युद्ध और संघर्ष देशों की अर्थव्यवस्थाएं बरबाद कर देते हैं, चमचमाते शहरों और गगनचुंबी इमारतों को ध्वस्त कर श्मशान बना देते हैं, लोगों की आजीविका खत्म कर देते हैं, भय और अनिश्चितता से समाजों को भर देते हैं, सालों के लिए असमानताएं और विषमताएं बढ़ा देते हैं, लाखोंकरोड़ों मनुष्यों का जीवन समाप्त हो जाता है, परिवार के परिवार खत्म हो जाते हैं और युद्ध के खात्मे के बाद हमारी उंगलियों पर सिर्फ आंकड़े रह जाते हैं. आंकड़े उन के जो सैनिक युद्ध में मारे गए. मगर युद्ध के दौरान और युद्ध के बाद कितनी महिलाएं और कितने बच्चे प्रभावित हुए, कितनी औरतों ने जानें गंवा दीं, कितनी अपाहिज हो गईं, कितनी औरतों और मासूम बच्चियों का अपहरण हो गया, कितनों के साथ बर्बर बलात्कार हुए, कितनों को सरेआम नंगा ?कर के घुमाया गया, इन बातों की कहीं कोई चर्चा नहीं होती. संघर्ष के दशकों बाद भी महिलाएं इस का खमियाजा भुगतती रहती हैं, लेकिन उन के दर्द को जानने में किसी की कोई दिलचस्पी नहीं.

दुनिया में जगहजगह युद्ध हो रहे हैं. कुरुक्षेत्र ज्यादातर युद्ध लूटने के लिए नहीं हुए. सदियों से धर्म के नाम पर इंसान का खून बहाया जा रहा है. कहा जाता है कि काल्पनिक कथानक महाभारत में युद्ध में करीब सवा करोड़ योद्धा मारे गए थे. इन में करीब 70 लाख कौरव पक्ष से तो 44 लाख पांडव सेना से मारे गए थे. इन मौतों का विवरण है पर क्या कहीं उन की विधवाओं और मासूम बच्चों के बारे में भी लिखा गया कि उन का क्या हुआ? वे जीवित रहीं या मर गईं? जीवित रहीं तो किस के सहारे रहीं? किस ने उन्हें पनाह दी? किस ने उन के दर्द बांटे? किस ने उन के बच्चों को रोटी दी.

मुसलमानों के पैगंबर मोहम्मद ने 23 वर्षों के दौरान कोई 80 युद्ध लड़े, जिन में हजारों हलाक हो गए. उन के बारे में तो धर्मग्रंथों में लिखा है मगर उन की विधवाओं का क्या हुआ? उन के बच्चों का क्या हुआ? उन्होंने किन मुश्किलों का सामना किया? कैसे तड़पतड़प कर जिंदगी काटी? किन मुसीबतों से काटी? क्या इस का भी लिखित ब्योरा कहीं है?

जिंदगियां लीलते युद्ध

प्रथम विश्व युद्ध, द्वितीय विश्व युद्ध, वियतनाम और भारत की आजादी की लड़ाइयां व वर्तमान समय में अनेक देशों- अफगानिस्तान, इराक, लीबिया, सीरिया, यमन, यूक्रेन, रूस में हुए सशस्त्र संघर्ष होते हम देख रहे हैं. वर्तमान में जारी रूस-यूक्रेन और इजराइल-फिलिस्तीन का युद्ध हजारों जिंदगियां लील चुका है.

गोलियों और बमों के धमाकों में घरों के उड़ते परखच्चे, दरबदर होते परिवार, जान बचा कर बदहवास भागते लोग, लाशों से पटी सड़कें, सड़कों पर फटेहाल रोतेबिलखते बच्चे और बूढ़े, इज्जत बचाती चीखतीचिल्लाती औरतें और लड़कियां, मांओं के सीनों से चिपटे खून में लिथड़े घायल बच्चे, क्या युद्ध की विभीषिका थम जाने के बाद इस भय और दर्द से कभी निकल पाएंगे? क्या कभी यह वहशियानापन, यह विनाश, अपनों को खो देने का दर्द, ये गोलेबारूद का उठता काला धुआं, उजड़े हुए उन के आशियाने, क्या यह भयावह मंजर कभी भी उन की आंखों के सामने से हट पाएगा? शायद कभी नहीं.

संयुक्त राष्ट्र की महिला एजेंसी ने हाल ही में कहा- ‘म्यांमार, अफगानिस्तान से ले कर साहेल और हैती के बाद अब यूक्रेन और गाजा का भयानक युद्ध हम देख रहे हैं. हर गुजरते दिन के साथ ये युद्ध महिलाओं और लड़कियों की जिंदगी, उम्मीदों और भविष्य को बरबाद कर रहे हैं. सभी संकटों और संघर्षों में महिलाएं और लड़कियां सब से अधिक कीमत चुकाती हैं.’

युद्ध का असर सभी को प्रभावित करता है, लेकिन महिलाओं और लड़कियों को सब से बड़े खतरों और सब से गहरे नुकसान का सामना करना पड़ता है. युद्ध की वजह से लाखों की संख्या में महिलाएं और बच्चे अपना घर, अपना देश छोड़ने को मजबूर होते हैं. यूक्रेन से युद्ध की शुरुआत में ही 32 लाख लोग अपने घर छोड़ कर भागने के लिए मजबूर हुए. यूक्रेन में हर एक सैकंड में एक बच्चा शरणार्थी बनने के लिए मजबूर था. उन औरतों की दशा सोचिए जो अपने मासूम बच्चों को सीने में भींच कर जान व इज्जत बचाने के लिए भाग रही थीं.

युद्ध कोई भी हो, कहीं भी हो, किसी भी परिस्थिति में हो, उस की विभीषिका सब से ज्यादा औरतों को ही झेलनी पड़ती है. युद्ध की विभीषिका झेलती, अपना घर छोड़ कर बच्चों के लिए सुरक्षित ठिकाने तलाशती औरतों की कहानी कोई नहीं जानता.

हर सभ्यता में जबजब मारकाट हुई, दंगाफसाद हुआ है, उस की सब से बड़ी कीमत न चाहते हुए भी औरतों को ही चुकानी पड़ी है. वही औरतें जिन्होंने कभी ये लड़ाईदंगेफसाद मांगे ही नहीं. वही औरतें जो युद्ध के समय अपने पतियों के इंतजार में बच्चों को संभालती रहीं, वही प्रेमिकाएं जो युद्ध के लिए जंग के मैदान में गए अपने प्रेमी के लौटने का इंतजार करतेकरते आखिरी दम भरने तक अपने आंसू संभाले रहीं, वही औरतें जिन्हें हर युग में सिर्फ एक वस्तु की तरह इस्तेमाल किया गया, युद्ध लड़ने और जीतने का हथियार समझ गया.

जहांजहां लड़ाइयां हुईं, दुश्मन देश की औरतों को इंसान नहीं बल्कि उन के जिस्म को उन की कौम, उन के धर्म, उन के समुदाय का प्रतीक मान कर उन को शिकार बनाया गया. इस मानसिकता से उन पर हमला किया गया, उन्हें बंदी बना कर उन के साथ सामूहिक बलात्कार किए गए, उन को सरेआम कत्ल किया गया कि उन का जिस्म जलील करेंगे तभी उन का देश, उन की कौम, उन का धर्म जलील होगा.

वे औरतें जिन्होंने अपने धर्म और अपनी कौम का ठेका कभी नहीं लिया. जिन्होंने कभी नहीं चाहा कि उन के घर, परिवार, समाज, धर्म, देश की इज्जत उन के जिस्म से जोड़ी जाए, मगर पुरुष मानसिकता ने औरत के बदन को सदैव धर्म, समाज और देश से जोड़ कर रखा. यही वजह है कि जबजब लड़ाइयां हुईं, दुश्मन देश को नीचा दिखाने के लिए सब से पहले उन की औरतों पर हमले हुए. सब से पहले उन्हें नंगा किया गया.

जरमनी के तानाशाह हिटलर द्वारा यहूदियों पर अत्याचार को याद कर के आज भी लोग थर्रा उठते हैं. उस के यातना शिविर और गैस चैंबर्स, जिन में एकएक बार में 8-8 हजार यहूदियों को मारा गया, धर्म और नस्ल के नाम पर की गई यह बर्बरता इतिहास के पन्नों में दर्ज है. अकेले बेल्सन शिविर में 6 लाख यहूदियों की हत्या की गई. शिविरों में सालभर के अंदर ही 10 लाख यहूदियों को मार दिया गया था.

आंकड़ों के मुताबिक, 1939 से 1945 तक 6 सालों में 60 लाख यहूदियों की हत्या हिटलर ने की, जिन में मासूम यहूदी बच्चे और औरतें भी शामिल थीं. इन गैस चैंबरों में मर्दों को तो सीधे धकेल दिया जाता था मगर औरतों को मारने से पहले बुरी तरह प्रताडि़त किया जाता था. हिटलर के शासन में नाजी सैनिकों ने यहूदी महिलाओं और लड़कियों के साथ बर्बरता की सारी हदें पार कर दी थीं.

यहूदी महिलाओं के साथ नाजी सैनिक यातना शिविरों में खुलेआम सामूहिक बलात्कार करते थे. कई महिलाओं के साथ तो तब तक बलात्कार किया जाता, जब तक उन की मौत न हो जाती. नाजी सैनिक गर्भवती महिलाओं पर भी रहम नहीं खाते थे. वे गर्भवती महिलाओं को लाठीडंडों और चाबुक से पीटते थे. उन के पेट पर लातें मारते थे और गर्भवती महिलाओं को जिंदा ही कब्रों में फेंक दिया जाता था.

नाजियों की हौरर हिस्ट्री की पराकाष्ठा यह कि जब हिटलर के यातना शिविरों और गैस चैंबर्स में यहूदी महिलाओं को लाया जाता था, तो नाजी सैनिक उन के सारे कपड़े उतार कर, उन्हें गंजा कर के हंटरों और डंडों से पीटते हुए लाते थे. वे उन के प्राइवेट पार्ट्स पर आघात करते थे. नाजी सैनिक महिलाओं पर इस तरह के जुल्म किसी सैक्सुअल प्लेजर के लिए नहीं करते थे, बल्कि यह अत्याचार उन के यहूदी धर्म और उन की नस्ल को नीचा दिखाने के लिए करते थे.

औरत के शरीर का उस के धर्म, नस्ल, समुदाय, समाज और देश की इज्जत से जोड़ कर देखना आज भी ज्यों का त्यों है. मणिपुर में जो भी हुआ, वह भारतीय समाज, भारतीय लोकतंत्र और भारतीय सभ्यता पर एक बदरंग धब्बा तो है ही, मगर इस की जड़ उसी पुरानी सोच में निहित है कि किसी समुदाय विशेष पर हावी होना है, उस पर वार करना है, उस को खदेड़ कर भगाना है, उस को जलील करना है या उस को समाप्त करना है तो उस समुदाय की औरतों को निशाना बनाओ. यही हुआ मणिपुर में, जहां ईसाई औरतों को हिंदू पुरुषों द्वारा नंगा कर के उन की परेड निकाली गई. उन को प्रताडि़त किया गया. उन का बलात्कार और कत्ल हुआ.

जब भी युद्ध होते हैं, जब भी दंगेफसाद होते हैं, वे एकसाथ 2 होते हैं. एक उस जगह पर या उस देश में, दूसरा औरत के जिस्म पर. हर परेशानी, हर नाराजगी का बदला समाज सब से पहले भीड़ के रूप में औरत से चुकाता है. वे औरतें जो बेगुनाह हैं, जिन का कोई कुसूर नहीं है, जो घरों में हैं, जो पुरुषों की संतानों को पैदा करती हैं, उन्हें पालती हैं. जो प्रकृति में जीवन सींचती हैं, उन को ही सब से पहले निशाना बनाया जाता है सिर्फ उस देश और देश के लोगों को सबक सिखाने के लिए.

पीढि़यों तक दर्द

युद्ध का प्रभाव किसी देश पर दीर्घकालिक या अल्पकालिक हो सकता है, लेकिन महिलाओं और बच्चों के दिलदिमाग पर युद्ध की त्रासदियों का प्रभाव उम्रभर के लिए होता है. बल्कि आगे आने वाली कई पीढि़यां उस दर्द को महसूस करती हैं.

युद्ध कहीं भी हो, सब से ज्यादा अत्याचार और वीभत्स घटनाएं औरतों और मासूम बच्चियों के साथ घटती हैं, जिन्हें सीधे गोली नहीं मारी जाती या बम से नहीं उड़ाया जाता, बल्कि पहले उन के शरीर से कपड़े नोच कर उन से सामूहिक बलात्कार किया जाता है और उस के बाद उन्हें प्रताडि़त करकर के या तो मार दिया जाता है या युद्धबंदी के तौर पर कैद कर के उन के जिस्म को आगे भी नोचते रहने की साजिश होती है.

औरतों के सामने उन के नन्हेनन्हे बच्चों को कत्ल कर देने जैसे भयावह दृश्य हर युद्ध में दिखाई देते हैं. अपनी आंखों के सामने अपने बच्चों को कत्ल होते देखने से ज्यादा पीड़ादायी और कुछ नहीं है. यह अत्याचार दिमाग को सुन्न कर देने वाला होता है. पिछले दशकों में दुनिया में होने वाले सशस्त्र संघर्षों में करीब 20 लाख बच्चे मारे गए हैं. यदि उन की मांएं जीवित हैं तो यह असहनीय दर्द, दुख और तनाव ताउम्र उन को रुलाता रहेगा.

युद्ध के प्रभावों में शहरों का बड़े पैमाने पर विनाश होता है. इस का देश की अर्थव्यवस्था पर लंबे समय तक प्रभाव रहता है. सशस्त्र संघर्ष का देश के बुनियादी ढांचे, सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रावधान और सामाजिक व्यवस्था पर बहुत नकारात्मक असर होता है. यूरोप में 30 साल के युद्ध के दौरान जरमन राज्यों की जनसंख्या लगभग 30 फीसदी कम हो गई थी. अकेले स्वीडिश सेनाओं ने जरमनी में 2 हजार महलों, 18 हजार गांवों और 1 हजार 5 सौ कसबों को नष्ट कर दिया, जो सभी जरमन शहरों का एकतिहाई हिस्सा था.

प्रथम विश्वयुद्ध में जुटाए गए 6 करोड़ यूरोपीय सैनिकों में से 80 लाख मारे गए, 70 लाख स्थायी रूप से अक्षम हो गए और 36 करोड़ गंभीर रूप से घायल हो गए. जो मर गए उन की विधवाओं के लिए जीवन नरक से भी बदतर हो गया और जो स्थायी रूप से अक्षम हो गए उन का बोझ उन की औरतें उम्रभर ढोती रहीं. अनेक औरतों को घर चलाने के लिए एकएक डौलर के लिए सैक्स के बाजार में उतरना पड़ा.

द्वितीय विश्वयुद्ध में कुल हताहतों की संख्या का अनुमान अलगअलग है, लेकिन अधिकांश का अनुमान है कि युद्ध में सैनिक और नागरिक शामिल थे. लगभग 6 करोड़ लोग मारे गए, जिन में लगभग 7 करोड़ सैनिक और 4 करोड़ नागरिक शामिल थे. सोवियत संघ ने युद्ध के दौरान लगभग 27 करोड़ लोगों को खो दिया, जो द्वितीय विश्वयुद्ध के सभी हताहतों का लगभग आधा था.

किसी एक शहर में नागरिकों की मृत्यु की सब से बड़ी संख्या लेनिनग्राद की 872-दिवसीय घेराबंदी के दौरान 12 लाख नागरिकों की मृत्यु थी. यह घेराबंदी 8 सितंबर, 1941 से शुरू हुई जो 872 दिनों बाद 27 जनवरी, 1944 को खत्म हुई. इस दौरान नाजियों ने पूरे लेनिनग्राद शहर को घेर कर रखा. नाजी सेना की तरफ से शहर पर लगातार गोले दागे जाते. किसी को आत्मसमर्पण की इजाजत न थी. सिर्फ मौत ही नियति थी. पूरे शहर में अकाल जैसी स्थिति पैदा कर दी गई. ऊपर से भयानक ठंड. तापमान माइनस 30 डिग्री सैल्सियस तक गिर जाता था.

युद्ध से उपजी बीमारियां

इस युद्ध त्रासदी ने 7 लाख 50 हजार लेनिनग्रादर्स को मौत के मुंह में धकेल दिया. मौत हवा में थी. हर जगह मौत थी. अधिकांश भुखमरी, जोखिम और बीमारी से मर गए थे. लोग अचानक कीचड़भरी सड़कों पर गिरते और मर जाते, अपने टूटेफूटे अपार्टमैंट या कार्यस्थलों पर गिर कर मर जाते. ठंड और भूख ने इंसानी जीवन खत्म करना शुरू कर दिया. ईंधन के भंडार सूख चुके थे. न बिजली थी, न पानी, न शहरी परिवहन और न ही चिकित्सा सहायता. दिसंबरजनवरी 1941-42 में लेनिनग्राद में एक लाख से अधिक लोग भूख से मर गए. मृत लोग कई दिनों तक खुली बर्फ पर पड़े रहे, क्योंकि जीवित लोगों के पास उन्हें दफनाने के लिए न तो ताकत थी और न ही साधन.

अनेक प्रत्यक्षदर्शी वृत्तांत, लोगों की निजी डायरियां और मित्रों को लिखे पत्र उस समय की अकल्पनीय भयावहता को दर्शाते हैं. एक 12 वर्षीया लड़की, तान्या सविचवा, जिस ने लेनिनग्राद में 872 दिनों की लंबी घेराबंदी के दौरान अपनी डायरी में सटीक ढंग से मौत की भयावह कहानी लिखी थी- ‘28 दिसंबर, 1941, दोपहर 12.10 बजे, झेन्या की मृत्यु हो गई. 25 जनवरी, 1942, अपराह्न 3 बजे, दादी की मृत्यु हो गई. 17 मार्च सुबह 5 बजे, ल्योका की मृत्यु हो गई. 13 अप्रैल रात 2 बजे, अंकल वास्या की मृत्यु हो गई. 10 मई, शाम 4 बजे, अंकल ल्योशा की मृत्यु हो गई. 13 मई, सुबह 7.30 बजे, मामा का निधन. सविचेव मर चुके हैं. हर कोई मर गया. केवल तान्या ही बची है.’

तान्या किसी तरह घेराबंदी से बच गई, हालांकि उस के तुरंत बाद ‘डिस्ट्रोफी’ से उस की मृत्यु हो गई. मस्कुलर डिस्ट्रोफी जीन म्यूटेशन के कारण होने वाली मांसपेशियों की बीमारियों का एक समूह है. मांसपेशियों के कमजोर होने से समय के साथ गतिशीलता कम हो जाती है. डर, भूख, अनिश्चितता और अकेलेपन ने तान्या सविचवा को इस रोग का शिकार बना दिया.

कहते हैं कि अगर यह देखना हो कि कोई समाज या राष्ट्र तरक्की कर रहा है या नहीं, तो उस समाज या राष्ट्र में औरत की स्थिति को देख लेना चाहिए. समाज या राष्ट्र की स्थिति का पता चल जाएगा. और यह बात सही भी है. कोई भी समाज या राष्ट्र अपनी महिलाओं को हाशिए पर रख कर कभी आगे नहीं बढ़ सका है.

हम ने दुनिया के कई देशों- अफगानिस्तान, इराक, लीबिया, सीरिया, यमन, रूस, यूक्रेन, इजराइल, फिलिस्तीन में सशस्त्र संघर्ष देखे. इन में से कुछ तो गृहयुद्ध हैं और कुछेक देश द्वारा दूसरे के खिलाफ आक्रमण हैं. इन सभी युद्धों में जो एक बात समान है, वह है महिलाओं के बेघर होने, हिंसा और शोषण या मौत का शिकार होने की और युद्ध के पश्चात उन पर जबरन थोपे गए धार्मिक नियमों की.

धार्मिक शासन महिलाओं पर भारी

15 अगस्त, 2021 को अफगानिस्तान पर तालिबान ने कब्जा किया. इस के बाद अफगानिस्तान में महिलाओं की जिंदगी पूरी तरह बदल गई. तालिबान शासन की सब से ज्यादा मार अफगानिस्तान की महिलाएं ही झेल रहीं हैं.

अफगानिस्तान में तालिबान के हमले से पहले औरतें खुल कर जी रही थीं. वे स्कूलकालेजों में पढ़ रही थीं. औफिसों में नौकरियां कर रही थीं. मार्केट में बिंदास घूमती थीं. पार्टियों में शिरकत करती थीं. मनचाहे कपड़े पहनती थीं. लेकिन तालिबानी हमले और अफगानिस्तान पर तालिबान के अधिकार के बाद सब से पहले वहां की औरतों को निशाना बनाया गया. उन से शिक्षा का हक छीन लिया, उन की नौकरियां छीन लीं, उन्हें परदे में कैद कर घरों में बंद कर दिया गया. उन की आजादी पर ताले जड़ दिए गए और जिन औरतों ने तालिबानी ऐलानों को मानने से इनकार किया उन्हें बेदर्दी से गोली मार दी गई. महिलाओं पर युद्ध के प्रभाव कई प्रकार से होते हैं- भावनात्मक, सामाजिक, आर्थिक और शारीरिक रूप से.

जब 2 देशों के बीच युद्ध होता है तो युवाओं पर सेना में भरती होने का दबाव बढ़ता है. उन्हें जबरन लड़ने के लिए भेजा जाता है. यूक्रेन पर रूस ने हमला किया तो सभी पुरुषों को लड़ाई के लिए यूक्रेन में रोक कर उन की महिलाओं व बच्चों को सुरक्षित क्षेत्रों में जाने के लिए कह दिया गया. बेचारी औरतों, जो अब तक घरों में रह कर बच्चे पाल रही थीं, अचानक भयानक गोलीबारी व बमबारी के बीच उन से बच्चों को ले कर जाने के लिए कहा जाना किस कदर भयावह है, यह कोई समझ नहीं सकता.

पति, प्रेमी, भाई, बेटे या पिता से इस अचानक बिछोह का असर भावनात्मक रूप से महिलाओं को तोड़ देता है. वे जंग से बच कर सुरक्षित ठिकानों या राहत शिविरों में पहुंच भी जाती हैं तो बच्चों की देखभाल और रोटी जुटाने के लिए उन को नौकरी के लिए घर से बाहर निकलना पड़ता है, जिस की उन को आदत नहीं होती. वे अनजाने लोगों से मिलती हैं. हर आदमी उन का फायदा उठाने की फिराक में होता है. अपनी सुरक्षा के प्रति वे बेबस हिरणी सी व्याकुल फिरती हैं, अधिकांश औरतें लोगों की हवस का शिकार बन जाती हैं या मजबूरी में उन के आगे सरैंडर हो जाती हैं. यह हारी हुई जिल्लतभरी जिंदगी मानसिक रूप से उन को ताउम्र परेशान करती है.

यौन शोषण की शिकार महिलाएं

युद्ध कोई भी हुआ हो, युद्ध के दौरान बलात्कार और हिंसा की शिकार महिलाओं की संख्या का सटीक आंकड़ा कभी भी हासिल नहीं हो पाया. क्योंकि महिलाएं प्रतिशोध के डर से या समाज में उन्हें कैसे देखा जाएगा, इस डर से बलात्कार की रिपोर्ट नहीं करतीं. और कर भी दें तो कोई फायदा नहीं है क्योंकि युद्धकालीन अपराधियों पर मुकदमा चलाना भी कठिन है. इसीलिए महिलाओं पर संघर्ष के प्रभाव को भुला दिया जाता है, उस का कोई रिकौर्ड नहीं रखा जाता या उस पर ध्यान नहीं दिया जाता है.

युद्ध का परिणाम भोगती औरतें

1994 में अफ्रीका का देश रवांडा नरसंहार से तबाह हो गया था. अनुमान है कि केवल सौ दिनों से अधिक समय में लगभग 10 लाख लोग मारे गए. एक ही कौम के 2 गुटों के बीच हुए हिंसक युद्ध में नरसंहार और औरतों से बलात्कार के कारण रवांडा कुख्यात है. इस अवधि में लगभग 2 लाख 50 हजार से 5 लाख महिलाओं के साथ बलात्कार होने का अनुमान लगाया गया था. रवांडा पर संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत रेने डेगनी-सेगुई ने कहा, ‘बलात्कार व्यवस्थित था और नरसंहार के अपराधियों द्वारा इसे ‘हथियार’ के रूप में इस्तेमाल किया गया था.’

सशस्त्र संघर्ष अकसर महिलाओं व लड़कियों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है. युद्ध के समय में चोट, मृत्यु, शारीरिक और मानसिक बीमारी का खतरा बढ़ जाता है. युद्ध के दौरान सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं या तो नष्ट हो जाती हैं या बहुत कम स्थिति में होती हैं.

इन सेवाओं की कमी का खमियाजा महिलाओं को भुगतना पड़ता है क्योंकि उपलब्ध संसाधनों को युद्ध में पुरुषों की ओर मोड़ दिया जाता है. अस्पतालों में घायल सैनिकों का ही इलाज होता है. इस से महिलाओं की जीवन प्रत्याशा पुरुषों की तुलना में असंगत रूप से कम हो जाती है क्योंकि वे आर्थिक परिवर्तन, विस्थापन और यौनहिंसा के अप्रत्यक्ष प्रभावों से तो प्रभावित होती ही हैं, आवश्यक इलाज भी उन्हें मुहैया नहीं होता है.

युद्ध के दौरान महिलाओं और लड़कियों की तस्करी भी आम है. तस्कर आमतौर पर उस स्थान से सुरक्षित मार्ग के लिए धन की मांग करते हैं जहां से लोग अपने गंतव्य तक भाग रहे होते हैं. जब शरणार्थी भुगतान करने में असमर्थ होते हैं या पर्याप्त भुगतान नहीं कर पाते तो वे अपने साथ की महिलाओं और लड़कियों को अकसर यौनशोषण के लिए तस्करों के हवाले कर देते हैं.

युद्धों और संघर्षों के प्रभाव को मापना आसान नहीं है और महिलाओं पर पड़ने वाले प्रभाव का आकलन करना तो और भी कठिन है. हालांकि अंतरसरकारी संगठन संघर्षों को कम करने, युद्ध को रोकने और महिलाओं पर असंगत प्रभाव को कम करने के लिए काम कर रहे हैं लेकिन दुनिया के देशों को अभी बहुतकुछ करने की जरूरत है.

कारगिल युद्ध की पीडि़त गुडि़या

1999 में भारत व पाकिस्तान के बीच हुए कारगिल युद्ध में भारतीय फौजी आरिफ को युद्धबंदी बना लिया गया. भारतीय सेना को आरिफ के बंदी बनाए जाने की सूचना नहीं थी तो उस को मृत मान लिया गया.

कारगिल युद्ध शुरू होने के मात्र 10 दिन पहले आरिफ की शादी गुडि़या से हुई थी. आरिफ की मौत ने गुडि़या को बदहवास कर दिया. वह अपने पिता के घर लौट आई. 2003 में गुडि़या की शादी तौफीक नाम के व्यक्ति से कर दी गई. गुडि़या तौफीक के बच्चे की मां बनने वाली थी, उसी दौरान भारत और पाकिस्तान सरकारों ने युद्ध में बंदी बनाए गए सैनिकों को रिहा करना शुरू किया.

पाकिस्तान जेल से आरिफ भी रिहा हो कर आया तो उस के घर में आनंद छा गया मगर घर लौटा आरिफ उस वक्त परेशान हुआ जब उसे पता चला कि उस की पत्नी अब किसी और की बीवी है. उन दिनों गर्भवती गुडि़या दिल्ली के बाहरी इलाके में कलुंदा गांव में अपने मातापिता के साथ रह रही थी. गुडि़या को मेरठ जिले के मुंडली गांव बुलाया गया जहां उस के पहले पति का मकान था. ग्राम पंचायत बैठी और पंचायत ने शरीयत का हवाला दे कर फैसला सुनाया कि गुडि़या की दूसरी शादी अवैध है. उस को अपने पहले पति आरिफ के साथ रहना होगा. तब गुडि़या ने भी अपने पहले पति के साथ फिर से घर बसाने का इरादा जताया.

गुडि़या का यह फैसला, दरअसल उस के पहले पति, पूर्व ससुराली संबंधियों, गांव वालों और धार्मिक नेताओं के दबाव के कारण था. जबकि गुडि़या के दूसरे पति तौफीक को अपनी गर्भवती पत्नी के इस विवादास्पद निर्णय लेने की पूरी प्रक्रिया से दूर रखा गया.

मौलवियों ने कहा कि गुडि़या शरीयत का पालन करे और आरिफ़ को स्वीकार करे. सब से गंभीर बात इन मौलवियों ने यह कही कि गुडि़या अगर ऐसा न करे तो उस का होने वाला बच्चा नाजायज बन जाएगा. दूसरी तरफ तौफीक से गुडि़या ने इस प्रकरण से 5 दिनों पहले टैलीफोन पर बात की और अपनी विवशता प्रकट की थी. पहले पति से दोबारा मिलने का दबाव इतना था कि पिता ने ऐसा न करने पर आत्महत्या करने की धमकी दी थी.

आरिफ से पुनर्मिलन के एक महीने बाद गुडि़या ने एक बच्चे को जन्म दिया. आरिफ ने शुरुआती हिचक के बाद गुडि़या के बच्चे को इस शर्त पर स्वीकार करने की घोषणा की कि बड़ा होने के बाद वह तौफीक के पास वापस भेज सकता है.

इस सारे झंझवातों से गुजरती गुडि़या आतंरिक रूप से टूट चुकी थी. आने वाले कुछ महीनों में ही वह अनीमिया की शिकार हो गई. इस के साथ ही वह एक गर्भपात की पीड़ा से गुज़री और उसे अत्यधिक मानसिक दबाव से भी जूझना पड़ा. लगातार बिगड़ती सेहत के कारण गुडि़या मात्र 15 महीनों के अंदर ही दिल्ली के सैनिक अस्पताल में मौत की नींद सो गई.

गुडि़या के लिए मानसिक दबाव का एक कारण उस के देवरदेवरानी का उसे बारबार यह ताना मारना था कि वह मनहूस है क्योंकि शादी के कुछ ही दिनों के अंदर आरिफ युद्ध में लड़ने के लिए चला गया था और लापता हो गया था. अब वह फिर लौट आई है. अब फिर परिवार पर कोई कहर टूटेगा.

ऐसी अनेक गुडि़यों की कहानियां युद्ध के मैदानों में बिखरी हुई होंगी, कितने आरिफ वापस लौट कर आए होंगे और उन्हें घर पर अपनी पत्नियां न मिली होंगी. शायद वे बलात्कार का शिकार हो गई हों, हो सकता है किसी की गोली का शिकार हो गई हों, शायद किसी शरणार्थी कैंप के किसी कोने में सिसक रही हों या दूसरे मुल्क द्वारा अपहृत हो गई हों. कौन जानता है ऐसी लाखों गुडि़याओं को, उन की कहानियों को, उन के साथ हुई हैवानियत को? इतिहास के किन पन्नों में दर्ज हैं ऐसी गुडि़याएं?

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