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चुनाव तक ही निलंबित रहेगा कुश्ती संघ?

केंद्रीय खेल मंत्रालय ने कहा है कि डब्ल्यूएफआई के नवनिर्वाचित अध्यक्ष संजय सिंह के अंडर-15 और अंडर-18 ट्रायल गोंडा के नंदिनी नगर में आयोजित कराने की घोषणा नियम के खिलाफ है. इस कारण कुश्ती संघ की नवनिर्वाचित कार्यकारिणी को निलंबित कर दिया गया है. इस के साथ ही नए संघ के चुने जाने के बाद इस के लिए गए सभी फैसलों को भी रद्द कर दिया गया है.

डब्ल्यूएफआई को सस्पैंड किया गया है. खेल मंत्रालय के अगले आदेश तक यह जारी रहेगा. सरकार के अगले आदेश में अगर निलंबन खत्म हो जाएगा तो यही कार्यकारिणी प्रभावी हो जाएगी.

सवाल उठ रहा है कि क्या लोकसभा चुनाव तक इस विवाद को हाशिए पर डालने के लिए यह फैसला लिया गया है? कुश्ती संघ की नवनिर्वाचित कार्यकारिणी सरकार के फैसले के खिलाफ कोर्ट का दरवाजा खटखटाने जा रही है, जिस में सरकार ने अलोकतांत्रिक फैसला करते हुए लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई कुश्ती संघ की नवनिर्वाचित कार्यकारिणी को निलंबित कर दिया है.

कांग्रेस नेता उदित राज ने इस मसले पर कहा कि खेल मंत्रालय का फैसला आंखों में धूल झोंकने के समान है. यह कैसे हो सकता है कि जिस पर आरोप है उसे गिरफ्तार तक नहीं किया गया है. साक्षी मलिक और बजरंग पुनिया के कारण सरकार पर दबाव बढ़ा है लेकिन उन्हें न्याय अब तक नहीं मिला है.

सरकार ने चुनाव प्रणाली को निलबंन का आधार नहीं बनाया है. केवल नवनिर्वाचित कार्यकारिणी अंडर-15 और अंडर-18 ट्रायल गोंडा में कराने को गलत मानते हुए निलंबन का कदम उठाया है. इस से साफ है कि सरकार ने बड़ी चतुराई दिखाते हुए अपनी इमेज को बचाने के लिए कुश्ती संघ का निलबंन किया है.

सरकार ने विवाद का कारण बने बृजभूषण शरण सिंह, जो भाजपा के सांसद है, से यह कहलवा दिया कि वे कुश्ती संघ की राजनीति से संन्यास ले रहे हैं. इस से खिलाड़ी भी खुश  हो गए हैं.

क्या बोले बृजभूषण शरण सिंह?

कुश्ती संघ के पूर्व प्रमुख और बीजेपी सांसद बृजभूषण शरण सिंह ने कहा, “अब मेरा कुश्ती से कोई लेनादेना नहीं है. मैं ने 12 साल तक कुश्ती के लिए काम किया. मैं ने अच्छा काम किया या बुरा काम किया, इस का मूल्यांकन समय करेगा. मैं ने एक तरह से कुश्ती से संन्यास ले लिया है. कुश्ती से अपना नाता मैं तोड़ चुका हूं. अब जो भी फैसला लेना है, सरकार से बात करना है या कानूनी प्रक्रिया का सहारा लेना है, इस पर फैसला फैडरेशन के चुने हुए लोग लेंगे. लोकसभा का चुनाव आ रहा है. इस के अलावा भी मेरे पास कई और काम हैं.”

फौरी है खुशी

इस लड़ाई को लड़ने वाली महिला पहलवान साक्षी मलिक ने कहा है कि उन की लड़ाई सरकार से नहीं, बृजभूषण शरण सिंह से है. साक्षी मलिक के विरोध के बाद बजरंग पुनिया ने भी पद्मश्री सम्मान वापस किया. बजरंग पुनिया का कहना है कि, “सरकार का यह फैसला बिलकुल ठीक फैसला है. हमारी बहनबेटियों के साथ जो अत्याचार हुआ, जिन लोगों ने किया उन लोगों को फैडरेशन से हटाना चाहिए.”

कुश्ती खिलाड़ी विनेश फोगाट ने कहा, “यह अच्छी खबर है. इस पद पर कोई महिला आनी चाहिए ताकि यह संदेश जाए कि महिलाएं आगे बढ़ें. जो भी हो, कोई अच्छा आदमी आना चाहिए.”

सवाल उठता है यह तो तब होगा जब कुश्ती संघ बर्खास्त हो और नए चुनाव कराए जाएं. सरकार की तरफ से इस तरह का कोई भरोसा नहीं दिलाया गया है. इस से साफ है कि सरकार को महिलाओं और इन पहलवानों की कोई चिंता नहीं है. विनेश फोगाट ने जो कहा, यह मांग महिला पहलवान पहले से करती आ रही थीं.

क्यों की बृजभूषण ने संन्यास की घोषणा?

कुश्ती संघ की राजनीति से बृजभूषण शरण सिंह के संन्यास की घोषणा के पीछे की साइड स्टोरी है. पिछली 18 जनवरी से बृजभूषण शरण सिंह और महिला पहलवानों के बीच लड़ाई कोर्ट, पुलिस, मीडिया, सरकार और कुश्ती संघ तक हर जगह चल रही है. जब कुश्ती संघ के नए चुनाव हुए उस में बृजभूषण के करीबी संजय सिंह की जीत हुई. उस के बाद बृजभूषण गुट के लोगों ने इसे अपनी जीत मानी. ‘दबदबा कायम है’ का नारा दे कर बृजभूषण के लोगों ने प्रचार किया. इस ने महिला पहलवानों के लिए आग में घी का काम किया.

महिला पहलवान खासकर साक्षी मलिक और विनेश फोगाट करो या मरो की हालत पर उतर आईं. इन का साथ बजरंग पुनिया ने दिया. मोदी सरकार का विरोध कर रहे लोगों ने बृजभूषण को हथियार बना कर मोदी सरकार पर हमला करना तेज कर दिया. ऐसे में पीएमओ सक्रिय हो गया. उसे लगा कि 2024 के लोकसभा चुनाव में यह मुददा गले की फांस बन सकता है, अयोध्या की चमक फीकी हो सकती है क्योंकि अयोध्या और गोंडा अगलबगल हैं. इसी के आसपास के जिलों में बृजभूषण की राजनीति चलती है. बृजभूषण भाजपा के सांसद है और उन के बेटे प्रतीक भूषण विधायक हैं.

पीएमओ ने बचाव के लिए 2 फैसले किए. पहला, बृजभूषण अगर कुश्ती संघ की राजनीति करना चाहते हैं तो सांसद के पद से इस्तीफा दें. दूसरा, सांसद बने रहना है तो कुश्ती संघ से नाता तोड़ें. पीएमओ की पहल पर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा से बृजभूषण की बातचीत हुई. उस के बाद बृजभूषण ने कुश्ती संघ की राजनीति से नाता तोड़ने की घोषणा कर दी.

महिला पहलवान यही चाहती थीं. आने वाले दिनों की राजनीति को देखते हुए बृजभूषण के लिए भी यही सब से मुफीद था. अगर वे सांसद पद से इस्तीफा देते तो उन के सामने कोई रास्ता नहीं था. उन को भाजपा छोड़नी पड़ती. अब समाजवादी पार्टी और कांग्रेस भी उन को टिकट नहीं देतीं और निर्दलीय चुनाव लड़ना समझदारी न होती.

जाहिर तौर पर डब्ल्यूएफआई को एक समय के बाद बहाल भी किया जा सकता है. बृजभूषण शरण सिंह भाजपा की मजबूरी हैं. लोकसभा चुनाव में इमेज बनाने के लिए सरकार ने यह कदम उठाया है. उस के खत्म होते ही डब्ल्यूएफआई को बहाल किया जा सकता है. बृजभूषण भले ही कुश्ती की राजनीति से संन्यास ले चुके हों पर उन का प्रभाव लंबे समय तक वहां बना रहेगा. बृजभूषण 3 पीढ़ियों से पहलवानी कर रहे हैं. कुश्ती उन के खून में बस गई है. इस से उन का अलग होना संभव नहीं है.

दयानिधि मारन के बयान पर बीजेपी क्यों काट रही बवाल, इस की तह में जाने की जरूरत

द्रमुक सांसद दयानिधि मारन ने कहा, “जो भी लोग उत्तर प्रदेश या बिहार में हिंदी सीखते हैं वे तमिलनाडु में आ कर शौचालय साफ करने, रोड साफ करने या फिर कंस्ट्रक्शन क्षेत्र में मजदूरी करने का काम करते हैं.”

मारन का यह बयान सोशल मीडिया पर खूब वायरल हो रहा है और इस बयान पर भारतीय जनता पार्टी बवाल काट रही है. वह इस पर पूरे ‘इंडिया’ गठबंधन को कटघरे में खड़ा करने को उतावली है. बीजेपी का कहना है कि दयानिधि मारन मातृभाषा हिंदी का अपमान कर रहे हैं, उत्तर भारतीयों का अपमान कर रहे हैं, भाषा-जाति के आधार पर देश को बांटने में लगे हैं.

द्रमुक सांसद की टिप्पणी बेहद आपत्तिजनक है. इस में हिंदीभाषी लोगों के लिए अपमानजनक संदर्भ हैं. मारन के बयान के रूप में बीजेपी के हाथ ‘इंडिया’ गठबंधन को घेरने का हथियार लग गया है, जिसे वह सोशल मीडिया पर भांज रही है.

दयानिधि मारन के बयान पर गंभीरता से सोचें तो उन की बात में गलत कुछ भी नहीं है. उन्होंने एक लाइन में सिर्फ सचाई बयान की है. मगर सच कड़वा होता है. जनता को झूठ की चाशनी चटाने वाली बीजेपी नहीं चाहती कि सच का स्वाद जनता चख ले और उस की आंखें खुल जाएं. इसलिए दयानिधि मारन के बयान को गरीबों का, हिंदीभाषियों का, मजदूर तबके का, उत्तर भारत का अपमान बता कर बीजेपी तिल का ताड़ बनाने में लगी है.

दयानिधि मारन के बयान का निहितार्थ समझने की जरूरत है. मारन ने अपने तीखे बोलों में सही शिक्षा की तरफ इशारा किया है, जो इतने साल के शासन के बाद भी बीजेपी शासित राज्यों में बच्चों को उपलब्ध नहीं है. मारन ऐसी शिक्षा की बात कर रहे हैं जो उच्च पदों के दरवाजे युवाओं के लिए खोले.

सिर्फ हिंदी लिखनेपढ़ने वाला युवा अगर दूसरे राज्य या दूसरे देश में नौकरी की खोज में जाएगा तो वहां अधिकारी या कलैक्टर नहीं बनेगा, सिर्फ मजदूरी ही करेगा. वह वहां मिट्टी-गारा ही ढोएगा, सड़क ही बनाएगा, होटल में बरतन ही मांजेगा, अमीरों की गाड़ियां ही धोएगा या शौचालय साफ करेगा, वहीं अगर बच्चों और युवाओं को शुरू से इंग्लिश भाषा का भी ज्ञान प्रदान किया जाए तो वे दक्षिणी राज्यों या विदेश में अच्छी व सम्मानजनक नौकरी प्राप्त कर सकेंगे.

मारन ने इस साल मार्च में एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए कहा था कि तमिल और इंग्लिश दोनों के अध्ययन की उन की पार्टी द्रमुक हमेशा से वकालत करती रही है. तमिलनाडु के लोगों ने इस का अनुसरण किया है.

तमिलनाडु के मूल निवासी सुंदर पिचाई का उदाहरण देते हुए मारन ने कहा कि वे अब गूगल के प्रमुख हैं और अगर उन्होंने सिर्फ हिंदी सीखी होती, तो वे विनिर्माण क्षेत्र में श्रमिक के रूप में काम कर रहे होते. वीडियो में वे यह कहते सुनाई देते हैं कि चूंकि तमिलनाडु के बच्चे शिक्षित होते हैं तथा अच्छी इंग्लिश सीखते हैं, इसलिए उन्हें आईटी क्षेत्र में रोजगार और अच्छा वेतन मिलता है.

मातृभाषा का ज्ञान होना, उस का मन में सम्मान होना अच्छी बात है, लेकिन हमें यह भी देखना जरूरी है कि क्या हमारी भाषा देश और दुनिया में हमारे युवाओं को एक अच्छी सम्मानजनक नौकरी दे सकती है? यदि नहीं तो कौन सी ऐसी अन्य भाषा के जानकार वे हों जो उन के लिए आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करे. निसंदेह आज के वक़्त में वह भाषा इंग्लिश ही है, जिस की वकालत दयानिधि मारन ने की है.

मारन के बयान पर बवाल काटने वाले बीजेपी नेताओं से पूछना चाहिए कि वे अपने बच्चों को इंग्लिश मीडियम स्कूलों, कौन्वेंट स्कूलों, विदेशी स्कूल-कालेजों में क्यों पढ़ाते हैं? उन्हें क्यों नहीं किसी हिंदी माध्यम के सरकारी स्कूल में डालते हैं जहां सिर्फ मातृभाषा में ही हर बात होती है? है कोई बीजेपी नेता जिस ने अपने बच्चों को सिर्फ मातृभाषा हिंदी ही पढ़ाई हो? कोई नहीं, क्योंकि सब ये चाहते हैं कि उन का बच्चा गिटपिट इंग्लिश बोलने वाला बड़ा अधिकारी बने, विदेश जाए तो भाषा के कारण वह अपमानित न हो, भाषा के कारण किसी प्रकार की परेशानी में न पड़े.

आज इंग्लिश ही ग्लोबल भाषा है. इंग्लिश का ज्ञान युवाओं के लिए अच्छे भविष्य की गारंटी है. फिर मातृभाषा के सम्मान के नाम पर बीजेपी देश के युवाओं का विकास और तरक्की का मार्ग क्यों अवरुद्ध करना चाहती है? क्या बीजेपी चाहती है कि उत्तर प्रदेश और बिहार के युवा सिर्फ मजदूर ही बने रहें? वह क्यों नहीं सरकारी शिक्षा का स्तर किसी इंग्लिश मीडियम स्कूल की शिक्षा के स्तर तक लाती है? क्या सरकार ऐसा करने में अक्षम है और अपनी इस नाकामी पर ‘मातृभाषा हिंदी के सम्मान’ का आवरण डालना चाहती है?

पत्नी का घूमनाफिरना छूट जाए इस के लिए मैं क्या करूं ?

सवाल

मेरी शादी हुए 7 महीने हो गए हैं. पत्नी बहुत अच्छी है. मुझसे प्यार करती है और मेरा पूरा ध्यान भी रखती है. बस, मुझे उस का सहेलियों के साथ घूमनाफिरना, मायके जाना, किटी पार्टी में जाना बिलकुल नहीं भाता. जानता हूं मना करूंगा तो फिर वही रूठना, चिढ़चिढ़ करना, मुंह बना लेना आदि सब शुरू हो जाएगा, जो मैं हरगिज नहीं चाहता. अब आप ही बताएं कि मैं क्या करूं कि मुझे बोलना भी न पड़े और मेरे मन की बात पूरी हो जाए ?

जवाब

अच्छा जी, तो आप चाहते हैं सबकुछ आप के मनमुताबिक हो. पत्नी न हुई कोई चाबी की गुडि़या हो गई कि आप ने जितनी चाबी भरी, उतनी ही वह चले. जनाब, पत्नी की भी कुछ इच्छाएं होती हैं. वह भी लाइफ में कुछ एंजौयमैंट चाहती है. ठीक है आप उसे हर तरह से खुश रखते होंगे, लेकिन कुछ चीजें होती हैं जो हम दोस्तों के साथ शेयर करना चाहते हैं या उन के साथ ही करना पसंद करते हैं और ऐसा करने में कोई बुराई भी नहीं है.

हम तो आप को यही राय देंगे कि आप पत्नी को अपने मनमुताबिक काम करने के लिए रिश्ते में स्पेस और लिबर्टी दें. अपनी सहेलियों के साथ फिल्म देखने जाने का, किसी खास मौके को सैलिब्रेट करने का, मायके वालों से मिलने जाने का मौका उसे भी मिलना चाहिए.

बदलती जीवनशैली में इस तरह डालें फिट रहने की आदत

आज की भागदौड़ वाली जिंदगी में महिलाएं इतनी व्यस्त रहने लगी हैं कि उन के पास अपने लिए भी वक्त नहीं. नतीजा यह होता है कि उन की फिटनैस प्रभावित होने लगती है. जबकि स्वस्थ शरीर से ज्यादा कीमती जीवन में कुछ नहीं.

बदलती जीवनशैली में फिटनैस का महत्त्व

आजकल की जीवनशैली में ज्यादातर काम मशीनों से ही करना होता है. इस से शारीरिक गतिविधियां कम हो गई हैं. खासकर जिन का काम सारा दिन बैठने का होता है उन्हें स्वास्थ्य समस्याओं का सामना ज्यादा करना पड़ता है. मोटापा, उच्च रक्तचाप, डायबिटीज, हृदय संबंधी बीमारियां आम बात हैं. इस के विपरीत यदि नियमित वर्कआउट करती रहें, अपने खानपान का खयाल रखें और तनाव से दूर रहें तो लंबे समय तक खुद को चुस्तदुरुस्त और ऐक्टिव बनाए रख सकती हैं.

खानपान में बदलाव

सरोज सुपर स्पैश्यलिटी हौस्पिटल की डाइटीशियन निधि धवन कहती हैं कि भागदौड़ भरी इस जिंदगी में फास्ट फूड और कोल्ड ड्रिंक्स झटपट पेट भरने के सब से प्रचलित विकल्प बन गए हैं. इन से पेट तो भर जाता है, लेकिन पोषण न के बराबर मिलता है. इन में कैलोरी बहुत अधिक मात्रा में होती है, जो मोटापा बढ़ाने का सब से प्रमुख कारण बन जाती है.

यदि आप व्यस्तता के कारण खाना छोड़ेंगी तो फिर रात में ज्यादा खा लेंगी. इस से मैटाबोलिज्म गड़बड़ा जाता है. 3-4 घंटों के अंतराल में कुछ न कुछ खाती रहें. इस से रक्त में शुगर का स्तर प्रभावित नहीं होगा जो आप के मस्तिष्क और उत्पादकता पर नकारात्मक प्रभाव डालता है. इस के अलावा बाहर के खाने से बचें. इन में सोडियम शुगर और वसा की मात्रा अधिक होती है. हमेशा घर के खाने को ही प्राथमिकता दें.

रोज के सामान्य खाने में ही थोड़ा बदलाव ला कर आप फिटनैस बरकरार रख सकती हैं:

अपनी डाइट में अंकुरित अनाज, दालें, सब्जियां, दूध व दूध से बने उत्पाद, फल और सूखा मेवा आदि जरूर शामिल करें.

खाने की सामान्य चीजों में थोड़े प्रयास से पौष्टिकता बढ़ाई जा सकती है. मसलन, दलिया में दाल और सब्जियां मिला कर पकाएं. पोहे में मूंगफली, चने की दाल, बींस, गाजर, फूलगोभी आदि मिला कर पौष्टिकता बढ़ा सकती हैं. अंकुरित अनाज में खीरा, टमाटर, मटर गाजर आदि डाल कर खाएं.

परांठों में स्टफिंग कर के खाएं. कभी पनीर, कभी दाल, साग वगैरह भर दें. इस से कम मेहनत में हर तरह के न्यूट्रिएंट्स शरीर को मिल जाएंगे.

ज्यादातर खाना माइक्रोवेव में ही पकाएं. इस में तेल कम मात्रा में लगता है और न्यूट्रिऐंट्स भी नष्ट नहीं होते.

खाने को कभी डीप फ्राई न करें. फ्राईपैन या दूसरे नौनस्टिक बरतनों का प्रयोग अधिक करें. इन में तेल कम लगेगा.

हमेशा सब्जियों के बड़ेबड़े टुकड़े काटें. उन्हें काटने से पहले अच्छी तरह धोएं.

खीरा, ककड़ी, टमाटर वगैरा सलाद की चीजें खाने से पहले खा लें. ये भूख को नियंत्रित करेंगे और आप को चुस्त बनाए रखेंगे.

चावल पकाते समय कभी भी मांड़ न निकालें.

बीचबीच में आंवला, गुड़, खजूर जैसी चीजें खाती रहें. इन में आयरन और दूसरे न्यूट्रिऐंट्स भरपूर मात्रा में होते हैं.

स्नैक्स के तौर पर चिप्स, बिस्कुट आदि खाने के बजाय मुरमुरा, चने, भुने मखाने आदि खाएं.

कैसे रखें खुद को चुस्तदुरुस्त

खुद को चुस्तदुरुस्त बनाए रखने के लिए टिप्स:

संतुलित भोजन खाएं. पर्याप्त मात्रा में प्रोटीन और कार्बोहाइड्रेट लें. वसा की मात्रा कम रखें. सारे फलों व सलाद का पर्याप्त सेवन करें. खूब पानी पीएं.

कब्ज न होने दें. इस के लिए गेहूं, चना, सोयाबीन और जौ मिश्रित आटे की रोटियां खाएं.

दिन की शुरुआत 1 गिलास कुनकुने पानी से करें.

लिफ्ट के बजाय सीढि़यों का प्रयोग करें.

औफिस या घर में पूरा दिन कंप्यूटर के सामने न बैठी रहें. बीचबीच में थोड़ी देर का ब्रेक लें. चहलकदमी करें या सीढि़यां चढ़उतर लें.

वीडियो गेम खेलने या टीवी देखने के बजाय आउटडोर गेम खेलें.

सप्ताह में 5 दिन आधा घंटा टहलें या ऐक्सरसाइज करें.

सुबह उठने के बाद ज्यादा देर भूखी न रहें. रात को सोने से कम से कम 2 घंटे पहले खाना खा लें.

डाइटिंग कभी न करें, क्योंकि इस से ऊर्जा का स्तर गिर जाता है और आप ऊर्जा पाने के लिए बिना सोचेसमझे कैलोरी वाली चीजें खाने लगती हैं.

गोल्ड में कैरेट के क्या हैं मायने

सोना पहनना वैभव का प्रतीक माना जाता है क्योंकि यह सब से महंगी और शुद्ध धातु मानी जाती है. इस कारण सोने की खरीदारी सभी करते हैं. वहीं, इस की शुद्धता को ले कर सवाल भी सभी के मन में रहते हैं. लोग सोचते हैं कि जो सोना खरीदा है उस में कितनी शुद्धता है. सोने की शुद्धता तय करने का काम कैरेट करता है. शुद्ध सोना 24 कैरेट का माना जाता है जिस में सोने की मात्रा 99.9 फीसदी होती है. इस को ऐसे भी समझें कि सोने के मामले में कैरेट का इस्तेमाल उस की शुद्धता को मापने के लिए किया जाता है. अगर सोना 24 कैरेट है, मतलब इस में 99.99 फीसदी शुद्ध सोना है.

24 कैरेट सोने का इस्तेमाल ज्वैलरी बनाने में अब नहीं होता है. इस का इस्तेमाल सोने के सिक्के और ईंट बनाने में किया जाता है. सोने के सिक्कों की कीमत इसीलिए ज्यादा होती है. इस में 99.9 फीसदी पूरी तरह शुद्ध गोल्ड का प्रयोग किया जाता है. गोल्ड बार यानी सोने की ईंट भी पूरी तरह शुद्ध 24 कैरेट से बनाई जाती है. जो लोग बचत के लिए सोने की खरीदारी करते हैं वे पूरी तरह से शुद्ध सोना ही खरीदते हैं. 24 या 22 कैरेट के गहने में वह कीमत नहीं मिलती जिस कीमत पर खरीदा जाता है. उस की वजह यह होती है कि गहने की कीमत में उस की बनवाई और टांका भी शामिल होता है. जब कोई बेचने के लिए जाता है तो बनवाई और टांका काट कर बचे सोने का ही मूल्य मिलता है.

24 कैरेट सोना 99.9 फीसदी शुद्ध होता है. जबकि 22 कैरेट में सोने की शुद्धता 91.7 फीसदी होती है. वहीं, 18 कैरेट सोने की शुद्धता 75 फीसदी होती है. 14 कैरेट में सोने की शुद्धता 58.3 फीसदी होती है. 12 कैरेट में सोने की शुद्धता 50 फीसदी होती है. 10 कैरेट में सोने की शुद्धता 41.7 फीसदी और 9 कैरेट में सिर्फ 37.5 फीसदी सोने की शुद्धता होती है.

एक कैरेट 200 मिलीग्राम या 0.00643 ट्राय के बराबर द्रव्यमान की एक इकाई है. इस का प्रयोग रत्न और मोती को मापने के लिए किया जाता है. 1 कैरेट एक ग्राम के 1/5 या 0.200 ग्राम के बराबर होता है. सवाल उठता है, कैसे पहचानें कि सोना कितने कैरेट का है?

हालमार्क वाली ज्वैलरी पर हालमार्क का निशान और कुछ अंक जैसे 999, 916, 875 लिखे होते हैं. इन्हीं अंकों में सोने की शुद्धता का राज छिपा होता है. हालमार्क के निशान के साथ 999 नंबर वाले सोने की ज्वैलरी 24 कैरेट की होती है. 999 का मतलब इस में सोने की शुद्धता 99.9 फीसदी है.

पुरुषोत्तम दास घनश्याम दास ज्वैलर्स अमीनाबाद, लखनऊ के राम रस्तोगी कहते हैं, ‘‘आज के दौर में ज्वैलरी पर हालमार्क लगा होता है, जिस से ज्वैलरी की शुद्धता की जानकारी होती है. इस बारे में ग्राहक को बता दिया जाता है कि ज्वैलरी कितने शुद्ध सोने से बनी है. हमारा खरीदार के साथ पीढि़यों का रिश्ता होता है. यही कारण है कि ग्राहक उसी दुकान पर खरीदारी करता है जिस पर उस का भरोसा होता है. इस बिजनैस में दुकान का नाम ही शुद्धता की गारंटी माना जाता है. अब कई मशीनें भी आ गई हैं जो ज्वैलरी में सोने की शुद्धता की पहचान कर लेती हैं.’’

दिखावा और बचत एकसाथ

ज्वैलरी खरीदते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि आप किस जरूरत के लिए उसे खरीद रहे हैं. आमतौर पर आज जिस तरह की ज्वैलरी का निर्माण हो रहा है वह 22 कैरेट गोल्ड पर बनती है. कुछ ज्वैलरी 18 कैरेट पर भी बनती है. 24 कैरेट पर ज्वैलरी बनाना सरल नहीं होता है क्योंकि यह सोना काफी लचीला होता है. ज्वैलरी के टूटने का खतरा रहता है. इस को बनाने में लाख का प्रयोग किया जाता है, जिस से इस की बनी ज्वैलरी टूटे नहीं.

हमारे देश में ज्वैलरी की खरीदारी के 2 कारण होते हैं. पहला कारण शादीविवाह में इस का लेनदेन और इन उत्सव में इन को पहनना. दूसरा कारण यह होता है कि अगर जरूरत पड़े तो इन को बेच कर या रहन पर रख कर लोन लिया जा सके.

आज कई बैंक भी गोल्ड लोन देने का काम करते हैं. बचत के लिए सोने की खरीदारी करने वाले 24 और 22 कैरेट का सोना लेते हैं क्योकि इस में रिटर्न अच्छा मिल जाता है. इस तरह से 24 और 22 कैरेट में बने गहने पहनने और बचत दोनों के काम आते हैं.

कम कीमत वाले सोने की ज्वैलरी

हर दौर में सोने की ज्वैलरी महिलाओं की सब से पहली पसंद रही है. अब समाज में महिलाओं की भूमिका बदल गई है. वे कामकाजी हैं जिस से सोने के भारी गहने नहीं पहन सकती हैं. एक तो भारी गहने काम करने में असुविधा पैदा करते हैं. दूसरे, उन के खोने या कई बार बदमाशों  द्वारा उन्हें छीने जाने की घटनाएं भी होती हैं. ऐसे में सोने के वे गहने ज्यादा पसंद किए जाते हैं जो मजबूत और कम पैसे में मिल सकें. इन को पहन कर दिखावा तो होता है पर ये बचत के लिए ठीक नहीं रहते हैं.

अगर रोजाना पहनने या औफिस पहन कर जाने के लिए कोई आभूषण बनवाना है तो बेहतर होगा कि 18 कैरेट या फिर 14 कैरेट वाले सोने के गहने खरीदें. ये आभूषण 22 और 24 कैरेट वाले की तुलना में ज्यादा टिकाऊ होते हैं. इसी तरह, अगर आप ऐसी जगह आभूषण पहन कर जाते हैं जहां इस पर असर पड़ता है तो 14 कैरेट वाला ज्यादा बेहतर होगा. यह सस्ता होने के साथ ज्यादा टिकाऊ भी रहता है.

सोने में मिलावट

सोने के आभूषण में मिश्रण के लिए उन्हीं धातुओं का इस्तेमाल किया जाता है जो इस की चमक और क्वालिटी पर खास असर नहीं डालती हैं. 22 कैरेट सोने के साथ चांदी, तांबा और जिंक जैसी धातुओं का मिश्रण किया जाता है. जबकि 18 कैरेट वाले गहने में जिंक, तांबे के साथ निकल की कुछ मात्रा भी मिलाई जाती है. 14 कैरेट वाले गहने में 58 फीसदी सोना और 42 फीसदी चांदी, तांबा, जिंक और निकल जैसी धातुओं का मिश्रण किया जाता है.

सोने में कितनी बरकत

साल 2003 में सोने का भाव 5,600 रुपए प्रति 10 ग्राम था जो कि 10 साल बाद 2013 में बढ़ कर 30,000 रुपए प्रति 10 ग्राम हो गया. आज यानी 2023 में इस का भाव प्रति

10 ग्राम 65,000 रुपए के लगभग है. यानी 20 साल में 59,400 रुपए का फायदा निवेशक या खरीदार को हुआ.

आज से 20 साल पहले ही जमीनों के भाव भोपाल में औसतन प्रति एकड़ 50 हजार रुपए था जो कि अब

60 लाख रुपए से कम नहीं. 2013 में जमीनों का औसत भाव 10 लाख रुपए प्रति एकड़ था.

जिन्होंने 10 साल पहले 10 लाख का सोना खरीदा वह अब 20 लाख का है जबकि जिन्होंने 10 लाख की जमीन खरीदी वह 60 लाख की है. जमीन खरीदने वालों को कम से कम 6 गुना ज्यादा जबकि सोना खरीदने वालों को सिर्फ दो गुना फायदा हुआ.

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म्यूचुअल फंड के जमाने में भी सोने में ही निवेश करें

भारतीय महिलाओं का सोने से लगाव सदियों से रहा है. महिलाओं में खुद की सुंदरता को प्रदर्शित करने की मनोवैज्ञानिक कमजोरी होती है, इस कारण वह सब से ज्यादा गहनों के रूप में ही अपनी अमीरी और सुंदरता को प्रदर्शित करती हैं. समाज में जिस की औरत जितना ज्यादा गहना पहने दिखाई देती है उस को उतने ही सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है, इसलिए भी लोगों में गहनों के प्रति एक विशेष प्रेम होता है.

सोना और भूमि 2 ऐसी चीजें हैं जिन के दाम समय के साथ बढ़ते ही गए, जिन के पास भी थोड़े पैसे आए तो उस पैसे को लोग या तो सोने में निवेश करते रहे या भूमि खरीद कर प्रौपर्टी बनाते रहे.

पुरानी कहावत है कि सोना और जमीन बुरे वक्त के लिए होते हैं. आजकल ये स्टेटस सिंबल बन गए हैं. अचल सम्पति में सब से अच्छा स्थान जमीन के बाद गहनों का ही माना जाता है. रिश्तेदार और मिलने वाले हमारे धन को उधार या अन्य रूप में उपयोग न कर लें, इसलिए भी बचत के धन को लोग गहनों और मकानजमीन में ही निवेश करते हैं.

धनवान महिलाओं में त्योहारों-समारोहों में अन्य महिलाओं के आगे शोऔफ करने और दूसरे को नीचा दिखाने की भावना प्रबल होती है और वे इसी अहं भाव की संतुष्टि के लिए अपने पति और परिजनों को उकसाती हैं सोने के ज्यादा से ज्यादा गहने उस के लिए बनवाए जाएं. पति भी यही सोचता है कि चलो इस बहाने संपत्ति बन रही है, जो बुरे वक्त में काम आएगी.

धार्मिक और आर्थिक दोनों नजरिए से स्वर्ण धातु का महत्त्व है. यही वजह है कि सोना भारतीयों को बहुत प्रिय है, लेकिन महंगी कीमत के चलते इसे खरीदना इतना आसान नहीं होता है फिर भी आप को यह जान कर हैरानी होगी कि दुनिया में सब से ज्यादा सोना भारत के पास है.

वर्ल्ड गोल्ड काउंसिल के मुताबिक भारतीय महिलाओं के पास करीब 21,000 टन सोना है और इस की कीमत 1 ट्रिलियन डौलर यानी करीब 100 लाख करोड़ के आसपास है. भारतीय महिलाओं के पास सोने की यह मात्रा दुनिया में सब से ज्यादा है, क्योंकि दुनिया के टौप 5 बैंकों के पास भी इतना गोल्ड रिजर्व नहीं है.

भारत में सोने में निवेश और पहनने, दोनों के लिए खरीदा जाता है. जब भी इन्वैस्टमैंट की बात आती है तो लोग अपनी बचत का सिर्फ 5 प्रतिशत ही बैंक अकाउंट, शेयर, म्यूचुअल फंड में लगाते हैं और सोने में निवेश को ज्यादा प्राथमिकता देते हैं. तमिलनाडु में सब से ज्यादा लोग कुल निवेश का 28.3 प्रतिशत हिस्सा गोल्ड में लगाते हैं.

भारतीयों के पास कुल सोने में करीब 80 प्रतिशत हिस्सा गहनों का है. वहीं, मंदिरों में ढाई हजार टन गोल्ड है. इन में केरल के पद्मनाभ स्वामी मंदिर में 1300 टन सोना होने का अनुमान है. आंध्र प्रदेश के तिरुपति मंदिर के पास 250 से 300 टन सोना है. मंदिर अपना 4.5 टन सोना बैंक डिपौजिट स्कीम में रख चुका है. यहां हर माह 100 किलो सोना चढ़ावे के तौर पर आता है. देश के बड़ेबड़े व्यापारी, उद्योगपति और अमीर लोग यहां मंदिरों में चढ़ावे के रूप में सोना देते हैं.

सोना पूरे संसार मे सब से प्रचलित और बिना उतार वाली धातु है. इसलिए लोग इस में निवेश को सब से अच्छा मानते हैं. सोना और जमीन कभी भी खरीदार को नुकसान नहीं देते हैं. बिना विवाद और उचित मूल्य की जमीन हो एवं प्रचलित भाव का शुद्ध सोना हो तो कभी भी नुकसान नहीं होता. हर चीज का भाव निश्चित समय बाद गिरता है लेकिन इन दोनों का दाम कभी नहीं गिरता है. हां, आंशिक समय के लिए अपवाद हो सकते हैं.

गोल्ड में निवेश करने का सब से बड़ा फायदा यह है कि इस में आप का पैसा सुरक्षित रहता है. वहीं जरूरत पड़ने पर आप इस पर लोन भी ले सकते हैं. पिछले 5 सालों में गोल्ड में निवेश करने वालों का पैसा दोगुना हो चुका है.

सोने के बारे में खास बातें

भौतिक संपत्ति : सोना एक भौतिक परिसंपत्ति वर्ग है जिसे बहुत से लोग भविष्य के लिए खरीद कर रखना पसंद करते हैं.

सकारात्मक इतिहास : सोने की कीमत और मूल्य-विकास का सकारात्मक इतिहास रहा है. आम लोगों से ले कर राजसी वर्ग ने समान रूप से इस के मूल्य को समझ और परखा है.

मुद्रास्फीति से बचाव : बढ़ती महंगाई के विरुद्ध सोने में निवेश सुदृढ़ बचाव-उत्पाद साबित हुआ है.

तरलता : सोना खरीदना एवं बेचना सरल है और यह सब से अधिक तरल संपत्ति वर्गों में से एक है जिसे आवश्यकता पड़ने पर आसानी से बेचा जा सकता है.

सरल निवेश : सोने में निवेश के लिए निवेशकों को विशिष्ट ज्ञान, अनुसंधान या अध्ययन की आवश्यकता नहीं है. एक कम पढ़ीलिखी भारतीय महिला भी अपनी मेहनत की कमाई को आसानी से सोने में निवेश कर सकती है.

सोने में निवेश के तरीके

गोल्ड ईटीएफ : आप शेयरों की तरह भी सोने को खरीद सकते हैं. इस सुविधा को गोल्ड ईटीएफ कहते हैं. ये एक्सचेंज-ट्रेडेड फंड होते हैं. इन्हें स्टौक एक्सचेंजों पर खरीदा और बेचा जा सकता है. आप इसे सोने की वास्तविक कीमत के करीब खरीद सकते हैं, क्योंकि गोल्ड ईटीएफ का बेंचमार्क स्पौट गोल्ड की कीमतें हैं. हालांकि आप के पास ट्रेडिंग डीमैट अकाउंट होना जरूरी है. इस के बाद ही आप गोल्ड ईटीएफ खरीद सकते हैं.

फिजिकल गोल्ड

आप फिजिकल गोल्ड भी खरीद सकते हैं. फिजिकल गोल्ड जैसे सोने के बिस्कुट-सिक्के या ज्वैलरी खरीदना है. हालांकि एक्सपर्ट ज्वैलरी खरीदने को गोल्ड में निवेश का अच्छा विकल्प नहीं मानते हैं. इस की वजह है कि इस पर आप को मेकिंग चार्ज और जीएसटी देना पड़ता है. ऐसे में आप को इस में ज्यादा पैसे चुकाने पड़ते हैं.

पेमेंट ऐप से करें निवेश

आप बेहद आसानी से अपने स्मार्टफोन से भी सोने में निवेश कर सकते हैं. आप को इस के लिए ज्यादा रुपए खर्च करने की भी जरूरत नहीं है. आप अपनी सुविधा के हिसाब से जब चाहें गोल्ड में निवेश कर सकते हैं. गूगल पे, पेटीएम, फोनपे और अमेजन पे जैसे कई प्लेटफौर्म उपलब्ध हैं. डिजिटल गोल्ड खरीदने के कई फायदे हैं.

सोवरेन गोल्ड बौंड

सोने में निवेश का एक विकल्प सोवरेन गोल्ड बौंड भी है. सोवरेन गोल्ड बांड एक सरकारी बौंड होता है, जिसे सरकार समयसमय पर जारी करती है. इस का मूल्य रुपए या डौलर में नहीं होता है, बल्कि सोने के वजन में होता है. अगर बौंड एक ग्राम सोने का है तो एक ग्राम सोने की जितनी कीमत होगी, उतनी ही बौंड की कीमत होगी. सोवरेन गोल्ड बौंड में इश्यू प्राइस पर हर साल 2.50 रुपए का निश्चित ब्याज मिलता है. सोवरेन गोल्ड बौंड में निवेश के लिए भी डीमैट अकाउंट जरूरी होता है.

अमेरिका और भारत सहित बहुत से देशों के केंद्रीय बैंकों ने कोरोना महामारी के दौरान अपनी ब्याज दरों को काफी कम कर दिया था. अब केंद्रीय बैंकों को बढ़ती महंगाई पर लगाम लगाने के लिए अपनी मौद्रिक नीति को फिर से कड़ा करना पड़ रहा है ताकि कैश फ्लो कम हो और इस से मांग में कमी आए तो महंगाई पर कुछ लगाम लगे.

वहीं, दूसरी ओर सोने की आपूर्ति सीमित है. इसलिए जब लोग ज्यादा सोना खरीदते हैं तो इस के दाम चढ़ जाते हैं. कोरोना वायरस के दौर में भी सोना एक सुरक्षित विकल्प बन कर सामने आया है. रुपया गिरने पर भी सोने के दाम उछाल पर होते हैं और रुपया उठने पर भी सोना अपनी जगह बनाए रखता है. इन बातों को देखते हुए सोने में किया निवेश फायदेमंद है.

अब फिल्मों में जवान कलाकार करते ‘बूढ़ों’ का किरदार, नहीं रही टाइप्ड होने की चिंता

पुलिस सब इंसपेक्टर की नौकरी छोड़ कर राजकुमार ने फिल्मों में एक्टिंग शुरू की थी. उन के फिल्मों में जाने की कहानी बड़ी रोचक है. राजकुमार का असली नाम कुलभूषण पंडित था. वह पुलिस में सब इंसपेक्टर थे. वह स्मार्ट दिखने के लिए हमेशा सचेत रहते थे. वह जिस थाने में तैनात थे वहां फिल्मी लोगों का आनाजाना काफी होता था. उन को भी फिल्में देखने का काफी शौक था. इस कारण थाने में आने जाने वालों के सामने अपने रौबदार डायलाग मारते थे.

एक दिन फिल्म डायरेक्टर बलदेव थाने आए तो कुलभूषण पंडित ने पुलसिया अंदाज में एक डायलौग बोल दिया. बलदेव उसे सुन कर प्रभावित हुए और उन को फिल्मों में एक्टिंग करने का औफर दिया.

उन की पहली फिल्म ‘शाही बाजार’ आई. वही से उन का नाम राजकुमार हो गया.

राजकुमार ऐसे फिल्म अभिनेता थे जिन की कोई भी ऐसी फोटो देखने को नहीं मिलेगी जिस में वह टिप टौप या स्मार्ट न दिखते हो. कहा जाता है कि रात में सोते समय भी वह मेकअप कर के सोते थे. इसी तरह के अभिनेता देवानंद भी थे. जो हमेशा काले रंग के कपड़े पहन कर चलना पंसद करते थे. क्योंकि इस में वह जवान दिखते थे.

उस दौर में बूढ़े से बूढ़ा अभिनेता भी पर्दे पर जवानों का किरदार ही निभाता था. अपनी उम्र से कई साल छोटी हीरोइन के साथ एक्टिंग कर के खुद को जवान साबित करता था.

इस कड़ी में कई नाम ले सकते हैं. ऋषि कपूर, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, धर्मेन्द्र जैसे तमाम नाम हैं.

अब जवान हीरो निभा रहे बूढो का किरदार

फिल्म अभिनेता शाहरुख खान जवान हीरो की जगह पर बूढ़ों के किरदार निभा रहे हैं. शाहरुख खान ने फिल्म ‘डंकी’ में बूढ़े का रोल किया. किंग खान कहे जाने वाले शाहरूख ने अपनी अगली फिल्म के बारे में कहा कि वह एक बार फिर से अपनी उम्र से ज्यादा के रोल करते दिखाई देंगे. यानी एक बार फिर से एक्टर पर्दे पर बूढ़े के रोल में नजर आ सकते हैं.

शाहरुख खान ने कहा, ‘मैं अब फिल्म मार्च, अप्रैल में एक शुरू करूंगा. मैं अब एक ऐसी फिल्म करने का प्रयास कर रहा हूं जो मैं ज्यादा उम्र और वास्तविक रहूं.’

शाहरुख खान के चाहने वाले उन को दोनों ही किरदार में पसंद कर रहे हैं. शाहरुख का स्वैग ही अलग है. जो दर्शकों को खास पसंद आ रहा है. बूढ़े के रूप में भी शाहरुख खान फिल्म में दमदार एक्शन सीक्वेंस करते नजर आते हैं.

फिल्म ‘जवान’ में शाहरुख खान का जवानी का किरदार जितना फैंस को पसंद आया, उतना ही उन का बुजुर्ग वाला किरदार भी दर्शकों के दिल में उतर गया है.

आज जो सिनेमा बन रहा है वह काल्पनिक से अधिक रियलस्टिक सोच पर बन रहा है. फिल्मी कलाकारों को यह लगता है कि अपनी से अधिक उम्र के किरदार निभाने में उन को ज्यादा मजा आ रहा है. हीरो पहले की तरह इमेज और लुक्स को ले कर परेशान नहीं रहता. वह अच्छी कहानी के लिए कोई भी रोल कर लेता है.

अमिताभ बच्चन ने ‘पा’ में इसी तरह का रोल निभाया. ‘चीनी कम’ में भी वह बूढ़े के किरदार में नजर आए. दोनों ही फिल्मों की काफी तारीफ हुई.

हीरोइन भी पीछे नहीं

जवानी में बूढ़ों के किरदार निभाने वालों में हीरोइने भी पीछे नहीं हैं. फिल्म ‘जवान’ में रिद्धि डोगरा के किरदार की तारीफ भी कर रहे हैं. इस फिल्म में रिद्धि डोगरा के किरदार का नाम ‘कावेरी अम्मा’ है.

फिल्म रिलीज के साथ ही उन की तुलना शाहरुख की पिछली फिल्म ‘स्वदेस’ के एक किरदार से की जाने लगी है. रिद्धि ने फिल्म में काम करने के अपने शानदार अनुभव के लिए निर्देशक एटली को शुक्रिया कहा है. रिद्धि डोगरा ने शाहरुख की मां कावेरी अम्मा का रोल निभाया है.

इस को स्वीकार करना किसी भी हीरोइन के लिए काफी मुश्किल रहा होगा.’जवान’ में रिद्धि डोगरा के कावेरी अम्मा वाले किरदार ने शाहरुख की फिल्म ‘स्वदेस’ में इसी नाम के कैरक्टर की याद आ गई है. ‘स्वदेस’ में कावेरी अम्मा को अनुभवी एक्ट्रैस किशोरी बल्लाल ने पर्दे पर निभाया था. सोशल मीडिया पर किसी ने उन की असली उम्र जाननी चाही तो मजाक में ही रिद्धि ने अपनी उम्र बताते कहा ‘मैं 15 साल की हूं’.

स्टारडम की चिंता छोड़ निभाया बूढ़ों का किरदार

फिल्मों में अपनी उम्र से अधिक का किरदार निभाने के लिए जी तोड़ मेहनत करनी पड़ती है. उन को कई तरह के गेटअप लेने पड़ते हैं. अब अपनी से बड़ी उम्र की भूमिका निभाने से भी वह पीछे नहीं हटते.

कई अभिनेता ऐसे हैं, जिन्होंने कम उम्र में बुजुर्ग का किरदार निभाया है और दर्शकों का दिल भी जीता है. यह जवानी में बूढ़े बन कर पर्दे पर छा गए.

फिल्म ‘भारत’ में अभिनेता सलमान खान ने जवानी से ले कर बुढ़ापे तक के किरदार को निभाया था. कम उम्र में उन्होंने फिल्म में बुजुर्ग का किरदार इस तरह से निभाया की दर्शक एक बार फिर उन के दीवाने हो गए.

इसी तरह से फिल्म अभिनेता ऋतिक रोशन ने फिल्म ‘कृष’ और ‘कृष 3’ में डबल रोल निभाया था, एक बेटे और एक पिता का. फिल्म में ऋतिक बूढ़े पिता के किरदार में नजर आए थे और इस खूबसूरती के साथ उन्होंने बुजुर्ग का किरदार निभाया था कि अपने ही बेटे वाले किरदार को कड़ी टक्कर दे रहे थे.

इस के अलावा ऋतिक ने फिल्म ‘धूम 3’ में भी बूढ़े का गेटअप अपनाया था. बुजुर्ग बन कर उन्होंने चोरी को अंजाम दिया था.

बॉलीवुड के मिस्टर परफैक्शनिस्ट कहे जाने वाले सुपरस्टार आमिर खान भी इस लिस्ट में शामिल हैं. फिल्म ‘दंगल’ में उन्होंने 2 बेटियों के पिता की भूमिका निभाई थी. जिस के लिए उन्हें बूढ़े का रोल करना पड़ा था. इस के साथ ही इसी फिल्म में उन के जवानी के किरदार को भी दिखाया गया था. जिस में आमिर एक पहलवान के रूप में नजर आए थे और दर्शकों का दिल जीत लिया था, लेकिन वहीं अगले ही पल बुजुर्ग का किरदार निभाते हुए भी उन्होंने फैंस के दिल में खास जगह बना ली.

नहीं रही टाइप्ड होने की चिंता

फिल्मों के हीरो हो या हीरोइन अब उन को टाइप्ड होेने की चिंता नहीं रही. पहले हीरो को लगता था कि एक बार बूढ़े का किरदार निभा लिया तो उन को बारबार ऐसे ही किरदार निभाने होंगे. यही हाल हीरोइन का था इसलिए वह मां, बहन या भाभी का किरदार निभाने को तैयार नहीं होती थी.

अब यह सोच बदल रही है. उन को लगता है कि उन के लुक्स के बारे में सब जानते हैं. ऐसे में बूढ़े का किरदार निभाने के बाद भी उन को लोग जवान ही समझेंगे. सोशल मीडिया के कारण स्टार अपने फैंस से हमेशा जुड़े रहते हैं. फैंस उन के सच को जानते हैं.

पहले के समय में स्टार केवल फिल्मों के जरिए या बहुत हुआ तो अखबार और पत्रिकाओं के जरिए ही अपने फैंस से जुड़े रहते थे. इसलिए यह खतरा रहता था कि जिस तरह से पर्दे पर दिखेंगे उसी तरह से सोचेंगे.

आज पर्दे से अधिक सोशल मीडिया के जरीये स्टार अपने फैंस से जुड़े रहते हैं. वह उन के बारे में बहुत जानकारी रखते हैं. ऐसे में केवल फिल्मी रोल तक बात नहीं रह गई है.

आज फिल्मों की कहानी ऐसी होती है जिस में अधिक प्रयोग किए जा रहे हैं. उम्र कोई बाधा नहीं रह गई. कलाकार को इमेज से अधिक किरदार की फिक्र होने लगी है. इसलिए वह किरदार को बेहतर बनाने के लिये उम्र की सीमा को पीछे छोड़ चुका है.

कुश्ती महासंघ का चुनाव : ‘बलशाली’ हुई चित्त ‘अबला’ की कौन बिसात ?

कुश्ती महासंघ के चुनाव से यह साबित हो गया कि जब ताकतवर महिलाएं अपनी कानूनी लड़ाई नहीं लड़ पाईं तो कमजोर महिलाओं की क्या बिसात है. कुश्ती महासंघ के चुनाव में संजय सिंह के अध्यक्ष चुने जाने के बाद कुश्ती महासंघ के पूर्व अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ प्रदर्शन करने वाली महिला पहलवान बजरंग पूनिया, विनेश फोगाट और साक्षी मलिक ने निराशा जाहिर की. कुश्ती महासंघ के चुनावी नतीजे आने के बाद साक्षी मलिक ने विरोध में कुश्ती से संन्यास लेने की घोषणा कर दी.

साक्षी ने कहा कि ‘हम महिला अध्यक्ष चाहते थे लेकिन बृजभूषण शरण सिंह जैसे व्यक्ति के बिजनेस, साझीदार और करीबी सहयोगी को अध्यक्ष चुना गया. चुनाव जीते संजय सिंह के पक्ष में 40 वोट मिले और उन के मुकाबले चुनाव लड़ी अनीता को केवल 7 मत मिले. हम महिला अध्यक्ष चाहते थे लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इसलिए मैं कुश्ती से संन्यास ले रही हूं.’

विनेश फोगाट ने भी निराशा जाहिर करते कहा कि ‘मुझे नहीं पता कि मुझे अपना कैरियर जारी रखना है या नहीं. उभरती हुई महिला पहलवान भी शोषण का सामना करेंगी.’

महिलाओं का साथ नहीं देता समाज

महिला पहलवानों की हार कोई नई बात नहीं है. महिलाओं को मजबूती देने के लिए कई कानून बने हैं लेकिन यह कानून महिलाओं को उन के अधिकार नहीं दिला पा रहे हैं. ताकतवर धार्मिक और सामाजिक सोच के सामने महिलाओं के अधिकार और कानून ढेर हो जाते हैं.

पिछले 10 सालों में महिलाओं के खिलाफ अपराध में 75 फीसदी तक वृद्धि हुई है. सब से प्रमुख बात यह है कि किसी भी तरह के अपराध या महिला पर हो रहे अत्याचार के लिए महिला को ही जिम्मेदार मान लिया जाता है. महिलाओं को समाज में दोयम का माना जाता है. पुरुषों द्वारा किए जाने वाले मारपीट और अत्याचार को सहन करने की सामाजिक स्वीकृति मिलने लगती है. इस वजह से महिलाओं के खिलाफ अपराध बढ़ता है.

यही नहीं समाज के सामने महिलाओं के खिलाफ अपराध होता है, लोग अपराध के खिलाफ कोई प्रतिक्रिया देने के बजाय चुपचाप रहते हैं. यह घटनाएं लड़कियों के प्रति समाज की सोच को दिखाती है. सदियों से समाज पितृसत्तात्मक रहा है, जिस में सत्ता पुरुषों और उन के अधिकार में रहती है. लड़कों के दिमाग में बचपन से ही महिलाओं को कमतर समझने की भावना भर दी जाती है.

हालत तब ज्यादा खराब दिखते हैं जब प्रताड़ना झेलने के बावजूद समाज महिलाओं का साथ नहीं देता. महिला अगर अपराध के खिलाफ लड़ने का फैसला करती भी है तो समाज और परिवार तक उसे डांटडपट कर चुप करा देता है.

आईना दिखाते आंकडे

राष्ट्रीय अपराध रिकौर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के हिसाब से मोटे तौर पर बीते 10 सालों में महिलाओं के विरुद्ध अपराध में 75 प्रतिशत तक की वृद्धि दर्ज हुई है. चुनिंदा मामलों को छोड़ दिया जाए तो महिला उत्पीड़न करने वाले पुरुषों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई नहीं हो पाती या फिर अपराधी करार होने के बावजूद सालोसाल सजा मुहैया नहीं हो पाती.

नेशनल क्राइम ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, मौजूदा हालात में महिला अपराध के कुल मामलों में केवल 23 प्रतिशत को ही सजा मिल पाती है.

2012 में दिल्ली में निर्भया कांड के बाद महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों में सजा देने के कड़े प्रावधान बने. इस के बाद भी महिलाओं के खिलाफ अपराधों में कमी नहीं आई. न ही कानून के माध्यम से जल्द से जल्द सजा दिलाई जा सकी. महिलाओं के खिलाफ अधिकांश अपराध पति या उस के रिश्तेदारों द्वारा किए जाते हैं. 31 फीसदी क्रूरता, 19 फीसदी महिलाओं का अपहरण और 18 फीसदी महिलाओं पर बलात्कार करने के इरादे से हमला और 7 फीसदी बलात्कार के मामले घर परिवार के लोगों ने किए. दहेज प्रताड़ना में परिवार का ही हाथ होता है.

कानून के बाद भी नहीं मिलता हक

समाज की सोच अभी भी पूरी तरह बदल नहीं पाई है. पिता की जायदाद पर पहला हक बेटों का होता है. जबकि भारत में बेटियों के हक में कई कानून बने हैं. आज भी सामाजिक स्तर पर पिता की प्रौपर्टी पर पहला हक पुत्र को दिया जाता है. बेटी की शादी होने के बाद वह अपने ससुराल चली जाती है. तो कहा जाता है कि उस का जायदाद से हिस्सा खत्म हो गया.

संपत्ति के बंटवारे को ले कर भारत में कानून बनाए गए हैं, जिन के अनुसार पिता की संपत्ति में केवल बेटे का ही नहीं बल्कि बेटी का भी बराबर का हक होता है.

साल 2005 में यूपीए सरकार के दौरान हिंदू सक्सेशन ऐक्ट, 1956 में संशोधन के बाद बेटी को ‘हम वारिस’ यानी समान उत्तराधिकारी माना गया. अब बेटी के विवाह से पिता की संपत्ति पर उस के अधिकार में कोई बदलाव नहीं आता है. यानी, विवाह के बाद भी बेटी का पिता की संपत्ति पर अधिकार रहता है.

इस के मुताबिक पिता की संपत्ति पर बेटी का उतना ही अधिकार है जितना कि बेटे का.

इस के बाद भी बेटियों को तब तक अधिकार नहीं मिलता जब तक वह कानूनी लड़ाई न लड़े. कानूनी लड़ाई इतनी लंबी और पेंच वाली होती है जिस में फैसला होने में सालोंसाल लग जाते हैं. जब साक्षी मलिक और विनेश फोगाट जैसी मजबूत लड़कियां हार जाती हैं तो कमजोर लड़कियां कैसे पितृसत्तात्मक समाज से लड़ सकती हैं.

ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं. 4 दिसंबर 1829 को लौर्ड विलियम बेंटिक ने सती रेग्युलेशन पास किया था. इस के जरिए पूरे भारत में सती प्रथा पर रोक लगा दी गई. सती प्रथा में पति की मृत्यु हो जाने पर पत्नी को उस के साथ ही चिता पर जिंदा जल कर मर जाना होता था.

सामाजिक बहिष्कार जारी है

राजा राम मोहन राय किसी काम से विदेश गए थे और इसी बीच उन के भाई की मौत हो गई. उन के भाई की मौत के बाद सती प्रथा के नाम पर उन की भाभी को जिंदा जला दिया गया. इस घटना से वह काफी आहत हुए और ठान लिया कि जैसा उन की भाभी के साथ हुआ, वैसा अब किसी और महिला के साथ नहीं होने देंगे.

उन्होंने इस के लिए लड़ाई लड़ी. उन के प्रयासों की बदौलत अंग्रेजों ने 1829 में सती प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया था.

इस के बाद भी देश की आजादी के बाद भी सती प्रथा चलती रही. धीरेधीरे इस को रोका जा सका. सती प्रथा के खत्म होने के बाद विधवा औरतों की हालत सती जैसी ही हो जाती है.

पितृसत्तात्मक समाज में विधवा महिलाओं का अनादर कुरीतियों के कारण आज भी होता रहता है. शुभ कामों में आज भी उन का सामाजिक बहिष्कार होता है. उन को अपशगुनी माना जाता है. वह सजधज कर नहीं रह सकतीं. अच्छे गहने, महंगे कपड़े और मेकअप करने पर उन की आलोचना होती है. आज भी विधवा विवाह को सही नजर से नहीं देखा जाता है.

जिस समाज में इस तरह के हालात हों वहां महिलाओं को न्याय मिलना असंभव होता है. मसला शादी की आजादी का होता है तो औनर कीलिंग के नाम पर केवल लड़की की हत्या होती है. मनमानी शादी करने पर लड़के की हत्या कभी नहीं होती.

पौराणिक काल से ही महिलाओं का ही दोषी माना जाता रहा है. अहिल्या, सूपर्णनखा, कुंती जैसी महिलाओं के नाम भरे पड़े हैं जहां उन को दोष दिया गया.

लोकतंत्र में चुनाव की जीत को चरित्र प्रमाणपत्र मान लिया जाता है. चुनाव जीतने के बाद नेता के सारे गुनाह माफ हो जाते हैं.

राजनीति में अपराध और भ्रष्टाचार का बोलबाला बढ़ने का कारण यही है कि चुनावी जीत के बाद सारे गुनाह माफ हो जाते हैं. खेल महासंघों में भी जीत के लिए पावर का होना जरूरी होता है. इसीलिये खिलाड़ियों की जगह वह लोग चुनाव जीतते हैं जिन के हाथ में पावर और पैसा दोनों होता है. इस के सहारे मजबूत से मजबूत विरोधी को मात दी जा सकती है.

महिलाओं की पहली पसंद बनतीं प्री स्टिच्ड साड़ियां

साड़ी हमारी भारतीय नारियों का सब से प्रमुख, शालीन, सुंदर और ग्रेसफुल पहनावा है. औरत चाहे बड़ी हो, छोटी हो या फिर मोटी हो साड़ी हर किसी पर खूबसूरत लगती है. सामान्यतया एक साड़ी की लंबाई 4.5 से 9 मीटर (15 से 30 फुट) और चौड़ाई 600 से 1,200 मिलीमीटर (24 से 47 इंच) होती है, जो आमतौर पर कमर के चारों ओर लपेटी जाती है और जिस का एक सिरा कंधे पर डाला जाता है. इसे ब्लाउज और पेटीकोट के साथ पहना जाता है. यह पारंपरिक रूप से भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश, श्रीलंका और नेपाल जैसे देशों में पहनी जाती है.

भारत में अलगअलग शैली की साड़ियों में कांजीवरम साड़ी, बनारसी साड़ी, पटोला साड़ी और हकोबा मुख्य हैं. मध्य प्रदेश की चंदेरी, महेश्वरी, मधुबनी छपाई, असम की मूंगा रेशम, ओडिशा की बोमकई, राजस्थान की बंधेज, गुजरात की गठोडा, पटौला, बिहार की तसर, काथा, छत्तीसगढ़ी कोसा रेशम, दिल्ली की रेशमी साड़ियां, झारखंडी कोसा रेशम, महाराष्ट्र की पैथानी, तमिलनाडु की कांजीवरम, बनारसी साड़ियां, उत्तर प्रदेश की जामदानी, एवं पश्चिम बंगाल की बालूछरी एवं कांथा टंगैल आदि प्रसिद्ध साड़ियां हैं.

साड़ी के इतिहास पर नजर डालें तो हमें पता चलेगा कि यह सदियों से अस्तित्व में है और इस का उल्लेख पौराणिक ग्रंथ महाभारत में भी मिलता है. साड़ी पहनने का चलन 2800 बीसी में सिंधु घाटी सभ्यता में भी था, भले ही तब अंदाज बहुत अलग था.

देश में आर्यों के प्रवेश के बाद महिलाओं ने कढ़ाई के साथ कलरफुल साड़ी पहननी शुरू कर दी थी. प्राचीन काल से चले आ रहे इस पारंपरिक परिधान यानी साड़ी को पहनने के तरीके में वक़्त के साथ काफी बदलाव जरूर आए हैं.

पार्टी फंक्शन के लिए साड़ी से बेस्ट कुछ नहीं

शादी, फंक्शन या फिर किसी पार्टी में एलिगेंट लुक के लिए साड़ी से बेस्ट कुछ नहीं. हालांकि, प्रैक्टिस के बिना इसे पहनना हर किसी के लिए मुश्किल भरा काम है. अगर साड़ी को ठीक से नहीं पहना जाए तो आप के लुक की ऐसी की तैसी हो जाती है. ऐसे में जरूरी है कि आप साड़ी अच्छे से वियर करें.

इसी मकसद से आज के फैशन डिजाइनर्स ने रेडी टू वियर यानी प्री स्टिच्ड साड़ियां ईजाद की हैं. इन्हें पहनना बेहद आसान है और आप मिनटों साड़ी पहन कर पार्टी के लिए रेडी हो सकती हैं. ऐसी साड़ियां मार्केट के साथ ही औनलाइन भी हर तरह की कीमत में उपलब्ध हैं. इस में पल्लू से ले कर प्लीट्स तक बनी होती हैं. बस, आप को इसे स्कर्ट की तरह वियर करना होता है.

प्री स्टिच्ड साड़ियां 2000 के दशक की शुरुआत से वजूद में आने लगी थीं. अनामिका खन्ना जैसे प्रसिद्ध डिजाइनरों ने पहलेपहल अपने उन विदेशी ग्राहकों के लिए प्री स्टिच्ड साड़ियों के डिजाइन की कल्पना की जिन का भारतीय एथनिक पहनावे के प्रति झुकाव था. धीरेधीरे ये साड़ियां भारतीय कामकाजी महिलाओं के बीच भी लोकप्रिय हो गईं. आज आप को ढेर सारे पैटर्न, फैब्रिक, डिज़ाइन, रंग और स्टाइल में पहनने के लिए तैयार खूबसूरत साड़ियां मिलेंगी. ये साड़ियां सभी स्टाइल में भी उपलब्ध हैं, जैसे कि लहंगा साड़ी,  फ्रिल बौर्डर वाली साड़ी, रफल्ड साड़ी, धोती स्टाइल साड़ी आदि.

कम समय लगना और आसानी से पहनना संभव 

प्री स्टिच्ड साड़ी पहनने में समय महज 30 सैकंड लगते हैं जो एक व्यस्त महिला के लिए बेहद कंफर्टेबल होता है. आप कभी किसी पार्टी में जाने को तैयार हो रही हैं जबकि आप के पास समय कम है मगर आप को प्रेज़ेंटेबल दिखना है, ऐसे में ये साड़ियां बहुत काम आती हैं. पहले से सिली हुई ये साड़ियां उन महिलाओं के लिए सब से उपयुक्त होती हैं जिन्हें साड़ी पहनने के बारे में कोई ज्यादा जानकारी नहीं होती.

यह उन कामकाजी महिलाओं के लिए भी बढ़िया औप्शन है जो दफ्तर में साड़ी पहनना चाहती हैं लेकिन समय की कमी का सामना करती हैं. किसी भी अन्य परिधान की तरह इसे बटन और ज़िपर के साथ पहनना आसान है और इसे सही ढंग से पहनने के लिए किसी अभ्यास की आवश्यकता नहीं है.

फैशन डिजाइनर पुनित बलाना की नवीनतम श्रृंखला ‘उत्सव’, जिसे हाल ही में लैक्मे फैशन वीक (एलएफडब्ल्यू) x एफडीसीआई (9-12 मार्च) में लौंच किया गया था, में प्री-ड्रेप्ड साड़ियां शामिल थीं, जिन के बारे में डिजाइनर का कहना है कि ये दुलहनों और युवा महिलाओं को बहुत पसंद आती हैं. अर्पिता मेहता, तरुण ताहिलियानी और वरुण निधिका एलएफडब्ल्यू के अन्य डिजाइनरों में से थे जिन के संग्रह में ये शामिल थीं. मनीष मल्होत्रा के कलैक्शन में भी ऐसी साड़ियों की भरमार होती है.

डिजाइनर रिमजिम दादू इस चलन के पीछे उपयोग में आसानी को प्रेरक शक्ति मानते हैं. जब दादू ने 2016 में प्री-ड्रेप्ड मेटल साड़ियां लौंच कीं तो वे तुरंत हिट हो गईं. तब से ही एक ब्रैंड सिग्नेचर बन गया है और सोनम कपूर आहूजा, आलिया भट्ट और मृणाल ठाकुर जैसी कई मशहूर हस्तियों ने इसे पहना है. दरअसल, जो पहनावा स्टाइलिश है और पहनने में बहुत आरामदायक है वह हमेशा हिट होगा ही.

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