी संभा-लने वाली तो इन की नजरों में गंवार ही हैं.

विनोद तो बाहर निकल गए थे पर शीला ने बेमन से पूरा खाना बनाया. शुभा भी तब तक सहेली के घर से आ गई थी, और शुभम कोच्ंिग से. दोनों को खाना खिला कर वह अपने कमरे में आ गई.

और दिन तो शीला काम पूरा करने के बाद टीवी देखती, अधबुना स्वेटर पूरा करती या कोई पत्रिका पढ़ती पर आज कुछ भी करने का मन नहीं था. विनोद का यह बेरुखी भरा व्यवहार वह पिछले कई दिनों से देख रही थी. आखिर कहां गलत हो गई वह. क्या इन घरेलू कामों की कोई अहमियत नहीं है? अगर बाहर नौकरी करती होती तो क्या तभी तक शख्सियत थी उस की?

शादी हुए 18 साल हो गए. जब शादी हुई थी उसी साल एम.ए. फर्स्ट डिवीजन में पास किया था. चाहती तो तभी नौकरी कर सकती थी. इच्छा भी थी पर उस समय तो ससुराल वालों को नौकरी करती हुई बहू पसंद नहीं थी.

विनोद भी तब यही कहते थे कि बच्चों को अच्छे संस्कार दो, उन की पढ़ाई में मदद करो, घर संभाल लो, यही बहुत है मेरे लिए.

उस ने सबकुछ तो उन्हीं की इच्छानुसार किया था. देवर की शादी हो गई, देवरानी आ गई तब भी सासससुर उसी के पास रहे.

‘‘बड़ी बहू हम लोगों का जितना ध्यान रखती है छोटी नहीं रख पाती,’’ मांजी तो अकसर कह देती थीं.

बच्चों को संभालना, बूढ़े सासससुर की सेवा करना, घरगृहस्थी देखना, सबकुछ तो कुशलता से निभाया था उस ने. फिर ससुरजी की मौत के बाद यह सोच कर मांजी का खयाल वह और भी रखने लगी थी कि कहीं इन्हें अकेलापन महसूस न हो.

पर अब क्या हो गया? ठीक है, बच्चे अब बड़े हो गए हैं. उन्हें अब उस की उतनी जरूरत नहीं रही है. मांजी ने भी अपनेआप को सत्संग, भजन, पूजन में व्यस्त कर लिया है. विनोद का प्रमोशन हुआ है तब से उन की भी जिम्मेदारियां बढ़ गई हैं. मकान का लोन लिया है तो खर्चे भी बढ़ गए हैं. बच्चों की भारी पढ़ाई है फिर शुभा की शादी भी 4-5 साल में करनी है. शायद इसी बात को ले कर विनोद को अब नौकरीपेशा औरतें अच्छी लगने लगी हैं. पर क्या देखते नहीं कि उस की भी तो व्यस्तता बढ़ गई है. सुबह 6 बजे से काम की जो दिनचर्या शुरू होती है तो रात को ही सिमटती है. फिर उन्हें ऐसा क्यों लगता है कि वह फालतू है?

घर के सारे काम क्या अपनेआप हो जाते होंगे, और तो और शुभा जब से बाहर होस्टल में गई है और शुभम की कोचिंग शुरू हुई है, बाजार के भी सारे काम उसे ही करने पड़ रहे हैं. पर नहीं, सब को यही लगता है कि वह फालतू है. सब को उस से शिकायतें ही शिकायतें हैं. और तो और मांजी पहली बार 10-15 दिन को देवर के पास गईं तो वह भी जाते समय कहने में नहीं चूकीं, ‘‘बहू, तुम मेरी देखभाल करतेकरते थक जाती हो तो सोचा कि छोटी के पास कुछ दिन रह लूं.’’

अनमनी सी शीला फिर बाहर बरामदे में पड़े मूढ़े पर आ कर बैठ गई थी. शुभा पास ही बैठी सिर झुकाए डायरी में कुछ लिख रही थी.

‘‘क्या कर रही है?’’

‘‘मां, अब दिसंबर खत्म हो रहा है न, तो अपनी उपलब्धियां लिख रही हूं इस जाते हुए साल की और तय

कर रही हूं कि अगले साल मुझे

क्याक्या करना है. नए संकल्प भी तो करूंगी न…’’

‘‘अच्छा, क्या उपलब्धियां रहीं?’’

‘‘मां, विशेष उपलब्धि तो इस वर्ष की यह रही कि मेरा मेडिकल में चयन हो गया. अब मैं संकल्प करूंगी कि मेरा कैरियर इतना ही अच्छा रहे. अच्छे नंबर आते रहें हर परीक्षा में.’’

शुभा कुछ सोचते हुए बोली, ‘‘ममा, मैं अपनी ही नहीं शुभम और पापा की भी उपलब्धियां लिखूंगी. देखो न, शुभम को इस साल स्कूल में बेस्ट स्टूडेंट का अवार्ड मिला है और पापा का तो प्रमोशन हुआ है न…’’

शीला ने भी उत्सुक हो कर शुभा की डायरी में झांका था तो वह बोली, ‘‘ममा, आप भी अपनी उपलब्धियां बताओ, मैं लिखूंगी. और आप अगले साल क्या करना चाहोगी. यह भी…’’

शीला का उत्साह फिर से ठंडा हो गया. क्या बताए, कुछ भी तो उपलब्धि नहीं है उस की. अब घर भर के लिए फालतू जो हो चली है वह…और एक ठंडी सांस न चाहते हुए भी उस के मुंह से निकल ही गई.

‘‘ओह मां, आप बहुत थक गई हो, आप को थोड़ा चेंज करना चाहिए…’’

शुभा कह ही रही थी कि फोन की घंटी बजने लगी. शुभा ने ही दौड़ कर फोन उठाया था.

‘‘मां, मामा का फोन है. पूछ रहे हैं कि शेफाली की शादी में हम लोग कब पहुंच रहे हैं. लो, बात कर लो.’’

‘‘हां, भैया, अभी तो कुछ तय नहीं हुआ है. बात यह है कि इन्हें तो फुरसत है नहीं क्योंकि बैंक की क्लोजिंग चल रही है. शुभम के अगले ही हफ्ते बोर्ड के इम्तहान हैं.’’

‘‘पर तू तो आ सकती है.’’

शीला क्या जवाब दे यह सोच ही रही थी कि शुभा ने आ कर दोबारा फोन ले लिया और बोली, ‘‘मामा, हम लोग भले ही न आ पाएं पर मम्मी जरूर आएंगी,’’ और शुभा ने फोन रख दिया था.

‘‘मां, आप हो आइए न,’’ शुभा आग्रह करते हुए बोली, ‘‘भोपाल है ही कितनी दूर. एक रात का ही तो सफर है. आप का चेंज भी हो जाएगा और नातेरिश्तेदारों से मुलाकात भी हो जाएगी. और फिर दोनों मौसियां भी तो आ रही हैं.

‘‘मां, आप यहां की चिंता न करें. मैं घर संभाल लूंगी. बस, पापा और शुभम का ही तो खाना बनाना है. फिर लीला बाई है ही मदद के लिए. बस, आप तो अपनी तैयारी करो.’’

जाने का खयाल तो अच्छा लगा था शीला को भी पर विनोद क्या तैयार हो पाएंगे? शीला अभी भी असमंजस में ही थी पर शुभा ने विनोद को राजी कर लिया था. फटाफट दूसरे दिन का आरक्षण भी हो गया और शुभा ने मां की सारी तैयारी करवा दी.

शादी की गहमागहमी में शीला को भी अच्छा लगा था. रातरात भर जाग कर बहनों में गपशप होती रहती. सब रिश्तेदारों के समाचार मिले. भैया ने बेटी की शादी खूब धूमधाम से की थी.

शेफाली के विदा होते ही घर सूना हो गया था. रिश्तेदार तो चल ही दिए थे, बहनों ने भी जाने की तैयारी कर ली थी.

‘‘भैया, मुझे भी अब लौटना है,’’ शीला ने याद दिलाया था.

‘‘अरे, तुझे क्या जल्दी है. शोभा और शशि तो नौकरीपेशा हैं. उन की छुट्टियां नहीं हैं इसलिए उन्हें लौटने की जल्दी है पर तू तो रुक सकती है.’’

भैया ने सहज स्वर में ही कहा था पर शीला को लगा जैसे किसी ने फिर कोमल मर्म पर चोट कर दी है. सब व्यस्त हैं वही एक फालतू है, वहां भी सब यही कहते हैं और यहां भी.

भैया के बहुत जोर देने पर वह 2 दिन रुक गई पर लौटना तो था ही. बेटी वापस जाएगी. शुभम पता नहीं ढंग से पढ़ाई कर भी रहा होगा या नहीं. सबकुछ भूल कर उसे भी अब घर की याद आने लगी थी.

स्टेशन पर सभी उसे लेने आए थे.

‘‘मां, बस, दादी नहीं आ पाईं आप को लेने क्योंकि वह अभी यहां नहीं हैं पर उन के 2 फोन आ गए हैं और वे जल्दी ही वापस आ रही हैं, कह रही थीं कि मन तो बड़ी बहू के पास ही लगता है.’’

शुभा ने पहली सूचना यही दी थी. उधर शुभम कहे जा रहा था, ‘‘आप ने इतने दिन क्यों लगा दिए लौटने में, 2 दिन ज्यादा क्यों रुकीं?’’

‘‘अच्छा, पहले घर तो पहुंचने दे.’’

शीला हंस कर रह गई थी. विनोद चुपचाप गाड़ी चला रहे थे. घर पहुंचते ही शुभा गरम चाय ले आई थी. शीला ने कमरे को देखा तो काफी कुछ अस्तव्यस्त सा लगा.

‘‘मां, अब यह मत कहना कि मैं ने घर की संभाल ठीक से नहीं की और रसोई को देख कर तो बिलकुल भी नहीं. आप तो बस, चाय पीओ…और फिर अपना घर संभालना…’’

शुभा ने मां के आगे एक डायरी बढ़ाई तो वह बोली, ‘‘यह क्या है?’’

‘‘मां, आप तो अपनी इस साल की उपलब्धियां बता नहीं पाई थीं पर पापा ने खुद ही आप की तरफ से यह डायरी पूरी कर दी, और पता है सब से ज्यादा उपलब्धियां आप की ही हैं…लो, मैं पढ़ूं…’’

शुभा उत्साह से पढ़ती जा रही थी.

‘‘हम सब को बनाने में आप का ही योगदान रहा. मेरा मेडिकल में चयन हुआ आप की ही बदौलत. मैं एक बार मेडिकल में असफल हो गई थी तब आप ही थीं जिन्होंने मुझे दोबारा परीक्षा के लिए प्रेरित किया और शुभम को स्कूल के बेस्ट स्टूडेंट का अवार्ड मिलना आप की ही क्रेडिट है. सुबह जल्दी उठ कर बेटे को तैयार करना, नाश्ते, खाने से ले कर हर चीज का ध्यान रखना, उस का होेमवर्क देखना, और तो और यह आप की ही मेहनत और लगन थी कि पापा का प्रमोशन हुआ. पापा कह रहे थे कि जब कभी आफिस में किसी कारण से उन्हें लौटने में देर हो जाती तो आप ने कभी शिकायत नहीं की बल्कि उन की गैरमौजूदगी में दादी को डाक्टर के पास तक आप ही ले कर जाती रहीं…’’

‘‘बसबस…अब बस कर,’’ शीला ने शुभा को टोका था. उधर विनोद मंदमंद मुसकरा रहे थे.

‘‘अब नया संकल्प हम सब लोगों का यह है कि तुम इसी तरह हम सब का ध्यान रखती रहो…’’ विनोद के कहते ही सब हंस पड़े थे. उधर शीला को लग रहा था कि एक घना कोहरा, जो कुछ दिनों से मन पर छा गया था, अचानक हटने लगा है. द

रोटी : शर्माजी अम्मां को समझाने का प्रयास क्यों कर रहे थे ?

ढाई बजे तक की अफरातफरी ने पंडितजी का दिमाग खराब कर के रख दिया था. ये लाओ, वो लाओ, ये दिखाइए, वो दिखाइए, ऐसा क्यों है, कहां है, किस तरह है? इस का सुबूत…उस का साक्ष्य?

पारिवारिक सूची क्या बनी, पूरे खानदान की ही फेहरिस्त तैयार हो गई. पूरे 150 नाम दर्ज हो गए, सभी के पते, फोन नंबर, मोबाइल नंबर, उन का व्यवसाय और उन सब के व्यवसायों से जुड़े दूसरेदूसरे लोग.

पंडित खेलावन ने बेटी की सगाई पिछले माह ही की थी. उन्हें डर था कि कहीं ऐसा कुछ न हो कि उन के संबंधों पर आंच आए, सो कह उठे, ‘‘देखिए शर्मा साहब, आप को मेरे परिवार और मेरे धंधे के बाबत जो कुछ पूछना और जानना है, पूछिए किंतु मेरे समधी को इस में न घसीटिए, प्लीज. बेटी के विवाह का मामला है. कहीं ऐसा न हो कि…’’

पंडित खेलावन को बीच में टोकते हुए शर्माजी बोले, ‘‘देखिए पंडितजी, जिस तरह से आप को अपने संबंधों की परवा है उसी तरह मुझे भी अपनी नौकरी की चिंता है. यह सब तो आप को बताना ही होगा. आखिर आप का, आप के व्यापार का किसकिस से और कैसाकैसा संबंध है, यह मुझे देखना है और यही मेरे काम का पार्र्ट है.’’

तमाम जानकारियां दर्ज कर शर्माजी लंच के लिए बाहर निकल गए थे किंतु पीछे अपनी पूरी फौज छोड़ गए थे. घर के हर सदस्य पर पैनी नजर रखने के लिए आयकर विभाग का एकएक कर्मचारी मुस्तैद था.

पलंग पर निढाल हो पंडित खेलावन ने सारी स्थितियों पर गौर करना शुरू किया. आयकर वालों की ऐसी रेड पड़ी थी कि छिपनेछिपाने की तनिक भी मोहलत नहीं मिली. यह शनि की महादशा ही थी कि सुबहसुबह हुई दस्तक ने उन्हें जैसे सड़क पर नंगा ला कर खड़ा कर दिया हो.

पंडित खेलावन का दिमाग हर समय हर बात को धंधे की तराजू पर तोलता रहता था. पलड़ा अपनी तरफ झुके तभी फायदा है, इसी सिद्धांत को उन्होंने अपनाना सीखा था. और पलड़ा अपनी ओर झुकाने के लिए साम, दाम, दंड, भेद की नीति ही कारगर सिद्ध  होती थी, होती आई है. इसीलिए पूरे जीवन को उन्होंने धंधे की तराजू पर तोला था.

‘‘मुझे, नहीं खाना कुछ भी,’’ कह कर पंडित खेलावन ने थाली परे सरका दी.

‘‘हमारी तो तकदीर ही फूटी थी जो यह दिन देखना पड़ रहा है,’’ पत्नी ने पीड़ा पर मरहम लगाते हुए कहा, ‘‘मैं कहती थी न कि अपने दुश्मनों से होशियार रहो. कहने को भाई हैं तुम्हारे मांजाए. पर हैं नासपीटे…यह सबकुछ उन्हीं का कियाधरा है, नहीं तो…’’ कहतेकहते पंडिताइन सिसकसिसक कर रोने लगीं.

‘‘देख लूंगा…एकएक को देख लूंगा…किसी को नहीं छोड़ं ूगा. मुझे बरबाद करने पर तुले हैं…उन को भी आबाद नहीं रहने दूंगा. क्या मैं उन की रगरग को नहीं जानता हूं कि उन की औलादें क्याक्या गुल खिलाती फिरती हैं? मेरे मुंह खोलने की देर भर है, सब लपेटे में आ जाएंगे.’’

पंडितजी जोरजोर से चिल्ला रहे थे. वह जानते थे कि दीवार के उस पार जरूर भाइयों के कान लगे होंगे, भाभियों को चटखारे लेने का आज अच्छा मौका जो मिला था.

आयकर जांच अधिकारी ने लंच से लौटते ही एकएक चीज का मूल्यांकन करना शुरू किया. पत्नी के काननाक को भी उन्होंने नहीं छोड़ा.

‘‘हर चीज सामने होनी चाहिए…सोना, चांदी, हीरा, मोती, नकदी, बैंकबैलेंस, जमीनजायदाद, फैक्टरी, दुकान, घर, मकान, कोठी, बंगला, खेत खलिहान… सबकुछ नामे या बेनामे.’’

ज्योंज्यों लिस्ट बढ़ती जा रही थी त्योंत्यों पंडित खेलावन का दिल बैठता जा रहा था.

कोई जगह, कोई  कोना, कोई तहखाना नहीं छोड़ा था रेड पार्टी ने. हर कमरे की तलाशी, गद्दोंतकियों को छू- दबा कर देखा तो देखा, दीवारों के प्लास्टर को भी ठोकबजा कर देखने से नहीं चूके.

पंडितजी कुछ कहने को होते तो शर्मा साहब उन्हें बीच में ही रोक देते, ‘‘हम, अच्छी तरह जानते हैं, कहां क्या हो सकता है. टैक्स बचाने के चक्कर में आप लोगों का बस चले तो क्या कुछ नहीं कर सकते?’’

आखिरी कमरा बचा था अम्मां वाला. शर्माजी ने कहा, ‘‘इसे भी देखना होगा.’’

‘‘इस में क्या रखा है…बूढ़ी मां का कमरा है. जाओजाओ, अब उसे भी देख लो…कोई कसर बाकी नहीं रहनी चाहिए पंडितजी की इज्जत का फलूदा बनाने में…’’ झल्लाहट में पंडित खेलावन बड़बड़ा रहे थे.

समाज में इज्जत बनाने के लिए और बाजार में अपनी साख कायम रखने के लिए पंडित खेलावन ने क्याक्या नहीं किया था. थोड़ीबहुत राजनीति में भी दखल रखने का इरादा था. इसीलिए उन्होंने हाथ जोड़ कर नमस्कार करते हुए अपने एक चित्र को परचे पर छपवाया और इस खूबसूरत परचे को शहर के कोनेकोने में चस्पां करवा डाला था. गली, महल्ला, टैक्सी, जीप, बस और रेल के डब्बों में भी उन की पहचान कायम थी.

सबकुछ धो डाला है आज के मनहूस दिन ने. हो न हो, कहीं यह सामने वाली पार्टी की करतूत तो नहीं? हो भी सकता है क्योंकि अभी वह पार्टी पावर में है. उन का मानना था कि अगले चुनाव में केंद्र वाली पार्टी ही राज्य में भी आएगी, इसलिए उस से ही जुड़ना ठीक होगा. पर इस बार के अनुमान में वह गच्चा खा गए.

अम्मां 80 को पार कर रही थीं. इस आयु में तो हर कोई सठिया जाता है. बातबात पर बच्चों जैसी जिद…अब वह क्या जानें कि ये आयकर क्या होता है वह तो जिद पर अड़ी हैं कि अपने कमरे में किसी को नहीं आने देंगी.

आंख से भले ही पूरा दिखाई न देता हो पर किसी बच्चे के पैरों की आहट भी सुनाई दे जाती है तो कोहराम मचा देती हैं…रोने लगती हैं. उन्हें अकेले पड़े रहना ही सुहाता है. अब अम्मां को कौन समझाए कि ये रेड पार्टी वाले जो ठान लेते हैं कर के ही दम लेते हैं, उन्हें तो यह कमरा भी चेक कराना ही होगा.

शर्माजी समय की नजाकत को जानते थे और जांचपड़ताल के दौरान किस के साथ कैसा व्यवहार कर के जड़ तक पहुंचना है, खूब जानते थे. उन्होंने सभी को रोक कर अकेले अम्मां के कमरे में प्रवेश किया.

‘‘अम्मां, पांव लागूं. कैसी हो अम्मां जी. बहुत दिनों से सुनता था कि बड़ेबूढ़ों का आशीर्वाद जीवन में पगपग पर कामयाबी देता है, क्या ऐसा वरदान आप मुझे नहीं देंगी?’’

‘‘बेटा, सब करनी का फल है… आशीषों से क्या होता है? पर तुम हो कौन? सुबह से इस घर में कोहराम मचा हुआ है. क्यों परेशान कर रखा है मेरे बच्चों को?’’ अम्मां के शब्दों में तल्खी भी थी और आर्तनाद भी, जैसे वह सबकुछ जानतीसमझती हों.

शर्माजी ने अम्मां को जैसे समझाने का प्रयास किया, ‘‘हम लोग सरकारी आदमी हैं, अम्मां. हमारा काम है गलत तरीकों से कमाए गए रुपएपैसों की पड़ताल करना…खरी कमाई पर खरा टैक्स लेना सरकार का कायदा है. अब देखिए न अम्मांजी, मैं ठहरा सरकारी मुलाजिम. मुझे आदेश मिला है कि पंडित खेलावन पर टैक्स चोरी का मुआमला है, उस की छानबीन करो…सो आदेश तो बजाना ही होगा न…अब बताइए अम्मां, इस में मेरा क्या दोष है? जो खरा है तो खरा ही रहेगा…पंडितजी ने कोई गुनाह किया नहीं है तो उन्हें सजा कैसे मिल सकती है पर खानापूर्ति तो करनी ही होगी न…’’

‘‘सो तो है, बेटा…तुम आदमी भले लगते हो. मुझ से क्या चाहते हो? सारे घर का हिसाब तो तुम ले ही चुके हो…लो, मेरा कमरा भी देख लो. यही चाहते हो न…पूरी कर लो अपनी ड्यूटी,’’ शर्माजी की बातों से अम्मां प्रभावित हुई थीं.

पुराने कमरे में क्या लुकाधरा है लेकिन शर्माजी की पैनी नजर ने संदेह तो खड़ा कर ही दिया था.

‘‘इस संदूक में क्या है? अम्मां, जरा खोल कर दिखाओ तो,’’ शर्माजी ने कहा तो अम्मां जैसे फिर बिफर पड़ीं, ‘‘नहीं… नहीं, इसे नहीं खोलने दूंगी. तुम इसे नहीं देख सकते…’’

‘‘लेकिन ऐसा भी क्या है, अम्मां, संदूक को जरा देख तो लेने दो,’’ शर्माजी बोले, ‘‘आप ने ही तो कहा है कि मुझे मेरी ड्यूटी पूरी करने देंगी. सो समझिए कि मेरी ड्यूटी में हर बंद चीज को खोल कर देखना शामिल है.’’

अम्मां ने अब और जिद नहीं की. खटिया से उठीं, दरवाजा भीतर से बंद किया.

संदूक का नाम सुनते ही पंडिताइन के मन में खटका हुआ था कि हो न हो, बुढि़या ने सब से छिपा कर जरूर कुछ बचा रखा है. इसीलिए वह अपने संदूक के पास किसी को फटकने तक नहीं देती थीं. जरूर कुछ ऐसा है जिसे शर्माजी ताड़ गए हैं, नहीं तो…

इधर पंडितजी भी शंकालु हो उठे तो पंडिताइन से कहने लगे, ‘‘अम्मां रहती हैं मेरे यहां और मन लगा रखा है दूसरे बेटों के साथ. भले ही वे उन्हें न पूछते हों. कहीं ऐसा तो नहीं है कि बड़के भैया के लिए कुछ रख छोड़ा हो. चलो, जो भी होगा, आज सामने आ ही जाएगा.’’

बंद कमरे में पसरे अंधकार में पिछली खिड़की से जो थोड़ी रोशनी की लकीर  आ रही थी उसी रोशनी में संदूक रखा था. ताला खोल कर ज्यों अम्मां ने संदूक का ढक्कन उठाया तो शर्माजी अवाक् रह गए.

‘‘रोटियां, ये क्या अम्मां… रोटियां और संदूक में?’’

‘‘हां, बेटे, यही जीवन का सत्य है… रोटियां. इन्हीं के लिए इनसान दुनिया में जीता है, जीवन भर भागता फिरता है, रातदिन एक करता है, बुरे से बुरा काम करता है. किस के लिए ? रोटी के लिए ही तो. खानी उसे सिर्फ दो रोटी ही हैं. फिर भी न जाने क्यों…’’ कहतेकहते अम्मां का गला भर उठा था.

‘‘लेकिन मांजी, ये तो सूखी रोटियां हैं. आप ने इन्हें संदूक में सहेज कर क्यों रख छोड़ा है?’’ शर्माजी इस गुत्थी को सुलझा नहीं पा रहे थे, भले ही उन्होंने बड़ी से बड़ी गुत्थियों को सुलझा दिया हो.

‘‘सप्ताह में एक दिन ऐसा भी आता है बेटे, जब कोई भी घर में नहीं रहता. इतवार को सभी बाहर खाना खाते हैं. उस दिन घर में रोटी नहीं बनती. उसी दिन के लिए मैं इन्हें बचाए रखती हूं. दो रोटियों को पानी में भिगो देती हूं और फिर किसी न किसी तरह से उन्हें चबा कर पेट भर ही लेती हूं…लो बेटे, तुम ने तो देख ही लिया है… अब इस कटुसत्य को पूरे घर के सामने भी जाहिर हो जाने दो…न जाने मेरे बच्चे क्या सोचेंगे.’’ आंसू पोंछते हुए अम्मां ने बंद दरवाजा खोल दिया.

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