Download App

परदे: भाग 1- क्या स्नेहा के सामने आया मनोज?

Writer- अपूर्वा चौमाल

पिछले दिनों ग्रुप एडमिन ने कुछ नए मैंबर्स ग्रुप में जोड़े थे. स्नेहा उन में से एक थी. जब से वह जुड़ी है, ग्रुप जैसे जिंदा हो गया. दिनभर में कभीकभार ही बजने वाली नोटिफिकेशन की घंटी इन दिनों जबतब टनटनाने लगी थी. स्नेहा का रिप्लाई हरेक पोस्ट पर तो अनिवार्यतया होता ही है, यही नहीं, अपने रिप्लाई के रिप्लाई पर भी वह रिप्लाई जरूर देती है.

‘पता नहीं कितनी ठाली है ये लड़की. इसे कोई कामधंधा नहीं है क्या?’ मनोज जैसे कई लोग शायद यही सोचते होंगे.

लेकिन इस बात से किसी सूरत में इनकार नहीं किया जा सकता कि गजब की लड़की है स्नेहा. कमाल का सैंस औफ ह्यूमर है. हर पोस्ट पर कोई न कोई चुटकी, कुछ न कुछ चटपटा, कोई ऐसा अतरंगा कमैंट कि वह बरबस मुसकराने को विवश कर दे.

‘लेकिन स्नेहा क्या सचमुच कोई लड़की ही है? कोई प्रौढ़ या उम्रदराज महिला भी तो हो सकती है. प्रोफाइल पिक्चर देखने से तो कुछ भी अंदाजा नहीं हो रहा,’ स्नेहा के बारे में जिज्ञासु होता जा रहा मनोज इन दिनों शेरेलक होम्स बना हुआ है. दिनभर में न जाने कितनी दफा स्नेहा के नाम पर टैब कर के देखता है कि कौन जाने किसी समय कोई सुराग मिल ही जाए. मगर स्नेहा भी कहां कच्चे कंचों से खेली थी, जो आसानी से पकड़ में आ जाती. बेशक वह हर दिन अपनी डीपी बदलती थी, लेकिन मजाल है कि किसी एक दिन भी उस का दीदार हुआ हो. हां, तसवीर में लगने वाले फूल जरूर हर दिन अलग होते हैं. कभी कली, कभी खिलता फूल तो कभीकभी भरपूर खिले हुए फूलों का गुच्छा.

इन फूलों के आधार पर ही मनोज उस की उम्र का अंदाजा लगाने की कोशिश करता रहता, लेकिन जासूसी की कसम… कभी किसी सटीक निर्णय पर वह नहीं पहुंच सका. किसी दिन वह उसे कली सी कमसिन युवती तो अगले ही दिन खिले फूल सी भरपूर महिला महसूस होती और कभी लगती किसी पुष्प गुच्छ सी, जिंदगी का भरपूर अनुभव लिए उम्रदराज महिला सी.

‘पता नहीं, लोग डीपी में अपनी खुद की तसवीर क्यों नहीं लगाते,’  झुं झलाता हुआ मनोज सिर पटक कर रह जाता, लेकिन स्नेहा का दीदार नहीं पा सका.

एक बार दिल ने कहा भी कि हथियार डाल कर सीधेसीधे ग्रुप एडमिन से पूछ ही लो न, या फिर कर लो वीडियोकौल. एक ही  झटके में सब बेपरदा हो जाएगा. लेकिन जो मजा खुद पतीली चढ़ा कर पकाने में है, वह परोसी हुई थाली खाने में कहां?

ये भी पढ़ें- लैला और मोबाइल मजदूर

‘स्नेहा की पहेली तो मैं खुद ही सुल झाऊंगा और वह भी बिना किसी की मदद के,’ मनोज ने मन ही मन ठान लिया. ठानने को तो उस ने ठान लिया, लेकिन अब बात आगे कैसे बढ़े. इसलिए एक दिन उस ने डरतेडरते, हिम्मत करतेकरते स्नेहा के एक कमैंट पर कंटीला सा कमैंट कर दिया. स्वभाव के अनुसार तुरंत स्नेहा हाजिर थी.

‘‘जे बात, क्या करारा जवाब आया है. तबीयत तर हो गई. जियो बंधु,’’ स्नेहा ने चटक मूड में मनोज के जवाब को  झटक दिया और इस के साथ ही मनोज को पटक भी दिया. मनोज की हिम्मत बढ़ी. उस ने स्नेहा की इसी रिप्लाई को लक्ष्य करते हुए उसे व्यक्तिगत नंबर पर स्माइली वाले 2 स्टिकर मय आभार भेज दिए.

लेकिन हाय रे, उसे अपने व्यक्तिगत कमैंट का कोई व्यक्तिगत जवाब न मिला. मनोज जरा सा निराश हुआ. हां… हां, जरा सा ही. लेकिन निराश ही हुआ, हताश नहीं.

अब पहली पटकनी पर ही मैदान छोड़ने वाले भी कभी सफल जासूस बन सके हैं भला? मनोज ने भी निराशा को परे  झटक दिया और उम्मीद की टौर्च जला कर स्नेहा को सोशल मीडिया पर तलाश करने लगा.

गूगल पर ‘स्नेहा’ नाम सर्च करते ही

सैकड़ों लिंक स्क्रीन पर दिखने

लगे. हर उम्र की स्नेहा अपने हर रूप में वहां मौजूद थी.

यह देख मनोज चकरा गया. सरनेम और शहर के फिल्टर भी डाल कर देखे, लेकिन सूची पर कुछ विशेष कैंची

नहीं चली.

‘इन में मेरी वाली कौन सी है,’ मनोज ने कान खुजाया. वह स्नेहा को तो नहीं पहचान पाया, लेकिन ‘मेरी’ शब्द दिमाग में आते ही उस के दिल की धड़कन एकाएक बढ़ गई. अभी यदि ईसीजी की जाए तो निश्चित रूप से डाक्टर कंफ्यूज होगा ही होगा. कुछ दिन दिल को आराम करने की सलाह के साथ धड़कन पर काबू पाने वाली दवा भी सु झा दे तो कोई आश्चर्य नहीं.

ये भी पढ़ें- उधार का रिश्ता: क्या हुआ सरिता के साथ ?

‘बातों से तो यह 25-30 साल की लगती है. इस से कमसिन उम्र होती तो इस ग्रुप में न होती और यदि उम्रदराज होती तो इस की बातों में भी अनुभव वाली गंभीरता होती. हो सकता है कि

40 के आसपास हो,’ मनोज की अपनी सम झ के अनुसार लगते कयास अपने चरम पर थे, लेकिन अभी तक स्नेहा की उम्र का स्थायी आकलन नहीं हो पाया था.

यह एक रचनाधर्मियों का ग्रुप है जिस में 200 से अधिक नएपुराने, नौसिखिए व अनुभवी लेखक, साहित्यकार, गायक, चित्रकार और रंगकर्मी जैसे सृजनशील लोग जुड़े हुए हैं. इन में से अधिकांश तो देश के ही विभिन्न शहरोंराज्यों से हैं, कुछ प्रवासी भी हैं. सब लोग यहां अपनी रचनात्मकता सा झा करते रहते हैं. कभी अपना कोई नया सृजन तो कभी कोई अन्य उपलब्धि भी.

26 January Special : गरम स्पर्श- तबादले पर क्या था मनीष के दिल का हाल ?

2कैप्टन मनीष को असम से नागालैंड में तबादले का और्डर मिला तो उन का दिल कुछ उदास होने लगा. पर और भी बहुत सारे साथियों के तबादले के और्डर आए थे, यह जान कर कुछ ढाढ़स बंधा. सोचा, कुछ तो दोस्त साथ होंगे, वक्त अच्छा बीतेगा. नागा विद्रोहियों की सरगर्मियां काफी बढ़ी हुई थीं. यही देखते हुए पहाड़ी फौज की 4 बटालियनों को कोहिमा भेजना जरूरी समझा गया. कैप्टन मनीष कोहिमा रैजिमैंट हैडक्वार्टर पर हाजिर हुए तो उन की कंपनी को कोहिमा से 60 किलोमीटर की दूरी पर खूबसूरत पहाडि़यों के दामन में स्थित फौजी कैंप में पहुंचने का आदेश मिला. जैसे ही वे सब कैंप पहुंचे तो चारों ओर नजर फिराते हुए बहुत प्रसन्न हुए.

चारों तरफ ऊंचे पहाड़, उन पर साल और देवदार के पेड़. नीचे मैदानों में चारों ओर मीलों तक फैली हरियाली और सब्ज मखमली घास. तरहतरह के कुसुमित पुष्पों ने उन का मन मोह लिया. दूसरे दिन शाम को जीप में कैंप से 2 मील की दूरी पर निरीक्षण चौकी का मुआयना कर के लौटे तो रास्ते में एक छोटे रैस्टोरेंट के सामने कौफी पीने के लिए जीप रोक दी. भीतर कोने में पड़ी टेबल पर कौफी का और्डर दे कर बैठे ही थे कि उन की नजर कुछ दूर बैठे एक जोड़े पर गई. दोनों ने मुसकराते, गरदन हिला कर कैप्टन का अभिवादन किया. कैप्टन ने देखा कि दोनों स्थानीय थे और चेहरेमोहरे से नागालैंड के ही लग रहे थे. लड़की स्कर्ट व ब्लाउज पहने हुए थी. उस का जिस्म खूबसूरत व सुडौल था, नाकनक्श तीखे थे. दोनों ने आपस में कुछ खुसुरफुसुर की और उठ कर कैप्टन के पास आए.

‘‘हैलो सर, मे वी गिव यू कंपनी?’’

‘‘ओह, श्योर,’’ कैप्टन ने चारों तरफ पड़ी कुरसियों की ओर इशारा करते हुए कहा. पहाड़ी वेशभूषा में बैरा कौफी ले कर आया तो कैप्टन ने उसे 2 कप और लाने के लिए कहा. बैरा कौफी रख कर चला गया. आंखों में हलकी मुसकराहट, पर बिना कुछ कहे नागा नौजवान ने कौफी का कप कैप्टन की ओर बढ़ाया.

‘‘थैंक यू,’’ कैप्टन ने कप ले कर उन्हें भी कौफी पीने के लिए इशारा किया.

‘‘डौली वांगजू,’’ नौजवान नागा ने पास बैठी लड़की के कंधे पर हाथ रखते हुए उस का नाम बताया, ‘‘मी फिलिप,’’ फिर अपना नाम दोहराया.

कैप्टन ने मुसकराते हुए अपनी पहचान दी, ‘‘माई सैल्फ मनीष.’’ कुछ देर तक बातचीत होती रही फिर कैप्टन मनीष वहां से चल दिए.

कैंप में लौट कर कैप्टन मनीष हाथमुंह धो कर रात को मेस (भोजन कक्ष) में डिनर करने गए. वहां बातोंबातों में उन्होंने मेजर खन्ना को नागा जोड़े के साथ हुई मुलाकात के बारे में बताया, ‘‘जोड़ी तो बहुत खूबसूरत थी, पर पता नहीं चला कि उन का आपसी रिश्ता क्या है?’’

‘‘पर आप को चिंता क्यों है कि वे आपस में क्या लगते हैं?’’

‘‘नहींनहीं, मुझे इस बात से क्या,’’ कैप्टन ने तत्पर जवाब दे कर बात को टाल दिया.

दूसरे दिन पूर्व निर्धारित प्रोग्राम के अनुसार बागियों के खिलाफ अभियान हेतु 3 दिन के लिए जाने का और्डर मिला. कैंप से गाडि़यों का काफिला उत्तरपूर्व की तरफ रवाना हुआ तो नौजवानों में उत्साह था. उन के चमकते चेहरों से यों जान पड़ रहा था कि वे मैदान मार कर ही लौटेंगे. कैंप से रवाना होने पर मैदानी इलाके से गुजरता गाडि़यों का काफिला थोड़ी देर के लिए मिट्टी के गुबार में गुम हो गया. सिर्फ गाडि़यों के इंजन की गड़गड़ाहट और जूजू की आवाज सुनाई दे रही थी. कुछ देर के बाद मैदानी इलाका पार कर के काफिला जैसे ही बोम ला पहाड़ी के कच्चे रास्ते से ऊंचाई चढ़ने लगा वैसे ही धूल का गुबार पीछे रह गया. दूर से टेढ़ीमेढ़ी पहाड़ी पगडंडियों पर गुजरता गाडि़यों का काफिला इतना छोटा सा लग रहा था मानो बच्चों ने अपने लारीनुमा खिलौनों में चाबी भर कर एकदूसरे के पीछे छोड़ दी हो.

कैंप में पीछे रह गए जवान हाथ हिला कर काफिले को देर तक विदा करते रहे. कुछ ही पल में काफिला आंखों से ओझल हो गया. 3 दिन के बाद काफिला लौटा. मुखबिर की सूचनानुसार फौजियों ने बोम ला पहाडि़यों के पीछे बागियों के अड्डों को चारों तरफ से घेर लिया पर घेराव के पहले ही बागी फरार हो गए थे. फौजियों ने सारा इलाका छान मारा फिर भी कोई सुराग न मिला. कैप्टन मनीष दोस्तों के साथ मैस में गपशप करने के बावजूद बोरियत महसूस करने लगे थे. एक दिन फिर जीप में बैठ कर कैंप से बाहर जा कर उसी रैस्टोरेंट में कौफी पीने के लिए पहुंचे. भीतर पहुंचे तो उन की नजर डौली वांगजू पर पड़ी जो कोने में पड़ी टेबल पर अखबार पढ़ रही थी. इस बार वह अकेली थी. कैप्टन मनीष अभी दूसरे कोने में पड़ी कुरसी पर बैठ ही रहे थे कि डौली वहां से उठ कर उन के पास आई.

‘‘हैलो कैप्टन,’’ डौली ने मुसकराते हुए उन का अभिवादन किया.

‘‘हैलो मैडम, हाउ डू यू डू?’’ मनीष उस का नाम भूल गए थे.

डौली ने उन्हें याद दिलाते हुए कहा, ‘‘डौली, सर.’’

‘‘ओह डौली, प्लीज,’’ कैप्टन ने अपनी गलती स्वीकारते हुए कहा.

डौली फौरन दूसरी कुरसी पर बैठी और उन से 3-4 दिन नजर न आने का कारण पूछा. पर मनीष ने कैंप से आने का मौका न मिलने की वजह बता कर बात वहीं खत्म कर दी. दोनों ने मिल कर कौफी पी. मनीष ने डौली से उस के मांबाप के बारे में जानना चाहा. डौली ने उन्हें बताया कि वह मिशनरी स्कूल से 2 साल पहले मैट्रिक पास कर चुकी है. उस के मातापिता दोनों मिशनरी स्कूल में टीचर थे. स्कूल के बाद दोनों प्रचार का काम करते थे.

मनीष रहरह कर डौली की आंखों में निहारते रहे, उन में बेहिसाब कशिश थी. बौबकट बालों की सुनहरी लटें कभीकभी हवा के झोंके से उस के सुर्ख गालों को चूमने की कोशिश कर रही थीं, जिन्हें डौली बाएं हाथ की कनिष्ठिका के लंबे नाखून से निहायत खूबसूरत अंदाज में हटाती रही. मनीष उस के चेहरे को बारबार गौर से देख रहे थे. सोच रहे थे कि डौली के नाकनक्श न बर्मी थे, न ही चीनी वंश के. पहाडि़यों की तरह उस की नाक चपटी और समतल भी नहीं थी. बल्कि उत्तरी भारत के मैदानी इलाके के आर्य वंश का सा रूपसौष्ठव था. बेपनाह हुस्न का ऐसा बुत देश के दूरदराज घनी पहाडि़यों व वादियों में भी मिल सकता है, सोच कर वे हैरान थे.

मनीष का जी उठने को नहीं हो रहा था. पर कैंप में वक्त पर पहुंचना था, इसलिए डौली की ओर मुसकरा कर उठने लगे. डौली ने एक अजीब मुसकराहट के साथ कंधे को एक मामूली झटका दे कर इजाजत देनी चाही, तो कैप्टन मनीष से रहा नहीं गया. वे डौली का हाथ थाम कर उस की आंखों में झांकते रहे, जैसे उस के बेपनाह हुस्न को नजरों से एक ही घूंट में पीना चाहते हों. डौली की मस्तीभरी निगाहों में मनीष पलभर के लिए अपनी सुधबुध भुला बैठे. अचानक हाथ की उंगलियों पर डौली के सुर्ख लबों का स्पर्श महसूस करते हुए होश में आए. उन का चेहरा सुर्ख हो गया. खुद को संभालते हुए अगले दिन मिलने का वादा करते हुए वे मुसकरा कर जीप में सवार हो कर चले गए. पर रास्ते भर एक अनोखा एहसास उन के साथ रहा. एक अजीब मादकता उन पर हावी रही.

कैंप में लौट कर थोड़ी देर के लिए वे अपने तंबू में जा कर लेट गए. काफी देर तक किसी खूबसूरत खयाल ने उन का पीछा नहीं छोड़ा. काश, डौली के साथ ब्याह रचा कर उसे राजस्थान में अपने घर ले कर जा सकते. आकाश की इस अप्सरा को अपनी बांहों में भर कर प्यार करते, या कभी सामने बिठा कर सजदा करते. डौली को हासिल कर के, काश स्वप्निल आनंद का अनुभव कर पाते. पलभर की मुलाकात में मनीष को डौली की शांत नीली आंखों की गहराई में एक अजीब कशिश के साथसाथ नजदीकी और अपनापन भी नजर आया था.

दूसरे दिन फिर बागियों के खिलाफ अभियान का दूसरा चरण उत्तरपश्चिम की तरफ जोला पहाडि़यों की घाटियों में तय हुआ. शाम के वक्त अंधेरा होने के बाद मुखबिरों की गुप्त सूचना के अनुसार फौजी दल जोला पहाडि़यों की तरफ रवाना हुआ. जोला की बड़ी पहाड़ी के पीछे बागियों के दल के छिपे रहने की जानकारी थी. फौजी जवानों ने जोला दर्रे से काफी पहले गाडि़यों को रोका और हथियारों के साथ वे पैदल चल पड़े. चांदनी रात थी. दुश्मन की नजर न पड़े, इसलिए छोटीछोटी टोलियों में जोला दर्रे के नजदीकी द्वार पर पहुंचे और फौरन

2-2 सैनिकों के ग्रुप में तितरबितर हो कर पहाडि़यों के घने झुंड की ओट में छिप कर मोरचा संभाले बैठे रहे. कैप्टन मनीष ने अपने साथ तेजकरन को रख लिया. अमावस के बाद चौथे दिन वाला चांद बहुत देर न रुक सका. अंधेरा जैसेजैसे बढ़ने लगा वैसेवैसे सिपाहियों की बेसब्री बढ़ने लगी. पता नहीं, शायद सारी रात यों ही टोह में बैठे गुजर जाए. यों ही इंतजार करते रात का अंतिम पहर आ गया. अचानक जोला दर्रे के छोर पर ऐसा लगा जैसे कुछ धुंधली परछाइयां बिना आवाज के आगे बढ़ रही हैं. टोह में बैठे फौजी दल के सिपाही हरकत में आ गए. सभी के हाथ राइफलों और मशीनगनों के ट्रिगरों पर पहुंच गए और कैप्टन मनीष के और्डर का इंतजार करने लगे.

धुंधली परछाइयां काले लिबास में धीरेधीरे उन झाडि़यों के घने झुरमुट की तरफ बढ़ रही थीं, जिन की ओट में कैप्टन मनीष और सूबेदार तेजकरन टोह में बैठे थे. दूसरे दल से एक फौजी की राइफल से अचानक गोली चल जाने से 2 साए एक तरफ दौड़े और 2 कैप्टन के दल की तरफ. कैप्टन की पिस्तौल की गोली से एक गिर पड़ा. फौजी दस्ते के लिए कैप्टन का यह इशारा जैसे और्डर था. चारों तरफ से मशीनगनों से गोलियों की बौछार शुरू हो गई. जवाब में बागियों ने गोलियां चलाईं. पर कुछ देर के बाद जवाबी गोलियों की आवाज शांत हो गई. फौजी दल की गोलीबारी जारी रही. काफी देर तक जवाबी गोलियों के न आने से फौजी दल ने भी गोलीबारी बंद कर दी.

पौ फटते ही रोशनी का प्रभामंडल बढ़ने लगा. फौजी पहाडि़यों से निकल कर अपने शिकार को कब्जे में करने के लिए उतावले हो रहे थे. पर कैप्टन ने उन्हें रोका, कि कहीं दुश्मन ताक लगाए बैठा हो और अचानक हमला कर दे. इसलिए सिर्फ 2 फौजी जा कर लाशों का निरीक्षण करें. 2 नौजवानों ने आगे बढ़ कर झाडि़यों से लाशें ढूंढ़ निकालीं. कुल 2 लाशें मिलीं. शिनाख्त करने की कोशिश की गई, पर बेकार. इतने में कैप्टन और साथी भी पहुंच गए. बागियों की लाशों की पहचान कर पाना मुश्किल काम था. शक्ल से एक मर्द लग रहा था तो दूसरी औरत. दोनों ने गहरे नीले रंग की शर्ट और जींस पहनी हुई थी. जैसे ही 2 जवानों ने उलटी पड़ी लाशों को सीधा कर के लिटाया तो कैप्टन अकस्मात चौंक उठे. ‘डौली और फिलिप को देख कर कैप्टन का चेहरा शांत और गंभीर हो गया. झुक कर उन्होंने डौली के सर्द चेहरे से बालों की लट अपनी गरम उंगलियों से हटा कर दूर कर दी. पर डौली का सर्द चेहरा मनीष की उंगलियों का गरम स्पर्श महसूस न कर सका.

(अनुवाद : देवी नागरानी)

चेहरे पर चेहरा : शादी के बाद क्या हुआ उसके साथ ?

मैं जब ब्याह कर आई तो उम्र के उस दौर में थी जहां लड़कियां सपनों की एक अनोखी दुनिया में खोई रहती हैं. पढ़ना लिखना, घूमना फिरना, हलके फुलके घरेलू काम कर देना, वह भी मां ज्यादा जोर दे कर कहतीं तो कर देती वरना मस्ती मारना, सहेलियों के साथ गपें मारना यही काम होता था मेरा.

मुझ से छोटी 2 बहनें थीं, इसलिए पापा को मेरी शादी की बहुत जल्दी थी. शादी के वक्त मेरी उम्र 19 और मेरे पति अमर की उम्र 24 के आसपास थी. छोटे से कसबे के 5 कमरों वाले घर में काफी चहलपहल रहती थी. सारा दिन घर की जिम्मेदारियां निभाते बीत जाता. छोटा देवर आशु बहुत ही शैतान था. घर में सब से छोटा होने के कारण सब के लाड़प्यार में एकदम जिद्दी बन गया था.

स्कूल से आते ही सारा सामान पूरे घर में फैला कर रख देता. कपड़े कहीं फेंकता, मोजे कहीं तो स्कूल बैग कहीं. अर्चना और शोभा से पहले वह घर आ जाता. आते ही फरमाइशों का दौर शुरू हो जाता. खाने में उसे कुछ भी पसंद नहीं आता, दाल, सब्जी, रायता, चावल सभी थाली में छोड़ रूठ कर सो जाता. पता नहीं कैसा खाना चाहता था वह.

मांजी भी उस की इन आदतों से काफी परेशान रहती थीं. मैं कहना चाहती थी कि आप ने ही उस की आदतों को बिगाड़ कर रखा है, पर कह नहीं पाती थी. मालूम था, मांजी नाराज हो जाएंगी. एक बार अमर ने कह दिया था तो कई दिनों तक घर का माहौल अशांत बना रहा था. आशु उन का बहुत ही दुलारा था.

अमर के बाद 2-2 साल के अंतर पर अर्चना और शोभा का जन्म हुआ था. मांजी को एक और बेटे की चाह थी ताकि अमर के साथ उस का भाईभाई का जोड़ा बन सके. ये बातें बाबूजी के मुंह से मांजी पर गुस्सा होने के समय जाहिर हो गई थीं. अमर और आशु में 14 साल का फासला था, दोनों में बिलकुल भी नहीं बनती थी.

अमर बहुत ही शांत स्वभाव के थे और आशु उग्र, मुंहफट व जिद्दी. मां बाबूजी से बराबर जबान लड़ाता, अपनी पढ़ाई पर भी ध्यान नहीं देता था. आशु को बिगाड़ने में सब से बड़ा हाथ मांजी का ही था. घर में जो कुछ बनता, सभी को पसंद आता, कभीकभी की बात और है. मगर आशु की पसंद ही कुछ और होती. मांजी वैसे तो रसोई में  झांकती भी नहीं थीं पर आशु की पसंद का खाना रोज अलग से खुद बनातीं. इसीलिए उसे अपनी जिद मनवाने की आदत सी हो गई थी.

अमर की शादी जल्दी करवा दी गई क्योंकि अमर को बाबूजी का बिजनैस संभालना था. मांजी को भी बहू के रूप में एक सहयोगी की जरूरत महसूस होने लगी और ब्याह कर मैं इस घर में आ गई. उम्र का वह ऐसा दौर था जब थकान का नाम ही नहीं था. एक घरेलू लड़की की तरह पूरे घर का काम मैं ने संभाल लिया था. सभी की तारीफें सुन उत्साह में बस काम ही काम के बारे में सोचती रही. कभी अपनी खुशियों की तरफ ध्यान नहीं दिया. उसी का खमियाजा मु झे आज भुगतना पड़ रहा है.

मांजी कईकई महीने मेरे ऊपर सारा घर छोड़ बाहर अपने मायके या रिश्तेदारों के यहां रहतीं. अर्चना और शोभा के इम्तिहान भी शुरू हो गए थे पर वे अभी तक लौट कर नहीं आईं. कभी नानीजी बीमार तो कभी मामाजी के बेटे को खांसीजुकाम, अपनी जिम्मेदारियां छोड़ कर दूसरों का घर संभालना कहां की अक्लमंदी है?

बाबूजी बहुत गुस्सा रहते थे. उन को फोन पर ही काफीकुछ सुना डालते. पर मांजी को जब आना होगा तभी आएंगी. इस उम्र में भी मांजी महीनों मायके में गुजार आतीं. बच्चों को साथ ले कर जाना भी उन्हें पसंद नहीं था. पूरी आजादी से रहतीं, उन की घरगृहस्थी बढि़या चलती रहती.

मैं महीनों मायके जाने को तरसती रहती. मेरे जाने से घर में सभी को असुविधा हो जाती थी. किसी को भी महसूस नहीं होता कि मेरा भी इस घर, चूल्हेचौके से मन ऊब जाता होगा, यहां तक कि अमर भी मेरी भावनाओं को नहीं सम झते. जब भी मैं मायके जाने की बात करती, कोई न कोई बहाना बना मु झे रोक देते, कभी अर्चना, शोभा के एग्जाम, कभी आशु की कौन देखभाल करेगा, मांजी भी नहीं हैं. जब मांजी आ जातीं तो मां क्या सोचेंगी, अभीअभी कल ही तो मां आई हैं, कुछ दिन तो गुजरने दो, जैसे बहाने बनाने शुरू कर देते. मैं तड़प कर रह जाती पर कुछ कह नहीं पाती.

मईजून की छुट्टियों में भैया ने शिमला घूमने जाने का प्रोग्राम बनाया था. भैया ने मु झे भी अपने साथ ले जाने के लिए बाबूजी को फोन कर दिया.

15 दिनों का प्रोग्राम था. पता लगते ही घर में जैसे मातम छा गया. मांजी एकदम से उखड़ गईं, ‘‘अपना प्रोग्राम बता दिया, हमारे बारे में कुछ सोचा ही नहीं. मैं बुढि़या इतने दिनों तक अकेले कैसे पूरा घर संभालूंगी?’’ गुस्से से भर कर मु झ से कहने लगीं, ‘‘तू अपने भाई से बोल देना, इस तरह आनाजाना हम पसंद नहीं करते हैं. हमें जब सुविधा होगी तभी तो भेज पाएंगे.’’

‘‘तो आप मना कर दीजिए अगर आप का मन नहीं है तो,’’ मैं ने भी थोड़ा नाराजगी भरे स्वर में कह दिया.

‘‘कह तो ऐसे रही है जैसे हमारे मना करने से मान जाएगी. लगता है पहले ही भाईबहन की बात हो गई होगी,’’ मांजी ने तीखे स्वर में कहा.

‘‘किस का मन नहीं करता होगा मायके जाने का? यहां तो महीनों हो जाते हैं, अपनेआप तो कोई कभी कहता ही नहीं है. भैया कभी बुलाते हैं तो घर में तूफान खड़ा हो जाता है. घर में एक नौकरानी के चले जाने से सारा काम रुक जो जाता है वरना मु झ से इतना प्यार किसे है,’’ मैं भी गुस्से में कह गई.

अमर भी कहने लगे, ‘‘अच्छा तुम्हारे भैया का फोन आया, घर में तनाव फैल गया.’’

‘‘तो आप भी यही चाहते हैं कि कोई भी मु झे न बुलाए और न मैं इस घर से बाहर कदम रखूं. बंधुआ मजदूर जैसी पूरी जिंदगी इसी तरह दिनरात चूल्हेचौके में पिसती रहूं. मु झे भी चेंज की जरूरत हो सकती है यह कोई भी नहीं सोचता,’’ मेरी आंखों में आंसू आ गए.

मेरे आंसू देखते ही अमर मु झे सम झाने लगे, ‘‘तुम ने घर को बहुत अच्छी तरह से संभाल लिया है कि सभी को तुम से उम्मीदें हो गई हैं. तुम्हारे जाने के बाद न तो समय पर नाश्ता मिलेगा न रात को ढंग का डिनर. मां से कुछ कह भी नहीं सकता. हर समय नाराज सी रहती हैं. काम का लोड जो ज्यादा हो जाता है उन पर. तुम्हारे आने के बाद से वे किचन में कम ही जाती हैं.’’

‘‘सुबह बताना था कि हमारा क्या प्रोग्राम बना है, भैया लेने आएंगे या इधर से कोई मुझे छोड़ने जाएगा. कितनी बार कहा, सीधी ट्रेन है लखनऊ की, मैं चली जाऊंगी, वहां भैया लेने आ जाएंगे पर कोई जाने ही नहीं देता. कहीं अकेले आनाजाना सीख गई तो जल्दीजल्दी न जाने लगूं.’’

सुबह हिम्मत कर के बाबूजी के साथ जा कर अमर ने मांजी से बात की, ‘‘जाने भी दो मां, कुछ दिनों की ही तो बात है. अर्चना, शोभा हैं, कामवाली है, सब काम हो ही जाएगा. आप ज्यादा टैंशन मत लो.’’

अमर बहुत ही कम बोलते थे. बीवी की तरफ से बोलते देख मांजी को गुस्सा आ गया, ‘‘बड़ा आया बीवी की तरफदारी करने वाला. मैं ने क्या मना किया है. उस का प्रोग्राम पक्का है, कौन सा मेरे रोकने से रुकने वाली है. तु झे जाना हो तो तू भी चला जा, देखती हूं कौन सा काम यहां रुक जाएगा,’’ मांजी ने यह कह कर धीरे से कहा, ‘‘जोरू का गुलाम कहीं का.’’

धीरे से कहे गए इन शब्दों को अमर ने सुन लिया. उन का सारा मूड खराब हो गया. बिना नाश्ता किए ही घर से चले गए.

संडे की सुबह भैया ने फोन करने को कहा था. सभी लोग घर पर ही थे. भैया ने फोन किया. रिंग पर रिंग बजे जा रही थी पर कौन उठाए? आखिर बाबूजी ने फोन उठाया. मेरे और अमर के जाने का प्रोग्राम पक्का कर दिया और दिन भी बता दिया. मांजी का चेहरा देखने लायक था. बाबूजी इस घर के बड़े थे, आखिरी फैसला उन्हें ही सोचसम झ कर लेना था. जिद्दी पत्नी से वे ज्यादा उल झते नहीं थे ताकि घर की शांति बनी रहे.

मांजी बाबूजी पर काफी बिगड़ीं, पर बाबूजी चुपचाप रहे. सभी काम तो चलते रहे पर 2 दिनों तक घर का वातावरण काफी बो िझल रहा. जाने का सारा उत्साह ही खत्म हो गया था. सारा काम खत्म कर रात को मैं अपनी पैकिंग करने लगी. कम से कम 15-20 दिनों के लिए आराम की जिंदगी गुजार सकूंगी. भैया, सपना भाभी, छोटा भतीजा सभी बहुत ध्यान रखते थे मेरा. जितने दिन रहती, मेरी ही पसंद का खाना बनता था. भाभी बाजार जातीं तो पूछतीं, मु झे कुछ चाहिए तो नहीं? साड़ी, शाल जिस भी चीज पर मैं हाथ रख देती, मु झे जबरन दिलवा देतीं, पैसे भी नहीं लेतीं. मायके में मां के बाद भैयाभाभी ही तो रह जाएंगे जो मु झे पूरी इज्जत दे सकते थे. ससुराल के तनाव से कुछ दिनों के लिए राहत मिल जाती थी.

2 दिन की छुट्टी कर के अमर मु झे ले कर लखनऊ पहुंचे. स्टेशन पर भैया गाड़ी ले कर पहले से ही हम दोनों की प्रतीक्षा कर रहे थे. छोटा भतीजा अभिषेक भी साथ था, कितना लंबा हो गया था. कितने दिनों बाद देख रही थी उसे. आधे घंटे में हम लोग घर आ गए. मां और भाभी मेरे और अमर के स्वागत में लगी हुई थीं. पूरा घर साफसुथरा लग रहा था. फ्रैश हो कर हम सभी ने साथ बैठ कर नाश्ता किया.

‘‘कितना कमजोर कर दिया है हमारी ननदरानी को आप ने,’’ भाभी ने अमर से मजाक करते हुए कहा.

‘‘पूरे किचन की मालिक तो ये ही हैं, अब डाइटिंग करें तो कोई क्या कर सकता है. हमें तो जो कुछ भी बना कर दे देती हैं, शरीफ पतियों की तरह चुपचाप खा लेते हैं,’’ अमर ने भी मजाक में जवाब दिया.

सभी के ठहाकों से घर गूंज उठा. अमर के घर में ऐसा वातावरण कहां मिलता था. हर वक्त सहमासहमा सा माहौल, बाबूजी भी बहुत नापतोल कर बोलते. मांजी के तेजतर्रार स्वभाव के कारण अकसर घर में बिना बात के क्लेश हो जाता था. अर्चना, शोभा जरूर अपने कालेज के किस्से सुनातीं तो थोड़ा हंसीमजाक हो जाता था, वे भी मां के सामने कुछ नहीं सुनातीं, पता नहीं कौन सी बात का वे क्या मतलब निकालने लगें? अभिषेक के टैस्ट चल रहे थे, इसलिए वह हमारे साथ नहीं जा रहा था. अमर को सुबह भैया स्टेशन छोड़ने निकल गए, हमें भी रात को निकलना था.

एक हफ्ता खूब मौजमस्ती से गुजार कर हम लोग लौट आए. भाभी ने जी खोल कर शिमला में शौपिंग की. सभी के लिए कुछ न कुछ उपहार ले कर आई थीं. मैं ने भी मांजी और बाबूजी के लिए शाल, अर्चना और शोभा के लिए आर्टिफिशियल इयर रिंग, आशु और अमर के लिए भी उपहार लिए थे. अब पता नहीं सब को पसंद आते हैं या नहीं? ज्यादा कीमती गिफ्ट खरीदने की गुंजाइश भी नहीं थी.

घूमने के बाद घर पहुंच कर थकान बहुत महसूस हो रही थी. हम सभी डिनर ले कर जल्दी ही सो गए. रविवार था इसलिए भैया, भाभी, अभिषेक देर तक सो रहे थे. मैं ने और मां ने साथ बैठ कर चाय पी.

कल मां से कोई बात भी नहीं हो पाई. थकान बहुत हो रही थी. मां ने प्यार से अपने पास बैठाया. कहने लगीं, ‘‘तेरी ससुराल में सब ठीक चल रहा है? अमर तेरा ध्यान तो रखते हैं न?’’ मेरे सिर पर हाथ रख कर बोलीं, ‘‘तु झ से एक बात कहनी थी, बेटी. बुरा मत मानना. इस टूर पर तु झे ले जाने का सपना का बिलकुल मन नहीं था. दोनों में खूब बहस हुई, कह रही थी, शादी के बाद ऐसा चांस पड़ा है कि हम अकेले जाएं कहीं. आप ने बिना मु झ से पूछे दीदी का प्रोग्राम बना डाला. मेरे कान में जब बात पड़ गई तो मैं ने तु झे बताना जरूरी सम झा.’’

‘‘यह तुम क्या कह रही हो, मां?’’ मैं बहुत हैरान थी, ‘‘भाभी ने तो हर समय मेरा बहुत ध्यान रखा, कहीं से भी नहीं लगा कि वे मु झे नहीं ले जाना चाहतीं थी अपने साथ.’’

‘‘विजय को पता है कि तू कहीं घूमने नहीं जा पाती, फिर अभिषेक भी नहीं जा रहा था, इसलिए उस ने सोचा कि उसी बजट में तेरा घूमना हो जाएगा. पर बहू को अच्छा नहीं लगा. तु झे बुरा तो लग रहा होगा पर आगे से इस बात का खयाल रखना. पहले नहीं बताया वरना घूमने का तेरा सारा मूड ही चौपट हो जाता,’’ मां कह रही थीं.

आंखें बंद कर मैं सोफे पर चुपचाप लेट गई. मां मेरी मनोदशा सम झती थीं, मु झे अकेला छोड़ वे अपने दैनिक काम निबटाने में लग गईं. यह दुनिया भी कितनी अजीब है, यहां हर इंसान एक चेहरे पर दूसरा चेहरा लगा कर घूम रहा है. भाभी ने एक अच्छी भाभी का रोल बखूबी निभाया. अगर मां ने नहीं बताया होता तो…पर मां ने सही समय देख मु झे सही राह दिखा दी ताकि उन के न रहने के बाद भी मेरा मायके में पूरा सम्मान बना रहे.

भैया तो मेरे अपने हैं पर भाभी तो और भी अच्छी हैं जिन्होंने इच्छा न होते हुए भी पूरे टूर पर यह एहसास भी नहीं होने दिया कि वे मु झे नहीं लाना चाहती थीं. मु झे अमर और उन के घर वालों से ये बातें छिपानी होंगी, कितनी मुसीबतों के बाद वहां से निकलना हो पाया था. पता होता तो प्रोग्राम बनाती ही नहीं. अब जो हुआ सो हुआ. सब की तरह मुझे अपने चेहरे पर एक और चेहरा लगाना होगा, मुसकराता, हंसता हुआ चेहरा जो बयां कर रहा हो कि मेरा यह सफर बहुत ही यादगार रहा है. अमर को भी यही बताऊंगी कि ये दिन बहुत ही हंसीखुशी से बीते, यानी चेहरे पर चेहरा.

दुस्वप्न : संविधा के साथ ससुराल में क्या हुआ था ?

story in hindi

शिक्षा का गिरता स्तर : शिक्षकों से ज्यादा पेरेंट्स को कठघरे में खड़ा करो

हाल ही में एन्वल स्टेट्स औफ एजुकेशन रिपोर्ट (एएसईआर) में ये बात सामने आई है कि देश में स्कूल जाने वाले 14 से 18 साल की उम्र के करीब एकचौथाई बच्चे अपनी क्षेत्रीय भाषा की कक्षा 2 की किताब तक ठीक से नहीं पढ़ पाते हैं. अंग्रेजी ज्ञान की तो बात ही छोड़ दें.

14 से 18 साल की आयुवर्ग के बच्चे आमतौर पर कक्षा 9 से 12 तक में होते हैं. गांवदेहातों के स्कूलों में अधिकांश बच्चे मिड डे मील के लालच में स्कूल जाते हैं. कुछ के मातापिता यह सोच कर उन को स्कूल भेजते हैं कि उन्हें यूनिफार्म मिल जाएगी. एक वक्त का खाना मिल जाएगा, कुछ सरकारी योजना का पैसा खाते में आ जाएगा और बच्चा अपना नाम लिखना सीख जाएगा.

स्कूल में मास्टर या मास्टरनी क्या पढ़ाते हैं, पढ़ाते भी हैं या नहीं, इस की पड़ताल करने कोई नहीं जाता. सरकारी स्कूल के तो टीचर्स तक ठीक से किताबें नहीं पढ़ पाते हैं. अंगरेजी का एक वाक्य नहीं बोल पाते हैं, तो शिक्षा का स्तर देश में क्या है, इस को समझना मुश्किल नहीं है. सरकार देशभर में साक्षरता मिशन चला ले, शिक्षा देने के ढोल पीट ले, बड़ीबड़ी योजनाएं कागजों पर बना ले, मगर हकीकत इस तरह की रिपोर्ट से सामने आ जाती है.

शिक्षा के स्तर में लगातार गिरावट आ रही है. गांव के सरकारी स्कूलों के बच्चे ही नहीं, शहरी क्षेत्र के स्कूलों के बच्चे भी अपनी या अपने से निचले दर्जे की पाठ्यपुस्तकों को ठीक से नहीं पढ़ पाते हैं. इस की वजह है.

विगत 2 दशकों में देश के भीतर सिर्फ धर्म का कारोबार बढ़ा है. पहले घरों में बूढ़ेबुजुर्ग सुबह का अखबार पढ़ते थे. अखबार हर घर में आता था. घर की देहरी पर 6-7 लोग इकट्ठा होते और एक व्यक्ति ऊंचे स्वर में अखबार की खबर पढ़ कर सब को सुनाता था. चौपाल पर बैठे लोग अखबार पढ़तेदेखते थे. घर के बच्चों पर भाषा सुधारने के लिए अखबार पढ़ने का दबाव होता था.

मगर आज घरघर में सुबहसुबह टीवी पर तेज आवाज में आरती पूजा चलती है. भजन सुने जाते हैं. अखबार, पत्रिकाएं घरों से गायब हो चुकी हैं. परलोक सुधारने की धुन में बूढ़े अब सुबहसुबह माला जपते नजर आते हैं. फिर बच्चों पर अखबारपत्रिकाएं पढ़ने का दबाव कौन बनाए? उन की पढ़ने के प्रति रुचि कौन जगाए?

पहले घरों में किताबों की अलमारियां होती थीं. लोग अच्छा साहित्य खरीद कर उन में सजाते थे. अधिकांश घरों के ड्राइंग रूम में एक अलमारी अच्छे साहित्य की अवश्य होती थी. इस के अलावा मेज पर पत्रिकाएं और अखबार अवश्य होते थे. ये चीजें घर के बच्चों की पढ़ने के प्रति जिज्ञासा पैदा करती थीं.

आज घरों से ही नहीं बल्कि बाजारों से भी बच्चों की पत्रिकाएं गायब हैं. बाल साहित्य की बात करें तो एक ‘चंपक’ के अलावा और कोई बाल पुस्तिका बाजार में नहीं दिखती. बाल साहित्य लिखने वाले लेखक गायब हो चुके हैं.

दो दशक पहले तक अपनी पाठ्य पुस्तकों के अलावा कहानी की किताबों, नावेल, कौमिक्स की तरफ बच्चों का खूब रुझान होता था. ये किताबें मनोरंजन भी करती थीं, ज्ञान भी बढ़ाती थीं, बच्चों को कुछ नया सीखने का मौका देती थीं और स्पष्ट पढ़ने की क्षमता का विकास करती थीं. बच्चे अपने खाली वक़्त में इन कहानी की किताबों को जब ऊंचे स्वर में पढ़ते थे तो उनकी बोलने की क्षमता विकसित होती थी और नए व कठिन शब्द आसानी से जुबान पर चढ़ जाते थे.

स्कूलों में टीचर्स बच्चों को खड़ा कर के चैप्टर पढ़वाते थे. ये एक्सरसाइज उन्हें बढ़िया वक्ता बनाती थी. क्या आज कहीं ऐसा होता है? आज तो हर बच्चे के हाथ में स्मार्ट फ़ोन है और वह मुंह पर ताला मारे बस आंखें गड़ाए औनलाइन पढ़ाई कर रहा है. क्लास में टीचर आते हैं, लैक्चर देते हैं और बस हो गई पढ़ाई. अब न क्लास में इमला बोली जाती है, न हैंड राइटिंग सुधारने वाली पुस्तकें लिखवाई जाती हैं, न क्लास में बच्चों को खड़ा कर के ऊंची आवाज में चैप्टर पढ़ने के लिए कहा जाता है. फिर बच्चों की वाक्शक्ति कैसे बढ़े? वो तो कुछ पढ़ने में हकलातातुतलाता ही रहेगा.

दरअसल बच्चों को बोल कर पढ़ने से दूर करने के साथ हम एक ऐसी पीढ़ी तैयार कर रहे हैं जो भविष्य में अपनी बातें किसी के सामने तर्कों और तथ्यों के साथ रखने में अक्षम होंगे. जो अपनेआप को कभी एक्सप्रेस नहीं कर पाएंगे. क्योंकि उन के पास न तो शब्द हैं, न ही वाक्य और न ही वाकशक्ति.

हाल में एक रिपोर्ट आई थी कि जो बच्चे कोरोना महामारी के दौरान पैदा हुए उन में से अधिकांश बच्चे लम्बे वाक्य बोलने में असमर्थ हैं. वजह यह कि कोरोना काल में ज्यादातर चेहरे मास्क से ढके रहे. बच्चों ने लोगों को बोलते वक्त उन के लिप मूवमेंट नहीं देखे.

महामारी के कारण लोग बच्चों को ले कर बाहर नहीं निकले तो उन्होंने बाहरी लोगों को बातें करते नहीं सुना. घर में मातापिता कितनी बात करते होंगे? इन कारणों से बच्चे वाक्य गढ़ने और बोलने में फिसड्डी रह गए. दरअसल जिस चीज की जितनी अधिक प्रैक्टिस की जाती है इंसान उस में उतना ही माहिर होता जाता है. जिस चीज की प्रैक्टिस छोड़ दी जाए वह चीज वह जल्दी भूल जाता है.

तानाशाही का अगला टूल एक देश एक चुनाव, इस के बदले करें यह काम

कांग्रेस के बाद आम आदमी पार्टी ने ‘एक देश, एक चुनाव’ पर अपने विचार देते हुए कहा है कि आम आदमी पार्टी ‘एक देश एक चुनाव’ का पुरजोर विरोध करती है. ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ संसदीय लोकतंत्र के विचार, संविधान की मूल संरचना और देश की संघीय राजनीति को नुकसान पहुंचाएगा.

‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ त्रिशंकु विधायिका से निबटने में असमर्थ है. सक्रिय रूप से दलबदल विरोधी और विधायकों और सांसदों की खुली खरीदफरोख्त की बुराई को प्रोत्साहित करेगा. एक साथ चुनाव कराने से जो लागत बचाने की कोशिश की जा रही है वह भारत सरकार के वार्षिक बजट का मात्र 0.1 फीसदी है. इस के पहले कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ को ले कर बनी उच्च स्तरीय समिति को पत्र में लिखा कि ‘संसदीय शासन व्यवस्था अपनाने वाले देश में एक साथ चुनाव कराने के विचार के लिए कोई जगह नहीं है और उन की पार्टी इस का पुरजोर विरोध करती है.

‘एक साथ चुनाव कराने का विचार संविधान की मूल संरचना के खिलाफ है. अगर एक साथ चुनाव की व्यवस्था लागू करनी है तो संविधान की मूल संरचना में पर्याप्त बदलाव की जरूरत होगी. जिस देश में संसदीय शासन प्रणाली अपनाई गई हो, वहां एक साथ चुनाव के विचार के लिए कोई जगह नहीं है. एक साथ चुनाव कराने के सरकार के ऐसे प्रारूप संविधान में निहित संघवाद की गारंटी के खिलाफ हैं.’

भाजपा समर्थन में क्यों

केंद्र की मोदी सरकार ने ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ अपनाने के पहले एक समिति का गठन किया है. इस के मुखिया पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को बनाया गया है. देश के कुल 46 राजनीतिक दलों को भी अपने सुझाव देने के लिए कहा गया था. इन में से 17 राजनीतिक दलों ने अपने सुझाव समिति को सौंप दिए हैं. देश में बीते लंबे समय से एक राष्ट्र एक चुनाव के लिए बहस जारी है. केंद्र की मोदी सरकार भी देश में विधानसभा और लोकसभा चुनावों को एक साथ करवाने के लिए समर्थन जता चुकी है. विभिन्न विपक्षी दलों ने इस कदम का विरोध भी किया है.

भाजपा एक ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ की समर्थक है. उस का सब से बड़ा कारण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं. भाजपा के पास मोदी से बड़ा कोई नेता नहीं है. ऐसे में हर चुनाव में पार्टी उन का ही उपयोग करना चाहती है. पार्षद चुनाव से ले कर लोकसभा के चुनाव तक हर चुनाव मोदी नाम पर ही लड़ा जा रहा है. यही नहीं कोरोना काल में फ्री राशन के लिए जो बैग बनाए गए उन में भी मोदी का नाम था. राममंदिर में प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में बहुत सारी आलोचनाओं के बाद भी केवल नरेंद्र मोदी ने हिस्सा लिया. उन के साथ संघ प्रमुख मोहन भागवत ही दिखाई दिए.

भाजपा की कार्यशैली में आतंरिक लोकतंत्र कहीं दिखाई नहीं देता है. बड़ेबड़े आधार वाले नेताओं को दरकिनार कर दिया जाता है. मध्य प्रदेश चुनाव में जीत दिलाने वाले शिवराज चौहान हो या गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपाणी या महाराष्ट्र के देवेंद्र फडणवीस एक लंबी लिस्ट है. भाजपा में ऐेसे नेताओं की जिन को एक झटके में दरकिनार कर दिया गया.

राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा में उन नेताओं को हाशिए पर रखा गया जिन्होंने इस आंदोलन की आधारशिला रखी थी. लालकृष्ण आडवाणी से ले कर उमा भारती, विनय कटियार तमाम नाम हैं. भाजपा चाहती है कि ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ के जरीए वह इस तरह की चुनावी व्यवस्था करें जिस में एक नेता की मोनोपोली बनी रह सके.

‘ राइट टू रिकौल’ क्या है

अन्ना आंदोलन के समय जब जन लोकपाल कानून की बात उठी थी उसी समय ‘नोटा’ यानी ऊपर का कोई चुनावी प्रत्याशी पसंद नहीं और ‘राइट टू रिकौल’ को चुनावी सुधार में जरूरी था. इस में जनता को अपने चुने गए प्रतिनिधियों को कार्यकाल पूरा होने से पहले ही वापस बुलाने का अधिकार दिया जाना था. इस पर ध्यान नहीं दिया गया. ऐसे में ‘राइट टू रिकौल’ उपेक्षित हो कर रह गया.

चुने गए प्रतिनिधियों को वापस बुलाने के अधिकार का इतिहास काफी पुराना है. प्राचीन काल में एंथेनियन लोकतंत्र से ही यह कानून चलन में था. बाद में कई देशों ने इस राईट टू रिकौल को अपने संविधान में शामिल कर लिया. इस कानून की उत्पत्ति स्विटजरलैंड में हुई थी. इस का चलन सर्वप्रथम अमेरिकी राज्यों में देखा गया. वर्ष 1903 में अमेरिका के लौस एंजिल्स की म्यूनिसपैलिटी, 1908 में मिशिगन और ओरेगोन में पहली बार ‘राइट टू रिकौल’ राज्य के अधिकारियों के लिए लागू किया गया था.

भारत में राइट टू रिकौल की बात सब से पहले लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने 4 नवंबर,1974 को संपूर्ण क्रांति के दौरान राइट टू रिकौल का नारा दे कर की थी. तब से ले कर अब तक राइट टू रिकौल सिर्फ घोषणाओं तक ही सीमित रहा है. इस बाबत किसी भी तरह के ठोस कानून बनाने को ले कर किसी भी राजनीतिक दल ने कोई पहल नहीं की है. जबकि सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि राइट टू रिकौल वर्तमान स्थिति में सब से महत्त्वपूर्ण व्यवस्था है जिस के माध्यम से लोगों को सशक्त किया जा सकता है और लोकतंत्र को मजबूत बनाया जा सकता है.

कनाडा की ब्रिटिश कोलंबिया विधानसभा ने 1995 से रिकौल चुनाव को मान्यता दी. जिस के जरिए मतदाता अपने संसदीय प्रतिनिधि को पद से हटाने के लिए अर्जी दे सकते हैं. रिकौल चुनाव अमेरिका में प्रत्यक्ष लोकतंत्र का एक सशक्त उपकरण है- अलास्का, जौर्जिया, कंसास, मिनेसोटा, मोंटाना, रोड आईलैंड और वाशिंगटन जैसे प्रांत धोखाधड़ी और दुराचार के आरोप पर रिकौल चुनाव की अनुमति देते हैं.

जरूरी है ‘राइट टू रिकौल’

भारत में वर्ष 2008 में छत्तीसगढ़ नगरपालिका अधिनियम, 1961 के तहत लोगों ने 3 निर्वाचित स्थानीय निकाय के प्रमुखों का निर्वाचन रद्द कर दिया. मध्य प्रदेश और बिहार में भी राइट टु रिकौल स्थानीय निकाय स्तर पर अस्तित्व में है. 2008 में लोक सभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने भी राइट टू रिकौल का समर्थन किया था.
गुजरात के राज्य निर्वाचन आयोग ने राज्य सरकार को नगरपालिका, जिले, ताल्लुका और ग्राम पंचायतों में निर्वाचित सदस्यों को वापस बुलाने के लिए कानून में जरूरी संशोधन की सलाह दी थी.

जिन नगर निकायों में राइट टू रिकौल का प्रावधान लागू है वहां संबंधित वार्ड के 50 फीसदी से अधिक मतदाताओं को एक हस्ताक्षरित आवेदन नगर विकास विभाग को देना होता है. विभाग उस हस्ताक्षरित आवेदन पर विचार करता है और देखता है कि यह आवेदन कार्यवाही योग्य है या नहीं. यदि विभाग इस बात से सहमत है कि संबंधित वार्ड काउंसलर ने दोतिहाई मतदाताओं का विश्वास खो दिया है तो वह उक्त कांउसलर को पद से हटा सकता है.

लोकतंत्र में एक ऐसी सरकार की परिकल्पना की गई है जो लोगों की, लोगों के लिए और लोगों द्वारा चुनी गई हो. दुर्भाग्यपूर्ण है कि कई बार बहुमत की चुनाव प्रणाली में हर निर्वाचित जनप्रतिनिधि को लोगों का सच्चा जनादेश प्राप्त नहीं होता है. तर्क और न्याय का तकाजा है कि अगर लोगों को अपना जनप्रतिनिधि चुनने का अधिकार है, तो उन्हें जनप्रतिनिधियों के कर्तव्यपालन में विफल रहने या कदाचार में लिप्त होने पर हटाने का भी अधिकार मिलना चाहिए.

जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951 केवल कुछ अपराधों के मामले में जनप्रतिनिधियों को हटाने की मंजूरी देता है और जनप्रतिनिधियों की सामान्य अक्षमता और मतदाताओं की नाराजगी को उन्हें हटाने का कारण नहीं मानता. ‘राइट टू रिकौल’ लोकतंत्र के लिए एक जरूरी कदम होगा. इस को लागू करने के लिए फैसला लेना चाहिए.

बहानों के चलते भूल ना जाना समधियों को, इस तरह बनाएं रिश्तों को मजबूत

प्यार इक बंधन है जिस में इक सुर मेरा, इक तुम्हारा. शादी भी किसी सुरीले सरगम से कम नहीं. दो दिल एक बंधन में बंधते हैं. शादी में दो परिवार भी मिल कर एक होते हैं. इक दूजे के दुखसुख में साथ निभाने का संकल्प करते हैं. इस सरगम में यदि दोनों परिवारों की ओर से एक भी सुर ढीला हो जाए तो रिश्ता बेसुरा हो जाता है. शायद इसीलिए समधी और समधिन आपस में इस नए रिश्ते की शुरुआत मीठे बोलों से, गले मिल कर, मुंह मीठा करवाने की रस्म के साथ करते हैं.

समधी और समधिन का रिश्ता बेटीबेटे की शादी में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है. मुंह की मिठास कभी फीकी न पड़े, कड़वाहट में तबदील न हो, इस के लिए इकदूजे को फूलों के हार पहनाए जाते हैं. उपहार दिए जाते हैं. इतना ही नहीं परिवारों के खानदानी, संस्कारी होने के दावे भी पेश किए जाते हैं. सच में यह रिश्ता बहुत मीठा होता है. उस की मिठास बनी रहे, यह आप के अपने ही हाथों में है.

मौजूदा युग में रिश्ते इंटरनैट के जरिए बनने लगे हैं. वैबसाइट पर लड़कालड़की के बायोडाटा दिए जाते हैं. दोनों को ठीक लगा तो रिश्ता पक्का हो गया. मातापिता के बारे में, उन के रिश्तेनातेदारों, खानदान आदि के बारे में ज्यादा पूछताछ नहीं होती. पहले तो घर का कोई बड़ा बुजुर्ग, रिश्ता सुझाता था, फिर दोनों परिवार वालों के बारे में विस्तार से चुपकेचुपके जानकारी हासिल कर ली जाती थी.

आज के दौर में जोडि़यां मैट्रीमोनियल वैबसाइट्स पर बनती हैं. युवा कितने भी आधुनिक हो जाएं, उन्हें अपनी जैसी समझ रखने वाले जीवनसाथी मिल जाएं, मगर मातापिता की जरूरत को बदलते समाज में भी झुठलाया नहीं जा सकता. दोनों परिवारों का मकसद रहता है युगल जोड़ी एकदम खुश रहे, परिवार को जोड़ कर रखे. अच्छे समधी, समधिन कैसे बनें, जानने के लिए मिलते हैं कुछ ऐसे ही परिवारों से-

आप हैं शुभचिंत सोढ़ी-पंजाब के जानेमाने ज्वैलर ढेरासिंह के परिवार की 2 सुशील संस्कारी बेटियों की मां, सुलझी हुई. प्यारी सी समधिन. इन की बड़ी बेटी पटियाला शहर में ब्याही है. संभ्रांत परिवार है पिंकी चन्नी का. शुभचिंत सोढ़ी और पिंकी चन्नी दोनों पुरानी सहेलियां हैं. 13-14 वर्ष पहले एक महिला क्लब से दोस्ती शुरू हुई और यह कब रिश्तेदारी में बदल गई, पता ही नहीं चला. पिंकी चन्नी बताती हैं, ‘‘मेरा बेटा और शुभचिंत की बेटी साथ पढ़ते थे. दोनों एकदूसरे को पसंद करते थे. दोनों में प्यार हो गया. जब मुझे पता चला तो मेरी पहली प्रतिक्रिया थी, अरे यह तो बहुत अच्छा है. मैं तो लड़की को जानती हूं और उस की मां को भी. खातेपीते लोग हैं. हमारी तो खूब जमेगी. बस फिर क्या था, सभी कुछ बेतकल्लुफी से हुआ.

‘‘दरअसल, रिश्ते तो सम्मान मांगते हैं, आदर मांगते हैं और आप जानते हैं जहां प्यार हो, सम्मान व आदर स्वयं ही हो जाता है. हमें गर्व है हमारी बहू ने आज तक मुझे शिकायत का कोई मौका नहीं दिया. फिर भला हम मांबाप रिश्ते को प्यार से क्यों न निभाएं. हमारे संबंध किसी औपचारिकता के मुहताज नहीं. हम कभी भी एकदूजे के यहां चले जाते हैं. यहां तक कि रात के 10-11 बजे भी बेधड़क शुभचिंत के घर यानी बेटी की ससुराल पहुंच जाते हैं और कौफी की चुसकियां लेते हैं. मैं तो सीधे किचन में घुस जाती हूं. हम दोनों मिल कर झटपट चाय की ट्रे तैयार कर लेती हैं. पता ही नहीं चलता समय कैसे पंख लगा कर उड़ जाता है. खुशी तब दोगुनी हो जाती है जब लोग बच्चों को देख कर कहते हैं, ‘वाह, क्या जोड़ी है’ और हम दोनों सहेलियों को देख कर लोग कह उठते हैं, ‘समधिन हो तो शुभी पिंकी जैसी.’ ’’

जब शादीब्याह की बात पक्की होती है तो एक नए रिश्ते का जन्म होता है. पंजाबी में इसे कुड़म-कुड़माचारी कहा जाता है. कुड़माचारी है बहुत गजब की चीज. इस में दायित्व का, रस्मोरिवाज का, लेनदेन का एक अनकहा बोझ होता है. यही बोझ रिश्ते को हंसतेहंसते निभाने की वजह बनता है. दोनों पक्ष यह मानते हैं कि क्या हुआ मेरे दामाद या बहू के भी मांबाप हैं. उस का परिवार है. यदि हम उन के आने पर आवभगत करते हैं, उन का सम्मान करते हैं, तो देखा जाए तो एक प्रकार से हम सब वही तो कर रही हैं जिस की हम अपेक्षा करते हैं. ऐसा ही मानना है बीएसएनएल में कार्यरत नरिंदर नागपाल का.

मिसेज नागपाल का मानना है कि समधीसमधिनों का रिश्ता बहत ही मधुर है, बहुत ही मीठा है. जो इस रिश्ते को दिलोजां से निभाता है तो सच मानो, वह अपनी औलाद को जीजान से प्यार करता है, उन की गृहस्थी सुखी बनाता है. यह प्यार ही ऐसी शक्ति है जो रिश्ते को खींचता है और रिश्ता पुष्पित व पल्लवित होता है. और फिर गृहस्थी खुशहाल रहती है.

रिश्ते की लाज रखें

वे अपना किस्सा सुनाती हुई आगे बताती हैं, ‘‘हमारे बच्चों का रिश्ता यानी मेरे बेटे का रिश्ता तो उसी न्यूज चैनल में काम करते समय चैनल प्रमुख की ओर से सुझाया गया था. मुझे गर्व महसूस हुआ कि मेरे बेटे का व्यक्तित्व, उस का व्यवहार न्यूज चैनल के मालिक को भा गया और उन्होंने अपनी ओर से मेरे बेटे के लिए पढ़ीलिखी लैक्चरर लड़की का रिश्ता, चैनल के सिक्योरिटी हैड की बेटी के लिए सुझाया.

मुझे लगा बतौर मांबाप, हमारी यह जिम्मेदारी बनती है कि हम इस रिश्ते की लाज रखें. अच्छे से निभाएं.’’ वे आगे कहती हैं, ‘‘रिश्तेदार अच्छे होते हैं, सुखदुख में एकदूजे के काम आते हैं, इस तथ्य को झुठलाएं नहीं. इस नए अजन्मे रिश्ते को एक अच्छा नाम दें. समधीसमधिन प्यार दो, प्यार लो. एकदूसरे को बेलौस मुहब्बत दें, कमियां निकालें. अनचाही बातों को नजरअंदाज कर दें. अपेक्षा न रखें. बहू के मां बाप का पूरा आदरसम्मान करें. बेरहम हो कर मीनमेख न निकालें. रिश्ते बनाने में उम्र लग जाती है लेकिन मुंह से निकले अनचाहे शब्दों से रिश्ते दरक जाते है, पलभर में टूट जाते हैं.

कुछ कहना चाहें तो इस तरीके से कहें कि बिगड़ी बात बन जाए. अब देखिए न, मेरे घर में सुखशांति यदि मेरे और मेरे पति के खुशनुमा व्यवहार से रह सकती है तो क्यों मैं कड़वाहट घोलूं. समधीसमधिन से कभीकभार मुलाकात होती है. गले मिलें तो ही अच्छा है गले न पड़ें.’’

किसी ने सच ही कहा है, रिश्ते इन 2 बातों पर निर्भर करते हैं, पहला, आप के दिल में क्या है, और दूसरा, आप की जेब में क्या है. फिर यह रिश्ता बापबेटे, मांबेटी, दोस्ती या फिर समधियाने का क्यों न हो. ऐसा मानना है समाजसेविका उर्मिल पुरी का.

वे कहती हैं, ‘‘जहां कथनी और करनी में फर्क आया, समझो वहीं रिश्ते में बनावट आई और रिश्ता खोटा हो गया. मैं ने तो जब रिश्ते की बात की, दामाद को देखा, वहीं तय कर लिया था कि अपने समधियाने को प्यार दूंगी और बदले में प्यार लूंगी भी. अच्छी सोच से इस रिश्ते को पालूंगी. घर में बहू को लाऊंगी, सारे अरमान पूरे करूंगी. प्यार के हिंडोले में, रिश्तों की डोरी से इसे इस तरह झुलाऊंगी कि मेरी बहू की मां को मुझ पर भी प्यार आए और वह यह महसूस करे. जैसे उस की बेटी अपने घर में थी वैसी ही ससुराल में है. बहू को मर्यादा का पाठ भी पढ़ाऊंगी. परिवार की हर छोटीछोटी बात को पीहर में न बताने की सलाह दूंगी और तर्क भी. साफगोई से रिश्ते को मजबूत करूंगी ताकि किसी किस्म का संदेह न हो, बातचीत बनी रहे.’’

सेवानिवृत्त डिप्टी जनरल मैनेजर श्याम गर्ग की पत्नी शशी गर्ग गर्व से बताती हैं, ‘‘मुझे अपनी बहू की उस की मां द्वारा की गई परवरिश पर बड़ी खुशी होती है,’’ बात का खुलासा करते हुए वे कहती हैं, ‘‘मेरे बेटे की नईनई शादी हुई. पतिपत्नी दोनों हनीमून पर जा रहे थे. बहू ने मुझ से कहा, ‘‘मैं अपने कीमती आभूषण, जो शादी में मिले हैं, यहीं छोड़ जाऊं आप के पास?’’ मैं ने कहा, ‘‘नहींनहीं, आप रखो अपने पास, पहनो इन्हें या फिर अपनी मम्मी के पास रख लो.’’

इसी बीच मेरी समधिन का फोन आ गया, उन्होंने मेरी बहू से कहा, ‘‘नहीं बेटा, गहने मेरे पास नहीं, अपनी सास के पास रखो. अब यह उन की मरजी है, वे इन्हें आप को दें या लौकर में रखें. अब तुम हमारी बाद में, पहले उन की बेटी हो. बहू बनो, बहू के फर्ज पहचानो. पिछले घर की बातें, भूल कर नए घर के माहौल में ढलने की कोशिश करो.’

अब आप ही बताइए जो अपनी बेटी को इतने अच्छे संस्कार दे रही हैं, दखलंदाजी नहीं कर रहीं, रिश्ते में एक स्पेस दे रही हैं, मेरा रिश्ता उन से कैसे न अच्छा होगा.

यही बातें तो रिश्ते को पनपने में मदद करती हैं.’’ रिश्तों की उड़ान में- इस तरह यही सच है और यही सफल है कि समधियाने का इक धागा मेरा, इक तुम्हारा.

मैं गरीब हूं लेकिन अमीर लड़की से प्यार करता हूं, क्या करूं?

सवाल

मैं एक युवती से प्यार करता हूं. वह भी मुझे दिल से चाहती है और हम शादी करना चाहते हैं, पर वह धनी है जबकि मैं उस के जितना पैसे वाला नहीं हूं. क्या उस के परिवार वाले हमारे रिश्ते के लिए हां कर देंगे और शादी करने के बाद क्या मैं उस का खर्च उठा पाऊंगा? कृपया सलाह दें.

जवाब

लवर्स के सामने पैसा मिट्टी है. प्रैक्टिकली सोचें कि बिन पैसे सब असंभव है. ऐसा नहीं है कि रिच लोग ही रिच लोगों से प्यार के हकदार हैं. दिल कमबख्त किसी के भी हाथों मजबूर हो सकता है. आप उस युवती को अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में बताते हुए अपने परिवार की वित्तीय स्थिति की भी जानकारी दे दें. यह सच बताने में न झिझकें कि आप उस की सारी जरूरतें संभवतया न पूरी कर पाएं.

वास्तविकता से परिचित होने पर यदि उसे वास्तव में लगाव होगा तो वह कम में भी गुजारा कर लेगी वरना एक बार कड़वा घूंट भर कर अलगाव में ही बेहतरी है. अगर वह हर हाल में ओके कर देती है तो उस के परिवार वालों से बातचीत करें लेकिन उन्हें भी सब सच बताएं.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem

कुहासा छंट गया : अपनी गलती का एहसास करती बहू की दिलचस्प कहानी

माया अपने रूम में लेटी टी वी देख रहीं थी कि  उन्हें अपने बेटे अनिल की फ़ोन पर जोर जोर से बोलने की आवाज आयी , उन्होंने टी वी की आवाज बंद की , कान बेटे की चिंतित आवाज पर  लगा दिए , अनिल किसी से  कह रहा था , डॉक्टर साहब , आभा  आपकी पेशेंट है , उसकी कमर  में अचानक फिर कुछ हो गया है , आप सोसाइटी में ही तो हो,  आपको तो पता ही है , अभी लॉक डाउन में हमारी सोसाइटी का  मेडिकल स्टोर फिलहाल बंद है , कुछ तो आपके पास दवाई होगी , आप कहो तो  मैं आकर आपके यहाँ से  ले जाता हूँ ”
फिर माया को अंदर लेटे  लेटे समझ आ गया कि  उनकी बहू आभा को कमर में कुछ दर्द है.उनका मन हुआ , जाएँ , देखें कि आभा को क्या हुआ है , उठ कर बैठीं  , फिर लेट गयीं , सोचा , छोड़ो , कुछ भी  कहूँगी , उल्टा ही जवाब देगी. निपटें खुद ही उन्होंने फिर टी वी देखना शुरू किया ही था कि बेटे के अंदर आते ही फिर टी वी बंद करके उसका मुँह देखने  लगी , इतने में पीछे पीछे पांच साल  की पोती  टिनमिन भी  आ गयी , ” दादी , क्या देख  रही हो ?” उनके कुछ बोलने से पहले ही बेटे ने परेशान होते हुए कहा ,” माँ , आभा लैपटॉप पर शायद बहुत देर से कुछ काम कर रही  थी , अचानक  उठी तो बहुत बुरा बैकपेन हुआ , अब तो हिल भी नहीं  पा रही , डॉक्टर से बात हुई  , वह कह रही है कि उनकी बिल्डिंग में एक कोरोना का केस हो गया है , बिल्डिंग सील्ड है , वह कुछ दवाई नहीं दे पाएंगीं , बस रेस्ट बोल दिया”
”तो मैं क्या करूँ ?”
”टिनमिन को नाश्ता देना है , और हमें भी भूख लगी है  कुछ बना दो , माँ ”
” मेरा बनाया उसे पसंद आएगा ?”
”चलो न , माँ , छोड़ो न अभी यह , भूख लगी है ”

अपने रूम में लेटी आभा भी यह बातचीत सुन रही थी , सास पर हमेशा की तरह गुस्सा तो बहुत आया , पर मजबूरी थी .दर्द के मारे हिला भी नहीं जा रहा था.माया सीधे उठ कर किचन में गयी , टिनमिन भी उनके साथ  साथ किचन के एक स्टूल पर बैठ गयी , माया को अच्छा लगा , आभा तो टिनमिन को उनके पास आने से अक्सर किसी न किसी बहाने रोक लेती है , वह जानती हैं. माया ने सबसे पहले पानी गर्म करके हॉट वाटर बैग में रखा , टिनमिन को ऊपर से पकड़ा कर कहा ,” बेटा जाओ , अपनी माँ को देकर  आओ , सिकाई करेगी तो  आराम मिलेगा ”

अनिल ने देखा तो मुस्कुरा दिया , माया ने घूरा ,” हसो मत , देख कर आओ कि सिकाई कर रही है या नहीं ” अनिल फिर हस दिया , माया ने  फिर आभा की ही पसंद को ध्यान में रखते हुए जल्दी से वेज चीले की तैयारी कर ली , अनिल और टिनमिन के लिए थोड़ा सा सूजी का हलवा भी बना दिया , अनिल भागता सा आया ,” माँ , क्या बना लिया इतनी जल्दी ?” बहुत अच्छी खुशबू आ रही है ” माया को बेटे पर खूब प्यार आया , सब नाश्ता प्लेट्स में लगा दिया , कहा , तुम लोग  गर्म गर्म शुरू करो ,” फिर पास खड़ी टुकुर टुकुर देखती टिनमिन से कहा ,” रानी बेटी मम्मी पापा के लिए गर्म गर्म चीले ले भी जाएगी और खाती भी  रहेगी ”

”हाँ , दादी , मैं आपकी हेल्प करुँगी ”

अनिल तो हलवा प्लेट में से चाट चाट कर खा गया , तकिये का टेक लगाए आभा ने कितने ही चीले  खा लिए , उसे पता ही  नहीं चला , पेट भर गया था , पर नीयत भर ही नहीं रही थी , टिनमिन को किचन के भाग भाग कर चक्कर काटने में खूब मजा आ रहा था , आखिर में माँ की अदरक  वाली  चाय पीकर तो अनिल का चेहरा खिल उठा  आभा ने फिर एक पेन किलर लिया और लेट गयी. अनिल और टिनमिन ने मिलकर सब बर्तन उठाकर किचन में रखे. अनिल ने  कहा ,” माँ , आप बर्तन धोना मत , मैं थोड़ा ऑफिस का काम करके धो लूँगा. अभी भी आपने काफी काम कर दिया , आराम कर लो .”

” मुझे इतना आराम का शौक नहीं है जितना तुम्हारी पत्नी को  लगता है , उसे ही मेरा काम पसंद नहीं आता तो मैं भी क्यों फिर मेहनत करूँ? यह सोचकर उसे कुछ बोलना ही छोड़ दिया . खैर , शायद उसे अब मेरा काम करना बुरा न लगे , तो मैं सब संभाल लूंगी , तुम चिंता न करो .”

अपने रूम  में लेटी आभा को माँ  बेटे  की बात का एक एक शब्द सुनाई दिया , गुस्सा तो आया , लगा , माया उसे ही सुना  रही हैं , इस टाइम मजबूरी है , कुछ कह नहीं सकती  , सुनना ही पड़ेगा . लेटे लेटे आभा माया के बारे में ही सोचने  लगी , वह नहीं चाहती कि माया उसकी घर गृहस्थी में कभी दखल दें , इसलिए उसने हमेशा उनसे एक दूरी  ही बनाये रखी, वह भी ऑफिस जाती है, दिन भर के लिए देवकी बाई आकर सारे काम करती है , वह माया से ज्यादा तो देवकी को सम्मान और स्नेह देती है कि कहीं भाग न जाए , अब लॉक डाउन के टाइम देवकी को आये एक महीना हो रहा है , मुंबई की हालत खराब है , पता नहीं कब तक देवकी आ पायेगी , उसकी हालत खराब हो रही है , घर के काम और ऑफिस के काम संभालने में ही आज कमर जवाब दे गयी.

कई सालों से वह माया के साथ जिस तरह का व्यवहार कर रही है, वह सास भूल थोड़े ही जाएगी , कम अड़ियल थोड़े ही न हैं , एक बार कुछ बुरा लग जाता है तो पीछे हट जाती हैं , यह अच्छी बात है कि लड़ती झगड़ती नहीं , थोड़े  ताने मार देती हैं , उसे याद आया एक बार ऐसे ही उसकी तबीयत खराब हुई तो माया जब उसके कमरे में आकर उसके हाल पूछने लगीं तो उसने  कितने रूखे तरीके से कहा था कि आप चिंता न करो , देवकी है , आपसे ज्यादा तो उसे मॉडर्न तरीके पता हैं , आपके घरेलू पुराने तरीके मेरे किसी काम के नहीं ।” उसे गुस्से में घूर कर रह गयीं थी माया , उसके बाद उससे उसकी तबीयत कभी नहीं पूछी थी , और आज भी तो उसके पास एक बार भी नहीं आयीं , हैं तो बहुत अड़ियल , खैर , अभी तो मजबूरी है.

अनिल लैपटॉप पर बैठ गया , टिनमिन कार्टून देखने लगी , माया धीरे धीरे बर्तन धोने लगी , कहीं आभा की आँख लग गयी हो , शोर से खुल न जाए , काम करते करते माया सोच रही थी , उच्च शिक्षित आभा जब बहू बनकर आयी तो उन्होंने कभी यह न सोचा था कि एक ही बहू , और वह भी अपनी शिक्षा और नौकरी का घमंड करने वाली होगी , उनके पति तो कबका इस दुनिया से  जा चुके थे , अनिल के साथ मुंबई के इस थ्री बैडरूम में वह खुश थीं , पर आभा उन्हें पता नहीं क्यों इतना दूर दूर रखतीं , एक दीवार सी खड़ी रहती दोनों के  बीच में , अनिल सैंडविच सा बना रहता , बेटे की लाइफ में कभी कोई  प्रॉब्लम न हो , इसलिए वह कभी लड़ती झगड़ती नहीं.

अनिल काम के बीच में एक ब्रेक लेकर उठा , हैरान हुआ ”माँ , इतना काम क्यों  निपटा  लिया ? मैं हेल्प करता हूँ ”” देखो , आभा को कुछ  आराम है ?”आभा को दर्द तो था , अनिल ने फिर  डॉक्टर से बात की  , इस समय  सिर्फ रेस्ट करना ही सलाह दी गयी , माया ने  सरसो  का  तेल गर्म होने रखा , उसमे अजवाइन और कुछ लहसुन की  कलियाँ  डाली , फिर छानकर अनिल को कटोरी देकर कहा ,” इस तेल से आभा  की  कमर  में मालिश करते रहो , बहुत आराम मिलेगा , और आराम ही करे , काम सब हो जायेंगें  ” टिनमिन दादी के आगे पीछे घूमती खूब खुश थी. अब तक माया आभा के पास खुद नहीं गयी थी , यही चलता आया था , दोनों शायद ही कभी मिलकर साथ बैठी थीं , माया के मन में भी आभा के स्वभाव पर गुस्सा रहता था , पर अब उसकी चिंता भी थी. आभा को तेल मालिश से जादुई तरीके से आराम मिल रहा था , माया के कमरे में सुबह की धूप बहुत अच्छी आती थी , उन्होंने अनिल से कहा ,” मेरी तो सुनेगी नहीं वह , उसे कहो , थोड़ा मेरे रूम में  सुबह आकर बैठ जाए , मुझे तो एक बार बोल  दिया था , कि मैं विटामिन डी के कैप्सूल खा लेती हूँ , देख लो , अभी दर्द में शायद तुम्हारी सुन ले । ” माया जो भी अनिल से कहतीं , इतनी जोर से कहतीं कि आभा को सुनाई दे जाए .” इस समय भी जब अनिल उसके पास गया , वह आज हंस पड़ी,
”हाँ , हाँ , सुन लिया , बैठ जाती हूँ धूप में , और माँ को बोलो , मुझे सब्जी दे दें  , बैठे बैठे काट दूँगी , अकेले कितना काम करेंगीं ”
” खुद नहीं बोल सकती तुम ?”
”वे मुझसे कहाँ सीधे बात करेंगीं , अभी तक एक बार भी मेरे पास नहीं आयी ”
”तुम ही तो कभी यही चाहती थी  डिअर , कि वे तुम्हारे आसपास  भी न रहें , इतना सेल्फ रेस्पेक्ट तो हो सकता है न उनमे ?” आभा चुप रह  गयी. अब सब काम माया ने अपने हाथ में ले लिया था , आभा बस थोड़ा भी उठ रही थी तो उसकी तकलीफ बढ़ रही थी .

वह अपना थोड़ा बहुत ही कर पा रही थी , टिनमिन की तरफ से वह कभी इतनी बेफिक्र नहीं रही थी , देवकी का बनाया आधा खाना टिनमिन छोड़ देती थी , आधा फेकना ही पड़ता था , कभी मिर्च तेज लगती , कभी टेस्ट समझ नहीं आता , शुरू शुरू में कितनी ही बार माया ने कहा था आभा , बच्चा मेड का बना क्यों खाये , मैं आराम से किचन का काम कर सकती हूँ , खाना तो अपने हाथ का ही होना चाहिए , जब तक कोई परेशानी या मजबूरी न हो . मेरी थोड़ी सी भी हेल्प वह कर दे तो मैं बना लिया करुँगी , तुम आराम से  ऑफिस देखो .” वह तुनक कर बोली थी ,” डोंट वरी माँ , हम कुक अफ्फोर्ड कर सकते हैं.” उस दिन के बाद माया ने इस टॉपिक पर बात ही नहीं की थी. टिनमिन तो जैसे दादी के खाने की फैन हो गयी थी , जो माया बनातीं, टिनमिन शौक से खाती  घर जैसे देवकी के बिना चल रहा था , आभा हैरान थी , उसकी कमर में तकलीफ होने से  पहले देवकी के न होने पर भी माया ने कोई हेल्प ऑफर नहीं की थी , और अब सब ऐसे संभाल लिया था जैसे कबसे ये सब काम ऐसे ही चल रहे हों  आभा को पांचवें दिन से कुछ आराम होना शुरू हुआ , माया ने अनिल को जरा तेज आवाज में कहा जिससे आभा भी सुन  ले ,” उसे कह दो , आराम हो भी गया हो तो एक साथ सब काम शुरू करने की जरुरत नहीं है , पीछे टेक लगाकर आराम से बैठ कर थोड़ा बहुत ऑफिस का  जो जरुरी हो , वह कर ले , उसकी देवकी आ जाएगी तो फिर वह जाने , देवकी जाने , फिलहाल मेरे काम से ही खुश रहे ”

आज आभा को  बात करने केइस  ढंग पर हसी आ गयी , अनिल जब उसके पास आया तो वह जोर से हसने लगी ”माँ भी न ! कितने ताने ”
अनिल को भी हसी आ रही थी. आभा सोच रही थी कि आज तक वह गलत कर रही थी , यह माँ का घर भी तो  है , वह कितना गलत कर रही  थी , घर की मेड से भी अच्छा व्यवहार करती है और माँ से इतना बुरा जैसे उसे उनकी जरा भी जरुरत नहीं , सच तो यह है कि उसे ही उनकी जरुरत है , उनके स्नेह से आजकल घर कितना अलग लग रहा है , टिनमिन कितनी खुश है उनके साथ ! इस परेशानी के समय में उसकी सारी बदतमीजियां भुला कर सबका ध्यान रख रही हैं , माँ के इस स्नेह का कोई विकल्प नहीं हो सकता ! उसकी आँखों से जैसे एक पर्दा सा हट गया , इतने में माया की आवाज आयी ,” टिनमिन , ले , ये फल अपनी मम्मी को खिला दो , इतनी दवाई खा रही है , पेट जलता होगा ”

” जी , दादी ”
आज आभा को शरारत सूझी , वहीँ से बोली ,” टिनमिन , दादी को बोलो , मैं फल तभी खाउंगी , जब वे मेरे पास आकर बैठेंगी ”
माया ने जवाब दिया ,” मुझे और भी काम हैं , टिनमिन ”
आभा ने फिर कहा, ” मेरे पास बैठना सबसे जरुरी काम है , टिनमिन दादी को बता दो ” टिनमिन को तो इस खेल में ही मजा आने लगा , वह जोर जोर से हसी , अब दादी बोलेगी , अब दादी  का नंबर , ” उसके यह कहते ही सब हंस पड़े , अनिल ने माँ को प्यार से देखा , माया मुस्कुरा रही थीं , आभा ही उठ कर आ गयी , और चुपचाप माया से लिपट गयी , माया ने भी उसे सेहला सा दिया , टिनमिन ने कहा , दादी , अब कौन बोलेगा ?”

माया और आभा के मुँह से एक साथ  निकला ”दोनों ।” घर में काफी समय से फैला  दूरियों का एक  कुहासा आज जैसे छंटने लगा था

फाइव स्टार होटलों की शान देशी फूड

लखनऊ होटल ताज में खाने के तमाम तरह के स्वाद वाली डिश उपलब्ध थी. सब से अधिक लोग चाय के साथ पकौड़ी ही पंसद कर रहे थे. पकौड़ी भी तमाम अलगअलग स्वाद वाली थी. देशी फूड को प्रमोट करने और अपने यहां रूकने वालों को बताने के लिए फाइव स्टार होटल देश फूड के अलगअलग फेस्टिवल भी लगाते हैं. देशी फूड में चोखा बाटी से ले कर छोला भटूरा तक शामिल हो गया है. चाय के साथ पकौड़ी पंसद की जाने लगी है. हर होटल में चाट का कार्नर अलग से खुलने लगा है. यहां पानीपूरी, आलू टिक्की, मटर और दही भल्ले मिलने लगे हैं.

होटल ताज का अपना रेस्त्रां ही अवधयाना के नाम से है. इस के नाम से ही जाना जा सकता है कि यहां अवधी खाना मुख्यरूप से होता है. इस में नौनवेज और वेज दोनों ही तरह के खाने शामिल है. दाल चावल से ले कर लखनवी कबाब यहां मिलते हैं. यहां पपड़ी चाट, दही बडा, ठंडाई, मेवा लस्सी, कबाब और दाल तड़का जैसी देशी डिश का आनंद ले सकते हैं.

उत्तर भारत और पंजाबी फूड के साथ ही साथ दक्षिण भारत की इडली, सांभर, डोसा भी फाइव स्टार होटलों के मेन्यू का हिस्सा बन गया है. मुम्बई का वडापाव, पाव भाजी भी लोग पंसद कर रहे हैं.

इसी तरह से अब राजस्थानी और गुजराती डिश भी फाइव स्टार होटलों तक पहुंच गई है. वैसे यह सभी स्ट्रीट फूड का हिस्सा होती थी. आज भी सड़क किनारे चटखारे ले कर खाने वालों की संख्या कम नहीं है.

नोवाटेल होटल के जनरल मैनजर राहुल नामा कहते हैं ‘फाइव स्टार होटल में रुकने वाले अब अपने घर जैसा खाना पसंद करते हैं. ऐसे में जब उस को होटल में अपने घर जैसा खाना मिलता है तो वह उसे खाना पहले पंसद करते हैं. ऐेसे में हम इस बात का ख्याल रखते हैं कि हर राज्य का टेस्टी फूड अपन मेन्यू में शामिल करें. इस के साथ ही साथ सीजन के हिसाब से भी खाने को मेन्यू का हिस्सा बनाते हैं.’

नोवाटेल में जिमीकंद कबाब, दही कबाब जैसे कई स्वाद मेन्यू का हिस्सा बने हैं. ‘द ऐज’ होटल नोवाटेल के कैफे है. रूफ टौप रेस्त्रां है. खुले में खाने का अलग ही आनंद मिलता है. यहां पर चाय, दही के कबाब, पनीर टिक्का, मुर्ग मलाई टिक्का, गलावटी कबाब और कई तरह के देशी डिश है. ‘द स्क्वायर’ रेस्त्रां है. यहां पर डोसा, इडली, पराठा के साथ तमाम तरह के खाने का स्वाद लिया जा सकता है.

असल में पहले फाइव स्टार लोगों तक उन की ही पहुंच थी जो अमीर थे अब देशी फूड को गवंई खाना समझते थे. ऐसे में वह विदेशी फूड बहुत सम्मान के साथ खाते थे. अब देशी मिट्टी को पसंद करने वाले भी फाइव स्टार होटलों में रुकने लगे हैं. जो देशी खाने की मांग करते है. ऐसे में फाइव स्टार या उस जैसे छोटेबड़े होटल भी देशी खाने को अपन मेन्यू में केवल शामिल ही नहीं कर रहे, बड़े फक्र के साथ बताते भी हैं कि हमारे यहां देशी फूड भी है.

अगर स्वास्थ्य की नजर से देखें तो भी मैदा और मैदे से बनी चीजें लोग खाने में कम पसंद करने लगे हैं. यह लोग जब होटल पहुंचते हैं तो मोटे अनाज से बनी चीजें तलाश करते हैं.

ज्वार, बाजरा, चना और मक्का से तैयार होने वाली डिश खाना पंसद करते हैं. फाइव स्टार होटल में यह ‘मिलेट फूड’ के नाम से मिलने लगा है. जो मजा जलेबी में है वह बेकरी फूड में नहीं होता है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें