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चंचल छाया

‘कांची’ एक स्वीट सी लड़की की लवस्टोरी है जो अकेली ही भ्रष्ट नेताओं को बेनकाब करती है. सुभाष घई की इस फिल्म में उसी की पिछली फिल्मों ‘हीरो’, ‘ताल’, ‘कर्मा’ की झलक

देखने को मिल जाएगी. दूसरी ओर ‘खलनायक’ के गाने की तर्ज पर ‘कंबल के नीचे’ गाना भी डाला गया है.

फिल्म 2 हिस्सों में है. पहला हिस्सा उत्तराखंड में फिल्माया गया है, जहां की खूबसूरत लोकेशनें, गजब की फोटोग्राफी आंखों को सुकून देती है. फिल्म का दूसरा भाग मुंबई में शूट किया गया है. इस भाग में जबरदस्त ऐक्शन, बार डांस और सभी तरह के लटकेझटके हैं. यहां कांची का दूसरा ही रूप देखने को मिलता है. जहां फिल्म के पहले भाग में कांची गांव की अल्हड़ किशोरी सी कूदतीफांदती रहती है. उस के चेहरे पर कुदरती नूर झलकता है, वहीं दूसरे भाग में वह आधुनिक रूप धर कर अपने शिकार राजनीतिबाज को अपना दीवाना बना कर उसे बेनकाब करती है, साथ ही अपने प्रेमी के हत्यारे को मौत के घाट भी उतारती है.

फिल्म की कहानी का प्रेजैंटेशन लाइवली है. कांची (मिष्ठी मुखर्जी) अपने परिवार के साथ उत्तराखंड के एक गांव में रहती है. स्वभाव से वह गरम है. हर वक्त उस के मुंह पर गालियां रहती हैं. इसीलिए घर वाले उसे सिकड़ी कहते हैं. इसी गांव में कांची के दोस्त बिंदा (कार्तिक आर्यन) की सैल्फडिफैंस एकेडमी भी है. बिंदा और कांची का परिवार उन दोनों की शादी जल्द कराना चाहते हैं. इधर, मुंबई का एक नामी बिजनैसमैन जे बी काकड़ा (ऋषि कपूर) कोशम्पा वैली में एक प्रोजैक्ट शुरू करना चाहता है. वह श्याम दादा काकड़ा (मिथुन चक्रवर्ती) का छोटा भाई है. श्याम दादा की सत्ता के गलियारे में पैठ है. कोशम्पा प्रोजैक्ट में जब बिंदा रुकावट बनता है तो श्याम दादा उसे रास्ते से हटाने का फैसला ले लेता है. उस के बेटे ऋषभ का दिल कांची पर आ जाता है. कांची के इनकार करने पर वह बिंदा की हत्या कर देता है. काकड़ा परिवार के खिलाफ गांव का कोई आदमी गवाही नहीं देता तो कांची गांव से भाग कर मुंबई चली आती है और पावरफुल काकड़ा परिवार से बदला ले कर उसे बेनकाब करती है और बिंदा के कातिल ऋषभ को मौत के घाट उतार कर वापस उत्तराखंड लौट जाती है.

फिल्म की यह कहानी कांची के केस की इनक्वायरी कर रहे एक अफसर के सामने बैठे एक पूर्व सबइंस्पैक्टर रतन लाल बगुला के मुंह से कहलवाई गई है. वह सबइंस्पैक्टर उन दिनों मुंबई में पोस्टेड था और भ्रष्ट था. कांची उसी के घर पर रही थी.

फिल्म की यह कहानी कुछ हट कर है. मध्यांतर के बाद फिल्म में गति आ पाती है. क्लाइमैक्स में खूब मारधाड़ है. निर्देशक ने क्लाइमैक्स को खामखां लंबा खींचा है. इसीलिए कई दृश्य नाटकीय बन पड़े हैं.

नायिका की भूमिका में मिष्ठी मुखर्जी प्रभावित करती है, खूबसूरत तो वह है ही, एक्टिंग भी अच्छी की है. मिथुन चक्रवर्ती और ऋषि कपूर का काम भी अच्छा है. ऋषि कपूर ने एक गाने में डांस भी किया है, साथ ही युवा लड़कियों के साथ उसे फ्लर्ट करते हुए भी दिखाया गया है.

फिल्म का निर्देशन सधा हुआ है. कई दृश्यों में निर्देशक सुभाष घई खुद भी परदे पर नजर आए हैं. फिल्म का गीतसंगीत पक्ष अच्छा है. जैसा कि सुभाष घई अकसर अपनी फिल्मों में खुद की झलक देते रहे हैं. सारे गाने अच्छे हैं. फोटोग्राफी गजब की है. संगीत इस्माइल दरबार और सलीम सुलेमान की जोड़ी ने दिया है.

चित्रा ने रचा इतिहास

बेंगलुरु की रहने वाली चित्रा मैगीमैराज ने ब्रिटेन के लीड्स शहर में आयोजित विश्व महिला स्नूकर एवं बिलियर्ड्स प्रतियोगिता में बिलियर्ड्स का सीनियर वर्ग का खिताब जीत कर इतिहास रच दिया. इस टूर्नामैंट में 13 देशों के खिलाडि़यों ने भाग लिया था.

अपने खेल का शानदार परफौर्मेंस दिखाते हुए चित्रा ने सभी चारों मैचों में जीत हासिल की. सेमीफाइनल के मुकाबले में उन्होंने हमवतन उमा देवी को 2-0 से हरा कर फाइनल में प्रवेश किया. फाइनल मुकाबले में उन्होंने बेलारूस की एलेना अस्मोलावा को 3-0 से हरा कर खिताब अपने नाम कर लिया.

41 वर्षीय चित्रा इस से पहले हौकी की खिलाड़ी थीं. वे हौकी में चैंपियन बनना चाहती थीं. लेकिन वर्ष 1993 में घुटने में चोट लगने के कारण उन का सपना टूट गया. कई डाक्टरों के इलाज करने के बाद भी चित्रा का पैर ठीक न हो सका. चित्रा अब चाह कर भी हौकी नहीं खेल सकती थीं क्योंकि अब उन का पांव साथ नहीं दे रहा था. वे छटपटा रही थी कि अब करूं तो करूं क्या. तभी उन की नजर बिलियर्ड की ओर गई जहां भागना नहीं पड़ता है.

आमतौर पर 28-29 साल में खिलाड़ी थक जाते हैं और रिटायर्ड होने की बात मन को घेरने लगती है पर चित्रा के जज्बे को सलाम क्योंकि उन्होंने पांव को अपनी कमजोरी की ढाल नहीं बनाया बल्कि धैर्य व लगन से बिलियर्ड खेल में फोकस किया. उस के बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा.

राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर टूर्नामैंट में हिस्सा लिया और उन की मेहनत रंग लाई. वर्ष 2006 में उन्होंने वर्ल्ड बिलियर्ड्स चैंपियनशिप जीतने के बाद अगले वर्ष भी खिताब बरकरार रखा. इस के अलावा उन्होंने विश्व महिला स्नूकर ऐंड बिलियर्ड्स एसोसिएशन द्वारा आयोजित टूर्नामैंट में कई स्वर्ण और रजत पदक भी हासिल किए हैं.

चित्रा जैसी हर कोई नहीं हो सकती, उन्होंने यह साबित भी कर दिखाया.

संकट में भारतीय मुक्केबाजी

एक ओर जहां यूरोप, अमेरिका व चीन मुक्केबाजी में दिनोंदिन तरक्की कर रहा है वहीं भारतीय मुक्केबाजी मुश्किल दौर से गुजर रही है. पिछले दिनों नई दिल्ली के इंदिरा गांधी स्टेडियम में ट्रायल के बाद चयन समिति के सदस्यों ने इस वर्ष होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों और एशियाई खेलों के लिए विश्व चैंपियन और ओलिंपिक कांस्य विजेता एम सी मैरीकौम को संभावित खिलाडि़यों के कोर ग्रुप में शामिल कर लिया.

मैरीकौम के अलावा 6 अन्य मुक्केबाजों को 50 किलोग्राम भार वर्ग के लिए चुना गया जबकि 75 किलोग्राम भार में 4 और 60 किलोग्राम भार में 7 खिलाडि़यों को चुना गया. खिलाडि़यों का चुनाव तो समिति के सदस्यों ने कर लिया पर वे संतुष्ट नहीं थे. राष्ट्रीय चयनकर्ता और अर्जुन अवार्डी मुहम्मद अली कमर का मानना है कि अंतर्राष्ट्रीय निलंबन के बाद भारतीय मुक्केबाजी मुश्किल दौर से गुजर रही है और इस कारण नई प्रतिभाएं उभर कर सामने नहीं आ रही हैं. इस दौरान खेल की हालत भी बहुत खराब है. उन का कहना है कि बीजिंग ओलिंपिक में हम ने जो लय हासिल की थी वह गंवा दी है.

दरअसल, मुहम्मद अली की यह चिंता  जायज है क्योंकि यह तो पक्का है कि उन के पास ज्यादा विकल्प नहीं हैं और उन के पास जो विकल्प हैं उन में से ही चुनाव करना उन की मजबूरी है.

एक समय था जब हम मुक्केबाजी में लगातार बेहतर कर रहे थे पर अब ऐसा नहीं है. चीन का मुक्केबाजी में बहुत बड़ा नाम है ऐसा नहीं है लेकिन पिछले कुछ वर्षों में चीनी खिलाडि़यों के साथसाथ वहां के खेल पदाधिकारियों ने दिलचस्पी दिखाई और अब उस का नतीजा भी सामने आने लगा है. चीनी खिलाड़ी दिनोंदिन इस में प्रगति कर रहे हैं और हम पिछड़ते जा रहे हैं.

राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक और ओलिंपिक में कांस्य पदक जीतने वाले मुक्केबाज विजेंदर सिंह पर डोपिंग और ड्रग के साए मंडरा रहे हैं और उन का कैरियर भी दांव पर लगा हुआ है.

सुकून वाली बात यह है कि हमारे पास मैरी कौम जैसी मुक्केबाज हैं लेकिन अब उन की उम्र हो चली है और ऐसे में नईनई प्रतिभाओं को खोजना बहुत जरूरी है वरना आने वाले समय में मुक्केबाजी से हम कोसों दूर हो जाएंगे.

पाठकों की समस्याएं

मैं  40 वर्षीय पुरुष हूं. 2 वर्ष पूर्व पत्नी का देहांत हो गया था. मेरी 3 वयस्क लड़कियां हैं. मैं रिश्ते में अपनी 24 वर्षीया साली से विवाह करना चाहता हूं. उस के पति की 2 वर्ष पूर्व सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी. उस के 2 बेटे हैं. समस्या यह है कि साली की सास इस बात के लिए तैयार नहीं हैं. मेरी साली मुझ से विवाह करना चाहती है. मुझे समझ नहीं आ रहा कि मैं क्या करूं? उचित सलाह दें.

आप का खयाल नेक है. इस से 2 परिवार बस जाएंगे लेकिन कुछ भी निर्णय लेने से पूर्व सारी परिस्थितियों व उन से भविष्य में होने वाले परिणामों के बारे में सोचविचार कर लें. आप की बेटियां वयस्क हैं, आप की 24 वर्षीया साली को उन्हें मां का दरजा देना होगा. साथ ही साली को आप को सामाजिक और आर्थिक सहारा भी बराबर की हैसियत से देना होगा. उन की और आप की उम्र में काफी अंतर है. कहीं आगे जा कर उन्हें अपने निर्णय पर पछतावा न हो क्योंकि उन्हें विवाह के लिए कम उम्र के पुरुष भी मिल जाएंगे. साली की सास से बात करें कि वे इस विवाह के लिए क्यों तैयार नहीं हैं. साली की सास को तो हो सकता है घर बैठी नौकरानी मिल रही हो. इसलिए वे शायद इस विवाह के लिए तैयार नहीं हैं. उन की ज्यादा सुनने की जरूरत नहीं. अगर आप दोनों को एकदूसरे पर भरोसा है तो अवश्य करिए यह विवाह.

मैं 22 वर्षीया विवाहिता हूं. मेरे विवाह को 1 वर्ष हुआ है. मैं मां बनना चाहती हूं. आप मुझे बताइए कि गर्भवती होने के लिए हमें किस समय सहवास करना चाहिए? मासिक धर्म से पहले या बाद में और अगर बाद में तो मासिक धर्म के कितने दिन बाद? मुझे गर्भवती होने के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है. कृपया मुझे इस बारे में विस्तृत जानकारी दें.

गर्भवती होने के लिए महिलापुरुष के बीच सैक्स होना जितना जरूरी है उतना ही इस बात का ज्ञान होना भी जरूरी है कि पतिपत्नी माह के किस समय सहवास करें ताकि गर्भधारण की संभावना बढ़ जाए. दरअसल, पुरुष के शुक्राणु हमेशा लगभग एक जैसे ही होते हैं जो महिला को गर्भवती बना सकते हैं लेकिन महिला के गर्भधारण की एक निश्चित अवधि होती है. अगर आप का मासिक धर्म नियमित है तो 28वें दिन के मासिक धर्म के चक्र में 14वां दिन औव्यूलेशन का होता है जो मासिक धर्म शुरू होने के बाद से गिना जाता है. इस दौरान 12 से 18 दिन के बीच में सहवास करने से आप गर्भवती हो सकती हैं. औव्यूलेशन का समय जानने के लिए आप चाहें तो बाजार में उपलब्ध औव्यूलेशन किट की भी मदद ले सकती हैं. इस के अतिरिक्त अगर आप गर्भवती होना चाहती हैं तो नियमित सैक्स करें, बेबी प्लानिंग से 3 महीने पूर्व फोलिक एसिड की टेबलेट खाएं और धूम्रपान व शराब से दूर रहें.

मैं 27 वर्षीया अविवाहित युवती हूं. पिछले 10 सालों से एक स्टेशनरी शौप में सेल्सगर्ल की नौकरी कर रही हूं. दुकान के अंकल और आंटी से मेरा पारिवारिक रिश्ता है. यहां नौकरी करने के दौरान ही एक लड़के से मुझे प्यार हो गया. पिछले 5 सालों से हम एकदूसरे से प्यार करते थे. वह लड़का मुझ से विवाह भी करना चाहता था पर उस के मुसलिम और मेरे हिंदू होने के कारण हमारा विवाह नहीं हो पाया और उस लड़के ने घर वालों की मरजी से एक मुसलिम लड़की से विवाह कर लिया. मैं ने उस लड़के का परिचय अपने घर वालों से एक दोस्त के रूप में करवाया है. एक दिन दुकान से घर जाते समय दुकान वाले अंकल ने हम दोनों को साथ देख लिया. उस दिन के बाद से अंकल बहुत नाराज हैं कि मैं ने यह बात उन से क्यों छिपाई. मैं शादी करने के बाद ही यहां की नौकरी छोड़ना चाहती हूं. इस परिस्थिति में मुझे क्या करना चाहिए, सलाह दें?

जब आप दोनों का विवाह नहीं हुआ और उस लड़के ने विवाह कर लिया है तो आप अभी भी उस लड़के से क्यों मिलतीजुलती हैं? आप ने अपने परिवार वालों से भी उसे दोस्त की हैसियत से मिलवाया है, जो गलत है. जहां तक आप के अंकल की नाराजगी की बात है, उन का नाराज होना जायज है. आप उन्हें परिवार का हिस्सा मानती हैं तो उन से लड़के से रिश्ते वाली बात क्यों छिपाई? वे आप का भला सोचते हैं, इसलिए नाराज हैं. लड़के के विवाह के बाद उस से मिलनाजुलना आप को परेशानी में डाल सकता है. फिलहाल आप अपने अंकल से कुछ भी न छिपाएं और दोनों मिल कर अंकलआंटी को समझाएं. अपने मित्र को कहें कि वह माफी मांगे, कुछ सेवा करे और प्यार से उन्हें मनाए.

मैं 44 वर्षीय गृहिणी हूं. मेरे 15 और 8 वर्षीय 2 बेटे हैं. मेरी समस्या यह है कि मेरे पति के अन्य औरतों के साथ संबंध हैं, और अब वे किसी अन्य स्त्री के साथ रहना चाहते हैं. ऐसे माहौल में मेरा दम घुटता है. आप ही सलाह दीजिए, मैं क्या करूं?

अन्य औरतों के साथ आप के पति के संबंधों की जानकारी क्या आप को हाल ही में हुई है? अगर हां, तो इस बारे में पति से खुल कर बात करें, उस के पीछे के कारण को जानने की कोशिश करें. पति के इस व्यवहार का बच्चों पर भी गलत असर पड़ेगा. बच्चों का वास्ता दे कर उन्हें समझाइए. इस काम में आप परिवार के सदस्यों की मदद ले सकती हैं. और अगर आप को संबंधों की जानकारी पहले से थी तो आप ने उन्हें पहले क्यों नहीं रोका? कहीं इस के पीछे का कारण आप स्वयं तो नहीं? कहीं आप की तरफ से सैक्स संतुष्टि के अभाव में ही तो वे दूसरी औरतों की तरफ आकृष्ट नहीं हुए?

-कंचन

अंत (पहली किस्त)

रात को 12 बजे फोन की घंटी बजी. श्रीकांत ने फोन उठाया. डा. सहाय थे. मैंटल हौस्पिटल से बोल रहे थे.

‘‘श्रीकांत, एक बुरी खबर है, हेमा नहीं रहीं.’’

‘‘क्या?’’ कुछ घुटती हुई आवाज उन के गले से निकली, फिर गले में ही दब कर रह गई थी.

‘‘हेमा को अचानक फिर से दौरा पड़ा. जब तक नर्स उन्हें संभाल पाती तब तक वे 5वीं मंजिल की खिड़की से छलांग लगा चुकी थीं.’’

हेमा की लाश को मौर्चरी में रखने के लिए कह कर श्रीकांत ने लंबी सांस भरी और शरीर की थकावट दूर करने के लिए बिस्तर पर लेट गए. उन के निवास से मैंटल हौस्पिटल की दूरी लगभग 50 किलोमीटर थी. कशिश और विक्रम आधा घंटा पहले ही अपने घर के लिए निकल गए थे. ड्राइवर भी वापस चला गया था. रात के समय उन्होंने किसी को सूचित कर के बुलाना ठीक नहीं समझा.

पिछले कई दिनों से वे आश्रम के वार्षिकोत्सव की तैयारी, आश्रमवासियों के साथ मिल कर, कर रहे थे. आज का

पूरा दिन थका देने वाला था. देशीविदेशी मेहमानों की आवभगत, गरीब, बेसहारा महिलाओं द्वारा हस्तनिर्मित कपड़ों की प्रदर्शनी और बिक्री का लेखाजोखा तय करतेकरते पूरा दिन कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला.

कमर सीधी करने के लिए बिस्तर पर लेटे थे लेकिन शरीर की अकड़न जस की तस बनी हुई थी. आज हेमा इस दुनिया को छोड़ कर चली गई. उस की मौत का जिम्मेदार किसे ठहराएं. श्रीकांत खुद को, मातापिता को या हेमा को, जिस ने महेश की पैबंद लगी गृहस्थी को सीतेसीते अपनी मुट्ठी में इस तरह कैद कर लिया कि वे असहाय हो कर सबकुछ देखते ही नहीं रह गए थे, बल्कि उस तरफ से आंखें ही मूंद ली थीं.

बीती यादों को, चाहे कितना ही सहेज कर भीतर किसी कोने में दफना दिया जाए, वे बाहर निकल ही आती हैं, फिर चाहे वे मीठी हों या कड़वी या बेहद दुखदायी.

तपिश को कम करने के लिए शीतलता की जरूरत तो होती ही है, वरना भीतर के उद्वेग ही मनुष्य को जला डालते हैं. हर जगह गुलाब ही मिलें, ऐसा संभव नहीं है. और अगर मिल भी जाएं तो कांटे भी साथ आएंगे. पर वहां, इतना संतोष तो होता ही है कि गुलाब की पंखडि़यों का स्पर्श, कांटों की चुभन झेलने की शक्ति खुद ही देता है. लेकिन श्रीकांत को तो सिर्फ कांटे ही मिले. न खुशबू मिली न कोमल पंखडि़यां.

एक समय था जब सबकुछ उन की मुट्ठी में था. यह कहना कि उन्होंने अपने मन को कड़ा कर के निर्णय लिया, बहुत नाकाफी है उस मनोस्थिति को समझने के लिए जिस से वे गुजर रहे थे उस समय. ऐसा लगता था जैसे उन्होंने अपने मन को किसी जंजीर से बांध कर आदेश दिया था कि पड़े रहो चुपचाप, भावशून्य हो कर. विद्रोहस्वरूप वे जब भी हिले तो जख्मों पर जंजीर की रगड़ को ही महसूस किया था उन्होंने.

कमलापति के इकलौते सुपुत्र थे श्रीकांत. देहरादून के धनीमानी प्रतिष्ठित लोगों में कमलापति की गिनती होती थी. तबीयत शौकीन और अंदाज रईसी. जिद्दी इतने कि बिना आगापीछा सोचे अपनी बात मनवा कर ही दम लेते. न किसी का हस्तक्षेप बरदाश्त करते न ही किसी की टीकाटिप्पणी, जो कह दिया सो कह दिया. पत्थर की लकीर होता था उन का निर्णय. अपने अभिमान और जिद्दी स्वभाव की वजह से उन्होंने श्रीकांत और सुलभा की प्रेम कहानी की एकएक ईंट गिरा दी थी और रह गया था एक खंडहर. 2 युवा प्रेमियों के अंदर पनप रहे प्रेमरूपी लहलहाते पौधे को समूल उखाड़ फेंकते समय उन्होंने यह भी नहीं सोचा था कि कितनी पीड़ा हुई होगी दोनों को. वे तो बस यही सोच कर खुश थे कि उन की मानमर्यादा और प्रतिष्ठा पर जरा भी आंच नहीं आई.

आंखों के सामने कई बिंब बुलबुलों की तरह बनने और मिटने लगे. इंजीनियरिंग का पहला साल. खड़गपुर आईआईटी जैसे दूरस्थ स्थान का प्रथम इंस्टिट्यूट. वहां दाखिला मिलना साधारण बात नहीं थी. कालेज जीवन में श्रीकांत की भेंट सुलभा से हुई थी. वह देहरादून से इंजीनियरिंग करने आई थी. विद्यार्थी जीवन में दोनों ही पहले व दूसरे नंबर के प्रतियोगी जैसे रहे थे. सुलभा का हंसमुख चेहरा, अनुपम परिहास, रसिकता श्रीकांत को उस के सर्वथा अनूठे व्यक्तित्व की नित नई झांकियां दिखाते रहते थे. होली आती तो वह अबीरगुलाल से परिसर में रहने वाले सभी विद्यार्थियों को आकंठ डुबो देती और दीवाली पर किसी स्थानीय प्रोफैसर के घर जा कर ऐसे स्वादिष्ठ भोजन पकाती कि सभी अतिथि उंगलियां चाटते रह जाते थे. सुलभा का साहचर्य उन्हें भला लगता था. दोनों हर दिन मिलते.

धीरेधीरे दोनों करीब आने लगे. मानसिक रूप से, मित्र रूप से, अंत में प्रणयी रूप से. बरसात की वह खनकती, बरसती भीगीभीगी रातें, मूसलाधार वृष्टि, बिजली का कौंधना, बादलों की टंकार, सभीकुछ आनंददायक लगता था. दीघा बीच के किनारे बैठ कर दोनों प्रेमी कब कितने सपने देखते, कितने नाम रेत पर लिखतेमिटाते रहे, एकदूसरे का हाथ पकड़े. डूबते सूरज को साक्षी मान कर, भविष्य के तानेबाने बुनते रहे, कोई सीमा नहीं थी उन सुखद क्षणों की. श्रीकांत की छुअन मात्र से ही सुलभा सिहर उठती. फोटोग्राफी के शौकीन श्रीकांत न जाने कितने पोज में अपनी प्रेमिका को, कभी अकेले, कभी स्वयं अपनी बांहों में कैद कर के, चित्रों में उतार चुके थे. श्रीकांत को मात्र सूरज ही नहीं, ज्ञान और बुद्धि की पूर्ण अपेक्षा थी अपनी सहधर्मिणी से. सुलभा हर तरह से उन के सपनों की साकार रूप थी.

5 साल का समय कब पंख लगा कर उड़ गया, पता ही न चला.10 की मैरिट लिस्ट में, सुलभा का 7वां और श्रीकांत का 5वां स्थान रहा था. खड़गपुर को अंतिम प्रणाम कर के दोनों ने देहरादून में अपनीअपनी कंपनियों में मैनेजमैंट टे्रनी के पद संभाल लिए थे. सुलभा के परिवार में सबकुछ साधारण था, अति साधारण. मातापिता ने बिटिया का मन और श्रीकांत का अपनी बेटी के प्रति लगाव जान कर बडे़ विश्वास के साथ दद्दा के सामने अपना मन थोड़ीबहुत औपचारिकता के बाद खोल दिया था.

‘कमलापतिजी, आज आप से कुछ मांगने आया हूं. सुलभा और श्रीकांत का एकदूसरे के प्रति लगाव तो आप जानते ही होंगे. आज बड़ी हिम्मत और उम्मीद ले कर आप के पास आया हूं. बच्चों की लाइन एक है. दोनों एकदूसरे को पसंद करते हैं. मैं भले ही आप से हैसियत में कम हूं पर विश्वास कीजिए, शादी में रस्मोरिवाज और आप की खातिरदारी में मैं कोई कमी नहीं रखूंगा.

सुलभा के पिता के इस प्रस्ताव ने तूफान की स्थिति निर्मित कर दी थी. आमतौर पर तूफान की गति भले ही कितनी तीव्र हो लेकिन उस की अवधि बहुत थोड़ी होती है. अल्पावधि में ही तूफान अपने विनाशकारी निशान छोड़ते हुए गुजर जाता है. लेकिन सुलभा के पिता ने जो तूफान खड़ा किया था वह प्रकृतिजन्य तूफान से अलग किस्म का था. न तो इस तूफान के आने की किसी को पूर्व सूचना थी न ही उस की गति में अप्रत्याशित तेजी ही थी. उन के इस प्रस्ताव ने बवंडर मचा दिया था हवेली में.

‘मेरी समझ में यही नहीं आ रहा है सिंह साहब कि आप ने इतने ऊंचे सपने कैसे देख लिए. कम से कम हमारी मानमर्यादा और प्रतिष्ठा का ध्यान तो रखा होता. कहां राजा भोज और कहां गंगू तेली. एक से एक समृद्ध धनाढ्य परिवार मुझे श्रीकांत के लिए घेर रहे हैं. मैं ने अपने बेटे को यह अधिकार नहीं दिया है कि वह अपना जीवनसाथी स्वयं चुने. ताज्जुब है अपनी बेटी को समझाने के बजाय आप उस का प्रस्ताव ले कर यहां आ गए.’

फिर सुलभा के पिता की उपस्थिति में ही उन्होंने श्रीकांत को भी आड़े हाथों ले लिया था, ‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई, इतनी घटिया हरकत करने की? सोच लो, अगर तुम इस से विवाह करोगे तो एक तरफ हम सब होंगे, दूसरी तरफ तुम अकेले. मेरे लिए तुम उसी दिन मर जाओगे जिस दिन इस लड़की का हाथ थामोगे. हम तो यों भी मर गए तुम्हारे लिए, हमारे रहते तुम ने अपने लिए बीवी चुन ली.’

अजीब सी मनोदशा हो गई थी श्रीकांत की. न किसी से बात करते, न लोगों के बीच उठतेबैठते. जरा सा शोर सुनते तो किसी अंधियारे कोने में जा दुबकते. न रात में नींद आती न दिन में चैन. हाथपांव पसीने से भीगे रहते.

बेटे की ऐसी दशा देख कर अरुंधतीजी घबरा गई थीं. पति को समझाया था, ‘दोनों पढ़ेलिखे हैं, मिल कर कमाएंगे तो दहेज की क्या कीमत रह जाएगी?’ लेकिन दद्दा टस से मस नहीं हुए. प्रेम में चोट खाए हृदय का दुख समय के साथसाथ खुद ही मिट जाएगा, इसी विश्वास के साथ उन्होंने ऊंचे, प्रतिष्ठित और समृद्ध परिवारों में लड़की ढूंढ़नी शुरू कर दी थी.

सुलभा और श्रीकांत दोनों ही बालिग थे. जिंदगी की छोटीबड़ी बारीकियों से पूरी तरह परिचित. अपना भलाबुरा सोचने की पूरी कूवत थी दोनों में. चाहते तो अपने अधिकारों का प्रयोग कर के कोर्टमैरिज कर सकते थे. लेकिन पिता की रूढि़वादी विचारधारा का विरोध करना तो दूर, अपनी प्रेमिका से मिलने तक की हिम्मत नहीं जुटा पाए थे. कदम ही नहीं बढ़े थे उस ओर. दद्दा ने बड़ी ही चालाकी से सुलभा और उस के परिवार के हर सदस्य को दृश्यपटल से ही ओझल कर दिया. सुलभा व उस के परिवार के सदस्य कहां हैं, इस की जरा भी भनक, न श्रीकांत को मिली न ही घर वालों को.

रिश्तों की कमी नहीं थी. पर दद्दा को हर रिश्ते में कोई न कोई खामी नजर आ ही जाती थी. आखिर बड़ी ही जद्दोजहद के बाद उन्हें दीवान दुर्गा प्रसाद की इकलौती सुपुत्री हेमा का रिश्ता श्रीकांत के लिए उपयुक्त लगा था. कुछ नहीं कह पाए थे श्रीकांत तब. दोनों पक्षों की मानमर्यादा और प्रतिष्ठा की वेदी पर उन की हर खुशी कुरबान चढ़ गई. हेमा, सजातीय तो थी ही, लाखों का दहेज भी लाई थी. ऐसी धूमधाम की शादी हुई कि लोग देखते ही रह गए.

लेकिन हेमा के बारे में दद्दा का अनुभव गलत साबित हुआ. प्रथम साक्षात्कार के समय सुहागरात की बेला में ही, बिना कोई भूमिका बांधे, उस ने अपने मन की बात कह दी थी :

‘हमारे समाज में अधिकांश विवाह लड़की की सहमति के बिना ही होते हैं. मातापिता अपनी बेटी के लिए जीवनसाथी नहीं ढूंढ़ते. अपने परिवार की मानमर्यादा और प्रतिष्ठा कायम रखने के लिए ऐसे इंसान को खोजते हैं जो जीवनभर उन की बेटी को सुखी रख सके.’

हेमा के शब्दों में ऐसा भाव था जिस ने श्रीकांत के मन को छू लिया था.

‘श्रीकांतजी, मैं किसी और से प्यार करती थी. मैं ने कई बार इस विवाह का विरोध किया पर मां और पापा नहीं माने. आप को बुरा तो लगेगा पर मैं सच कह रही हूं. मैं ने आप को एक नजर देखा भी नहीं था.’

कल्पना का महल खंडित हो चुका था. श्रीकांत अपनी जगह से न हिले न डुले. यों ही बैठे रहे, जड़वत. उन्हें ऐसा लगा जैसे वे जमीन में धंसते चले जा रहे हैं. ऐसे समय में कोई नवविवाहित पुरुष कह भी क्या सकता था? बस, हेमा के अगले वाक्य की प्रतीक्षा करते रहे थे.

‘महेश को भुलाने की पूरी कोशिश करूंगी पर आप को इस के लिए मुझे कुछ समय देना होगा.’

‘महेश कहां है?’ टूटतेबिखरते स्वर को संयत कर के उन्होंने पूछा था.

‘अमेरिका में है. उस का विवाह हो चुका है.’

अगले दिन अरुंधतीजी थाल में नए वस्त्र और आभूषण ले कर कक्ष में आई थीं जिन्हें शरीर पर धारण कर के हेमा को आगंतुकों से शुभकामनाएं और आशीर्वाद ग्रहण करना था. मां का हाथ पकड़ कर सिसक उठे थे श्रीकांत. हेमा का कहा एकएक शब्द उन्होंने मां के सामने दोहरा दिया था.

वस्तुस्थिति से पूरी तरह परिचित होने के बावजूद अरुंधतीजी न चौंकीं न परेशान ही हुईं. यह जानतेबूझते भी कि जो कुछ हुआ, गलत हुआ है. बेटे को ही समझाती रही थीं, ‘धीरज रखो श्री. समय हर घाव भर देता है. किसी विजातीय निर्धन परिवार की कन्या, हमारे घर की बहू कैसे बन सकती थी?’

‘चाहे उस के लिए अपने बेटे की संपूर्ण खुशियां ही दांव पर क्यों न लग जाएं?’ अत्यंत भावहीन कांपते स्वर में मां से प्रतिप्रश्न किया था उन्होंने.

‘कुछ लड़कियां चंचल प्रकृति की होती हैं. शुक्र कर बेटा, जो उस ने अपने संबंध का सही चित्रण किया है तेरे सामने. अब यह तुझ पर निर्भर करता है कि तू सामदामदंडभेद जैसा कोई भी अस्त्र प्रयोग कर के, अपनी पत्नी का मन कैसे जीतता है? अगर तू ऐसा नहीं कर पाया तो दोष तेरे ही अंदर होगा. कम से कम मैं तो ऐसा ही समझती हूं.’

मां द्वारा हेमा का पक्ष लिया जाना उन्हें बुरा नहीं लगा था, बल्कि इस बात की पुष्टि कर गया था कि जैसे भी हो, उन्हें हालात से समझौता करना ही है. फिर अरुंधतीजी ने बहू की ओर रुख किया था, ‘देखो हेमा, तुम इस घर की बहू हो. इस घर की मानमर्यादा तुम्हें ही बना कर रखनी है. समाज में हमारा मानसम्मान है, इज्जत है. ऐसा कोई भी कदम मत उठाना जिस से हमारे परिवार की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचे.’

सुबह से शाम तक कीमती साडि़यों और आभूषणों से सजीधजी हेमा इधरउधर डोलती थी. हर सभासोसाइटी में, हर समारोह में पति की अर्धांगिनी बनने का फर्ज बखूबी निभाती. लेकिन दिन का उजास जब रात की काली चादर में सिमटने लगता तो करवटें बदलते हुए पूरी रात आंखों ही आंखों में काट देती. पति की अंकशायिनी बनने के बावजूद उस का पूरा शरीर बर्फ की मानिंद ठंडा पड़ा रहता. श्रीकांत कभी गहरी नींद में सो रहे होते तो हेमा के मोबाइल पर बजने वाली घंटियां और मैसेज की टनटनाहट इस बात का स्पष्ट संकेत दे जाती कि देह से हेमा उन के साथ रहती थी पर उस के दिल पर महेश का ही अधिकार था. श्रीकांत देख कर भी अनदेखा कर देते, सुन कर भी अनसुना कर देते. बस, इस आस और उम्मीद में जी रहे थे कि जिस तरह उन्होंने अपने जीवन की किताब से सुलभा के साथ बिताए हुए उन चंद सुनहरे पृष्ठों को फाड़ कर फेंक दिया है वैसे ही, हेमा भी अपने अतीत को भुला कर उन्हें और उन के परिवार को अपना लेगी. लेकिन श्रीकांत का हरसंभव प्रयत्न बेकार ही चला गया.

स्नेह के पात्र की तरह मनुष्य घृणा के पात्र को एक नजर देखता अवश्य है लेकिन हेमा के दिल में पति के लिए न भावनाएं थीं न संवेदनाएं, न आदर न ही सम्मान. ऐशोआराम में पली नकचढ़ी हेमा, मानसम्मान, व्यवहार, शिष्टाचार की परिभाषा से पूरी तरह विमुख थी.

श्रीकांत सोचते थे. विवाह एक ऐसा बंधन है जहां पतिपत्नी एकदूसरे के सुखदुख के साथी होते हैं. लेकिन हेमा ने अपने स्वभाव से ऐसी विषम परिस्थितियां उत्पन्न कर दी थीं कि उन का जीवन दूभर हो गया था. कितनी बार अपने परिजनों के बीच वे दया के पात्र बन चुके थे.

एक तरफ नौकरी की व्यस्तता और दूसरी तरफ हेमा के कारण उत्पन्न तनाव. मातापिता शांति से जीवन गुजार सकें, यही सोच कर श्रीकांत ने दिल्ली के लिए तबादले की अर्जी दे दी थी. यह सुनते ही अरुंधतीजी उदास हो गई थीं. इकलौता बेटा, उसे आंखों से ओझल कैसे होने देतीं? हेमा की कोख में 4 माह का गर्भ भी तो सांस ले रहा था. ऐसे समय में औरत को विशेष देखभाल की जरूरत होती है, यह सोचसोच कर वे परेशान हुई जा रही थीं. नया शहर, नए लोग. कैसे जाने देतीं अकेले? लेकिन श्रीकांत नहीं माने थे.

‘मुझे तो भुगतना ही है. कम से कम आप लोग तो हेमा के प्रहारों से छलनी होने से बच जाओगे.’

नोएडा में 3 कमरों का मकान किराए पर ले लिया था श्रीकांत ने. मकान मालकिन, मकान के अगले हिस्से में रहती थीं. अरुंधतीजी स्वयं आई थीं बेटे की गृहस्थी बसाने के लिए. साथ में हरि काका को भी लाई थीं. मकान मालकिन से पुरानी जानपहचान भी निकल आई थी. सभी उन्हें देवयानी ताई कह कर पुकारते थे. उन्हीं की मदद से उन्होंने बेटे की गृहस्थी की हर चीज मुहैया कर ली थी.

बहू के प्रसव तक वे यहीं रही थीं. अपनी संतान से बढ़ कर उन्होंने हेमा की देखभाल की थी. प्रसव के बाद नन्ही कशिश की मालिश अपने हाथों से करतीं, उसे नहलातींधुलातीं, लोरी दे कर सुलातीं. देवयानी ताई का साथ हमेशा मिला था उन्हें. हेमा उन से बातबात पर उलझती, उन का निरादर करती. मां के समर्पण के सामने श्रीकांत स्वयं को बौना महसूस करते थे. जितने दिन वे रहीं, एक पल भी सुख का नहीं काट सकी थीं. बुरा तो अरुंधतीजी को भी लगता था पर श्रीकांत का मन बनाए रखने के लिए उन्हें समझाया था उन्होंने.

‘तू दिल छोटा मत कर. एक बार मातृत्व बोध होने पर हेमा खुद ही घरगृहस्थी में रम जाएगी,’ पर वहां भी निराशा ही हाथ लगी. स्वच्छंद होते ही हेमा पर फैलाने लगी. कशिश के मातापिता श्रीकांत ही थे. उस की किलकारियां श्रीकांत ने सुनीं या देवयानी ताई ने. हेमा ने तो कभी उस की भूखप्यास की चिंता नहीं की थी. वैसे भी यह तो भावनाओं की बात है. जिसे सांसारिक रिश्ते निभाने ही न हों वह इन रिश्तों का मोल क्या जाने?

मौजमस्ती, गुलछर्रे उड़ाना ही हेमा के काम्य थे और यही प्राप्ति. एक दिन हेमा ने एक चौंका देने वाला प्रस्ताव श्रीकांत के सामने रखा, ‘मैं कुछ करना चाहती हूं.’

‘तो करो. घर में बहुत काम हैं करने के लिए,’ श्रीकांत खुश हो गए थे. देर से ही सही, हेमा के मन में कर्तव्यबोध की भावना तो जागी.

‘ये सब नहीं, श्रीकांत. ये काम तो घर में बाई और नौकर भी कर सकते हैं.’

‘तो फिर?’ श्रीकांत ने साश्चर्य पूछा था.

‘कोई बिजनैस.’

‘उस के लिए पैसा कहां से आएगा?’ कशिश की शिक्षा और विवाह के लिए भविष्य निधि योजना में रकम जमा करते समय उन के हाथ सहसा रुक गए थे.

‘उस की व्यवस्था हो जाएगी. मेरे कई मित्र हैं जो मेरी सहायता के लिए हर समय तैयार रहते हैं. यदि फिर भी कमी हुई तो अपने गहने गिरवी रख दूंगी.’

‘कौन सा मित्र और कहां का मित्र,’ श्रीकांत बखूबी समझ रहे थे. हेमा ने भी उन से सहमति या अनुमति नहीं मांगी थी, सिर्फ सूचना भर दी थी.

हेमा ने गुड़गांव में एक बुटीक खोल लिया था. श्रीकांत ने विरोध प्रकट किया था उस समय.

‘नोएडा इतना बड़ा क्षेत्र है, बुटीक खोलना ही था तो यहां शुरू करतीं. आनेजाने में समय भी बरबाद न होता. कशिश की देखभाल भी हो जाती.’

‘श्रीकांत, गुड़गांव में जितने सुंदर अवसर मिलेंगे उतने नोएडा में नहीं मिल सकते. अगर पैसा कमाना है तो दौड़भाग तो करनी ही पड़ेगी, मेहनत भी करनी होगी.’

श्रीकांत ने चुप्पी साध ली थी. कुछ कहने का मतलब था घर में तूफान को बुलावा देना. वे शुरू से ही शांतिप्रिय व्यक्ति थे. समझौते और सामंजस्य की भावना कूटकूट कर भरी थी उन में.

2 साल की कशिश वहीं आंगन में ठुमकती रहती. देवयानी ताई ने दोनों घरों के बीच का दरवाजा खोल दिया था. नन्ही सी बच्ची के मुंह में जब ताई निवाला डालतीं तो श्रीकांत क्षुब्ध हो उठते. बुखार में तपती कशिश के माथे पर जब हरि काका को पट्टियां बदलते देखते तो उन का कलेजा मुंह को आ जाता. कशिश बोलना सीखी तो मां के बारे में ढेरों प्रश्न पूछती जिन का श्रीकांत के पास कोई उत्तर न होता. क्या करती है. कहां जाती है. कितना कमाती है और कितना खर्चती है, इन सब बातों की, जरा भी जानकारी होती उन्हें, तब तो कुछ कहते भी. चतुर घाघ सी हेमा ने ऐसी संवेदनशील बातों से उन्हें हमेशा दूर ही रखा था.    

– क्रमश:

रेत में दबे मोती

जैसे ठंडी हवाएं

बादलों की गड़गड़ाहट और

बारिश के कुछ छींटे

जैसे बागों में नाचता हुआ मोर

कोयल का चारों तरफ शोर और

गुनगुना रहे हों भंवरे कुछ गीत

जैसे समुद्र का किनारा

लहरों का सरगम गाना और

कुछ रेत में दबे हुए मोती

जैसे डूबते हुए सूरज का रंग लाल

हर चेहरे में बस तेरी ही झलक दिखती

काश कि तेरी मौजूदगी मेरे साए में होती.

हमारी बेडि़यां

मेरे पड़ोसी बहुत अच्छे हैं. उन से हमारे बहुत अच्छे संबंध हैं. मेरी पड़ोसिन बेहद अंधविश्वासी हैं. एक बार मेरे पड़ोसी बीमार पड़ गए, 3 दिनों तक लगातार तेज बुखार आता रहा, जांच में डेंगूमलेरिया आदि से डाक्टर ने इनकार किया. तेज बुखार आने से मेरी पड़ोसिन बेहद घबरा गईं तथा आदतन वे बाबाओं के चक्कर में पड़ गईं. कभी प्रसाद, कभी फूल तो कभी धागा, कभी अभिमंत्रित जल या तावीज आदि उपाय करतीं. एक बाबा ने उन्हें पुडि़या में भभूत देते हुए हिदायत दी कि इसे शरीर के हर अंग में ज्यादा से ज्यादा लगाया जाए.

पड़ोसिन ने सारे शरीर में ज्यादा से ज्यादा भभूत लगाने की कोशिश की. पति नींद से जाग गए, उन्हें भभूत से खुजली सी होने लगी, वे पत्नी पर नाराज हुए तथा अलग तो सोने ही लगे, उन से बातचीत भी बंद कर दी.

एक हफ्ते में उन का बुखार ठीक हो गया किंतु पत्नी से नाराजगी जारी रही. दरअसल, पड़ोसी अंधविश्वासी नहीं थे. दोनों का ‘अबोला’ हमें खटकता था. इसलिए हम पतिपत्नी ने पड़ोसिन को समझाने का प्रण किया और वे मान भी गईं. ऐसे अंधविश्वासों का क्या फायदा जिन से पतिपत्नी के संबंधों पर प्रश्नचिह्न लग जाए.    

संध्या, हैदराबाद (आं.प्र.)

 

पिछले वर्ष मेरे ससुरजी का देहांत हो गया था. बड़ा बेटा होने के कारण मेरे पति ने ही मुखाग्नि दी. मेरे पति और मैं कुलपरंपरा के अनुसार सारी रस्मों को निभाना चाह रहे थे लेकिन सुतका के व्रत में एक शाम का मिष्ठान भोजन मेरे पति के लिए असह्य हो रहा था. खाने की बात तो दूर, मेरे पति मीठा भोजन देखना भी नहीं चाह रहे थे.

मैं ने अपने सभी सगेसंबंधियों से सलाहमशविरा किया कि 1-2 दिन की नहीं, 10-12 दिनों की बात है. एक समय का खाना भी मन के अनुरूप नहीं मिला तो कैसे चलेगा? लेकिन परंपरा तोड़ने के खिलाफ कोई आवाज नहीं आई. इधर, पति चिड़चिड़े और कमजोर दिख रहे थे. दीवार पकड़ कर चलने लगे.

मैं ने झटपट सेंधा नमक से भोजन बना कर उन्हें देना शुरू कर दिया. बेटे को खुश देख कर किसी ने मुझ से कुछ नहीं कहा. नमकीन भोजन करने के बाद सारे कार्य सही ढंग से संपन्न हुए. एक भय जो मन में बना रहता है कि परंपरा टूटने से कुछ अनिष्ट होता है ऐसा कुछ नहीं हुआ. हमारे घर में तो उसी दिन से खुशियों की बरसात होने लगी.

ससुरजी के अधूरे कार्य उसी दिन पूरे होने की सूचना मिली जिस दिन मैं ने मीठे भोजन की जगह अपने पति को नमकीन भोजन कराया. यह ‘सरिता’ का ही प्रभाव था. मैं ‘हमारी बेडि़यां’ नहीं पढ़ती तो शायद यह दुसाहस नहीं कर पाती.  

डा. स्वेता सिंह, धनबाद (झारखंड)

 

बच्चों के मुख से

मैं अपनी छोटी बहन के घर गई थी. उस की कालोनी में दशहरे का मेला लगा हुआ था. हम भी मेला घूमने गए, हम दोनों के साथ बहन का 4 वर्षीय बेटा अंशु भी था. उस ने खिलौने की दुकान की तरफ चलने के लिए कहा. मेरी बहन ने धीरे से मुझ से कहा, ‘‘दीदी, इस के पास पहले से ही ढेर सारी बंदूकें हैं, फिर भी बंदूक ही खरीदने की जिद करता है, दूसरा खिलौना लेना ही नहीं चाहता.’’मैं ने बहन को धीरे से समझाते हुए कहा, ‘‘तू चिंता मत कर, हम दोनों इसे समझाबुझा कर दूसरा खिलौना दिलवा देंगे. बच्चा है, मान जाएगा, भूल जाएगा बंदूक की जिद.’’ मेरी बात सुनते ही अंशु जोरजोर से रोरो कर बोलने लगा, ‘‘हम मानने वाले बच्चे नहीं हैं, जो दूसरा खिलौना ले लेंगे, हम बंदूक की जिद नहीं भूलेंगे.’’ मेले की भीड़ में अंशु के रोने से हम दोनों असमंजस में पड़ गईं, हम ने जल्दी से उसे उस की पसंद की बंदूक खरीदवा दी तथा घर लौट आईं. मेले का दृश्य याद कर हम दोनों बहनों का हंसहंस कर बुरा हाल था.

संध्या, हैदराबाद (आं.प्र.)

मेरी 4 वर्षीया छोटी बेटी तन्नू बहुत ही नटखट और हाजिरजवाब है. उसे उस के बाल हमेशा कंघी से कढे़ हुए और सैट चाहिए. हमें एक शादी में जाना था. सर्दियों का मौसम था. उस से कहा कि टोपा लगा ले, सर्दी बहुत है. वह नहीं मानी कि उस के बाल बिगड़ जाएंगे. जब उस को फटकार लगाई और शादी में नहीं ले जाने का भय दिखाया तो वह बड़ी मुश्किल से स्कार्फ लगाने को तैयार हुई. गाड़ी में बैठ कर उस ने बहुत ही धीरे से कहा, ‘‘मम्मी यह स्कार्फ मैरिज गार्डन के बाहर ही खोल देना.’’ उस की इस बात पर हम सभी बिना हंसे नहीं रह सके.

आशा शर्मा, बूंदी (राज.)

मेरी 5 वर्षीया बेटी सिद्धि बहुत बातूनी है. एक बार कोई कहानी सुनाते समय मैं ने उसे बताया कि बूढ़े होने पर सब लोग ऊपर चले जाते हैं फिर दोबारा कभी वापस नहीं आते. कुछ देर सोचने के बाद उस ने मुझ से पूछा कि मम्मा, आप बूढ़ी कब होंगी? मेरा जवाब था कि बड़े होने पर आप की शादी होगी. फिर आप का बेबी आएगा, आप का बेबी जब मुझे ‘नानी’ कहेगा तब मैं बूढ़ी हो जाऊंगी. ऐसा सुनते ही मेरी बेटी तपाक से बोली, ‘‘नहीं मम्मा, मेरा बेबी आप को नानी नहीं कहेगा. मैं उस से कहूंगी कि वह भी आप को मम्मा ही कहे. फिर तो आप बूढ़ी नहीं होंगी?’’ यह सुनते ही मेरी आंखें नम हो गईं और उस के लिए ढेर सारा प्यार उमड़ आया.

अनु गुप्ता, बठिंडा (पंजाब)

कैसे कहूं उसे चाह न थी

था अपना सा, मगर मेरा नहीं था

बहुत था दूर, पर इतना नहीं था

उसे वो तोड़ना क्यों चाहता था

बंधन जो कभी बांधा नहीं था

नहीं वो मिल सका ये है हकीकत

कहूं कैसे उसे चाहा नहीं था

उस को फुरसत तो थी, चाह न थी

था वो मसरूफ पर इतना नहीं था

जी लिया दर्द, पी लिए आंसू

कहां रोता, तेरा कांधा नहीं था.

 

सैक्स-सैक्स का खेल नहीं लिव इन रिलेशनशिप

गोंदिया से नौकरी की तलाश में आई अंकिता रायपुर के एक फाइवस्टार होटल में काम करने लगी. प्रदीप भी वहीं काम करता था. दोनों की जानपहचान बढ़ी और दोस्ती प्यार में बदल गई. इस के बाद उन्होंने एकसाथ रहने का फैसला कर लिया. मकानमालिक को आपत्ति न हो, इस के लिए दोनों ने वहां मंदिर में शादी रचा ली और अपनेआप को पतिपत्नी बता कर रहने लगे.

वह शादी मात्र दिखावा थी. वे लिव इन रिलेशनशिप (सहजीवन) में रह रहे थे. दोनों 2 साल तक साथ रहते रहे. उन में अच्छा तालमेल रहा मगर उस के बाद प्रदीप के रवैए में बदलाव आने लगा. उस ने एकाएक अपनी नौकरी बदल ली. अंकिता को कुछ संदेह हुआ. इसलिए उस ने हठ पकड़ ली कि हमें हमारे परिवारों को विश्वास में ले कर विवाह कर लेना चाहिए ताकि हमारे रिश्ते को कानूनी व सामाजिक मान्यता मिल जाए. मगर प्रदीप एक दिन बिना बताए गायब हो गया. अंकिता बहुत परेशान हुई. वह उस के दोस्तों के पास गई. तब एक दोस्त ने रहस्योद्घाटन किया कि प्रदीप उस से यह कह कर गया है कि मैं अंकिता के साथ टाइमपास कर रहा था, उस से कह देना कि वह मुझे भूल जाए.

अंकिता शिकायत ले कर पुलिस स्टेशन पहुंची और उस ने प्रदीप के खिलाफ रिपोर्ट लिखवाई जिस में उस ने विवाह का झांसा दे कर देहशोषण का आरोप लगाया. उस ने मंदिर में हुई प्रतीकात्मक शादी के सुबूत पेश करते हुए रिपोर्ट में लिखवाया कि सामाजिक रूप से शीघ्र शादी कर लेने के आश्वासन पर वे साथ रह रहे थे मगर जब भी उस ने घर वालों को रिश्ते के बारे में बताने के लिए कहा, प्रदीप कुछ न कुछ बहाना बना कर टालता रहा. पुलिस जांच किसी नतीजे पर पहुंचती, इस से पहले मन ही मन टूट चुकी अंकिता ने आत्महत्या कर ली. अब प्रदीप पर आत्महत्या हेतु उकसाने का प्रकरण चल रहा है.

बेंगलुरु में काम करते हुए राजीव और अलका की भेंट हुई. दोनों सहकर्मी थे. दोनों में आपस में अच्छा तालमेल था. वे लिव इन रिलेशनशिप में रहने लगे. यद्यपि दोनों टे्रडिशनल परिवारों से थे और जानते थे कि जातीय भिन्नता के कारण वे कभी विवाह नहीं कर पाएंगे. बावजूद इस के, वे साथ रह रहे थे. दोनों के बीच तय हुआ था कि वे बच्चे को जन्म नहीं देंगे और समय आने पर मातापिता व परिवार की पसंद से विवाह करने के बाद सदासदा के लिए अलग हो जाएंगे. इस तरह उन की रिलेशनशिप पूरी तरह से एकदूसरे का अकेलापन दूर करने के लिए बनी.

एक अरसे बाद उन की लिव इन रिलेशनशिप समाप्त हो गई. आज अलका एक कारोबारी की पत्नी है और पूरी तरह से अपने परिवार में रचबस गई है. उधर, राजीव मुंबई में कार्यरत है. जब कभी वे मिलते हैं, मैत्री भाव से मिलते हैं.

आजकल लिव इन रिलेशनशिप अत्यधिक प्रचलन में है. इस का तात्पर्य परस्पर सहमति से 2 वयस्क स्त्रीपुरुष का विवाह किए बिना, पतिपत्नी की भांति साथ रहने से है. उन के इसी सहजीवन को लिव इन रिलेशनशिप कहते हैं. हालांकि कानून में यह परिभाषित नहीं है लेकिन लिव इन रिलेशनशिप में रही एक अध्यापिका के अलग होने पर गुजाराभत्ता दिए जाने के मामले में उच्चतम न्यायालय ने 4 शर्तों का उल्लेख किया है जिन्हें परिभाषा के रूप में माना जा सकता है.

न्यायालय की पहली शर्त है कि रिलेशनशिप में रहने वाले युगल समाज के समक्ष पतिपत्नी के तौर पर पेश होने चाहिए. दूसरी शर्त है कि वे शादी की वैध आयु को प्राप्त कर चुके हों. तीसरी शर्त यह है कि उन के बीच रिश्ते कानूनी रूप से शादी करने हेतु वर्जित न हों. चौथी व अंतिम शर्त यह है कि वे स्वेच्छा से लंबे समय तक पतिपत्नी के रूप में रह रहे हों. इन शर्तों को सहजीवन की रूपरेखा माना जा सकता है.

जहां तक कानून द्वारा प्रतिबंध या वर्जना की बात है, ऐसा कहीं भी देखा नहीं गया है. उलटा, सुप्रीम कोर्ट ने लिव इन रिलेशनशिप की समीक्षा करते हुए एक मामले में कहा है कि जब 2 वयस्क साथ रहना चाहते हैं तो इस में कौन सा अपराध है? इस कारण यह रिलेशनशिप उपरोक्त प्रकरण में व्याख्यायित शर्तों के अंतर्गत स्वीकार्य मानी जा सकती है.

उल्लेखनीय है कि हमारे देश में, विशेष रूप से महानगरों में ऐसा बड़े पैमाने पर हो रहा है. कई नामीगिरामी फिल्मी हस्तियां और प्रतिष्ठित लोग लिव इन रिलेशनशिप में रह रहे हैं. इन के नाम गिनाए जाएं तो लंबी सूची बन सकती है. कुल मिला कर कहा जा सकता है कि महानगरीय संस्कृति में इस के प्रति लोगों के मन में किसी प्रकार की झिझक दिखाई नहीं देती और अन्य लोग भी उन के सहजीवन को स्वीकारने लगे हैं.

समाज पर असर

उपरोक्त दोनों उदाहरणों से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि सहजीवन जहां विवाह से पूर्व का अनुभवपूर्ण प्रायोगिक परीक्षण है वहीं आज के युवाओं ने इसे टाइमपास का माध्यम भी बना लिया है. वे इसे पूरी तरह व्यक्तिगत मामला मानते हैं और हस्तक्षेप को मौलिक अधिकारों का हनन कहते हैं.

सामाजिक कार्यकर्ता अमिताभ बनर्जी कहते हैं कि सहजीवन से किसी को रोकना, व्यक्ति को मैत्री संबंधों से रोके जाने की भांति है, जिस का कोई औचित्य नहीं. लगे हाथों वे यह भी स्वीकार करते हैं कि इस के कारण समाज में जो परिवार नामक संस्था है वह अवश्य प्रभावित होती है और कदाचित इस दौरान युगल के बच्चे हो जाएं तो उन के टाइटल व उत्तराधिकार को ले कर विभिन्न समस्याएं पैदा हो सकती हैं.

क्यों है चलन में

सहजीवन की वकालत करने वाले इस के कई लाभ गिनाते हैं. उन का कहना है कि लिव इन रिलेशनशिप में रहने वाले लोगों में धोखा, बेवफाई व व्यभिचार की आशंका बहुत कम रहती है क्योंकि उन के संबंध परस्पर सहमति के आधार पर बने होते हैं और जब तक चाहें तब तक जारी रखने की स्वतंत्रता इन का मूल आधार होती है. जब भी उन्हें यह लगता है कि उन्हें विवाह कर लेना चाहिए, वे विवाह कर लेते हैं अन्यथा बंधनरहित दांपत्य सुख का आपसी समझ के अनुसार उपभोग करते हैं. इस तरह सहजीवन में साथ रहते हुए वे उन्मुक्त जीवन का लुत्फ उठाते हैं. वे उन असफल विवाहों की तुलना में, जिन में लंबी, उबाऊ कानूनी प्रक्रिया के बाद तलाक हो जाते हैं, से लिव इन रिलेशन को कई गुना बेहतर मानते हैं.

मुंबई में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत अंशुल, जो स्वयं 3 वर्षों से लिव इन रिलेशन में हैं, का कहना है कि ऐसा फैसला भली प्रकार विचारित व द्विपक्षीय होता है. इसलिए अकसर सही ही साबित होता है. देखने में आया है कि लोग शादी के बंधन में बंधने के बावजूद परस्पर समर्पण का भाव अधिक समय तक नहीं रख पाते और अलगाव व तलाक के शिकार बन जाते हैं. सहजीवन उन से कई गुना बेहतर है, जिस में कम से कम विवाह पूर्व पर्याप्त समझ बनाने की सुविधा है. अंशुल कहते हैं कि यह कोई अजूबा नहीं क्योंकि आज के युवाओं का जीवन के प्रति अपना नजरिया है. लिव इन रिलेशनशिप ऐसा ही मसाला है जिस में जब तक निभी, साथ रह लिए अन्यथा सम्मानपूर्वक अलग हो गए.

बौलीवुड ऐक्ट्रैस कश्मीरा शाह, जो विगत 7 सालों से कृष्णा के साथ लिव इन रिलेशनशिप में रह रही हैं, कहती हैं, ‘‘हमें एकदूसरे से कोई परेशानी नहीं है. जहां तक बच्चों की बात है, तो बच्चा पैदा कर के हम क्या करेंगे? पता चला सारी उम्र उस की परवरिश में व्यतीत कर दी और बाद में जब हमें उस की जरूरत पड़ी, तब वही बच्चा हम से दूरी बना कर कहीं और चला गया.’’

गैरजिम्मेदारी को बढ़ावा

इस तरह सहजीवन में रह रहे ऐसे जोड़े न बच्चों को जन्म देना चाहते हैं और न ही उन की परवरिश के झमेलों में पड़ना चाहते हैं. इस कारण वे भावी जीवन में बच्चों को ले कर उत्पन्न होने वाले पारिवारिक, सामाजिक व कानूनी दायित्वों से भी बचे रहने का उपक्रम कर लेते हैं.

वहीं, आलोचक इसे उत्तरदायित्वविहीन गृहस्थ का विकृत स्वरूप मानते हैं जिस के कारण चाहेअनचाहे विभिन्न समस्याएं उत्पन्न होती हैं. वे पतिपत्नी नहीं होते बल्कि पार्टनर होते हैं. मान लीजिए, इस दौरान भावुकता भरे क्षणों या लापरवाहीवश उन के बच्चा हो जाए तो उस के जन्मदाता ‘पार्टनर’ होने के नाते, मातापिता नहीं कहला सकते. बेशक, ऐसे बच्चों को कितनी ही धनवैभव की सुविधाएं प्रदान कर दी जाएं या संरक्षण दे दिया जाए किंतु वे कभी उन को वैध संतति होने का अधिकार नहीं दे सकते.

न्यायालयों के कुछ फैसलों के अनुसार, उन्हें वैध संतति की भांति भरणपोषण के अधिकार तो अवश्य मिल जाते हैं किंतु अवैध संतति होने के नाते वैध उत्तराधिकार प्राप्त नहीं होता.  जहां तक उन्हें मिलने वाले वात्सल्य का सवाल है, पता नहीं कब जन्मदाताओं की पार्टनरशिप टूट जाए और बच्चा मिल रहे प्यार से भी वंचित हो जाए.

कुछ लोगों का सोचना भिन्न है. वे लिव इन रिलेशनशिप को पुरुष मनमानियों का नया सुगरकोटेड संस्करण मानते हैं. अपनी बात दृढ़तापूर्वक रखते हुए वे कहते हैं कि महिलाओं के अस्तित्व व सम्मान को स्वीकार करना अब भी पुरुषों के लिए दुष्कर है. कदमकदम पर वे महिलाओं को उपभोग सामग्री समझते हैं. नारी सशक्तीकरण व स्त्री स्वतंत्रता की ओट में ‘रखैल व्यवस्था’ का पुनर्जीवन ही लिव इन रिलेशनशिप है. लेख के प्रारंभ में दिए गए दोनों उदाहरण इसी ओर इंगित करते हैं जिन में मुख्य रूप से स्त्री का शोषण ही दिखाई पड़ता है जो एक तरह से रखैल व्यवस्था का ही विस्तृत रूप है.

जो कुछ भी हो, आज के जीवन में लिव इन रिलेशनशिप अत्यधिक प्रचलित है जिसे नकार पाना संभव नहीं.

कुछ जोड़ों ने लिव इन रिलेशन को युवावस्था आने और विवाह होने के बीच वाले समय को ‘सैक्ससैक्स’ का खेल बना दिया है. इस खेल को भी सहज स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि इस के दौरान यदि कोई स्त्री गर्भवती हो जाए या कोई यौनजनित बीमारी लग जाए तो यह मनोरंजन भारी पड़ सकता है. दूसरी ओर भारतीय पुरुष आज भी सहज ही किसी अन्य के साथ पत्नीवत रही स्त्री के साथ विवाह करने से हिचकिचाते हैं. यदि विवाह के समय पूर्व सहजीवन का ज्ञान न हो और यह रहस्य भविष्य में खुले, तब संभव है वैवाहिक जीवन ही खतरे में पड़ जाए. पिछले दिनों जिस तरह से नारायण दत्त तिवारी उज्ज्वला को अनदेखा कर रहे थे उस से आजिज आ कर उज्ज्वला ने धरने पर बैठने की धमकी तक दे डाली. लिहाजा हार मान कर नारायण दत्त तिवारी उज्ज्वला के साथ लिव इन में रहने को राजी हो गए. फिर कुछ ही दिनों बाद उन्होंने उज्ज्वला से शादी कर ली.

इन सब के मद्देनजर जरूरी है कि लिव इन रिलेशनशिप को कानून के माध्यम से नियंत्रित किया जाए. टाइमपास या सैक्ससैक्स के उन्मुक्त खेल हेतु लिव इन रिलेशनशिप में रहने वाले जोड़ों पर प्रभावी रोक लगाई जाए ताकि सुनिश्चित हो सके कि जो लोग इस प्रकार रह रहे हैं वे सुप्रीम कोर्ट की शर्तों की अनुपालना कर रहे हैं या नहीं. वरना दोहरा वैवाहिक जीवन जीने वाले व यौनदुराचरण में प्रवृत्त लंपट लोग इस की ओट में ‘रखैल’ रखने लगेंगे. इस तरह तय है कि कानूनी अंकुश के बिना पश्चिमी देशों की तर्ज पर हमारे यहां भी अवैध संततियों की भरमार हो जाएगी और यौनदुराचरण के प्रकरण बढ़ने लगेंगे.

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