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अभिषेक : मानस का सवाल सुन अम्मा क्यों विचलित हो गई ?

‘बमबम भोले…’ के जयजयकारे लग रहे थे. आगे से आवाज आई तो पीछे से भी जोर से सुर में सुर मिलाया गया.

‘हरहर महादेव…’ भीड़ के बीचोंबीच फंसी लगभग 80 साल की वृद्धा ने सम्मोहन की स्थिति में पुकार लगाई. ऐसा लगता था, वह इस अवस्था में काल पर विजय प्राप्त करने के लिए ही रातभर से भूखीप्यासी लाइन में लगी है.

मानस इस लाइन में 10वें नंबर पर खड़ा था. उसे स्वयं आश्चर्य हो रहा था कि वह यहां क्यों खड़ा है? दर्शन व अभिषेक कर वह ऐसा क्या प्राप्त कर लेगा जो उसे अभी तक नहीं मिल पाया? और जो नहीं भी मिला है, वह क्या आज के ही दिन दर्शन करने से मिलेगा, अन्य किसी दिन क्यों नहीं? ऐसी कई तार्किक बातें थीं जिन पर उस का विचारमंथन चल रहा था. वह था तो तार्किक पर अपनी पत्नी के अंधविश्वासी स्वभाव के सामने असहाय हो जाता था. इसलिए अनमने ही सही, वह भी एक हाथ में पानी से भरा तांबे का लोटा और दूसरे हाथ में बिल्व पत्र लिए रात 12 बजे से ही लाइन में धक्के खा रहा था. उसे स्वयं पर कोफ्त भी हो रही थी कि क्योंकर वह इस कुचक्र में फंस गया. उसे रहरह कर मां पर गुस्सा और पत्नी पर चिढ़ आती थी. उसे लगा कि उस के सारे तर्क मां व पत्नी की आस्था के सामने ढेर हो गए हैं.

लाइन में खड़ेखड़े मानस के पांव दुखने लगे, रहरह कर लगने वाले धक्के उस के विचारों के क्रम को तोड़ डालते थे. वह क्रम जोड़ता पर कुछ ही देर में वह फिर से टूट जाता था. इस टूटने व जुड़ने के क्रम के साथसाथ दर्शनार्थियों की लाइन भी इंच दर इंच आगे रेंग रही थी. मानस ने गति के साथ इस का तालमेल बिठाया तो पाया कि 1 घंटे में वह मात्र 2 फुट ही आगे बढ़ पाया है. उस दिन सोमवती अमावस्या थी. वैसे तो कई सोमवती अमावस्याओं पर उस ने रंगबिरंगे परिधानों से सजे ग्रामीण भक्तों की भीड़ देखी थी पर आज 27 वर्षों बाद बने दुर्लभ संयोग ने भीड़ को कई गुना बढ़ा दिया था. मानस 11 बजे रामघाट पहुंचा. तब घाट पर कीड़ेमकोड़ों की तरह भीड़ नजर आ रही थी जो सिर्फ इस बात का इंतजार कर रही थी कि जैसे ही 12 बजे अमावस लगे वैसे ही क्षिप्रा के पवित्र जल में डुबकी लगा ली जाए. लेकिन नहाने के विचार से ही मानस को उबकाई आने लगी. उसे लगा कि जरा से पानी में लाखों लोग हर डुबकी के साथ अपनी गंदगी पानी में धो लेंगे और उसी पानी में उसे नहाना होगा. वह अचकचा गया. वैसे भी, क्षिप्रा का पानी कब साफ रहता है. सारे शहर की गंदगी का नाला इस ‘पवित्र’ नदी में मिलता ही है, ऊपर से इतने लोगों का स्नान.

उस का जी वापस जाने को हुआ था. सोचा, ‘मां या पत्नी उसे देखने तो आ नहीं रहे हैं, कह दूंगा कि नहा लिया था.’

उस का मन फिरने ही लगा था कि वह एक बार फिर आस्था के आगे नतमस्तक हो गया.

एक जोर के धक्के ने उस की तंद्रा भंग की. वह जोर से चिल्ला पड़ा, ‘‘अरे भाई, धक्के मत मारो, बच्चे और बूढ़े भी लाइन में लगे हैं. ये भक्तों की लाइन है, कोई घासलेट, शक्कर की नहीं.’’

परंतु उस की आवाज संकरे गलियारे के मोड़ को भी पार न कर सकी. मानस ने पीछे गरदन घुमा कर देखा, कतार का कोई ओरछोर नजर नहीं आ रहा था. शायद पीछे वाले मोड़ के बाद खुले मैदान में भी चक्राकार कतार होगी. एकदूसरे को ठेल कर आगे बढ़ने का प्रयास करती भीड़ को पुलिस की लाठी ही संयमित कर सकती थी. फिर से मानस पर तक हावी हो गया. उस ने सोचा, क्या चाहती है यह भीड़? क्या ‘भगवान’ इतने सस्ते हैं कि एक बार चलतेचलते 2 बिल्व पत्रों और छटांकभर जल चढ़ाने से प्रसन्न हो जाएंगे? उस का मन किया कि इस भीड़ में फंसे लोगों में से किसी बनिए से पूछे कि ‘क्या वह आज के इस महादर्शन के बाद कभी डंडी नहीं मारेगा या किसी सूदखोर से पूछे कि क्या वह आज सूद न लेने का प्रण करेगा या फिर किसी वृद्धा से पूछे कि वह ऐसा प्रण कर सकती है कि आज के बाद वह अपनी बहू पर अत्याचार नहीं करेगी? पर अंधश्रद्धा से सराबोर इस भीड़ से इस तरह के प्रश्न करना मूर्खता ही होती, इसलिए वह चुप रहा.

मंदिर के एक ओर बना प्रवेशद्वार 5 मीटर चौड़े गलियारे में खुलता था. यह गलियारा, जिस में कि मानस खड़ा था, डेढ़ सौ मीटर की दूरी पर मंदिर के गर्भगृह में जाने के लिए इस द्वार को 2 मोड़ दिए गए थे. बीचबीच में छोटेछोटे मंदिरों के कारण गलियारा और भी संकरा हो गया था. गलियारा, जहां पर गर्भगृह के लिए खुलता था, वहां नीचे जाने के लिए सीढि़यां थीं. संगमरमर की होने से सीढि़यां धवल प्रकाश में जगमग चमकती थीं. सुबह 4 बजे का समय हो चला था. मानस अपनी जगह से मात्र 5 फुट ही आगे बढ़ पाया था. धक्कामुक्की में थकान के कारण कुछ शिथिलता आ गई थी. हलकीहलकी बारिश भी गरमी को कम नहीं कर पा रही थी. गलियारे में गरमी बढ़ती ही जा रही थी. लोगों के गले खुश्क और कपड़े तरबतर हो रहे थे. लाइन में लगे बच्चों की हिम्मत जवाब दे गई. 10 साल की एक बच्ची बेहाल हो कर गिर गई, शायद गरमी और प्यास के कारण ऐसा हुआ था. पर आगेपीछे खड़े किसी भी भक्त ने अभिषेक के लिए साथ में लिए लोटे से उसे पानी पिलाना उचित न समझा.

‘‘माताजी, इस बच्ची को पानी क्यों नहीं दे देतीं?’’ मानस बोला. माताजी कुछ सोचविचार में पड़ गईं, शायद धर्म का प्रश्न उन के मस्तिष्क में घूम रहा होगा. मानस ने देर न करते हुए अपने लोटे में से थोड़ा सा पानी उस लड़की को पिला दिया. चंद मिनटों बाद ही वह होश में आ गई. ‘‘दादी, दादी, भूख लगी है,’’ लड़की बोली.

अपनी धार्मिक भावना का बलपूर्वक पालन करवाने की गरज से दादी अपनी पोती को भी साथ लेती आई थी, अपने साथसाथ उस से भी उपवास करवाया लगता था. पर नन्ही बच्ची कब तक भूख सहती?

‘‘कहां से आई हो, अम्मा?’’ मानस ने समय गुजारने के लिए पूछा.

वृद्ध महिला कुछ संकोच में पड़ी हुई थी, बोली, ‘‘बेटा, औरंगाबाद से आई हूं.’’

‘‘कोई खास मन्नतवन्नत है क्या?’’ मानस ने बात बढ़ाई.

‘‘हां, इस ‘अभागी’ लड़की का भाई गूंगा है, उसी के लिए आई हूं,’’ वृद्धा ने थकी आवाज में कहा.

‘‘अम्मा, इस में लड़की कैसे अभागी हुई?’’ मानस की आवाज से हलका सा क्रोध झलक रहा था.

‘‘काहे नहीं, बहनों के ‘भाग’ से ही तो भाई का भाग होवे है,’’ वृद्धा ने जोर दे कर कहा.

मानस का जी तो किया कि इस बात पर वृद्धा को खरीखोटी सुना दे पर वह वक्त इस बात के लिए उसे ठीक न जान पड़ा. उस ने एक बार फिर उस समाज को मन ही मन कोसा जो सारे परिवार के दुख के कारण को नारी जाति से जोड़ देता है.

तभी जोर का एक धक्का आया और मानस ने अपनेआप को गलियारे के मोड़ पर खड़ा पाया, जहां से नीचे गर्भगृह में जाने की सीढि़यां शुरू होती हैं. पहले से ही संकरी जगह को बैरिकैड लगा कर और संकरा कर दिया गया था. 2 सालों के बाद ही मानस वहां गया था, उसे वहां की व्यवस्था पर आश्चर्य हो रहा था. इतनी बड़ी भीड़ को संभालने के लिए गलियारे में होमगार्ड के केवल 2 जवान थे, धक्कामुक्की पर नियंत्रण करना उन के वश में नहीं था. मानस के ठीक आगे औरंगाबाद वाली वृद्धा थी. मानस ने जानबूझ कर उस की पोती को बीच में खड़ा कर लिया था, उस के पीछे 3-4 वृद्ध और थे, जिन से वह बीचबीच में बतिया कर रातभर से उन की आस्था की थाह लेने का प्रयास कर रहा था. इसी बीच, जो लाइन धीरेधीरे रेंग रही थी, वह भी बंद हो गई. बताया जा रहा था कि भस्मारती शुरू हो गई है. भोले से रूबरू होने का समय 2 घंटे और आगे खिसक गया. संकरा मोड़ और ऊपर से उमस, उस पर शरीरों की आपसी रगड़, तपिश और जलन को मानस का पोरपोर महसूस कर रहा था. उस ने सोचा, जब उस की यह हालत है तो बच्चों और वृद्धों का क्या हाल होगा. लगता है, ये प्राणी आज ही भोले के दरबार में आवागमन चक्र से मुक्त हो जाएंगे.

भीड़ पर एकएक मिनट भारी था. व्याकुलता बढ़ती ही जाती थी. मुक्त होने पर वह और भीड़ कैसा महसूस करेगी, खुली हवा में कितनी शांति और शीतलता होगी, इस विचार ने कुछ क्षणों का कष्ट कम कर दिया. तभी बाहर दालान में तेजी से बूटों के चलने की आवाजें आईं, उसी के पीछे कई पैरों की पदचाप सुनाई पड़ी. मानस ने महज अंदाजा लगाया, कोई वीआईपी इस दुर्लभ अवसर के पुण्य को अपने खाते में डालने आया होगा. भीड़ की मुक्ति का समय कुछ और आगे बढ़ गया. आधे घंटे बाद फिर उन्हीं बूटों की आवाज गूंजी. ठीक उसी समय लोगों के लिए आगे का मार्ग खोल दिया गया. अकुलाई भीड़ ने बिना आगापीछा सोचे जोर का धक्का मारा. मानस ने आगे खड़ी लड़की का हाथ कस कर पकड़ लिया. बूढ़ी दादी को वह सहारा देता, लेकिन तब तक वह सीढि़यों पर लुढ़क गई थी. मानस ने स्वयं और लड़की को पूरा जोर लगा कर एक तरफ कर लिया. उस के बाद तो एक के बाद एक पके फल की तरह लोग गिरने लगे. मानस को कुछ सूझता, इस के पहले ही एक बड़ा रेला उन सब लोगों के ऊपर से गुजर गया.

वह पागलों की तरह चिल्ला रहा था, ‘‘अरे, आगे… मत बढ़ो. तुम्हारे भाईबंधु दब कर मर रहे हैं.’’

पर उस की कौन सुनता, सभी को भूतभावन के दरबार में जाने की जल्दी थी. जब तक भीड़ को होश आता, तब तक तो अनर्थ हो चुका था. जहां मंदिर में घंटियों का मधुर स्वर गूंजना चाहिए था वहां चारों ओर लोगों का करुणक्रंदन और चीत्कार गूंज रही थी. सभी हतप्रभ थे. मानस एक हाथ से उस लड़की को थामे था, उस के दूसरे हाथ में अभी भी जल से आधा भरा तांबे का लोटा था, जिस से शिवलिंग का अभिषेक करने का उस का मन था.

पर वह कैसे आगे बढ़ता, किस मन से करता अभिषेक? जबकि उस के इर्दगर्द व भीतर प्रलयंकारी तांडव हो रहा था. उस ने पास ही कराह रहे घायल के मुंह में अभिषेक करने की मुद्रा में जलधारा छोड़ दी. यही सच्चा अभिषेक था.

क्या लाल सिंह चड्ढा के लिए आमिर खान की पहली पसंद नही थी kareena kapoor ?

kareena kapoor : बॉलीवुड के मिस्टर परफेक्शनिस्ट ”आमिर खान” और एक्ट्रेस ”करीना कपूर” स्टारर फिल्म ‘लाल सिंह चड्ढा’ बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह से फ्लॉप रही. दर्शकों को न तो इस फिल्म की कहानी पसंद आई और न ही आमिर और करीना की केमिस्ट्री. लेकिन क्या आपको ये पता है कि ‘लाल सिंह चड्ढा’ के लिए एक्ट्रेस ”करीना कपूर खान” आमिर खान की पहली पसंद नही थी ? अगर नहीं. तो आइए जानते हैं उस वजह के बारे में जिसके कारण ”करीना” को इस फिल्म के लिए ऑडिशन देना पड़ा था.

किसी न्यूकमर को कास्ट करना चाहते थे आमिर

आपको बता दें कि ये बात एकदम सही है कि बॉलीवुड एक्ट्रेस ”करीना कपूर” ने आमिर खान की फिल्म ‘लाल सिंह चड्ढा’ (Kareena Kapoor On Laal Singh Chaddha Audition) के लिए ऑडिशन दिया था और वो उनकी पहली पसंद भी नही थी. दरअसल, शुरुआत में आमिर इस फिल्म के लिए एक न्यूकमर की तलाश कर रहे थे, जिसके लिए उन्होंने कई अभिनेत्रीयों का ऑडिशन भी लिया था. लेकिन बात नहीं बनी.

एक्ट्रेस ने खुद किया था खुलासा

बीते दिनों मीडिया को दिए एक इंटरव्यू में एक्ट्रेस ”करीना कपूर” (kareena kapoor) ने खूद खुलासा किया था कि उन्होंने फिल्म ‘लाल सिंह चड्ढा’ के लिए ऑडिशन दिया था. उन्होंने कहा था कि, ‘मैंने आज तक किसी भी फिल्म के लिए कोई भी ऑडिशन नहीं दिया पर आमिर ख़ान ने फिल्म लाल सिंह चड्ढा के लिए मेरा पहली बार ऑडिशन लिया था, क्योंकि वह कास्टिंग को लेकर पूरी तरह से सुनिश्चित होना चाहते थे.’

इसी के साथ उन्होंने बताया कि, ‘आमिर खान ने उन्हें चार घंटे का नैरेशन दिया था और वो ऑडिशन इसलिए लेना चाहते थे क्योंकि वो देखना चाहते थे कि क्या मैं अधेड़ उम्र की भूमिका निभा पाऊंगी या नहीं ? और इन सब के बाद ही उन्हें फिल्म में लीड रोल के लिए चुना गया था.’

करीना- आमिर ने किया था पूरा सपोर्ट

आपको बता दें कि फिल्म ‘लाल सिंह चड्ढ़ा’ (Laal Singh Chaddha) की शूटिंग के दौरान एक्ट्रेस ”करीना कपूर” प्रेग्नेंट थी. उन्होंने बताया था कि, ‘मुझे प्रेग्नेंसी के दौरान काम करने में आमिर की ओर से काफी मदद मिली थी. आमिर ने मेरे लिए स्क्रिप्ट में कोई बदलाव नहीं किया लेकिन मेरी सेहता का पूरा ध्यान रखा था.’

करीना ने इस फिल्म से की थी करियर की शुरुआत

आपको बता चलें कि ”करीना” ने साल 2000 में आई फिल्म रिफ्यूजी से अपने फिल्मी करियर की शुरुआत की थी, जिसमें उनके किरदार को लोगों ने खूब पसंद किया थी और इसके बाद उन्होंने कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखा. वहीं हाल ही में अपने करियर पर बात करते हुए ”करीना” (kareena kapoor) ने बताया था कि, ‘अब उनके घर पर दो बच्चे हैं. इसलिए अपने काम और परिवार के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए वो साल में एक से दो फिल्में ही किया करेंगी.’

परपीड़क : रिश्तों को संभालते माता-पिता की दिल छूती कहानी

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मेरा राष्ट्रभाषा प्रेम

चाहो तो आप मु  झे ओल्ड फैशंड कह लो. चाहे इसे मेरा लैक औफ कान्फिडेंस मान लो पर मैं हमेशा हिंदी में ही बात करना पसंद करती हूं. इंगलिश मीडियम स्कूलों में पढ़े होने के बावजूद, ऐक्चुअली हमारे बचपन में घर का एनवायरमैंट ही बहुत पैट्रिऔटिक था. हार्ड वर्क, औनेस्टी आदि पर बहुत स्टै्रस दिया जाता था. इंडिया को नईनई फ्रीडम मिली थी. तब पैट्रिऔटिज्म तो जैसे हमारे ब्लड में ही घुला हुआ था. हाई मौरेल वैल्यूज के साथ ही हमारे पेरैंट्स इस बात के लिए भी बहुत पर्टिकुलर थे कि घर में अपनी नैशनल लैंग्वेज में ही बात की जाए, एंड यू नो, उस वक्त के पेरैंट्स कितने स्ट्रिक्ट हुआ करते थे.

मेरे ग्रैंडफादर फेमस फ्रीडमफाइटर थे और फादर आर्मी आफिसर. हमारी फैमिली में पैट्रिऔटिज्म का एक लंबा टै्रडिशन है, जो हमारे गे्रट ग्रैंडफादर तक जाता है. इस के साथ ही हमारी फैमिली बहुत आर्थोडौक्स थी. घर में सर्वेंट्स और मेड होने के बावजूद हम बच्चों की अपब्रिंगिंग हमारी मदर ने स्वयं ही की. हालांकि वे हाइली ऐजुकेटेड लेडी थीं बट उन्होंने हाउसवाइफ बन कर रहना ही प्रिफर किया. यह उन का पर्सनल डिसीजन था, फादर अथवा ग्रैंडपेरैंट्स का दबाव नहीं. कुछ भी कहो, कामकाजी महिला घरपरिवार को उतना समय नहीं दे सकती जितना कि फुलटाइम हाउसवाइफ.

हांहां, मालूम है अब उन्हें ‘होममेकर’ कहा जाता है. बात तो एक ही है. हमारी मदर ने अपनी पूरी लाइफ घर, बच्चों को ही डिवोट कर दी. वे हमसब की हैल्थ का भी भरपूर खयाल रखती थीं. घर में जंकफूड बिलकुल एलाउड नहीं था सिर्फ और सिर्फ हैल्दी फूड ही खाया जाता था. बे्रकफास्ट में हम डेली एग, मिल्क और पोरिज में से ही कुछ खाते. लंच में ट्वाइस ए वीक तो हम नौनवेज खाते थे यानी मीट, चिकन, फिश कुछ भी. हां, डिनर हम लाइट ही करते. स्नैक्स में भी फ्राइड की जगह हम फ्रैश फू्रट ही लेते.

आर्मी आफिसर की वाइफ होने से मदर एक आर्डिनरी वाइफ से ज्यादा स्मार्ट तो थीं ही, सुंदर भी बहुत थीं. अपनी गे्रसफुल फिगर, विट और इंटैलिजैंस के कारण अपने फ्रैंड्स में बहुत पापुलर थीं वे. और हम दोनों बहनों की तो आइडियल वे थीं ही.

खैर, मैं ने भी अपने बच्चों को हाई मौरेल वैल्यूज तो दी ही हैं उन्हें अपनी मदरटंग की रिस्पैक्ट करना भी सिखाया है. अलगअलग फील्ड में प्रोफैशनली क्वालीफाइड होने पर भी वे अपने घर में मदरटंग में ही बातें करते हैं. वरना आजकल तो अंगरेजी में बात करना स्टेटस सिंबल ही बन गया है. अगर आप हिंदी स्पीकिंग कैटेगरी को बिलौंग करते हैं तो आप हाई सोसाइटी में खुद को अनफिट पाते हैं. आप न तो अच्छी नौकरी ही पा सकते हैं न ही अपने फ्रैंड्स सर्कल अथवा पार्टी आदि में बोलने का आत्मविश्वास ही.

पिछले साल मैं अपनी बेटी का ऐडमिशन कराने विश्वविद्यालय गई, वहां का एनवायरमैंट देख कर तो भौचक ही रह गई. सब लड़कियों ने जीन्स और टौप ही पहन रखे थे. हेयर सब के शौर्ट, लड़की और लड़कों में भेद करना हमारे लिए डिफिकल्ट हो गया. वहां सब यों फर्राटेदार इंगलिश बोल रहे थे कि एक बार तो मु  झे लगा मैं यूरोप के किसी देश में पहुंच गई हूं, टाइम कितना चेंज हो गया है न. जब हम छोटे थे तो सलवारसूट के ऊपर दुपट्टा ओढ़ा जाता था. वह भी प्रौपरली, न कि एक शोल्डर पर रखा हुआ. आजकल तो ऐसी लड़कियों पर टौंट करते हुए उन्हें ‘बहनजी’ टाइप कहा जाता है.

जिस तरह इंगलिश स्पीकिंग कोर्स चलते हैं, इंगलिश स्पीकिंग जैसी पुस्तकें धड़ाधड़ बिकती हैं, वक्त आ गया है कि उसी लाइन पर हमें हिंदी स्पीकिंग कोर्स भी स्टार्ट करने चाहिए. देखा जाए तो हिंदी सीखना उतना मुश्किल है भी नहीं. अंगरेजी के मुकाबले में तो बहुत इजी है. ग्रामर के फिक्स्ड नियम हैं. कोई भी साइलैंट लैटर नहीं, उच्चारण एकदम सहज. स्पीकिंग एंड राइटिंग एकदम सेम. जैसा बोलते हो ज्यों का त्यों लिख डालो. शौर्ट में यह कि अगर आप करैक्टवे में बोलते हैं तो करैक्ट ही सीखोगे भी. सो सिंपल. हमें चाहिए कि हम हिंदी को ज्यादा से ज्यादा प्रौपोगेट करें. अगर हम हिंदी में बोलेंगे तो सामने वाला हिंदी में जवाब देने को ओबलाइज्ड भी रहेगा, और इस से हमारी हिंदी की लोकप्रियता बढ़ेगी.

मैं ने देशविदेश में बहुत टै्रवल किया है. दुनिया भर में लोगों को अपनी राष्ट्रभाषा में ही बोलते पाया है. चाहे वह जरमनी, जापान हो या फ्रांस, रशिया या ईरान. वहां के प्रोफैशनल कालेजों में भी अपनी भाषा में पढ़ाई कराई जाती है. बीजिंग ओलिंपिक का तो उद्घाटन समारोह ही चीनी भाषा में कंडक्ट किया गया था. हमारा देश होता तो हिंदी का एक वर्ड भी सुनने को नहीं मिलता आप को. अगर वे लोग अपनी लैंग्वेज बोलने में इतना गर्व फील कर सकते हैं तो हम क्यों हिंदी को पीछे पुश करते जा रहे हैं? किसी से कम है क्या हमारी लैंग्वेज? कितना धनी है हमारा लिटरेचर. ढेर सारे क्षेत्रीय भाषाओं के अनुवाद मिला कर तो हिंदी और भी रिच हो जाती है. हमें तो प्राउड फील करना चाहिए अपने रिच हैरिटेज पर. अपनी प्राचीन सिविलाइजेशन और कल्चर पर.

जी हां, बहुत प्रेम है मु  झे अपनी राष्ट्रभाषा से. तभी तो मैं हमेशा हिंदी में ही बोलतीलिखती हूं. आप को कुछ शक है मेरी हिंदी पर. पर आजकल तो हिंदी ऐसे ही बोली जाती है न. यकीन नहीं हो रहा तो अपने कान खुले रख कर कहीं भी बैठ जाओ, जो लोग अंगरेजी बोल रहे हैं तो वे तो अंगरेजी ही बोल रहे हैं पर जो लोग तथाकथित हिंदी में बातचीत कर रहे हैं उन्हें सुनो, व्याकरण हिंदी की, वाक्य संरचना हिंदी की पर मुख्य शब्द अंगरेजी के होंगे. मसलन, लास्ट वीक हम अपने कजिन की मैरिज अटेंड करने जयपुर गए थे. मित्रमंडली में, ब्याहशादी में, पार्टी में यही भाषा चलती है. जो व्यक्ति जितना पढ़ालिखा होगा उस की बोलचाल की भाषा में अंगरेजी के शब्दों का योगदान भी उतना अधिक होगा. निपट गंवार ही होगा जो शुद्ध हिंदी में बात करेगा. ‘टाइम क्या है?’ की जगह पूछेगा ‘समय क्या हुआ है?’

मेरे विचार से यह भाषा का निरादर है. क्या वे यह कहना चाहते हैं कि इन शब्दों का हिंदी रूपांतर है ही नहीं? अथवा वह कर्ण मधुर नहीं? शायद उन्हें लगता है कि अंगरेजी शब्दों का प्रयोग नहीं करेंगे तो लोग हमें अनपढ़ सम  झेंगे? तकनीकी अथवा प्रौद्योगिक शब्दों के लिए कभी अंगरेजी शब्दों का सहारा लेना भी पड़ सकता है. दरअसल, हर जीवंत भाषा अपने में दूसरी भाषाओं के शब्द समेटती चलती है पर हिंदी में उपलब्ध शब्दों के बदले अंगरेजी शब्दों का प्रयोग हास्यास्पद ही लगता है.

आप किसी के घर भोजन पर आमंत्रित हैं और गृहिणी आप से मनुहार कर रही है, ‘राइस तो आप ने लिए नहीं, कर्ड भी लीजिए न.’ भई, पुलाव और दही कहने में क्यों शर्म आती है, पर नहीं साहब, आप को पता कैसे चलेगा कि उन्हें अंगरेजी भाषा का भी ज्ञान है. आधुनिकता के नाम पर अंगरेजी शब्दों का प्रयोग पढ़ालिखा होने का प्रमाणपत्र ही बन गया है. आजकल यदि हम कभी हिंदी में स्वयं को व्यक्त नहीं कर पाते तो दोष भाषा का नहीं हमारे सीमित ज्ञान का है.

हमारी एक परिचिता हिंदी की अध्यापिका हैं. उच्च कक्षाओं में हिंदी पढ़ाती हैं पर आप की हर बात का उत्तर वे अंगरेजी में ही देने का प्रयत्न करेंगी चाहे टांगटूटी अंगरेजी बोलें क्योंकि कहीं आप यह न सम  झ लें कि वे अंगरेजी बोलना नहीं जानतीं.

किसी कवि की उक्ति याद आ रही है :

‘कितने शहरी हो गए

लोगों के जज्बात

हिंदी भी करने लगी

अंगरेजी में बात.’

हम क्यों हिंदी बोलने में हीनता का अनुभव करते हैं? यह खिचड़ी भाषा भी तो यही हीनता ही दर्शाती है? इतना व्यापक हो चुका है इस खिचड़ी भाषा का प्रभाव कि यदि मैं अपनी अंगूठाछाप काम वाली बाई से कहूं कि ‘प्याला मेज पर रख दो’ तो वह असमंजस में खड़ी मेरा मुंह ताकती है और सम  झाने पर हैरान हो कहती है, ‘कप टेबल पर रखने को बोलो न?’ वह लाइट को ‘लेट’ और चांस को ‘चानस’ भले ही कहे पर अंगरेजी शब्द उस की अनपढ़ बुद्धि में भी घुसपैठ कर चुके हैं अच्छी तरह से.

कहां पहुंचा दिया है हम ने हिंदी को? ध्यान रहे, अंगरेजी शब्द को नागरी में लिख देने मात्र से ही वे हिंदी के शब्द नहीं बन जाते. केवल अंगरेजी ही क्यों, आप जितनी भाषाएं सीख सकते हैं सीखिए, पर अपनी भाषा में अंगरेजी भाषा के शब्द घुसेड़ने का हक आप को कतई नहीं है.

राशनकार्ड की महिमा

‘‘साहब, सिलेंडर खाली हो गया है,’’ रसोईघर से रामकिशन के शब्द किसी फोन की घंटी की तरह मु?ो चौंका गए.

हम ने एजेंसी को फोन खड़खड़ाया, ‘‘गैस सिलेंडर बुक करवाना है.’’

‘‘नंबर?’’ किसी मैडम की आवाज थी.

‘‘9242,’’ मैं ने भी ऐसे बोला जैसे फोन में नंबर पहले से ही फीड हो.

‘‘राजगोपालजी?’’

‘‘जी हां, देवीजी.’’

‘‘आप को अपना राशनकार्ड दिखाना होगा,’’ मधुर आवाज में मैडम बोलीं.

‘‘क…क्या?’’ हम हकलाए, ‘‘राशनकार्ड?’’

‘‘जी हां.’’

‘‘किस खुशी में?’’

‘‘बस, हमारी खुशी है. इसी खुशी में.’’

हम घबरा गए. यह तो नहले पे दहला मार रही है, ‘‘लेकिन वह तो मैं ने कभी बनवाया ही नहीं?’’

अब की बारी उन की थी, ‘‘क्या कहा?’’

‘‘हां. कभी बनवाया ही नहीं तो लाने का सवाल ही नहीं उठता.’’

‘‘कमाल है,’’ मैडमजी बोलीं, ‘‘अच्छा, ऐसा कीजिए, अपनी सिलेंडर बुक ले कर हमारी एजेंसी के दफ्तर में आ जाइए. पता जानते हैं न कि एजेंसी कहां है? बहुचरजी के पास.’’

‘‘जी हां, उस जगह को आबाद कर चुका हूं.’’

हम जब सिलेंडर बुक ले कर वहां पहुंचे तो मैडमजी ने हमेें घूरा और बोलीं, ‘‘आप ही राजगोपालजी हैं.’’

हम ने हां में गरदन हिलाई तो एक मोटा रजिस्टर हमारे सामने कर दिया गया.

‘‘इस में आप अपनी सिलेंडर बुक का नंबर लिखिए फिर यह भी लिखिए कि अगली बार राशनकार्ड दिखाऊंगा और यहां हस्ताक्षर कर दीजिए. इस बार हम आप का सिलेंडर बुक कर देते हैं लेकिन अगली बार राशनकार्ड दिखाना पड़ेगा.’’

‘‘लेकिन क्यों? यह सिलेंडर बुक देखिए. 1988 से मैं आप से सिलेंडर लेता आ रहा हूं तो अब की यह राशनकार्ड की आफत कैसे आ गई?’’

‘‘सर, ऊपर से आदेश आया है कि बिना राशनकार्ड देखे किसी को सिलेंडर न दिया जाए.’’

‘‘लेकिन मेरी सम?ा से तो राशन- कार्ड केवल गरीबों की मदद के लिए होता है ताकि उन्हें सरकारी रियायत से सस्ते खाद्य पदार्थ जैसे चावल, गेहूं, तेल, चीनी आदि मिल जाएं. मैं इस श्रेणी में नहीं आता. यहां बड़ौदा में कभी राशनकार्ड का उल्लेख नहीं हुआ. पासपोर्ट है, बिजली, टेलीफोन, हाउस टैक्स के बिल हैं, पैनकार्ड व ड्राइविंग लाइसेंस हैं. इन सब से ही हमारा काम चल जाता है.’’

‘‘अरे साहब, कई लोगों ने कईकई जाली कनेक्शन ले रखे हैं इसलिए सरकार को यह कदम उठाना पड़ा. कोई गैरकानूनी ढंग से तिपहिए में गैस लगा रहा है तो कोई मोटर में. कोई कईकई सिलेंडरों की ब्लैक कर रहा है.’’

‘‘अच्छा? तो हम बेचारे सीधेसादे पुरुष लोग पकड़ गए? कमाल है.’’

वे हंस पड़ीं.

‘‘यह तो बताइए कि यह कम्बख्त कार्ड बनता कहां है?’’

‘‘कुबेर भवन में.’’

‘‘ठीक,’’ कह कर हम ने स्कूटर दौड़ाया. बहू कुबेर भवन में ही 8वीं मंजिल पर काम करती है, यह सोच कर मन में तसल्ली मिली.

वैसे हमें अजनबियों से पूछताछ करने में कोई ?ि?ाक नहीं होती. अधिक से अधिक ‘न’ या ‘नहीं मालूम’ यही तो कोई कहेगा. ?ांपड़ तो नहीं मारेगा. और इसी बहाने कई बार नए मित्र भी बन जाते हैं.

जानकारी के बाद हम राशन कार्ड आफिस पहुंच गए. क्लर्क से आवेदनपत्र (फार्म) मांगा, मिल गया. फिर पूछा, ‘‘भैया, क्याक्या भरना है और क्याक्या प्रमाणपत्र इस के साथ देने हैं?’’

‘‘बिजली का बिल, पुराना राशन- कार्ड और उस में क्याक्या बदलना है, पता या प्राणियों की संख्या,’’ भैया एक सांस में बोल गया.

हम घबरा गए, ‘‘लेकिन मैं ने तो कभी राशनकार्ड बनवाया ही नहीं.’’

‘‘क्यों, कहां से आए हो?’’

‘‘बरेली, यू.पी. से.’’

‘‘तो वहां का राशनकार्ड लाओ,’’ भैया ने फरमाया.

‘‘अरे, वहां भी कभी बनवाया नहीं और वह तो बहुत पुरानी बात हो गई. बड़ौदा में 22 साल से रह रहा हूं. तो अब मैं बड़ौदा का ही रहने वाला हो गया.’’

उस ने हमें ऐसे घूरा जैसे हम कोई अजायबघर के जीव हों. फिर बोला, ‘‘तो फिर साहब से मिलो,’’ और दाईं तरफ इशारा किया.

हमारी भृकुटि तन गईं, ‘‘वहां तो कोई है ही नहीं?’’

‘‘साहब हर सोमवार को आते हैं और 11 से 2 बजे तक, तभी मिलो. आज गुरुवार है,’’ और हमें दरवाजा नापने का इशारा किया.

सोमवार को सवा 11 बजे पहुंचे तो देखा छोटे से दरवाजे के सामने करीब 60 लोग लाइन लगाए खड़े हैं. हम भी उन के पीछे खड़े हो गए. कुछ देर गिनती करते रहे और पाया कि एक प्राणी हर 4 मिनट में अंदर जाता है यानी हमारा नंबर 4 घंटे बाद आएगा. दिल टूट गया, कुछ तिकड़म लगाना पड़ेगा.

वहां से बाहर आए और मित्र सागरभाई को अपनी दुखभरी कहानी सुनाई. वे फोन पर बोले, ‘‘काटजू साहब, चिंता की कोई बात नहीं, सब पैसे बनाने के धंधे हैं. आप अपने कागज मु?ो दे दीजिए. मैं अपने एक एजेंट मित्र से काम करवा दूंगा. 3 साल पहले मैं ने अपना भी राशनकार्ड ऐसे ही बनवाया था.’’

हम बड़े खुश हुए कि चलो, बला टली. मन ही मन कहा कि सागरभाई, दोस्त हो तो आप जैसा. जा कर उन्हें सब कागजों की एकएक प्रतिलिपि दे दी.

एक बात और, ‘एक हथियार काम न करे तो दूसरा तो काम करे,’ यह सोच कर अपने एक और मित्र गोबिंदभाई से भी संपर्क किया. उन्होंने तो अपने एक पुराने मामलतदार मित्र से मुलाकात भी करवा दी.

पटेल साहब बोले, ‘‘आप को कब तक राशनकार्र्ड चाहिए?’’

‘‘यही 8-10 दिन में.’’

वे बेफिक्री से बोले, ‘‘ठीक है, अपने सब कागजात दे दीजिएगा.’’

वापस लौटते समय गोबिंदभाई ने सम?ाया कि पटेल साहब को कुछ दक्षिणा भी देनी पड़ेगी और दक्षिणा समय पर निर्भर रहेगी, कम समय माने अधिक दक्षिणा. हम सम?ा गए, सिर हिला दिया.

2 दिन बाद हम ने फोन किया, ‘‘सागरभाई, मामला तय हो गया?’’

फोन पर रोनी आवाज सुनाई दी, ‘‘नहीं साहब, उस ने कहा है कि अब यह काम बहुत मुश्किल हो गया है. वह नहीं बनवा सकता. राशन विभाग के भाईलोग बहुत सख्त हो गए हैं, उस को घास भी नहीं डालते.’’

 

मन ही मन हम ने सागरभाई और उन के एजेंट को गाली देते हुए फोन रख दिया. यह दांव तो खाली गया.

अब हम पहुंचे पटेल साहब के यहां. उन की बहू घंटी सुनने पर बाहर निकली.

‘‘साहब हैं?’’ हम ने पूछा.

‘‘नहीं.’’

‘‘अरे, कहां गए?’’

‘‘भारगाम.’’

‘‘कब आएंगे?’’

‘‘5 दिन बाद.’’

हम ने फिर माथा पकड़ लिया. लगता है यह सोमवार भी गया. दर्देदिल लिए हुए गोबिंदभाई को मामला-ए-राशन कार्ड की रिपोर्ट दी. उन्होंने दिलासा दिया, ‘‘कोई बात नहीं काटजू साहब, 5 दिन बाद पटेल साहब आप का काम जरूर करवा देंगे.’’

हम ने घर की राह ली.

मंगलवार को फिर पटेल साहब के दर्शन हेतु निकल पड़े. अब की किस्मत से साहब घर पर ही थे.

‘‘साहब, मेरे राशनकार्ड का काम?’’

पटेल साहब ने दुखभरी मुद्रा बनाई, ‘‘काटजू साहब, 2-3 महीने लग जाएंगे. डिपार्टमेंट में कुछ अंदरूनी जांच चल रही है. मेरी सम?ा से आप खुद ही कार्ड के लिए जाएं तो ठीक होगा.’’

हम ने मन ही मन अपनेआप को कोसा और पटेल साहब को भी. बड़ा तीसमार खां बना फिरता था. कहता था, ‘कितने दिनों में कार्ड चाहिए?’ मेरे 2 सोमवारों का खून कर दिया. सोचा भीम और अर्जुन तो फेल हो गए, अब शेर की मांद में खुद ही जाना पड़ेगा और कोई चारा बचा ही नहीं था. चलो, इस को भी आजमा लिया जाए.

खैर, सोमवार को पौने 11 बजे राशनकार्ड के दफ्तर पहुंचे तो देखा लंबी लाइन लगी हुई है, जबकि दरवाजा बंद है, हम भी लाइन में लग गए. बुढ़ापे में समय की कोई तकलीफ नहीं और करना भी क्या है? हां, स्टैमिना अवश्य चाहिए, कहीं खड़ेखड़े दिल धड़कना न बंद कर दे.

गिनती की तो सामने 55 जवान व बूढ़े खड़े थे. अगर हरेक पर 3-3 मिनट लगता है तो ढाई या 3 घंटे लगेंगे. खैर, देखते हैं क्या होता है?

?ोले से यह सोच कर किताब निकाली कि चलो, 2-3 अध्याय ही पढ़ लिए जाएं. वैसे भी हमारी आदत है कि जहां किसी काम के लिए बैठना या खड़े रहना पड़ेगा वहां हम कोई किताब जरूर ले जाते हैं, टाइम पास के लिए. अभी 3 पन्ने पढ़े ही थे कि दफ्तर खुला. आधे घंटे में 5 प्राणी अंदर घुसे. हम गम में डूब गए, अब क्या होगा? सामने वाले पुरुष ज्ञानी व दयालु निकले. पूछा तो उन्होंने सवाल किया, ‘‘आप को क्या करवाना है?’’

‘‘नया राशनकार्ड बनवाना है.’’

‘‘सौगंधपत्र बनवा लिया है?’’

‘‘यह क्या बला है.’’

वे हंसे (हमारे दुख पर), ‘‘अरे, ऐफिडेविट. इस के बिना कुछ नहीं होगा. आप इसे बनवा लीजिए.’’

‘‘बगल वाली इमारत में इस का दफ्तर है. वहां आवेदनपत्र भी मिल जाएगा और स्टैंपपेपर भी.’’

हम उस ओर भागे.

रास्ते में एक और सज्जन से पूछा, ‘‘सौगंधपत्र यहां कहां पर बनता है?’’

वे भी ज्ञानी व मार्गदर्शक निकले. बोले, ‘‘यहीं बनता था, किंतु गांधी- जयंती के बाद से अब नर्मदा भवन में बनता है.’’

वडोदरा शहर की खासीयत है कि सभी सरकारी आफिस, दोचार किलोमीटर के भीतर ही मिल जाते हैं. उन्हें धन्यवाद दे कर हम नर्मदा भवन भागे.

नर्मदा भवन में 3 देवियों ने हमारी बहुत सहायता की. एक सज्जन ने फार्म तो दे दिया किंतु कुबेर भवन जाने की सलाह दी. हम अब तक काफी अनुभव प्राप्त कर चुके थे. कुछ शंका हुई और पास खड़े चौकीदार की तरफ देखा. वह भी अनुभवप्राप्त प्राणी था उस ने अपने पास बुलाया फिर अंदर इशारा किया, ‘‘उस महिला से मिलो.’’

उस युवती ने फार्म भरवाया फिर बिजली बिल, पासपोर्ट की कापी इत्यादि नत्थी की और अंदर दाईं तरफ की मेज पर जाने को कहा.

वहां एक मुहर लगाई गई, रजिस्टर में कुछ लिखा गया और 11 नंबर का सिक्का दिया और कहा, ‘‘उस 11 नंबर के काउंटर पर जाइए, वहां आप का सब काम हो जाएगा.’’

11 नंबर काउंटर की कुमारी मुसकराई तो बड़ी भोली लगी. वह थी तो दुबलीपतली पर बहुत खूबसूरत थी. बोली, ‘‘कहिए?’’

‘‘पहले अपना नाम बताइए.’’

वह खिले चेहरे से बोली, ‘‘निकी.’’

‘‘आगे?’’

‘‘पाटिल.’’

‘‘कुछ खातीपीती नहीं हो क्या? देखो, हाथ की हड्डी भी उभरी हुई दिख रही है और उम्र तो 17 की होगी.’’

मुसकरा कर बोली, ‘‘अंकल, खाती बहुत हूं किंतु वजन नहीं बढ़ता, और 22 वर्ष की हूं.’’

‘‘पढ़ाई कितनी की, बी.कौम या 12वीं?’’

‘‘नहीं, कंप्यूटर साइंस में डिप्लोमा किया है.’’

‘‘और शादी?’’

उस ने सिर हिला दिया.

हम ने सोचा कि इसे अपने बेटे के लिए गांठ लें तो बहुत भाग्यवान सम?ोंगे.

अपने काम के बीच में बोल पड़ी, ‘‘क्या सोच रहे हैं, अंकल?’’

लगता है, हमारे मन के विचारों को उस ने पढ़ लिया था. सो बोला, ‘‘सोच रहा था कि तुम्हारी व मेरे बेटे की जोड़ी कैसी रहेगी? वह भी अविवाहित है. वैसे तुम मेरा काम पूरा करो नहीं तो बातों ही बातों में पूरा दिन बीत जाएगा.’’

उस ने कनखियों से हमें घूरा, आंखों से आश्चर्य जाहिर किया. सोचा होगा कि कैसे अंकल से पाला पड़ा है, काम के साथ रिश्ता भी ले आए. फिर कहा, ‘‘20 रुपए दीजिए, अंकल. यहां हस्ताक्षर कीजिए और सीधे खड़े रहिए. मु?ो आप की फोटो खींचनी है, सौगंधपत्र पर जाएगी.’’

फोटो खींचने के बाद निकी ने भरा फार्म हमें थमाते हुए उप मामलतदार की तख्ती की तरफ इशारा किया कि वहां यह दे दीजिए. वे रजिस्टर में इसे दर्ज व हस्ताक्षर कर आप को दे देंगी.

उस को धन्यवाद दे हम आगे बढ़े.

कुछ ही देर में नर्मदा भवन का सारा काम समाप्त हुआ. सौगंधपत्र हमारे हाथ में था.

घड़ी में देखा तो साढ़े 12 बज चुके थे. सोचा, शायद आज ही काम बन जाए और हम कुबेर भवन जा पहुंचे.

देखा, भीड़ तो कम थी. करीब 20 प्राणी. हम भी उन्हीं में लग गए, 21वें. सामने एक जवान था. परिचय किया, ‘‘आप का नाम?’’

‘‘हितेनभाई.’’

हम ने कहा, ‘‘यार, जरा आगे जा कर पता लगा लो कि भीड़ कितनी रफ्तार से चल रही है और नए राशनकार्ड के लिए कुछ और ?ामेला यानी कुछ और कागजात तो नहीं चाहिए. मैं कतार में तुम्हारी जगह सुरक्षित रखता हूं.’’

हितेन मान गया और आगे दरियाफ्त कर के बदहवास हालत में वापस लौटा. बोला, ‘‘नया राशनकार्ड यहां नहीं भुतड़ी कचहरी में बनता है. यहां केवल पुराने कार्डों के नाम या बदले पते ठीक किए जाते हैं.’’

‘‘अच्छा, यह भूत की कचहरी है कहां?’’

‘‘मु?ो नहीं मालूम.’’

हमारा यह वार्त्तालाप एक और सज्जन सुन रहे थे. बीच में आ गए, ‘‘मैं जानता हूं और मु?ो भी वहीं जाना है. जुबली बाग यहां से करीब डेढ़ किलोमीटर दूर है.’’

हितेनभाई के पास मोटरसाइकिल थी, हमारे पास स्कूटर तो हम ने उस सज्जन से कहा, ‘‘चलिए, आप को ले चलते हैं. रास्ता बता दीजिएगा.’’

भुतड़ी कचहरी में केवल 4 लोग कतार में थे. हमारा नंबर आने पर अधिकारी बदतमीजी से बोला, ‘‘यह क्या है? आवेदनपत्र कहां है, ऐफिडेविट व मतदाता पहचानपत्र कहां है?’’

‘‘यह रहा आवेदनपत्र और यह ऐफिडेविट है. मतदाता पहचानपत्र खो गया.’’

‘‘उस के बिना कुछ नहीं होगा. वह लाओ. कहां से आए हो?’’

‘‘वैसे तो बरेली, यू.पी. का रहने वाला हूं लेकिन वडोदरा में 22 साल से रह रहा हूं. अभी तक राशनकार्ड की कभी कोई जरूरत नहीं पड़ी. इसलिए बनवाया नहीं था.’’

‘‘तो अब कौन सी जरूरत आन पड़ी है?’’

‘‘गैस सिलेंडर वाला राशनकार्ड दिखाने को कह रहा है.’’

उस ने हमारे सारे कागज वापस करते हुए कहा, ‘‘जाओ, मेरा समय बरबाद न करो. बाहर दाईं तरफ दरवाजे पर एक आदमी बैठा है. वह आप को सब सम?ा देगा कि क्याक्या लाना है.’’

हम निराश हो बाहर निकले. देखा हितेन भी मुंह लटकाए खड़ा था. उस को भी अधिकारी ने ?िड़क दिया था. बाहर के आदमी से पूछा तो वह ज्ञानी निकला. हमारे कागजात देखे और सु?ाव दिया.

‘‘यहां कुछ नहीं होगा. आप कुबेर भवन के नीचे कमरा नं. 23 में जाइए. वहीं सब काम होगा.’’

‘‘लेकिन वहां से तो हम आए हैं. और यहां उस अंदर के बाबू ने यह सब और मांग लिया. कहां से लाएंगे?’’

‘‘आप उन की परवा न कीजिए. जैसा मैं कहता हूं वैसा कीजिए.’’

वहां से हट कर हम उबल पड़े. ‘‘सच, हम भारतवासियों को एकदूसरे को तड़पाने व तड़पते देख खूब आनंद आता है. कभी कहते हैं यह लाओ, कभी कहते हैं वह लाओ.’’

हमारे समाज में पुरुषों को रोना वर्जित है, स्त्री होते तो दहाड़ मारमार कर रो लेते. गम में डूबे हुए जब कुबेर भवन पहुंचे तो देखा कमरा नंबर 23 बंद हो चुका था.

8वीं मंजिल पर बहू से जा कर मिले तो उस ने कहा, ‘‘पापा, अपने कागज मु?ो दीजिए. मैं अपनी एक मित्र से पूछताछ करवाऊंगी. वह नीचे की पहली मंजिल पर काम करती है और ऐसे मामलों को निबटाती भी है.’’

हम बोले, ‘‘ठीक है, बेटी. कोशिश करो. 400-500 तक खर्च करने को मैं तैयार हूं.’’

2 दिन बाद बहू का फोन आया, ‘‘मैं अपनी दोस्त के साथ राशन अधिकारी से मिली थी. बड़ा बदतमीज आदमी है. पहले तो एकदम मना कर दिया. फिर जब मैं ने कहा कि मैं भी राज्य सरकार में काम करती हूं तब माना. उस का रेट 500 रुपए है. आप अगले सोमवार को आइएगा.’’

हम ने बहू को धन्यवाद दिया. विक्रम और बेताल की कहानी में विक्रम की तरह सोमवार को हम फिर दफ्तर पहुंचे. बहू को फोन मिलाया तो वह नीचे उतर कर आई और लाइन में हमें खड़े देख संतुष्ट हुई. बोली, ‘‘मेरी दोस्त की किसी करीबी रिश्तेदार की 2 दिन पहले मौत हो गई है. वह कई दिन नहीं आ पाएगी. अच्छा किया आप लाइन में लग गए.’’

कतार में करीब 25 लोग लगे थे. 40 मिनट में अपना नंबर आ गया. साहब के पास कागज का पुलिंदा रख चुपचाप खड़े हो गए. सब पन्नों पर उन्होंने एक निगाह डाली फिर कुछ कहे बिना हस्ताक्षर कर हमें बाहर की तरफ इशारा कर दिया.

बाहर गए. पावती पाने वालों की कतार लगी थी, यानी कागज व रुपए जमा कर रसीद लेना. इस कतार मेें हम घंटे भर तक धीरेधीरे सरकते रहे फिर आफिस के अंदर दाखिल हुए. 20 रुपए दिए, रसीद मिली और आदेश मिला कि 5 नवंबर को शाम 4 से 6 बजे के बीच कार्ड लेने आ जाना.

रसीद को पर्स में संभाल कर रखा (खरा सोना जो हो गया था) ऊपर भागे बहू को धन्यवाद देने. देखें, अब 5 नवंबर को क्याक्या गुल खिलते हैं.

5 नवंबर को राशनकार्ड मिल गया, आप को आश्चर्य हुआ न? हमें भी हो रहा है, आज तक.

मेरा पढ़ने में मन नहीं लगता है, आप ही बताइएं मैं क्या करूं ?

सवाल

मैं 17 साल का लड़का हूं. मेरा पढ़ने में मन नहीं लगता है. मेरे घर वाले चाहते हैं कि मैं कोई छोटीमोटी दुकान खोल लूं. लेकिन मैं कोई बड़ा काम करना चाहता हूं. मुझे सही सलाह दें?

जवाब

देखिए, समय के साथसाथ बहुत चीजें बदल रही हैं. जरूरी नहीं कि जो बच्चा पढ़ाई में अच्छा नहीं या उस का पढ़ाई में मन नहीं लगता, वह जीवन में कुछ नहीं कर सकता. आज अनेक क्षेत्र हैं जहां महारत हासिल कर बच्चे अपना उज्ज्वल भविष्य बना रहे हैं.

आप के कुछ न कुछ शौक तो होंगे ही. आप उस पर फोकस कर के उसे अपना प्रोफैशन बना सकते हैं. आज के समय में अपने पैशन को प्रोफैशन बना कर बच्चे हजारोंलाखों कमा रहे हैं. हम आप को कई औप्शन बताते हैं जैसे कि फोटोग्राफी इस में किसी डिग्री की जरूरत नहीं है, आप इस प्रोफैशन में जा कर हजारों कमा सकते हैं. मौडलिंग / एक्टिंग भी अच्छा प्रोफैशन है. बस, यहां धोखेबाजों से बच कर रहें. इस फील्ड में कोर्स कर अपना स्किल बढ़ा सकते हैं. यदि आप फिटनैस फ्रीक हैं तो जिम ट्रेनर बन सकते हैं.

इस के अलावा अगर आप डांस का शौक रखते हैं तो फिर तो कई औप्शन आप के पास हैं. डांस क्लासेस ले सकते हैं, कोरियोग्राफर बन सकते हैं. सोशल मीडिया प्लेटफौर्म, यूट्‌यूब के जरिए भी अपना डांस पैशन को मनी मेकिंग बना सकते हैं. मेकअप आर्टिस्ट भी आज के टाइम में बहुत अच्छा फील्ड है.अब आप देखिए आप क्या शौक रखते हैं और उस शौक के जरिए काम कर सकते हैं.

रात में जल्दी सोने से मिलते हैं ये 7 फायदे

रात में खाना ठीक समय पर खाना बेहद जरूरी है. आम तौर पर भाग दौड़ भरी माहौल में ये कर पाना काफी मुश्किल हो गया है पर हमेशा सेहतमंद रहने के लिए आपको अपने खाने के समय पर खासा ध्यान रखना होगा. इस खबर में हम आपको बताएंगे कि रात में जल्दी खाना क्यों फायदेमंद है.

  • सीने में नहीं होगी जलन

रात का खाना खाने के तुरंत बाद लोग बेड पर सोने चले जाते हैं. ऐसा करने से गैस की समस्या बढ़ती है.

  •  वेट कंट्रोल होता है

वजन कम करने के लिहाज से रात में जल्दी खाना जरूरी है. रात में जल्दी खा के आप टहले जरूर. ऐसा करने से आपका खाना अच्छे से पचेगा और फैट भी इक्कठ्ठा नहीं होगा.

  • आएगी अच्छी नींद

पूरे दिन थकने के बाद अगर आपको सही समय पर खाना मिल जाए तो आपको सोने के लिए भी पर्याप्त समय मिलेगा और सुबह में आप फ्रेश महसूस करेंगे.

  • रहेंगे ज्यादा एनर्जेटिक

समय से खाना खाने और समय से नींद लेने से आप सुबह में खुद को ज्यादा एनर्जेटिक महसूस करेंगे.

  • पेट रहेगा हल्का

समय पर खाना खाने से खाने को पचने का पूरा समय मिलता है. खाने के बाद टहलने से खाना अच्छे से पचता है और पेट हल्का रहता है. दूसरे दिन पेट हल्‍का रहता है और उसमें गैस की शिकायत नहीं होती.

  • दिल रहेगा स्‍वस्‍थ

जब खाना अच्छे से हजम होगा तो फैट और कौलेस्ट्रौल की परेशानी नहीं होगी और आपका दिल स्वस्थ रहेगा.

  • पेट की सभी बीमारियां दूर होती है

सही समय पर खाना खाने से जब वह पूरी हरह से हजम हो जाता है, तो उससे आपका पेट हमेशा सही रहता है. पेट में दर्द, गैस और अपच की समस्‍या नहीं रहती.

सुहानी गुड़िया : वो वहां किसके इंतजार में खड़ी थी ?

आज मेरा जी चाह रहा है कि उस का माथा चूम कर मैं उसे गले से लगा लूं और उस पर सारा प्यार लुटा दूं, जो मैं ने अपने आंचल में समेट कर जमा कर रखा था. चकनाचूर कर दूं उस शीशे की दीवार को जो मेरे और उस के बीच थी. आज मैं उसे जी भर कर प्यार करना चाहती हूं.

मुझे बहुत जोर की भूख लगी थी. भूख से मेरी आंतें कुलबुला रही थीं. मैं लेटेलेटे भुनभुना रही थी, ‘‘यह मरी रेनू भी ना जाने कब आएगी. सुबह के 10 बजने को हैं, पर महारानी का अतापता ही नहीं. यह लौकडाउन ना होता तो ना जाने कब का इसे भगा देती और दूसरी रख लेती. जब इसे काम की जरूरत थी तो कैसे गिड़गिड़ा मेरे पास आई थी और अब नखरे देखो मैडम के.’’

अरविंद सुबहसुबह मुझे चाय के साथ ब्रेड या बिसकुट दे कर दवा खिलाते और खुद दूध कौर्नफ्लैक्स खा कर अस्पताल चले जाते हैं. डाक्टरों की छुट्टियां कैंसिल हैं, इसलिए ज्यादा मरीज ना होने पर भी उन्हें अस्पताल जाना ही पड़ता है.

मैं डेढ़ महीने से टाइफाइड के कारण बिस्तर पर पड़ी हूं. घर का सारा काम रेनू ही देखती है. मैं इतनी कमजोर हो गई हूं कि उठ कर अपने काम करने की भी हिम्मत नहीं होती. पड़ेपड़े न जाने कैसेकैसे खयाल मन में आ रहे थे, तभी सुहानी की मधुर आवाज मेरे कानों में पड़ी, ‘‘मां आप जाग रही हैं क्या? मैं आप के लिए चाय बना लाऊं.’’

मैं ने कहा, ‘‘नहीं, चाय और दवा तो तेरे बड़े पापा दे गए हैं, पर बहुत जोर की भूख लगी है. रेनू भी ना जाने कब आएगी. कितना भी डांट लो, इस पर कोई असर नहीं होता.’’

सुहानी बोली, ‘‘मां, आप उस पर चिल्लाना मत, आप की तबीयत और ज्यादा खराब हो जाएगी.’’

उस ने टीवी औन कर के लाइट म्यूजिक चला दिया. मैं गाने सुन कर अपना ध्यान बंटाने की कोशिश करने लगी.

थोड़ी ही देर में सुहानी एक प्लेट में पोहा और चाय ले कर मेरे पास खड़ी थी. मैं हैरानी से उसे देख कर बोली, ‘‘अरे, यह क्या किया तुम ने, अभी रेनू आ कर बनाती ना.’’

सुहानी ने बड़े धीमे से कहा, ‘‘मां, आप को भूख लगी थी, इसीलिए सोचा कि मैं ही कुछ बना देती हूं.’’

मेरा पेट सच में ही भूख के कारण पीठ से चिपका जा रहा था, इसलिए मैं प्लेट उस के हाथ से ले कर चुपचाप पोहा खाने लगी. उस ने मुझ से पूछा, ‘‘मां, पोहा ठीक से बना है ना?’’

नमक थोड़ा कम था, पर मैं मुसकरा कर बोली, ‘‘हां, बहुत अच्छा बना है, तुम ने यह कब बनाना सीखा.’’

यह सुन कर उस की आंखों में जो संतोष और खुशी की चमक मुझे दिखी, वह मेरे मन को छू गई.

जब से मैं बीमार पड़ी हूं, मेरे पति और बच्चों से भी ज्यादा मेरा ध्यान सुहानी रखती है. मेरे कुछ बोलने से पहले ही वह समझ जाती है कि मुझे क्या चाहिए.

मुझे याद आने लगा वह दिन, जब मेरे देवरदेवरानी अपनी नन्ही सी बिटिया के साथ शौपिंग कर के लौट रहे थे. सामने से आती एक तेज रफ्तार कार ने उन की कार में टक्कर मार दी. वे दोनों बुरी तरह घायल हो गए.

देवर ने तो अस्पताल ले जाते समय रास्ते में ही दम तोड़ दिया था और देवरानी एक हफ्ते तक अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझने के बाद भगवान को प्यारी हो गई.

अस्पताल में जब अर्धचैतन्य अवस्था में देवरानी ने नन्ही सलोनी का हाथ अरविंद के हाथों में थमाते हुए कातर निगाहों से देखा तो वह फफकफफक कर रो पड़े. उन की मृत्यु के बाद लखनऊ में उन के घर, औफिस, फंड, ग्रेच्युटी वगैरह के तमाम झमेलों का निबटारा करने के लिए लगभग 2 महीने तक अरविंद को लखनऊ में काफी भागदौड़ करनी पड़ी. सारी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद सलोनी की कस्टडी का प्रश्न उठा.

देवरानी का मायका रायबरेली में 3 भाइयों और मातापिता का सम्मिलित परिवार और व्यवसाय था. वे चाहते थे कि सलोनी की कस्टडी उन्हें दे दी जाए. उन के बड़े भैया बोले, ‘‘सलोनी हमारी बहन की एकमात्र निशानी है, हम उसे अपने साथ ले जाना चाहते हैं.’’

इस पर अरविंद ने कहा कि सलोनी मेरे भाई की भी एकमात्र निशानी है. वहीं अरविंद के पिताजी बोले, ‘‘सलोनी कहीं नहीं जाएगी. मेरे बेटे अनिल की बिटिया हमारे घर में ही रहेगी.”

इस पर देवरानी का छोटा भाई बिगड़ कर बोला, ‘‘मैं अपनी भांजी का हक किसी को नहीं मारने दूंगा. आप लोग मेरे बहनबहनोई की सारी संपत्ति पर कब्जा करना चाहते हैं, इसीलिए सलोनी को अपने पास रखना चाहते हैं.’’

इस विषय पर अरविंद और मांबाबूजी की उन से बहुत बहस हुई. अरविंद और बाबूजी जानते थे कि उन लोगों की नजर मेरे देवर के लखनऊ वाले मकान और रुपयोंपैसों पर थी. सलोनी के नानानानी बहुत बुजुर्ग थे, वे उस की देखभाल करने में सक्षम नहीं थे. अंत में अरविंद ने सब को बैठा कर निर्णय लिया कि अम्मांबाबूजी बहुत बुजुर्ग हैं और गांव में सलोनी की पढ़ाईलिखाई का उचित इंतजाम नहीं हो सकता, इसलिए सलोनी मेरे साथ रहेगी. अनिल का लखनऊ वाला मकान सलोनी के नाम पर कर दिया जाएगा और उसे किराए पर उठा दिया जाएगा. उस का जो भी किराया आएगा, उसे सलोनी के अकाउंट में जमा कर दिया जाएगा.

अनिल के औफिस से मिला फंड वगैरह का रुपया भी सलोनी के नाम से फिक्स कर दिया जाएगा, जो उस की पढ़ाईलिखाई और शादीब्याह में खर्च होगा.

अरविंद के इस फैसले से मैं सहम गई. उस समय तो कुछ न कह पाई, पर अपने 2 छोटे बच्चों के साथ एक और बच्चे की जिम्मेदारी उठाने के लिए मैं बिलकुल तैयार नहीं थी. अभी तक जिस सहानुभूति के साथ मैं उस की देखभाल कर रही थी, वह विलुप्त होने लगी.

मैं ने डरतेडरते अरविंद से कहा, ‘‘सुनिए, मुझे लगता है कि आप को सलोनी को उस के नानानानी को दे देना चाहिए. नानानानी और मामा के बच्चों के साथ वह ज्यादा खुश रहेगी.’’

अरविंद शायद मेरी मंशा भांप गए और मेरे कंधे पर सिर रख कर रो पड़े. कातर नजरों से मेरी ओर देखते हुए बोले, ‘‘रंजू, अनिल मेरा एकलौता भाई था. वह मुझे इस तरह छोड़ जाएगा, यह सपने में भी नहीं सोचा था. सलोनी मेरे पास रहेगी तो मुझे लगेगा मानो मेरा भाई मेरे पास है.’’

मैं ने उन्हें जीवन में पहली बार इतना मायूस और लाचार देखा था. वह बच्चों की तरह बिलखते हुए बोले, ‘‘रंजू, मेरे मातापिता और सलोनी को अब तुम्हें ही संभालना है.’’

उन को इतना व्यथित देख मैं ने चुपचाप नियति को स्वीकार कर लिया. बाबूजी इस गम को सह न पाए. हार्ट पेशेंट तो थे ही, महीनेभर बाद दिल का दौरा पड़ने से परलोक सिधार गए.

बाबूजी के जाने के बाद तो अम्मां मानो अपनी सुधबुध ही खो बैठीं, न खाने का होश रहता, न नहानेधोने का. हर समय पूजापाठ में व्यस्त रहने वाली अम्मां अब आरती का दीया भी ना जलाती थीं. वे कहतीं, ‘‘बहू, अब कौनो भगवान पर भरोसा नाही रही गओ है, का फायदा ई पूजापाठ का जब इहै दिन दिखबे का रहै.’’

उन्हें कुछ भी समझाने का कोई फायदा नहीं था. वे अंदर ही अंदर घुलती जा रही थीं. एक बरस बाद वे भी इस दुनिया को छोड़ कर चली गईं.

अरविंद अपने काम में बहुत व्यस्त रहने लगे. सामान्य होने में उन्हें दोतीन वर्ष का समय लग गया.

नन्ही सलोनी मुझे मेरे घर में सदैव अवांछित सदस्य की तरह लगती थी. उस के सामने न जाने क्यों मैं अपने बच्चों को खुल कर न तो दुलरा ही पाती और न ही खुल कर गले लगा पाती थी. मैं अपने बच्चों के साथसाथ उसे भी तैयार कर के स्कूल भेजती और उस की सारी जरूरतों का ध्यान रखती, पर कभी गले से लगा कर दुलार ना कर पाती.

समय कब हथेलियों से सरक कर चुपकेचुपके पंख लगा कर उड़ जाता है, इस का हमें एहसास ही नहीं होता. कब तीनों बच्चे बड़े हो गए और कब मैं सलोनी की बड़ी मां से सिर्फ मां हो गई, मुझे पता ही ना चला. मैं उसे कुछ भी नहीं कहती थी, पर सुमित और स्मिता को जो भी इंस्ट्रक्शंस देती, वह उन्हें चुपचाप फौलो करती. उन दोनों को तो मुझे होमवर्क करने, दूध पीने और खाने के लिए टोकना पड़ता था, पर सलोनी अपना सारा काम समय से करती थी.

मुझे पेंटिंग्स बनाने का बड़ा शौक था. घर की जिम्मेदारियों की वजह से मैं अपने इस शौक को आगे तो नहीं बढ़ा पाई, पर बच्चों के प्रोजैक्ट में और जबतब साड़ियों, कुरतों और कपड़ों के बैग वगैरह पर अपना हुनर आजमाया करती थी.

जब भी मैं कुछ इस तरह का काम करती, तो सुहानी भी अपनी ड्राइंग बुक और कलर्स के साथ मेरे पास आ कर बैठ जाती और अपनी कल्पनाओं को रंग देने का प्रयास करती. यदि कहीं कुछ समझ में ना आता, तो बड़ी मासूमियत से पूछती, ‘‘बड़ी मां, इस में यह वाला रंग करूं अथवा ये वाला ज्यादा अच्छा लगेगा.’’ उस की कला में दिनोंदिन निखार आता गया. विद्यालय की ओर से उसे सभी प्रतियोगिताओं के लिए भेजा जाने लगा और हर प्रतियोगिता में उसे कोई ना कोई पुरस्कार अवश्य मिलता. पढ़ाई में भी अव्वल सलोनी अपने सभी शिक्षकशिक्षिकाओं की लाड़ली थी.

जब कभी सुमित, स्मिता और सुहानी तीनों आपस में झगड़ा करते, तो सुहानी समझदारी दिखाते हुए उन से समझौता कर लेती. मैं बच्चों के खेल और लड़ाई के बीच में कोई दखलअंदाजी नहीं करती थी.

डेढ़ महीने पहले जब डाक्टर ने मेरी रिपोर्ट देख कर बताया कि मुझे टाइफाइड है तो सभी चिंतित हो गए. सुमित, स्मिता और अरविंद हर समय मेरे पास ही रहते और मेरा बहुत ध्यान रखते थे, पर धीरेधीरे सब अपनी दिनचर्या में बिजी हो गए.

अभी परसों की ही बात है, मैं स्मिता को आवाज लगा रही थी, ‘‘स्मिता, मेरी बोतल में पानी खत्म हो गया है, थोड़ा पानी कुनकुना कर के बोतल में भर कर रख दो.”

इस पर वह खीझ कर बोली, ‘‘ओफ्फो मम्मा, आप थोड़ा वेट नहीं कर सकतीं. कितनी अच्छी मूवी आ रही है, आप तो बस रट लगा कर रह जाती हैं.’’

इस पर सुहानी ने उठ कर चुपचाप मेरे लिए पानी गरम कर दिया. मेरी खिसियाई सी शक्ल देख कर वह बोली, ‘‘मां क्या आप का सिरदर्द हो रहा है, लाइए मैं दबा देती हूं.”

मैं ने मना कर दिया. सुमित बीचबीच में आ कर मुझ से पूछ जाता है, ‘‘मां, आप ने दवा ली, कुछ खाया कि नहीं वगैरह.”

स्मिता भी अपने तरीके से मेरा ध्यान रखती है और अरविंद भी, किंतु सलोनी उस के तो जैसे ध्यान में ही मैं रहती हूं.

आज मुझे आत्मग्लानि महसूस हो रही है. 11वीं कक्षा में पढ़ने वाली सलोनी कितनी समझदार है. मैं सदैव अपने घर में उसे अवांछित सदस्य ही मानती थी, कभी मन से उसे बेटी न मान पाई. लेकिन वह मासूम मेरी थोड़ी सी देखभाल के बदले में मुझे अपना सबकुछ मान बैठी. कितने गहरे मन के तार उस ने मुझ से जोड़ लिए थे.

मुझे याद आ रहा है उस का वह अबोध चेहरा, जब सुमित और स्मिता स्कूल से आ कर मेरे गले से झूल जाते और वह दूर खड़ी मुझे टुकुरटुकुर निहारती तो मैं बस उस के सिर पर हाथ फेर कर सब को बैग रख कर हाथमुंह धोने की हिदायत दे देती थी.

उस ने मेरी थोड़ी सी सहानुभूति को ही शायद मेरा प्यार मान लिया था. अपनी मां की तो उसे ज्यादा याद नहीं, पर मुझे ही मानो मां मान कर चुपचाप अपना सारा प्यार उड़ेल देना चाह रही है.

आज मेरा जी चाह रहा है कि मैं उसे अपने गले से लगा कर फूटफूट कर रोऊं और अपने मन का सारा मैल और परायापन अपने आंसुओं से धो डालूं. मैं उसे अपने सीने से लगा कर ढेर सारा प्यार करना चाह रही हूं. मैं उस से कहना चाहती हूं, ‘‘मैं तेरी बड़ी मां नहीं सिर्फ मां हूं. मेरी एक नहीं दोदो बेटियां हैं. अपने और सलोनी के बीच जो कांच की दीवार मैं ने खड़ी कर रखी थी, वह आज भरभरा कर टूट गई है. सलोनी मेरी गुड़िया मुझे माफ कर दो.‘‘

Taapsee Pannu के साथ क्यों कोई बड़ा एक्टर काम नहीं करना चाहता ? जानें वजह

Taapsee Pannu : बॉलीवुड एक्ट्रेस ”तापसी पन्नू” को आज किसी पहचान की जरूरत नहीं है. उन्होंने बहुत ही कम समय में फिल्म इंडस्ट्री में अपनी एक अलग जगह बनाई हैं और इसी वजह से देश-विदेश में उनके लाखों चाहने वाले भी हैं. एक्ट्रेस ”तापसी” ने बड़े पर्दे पर वकील से लेकर साइंटिस्ट, हॉकी प्लेयर और शार्पशूटर जैसे दमदार किरदार निभाए हैं. इसके अलावा फिल्मों में उनको सशक्त महिलाओं की भूमिका निभाने वालीं अभिनेत्री के तौर पर भी देखा जाता है. इसी वजह से बॉलीवुड में उन्हें महिला प्रधान फिल्में करने वाली अदाकारा के रूप में भी जाना जाता हैं.

लेकिन क्या आपने कभी इस बात पर गौर दिया है कि उनकी ज्यादातर फिल्मों में उनके (why no big actor wants to work with Taapsee Pannu) अपोजिट कोई बड़ा अभिनेता नहीं होता है. आखिर क्यों कोई भी बड़ा एक्टर उनके साथ काम नहीं करना चाहता है ? अगर नहीं. तो आइए जानते हैं उस वजह के बारे में जिसके कारण बॉलीवुड का कोई भी बड़ा एक्टर ”तापसी पन्नू” के साथ काम नहीं करना चाहता हैं.

तापसी ने खुद किया था खुलासा

दरअसल एक बार एक इंटरव्यू में खुद अभिनेत्री ”तापसी पन्नू” (Taapsee Pannu) ने इस बात का खुलासा किया था कि क्यों कोई भी बड़ा मेल एक्टर उनके साथ काम नहीं करना चाहता है. इंटरव्यू में जब उनसे पूछा गया कि, ‘अब तक उन्होंने क्यों किसी बड़े एक्टर के साथ काम नहीं किया है ?’ तो इस पर एक्ट्रेस ने कहा, ‘करियर के शुरुआत से ही मुझे किसी भी बड़े स्टार के साथ काम करने का मौका नहीं मिला. इसलिए मेरे पास सिर्फ ऐसी ही फिल्में करने का विकल्प रह गया.’ इसी के आगे ”तापसी” ने कहा, ‘वैसे आज भी मेरे पास ज्यादा विकल्प नहीं हैं. इसके अलावा मैंने कभी भी किसी से नहीं कहा है कि मैं एक हीरो से छोटा रोल नहीं करूंगी जबकि कई मेल अभिनेताओं ने मुझसे खुद कहा है कि वो उन फिल्मों में काम नहीं करना चाहते हैं, जिसमें एक हीरो का रोल किसी भी महिला किरदार से कम हो या महिला का किरदार बहुत स्ट्रांग हो या दूसरे किरदारों खासकर हिरो के रोल पर हावी हो. ये ही संघर्ष मेरी हर फिल्म के साथ होता है क्योंकि मेरी ज्यादातर फिल्मों में महिला का किरदार सशक्त होता है. जो कि उनके हिसाब से एक पुरुष अभिनेताओं के लिए खतरा है.’

तापसी पन्नू ने बड़े एक्टर पर साधा निशाना

इसी के आगे ”तापसी पन्नू” (Taapsee Pannu) ने ये भी कहा था कि, ‘अभिनेत्रियों के बीच महिला प्रधान फिल्मों को लेकर होड़ कम है क्योंकि कई अभिनेत्रियां फिल्मों का भार अपने कंधों पर नहीं लेना चाहती हैं. अगर फिल्में नहीं चली तो फ्लॉप का बिल उनके नाम पर ही फटेगा और इसी वजह से कई अभिनेत्रियां ऐसी फिल्मों में काम करने से बचती हैं.’

इसके अलावा एक्ट्रेस का ये भी मानना है कि, ‘उनको फिल्म इंडस्ट्री के दोगलेपन और मिसोजिनिस्ट (Misogynist) रवैये पर बहुत ज्यादा दुख होता है. क्योंकि जहां अभिनेत्रियां आसानी से पुरुष प्रधान फिल्मों का हिस्सा बनने के लिए तैयार हो जाती हैं तो वहीं जब चीजें बदल रही हैं तो एक मेल एक्टर घबरा रहे हैं.’ इसी के आगे उन्होंने कहा, उन अभिनेताओं को लगता है कि महिला प्रधान फिल्मों का हिस्सा बनकर उनकी स्टार पावर में कमी आ जाएगी. हालांकि कई मौको पर ये ही अभिनेता महिला-पुरुषों के बीच समानता की बात करते हैं लेकिन वहीं दूसरी तरफ महिला प्रधान फिल्मों का हिस्सा नहीं बनते.’

इन फिल्मों में तापसी ने किया है काम

आपको बताते चलें कि अभी तक के अपने करियर में एक्ट्रेस ”तापसी पन्नू” (Taapsee Pannu) ने कई फिल्मों में काम किया है. जैसे कि बदला, पिंक, सांड़ की आंख और मुल्क आदि-आदि जिन सभी में उन्होंने सशक्त महिला का किरदार निभाया है और इसमें से ज्यादातर फिल्में दर्शकों के दिलों पर एक अलग छाप छोड़ने में कामयाब भी रही हैं.

संतानसुख के लिए क्या मुझे आईवीएफ तकनीक की मदद लेनी चाहिए ?

सवाल

मेरी उम्र 27 और पति की 30 साल है. हमारी शादी को 5 साल हो चुके हैं. हम दोनों की सारी जांचें नौर्मल आई हैं. पति की जांच में उन के शुक्राणुओं की संख्या भी लगभग 90 मिलियन आई है. बावजूद इस के हम संतानसुख से वंचित हैं. क्या हमें आईवीएफ तकनीक की मदद लेनी चाहिए?

जवाब

आप को घबराने की आवश्यकता नहीं है. चूंकि आप के पति के शुक्राणुओं की संख्या ठीक है, इसलिए आप को आईयूआई तकनीक की दरकार नहीं है. लेकिन आप के लिए बढि़या विकल्प आईवीएफ तकनीक है. इस की मदद से आप संतानसुख की प्राप्ति कर सकते हैं. हां, यह ध्यान रहे कि इस तकनीक के लिए किसी अच्छे डाक्टर से ही संपर्क करें.

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