पिछले दिनों बिहार के एक सरकारी विभाग का समाचार टीवी के विभिन्न चैनलों पर दर्शाया गया है, जिस में पहली बात तो यह है कि विभाग का मुखिया नया आया है, दूसरी यह कि वह कर्मचारियों की कार्यशैली से असंतुष्ट है. कोई देर से आता है, कोई जल्दी चला जाता है, कोई अपनी सीट पर नहीं मिलता, कोई फाइल को अनावश्यक तौर पर दबाए रखता है, कोई सीट पर बैठा सिगरेट पी रहा है, कोई महिला कर्मचारियों से दुर्व्यवहार करता है. नया मुखिया इन्हें अनुशासित करना चाहता है. उस के पास ऐसी शिकायतें भी पहुंचती हैं कि कई कर्मचारी पैसे लिए बिना छोटा सा बिल तक पास नहीं करते. विभागाध्यक्ष के पास इस के सिवा और कोई चारा नहीं है कि वह 1-2 बार समझाने के बाद भी सही रास्ते पर न आने वालों को कारण बताओ नोटिस जारी करे. उस ने यही किया.

यज्ञ की निरर्थकता

अब बिगड़े हुए कर्मचारी चिंताग्रस्त हैं. वे एक बैठक करते हैं, जिस में यह निर्णय लिया जाता है कि इस दैवी विपत्ति को दूर करने के लिए हमें आपस में पैसे इकट्ठे कर के दफ्तर में यज्ञ का आयोजन करना चाहिए. सरकारी दफ्तर में यज्ञ हो गया, परंतु उस से न तो नोटिस वापस हो सकते थे और न आगे दिए जाने बंद हो सकते थे. कुछ दिन बाद कई और कर्मचारी नोटिस मिलने से परेशान हो उठे. अब दोबारा बैठक हुई. इस बार निर्णय हुआ कि किसी वास्तुशास्त्र विशेषज्ञ को बुला कर दफ्तर में से वास्तुशास्त्रीय दोष दूर करवाए जाएं. तथाकथित विशेषज्ञ आया. उस ने किसी की कुरसी का मुंह इधर को करवाया तो किसी की मेज का उधर को. परंतु वह दफ्तर में तोड़फोड़ व नया निर्माण चाहता था - वाशरूम उधर बनाया जाए, सीढि़यां यहां से हटा कर वहां बनाई जाएं. इस के लिए विभागाध्यक्ष की मंजूरी ही नहीं, सरकारी पैसा भी चाहिए था. विभागाध्यक्ष इस के खिलाफ था. कर्मचारी तनावग्रस्त थे. कर्मचारी अच्छी तनख्वाह लेते हैं. अपने स्वार्थ के सारे काम वे बड़ी सूझबूझ से करते हैं. वे जिले का प्रशासन चलाते हैं, परंतु उन के दिमाग में यह कभी नहीं आया कि यदि किसी को लेट आने पर कारण बताओ नोटिस मिलता है तो इस का हल यही है कि वह भविष्य में लेट न आने का प्रण करे और समय पर दफ्तर पहुंचे. इसी तरह अन्य कर्मचारियों को अपनाअपना तौरतरीका सुधारने की जरूरत है.

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