छोटे अस्पतालों पर अब काला साया पड़ने लगा है. 200-300 गज जमीन पर बने 3-4 मंजिले क्लीनिक सारे देश में कुकुरमुत्तों की तरह उग रहे हैं. उन के बड़ेबड़े पोस्टर शहर में व शहर के बाहर कई किलोमीटर तक दिखाई देते हैं. उन में कैंसर, डायबिटीज, नी रिप्लेसमैंट, प्लास्टिक सर्जरी, आईवीएफ जैसे जटिल रोगों के भी इलाज का दावा किया जाता है.
जो जनता भूतप्रेतों, ओझाओं, पूजापाठों पर भरोसा करने वाली है वह इन क्लीनिकों को हाथोंहाथ लेती है. सरकारी अस्पतालों को न बनाने की सरकारी नीति का पूरा लाभ उठा कर ये क्लीनिक फलफूल रहे हैं.
इन क्लीनिकों को डाक्टर कहां से मिल रहे हैं, यह सवाल भी खड़ा होता है और इस का जवाब मिला दिल्ली की एक पौश कालोनी ग्रेटर कैलाश में चल रहे अग्रवाल मैडिकल सैंटर से जहां सर्जरी तक नौसिखिए मैडिकल अटैंडैंट कर डालते थे और केस बिगड़ जाए तो मरीज को एम्स में भेज देते थे. सरकार के दावों, कि हर जने को मुफ्त चिकित्सीय सुविधा मिलेगी, को झठलाते हुए डाक्टरों ने ही नहीं, जरा सी डाक्टरी जानने वालों ने मोटा पैसा बनाना शुरू कर दिया है.
चिकित्सा का प्रबंध हर साल बिगड़ता जा रहा है क्योंकि सरकार शायद जीवनमृत्यु को ऊपर वाले का क्रम समझती है. देश के सरकारी मैडिकल कालेजों में केवल 17-18 हजार सीटें हैं जो 142 करोड़ की जनसंख्या के लिए बेहद कम हैं.
देश को गलीगली में मंदिर नहीं, स्कूलों और क्लीनिकों की जरूरत है और वे भी सरकारी या धर्मार्थ जहां पैसा लोग चंदे के रूप में दें, फीस के रूप में नहीं. स्कूलों और अस्पतालों में खर्च तो होता ही है पर वह मंदिरों से कहीं कम है और देश की जनता चाहे तो ऊपर वाले को पूजा से खुश करने की जगह अपने बल पर शिक्षा और विज्ञान से अपना खयाल रख सकती है.
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