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Weight Loss Tips : कम करना चाहते हैं वजन, तो खाएं ये 4 तरह के आटे से बनी रोटियां

Flour for Reducing Weight : आज के समय में ज्यादातर लोग वजन बढ़ने की समस्या से परेशान है. तमाम उपाय अपनाने के बाद भी कुछ लोगों का वजन कम नहीं होता है. ऐसे में उन्हें सलाह दी जाती है कि वह अपनी डाइट को कम करें, जिसमें से सबसे पहले उनकी डाइट में से रोटी को कम करने को कहा जाता है. हालांकि, भातरीय खाना गरमागरम रोटी के बिना अधूरा माना जाता हैं, क्योंकि सब्जी और दाल के साथ जब तक रोटी न खाई जाए तो भोजन करने में स्वाद ही नहीं आता.

लेकिन क्या आपको ये बात पता है कि अलग-अलग आटे से बनी रोटियां खाने से वजन को भी कम किया जा सकता है. आइए जानते हैं आटे के उन हेल्दी ऑप्शन के बारे में, जिन्हें अपनी डाइट में शामिल करने से वजन घटाने (Weight Loss Tips) में काफी मदद मिल सकती है.

इन आटे से बनी रोटियों से कम करें वजन

बेसन का आटा

जिन लोगों को अपना वजन कम करना है, वो अपनी डाइट में बेसन के आटे (Weight Loss Tips) से बनी रोटियों को शामिल कर सकते हैं. दरअसल, बेसन में प्रोटीन और फाइबर का भंडार होता है. इसके अलावा इसमें फोलेट और आयरन का संतुलन होता है, जबकि कैलोरी बहुत कम मात्रा में होती है. ऐसे में वेट लॉस करने के लिए बेसन का आटा एक शानदार ऑप्शन है.

बाजरे का आटा

बाजरे के आटे में पौष्टिक गुणों की भरपूर मात्रा होती है. ऐसे में आप अपनी डाइट में बाजरे के आटे से बनी रोटियों को शामिल कर सकते हैं. इसमें जीआई की मात्रा कम होती है, जिससे वेट लॉस करने में मदद मिलेगी. इसके अलावा इसके नियमित सेवन से पाचन भी स्वस्थ रहता है.

क्विनोआ का आटा

क्विनोआ के आटे से बनी रोटियों में आयरन, फोलेट, जिंक और मैग्नीशियम आदि की उच्च मात्रा होती है, जिससे लंबे समय तक पेट भरा-भरा रहता है. ऐसे में बार-बार भूख नहीं लगती है और वजन घटाने में मदद मिलती है.

ओट्स का आटा

ओट्स के आटे को सेहत के लिए खजाना माना जाता हैं. इसमें विटामिन, मिनरल, फाइबर आदि से लेकर सभी जरूरी पोषक तत्वों की उच्च मात्रा होती हैं. इसलिए वेट लॉस (Weight Loss Tips) करने में ओट्स के आटे से बनी रोटियां फायदेमंद होती हैं.

अधिक जानकारी के लिए आप हमेशा डॉक्टर से परामर्श लें.

Green Coriander : स्वाद और सेहत का खजाना है हरा धनिया, सर्दियों में इसे खाने के हैं ढेरों फायदे

Green Coriander Benefits in Winter : सर्दियों के मौसम में ज्यादातर लोग अपने भोजन में हरे धनिये का इस्तेमाल करते हैं, जिससे खाने का स्वाद बढ़ता है. साथ ही शरीर की कई समस्याओं से छुटकारा मिलता है. अक्सर लोग हरे धनिया की चटनी खाना पसंद करते हैं, इसके अलावा इससे खाने की गार्निशिंग भी की जाती है, लेकिन क्या आप जानते हैं, हरा धनिया कई तरह की परेशानियों से छुटकारा दिलाने में मदद करता है.

दरअसल, पौष्टिक तत्वों से भरपूर हरे धनिये को ठंड में खाने से शरीर स्वस्थ रहता है. इसमें विटामिन सी की भरपूर मात्रा होती है, जिससे सर्दी, जुकाम, खांसी और नाक बहने आदि मौसमी बीमारियों से छुटकारा मिलता है. साथ ही रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है. आइए अब जानते हैं विंटर में अपनी डाइट में हरे धनिये (Green Coriander Benefits in Winter) को शामिल करने के अनगिनत फायदों के बारे में.

हरा धनिया खाने के फायदे

मौसमी बीमारियों से मिलेगा छुटकारा

आपको बता दें कि हरे धनिये (Green Coriander Benefits in Winter) में विटामिन ए, विटामिन सी, कैल्शियम, मैग्नीशियम और पोटैशियम आदि पौष्टिक तत्वों की भरपूर मात्रा होती है. ऐसे में सर्दियों में इसके नियमित सेवन से सर्दी, जुकाम, खांसी और नाक बहने जैसे मौसमी बीमारियों के होने का खतरा बहुत ज्यादा कम हो जाता है.

पाचन तंत्र होगा मजबूत

जिन लोगों को गैस, अपच, कब्ज और मतली आदि पाचन संबंधी समस्याएं रहती है, उनके लिए धनिया का सेवन करना फायदेमंद होता है. इसके नियमित सेवन से पाचन तंत्र सही रहता है.

आंखों की रोशनी बढ़ेगी

आंखों के लिए भी हरा धनिया फायदेमंद होता है. दरअसल, इसमें विटामिन ए की उच्च मात्रा होती है. ऐसे में इसे अपनी डाइट में शामिल करने से आंखों की रोशनी में इजाफा होता है. साथ ही आंखों में दर्द और पानी बहने की समस्या से भी छुटकारा मिल सकता है.

इम्युनिटी होगी बूस्ट

धनिये को अपनी डाइट में शामिल करने से रोग प्रतिरोधक क्षमता भी मजबूत होती है, जिससे संक्रमण होने की संभावना बहुत कम हो जाती है.

स्किन रहेगी हेल्दी

सर्दियों के मौसम में बेजान और रूखी त्वचा से अधिकांश लोग परेशान रहते हैं. ऐसे में अपने खाने में हरे धनिये को शामिल करना लाभदायक होता है. इससे स्किन हेल्दी रहेगी. साथ ही त्वचा में नमी भी बनी रहेगी.

शुगर रहेगा कंट्रोल

सर्दियों में जिन लोगों की शुगर बढ़ जाती है, वो अपने खाने में हरे धनिये (Green Coriander Benefits in Winter) को शामिल कर सकते हैं. इससे उनकी डायबिटीज कंट्रोल में रहेगी.

अधिक जानकारी के लिए आप हमेशा डाक्टर से परामर्श लें.

होमियोपैथी दवाइयों को डाक्टर की सलाह के बिना ले सकते हैं ?

सवाल

होमियोपैथी दवाइयों का साइड इफैक्ट नहीं होता है, तो क्या डाक्टर की सलाह के बिना इनका सेवन कर लेना चाहिए ?

जवाब

किसी भी दवाई के बारे में एक बेसिक बात ध्यान रखिए. कोई भी दवाई आप की शारीरिक स्थिति, आप की बीमारी के लक्षणों और आप की उम्र आदि के हिसाब से डाक्टर द्वारा प्रिस्क्राइब की जाती है. एक डाक्टर को अपनी डिग्री पूरी करने के बाद प्रैक्टिस के साथ यह सीखने का मौका मिलता है कि कौन सी दवाई किस पेशेंट को कब दी जानी चाहिए. आप चाहे किसी भी पैथी से इलाज करवाएं. सही डाक्टर और सही दवाई का होना हमेशा जरूरी है.

पेट को न बनाएं बीमारियों का अड्डा

बदलती जीवनशैली और खानपान ने लगभग हर शख्स को किसी न किसी बीमारी से घेर रखा है. पेट भी शरीर का ऐसा ही भाग है जो लोगों के लिए बीमारियों का अड्डा बनता जा रहा है. अव्यवस्थित दिनचर्या, खानपान में लापरवाही, वसा का अधिक प्रयोग पेट की बीमारियों में इजाफा करता है. आइए जानते हैं कि पेट से जुड़ी और कौन सी बीमारियां हैं व उन के लक्षण और बचाव क्या हैं.

पेट के विभिन्न हिस्सों में दर्द

पेट में दर्द अलगअलग अंगों में अलग कारणों से होता है. कई बार कब्ज के कारण या अन्य किसी वजह से आंतों में विकार के कारण पेटदर्द होने लगता है. ऐसे में आप को कभी खुद से घरेलू उपचार नहीं करना चाहिए बल्कि तुरंत डाक्टर से मिलना चाहिए.

पेट में ऊपर की तरफ दर्द सामान्यतया गैस्ट्राइटिस, लिवर में खराबी, आमाशय में छेद होने के कारण होता है. पित्त की थैली में पथरी होने पर आमतौर पर पेट की दाईं तरफ दर्द होता है. पेट के बीचोंबीच दर्द का कारण अकसर पैंक्रियाज की खराबी होता है.

पेट के निचले भाग में दर्द यानी एपैंडिसाइटिस मूत्राशय में पथरी या संक्रमण के कारण होता है, लेकिन महिलाओं में पेट के निचले हिस्से में दर्द के कई कारक हो सकते हैं, जैसे गर्भाशय में किसी तरह की खराबी, फाइब्रायड, एंड्रियोमेट्रियोसिस, माहवारी या कोई अन्य बीमारी.

पेट के एक तरफ दर्द का कारण गुरदे में पथरी या गुरदे की अन्य कोई बीमारी हो सकती है. पेटदर्द के लिए अल्ट्रासाउंड, एंडोस्कोपी, एक्सरे, सीटी स्कैन और रक्त की जांच कराई जाती हैं जिस से कि सही समय पर सही इलाज किया जा सके.

कब्ज की शिकायत

कब्ज को हलके में लेना सही नहीं है. इसे कुछ लोग रोगों की जननी भी कहते हैं. जब भोजन आंतों में पहुंचता है तो आंतों में मरोड़ के साथ संकुचन पैदा होता है. इसे वैज्ञानिक लहजे में पेरिस्टाल्सिस कहते हैं. इस का मुख्य कार्य भोजन को आगे खिसकाने का होता है. इस तरह से जब मरोड़ के साथ शौच की इच्छा होती है तो कई बार हम किसी खास काम में बिजी होने के कारण शौच को टाल देते हैं. कुछ समय बाद फिर इसी तरह की मरोड़ उठती है. मगर अब इस की तीव्रता पिछली बार से अधिक होनी चाहिए वरना मल सख्त हो जाता है. इस तरह से हम कह सकते हैं कि कब्ज का प्रमुख कारण शौच की इच्छा को अधिक समय तक टालना है.

पेट का संक्रमण यानी फूड पौइजनिंग

फास्ट फूड से ले कर बाहर खाने की आदत पेट को संक्रमित कर देती है, जिस के कई नुकसान सामने आते हैं. आंकड़ों के मुताबिक, आमतौर पर 50 फीसदी पेट का संक्रमण खाद्य पदार्थों के माध्यम से होता है. पेट का संक्रमण बैक्टीरिया द्वारा तेजी से फैलता है, जो पेट की कई और बीमारियों को जन्म दे सकता है.

पेट के संक्रमण में कई बार जटिलताएं पैदा हो जाती हैं. किसी भी जटिलता की स्थिति में घबराएं नहीं बल्कि तुरंत डाक्टर से संपर्क करें. इस संक्रमण की वजह से कई बार गठिया, ब्लीडिंग की समस्या, किडनी में समस्या या सांस लेने संबंधी समस्या पैदा हो सकती है. खाना जरूरी है, लेकिन खाने में लापरवाही नुकसानदेह भी साबित होती है.

दस्त की समस्या

इस समस्या का सीधा संबंध आदमी के मानसिक तनाव से है. जब व्यक्ति तनावग्रस्त होता है तो शरीर की वेगस नाड़ी उत्तेजित हो कर आंतों के संकुचन और स्त्रावन को कई गुना बढ़ा देती है, जिस से व्यक्ति को बारबार शौचालय के लिए भागना पड़ता है और इस से पतले पानी जैसे दस्त होने लगते हैं. इस के अलावा संक्रमण से भी यह समस्या हो जाती है. किसी जीवाणु से जब आंतें संक्रमित होती हैं तो दस्त होने की संभावना बढ़ जाती है. संतुलित खानपान और संयमित जीवनशैली से पेट की बीमारियों पर काबू पाया जा सकता है.

पेट का कैंसर

पेट के कैंसर के कारणों को पूरी तरह से सम?ा नहीं जा सका है लेकिन कुछ उपाय संकेत देते हैं कि कुछ भोजन इस कैंसर की रोकथाम में मदद कर सकते हैं. ज्यादातर यह इस बात पर निर्भर करता है कि निदान के बाद यह कैंसर कितनी तेजी से विकसित होता है.

बचाव के लिए भोजन में ज्यादातर ताजे फलों और सब्जियों का सेवन करें. धूम्रपान न करें. शराब कम पिएं. धूम्रपान, मसालेदार भोजन, बेक किए हुए और नाइट्रेट्स द्वारा सुरक्षित किए गए खाद्य पदार्थों से बचें.

अल्सर (पेट में घाव)

अल्सर भी पेट की गंभीर समस्या है. यह पेट की दशा बुरी तरह से बिगाड़ देता है. जंकफूड सीधे तो अल्सर की वजह नहीं है लेकिन वह अल्सर से होने वाली कठिनाइयां बढ़ा जरूर देता है. इसलिए जंकफूड से बचना बेहद जरूरी है. अल्सर के अनेक दुष्परिणाम हो सकते हैं. यह असहनीय पेटदर्द की वजह तो बनता ही, साथ ही, इस से खून की उलटी एवं अल्सर के फटने जैसी जटिल परिस्थितियां भी पैदा हो सकती हैं.

अल्सर से शुरू हुई ब्लीडिंग अगर नहीं रुकी तो वह जानलेवा भी हो सकती है. इसलिए डाक्टर के पास जाने में देरी कतई नहीं करनी चाहिए. समय से अगर अल्सर का पता चल जाए तो उस की जटिलताओं को हम बखूबी रोक सकते हैं. मरीज को इस बीमारी में पेनकिलर नहीं लेनी चाहिए. पेनकिलर के अलावा एच पायलोरी नामक कीटाणु बैक्टीरिया भी पेट में अल्सर का बड़ा कारक है. इसलिए इस के इलाज में कोताही कतई नहीं करनी चाहिए.

पेट में कीड़े

पेट में कीड़े होने पर जहां रोगी को अत्यधिक भूख लगती है वहीं स्वास्थ्य भी खराब होना शुरू हो जाता है. पेट के कीड़े अधिकतर बच्चों के अंदर पाए जाते हैं. पेट के कीड़े सामान्यतया कब्ज करने वाले भोजन, मांस और खट्टेमीठे पदार्थ अधिक खाने से पैदा होते हैं. बुखार, पेटदर्द, जी मिचलाना, चक्कर आना, दस्त लगना, गुदा में कांटे जैसा चुभना आदि इस के लक्षण होते हैं.

पेट के अंदर कीड़े होने पर कब्ज से बचना चाहिए. इस के लिए दोनों समय चावलदाल खाया जा सकता है. पुराने चावलों का भात, परवल, करेला, बकरी का दूध, नीबू का रस, साबूदाना आदि हलके पदार्थ खाने से पेट में कीड़े नहीं होते हैं. इस के अलावा चिकित्सकीय परामर्श भी जरूरी है.

(यह लेख मेडियोर अस्पताल, दिल्ली के गैस्ट्रोएंट्रोलौजिस्ट डा. एम पी शर्मा से बातचीत पर आधारित है.)

सिबलिंग एक बड़ी संपत्ति

आज भारत का फर्टिलिटी रेट 2.1 है जिस का मतलब औसत एक औरत 2.1 बच्चे पैदा कर रही है. दक्षिण कोरिया में यह 0.8 है जिस का अर्थ है कि औसतन एक औरत एक बच्चा भी पैदा नहीं कर रही. दुनिया के विकसित देशों में तेजी से जनसंख्या की वृद्धि रुक रही है और यह नई समस्याओं को जन्म दे रही है.

पियू रिसर्च के अनुसार, 1976 में केवल 1 बच्चे वाले सिर्फ 11 फीसदी परिवार थे और 2 बच्चे वाले 24 फीसदी, 3 बच्चे वाले 25 फीसदी व 4 या 4 से ज्यादा बच्चे वाले 40 फीसदी परिवार थे जबकि अब 2014 के (जो आंकड़े भी काफी पुराने हैं) 1 बच्चे वाले परिवार 22 फीसदी हो गए हैं, 2 बच्चे वाले 41 फीसदी, 3 बच्चे वाले 24 फीसदी और 4 बच्चों वाले 14 फीसदी परिवार हैं. इस का मतलब यह है कि आज भी जिन परिवारों में बच्चे हैं वहां 78 फीसदी के भाईबहन हैं.

जहां शादीशुदा मगर बिना बच्चे वाले या अकेले रहने वालों को छोड़ दें तो भी यह पक्का है कि जनसंख्या के साथ भाई या बहन वाले परिवारों की संख्या उतनी तेजी से घट नहीं रही है. इस का दूसरा मतलब यह है कि चाहे उन परिवारों की गिनती बढ़ रही हो जो बच्चे नहीं कर रहे लेकिन इकलौते बच्चों वाले परिवारों की संख्या उतनी तेजी से नहीं बढ़ रही. जब एक बच्चा हो जाता है तो दूसरे की तैयारी करने का मन आसानी से बन जाता है.

दिक्कत यह है कि दुनिया के मनोवैज्ञानिक, समाजशास्त्री, नीतिनिर्धारक, कहानी लेखक, फिल्म निर्माता, भाईभाई, भाईबहन या बहनबहन रिश्तों पर कम ही विचार करते हैं जबकि औसतन भाईबहन शायद मांबाप से ज्यादा समय तक साथ रहते हैं.

यूरोपीय देशों में जहां तलाक आम है, जैसे पुर्तगाल में 94 फीसदी, रूस में 73 फीसदी, चीन में 44 फीसदी और टर्की में 25 फीसदी. वहां भी भाईबहन अगर हैं तो सभी ज्यादा साल एक छत के नीचे गुजारते हैं. हर देश में तलाक के बाद चाहे संपत्ति का बंटवारा हो जाए, बच्चों का बंटवारा शायद ही कहीं कोई समाज, सरकार या अदालत करने देती हो.

भारत में तो तलाक की दर ही कम है, इसलिए मांबाप के साथ ही भाईबहन रहते हैं पर उन के विवादों और उन के प्यार के शेयर पर कम ही लिखा या सोचा जाता है.

सिग्मंड फ्रायड दुनियाभर में काफी मशहूर मनोवैज्ञानिक हैं. अपनी 2 दर्जन पुस्तकों में उन्होंने केवल 5 बार भाईबहन रिश्तों पर कुछ लिखा है. अब जब बिछुड़ते दोस्तों और पड़ोसियों का जमाना बढ़ने लगा हैं, छुटपन से ले कर वयस्क होने तक लोग अपने भाई या बहन के साथ ज्यादा समय बिताते हैं बजाय दोस्तों, पड़ोसियों और यहां तक कि मातापिता के साथ.

आम घरों में जहां मां और बाप दोनों काम कर रहे होते हैं, वहां खाने की मेज पर या ट्रैवल टूर पर जाने पर ही ऐसा अवसर मिलता है जब बच्चे साथ होते हैं. घरों में खाना खाते ही बच्चे अपने कमरे या कमरों में बंद हो जाते हैं और उन का मांबाप से विचारों का आदानप्रदान कम ही होता है.

भाई या बहन जीवनभर एक अमिट छाप लोगों पर छोड़ जाते हैं. ये यादें आमतौर पर मीठी होती हैं पर जहां नाराजगी भी हो, तो भी लोग भूल नहीं पाते कि उन का कोई भाई या बहन कहीं है. जिस से मिलने की इच्छा न हो उस से भी मिला जाता है. जिस से संपत्ति या किसी और कारण से विवाद हो उस को भी कभीकभार मानमनौवल कर के बुलाया जाता है. आपत्ति पड़ने पर जो सब से आगे रहता है वह भाई या बहन होता है. जब दुर्घटनाएं या आस्कमिक मौत होती है तो पुलिस मांबाप, बच्चों के बाद भाई या बहन को ही खोजती है.

हारवर्ड यूनिवर्सिटी के मनोवैज्ञानिक रौबर्ट वाल्डिंगर ने अपनी नई किताब ‘द गुड लाइफ’ में सिबलिंग : भाईबहन- के रिश्तों की अतिआवश्यकता की बात की है. 1938 के बाद यूनिवर्सिटी में रखे गए पुरुषों के मनोवैज्ञानिक मामलों के अध्ययन के बाद उन का निष्कर्ष है कि सिबलिंग रिलेशनशिप ही ज्यादा खुशी, स्वस्थ और लंबा जीने का रहस्य है.

जिन के अपने भाईबहन से संबंध ठीक नहीं होते वे डिप्रैशन, ड्रग्स, डाइवोर्स, डैजर्स के आदी हो जाते हैं. उन के खुशी के दिन कम होते हैं और 50 साल के होने तक वे बीमारियों से घिर जाते हैं, चाहे वे मानसिक हों या शारीरिक.

भाईबहन का मजबूत रिश्ता कैरियर को भी सफल बनाता है क्योंकि अवचेतन मन में रिस्क लेने पर सुरक्षा मिलने की गारंटी रहती है. जैसे, बचपन में हर मुसीबत में भाई या बहन साथ खड़ा रहा था, अगर संबंध अच्छा रहे तो दूर होते हुए भी लगता है कि वह साथ ही होगा.

बचपन में गरीबी, बीमारी, मांबाप के तलाक या एक या दोनों को खोने के बाद अगर सिबलिंग होता है तो वयस्क होने के बाद उस में पर्याप्त विवेक व काम के प्रति उत्तरदायित्व अपनेआप पैदा हो जाता है. जहां बचपन में छोटा सिबलिंग अपने से बड़े के होने के कारण सदा सुरक्षित महसूस करता है वहीं बड़ा सिबलिंग एक जिम्मेदार व्यक्ति व पिता जैसा होता है क्योंकि उसे छोटे का खयाल रखना आता है. दोनों में अकेलेपन का भाव नहीं रहता.

अगर मांबाप ने 2 सिबलिंगों (अफसोस है कि हिंदी में सिबलिंग का पर्याय शब्द नहीं मिलता. सहोदर शब्द है पर इस का उपयोग न के बराबर होता है. उस पर चर्चा बाद में.) में यदि प्रतियोगिता या भेदभाव के अवगुण नहीं रोपे तो वे आपस में खुद ही एकदूसरे के पूरक बन जाते हैं. यह मांबाप पर निर्भर करता है कि वे अपने 2 या उन से अधिक बच्चों के साथ ऐसी बराबरी का व्यवहार करें कि कोई भी अपनी अवहेलना महसूस कर किसी से भी जलने न लगे.

एक के होशियार होने पर भी दूसरे को बराबर का सम्मान व स्थान देना मांबाप के लिए जरूरी है. पेरैंट्स के लिए जरूरी है कि वे एक सिबलिंग को दूसरे के आने से पहले तैयार करें और दूसरे के होने पर पहले को यह न लगे कि उस का प्यार बंट रहा है.

वाल्डिंगर का मानना है कि वयस्क होने पर यदि सिबलिंग स्क्रीन पर टाइम बिताने से ज्यादा आपस में वरीयता टाइम बिताएं तो वे सफल रहेंगे, खुश रहेंगे. लंबी बात, साथसाथ (बिना अपनी पत्नियों या बच्चों के) टूर करना, कुछ प्रोजैक्ट करना, समाजसेवा करना हमेशा लाभदायक रहता है.

हमारे यहां भाईबहन के लिए एक शब्द भी नहीं क्योंकि हमारी संस्कृति इतनी पितृसत्तात्मक रही है कि बहनों को कभी अपना माना ही नहीं गया. पैदा होते ही बेटियां पराया धन मान ली जाती हैं और भाई हों तो वे जानते हैं कि बहन का उन के जीवन में कोई रोल नहीं और बहन हो तो उसे मालूम होता है कि उसे अपनी बहन व भाई से अलग किसी और घर में जाना पड़ेगा.

महाभारत में भाइयों के प्रेम पर बहुतकुछ कहा गया है. हालांकि कौरव किसी भी तरह से पांडवों के सिबलिंग नहीं थे पर जो बातें अर्जुन ने युद्ध में पहले कही थीं और जिन के उत्तर में कृष्ण ने उस गीता का उपदेश दिया था जिसे बारबार हमें पढ़ना चाहिए, उन से, पौराणिक युग में सिबलिंगों के आपसी संबंध कैसे थे और क्या वे उचितअनुचित पुराण रचयिताओं के अनुसार थे, का पता चलता है.

कई बार वादविवाद, समझतों, मारने की कोशिशों, जुए, वनवास, दूतों की मध्यस्थता के बावजूद बचपन में एक छत के नीचे रहने वाले दुर्योधन के भाई और युधिष्ठिर के भाई अपनी जुटाई सेनाओं के सामने जब आरपार करने के लिए आमनेसामने खड़े हो गए तो अर्जुन खिन्न हो गए, उन्हें अपने पर क्षोभ होने लगा. अर्जुन ने कहा, ‘‘मैं अपने कुल को मार कर परमकल्याण नहीं देखता हूं.’’ उन का कहना था, ‘‘इस युद्ध में आचार्य, ताऊ, चाचा, पोते, साले समस्त संबंधी हैं. मैं इन सब को नहीं मारना चाहता.’’

यह उन का सिबलिंग प्रेम था जो बचपन में साथ रहने से विकसित हुआ पर वयस्क होतेहोते वे अलगअलग हो गए. समझदारी का काम होता अगर भाईभाई मारने को तैयार न होते. पर ऐसा नहीं हुआ. कृष्ण ने गीता में जो उपदेश दिया वह सिबलिंग प्रेम के विरुद्ध ही था पर आज भी वही उपदेश हमारे लिए आदर्श है. गीता में अर्जुन को कहा गया है कि कोई तेरा सगा नहीं, कोई बंधु नहीं, कोई पिता नहीं. तू अपना कर्म कर, अपना अधिकार जता, युद्ध कर.

यह भाव आज सदियों बाद भी हमारे यहां घरघर में मौजूद है. हमारे यहां आज भी संयुक्त परिवार में, संपत्ति कानून के अनुसार, एक भाई के पैदा होते ही पहले हुए भाई या भाइयों का हिस्सा घट जाता है. जैसे ही बच्चे समझदार होने लगते हैं और उन्हें पिता चाचा, ताऊ के विवादों के बारे में पता चलने लगता है वैसे ही उन्हें एहसास होने लगता है कि संपत्ति के बंटवारे में एक ही मां के पुत्र एकदूसरे के प्रतिद्वंद्वी हैं, उन में महाभारत जैसा युद्ध होगा. हालांकि महाभारत में युद्ध एक ही मां के बेटों के बीच नहीं था पर उस का नाकाम भाव यही है कि दूसरे का हक छीनो और अपने हक के लिए लड़ो. आज भारत में भाईभाई के अधिकांश विवाद संयुक्त परिवार की संपत्ति को ले कर ही हैं.

हमारे यहां बेटियों को कभी परिवार का हिस्सा नहीं माना गया. इसीलिए सहोदर शब्द का इस्तेमाल बहुत कम होता है. मातृप्रेम होता है, बहन की रक्षा करना होता है पर भाईबहन दोनों को एक ही मां से एक सैक्सक्रिया से पैदा होने के बावजूद बराबर नहीं समझ जाता. सहोदर शब्द को शब्दकोशों में ढूंढें़गे तो इस का मतलब पहले सगा भाई बताया जाएगा, फिर बहन भी उस में जोड़ी जाएगी. अमरकोश हिंदी शब्दकोश सहोदर की अपनी परिभाषा देते हुए कहता है, ‘जो एक ही माता के गर्भ से उत्पन्न हुए हों. उदाहरण, संपत्ति ऐसी चीज है जो सगे भाइयों में खटास पैदा कर देती है’, ‘सदोहर’ शब्द में, शब्दकोश के अनुसार, बहन को चलतेचलते सम्मिलित किया जाता है.

यही आज के सिबलिंगों के आपसी मतभेदों की जड़ है. भाईबहन का प्रेम भाई को बहन की रक्षा करना है मानो वह संपत्ति है. भाई की भाई की रक्षा करने की जिम्मेदारी की कोई बात नहीं होती. बहनें एकदूसरे की रक्षा करें, ऐसी कहानियां नहीं सुनाई जातीं.

आज आवश्यकता है भाईबहन के प्रेम की परिभाषाएं लिखने की. अमेरिका में भी, जहां गीता का उपदेश एक मां के बच्चे भाइयों के प्रति प्रेम के ऊपर भाग्य, कर्म, आत्मा का जाल नहीं बुनता, मनोवैज्ञानिकों की शिकायत है कि भाइयों और भाईबहनों पर कम रिसर्च होती है. एक संभावना यह है कि बाइबिल की पहली ही कथा में स्वयं गौड एक बेटे को दूसरे बेटे से ज्यादा प्यार करता है जिस कारण केन और एबल के विवाद में एक, दूसरे को मार बैठता है. पश्चिम के ईसाई धर्म प्रचारक इस कहानी को बड़े गर्व से सुनाते हैं पर वे अपरोक्ष रूप में भाईभाई के प्रति एक प्रतियोगिता का भाव पैदा कर देते हैं जबकि आज के मनोवैज्ञानिक व समाजशास्त्री कहते हैं कि भाई या बहन सब से निकट रहते हैं.

असल में जो रिश्ता सहोदर भाईभाई, भाईबहन या बहनबहन में होता है, वह अपनी संतानों के अलावा किन्हीं दूसरों में नहीं हो सकता. जब लोग वयस्क होते हैं, जिम्मदारियां सिर पर आती हैं तब न मातापिता कुछ करने लायक रहते हैं, न अपनी संतान. उस समय अगर कोई काम आ सकता है तो वह सहोदर है, सिबलिंग है, हालांकि समाज आज उसे वह स्थान नहीं देता जो दिया जाना चाहिए.

एक सिबलिंग सब से बड़ी ह्यूमन संपत्ति है. यह ऐसा फिक्स्ड डिपौजिट है जो हर आपत्ति में भुनाया जा सकता है. इस संबंध को उत्तरदायित्व और प्रतिद्वंद्वी न समझ जाए, यह बनाया नहीं जाता, बनाबनाया मिलता है. पति या पत्नी चुने जाते हैं, बच्चे हों या न, यह अपनी इच्छा पर निर्भर है पर जब जनसंख्या घट रही हो, घर छोटे हो रहे हों तब ये सिबलिंग ही हैं जो सदा पुरानी यादों के सहारे एक स्थायी स्तंभ होते हैं, एक ऐसा ठोस सहारा जिस पर निर्भर रहा जा सकता है.

शिक्षा के नाम पर धर्मप्रचार क्यों ?

हाल ही में हुए दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के चुनाव में भाजपा की स्टूडैंट्स शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की तरफ से 3 पदाधिकारी चुने गए. उन्होंने गणेश चतुर्थी को हवनपूजन किया. आधुनिक शिक्षा के इस तार्किक और वैज्ञानिक पाठयक्रमों वाले विश्वविद्यालय के छात्रसंघ की इस पाखंडबाजी को देख कर किसी को आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि अब तो यह परपंरा बन गई है कि साइंस अधिवेशन की शुरुआत भी पूजन या अग्नि से की जाती है और सारे वैज्ञानिक नतमस्तक हो कर किसी देवी या देवता का आशीर्वाद मांगते हैं.

कुछ वर्षों पहले भाजपा की केंद्र में सरकार बनने से पहले मेरठ विश्वविद्यालय में संस्कृत भाषा विभाग की तरफ से व्यास समारोह किया गया था. इस की शुरुआत में मंदिर से शोभायात्रा निकाली गई थी. मंत्रों के साथ व्यास बने भगवा वेशधारी का तिलक किया गया था.

बाद में सती विवाह, पार्वती के तप की परीक्षा आदि शिवपुराण की कथाएं बांची गईं. कोटद्वार के सिद्धबली मंदिर में जा कर पूर्जाअर्चना की गई. ओम नम: शिवाय और नवधा भक्ति आदि के बारे में प्रवचन हुए और इस तरह से यह आयोजन पूरी तरह से धार्मिक रंग में रंगा रहा. आयोजक खुश हो कर अपनी पीठ खूब थपथपाते रहे. इस तरह का जलसा हर साल किया जाता है.

यह घटना किसी मदरसे की नहीं,  नामी यूनिवर्सिटी की थी. यदि अनपढ़, गंवार लोग पिछड़ेपन की हिमायत करें तो कोई हैरत नहीं होती क्योंकि उन का जेहन, उन की अक्ल व सोच ही पीछे होती है. अफसोस तो तब होता है जब पढ़ेलिखे, तरक्कीयाफ्ता भी रूढि़यों के शिकार होते दिखाई देते हैं और अनापशनाप सलाहमशवरे देने लगते हैं.

मेरठ में जैविक खेती बढ़ाने पर एक जलसा हुआ था. उस में कृषि के कई बड़ेबड़े माहिर आए थे. हवा, पानी, मिट्टी को खराबी से बचाने पर चंद्रशेखर आजाद कृषि विश्वविद्यालय, कानपुर के एक प्रोफैसर ने वहां कहा था, ‘‘रोज सुबहशाम हवन करने से आसपास की 800 घनफुट की हवा साफ व शुद्ध होती है.’’

तार्किकता की कमी

क्या ऐसी बातों से कभी रूढि़यां मिटेंगी, लोगों की सोच सुल?ोगी, उन का नजरिया बेहतर हो सकेगा या धर्म का प्रचार होगा? पुरानी धार्मिक मान्यताओं की वजह से चेचक को आज भी हमारे देश में माता कहा जाता है. रोगी को दवा की जगह शीतला माता का प्रसाद खिलाया जाता है, टोनाटोटका किया जाता है. प्रधानमंत्री नए संसद भवन का उद्घाटन दलित आदिवासी राष्ट्रपति से न करा कर पंडेपुजारियों से कराते हैं और संविधान की धज्जियां खुलेआम उड़ाते हैं.

नईनई तकनीकों के कारण शहरों में हुई तरक्की साफ दिखाई देती है. फिर भी साइंस की बातें ज्यादातर लोगों के गले आसानी से नहीं उतरतीं. यह कमी तो हमारी शिक्षा में कमजोरी की वजह से है. अब धीरेधीरे अस्पतालों में भी पूजापाठ जोरशोर से होने लगा है. इस में सारे डाक्टर भी भाग लेते हैं.

मदरसों में तो दीनी तालीम ही दी जाती है. कुरआन पढ़ना सिखाया जाता है. इसलिए गैरमुसलिम बच्चे वहां दाखिला नहीं लेते. बाकी के आम हिंदूमुसलिम मिश्रित स्कूलों में भी तो पढ़ाई की शुरुआत ईश्वर की प्रार्थना से ही होती है. पाठ्य पुस्तकों में धर्म की किताबों के हिस्से शामिल हैं. नई एजुकेशन पौलिसी में संस्कृति का नाम बारबार लिया गया है.

स्कूलकालेजों में धार्मिक गतिविधियां भी होती रहती हैं. ऐसेऐसे आयोजन होते हैं जिन का शिक्षा से कोई लेनादेना नहीं है. बरेली और मेरठ के 2 प्राइवेट कालेज ऐसे हैं जिन में एमबीए और इंजीनियरिंग आदि के कोर्स पढ़ाए जाते हैं. इन दोनों में कई दिनों तक लगातार धार्मिक कथा और प्रवचन कराए गए थे व इस के लिए कई नामी स्वामी बुलाए गए थे.

शिक्षा और धर्मप्रचार

राजकाज में लगे हमारे नेताओं व अफसरों को अब यह देखने की फुरसत ही फुरसत है कि हमारी शिक्षा को कैसे 110वीं सदी का बनाया जाए. पाठ्यक्रम की विषयवस्तु और उसे पढ़ाने का तरीका धर्म की घुसपैठ से भरा जा रहा है.

शिक्षा के जरिए धर्मप्रचार की घटनाएं बहुत होने लगी हैं. लेकिन उस से होने वाला जहरीला असर बहुत ज्यादा होता है और यह बहुत बाद में पता चलता है. शासन, प्रशासन व संघ ऐसे मुद्दों से अपनी आंखें हर समय चौकन्नी रखते हैं कि कहीं लोगों की धार्मिक भावनाएं कम न हो जाएं, वे तार्किक शिक्षा न पाने लगें. यही वजह है कि हमारे देश में अशिक्षा, अंधविश्वास, गरीबी व गंदगी जैसी समस्याएं दूर होने का नाम ही नहीं लेतीं. शिक्षा दे रहे विद्यालयों की जिम्मेदारी बढ़ गई है, वे साइंस भी पढ़ाते हैं और अंधविश्वास भी सिखाते हैं.

शिक्षा के मंदिर कहे जाने वाले हमारे स्कूलकालेज धर्मप्रचार करने के स्थल भी बन गए हैं. हमारी शिक्षा से जुड़ी हुई तमाम बातें बच्चों व उन के मांबापों के मन में धार्मिक भाव पैदा कर रही हैं. उन्हें बढ़ावा दे रही हैं. हमारे विद्यालयों में भूमिपूजन, हवन आदि आयोजन किए जाते हैं ताकि धर्म का प्रचार होता रहे. मजहबी बातों की घुट्टी जोर से पिलाई जा रही है, ऐसी घुट्टी कि जिस से अंधविश्वासों को बढ़ावा मिलता रहे.

धर्म के नाम पर धंधा

धर्म और संस्कृति की रक्षा के नाम पर अपना धंधा चलाने वाले भले ही कुछ कहें, सरकारें चलाएं, चुनाव पर चुनाव जीतें लेकिन यदि देखा जाए तो धर्म ने इंसान को दिया क्या है? आपसी भेदभाव, भाग्यवाद, लड़ाईझगड़े, मारकाट, अलगाव, गंडेतावीज, पुराने रीतिरिवाज, दिखावा, तंत्रमंत्र, ढोंग, पाखंड, टोनेटोटके, अंधविश्वास और कट्टरता धर्म के साथ जुड़े हैं.

हर आर्किटैक्ट वास्तु की बात करता है. पंडितों से शुभ समय दिखवा कर रौकेट छोड़े जाते हैं. धर्म के ठेकेदार अपनेअपने धर्म को सब से अच्छा व ऊंचा बताते हैं और वे अब महलों में, एयरकंडीशंड कमरों में रहते हैं. वे लोगों को भड़काते हैं, आपस में लड़ाते हैं और तरहतरह से धर्मप्रचार करते हैं. भारत और कनाडा का मतभेद इसी का नतीजा है. पढ़ने वाले बच्चों की रगरग में धार्मिकता भर दी गई है जिसे राष्ट्रीय जीवन मूल्यों की सीख का नाम देते हैं. सेना तक में धर्मशिक्षकों के पदों पर बाकायदा भरती की जाती है. पंडित, ग्रंथी व पादरी को नौकरी दी जाती है जो धार्मिक अनुष्ठान व धर्मग्रंथों का पाठ करते हैं व उपदेश देते हैं.

समाज में सदियों से फैली रूढि़यों, जहालत व नासमझ को दूर करने के लिए आज धर्मप्रचार की नहीं, शिक्षा और विज्ञान के प्रसार की जरूरत है, सफाई व सेहत की जरूरत है, कमाई व मेहनत की जरूरत है.

निकम्मे, निठल्ले तकदीर का रोना रोते रहते हैं. वे भगवान की कृपा और चमत्कारों की उम्मीद करते हैं, क्योंकि धर्मप्रचार कर के लगातार लोगों को यही बताया व सिखाया जाता रहा है. धर्मप्रचारक समाज का नहीं, अपना फायदा व मतलब देखते हैं. वे अपनी पकड़ ढीली नहीं होने देना चाहते, इस के लिए वे मीडिया में भी बने रहते हैं और शिक्षण संस्थाओं के इंतजाम व संचालन में भी. आजकल तो सारे टीवी चैनल भी धर्मप्रचार में लगे हुए हैं.

सिर्फ प्राइवेट टीवी चैनल ही नहीं, सरकारी दूरदर्शन भी तो धार्मिक सीरियल दिखाने में कभी पीछे नहीं रहा. 30 वर्ष पहले जब दूरदर्शन शुरू हुआ था तो इस के 3 मकसदों में शिक्षा पहले नंबर पर और सूचना व मनोरंजन उस के बाद थे.

चंद अपवादों को छोड़ कर हमारे समाज में धर्म पूरी तरह से रचाबसा है. इसलिए शिक्षा व संचार के माध्यम दूरदर्शन ने भी बहती गंगा में अच्छी तरह से खूब हाथ धोए और रामायण व महाभारत के बाद कईर् धार्मिक सीरियल दिखाए. तब तो कांग्रेसी सरकारें थीं. उन्होंने जो बीज बोए, उन के फल अब भाजपाई खा रहे हैं.

विज्ञापनों से संचार माध्यमों ने तगड़ी कमाई की. चाहे धर्म हो या उस का प्रचार, ये कमाई का जरिया तो हैं ही. इस से नुकसान धर्मप्रेमी भक्तों व अंधविश्वासी श्रद्धालुओं का होता है क्योंकि वे इसे ही तरक्की का एकमात्र रास्ता मानते हैं.

नुकसान ही नुकसान

स्कूलकालेजों में पढ़ाने वाले ज्यादातर शिक्षक भी उन बातों की वकालत करते हैं जो साधुसंत बताते हैं या धर्म की किताबों में लिखी हैं. गुरु लोग तो खुद अंधविश्वासों को भुनाते रहे हैं. इसलिए आबादी का बड़ा हिस्सा आज भी पुरानी जंजीरों में जकड़ा व उलझ हुआ है. रोशनी की मीनार कहे जाने वाले हमारे विद्यालयों में यदि धार्मिकता व धर्मग्रंथों के किस्से पढ़ाएसिखाए जाएंगे तो धर्मप्रचार तो होगा ही.

घरों में तो यह सब होता ही है. विद्यालयों में दी जाने वाली शिक्षा में यह सब नहीं होना चाहिए क्योंकि इस से मन में अंधविश्वास की परतें मोटी होती हैं और फिर वे जल्दी से हट नहीं पाती हैं, क्योंकि जड़ें गहरी हो जाती हैं जो दिलदिमाग तक छा जाती हैं.

वैज्ञानिक माहौल तैयार करने की जरूरत

धर्मप्रचार में बढ़ोतरी इसलिए और भी ज्यादा गंभीर व खतरनाक है क्योंकि नई पीढ़ी का रुझन विज्ञान में घट रहा है. इस घटते झकाव से वैज्ञानिक संस्थानों में प्रतिभाओं की कमी रहती है. देश में आज भी विज्ञानी कैडर नहीं हैं. विज्ञानी संगठनों में बहुत अच्छे वेतनमान भी नहीं हैं. नतीजतन, विज्ञान में दिलचस्पी घट रही है. सो विज्ञान का माहौल तैयार करने की जरूरत है.

भौतिक रिसर्च लैब की 75वीं सालगिरह के मौके पर बोलते हुए 11 नवंबर, 2006 को तब के राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम ने अहमदाबाद में यह चिंता जाहिर की थी. हालांकि, वे खुद कम अंधविश्वासी नहीं थे और धर्मों की एक माला बनाने का सपना देख रहे थे, तभी भाजपा को प्रिय थे.

यदि चमकते शहरों सी दमकती तरक्की पिछड़े गांवों, कसबों तक पहुंचानी है तो धर्मप्रचार छोड़ कर शिक्षा और विज्ञान का उजाला फैलाना होगा. कथा,  सत्संगों,  तीर्थों,  मंदिरों में भोज व मौज करते मुफ्तखोरों से छुटकारा पाना होगा. सोच तभी सुधरेगी, तरक्की की राह के रोड़ेपत्थर हटेंगे व खाईगड्ढे भरेंगे भी. तब ही लोग दिमाग व मेहनत से काम करेंगे, खासा कमाएंगे व जिंदगी सुख से जिएंगे.

बेमतलब की बातों से सिर्फ मक्कारों, मतलबपरस्तों व मुफ्तखोरों का भला होता है. इसलिए धर्म की दुहाई दे कर बरसों राज करने का सपना देखने वालों की देश की जनता ने बुरी गत बना दी थी. बेहतरी के लिए धर्मप्रचार नहीं बल्कि शिक्षा, सूझबूझ, मेहनत व पैसा जरूरी है.

लेकिन फिलहाल लगता है कि प्रगति का मतलब मंदिर, मठ, घाट, गुरुद्वारे बनाना रह गया है. ईसाई और मुसलिम तो फिलहाल अपने पूजास्थलों को बस ठीकठाक कर पा रहे हैं जहां उन का राज है वहां का हाल ऐसा ही है. संघ जो यहां कर रहा है वही कैथोलिक देशों में किया जा रहा है और वही इसलामी मध्य एशिया में.

कानून बनाम कानून

इंग्लिश और हिंदी के नाम हटा व संस्कृत के नाम लगा कर भारतीय न्याय संहिता कानून, भारतीय सुरक्षा संहिता कानून और भारतीय साक्ष्य कानून को सरकार ने बिना बहस किए, बिना वकीलों और जजों की राय जाने और संसद में विपक्ष की गैरमौजूदगी में इंडियन पीनल कोड 1860, क्रिमिनल प्रोसीजर कोड 1882 व इंडियन एविडैंस एक्ट 1872 की जगह बना कर ब्रिटिश राज की देन को समाप्त करने का वादा कर डाला है.

ये नए कानून कुछ महीनों बाद नोटीफाई होंगे जब इन के नियम भी बन जाएंगे. अगर नियम बनने में देर लगी तो कानूनों को लागू करने में महीनों की जगह वर्षों लग सकते हैं.

भाजपा सरकार द्वारा संसद में चाहे कुछ भी दावा किया गया हो, ये कानून किसी भी तरह ब्रिटिश राज में बने कानूनों से अलग नहीं हैं. छोटेमोटे बदलाव तो पहले भी होते रहे हैं पर अब नाम बदल कर भगवा सरकार ने साबित यह करना चाहा है कि नया युग आ गया है क्योंकि इन कानूनों के संस्कृतनिष्ठ भाषा में नाम ही अब इंग्लिश में भी इस्तेमाल किए जाएंगे.

इन कानून से क्रिमिनल न्याय में कोई खास बदलाव नहीं आएगा. अपराध भी उसी तरह होंगे, सजाएं भी उसी तरह से मिलेंगी. जजों के कुछ पद बदले गए हैं पर 90-95 फीसदी ये कानून पिछले कानूनों की तरह के हैं.

पिछले कानूनों की आलोचना करने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि पिछले कानूनों, खासतौर पर क्रिमिनल प्रोसीजर कोड में एक क्रांति लाई गई थी. तब ब्रिटिश सरकार ने अपने ही हाथ काट कर गोरे पुलिस अफसरों के हाथ काट दिए थे और उन कानूनों में पुलिस पर सैकड़ों पाबंदियां लगाई थीं. इंडियन पीनल कोड ने सजा को अपराध से जोड़ दिया था और कोतवाल, जिलाधीश, गवर्नर या गवर्नर जनरल की मनमानी पर रोक लगा दी थी.

अंगरेजों के कानूनों के पहले हमारे देश में अपराधों पर सजा देने का मनमाना हक इलाके के छोटे से राजा से ले कर सम्राट तक का होता था. उन के पास कोई किताब नहीं थी, कोई विधिवत अदालत नहीं थी जो राजा या ठाकुर की मनमरजी के खिलाफ जनता को न्याय दे सके.

एक तरह से पहले की अराजकता को अंगरेजों ने खुद ही अपने कानूनों से समाप्त कर अपराधों पर सजा देने का काम सुबूतों, गवाही और गवाहों के अनुसार करना शुरू कर दिया था. उन्होंने भीड़ का कानून या पंचायत का कानून या राजा का कानून नहीं, लिखित कानून लागू किया था. हमारे पौराणिक कानून में तो श्रवण कुमार की हत्या करने पर दशरथ को सजा नहीं मिली पर दुर्वासा को नाराज करने पर लक्ष्मण को सब से कठोर सजा मिली थी. पौराणिक कहानियों के हवाले से गांवगांव में वही कानून चलते थे.

जुर्म करने वालों को खौलते तेल में हाथ डालने या आग में गुजरने वाली अंतिम परीक्षा जैसे कानून गांवों के अनपढ़ चौधरी ही नहीं लागू करते थे, राजा भी ऐसा करते थे.

नए कानूनों में मूलभूत बदलाव नहीं लाया गया है क्योंकि वह बदलाव ही अच्छा होता जो पुलिस के अधिकार कम करता और जनता के, चाहे वह अपराधी क्यों न हो, अधिकार बढ़ाता. नाम बदलने, पुतले बैठाने की संस्कृति से ढोल पीटे जा सकते हैं पर जनता को सुखी नहीं किया जा सकता.

26 January Special : नागरिकता बिल- देश में क्यों हो रहा था विरोध ?

देश के कुछ हिस्सों में इस बिल का पुरजोर विरोध हुआ था और कुछ हिस्सों में जम कर स्वागत भी हो रहा था.

मीडिया वाले लगातार इस अहम खबर पर नजरें गड़ाए हुए थे और पिछले कई दिनों से वे इसी खबर को प्रमुखता से दिखा रहे थे.

रजिया बैठी हुई टैलीविजन पर यह सब देख रही थी. उस की आंखों में आंसू तैर गए. खबरिया चैनल का एंकर बता रहा था कि जो मुसलिम शरणार्थी भारत में रह रहे हैं, उन को यहां की नागरिकता नहीं मिल सकती है.

‘क्यों? हमारा क्या कुसूर है इस में… हम ने तो इस देश को अपना सम झ कर ही शरण ली है… इस देश में सांस ली है, यहां का नमक खाया है और आज राजनीति के चलते यहां के नेता हमें नागरिक मानने से ही इनकार कर रहे हैं. हमें कब तक इन नेताओं के हाथ की कठपुतली बन कर रहना पड़ेगा,’ रजिया बुदबुदा उठी.

रजिया सोफे से उठी और रसोईघर की खिड़की से बाहर  झांकने लगी. उस की आंखों में बीती जिंदगी की किताब के पन्ने फड़फड़ाने लगे.

तब रजिया तकरीबन 20 साल की एक खूबसूरत लड़की थी. उस की मां बचपन में ही मर गई थी. बड़ी हुई तो बाप बीमारी से मर गया. उस के देश में अकाल पड़ा, तो खाने की तलाश में भटकते हुए वह भारत की सरहद में आ गई और शरणार्थियों के कैंप में शामिल हो गई थी. भारत सरकार ने शरणार्थियों के लिए जो कैंप लगाया था, रजिया उसी में रहने लगी थी.

पहलेपहल कुछ गैरसरकारी संस्थाएं इन कैंपों में भोजन वगैरह बंटवाती थीं, पर वह सब सिर्फ सोशल मीडिया पर प्रचार पाने के लिए था, इसलिए कुछ समय तक ही ऐसा चला. कुछ नेता भी इन राहत कैंपों में आए, पर वे भी अपनी राजनीति चमकाने के फेर में ही थे. सो, वह सब भी चंद दिनों तक ही टिक पाया.

शरणार्थियों को आभास हो चुका था कि उन्हें अपनी आजीविका चलाने के लिए कुछ न कुछ तो करना पड़ेगा. जिन के पास कुछ पैसा था, वे रेहड़ीखोमचा लगाने लगे, तो कुछ रैड सिगनलों पर भीख मांगने लगे. कुछ तो घरों में नौकर बन कर अपना गुजारा करने लगे.

एक दिन शरणार्थी शिविर में एक नेताजी अपना जन्मदिन मनाने पहुंचे. उन के हाथों से लड्डू बांटे जाने थे. लड्डू बांटते समय उन की नजर सिकुड़ीसिमटी और सकुचाई रजिया पर पड़ी, जो उस लड्डू को लगातार घूरे जा रही थी.

नेताजी ने रजिया को अपने पास बुलाया और पूछा, ‘लड्डू खाओगी?’

रजिया ने हां में सिर हिलाया.

‘मेरे घर पर काम करोगी?’

रजिया कुछ न बोल सकी. उस ने फिर हां में सिर हिलाया.

‘विनय, इस लड़की को कल मेरा बंगला दिखा देना और इसे कल से काम पर रख लो. सबकुछ अच्छे से सम झा भी देना,’ नेताजी ने रोबीली आवाज में अपने सचिव विनय से कहा.

‘आखिरकार जनता का ध्यान हम नेताओं को ही तो रखना है,’ कहते हुए नेताजी ने एक आंख विनय की तरफ दबा दी.

विनय को नेताजी की बात माननी ही थी, सो वह अगले दिन रजिया को उन के बंगले पर ले आया और उसे साफसफाई का सारा काम सम झा दिया.

रजिया इतने बड़े घर में पहली बार आई थी. चारों तरफ चमक ही चमक थी. वह खुद भी आज नहाधो कर आई थी. कल तक जहां उस के चेहरे पर मैल की पपड़ी जमी रहती थी, वहां आज गोरी चमड़ी दिख रही थी. विनय को भी यह बदलाव दिखाई दिया था.

विनय ने रजिया को खाना खिलाया. पहले तो संकोच के मारे रजिया धीरेधीरे खाती रही, पर उस की दुविधा सम झ कर जैसे ही विनय वहां से हटा, रजिया दोनों हाथों से खाने पर जुट गई और उस ने अपना मुंह तब ऊपर किया, जब उस के पेट में बिलकुल जगह न रह गई. उस का चेहरा भी अब उस के पेट के भरे होने की गवाही दे रहा था.

अब रजिया नेताजी के बंगले पर दिनभर काम करती और शाम ढले कैंप में वापस चली जाती.

यों ही दिन बीतने लगे. रजिया का काम अच्छा था. धीरेधीरे उस ने शाम को शरणार्थी कैंप में जाना भी छोड़ दिया. वह शाम को नेताजी के बंगले में ही कहीं जमीन पर सो जाती थी.

आज नेताजी के घर में जश्न का माहौल था, क्योंकि चुनाव में उन्होंने बड़ी जीत हासिल की थी. नीचे हाल में चारों तरफ सिगरेट के धुएं की गंध थी. शराब के दौर चल रहे थे. जश्न देर रात तक चलना था, इसलिए विनय ने रजिया से खाना खा कर सो जाने के लिए कहा और खुद नेताजी के आगेपीछे डोल कर अपने नमक का हक अदा करने लग गया.

नेताजी के कई दोस्त उन से शराब के साथ शबाब की मांग कर रहे थे. जब इस मांग ने जोर पकड़ लिया, तो नेताजी ने धीरे से रजिया के कमरे की तरफ इशारा कर दिया.

ऊपर कमरे में रजिया सो रही थी. देर रात कोई उस के कमरे में गया, जिस ने उस का मुंह दबाया और अपने शरीर को उस के शरीर में गड़ा दिया.

बेचारी रजिया चीख भी नहीं पा रही थी. एक हटा तो दूसरा आया. न जाने कितने लोग थे, रजिया को पता ही न चला. वह बेहोश हो गई और शायद मर ही जाती, अगर विनय सही समय पर न पहुंच गया होता.

विनय ने रजिया को अस्पताल में दाखिल कराया. वह गुस्से से आगबबूला हो रहा था, पर क्या करता, नेताजी के अहसान के बो झ तले दबा जो हुआ था.

‘इन के पति का नाम बताइए?’ नर्स ने पूछा.

‘जी, विनय रंजन,’ विनय ने अपना नाम बताया.

नाम बताने के बाद एक पल को विनय ठिठक गया था.

‘मैं ने यह क्यों किया? पर क्यों न किया जाए?’ उस ने सोचा. आखिर उस की शरण में भी पहली बार कोई लड़की आई थी.

विनय उस समय छोटा सा था, जब उस के मम्मीपापा एक हादसे में मारे गए थे. तब इसी नेता ने उसे अनाथालय में रखा था और उस की पढ़ाई का खर्चा भी दिया था.

नेताजी के विनय के ऊपर और बहुत से अहसान थे, पर उन अहसानों की कीमत वह इस तरह चुका तो नहीं सकता.

रजिया की हालत में सुधार आ रहा था. वह कुछ बताती, विनय को इस की परवाह ही नहीं थी, उस ने तो मन ही मन एक फैसला ले लिया था.

अपने साथ कुछ जरूरी सामान और रजिया को ले विनय ने शहर छोड़ दिया.

बस में सफर शुरू किया तो कितनी दूर चले गए, उन्हें कुछ पता नहीं था. वे तो दूर चले जाना चाहते थे, बहुत दूर, जहां शरणार्थी कैंप और उस नेता की गंध भी न आ सके.

और यही हुआ भी. वे दोनों भारत के दक्षिणी इलाके में आ गए थे और अब उन को अपना पेट भरने के लिए एक अदद नौकरी की जरूरत थी.

विनय पढ़ालिखा तो था ही, इसलिए उसे नौकरी ढूंढ़ने में समय न लगा. नौकरी मिली तो एक घर भी किराए पर ले लिया.

रजिया भी सदमे से उबर चुकी थी, पर विनय उस से कभी भी उस घटना का जिक्र न करता और न ही उस को याद करने देता.

रजिया का हाथ शिल्प वगैरह में बहुत अच्छा था. एक दिन उस ने एक छोटा सा कालीन बना कर विनय को दिखाया.

वह कालीन विनय को बहुत अच्छा लगा और उस ने वह कालीन अपने बौस को गिफ्ट कर दिया.

‘अरे… वाह विनय, इस कालीन को रजिया ने बनाया है. बहुत अच्छा… घर में आसानी से मिलने वाली चीजों से बना कालीन…

‘क्यों न तुम ऐसे कालीनों का एक कारोबार शुरू कर दो. भारत में बहुत मांग है,’ बौस ने कहा.

‘अरे… सर… पर, उस के लिए तो पैसों की जरूरत होगी,’ विनय ने शंका जाहिर की.

‘अरे, जितना पैसा चाहिए, मैं दूंगा और जब कारोबार चल जाएगा, तब मु झे लौटा देना,’ बौस जोश में था.

विनय ने नानुकर की, पर उस का बौस एक कला प्रेमी था. उस ने खास लोगों से बात कर विनय का एक छोटा सा कारखाना खुलवा दिया.

फिर क्या था, रजिया कालीन का मुख्य डिजाइन बनाती और कारीगर उस को बुनते. कुछ ही दिनों में विनय का कारोबार अच्छा चल गया था और जिंदगी में खुशियां आने लगीं.

डोरबेल की तेज आवाज ने रजिया का ध्यान भंग किया. दरवाजा खोला तो सामने विनय खड़ा था. उसे देखते ही रजिया उस के सीने से लिपट गई.

‘‘अरे बाबा, क्या हुआ?’’ विनय ने चौंक कर पूछा.

‘‘कुछ नहीं विनय. मैं इस देश में शरणार्थी की तरह आई थी, उस नेता ने मु झे सहारा दिया. वहां भी तुम ने साए की तरह मेरा ध्यान रखा, पर उस जश्न वाली रात को नेता के साथियों ने मेरे साथ बलात्कार किया. न जाने कितने लोगों ने मु झें रौंदा, मु झे तो पता भी नहीं, फिर भी तुम ने इस जूठन को अपनाया. तुम महान हो विनय. मु झ से वादा करो कि तुम मु झे कभी नहीं छोड़ोगे.’’

‘‘पर, आज अचानक से यह सब क्यों पगली. मेरा भी तो इस दुनिया में तुम्हारे सिवा कोई नहीं है. उस नेता के कई अहसान थे मुझ पर, सो मैं सामने से उस से लड़ न सका, पर तुम को उन भेडि़यों से बचाने के लिए मैं ने नेता को भी छोड़ दिया, लेकिन आज अचानक बीती बातें क्यों पूछ रही हो रजिया?’’ विनय ने रिमोट से टैलीविजन चालू करते हुए पूछा.

‘‘वह… दरअसल, नागरिकता वाले कानून के तहत भारत में सिर्फ हिंदू शरणार्थियों को ही नागरिकता मिल सकती है और मैं तो हिंदू नहीं विनय. आज यह कानून आया है, अगर कल को यह कानून आ गया कि जो शरणार्थी जहां के हैं, उसी देश वापस चले जाएं तब तो मु झे तुम को छोड़ कर जाना होगा. इस मुई राजनीति का कुछ भरोसा नहीं,’’ कहते हुए रजिया रो पड़ी.

‘‘अरे पगली, तुम इतना दिमाग मत लगाओ. अब तुम्हें मेरी जिंदगी ने नागरिकता दे दी है, तब किसी देश के कागजी दस्तावेज की जरूरत नहीं है तुम्हें. जोकुछ होगा, देखा जाएगा और फिर जब हम दोनों शादी कर लेंगे, तो भला तुम को यहां का नागरिक कौन नहीं मानेगा,’’ कहते हुए विनय ने रजिया की पेशानी चूमते हुए कहा.

उस समय रजिया और विनय की आंखों में आंसू थे.

26 January Special : फौजी – मेजर परम ने आखिर किस तरह अपना फर्ज निभाया ?

परम उस समय ड्यूटी पर था जब उसे पता चला कि वह बाप बनने वाला है. पत्नी तनु से फोन पर बात करते हुए परम का गला खुशी से भर्रा गया. उसे अफसोस हो रहा था कि वह इस समय तनु के साथ नहीं है. उस ने फोन पर ही ढेर सारी नसीहतें दे डाली कि यह नहीं करना, वह नहीं करना, ऐसे मत चलना, बाथरूम में संभल कर जाना.

कश्मीर के अतिसंवेदनशील इलाके में तैनात पैरा कमांडो मेजर परम जो हर समय कदमकदम पर बड़ी बहादुरी और जीवट से मौत का सामना करता है, आज अपने घर एक नई जिंदगी के आने की खुशी में भावुक हो उठा. न जाने कब आंखों में नमी उतर आई. आम लोगों की तरह वह इस समय अपनी पत्नी के पास तो नहीं हो सकता, लेकिन है तो आखिर एक इंसान ही. लेकिन क्या करे किसी बड़े उद्देश्य की खातिर, अपने देश की खातिर अपनी खुशियों की कुरबानियां तो देनी ही पड़ती हैं.

शाम को मेस में जा कर परम ने खुद सब के लिए सेंवइयों की खीर बनाई और सब को खिलाई. उस रात परम की आंखों से नींद कोसों दूर थी. सब कुछ सपने जैसा लग रहा था.

परम बारबार तनु को फोन कर उस से पूछता, ‘‘तनु यह सच है न?’’

तनु को हंसी आ जाती, उस के और तनु के प्यार का अंश. उन का अपना बच्चा.

तनु आज और भी ज्यादा अपनी, और भी ज्यादा प्यारी तथा दिल के और करीब लग रही थी. परम ने सुबह 6 बजे से ही तनु को फोन करना शुरू कर दिया, ‘‘क्या कर रहा है मेरा बच्चा? भूख तो नहीं लगी? जल्दी से ब्रेकफास्ट कर लो, दवा ली?’’

कैलेंडर पर 1-1 कर के तारीखें आगे बढ़ रही थीं और परम के छुट्टी पर जाने के दिन भी करीब आते जा रहे थे. वैसे तो तनु से शादी होने के बाद से परम को हर बार ही छुट्टी पर जाने की जल्दी रहती थी, लेकिन इस बार तो उसे बहुत ही ज्यादा बेचैनी हो रही थी. हर दिन महीने जितना लंबा लग रहा था.

तनु को भी रात देर तक नींद नहीं आती थी. दिन तो फिर भी कट जाता था, लेकिन रात भर वह बेचैनी से करवटें बदलती रहती. परम ने अपनी रात की ड्यूटी लगवा ली. वह रोज रात को 11 बजे से ढाई बजे या 3 बजे तक ड्यूटी करता और पूरी ड्यूटी के दौरान तनु से बातें करता रहता. हर 10-15 मिनट पर वह सिटी बजा कर अगली पोस्ट पर अपने इधर सब ठीक होने की सूचना देता और फिर जब उधर से जवाब आ जाता तो फिर तनु से बातें करने लगता. दोनों काम हो जाते. पत्नी और देश दोनों के प्रति वह पूरी ईमानदारी से अपना फर्ज पूरा कर देता.

3 बजे वह रूम में आता. हाथमुंह धो कपड़े बदल मुश्किल से डेढ़दो घंटे सो पाता कि फिर सुबह उठ रैडी हो कर ड्यूटी जाने का समय हो जाता. फिर सारे दिन की भागादौड़ी. उस की यूनिट के लोग उस की दीवानगी देख कर उस पर हंसते, लेकिन उस की देश और परिवार दोनों के प्रति गहरी निष्ठा देख कर उस की सराहना भी करते.

इधर 2-3 ऐनकाउंटरों में मिलिटैंट्स के मारे जाने के बाद से पूरे सैक्टर में खामोशी सी छाई थी. लेकिन परम को हमेशा लगता रहता कि यह किसी जोरदार धमाके के पहले की शांति हो सकती है. हो सकता है अचानक जबरदस्त हमले का सामना करना पड़े. वह अपनी तरफ से हर समय चौकन्ना रहता. लेकिन पूरा महीना शांति से बीत गया. परम की छुट्टी मंजूर हो गई. अब उस की बेचैनी और ज्यादा बढ़ गई. दिन काटे नहीं कटते.

घर जाने के लिए यूनिट से सवा घंटा बस से जम्मू. जम्मू से ट्रेन पकड़ कर अजमेर और फिर अजमेर से दूसरी ट्रेन पकड़ कर अहमदाबाद पूरे

2 दिन का सफर तय कर वह अहमदाबाद बस स्टैंड पहुंचा.

टैक्सी ले कर 1 बजे अपने घर तनु के सामने खड़ा था.

तनु का चेहरा अपने हाथों में थाम कर

परम ने उस का माथा चूम लिया. 2 मिनट तक वह उसे एकटक देखता रहा. उस का प्यारा चेहरा देख कर परम की पिछले कई महीनों की थकान दूर हो गई, सारा तनाव खत्म हो गया. तनु के साथ जिंदगी एक बार फिर से प्यार भरी थी, खुशनुमा थी.

दूसरे दिन तनु का अल्ट्रासाउंड होना था. परम उसे क्लीनिक ले गया. उस ने डाक्टर से रिक्वैस्ट की कि वह तनु के साथ अंदर रहना चाहता है, जिसे डाक्टर ने स्वीकार लिया. मौनिटर पर परम बच्चे की छवि देखने लगा. खुशी से उस की आंखें भर आईं.

रात में जब दोनों खाना खाने बैठे तो परम को महसूस हो रहा था जैसे वह पता नहीं कितने बरसों के बाद निश्चिंत हो तनु के साथ बैठा है. एकदम फुरसत से. कितना अच्छा लग रहा है… दिमाग में तनाव नहीं… मन में कोई हलचल नहीं. सब कुछ शांत. सुव्यवस्थित ढंग से चलता हुआ. परम ने एक गहरी सांस ली कि काश, जीवन ऐसा ही होता शांत, सुव्यवस्थित, निश्चिंत. बस वह तनु, उन का बच्चा और घर. रात में नीचे किचन में जा कर परम अपने लिए कौफी और तनु के लिए दूध ले आया.

‘‘वहां भी ड्यूटी यहां भी ड्यूटी… आप को तो कहीं पर आराम नहीं है… वहां से इतना थक कर आए हैं और यहां भी चैन नहीं है,’’ तनु दूध का गिलास लेते हुए बोली.

‘‘इस ड्यूटी के लिए तो कब से तरस रहा था. भला तेरे लिए कुछ करने में मुझे थकान लग सकती है क्या?’’ परम प्यार से बोला.

‘‘कितना चाहते हो मुझे?’’ तनु विह्वल स्वर में बोली.

‘‘तू मेरी सांस है. तेरे प्यार के सहारे ही तो जी रहा हूं,’’ परम बोला.

सुबह उठते ही परम ने तनु से पूछा, ‘‘क्या खाएगा मेरा बच्चा आज?’’

‘‘कौर्नफ्लैक्स,’’ तनु बोली.’’

परम ने फटाफट दूध गरम कर उस में बादाम, पिस्ता डाल कर कौर्नफ्लैक्स तैयार कर के चाय की ट्रे के साथ बाहर बगीचे में ले आया. दोनों झूले पर बैठ गए. सुबह की ठंडी हवा चल रही थी. सामने सूरजमुखी के पीले फूलों वाला टी सैट था. साथ में तनु थी और वह पैरा कमांडो जो रातदिन देश की सुरक्षा की खातिर आतंकवादियों का पीछा करते मौत से जान की बाजी खेलता रहता, आज की खुशनुमा सुबह अपने घर पर था.

दोपहर का खाना दोनों ने मिल कर बनाया. छुट्टियों में तनु के साथ ज्यादा से ज्यादा वक्त बिताने के उद्देश्य से परम दोनों समय खाना बनाने में उस की मदद करता. बीच में बिरहा के बादल छंट जाते और प्यार की कुनकुनी धूप दोनों के बीच खिली रहती. दोपहर में वह उसे कोई कौमेडी फिल्म दिखाता, वही उस की पसंद के फल काट कर खिलाता. फिर खाना भी अपने हाथ से परोसता.

‘‘अरे मैं नीचे आ जाती न…. आप ऊपर क्यों ले आए खाना? कितने चक्कर लगाओगे?’’ तनु बोली.

‘‘तुम्हारे लिए अभी बारबार सीढि़यां चढ़नाउतरना ठीक नहीं है, इसलिए मैं खाना ऊपर ही ले आया,’’ परम थाली में खाना परोसते हुए बोला, ‘‘आप का पति आप की सेवा में हाजिर है.’’

‘‘कितनी सेवा करोगे जी?’’

‘‘हम तो सेवा करने के लिए ही पैदा हुए हैं जी. ड्यूटी पर भारत माता की सेवा करते हैं और छुट्टी में पत्नी की,’’ परम तनु को एक कौर खिलाते हुए बोला.

बीचबीच में परम अपनी पोस्टिंग की जगह भी फोन कर वहां के हालचाल पता करता रहता. आखिर वह एक कमांडो था और कमांडो कभी छुट्टी पर नहीं होता. हर बार पोस्टिंग की जगह से फोन आने पर उस का दिल डूबने लगता कि कहीं वापस तो नहीं बुला रहे… कहीं किसी इमरजैंसी के चलते छुट्टी कैंसिल तो नहीं हो गई. कुल 22-23 दिन वह तनु के साथ रह पाता है, उस में भी हर पल मन धड़कता रहता कि कहीं छुट्टी कैंसिल न हो जाए, क्योंकि पैरा कमांडो होने के कारण उस की जिम्मेदारियां बहुत ज्यादा थीं.

परम की छुट्टियां खत्म होने को थीं. अब रोज रात को वह अफसोस से भर जाता कि तनु के साथ का एक और दिन ढल गया.

ऐसे ही दिन सरकते गए. परम रात में गैलरी में खड़ा सोचता रहता कि इस बार तनु को छोड़ कर जाना जानलेवा हो जाएगा. वह इस दौर में पूरा समय तनु के साथ रहना चाहता था. अपने बच्चे के विकास को महसूस करना चाहता था. इस बार सच में उस का जरा भी मन नहीं हो रहा था जाने का. उस ने मन ही मन कामना की कि कम से कम अगली पोस्टिंग ऐसी जगह हो कि वह 2 साल तो अपनी पत्नी और बच्चे के साथ रह पाएं.

परम को एक और चिंता थी. अगर वह 3 महीने बाद फिर से छुट्टी पर आता है, तो अपने बच्चे के जन्म के समय तनु के पास नहीं रह पाएगा. इस का मतलब उसे बीच में छुट्टी लेने से बचना होगा तभी 2 महीनों की इकट्ठी छुट्टी ले पाएगा. यही सब सोच कर वह और परेशान हो जाता. ऐसे हालात में वह बीच के पूरे 5 महीनों तक तनु को देख नहीं पाएगा. वह जिस जगह पर है वहां तनु को किसी भी हालत में ले जाना असंभव है. फिर इस हालत में तो उस का सफर करना वैसे भी ठीक नहीं है, और वह भी इतनी दूर.

एक पुरुष अपने प्यार और फर्ज के बीच कितना बेबस, कितना लाचार हो जाता है. छुट्टी के आखिरी दिन वह सुबह तनु को डाक्टर के यहां ले गया. उस का चैकअप करवाया. सब नौर्मल था. घर आ कर उस ने पैकिंग की. इस बार अपनी पैकिंग के साथ ही उसे तनु के सामान की भी पैकिग करनी पड़ी, क्योंकि अब वह तनु को अकेला नहीं रख सकता. उसे उस के मातापिता के घर पहुंचा कर जाएगा. सामान बैग में भरते हुए उस ने कमरे पर नजर डाली. अब पता नहीं कितने महीनों तक वह अपने घर, अपने कमरे में नहीं रह पाएगा. उस की आंखें भीग गईं. उस ने चुपचाप शर्ट की बांह से आंखें पोंछ लीं.

‘‘क्या हुआ जी?’’ तनु ने तड़प कर पूछा.

‘‘कुछ नहीं,’’ परम ने भरे गले से जवाब दिया.

‘‘इधर आओ मेरे पास,’’ तनु ने उसे अपने पास बुलाया और फिर उस का सिर अपने सीने पर रख कर उस के बाल सहलाने लगी. परम बच्चों की तरह बिलख कर रो पड़ा.

‘‘यह क्या… ऐसे दिल छोटा नहीं करते.

ये दिन भी बीत जाएंगे जी,’’ तनु उसे दिलासा देती रही.

वापस जाते हुए परम ने एक भरपूर नजर अपने घर को देखा और फिर तनु के साथ कार में बैठ गया. तनु के पिता का ड्राइवर उसे बस स्टैंड पहुंचाने आया था. वही वापसी में तनु को अपने मातापिता के घर पहुंचा देगा.

बसस्टैंड पहुंच कर परम ने अपना सामान निकाला और बस में चढ़ा दिया. वह चेहरे पर भरसक मुसकराहट ला कर तनु से बात कर रहा था औैर उसे तसल्ली दे रहा था. तनु अलबत्ता लगातार आंसू पोंछती जा रही थी. लेकिन परम तो पुरुष था न जिसे प्रकृति ने खुल कर रोने और अपना दर्द व्यक्त करने का भी अधिकार नहीं दिया है.

कोई नहीं समझ सकता कि कुछ क्षणों में एक पुरुष कितना असहाय हो जाता है. कितना टूट जाता है अंदर से जब दिल दर्द से तारतार हो रहा होता है और ऊपर से आप को मुसकराना पड़ता है, क्योंकि आप पुरुष हैं जो पौरुषेय और भावनात्मक मजबूती व स्थिरता का प्रतीक है. रोना आप को शोभा नहीं देता.

परम भी तनु को समझाता, सहलाता खड़ा रहा. बस चलने को हुई. बस ड्राइवर ने ऊपर चढ़ने का इशारा किया. तब परम ने तनु को गले लगाया और तुरंत पलट कर बस में चढ़ गया. सीट पर बैठ कर वह तनु को तब तक बाय करता रहा जब तक कि वह आंखों से ओझल नहीं हो गईं.

परम ने अपना मोबाइल निकाला. मोबाइल के पारदर्शी कवर के अंदर एक छोटी सी रंगीन नग जड़ी बिंदी थी जो तनु के माथे से निकल कर न जाने कब रात में तकिए पर चिपक गई थी. परम ने उसे मन से सहेज कर अपने मोबाइल के कवर के अंदर चिपका लिया था. अब यही उस के साथ बिताई यादों का खजाना था जो अगल 3-4 या न जाने कितने महीनों तक उसे संबल देता रहेगा. रात के अंधेरे में अब कोई उस की कमजोरी देखने वाला नहीं था. एक पुरुष को रोते देख कर आश्चर्य करने या हंसने वाला कोई नहीं था. अब वह खुल कर अपनी भावनाएं व्यक्त कर सकता था. जी भर कर रो सकता था… परम मोबाइल कवर के अंदर से झांकती तनु की बिंदी पर माथा रख कर बेआवाज रोने लगा… आंखों से अविरल आंसू बह रहे थे.

अपनी पत्नी से विदा ले कर एक फौजी ने वापस उस दुनिया के लिए यात्रा शुरू कर दी जहां कदमकदम पर सिर पर मौत मंडराती है. जहां से उसे नहीं पता कि वह कभी वापस आ कर पत्नी और बच्चे को कभी देख भी पाएगा या नहीं. बस हर पल जेब में सिंदूर की डिबिया रखे वह कुदरत से कामना करता रहता है कि बस इस बिंदी और उस अजन्मे बच्चे की खातिर उसे वापस भेज देना.

राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ मंदिर दर्शन में क्यों बदल गई ?

भारत जोड़ो न्याय यात्रा के नवें दिन राहुल गांधी असम के नगांव पहुंचे. यहां वह बोर्दोवा में संत श्री शंकरदेव के जन्मस्थल पर दर्शन करने जाना चाहते थे. सुरक्षाबलों ने राहुल और अन्य कांग्रेसी नेताओं को बरगांव में रोक दिया. सुरक्षाबलों से बहस के बाद राहुल और अन्य कांग्रेसी नेता धरने पर बैठ गए. सभी को अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा के बाद 3 बजे मंदिर आने के लिए कहा गया. कांग्रेस के कुछ नेताओं ने राहुल गांधी के मंदिर दर्शन को मुद्दा बना दिया. पुलिस ने गुवाहाटी सिटी जाने वाली सड़क पर बैरिकेडिंग कर दी. इस के बाद कांग्रेस समर्थक पुलिस से भिड़ गए. उन्होंने बैरिकेडिंग तोड़ दी. इस धक्कामुक्की में कइयों को चोटें भी आईं.

राहुल की न्याय यात्रा 18 जनवरी को नगालैंड से असम पहुंची थी. 20 जनवरी को यात्रा अरुणाचल प्रदेश गई, फिर 21 को असम लौट आई. इस के बाद यात्रा 22 जनवरी को मेघालय निकली और मंगलवार को एक बार फिर असम पहुंची. राहुल की न्याय यात्रा 25 जनवरी तक असम में रहेगी. भारत जोड़ो न्याय यात्रा के बारे में राहुल गांधी ने कहा ‘भाजपा देश में आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक अन्याय कर रही है. भारत जोड़ो न्याय यात्रा का लक्ष्य हर धर्म, हर जाति के लोगों को एकजुट करने के साथ इस अन्याय के खिलाफ लड़ना भी है’.

राहुल गांधी मैतेई और कुकी दोनों समुदायों के इलाकों से गुजरे. उन्होंने कांगपोकपी जिले की भी यात्रा की, जहां पिछले साल मई में दो महिलाओं को निर्वस्त्र कर घुमाया गया था. अपनी इस यात्रा के बारे में राहुल गांधी ने कहा था ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा को मणिपुर से शुरू करने की वजह यह है कि मणिपुर में भाजपा ने नफरत की राजनीति को बढ़ावा दिया है. मणिपुर में भाईबहन, मातापिता की आंखों के सामने उन के अपने मरे और आज तक हिंदुस्तान के प्रधानमंत्री मणिपुर में आप के आंसू पोछने, गले मिलने नहीं आए. ये शर्म की बात है.’

मंदिर दर्शन विवाद में फंसी न्याय यात्रा

66 दिनों तक चलने वाली भारत जोड़ो न्याय यात्रा देश के 15 राज्यों और 110 जिलों में 337 विधानसभा और 100 लोकसभा सीटों से हो कर गुजरेगी. इन राज्यों में मणिपुर, नगालैंड, असम, मेघालय, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र शामिल है. राहुल गांधी जगहजगह रुक कर स्थानीय लोगों से संवाद करेंगे. इस दौरान राहुल 6,700 किमी का सफर तय करेंगे.

भारत जोड़ो न्याय यात्रा 20 मार्च को मुंबई में खत्म होगी. मगर इस यात्रा के बीच ही 22 जनवरी को मोदी और योगी सरकार द्वारा आयोजित अयोध्या के राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा का कार्यक्रम आ गया. जिस में कांग्रेस के नेताओं को बुलाया गया था. कांग्रेस ने अपनी धर्मनिरपेक्ष नीति के उलट राम मंदिर न जाने के पीछे की वजह मंदिर का पूरा न बनना और राजनीति में धर्म का प्रयोग बताया. लेकिन इस को ले कर पूरी पार्टी दो भागों में बंटी दिखी.

एक तरफ केन्द्रीय नेताओं ने राम मंदिर समारोह में हिस्सा लेने से मना किया. दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश कांग्रेस की पूरी टीम प्रचारप्रसार के साथ अयोध्या गई, मंदिर दर्शन किया और सरयू में स्नान किया.

यही ऊहापोह राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा में भी दिखी. राहुल गांधी की न्याय यात्रा भाजपा और संघ की नीतियों के खिलाफ है. भाजपा और संघ देश को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं. कांग्रेस इस का विरोध करती आ रही थी. ऐसे में मंदिर दर्शन और धार्मिक आस्था की बातों को इस यात्रा से अलग रखना चाहिए था, मगर राहुल खुद मंदिर जाने की जिद में धरने पर बैठ गए. उन्हें धर्मनिरपेक्ष नीतियों पर चल कर अपनी यात्रा जारी रखनी चाहिए थी तो वे इस जिद पर अड़ गए कि उन्हें मंदिर जाना है. इस ने यात्रा में खलल डाल दिया.

धर्म से कैसे मिलेगा न्याय ?

कांग्रेस सौफ्ट हिंदुत्व की राह पर चल रही है. उस से उस की धर्मनिरपेक्ष छवि प्रभावित होगी और वह धर्म की राजनीति का विरोध पुरजोर तरीके से नहीं कर पाएगी. इस वक्त बहुत जरूरी है कि कांग्रेस भाजपा और संघ के हिंदूराष्ट्र के खिलाफ लोगों को आह्वान करे. आज भी आधे से कम वोट ही भाजपा को मिलते हैं. ऐसे में यह साफ है कि देश के आधे से अधिक लोग भाजपा की धर्म वाली नीतियों से खुश नहीं हैं.

दुनिया में जितने देश धार्मिक कट्टरता की राह पर चल रहे हैं, वो विकास की राह पर बहुत पीछे हैं और आतंकी गतिविधियों का शिकार हैं. पाकिस्तान, अफगानिस्तान इस का मुख्य उदाहरण हैं. दोनों ही देश अपनी धार्मिक छवि के कारण पूरी दुनिया का विरोध झेल रहे हैं. पाकिस्तान और बांग्लादेश की तुलना करें तो पाकिस्तान के मुकाबले कम कट्टरता वाला बांग्लादेश ज्यादा प्रगति कर गया.

बांग्लादेश की प्रति व्यक्ति आय 2227 डौलर भारत की 1947 डौलर से कहीं अधिक है. भाजपा और संघ ने जब से देश को मंदिर आंदोलन में ढकेला उस के बाद से देश का धार्मिक ढांचा ही प्रभावित नहीं हुआ बल्कि यहां की आर्थिक हालत भी प्रभावित हुई है.

2007 में भारत की प्रति व्यक्ति आय अधिक थी. उस समय भारत की प्रतिव्यक्ति आय बांग्लादेश से दोगुना थी. धर्म से न तो आर्थिक प्रगति हो सकती है और न ही न्याय मिल सकता है. अगर धर्म से ही लोगों को न्याय मिल जाता तो आईपीसी बनाने की जरूरत ही नहीं पड़ती.

धर्म औरतों की आजादी की बात नहीं करता है. औरतों की सारी परेशानियां धर्म के ही कारण हैं. धार्मिक कुप्रथाएं और रूढ़ियां औरतों के पैरों में बेड़ियों की तरह जकड़ी हैं. दहेज प्रथा, सती प्रथा, पेट में लड़की की हत्या, विधवाओं की बढ़ती संख्या इस के प्रमाण हैं. धर्मं ने महिलाओं को पढ़नेलिखने और नौकरी करने के अधिकार से वंचित कर उन्हें कम उम्र में पत्नी के रूप में पुरुष की दासी और बच्चा पैदा करने वाली मशीन बना दिया.

धार्मिक सत्ता से देश को आजादी दिलाने का काम कांग्रेस की जिम्मेदारी है. अब अगर कांग्रेस ही मंदिर मंदिर घूमेगी तो वह भाजपा और संघ की राह पर चल कर धर्म की सत्ता को मजबूत करने का ही काम करेगी.

राहुल गांधी 11 दिन की तपस्या करने में होड़ न करें. वह धर्म के शिकंजे में बारबार फंसने से खुद को बचाएं. यह काम देश की एक पार्टी कर रही है, उसे करने दें. अगर कांग्रेस भी यही करने लगी तो भारत को अफगानिस्तान बनते देर नहीं लगेगी.

राहुल को चाहिए कि वे अपनी न्याय की यात्रा को मजबूत कर देश को धार्मिक सत्ता से बाहर निकालने का काम करें ताकि देश की गरीब जनता को रोटी, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार मिल सके. राहुल को धर्म निरपेक्ष लोगों की आवाज बनना होगा. तभी उन की यात्रा सफल होगी और देश में डर का माहौल बदलेगा.

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