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धैर्यवान बनने के 7 नायाब नुसखे

जीवन के हर क्षेत्र में धैर्यवान लोग ही आगे बढ़ते हैं. शेयर मार्केट हो या नौकरी का मार्केट, धैर्य के अभाव में कुछ हासिल नहीं होता. एक शेयर हो सकता है कि 3 वर्षों तक हिले ही न. जो धैर्य नहीं रख सकते वे इसे निकाल देंगे. शेयर को निकालते ही वह चढ़ना शुरू हो जाता है. तीनचार साल की तैयारी में प्रतिस्पर्धी मुश्किल से यूपीएससी निकाल पाते हैं. कईकई तो इस से अधिक समय तक साधना करते हैं. जो बीच में धैर्य खो देते हैं वे असफल हो जाते हैं.

विवाह के लिए जीवनसाथी के रूप में अच्छे मैच के लिए भी बहुत धैर्य रखना पड़ता है वरना सालोंसाल मन को जो पसंद नहीं उसी से ताउम्र काम चलाने को एक शख्स मजबूर होता है.

आखिर धैर्य की वह पाठशाला है कहां जहां आमजन इस गुण को तराशें. यह कहीं और नहीं है, हमारे ही आसपास रोजमर्रा की चीजों व घटनाओं में विद्यमान है. कुछ बानगियां हैं.

आप अपने कंप्यूटर को हर बार जब चालू करते हैं तो यह काफी वक्त लेता है. डिस्पले आएगा कि ’डोंट शट डाउन, अपडेटस आर अपलोडिंग’, आप थोड़ा धैर्यवान बन कर थोड़ा और इंतजार करते हैं. यह फिर संदेश देता है कि ’अपडेटस 30 प्रतिशत कंपलीट, डोंट स्विच औफ’.  फिर यह थोड़ी ही देर में बढ़ कर 50, फिर 70 व फिर 98 प्रतिशत कंपलीट दिखाने लगता है. आप सोचते हैं कि अपडेटस का काम खत्म और अब कंप्यूटर शुरू हुआ, लेकिन यह फिर से पुराना राग अलापने लगता है कि ’अपडेटस आर अपलोडिंग, प्लीज वेट’. और फिर ‘बैक टू स्क्वैयर वन’ की तर्ज पर मात्र 30 प्रतिशत कंपलीट  डिस्प्ले होने लगता है. यह एक तरह से आप को धैर्य का पाठ पढा़ना चाह रहा है.

दुनिया में बहुत तनाव है. लोगों में धैर्य नहीं बचा है. दरअसल, कंप्यूटर बनाने वाली कंपनियां भी अनजाने में ही उपयोगकर्ता में धैर्य के गुण को बढ़ाने का काम अपनी स्वार्थसिद्धि के साथ ही साथ कर गई हैं. आखिर हर कंपनी को सीएसआर के रूप में अपने कुछ सामाजिक दायित्वों का निर्वहन वैसे भी  करना ही है.

राजनीतिक दल भी इसी तरह से आम मतदाता को धैर्यवान बनाते हैं. वोट मांगने द्वारेद्वारे आते हैं. लेकिन एक बार जब सत्ता सुंदरी कब्जे में आ गई, फिर वोटर को अपने नेता से मिलने के लिए एक तरह से समय की भीख सी मांगनी पड़ती है. उसे उन के बंगले पर ’मंत्री जी प्रवास पर हैं’ का बोर्ड मुंह चिढ़ाता है. यदि वे हों भी मंत्रालय में, तो बैठक में रहते हैं या फिर किसी अन्य जरूरी काम में व्यस्त रहते हैं. उसे घंटों इंतजार करना पड़ता है. मतदाता यह समझता नहीं. इस तरह से वे धैर्य का गुण, जो कि जिंदगी में सफल होने के लिए बहुत जरूरी है, विकसित करने का विराट कार्य करते हैं. यह सच्ची जनसेवा है. मतदाता को इस के लिए उन का धन्यवाद अदा करना चाहिए.

हमारे सिनेमा ने भी हमें धैर्यवान बनाने का बीड़ा अलग तरह से उठा रखा है. असल मूवी शुरू होने के पहले के ट्रेलर आप को दनादन झेलने पड़ते हैं. एकदो के बाद आप सोचते हैं कि बस, अब सैंसर बोर्ड का बहुप्रतीक्षित पलक झपकते गायब होने वाला काला सफेद सर्टिफिकेट स्क्रीन पर दिखेगा. गंगाधर को आज तक यह समझ नहीं आया कि कलर मूवी का सर्टिफिकेट आज तक कलर्ड क्यों नहीं हुआ. उस के बाद, बस, आप की वो हिट मूवी. पर तीसरा व चौथा ट्रेलर किसी फिल्म का या उत्पाद का विज्ञापन आ जाता है. अब आप सोचते हो कि हो गया. लेकिन 5वीं विज्ञापन फिल्म आप को हिट करती है. सातआठ विज्ञापनों के बाद ही आप की पसंदीदा मूवी, अब इंतजार की घड़ियां समाप्त हुईं, की तर्ज पर आती है. सिनेमा वालों का यह  एक तरह का अपना सीएसआर है दर्शकों में धैर्य का गुण विकसित करने का.

धैर्य के गुण को विकसित करने का एक और तरीका है कि आप लोक सेवा आयोग की परीक्षा दें. आप प्रारंभिक देंगे तो 3 बार उस की तारीख बढ़ेगी. एक बार पेपरआउट होने पर, दूसरी बार पेपर में गलत प्रश्न आने के चलते कोर्ट में याचिका लगने पर और तीसरी बार किसी अन्य कारण से. देरी का कारण तो अपनेआप पैदा हो जाएगा. तो, दोतीन साल तो प्रारंभिक परीक्षा देने में निकल जाएंगे. फिर मुख्य की तारीख ही नहीं आएगी क्योंकि किसी पेंच के कारण प्रारंभिक का परिणाम अटका रहेगा और आप को बेरोजगारी का झटका लगता रहेगा. सालछहमाह और ऐसे ही निकल जाएंगे. फिर मुख्य परीक्षा 2 बार टलेगी. उस का परिणाम भी 2 बार टलेगा. कहीं आरक्षण का या डोमिसाइल का पेंच फंस जाएगा, तो मुख्य का परिणाम अटक जाएगा. इस तरह हो गए होंगे 3 साल. तब तक बाद की 2 और परीक्षाओं का भी कुछकुछ शेडयूल शुरू हो गया होगा. पता ही नहीं चलेगा कि कौन सी पहले हो रही और कौन सी बाद में.

धैर्यवान बनने का एक और आसान देशी तरीका है. यातायात जाम में फंस जाएं, इस के लिए वह सड़क चुनें जहां कि अकसर जाम लगता हो. यहां एक एक इंच आगे बढ़ने में जो मशक्कत करनी होगी, जो तूतूमैंमैं होगी उस से आप खुद धैर्यवान बन जाएंगे. हां, एक बार, 2 बार नहीं, ऐसी सड़क से आप रोज गुजरें. आप में कूटकूट कर धैर्य का गुण विकसित हो जाएगा.

अभी की पीढी़ बहुत धैर्यवान होती जा रही है, खासकर वे जिन के कोई अपने दूसरी लहर में कोरोना से संक्रमित हुए हों. तो ये कैसे धैर्यवान बन गए. औक्सीजन बैड लेने या सिंपल बैड लेने को इन को पच्चीसों अस्पतालों के चक्कर लगाने पड़े. रोज सुबह से शाम हो जाए, तब मुश्किल से कहीं बैड मिले, वरना एक बैड पर ही 2 मरीज हो गए. इस शर्त पर कि औक्सीजन सिलैंडर आप अपने कंधे पर या कंधा मजबूत न हो तो लुढ़का कर ले जाओ. फैक्ट्री से खुद भरवा कर लाओ. वहां जो आदमी दोपहर में लाइन में लगा, तो दूसरे दिन शाम तक नंबर आया. सोचिए, कितने अधिक धैर्यवान होंगे ये लोग. परंतु भाईसाहब, वह क्या दौर था, यमराज की डिक्शनरी में धैर्य नहीं रहता, वह तो पलक झपकते आ जाता था.

किसी स्पैशल ट्रेन में किसी यात्री से ’आप की यात्रा शुभ हो’ कहें. वह पहले 4 घंटे लेट होगी. 4 घंटे तो इस के लिए  सब से कम हैं. फिर  6 व 8 घंटे हो जाएगी. फिर 10, फिर 14 और आखिरकार असीमित लेट हो कर कैंसिल ही हो जाएगी. तो आखिर, धैर्य का गुण आप में कैसे विकसित न होगा.

धीरज पत्नी भी सिखाती हैं. पत्नी के साथ वैवाहिक या ऐसे ही किसी कार्यक्रम में जाएं. यकीन मानिए, आप को तैयार हुए आधा घंटा, फिर एक घंटा हो चुका होगा लेकिन पत्नी अभी तैयार होने की तैयारी ही चल रही होगी. साड़ी, ज्वैलरी छांट रही होगी, अपने गेसुओं को ड्राअर से सुखा रही होगी. इस में आप की जान सूख रही होगी तो सूख जाए. वैसे भी, शादीशुदा आदमी जिम्मेदारियों के बोझ में चुसे आम सा 2 बार साल में ही हो जाता है. आप को कौन सोलहश्रंगार करना होता है. और फिर आप के पास सोलहश्रंगार के लिए है क्या? आप उन की समस्या भी तो समझिए. ऐसे माह में कम से कम तीनचार मौके हो जाएं तो आप इतने धैर्यवान बन जाएंगे कि क्या बताएं. वैसे, आप इस अनुभव से दोचार हो चुके होंगे. जरूरत है तो इसे थोड़ा और निखारने की. आप के घर के पास सिनेप्लैक्स हो, तो आप तो तैयार हो कर मूवी देखने चले जाएं, लौट के आने के बाद भी उसे 15 मिनट और लगेंगे. इस तरह से धैर्य का अभ्यास करने से मौकेबेमौके आप को काफी सहारा मिलेगा. वैसे, एक बात है जिस ने विवाह कर लिया है वह धैर्यवान अपनेआप बन जाता है. कैसे? हमेशा पत्नी ही बोलती है, आप को मौका नहीं मिल पाता है. आप बोलना चाहें कि वह बोलने लगती है. आप मन मसोस कर रह जाते हैं. इस तरह आप अपनेआप धैर्यवान बन जाते हैं.

धैर्यवान बनने के 7 उपाय हो गए हैं. एक और उपाय बोनस के तौर पर आप की खिदमत में पेश है. बेवजह के कार्य से ही किसी सरकारी अधिकारी से मिलने चले जाएं. अपने साथ करीब दोचार घंटे का फालतू समय ले कर जाएं क्योंकि आप फालतू में जिन से मिलने जा रहे हो, वे फालतू नहीं हैं. पहली बार तो वे मिलेंगे ही नहीं, दौरे पर होंगे. दूसरी बार स्वास्थ्य लाभ के कारण वे घर में हो सकते हैं. तीसरी बार किसी जरूरी मीटिंग में होंगे. जिस दिन अगर होंगे तो वे जनसुनवाई कर रहे होंगे. लेकिन आप की सुनवाई नहीं होगी.

हम खालिस प्रेमी हैं तो धैर्य की चलतीफिरती पाठशाला के बारे में बताना बहुत जरूरी है. उन सरकारी अधिकारी महोदय को आप हलका करवाने को बाहर भर ले जाएं. वे यहांवहां इतना सूंघासांघी करते रहेंगे कि आप परेशान हो जाओगे. रास्ते में पड़ने वाले सारे चौपहियादोपहिया पर अपना ककड़ी सा पैर उठाएंगे. आप को लगेगा कि अब हलके होने ही वाले हैं. लेकिन कहां, वे तो अभी मिनी वाश में बिजी हैं. बहुत बड़ी जिम्मेदारी इन की पूछ पर है. सारी गाड़ियों में फिर मिनी वाश सेवा. आप को वे इतना यहां से वहां घुमाएंगे कि आप थक जाओगे. तब कहीं यदि उन का मन आप की तकलीफ महसूस कर पसीज गया तो वे पिछवाड़े को अदा से झुका कर हलके होंगे. एक डौगी धैर्य सिखाने की ये चलतीफिरती पाठशाला हैं.

आइडिया तो गंगाधर के पास और भी हैं, बाकी फिर कभी!

बंगलादेश की बागडोर 5वीं बार शेख हसीना के हाथों में

बंगलादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना एक बार फिर सत्ता पर काबिज हो गई हैं. उन की पार्टी अवामी लीग ने हिंसा की घटनाओं तथा मुख्य विपक्षी दल बंगलादेश नेशनलिस्ट पार्टी और उस के सहयोगियों के बहिष्कार के बीच हुए चुनावों में दोतिहाई सीटों पर जीत दर्ज की.

बंगलादेश में चुनाव से पहले कई हिंसक घटनाएं हुईं. हज़ारों राजनीतिक प्रतिद्वंदियों को हसीना सरकार ने चुनाव पूर्व ही जेल की सलाखों में ठूंस दिया. आम चुनाव में सिर्फ 40 प्रतिशत मतदाताओं ने भागीदारी की. कह सकते हैं कि बंगलादेश में काफी हद तक अलोकतांत्रिक तरीके से चुनाव संपन्न हुआ और हसीना के हाथ में सत्ता की कमान आई, लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो यह ठीक ही हुआ क्योंकि शेख हसीना के नेतृत्व में बंगलादेश ने तरक्की के जो सोपान बीते एक दशक में पार किए हैं, वह उस हाल में कभी संभव न होता अगर सत्ता धर्म की अंधी किसी पार्टी के हाथ में होती.

2009 से ही हसीना के हाथों में सत्ता की बागडोर है. एकतरफा चुनाव में उन्होंने लगातार चौथा कार्यकाल हासिल किया है और प्रधानमंत्री के रूप में यह उन का अब तक का 5वां कार्यकाल होगा.

बंगलादेश में राष्ट्रीय स्तर पर एक सदन वाली विधायिका का चुनाव होता है. यहां की राष्ट्रीय संसद को जातीय संघ कहा जाता है. बंगलादेश के जातीय संघ में कुल 350 सदस्य (सांसद) हैं जिन में से 300 सदस्य सीधे वोटिंग के माध्यम से चुने जाते हैं. वे जीतने के बाद संसद में अगले 5 साल तक एक निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं. हसीना की पार्टी ने 300 सदस्यीय संसद में 200 सीटों पर जीत दर्ज की है. इस के अलावा बाकी बची 50 सीटें उन महिलाओं के लिए आरक्षित होती हैं जो सत्तारूढ़ दल या गठबंधन द्वारा चुनी जाती हैं.

भारत की तरह ही बंगलादेश में भी प्रधानमंत्री सरकार का प्रमुख होता है. जबकि राष्ट्रपति देश का प्रमुख होता है जिस का चुनाव राष्ट्रीय संसद द्वारा किया जाता है. राष्ट्रपति एक औपचारिक पद है और सरकार चलाने पर उस का कोई वास्तविक नियंत्रण नहीं होता है.

1971 में स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद से राष्ट्रीय संसद के सदस्यों को चुनने के लिए बंगलादेश में कुल 11 आम चुनाव हुए हैं. उन में से 5 बार अवामी लीग, 4 बार बंगलादेश नेशनलिस्ट पार्टी और 2 बार जातीय पार्टी (इरशाद) ने सरकार बनाई है.

बंगलादेश में शेख हसीना के नेतृत्व में काफी आर्थिक प्रगति हुई और उस की सराहना विश्वस्तर पर हुई है. विश्व बैंक के अनुसार, बंगलादेश ने अपनी आबादी को खिलाने के लिए संघर्ष करने से ले कर खाद्य निर्यातक बनने की ओर कदम बढ़ाया है.

2006 में बंगलादेश की जीडीपी मात्र 71 अरब डौलर थी जो 2022 में बढ़ कर 460 अरब डौलर तक पहुंच गई. यही वजह रही कि बंगलादेश को भारत के बाद दक्षिण एशिया की दूसरी सब से बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में स्थान हासिल हुआ है. कोविड-19 के दौरान भी उसे संकुचन का सामना नहीं करना पड़ा.

कभी भारत का ही हिस्सा रहे पाकिस्तान और बंगलादेश आज अपनीअपनी अर्थव्यवस्था के नए रिकौर्ड बना रहे हैं. पाकिस्तानी इकोनौमी जहां बेहद खस्ता्हाल हो गई है, वहीं बंगलादेश ने उसे इकोनौमिक ग्रोथ में पछाड़ दिया है.

पिछले एक दशक में बंगलादेश की प्रति व्यक्ति आय 3 गुना हो गई है. विश्व बैंक का अनुमान है कि पिछले 2 दशकों में 25 मिलियन से अधिक नागरिक गरीबीरेखा से ऊपर आ गए हैं. इस के अलावा, सितंबर 2017 में, बंगलादेश सरकार ने म्यांमार से रोहिंग्या समुदाय के खिलाफ हिंसा रोकने का आह्वान करते हुए लगभग 10 लाख रोहिंग्या शरणार्थियों को शरण दी.

यह एक ऐसा कदम था जिसे बंगलादेश में व्यापक समर्थन मिला और वैश्विक स्तर पर शेख हसीना को खासी प्रशंसा भी मिली.

पकिस्तान जहां धर्म को आधार बना कर भारत से अलग हुआ और धर्म ने उसे तबाही के रास्ते पर धकेल दिया, वहीं 1971 में बंगलादेश भाषा के आधार पर पाकिस्तान से अलग हुआ और आज तेजी से उन्नति के शिखर की ओर बढ़ रहा है क्योंकि उस ने कभी धर्म की बेड़ियों और रूढ़िवादी मानसिकता में अपने नागरिकों को नहीं जकड़ा.

पकिस्तान की तरह उस ने कभी अपनी औरतों को परदे में नहीं ढका और न उन के हुनर व क़ाबिलीयत को कुचलने की कोशिश की. पकिस्तान में जहां लड़कियां बुर्कों और घर की चारदीवारी में कैद गुलामी का जीवन जीती हैं वहीं बंगलादेश में 98 फीसदी लड़कियां प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर रही हैं.
हर क्षेत्र में लड़कियां तरक्की कर रही हैं. वे औफिसेस में कार्यरत हैं, व्यावसायिक केंद्रों में काम कर रही हैं, वे डाक्टर हैं, इंजीनियर हैं, वकील हैं, टीचर हैं. वे सेना में भी हैं और कल्चरल एक्टिविटीज में भी बढ़चढ़ के हिस्सा लेती है.

बंगलादेश ने धर्म को किनारे रख कर सारा जोर अपने बच्चों की आधुनिक शिक्षा और कौशल विकास पर लगाया और उन्नति की. इस के उलट पकिस्तान ने धर्म के नाम पर अज्ञानता की गिरफ्त में जकड़े युवाओं के हाथों में हथियार थमा दिए और आतंक का अड्डा बन बैठा.

आजादी के बाद से ही पाकिस्तान ने भारत पर हमले किए और फिर 90 के दशक से वहां आतंक की फैक्ट्रियां खुल गईं. पाकिस्ताकन में लंबे समय तक सत्ताक फौज के हाथों में रही. वहां लोकतंत्र कभी स्थापित ही नहीं हो पाया. धार्मिक सेना ने सिर्फ कट्टरवाद ही फैलाया. इसी कारण पकिस्तान में विदेशी कंपनियों का निवेश भी नहीं बढ़ पाया, क्योंदकि वहां आतंकी हमले होते रहते हैं. इस के अलावा पाकिस्ताशन में भ्रष्टा चार इतना है कि उस की गिनती दुनिया के सब से भ्रष्टै मुल्कोंस में होती है.

सन 1990 के दशक में पाकिस्तान अपनी तुलना भारत से करता था. कई लोग मानने लगे थे कि इस मुल्क में कई संभावनाएं हैं जो उसे भारत के स्तार पर ला सकती हैं. कई लोग इस तरह की बातें भी करने लगे थे कि कैसे ये 2 दक्षिण एशियाई देश आने वाले समय में आगे बढ़ेंगे. दोनों ही देशों की जीडीपी लगभग एकजैसी थी और दोनों के आर्थिक तरक्की के आंकड़े भी कुछ आगेपीछे ही थे.

मगर अगले 2 दशकों में ही तसवीर बदल गई. भारत के साथ तो पाकिस्तान की तुलना ही नहीं रही बल्कि बंगलादेश भी उस से कहीं आगे निकल गया और अर्थव्यवस्था के मामले में कड़ी टक्क र देने लगा. आज हाईटैक मैन्युफैक्चरिंग में बंगलादेश इतनी तेजी से आगे बढ़ रहा है कि सैमसंग जैसी बड़ी कंपनी चीन छोड़ कर यहां आ रही है. बंगलादेश ने प्रारंभ से ही भारत से अच्छे रिश्तेग बनाए रखे और अपना ज्या दातर व्याऔपार भारत से किया. वहां भारतीय कंपनियों का भी खूब निवेश पहुंचा, जबकि पाकिस्ताीन के मामले में यह स्थिति उलट रही.

जीवन प्रत्याशा के लिहाज से भी पाकिस्तािन की बंगलादेश से तुलना की जाए तो भी बंगलादेश बेहतर है. बंगलादेश में जीवन प्रत्याशा 73 साल है, जबकि पाकिस्ताभन में यह 67 साल है. सब से बड़ी बात, आज पाकिस्तान के पास विदेशी मुद्रा भंडार मात्र 3.67 अरब डौलर का है. वहीं, बंगलादेश का विदेशी मुद्रा भंडार इस समय 34 अरब डौलर है. यह उस से लगभग 8 गुना ज्याादा है.

बिजली सुविधा की बात करें तो पकिस्तान की हालत बंगलादेश के मुकाबले काफी खराब है. बंगलादेश में 96 फीसदी घरों में बिजली है जबकि पाकिस्ताेन में यह 75 फीसदी है. कभी बंगलादेश की मुद्रा ‘टके’ का बहुत मजाक बनाया जाता था. पकिस्तान में बातबात में लोग एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए उसे ‘दो टके’ का कहते थे, मगर आज उसी टके ने पाकिस्तानी रुपये को घुटनों पर ला दिया है. बंगलादेश आज निवेशकों की पहली पसंद बन रहा है जबकि पाकिस्तान को आतंकवाद की वजह से लगातार बेइज्जती झेलनी पड़ रही है.

Rajasthan BY Election : सिख विरोध के कारण हारी भाजपा

Rajasthan Karanpur Assembly Election : राजस्थान में श्रीगंगानगर की श्रीकरणपुर विधानसभा सीट पर हुए चुनाव में विधायक बनने से  पहले मंत्री बनाए गए सुरेंद्र पाल टीटी कांग्रेस प्रत्याशी रूपिदंर सिंह कुन्नर से 12 हजार मतों से चुनाव हार गए. राजस्थान के विधानसभा चुनाव नवंबर 2023 में 199 सीटों पर हुए थे. श्रीकरणपुर विधानसभा सीट का चुनाव कांग्रेस के प्रत्याशी गुरमीत सिंह कुन्नर के निधन के कारण स्थगित हो गया था. भाजपा ने बहुमत से सरकार बनाई.

राजस्थान में नई सरकार के गठन में भाजपा ने सुरेंद्र पाल सिह टीटी को मंत्री बना दिया था. भाजपा को लगता था कि अगर वह अपने प्रत्याशी को मंत्री बना देगी तो क्षेत्र की जनता पर प्रभाव पड़ेगा और वे चुनाव जीत जाएंगे. इस सीट पर 5 जनवरी को वोटिंग हुई. इस में कांग्रेस के प्रत्याशी रूपिदंर सिंह कुन्नर चुनाव जीत गए. पिछले विधानसभा चुनाव यानी साल 2018 में कांग्रेस प्रत्याशी गुरमीत सिंह कुन्नर ने जीत हासिल की थी. करणपुर विधानसभा सीट से चुनाव लड़ते हुए उन्होंने 28 हजार से ज्यादा वोटों के अंतर से चुनाव जीता था.

कांग्रेस ने इसी बड़ी जीत को देखते हुए 2023 चुनाव में भी उन्हें इस सीट से अपना उम्मीदवार घोषित किया था.

सिख बाहुल्य विधानसभा क्षेत्र

श्रीगंगानगर और हनुमानगढ़ जिले सिख बाहुल्य माने जाते हैं. 11 में से 8 विधानसभा सीटों पर जीत और हार सिख मतदाता तय करते हैं. 2011 की जनगणना के मुताबिक इन दोनों जिलों में सिखों की संख्या 7 लाख के करीब थी. अब 2024 में यह काफी बढ़ चुकी होगी. भाजपा के राज्यमंत्री सुरेंद्र पाल सिह टीटी की हार बताती है कि हिंदुत्व की बात करने वाली भाजपा सिखों का दिल जीत नहीं पाई है. देश के बाहर रह रहे सिख, जो खुद को खालिस्तान का समर्थक बताते हैं, लगातार हिंदू, भाजपा और नरेंद्र मोदी का विरोध करते रहते हैं.

2011 की जनगणना के अनुसार देश में 2 करोड़ से ज्यादा सिख रहते हैं. यह देश की कुल आबादी का 1.7 प्रतिशत है. इन में से अकेले 1.6 करोड़ सिख पंजाब में रहते हैं. देश की तरक्की के लिए जरूरी है कि विभिन्न धर्मों और संप्रदायों के लोग एकसाथ चलें.

‘दक्षिणापंथी’ जिस तरह से केवल राममंदिर को आगे कर के देश को चलाने की कोशिश कर रहे हैं उस से कई धर्मों और संप्रदायों के लोगों का एकसाथ चलना मुश्किल हो रहा है. इस से देश अलगाव की राह पर जा रहा है.

सब को साथ ले कर चलना होगा

खालिस्तानी समर्थक गुरपतवंत सिह ‘पन्नू’ ने धमकी देते कहा है कि राममंदिर प्राण प्रतिष्ठा से पहले एयरपोर्ट बंद करा देंगे. इस तरह की धमकियों से देश का माहौल खराब हो रहा है. राजस्थान के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है. देश को चलाने के लिए सब को साथ ले कर चलना होता है. यह केवल सब का साथ सब का विकास का नारा देने से संभव नहीं होगा. इस के लिए हर जाति और धर्म के दिल में जगह बनानी होगी.

हिंदू राष्ट्र बनाने की चाहत में अलगाव को आगे बढ़ने का मौका मिल रहा है. खालिस्तान समर्थक अपना देश बनाना चाहते हैं. खालिस्तानी समर्थक गुरपतवंत सिह ‘पन्नू’ ने अपने वीडियो में देश के मुसलिम वर्ग से कहा कि वह अपने लिए उर्दिस्तान बनाने की मांग करे.

इस तरह की अलगाव की बातें देश के लिए ठीक नहीं हैं. देश का धर्मनिरपेक्ष ही बने रहना सब के हित में है. इस के लिए जरूरी है कि सब को साथ ले कर चला जाए. देश में रहने वाले हर इंसान को देश से प्रेम हो. वह यहां खुद को सुरक्षित महसूस करे.

लिवर को रखना चाहते हैं स्वस्थ, तो इन फूड्स को करें अपनी डाइट से बाहर

Harmful Foods For Liver : लिवर शरीर के सबसे जरूरी अंगों में से एक है. ये बॉडी में कई महत्तवपूर्ण कार्य करता है. हालांकि खराब लाइस्टाइल के कारण और अस्वस्थ भोजन के चलते लीवर कमजोर भी हो जाता है, जिसकी वजह से यह ठीक से अपने कार्य नहीं कर पाता है और व्यक्ति बीमार होने लगता है. इसके अलावा शरीर में कॉलेस्ट्रॉल बढ़ने से फैटी लिवर की समस्या भी हो सकती है. जिससे लिवर फेलियर होने का खतरा बढ़ जाता है. ऐसे में जरूरी है कि आप अपने लिवर का विशेष ध्यान रखें.

लिवर को सुचारू रूप से चलाने के लिए कोलेस्ट्रॉल को कंट्रोल करना बहुत आवश्यक है. इसी वजह से डॉक्टर भी ज्यादा ऑयल, जंक फूड और शराब आदि का सेवन करने से मना करते हैं, क्योंकि ये सभी चीजें लिवर के लिए काफी खतरनाक होती हैं. तो आइए जानते हैं कि कौन-सी चीजों (Harmful Food For Liver) का सेवन लिवर के लिए नुकसानदायक हो सकता है।

लिवर के लिए खतरनाक हैं ये चीजें

तला भुना खाना

रोजाना कभी भी ज्यादा तला-भुना (Harmful Food For Liver) नहीं खाना चाहिए. इसके अलावा ट्रांस फैट या रिफाइंड कार्बोहाइड्रेट से बने खाने से तो ज्यादा से ज्यादा परहेज करना चाहिए. दरअसल, रोजाना इस तरह का खाना खाने से लिवर पर जोर पड़ता है, जिससे लिवर की समस्याएं हो सकती हैं।

प्रोसेस्ड फूड

बिस्किट, कुकीज, केक, पेस्ट्री, आइसक्रीम, चिप्स, भुजिया और मट्ठी आदि जैसे पैक्ड और प्रोसेस्ड फूड से भी लिवर प्रभावित होता है. इसलिए जंक फूड का सेवन तो कम से कम करना चाहिए.

पेनकिलर

लिवर पर सबसे ज्यादा प्रभाव पेनकिलर का पड़ता है. इसलिए ब्रूफेन, कॉम्बिफ्लेम और वॉवरेन आदि जैसे पेनकिलर व एंटीबायोटिक दवाओं का कम से कम सेवन करें.

शराब

लिवर को हेल्दी रखने के लिए शराब का सेवन तो करना ही नहीं चाहिए. शराब (Harmful Food For Liver) में मौजूद हानिकारक पदार्थ लिवर के साथ-साथ दिमाग पर भी बुरा प्रभाव डालते है. इसलिए कम से कम शराब का सेवन करें.

अधिक जानकारी के लिए आप हमेशा डॉक्टर से परामर्श लें.

Dates Benefits : सर्दियों का सुपरफूड है खजूर, पाचन से लेकर दिल को रखे स्वस्थ

Dates Health Benefits In Winter: कड़ाके की ठंड से बचने के लिए गर्म कपड़े पहनने के साथ खानपान का भी ध्यान रखना जरूरी है. हेल्दी डाइट और नियमित एक्सरसाइज करने से काफी हद तक कई तरह की स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को कम किया जा सकता है. इसके अलावा इस मौसम में अपनी डाइट में कुछ विशेष चीजों को शामिल कर भी शरीर को गर्म रख सकते है, जिससे आप बीमारियों को मात दे सकते हैं. सर्दियों में स्वस्थ रहने के लिए कई चीजों को खाने की सलाह दी जाती है. इनमें से एक है खजूर.

इसे सर्दियों का सुपरफूड कहा जाता है. इसमें कई पोषक तत्वों की उच्च मात्रा होती है, जिससे स्वास्थ्य से जुड़ी कई समस्याओं के होने का खतरा भी कम हो जाता है. इसी वजह से विंटर में खजूर खाने की सलाह दी जोती है. इस मौसम में लोग अक्सर जोड़ों के दर्द से परेशान रहते हैं, ऐसे में खजूर आपके लिए फायदेमंद साबित हो सकता है. इसके अलावा शरीर को और भी कई फायदे मिलते हैं. आइए जानते हैं ठंड के मौसम में खजूर (Dates Health Benefits in Winter) खाने से क्या लाभ मिलते हैं.

सर्दियों में खजूर खाने के फायदे

हड्डियां बनती हैं मजबूत

ज्यादातर लोगों को सर्दियों में जोड़ों के दर्द की समस्या रहती है. ऐसे में प्रतिदिन खजूर (Dates Health Benefits in Winter) खाने से शरीर में विटामिन-डी और कैल्शियम की कमी नहीं होती है, जिससे हड्डियों के साथ-साथ दांतों में भी मजबूती आती है. इसके अलावा खजूर में पोटैशियम, मैग्नीशियम और फॉस्फोरस आदि पोषक तत्वों की भी उच्च मात्रा होती है. जो हड्डियों को स्वस्थ रखने में काफी मदद करते हैं.

पाचन रहता है दुरुस्त

आपको बता दें कि सुपरफूड खजूर में घुलनशील और अघुलनशील दोनों तरह के फाइबर होते है. जो शरीर में पाचन संबंधी समस्याओं को कम करने में सहायक होते है. इसके अलावा जिन लोगों का पाचन तंत्र कमजोर रहता है, उन्हें तो रोजाना खजूर खाना ही चाहिए.

दिल रहता है स्वस्थ

सर्दियों में गर्मियों के मुकाबले दिल का दौरा पड़ने का खतरा बढ़ जाता है. ऐसे में ठंड में नियमित तौर पर खजूर खाने से शरीर में गर्माहट बनी रहती है. साथ ही हार्ट अटैक और स्ट्रोक आने का जोखिम भी कम हो जाता है. इसलिए इस मौसम में अपनी डाइट में खजूर को जरूर शामिल करें.

दिमाग होता है तेज

खजूर में एंटीऑक्सिडेंट की उच्च मात्रा होती है. जो मस्तिष्क के स्वास्थ्य को बढ़ाने में मदद करती है. इसके अलावा खजूर (Dates Health Benefits in Winter) में मौजूद पोटैशियम और विटामिन बी 6 जैसे पोषक तत्व दिमाग को तेज बनाने में भी सहायक होते हैं.

अधिक जानकारी के लिए आप हमेशा डॉक्टर से परामर्श लें.

लोकसभा चुनाव 2024 : चुनावी बिसात पर कैसे हैं मोहरे

‘इंडिया’ गठबंधन की बैठकों की एक खास बात यह भी होती है कि सभी घटक दलों के नेता बराबरी से बैठते हैं, अपनी बात कहते हैं और दूसरों की भी पूरी शिद्दत से सुनते हैं. अपनी सहमति या असहमति वे बिना किसी डर या झिझक के दर्ज कराते हैं. उन का कोई बौस नहीं है जिस के लिहाज में उन्हें बुत की तरह हां में हां मिलाते सिर हिलाना पड़ता हो. अपने मन की बात या मतभेद वे छिपाते नहीं हैं और कभीकभी बोझिल माहौल को हलका करने के लिए हलकाफुलका मजाक भी कर लेते हैं.

अपनेअपने राज्यों के इन सियासी दिग्गजों को एहसास है कि 2024 के चुनावों की लड़ाई आसान नहीं है, इसलिए वे काफी गंभीर भी दिख रहे हैं. यह सोचना बेमानी है कि वे सिर्फ अपनीअपनी दुकानें चलाने के लिए इकट्ठे हुए हैं. ऐसा पहली बार हो रहा है कि वे वाकई में देश और जनता के लिए सोच रहे हैं और इस के लिए वे अपने छोटेबड़े स्वार्थ छोड़ने में हिचकिचा नहीं रहे. अगर ऐसा न होता तो उन्हें गठबंधन बनाने की जरूरत ही न पड़ती. अपनेअपने राज्यों में कम से कम 6-7 दल बिना गठबंधन के भी मजबूत हैं लेकिन वे देश के लोकतंत्र पर मंडराते खतरे से नहीं निबट पा रहे थे.

उन का खतरा उन्मादी धार्मिक राजनीति है जिस का तोड़ वे कई बैठकों के बाद भी फिलहाल नहीं ढूंढ़ पाए हैं. यह काम आसान भी नहीं है क्योंकि बिसात के दूसरी तरफ बैठी भाजपा मूल्यों या मुद्दों की नहीं, बल्कि सनातन धर्म की आड़ में धार्मिक भावनाओं को भड़काने की राजनीति करती है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भाजपा, मौजूदा भगवा सरकार के मुखिया नरेंद्र मोदी और ऊंची जातियों के स्वार्थियों ने आज्ञाकारियों व आस्थावानों की बड़ी भीड़ इकट्ठा कर रखी है. वे जनता को गुमराह और विचलित कर देने के हुनर में सदियों से माहिर हैं. तमाम समस्याओं का हल वे इकलौता विकल्प धर्म, आस्था, पौराणिक ग्रंथों और पौराणिक कथाओं का देते हैं.

एक वजीर

राजनीति की शतरंजी बिसात में नरेंद्र मोदी अपने खेमे के वजीर हैं लेकिन उन के चारों तरफ के खानों में प्यादे ही प्यादे हैं जिन की मार सिर्फ एक घर तक होती है, जबकि, इंडिया गठबंधन में सभी थोड़े ज्यादा ताकतवर हैं जो ढाई घर तक मार करने वाले हैं. एक और फर्क जो व्यक्तिवादी राजनीति की बेहतर मिसाल है वह यह है कि नरेंद्र मोदी के मुंह से निकली हर बात वेदों की ऋचा और गीता का श्लोक या फिर रामचरितमानस की चौपाई होती है जिस में कोई प्यादा मीनमेख निकालने की जुर्रत नहीं करता. उलट इस के, इंडिया गठबंधन में लोकतंत्र है जिस में हर कोई अपनी बात आजादी से कहता है यानी अपनेअपने मन की बात हर कोई कह देता है. इसी मनभेद को भाजपा बड़ी चतुराई से प्रचारित कर के गठबंधन में एकता न होने का भ्रम फैला देती है.

आंतरिक लोकतंत्र की दुहाई देने वाली भाजपा खुद ही आंतरिक तानाशाही का शिकार हो कर रह गई है जिस में दूसरीतीसरी पंक्ति के नेता भी अपना वजूद खो चुके हैं. राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी, एस जयशंकर जैसे दर्जनभर मंत्री इस की मिसाल हैं. फिर, यशवंत सिन्हा और शत्रुघ्न सिन्हा जैसों की तो बात करना ही बेकार है जिन्हें ‘मोदीद्रोह’ की सजा देते पार्टी ने उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया.

यानी साफ तौर पर इंडिया गठबंधन का मुकाबला नरेंद्र मोदी से है. इस का फायदा उस के नेता कैसे उठा पाते हैं और उठा भी पाते हैं या नहीं, यह देखना कम दिलचस्प नहीं होगा. ज्यादा बड़ी बात यह है कि भावी चुनाव के बाद देश को जिम्मेदार शासन मिलेगा या धर्मराज की स्थापना करने वाला शासन.

यह कहना कतई ज्यादती की बात नहीं कि भाजपा में एकोहम द्वितियो नास्ति की थ्योरी पर काम हो रहा है. यह कैसे देश के लिए नुकसानदेह है, यह अगर इंडिया गठबंधन लोगों को सलीके से सम?ा पाए तो काफी फायदे में रहेगा कि नरेंद्र मोदी का मकसद सेवा नहीं, बल्कि शासन करना है और इस के लिए जो भी उन के रास्ते में आता है उस का वजूद बेरहमी से पार्टी व संघ खत्म कर देते हैं.

हालिया 3 राज्यों के विधानसभा चुनावों में जीत के बाद जब मुख्यमंत्रियों के चुनाव की बात आई तो तीनों राज्यों में पसंद विधायकों या स्थानीय नेताओं की नहीं चली. इस के पहले भी ऐसा दूसरे तरीके से होता रहा है.

राजनीति में दिलचस्पी रखने वालों को ही याद होगा कि भाजपा के प्रमुख मुसलिम चेहरा मुख्तार अब्बास नकवी ने कभी यह गुस्ताखी की थी. जब जदयू से निकाले गए नेता साबिर अली को पार्टी में शामिल किया गया था तब उन्होंने ट्वीट किया था कि साबिर अली यासीन भटकल के दोस्त हैं और जल्द ही दाऊद इब्राहिम को भी शामिल किया जाएगा. यह सब सामूहिक फैसले के तहत हो रहा है क्या? लंबे वक्त तक मुख्तार अब्बास नकवी को कोई भाव नहीं दिया गया तो वे घबरा उठे और एक प्यादे की तरह ही वजीर की पनाह में आ गए. अब वे विपक्ष को 440 वोल्ट का करंट लगने की बात कहते मोदी की गारंटियों का बखान कर रहे हैं.

सार यह कि भाजपा में मोदी का विरोध करने की इजाजत किसी को नहीं है. हां, उन की मनमानियों से सम?ाता कर लेने वालों को माफी और पनाह

मिल जाती है. रविशंकर प्रसाद, रमेश पोखरियाल, राजीव प्रसाद रूड़ी, प्रकाश जावडे़कर, हर्षवर्धन, मेनका गांधी, उमा भारती, सुरेश प्रभु, अनंत हेगड़े, जयंत सिन्हा, के जे अल्फांसो, महेश शर्मा और वीरेंद्र सिंह की हालत भी मुख्तार अब्बास नकवी से जुदा नहीं है जो 2024 की बिसात पर अब प्यादे की हैसियत भी नहीं रखते.

नए प्यादे

भाजपा के हाशिए पर पड़े नेता कम प्रतिभावान, कम जु?ारू या कम मेहनती नहीं हैं, इस के बाद भी उन्हें कोई स्पेस नहीं दिया जा रहा तो मतलब साफ है कि पार्टी कोई जोखिम नहीं लेना चाहती और नरेंद्र मोदी कोई खतरा नहीं पालते. वे अपनी महत्त्वाकांक्षाएं पूरी करने के लिए सख्त कदम उठाने से नहीं चूकते.

साल 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने अमित शाह के सहयोग से कैसे लालकृष्ण आडवाणी जैसे दिग्गज को मार्गदर्शक मंडल के नाम पर किनारे किया था, यह मसला अभी लोगों के जेहन में जिंदा है. राममंदिर की प्राण प्रतिष्ठा समारोह में उन्हीं के इशारे पर लालकृष्ण आडवाणी और मंदिर आंदोलन के दूसरे नायक मुरली मनोहर जोशी को राममंदिर ट्रस्ट के सचिव चंपत राय के जरिए रोकने की कोशिश सेहत और उम्र का बहाना ले कर की गई थी.

नरेंद्र मोदी नहीं चाहते कि इस और ऐसे अहम मौकों पर ऐसा कोई शख्स नजर आए जिस से कैमरा शेयर करना पड़े. अपनी पीढ़ी के बराबर नेताओं की प्रासंगिकता कम करने का मौका भी वे नहीं छोड़ते. मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ राज्यों के मुख्यमंत्री उन्होंने जो बनाए वे किसी चिंतनमंथन की देन नहीं हैं बल्कि आरएसएस के दिमाग की उपज हैं. पीढ़ी परिवर्तन की आड़ में सिर्फ मोदी को चमकाए रखने के लिए दूसरी पीढ़ी के जमीनी और अनुभवी नेताओं को हाशिए पर धकेल दिया गया.

इन राज्यों में भाजपा को जीत हमेशा की तरह धर्म के चलते ही मिली थी. हिंदी पट्टी में उस का हिंदुत्व का एजेंडा लोगों के सिर चढ़ कर बोलता है तो इस की अपनी वजहें भी हैं. अयोध्या, काशी, मथुरा और उज्जैन जैसे ब्रैंडेड मंदिरों से ले कर छोटे शहरों और कसबों तक के छोटेमोटे मंदिरों के पुजारी उस के एजेंट हैं जो दिनरात भाजपा और मोदी का प्रचार करते रहते हैं. भाजपा सत्ता में न हो तो भी इन का मीटर चलता रहता है. बहुत से कांग्रेसी और समाजवादी भी इन मंदिरों के नियमित भक्त हैं और उन में प्रवचनों में बढ़चढ़ कर बैठते हैं.

हिंदुत्व पर मंडराते खतरों के नाम पर जो दहशत फैलाई जाती है उस को जमीनी तौर पर लाने का श्रेय इन्हीं लाखों एजेंटों को जाता है. आम भक्त ही इन का पालकपोषक है और बतौर रिटर्न गिफ्ट, असल ज्ञान भी उसे इन्हीं से मिलते हैं कि धर्म है तो देश है, जमीनजायदाद, जाति और बीवीबच्चे हैं. अगर धर्म ही नहीं रहेगा तो इन का क्या अचार डालोगे.

यह मुहिम चलती रहे, इस बाबत मध्य प्रदेश में मोहन यादव, राजस्थान में भजनलाल शर्मा और छत्तीसगढ़ में विष्णुदेव साय को मुख्यमंत्री बनाया गया है. राजनीतिक पंडितों और मीडिया का यह विश्लेषण बहुत परंपरागत और सतही है कि नए लोगों को मौका दे कर भाजपा जातिगत समीकरण साध रही है. ये तीनों ही आरएसएस के अखाड़े के पट्ठे यानी स्पौट बौय हैं जिन का काम सिर्फ और सिर्फ हिंदुत्व को और पुख्ता करने का रहेगा. रहा प्रशासन, तो वह भगवान और आईएएस अधिकारियों के भरोसे रहेगा.

शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे सिंधिया और रमन सिंह को बलात वानप्रस्थ आश्रम में धकेल दिया गया है जिस से इन के मन में कभी केंद्र में मजबूत बनने की इच्छा जोर न पकड़े क्योंकि वानप्रस्थी का बड़ा काम प्रभु का भजन करना होता है. वैसे भी, ये तीनों हिंदूवादी होते हुए भी उतने कट्टर नहीं हैं जितने कि लोकसभा चुनाव के मद्देनजर चाहिए.

एक दूसरी मंशा राज्यों को केंद्र से हांकने की भी है जिस में ये तीनों नातजरबेकार अड़ंगा नहीं बनेंगे, जिन्होंने मुख्यमंत्री पद पर अपने नाम के ऐलान के तुरंत बाद भगवान के साथसाथ नरेंद्र मोदी का भी आभार माना. अपनी कुरसी पर बैठने से पहले विकसित भारत संकल्प यात्रा के रथ के पहिए खींचते ये नजर आए. आइंदा भी ये तीनों कोई बड़ा फैसला लेने से पहले दिल्ली की तरफ ताकेंगे. एहसान से दबे इन मुख्यमंत्रियों को अपना मंत्रिमंडल तक बनाने की आजादी भाजपा ने नहीं दी. ये लिस्टें भी दिल्ली से बन कर आईं.

अफसोस है कि ऐसी हालत में जनता की आवाज कौन सुनेगा, इस को इंडिया गठबंधन जोरदार तरीके से उठा नहीं पा रहा. मोदी की मनमानी के आगे भाजपाइयों का नतमस्तक होना लाजिमी है लेकिन इंडिया गठबंधन को तो मुखर और आक्रामक होना पड़ेगा जो हालफिलहाल सीट शेयरिंग में उलझ है.

कितनी कारगर होगी यह चाल

इंडिया गठबंधन की दिल्ली बैठक तक भाजपाई उस का मजाक बना रहे थे कि अभी तक तो ये लोग अपना प्रधानमंत्री तय नहीं कर पाए. इन में तो हर कोई प्रधानमंत्री बनना चाहता है. ऐसे में ये क्या खाक मोदी का मुकाबला करेंगे. यह सच भी था क्योंकि माना यह जा रहा था कि ममता बनर्जी भी प्रधानमंत्री बनना चाहती हैं और नीतीश कुमार, शरद पवार भी और फलां भी और फलां भी. कांग्रेस की तरफ से राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का स्वाभाविक उम्मीदवार माना जा रहा था लेकिन उन के नाम पर सभी सहमत नहीं थे. हालांकि, खुद राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री बनने की इच्छा जाहिर नहीं की.

सधी हुई ढाई घर की चाल चलते टीएमसी मुखिया ममता बनर्जी ने कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के नाम का प्रस्ताव रखा तो तुरंत ही नीतीश कुमार को छोड़ सभी ने उन का समर्थन कर दिया. इन में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल प्रमुख हैं. यह भी बहुत साफ और नैसर्गिक था कि सब से बड़ा दल होने के नाते प्रधानमंत्री कांग्रेस का होना चाहिए लेकिन गठबंधन में राहुल गांधी के नाम पर सहमति नहीं बन पा रही थी तो यह समस्या भी हल हो गई. इस चाल का जवाब अब भाजपा को देना है. वैसे, यह सवाल बिलकुल बेमतलब का है कि जब बराबर की पार्टियां साथ मिल कर चुनाव लड़ रही हैं तो प्रधानमंत्री पद का फैसला पहले किया जाए. यह तो बाद में होगा.

मल्लिकार्जुन खड़गे एक बेदाग नाम है. उन के पास सियासी तजरबा भी तगड़ा है और सब से बड़ी बात, वे दलित समुदाय के हैं जिस के लगभग 25 फीसदी वोट देश में हैं. दलित हमेशा से ही हर चुनाव में बड़ा फैक्टर रहे हैं लेकिन प्रधानमंत्री के नाम पर यह समुदाय हमेशा ही ठगा जाता रहा है. ‘सरिता’ के दिसंबर (प्रथम) अंक में यह संभावना पहले ही जताई गई थी कि दलित प्रधानमंत्री की मांग अब जोर पकड़ेगी और यह भी उजागर किया गया था कि कैसे पहले कांग्रेस और फिर जनता पार्टी ने दलित दिग्गज नेता बाबू जगजीवन राम को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया था.

अब कांग्रेस ने तो अपनी गलती या भूल सुधार ली है लेकिन भाजपा इस मुद्दे पर खामोश है और स्वाभाविक तौर पर 2024 का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ही घोषित करती रहती है. अब दलितों व पिछड़ों को यह एहसास कराना इंडिया गठबंधन का काम है कि भाजपा कभी दलितों या पिछड़ों की सगी नहीं रही और उस ने 9 वर्षों के अपने शासन के दौरान दलित नेतृत्व को तहसनहस कर रख दिया है. बसपा प्रमुख मायावती इस का बेहतर उदाहरण हैं जो, बिसात से बाहर ही सही, बैठीं तो प्यादे की तरह ही हैं.

दलित होने के नाते मायावती से हर किसी को उम्मीद थी कि वे मल्लिकार्जुन खड़गे के नाम का स्वागत करेंगी लेकिन वे अब भगवा चक्रव्यूह में फंस चुकी हैं. दलित हितों से उन्हें कोई सरोकार ही नहीं रहा है और जो रहा है वह इतना भर है कि जितना ज्यादा से ज्यादा हो, दलित वोट भाजपा की तरफ शिफ्ट हो जिस से नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने रहें ताकि उन की अकूत दौलत पर किसी आईटी या ईडी की नजरें तिरछी न हों. अब यह और बात है कि मायावती एक और बड़ी खुशफहमी में जी रही हैं कि भगवा कृपा उन पर हमेशा यों ही बनी रहेगी.

धार्मिक लोकतंत्र का तिलिस्म

इस बात पर यकीन कर पाना और उसे जस्टिफाई करना बेहद मुश्किल काम है कि इंडिया गठबंधन हर लिहाज से नरेंद्र मोदी पर भारी पड़ता है लेकिन उन की धार्मिक छवि और पौराणिक आवरण का कोई जवाब या तोड़ गठबंधन के किसी नेता के पास नहीं. एक जाल या कवच कुछ भी कह लें नरेंद्र मोदी ने अपने इर्दगिर्द बुन रखा है जिसे सभी दल मिल कर भी भेद नहीं पा रहे.

9 साल पहले वे एक प्रधानमंत्री के तौर पर स्वीकृत किए गए थे लेकिन अब उन की पहचान एक ऐसी रहस्यमय चमत्कारी विभूति की बनती जा रही है जो सनातन धर्म की रक्षा के लिए हिमालय से अवतरित हुआ सिद्ध महात्मा पुरुष हैं.

कांग्रेस सहित इंडिया गठबंधन के दूसरे घटक हर कभी जनता को याद दिलाते रहते हैं कि इन्हीं नरेंद्र मोदी ने हर साल 2 करोड़ नौकरियां देने का वादा किया था. उन्होंने हरेक के खाते में 15 लाख रुपए आने की बात भी कही थी, उन्होंने देश से महंगाई, आतंकवाद और भ्रष्टाचार खत्म कर देने के भी वादे व दावे किए थे. इस सच्चाई को जनता बखूबी सम?ाती है लेकिन इस के बाद भी वोट उन्हीं को देती है. कम से कम हिंदी पट्टी में तो यह ट्रैंड अपवादस्वरूप कायम है. 3 राज्यों में भाजपा की अप्रत्याशित जीत इस की पुष्टि भी करती है.

जिस दिन चंपत राय पूरी चतुराई से यह कह रहे थे कि लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी से अयोध्या न आने का आग्रह किया गया है उसी दिन पूरी आस्था से उन्हें यह कहने में भी रत्तीभर संकोच नहीं हुआ था कि नरेंद्र मोदी विष्णु के अवतार हैं. यह कोई नई बात नहीं है बल्कि एक सुनियोजित षड्यंत्र है जो पूरा भगवा गैंग रच रहा है.

13 अक्तूबर, 2018 को महाराष्ट्र भाजपा के एक नेता अवधूत बाघ ने भी मोदी को विष्णु का 11वां अवतार कहा था. भाजपा की तरफ से लोकसभा चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही ऐक्ट्रैस कंगना रनौत ने 1 नवंबर, 2023 को नरेंद्र मोदी को कृष्ण अवतार बताते कहा था कि उन का जन्म देश के उद्धार के लिए हुआ है.

धर्म की राजनीति जवाब नहीं

धर्म की राजनीति से सत्ता के शिखर तक तो पहुंची मगर भाजपा के दूसरीतीसरी पंक्ति के नेता बेचारगी के शिकार हैं क्योंकि कभी खुद उन्होंने भी इस में जम कर हिस्सेदारी की थी. अब हालत यह है कि जनता मोदी सरकार से खुद से जुड़े मुद्दों के हल होने की उम्मीद छोड़ चुकी है और कोई राष्ट्रीय विकल्प न दिखने के चलते नरेंद्र मोदी को वोट दे रही है.

लेकिन ऐसा बहुत बड़े पैमाने पर नहीं हो रहा, वह बहुत सीमित है और रामचरितमानस से प्रभावित हिंदीभाषी राज्यों तक ही सिमटा हुआ है. कर्नाटक और तेलंगाना के नतीजे इस की गवाही देते हैं और आंकड़े भी इंडिया गठबंधन को आश्वस्त करने वाले हैं कि नरेंद्र मोदी और भाजपा को शिकस्त दी जा सकती है.

साल 2019 के आम चुनाव में भाजपा को महज 37.30 फीसदी वोट मिले थे जो इंडिया गठबंधन के प्रमुख घटक दलों के लगभग बराबर ही हैं. इस चुनाव में कांग्रेस को 19.46, टीएमसी को 4.06, सपा को 2.55, शिवसेना को 2.09, डीएमके को 2.26, सीपीआईएम को 1.77, जेडीयू को 1.45, आरजेडी को 1.08 और एनसीपी को 1.38 फीसदी वोट मिले थे. आप और ?ामुमो को एकएक फीसदी से भी कम वोट मिले थे लेकिन अब आप की ताकत पंजाब में बढ़ी है और ?ामुमो भी ?ारखंड में ताकत बढ़ा रहा है.

लेकिन यह शिकस्त धर्मस्थलों और पूजापाठ से हो कर नहीं जाती. हिंदी पट्टी में ही कांग्रेस यह असफल प्रयोग कर मुंह की खा चुकी है. मध्य प्रदेश में कमलनाथ, राजस्थान में अशोक गहलोत और छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल ने यही गलती की थी जिस की सजा पूरी कांग्रेस को मिली. हालांकि पूरा दोष इन नेताओं का भी नहीं क्योंकि खुद उन के नेता राहुल गांधी भी इसी गलतफहमी का शिकार हो गए थे कि पूजापाठ कर, जनेऊ दिखा कर, गोत्र बता कर, वैष्णो देवी और कैलाश मानसरोवर की यात्रा कर चुनाव जीते जा सकते हैं. राहुल गांधी अपनी दूसरी भारत जोड़ो यात्रा यानी भारत न्याय यात्रा में धर्मस्थलों को न छूने की हिम्मत कर सकते हैं या नहीं, यह देखना है.

इंडिया गठबंधन के लिए सबक तो यही मिलता है कि उसे अपनी चालें बहुत सोचसम?ा कर चलनी होंगी. अगर वह धर्म की आलोचना करेगा तो भी वोटर की नाराजगी का शिकार होगा और धर्म का ज्यादा दिखावा करेगा तो वोटर की अनदेखी उस के हिस्से में आएगी क्योंकि फिर वोटर धर्म की बड़ी दुकान की ओर ही जाएगा. सही रास्ता यही है कि जनता के मुद्दे उठाए जाएं और बिना किसी पूर्वाग्रह के आप के मुखिया अरविंद केजरीवाल की तर्ज पर राजनीति की जाए जिस में धर्म आटे में नमक के बराबर होता है.

कमोबेश ममता बनर्जी भी इसी राह पर चल कर भाजपा को पश्चिम बंगाल से दूर रखने में कामयाब रही हैं. जदयू मुखिया नीतीश कुमार और राजद के लालू यादव सहित उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव भी शुरू में सफल इसीलिए रहे थे कि वे भाजपा की मंदिर नीति पर बौखलाते नहीं थे. लेकिन जब से अखिलेश यादव ने धर्मकर्म की राजनीति शुरू की, तब से वोटरों ने समाजवादी पार्टी को भी भाव देना कम कर दिया.

इस में कोई शक नहीं कि नरेंद्र मोदी ने भारतीयों की कमजोर नब्ज धर्म पकड़ रखी है जिस में पूरा भगवा गैंग उन का साथ देता है. ये लोग 24×7 काम करते हैं और सुबह से ही लोगों को इसलाम व ईसाइयत का डर दिखाना शुरू कर देते हैं. सोशल मीडिया को इन्होंने बहुत बड़ा हथियार बना रखा है. ये लोग पहले डराते हैं, फिर उस से बचने का रास्ता भी दिखाते हैं कि चुनो नरेंद्र मोदी को और वोट दो भाजपा को, नहीं तो अंजाम भुगतने को तैयार रहो और इंडिया गठबंधन, दरअसल सनातन विरोधी गिरोह है जो तुम्हारे धर्म और संस्कृति को नष्टभ्रष्ट करने को इकट्ठा हुआ है.

हकीकत यह है कि हिंदू इस से जरूरत से ज्यादा कट्टर होता जा रहा है जो न खुद उस के लिए बल्कि देश के लिए भी घातक और नुकसानदेह साबित होगा. अब यह बात इंडिया गठबंधन कैसे लोगों को सम?ा पाता है, यह उस की एकता और एकजुटता पर निर्भर करता है. अफगानिस्तान, पाकिस्तान, ईरान के उदाहरण सामने हैं जहां धर्मसत्ता ने पूरी जनता को पहले सामरिक खतरों में ?ांक दिया और फिर फटेहाली में.

लोकतंत्र अलग लोगों के अलग विचारों का सम्मान करता है और उस में न केवल हर रंग के लोग हो सकते हैं, बल्कि स्त्रीपुरुष का भेद भी गौण हो जाता है. औरतों के सही अधिकार लोकतंत्रों में मिले हैं, न कि राजशाहियों और धर्मतंत्रों में. 50 फीसदी औरतें फैसला कर सकती हैं कि वे बेडि़यां पहनाने वाली, जुए में चढ़ाने वाली, चुड़ैल और जूती सम?ाने वाली परंपरा के साथ हैं या अपनी और अपने घरों की आजादी के.

अस्पताल, डाक्टर व नीमहकीम

छोटे अस्पतालों पर अब काला साया पड़ने लगा है. 200-300 गज जमीन पर बने 3-4 मंजिले क्लीनिक सारे देश में कुकुरमुत्तों की तरह उग रहे हैं. उन के बड़ेबड़े पोस्टर शहर में व शहर के बाहर कई किलोमीटर तक दिखाई देते हैं. उन में कैंसर, डायबिटीज, नी रिप्लेसमैंट, प्लास्टिक सर्जरी, आईवीएफ जैसे जटिल रोगों के भी इलाज का दावा किया जाता है.

जो जनता भूतप्रेतों, ओझाओं, पूजापाठों पर भरोसा करने वाली है वह इन क्लीनिकों को हाथोंहाथ लेती है. सरकारी अस्पतालों को न बनाने की सरकारी नीति का पूरा लाभ उठा कर ये क्लीनिक फलफूल रहे हैं.

इन क्लीनिकों को डाक्टर कहां से मिल रहे हैं, यह सवाल भी खड़ा होता है और इस का जवाब मिला दिल्ली की एक पौश कालोनी ग्रेटर कैलाश में चल रहे अग्रवाल मैडिकल सैंटर से जहां सर्जरी तक नौसिखिए मैडिकल अटैंडैंट कर डालते थे और केस बिगड़ जाए तो मरीज को एम्स में भेज देते थे. सरकार के दावों, कि हर जने को मुफ्त चिकित्सीय सुविधा मिलेगी, को झठलाते हुए डाक्टरों ने ही नहीं, जरा सी डाक्टरी जानने वालों ने मोटा पैसा बनाना शुरू कर दिया है.

चिकित्सा का प्रबंध हर साल बिगड़ता जा रहा है क्योंकि सरकार शायद जीवनमृत्यु को ऊपर वाले का क्रम समझती है. देश के सरकारी मैडिकल कालेजों में केवल  17-18 हजार सीटें हैं जो 142 करोड़ की जनसंख्या के लिए बेहद कम हैं.

देश को गलीगली में मंदिर नहीं, स्कूलों और क्लीनिकों की जरूरत है और वे भी सरकारी या धर्मार्थ जहां पैसा लोग चंदे के रूप में दें, फीस के रूप में नहीं. स्कूलों और अस्पतालों में खर्च तो होता ही है पर वह मंदिरों से कहीं कम है और देश की जनता चाहे तो ऊपर वाले को पूजा से खुश करने की जगह अपने बल पर शिक्षा और विज्ञान से अपना खयाल रख सकती है.

दिक्कत यह है कि देश की सारी नीतियां धर्म के सहारे चल रही हैं क्योंकि धर्म के व्यापारी सब से ज्यादा विचार थोपने वाले और सब से ज्यादा उपचार करने वाले हैं. डाक्टरों की तो कोई ऐसी संस्था भी नहीं हैं जो नियमित चिकित्सकीय ज्ञान घरघर देने को तैयार हो. उन्हें वह प्लैटफौर्म भी नहीं मिल पाता जहां से वे लोगों की पहली जरूरत, चिकित्सा, का सही ज्ञान दे सकें.

अग्रवाल मैडिकल सैंटर चूंकि राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में है और इस की करतूतों का भंडाफोड़ हुआ है, इसलिए वह कुछ खतरों में आया लेकिन यह मामला 2-4 महीनों में ठंडा पड़ जाएगा और लोग फिर उसी तरह के नीमहकीमों के पास जाना शुरू कर देंगे.

मेरा बौयफ्रैंड मुझसे नाराज है, मैं उसे कैसे मनाऊं ?

सवाल

मेरी उम्र 27 साल है. मेरा एक बौयफ्रैंड था. हमारे बीच सबकुछ बहुत अच्छा चल रहा था, लेकिन अचानक से सब खत्म हो गया. हुआ यों था कि मेरे बौयफ्रैंड की पहले एक गर्लफ्रैंड थी. मुझे लगने लगा था कि वह अपनी पुरानी गर्लफ्रैंड से दोबारा मिलनेजुलने लगा है और उन के बीच फिजिकल रिलेशन भी बनने लगे हैं. मुझ से यह बिलकुल बरदाश्त नहीं हुआ और मैं ने बिना उस की कोई बात सुने, उसे सफाई देने का कोई मौका न देते हुए ब्रेकअप कर लिया.

ब्रेकअप के 8 महीनों बाद मुझे पता चला कि मुझे गलतफहमी हुई थी. मैं फिर अपने एक्स बौयफ्रैंड से मिलने गई. वह मुझ से बहुत नाराज था. मैं ने उस से माफी मांगी लेकिन वह कहने लगा कि माफी मांगने से क्या फर्क पड़ता है. हमारे बीच न अब वह प्यार है, न विश्वास.

उस का कहना है कि वह अब पुराना वाला रिश्ता कामय नहीं कर पाएगा. मैं ने उसे बहुत दुख दिया है. उस की कंपनी उसे 2 साल के लिए दुबई भेज रही है, वह जा रहा है और अपनी जिंदगी नए सिरे से शुरू करेगा. मैं बहुत पछता रही हूं. मैं उस से अभी भी प्यार करती हूं. उसे खोना नहीं चाहती लेकिन अब वह मुझ से कोई रिश्ता नहीं रखना चाहता. आप ही बताइए कि मैं क्या करूं, क्या कोई रास्ता नहीं कि मैं दोबारा उस का विश्वास जीत सकूं, उस का प्यार पा सकूं?

जवाब

आप ने अपने बौयफ्रैंड से रिश्ता तोड़ने में बिलकुल भी देर नहीं लगाई. उसे सफाई देने का मौका तक नहीं दिया. यह बात उसे बहुत ज्यादा हर्ट कर गई है. अब आप उस से अपनी गलती की माफी मांग रही हैं, लेकिन वह आप को माफ करने को तैयार नहीं. वह सबकुछ भूलभाल कर दुबई जा रहा है क्योंकि वह अपनी यादों से दूर जाना चाहता है.

आप वाकई अपने निर्णय पर पछता रही हैं. अब भी दिल से उसे अपनाना चाहती हैं तो उसे अपनी बातों से एहसास दिलाएं कि आप ने जो किया, नादानी में किया, जल्दबाजी में किया. आप उस से इतना ज्यादा प्यार करती थीं कि उस का किसी दूसरे के साथ होने की कल्पना ही आप बरदाश्त नहीं कर पाईं. क्या पता आप के आंसू, आप की माफी, आप के प्यार की शिद्दत दोबारा से उस के मन में आप के प्यार की आग को जला दे या आप उसे अपने पुराने प्यार की दुहाई दे सकती हैं. हो सकता है, दोबारा वह आप को माफ कर के गले लगा ले.

आप के द्वारा इतना सब करने के बाद भी वह नहीं मानता तो कुछ नहीं हो सकता है. आप को अपने कदम पीछे हटा लेने चाहिए. जबरदस्ती से रिश्ता नहीं बनाया जा सकता. उसे अपनी जिंदगी जीने दीजिए और आप अपनी अलग राह पर चलिए

हाथ से खाना खाने से शरीर को मिलते हैं कई फायदे, जानें कैसे

हमारे देश में ज्यादातर लोग हाथ से खाना खाना पसंद करते हैं. कम उम्र से ही हमें खाने के सही तरीकों में हाथ से खाने की बात बताई जाती है. पर क्या आपको पता है कि इसके पीछे विज्ञान क्या है? कई जानकार बताते हैं कि हम सब पांच तत्वों से बने हैं, जिन्हे जीवन ऊर्जा भी कहते हैं. ये पांचों तत्व हमारे हाथ में मौजूद हैं. इनमे से किसी भी एक तत्व का असंतुलन बीमारी का कारण बन सकता है. हाथ से खाना खाने से शरीर में निरोग रखने की क्षमता विकसित होती है. इसलिए जब हम खाना खाते हैं तो इन सारे तत्वों को एक जुट करते हैं, जिससे भोजन ज्यादा ऊर्जादायक बन जाता है और यह स्वास्थ्यप्रद बनकर हमारी उर्जा को संतुलित रखता है.

माइडफुल ईटिंग

जब हम खाना खाते हैं तो हमें पता चलता है कि ये अब हमारे मुंह में जाने वाला है. इसे माइंडफुल इटिंग भी कहते है. ये चम्मच और कांटे से खाना खाने से ज्यादा स्वास्थयप्रद है. माइंडफुल ईटिंग के कई फायदें हैं, इसका सबसे जरूरी फायदा है कि इससे खाने के पोषक तत्व बढ़ जाते हैं. इससे पाचन क्रिया सुधरती है.

इसका सबसे महत्वपूर्ण फायदा यह भी है कि इससे खाने के पोषक तत्व बढ़ जाते हैं जिससे पाचन क्रिया सुधरती है और आप स्वस्थ रहते हैं.

तो जलेगी नहीं आपकी जीभ

हाथ से खाना खाने के तमाम फायदों में एक फायदा ये भी है कि इससे आपकी जीभ नहीं जलेगी. जब आप खाने को अपने हाथ से उठाते हैं तो आपको पता चलता है कि जो खाना आप खाने वाले हैं वो कितना गर्म है. यदि खाना ज्यादा गर्म है तो आपको पता चलता है और आप उसे फूंक कर खाते हैं. इस तरह आपकी जीभ भी नहीं जलती है.

होता है पाचन में सुधार

छुअन हमारे शरीर का सबसे प्रभावशाली अनुभव होता है. जब हम हाथों से खाना खाते हैं तो हमारा मस्तिष्क हमारे पेट को यह संकेत देता है कि हम खाना खाने वाले हैं. इससे हमारा पेट इस भोजन को पचाने के लिए तैयार हो जाता है. इससे पाचन क्रिया अच्छी होती है. इससे खाने में ध्यान लगता है.

Women Health Tips : हल्के में न लें पीरियड्स की प्रॉब्लम को, इन बातों का रखें ध्यान

पीरियड्स के दौरान दर्द होना बेहद आम बात है. इसे डिसमेनोरिया कहते हैं. बोलचाल की भाषा में इसे मैंस्ट्रुअल पेन भी कहते हैं. कुछ स्थितियों में यह दर्द ज्यादा परेशान करने वाला भी हो सकता है. यह समस्या धीरेधीरे तभी घटती है जब रक्तस्राव घटता है. जब दर्द की स्थिति किसी बीमारी का कारण बनती है, तो इसे सैकंडरी डिसमेनोरिया कहते हैं.

सैकंडरी डिसमेनोरिया के कई कारण हो सकते हैं, जैसे ऐंडोमिट्रिओसिस यूटरिन फाइब्रौयड्स और सैक्सुअली ट्रांसमिटेड डिजीज (सैक्स के दौरान फैलने वाले रोग) ऐंडोमिट्रिओसिस की समस्या परिवारों में देखने को मिलती है. मां के इस रोग से प्रभावित होने पर उस की बेटियों में करीब 8 फीसदी तक इस के होने की आशंका रहती है. बहनों में 6 फीसदी तक इस के होने का खतरा रहता है. 7 फीसदी चचेरे भाईबहन से होने का खतरा भी रहता है. खास बात यह है कि करीब 30-40 फीसदी मरीज जो ऐंडोमिट्रिओसिस से प्रभावित हैं, उन में बांझपन की समस्या भी देखी जाती है.

अनियमित पीरियड्स कई शारीरिक परेशानियों के कारण होते हैं. वैसे सामान्य स्थिति में मासिकधर्म का एक चक्र 3 से 7 दिन का होता है. कई साल तक इस के होने के बाद महिलाएं एक चक्र में स्थापित हो जाती हैं.

यहां तक कि कुछ महिलाएं तो मासिकधर्म आने के ठीक समय का अंदाजा लगा लेती हैं. कुछ महिलाओं को अधिक रक्तस्राव होता है तो कुछ को न के बराबर. टीनऐज युवतियों में इस तरह की समस्या हारमोंस में गड़बड़ी के कारण हो सकती हैं. लेकिन एक उम्र में इस बदलाव के कुछ और भी कारण हो सकते हैं.

अनियमित मासिकधर्म की वजह से बालों का झड़ना, सिर में दर्द रहना, शरीर में अकड़न आदि समस्याएं हो सकती हैं. यही नहीं व्यवहार में चिड़चिड़ापन भी आ सकता है. इसलिए अनियमित मासिकधर्म की समस्या को हलके में न लें. तुरंत डाक्टर से मिलें.

असामान्य रक्तस्राव कई कारणों से हो सकता है, जिन में हारमोनल परिवर्तन भी शामिल है. यह हारमोनल परिवर्तन कभीकभी यौवन, गर्भावस्था या रजोनिवृत्ति के कारण हो सकता है. हालांकि कई बार यह परिवर्तन महिलाओं के सामान्य प्रजनन वर्षों के दौरान होता है.

हारमोनल परिवर्तन 2 वजहों से हो सकता है- महिला प्रजनन की वजह से या अन्य हारमोन की वजह से जैसे थायराइड आदि.

लिवर ऐस्ट्रोजन और प्रोजेस्टेरौन को मैटाबोलाइज कर के महिलाओं के मासिकधर्म को नियमित करता है. ऐसे में अलकोहल का सेवन लिवर को नुकसान पहुंचाता है, जिस का असर मासिकधर्म पर पड़ता है.

देर से मासिकधर्म होने या बिलकुल न होने का एक और कारण आहार भी है. वजन का भी इस पर गहरा असर पड़ता है. अगर आप सही आहार नहीं लेती हैं या फिर आप का वजन ज्यादा है, तो इस दौरान कुछ हारमोन के स्राव की मात्रा बदल जाती है, जिस से मासिकधर्म प्रभावित होता है.

इस के अलावा थायराइड हारमोंस कम या ज्यादा होने के कारण भी मासिकधर्म नियमित नहीं होता है. तनाव भी इस के अनियमित होने का एक बड़ा कारण है. अगर आप के रक्तप्रवाह में बहुत ज्यादा कोर्टिसोल है, तो आप के मासिकधर्म का समय बदल सकता है. कई बार मेनोपौज शुरू होने के 10 दिन पहले से भी अनियमित मासिकधर्म शुरू हो जाता है.

लक्षण

ऐंडोमिट्रिओसिस के लक्षण किसी मरीज में बढ़ सकते हैं तो किसी में घट सकते हैं. इस के सामान्य लक्षणों की बात करें तो ऐसी स्थिति में पेट के निचले भाग में दर्द रहता है और बांझपन की शिकायत भी होती है. पेट के निचले हिस्से में दर्द मासिकधर्म के दौरान होता है. इस के अलावा यह दर्द कभीकभी मासिकधर्म के पहले और बाद में भी हो सकता है. कुछ महिलाएं शारीरिक संबंध बनाने के दौरान, यूरिन रिलीज करने या स्टूल करने के दौरान भी इस दर्द का अनुभव करती हैं.

उम्र

ऐंडोमिट्रिओसिस के मामले युवावस्था में सामने आते हैं यानी जब महिलाओं में मासिकधर्म की शुरुआत हो जाती है. यह स्थिति तब मनोपौज तक या पोस्टमेनोपौज तक रह सकती है. ऐंडोमिट्रिओसिस के मामले ज्यादातर महिलाओं में 25 से 35 वर्ष की उम्र में पता चलते हैं. जबकि इस के मामले लड़की में उस की 11 साल की उम्र से देखे जाते हैं. ऐंडोमिट्रिओसिस के मामले पोस्ट मेनोपौजल महिलाओं में कम ही देखने को मिलते हैं.

क्या करें

इस परेशानी से दूर रहने के लिए खानपान पर विशेष ध्यान दें. ज्यादा परेशानी होने खासकर टीनऐज लड़कियों में इस तरह की कोई समस्या हो, तो उन्हें स्त्रीरोग विशेषज्ञा को जरूर दिखाएं वरना आगे चल कर इस के घातक परिणाम भी हो सकते हैं.

गंभीर परिणाम क्या हो सकते हैं

रोजाना जीवन को प्रभावित करने के अलावा, खून की कमी के कारण ऐनीमिया हो सकता है. भारतीय महिलाएं ऐनीमिया की अधिक शिकार हैं. असामान्य और अनियमित रक्तस्राव के साथ हारमोनल परिवर्तन, वजन बढ़ने और गर्भधारण करने में असमर्थता की समस्या से जुड़ा हुआ है.

ऐसे मामलों में क्या करना चाहिए

विशेषज्ञ की राय लेनी जरूरी है. हारमोनल परितर्वन दवा से सही हो सकता है. असामान्य रक्तस्राव हारमोनल परिवर्तन के अलावा अन्य कारणों की वजह से भी हो सकता है जैसे फाइब्रौयड्स, संक्रमण आदि. यहां तक कि कैंसर की वजह से भी ऐसा हो सकता है.

इलाज

ऐंडोमिट्रिओसिस का इलाज दवाओं और सर्जरी दोनों तरह से संभव है. मैडिकल ट्रीटमैंट के तहत दर्द से आराम देने वाली दवाएं दी जाती हैं. सर्जरी ट्रीटमैंट के तहत लैप्रोस्कोपी की जाती है, जिस में एनेस्थिसिया देने के बाद एक छोटे टैलीस्कोप को पेट के अंदर पहुंचा कर सर्जरी द्वारा ऐंडोमिट्रिओसिस की समस्या को खत्म करते हैं. ऐंडोमिट्रिओसिस के ट्रीटमैंट का लक्ष्य दर्द से छुटकारा देने के साथसाथ बांझपन को खत्म करना भी होता है.

उम्मीद

इन विट्रो फर्टिलाइजेशन (आईवीएफ) प्रोसीजर इन मामलों में काफी प्रभावी रोल अदा करता है. खासकर ऐंडोमिट्रिओसिस से पीडि़त महिलाओं में बांझपन की समस्या होने पर. आईवीएफ तकनीक की मदद से लैब में स्पर्म और एग को निषेचित करते हैं, फिर इस से तैयार होने वाले भ्रूण को महिला के यूटरस में रखा जाता है. इस प्रक्रिया से प्रैगनैंसी रेट को 50 से 60 फीसदी तक बढ़ाया जा सकता है.

– डा. राधिका बाजपेयी, गाइनोकोलौजिस्ट, इंदिरा आईवीएफ हौस्टिपल, लखनऊ     

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