बौलीवुड में हमेशा से ही विवादास्पद विषयों को फिल्म की शक्ल में भुनाने का चलन रहा है. इसी कड़ी में निर्मातानिर्देशक विशाल भारद्वाज का नाम भी जुड़ता दिख रहा है. खबर है कि वे आरुषि तलवार और हेमराज हत्याकांड पर फिल्म का निर्माण करने वाले हैं. हालांकि वह बतौर निर्देशक इस फिल्म में मेघना गुलजार को मौका देंगे. फिल्म में पुलिस अधिकारी की भूमिका में इरफान खान और आरुषि की मां की भूमिका में शेफाली शाह नजर आ सकती हैं.
तलवार दंपती को इस मामले पर फिल्म बनाने को ले कर आपत्ति है. ऐसे में विशाल के लिए फिल्म बनाना आसान नहीं होगा.
पिछले दिनों गुजरात माफिया पर आधारित फिल्म ‘लतीफ द किंग औफ क्राइम’ रिलीज होने वाली थी लेकिन किन्हीं कारणों से इस की रिलीज जून महीने तक के लिए खिसका दी गई है. चूंकि फिल्म गुजरात माफिया के बारे में है, जिस में शराब का धंधा और फर्जी एनकाउंटर जैसे मामलों को उठाया गया है. ऐसे में कुछ लोगों ने निर्माता से पूछना शुरू कर दिया कि क्या किसी सियासी दबाव के चलते रिलीज टाली गई है?
फिल्म निर्माता कृष्णा कहते हैं कि फिल्म के रिलीज को टालने के निर्णय के पीछे कोई सियासी दबाव नहीं है. हमें जो गुजरात के बारे में लगा, वही फिल्म में दिखाने जा रहे हैं.
फिल्मी हस्तियों को रुपहले परदे पर तो काफी बोल्ड और होशियार दिखाया जाता है लेकिन असल जिंदगी में ये इतने होशियार नहीं होते. अब बीते दिनों आलिया भट्ट से एक चैट शो में भारत के राष्ट्रपति का नाम पूछा गया तो उन्होंने पृथ्वीराज चव्हाण का नाम ले दिया. बस, फिर क्या था, तब से सोशल साइट्स पर उन की जनरल नौलेज को ले कर जम कर मजाक उड़ाया जा रहा है. कुछ जोक्स तो आलिया के नाम पर फेसबुक पेज बना कर भी डाले जा रहे हैं.
ऐसे में उन का नाराज होना लाजिमी है. लेकिन क्या करें, मैडम का जनरल नौलेज ही कुछ ऐसा है.
क्रिकेट में मैच फिक्सिंग के मामले में गेंदबाज श्रीसंत पर भी आरोप लगा चुके हैं. इन दिनों श्रीसंत टीवी पर आने को बेताब हैं. क्रिकेट की पिच के बाद अब वे डांस की पिच पर अपना हुनर आजमाना चाह रहे हैं. दरअसल, श्रीसंत एक डांस रिऐलिटी शो में हिस्सा ले रहे हैं. चूंकि स्पौट फिक्सिंग के आरोपों की वजह से उन के खेलने पर प्रतिबंध लगा है इसलिए वे खाली समय को भुनाते हुए टीवी की नौटंकी में भाग ले रहे हैं.
वैसे पिछले साल श्रीसंत इस शो में भाग लेने के लिए मना कर चुके हैं लेकिन अब हालात बदले हुए हैं. ऐसे में उन को अब टीवी के रिऐलिटी शो का ही सहारा लेना मुनासिब लग रहा है.
अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा का सितारा बुलंदी पर है. ‘गुंडे’ और ‘कृष 3’ जैसी सुपरहिट फिल्मों में अपना जलवा बिखेर चुकी प्रियंका इन दिनों अपने इंटरनैशनल एलबम को ले कर खासी चर्चा में हैं. लेकिन इसी बीच, एक खबर ऐसी भी आई जिस को ले कर प्रियंका खफा हो गईं.
दरअसल, प्रियंका चोपड़ा के पूर्व प्रेमी असीम मर्चेंट और प्रियंका के पूर्व सेक्रैटरी प्रकाश जाजू उन की लाइफ के शुरुआती दिनों पर फिल्म बनाने की योजना बना रहे हैं. इस फिल्म में उन के और प्रकाश जाजू के विवाद को भी दिखाया जाएगा.
गौरतलब है कि प्रियंका से आर्थिक मसले पर विवाद के चलते प्रकाश जेल की हवा भी खा चुके हैं. अब उसी मसले को परदे पर उतारना प्रियंका को नागवार तो गुजरेगा ही.
इस फिल्म को देखने के लिए दिमाग पर ज्यादा जोर लगाने की जरूरत नहीं है. डेविड धवन की अन्य फिल्मों की तरह इस फिल्म के हर सीन में कौमेडी है. उन्होंने 90 के दशक के मसालों को 2014 में खूबसूरती से पैक कर के दर्शकों को उल्लू बनाने की कोशिश की है.
फिल्म के लिए डेविड धवन ने बतौर हीरो अपने बेटे वरुण धवन को लिया है. ‘स्टुडैंट औफ द ईयर’ बतौर हीरो वरुण की पहली फिल्म थी. इस फिल्म में उस ने ऐक्शन, डांस, कौमेडी, रोमांस करने के साथसाथ अपने सिक्स पैक भी दिखाए हैं. उस ने सलमान खान की नकल की है तो डांस में गोविंदा को भी पछाड़ दिया है.
फिल्म की कहानी सीनू उर्फ श्रीनाथ प्रसाद (वरुण धवन) की है जो ऊटी से बेंगलुरु पढ़ने के लिए जाता है. कालेज में उस की मुलाकात सुनयना (इलियाना डिकू्रज) से होती है और वह उस पर मरमिटता है. उधर, शहर का एक गुस्सैल पुलिस इंस्पैक्टर अंगद (अरुणोदय सिंह) सुनयना पर फिदा है. वह अपने गुंडों से सीनू को मरवाने की कोशिश करता है. इस बीच सीनू कुछ ऐसी चाल चलता है कि अंगद को नौकरी से निकाल दिया जाता है. सीनू और सुनयना को अलग करने के लिए अंगद अंडरवर्ल्ड डौन विक्रांत (अनुपम खेर) से मिल जाता है. डौन की इकलौती बेटी आयशा (नरगिस फाखरी) सीनू से इकतरफा प्यार करती है. डौन के गुंडे सुनयना को किडनैप कर के बैंकौक स्थित डौन के महल में ले आते हैं. सीनू भी वहां आ धमकता है. विक्रांत गनपौइंट पर सीनू को आयशा से शादी करने को कहता है परंतु सीनू 10 दिन का टाइम लेता है. इसी दौरान अंगद भी वहां पहुंच जाता है. इन 10 दिनों में सीनू आयशा के दिल में अंगद के प्रति प्यार को जगाता है. परिस्थितियां ऐसी बनती हैं कि क्लाइमैक्स में आयशा अंगद पर अपने प्यार को जाहिर करती है. विक्रांत उन दोनों की शादी करा देता है, साथ ही सीनू और सुनयना को भी मिलवा देता है.
फिल्म की यह कहानी कौमिक कन्फ्यूजन से भरी है. निर्देशक ने फिल्म में कौमेडी के अलावा ऐक्शन, रोमांस, इमोशंस के साथसाथ हैप्पी एंडिंग की है.
फिल्म की पटकथा कमजोर है. इलियाना डिकू्रज के अभिनय में ‘बर्फी’ वाली बात नहीं है. नरगिस फाखरी की संवाद अदायगी कमजोर है, ऐक्टिंग तो माशाअल्लाह ही है. अनुपम खेर और सौरभ शुक्ला ने खूब हंसाया है. फिल्म का छायांकन अच्छा है.
‘देख तमाशा देख’ एक छोटी सी घटना पर मचे बवाल पर आधारित है. इस में राजनीतिबाजों और धर्म के धंधेबाजों पर व्यंग्य किया गया है. लेकिन यह व्यंग्य असरदार नहीं रहा है. फिल्म एक तमाशा बन गई है.
फिल्म की कहानी एक सच्ची घटना पर आधारित बताई गई है. यह कहानी एक छोटे से गांव की है जहां हिंदू और मुसलिम संप्रदाय के लोग रहते हैं. उसी गांव में एक राजनीतिबाज मुथ्था सेठ (सतीश कौशिक) भी रहता है. एक गरीब आदमी शहर के चौराहे पर मुथ्था सेठ का बहुत बड़ा कटआउट लगाते समय होर्डिंग के नीचे दब कर मर जाता है. लाश पर राजनीति गरमा जाती है. लाश को मुसलमान दफनाने के लिए ले जाते हैं, क्योंकि मरने वाले का नाम हामिद था और वह मुसलमान था. उधर हिंदू धर्म के ठेकेदार लाश को दफनाने नहीं देते. वे मरने वाले का नाम किशन बताते हैं और उसे हिंदू बताते हैं. पुलिस लाश को कब्जे में ले लेती है.
शहर में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठते हैं. धर्म के ठेकेदार लोगों को भड़काते हैं. अदालत में मुकदमा चलता है. अदालत फैसला देती है कि लाश उस के हिंदू भाई को सौंपी जाए. लाश भाई को दे दी जाती है. परंतु उस का हिंदू भाई लाश को दफनाने ले जाता है. पुलिस इंस्पैक्टर यह देख कर अपनी टिप्पणी करता है कि लाश को अगर दफनाना ही था तो यह तमाशा करने की क्या जरूरत थी? असल में उस का भाई छोटी जाति का था और उन की जाति में लाश को दफनाया ही जाता था.
फिल्म की इस कहानी में किशन उर्फ हामिद की जवान बेटी शब्बो और एक हिंदू युवक प्रशांत की प्रेम कहानी भी है. मुसलमान दंगाई प्रशांत को मार डालते हैं.
फिल्म की यह कहानी काफी कमजोर है. निर्देशक व्यंग्य करने में असफल रहा है. उस ने फिल्म में एक मौलवी को भड़काऊ भाषण देते भी दिखाया है जो कहता है कि जन्नत में 70 हूरें मिलेंगी. तुम्हारे घरों में तो मैलीकुचैली बीवियां ही हैं. इस के अलावा अदालत में जज द्वारा क्रौस क्वेश्चन करते हुए हंसी का माहौल क्रिएट किया गया है.
फिल्म में ग्लैमर का अभाव है. बहुत सी बातों की खिचड़ी सी पकाई गई है. कोई कलाकार प्रभावित नहीं कर पाता. फिल्म में गाने नहीं हैं. फिल्म कोई संदेश भी नहीं देती.
दोस्ती के कौंसेप्ट पर बनी यह फिल्म हाल ही में रिलीज हुई फिल्म ‘यारियां’ जैसी है. लेकिन जो फन, जो मजा, जो ऐक्साइटमैंट ‘यारियां’ के युवा फ्रैंड्स में था, वह इस में नहीं है. नए कलाकारों को ले कर बनाई गई यह फिल्म दर्शकों पर ज्यादा असर नहीं छोड़ पाती.
फिल्म की कहानी सिद्धार्थ नाम के एक युवक से शुरू होती है जो अमेरिका से भारत लौटा है. कहानी फ्लैशबैक में जाती है तो पता चलता है कि हिमाचल प्रदेश के कसौली जिले में सिद्धार्थ के दोस्तों का एक ग्रुप था जिस में सैम, बौबी, टीटू और सूजी हैं.
सारे दोस्त काउबौय के नाम से मशहूर हैं. सिद्धार्थ की मुलाकात नयनतारा (इजाबेले लेले) से होती है. दोनों में प्यार हो जाता है. उधर, सैम एक पार्टी में नयनतारा पर लट्टू हो जाता है और हर वक्त उसे पाने की कोशिश करता रहता है.
सिद्धार्थ को अमेरिका जाना पड़ता है. वापस लौटने पर उसे सैम की भावनाओं के बारे में पता चलता है तो वह दोस्ती की खातिर चुप रहता है. नयनतारा से मिलने पर वह खुद को रोक नहीं पाता और उस के साथ सोता है.
सैम यह सब देख लेता है. वह सिद्धार्थ को भलाबुरा कह कर उस से दोस्ती तोड़ लेता है. गुस्से में वह घर लौटता है, जहां उस के होने वाले सौतेला पिता और उस की मां (सारिका) के बीच झगड़ा चल रहा था. तेज गाड़ी चला कर वह झील में डूब कर मर जाता है. जातेजाते वह सिद्धार्थ के नाम ‘सौरी’ का लैटर और एक पुरानी जींस बतौर गिफ्ट रख जाता है ताकि उसे एहसास हो कि दोस्ती पुरानी जींस की तरह होती है. वह जितनी पुरानी हो उतनी ही मजबूत होती है.
फिल्म की यह कहानी एकदम फ्लैट है. पूरी फिल्म कसौली में ही फिल्माई गई है. निर्देशक ने कसौली की सुंदरता को कैमरे के माध्यम से अच्छा दिखाया है. निर्देशन साधारण है. अभिनय की दृष्टि से कोई कलाकार आकर्षित नहीं करता. यहां तक कि रति अग्निहोत्री, सारिका और मनोज पाहवा जैसे पुराने कलाकार भी फीके लगे हैं. नायिका इजाबेले लेले नई तो नहीं है फिर भी उस के चेहरे पर भाव नहीं आ पाते. लिप टु लिप किस सीन में वह अनइजी रही है.
फिल्म में मीका पर एक आइटम सौंग फिल्माया गया है. मीका ने पंजाबी गाने को परफौर्म किया है. एक ही गाना सुनने में अच्छा लगता है. एक ही गाना- ‘दिल आजकल मेरी सुनता नहीं…’ सुनने में अच्छा लगता है. फोटोग्राफी अच्छी है.
गिनेचुने कम किरदारों को ले कर फिल्म बनाने पर पहले भी कुछ प्रयोग किए जा चुके हैं. 20-25 साल पहले अकेले सुनील दत्त को ले कर एक फिल्म ‘यादें’ बनाई गई थी. पूरी फिल्म में केवल एक ही किरदार था जो सुनील दत्त ने निभाया था. यह प्रयोग सफल नहीं हुआ था और फिल्म फ्लौप हो गई थी.
‘क्या दिल्ली क्या लाहौर’ में निर्माता करण अरोड़ा ने बौक्स औफिस के फार्मूलों का मोह त्याग कर एक ऐसे सब्जैक्ट को चुना है जो आज भी मौजूद है. हर भारतीय और हर पाकिस्तानी के दिल में भारतपाक विभाजन का दर्द मौजूद है. दोनों देशों के लोगों के दिलों में यह सवाल टीस बन कर उभरता है कि आखिर उन का कुसूर क्या था? गांधी और जिन्ना जैसे सियासतदानों की वजह से उन की जिंदगी बदतर क्यों हो गई? दोनों देशों के लोग आज भी एकदूसरे से नफरत क्यों करते हैं? आज भी पाकिस्तान वालों को बताया जाता है कि इस सारे झगड़े की जड़ हिंदुस्तान वाले हैं और हिंदुस्तानियों को सिखाया जाता है कि पाकिस्तानियों से नफरत करो. भारतपाक विभाजन के इस दर्द को एक हिंदुस्तानी और एक पाकिस्तानी फौजी के माध्यम से परदे पर पेश किया है.
फिल्म का निर्देशन विजय राज ने किया है. उस ने फिल्म में पाकिस्तानी फौजी की भूमिका भी निभाई है. विजयराज को इस से पहले फिल्म ‘मौनसून वैडिंग’, ‘दिल्ली 6’ तथा ‘देल्ही बेली’ के लिए पुरस्कार मिल चुके हैं.
फिल्म की कहानी एक फौजी चौकी से शुरू होती है. यह चौकी भारतीय इलाके में है. चौकी में तैनात सभी सिपाही मारे जा चुके हैं. मात्र एक फौजी, समर्थ प्रताप शास्त्री (मनु ऋषि) जो बावर्ची है, बचा है. उसी बीच पड़ोसी मुल्क की सेना का अफसर (विश्वजीत प्रधान) अपने साथ बचे फौजी रहमत अली (विजय राज) से भारतीय चौकी में जा कर एक गुप्त फाइल को लाने को कहता है.
रहमत चौकी तक पहुंचता है तो उस का सामना समर्थ से होता है. दोनों के बीच गोलीबारी होती है, साथ ही एकदूसरे पर वे आरोपप्रत्यारोप भी लगाते हैं. समर्थ जख्मी हो जाता है. इंसानियत के नाते रहमत उसे बचाने की कोशिश करता है. इस के लिए वह अपने अफसर को मार डालता है.
तभी वहां एक भारतीय डाक फौजी (राज जुत्शी) आ जाता है. वह रहमत को पकड़ लेता है और अफसरों को इस की सूचना दे देता है. इसी बीच समर्थ की तबीयत बिगड़ने लगती है. मौका पाते ही रहमत डाक फौजी पर बंदूक तान देता है और उसे पानी लाने का हुक्म देता है. इसी दौरान एक दनदनाती गोली रहमत को चीर जाती है. वह वहीं ढेर हो जाता है. समर्थ भी मर जाता है.
फिल्म की यह कहानी 2 ऐसे फौजियों की कहानी है जो अपनेअपने देश के लिए लड़ रहे हैं परंतु बदले हालात में वे प्रेम की भाषा सीख जाते हैं और एकदूसरे की जान बचाने की कोशिश करते हैं.
फिल्म का यह विषय गंभीर है परंतु अच्छा लगता है. पूरी फिल्म में समर्थ और रहमत की डायलौगबाजी है. यह डायलौगबाजी बहुत लंबी खिंच गई है. फिल्म में न तो लाहौर दिखाया गया है न ही दिल्ली और न ही दोनों देशों के फौजी हुक्मरानों को राजनीति करते दिखाया गया है. इसीलिए फिल्म शुष्क सी हो गई है.
फिल्म की शुरुआत गुलजार की एक कविता से शुरू होती है. कविता की लाइनें बहुत ही सुंदर हैं :
इन्हीं को अब बनाओ पाला
और आओ, अब कबड्डी खेलते हैं.
लकीरें हैं तो रहने दो
किसी ने रूठ कर गुस्से में शायद खींच दी थीं
विजयराज द्वारा निर्देशित यह पहली फिल्म है. उस ने एक ही लोकेशन पर फिल्म को फिल्माया है. उस के निर्देशन में कोई कमी नहीं दिखती. अभिनय भी उस का अच्छा है. समर्थ का काम भी ठीक है.
फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक अच्छा है. छायांकन अच्छा है. संवादों में कहींकहीं कौमेडी का टच आ गया है.