कांग्रेसी नेता शशि थरूर के बारे में हरेक की अपनी राय हो सकती है जिस का औसत निचोड़ यह निकलेगा कि वे एक सैक्सी और रोमांटिक नेता हैं. यह पहचान दिलाने में भगवा गैंग और समूचे दक्षिणपंथ की पुरजोर कुंठित कोशिशें भी हैं. लेकिन हर कोई यह भी जानता है कि वे एक पर्याप्त शिक्षित बुद्धिजीवी, संभ्रांत और अभिजात्य जमीनी नेता हैं जिन के नाम वैश्विक स्तर के कई सम्मान और रिकौर्ड दर्ज हैं. एक सफल स्थापित लेखक और स्तंभकार भी वे हैं.
भारतीय राजनीति में सक्रिय और स्थापित हुए उन्हें अभी 15 साल भी पूरे नहीं हुए हैं पर इस अल्पकाल में वे अपनी खास पहचान गढ़ने में कामयाब हुए हैं. खासतौर से कांग्रेस की तो वे जरूरत बन चुके हैं. बावजूद इस हकीकत के कि गांधी-नेहरू परिवार के प्रति अंधभक्ति उन में नहीं है लेकिन कांग्रेस के मद्देनजर इस परिवार की जरूरत को वे भी नकार नहीं पाते.
इन्हीं शशि थरूर ने 18 अक्तूबर को एक अमेरिकी टैक कंपनी के दफ्तर के उद्घाटन कार्यक्रम में कहा कि ‘इंडिया’ गठबंधन 2024 के चुनाव में बहुमत ला भी सकता है. ऐसी स्थिति में कांग्रेस की तरफ से बतौर प्रधानमंत्री राहुल गांधी या मल्लिकार्जुन खड़गे नामांकित किए जा सकते हैं. यह एकाएक यों ही दिया गया वक्तव्य नहीं है बल्कि इसे कांग्रेसी रणनीति का एक हिस्सा ही माना जाना चाहिए जो भविष्य को ले कर काफी उत्साहित है और उस की अपनी ठोस वजहें भी हैं.
एक तरह से शशि थरूर ने एक बार फिर से दलित प्रधानमंत्री की सनातनी मांग को उठाया है, साथ ही, राहुल गांधी का नाम विकल्प के रूप में पेश कर दिया है. अगर कांग्रेस 200 से ऊपर सीटें ले गई तो तय है वह राहुल से कम पर तैयार नहीं होगी और 150 से 180 के बीच रही तो खड़गे का नाम आगे कर देगी. इस में कोई शक नहीं कि ‘इंडिया’ गठबंधन के सभी दल राहुल गांधी के नाम पर हाथ नहीं उठा देंगे. ममता बनर्जी इन में प्रमुख हैं क्योंकि क्षेत्रीय दलों में उन के पास लोकसभा की सब से ज्यादा सीटें रहने की उम्मीद है.
अरविंद केजरीवाल और आजकल नाराज चल रहे अखिलेश यादव भी अपने दलों और कांग्रेस की सीटों की संख्या देख सौदेबाजी करेंगे लेकिन यह तय है कि 2024 में इन में से किसी के पास भी कांग्रेस से एकचौथाई सीटें भी नहीं होंगी. नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव और स्टालिन ज्यादा ऐतराज राहुल के नाम पर जताएंगे, ऐसा हालफिलहाल लग नहीं रहा क्योंकि नरेंद्र मोदी का जादू अब उतार पर है. हालांकि हिंदीभाषी प्रदेशों में भाजपा बढ़त पर रहेगी लेकिन यह संख्या कितनी होगी, इस बारे में अभी नहीं कहा जा सकता. 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद तसवीर थोड़ी और साफ होगी. हालात ठीक वैसे या लगभग वैसे भी हो सकते हैं जैसे 1977 में जनता पार्टी के गठन के वक्त थे.
शशि थरूर ने दलित समुदाय के मन में एक उम्मीद तो जताई है कि अगर वे ‘इंडिया’ गठबंधन के पक्ष में वोट करते हैं तो देश को पहला दलित प्रधानमंत्री मिलने की उम्मीद बरकरार है जिस पर 1977 में जनता पार्टी ने पानी फेर दिया था. तब भी विरोध करने वालों में जनसंघ सब से आगे था जो आज भाजपा के नाम से जाना जाता है.
छले गए बाबू जगजीवन राम
बाबूजी के नाम से मशहूर उच्च शिक्षित जगजीवन राम का राजनीति में अपना एक अलग रुतबा हुआ करता था जिन्होंने महात्मा गांधी की प्रेरणा से आजादी की लड़ाई में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया था. देश आजाद होने के बाद वे एक ही सीट सासाराम से लगातार सांसद रहे. लगातार 30 साल कैबिनेट मंत्री रहने का रिकौर्ड आज भी उन के नाम है.
इस दौरान वे उपप्रधानमंत्री और कृषि मंत्री सहित रक्षा मंत्री भी रहे. बिहार के भोजपुर इलाके के इस कद्दावर दलित नेता ने कांग्रेस छोड़ जनता पार्टी का दामन थाम लिया था. वजह थी, आपातकाल के दौरान इंदिरा सरकार की मनमानी लेकिन उन के मन में कुछ और था. यह ‘कुछ और था’ प्रधानमंत्री बनने का सपना साकार करना था जिस के इंदिरा गांधी के रहते पूरा होने की कोई उम्मीद न थी.
70 के दशक में जयप्रकाश नारायण कांग्रेस और इंदिरा गांधी के विरोध में अलगअलग सिद्धांतों और विचारधारा वाले राजनीतिक दलों को एक मंच व निशान के नीचे लाने में कामयाब हो गए थे तब सब का एजेंडा ‘इंदिरा हटाओ’ था. लेकिन, उन की जगह कौन, यह विवाद सामने आया तो जनता पार्टी में रार पड़ गई.
सब से तगड़ी दावेदारी जगजीवन राम की ही थी लेकिन उन्होंने चूंकि इमरजैंसी का प्रस्ताव रखा था, इसलिए उन का विरोध शुरू हो गया जो एक बहाने से ज्यादा कुछ नहीं था. मकसद था एक दलित को देश की सब से ताकतवर कुरसी पर बैठने देने से रोकना. तब इस दौड़ में प्रमुखता से जनसंघ के चहेते मोरारजी देसाई और भारतीय क्रांति दल के चौधरी चरण सिंह थे. सांसदों में जनसंघ घटक के सब से ज्यादा 93 और इस के बाद भारतीय क्रांति दल के 71 सदस्य थे. जगजीवन राम की बनाई कांग्रेस फौर डैमोक्रेसी को 28 सीटें मिली थीं और इतने ही सदस्य सोशलिस्ट पार्टी के थे. इस पार्टी के वरिष्ठ नेता जौर्ज फर्नांडीज और मधु दंडवते जगजीवन राम के पक्ष में थे.
चरण सिंह न तो मोरारजी देसाई को चाहते थे और न ही जगजीवन राम को लेकिन जब इन दोनों में से किसी एक को चुनने का मौका आया तो वे मोरारजी के नाम पर सहमत हो गए. लेकिन यह सब आसान नहीं था. जगजीवन राम ने कांग्रेस छोड़ी ही इस उम्मीद और अघोषित शर्त पर थी कि उन्हें ही प्रधानमंत्री बनाया जाएगा. जनता पार्टी के जनक जयप्रकाश नारायण और जेबी कृपलानी ने जैसेतैसे मानमनौवल कर के जगजीवन राम को सहमत किया और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बन गए.
मोरारजी देसाई अति महत्त्वाकांक्षी और अहंकारी नेता थे जो जवाहरलाल नेहरू के बाद से ही प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी पेश करते रहे थे लेकिन आज की तरह तब भी कांग्रेस नेहरू-गांधी परिवार के अलावा और उस से ज्यादा कुछ सोच नहीं पाती थी. लालबहादुर शास्त्री की मौत के बाद जब प्रधानमंत्री चुनने की बात चली तब मोरारजी दौड़ में थे लेकिन कांग्रेस और कांग्रेसियों ने उन्हें खारिज कर दिया था जिस के कुछ सालों बाद ही उन्होंने कांग्रेस छोड़ कांग्रेस (ओ) का गठन कर लिया था जिसे गुजरात में रिस्पौंस भी मिला था.
जनता पार्टी ने 1977 का चुनाव प्रधानमंत्री का चेहरा पेश कर नहीं लड़ा था लेकिन जब वह बहुमत में आई तो मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह और जगजीवन राम तीनों प्रधानमंत्री बनने को अड़ गए थे. तीनों ही किसी भी कीमत पर प्रधानमंत्री बनना चाहते थे और एकदूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाते थे. तनातनी और रस्साकशी इतनी बढ़ गई थी कि एक बार तो ऐसा लगने लगा था कि गांव बसने के पहले ही उजड़ने वाला है. थकेहारे जयप्रकाश नारायण ने फैसला इन तीनों के ऊपर ही छोड़ दिया.
शुरुआत में तटस्थ दिख रही जनसंघ ने दलित जगजीवन राम के मुकाबले ब्राह्मण मोरारजी देसाई का पक्ष लिया तो चरण सिंह को बाजी हाथ से निकलती दिखाई दी क्योंकि संख्या बल में वे पिछड़ रहे थे. लिहाजा, उन्होंने भी सवर्ण होने का धर्म निभाते मोरारजी के नाम पर हामी भर दी और विवादों से बचने को बीमारी का बहाना बना कर अस्पताल में भरती हो गए. इस तरह ब्रह्मा का मुख जीत गया और पैर हार गया.
कट्टर हिंदूवादी जनसंघ ने, दिखावे को ही, खुद को इस ?ामेले से दूर ही रखा था. लालकृष्ण आडवाणी का ?ाकाव और लगाव दोनों ही मोरारजी देसाई के प्रति थे. आडवाणी और दूसरे तत्कालीन संघी जानतेसम?ाते थे कि जगजीवन राम आज भले ही कांग्रेस छोड़ आए हों पर उन का दिलोदिमाग धर्मनिरपेक्ष है और वे नेहरू-अंबेडकर का हिंदुत्वविरोधी रास्ता छोड़ेंगे नहीं. ऐसे में उन का प्रधानमंत्री बनना हिंदू के दीर्घकालिक एजेंडे पर पलीता फेरने वाला ही साबित होगा. इस मानसिकता के लोगों में शुमार एक प्रमुख नाम इंडियन एक्सप्रैस के मालिक रामनाथ गोयनका का भी था.
मोरारजी देसाई के नाम का ऐलान करते जेबी कृपलानी ने नाटकीय भावुकता के साथ कहा था कि यह फैसला हम व्यथित मन से ले रहे हैं अगर हमारे पास 2 प्रधानमंत्री चुनने का विकल्प होता तो दूसरा नाम बाबू जगजीवन राम का ही होता. इस फैसले को गुस्साए जगजीवन राम ने सहजता से नहीं स्वीकार लिया था. वे मोरारजी देसाई के शपथ ग्रहण समारोह में ही नहीं गए थे और कहा जाता है कि फैसले को सुनते ही वे फिल्मी स्टाइल में घर के फर्नीचर को लात मारते धोखाधोखा चिल्ला रहे थे.
4 दिनों बाद जब उन का गुस्सा कुछ कम हुआ तो जयप्रकाश नारायण ने उन के घर जा कर उन्हें पुचकारा कि नए भारत के निर्माण में आप का सहयोग जरूरी है तो वे मान गए और रक्षा मंत्रालय लेने को तैयार हो गए. शायद ही नहीं, तय है, अपनी खिसियाहट ढकने के लिए उन्हें भी इस से बेहतर कुछ लगा भी न होगा कि एकलव्य तो एकलव्य ही रहेगा, यही उस की नियति है.
दलित नेता जगजीवन राम
आज भी दलित नेता के रूप में जगजीवन का नाम देश के बड़े नेताओं में लिया जाता है, क्योंकि इस शिखर तक वे ही जन से जुड़ कर पहुंच पाए हैं. कांग्रेस देशभर में यह बताने की कोशिश करती है कि उस में दलित नेता इतनी ऊंची कदकाठी के बने. लेकिन हकीकत यह है कि जगजीवन राम को कांग्रेस ने इसलिए नहीं स्वीकारा कि उन के पिता जूते काटने वाले थे या जगजीवन भी इसी पेशे से जुड़े रहे, बल्कि इसलिए कि वे उस समुदाय में समृद्ध थे. उन के पिता शोभी राम गांव के ‘महंत’ थे. उन की समाज में पहले से ही अच्छीखासी पूछ थी.
बाबू जगजीवन राम का जन्म
5 अप्रैल, 1908 को शोभी राम और वसंती देवी के घर हुआ. बाबू जगजीवन का एक भाई और 3 बहनें थीं. जगजीवन उन सब में सब से छोटे थे. जगजीवन का नाम पहले बुद्धराम रखा गया था लेकिन बाद में उन के पिता ने बदल कर जगजीवन राम रख दिया. यह नाम उन्होंने अपने गुरु शिवनारायणी के बुक टाइटल से लिया था.
जगजीवन के पिता शोभी राम ब्रिटिश राज के दौरान इंडियन आर्मी में थे. लेकिन धार्मिक मतभेदों के चलते उन्होंने आर्मी से इस्तीफा दे दिया था. उस के बाद वे कलकत्ता के मैडिकल कालेज में काम करने लगे. वहां से परमानैंट रिटायरमैंट ले कर वे अपने गांव चांदवा में रहने लगे. रिटायर होने के कुछ समय बाद ही जगजीवन के पिता शिव नारायणी के प्रमुख आध्यात्मिक महंत बन गए, जोकि हिंदू सुधारवादी धड़े का हिस्सा थे.
जगजीवन के पिता आध्यात्मिक थे जो अपने गांव में भक्ति गीत गा कर भगवान की आराधना किया करते थे. उन की आध्यात्म पर लिखी किताबें काफी फेमस थीं. जगजीवन राम को उन की प्रारंभिक शिक्षा के दौरान पंडित कपिल मुनि तिवारी से गाइडैंस मिल रही थी. 1914 में जगजीवन राम के पिता की मृत्यु हो गई. तब वे 6 साल के थे. पिता की मृत्यु के बाद उन की मां, जोकि बेहद धार्मिक महिला थीं, ने उन की पढ़ाई व भक्तिभाव दृष्टिकोण में अहम भूमिका अदा की.
‘फुट प्रिंट औफ डा. बाबू जगजीवन राम इन प्रोग्रैसिव इंडिया’ किताब के लेखक अब्राहम मुतलुरी अपनी किताब में लिखते हैं, ‘जनवरी 1914 में ही जगजीवन गांव के एक लोकल स्कूल में भरती हुए. वह बसंत पंचमी का दिन था. उन्होंने पीले रंग की धोती व सिर पर वेलवेट रंग की कैप पहनी थी. गुड़ का एक टुकड़ा उन के मुंह में था और हाथ में स्लेट थी. भाई के स्कूल जाने की खुशी में, उस दिन उन के बड़े भाई ने गांव के लोगों को चाय पिलाई थी.
‘अपने पिता की छाप, घर का धार्मिक वातावरण और पंडित कपिल मुनि तिवारी की शिक्षा से उन के चरित्र को आकार मिल रहा था. जगजीवन की शादी गांव के बाकी लड़कों की तरह सामान्यतया 8 साल की उम्र में हुई.
‘डा. जगजीवन राम ने आरा के मिडिल स्कूल से पढ़ाई की थी. दलित समाज के इस विद्यार्थी को भी विद्यालय के अंदर छुआछूत और अपमान का सामना करना पड़ा. गैरदलित छात्रों ने घड़े से पानी पीने से उन्हें रोका. उन के लिए अलग घड़े का इंतजाम किया गया. यह दीगर बात कि उन की विद्रोही चेतना ने इसे स्वीकार नहीं किया. 1925 में आरा छात्र सम्मेलन में उन्होंने हिस्सेदारी की और सम्मेलन को संबोधित किया. उन के भाषण का उपस्थित लोगों पर गहरा असर पड़ा. उन लोगों में मदन मोहन मालवीय भी शामिल थे. 1926 में उन्होंने प्रथम श्रेणी में मैट्रिक की परीक्षा पास की.
‘जगजीवन की पहली शादी सोनापुर गांव के मुखलाल की बेटी से हुई, जिस की मौत शादी के 17 साल युवा अवस्था में हुई. उस के बाद जगजीवन की दूसरी शादी डा. बीरबल, जोकि ब्रिटिश आर्मी में अच्छी रैंक में थे और सम्मानित थे, की बेटी इंद्राणी देवी से हुई. इंद्राणी होनहार लड़की थी. उस ने लखनऊ से बीएड किया था. पढ़ाई के दौरान इंद्राणी ने होस्टल में छुआछूत भी ?ोला और जगजीवन से शादी होने के बाद कानपुर में इंद्राणी ने स्कूल में शिक्षिका के रूप में काम किया.’
छुआछूत के शिकार
‘तय यह भी है कि जगजीवन राम का बचपन धार्मिक क्रियाकलापों में बीता. तुलनात्मक रूप से उन्होंने आम दलित जितना कष्ट नहीं ?ोला. यह सब इसलिए क्योंकि उन की शुरुआती परवरिश धार्मिक तौरतरीकों से हुई, उन्हें पढ़ने की उचित व्यवस्था प्राप्त हुई और उन के पिता के ‘महंत’ होने के चलते एक सम्मान बना हुआ था. लेकिन उन्हें याद जरूर रहा होगा कि बीएचयू में पढ़ते हुए क्यों उन के साथ भेदभाव किया जाता था. ऊंची जाति वाले उन के सहपाठी मेस में उन के साथ खाना खाने से भी बचते थे. वहां का नाई उन के बाल नहीं काटता था. याद उन्हें स्कूली दिन भी आए होंगे जहां दलित बच्चों के लिए अलग पानी का घड़ा रखा जाता था. ऐसे कई हादसों के शिकार जगजीवन राम राजनीतिक छुआछूत और भेदभाव से भी बच नहीं पाए.’
अब्राहम अपनी किताब में उन के जीवन में घटे एक अहम हिस्से के बारे में यह लिखते हैं जिस ने उन के जीवन पर गहरा असर छोड़ा, ‘सर्दी का समय था, जगजीवन अपने एक रिश्तेदार के साथ धान लेने के लिए बैलगाड़ी से खोपारी की ओर रवाना हुए. वे बाबू साहबों की कालोनी के आसपास थे. प्रथा के अनुसार, अछूतों को अपनी बैलगाड़ी से उतरना पड़ता था, अपने जूते उतारने पड़ते थे, अपनी छतरियां मोड़नी पड़ती थीं और सिर ?ाका कर गांव से निकलना होता था. अगर वे ऐसा न करें तो उन के साथ दुर्व्यवहार और उन पर हमला होने की संभावना बनी रहती थी.
‘जगजीवन ने इस प्रथा का उल्लंघन करने का फैसला किया. अपने रिश्तेदार से इस तरह की प्रथा को न मानने के लिए मनाया. उस का रिश्तेदार डरने लगा. रिश्तेदार ने जगजीवन से विनती की कि वे ऐसा न करें. लेकिन जगजीवन अपने में अड़े रहे. उस पुरानी व्यवस्था को रौंदने के साथ अपने काम को भी अंजाम दिया.’ कहते हैं इस घटना ने उन के जीवन पर छाप छोड़ी.
वहीं, मंत्री रहते जगजीवन खुद के लिए तो लड़ पाए लेकिन बाकियों के लिए नहीं. जगजीवन राम को पुरी के जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया गया था. तब बड़ी मुश्किल से प्रशासन के सम?ाने पर पंडे इस बात पर राजी हुए थे कि ठीक है, जनप्रतिनिधि होने के नाते हम उन्हें मंदिर में जाने की इजाजत देते हैं लेकिन उन की पत्नी और साथ आए दूसरे दलितों को मंदिर में नहीं जाने देंगे. इस ज्यादती से खिन्न जगजीवन राम ने मंदिर में जाने से मना कर दिया था लेकिन यह उन्हें सम?ा आ गया था कि मनुवाद की जड़ें कितनी गहरी हैं.
दलित नेता की अनदेखी
इधर, जनता सरकार में, सबकुछ क्या, कुछ भी ठीकठाक नहीं था. समाजवादी और जनसंघी एकदूसरे को आंखें दिखाते रहते थे. चंद्रशेखर, नानाजी देशमुख, मधु लिमये और सुब्रमण्यम स्वामी जैसे दर्जनभर जिन दिग्गजों को मंत्रिमंडल में नहीं लिया गया था, सो वे सरकार गिराने का मौका ढूंढ़ते ही रहते थे.
बाद में इस ग्रुप में रायबरेली सीट से इंदिरा गांधी को हराने वाले ड्रामेबाज नेता राजनारायण भी शामिल हो गए थे. मोरारजी सत्ता के नशे में इतने चूर हो गए थे कि उन्होंने जनता कुनबे के कई दिग्गजों के साथसाथ जयप्रकाश नारायण को भी बेइज्जत करना शुरू कर दिया था. वे भूल गए थे कि जो शख्स इंदिरा गांधी का साम्राज्य ढहा सकता है वह उसे बहाल करने की भी कूवत रखता है.
ऐसा हुआ भी. मई 1977 में बिहार के एक गांव बेलछी में ऊंची जाति वाले दबंगों ने दर्जनभर दलितों को बेरहमी से मार डाला था तब जनता सरकार ने तो इस का कोई खास नोटिस नहीं लिया लेकिन डिप्रैशन से उबर रहीं इंदिरा गांधी वहां गईं. भारी बारिश और कीचड़ के चलते उन की कार आधे रास्ते में धंस गई तो वे एक गांव वाले के हाथी पर सवार हो कर गई थीं.
यह फोटो तब देशभर के मीडिया ने प्रमुखता से छापा था. बेलछी के दलितों ने उन्हें हाथोंहाथ लिया था. वापसी में पटना में इंदिरा गांधी जनता कुनबे की अनदेखी के शिकार जयप्रकाश नारायण से मिलीं और घंटेभर उन के साथ गुफ्तगू की. बाहर छन कर एक ही बात आई कि जयप्रकाश नारायण ने उन्हें आशीर्वाद देते कहा है कि तुम्हारी राजनीति अभी खत्म नहीं हुई है.
इस के बाद जो हुआ वह भारतीय राजनीति के इतिहास का दिलचस्प अध्याय है. 3 साल में ही जनता पार्टी की सरकार विसर्जित हो गई. इस में इंदिरा गांधी और उन के उद्दंड बेटे संजय गांधी का अहम रोल रहा जिन्होंने चरण सिंह को समर्थन दे कर पहले मोरारजी देसाई की छुट्टी करवाई और फिर कुछ दिनों बाद उन्हें भी चलता कर दिया.
जगजीवन राम इस पिक्चर में यहां फिट बैठते हैं कि उन का पत्ता पहले ही संजय गांधी की पत्नी मेनका गांधी साफ कर चुकी थीं जो उन दिनों सूर्या नाम की मैगजीन का संपादन करती थीं. उन्हीं दिनों जगजीवन राम के बेटे सुरेश कुमार के कुछ नग्न फोटो चर्चा में थे जिन में वे एक कालेज गर्ल के साथ नग्न और आपत्तिजनक अवस्था में नजर आ रहे थे.
यह ज्ञात राजनीतिक इतिहास का पहला सब से बड़ा सनसनीखेज सैक्स स्कैंडल था. ये फोटो कहीं न छापें, इस बाबत जगजीवन राम ने कई संपादकों व पत्रकारों के पांवों में अपनी टोपी रख दी थी लेकिन मेनका गांधी ने ये फोटो छाप कर सास और पति का पुराना हिसाब चुकता कर लिया था.
ये फोटो बड़े सनसनीखेज तरीके से राजनारायण के हाथ लगे थे और संजय गांधी की चौकड़ी जिस में इन दिनों मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा के शिवराज सिंह के खिलाफ ताल ठोक रहे कमलनाथ का रोल अहम था जो इंदिरा गांधी के मैसेज यहांवहां पहुंचाया करते थे.
1980 में कांग्रेस ने शानदार वापसी की. यह चुनाव जनता पार्टी ने जगजीवन राम को प्रधानमंत्री पेश कर ही लड़ा था लेकिन जनता ने उन्हें नकार दिया. फिर धीरेधीरे जनता पार्टी खत्म हो गई. इस के साथ ही खत्म हो गई दलित प्रधानमंत्री की मांग जो बाद में रस्मी तौर पर छिटपुट उठती रही.
अब यह हो सकता है
2024 को ले कर भाजपा पिछली बार की तरह निश्ंिचत नहीं है. इस की बड़ी वजह प्रमुख विपक्षी दलों का लगभग जनता पार्टी की तरह एक हो जाना और ‘जितनी जिस की आबादी उतनी उस की भागीदारी’ वाला नारा लगाना, जो कभी बसपा के संस्थापक कांशीराम ने दिया था. अब सभी की प्राथमिकता आधी आबादी वाले पिछड़े हैं लेकिन 20 फीसदी वाले दलितों को भी कोई नजरअंदाज करने की स्थिति में नहीं है जिन का साथ 16 फीसदी मुसलमान और 9 फीसदी आदिवासी भी दे सकते हैं.
अगली लड़ाई अगर धर्म यानी सनातन बनाम जाति हुई, जिस की संभावना ज्यादा है तो भाजपा को सब से ज्यादा नुकसान होना तय है. इसलिए वह जातिगत जनगणना से कतरा रही है. ‘इंडिया’ गठबंधन 15 बनाम 85 के फार्मूले पर काम कर रहा है. 15 फीसदी सवर्णों के अलावा कितने फीसदी पिछड़े-दलित उस का साथ देंगे, इसी समीकरण पर 2024 का फैसला होगा.
दक्षिण भारत से तो भाजपा खारिज हो ही रही है लेकिन पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, ओडिशा में नवीन पटनायक, ?ारखंड में हेमंत सोरेन और दिल्ली-पंजाब में अरविंद केजरीवाल के चलते उसे कुछ खास हाथ नहीं लगना. लोकसभा सीटों के हिसाब से देखें तो कोई 280 सीटों पर वह कमजोर है लेकिन लगभग इतने पर ही गठबंधन दलों के साथ मजबूत भी है.
मल्लिकार्जुन खड़गे पर दांव
शशि थरूर का बयान ऐसे वक्त में आया है जब चुनाव वाले 5 राज्यों में मिजोरम को छोड़ कर दलित एक बड़ा फैक्टर है जो अगर हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक की तरह कांग्रेस की तरफ ?ाक गए तो अगली लोकसभा के नतीजे भी हैरान कर देने वाले होंगे जैसा कि थरूर अपने बयान में जोड़ते हैं.
यह कहना बहुत मुश्किल है कि ‘इंडिया’ गठबंधन अपने मकसद में कामयाब हो ही जाएगा. उस की राह में भी कम रोड़े और कम चरण सिंह व मोरारजी देसाई नहीं. इस के बाद भी गठबंधन की गंभीरता और मजबूरी को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. अगर उस का मकसद वाकई भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति को खत्म करना होगा तो त्याग कइयों को करना पड़ेगा.
मुद्दे ने अगर तूल पकड़ा और दलित समुदाय एकजुट हो गया तो त्याग भगवा खेमे को भी करना पड़ सकता है. नरेंद्र मोदी की बढ़ती अस्वीकार्यता और गिरती साख से बचने वह बसपा प्रमुख मायावती को बतौर प्रधानमंत्री पेश भी कर सकता है. यह दूर की कौड़ी नहीं है क्योंकि अरसे से मायावती भाजपा के सुर में सुर मिला रही हैं और भाजपा का उन के प्रति सौफ्ट कौर्नर भी किसी से छिपा नहीं है. वैसे भी, यह ब्राह्मणों की पुरानी आदत रही है कि वे धर्म से होने वाली कमाई को बनाए रखने के लिए दलितपिछड़ों को मोहरा बना लेते हैं. जैसे भाजपा सरकार ने कर्नाटक चुनाव से पहले कांग्रेसी दलित वोटरों को लुभाने के मकसद से जगजीवन राम पर फिल्म बनाने की बात कही लेकिन वह फिल्म पिछले 5 साल में कहां है, इस पर कोई जवाब नहीं.
अब कभी मायावती मनुवाद का विरोध नहीं करतीं और न ही राममंदिर निर्माण में फुंक रहा अरबों रुपया उन्हें फूजूलखर्ची लगता है. वे खुद मूर्तियों की राजनीति की आदी हो गई हैं. नया कोई भी समीकरण हिंदीभाषी राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ चुनाव के नतीजों पर भी निर्भर करेगा. अगर इन राज्यों में कांग्रेस 2018 का प्रदर्शन दोहरा पाती है तो स्पष्ट हो जाएगा कि दलितों ने उस पर भरोसा जताया है.भाजपा राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को भी इस पद की पेशकश कर सकती है जिस से दलितआदिवासी दोनों समुदायों के वोटों की घेराबंदी की जा सके.
तिरुअनंतपुरम से शशि थरूर ने 2 ही विकल्प दिए हैं. तीसरे को गिना ही नहीं तो इस के पीछे उन का संदेश साफ दिख रहा है कि मिशन तभी कामयाब होगा जब सभी घटक दल कांग्रेस को बौस मान लें. राष्ट्रीय दल होने के नाते वह इस की हकदार भी है और सीटों की गिनती में भी स्वाभाविक रूप से अव्वल रहेगी.
दलित प्रधानमंत्री का मुद्दा उछालना, हालांकि, पुराना शिगूफा है जिस में इकलौता फायदा यह है कि भाजपा के पास कोई राष्ट्रीय स्तर का दलित नेता ही नहीं, छोटेमोटे दलित दल उस ने ओला-उबर टैक्सीसेवाओं की तरह हायर कर रखे हैं. यह काम बड़ी पार्टियां करती रही हैं.
ऐसे में मल्लिकार्जुन खड़गे के नाम पर बात अगर बनती दिखती है तो इस में कांग्रेस को कोई घाटा भी नहीं है क्योंकि राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनना ही चाहेंगे, यह भी अभी स्पष्ट नहीं है. मुमकिन है वे एक बार फिर परदे के पीछे से सरकार चलाना पसंद करें ठीक वैसे ही जैसे 2003 से 2013 तक चलाई थी. दूसरा कांग्रेस को मल्लिकार्जुन खड़गे से समस्या भी नहीं होगी. लेकिन इस के लिए जरूरी है कि गठबंधन का हश्र जनता पार्टी सरीखा न हो. वह सफल हो भी सकता है क्योंकि उस के कुनबे में कोई जनसंघ या मोरारजी देसाई नहीं है जो दलितों के नाम पर नाक को रूमाल से ढक ले.