संयुक्त राष्ट्र की संस्था अंतर्राष्ट्रीय टैलीकम्युनिकेशन यूनियन आईटीयू की एक रिपोर्ट में अनुमान जाहिर किया गया है कि साल के आखिर तक 3.2 अरब से ज्यादा लोग औनलाइन हो जाएंगे, जबकि दुनिया की जनसंख्या फिलहाल 7.2 अरब है. साफ है कि दुनिया की लगभग आधी आबादी सूचना और तकनीक के संक्रमण से गुजर रही है. अगर विश्व की जनसंख्या से नवजात शिशुओं, बुजुर्गों और शारीरिक तौर पर अक्षमों की संख्या हटा दी जाए तो कहना कतई गलत नहीं होगा कि पूरी दुनिया ही इंटरनैट और डिजिटल युग में खो चुकी है. वर्चुअल वर्ल्ड में गोता लगाती इस दुनिया को जरा भी भान नहीं है कि सूचना और तकनीक की ओवरडोज किस तरह तन और मन को अवसाद, तनाव व मानसिक व्याधियों के घेरे में घेर चुकी है. मौजूदा दौर में अगर अपने आसपास के सूचना और तकनीक से घिरे किसी कामकाजी व्यक्ति की दिनचर्या पर बारीकी से गौर फरमाएं तो उस का दिन कुछ यों बीतता है :

सुबह उठते ही सोशल मीडिया यानी फेसबुक, वाट्सऐप, इंस्टाग्राम, टंबलर या ट्विटर पर अपने स्टेटस में गुड मौर्निंग या हैविंग कौफी नाऊ अपडेट कर औफिस जाने की तैयारी होती और नाश्ते की टेबल पर नाश्ते से ज्यादा ध्यान उस टैबलेट या आइपैड पर होता है जिस में ई न्यूज या इंटरटेनमैंट की मुफ्त खुराक परोसी जा रही होती है.

घर से दफ्तर की राह में कानों में इयरफोन लग जाता है. तमाम रास्ते यूट्यूब के वीडियो या आईट्यूंस पर गाने सुनते हुए दफ्तर तक का सफर पूरा होता है.

दफ्तर में दाखिल होते ही पहला काम पीसी यानी कंप्यूटर को स्टार्ट करना होता है. जहां काम की फाइलें जमा करने के साथ सोशल मीडिया की हलचल पर नजर डालने से ले कर जीमेलिंग का खेल शुरू हो जाता है. इसी सूचना और तकनीक की गोद में बैठेबैठे दोचार प्रैजेंटेशन निबटा दिए जाते हैं.

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