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‘पंचायत’ का फुलेरा गांव और झूठ, लोकतंत्र और तानाशाही

कोई 4 साल पहले आई दीपक मिश्रा द्वारा निर्देशित बेब सीरिज ‘पंचायत’ युवाओं द्वारा खासी पसंद की गई थी क्योंकि इस में फुलेरा गांव के बहाने ग्रामीण भारत की झलक दिखाई गई थी जिस से जब पढ़ालिखा नया नियुक्त शहरी पंचायत सचिव अभिषेक त्रिपाठी ( जितेंद्र कुमार यानी जीतू भैया ) रूबरू होता है, तो हैरान हो उठता है कि गांव की राजनीति में आज भी दबंगों का रसूख चलता है और उस में भ्रष्टाचार भी जम कर होता है.

इसी के एक प्रसंग में अंधविश्वासों का भी जिक्र है. होता कुछ यूं है कि एक योजना के तहत गांव में सोलर एनर्जी के 11 खंबे लगना स्वीकृत होते हैं. पंचायत की मीटिंग में सभी रसूखदार अपने घरों के सामने खम्बा लगाने का प्रस्ताव पास करा लेते हैं.

एक आखिरी खंबा लगने की बात आती है तो उसे गांव के बाहर की तरफ पेड़ के पास लगाने का प्रस्ताव आता है. गांव वाले मानते हैं कि उस पेड़ पर भूत रहता है.
अभिषेक चूंकि एमबीए कर रहा है इसलिए पढ़ाई की अपनी सहूलियत के लिए चाहता है कि आखिरी बचा हुआ खम्बा पंचायत औफिस के बाहर लग जाए जहां वह एक कमरे में रहता है. भूत वाली बात पर उसे यकीन नहीं होता इसलिए वह उस की सचाई जानने निकल पड़ता है. जिस से उसे पता चलता है कि कुछ साल पहले गांव के सरकारी स्कूल के मास्टर ने अपनी नशे की लत छिपाने के लिए यह झूठ फैलाया था जो इस कदर चला था कि कई गांव वालों को भूत होने का तजुर्बा हुआ था. कईयों को अंधेरी रात में उस भूत ने पकड़ा और दौड़ाया था. राज खुलता है तो सभी हैरान रह जाते हैं और खम्बा अभिषेक की मर्जी और जरूरत के मुताबिक लग जाता है.

देश में इन दिनों भूत वाले एक नहीं बल्कि कईयों झूठ सफेद, काले, हरे, पीले, भगवा, नीले सब इफरात से चल नहीं बल्कि दौड़ रहे हैं. नशेडी मास्टर तो सिर्फ भूत होने की बात कहता है लेकिन कईयों लोग बताने लगते हैं कि यह भूत उन्होंने देखा है.

एक बार तो उस ने इन्हें पकड़ ही लिया था जब होश आया तो दिन निकल चुका था और भूत गायब हो चुका था. कच्चे चावलों की खिचड़ी बनाने का काम इतने आत्मविश्वास से जोरों पर है कि झूठ और सच में फर्क कर पाने के मुश्किल काम को छोड़ लोग झूठ को ही सच करार देने लगे हैं कि कौन बेकार की कवायद और रिसर्च के चक्कर में पड़े. इसलिए मास्टरजी जो कह रहे हैं उसे ही सच मान लो और उस का इतना हल्ला मचाओ कि कोई हकीकत जानने पेड़ के पास जाने की हिम्मत ही न करे.

गलत नहीं कहा जाता कि झूठ के पांव नहीं होते दरअसल में झूठ के मीडिया और सोशल मीडिया रुपी पंख होते हैं जिन के चलते वह मिनटों में पूरा देश और दुनिया घूम लेता है और सच कछुए की तरह रेंगता रहता है. इन दिनों झूठ और झूठों का बोलबाला है. जितना बड़ा झूठ आप बोलेंगे उतने ही महान देवता और प्रभुतुल्य करार दिए जाएंगे. कम से कम एक हजार साल तक तो उस का असर रहेगा. इस से आगे की सोचना किसी के बस की बात नहीं.

झूठ में अगर धर्म आध्यात्म और दर्शन का भी तड़का लग जाए तो वह और आकर्षक लगने लगता है. आप लाख पढ़ेलिखे और तार्किक हों लेकिन आग और उर्जा में फर्क नहीं कर पाएंगे और जब तक सोचेंगे और करेंगे तब तक गंगा और सरयू का काफी पानी बह चुका होगा. एक नए किस्म की फिलौसफी इन दिनों बड़ी लोकप्रिय हो रही है जिस में लालबुझक्कड़ टाइप की बातें होती हैं. ये ऊपर से गिरती हैं और नीचे लाखों करोड़ों स्रोतों और कंठों से किस्से कहानियों की शक्ल में प्रवाहित होती हैं.

अब से कोई 28 साल पहले 1995 में अफवाह उड़ी थी कि गणेशजी दूध पी रहे हैं. बस फिर क्या था देखते ही देखते गणेश मंदिरों में भक्त लोग दूध का कटोरा ले कर उमड़ पड़े थे. जिन्हें गणेश मंदिरों में जगह नहीं मिली उन्होंने घर में रखी मूर्तियों के मुंह में जबरन दूध ठूंस कर प्रचारित कर दिया कि उन की मूर्ति ने भी दूध पिया. जिन के घर गणेश की मूर्ति नहीं थी उन्होंने राम, कृष्ण, शंकर और हनुमान तक को दूध पिला कर छठी का दूध याद दिला दिया .

उस अफरातफरी का मुकाबला वर्तमान दौर की कोई आस्था नहीं कर सकती जिस के तहत भक्तों के मुताबिक भगवान ने समोसे, कचोरी, छोले भटूरे, जलेबी और बड़ा पाव भी खाए. सार ये कि मूर्तियों में इन्द्रियां होती हैं और प्राण भी होते हैं. समयसमय पर यह बात अलगअलग तौरतरीकों से साबित करने की कोशिश भी की जाती है.
अब मूर्तियां पलक झपकाएं, हंसे और रोएं भी तो हैरानी किस बात की. हैरानी सिर्फ इस बात पर हो सकती है कि 21 सितंबर, 1995 की आस्था असंगठित थी उस के लिए कोई समारोह आयोजित नहीं करना पड़ा था और न ही खरबों रुपए खर्च हुए थे. बस कुछ करोड़ रुपए लीटर दूध की बर्बादी हुई थी. तब भी विहिप ने इसे सनातनी चमत्कार कहा था और तब भी दुनियाभर के देशों में रह रहे हिंदुओं ने मूर्तियों को दूध पिलाया था और तब भी मीडिया दिनरात यही अंधविश्वास और पाखंड दिखाता और छापता रहा था.

यह विश्वास या आस्था होती ही ऐसी ही चीज है जिस में न होने का एहसास कोई माने नहीं रखता. कोई है और आदि से है और अंत तक रहेगा यह फीलिंग बड़ा सुकून देती है. फिर चाहे वह पेड़ वाला भूत हो या फिर कोई मूर्ति हो इस से कोई फर्क नहीं पड़ता. सच यही है कि यह एक विचार है और रोटी, पानी, रोजगार और दीगर जरूरतों से ज्यादा देश को विचारों की जरूरत है, जिस से दुनिया देश का लोहा माने कि देखो इन्हें भूखे नंगे फटेहाल हैं लेकिन इन के विचार बड़े उच्च कोटि के हैं.

इस चक्कर में देश बेचारों का बन कर रह जाए इस की परवाह जिन को है वे वाकई बेचारे हैं जो पत्थर से सिर फोड़ने की मूर्खता कर रहे हैं. लेकिन यकीन माने यही वे लोग हैं जो अभिषेक त्रिपाठी की तरह भूत की हकीकत उजागर करेंगे. 1995 के तमाशे को वैज्ञानिकों ने मौस हाइपीनो और साइको मैकेनिक रिएक्शन नाम दिया था.
लेकिन यह झूठ के केंद्रीयकरण का भी दौर है. सारी दुनिया और कहानी एक फुलेरा गांव में समेट दी गई है. आप देश के किसी भी हिस्से में हों सोचना और बतियाना आप को फुलेरा के बारे में ही है. मीडिया और सोशल मीडिया भी फुलेरा के इर्दगिर्द ही है क्योंकि उसे प्राणवायु वहीँ से मिल रही है.

अब यह और बात है कि आज भी मीडिया, साहित्य और पत्रकारिता झूठ को उजागर करने का नहीं बल्कि उस के प्रचारप्रसार की जिम्मेदारी निभाते हैं. उस की हालत तो गाइड फिल्म के देवानंद से कमतर नहीं, फर्क इतना है कि इस बार खुद राजू ने ही पीताम्बर ओढ़ लिया है.

इस और ऐसी फिल्म का अंत क्या होगा यह राम जाने लेकिन हालफिलहाल तो हिटलर का दौर भी याद आता है जो यह मानता था कि जर्मन आर्य हैं और विश्व में सर्वश्रेष्ठ हैं. इसी झोंक में द्वितीय विश्व युद्ध हो गया था जिस की तबाही किसी सबूत की मोहताज नहीं.

हिटलर के एक मामूली आदमी से तानाशाह बन जाने की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं. कहानी तो नाजियों की भी कम दिलचस्प नहीं जो पूरी दुनिया में अलगअलग तरीकों से दिख रहा है. ईरान, अफगानिस्तान और पाकिस्तान की बदहाली की वजह वहां का कट्टरवाद ही है जिसे हिटलर आस्था कहता है.

शुद्ध नस्ल की खोज और जरूरत खत्म सी हो गई है लेकिन शुद्धता का अहंकार बरकरार है जिस के चलते लोकतंत्र बौने होते जा रहे हैं और व्यक्तिवाद पनपता जा रहा है. इस से मानव जाति के कल्याण और विश्व शांति, विश्व बंधुत्व की उम्मीद एक तरह की हिंसक सनक है जो बहुत छोटे रूप में फुलेरा में दिखी. यह कैसे नुकसानदेह है और इस से बच कर कैसे रहा जाए यह बताने वाले कम ही बचे हैं.

युवा नेताओं को नहीं मिलने वाली है सत्ता

2024 की शुरुआत ही देशभर के कोई 90 लाख ड्राइवरों की हड़ताल से हुई थी. यह हड़ताल एक नए बनाए गए कानून के विरोध में थी जिस पर सरकार ने तुरंत  झुकने में ही अपनी बेहतरी सम झी. पूरे रंग पर हड़ताल आ पाती, इस से पहले ही सरकार और ड्राइवरों के बीच सम झौता हो गया.

सम झौता केंद्रीय गृह सचिव अजय भल्ला और औल इंडिया मोटर ट्रांसपोर्ट कांग्रेस के पदाधिकारियों के बीच हुआ. हां ताकि ड्राइवरों को यह खुशखबरी ट्रांसपोर्ट कांग्रेस के अध्यक्ष अमृतलाल मदान ने देते हुए कहा, ‘गृहमंत्री अमित शाह मान गए हैं जबकि वे बैठक में नहीं थे.

हर कोई इस पिक्चर में परिवहन मंत्री नितिन गडकरी के ही होने की उम्मीद कर रहा था क्योंकि मामला उन के मंत्रालय से संबंधित था. उन के न होने से एक बार फिर साबित हो गया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें भी हाशिए पर ही रख छोड़ा है. उन के हिस्से में अपने राजनीतिक जीवन के संस्मरण सुनाना भर रह गया है. हिट एंड रन कानून पर हड़ताल खत्म होने के बाद भी नितिन गडकरी ड्राइवरों की आंखों में मोतियाबिंद होने का किस्सा सुना रहे थे.

ठीक इसी दिन सोशल मीडिया पर भाजपा का लोकसभा चुनाव 2024 को ले कर एक गाना तेजी से वायरल हो रहा था. इस गाने में एक सुंदर युवा गायिका अनामिका जैन अम्बर गेरुए वस्त्र पहन गा रही है, ‘तय कर लो अब सत्य सनातन की छाया हो शासन पर, रामभक्त ही राज करेगा दिल्ली के सिंहासन पर…’ 3 मिनट एक सैकंड के इस वीडियो में नदी किनारे गायिका और उस की साथियों के अलावा बैकग्राउंड में मंदिर और नरेंद्र मोदी के पूजापाठ करते दृश्य दिखाई दे रहे हैं. भगवान राम नरेंद्र मोदी को आशीर्वाद देते हुए भी एक दृश्य में दिखाई दे रहे हैं.

नितिन गडकरी सहित भाजपा की दूसरी पीढ़ी के तमाम नेताओं ने लोकसभा चुनाव प्रचार का यह आगाज देख लिया होगा कि पार्टी ने तीसरी बार मोदी का चेहरा बतौर प्रधानमंत्री पेश कर दिया है. उन्हें सपने में भी यह नहीं सोचना कि वे कभी प्रधानमंत्री बन पाएंगे.

सोचना तो उन्हें यह भी नहीं है कि यह कैसी दोहरी नीति है जिस के तहत राज्यों के विधानसभा चुनाव तो बगैर मुख्यमंत्री का नाम और चेहरा पेश किए लड़े जाते हैं लेकिन प्रधानमंत्री की बारी आई तो  झट से बिना किसी से पूछे नरेंद्र मोदी को आगे कर यह मैसेज दे दिया गया कि कोई, और फिर चाहे वह युवा हो या पिछली किसी पीढ़ी का नेता हो, इस पद के बारे में न सोचे क्योंकि इस पर फैसला हो चुका है. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सार्वजनिक मंचों से 3 बार खुद को प्रधानमंत्री घोषित कर चुके हैं.

पूरी पीढ़ी ही गायब

ऐसा नहीं है कि नितिन गडकरी या उन की पीढ़ी के दूसरे भाजपाई नेता सनातनी या रामभक्त या कट्टर न हों. हां, इतना जरूर है कि वे, आस्थावान या कट्टर कुछ भी कह लें, नरेंद्र मोदी जितने नहीं हैं. अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी युग भाजपा से कब का खत्म हो चला है. इसे 2014 के बाद खत्म करने का श्रेय भी नरेंद्र मोदी को ही जाता है जो बड़े डिप्लोमैटिक तरीके से 2014 में आडवाणी को धकिया कर प्रधानमंत्री बन बैठे थे.

तब एक नाम मध्य प्रदेश के तत्कालीन और चंद दिनों पहले ही पूर्व बना दिए गए शिवराज सिंह चौहान का भी प्रधानमंत्री पद के लिए उठा था जिसे लालकृष्ण आडवाणी ने ही आगे किया था पर नरेंद्र मोदी की जिद और जुनून के आगे किसी की एक न चली थी क्योंकि उन्हें धर्मसंसद और आरएसएस ने चुना था.

शिवराज सिंह चौहान अब फुरसत में हैं और नितिन गडकरी की तरह ही टाइमपास राजनीति करते भावुक हो कर आंसू बहाते नजर आते हैं. मोदी-शाह जोड़ी ने उन्हें 5वीं बार मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के काबिल नहीं सम झा तो इस की इकलौती वजह यही है कि कहीं वे भी दोबारा प्रधानमंत्री बनने का सपना न देखने लगें. शिवराज सिंह भी नितिन गडकरी की तरह काबिल और तजरबेकार हैं और सब से बड़े पद के लिए डिजर्व करते हैं. लिहाजा, खतरा तो है.

ऐसे एकदो नहीं, बल्कि दसियों भाजपाई नेता हैं जिन का कैरियर या वजूद, कुछ भी कह लें, पिछले 10 सालों में खत्म कर दिया गया है. इन में एक नाम कद्दावर क्षत्रिय नेता रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का भी है जिन के हिस्से में फ्रांस जा कर राफेल के पहियों के नीचे नीबू रखने और स्वास्तिक का चिह्न बनाने जैसे फुजूल काम ज्यादा हैं. एक नाम तेजतर्रार साध्वी उमा भारती का भी है जो हर कभी हिमालय जाने की धौंस देती रहती हैं लेकिन कुछ दूरी तय कर वापस आ कर नश्वर संसार की मोहमाया में रम जाती हैं.

रमन सिंह और वसुंधरा राजे सिंधिया सहित रविशंकर प्रसाद भी इसी लिस्ट में शुमार होते हैं. निर्मला सीतारमण, एस जयशंकर, रमेश पोखरियाल, अर्जुन मुंडा और पीयूष गोयल जैसे यस मैनों से कोई खतरा नहीं है क्योंकि ये लोग जयजयकार करने में माहिर हैं और जमीनी राजनीति उन्होंने कभी नहीं की.

कांग्रेस सहित दूसरे क्षेत्रीय दलों पर परिवारवाद का आरोप लगाते रहने वाली भाजपा तो उस से भी खराब व्यक्तिवाद का शिकार हो कर रह गई है. जो हालत कांग्रेस की जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी युग में थी वही अब भाजपा की हो गई है. फर्क यह है कि कांग्रेस में तब भी दूसरी पीढ़ी के नेताओं की इतनी बेरहमी से अनदेखी नहीं की जाती थी जितनी कि भाजपा में इन दिनों की जा रही है.

इस की एक बेहतर मिसाल देवेंद्र फडणवीस हैं जो कभी महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे लेकिन इन दिनों उपमुख्यमंत्री पद पर रहते शिवसेना के एकनाथ शिंदे की मातहती में काम कर रहे हैं. शिवसेना को मिटाने के चक्कर में मोदी, शाह की जोड़ी ने महाराष्ट्र में खुद की पार्टी के नफेनुकसान का भी ध्यान नहीं रखा. संभव है कि उन का असल मकसद देवेंद्र फडणवीस का हश्र भी शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे सिंधिया और रमन सिंह जैसा कर देना था.

कांग्रेस से भाजपा में आए ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसों ने भी बड़े सपने देखना छोड़ कर संघ के कार्यालयों में माथा टेकना शुरू कर दिया है. अब वे भी मोदी-शाह के आगेपीछे परिक्रमा करते नजर आते हैं. वे मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री भी नहीं बन पाएंगे कभी.

मुख्यमंत्री भी हैं चंगुल में

देश इन दिनों किस कदर अयोध्या और राममय हो रहा है, यह नजारा किसी सुबूत का मुहताज नहीं है. इस से किसे क्या हासिल होगा, यह भी अभी कोई नहीं सोच पा रहा. मोदी, शाह की जोड़ी ने अपनी इस मुहिम के लिए भाजपाशासित तमाम राज्यों के मुख्यमंत्रियों को चंगुल में ले रखा है जिस से वे कभी प्रधानमंत्री बनने का खयाल दिल में न लाएं. जब भी नरेंद्र मोदी के विकल्प की बात या चर्चा छिड़ती है तो 2 ही नाम प्रमुखता से लिए जाते हैं, पहला गृहमंत्री अमित शाह का और दूसरा सब से बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का.

यह सोचना बेमानी है कि आदित्यनाथ को फ्री हैंड मिला हुआ है. उन्हें हाशिए पर होने का एहसास जबतब मोदीशाह की जोड़ी कराती रहती है. निकाय चुनावों में भाजपा ने 17 नगरनिगमों पर जीत हासिल की थी लेकिन भाजपा के ट्विटर पर दिए बधाई संदेश में योगी आदित्यनाथ का न तो नाम था न ही फोटो.

एक और चर्चित मामला राज्य के कार्यवाहक डीजीपी देवेंद्र सिंह चौहान का है जिन की गिनती आदित्यनाथ के चहेतों में होती है. वे चाहते थे कि देवेंद्र सिंह चौहान का रिटायरमैंट बढ़ा दिया जाए लेकिन दिल्ली से ऐसा नहीं किया गया तो योगीजी मन मसोस कर रह गए. इसी तरह मनीष अवस्थी को भी आदित्यनाथ के चाहने के बाद भी सेवा विस्तार नहीं दिया गया जबकि राज्य के मुख्य सचिव दुर्गाशंकर मिश्रा को केंद्र ने सेवाविस्तार दिया.

ऐसे कई मामले हैं जिन में आदित्यनाथ की अनदेखी की गई जबकि उन का कुसूर इतना भर था कि उन का नाम बतौर प्रधानमंत्री लिया जाने लगा था. पिछले विधानसभा चुनाव में रिकौर्ड बहुमत से भाजपा की सत्ता में वापसी कराने वाले आदित्यनाथ ने लोकसभा चुनाव 2019 में भी पार्टी को 80 में से 64 सीटें दिलाने में अहम रोल निभाया था. उन की बुल्डोजरी इमेज तो चर्चित हुई लेकिन महंत होने के चलते पूजापाठी इमेज भी नरेंद्र मोदी पर भारी पड़ने लगी तो उन के पर कुतरना शुरू कर दिए गए.

अब हालत यह है कि काशी, मथुरा और अयोध्या में वे नरेंद्र मोदी के पीछेपीछे घूमते, उन की तारीफों में कसीदे गढ़ते नजर आते हैं. उन्हें भी यह ज्ञान प्राप्त करा दिया गया है कि दिल्ली उन से बहुत दूर है, आप तो लखनऊ में बने रहने की जुगत भिड़ाते रहो वरना हश्र शिवराज सिंह चौहान सरीखा भी हो सकता है.

भाजपाशासित राज्यों में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी हों या गुजरात के मुख्यमंत्री भूपेंद्रभाई पटेल, ये दोनों तो बेचारे प्रधानमंत्री बनने का सपने में भी नहीं सोच सकते. इन्हें भी राज्य की सब से बड़ी कुरसी मोहन यादव, भजनलाल शर्मा और विष्णुदेव साय की तरह खैरात में इसी शर्त पर मिली थी कि राज्य नरेंद्र मोदी के अपने कार्यक्रम जिसे पीएमओ कहा जाता है के अफसरों के आदेशों से चलेंगे. छोटेमोटे भूमिपूजन और उद्घाटन जैसे फैसले वे लोग ले सकते हैं.

हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर भी 3 राज्यों का ड्रामा देख निराश ही होंगे हालांकि वे आरएसएस से गहरे तक जुड़े हैं लेकिन अब पहली दफा ऐसा भी लगने लगा है कि आरएसएस भी मोदीशाह की शर्तों पर चलने लगा है. हालांकि, ऐसा सोचने वालों की यह दलील हालफिलहाल दूर की कौड़ी ही लगती है कि संघ तभी तक इन दोनों को भाव और तवज्जुह देगा जब तक ये उस के एजेंडे पर काम कर रहे हैं और अयोध्या का रामलला के मंदिर का भव्य आयोजन उन में से एक है.

प्रधानमंत्री पद के काबिल एक नाम असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा शर्मा का लिया जाता रहा है जो इन दिनों कट्टरता की तमाम हदें पार करते रहे हैं और इसे ही योग्यता मान बैठे हैं. हेमंत बिस्वा 8 साल पहले तक कट्टर कांग्रेसी हुआ करते थे लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया की तरह उन्हें भी लगा कि राज्याभिषेक करवाना है तो विभीषण तो बनना ही पड़ेगा. लिहाजा, राहुल गांधी को कोसते वे भगवा  झंडे तले आ गए और नई जगह में सिंधिया की तरह ही घुलमिल गए लेकिन भाजपा ने कभी उन्हें राष्ट्रीय पहचान नहीं दी. उन का काम भी विकसित भारत यात्राओं में नरेंद्र मोदी की जयजयकार करना रह गया है जिसे वे पूरी निष्ठा व ईमानदारी से कर भी रहे हैं.

पीढ़ी परिवर्तन के नाम पर पपेट

भाजपा ने 3 राज्यों में जो मुख्यमंत्री बनाए वे किसी भी एंगल से इस अहम पद के काबिल नहीं कहे और माने जा सकते. धर्म, हिंदुत्व और राममंदिर के नाम पर मिले वोट और समर्थन का मनचाहा और बेजा फायदा मोदीशाह की जोड़ी उठा रही है. अब उसे मुख्यमंत्री नहीं बल्कि पपेट चाहिए जो कि ये तीनों हैं भी. भाजपा प्रचार यह कर रही है कि उस में पीढ़ी परिवर्तन होता है और युवाओं को वह राजनीति में आने का मौका दे रही है.

मध्य प्रदेश में मोहन यादव, राजस्थान में भजनलाल शर्मा और छत्तीसगढ़ में विष्णुदेव साय जितने युवा हैं उतने ही युवा मुख्यमंत्री दिल्ली में अरविंद केजरीवाल,  झारखंड में हेमंत सोरेन, तेलंगाना में रेवंत रेड्डी और पंजाब में भगवंत मान भी हैं. पहली बार मुख्यमंत्री बनते समय अरविंद केजरीवाल की उम्र 45 साल और हेमंत सोरेन की उम्र

44 साल थी. लेकिन एक बड़ा और दिखने वाला फर्क यह है कि गैरभाजपाई राज्यों के इन मुख्यमंत्रियों को उन के नाम से वोट मिले थे जबकि भाजपा के युवा थोपे गए मुख्यमंत्री हैं. अगर पार्टी इन के नाम और चेहरे पर चुनाव लड़ती तो नतीजे क्या होते, कोई भी इस का सहज अंदाजा लगा सकता है.

आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्रियों अरविंद केजरीवाल और भगवंत मान को कोई भी फैसला लेने से पहले न किसी दिल्ली की तरफ देखना पड़ता है और न ही किसी अफसरों बौसों के मुंह की तरफ ताकना पड़ता है.  झारखंड में हेमंत सोरेन चुटकियों में छोटेबड़े फैसले लेते हैं. तेलंगाना में रेवंत रेड्डी एक हद तक ही नीतिगत फैसलों के लिए सोनिया और राहुल गांधी के मुहताज हैं, बाकी तो उन्हें आजादी मिली हुई है.

थोपे गए मुख्यमंत्री कैसे और कितने नुकसानदेह साबित होते हैं, इस की मिसाल कांग्रेस है जिस के नक्शेकदम पर अब मोदीशाह चल रहे हैं. रही बात युवाओं की तो तीनों राज्यों के मुख्यमंत्री आरएसएस के अखाड़े के पट्ठे हैं जिन्हें हिंदुत्व और रामचरितमानस तो दोनों रटे पड़े हैं. ये लोग जनता का भला करने नहीं लाए गए बल्कि भगवा गैंग के एजेंडे को रफ्तार देने के लिए थोपे गए हैं. पर ये हिंदी या अंगरेजी में एक छोटामोटा भी नहीं लिख सकते. तीनों विकट के पूजापाठी हैं. कैसे ये हिंदुत्व के एजेंडे और भाजपा की मंदिर नीति को आगे बढ़ा रहे हैं, ये इन के शुरुआती फैसलों से पता चलता है.

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव ने सब से पहले अहम फैसला धर्मस्थलों से लाउडस्पीकर्स हटाने और खुले में मांस बिक्री न होने देने का लिया. किसी को कहनेसुनने की जरूरत नहीं पड़ी कि यह हिंदुत्व के एजेंडे का पहला चैप्टर है. इस से हिंदुओं का भी फायदा नहीं होगा क्योंकि नुकसान हिंदू व्यापारियों को भी होगा और मीटमांस खाने वाले हिंदुओं को भी. दूसरे चैप्टर के तहत वे सीधे उज्जैन के महाकाल मंदिर पूजनदर्शन करने गए. उन के तीसरेचौथे फैसले भी इसी सिलेबस का हिस्सा हैं कि राज्य में उन जगहों को तीर्थस्थल बनाया जाएगा जहांजहां हो कर वनवास के दौरान राम गुजरे थे. सड़कों, अस्पतालों, उद्योगों, एयरपोर्टों के फैसले-दिल्ली में पीएमओ लेगा और वे पढ़ कर सुना भर देंगे.

छतीसगढ़ के मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने भी अप्रत्यक्ष रूप से ईसाईयों को हड़काते कहा कि गौवध और धर्मांतरण बरदाश्त नहीं किया जाएगा. वे भी अपने नाम की घोषणा होते ही सीधे रायपुर स्थित राम जानकी मंदिर गए थे. राजस्थान के मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा ने भी सब से पहले जयपुर में सरल बिहारी मंदिर जा कर भगवान के दर्शन किए और वहीं एक संत मृदुल कृष्ण शास्त्री से आशीर्वाद भी लिया.

मंदिर हर कोई जाता है लेकिन जब कोई बड़ी और अप्रत्याशित उपलब्धि मिल जाती है तब मंदिर जा कर उक्त चमत्कार की बाबत भगवान को नमस्कार करने का मतलब होता है कि हे प्रभु, तेरा लाखलाख धन्यवाद जो तू ने इस नाचीज भक्त की सुनी, वरना तो हम कहां इस काबिल थे.

अब असल सियासी मंदिर दिल्ली में है. नरेंद्र मोदी इन के आदर्श और आराध्य दोनों हैं. उन से और उन के पीएमओ से मिले आदेशोंनिर्देशों का पालन ये तीनों व बाकी मुख्यमंत्री पूरी निष्ठा से करते हैं. यही मोदीशाह चाहते भी थे क्योंकि शिवराज सिंह, वसुंधरा राजे और रमन सिंह उन के बराबर ही सीनियर हैं. लिहाजा, उन पर हुक्म चलाना और मनमाने काम करा लेना आसान नहीं रह जाता. दूसरे लफ्जों में कहें तो ये तीनों वरिष्ठ नेता मुख्यमंत्री बनते तो इस बात पर राजी नहीं होते कि राज्य पूरा का पूरा पीएमओ से चले.

युवा मुख्यमंत्रियों को भाजपा अभी हाथोंहाथ ले रही है लेकिन ठीक वैसे ही जैसे नई बहू को लिया जाता है. नई बहुओं के बारे में गलत नहीं कहा जाता कि वे चूडि़यां ज्यादा खनकाती हैं जिस से लगे कि वे काम ज्यादा कर रही हैं. यह भी सच है कि वे काम दिखाने के लिए क्षमता से ज्यादा मेहनत करती हैं लेकिन यह नहीं सम झ पातीं कि इस से उन्हें कोई अधिकार नहीं मिल गए और न ही घर की तिजोरी की चाबियां मिल गईं. कभी तो मिलेंगी, इस आस में बेचारी ड्राइंग और डायनिंग रूम के जूठे बरतन उठाते नौकरानियों की तरह उम्र गुजार देती हैं लेकिन सास से घर की सत्ता नहीं छीन पातीं.

कहीं प्राउड बौयज जैसा इरादा तो नहीं

बहैसियत भाजपा परिवार के मुखिया, इन नईपुरानी बहुओं के जरिए नरेंद्र मोदी अपने इर्दगिर्द जो घेरा बना रहे हैं वह काफीकुछ अमेरिका के दक्षिणपंथी संगठन प्राउड बौयज जैसे स्ट्रक्चर सा बनता जा रहा है. इस संगठन की बुनियाद साल 2016 में डोनाल्ड ट्रंप के समर्थकों ने रखी थी. प्रगतिशीलता और वामपंथ के विरोधी प्राउड बौयज की खासीयत यह है कि इस में सिर्फ पुरुष सदस्य ही होते हैं जो साम्यवाद और नारीवाद के विरोधी होते हैं.

यह संगठन पूरी तरह रिपब्लिकन पार्टी के एजेंडे पर आक्रामक रूप से चलता है, मसलन धर्म और रंग के आधार पर भेदभाव करना. नस्ल की बिना पर प्राउड बौयज खुद को श्रेष्ठ मानता है. इस की नफरत का शिकार आएदिन महिलाएं, मुसलिम और ट्रांसजैंडर होते रहते हैं.

कम शब्दों में कहें तो प्राउड बौयज अपने से अलग दिखने वाले हर आदमी को खारिज करता है. हालांकि यह किसी भी तरह की हिंसा और भेदभाव से इनकार करता है लेकिन कई बार इस का सच उजागर हो चुका है. प्राउड बौयज के सदस्य हर उस रैली में दिखते हैं जो व्हाइट सुप्रीमेसी के समर्थन में निकाली जाती है.

ये लोग लाल रंग की टोपी पहनते हैं जिस पर इंग्लिश में लिखा होता है, ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’. गौरतलब है कि यह नारा 2016 में डोनाल्ड ट्रंप की चुनावी मुहिम में लगाया जाता था. इस के मौजूदा मुखिया अफ्रीकन-क्यूबन मूल के एंट्रिक टेरियो हैं. कई हिंसक और उग्र गतिविधियों में प्राउड बौयज की भागीदारी उजागर हो चुकी है जिन में 6 जनवरी, 2021 को हुई कैपिटल हिल की चर्चित हिंसा भी शामिल है. कुल जमा ये लोग डोनाल्ड ट्रंप को भगवान की तरह मानते हैं. ऐसे ही लोगों का जमावड़ा, अलग तरीके से ही सही, भारत में नरेंद्र मोदी के इर्दगिर्द होने लगा है.

देश और दुनिया को ऐसे युवाओं की कतई जरूरत नहीं है फिर चाहे वे दक्षिणपंथी हों या वामपंथी. ये शांति, सद्भाव और लोकतंत्र के लिए खतरा ही साबित होते हैं और तरक्की में बड़ा अडं़गा भी होते हैं क्योंकि ये एक विचार या धर्म के गुलाम हो कर रह जाते हैं, फिर इन्हें खुद से और देश से जुड़ी समस्याओं व मुद्दों से कोई सरोकार नहीं रह जाता. अर्धराजनेता बन जाने वाले ये युवा पूरी जवानी और ताकत अपने आकाओं के मकसद को पूरा करने में  झोंक देते हैं.

कांग्रेस भी खा रही मात

देश में युवा नेतृत्व का अभाव सभी पार्टियों में बराबर से है और सभी पार्टियां बूढ़ों के भरोसे ही चल रही हैं. कांग्रेस एक हद तक इस का अपवाद इन मानो में कही जा सकती है कि राहुल गांधी युवा हैं लेकिन हालफिलहाल उन के भी प्रधानमंत्री बन जाने के आसार कम ही दिख रहे हैं. हालांकि लोकतांत्रिक राजनीति में गारंटी से कुछ भी कहना बुद्धिमानी की निशानी नहीं मानी जाती लेकिन वर्तमान हालात की अनदेखी करना भी बुद्धिमानी नहीं कही जा सकती. राहुल गांधी खुद प्रधानमंत्री बनने के बहुत ज्यादा उत्सुक और नरेंद्र मोदी की तरह उतावले नहीं दिख रहे हैं. इस की एक वजह ‘इंडिया’ गठबंधन की आपसी कलह और मतभेद भी है.

हिंदी पट्टी के 3 राज्यों के नतीजों ने कांग्रेस को भी आगाह किया है कि वह बूढ़ों से छुटकारा पाते युवाओं को आगे लाए लेकिन उस के साथ भी दिक्कत यही है कि पार्टी के बूढ़ों ने युवाओं को कभी पनपने का मौका ही नहीं दिया. मध्य प्रदेश से कमलनाथ-दिग्विजय सिंह के युग की विदाई अगर चुनाव के पहले ही वह कर देती और राजस्थान में अशोक गहलोत की जगह सचिन पायलट को आगे कर चुनाव लड़ती तो परिणाम कुछ और भी हो सकते थे.

अब उस ने उन जीतू पटवारी को प्रदेश अध्यक्ष बनाया है जो खुद अपनी सीट राऊ से लंबे मार्जिन से हारे हैं. जीतू पटवारी हालांकि पूरे जोशखरोश से नई जिम्मेदारी संभालने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन वे  झांकी और शोबाजी के कांग्रेसी संस्कारों से खुद को मुक्त नहीं कर पा रहे, न ही हार से कोई सबक ले रहे हैं. पद संभालने के बाद उन्होंने इंदौर से भोपाल तक वाहनों का काफिला निकाला और उज्जैन के महाकाल मंदिर में पूजाअर्चना भी की जबकि महाकाल तो आशीर्वाद भाजपा को पहले ही दे चुके हैं.

राजस्थान और छत्तीसगढ़ में तो कांग्रेस को वजनदार और जमीनी युवा चेहरे ही नहीं मिल रहे. ऐसे में कांग्रेसी युवाओं को दिल्ली के सपने देखने चाहिए या नहीं, यह खुद उन्हें ही तय करना है कि अब उन के लिए राजनीति पहले सी आसान नहीं रह गई और बिना वोटर से सीधे जुड़े प्रदेश जीतना ही मुश्किल और बड़ी चुनौती बन गया है. उन की यह मुश्किल मंदिरों से तो हल नहीं होने वाली. तीनों राज्यों में सुकून देने वाली इकलौती बात यह है कि कांग्रेस के वोट शेयर में बहुत ज्यादा गिरावट नहीं आई है. अब इसे बढ़ाने के लिए क्या कोशिश और मेहनत युवा कांग्रेसी करते हैं, यह देखना दिलचस्पी की बात होगी.

इंडिया गठबंधन क्या करेगा, यह एक अलग बात है लेकिन युवा कांग्रेसियों का काम बिना राहुल गांधी को ताकतवर बनाए नहीं चलने वाला ठीक वैसे ही जैसे भाजपाइयों का नरेंद्र मोदी के बिना नहीं चलता. कर्नाटक की 28 और तेलंगाना की 17 लोकसभा सीटें बेहद अहम कांग्रेस के लिहाज से हो चली हैं. कर्नाटक में कितना जोर सिद्धारमैया, डी के शिवकुमार की जोड़ी और तेलंगाना में रेवंत रेड्डी लगा पाएंगे, खुद उन का भविष्य भी इसी नंबर पर निर्भर करेगा. इस के लिए कांग्रेस को युवाओं को फिर से जोड़ना ही पड़ेगा और खुद भी उन से जुड़ना पड़ेगा.

क्षेत्रीय दलों की भी है परेशानी

क्षेत्रीय दलों की यह खूबी रही है कि उन की शुरुआत युवा नेतृत्व से ही होती रही है लेकिन उन्होंने भी गलती वही की कि वक्त पर युवा नेतृत्व नहीं उभरने दिया और जब उभरने दिया तब तक भाजपा अपनी पैठ बना चुकी थी. उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव को सत्ता और संगठन दोनों का अनुभव है लेकिन सवर्ण और दलित युवाओं को सपा से जोड़ने की कोशिश उन्होंने कभी नहीं की.

अखिलेश अभी भी उत्तर प्रदेश में खासे लोकप्रिय हैं लेकिन प्रधानमंत्री पद उन से अभी भी बहुत दूर है. अयोध्या के होहल्ले में वे बहुत ज्यादा सीटें हासिल कर पाएंगे, ऐसा लग नहीं रहा. दूसरे, कांग्रेस से उन की सीटों पर क्या डील होती है, इस का भी असर नतीजों पर पड़ेगा.

बसपा प्रमुख मायावती ने पार्टी की कमान ऐसे वक्त में भतीजे आकाश आनंद को सौंपी है जब हाट लुट चुकी है. वैसे भी, आकाश जमीनी नेता नहीं हैं और न ही बहुत ज्यादा लोकप्रिय हैं.  विधानसभा चुनाव के वक्त जब वे पिछली 9 अगस्त को भोपाल रैली करने आए थे तब बमुश्किल हजारपंद्रह सौ की भीड़ ही जुट पाई थी जबकि इतने लोग तो कभी मायावती और कांशीराम की रैलियों के इंतजाम का काम देखते और करते थे. दलितों की बदहाली का अंदाजा भी उन्हें नहीं है.

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी ?अपने भतीजे 36 वर्षीय अभिषेक बनर्जी को राजनीति में काढ़ना शुरू कर दिया है और वहां के वोटर भी अभिषेक को सहज स्वीकारने लगे हैं लेकिन भाजपा को यह युवा रास नहीं आ रहा है, लिहाजा उन्हें भी अरविंद केजरीवाल और हेमंत सोरेन की तर्ज पर सरकारी एजेंसियों के जरिए हर कभी परेशान किया जाता है जिस से उन की हिम्मत टूटे.

अभिषेक की लोकप्रियता और स्वीकार्यता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे 2 बार डायमंड हार्बर सीट से लोकसभा पहुंच चुके हैं.  2019 में तो उन्होंने भाजपा उम्मीदवार नीलांजन राय को 3 लाख 20 हजार से भी ज्यादा वोटों से शिकस्त दी थी. देशभर के युवा नेताओं में से कोई देश की सब से बड़ी कुरसी का सपना देख सकता है तो अभिषेक का नाम उन में सब से ऊपर है.

यह सपना अरविंद केजरीवाल और हेमंत सोरेन भी देख सकते हैं लेकिन उन की नींद ईडी ने उड़ा रखी है. ये दोनों कभी भी गिरफ्तार किए जा सकते हैं लेकिन हथियार डालने या हिम्मत छोड़ने की उम्मीद इन से नहीं की जाती क्योंकि ये जमीनी और जु झारू हैं और वैकल्पिक व्यवस्थाएं इन्होंने अपनेअपने राज्यों में कर रखी हैं.

-साथ में शैलेंद्र और चंद्रकला द्य

नौकरी के लिए जा रहे हो अनजान शहर, तो इन बातों का रखें ध्यान

किसी अनजान जगह में नौकरी करना आसान काम नहीं होता खासकर बङे शहरों में. बङी समस्या तब आती है जब रहने के लिए किसी आशियाने की तलाश करनी हो.

जौइनिंग के बाद किसी गेस्टहाऊस या होटल में रह कर मकान ढूंढ़ना बेहद पेचिदा काम होता है. रहने का ठौर मिल भी जाए तो फिर जरूरत का सामान जैसे बैड, टेबलकुरसी वगैरह के साथ शिफ्ट करना आसान काम नहीं होता.

भोपाल के 26 वर्षीय चैतन्य ने बताया,”मुझे समझ आ गया कि आते वक्त क्यों मम्मीपापा चिंता जताते ढेरों नसीहतें दे रहे थे.”

अब से कोई डेढ़ साल पहले बीटेक करने के बाद चैतन्य की नौकरी एक नामी सौफ्टवेयर कंपनी में लगी थी तो उस की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था.

शुरुआती पैकेज भी अच्छा यानी उसे ₹7 लाख सालाना मिल रहा था. अपना घर, शहर और पेरैंट्स को छोड़ने का दुख जरूर था लेकिन सवाल कैरियर का था.

यों आजकल के युवा बेहद व्यावहारिक हो चले हैं और खुद के लिए फैसले लेने लगे हैं पर चैतन्य के साथ जो हुआ उसे जान कर लगता है कि उस के अंदर उत्साह तो था मगर अनुभव की कमी थी.

अनजान जगह नौकरी करने जाना आसान काम है लेकिन वहां जमने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है और इस की तालीम किसी कालेज में नहीं मिलती.

चैतन्य जैसे कई और युवाओं से बात करने पर महसूस होता है कि घर से दूर अनजान जगह जा कर नौकरी करना एक तरह से नई जिंदगी की शुरुआत होती है जिस की तुलना उस प्रचलित कहावत से की जा सकती है कि बच्चे को जन्म देना किसी भी स्त्री का दूसरा जन्म होता है.

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दूरदराज तो दूर की बात है खुद के शहर में भी किराए का मकान आसानी से नहीं मिलता फिर मुंबई, दिल्ली, चेन्नई, कोलकाता, पुणे और बैंगलुरु जैसे महानगरों की तो बात ही कुछ और है.

चैतन्य ने सोचा था कि मकान यों ही घूमतेफिरते मिल जाएगा. इस के लिए उस ने कुछ इलाकों के चक्कर काटे मगर खुद चकरा उठा.

पहली समस्या उसे भाषा की आई क्योंकि कन्नड़भाषी हिंदी और इंग्लिश दोनों ही अच्छी तरह नहीं जानते, दूसरे अनजान आदमी को कोई मकान देने को तैयार नहीं होता.

घबराए चैतन्य ने कंपनी के हिंदीभाषी सहकर्मियों को अपनी परेशानी बताई तो उसे सलाह दी गई कि किसी ब्रोकर के जरीये मकान ले लो. ब्रोकर के जरीये मकान लेना महंगा पड़ता है.

भागादौड़ी के बाद पता चला कि बैंगलुरु में अधिकतर हिंदी प्रदेशों के नौकरीपेशा युवा इलैक्ट्रोनिक सिटी और व्हाइट फील्ड इलाकों में रहते हैं. चैतन्य इन इलाकों में गया तो उसे थोड़ी राहत मिली क्योंकि वहां वाकई हिंदीभाषी राज्यों के युवा इफरात से दिखे, जिन से बातचीत हुई तो उसे मकान मिलने की आस बंधी और पहली बार अपनापन महसूस हुआ.

नहीं तो पिछले 10 दिनों में उसे यही लगा कि वह अपने ही देश के एक राज्य में नहीं बल्कि विदेश में कहीं रहने आया है.

खैर जैसेतैसे उसे मकान मिल गया. मदद करने वाला था झारखंड के धनबाद जिले का अभिनव, जिसे एक रूममेट की तलाश थी क्योंकि 2 कमरों वाले जिस छोटे से फ्लैट में वह रह रहा था उस का किराया ही ₹25 हजार महीना था.

अभिनव की नौकरी भी चैतन्य की तरह प्लेसमेंट के जरीये एक सौफ्टवेयर कंपनी में लगी थी. आधा किराया चैतन्य के हिस्से आया जो उसे ज्यादा नहीं लगा क्योंकि मकान में तमाम सुविधाएं मौजूद थीं.

रहने की समस्या हल हो गई लेकिन 12 दिन चैतन्य तनाव, आशंका और चिंता में रहा.

चैतन्य ने बताया कि अगर हिंदीभाषी राज्यों के युवा खासतौर से दक्षिण भारत के राज्यों में नौकरी के लिए आएं तो उन्हें घर से ही सारी जानकारियां हासिल कर लेनी चाहिए और किसी अनजान जगह में नौकरी करते समय कई सावधानियां भी बरतनी चाहिए.

गलतियों से बचें

चैतन्य को अभिनव ने पहले ही बता दिया था कि यहां सब से बडी परेशानी भाषा की है. स्थानीय लोग कन्नड़ ही बोलते हैं और इस वजह से हिंदी भाषियों से ज्यादा मेलजोल भी नहीं रख पाते.

फ्लैट में शिफ्ट होने के बाद नई परेशानी खानेपीने की होने लगी. कुछ दिन तो होटल का खाना अच्छा लगा लेकिन फिर बेस्वाद लगने लगा क्योंकि बैंगलुरु में अच्छी रोटी मिलती नहीं और मिलती भी है तो मैदे की बनी, जिस की उसे आदत नहीं थी.

मुंबई की एक कंपनी में जौब कर रही गुंजन के मुताबिक, हिंदीभाषी राज्यों के युवाओं की एक बडी समस्या खानपान है जो महाराष्ट्र में भी मनमुताबिक नहीं मिलता.

पुणे की अपूर्वा को अब भी याद है कि जब मम्मी मनपसंद पकवानों से सजी थाली लिए आगेपीछे घूमती थीं तो उसे नखरे आते थे. अब अकसर वड़ापाव खाना पङता है.

लेकिन रहने और खाने के अलावा और भी कई बातें हैं जिन पर बाहर रह कर नौकरी कर रहे युवाओं को खास ध्यान रखने की जरूरत है.

आइए, कुछ अहम बातों को ऐसे ही कुछ युवाओं की जबानी समझें :

• घर से दूर नौकरी करने पर युवा पारिवारिक बंदिशें, रोकटोक और नसीहतों से आजाद हो जाते हैं लेकिन इस का दुरुपयोग महंगा पड़ सकता है इसलिए उन्हें बहुत संभल कर रहना चाहिए.

• सब से पहले तो युवाओं को शराब और नशे की लत आदि से बच कर रहना चाहिए.

• शराब की तरह धूम्रपान भी युवाओं के लिए नुकसानदेह साबित होता है. यह सोचना बहुत बङी गलती और गलतफहमी भी है कि सिगरेट पीने से गम को भुलाया जा सकता है या फिर कम किया जा सकता है. धूम्रपान से असाध्य रोगों यानी कैंसर आदि से पीङित होने की संभावना रहती है.

• पुणे में नौकरी कर रही विदिशा की मानें तो रैडलाइट इलाकों में भी कई नौकरीपेशा युवा जाते हैं और वहां से सैक्स रोग ले आते हैं और फिर दूसरी गलती नीमहकीमों से बीमारियों का इलाज कराते हैं.

इसलिए गलती से ही सही ऐसा कुछ हो जाए तो उन्हें एलोपैथी के विशेषज्ञ डाक्टरों से ही इलाज कराना चाहिए और सैक्स संबंध बनाते समय कंडोम का इस्तेमाल जरूर करना चाहिए.

• गुरुग्राम की एक कंपनी में कार्यरत उज्जैन की प्रकृति सोशल मीडिया पर वक्त की बरबादी को नौकरीपेशा युवाओं की सब से बङी गलती मानती हैं.

उन के मुताबिक, सोशल मीडिया की जगह युवाओं को पत्रपत्रिकाएं अथवा अच्छा साहित्य पढ़ने में मन लगाना चाहिए जिस से बुद्धि और प्रतिभा और निखरें.

• युवाओं को यह हर समय याद रखना चाहिए कि वे घर से दूर जा कर नौकरी पैसा कमाने के लिए कर रहे हैं नकि अपनी कमाई को बरबाद करने के लिए, इसलिए उन्हें फुजूलखर्ची से बचना चाहिए.

बचत का पैसा ही असली कमाई होता है जोकि भविष्य और बुरे वक्त में काम आता है.हालांकि अपनी कमाई से उन्हें अपने वे तमाम शौक पूरे करने का पूरा हक है जिस के लिए कालेज लाइफ में वे तरस जाते थे मसलन ब्रैंडेड कपङे, फुटवियर और फैशन से जुङी तमाम ऐसी चीजें जिन का उन्हें पहले से ही शौक रहा हो लेकिन छात्र जीवन में पूरी न कर पाए हों.

• जितना हो सके उधारी के लेनदेन से बचना चाहिए.

• महीने का बजट बना कर खर्च करना चाहिए और सट्टे की लत आदि से दूर रहना चाहिए.

• आमतौर पर किसी कंपनी में एक दिन में 10 से 12 घंटे काम करना पड़ता है. इसलिए बचे हुए वक्त में खुद की सेहत पर खास ध्यान देना चाहिए. इस के लिए या तो घर पर ही कसरत करना बेहतर होता है या फिर जिम आदि जौइन करना, जिस से फिट रहा जा सके.

• वक्त काटने का एक और उपयोगी तरीका खुद घर पर खाना बनाने का है. इस से अपनी पसंद का जायकेदार खाना खाने को मिलेगा.

• शुरुआती दौर में होम सिकनैस से बचने के लिए घर वालों से रोज बात करना बेहतर है. वीडियो काल इस के लिए बेहतर है.

• स्थानीय लोगों से वादविवाद में नहीं पड़ना चाहिए.

• युवतियों को खासतौर से एहतियात बरतने की जरूरत होती है.

चैन्नई में कार्यरत नेहा कहती है कि अनजान लोगों से ज्यादा संबंध बनाना कभीकभी महंगा पड़ जाता है.

वह यह भी सलाह देती है कि लड़कियां  अपने बौयफ्रैंड से सैक्स संबंध बनाते समय कंडोम का इस्तेमाल जरूर करें और सैक्स पार्टनर को इस के लिए दबाव दें ताकि अनावश्यक गर्भधारण से बचा जा सके.

ऐसी कई छोटीबडी बातों का ध्यान रखा जाए तो कई परेशानियों से युवा खुद को बचाए रख सकते हैं. खुद को अपडेट रखने से जौब में भी फायदा होता है और खुद का आत्मविश्वास भी बढ़ता है.

26 जनवरी स्पेशल : तिरंगा फहराना आसान है पर उसका रखरखाव मुश्किल है

अटारी वाघा बौर्डर की चैक पोस्ट के नजदीक मार्च, 2017 को लगाए गए 360 फुट ऊंचे तिरंगे झंडे की अपनी अहमियत है. लेकिन इस के फट जाने और बारबार बदले जाने के चलते हो रहे लाखों रुपए के खर्च की खबरें सुर्खियों में रही हैं. इस तिरंगे झंडे की खूबी यह है कि यह दुनिया का 10वां सब से ऊंचा झंडा भी है, पर लंबे समय तक इस के नहीं दिखने के बीच कहा जाने लगा कि अफसरों ने तिरंगा लगाने से पहले तकनीकी चीजों का खयाल नहीं रखा. इस मामले में लापरवाही बरतने का एक आरोप भी अमृतसर इंप्रूवमैंट ट्रस्ट (एआईटी) ने लगाया और सरकार से गुजारिश की है कि वह इस मामले में जांच करे कि आखिर एक महीने में ही यह झंडा 3 बार कैसे फट गया, जबकि झंडे को 3 बार बदला भी गया?

याद रहे कि अटारी के तिरंगे से पहले देश के सब से ऊंचे तिरंगे के रूप में झारखंड की राजधानी रांची के पहाड़ी मंदिर पर 293 मीटर ऊंचे तिरंगे का नाम दर्ज था.

तिरंगे को एक खास आदर से देखा जाता है, लेकिन इधर कुछ अरसे में देश के अलगअलग हिस्सों में ऊंचा तिरंगा फहराने के सिलसिले में तिरंगे के फटने या झुकने की घटनाएं हुई हैं, उस से यह सवाल पैदा हो गया है कि देशभक्ति दिखाने के चक्कर में ऐसी घटनाएं कहीं इस राष्ट्रीय प्रतीक के असम्मान की वजह तो नहीं बन गई हैं?

देश में हर नागरिक को अब अपनी मनचाही जगह पर तिरंगा फहराने और उस के प्रति सम्मान जाहिर करने की आजादी मिली है. अब यह जरूरी नहीं रहा है कि तिरंगा सिर्फ सरकारी इमारतों पर फहराया जाए और किसी खास मौके पर यानी 26 जनवरी व 15 अगस्त को ही इसे लहरानेफहराने की छूट मिले.

यह आजादी देते समय निर्देशित किया गया था कि तिरंगे को फहराते वक्त कोई ऐसी घटना न घटे, जिस से कि उस का अपमान हो. अगर कहीं ऐसा होता है, तो सरकार के मंत्रियोंअफसरों तक को इस के लिए भलाबुरा कहा जाता है. पर कई बार तिरंगे के प्रति देशभक्ति दिखाने के चक्कर में ऐसा भी हुआ है, जब तिरंगे के असम्मान होने का खतरा पैदा हो गया.

जैसे, पिछले साल तेलंगाना सरकार ने नया राज्य बनने की दूसरी वर्षगांठ पर देश का दूसरा सब से ऊंचा तिरंगा झंडा हैदराबाद के हुसैन सागर नामक झील में बने संजीवैया पार्क में फहराया, तो वह 2 दिन बाद फट गया.

इस घटना के बाद वहां नया तिरंगा फहराने की कोशिश की गई, लेकिन वह भी तेज हवाओं के बीच टिक न सका.

इस तिरंगे की देखरेख का जिम्मा ग्रेटर हैदराबाद नगरनिगम को दिया गया था, लेकिन हर तेज हवाओं के साथ हर बार फट जाने वाले तिरंगे को बदलना उसे भारी पड़ रहा है.

ऐसा विशालकाय तिरंगा बनाने में एक लाख, 35 हजार रुपए का खर्च आ रहा है, जिसे उठाना नगरनिगम के लिए मुमकिन नहीं हो पा रहा है.

वैसे तो ऊंची जगह पर फहराए जाने वाले तिरंगे पौलिएस्टर से बनाए जाते हैं, ताकि तेज हवा में वे जल्दी फटे नहीं और बारिश में जल्दी गल न जाएं, लेकिन तेलंगाना वाले मामले में साबित हो रहा है कि वहां यह काम बिना रिसर्च के कर लिया गया था. गौरतलब है कि दिल्ली में भी बेहद ऊंचे खंभे पर तिरंगा फहराया गया है.

दिल्ली में कनाट प्लेस के बीचोंबीच ऐसा तिरंगा आम लोगों को अपनी देशभक्ति दिखाने का मौका देता है. यहां तिरंगे के इतनी जल्दी फट जाने की खबर नहीं मिली है. ऐसा इसलिए है, क्योंकि यहां ऊंचाई पर तिरंगा फहराने से पहले बाकायदा रिसर्च की गई थी.

कनाट प्लेस में इमारतों से घिरे इलाके में तिरंगा फहराया गया, जहां हवा सीधे नहीं आती है. ऐसे बंद इलाकों में तेज हवाएं तिरंगे को ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचा पाती हैं, लेकिन इस की तुलना में हैदराबाद का हुसैन सागर इलाका काफी खुला हुआ है. वहां सागर से उठने वाली तेज हवाएं बड़ी आसानी से तिरंगे को चिथड़े में बदल डालती हैं.

तिरंगे के ऐसे अपमान की कुछ घटनाएं देश के दूसरे इलाकों में भी हुई हैं. झारखंड की राजधानी रांची में पहाड़ी मंदिर पर लगा तिरंगा आधा झुका हुआ पाया गया था, जिस से राज्य सरकार की किरकिरी हुई थी.

रांची में पहाड़ी मंदिर में लगे तिरंगे की ऊंचाई 66 फुट और चौड़ाई 99 फुट है. इस का वजन 60 किलोग्राम है और यह 293 मीटर ऊंचे खंभे पर फहराया जाता है.

गौरतलब है कि 23 जनवरी, 2016 के बाद जब झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास की मौजूदगी में रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने इसे देश के सब से बड़े तिरंगे के तौर पर फहराया था, लेकिन अप्रैल महीने में तिरंगे को खंभे के ऊपर ले जाने वाली पुली खराब हो गई, जिस के चलते तिरंगा आधा झुक गया. रांची जिला प्रशासन ने पुली ठीक करने के लिए भारतीय सेना से मदद मांगी.

ध्यान रहे कि आधा झुका झंडा शोक का प्रतीक है, ऐसे में रांची के मामले को तिरंगे के मानकों के उल्लंघन का मामला भी माना गया था.

तेलंगाना और झारखंड जैसी घटना पिछले साल छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में भी हो चुकी है. रायपुर के मरीन ड्राइव इलाके में देश का सब से ऊंचा तिरंगा फहराने का दावा 30 अप्रैल में किया गया था. लेकिन फहराए जाने के 20-22 दिन बाद यह फट गया और तब से चुपचाप उतार कर रख लिया गया.

एक दिन जब लोगों ने इस तिरंगे को खंभे से नदारद पाया, तो उन्होंने सोशल मीडिया पर तमाम सवाल उठाए.

सरकार को तिरंगे के रखरखाव में हो रही अनदेखी की घटनाओं को भी गंभीरता से लेना चाहिए. यह कहना सही नहीं कि मौसम की वजह से तिरंगा 2 दिन में ही फट गया, तो प्रशासन इस के लिए क्या कर सकता है.

मसला यह भी है कि अगर जनता समेत प्रशासन तिरंगा फहरा कर अपनी देशभक्ति का परिचय देना चाहता है, तो जरूरी है कि वे सब तिरंगे का सम्मान बनाए रखने के लिए उस के रखरखाव से जुड़े नियमकायदों का सख्ती से पालन भी करें.

देशभक्ति का मतलब तिरंगा फहरा देना या तिरंगा यात्रा कर लेना मात्र नहीं है, बल्कि उस की पूरी देखभाल भी जरूरी है. साफ है कि जिस तरह से हमें देश के सम्मान का खयाल है, उसी तरह तिरंगे के सम्मान की भी चिंता होनी चाहिए.

मैं रोज मास्टरबेशन करती हूं, क्या ऐसा करना ठीक है ?

सवाल

मेरी उम्र 24 साल है, 3-4 महीने बाद मेरी शादी होने वाली है. मैं ने अभी तक किसी के साथ सैक्स संबंध नहीं बनाए हैं, वर्जिन हूं पर मास्टरबेशन रोज ही करती हूं. इस कारण मुझे लगता है कि इस से प्राइवेट पार्ट की स्किन ढीली हो गई है. इस वजह से बहुत तनाव में आ गई हूं. मेरे होने वाले पति कहीं मु झे गलत न समझ बैठें कि मैं ने शादी से पहले किसी के साथ सैक्स संबंध बनाए हैं.

जवाब

जिस तरह सैक्स करने से प्राइवेट पार्ट की स्किन लूज नहीं होती, उसी तरह मास्टरबेशन से भी स्किन पर कोई फर्क नहीं पड़ता और वह ढीली भी नहीं पड़ती है.

हकीकत तो यह है कि किसी अंग के कम उपयोग से ही उस में शिथिलता आती है न कि नियमित उपयोग से. आप अपनी शादी की तैयारियां जोरशोर से करें और मन में व्याप्त भय को पूरी तरह निकाल दें. आप की वैवाहिक जिंदगी पर इस का कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ेगा.

सत्ता के लिए

हमारे नेताओं में सत्ता पाने या सत्ता में बने रहने की कितनी छटपटाहट है, यह सब दिख रहा है. संसद में बहुमत के चलते नरेंद्र मोदी सरकार और कुछ विधानसभाओं में बहुमत के चलते भाजपाई सरकारें सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग कर सत्ता में बने रहने का हरसंभव प्रयास कर रही हैं तो विपक्षी दल आरोपों की झड़ी लगाते संसद में हंगामा खड़ा कर और सुप्रीम कोर्ट में जो बचीखुची ताकत है उस के बल पर देश में बचे लोकतंत्र को बचाने व राजनीति को जैसेतैसे बचाए रखने की कोशिश कर रहे हैं.

सत्ता की छटपटाहट के सैकड़ों उदाहरण हमारे सनातन ग्रंथों में मिलते हैं. हमारे ऋषि, मुनि, राजा, देवी, देवता, दस्यु सब की कथाएं जो वेदों व पुराणों में हैं, सब सत्ता के लिए हैं. जनसेवा का उदाहरण तो बड़ी मुश्किल से ढूंढ़ने पर मिलेगा. शिवपुराण में एक कथा दस्यु राजा तारक की है जिन्होंने तपस्या कर के ब्रह्मा से 3 पुत्र मांगे. आज के वोटरों की तरह ब्रह्मा ने ये 3 पुत्र दे दिए तो देवताओं में खलबली मच गई.

इन पुत्रों ने 3 नगर बसाए और इन नगरों में शिवपुराण के अनुसार बावलियां, उद्यान, नदियां, फलोंफूलों से भरे पेड़, क्रीड़ास्थल, पाठशालाएं थीं. उन्होंने, जैसा हर ग्रंथ में लिखा होता है, ब्राह्मणों का भी रहनेखाने, गृहस्थी जमाने का पूरा ध्यान रखा. पर फिर भी इंद्र आदि देवता दुखी हुए. वे भी ब्रह्मा के पास पहुंचे, ठीक वैसे ही जैसे आज विपक्ष सत्ताधारी पार्टी को हटाने के लिए वोटरों के पास पहुंच जाता है.

ब्रह्मा ने वैसे तो इनकार कर दिया पर फिर भी उपाय बताया कि तारक पुत्रों को धर्म से विमुख कर दो. जैसे कांग्रेस पर अयोध्या की बाबरी मसजिद को बचाने और राममंदिर न बनने देने का आरोप लगा, वैसा ही तारक पुत्रों पर लगा. बाद में शिव की सहायता से तीनों नगरों को देवताओं ने जीत लिया.

यह किस्सा सत्ता का है. इसी तरह का मामला देश में बारबार दोहराया जा रहा है. सत्ता में रहने के लिए जो लोलुपता हमारे नेताओं में है कि जिस के लिए लोकतंत्र की बचीखुची भावना को भी कुचला जा रहा है, वह संसद के शीतकालीन सत्र में दिखी.

भारतीय जनता पार्टी 3 राज्यों में कांग्रेस को पराजित कर के आई है तो उसे संसद में बड़प्पन दिखाना चाहिए पर वह अभी भी इंद्र आदि देवताओं की तरह भयभीत है और ब्रह्मा को अपना वरदान वापस लेने की मिन्नत करने जैसे काम कर रही है. फर्क यह है कि भाजपा सत्ता में है और देवीदेवताओं पर भी उस का एकाधिकार है.

पर मूल बात यह है कि विवाद सत्ता का है, जनहित की नीतियों का नहीं. अब यह सत्ता सामाजिक वर्णव्यवस्था को धर्म के सहारे बनाए रखने की है, अपने मनचाहे उद्योगपतियों को आर्थिक लाभ पहुंचाने की है या शासन में रहने के गरूर की है, या इन तीनों की है, फर्क नहीं पड़ता. यह साफ है कि दोनों पक्ष जनहित की बात करते नहीं दिखते.

सरकार केवल मंदिर बनवा रही है तो विपक्ष केवल बेरोजगारों की बात कर रहा है. जैसे तारक पुत्रों से देवताओं को कोई नुकसान नहीं पहुंच रहा था, वैसे ही आज विपक्षी दलों या उन की गिनीचुनी राज्य सरकारों से भाजपा को खास फर्क नहीं पड़ रहा.

भाजपा व्यवहार ऐसे कर रही है मानो कोई धर्मयुद्ध हो रहा हो. लोकतंत्र की भावना को बचाए रखने की जिम्मेदारी सरकार की होनी चाहिए क्योंकि संवैधानिक हक उस के पास हैं पर वह तो अपनी सत्ता को सदासदा के लिए बनाए रखने को ब्रह्मारूपी वोटरों को बटोरने में लगी है. इस के लिए दोष तो उसी सनातन पौराणिक सोच को देना होगा न, जिसे बारबार दोहरा कर हर समझदार के मन में बैठाया जा रहा है और यह कृत्य भाजपा, आरएसएस व उस से संबद्ध संगठनों द्वारा ही किया जा रहा है.

अपने पराए… पराए अपने…

पार्किंग में कार खड़ी कर के मैं दफ्तर की ओर बढ़ ही रहा था कि इतने में तेजी से चलते हुए वह आई और ‘भाई साहब’ कहते हुए मेरा रास्ता रोक कर खड़ी हो गई. उस की गोद में दोढ़ाई साल की एक बच्ची भी थी. एक पल को तो मैं सकपका गया कि कौन है यह? यहां तो दूरदराज के रिश्ते की भी मेरी कोई बहन नहीं रहती. मैं अपने दिमाग पर जोर डालने लगा.

मुझे उलझन में देख कर वह बोली, ‘‘क्या आप मुझे पहचान नहीं पा रहे हैं? मैं लाजवंती हूं. आप की बहन लाजो. मैं तो आप को देखते ही पहचान गई थी.’’ मैं ने खुशी के मारे उस औरत की पीठ थपथपाते हुए कहा, ‘‘अरी, तू है चुड़ैल.’’

मैं बचपन में उसे लाड़ से इसी नाम से पुकारता था. सो बोला, ‘‘भला पहचानूंगा कैसे? कहां तू बित्ती भर की थी, फ्रौक पहनती थी और अब तो तू एक बेटी की मां बन गई है.’’

मेरी बातों से उस की आंखें भर आईं. मुझे दफ्तर के लिए देर हो रही थी, इस के बावजूद मैं ने उसे घर ले चलना ही ठीक समझा. वह कार में मेरी साथ वाली सीट पर आ बैठी. रास्ते में मैं ने गौर किया कि वह साधारण थी. सूती साड़ी पहने हुए थी. मामूली से गहने भी उस के शरीर पर नहीं थे. सैंडल भी कई जगह से मरम्मत किए हुए थे.

बातचीत का सिलसिला जारी रखने के लिए मैं सब का हालचाल पूछता रहा, मगर उस के पति और ससुराल के बारे में कुछ न पूछ सका. लाजवंती को मैं बचपन से जानता था. वह मेरे पिताजी के एक खास दोस्त की सब से छोटी बेटी थी. दोनों परिवारों में बहुत मेलजोल था.

हम सब भाईबहन उस के पिताजी को चाचाजी कहते थे और वे सब मेरे पिताजी को ताऊजी. अम्मां व चाची में खूब बनती थी. दोनों घरों के मर्द जब दफ्तर चले जाते तब अम्मां व चाची अपनी सिलाईबुनाई ले कर बैठ जातीं और घंटों बतियाती रहतीं.

हम बच्चों के लिए कोई बंधन नहीं था. हम सब बेरोकटोक एकदूसरे के घरों में धमाचौकड़ी मचाते हुए खोतेपीते रहते. पिताजी ने हाई ब्लडप्रैशर की वजह से मांस खाना व शराब पीना बिलकुल छोड़ दिया था. वैसे भी वे इन चीजों के ज्यादा शौकीन नहीं थे, लेकिन चाचाजी खानेपीने के बेहद शौकीन थे.

अकसर उन की फरमाइश पर हमारे यहां दावत हुआ करती. इस पर अम्मां कभीकभी पिताजी पर झल्ला भी जाती थीं कि जब खुद नहीं खाते तो दूसरों के लिए क्यों इतना झंझट कराते हो. तब पिताजी उन्हें समझा देते, ‘क्या करें बेचारे पंडित हैं न. अपने घर में तो दाल गलती नहीं, हमारे यहां ही खा लेते हैं. तुम्हें भी तो वे अपनी सगी भाभी की तरह ही मानते हैं.’

मेरे पिताजी ऐक्साइज इंस्पैक्टर थे और चाचाजी ऐजूकेशन इंस्पैक्टर. चाचाजी मजाक में पिताजी से कहते, ‘यार, कैसे कायस्थ हो तुम… अगर मैं तुम्हारी जगह होता तो पानी की जगह शराब ही पीता.’ तब पिताजी हंसते हुए जवाब देते, ‘लेकिन गंजे को खुदा नाखून देता ही कहां है…’

इसी तरह दिन हंसीखुशी से बीत रहे थे कि अचानक न जाने क्या हुआ कि चाचाजी नौकरी से सस्पैंड हो गए. कई महीनों तक जांच होती रही. उन पर बेईमानी करने का आरोप लगा था. एक दिन वे बरखास्त कर दिए गए. बेचारी चाची पर तो जैसे मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ा. 2 बड़ी लड़कियों की तो शादी हो चुकी थी, पर 3 बच्चे अभी भी छोटे थे. सुरेंद्र 8वीं, वीरेंद्र 5वीं व लाजो चौथी जमात में पढ़ रही थी.

चाचाजी ने जोकुछ कमाया था, वह जी खोल कर मौजमस्ती में खर्च कर दिया था. आड़े समय के लिए चाचाजी ने कुछ भी नहीं जोड़ा था. चाचाजी को बहुत मुश्किल से नगरनिगम में एक छोटी सी नौकरी मिली. जैसेतैसे पेट भरने का जुगाड़ तो हुआ, लेकिन दिन मुश्किल से बीत रहे थे. वे लोग बढि़या क्वार्टर के बजाय अब छोटे से किराए के मकान में रहने लगे. चाची को चौकाबरतन से ले कर घर का सारा काम करना पड़ता था.

लाड़प्यार में पले हुए बच्चे अब जराजरा सी चीजों के लिए तरसते थे. दोस्ती के नाते पिताजी उस परिवार की ज्यादा से ज्यादा माली मदद करते रहते थे.

समय बीतता गया. चाचाजी के दोनों लड़के पढ़ने में तेज थे. बड़े लड़के को बीए करने के बाद बैंक में नौकरी मिल गई और छोटे बेटे का मैडिकल कालेज में दाखिला हो गया. मगर लाजो का मन पढ़ाई में नहीं लगा. वह अकसर बीमार रहती थी. वह बेहद चिड़चिड़ी और जिद्दी भी हो गई थी और मुश्किल से 8वीं जमात ही पास कर पाई.

फिर पिताजी का तबादला बिलासपुर हो गया. मैं भी फोरैस्ट अफसर की ट्रेनिंग के लिए देहरादून चला गया. कुछ अरसे के लिए हमारा उन से संपर्क टूट सा गया. फिर न पिताजी रहे और न चाचाजी. हम लोग अपनीअपनी दुनिया में मशगूल हो गए. कई सालों के बाद ही इंदौर वापस आना हुआ था.

शाम को जब मैं दफ्तर से घर पहुंचा तो देखा कि लाजो सब से घुलमिल चुकी थी. मेरे दोनों बच्चे ‘बूआबूआ’ कह कर उसे घेरे बैठे थे और उस की बेटी को गोद में लेने के लिए उन में होड़ मची थी. मेरी एकलौती बहन 2 साल पहले एक हादसे में मर गई थी, इसलिए मेरी बीवी उमा भी ननद पा कर खुश हुई.

खाना खाने के बाद हम लोग उसे छोड़ने गए. नंदानगर में एक चालनुमा मकान के आगे उस ने कार रुकवाई. मैं ने चाचीजी के पैर छुए, पर वे मुझे पहचान न पाईं. तब लाजो ने मुझे ढूंढ़ निकालने की कहानी बड़े जोश से सुनाई. चाचीजी मुझे छाती से लगा कर खुश हो गईं और रुंधे गले से बोलीं, ‘‘अच्छा हुआ बेटा, जो तुम मिल गए. मुझे तो रातदिन लाजो की फिक्र खाए जाती है. दामाद नालायक निकला वरना इस की यह हालत क्यों होती.

‘‘भूखों मरने से ले कर गालीगलौज, मारपीट सभी कुछ जब तक सहन करते बना, यह वहीं रही. फिर यहां चली आई. दोनों भाइयों को तो यह फूटी आंख नहीं सुहाती. अब मैं करूं तो क्या करूं? जवान लड़की को बेसहारा छोड़ते भी तो नहीं बनता. ‘‘बेटा, इसे कहीं नौकरी पर लगवा दो तो मुझे चैन मिले.’’

सुरेंद्र भी इसी शहर में रहता था. अब वह बैंक मैनेजर था. एक दिन मैं उस के घर गया. उस ने मेरी बहुत खातिरदारी की, लेकिन वह लाजो की मदद के नाम पर टस से मस नहीं हुआ. लाजवंती का जिक्र आते ही वह बोला, ‘‘उस का नाम मत लीजिए भाई साहब. वह बहुत तेज जबान की है. वह अपने पति को छोड़ आई है.

‘‘हम ने तो सबकुछ देख कर ही उस की शादी की थी. उस में ससुराल वालों के साथ निभाने का ढंग नहीं है. माना कि दामाद को शराब पीने की लत है, पर घर में और लोग भी तो हैं. उन के सहारे भी तो रह सकती थी वह… घर छोड़ने की क्या जरूरत थी?’’ सुरेंद्र की बातें सुन कर मैं अपना सा मुंह ले कर लौट आया.

मैं बड़ी मुश्किल से लाजो को एक गांव में ग्रामसेविका की नौकरी दिला सका था. चाचीजी कुछ दिन उस के पास रह कर वापस आ गईं और अपने बेटों के साथ रहने लगीं.

मेरा जगहजगह तबादला होता रहा और तकरीबन 15 साल बाद ही अपने शहर वापस आना हुआ. एक दिन रास्ते में लाजो के छोटे भाई वीरेंद्र ने मुझे पहचान लिया. वह जोर दे कर मुझे अपने घर ले गया. उस ने शहर में क्लिनिक खोल लिया था और उस की प्रैक्टिस भी अच्छी चल रही थी.

लाजो का जिक्र आने पर उस ने बताया कि उस की तो काफी पहले मौत हो गई. यह सुनते ही मुझे धक्का लगा. उस का बचपन और पिछली घटनाएं मेरे दिमाग में घूमने लगीं. लेकिन एक बात बड़ी अजीब लग रही थी कि मौत की खबर सुनाते हुए वीरेंद्र के चेहरे पर गम का कहीं कोई निशान नहीं था. मैं चाचीजी से मिलने के लिए बेताब हो उठा. वे एक कमरे में मैलेकुचैले बिस्तर पर पड़ी हुई थीं. अब वे बहुत कमजोर हो गई थीं और मुश्किल से ही उठ पाती थीं. आंखों की रोशनी भी तकरीबन खत्म हो चुकी थी.

मैं ने अपना नाम बताया तभी वे पहचान सकीं. मैं लाजो की मौत पर दुख जाहिर करने के लिए कुछ बोलने ही वाला था कि उन्होंने हाथ पकड़ कर मुझे अपने नजदीक बैठा लिया. वे मेरे कान में मुंह लगा कर धीरे से बोलीं, ‘‘लाजो मरी नहीं है बेटा. वह तो इसी शहर में है. ये लोग उस के मरने की झूठी खबर फैला रहे हैं. तुम ने जिस गांव में उस की नौकरी लगवा दी थी, वहीं एक ठाकुर साहब भी रहते थे. उन की बीवी 2 छोटेछोटे बच्चे छोड़ कर मर गई. गांव वालों ने लाजो की शादी उन से करा दी.

‘‘लाजो के अब 2 बेटे भी हैं. वैसे, अब वह बहुत सुखी है, लेकिन एक बार उसे अपनी आंखों से देख लेती तो चैन से मरती. ‘‘एक दिन लाजो आई थी तो वीरेंद्र की बीवी ने उसे घर में घुसने तक नहीं दिया. वह दरवाजे पर खड़ी रोती रही. जातेजाते वीरेंद्र से बोली थी कि भैया, मुझे अम्मां से तो मिल लेने दो. लेकिन ये लोग बिलकुल नहीं माने.’’

लाजो की यादों में डूब कर चाचीजी की आंखों से आंसू बहने लगे थे. वे रोतेरोते आगे बोलीं, ‘‘बताओ बेटा, उस ने क्या गलत किया? उसे भी तो कोई सहारा चाहिए था. सगे भाई हो कर इन दोनों ने उस की कोई मदद नहीं की बल्कि दरदर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया. तुम्हीं ने उस की नौकरी लगवाई थी…’’

तभी मैं ने महसूस किया कि सब की नजरें हम पर लगी हुई हैं. मैं उस जगह से फौरन हट जाना चाहता था, जहां अपने भी परायों से बदतर हो गए थे. मैं ने मन ही मन तय कर लिया था कि लाजो को ढूंढ़ निकालना है और उसे एक भाई जरूर देना है.

ख्वाब पूरे हुए : नकुल की शादी से क्यों घर वाले नाराज थे?

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26 जनवरी स्पेशल : छुट्टी- सरहद पार क्यों तनाव था ?

दूर दूर तक जहां तक नजर जा सकती थी, पहाड़ों पर बर्फ की सफेद चादर बिछी हुई थी. प्रेमी जोड़ों के लिए यह एक शानदार जगह हो सकती थी, पर सरहद पर इन पहाडि़यों की शांति के पीछे जानलेवा अशांति छिपी हुई थी.

पिछले कई महीनों से कोई भी दिन ऐसा नहीं बीता था, जब तोपों के धमाकों और गोलियों की तड़तड़ाहट ने यहां की शांति भंग न की हो.

‘‘साहबजी, आप कौफी पीजिए. ठंड दूर हो जाएगी,’’ हवलदार बलवंत सिंह ने गरम कौफी का बड़ा सा मग मेजर जतिन खन्ना की ओर बढ़ाते हुए कहा.

‘‘ओए बलवंत, लड़ तो हम दिनरात रहे हैं, मगर क्यों  यह तो शायद ऊपर वाला ही जाने. अब तू कहता है, तो ठंड से भी लड़ लेते हैं,’’ मेजर जतिन खन्ना ने हंसते हुए मग थाम लिया.

कौफी का एक लंबा घूंट भरते हुए वे बोले, ‘‘वाह, मजा आ गया. अगर ऐसी कौफी हर घंटे मिल जाया करे, तो वक्त बिताना मुश्किल न होगा.’’

‘‘साहबजी, आप की मुश्किल तो हल हो जाएगी, लेकिन मेरी मुश्किल कब हल होगी ’’ बलवंत सिंह ने भी कौफी का लंबा घूंट भरते हुए कहा.

‘‘कैसी मुश्किल ’’ मेजर जतिन खन्ना ने चौंकते हुए पूछा.

‘‘साहबजी, अगले हफ्ते मेरी बीवी का आपरेशन है. मेरी छुट्टियों का क्या हुआ ’’ बलवंत सिंह ने पूछा.

‘‘सरहद पर इतना तनाव चल रहा है.  हम लोगों के कंधों पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी है. ऐसे में छुट्टी मिलना थोड़ा मुश्किल है, पर मैं कोशिश कर रहा हूं,’’ मेजर जतिन खन्ना ने समझाया.

‘‘लेकिन सर, क्या देशभक्ति का सारा ठेका हम फौजियों ने ही ले रखा है ’’ कहते हुए बलवंत सिंह ने मेजर जतिन खन्ना के चेहरे की ओर देखा.

‘‘क्या मतलब… ’’ मेजर जतिन खन्ना ने पूछा.

‘‘यहां जान हथेली पर ले कर डटे रहें हम, वहां देश में हमारी कोई कद्र नहीं. सालभर गांव न जाओ, तो दबंग फसल काट ले जाते हैं. रिश्तेदार जमीन हथिया लेते हैं. ट्रेन में टीटी भी पैसे लिए बिना हमें सीट नहीं देता. पुलिस वाले भी मौका पड़ने पर फौजियों से वसूली करने से नहीं चूकते,’’ बलवंत सिंह के सीने का दर्द बाहर उभर आया.

‘‘सारे जुल्म सह कर भी हम देश पर अपनी जान न्योछावर करने के लिए तैयार हैं, मगर कम से कम हमें इनसान तो समझा जाए.

‘‘घर में कोई त्योहार हो, तो छुट्टी नहीं मिलेगी. कोई रिश्तेदार मरने वाला हो, तो छुट्टी नहीं मिलेगी. जमीनजायदाद का मुकदमा हो, तो छुट्टी नहीं मिलेगी. अब बीवी का आपरेशन है, तो भी छुट्टी नहीं मिलेगी. लानत है ऐसी नौकरी

पर, जहां कोई इज्जत न हो.’’

‘‘ओए बलवंत, आज क्या हो गया है तुझे  कैसी बहकीबहकी बातें कर रहा है  अरे, हम फौजियों की पूरी देश इज्जत करता है. हमें सिरआंखों पर बिठाया जाता है,’’ मेजर जतिन खन्ना ने आगे बढ़ कर बलवंत सिंह के कंधे पर हाथ रखा.

‘‘हां, इज्जत मिलती है, लेकिन मर जाने के बाद. हमें सिरआंखों पर बिठाया जाता है, मगर शहीद हो जाने के बाद. जिंदा रहते हमें बस और ट्रेन में जगह नहीं मिलेगी, हमारे बच्चे एकएक पैसे को तरसेंगे, मगर मरते ही हमारी लाश को हवाईजहाज पर लाद कर ले जाया जाएगा. परिवार के दुख को लाखों रुपए की सौगात से खरीद लिया जाएगा. जिस के घर में कभी कोई झांकने भी न आया हो, उसे सलामी देने हुक्मरानों की लाइन लग जाएगी.

‘‘हमारी जिंदगी से तो हमारी मौत लाख गुना अच्छी है. जी करता है कि उसे आज ही गले लगा लूं, कम से कम परिवार वालों को तो सुख मिल सकेगा,’’ कहते हुए बलवंत सिंह का चेहरा तमतमा उठा.

‘‘ओए बलवंत…’’

‘‘ओए मेजर…’’ इतना कह कर बलवंत सिंह चीते की फुरती से मेजर जतिन खन्ना के ऊपर झपट पड़ा और उन्हें दबोचे हुए चट्टान के नीचे आ गिरा. इस से पहले कि वे कुछ समझ पाते, बलवंत सिंह के कंधे पर टंगी स्टेनगन आग उगलने लगी.

गोलियों की ‘तड़…तड़…तड़…’ की आवाज के साथ तेज चीखें गूंजीं और चंद पलों बाद सबकुछ शांत हो गया.

‘‘ओए बलवंत मेरे यार, तू ठीक तो है न ’’ मेजर जतिन खन्ना ने अपने को संभालते हुए पूछा.

‘‘हां, साहबजी, मैं बिलकुल ठीक हूं,’’ बलवंत सिंह हलका सा हंसा, फिर बोला, ‘‘मगर, ये पाकिस्तानी कभी ठीक नहीं होंगे. इन की समझ में क्यों नहीं आता कि जब तक एक भी हिंदुस्तानी फौजी जिंदा है, तब तक वे हमारी चौकी को हाथ भी नहीं लगा सकते,’’ इतना कह कर बलवंत सिंह ने चट्टान के पीछे से झांका. थोड़ी दूरी पर ही 3 पाकिस्तानी सैनिकों की लाशें पड़ी थीं. छिपतेछिपाते वे कब यहां आ गए थे, पता ही नहीं चला था. उन में से एक ने अपनी एके 47 से मेजर जतिन खन्ना के सीने को निशाना लगाया ही था कि उस पर बलवंत सिंह की नजर पड़ गई और वह बिजली की रफ्तार से मेजर साहब को ले कर जमीन पर आ गिरा.

‘‘बलवंत, तेरी बांह से खून बह रहा है,’’ गोलियों की आवाज सुन कर खंदक से निकल आए फौजी निहाल सिंह ने कहा. उस के पीछेपीछे उस चौकी की सिक्योरिटी के लिए तैनात कई और जवान दौडे़ चले आए थे.

‘‘कुछ नहीं, मामूली सी खरोंच है. पाकिस्तानियों की गोली जरा सा छूते हुए निकल गई थी,’’ कह कर बलवंत सिंह मुसकराया.

‘‘बलवंत, तू ने मेरी खातिर अपनी जान दांव पर लगा दी. बता, तू ने ऐसा क्यों किया ’’ कह कर मेजर जतिन खन्ना ने आगे बढ़ कर बलवंत सिंह को अपनी बांहों में भर लिया.

‘‘क्योंकि देशभक्ति का ठेका हम फौजियों ने ले रखा है,’’ कह कर बलवंत सिंह फिर मुसकराया.

‘‘तू कैसा इनसान है. अभी तो तू सौ बुराइयां गिना रहा था और अब देशभक्ति का राग अलाप रहा है,’’ मेजर जतिन खन्ना ने दर्दभरी आवाज में कहा.

‘‘साहबजी, हम फौजी हैं. लड़ना हमारा काम है. हम लड़ेंगे. अपने ऊपर होने वाले जुल्म के खिलाफ लड़ेंगे, मगर जब देश की बात आएगी, तो सबकुछ भूल कर देश के लिए लड़तेलड़ते जान न्योछावर कर देंगे. कुरबानी देने का पहला हक हमारा है. उसे हम से कोई नहीं छीन सकता,’’ कहतेकहते बलवंत सिंह तड़प कर जोर से उछला.

उस के बाद एक तेज धमाका हुआ और फिर सबकुछ शांत हो गया.

बलवंत सिंह की जब आंखें खुलीं, तो वह अस्पताल में था. मेजर जतिन खन्ना उस के सामने ही थे.

‘‘सरजी, मैं यहां कैसे आ गया ’’ बलवंत सिंह के होंठ हिले.

‘‘अपने ठेके के चलते…’’ मेजर जतिन खन्ना ने आगे बढ़ कर बलवंत सिंह के सिर पर हाथ फेरा, फिर बोले, ‘‘तू ने कमाल कर दिया. दुश्मन के

3 सैनिक एक तरफ से आए थे, जिन्हें तू ने मार गिराया था. बाकी के सैनिक दूसरी तरफ से आए थे. उन्होंने हमारे ऊपर हथगोला फेंका था, जिसे तू ने उछल कर हवा में ही थाम कर उन की ओर वापस उछाल दिया था. वे सारे के सारे मारे गए और हमारी चौकी बिना किसी नुकसान के बच गई.’’

‘‘तेरे जैसे बहादुरों पर देश को नाज है,’’ मेजर जतिन खन्ना ने बलवंत सिंह का कंधा थपथपाया, फिर बोले, ‘‘तू भी बिलकुल ठीक है. डाक्टर बता रहे थे कि मामूली जख्म है. एकदो दिन में यहां से छुट्टी मिल जाएगी.

‘‘छुट्टी…’’ बलवंत सिंह के होंठ धीरे से हिले.

‘‘हां, वह भी मंजूर हो गई है. यहां से तू सीधे घर जा सकता है,’’ मेजर जतिन खन्ना ने बताया, फिर चौंकते हुए बोले, ‘‘एक बात बताना तो मैं भूल ही गया था.’’

‘‘क्या… ’’ बलवंत सिंह ने पूछा.

‘‘तुझे हैलीकौफ्टर से यहां तक लाया गया था.’’

‘‘पर अब हवाईजहाज से घर नहीं भेजेंगे ’’ कह कर बलवंत सिंह मुसकराया.

‘‘कभी नहीं…’’ मेजर जतिन खन्ना भी मुसकराए, फिर बोले, ‘‘ब्रिगेडियर साहब ने सरकार से तुझे इनाम देने की सिफारिश की है.’’

‘‘साहबजी, एक बात बोलूं ’’

‘‘बोलो…’’

‘‘इनाम दिलवाइए या न दिलवाइए, मगर सरकार से इतनी सिफारिश जरूर करा दीजिए कि हम फौजियों की जमीनजायदाद के मुकदमों का फैसला करने के लिए अलग से अदालतें बना दी जाएं, जहां फटाफट इंसाफ हो, वरना हजारों किलोमीटर दूर से हम पैरवी नहीं कर पाते.

‘‘सरहद पर हम भले ही न हारें, मगर अपनों से लड़ाई में जरूर हार जाते हैं,’’ बलवंत सिंह ने उम्मीद भरी आवाज में कहा.

मेजर जतिन खन्ना की निगाहें कहीं आसमान में खो गईं. बलवंत सिंह ने जोकुछ भी कहा था, वह सच था, मगर जो वह कह रहा है, क्या वह कभी मुमकिन हो सकेगा

तर्क नहीं आस्था का नतीजा : क्या हम आक्रामकता और स्वार्थ के गुलाम हो गए हैं?

महाराष्ट्र के पुणे शहर में इस 21 जनवरी को एक सिरफिरे आशिक ने प्यार का विरोध करने पर अपनी प्रेमिका की मां की गला घोंट कर हत्या कर दी. कत्ल के लिए उस ने कुत्ते की बेल्ट का इस्तेमाल किया. प्रेमिका की शिकायत के आधार पर पुलिस ने केस दर्ज कर के आरोपी को गिरफ्तार कर लिया है.

यह वारदात पुणे के पाषाण सुस रोड पर स्थित एक सोसायटी में हुई. वहां 58 साल की वर्षा अपनी 22 साल की बेटी मृण्मयी के साथ रहती थी. इसी महीने की पहली तारीख को वर्षा के पति की मौत हो गई थी. उस की बेटी एक कंप्यूटर इंजीनियर है लेकिन 1 जनवरी को पिता की मौत के बाद उस ने अपनी नौकरी छोड़ दी थी. करीब 7 महीने पहले एक डेटिंग ऐप पर उस की मुलाकात शिवांशु के साथ हुई. दोनों एकदूसरे से प्यार करने लगे. लेकिन कुछ महीने बाद लड़की को पता चला कि उस का प्रेमी डिलीवरी बौय का काम करता है.

मृण्मयी की मां उन के रिश्ते के खिलाफ थी. वह लड़के की नौकरी और आर्थिक स्थिति को अपनी हैसियत के बराबर नहीं समझती थी. इसलिए उस ने अपनी बेटी से इस रिश्ते से बाहर निकलने के लिए कहा था. पिता को खो चुकी मृण्मयी ने अपनी मां की बात मान ली और उस ने शिवांशु से ब्रेकअप कर लिया और उस से मिलना बंद कर दिया. इस बात से नाराज शिवांशु गुप्ता एक रात मृण्मयी के घर पहुंच गया.

उस की मां उसे पहले से जानती थी इसलिए उन्होंने दरवाजा खोल कर उसे अंदर बुला लिया. घर में घुसने के बाद शिवांशु ने पहले तो मां को शादी के लिए मनाने की कोशिश की लेकिन जब वो नहीं मानी तो कुसे की बेल्ट से गला घोंट कर उस की हत्या कर दी.

इसी तरह दिल्ली में रोहिणी इलाके में एक 24 साल के लड़के ने अपनी 19 साल की प्रेमिका की गला रेत कर हत्या करने की कोशिश की. बाद में खुद की भी जान ले ली.

दरअसल अमित नाम का यह सिरफिरा आशिक उसी कार्यालय में काम करता था, जिस में लड़की काम करती थी. उसे लड़की से एकतरफा प्यार हो गया. परेशान हो कर लड़की ने अमित से बात करना बंद कर दिया. अमित यह बेरुखी सह नहीं सका. उस ने चाकू से लड़की पर हमला किया और उस का गला रेतने की कोशिश की. लेकिन औफिस के अन्य लोगों ने उसे बचा लिया. फिर अमित ने खुद को एक कमरे में बंद कर लिया और फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली.

दरअसल आजकल हमारे पास तर्कपूर्ण सोच विकसित करने के लिए कोई जरिया नहीं है. न हमारे पास वैसे राइटर हैं जो तार्किक बातें कहते हों या जिन के लेखन में तर्क झलकता हो. न हमारे पास पढ़ने के लिए वैसी किताबें है जो हमें तर्कशील बनाएं. हम बस विश्वास यानी फेथ के सहारे चल रहे हैं. तभी हम कहते हैं कि धर्म ने ऐसा कहा इसलिए यही सही है या प्यार ऐसे ही होता है और हम ऐसे ही प्यार करेंगे. इसी पर हमारा विश्वास है.

आज हमारे पास देखने के लिए जो फिल्मी या सीरियल की कहानियां हैं. उन में आक्रामकता, स्वार्थ और जबरदस्ती दिखाई जाती है. कुछ गिनीचुनी किताबें जो हम पढ़ते हैं. उन की कहानियों में भी आज इसी तरह के किरदार दिखाई देते हैं. एक समय था जब डेसकार्टेस, नीत्शे, रसेल, इम्मानुएल कैंट, विलियम जेम्स जैसे लेखक थे जिन की कहानियों के किरदारों में या वर्णित घटनाओं और उदाहरणों में तर्कशीलता होती थी. वह हमें एक दिशा देते थे. हमारी सोच और हमारे चिंतन को एक तार्किक दृष्टिकोण देते थे.

आज हमारे पास पढ़ने को बचा क्या है ? ले दे कर एक मोबाइल है जो सब के हाथों में होता है. हम उस में आंखें गड़ाए रखते हैं. उस में जो भी बेसिरपैर की बातें पढ़ने को मिलती हैं वही हमारे अवचेतन में बैठता जाता है.

मोबाइल में ऐसी तर्कहीन चीजें होती हैं जिन का हमारी जिंदगी पर नेगेटिव असर पड़ता है. मगर हम उसे ही फौरवर्ड किए जाते हैं. इस में केवल फेथ को बढ़ावा दिया जाता है. बस इसी फेथ यानी विश्वास के आधार पर हमारी सोच विकसित होती है. हम वैसा ही करने लग जाते हैं जैसा हमें समझाया जा रहा है.

गलती हमारी नहीं बल्कि गलती है हमारे माहौल की. गलती है समाज के बदलते हुए नजरिए की जिस ने हमें आक्रामकता, स्वार्थ, बेईमानी जैसे गुण सिखाए हैं. हमारी सच्चाई, हमारा प्यार, हमारा नजरिया, हमारे तर्क और हमारी सोच बदल गई है. हमारी सोच में तर्क तो रह ही नहीं गया है. इसी वजह से आज इस तरह की घटनाएं अकसर देखने को मिलती हैं. हम परिणाम दिए बिना डालते हैं. जब तक हम इस पर काम नहीं करेंगे हम सही दिशा की ओर नहीं बढ़ पाएंगे.

आज कुछ पत्रिकाएं हैं जो तर्कशीलता को आधार मानती हैं. दिल्ली प्रैस की पत्रिकाएं ऐसी ही हैं मगर समस्या है कि हम पढ़ने के लिए समय नहीं निकालते. हम मोबाइल में लगे रहते हैं. जब तक हम मोबाइल के जंजाल से पीछा नहीं छुड़ाएंगे तब तक कुछ सही होने की आशा कैसे कर सकते हैं?

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