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बाजार में मजबूती का माहौल

विश्व बाजार में सोने के दाम 15 माह के निचले स्तर पर पहुंचने और कच्चे तेल के दाम 28 माह में न्यूनतम स्तर पर रहने के बावजूद बौंबे स्टौक एक्सचेंज यानी बीएसई में बिकवाली का दौर शुरू हुआ और सूचकांक दशहरे से पहले और उस के बाद कमजोर बना रहा. सितंबर के आखिरी सप्ताह के लगभग सभी दिनों के कारोबार के दौरान बाजार में मुनाफावसूली का दौर चला जिस की वजह से सूचकांक उठापटक के बीच लगभग कमजोर स्थिति में ही बंद होता रहा. अक्तूबर की शुरुआत में भी बाजार का माहौल नहीं सुधरा हालांकि पहले सप्ताह दशहरा, गांधी जयंती तथा ईद के कारण छुट्टी का माहौल रहा और बाजार सिर्फ 1 ही दिन खुल सका. दूसरे सप्ताह की शुरुआत भी कमजोरी के साथ हुई और यह माहौल करीब पूरे सप्ताह बना रहा.

सप्ताह के दूसरे कारोबारी दिवस को तो बाजार 2 माह के निचले स्तर पर बंद हुआ. इन सब स्थितियों के बावजूद साल की शुरुआत से ही मोदीमय रहे बाजार में माहौल को अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष यानी आईएमएफ के विकास दर के वर्तमान 5.4 प्रतिशत से बढ़ कर 6.5 प्रतिशत तक पहुंचने के पूर्वानुमान ने सकारात्मक बनाया. शेयर बाजार के मोदीमय होने की वजह से इस साल अब तक बाजार का निवेश 23 लाख करोड़ रुपए हो चुका है. सूचकांक पिछले 9 माह के दौरान 25.49 फीसदी की छलांग लगा चुका है. इसी दौरान भारतीय उद्योग परिसंघ यानी सीआईआई के औद्योगिक व्यापार विश्वास सूचकांक यानी इंडस्ट्रीज बिजनैस कौन्फिडैंस इंडैक्स के सूचकांक में इस तिमाही में भी लगातार दूसरी बार तेजी रही है. पहली तिमाही में इस सूचकांक में तेजी 57.4 प्रतिशत की थी जो दूसरी तिमाही में बढ़ कर 72.5 प्रतिशत तक पहुंची है. इन घटकों की वजह से बाजार घटतबढ़त के बावजूद मजबूत स्थिति में है.

मैनग्रोव जंगल की कटाई होगी बड़ी तबाही

हर मकर संक्रांति पर्व अपने पीछे छोड़ जाता है सुंदरवन के मैनग्रोव की तबाही. चक्रवाती तूफान और बरसात यानी प्राकृतिक आपदा किस रूप में आ सकती है, इस का पूर्वानुमान तो लगाना संभव है पर इस प्राकृतिक आपदा की तबाही से बचना नामुमकिन सा है. तमाम पूर्वानुमानों के बावजूद यह बंगाल की खाड़ी के करीब 2 जिलों उत्तर और दक्षिण परगना समेत बंगलादेश में तबाही मचाता है. हर साल बंगाल की खाड़ी से इस दौरान कम से कम 6 चक्रवाती तूफान उठते हैं. हालांकि ये तूफान महज कुछेक मिनटों के होते हैं पर मिनटों में ही बड़े पैमाने पर तबाही मचाते हैं.

25 मई, 2009 में आया आइला तूफान इस की एक बड़ी मिसाल है, जिस ने पश्चिम बंगाल और बंगलादेश के तटीय इलाकों में बड़े पैमाने पर कहर ढाया. पर्यावरण विशेषज्ञ और कलकत्ता विश्वविद्यालय के समुद्र व जीव विभाग के प्राध्यापक अमलेश चौधुरी की अगुआई में तत्कालीन सुंदरवन विकास परिषद द्वारा 1983-84 में वेणुवन नदी के द्वीप से 7 किलोमीटर इलाके में मैनग्रोव के पौधे लगाए गए थे. इस का उद्देश्य था मैनग्रोव के जरिए नदी बांध की सुरक्षा. 1984 में लगाए गए मैनग्रोव अब पूरी तरह से जंगल में तबदील हो गए थे. लेकिन इस साल के गंगासागर मेले के दौरान इस जंगल की बलि चढ़ा दी गई.

अमलेश चौधुरी का कहना है, ‘‘चक्रवाती तूफान और बाढ़ के लिहाज से इस साल इस क्षेत्र का समय कठिन होगा. गौरतलब है कि इस इलाके में गरमी के मौसम की शुरुआत में अकसर चक्रवाती तूफान आते हैं. हलकेफुलके चक्रवाती तूफान भी यहां बड़ी तबाही मचाया करते हैं.’’आइला तूफान ने पश्चिम बंगाल और बंगलादेश के खाड़ी के करीबी जिलों के भूगोल और मौसम के पैटर्न को ही बदल कर रख दिया है. आज तक वहां का जनजीवन अपने ढर्रे पर नहीं लौट पाया है. वहीं, गंगासागर मेले के मद्देनजर मैनग्रोव की अंधाधुंध कटाई को ले कर पर्यावरणविदों के माथे पर बल पड़ गए हैं. इस से जो तबाही हो रही है वह प्राकृतिक आपदा से ज्यादा है.

तीर्थयात्रा की मार

हर साल मकर संक्रांति के मौके पर गंगासागर मेला लगता है. साल दर साल तीर्थयात्रियों की भीड़ बढ़ रही है. तीर्थयात्रियों की सुविधा और पुराने जेटी पर लोगों का दबाव कम करने के लिए स्थानीय सागरद्वीप के करीब चेमागुड़ी पौइंट के वेणुवन में नई सड़क और जेटी के निर्माण किए गए. इस के लिए लगभग 100 मीटर से भी बड़े इलाके में, अधिक पैमाने पर मैनग्रोव को काटा गया.

नई जेटी और सड़क बनाने का जिम्मा गंगासागर बकखाली उन्नयन (विकास) परिषद का था. पर्यावरणविदों की आशंका के बारे में पूछे जाने पर परिषद के चेयरमैन बंकिम हाजरा ने माना कि सागरमेला के दौरान तीर्थयात्रियों की सुविधा के मद्देनजर मैनग्रोव के जंगलों का सफाया किया गया था. लेकिन जंगल काटने का फैसला तमाम स्तर पर बैठक और सहमति के बाद किया गया. हालांकि उन का यह भी कहना है कि बरसात के मौसम में नदी के कटाव को रोकने के लिए नदी के द्वीप में बड़े पैमाने पर मैनग्रोव के पौधे लगाए गए हैं. इन से नदी के बांध के लिए किसी तरह का खतरा पैदा नहीं होगा. इधर, दक्षिण चौबीस परगना जिला प्रशासन का कहना है कि हर साल गंगासागर में बढ़ते तीर्थयात्री मुश्किलें पेश कर रहे हैं. गंगासागर तक पहुंचने के रास्ते में चेमागुड़ी पौइंट, जो बंगाल की खाड़ी से बहुत करीब है, के पास मुड़ीगंगा नदी में जेटी है. लेकिन भाटा के दौरान इस में समस्या इसलिए पेश आती रही है क्योंकि तीर्थयात्रियों से भरा लौंच अकसर नदी की गाद में अटक जाता है. इस के कारण जेटी में भीड़ बढ़ती जाती है. इस से बड़ी दुर्घटना की आशंका बनी रहती है. इस कारण वेणुवन में नए जेटी के निर्माण का फैसला लिया गया.

गौरतलब है कि वेणुवन में नदी की गहराई अधिक है, जिस के कारण वहां यात्री लौंच चलाने में परेशानी नहीं पेश आएगी, यही सोच कर प्रशासन ने वहां नई जेटी का निर्माण किया. इस के अलावा जेटी से जोड़ कर 60 फुट चौड़ी सड़क का भी निर्माण किया गया. जेटी और सड़क निर्माण के लिए बड़ी तादाद में मैनग्रोव के जंगल का सफाया किया गया.

प्रकृति से खिलवाड़

चिंता इस बात की है कि यह क्षेत्र विकसित प्रजाति के मैनग्रोव का है, जिस की अंधाधुंध कटाई की गई. इस को ले कर पर्यावरणविदों में बड़ी नाराजगी है. मैनग्रोव के ये जंगल बरसात के मौसम में बाढ़ के कारण नदी के कटाव को रोकने में बड़ी अहम भूमिका निभाते हैं. पर्यावरणविदों को आशंका है कि इतने बड़े पैमाने पर मैनग्रोव को काटे जाने से सागरद्वीप के पर्यावरण संतुलन पर जरूर आंच आएगी. इस का नतीजा इस बार बरसात के मौसम में साफ नजर आएगा. इस मेले का प्रचार बहुत बड़े पैमाने पर होता है. जत्थों के साथ पंडेपुजारी भक्तों के खर्च पर आते हैं और अपनी जेबें भरते हैं. भक्तों के चढ़ावे और उन की खरीदारी में अफसरों के साथ पंडों का भी हिस्सा होता है. इसीलिए प्रकृति के साथ खिलवाड़ की बात कोई सुनना ही नहीं चाहता.

पटना के गर्ल्स होस्टल का सच

सीलन भरे, दड़बेनुमा छोटेछोटे कमरे उन कमरों में 2-3 चौकियां, हवा आनेजाने के लिए ठीक से खिड़कियां तक नहीं, गंदे बाथरूम व टौयलेट, संकरी सीढि़यां, दीवारों और छतों से ढहते प्लास्टर, रंगरोगन का नामोनिशान नहीं, अंदर और जहांतहां बाहर बिजली के लटकते तार, पानी की तरह बेजायका चाय, गंदी पड़ी पानी की टंकियां, गेट पर लगा बड़ा सा फाटक और वहां पर सिक्योरिटी के नाम पर खड़ा बूढ़ा व कमजोर गार्ड. कुछ ऐसी है पटना के गर्ल्स होस्टल्स की पहचान. ज्यादातर गर्ल्स होस्टल्स की ऐसी हालत है कि बाहर से देखने पर अजीब सा रहस्यमयी वातावरण नजर आता है. टूटेफूटे पुराने मकानों के कमरों में लकड़ी या प्लाईबोर्ड से पार्टिशन कर के छोटेछोटे कमरों का रूप दे दिया गया है. सीलन भरे कमरों में न ही ढंग से रोशनी का इंतजाम है, न पानी और साफसफाई का. खानेपीने की व्यवस्था काफी लचर है.

खजांची रोड के एक गर्ल्स होस्टल में रहने वाली प्रिया बताती है कि 8×8 फुट के कमरे में 3 चौकियां लगी हुई हैं, खिड़की का नामोनिशान नहीं है. खाने के लिए 2 हजार रुपए हर महीने लिए जाते हैं और घटिया चावल और उस के साथ दाल के नाम पर पानी दिया जाता है. सब्जी के रस में आलू या गोभी ढूंढ़ने में काफी मशक्कत करनी पड़ती है.

दरअसल, पटना में कोचिंग के कारोबार के साथ कई धंधे चल रहे हैं. कोचिंग संस्थानों के आसपास गर्ल्स होस्टल, बौयज होस्टल, मैस, किताबकौपियों की दुकानें, टिफिन वालों का कारोबार फलताफूलता रहा है. पटना के महेंदू्र, मुसल्लहपुर हाट, खजांची रोड, मखनियां कुआं, नया टोला, भिखना पहाड़ी, कंकड़बाग, राजेंद्रनगर, बोरिंग रोड, कदमकुआं, आर्य कुमार रोड, पीरमुहानी आदि इलाकों में कोचिंग सैंटर और होस्टल्स की भरमार है. शहर में करीब 3 हजार से ज्यादा छोटेबड़े होस्टल्स हैं. उन का करोबार करोड़ों रुपए का है.

सुरक्षा का अभाव

होस्टल की सुरक्षा के नाम पर चारों ओर की खिड़कियां बंद कर दी जाती हैं, चारदीवारी को ऊंचा कर दिया जाता है और लोहे का बड़ा सा गेट लगा दिया जाता है. मखनियां कुआं के होस्टल में रह कर मैडिकल की कोचिंग करने वाली पूर्णियां शहर की रश्मि बताती है कि हर रोज सुबह और रात को लड़कियों की हाजिरी नहीं लगाई जाती है. लड़कियों के गार्जियन, प्रशासन और होस्टल संचालकों के बीच समन्वय नहीं होने के चलते होस्टल्स को हमेशा संदेह की नजरों से देखा जाता है. ज्यादातर गर्ल्स होस्टल्स के संचालक मर्द हैं जो लड़कियों से अकसर बेशर्मी से पेश आते हैं.

पटना की सिटी एसपी रह चुकी किम कहती हैं कि गर्ल्स होस्टल्स की वार्डेन महिला ही होनी चाहिए और लोकल थानों के टैलीफोन नंबर होस्टल्स में चिपकाने चाहिए. गर्ल्स होस्टल्स की कई शिकायतें मिलने के बाद समयसमय पर महिला पुलिस वालों द्वारा होस्टल्स के मुआयने करने के निर्देश थानों को दिए जाते रहे हैं. पटना के श्रीकृष्णापुरी महल्ले के मुसकान गर्ल्स होस्टल की इंचार्ज श्वेता वर्मा कहती हैं कि उन के होस्टल में ज्यादातर मैडिकल और इंजीनियरिंग की कोचिंग करने वाली लड़कियां ही रहती हैं. उन का दावा है कि उन के होस्टल में लड़कियों की हिफाजत, मैडिकल और साफसफाई का पूरा खयाल रखा जाता है.

इस होस्टल में रह कर मैडिकल की तैयारी करने वाली सृष्टि जैन कहती है कि उस के होस्टल का इंतजाम चुस्तदुरुस्त है. शाम 8 बजे तक हर हाल में होस्टल में आ जाना होता है, नहीं तो इंचार्ज गार्जियन को खबर कर देते हैं. सरकारी होस्टल्स का हाल तो और भी ज्यादा बदतर है. पटना में ऊंची पढ़ाई के लिए महेंद्रू और सैदपुर महल्ले में 3 सरकारी होस्टल्स बने हुए हैं. उन में पटना और मगध विश्वविद्यालय और नैशनल इंस्टिट्यूट औफ टैक्नोलौजी के छात्र रहते हैं. इन होस्टल्स की जर्जर हालत की वजह से उन में रहने वालों के सिर पर हमेशा जान का खतरा बना रहता है.

कमरों का हाल यह है कि चादर का घेरा बना कर बने कमरों में छात्र रहने के लिए मजबूर हैं. महेंद्रू के होस्टल में हैंडपंप खराब होने की वजह से महीनों से गंदा पानी निकल रहा है. होस्टल की टंकी की साफसफाई नहीं हो पाती है. छात्रों ने बताया कि अकसर वे खुद चंदा कर के पैसा जमा करते हैं और टंकी की सफाई करवाते हैं. होस्टल में रहने वाले छात्र दिलीप ने बताया कि जब होस्टल की हालत में सुधार के लिए छात्र हंगामा मचाते हैं तो अफसर उन्हें बालटी और झाड़ू थमा देते हैं.

होस्टल व कोचिंग के कारोबार में मोटी कमाई और बढ़ती कारोबारी प्रतियोगिताके चलते होस्टल व कोचिंग के संचालकों ने अपने चारों ओर सुरक्षा का मजबूत घेरा बना रखा है. प्राइवेट सिक्योरिटी गार्ड्स से घिरे रहने वाले होस्टल संचालकों को स्टूडैंट्स की सुरक्षा का कोई खयाल नहीं रहता. पटना विश्वविद्यालय के एक प्रोफैसर कहते हैं कि होस्टल व कोचिंग चलाने वालों को सब से ज्यादा खतरा स्टूडैंट्स से ही होता है. 95 फीसदी होस्टल में स्टूडैंट्स के रहने व खाने का इंतजाम ठीक नहीं होता है, जबकि इस के लिए स्टूडैंट्स से मोटी रकम वसूली जाती है. भोजन के लिए 20 से 35 हजार रुपए और रहने के लिए 25 से 40 हजार रुपए सालाना वसूले जाते हैं.

कई होस्टल्स के स्टूडैंट्स ने बताया कि जब कभी होस्टल के बदतर इंतजाम के खिलाफ स्टूडैंट्स हल्ला मचाते हैं तो संचालक उन्हें पुलिस को सौंप देने की धमकी देने के साथ अपने राइफलधारी बौडीगार्ड्स का खौफ दिखा कर मामले को ठंडा कर देते हैं.

ढाबे वालों की मोटी कमाई

घरपरिवार से दूर होस्टल में रह कर कालेज और कोचिंग में पढ़ाई व बेहतर भविष्य बनाने के लिए जीतोड़ मेहनत करने वाले बच्चों को ढंग का खाना नसीब नहीं हो पाता है. ज्यादातर स्टूडैंट्स गलियों और चौकचौराहों पर झोंपडि़यों में बने ढाबों में गंदा, मिलावटी और नकली तेल में बना खाना खाने को मजबूर हैं. हैल्दी भोजन नहीं मिलने से वे अकसर बीमार पड़ जाते हैं और शरीर को कमजोर बना लेते हैं. पटना के कंकड़बाग महल्ले में रह कर आईआईटी की तैयारी कर रहा शेखपुरा जिले का श्याम शर्मा बताता है कि होस्टल का खाना बहुत ही घटिया होता है वह और उस के 4 दोस्त पास के ही ढाबे में एक टाइम खाने के 35 रुपए चुकाते हैं. होस्टल्स के आसपास झोंपड़ी में ढाबा चलाने वाले मोटी कमाई कर खुद तो मालामाल हो रहे हैं जबकि स्टूडैंट्स को शारीरिक व मानसिक तौर पर कमजोर कर रहे हैं.

होस्टल संचालकों का रोना

होस्टल का कारोबार कर लाखों रुपए कमाने वाले होस्टल संचालकों का अपना रोना है कि मकान मालिक उन से मनमाना किराया वसूलते हैं. होस्टल के लिए किराए पर मकान लेते समय मकान मालिक और होस्टल संचालक के बीच में लीगल एग्रीमैंट होता है, जिस में तमाम तरह की शर्तों के साथ हर साल 10 फीसदी किराया बढ़ाने का जिक्र होता है. जब होस्टल का धंधा अच्छा चलने लगता है तो मकान मालिकों के मुंह से लार टपकने लगती है और वे 10 फीसदी के बजाय मनमाने तरीके से किराया बढ़ा देते हैं. अचानक मकान को छोड़ा भी नहीं जा सकता. इन सारी परेशानियों की वजह यही है कि होस्टल संचालक एकजुट नहीं हैं और उन का कोई संगठन नहीं है. सब से बड़ी दिक्कत यह है कि सरकार की ओर से होस्टल के रजिस्ट्रेशन आदि का कोई नियम नहीं है.

बच्चों के मुख से

मेरा 5 साल का बेटा बहुत बातूनी है. एक दिन पढ़ाई के दौरान जब मैं उसे सूरज और चंद्रमा के बारे में बता रही थी तो उस ने पूछा, ‘‘सूरज जब उगता है तो चंद्रमा कहां चला जाता है?’’
मैं ने कहा, ‘‘पहाड़ों के पीछे छिप जाता है. सूरज की रोशनी इतनी तेज होती है कि चंद्रमा दिखाई नहीं देता.’’
उस ने कहा, ‘‘सूरज के पास कोई गया है?’’
मैं ने कहा, ‘‘नहीं.’’
‘‘और चंद्रमा के पास?’’
मैं ने कहा, ‘‘हां. चंद्रमा पर तो बहुत लोग जा चुके हैं.’’
तो वह कहने लगा, ‘‘आप भी गई हैं?’’
मैं ने कहा, ‘‘नहीं.’’
‘‘हां, जाना भी मत, नहीं तो चंदा मामा टूट जाएंगे, आप इतनी मोटी जो हो.’’ उस की बात सुन कर मैं मुसकराए बिना न रह सकी.

रीता तिवारी, भिलाई (छग.)

*

मेरा पोता आदित्य 5 साल का है. वह तेज दिमाग है और बोलने में भी तेज है. घर में कुछ मेहमान आए हुए थे. गपशप चल रही थी. इतने में वह आया. तभी एक मेहमान ने उस से दादा का नाम पूछा तो उस ने झट से सुरेंद्र प्रसाद गुप्ता कह दिया. फिर मेहमान ने उस से उस के पापा का नाम पूछा तो उस ने कहा, ‘पतिदेव अमित कुमार गुप्ता हैं.’ पतिदेव शब्द सुन कर हम लोग हंसे बगैर नहीं रह सके. असल में पतिदेव कह कर उस की मम्मी को लोग चिढ़ाया करते थे, जैसे- देखो, तुम्हारे पतिदेव आ गए हैं, पतिदेव को खाना दो, आदि.

सुरेंद्र प्रसाद गुप्ता, पटना (बिहार)

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इलैक्शन के दिनों में घर में काफी लोग आते रहते थे. कोई कहता कि भारतीय जनता पार्टी अच्छी है, कोई कहता कि कांगे्रस अच्छी है तो कोई आम आदमी पार्टी को अच्छा बताता. एक दिन ऐसी ही बात हो रही थी, पास में 3 वर्षीय अंकित खड़ा था, तपाक से बोला, ‘‘मुझे तो बर्थडे पार्टी सब से अच्छी लगती है.’’ उस की बात सुन कर सभी खूब हंसे.

निर्मल कांता गुप्ता, कुरुक्षेत्र (हरियाणा)

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मेरा 6 साल का पोता पेड़पौधों से बहुत प्यार करता है. एक दिन उस की छोटी बहन पिहू ने घर में रखे गमलों में से 3-4 पत्ते तोड़ कर फेंक दिए तो मेरे पोते अमिश ने जोर से डांट लगाते हुए कहा, ‘‘पिहू, तुम्हें पता है पेड़ों को नुकसान पहुंचाने से पर्यावरण को कितना नुकसान होता है.’’ मेरे छोटे से बच्चे ने इतनी बड़ी व गंभीर बात समझ ली लेकिन बड़े लोग ये बात कब समझेंगे?

संध्या श्रीवास्तव, झांसी (उ.प्र.)

हमारी बेडि़यां

खरगोन शहर के बिस्टान रोड स्थित नाका क्षेत्र में हनुमान जयंती के अवसर पर रात 9 बजे से 2 बजे तक अत्यधिक तेज ध्वनि में भजनों का कार्यक्रम आयोजित किया गया. इस में विडंबना देखिए कि 10 से 12 लोग भजन मंडली के और 10 से 12 लोगों का ही श्रोता समूह था, जिन्होंने रात्रि 2 बजे तक महल्ले के तमाम लोगों की नींद व शांति भंग कर दी थी. चूंकि धर्म का मामला है, इसलिए किसी में विरोध करने की हिम्मत ही नहीं. धर्म के इन कथित ठेकेदारों को किस धर्म ने, किस कानून ने इस तरह की छूट दे रखी है, यह बात समझ से परे है. लोगों की शांति भंग करने का हक जबरिया हासिल करने वाले ये धर्म के ठेकेदार किसी भी तरह से जबरिया हफ्ता वसूल करने वाले किसी गुंडे, दादा या मवाली से कम नहीं हैं.

अनिल कुमार गुप्ता, खरगोन (म.प्र.)

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मेरे ननिहाल में एक युवक ने भोजन के समय मौनव्रत का नियम बना रखा था. यह क्रम काफी दिनों से चल रहा था. एक दिन वह भोजन पर बैठा. खाना शुरू हुआ. माताजी पंखा झल रही थीं. युवक को नीबू खाने की चाह जगी. भोजन के समय मौनव्रत भंग तो कर नहीं सकता था इसलिए इशारे से वह अपनी इच्छा व्यक्त करने लगा. न तो युवक सही इशारा कर पा रहा था न मां उस के भाव को समझ पा रही थीं. मां कभी टमाटर, कभी लड्डू, कभी अन्य वस्तुएं लाती गईं. युवक एकएक कर फेंकता गया. इसी क्रम में अनावश्यक वस्तुओं का ढेर लग गया. आखिरकार, युवक गुस्से में आ कर बोल पड़ा. सोचने वाली बात है, मौनव्रत के कारण उसे  ‘क्रोध तो खूब पीना पड़ा पर पेट नहीं भरा.’

विंग कमांडर एस ठाकुर, दरभंगा (बिहार)

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कहने को तो हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं लेकिन वास्तविकता यह है कि हमारे देश में अंधविश्वास व चमत्कार की जड़ें अभी भी सदियों पुरानी हैं. इसी तरह की एक घटना हमारी रिश्तेदारी में घटी. हुआ यह कि हमारे रिश्तेदार के लड़के को ब्राह्मणों ने मंगली बता दिया जिस के लिए मंगली लड़की की खोज शुरू हुई. बहुत कठिनाई से एक मंगली लड़की मिली. शादी हुई और अब आलम यह है कि लड़की घर वालों की नाक में दम किए हुए है. उस लड़की का स्वभाव बहुत ही रूखा है. वह किसी का कहना नहीं मानती और अकसर मायके चली जाती है. मैं ने अपने रिश्तेदार से कहा था कि आप किसी जानकार की लड़की से शादी कीजिएगा, अच्छे खानदान की हो, सुसंस्कृत हो. मगर वे ‘मंगलामंगली’ के चक्कर में अनजान परिवार में लड़के की शादी कर के अब पछता रहे हैं. सारा परिवार चिंतित है कि अब आगे क्या होगा?            

कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)

यह भी खूब रही

समाचारपत्र में छपे वैवाहिक विज्ञापनों को देख कर मेरी चाचीजी ने अपनी बेटी के विवाह के बारे में बात करने को फोन नंबर मिलाया. दूसरी ओर से लड़के की मां बोल रही थीं. कुछ देर बेटे की शिक्षा आदि के बारे में जानकारी ली. एक ही शहर में होने के कारण बेटे की मां ने कहा, ‘‘आप लोग हमारे घर आ जाइए.’’ और वे पता बताने लगीं. इस पर मेरी चाचीजी बोलीं, ‘‘वहां पर हमारी बहन भी रहती है.’’
वे नाम पूछने लगीं. नाम सुन कर फोन पर वे हंसीं और बोल उठीं, ‘‘अरे, छोटी तू है, तभी तेरी आवाज जानीपहचानी लग रही थी.’’ अब तक चाचीजी भी कहने लगीं, ‘‘अरे दीदी, आप हैं. वाह, यह भी खूब रही.’’
स्वाति पटेल, कानपुर (उ.प्र.)

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हम तीनों बहनें, भैया के साथ इंडियन हिस्ट्री कांगे्रस का सैशन अटैंड करने मैसूर जा रहे थे. भैया, जोकि बहुत मजाकिया हैं, जब भी कोई विशेष चीज नजर आती, हम सब से कहते, ‘देखोदेखो.’
सफर मजे से कट रहा था. तभी भैया अचानक जोर से चिल्लाए, ‘‘देखोदेखो ट्रेन की पूंछ.’’
हम सब खिड़की की तरफ लपके. हमें देख कर भैया हंसने लगे. तभी हम ने देखा कि हमारे पूरे कंपार्टमैंट के यात्री खिड़कियों से बाहर झांक रहे थे. उन्हें देख हम हंसतेहंसते लोटपोट हो गए. सभी यात्रियों के चेहरे देखने लायक थे.
हुआ यों कि किसी मोड़ पर ट्रेन के पीछे का हिस्सा दिख रहा था, उसे ही भैया ने पूंछ कहा था.

नेहा प्रधान, कोटा (राज.)

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मेरे पति डाक्टर हैं. एक दिन हम लोग बड़ी दीदी को देखने उन के घर गए. दीदी इन से बोलीं कि उन की स्टिक एक जगह से टूट गई है, उसे ठीक करा दें. इन्होंने देखा और बोले कि यह तो अभी ठीक हो जाएगी. बस, आप जरा नौकर को भेज कर एरलडाइट की ट्यूब मंगा दें. मैं अभी जोड़ दूंगा. उन्होंने नौकर हरिराम को बुला कर कहा कि दौड़ कर जाओ और यह ट्यूब ले आओ. नाम थोड़ा कठिन था तो इन्होंने एक परचे पर लिख कर दे दिया. एक घंटा तक हरीराम नहीं आया. देर हो जाने के कारण हम निकलने को ही थे कि देखा, हरिराम सिर झुकाए खड़ा है. दीदी ने डांटा कि इतनी देर कहां लगा दी और ट्यूब कहां है?
हरिराम रोंआसा हो कर बोला, ‘‘सारी दवा की दुकानें देख डालीं, यह कहीं न मिली.
जैसे ही उस ने ‘दवा की दुकान’ कहा, हम सारी बात समझ गए. फिर तो हंसी का जो दौर शुरू हुआ कि देर तक सब हंसते रहे. उसे जाना था हार्डवेयर की दुकान पर, पहुंच गया कैमिस्ट के पास.

सुश्रुता श्रीवास्तव, भोपाल (म.प्र.)

महायोग : पांचवीं किस्त

अब तक की कथा :

फोन पर बात कर के यशेंदु संतुष्ट नहीं हो सके. आखिर उन की बेटी के भविष्य का प्रश्न उन के समक्ष अधर में लटक रहा था. मन में संदेह के बीज पड़ चुके थे. बेटी का चिड़चिड़ापन उन्हें प्रताड़ना दे रहा था. उन्होंने लंदन जा कर अपने संदेह का निराकरण करना चाहा. मानसिक तनाव व द्वंद्व में घिरे यशेंदु कार पार्क कर के सड़क पार करते समय ट्रक की चपेट में आ गए.

अब आगे…

पूजापाठ, ग्रहनक्षत्र, शुभअशुभ सब पंडितों से पूछ कर ही तो घर के सारे काम होते थे, फिर यशेंदु के साथ ऐसा अनिष्ट क्यों हुआ? कामिनी अब मांजी से इस सवाल का क्या जवाब मांगती. पंडितों ने तो उन की आंखों पर ऐसी पट़्टी बांध दी थी जिस के पार वह कुछ नहीं देख सकती थीं. लेकिन कामिनी  उस पार की तबाही साफ देख रही थी. ट्रक ड्राइवर के ब्रेक लगातेलगाते यशेंदु ट्रक से टकरा कर लगभग 4-5 फुट दूर जा गिरे और बेहोश हो गए.

यशेंदु की ट्रक से दुर्घटना की खबर डाक्टर द्वारा घरवालों को मिली तो वे घबरा गए. वे शीघ्रातिशीघ्र अस्पताल पहुंच गए. वहां कई लोग मौजूद थे.

‘‘कैसे हुआ यह सब?’’ सेठ ने अपने ड्राइवर से पूछा.

‘‘साब, पता नहीं चला कहां से ये साहब अचानक ही ट्रक के सामने आ गए और मैं ब्रेक लगा पाऊं इतनी देर में तो ये ट्रक से टकरा कर लगभग 4-5 फुट ऊपर उछल कर गिर कर बेहोश हो गए,’’ ड्राइवर को बहुत अफसोस हो रहा था. लगभग 30 वर्ष से वह यह काम कर रहा था. अभी तक इस प्रकार की कोई दुर्घटना उस से नहीं हुई थी.

दिया का रोरो कर बुरा हाल था. दादी, कामिनी, नौकर सब इस दुर्घटना से जड़ से हो गए थे. दिया जानती थी कि पापा उसे अपने साथ लंदन ले जाने के लिए यह सब भागदौड़ कर रहे थे इसलिए उस का मन और भी व्यथित हो उठा. यह प्रसाद मिला पापा को दादी की इतनी पूजा का? उस का मन हाहाकार करने लगा. वह बहुत अभागी है. अपने पिता की दुर्घटना के लिए वही जिम्मेदार है. वैसे कहीं पर कुछ भी हो सकता है परंतु दिया को इसलिए यह बात बारबार कचोट रही थी क्योंकि यह सबकुछ वीजा औफिस के बाहर ही  हुआ था. उस के अनुसार, पापा को यह सब उस की चिंता के लिए ही भोगना पड़ रहा था.

कामिनी ने आंसूभरी आंखों से औपरेशन के फौरमैलिटी पेपर्स पर हस्ताक्षर कर दिए. उस के मस्तिष्क में मानो हथौड़ी की सी मार भी पड़ने लगी. अगर लड़के के घर में सगाई या विवाह के बाद बड़ी दुर्घटना हो जाती है तो लड़की के मुंह पर कालिख पोती जाती है. इस के पैर ऐसे हैं, यह घर के लिए शुभ नहीं है आदि. परंतु जहां लड़की के घर में इस प्रकार की कोई दुर्घटना हो जाए तो क्या लड़के को भी अपशकुनी माना जाता है?

लगभग 3 घंटे के औपरेशन ने घरभर के सदस्यों को हिला कर रख दिया था. ड्राइवर और उस का मालिक दोनों ही सहृदय, संवेदनशील थे, होंठ सिए हाथ जोड़ कर, सिर झुकाए चुपचाप सबकुछ सुनते रहे. 5-7 मिनट बाद कामिनी ने सास को औपरेशन थिएटर के बाहर पड़ी कुरसी पर बैठा दिया और ड्राइवर व उस के मालिक के सामने हाथ जोड़ कर उन्हें वहां से जाने का इशारा किया.

कामिनी व दिया दोनों के मन में बहुत स्पष्ट था कि यह दुर्घटना क्यों हुई होगी? वे कई दिनों से यश को बहुत अधिक असहज देख रही थीं. दिया तो अपने में ही सिमट कर रह गई थी परंतु कामिनी ने पति को समझाने का भरपूर प्रयास किया था. यश थे कि बेटी को देखदेख कर भीतर ही भीतर कुढ़ रहे थे. ऊपर से उन की मां ने घर में पंडितजी को बैठा कर पूजापाठ का नाटक कर रखा था. उन्हें कभी भी पूजाअर्चना में कोई परेशानी नहीं रही परंतु यह कुछ भी हो रहा था, वह उन की समझ से बाहर था और उन की सोच उन्हें यह समझने के लिए बाध्य कर रही थी कि घंटी बजाने से काम नहीं चलेगा, उन्हें कर्मठ होना होगा. एक ओर उन के मन में सवाल पनप रहा था कि मां ने तो दिया की जन्मपत्री कई बार मिलवाई और 90 प्रतिशत गुण मिलने के बावजूद यह सब घटित हो रहा था. समय दीप व स्वदीप भी शहर में नहीं थे.

औपरेशन थिएटर के बाहर कुरसियों पर तीनों शांत बैठे हुए थे. तीनों के मस्तिष्क में एक बात अलगअलग प्रकार से उमड़घुमड़ रही थी. अचानक न जाने दिया को क्या हुआ, ‘‘दादी, आप हर चीज पंडितजी से ही पूछ कर करती हैं न? उन्होंने आप को यह नहीं बताया कि पापा पर ऐसा कोई ग्रह भारी है?’’

दादी के तो आंसू ही नहीं थम रहे थे. वे क्या उत्तर देतीं? इस उम्र में उन्हें बेटे का यह दुख देखना पड़ रहा था. इस पंडित के पिता ने जिंदगीभर उन के घर के लिए पूजाअर्चना की थी. दिया की दादी व दादाजी तो प्रारंभ से ही पंडितों के मस्तिष्क से ही चलते आए हैं. उन के द्वारा बताए हुए ग्रहों की शांति करवाना, जन्मपत्री मिलवाना व प्रतिदिन उन के द्वारा ही पूजाअर्चना करवाना. कामिनी के पिता ने अपने किसी भी बच्चे की जन्मपत्री नहीं मिलवाई थी फिर भी सब सुखी थे. उन्हें केवल कामिनी की ही जन्मपत्री मिलानी पड़ी थी और कामिनी ही जिंदगीभर इस घर के वातावरण में असहज बनी रही थी. दिया के साथ ये सबघटित तो हो ही रहा है साथ ही यश भी चपेट मेें आ गए. वह पंडित अभी भी घर पर बैठा घंटियां बजा कर भगवान को मनाने में लगा होगा.

दादी मन ही मन सोच रही थीं कि उन्हें अब कौन से जाप करवाने होंगे. यह एक लंबा दर्दीला घटनाक्रम बन गया था मानो. एक दुर्घटना का दर्द समाप्त भी नहीं हो पाता था कि दूसरी कोई दुर्घटना आ उपस्थित होती. कामिनी के लिए तो इस घर के प्रवेश का प्रथम दिवस ही दुर्घटना था बल्कि यह कहा जाए कि यश की सगाई का दिन ही दुर्घटना का दिन था. जिस पिता से वह यह अपेक्षा करती रही थी कि वे उसे किसी हताश स्थिति में डाल ही नहीं सकते उसी पिता ने उसे कहां से उठा कर कहां

पहुंचा दिया था.

बचपन में पिता रटाते थे-

वैल्थ इज लौस्ट, नथिंग इज लौस्ट,

हैल्थ इज लौस्ट, समथिंग इज लौस्ट,

इफ कैरेक्टर इज लौस्ट, एवरीथिंग इज लौस्ट.

ये पंक्तियां रटतेरटते कामिनी युवा हो चली थी. मध्यवर्गीय वातावरण में पलीबढ़ी कामिनी की विवाह के बाद बुद्धि में वृद्धि हुई और उस ने बड़ी शिद्दत के साथ यह महसूस किया था कि वैल्थ के बिना कोई पूछ नहीं है और जैसेजैसे वह इस वैल्दी घर का पुराना हिस्सा होती जा रही थी वैसेवैसे उस की यह भावना दृढ़ होती जा रही थी. कितना मानसम्मान था उस की ससुराल का इतने बड़े शहर में कि वह स्वयं को बौना महसूस करती थी. इतनी कि उस के मुख के बोल भी ‘जी हां’ और ‘जी नहीं’ तक सिमट कर रह गए थे. फिर वह इस सब की आदी हो गई थी और प्रात:कालीन मंत्रोच्चार उस के मुख से निकल कर केवल उस की आत्मा के ही साक्षी बन कर रह गए थे.

घर का संपूर्ण वातावरण सुबहसवेरे पंडितजी की घंटियों की मधुर ध्वनि से नहा उठता था. धीरेधीरे घंटियों के साथ हर घड़ी घर में पंडितों की नाटकीय आवाजें व फुसफुसाहटें सुनाई देने लगीं तब वह और अधिक सहज होती गई. उस ने पंडितों को मंत्रोच्चार करते हुए अकसर हंसीठिठोली करते देखा था. जैसे ही वहां घर का कोई सदस्य पहुंचता वे जोरजोर से मंत्रोच्चार करने लगते. अच्छे पल भी आए थे कामिनी के जीवन में जब उस ने 3 शिशुओं को जन्म दिया था. वास्तव में कामिनी को 2 बेटों के जन्म के बाद किसी तीसरे की कोई इच्छा ही नहीं थी परंतु घर में 1 बेटी की चाह ने पूरे वातावरण में मानो नाराजगी भर रखी थी. बेटी की चाह भी किस लिए क्योंकि 2-3 पीढि़यों से परिवार में कोई बेटी नहीं थी और इस परिवार के बुजुर्गों की कन्यादान करने में रुचि थी. पंडितजी ने उस के सासससुर के मस्तिष्क में कन्यादान की महत्ता इस कदर भर दी थी कि कन्यादान न किया तो उन का जीवन व्यर्थ था. और पंडितजी का गणित तो बिलकुल स्पष्ट था ही कि यशेंदुजी के हाथ की लकीरों में कन्या का पिता बनना स्पष्ट रूप से प्रदर्शित हो रहा था. सो, कामिनी के तीसरा शिशु कन्या हुई.

न जाने क्यों कामिनी इस बात से भयभीत सी रहती थी कि इतनी लाड़प्यार से पली उस की बिटिया एक दिन दूसरे के घर चली जाएगी उस का मनउपवन खाली कर के. वह भी तो आई थी, ठीक था, परंतु इतनी शीघ्रता से यह सब होगा और इस प्रकार होगा, इस के लिए उस का मन तैयार न था. हुआ वही जो घर के बुजुर्ग ने चाहा और परिवार के सब सदस्य यह होना देखते रहे.

अस्पताल में आईसीयू के बाहर सोफे पर बैठेबैठे न जाने मांजी की वृद्ध काया कब सोफे के हत्थे पर लटक सी गई थी. झुर्री भरे मुख पर आंसुओं की गहरी लकीरें किसी झील में कंकर फेंकने पर लहरों की भांति टेढ़ीमेढ़ी हो कर चिपक सी गई थीं. कामिनी ने सास को बड़ी करुणापूर्ण दृष्टि से देखा और उस के नेत्र फिर से भर आए. मां बुरी बिलकुल न थीं, उन्होंने अपने हिसाब से उसे प्यार भी बहुत दिया था परंतु उन की सोच थी जिस ने सारे वातावरण पर अपनी मुहर चिपका रखी थी. उन का अंधविश्वास और सर्वोपरि समझने की भावना ने पूरे वातावरण पर अजीब से पहरे बिठा दिए थे.

कितनी बार सोचा था कामिनी ने, समय के अनुसार प्रत्येक में बदलाव आते हैं परंतु उन की सोच व तथाकथित परंपराओं में बदलाव क्यों नहीं आ पा रहे थे? यदि पत्थर पर भी बारबार कोई चीज घिसी जाए तो वहां भी गड्ढा हो जाता है परंतु मां… थोड़ी देर में डाक्टर आए और उन के पास ही सोफे पर बैठ गए, ‘‘मांजी, रोने से तो कुछ हो नहीं सकता? आप तो कितनी समझदार हैं.

‘‘नर्स,’’ डाक्टर ने समीप से गुजरती हुई नर्स को आवाज दी. नर्स रुक गई.

‘‘मांजी को आईसीयू के बाहर से जरा यशेंदुजी को दिखा दो, जिन का आज औपरेशन हुआ है.’’

‘‘यस, डाक्टर,’’ नर्स उन्हें सहारा दे कर आईसीयू की ओर हाथ पकड़ कर धीरेधीरे चल पड़ी.

डाक्टर खड़े हो गए और कामिनी से बोले, ‘‘एक्चुअली मिसेज कामिनी, आय वांटेड टू डिसकस सम इंपौर्टेंट इश्यू विद यू.’’

– क्रमश:

बौनों का रहस्यमयी संसार : यांग्सी

हम लोग 4 घंटे का थकाऊ सफर पूरा कर के चीन के सिचुआन प्रांत के दूरदराज के गांव यांग्सी आ पहुंचे थे. चौंकाने वाली बात यह थी कि हमारा स्वागत बच्चों ने किया. हमारा मन भावुक हो उठा. बच्चों के चेहरों पर फैली मुसकराहट बता रही थी कि वे हम से मिल कर खुश थे.

‘‘क्या कोई बड़ा बुजुर्ग हम से मिलने नहीं आएगा?’’ मैं ने अपने गाइड शिजुआओ ली से पूछा. वह मेरी बात सुन कर हंस दिया. एक क्षण बच्चों की ओर देख कर बोला, ‘‘महाशय, यहां आप की और मेरी तरह 5 साढ़े 5 फुट का कोई नहीं है, यही वे लोग हैं जिन्हें आप देखने आए हैं.’’

मैं उस की बात सुन कर एक क्षण को स्तब्ध रह गया. कभी उन बुजुर्ग बच्चों को देखता था और कभी ली को. तभी ली ने एक बच्चे को गोद में उठाया और मुझ से ‘हैलो’ करने को कहा. उस बच्चे ने चीनी भाषा में मेरा अभिवादन किया. ये लोग चीनी भाषा के अलावा कोई दूसरी भाषा नहीं जानते. उस बच्चे का नाम मित्सु था जिस की उम्र 37 वर्ष थी.

मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि मित्सु की उम्र 37 वर्ष थी. तब ली ने मुझे एक बार फिर चौंकाया, ‘‘वे जो 2 बच्चे आप खेलते देख रहे हैं वे जुड़वां हैं और 8-8 साल के हैं. मित्सु उन के पिता हैं.’’ मुझे इतनी हैरानी हुई कि मैं कुछ बोल नहीं पाया. मेरा मुंह खुला का खुला रह गया.

मैं ने ली से उन के बौनेपन के बारे में विस्तार से बताने को कहा. ली ने कहा, ‘‘बताया जाता है कि 1920 के आसपास 5 से 7 वर्ष की आयु के बच्चे किसी रहस्यमय बीमारी की चपेट में आ गए. उस बीमारी का असर सीधे हड्डियों पर हो रहा था जिस से बच्चों का विकास रुक गया. हां, मानसिक और बौद्धिक विकास पर उस बीमारी का कोई प्रभाव देखने को नहीं मिला.’’

वैज्ञानिकों ने उस क्षेत्र के पानी, मिट्टी और अनाज का गहन अध्ययन किया लेकिन हाथ कुछ नहीं लगा. कुछ समय पूर्व एक जरमन लेखक हार्टविग हौसडौर्फ इन लोगों पर शोध करने यहां आया था. उस ने अपने शोधपत्र में लिखा था, ‘‘सिचुआन प्रांत में 120 बौने पाए गए, जिन में सब से ऊंचे बौने की ऊंचाई 3 फुट 10 इंच थी. यह घटना नवंबर 1995 की है. सब से छोटे कद के बौने की ऊंचाई 2 फुट 1 इंच थी. यह आश्चर्यजनक है.’’

चीन के मानवजाति विज्ञानी यह रहस्य आज तक नहीं जान पाए हैं कि शारीरिक विकास रुकने का क्या कारण था. बहरहाल, एक शोध के अनुसार, मिट्टी में पारे के तत्त्व पाए गए थे जिस के कारण हड्डियों का विकास रुकने लगा. परिणामस्वरूप शरीर का संपूर्ण विकास ही रुक गया. बौनों के इस गांव का नाम है बयान कारा उला, जो एक पर्वतशृंखला के बीच बसा हुआ है. यह वह जगह है जहां क्ंवगहाई और सिचुआन प्रांतों की सीमाएं मिलती हैं.

जिस स्थान पर बयान कारा उला स्थित है उसी के पास एक नदी बहती है-डिले, जिसे इस गांव की जीवनरेखा कहा जा सकता है. चीन के लोग इन यांग्सी बौनों को ‘मशरूम पीपल’ भी कहते हैं. इन लोगों ने अपने मनोरंजन के लिए खास व्यवस्था कर रखी है. इन के लिए एक ‘ड्वार्फ थीम पार्क’ का निर्माण भी किया गया है जहां ये लोग नाचतेगाते हैं, नाटकों का मंचन करते हैं और खास बैठकें करते हैं.

विश्वभर में ड्वार्फिज्म (बौनेपन) पर होने वाले शोधकार्यों से पता चलता है कि बौने सिर्फ चीन या जापान में ही नहीं, विश्व के अन्य देशों में भी पाए जाते हैं. ब्रिटेन में तो बौनों की पूरी फुटबौल टीम है. भारत में भी बौनों की कमी नहीं है. सर्कस एक ऐसा व्यवसाय है जिस में बौनों की अनिवार्यता होती है. दुनिया में कहीं भी, कोई भी सर्कस ऐसा नहीं जिस में बौने कलाकार नहीं हैं. वास्तव में बच्चों के मनोरंजन के लिए बौने कलाकारों का होना अनिवार्यता होती है. यह बात अलग है कि अब सर्कस जैसा महंगा व्यवसाय लुप्तप्राय होने के कगार पर है. यों भी, सर्कस में इस्तेमाल किए जाने वाले जानवरों पर प्रतिबंध के चलते सर्कस व्यवसाय डूब रहा है.

प्रश्न उठता है कि सर्कस के बंद हो जाने पर अन्य (सामान्य) लोगों को तो कहीं न कहीं जीवनयापन योग्य कामधंधा मिल भी जाएगा लेकिन बौने लोगों (जो अमूमन जोकर का काम करते हैं) को कौन काम पर रखेगा? इसलिए सरकार को इन लोगों के सहायतार्थ सोचना चाहिए. सिचुआन प्रांत में बौनों के 18 गांव हैं और 3 प्रजातियां हैं. ये सभी लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं और महामहिम जांग्चेन रिन्पोचे के प्रति समर्पित हैं.

बौनों का रहस्य चाहे जो भी हो, इतना तय है कि सामान्य व्यक्ति और उन के बीच किसी न किसी ऐसे तत्त्व की कमी अवश्य होती है जो उन की शारीरिक वृद्धि को एक स्थान पर ला कर रोक देती है. एक उल्लिखित जानकारी के अनुसार विश्वभर के वैज्ञानिक इस रहस्य से परदा नहीं उठा पाए हैं कि आखिर बौनापन होता क्यों है. बौनापन वंशानुगत होता हो, ऐसा भी आवश्यक नहीं है.

भोपाल की जीनत बी

113 वर्ष की जीनत बी शायद विश्व की सर्वाधिक आयु की बौनी महिला हैं (कद पौने 3 फुट). उन के विवाह न करने के कारण उन की कोई संतान नहीं है. भारत में ही भोपाल की रहने वाली जीनत बी को अपना बचपन और वह समय अच्छी तरह याद है जब ब्रिटिशर्स भारत पर राज करते थे. जीनत बी ने बताया, ‘‘मेरी उम्र इतनी है कि मैं ने भोपाल शहर को अपनी आंखों के सामने बसते देखा है. एक समय यहां सिर्फ जंगल ही जंगल हुआ करता था. मुझे आज भी याद है वह दिन जब अंगरेजों ने शहर में पहली बार डबलरोटी (ब्रैड) का प्रचलन शुरू किया था.’’

जीनत बी की देखभाल करने वाले सज्जन अबरार मुहम्मद खान दुखी मन से बताते हैं, ‘‘शर्म की बात है कि हमारे देश की सरकार जीनत की तरह के अन्य बौनों की तरफ कोई तवज्जुह नहीं देती, कोई सहूलियत नहीं देती बल्कि उन्हें प्रदर्शनी की वस्तुमात्र बना छोड़ा है.’’ जीनत बी, अबरार खान के घर में पिछले 30 सालों से रह रही हैं. अबरार खान उन्हें मां का दरजा और इज्जत देते हैं और उन की हर जरूरत का ध्यान रखते हैं. जीनत बी बताती हैं कि उन की मनपसंद चीज पान है. वे खाने के बिना रह सकती हैं, पान के बिना नहीं.

दर्द रिश्तों का

हर रिश्ते से बंधी थी
पर कोई भी रिश्ता
मेरा न था
रिश्तों में फासले तो थे पर
वे इतने खौफनाक भी हो सकते हैं
कभी सोचा न था

हमसफर बनाया था जिसे, हमसफर तो था
पर साथी न बन सका
रहते थे इक मकां में पत्थर की तरह
क्योंकि वो मकां था, घर न बन सका
घर न होने का दर्द
ऐसा भी होता है
कभी सोचा न था

गीली रेत पर लिखा था
अपना नाम उस के नाम के साथ
हवा का इक झोंका आया
रेत के साथ नाम भी उड़ा ले गया
नाम का वजूद मिटने का दर्द
ऐसा भी होता है
कभी सोचा न था

मुट्ठी में बंद रेत की तरह
कब फिसल गया वो
मालूम न था
रीति मुट्ठी लिए खड़े रहने का दर्द
दर्दनाक इतना भी होता है
कभी सोचा न था

होता है जो रिश्ता दिल के करीब
वही दे जाता है इतना दर्द
कहते हैं दिए जला कर रोशनी करो
पर दिए के नीचे के अंधेरे का दर्द
कितना होता है दिए को
ये सोचा न था.

बहुत प्यारा है जीवन

विकास और आंचल एकदूसरे से प्रेम करते थे. दोनों के घर वालों ने इस प्रेम को नाम देने का निश्चय किया और शादी के लिए मान गए. सगाई के कुछ दिन बाद आंचल के पिता ने लड़के को नशे का आदी पाया. उन की इस घोषणा से कोहराम मचा. आंचल ने भी तूफान खड़ा किया. खैर, यह बात सही निकली तो उस के पीछे दस तरह की और आशंकाएं सिर उठाने लगीं. सब से आखिर में किया जाने वाला काम पहले किया गया यानी सगाई तोड़ दी गई. विकास के लिए यह आन, मान और प्यार का मसला था. वह नशा मुक्ति केंद्र भी जा रहा था.

प्यार को खोने तथा सगाई तोड़ने के आघात को वह सह न सका. उस ने जहर खा लिया. जब उसे लगने लगा कि वह मर ही जाएगा तो वह घबरा गया और डाक्टर से कहने लगा कि उस के गम में उस के मम्मीपापा मर जाएंगे. वह मांबाप का इकलौता लड़का है. बड़ी कोशिशों के बाद पैदा हुआ है. बहरहाल, उसे बचाया न जा सका. अब कई वर्ष बीत गए हैं. उस के मातापिता जिंदा लाश बन कर जी रहे हैं. आज 48 साल की हो चुकी आंचल भी कहीं शादी करने को तैयार नहीं. वह विकास की मृत्यु का कारण अपने को ही मानती है. वह भावावेश को आत्महत्या का कारण मानती है.

कइयों का जीवन प्रभावित

इस प्रकार एक व्यक्ति का जीवन सिर्फ एक व्यक्ति का जीवन नहीं होता, उस से कई और जीवन भी प्रभावित होते हैं. मरने वाला मर जाता है पर उस के परिवार के सदस्य जीवित तो रहते हैं लेकिन उन की स्थिति किसी लाश से कम नहीं होती. वे हरपल घुटते हैं. उन का मनोबल टूट जाता है. वे अपने को लज्जित महसूस करते हैं व स्वयं को इस की मौत का जिम्मेदार मान कर खुद को अपराधभाव से ग्रसित कर लेते हैं.

छोटीछोटी बातें बड़ी अहम

दिल्ली के पालम गांव में रहने वाली शिखा की दोस्ती पड़ोस में रहने वाली लड़की रीमा से थी. एक दिन अचानक जब शिखा रीमा से मिलने उस के घर गई तो उसे पता चला कि रीमा ने आग लगा ली है. वह दूसरे ही दिन मर गई. छोटी सी बात पर उस ने आग लगा ली. फ्रिज खराब हो गया था, मां उसे ठीक कराने दे आई. 8 दिन तक मैकेनिक नहीं आया. बंद दुकान और भरी गरमी. रीमा ने मां को तुरंत नया फ्रिज खरीदने को कहा. मां ने कहा कि घर में पहले ही बहुत सामान रखा है, नए फ्रिज का क्या होगा. उन्होंने पिता की मृत्यु के बाद सिर्फ किराए की आय से चल रहे जीवन का हवाला भी दिया पर रीमा बिफर गई. वह बोली, ‘‘फ्रिज मुझ से बढ़ कर है? कम आय है? अब कम न पडे़गी…’’

मां ने इसे सामान्य समझा. इसी बीच रीमा ने अपनेआप को जलाना शुरू कर दिया. मां ने उसे बचाने की बहुत कोशिश की पर नाकाम रहीं. आज वे अपनी बेटी की मौत के लिए खुद को जिम्मेदार मान कर पछतावा लिए जी रही हैं. तनाव व अवसाद के कारण वे कई बीमारियों की शिकार हो गई हैं. उन्हें बेटी की मृत्यु बेहद कचोटती है. वे अफसोस से कहती हैं कि बच्चा जरूरत से ज्यादा भावुक हो, क्रोधी हो, आक्रामक हो तो उसे मनोचिकित्सक के पास जरूर ले जाएं. मेरी बेटी इतनी अच्छी इंसान थी. दौड़दौड़ कर सब की मदद करती थी पर गुस्से में चीजें तोड़ डालती थी. हम ऊपरी हवा के अंधविश्वास में पड़ कर उसे मनोचिकित्सक के पास नहीं ले गए. आज हम उसे खो कर अपनी गलती की सजा भुगत रहे हैं.

प्रौपर पेरैंटिंग

मनोचिकित्सक डा. सिद्धार्थ चेलानी कहते हैं कि अब पेरैंटिंग इतनी आसान नहीं रही. कम बच्चे बढ़ता तनाव. ऐसे में सुखसुविधा, अच्छे स्कूल में पढ़ाईलिखाई, लैपटौप, मोबाइल दिला कर मांबाप सोचते हैं कि उन्होंने बच्चे के लिए बहुत कर लिया है. लेकिन बच्चों को सुखसुविधाओं के साथसाथ मातापिता का सहयोग, समय व नियमित संवाद भी जरूरी है. मातापिता उन की समस्याओं को अनसुना न करें. उन के आसपास की दुनिया को भी जानेंसमझें. कुछ भी असामान्य लगे तो मनोचिकित्सक से अवश्य संपर्क करें.

हर उम्र के लोग शामिल हैं

किसी समय में युवा या स्त्रियां आत्महत्या करने में आगे थे पर आज हर उम्र व समूह का व्यक्ति ऐसा करता दिखाई देता है. बढ़ता भौतिकवाद और बढ़ती अपेक्षाएं इस की जड़ हैं. ये अपेक्षाएं मांबाप की बच्चे से हों या पत्नी की पति  से या सास से बहू की या बहू से सास की या फिर बौस की अधीनस्थ कर्मचारी से. ऐसी स्थिति तनाव तथा दबाव बनाती है. व्यक्ति उस तनाव के वशीभूत हो जाता है और आत्महत्या जैसा कदम उठा लेता है. मनोचिकित्सक न्यूरोकैमिकल्स की कमी को भी कारण मानते हैं. हार्मोनल असंतुलन की स्थिति में डाक्टर से मिलें.

किसी को नहीं मिलता सबक

अकसर आत्महत्या के लिए कदम उठाने वालों के मन में लोगों, जिन से वे पीडि़त हैं, को सबक सिखाने की मानसिकता रहती है. महविश नामक महिला के भाइयों को बहन का छोटी जाति और पड़ोसी युवक से ब्याह करना नागवार गुजरा. उन्होंने बहन की छोटीछोटी बच्चियों के पैदा हो जाने पर भी उस के पति की हत्या कर दी. पुलिस ने कार्यवाही नहीं की. प्रशासन एवं उच्चाधिकारियों के कान पर जूं तक न रेंगी. उस के जेठ ने धरना दिया तब भी कुछ नहीं हुआ तो उन्होंने अपने पर पैट्रोल डाल कर आग लगा ली. अब सिर्फ सासबहू रह गई हैं. इन्हें ही सब भुगतना पड़ रहा है. प्रशासन या पुलिस को क्या फर्क पड़ा.

सुधारने की अपेक्षा

कुमारी बीना कहती हैं कि उन की बहन ने आत्महत्या की. जीजाजी परेशान करते थे. बातोंबातों में कहती थी, मैं मर जाऊंगी तब सुधरेंगे, 3 बच्चों को पालना आसान नहीं, हम ने बात सुन कर उन्हें समझाया. खैर, जीजाजी आज भी वैसे के वैसे हैं. बच्चों की जिंदगी बिगड़ रही है. उन्होंने दूसरी शादी कर ली. लड़की वालों को सच पता चला पर उन्होंने हमारी ही बहन की कमी मानी. दूसरों का ध्यान दिलाने व कार्यवाही कराने के लिए उठाए जाने वाले ये कदम कभी कारगर नहीं हो सकते हैं. हमारा जीवन के दायरे से जुड़े लोगों के बारे में सोचना बहुत जरूरी है. जीवित रहे तो कार्यवाही की व कराई जा सकती है. मरने पर तो जो हो रहा है वह भी नहीं हो पाता.

अब मरने से डरती हूं

चेतना ने जहर खा कर जान देने की कोशिश की. समय पर मिले इलाज ने जान बचा ली पर उसे अब भी कभीकभी बेहोशी के दौरे पड़ते हैं. वह कहती है, ‘‘जहर खा तो लिया पर जैसे पूरा शरीर हिल गया, उबल गया…जीने की इच्छा जाग उठी. मैं ने डाक्टर के पैर पकड़ लिए, ‘डाक्टर साहब, जिंदगीभर आप के यहां काम कर के आप का कर्ज उतार दूंगी. आप बस, मुझे बचा लीजिए.’ ‘‘अब मुझे मरने का प्रयास बचकाना लगता है. मैं आत्मनिर्भर हुई. मैं ने बच्चों से अपनी गलती की माफी मांगी और उन से वचन लिया कि वे मेरी जैसी मूर्खता जीवन में कभी भी, किसी भी हालत में नहीं करेंगे. बल्कि अब मुझे डर लगता है कि भीड़ या ऐसी किसी जगह मुझे दौरे न आ जाएं. मैं किसी बीमारी से मर न जाऊं.’’

खूब हिफाजत करता हूं

संभव कोचिंग में सफल न होने के कारण रेल से कटने चला. उसे लगता था कि उस ने मांबाप का पैसा खूब बरबाद किया, फिर भी उन की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरा. वह बताता है, ‘‘मैं रेल के आगे कूदा तो टांग कट गई और मैं जिंदा बच गया. पुलिस केस बना, कार्यवाही हुई. अब जिंदगी की तो छोड़ो, उस लकड़ी की टांग तक की हिफाजत करता हूं. बदनामी होने से शादी भी नहीं हुई. पहले से अधिक दुखी जीवन है, फिर भी मैं मजे में हूं. कोल्डड्रिंक व स्नैक्स की छोटी सी दुकान है. मैं बूढ़े मांबाप की उतनी देखरेख तथा दौड़भाग नहीं कर पाता, इस का अफसोस है. आज बीवीबच्चे होते तो जीवन और भी खूबसूरत होता. अब उस की कोशिश कर रहा हूं.’’

गलतियों से सबक लें

लता ने युवावस्था में प्यार किया और गर्भवती हो गई. प्रेमी ने साथ छोड़ दिया तो मरने की कोशिश की. मां को भनक लगी तो उन्होंने समझाया और उस का गर्भपात कराया. गलती से सबक ले कर लता ने अपना जीवन व्यवस्थित बनाया. वह कहती है, ‘‘शादी कर के 2 बच्चों के साथ खुश हूं. मैं ने दिल्ली विश्वविद्यालय से 3 महीने का काउंसलिंग का कोर्स किया. अब गरीब व भटके बच्चों की काउंसलिंग करती हूं. जीवन से बड़ी कोई चीज नहीं है.’’

जीवन है तो संघर्ष है

अकसर लोग संघर्ष व तनाव से घबरा कर उन्हें जड़ से खत्म करने की सोचते हैं. आत्महत्या कभी भी किसी भी समस्या का हल नहीं. जीवन की खूबसूरती ही दिनबदिन के संघर्ष से है. रात  न आए तो दिन का आना खुशगवार नहीं लगता. भूख और प्यास के बाद खानेपीने का आनंद ही कुछ और है.

फिलौसफी ही बदल गई

आज 16 हजार करोड़ रुपए के मालिक बन चुके एक व्यवसायी कहते हैं, ‘‘एक समय था जब मैं तौलिया लपेट कर पार्कों में अपने पहने हुए कपड़े धो कर सुखाता था. उस के 4 वर्ष बाद संघर्ष कम हुआ तो भी कूलरपंखा तक नहीं खरीद पाया. बिस्तर गीला कर के रात बिताता था. आज मैं जो कुछ हूं, उसी अभाव की बदौलत हूं. 2 बार आत्महत्या करने की सोची. अब सोचता हूं कि यदि आत्महत्या कर लेता तो जीवन के इस सुंदर रूप को न देख पाता.’’

जिजीविषा सब से खूबसूरत चीज

आत्महत्या की कोशिश करने वालों को समझाने वाले एक प्रोफैशनल मोटिवेटर कहते हैं, ‘‘मुझे बड़ेबड़े घर के लोग बुलाते हैं ताकि बच्चों को डिप्रैशन यानी अवसाद न हो. मैं उन्हें समझाता हूं कि जीव, जानवर इतने दुख के बावजूद नहीं मरते यानी आत्महत्या नहीं करते. क्या हम उन से भी गएगुजरे हैं? धरती पर एक इंच भी कच्ची जमीन हो तो वहां घास निकल आती है. यह है जीवन. जिजीविषा यानी जीने की इच्छा को सर्वोपरि महत्त्व दिया  जाए. शास्त्रों और आधुनिक ग्रंथों में भी आत्महत्या को निकृष्टतम कार्य माना गया है.’’

विवेकसम्मत जीवन

विवेकसम्मत जीवन गुजारना जरूरी है. केयरिंग, शेयरिंग, कृतज्ञता को महत्त्व दें. कोई दुख में हो तो उसे संबल दें. अवसाद से भरे लोगों का सहारा बन कर मनोचिकित्सक तक पहुंचाने में देरी न करें. क्षणभंगुर जीवन को लोग आत्महत्या द्वारा और विकृत बनाते हैं. जीवन का मजा संघर्षों से हारने में नहीं, बल्कि उन से पार पाने में है.

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