इंग्लिश और हिंदी के नाम हटा व संस्कृत के नाम लगा कर भारतीय न्याय संहिता कानून, भारतीय सुरक्षा संहिता कानून और भारतीय साक्ष्य कानून को सरकार ने बिना बहस किए, बिना वकीलों और जजों की राय जाने और संसद में विपक्ष की गैरमौजूदगी में इंडियन पीनल कोड 1860, क्रिमिनल प्रोसीजर कोड 1882 व इंडियन एविडैंस एक्ट 1872 की जगह बना कर ब्रिटिश राज की देन को समाप्त करने का वादा कर डाला है.

ये नए कानून कुछ महीनों बाद नोटीफाई होंगे जब इन के नियम भी बन जाएंगे. अगर नियम बनने में देर लगी तो कानूनों को लागू करने में महीनों की जगह वर्षों लग सकते हैं.

भाजपा सरकार द्वारा संसद में चाहे कुछ भी दावा किया गया हो, ये कानून किसी भी तरह ब्रिटिश राज में बने कानूनों से अलग नहीं हैं. छोटेमोटे बदलाव तो पहले भी होते रहे हैं पर अब नाम बदल कर भगवा सरकार ने साबित यह करना चाहा है कि नया युग आ गया है क्योंकि इन कानूनों के संस्कृतनिष्ठ भाषा में नाम ही अब इंग्लिश में भी इस्तेमाल किए जाएंगे.

इन कानून से क्रिमिनल न्याय में कोई खास बदलाव नहीं आएगा. अपराध भी उसी तरह होंगे, सजाएं भी उसी तरह से मिलेंगी. जजों के कुछ पद बदले गए हैं पर 90-95 फीसदी ये कानून पिछले कानूनों की तरह के हैं.

पिछले कानूनों की आलोचना करने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि पिछले कानूनों, खासतौर पर क्रिमिनल प्रोसीजर कोड में एक क्रांति लाई गई थी. तब ब्रिटिश सरकार ने अपने ही हाथ काट कर गोरे पुलिस अफसरों के हाथ काट दिए थे और उन कानूनों में पुलिस पर सैकड़ों पाबंदियां लगाई थीं. इंडियन पीनल कोड ने सजा को अपराध से जोड़ दिया था और कोतवाल, जिलाधीश, गवर्नर या गवर्नर जनरल की मनमानी पर रोक लगा दी थी.

अंगरेजों के कानूनों के पहले हमारे देश में अपराधों पर सजा देने का मनमाना हक इलाके के छोटे से राजा से ले कर सम्राट तक का होता था. उन के पास कोई किताब नहीं थी, कोई विधिवत अदालत नहीं थी जो राजा या ठाकुर की मनमरजी के खिलाफ जनता को न्याय दे सके.

एक तरह से पहले की अराजकता को अंगरेजों ने खुद ही अपने कानूनों से समाप्त कर अपराधों पर सजा देने का काम सुबूतों, गवाही और गवाहों के अनुसार करना शुरू कर दिया था. उन्होंने भीड़ का कानून या पंचायत का कानून या राजा का कानून नहीं, लिखित कानून लागू किया था. हमारे पौराणिक कानून में तो श्रवण कुमार की हत्या करने पर दशरथ को सजा नहीं मिली पर दुर्वासा को नाराज करने पर लक्ष्मण को सब से कठोर सजा मिली थी. पौराणिक कहानियों के हवाले से गांवगांव में वही कानून चलते थे.

जुर्म करने वालों को खौलते तेल में हाथ डालने या आग में गुजरने वाली अंतिम परीक्षा जैसे कानून गांवों के अनपढ़ चौधरी ही नहीं लागू करते थे, राजा भी ऐसा करते थे.

नए कानूनों में मूलभूत बदलाव नहीं लाया गया है क्योंकि वह बदलाव ही अच्छा होता जो पुलिस के अधिकार कम करता और जनता के, चाहे वह अपराधी क्यों न हो, अधिकार बढ़ाता. नाम बदलने, पुतले बैठाने की संस्कृति से ढोल पीटे जा सकते हैं पर जनता को सुखी नहीं किया जा सकता.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...