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कठघरे में मुहूर्त

छत्तीसगढ़ के छोटे से जिले महासमुंद के नामी अधिवक्ता जयनारायण दुबे को शहर में हर कोई जानता है क्योंकि वे ज्योतिष के भी अच्छे जानकार हैं लेकिन यह उन का पेशा नहीं है. 28 जुलाई को जयनारायण  ने 1-2 नहीं बल्कि धर्म से जुड़े लोगों और धर्म को हांकने वाली 40 संस्थाओं को कानूनी नोटिस भेज एक ऐसे मुद्दे मुहूर्त पर सवालिया निशान लगा दिया जिसे ले कर आम लोग रोज लुटतेपिटते रहते हैं और आज तक यह नहीं समझ पाए कि मुहूर्त आखिर है क्या बला और इस की तुक और जरूरत क्या है?

जयनारायण दुबे का एतराज इस बात को ले कर था कि अगस्त के महीने में ही पड़े त्योहारों–हल षष्ठी और जन्माष्टमी के बाबत पंचांग अलगअलग तारीखें बता रहे थे यानी ये त्योहार 2 दिन मनाए जाने की व्यवस्था धर्माचार्यों और मठाधीशों ने कर रखी थी. तमाम त्योहारों, तिथियों और पर्वों के 2 दिन पड़ने पर अलगअलग मुहूर्त होने पर इन वकील साहब की दलील यह है कि इस से भक्तों में भ्रम फैलता है. जब ग्रहों की संख्या वही है, साल के दिन भी सभी के लिए उतने ही हैं तो पंचांगों की गणना में फर्क क्यों आ रहा है? अपनी बात में दम लाने के लिए जयनारायण बीते 3 वर्षों से जरूरी कागजात जुटा रहे थे. नोटिस देने से पहले उन्होंने वर्ष 1967 से ले कर 2014 तक के 10 प्रमुख पंचांगों का बारीकी से अध्ययन भी किया और साबित किया कि मुहूर्त में बड़ा गड़बड़झाला है.

ऐसा पहली बार हुआ कि कोई मुहूर्त को ले कर कानूनी रूप से जागृत हुआ और उसे कठघरे में खड़ा करने की हिम्मत भी दिखाई वरना मुहूर्त की गुलामी करते लोग कभी इस तरफ नहीं सोचते कि यह उन से पैसा झटकने भर की साजिश है. जयनारायण की इस दलील से हर कोई परिचित है कि हिंदुओं के अधिकांश त्योहार अब 2 दिन मनाए जाने लगे हैं ताकि लोग 2 दिन पैसा दें.

मुहूर्त : तुक क्या?

पंडेपुजारियों ने हर शुभ कार्य का पूजन शुभ मुहूर्त में ही किए जाने के इंतजाम कर रखे हैं वरना वे फल नहीं देते. हां, अशुभ कार्य लोग जब चाहें करने के लिए स्वतंत्र हैं.

शुभ और अशुभ का खौफ हमेशा से ही लोगों के सिर चढ़ कर बोलता रहा है जिस का सार यह है कि अगर शादी शुभ मुहूर्त में नहीं की गई तो दांपत्य टूट जाएगा, संतान नहीं होगी, किसी एक की मौत हो जाएगी या पतिपत्नी में कलह होती रहेगी. वे दुखी और तनाव में रहेंगे. हर टूटती शादी के बाबत यही कहा जाता है कि यह गलत मुहूर्त में हुई होगी. पतिपत्नी की जिद अहं और स्वभाव में भिन्नता की चर्चा कोई नहीं करता. नए घर में जा कर अगर सुखशांति से रहना है तो इस का भी मुहूर्त होता है, सोना या वाहन खरीदना है तो इस के भी मुहूर्त हैं. यात्रा के भी मुहूर्त होते हैं और व्यापारव्यवसाय शुरू करने के भी.

हमारा दैनिक जीवन किस तरह मुहूर्त के मकड़जाल में उलझा है, यह जान कर हैरत होती है कि शौच जाने का भी मुहूर्त (प्रथम) होता है और पुत्रप्राप्ति हेतु सहवास का भी विशेष मुहूर्त होता है. बिलाशक पिछड़ेपन और दयनीयता की इस से बेहतर मिसाल कोई और हो भी नहीं सकती. अदालतों में तलाक के और घरेलू विवादों के जो करोड़ों मुकदमे चल रहे हैं उन में कहीं इस मुहूर्त नाम के अजूबे का जिक्र नहीं होता. जाहिर है ऐसा सिर्फ इसलिए कि धर्म के दुकानदारों ने खुद को बचाने के लिए तलाक और घरेलू विवादों के लिए लोगों को कर्मों और किस्मत को कोसने का भी पाठ पढ़ा रखा है.

दिक्कत की बात यह नहीं है कि किसी भी पर्व या पूजन के 2-2 मुहूर्त क्यों हैं बल्कि अहम सवाल यह है कि मुहूर्त है ही क्यों.

सट्टे सा मुहूर्त

आम लोग नहीं जानते, न ही जानने की कोशिश करते और न बताया जाता कि मुहूर्त निकालता कौन है. दरअसल, मुहूर्त किसी सट्टे के नंबर की तरह है जो मुंबई और कल्याण से चल कर चंद सैकंडों में देश भर में फैल जाता है जिस में जीते हुए लोग खुश हो लेते हैं और हारे हुए अगली बार कौन सा नंबर लगाएं, इस सोचविचार में डूब जाते हैं. ग्रहनक्षत्रों का अपना विज्ञान है. धर्म और उस के तमाम क्रियाकलाप इन से कैसे संचालित हो सकते हैं. सट्टा प्रमुख रूप से 2 लोग खिलाते हैं. वैसे ही मुहूर्त भी प्रमुख रूप से 2 जगह से जारी होता है. पहला, पुरी पीठ से और दूसरा, ज्योतिष पीठ से, जिस के मुखिया इन दिनों शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद हैं जो इन दिनों साईंबाबा पूजन विवाद और हिंदू पुरुषों को संतान न होने पर दूसरे विवाह का अधिकार देने के बयान पर चर्चाओं में हैं.

पुरी पीठ के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती भी स्वरूपानंद की तरह करोड़ों के आसामी हैं. इन दोनों का ही सनातन धर्म पर दबदबा इस कहावत से लगाया जा सकता है कि सूर्य दिशाओं के अधीन नहीं होता बल्कि वह जहां से उगता है वही पूर्व दिशा कहलाने लगती है. ठीक इसी तरह, शंकराचार्य धर्म के अधीन नहीं हैं. ये जो कह देते हैं वही धर्म हो जाता है.

अरबों की बादशाहत के शहंशाह ये दोनों हर साल हिंदू नववर्ष पर सालभर के तीजत्योहारों, पर्वों और शुभ कार्यों के मुहूर्त ठीक सट्टे के नंबरों की तरह जारी करते हैं जो देखते ही देखते हर घर में पंचांग की शक्ल में पहुंच जाते हैं. दैनिक अखबार भी रोजाना पंचांग और चौघडि़या प्रकाशित कर इस अंधविश्वास को हवा देने का काम करते हैं. हर जिले के प्रमुख पंडित यानी धर्माधिकारी के पास शंकराचार्यों के मठों से छपे हुए पंचांग पहुंचते हैं. इन्हीं पंचांगों की वजह से वे अपनी दुकान विश्वसनीयता का हवाला दे कर बगैर किसी विघ्न के चलाते हैं. पर इस का यह मतलब नहीं कि पंचांग या अखबार हाथ में होने पर लोगों को अपने मन से मुहूर्त निकालने का अधिकार मिल जाता है. दरअसल, यह इतनी गहरी साजिश है कि लोगों को आखिरकार जाना तो पंडों के पास ही पड़ता है. केवल पूजा के मुहूर्त लोग अखबारों में देख कर या न्यूज चैनल्स पर देख, बगैर पंडे के परामर्श के कर सकते हैं.

हालत ठीक वैसी ही है कि बुखार और हलका दर्द होने पर पैरासिटामोल की गोली खा लो. आराम न मिले तो जेब में पैसे ले कर डाक्टर के पास भागो. मुहूर्त के मामले में पंडा एक विशेषज्ञ डाक्टर की तरह होता है. शादी का मुहूर्त निकलवाने पंडे के पास ही जाना पड़ता है जो वर व वधू की जन्मपत्रियों, राशियों और ग्रहनक्षत्रों की गणना कर बताता है कि कौन सा समय शुभ रहेगा. यह दीगर बात है कि वह शुभ मुहूर्त उस वक्त का निकालता है जब उसे किसी दूसरे यजमान के यहां नहीं जाना होता. इसी तरह गृहप्रवेश का मुहूर्त गृहस्वामी की राशि के आधार पर तय किया जाता है.

कड़की का नाम नहीं

पूजन या पर्व के 2 दिनों या एक से ज्यादा मुहूर्तों से फायदा पंडों को ही है इसलिए जयनारायण दुबे को एतराज इस बात पर जताना चाहिए था कि जब कभी भी पूजन पाठ किया जा सकता है और पर्व मनाए जा सकते हैं तो मुहूर्त की जरूरत क्या है. और इस से भी ज्यादा अहम बात यह कि जब इन के बगैर भी काम चल सकता है तो इन की जरूरत ही क्या है.

दरअसल, जरूरत पंडों को है जिन की रोजीरोटी ही मुहूर्त जैसे अंधविश्वासों से चलती है. मुहूर्त बताने के लिए दक्षिणा ली जाती है और पूजापाठ करने के लिए भी. फिर क्यों इन मुफ्तखोरों की जमात यह चाहेगी कि मुहूर्त को ले कर कोई अदालत जाए. अब पंडेपुरोहित कम हो चले हैं और यजमान बढ़ रहे हैं. मुहूर्त निकलवाने के लिए अब सनातनी चौखटों पर पैसे वाले पिछड़े और दलित भी बहुतायत से जाने लगे हैं. लिहाजा 2 दिन त्योहारपर्व मनाने की स्वीकृति और बहुत से मुहूर्तों का होना धर्माचार्यों व मठाधीशों के खुराफाती दिमाग की ही उपज समझ आती है जो अकसर धार्मिक विवाद फैला कर अपने शोरूम, अपने से छोटों की दुकानें और उन से भी छोटों की गुमटियां चलाए रखने के इंतजाम करते रहते हैं.

अब तो इन लोगों, जो धर्म के निर्माता और पालक हैं, ने पैसा कमाने के लिए नएनए हथकंडे अपनाने शुरू कर दिए हैं. आमतौर पर धार्मिक मान्यता यह है कि पितृपक्ष के दिनों में खरीदारी नहीं करनी चाहिए, शुभकार्य भी इस दौरान वर्जित रहते हैं. अपनी ही थोपी इस मान्यता से पंडे 15 दिन बेरोजगार बैठे रहने को मजबूर होते हैं, इसलिए अब अखबारों और न्यूज चैनल्स के जरिए फतवा सा जारी कर देते हैं कि पितृपक्ष के दौरान ही फलां दिन इतने ग्रहनक्षत्रों का शुभ मुहूर्त बन रहा है जिस में सोने, चांदी और दीगर आइटमों की खरीदारी शुभ है.

इस बार तो पितृपक्ष में भी खरीदारी का मुहूर्त पंडों ने निकाल दिया. बीते 1 सितंबर को भोपाल के अखबारों में प्रमुखता से एक धर्माचार्य भंवरलाल शर्मा के हवाले से यह खबर छपी थी कि पितृपक्ष में इस बार खरीदारी शुभ है और वह समृद्धिकारक भी होगी. इस बाबत बाकायदा पितृपक्ष के दौरान पड़ने वाली तारीखों 11, 15, 16 और 19 सितंबर को शुभ बताया गया था. यह सलाह किस पंचांग या शंकराचार्य से ली गई थी, यह भंवरलाल शर्मा ने नहीं बताया, न ही यह कि किस धर्मग्रंथ में यह उल्लेख है. जाहिर है मकसद व्यापारियों को और खुद को फायदा पहुंचाना था.

यानी धर्म के इन ठेकेदारों की नजर में अशुभ सिर्फ एक ही काम है, वह है इन्हें दक्षिणा न देना और दक्षिणा लेने का कोई मौका ये चूकते नहीं. उलटे नएनए मौके पैदा करने लगे हैं. अब अकसर पुष्य नक्षत्र नाम का शुभ योग प्रकाशित, प्रसारित और प्रचारित किया जाता रहता है.

अक्ल से काम लें

इन योगों और मुहूर्तों से फायदा व्यापारियों को भी होता है और मीडिया को भी. लिहाजा यह तिकड़ी जम कर धर्म और मुहूर्त के नाम पर चांदी काट रही है. त्योहारों के दिनों में विज्ञापनों की बारिश मीडिया पर हो, यह हर्ज या एतराज की बात नहीं पर यह जरूर है कि कारोबार बढ़ाने के लिए वह मुहूर्त जैसे अंधविश्वासों को बढ़ावा देने की गलती करता है.

व्यापारी भी जानते हैं और एक हद तक मान भी लेते हैं कि मुहूर्त कुछ नहीं होता. असल मुहूर्त और धर्म पैसा होता है. इसे ग्राहकों की जेब से निकलवाने के लिए उन्हें पंडों का सहारा लेना पड़ रहा है तो बात हर्ज की उन्हें नहीं लगती. हजार दो हजार की दक्षिणा में अगर कोई पंडित पितृपक्ष में भी खरीदारी का मुहूर्त घोषित कर दे तो पूरे व्यापारी समुदाय को लाखों का फायदा होता है. इसी बात से एक मामूली सी बात यह भी साबित होती है कि मुहूर्त का कोई औचित्य वास्तव में है नहीं, यह पंडों की कारगुजारी भर है. अगर वाकई मुहूर्त में दम होता तो शुभ मुहूर्त में की गई शादियां टूटती नहीं, शुभ मुहूर्त में किए गए गृहप्रवेश में गृहकलह नहीं होती. लोगों को बीमारियां व रोजमर्राई परेशानियां नहीं होतीं.

आसानी से समझ आने वाली मुहूर्त की हकीकत बताती मिसाल आम चुनाव है जिन में सभी दलों के प्रत्याशी पंडित से शुभ मुहूर्त पूछ कर ही परचा दाखिल करने के लिए चुनाव अधिकारी के यहां जाते हैं, फिर भी जीतता एक ही है. यह तो पंडों की धूर्तता की इंतहा ही है कि इस बाबत पूछने पर वे बड़ी ढिठाई से जवाब यह देते हैं कि जीते प्रत्याशी के ग्रहनक्षत्र हारे हुए से ज्यादा प्रबल थे. अब पंडितजी से यह कोई नहीं पूछता कि जब प्रबल ग्रहनक्षत्र ही जिताते हैं तो मुहूर्त की जरूरत क्या थी? यह बात सीधे पहले चुनाव आयोग को क्यों नहीं बता दी जाती जिस से अरबों का चुनावी खर्च बचे.

आजादी पर अंकुश

ऐसे जवाब सीता वनवास और कृष्ण की असमय मौत सहित ढेरों प्रसंगों में वे देते हैं. धर्म का तानाबाना दरअसल बुना ही इस तरह गया है कि कोई इस की प्रासंगिकता पर उंगली उठाए तो उसे निरुत्तर कैसे किया जाए. इस पर भी बात न बने तो हरि या ऊपर वाले की इच्छा का ब्रह्मास्त्र चला कर बात समाप्त कर दी जाती है. मुहूर्त के चक्कर में नुकसान आम लोगों का होता है. शादीविवाह के मौसम में उस से जुड़ी हर चीज महंगी हो जाती है, त्योहारों पर घासफूस तक महंगे दामों में पूजा के लिए खरीदनी पड़ती है. और सब से नुकसानदेह बात एक जकड़न भरी मानसिकता में जिंदगीभर के लिए खुद और आने वाली पीढ़ी को भी फंसा देना है जो आजादी और अपनी मरजी से जीने की इजाजत नहीं देती.

ऐसे में जयनारायण दुबे की पहल स्वागत योग्य है. यह और भी प्रभावी साबित हो सकती है जब कोई यह नोटिस धर्म के दुकानदारों को दे कि मुहूर्त की प्रामाणिकता और जरूरत क्यों है. इस का दूसरा मतलब सीधा सा यह भी निकलता है कि मुहूर्त कुछ होता ही नहीं. जब भी अच्छे मन से बगैर किसी डर या आशंका के शुभ कार्य किया जाए वही असली मुहूर्त है. शुभ मुहूर्त बताने वाला कोई पंडा कार्यसिद्धि की लिखित गारंटी क्यों नहीं लेता, इस पर भी लोगों को विचार करना चाहिए.   

घर में करें मिलावट की जांच

यह वही दौर है जिस में सेहत के प्रति जागरूकता बढ़ रही है. लोग स्वास्थ्य नियमों का पालन कर रहे हैं, कसरत कर रहे हैं. साफसफाई व स्वच्छता पर भी ध्यान दे रहे हैं और इन से ताल्लुक रखते उत्पादों का पहले से कहीं ज्यादा इस्तेमाल भी कर रहे हैं लेकिन ये सावधानियां बेफिक्री नहीं, एक झूठी तसल्ली भर देती हैं. वजह, हर चीज में मिलावट है जिस से बच पाना आसान नहीं. मिलावटखोरी कितने शबाब पर है, इस की गवाही विभिन्न एजेंसियों के आंकड़े भी देते हैं और सुप्रीम कोर्ट की यह तल्ख टिप्पणी भी कि दूध में मिलावट करने वालों को उम्रकैद की सजा होनी चाहिए.

कानूनी खामियों व जानकारियों के अभाव में मुनाफाखोरी की प्रवृत्ति के शिकार आम लोगों की स्थिति मिलावटखोरों के सामने मेमनों सरीखी है जिस में बड़ी दिक्कत यह है कि मिलावट का खेल अब खेतों से ही शुरू होने लगा है जो फुटकर दुकानों से बड़ीबड़ी फैक्टरियों और फूड प्रोडक्ट बनाने वाली कंपनियों तक पसरा हुआ है. रोज लाखों लोग मिलावटी खाद्य पदार्थों के इस्तेमाल के चलते छोटीबड़ी बीमारियों का शिकार हो कर डाक्टरों के पास भागते हैं. अस्पतालों और नर्सिंग होम्स में भरती हो कर महंगा इलाज कराते हैं और अगर ठीक हो गए तो फिर मिलावटखोरी का शिकार होने दोबारा वहीं जाने की तैयारी में जुट जाते हैं.

मिलावट आमतौर पर दिखती नहीं, समझ तब आती है जब पेट में मरोड़े उठती हैं. बिलाशक मिलावट लाइलाज मर्ज है और कानून भी इस के सामने बेबस है. सरकारी विभागों, खासतौर से खाद्य विभाग से किसी तरह की उम्मीद रखना फुजूल की बात है जिस के मुलाजिम मिलावटखोरों के हमदम हैं और लोगों की सेहत व जिंदगी से खिलवाड़ करने की शर्त पर घूस खाते हैं. मिलावट कभी नंगी आंखों से नहीं दिखती, इस की जांच के लिए कुछ रसायनों और साधारण उपकरणों की जरूरत होती है. अगर इन का इस्तेमाल घर में ही किया जाए तो एक हद तक इन से बचा जा सकता है.

दूध और डेयरी प्रोडक्ट

दूध और इस के उत्पादों में कई तरह की मिलावटी चीजें मिलाई जाती हैं. इन में सब से ज्यादा मिलाई जाने वाली चीजें स्टार्च और अरारोट हैं. इन्हें मावा और पनीर में भी मिलाया जाता है. स्टार्च से दूध में गाढ़ापन आता है और उस की मात्रा भी बढ़ जाती है. स्टार्च की ज्यादा मात्रा से पेट संबंधी तरहतरह की बीमारियां होती हैं. पाचनतंत्र गड़बड़ा उठता है और उल्टी, दस्त होने लगते हैं. स्टार्च से दूध और उस के उत्पादों के पोषक तत्त्व भी नष्ट हो जाते हैं.

घर में मिलावट की जांच बेहद आसान है. 5-10 ग्राम दूध ले कर उसे परखनली में डालें और उस में 20 मिलीलिटर साफ पानी मिला कर इसे उबालें. ठंडा होेने पर 2 बूंद तरल आयोडीन उस में मिलाएं. अगर सैंपल नीले रंग में तबदील हो जाए तो समझ लें कि उस में स्टार्च की मिलावट है.

हरी सब्जियां

भोपाल के नवोदय अस्पताल के ओंकालौजिस्ट डा. श्याम अग्रवाल कहते हैं कि मिलावटी सब्जियों के लगातार इस्तेमाल से भी कैंसर के मरीजों की संख्या बढ़ रही है. सब्जियों को ताजी और हरी दिखाने के लिए कैमिकल्स मिलाए जाते हैं. व्यापारी ही नहीं, अब तो अन्नदाता कहे जाने वाले किसान भी मिलावट के जानलेवा खेल के खिलाड़ी बन गए हैं जो जल्द और ज्यादा पैदावार के लिए अंधाधुंध तरीके से कीटनाशकों व उर्वरकों का ज्यादा प्रयोग करने लगे हैं. कच्ची सब्जियों में हार्मोंस के इंजैक्शन भी ये लगाते हैं. जाहिर है सब्जियां अब ज्यादा और जल्द पैसों के लिए अप्राकृतिक रूप से उगाई जा रही हैं.

मेलाकाइट ग्रीन स्वास्थ्य के लिए एक खतरनाक रसायन है जो एक और्गेनिक कंपाउंड है. इस का इस्तेमाल डाई करने के लिए किया जाता है लेकिन आजकल इस का इस्तेमाल खेतों और मंडियों के अलावा फुटकर सब्जी विक्रेता भी कर रहे हैं. इस के इस्तेमाल से सब्जियां हरी दिख कर चमकने लगती हैं, जिस से उपभोक्ता समझता है कि सब्जी ताजी है और वह ज्यादा दाम दे कर खरीद लेता है.

मेलाकाइट ग्रीन का लगातार पेट में जाना छोटीमोटी से ले कर कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों की वजह बनता है. यह बात तमाम शोधों से साबित भी हो चुकी है. हरी मटर, भाजियों, हरी मिर्च और कद्दूवर्गीय हरी सब्जियों को रंगने में इस का दुरुपयोग होता है. जितना खतरनाक यह रसायन है उस की जांच कहीं ज्यादा आसान है. सब्जी का नमूना ले कर उसे ब्लौटिंग पेपर पर रखें. रखने से पहले ब्लौटिंग पेपर को पानी से हलका गीला कर लें. 2 मिनट में ही नतीजा सामने आ जाता है. अगर ब्लौटिंग पेपर पर धब्बे आ जाएं तो समझ लें कि उस में मेलाकाइट ग्रीन की मिलावट है.

दालें

सब्जियों और फलों में मेलाकाइट ग्रीन जैसे जानलेवा कैमिकल की मिलावट से दहशत में आए जो लोग दालों के इस्तेमाल को सुरक्षित समझते हैं वे दरअसल गलतफहमी में हैं. मिलावटखोरों द्वारा घरों में सब से ज्यादा खाई जाने वाली तुअर (अरहर) के अलावा चने व मसूर की दालों में दूसरी डाई मेटानिल यलो का इस्तेमाल किया जाता है जिस से दालें चमकती दिखती हैं. खेसरी दाल की मिलावट भी आम है जो मूलरूप से खरपतवार है और बेहद नुकसानदेह है. कैंसर विशेषज्ञ मानते हैं कि मेटानिल यलो में कैंसर पैदा करने वाले तत्त्व पाए जाते हैं. पेट संबंधी बीमारियां तो इस के इस्तेमाल से ही शुरू हो जाती हैं जिन में बदहजमी और संक्रमण प्रमुख हैं.

मेटानिल यलो की मिलावट की जांच के लिए एक चम्मच सैंपल ले कर उसे 20 मिलीलिटर कुनकुने पानी में अच्छी तरह हिला कर मिलाएं और इस में 2-4 बूंदें हाइड्रोक्लारिक एसिड की मिलाएं. पानी का रंग यदि बैगनी या गुलाबी हो जाए तो समझ लें कि सैंपल में मेटानिल यलो की मिलावट की गई है.

सरसों या राई

देश के उत्तरी इलाके में खाने में सरसों व उस से बने तेल का ज्यादा इस्तेमाल होता है. राई सरसों की ही एक किस्म है. इन के दाने बेहद चिकने व छोटे होते हैं, सरसों का तेल अगर शुद्ध हो तो सीधा आंखों में इतना चुभता है कि उस के तीखेपन से आंख में पानी आ जाता है पर ऐसा आजकल नहीं होता. वजह, मिलावट ही है. तेल की मात्रा बढ़ाने के लिए सरसों में इन से मिलतेजुलते दाने वाले पौधे भटकटैया यानी आर्जीमोन की मिलावट की जाती है. यह एकदम जहरीला तो नहीं पर लगातार इस्तेमाल किया जाए तो किसी जहर से कम असर नहीं डालता. आर्जीमोन की मिलावट से बना सरसों का तेल एपिडेमिक ड्रौप्सी बीमारी की वजह होता है. ग्लूकोमा नाम की खतरनाक बीमारी का अंदेशा भी इस से रहता है.

सरसों या राई मसाले के रूप में खाई जाए या तेल के रूप में, आर्जीमोन की मिलावट पहचानने के लिए इस के दानों को तोड़ कर देखा जाना ही बेहतर होता है. राई या सरसों के दानों की पहचान इन की चिकनाहट से होती है और तोड़ने पर ये अंदर से पीले रंग के होते हैं. इसलिए खरीदने के पहले कुछ दानों को हथेली में ले कर उपरोक्त तरीके से पहचान करना बेहतर होता है.

आइसक्रीम

बच्चे तो बच्चे, बड़े भी आइसक्रीम चाव से खाते हैं पर अब आइसक्रीम भी मिलावट से अछूती नहीं रही है. इन्हें स्थानीय निर्माता भी बनाते और बेचते हैं और कई नामी कंपनियां भी अलगअलग फ्लेवर में अपने ब्रांड नाम से बेचती हैं. ठंडी और जायकेदार आइसक्रीम में मात्रा बढ़ाने के लिए डिटरजैंट पाउडर की मिलावट की जाती है. इस से पेट की बीमारियां होती हैं और लंबे वक्त तक सेवन से लिवर भी खराब होता है. आइसक्रीम में डिटरजैंट की मिलावट की जांच या पहचान करना बेहद आसान है. इस पर कुछ बूंदें नीबू के रस की गिराएं. अगर बुलबुले उठें या झाग बनें तो समझ लें कि आइसक्रीम में डिटरजैंट पाउडर की मिलावट है.

और भी हैं मिलावटें

इन प्रमुख खाद्य पदार्थों के अलावा रोजाना इस्तेमाल में आने वाले दूसरे आइटमों में भी तबीयत से मिलावट की जाती है. शक्कर इन में प्रमुख है जिस का इस्तेमाल रोज होता है. शक्कर की मात्रा बढ़ाने के लिए छोटेबडे़ दोनों पैमानों पर इस में चाक पाउडर मिलाया जाता है जो पेट के लिए काफी नुकसानदेह साबित होता है. शक होने पर इस की जांच के लिए 10-25 ग्राम शक्कर ले कर एक गिलास में घोलें. थोड़ी देर बाद चाक पाउडर नीचे बैठा साफ दिखाई देता है.

कालीमिर्च में पपीते के बीजों को मिलाना बेहद आम और प्रचलित है. यह मिलावट भी वजन बढ़ाने के लिए की जाती है. पपीते का बीज लिवर के लिए नुकसानदेह होता है. जांच के लिए सैंपल को एल्कोहल में डालें. मिलावट होगी तो पपीते का बीज एल्कोहल में तैरता रहेगा और कालीमिर्च नीचे बैठ जाएगी. mचावल और मैदा जैसे खाद्य पदार्थ भी बड़े पैमाने पर मिलावट की गिरफ्त में हैं. इन में खतरनाक बोरिक एसिड की मिलावट की जाती है जो कई बीमारियों की वजह बनता है. जांच के लिए सैंपल को पानी में भिगोएं और उस पर हाइड्रोक्लोरिक एसिड मिलाएं. अब इस में टरमरिक पेपर स्ट्रिप डालें. अगर यह पेपर लाल हो जाए तो तसल्ली कर लें कि चावल या मैदे में बोरिक एसिड मिलाया गया है.

कौफी में चिकोरी पाउडर की मिलावट होती है. इस के इस्तेमाल से डायरिया और जोड़ों का दर्द होना तय होता है. नामी कंपनियों की कौफी में मिलावट की शिकायतें कम ही आती हैं पर छोटे पैमाने की मिलावट अकसर पकड़ी जाती है. इस की जांच घर पर आसानी से की जा सकती है. थोड़ा सा पाउडर पानी में डालने से चिकोरी पाउडर नीचे बैठ जाता है और कौफी पाउडर पानी में ऊपर तैरता रहता है.

समस्याएं और समाधान

घर में मिलावट की जांच के सामान और रसायन किसी भी साइंस सैंटर यानी प्रयोगशाला का सामान बेचने वाली दुकानों पर मिल जाते हैं जो हर छोटेबड़े शहरों में हैं. आमतौर पर इन दुकानों की जानकारी आम लोगों को नहीं होती इसलिए किसी भी हाईस्कूल या कालेज की प्रयोगशाला से इसे हासिल किया जा सकता है. जांच के ये सामान बहुत ज्यादा महंगे भी नहीं होते. घर में मिलावट की जांच से समस्या पूरी तरह हल नहीं होती है. इस से लोग मिलावटी सामान के इस्तेमाल और उन से होने वाले नुकसानों से खुद को बचा सकते हैं.

शुद्ध खाद्य पदार्थ उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेदारी है जिस पर कोई सरकार खरी नहीं उतरती. मिलावट की जांच और कार्यवाही करने वाले खाद्य और आबकारी महकमे घूसखोरी में गले तक डूबे हैं. खाद्य सुरक्षा अधिनियम में एक खामी यह भी है कि उस में मिलावटियों को सजा का उल्लेख रस्म अदा करने के रूप में ही है. बेहतर तो यह होगा कि शुद्ध और मिलावट रहित खाद्य पदार्थों को मौलिक अधिकारों की श्रेणी में शामिल किया जाए.

पाठकों की समस्याएं

मैं  40 वर्षीय सरकारी सेवा में कार्यरत विवाहित पुरुष हूं और 2 पुत्र (आयु 15 व 18 वर्ष) एवं 16 वर्षीय बेटी का पिता हूं. पत्नी को ले कर मैं बेहद परेशान हूं. उस के संबंध पड़ोस में रह रहे कम उम्र के लड़के से हो गए हैं. काफी समझाया पर वह नहीं मानती. हमारी बहुत कहासुनी हुई पर सब बेकार गया. मार्गदर्शन कीजिए, क्या करूं?

क्या आप ने उस लड़के से बात की है? उस को तो डांटिए ही, साथ ही उस के मांबाप से भी इस बारे में बात कीजिए. इस केस को सुलझाने में वे महत्त्वपूर्ण कड़ी होंगे. हो सकता है उन्हें इस बात का पता न हो. अब तो आप के बच्चे भी बड़े हो गए हैं, वे भी सब जानते होंगे. वे अपनी भटकी मां को समझा भी सकते हैं. आप पत्नी से सख्ती से पेश आएं और यहां तक कह दें कि आप उस से तलाक ले लेंगे. ऐसा बोलने से वह सीधे रास्ते पर आ जाएगी.

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मैं 32 वर्षीय विवाहिता, 2 बच्चों की मां हूं. 2 साल से अपने मातापिता के साथ बेंगलुरु में रह रही हूं. ससुराल में संयुक्त परिवार है, वहां पति की ज्यादतियों से तंग आ कर मायके आई. पति अपनी सारी कमाई अपने घरवालों पर उड़ा देते हैं. मुझ से कहते हैं, ‘दो वक्त रोटी तुम्हें मिल जाती है, बस, वही बहुत है.’ बीमार पड़ने पर दवा नहीं दिलाते, न डाक्टर को दिखाते हैं. मातापिता जो पैसे भेजते थे वह भी खुद ही रख लेते थे. मेरा बेटा भी मायके में ही हुआ. मैं तलाक लेना चाहती हूं. आप मुझे बेंगलुरु की महिला हैल्पलाइन का नंबर व पता बताने की कृपा करें.

आप 2 साल से पति से अलग हैं और परिस्थितियों को देखते हुए आप को लगता है कि अब आप दोनों का साथ रहना असंभव है इसलिए आप ने पति से अलग रहने का निर्णय ले लिया है. जहां तक बेंगलुरु की महिला हैल्प लाइन का सवाल है आप बेंगलुरु सिटी पुलिस की हैल्प लाइन वनिता सहाय वानी (वीएसवी) (1091) पर संपर्क कर के विस्तार से इस बारे में राय ले सकती हैं. इस के अलावा आप चाहें तो अपने किसी निजी ऐडवोकेट से भी सलाह ले सकती हैं.

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मैं 23 वर्षीय अविवाहिता हूं. हम 7 भाईबहन हैं, 4 बहनें व 3 भाई और मातापिता. 3 बहनों की शादी हो चुकी है. हम सब ठीक से रह रहे थे. इधर बड़े भाई की शादी हुई, भाभी बेहद कर्कशा और झगड़ालू किस्म की हैं. हर समय क्लेश करती हैं. इधर, मुझ में भी सहनशक्ति नहीं है. हाल ही में मैं ने आत्महत्या की कोशिश की पर बचा ली गई. अब बड़े भाई और भाभी अलग घर ले कर रह रहे हैं. घर में बचे 2 भाई और मैं. छोटा भाई हर बात में मीनमेख निकालता है, हर बात का दोष मुझ पर मढ़ता है. मंझला  भाई मेरी तरफदारी करता है. उसी का सहारा है वरना मैं तो फिर आत्महत्या की सोच रही थी. मैं बीए पास हूं, नौकरी कैसे मिलेगी. जिंदगी नीरस व दिशाहीन लगती है. शादी के भी कोई आसार नजर नहीं आते क्योंकि आजकल शादी के लिए लड़के वालों की मांगें बहुत अधिक होती हैं. हाल यह है घर वालों ने मुझ से बात करना बंद कर दिया है. मैं स्वयं को बेहद बेसहारा महसूस कर रही हूं. कोई राह सुझाएं?

पहले तो यह समझ लीजिए कि कभी भी आत्महत्या जैसा विचार अपने मन में नहीं लाना है. दूसरी, जिंदगी में अगर कोई परेशानी है तो उस से लडि़ए, भागती क्यों हैं, क्यों पलायनवादी प्रवृत्ति को अपना रही हैं. यह समझ लीजिए कि जहां चार बरतन होंगे, खटकेंगे ही. इसी तरह जहां चार लोग साथ रहते हैं वहां खटपट होनी मामूली बात है. लगभग हर घर की यही कहानी है. इतने बड़े परिवार में झगड़ालू सदस्य भी होंगे तो शांतिप्रिय भी. जिंदगी के अच्छे पहलू को भी तो देखिए. मंझले भाई को ही लीजिए, वह आप की तरफ से बोलता है. अपने अंदर भी झांक कर देखिए. आप ने बताया कि आप को भी बहुत गुस्सा आता है, हो सकता है इस बात से भी घर के लोग नाराज हों, तभी बात नहीं करते. मुझे लगता है आप खाली रहती हैं और 24 घंटे ऊलजलूल ही सोचती होंगी, बात वहीं से बढ़ जाती है. सब से पहले तो आप कहीं नौकरी करने की कोशिश कीजिए. आप स्नातक हैं, नौकरी मिल सकती है, साथ ही, कोई कोर्स भी जौइन कर लें. इस से एक तो क्वालिफिकेशन बढ़ेगी, दूसरे टाइम भी अच्छा पास होगा. आप की कुछ सहेलियां भी होंगी, उन से भी मिलेंजुलें व बहनों के साथ भी प्रोग्राम बनाती रहिए. साथ ही, अपने गुस्से को कंट्रोल करना सीखें. कोशिश कीजिए जिंदगी खुशनुमा हो जाएगी.

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मैं 30 वर्षीय विवाहिता, 7 वर्षीय बेटे की मां हूं. कुछ दिन से बेटे के व्यवहार में अजीब सी बात हो रही है. वह हर चीज को बारबार छूता है, अपने हाथों को एक ही दिशा में बारबार चलाता है. मैं ने ऐसा कई लोगों में देखा है. क्या यह कोई बीमारी है? कृपया जानकारी दें.

आप के बेटे का इस प्रकार का व्यवहार किसी मनोवैज्ञानिक कारण से भी हो सकता है. यह वैसे कोई बीमारी नहीं है. कई बार घर का वातावरण ठीक न होने से बच्चे के दिमाग पर असर पड़ता है और वह कुछ अजीबोगरीब हरकतें करने लगता है, या यह भी हो सकता है कि वह स्वयं को उपेक्षित समझ रहा हो, तब भी ऐसा हो सकता है. आप किसी अच्छे बाल मनोवैज्ञानिक को दिखा दें.

फिल्मी दुनिया की इज्जतदार दूसरी औरत

हमारी फिल्म इंडस्ट्री के रीतिरिवाज और मान्यताएं अलहदा हैं. वहां दूसरी पत्नी या फिर नायकों के जीवन में आई दूसरी औरत को ही सम्मान मिलता है. पहली पत्नी गुमनामी के अंधेरे में खो जाती है या फिर किसी तरह संघर्षों के सहारे अपना जीवन गुजारती है. फिल्मों से जुड़ी मशहूर शख्सीयतें चाहे वे निर्माता हो, कलाकार हो या फिर संगीतकार, अपनी पहली पत्नी को न केवल तलाक दे देते हैं बल्कि पहली पत्नी के साथ उसी शहर में दूसरा घर बसा लेते हैं. पहली पत्नी का घर तो होता है लेकिन उस में उस का पति नहीं होता. उसे खाली और एकाकीपन का दंश जीवनभर झेलना पड़ता है.

कुछ दिन पहले एक मशहूर फिल्म अभिनेता ने अपनी पत्नी से कहा था कि मेरी जान बख्शो क्योंकि मुझे किसी और से प्यार हो गया है. तुम धनदौलत, घरबार सब ले लो लेकिन मुझे आजाद करो. यह उस मानसिकता का परिचय है जिस में एक पुरुष शादी के संबंधों को बंधन मानता है, इसलिए आजादी की आकांक्षा प्रकट करता है.

वैसे भारतीय पौराणिक ग्रंथों में बहुपत्नी प्रथा के उदाहरण भरे पड़े हैं. महाभारत से ले कर कई अन्य धर्मग्रंथों में न केवल दूसरी शादी का उल्लेख मिलता है बल्कि विवाहेतर संबंधों का भी विस्तार से वर्णन मिलता है. लेकिन हमारे समाज में दूसरी पत्नी या सहजीवी को इज्जत की नजरों से नहीं देखा जाता था और उस के लिए ‘रखैल’ से ले कर ‘दूसरी औरत’ जैसी संज्ञा का प्रयोग होता रहा है. कहना न होगा कि भारतीय समाज में दूसरी पत्नी को वह दरजा प्राप्त नहीं हो पाता जो पहली पत्नी को मिलता था. यहां फिल्मी दुनिया अपवाद है जहां दूसरी औरत अपनी चमकदमक से पहली को अंधेरे में धकेल देती है.

दूसरी महिला का आकर्षण

बौलीवुड में 2 तरह के अभिनेता हुए हैं. एक तो मुंबई में ही पलेबढ़े, उन का सामाजिक परिवेश फिल्मों से ही जुड़ा रहा. अभिनेताओं का एक दूसरा तबका देश के छोटे शहरों से आया और संघर्ष के बाद सफलता के शीर्ष पर जा पहुंचा. छोटे शहरों से जो अभिनेता मुंबई आए उन में से तकरीबन सभी शादीशुदा थे. यहां आ कर उन्हें महिलाओं का खुलापन और बिंदास स्वभाव लगातार आकर्षित करने लगा. और इन छोटे शहरों से बौलीवुड में आए ज्यादातर अभिनेताओं ने अपनी पहली पत्नी को छोड़ कर दूसरी महिला का दामन थाम लिया. कइयों ने तो उस रिश्ते को कानूनी जामा पहनाया और कइयों ने रिश्तों को बगैर कोई नाम दिए लंबे समय तक निभाया. इस के पीछे मनोवैज्ञानिक से ले कर सामाजिक व निजी वजहें भी रही हैं.

जब धर्मेंद्र फिल्म इंडस्ट्री में आए तो वे शादीशुदा थे लेकिन फिल्मी दुनिया में उन्हें उस वक्त की सुपरस्टार मीना कुमारी से इश्क हो गया. यह इश्क इतना परवान चढ़ा कि धर्मेंद्र का ज्यादातर वक्त मीना कुमारी के घर ‘जानकी कुटीर’ में ही बीतने लगा. कहा तो यहां तक जाता है कि जब पानी सिर के ऊपर से गुजरने लगा तो एक बार धर्मेंद्र की पत्नी अपने दोनों बेटों और तमाम रिश्तेदारों की फौज के साथ जानकी कुटीर पहुंच गई. उस के बाद वहां जम कर झगड़ा और हंगामा हुआ. उस अप्रिय और सार्वजनिक फजीहत के बाद से ही धर्मेंद्र और मीना कुमारी ने परस्पर दूरी बना ली. मीना कुमारी से अलग होने के बाद भी धर्मेंद्र आकर्षक महिलाओं से खुद को दूर नहीं रख पा रहे थे.

धर्मेंद्र लगातार सुकून की तलाश में थे. पहली पत्नी के रहते उन्होंने उस वक्त की ड्रीम गर्ल हेमा मालिनी के साथ रोमांस की पींगें बढ़ानी शुरू कर दीं. दोनों की जोड़ी रुपहले परदे पर धमाल भी मचाने लगी थी. दोनों के बीच प्यार इतना बढ़ गया कि धर्मेंद्र ने कानून को ताक पर रख कर पहली पत्नी को बगैर तलाक दिए चुपके से जा कर हेमा मालिनी से दूसरी शादी रचा ली. दूसरी पत्नी होते हुए भी हेमा मालिनी को धर्मेंद्र ने पहली पत्नी से ज्यादा इज्जत बख्शी. 2 बच्चे भी हुए.

बौलीवुड के जानकारों का कहना है कि धर्मेंद्र के बड़े बेटे सनी देओल ने भी घर में पत्नी के होते हुए मशहूर अदाकारा डिंपल कपाडि़या के साथ संबंध बनाए और बगैर शादी के उन्होंने डिंपल को पत्नी का दरजा दिया. प्यार के शिकार तो दिलीप कुमार भी हुए थे और उन का सायरा बानो से तलाक होतेहोते बचा था. 1982 में यह चर्चा आम थी कि दिलीप कुमार एक पाकिस्तानी महिला आसमा में इतने मसरूफ हैं कि उन्होंने सायरा बानो को छोड़ उस के साथ घर बसाने का फैसला कर लिया. किसी तरह से सायरा ने उस होनी को टालने में सफलता हासिल की.

पहली पत्नी की हार

यही हाल फिल्म अभिनेता बनने की चाहत में मुंबई पहुंचे सलीम खान का भी रहा. सलीम ने एक इंटरव्यू में बताया कि सलमा से उन की मुलाकात 1959 में हुई थी और 5 साल तक दोनों के बीच प्यार परवान चढ़ता रहा और 1964 में दोनों ने शादी कर ली. सलीम खान सलमा से मिलने से पहले हेलेन से मिल चुके थे और उन के दिल में हेलेन को ले कर प्यार की चिंगारी दबी रह गई थी. दिल में दबी चिंगारी जब तब प्यार का शोला बन कर भड़कती रहती थी. आखिरकार सलमा से शादी के 16 साल बाद 1980 में सलीम ने हेलेन से दूसरी शादी रचाई. यहां कहानी कुछ अलहदा है. सलीम खान के बेटों ने हेलेन को भी मां के बराबर इज्जत बख्शी. सलमा ने भी शुरुआती दौर में विरोध किया लेकिन बढ़ते वक्त और ढलती उम्र के साथ वे भी हेलेन को बहन मानने लगीं.

अस्सी के दशक की सुपरस्टार श्रीदेवी की कहानी एकदम फिल्मी है लेकिन यहां भी पहली पत्नी को ही हार मिलती है. श्रीदेवी बोनी कपूर के गैस्ट रूम में रहती थीं और धीरेधीरे दोनों ने मोहब्बत का ऐसा अफसाना लिखा कि वे गैस्टरूम से कब उन के बैडरूम तक पहुंच गई, यह बात बोनी की पहली पत्नी मोना कपूर को भी पता नहीं चल सकी. मोना कपूर ने इस शादी के लिए अपने जीते जी मंजूरी नहीं दी और न ही उस ने बोनी को तलाक दिया. बगैर पहली पत्नी को तलाक दिए बोनी ने श्रीदेवी से शादी की और दूसरे नीड़ का निर्माण कर लिया.

आमिर खान की पहली पत्नी रीना दत्ता ने इस से उलट व्यवहार किया. जब आमिर खान ने तय किया कि वे ‘लगान’ फिल्म की अपनी सहायक निर्देशक किरण राव से शादी करेंगे तो रीना दत्ता ने फौरन उन को तलाक दे कर आजाद कर दिया. उन के नजदीकियों का कहना है कि रीना को जब आमिर और किरण के रिश्ते का पता चला तो उन्होंने भी इस रिश्ते को छोड़ कर आगे बढ़ने का फैसला कर लिया.

गुमनामी के अंधेरे

महिला अधिकारों की बात करने वाली शबाना आजमी भी शादीशुदा जावेद अख्तर के इश्क में इस तरह से मसरूफ हुईं कि दोनों ने शादी रचा ली. लेकिन जब शबाना ने लेखकगीतकार जावेद अख्तर से शादी करने का ऐलान किया था तो उस की खूब लानतमलामत हुई थी. शबाना ने उस वक्त 2 बच्चों, फरहान और जोया अख्तर के पिता से शादी की थी. अपनी स्त्रीवादी छवि के विपरीत उन के इस कदम से हनी ईरानी का घर टूटा था. लेकिन यहां भी शबाना आलोचना का शिकार बनने के बावजूद आज एक सफल पत्नी की तरह समाज में प्रतिष्ठा हासिल कर चुकी हैं. लोग यह भूल गए हैं कि वे जावेद अख्तर की दूसरी औरत हैं. हनी ईरानी की तो लोगों को याद भी नहीं है. कुछ ऐसा ही हुआ था नादिरा बब्बर के साथ. जब स्त्रीवादी स्मिता पाटिल ने उन के पति के साथ विवाह कर लिया था. हालांकि स्मिता पाटिल की मौत के बाद राज बब्बर वापस नादिरा के पास लौट आए थे.

इस कड़ी में ताजा नाम जुड़ा है सैफ अली खान का, जिन्होंने अपनी पत्नी अमृता सिंह को छोड़ कर करीना कपूर से ब्याह रचाया. दोनों की उम्र में लंबा फासला है. करीना को बेगम का दरजा मिल चुका है और पहली पत्नी अमृता सिंह गुमनामी के अंधेरे में खो गई.

पहली पत्नी का स्याह पक्ष

ऐसा नहीं है कि यह सबकुछ सिर्फ बौलीवुड में ही हो रहा है. दक्षिण भारत के सफलतम अभिनेताओं में से एक कमल हासन ने 1978 में मशहूर डांसर वाणी गणपति से शादी की थी. वाणी किसी वजह से लंबे समय के लिए अमेरिका गईं तो कमल हासन ने सारिका को सहजीवी बना लिया. इस सहजीविता के दौरान सारिका ने 1 बच्ची को जन्म दिया. बच्ची के जन्म के बाद कमल हासन पर सामाजिक दबाव इतना बढ़ा कि उन को वाणी को तलाक दे कर सारिका से शादी करनी पड़ी. इस तरह की अनगिनत प्रेम कहानियां फिल्मी दुनिया में हैं. लेकिन सवाल अब भी अनुत्तरित है कि फिल्मी दुनिया का जो समाज है उस में पहली पत्नी के लिए न तो किसी के दिल में दर्द है और न ही उस को ले कर संवेदना. कहना न होगा कि यह चमकदार बौलीवुड का एक स्याह पक्ष है लेकिन है तो हकीकत ही और इस हकीकत के साथ ही जी रही हैं बौलीवुड की पहली पत्नियां.

भारत भूमि युगे युगे

लगातार नौवीं बार

अक्तूबर के पहले हफ्ते में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा, फिर उन का झाड़ू पुराण और उस के बाद महाराष्ट्र, हरियाणा के विधानसभा चुनावों में उन की गर्जना के बीच मुलायम सिंह यादव समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चुन लिए गए. यह खबर बौक्स आइटम बन कर रह गई. क्षेत्रीय दलों के राष्ट्रीय अधिवेशन बड़े महत्त्वपूर्ण होते हैं जिन का दायरा भले ही एक प्रदेश हो लेकिन बातें अंतरिक्ष तक की होती हैं. बहरहाल, मुलायम आंखें मिचमिचाए चेहरे पर ओज व तेज लिए 9वीं बार सपा के  राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गए तो हमेशा की तरह कोई विरोध नहीं हुआ और किसी चिडि़या ने चूं तक नहीं की. इस लोकतांत्रिक खूबी पर कौन कुरबान न जाए जिस में एक पंक्ति का प्रस्ताव कोई अदना या दूसरी पंक्ति का नेता पढ़ता है और उस का कोई भाई अनुमोदन कर फख्र महसूस करता है और आखिर में अधिवेशन रात्रि भोज में सिमट कर रह जाता है.

ऐसी दीवानगी

दक्षिण भारत के लोग बड़े जज्बाती होते हैं, बातबात पर खुदकुशी करने पर उतारू हो आते हैं. तमिलनाडु की तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता को पैसों की हेराफेरी के इल्जाम में अदालत ने जेल की सजा क्या सुनाई लोगों ने खुदकुशी करना शुरू कर दिया.

इस दीवानगी से लोगों का ध्यान आरोप से हट कर इस बेवकूफी पर आ कर टिक गया कि यह तो हद हो गई. और इसे लोकप्रियता एक दफा मान भी लिया जाए पर बेगुनाही का पैमाना नहीं माना जाना चाहिए. लोगों को इस तरह किसी नेता के समर्थन में आत्महत्या नहीं करनी चाहिए. एक फर्क दिशाओं का भी है. उत्तर भारत की तरफ के लोग बड़ेबड़े घोटालेबाजों के जेल जाने पर जश्न मनाते हैं कि देखो, अपना नेता वाकई सच्चा नेता निकला, चलो इसी खुशी में किसी चौराहे पर मिठाई बांटते हैं. दक्षिण वालों को इन से सीखना चाहिए कि भावुकता और कैसे व्यक्त की जा सकती है.

राष्ट्रीय दामाद

अभी भी देहातों में एक घर का दामाद पूरे गांव का दामाद होता है. उस की सभी इज्जत करते हैं महज इसलिए कि वह गांव की बेटी को खुश रखे. सोनिया गांधी के दामाद राबर्ट वाड्रा की परेशानी यह है कि अब उन के दामादपने पर सरेआम कीचड़ खासतौर से चुनाव के दिनों में उछाला जाता है और पब्लिक तालियां पीट कर सार्वजनिक अपमान में योगदान देती है.

जाने क्यों इसे संस्कृति का पतन कोई नहीं कहता, थोड़ीबहुत जमीन वह भी कथित रूप से कौडि़यों के दाम में हथिया लेना इतना बड़ा गुनाह भी नहीं है कि उसे बारबार चुनावी मुद्दा बनाया जाए लेकिन नरेंद्र मोदी ने चुनाव में इसे तुरुप के पत्ते की तरह खेला तो बचेखुचे कांग्रेसी सिपहसालारों के उतरे चेहरे जता गए कि दामादपुराण के समापन तक कांग्रेस का कुछ नहीं होने वाला.

झाड़ू का शौक

पेशेवर सफाई कर्मचारी, जो पुराने जमाने में जातिगत संबोधनों से ही पुकारा जाता था, आज भी रोज सुबह कमर चटकाने के बाद झाड़ू हाथ में ले कर अपने पुश्तैनी काम में जुट जाता है. झाड़ू लगाना उस के लिए रोजीरोटी की बात होती है, इसलिए सफाई की क्वालिटी पर सभी नाकभौं सिकोड़ते रहते हैं.

दूसरा गांधी बनने का ख्वाब देख रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चरखे के बजाय झाड़ू उठाई तो देखते ही देखते यह शौक बीमारी में बदल गया. भारतरत्न सचिन तेंदुलकर, तमाम नामी फिल्मी कलाकारों और अनिल अंबानी जैसे उद्योगपतियों ने भी झाड़ू लगाई. ऐसे में कहा जा सकता है कि झाड़ू लगाना योग की तरह एक अच्छा व्यायाम है. इस से बुढ़ापे में कमर संबंधी बीमारियां कम होती हैं, घुटनेजोड़ों के दर्द में राहत मिलती है. इसलिए उठाओ झाड़ू और चल पड़ो अपने शहर के किसी चर्चगेट की तरफ. इस के बाद तो यह काम फिर एक वर्ग विशेष के लोगों को ही करना है.

बंगलादेशी शरणार्थी राजनीतिबाजों का वोटबैंक

नई सरकार बनने के बाद से पश्चिम बंगाल, पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों, मुंबई और दिल्ली समेत देश के विभिन्न हिस्सों में अवैध रूप से बस चुके बंगलादेशियों का मुद्दा गरमा रहा है. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि बंगलादेशियों का मुद्दा सामाजिक के बजाय कहीं अधिक राजनीतिक है. इस के पीछे वोटबैंक की राजनीति काम करती है. प्रधानमंत्री बनने से पहले चुनाव प्रचार के दौरान पहले हैदराबाद, फिर पश्चिम बंगाल के कृष्णनगर और कोलकाता के ब्रिगेड परेड ग्राउंड में नरेंद्र मोदी ने सुप्रीम कोर्ट का हवाला दे कर इस मसले पर अपनी राय जाहिर करते हुए साफ कर दिया था कि केंद्र में उन की सरकार बनने पर अवैध रूप से सीमा पार कर भारत में बस जाने वाले तमाम बंगलादेशियों को उन के देश वापस भेजा जाएगा.

इस को ले कर ममता बनर्जी और नरेंद्र मोदी के बीच जबानी जंग और कड़वाहट ने शालीनता की तमाम हदें पार कर दी थीं. दिलचस्प बात यह है कि यही ममता बनर्जी कभी वाममोरचे पर घुसपैठियों को ले कर वोटबैंक की राजनीति करने का आरोप लगाया करती थीं. वर्ष 2005 में ममता बनर्जी ने बड़े जोरशोर से इन घुसपैठियों का मामला संसद में भी उठाया था.

अवैध रूप से सीमा पार कर के बहुत सारे बंगलादेशी पश्चिम बंगाल में चले आ रहे हैं. भारतीय सांख्यिकी संस्थान से जुड़े समीर गुहा के अनुसार, 1971 में बंगलादेश मुक्ति युद्ध के समर्थन में भारतपाकिस्तान लड़ाई के बाद 1981 से ले कर 1991 तक हजारों बंगलादेशी भारत आए और यहां बस गए. इस के अलावा आएदिन सीमा पार कर के बंगलादेशी यहां रोजीरोजगार की जुगाड़ में आते ही रहते हैं.

आमतौर पर वहां के आदमी यहां राजमिस्त्री, मजदूर, साफसफाई, कुलीगीरी के काम में लग जाते हैं और औरतें चौकाबरतन जैसे घरेलू कामकाज के अलावा छोटेछोटे कारखानों में काम करने में लग जाती हैं. इन के साथ आए बच्चे कूड़ाकचरा बीनने और रद्दी बेचने के काम में लग जाते हैं. कुछ दिन यहां पैसा कमा कर जिस रास्ते से आते हैं उसी रास्ते से वापस लौट आते हैं. कोलकाता के वरिष्ठ पत्रकार मिलन दत्त, 2009 और 2010 में एसोसिएशन स्नैप गाइडैंस गिल्ड द्वारा पश्चिम बंगाल में कराए गए सर्वेक्षण का हवाला देते हुए कहते हैं कि 65 प्रतिशत बंगलादेशी ऐसे ही हैं. इन्हें घुसपैठिए कहने के बजाय ‘प्रवासी’ कहा जाना ज्यादा बेहतर होगा, जो गैरकानूनी तरीके से सीमा पार कर यहां चले आते हैं. यह ऐसा ही है जैसा अमेरिका में मैक्स्को या आस्ट्रेलिया में इंडोनेशिया के कामगर कर रहे हैं.

कोलकाता के उपनगर में घरेलू कामकाज करने वाली रुकइया बीबी बताती है कि प्रति व्यक्ति साढ़े 3 हजार रुपए दे कर उस का पूरा परिवार लगभग 60 लोगों के एक जत्थे के साथ सीमा पार कर के पश्चिम बंगाल आया. रुकइया बीबी अब घरों में चौकाबरतन करती है और उस का पति न्यू टाउन के रिहाइशी कौंप्लैक्स में झाड़ूबुहारी का काम करता है. वह आगे कहती है कि सीमा पार करने का काम दलालों के जरिए होता है. लोग दलालों को रकम देते हैं, जो सीमा सुरक्षा बल के साथ ‘सैटिंग’ कर के हम लोगों को सीमा पार करवाते हैं और वापस बंगलादेश जाने भी देते हैं. ऐसे लोग मुख्यतया कोलकाता के आसपास के नएपुराने उपनगरों में बस जाते हैं.

गृह मंत्रालय इस काम में बड़ी तत्परता के साथ जुटे होने का दावा कर रहा है. देश के अलगअलग हिस्सों में बंगलादेशियों को पहचानने का काम शुरू हो चुका है.

वोटबैंक का खेल

लंबे समय से पश्चिम बंगाल में बंगलादेशी शरणार्थियों की समस्या पर काम करने वाले राजनीतिक विश्लेषक मोहित राय कहते हैं कि यह हमारे देश की राजनीतिक व सांस्कृतिक विडंबना ही है कि अल्पसंख्यक शब्द का अर्थ केवल मुसलमानों से जोड़ कर देखा जाता है. तमाम राजनीतिक पार्टियां मुसलमानों की बात करने में जुटी रहती हैं.

यह दावा किया जा रहा है कि पश्चिम बंगाल में मुसलिम वोटबैंक के मद्देनजर मुसलमानों की आबादी में दिनोंदिन बढ़ोतरी हो रही है. इस का व्यापक असर यह होने लगा है कि आम लोगों के मन में यह आशंका घर करने लगी है कि पश्चिम बंगाल देरसवेर मुसलिम बहुल राज्य के तौर पर जाना जाने लगेगा. पश्चिम बंगाल के मुसलिम बहुल इलाके में विधानसभा चुनाव क्षेत्रों में भी इजाफा हुआ है. आबादी के आधार पर जहां एक तरफ कोलकाता में विधानसभा केंद्र 21 से घट कर 11 हो गए हैं तो दूसरी ओर राज्य के विभिन्न जिलों के विधानसभा क्षेत्र में खासा बदलाव आया है. हिंदू बहुल पुरुलिया, पश्चिम मेदिनीपुर जिलों में 2-2 और वहीं बीरभूम, बांकुड़ा, हुगली, बर्द्धमान में 1-1 विधानसभा केंद्र कम हो गए हैं, वहीं बंगलादेश सीमा से सटे जिले मुर्शिदाबाद में 3, उत्तर दिनाजपुर और नदिया में 2-2, दक्षिण दिनाजपुर और मालदह में 1-1 विधानसभा चुनाव क्षेत्रों का इजाफा हो गया है.

मिलन दत्त का यह भी मानना है कि समयसमय पर बंगलादशी घुसपैठियों की जो तादाद केंद्र व राज्य सरकार की ओर से पेश की जाती रही है, उस का कोई पुख्ता आधार नहीं है. घुसपैठियों की संख्या का निर्धारण का एक और फार्मूला है और वह यह कि बाकायदा पासपोर्टवीजा ले कर कितने लोग यहां आए और वीजा खत्म होने के बाद कितने लोग वापस नहीं लौटे. उस का आंकड़ा हो.

भारत और बंगलादेश में औनलाइन इमीगे्रशन की सुविधा न होने के कारण अगर लोग जमीन के रास्ते यहां आ कर हवाई रास्ते से लौट जाते हैं तो इस का हिसाब नहीं होता है. जाहिर है रुकइया बीबी जैसे अवैध रूप से सीमा पार करने वालों से भी बंगलादेशियों की तादाद का अनुमान नहीं लगाया जा सकता है.

वर्ष 1947 में देश के बंटवारे के दौरान बड़ी संख्या में पूर्वी पाकिस्तान से शरणार्थियों ने पश्चिम बंगाल में आश्रय लिया था और फिर यहां उन्हें भारत की नागरिकता भी मिल गई. उधर, 1951 में राष्ट्र संघ सम्मेलन में शरणार्थी की परिभाषा बदल दी गई. वहीं घुसपैठिए को भी चिह्नित कर दिया गया. नई परिभाषा के अनुसार, बंगलादेश में उत्पीड़न का शिकार हो कर भारत चले आए हिंदू, बौद्ध व ईसाई शरणार्थी हैं और शेष यानी बंगलादेश से भारत चले आए बाकी मुसलमानों को घुसपैठिया माना गया है.

अल्पसंख्यक राजनीति की बात की जाए तो मोहित राय कहते हैं कि लगभग 50 सालों से पूर्वोत्तर और पूर्वी राज्यों में भारतीय अल्पसंख्यकों के साथ बंगलादेशी अल्पसंख्यकों का घालमेल कर के वोटबैंक की राजनीति की जा रही है, यह भी एक बड़ा मसला है. 1971 में भारतपाकिस्तान के बीच युद्ध के दौरान भी लाखों की संख्या में बंगलादेशी सीमा पार कर के यहां शरण लेने चले आए थे. पर इन्हें भारत की नागरिकता नहीं मिली. दरअसल, नवंबर 1971 में भारत सरकार ने एक नोट जारी कर के साफ कर दिया था कि 25 मार्च, 1971 के बाद जो लोग सीमा पार कर के भारत आए, उन्हें भारत की नागरिकता नहीं दी जाएगी. भारत सरकार द्वारा जारी इस नोट के आधार पर 1971 के बाद पश्चिम बंगाल में शरण लेने वाले हिंदू बंगलादेशियों को भी अवैध करार दे दिया गया.

कैसे हो समाधान

ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि पश्चिम बंगाल में शरण लेने वाले हिंदू बंगलादेशियों की संख्या कितनी होगी? इस मुद्दे पर मोहित राय ढाका विश्वविद्यालय के प्राध्यापक अबुल बरकत द्वारा किए गए शोध का हवाला देते हुए कहते हैं कि 1971 से ले कर 2001 तक 63 लाख हिंदू बंगलादेश से भारत चले आए. इन में से दोतिहाई लोग भी अगर पश्चिम बंगाल में बस गए तो राज्य में शरणार्थियों की संख्या लगभग 42 लाख होगी. इस के अलावा 2014 में बगैर नागरिकता प्राप्त किए अवैध तरीके से सीमा पार कर पश्चिम बंगाल में बस चुके लोगों की संख्या लगभग 50 लाख होगी.

जहां तक हिंदू बंगलादेशियों का मामला है, सब जानते हैं कि हिंदू वहां भी उत्पीड़न और अत्याचार के शिकार हैं. बंगलादेश में कभी हिंदुओं की आबादी 30 प्रतिशत थी, अब यह महज 9 प्रतिशत रह गई है. समयसमय पर बंगलादेश से बड़ी संख्या में हिंदू पलायन कर के पश्चिम बंगाल सहित देश के विभिन्न हिस्सों में बस गए हैं. इस सिलसिले में मातुआ संप्रदाय का जिक्र प्रासंगिक है.

गौरतलब है कि वोट की राजनीति के मद्देनजर पश्चिम बंगाल के राजनीतिक दलों की नजर हमेशा इस संप्रदाय पर रही है. मातुआ जनजाति ने लंबे समय से भारत की नागरिकता के लिए संघर्ष किया है, जो मातुआ आंदोलन के नाम से जाना जाता है. वाममोरचे ने इन के आंदोलन का समर्थन किया. आज इस जनजाति के मतदाताओं की संख्या लगभग 70 लाख है. जाहिर है इतने बड़े वोटबैंक पर पश्चिम बंगाल की हरेक राजनीतिक पार्टी की नजर हुआ करती है.

बहरहाल, हिंदू बंगलादेशियों के मामले में कहीं कोई संवेदना भी काम करती है. पश्चिम बंगाल का एक बड़ा बुद्धिजीवी वर्ग र तमाम राजनीतिक पार्टियां चुप्पी साधे हुए हैं. इस मसले पर हमेशा से सब से ज्यादा मुखर भारत की एकमात्र राजनीतिक पार्टी भाजपा रही है. दोनों ही मोरचे यानी राज्य और केंद्र में भाजपा यह मामला उठाती रही है. इस बार लोकसभा चुनाव में भाजपा का वोट प्रतिशत बढ़ने के साथ पश्चिम बंगाल में यह मामला जोर पकड़ रहा है. इस मुद्दे पर मोदी और ममता आमनेसामने हैं. ममता बनर्जी ने भी साफ कह दिया है कि बंगलादेशियों के खिलाफ कोई भी फैसला करने से पहले केंद्र राज्य सरकार से बात करे. देखना है कि नरेंद्र मोदी इस मुद्दे में किस हद तक सफल होते हैं.  द्य

क्या कहते हैं आंकड़े

इंस्टिट्यूट औफ डिफैंस स्टडीज ऐंड एनालिसिस यानी आईडीएसए की रिपोर्ट बताती है कि देश में 2 करोड़ से अधिक अवैध बंगलादेशी मौजूद हैं. वहीं, सरकार इन की संख्या 1,07,137 बताती है. इन में से मात्र 83,484 बंगलादेशियों को शरणार्थी बताया गया है शेष 23,653 बंगलादेशी घुसपैठियों को देश से निकाल दिए जाने का दावा किया जाता है. एक आंकड़ा बताता है कि अकेले असम में 1 करोड़ 20 लाख बंगलादेशी घुसपैठिए रह रहे हैं.

नवीनतम जनगणना के अनुसार, कोकराझार और धुबरी जिलों में उन की आबादी 65 फीसदी से अधिक हो गई है जबकि राज्य के मूल निवासी बोडो आदिवासियों तथा अन्य आदिवासियों की जनसंख्या घट कर 5 फीसदी रह गई है. दिल्ली में 9 लाख से अधिक बंगलादेशी घुसपैठिए मौजूद हैं. वहीं दिल्ली पुलिस के रिकौर्ड की मानें तो छोटेबड़े कुल 3 हजार ऐसे आपराधिक मामले दर्ज हैं जिन्हें कथित तौर पर बंगलादेशी अपराधियों ने अंजाम दिया.

पूर्व रक्षा मंत्री ए के एंटनी ने भी बताया था कि बंगलादेश की ओर से भारत में घुसपैठ करने वाले 6,867 लोगों को पिछले 5 वर्षों में गिरफ्तार किया गया है. वर्ष 2009 में सर्वाधिक 10,602 बंगलादेशी निर्वासित किए गए, जबकि वर्ष 2010, 2011 में क्रमश: 6,290 और 6,761 बंगलादेशियों को वापस भेजा गया. इसी प्रकार, 31 दिसंबर, 2011 को 40 देशों के 67,945 लोग भारत में निर्धारित अवधि से अधिक रहते पाए गए थे. वहीं, आरटीआई कार्यकर्ता गोपाल प्रसाद की सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी में वर्ष 2010 तक की ही जानकारी मिली है. जानकारी में बताया गया कि मणिपुर में 13, पोर्टब्लेयर में 134, झारखंड में 1, गोआ में 1, टिहरीगढ़वाल में 1, हरिद्वार में 91, नैनीताल में 1 और उधमसिंह नगर में 7 बंगलादेशियों को गिरफ्तार किया गया है वहीं, हरियाणा के जीन्द में 4, पलवल में 5, सोनीपत में 20, रेवाड़ी में 11 और यमुनानगर में 49 बंगलादेशियों को पकड़ कर उन्हें वापस भेज दिया गया है.

कैलाश सत्यार्थी को मिली नोबेल पहचान

‘बचपन बचाओ आंदोलन’ की लड़ाई को पहचान दिलाने वाले कैलाश सत्यार्थी को शांति का नोबेल पुरस्कार दिए जाने की घोषणा के मद्देनजर बचपन बचाओ की मुहिम को अब और तेज करने की जरूरत है. केवल कुछ उद्योगधंधों में काम करने वाले बच्चों को वहां से हटा देने भर से बालश्रम खत्म होने वाला नहीं है. बालश्रम हमारे समाज में हर जगह है. यह सच है कि कु छ उद्योगधंधों में बालश्रम बड़ी संख्या में होता था. बचपन बचाओ आंदोलन की मुहिम के चलते बालश्रम कम हुआ है. लेकिन यह अभी खत्म नहीं हुआ है. बालश्रम को अगर समाज से दूर करना है तो पूरे समाज के विकास पर ध्यान देना होगा. बालश्रम कई बार परिवार की जरूरत भी बन जाता है. मांबाप खुद बच्चों को स्कूल भेजने के बजाय मजदूरी करने भेजना ज्यादा पसंद करते हैं. इस की वजह उन की गरीबी और अशिक्षा है. नोबेल पुरस्कार मिलने से बचपन बचाओ की लड़ाई को विश्वस्तर पर पहचान हासिल हुई है.  बालश्रम खत्म करने की दिशा में सरकार और समाज के साथ ही साथ बच्चों के मातापिता को भी आगे आना होगा. बालश्रम एक तरह की सामाजिक बुराई है. इस से बच्चों का ही नहीं, देश का विकास भी प्रभावित होता है. बालश्रम में बंधुआ मजदूरी सब से खराब हालत है, जहां बच्चों को जबरन काम पर लगाया जाता है और उन के स्वास्थ्य व शिक्षा का भी कोई इंतजाम नहीं होता.

बालश्रम की बात करते समय कई बार उन बच्चों की चिंता नहीं की जाती है जो धार्मिक जगहों पर भीख मांगने के लिए कई तरह के रूप रख कर काम करते हैं. कभी ये बच्चे भगवान बन जाते हैं तो कभी देवीदेवता का रूप रख लेते हैं.

बालश्रम से मुक्ति के नाम पर कई सरकारी विभाग फैक्टरी व दूसरे कारखानों में काम करने वाले बच्चों को मुक्त कराने के नाम पर वहां के मालिक को परेशान कर रिश्वत मांगते हैं. सरकारी विभाग  भीख मांगने वाले बच्चों को सही राह पर ले जाने का काम नहीं करते हैं. बाल मजदूरी और बंधुआ मजदूरी के लिए काम करने वाले कैलाश सत्यार्थी को नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद इस समस्या को खत्म करने की चुनौती दोगुनी हो गई है.

मुहिम की शुरुआत

कैलाश सत्यार्थी मध्य प्रदेश के विदिशा शहर के रहने वाले हैं. आज वे देश की राजधानी दिल्ली में रहते हैं. उन के परिवार के दूसरे लोग अभी भी विदिशा के किले के अंदर वीर हकीकत राय मार्ग पर रहते हैं. कैलाश की पढ़ाई विदिशा के पेढ़ी स्कूल और तोपपुरा स्कूल से हुई थी. इस के बाद एसएसएल जैन स्कूल से पढ़ाई करने के बाद एसएटीआई से इलैक्ट्रिकल ब्रांच में इंजीनियरिंग पढ़ाई पूरी की. उन्होंने 2 साल यहां पर पढ़ाने का काम भी किया. वे 4 भाइयों में सब से छोटे हैं. कैलाश की शादी सुमेधा से हुई. उन के एक बेटा भुवन रिभु और बेटी अस्मिता हैं. भुवन पेशे से वकील हैं.

कैलाश सत्यार्थी ने अपनी स्कूल की पढ़ाई के दौरान ही बाल मजदूरी को करीब से देखा और समझा था. वे जब स्कूल में पढ़ते थे तो एक बच्चे को जूते पौलिश करते देखते थे. इस बात को ले कर उन्होंने अपने शिक्षक से बात की. शिक्षक ने उन की बात को काटते हुए कहा कि यह उस का काम है. तब कैलाश ने उस लड़के से बात की. उस लड़के ने भी यही जबाव दिया. उस समय से कैलाश बच्चों को पढ़ने के लिए जागरूक करने के अभियान पर चल पडे़. वे गरीब बच्चों के लिए किताबें एकत्र करते और पढ़ने के लिए बच्चों को देते थे. नौकरी करने के बाद जब कालेज के स्कूल प्रबंधन के साथ उन का झगड़ा हुआ तो वे नौकरी छोड़ कर दिल्ली आ गए. वहां वे आर्यसमाज की विचारधारा वाली पत्रिका में काम करने लगे. वहीं पर कैलाश की मुलाकात आर्यसमाजी नेता स्वामी अग्निवेश से हुई. स्वामी अग्निवेश के साथ वे बंधुआ मुक्ति मोरचा के साथ हो लिए.

कैलाश सत्यार्थी ने बंधुआ मजदूरी, सांप्रदायिकता, जातिवाद, सतीप्रथा, बालविवाह सहित किसानों के मुद्दे पर भी अपनी आवाज बुलंद की. 1984 के सिख विरोधी दंगों और साल 2002 के गुजरात दंगों को ले कर भी वे मुखर रहे. 1994 में स्वामी अग्निवेश से अलग होने के बाद कैलाश सत्यार्थी ने बाल मजदूरी के सवाल को प्रमुखता से उठाना शुरू किया और बचपन बचाओ आंदोलन को केंद्र में रख कर काम शुरू किया. देश के अलगअलग क्षेत्रों में अलगअलग उद्योगधंधों में बच्चों से बालश्रम के रूप में काम लिया जाता था. बालश्रम की सब से अधिक संख्या कालीन उद्योग, कांच उद्योग, पीतल उद्योग, पटाखा उद्योग, खदानों की खुदाई, ईंटभट्ठा और सर्कस जैसी जगहों में थी.

यहां से बच्चों को आजाद कराने के लिए कैलाश सत्यार्थी को तमाम तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ा. इस से बिना घबराए कैलाश सत्यार्थी अपने काम पर लगे रहे. अब तक वे 80 हजार से अधिक बच्चों को बाल मजदूरी और बंधुआ मजदूरी से आजादी दिला चुके हैं. बच्चों को मानव तस्करों से आजाद कराने के लिए नेपाल से लगे इलाकों के गांवों में कैलाश ने बाल मित्र गांव बनाए. नेपाल सीमा से लगे इलाकों से सब से अधिक बच्चे मानव तस्करी का शिकार होते थे. इन को मजदूरी के साथ ही साथ सैक्स के लिए भी प्रयोग किया जाता था. बाल मित्र गांव बनने से ऐसे कामों को रोकने में काफी मदद मिली.

कैलाश सत्यार्थी मानते हैं कि बचपन बचाने की लड़ाई अभी लंबी है. नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद विश्व के 17 करोड़ बच्चों की मुक्ति के लिए काम करना है. इस से उन की जिम्मेदारी बढ़ गई है.

यूक्रेन का संकट

कुछ छोटे देशों की नियति सदैव अपने बड़े पड़ोसी देशों की कुदृष्टि का शिकार होते रहने की रही है. पूर्वी यूरोप के पोलैंड और यूक्रेन ऐसे ही देश हैं. ये देश शताब्दियों से अपने बड़े पड़ोसी देशों की विस्तारवादी नीति की चपेट में आते रहे हैं. ,रूस की पश्चिमी सीमा पर स्थित यूक्रेन का अतीत अनेक उतारचढ़ावों से भरा है. सदियों से रूस, लिथुआनिया और आस्ट्रिया अपने इस निरीह पड़ोसी की बंदरबांट करते रहे हैं. निकट अतीत में कोई 25 वर्ष पूर्व तक यह देश, सोवियत संघ के बिखराव तक उस की एक घटक इकाई था. 1991 में यूक्रेन ने स्वयं को स्वतंत्र देश घोषित किया.

पुरातत्त्व विज्ञान के अनुसार, वर्तमान यूक्रेन की भूमि पर 44 हजार वर्ष पहले भी मानव आबाद था. इतिहास के विकासक्रम में पूर्वी यूरोप का यह देश ईसा से 200 वर्ष पूर्व से 750 वर्ष पूर्व तक सिथिया का भाग था. उस समय गेताए संजाति की यहां बस्तियां थीं. कालांतर में स्लाव संजाति का विस्तार हुआ तो उस ने भी यूक्रेन को स्थायी निवास बना लिया. स्लाव संजाति रूस, यूक्रेन और दक्षिण तथा पूर्वी यूरोप के कई देशों में फैली हुई है.

भाषाओं के उद्गम के आधार पर देखा जाए तो यूके्रनी भाषा और रूसी भाषाएं एक ही परिवार की हैं, साथ ही बहुत निकट भी हैं. भाषाओं की साम्यता और समीपता के समान ही सांस्कृतिक धरातल पर दोनों देशों में बहुत कम अंतर है. इस कारण दोनों देशों के निवासी एकदूसरे के देश में आसानी से घुलमिल जाते हैं और बड़ी संख्या में उन का इधरउधर बसना होता रहता है. 19वीं शताब्दी के अनेक रूसी बौद्धिक दिग्गज यूक्रेनी मूल के थे. इन में प्रख्यात साहित्यकार निकोलाई गोगोल और संगीतकार प्योत्र त्वायकोवनस्की विशेष उल्लेखनीय हैं.

7वीं सदी में यूक्रेन की भूमि पर स्थापित होने वाला बुलगार राज्य भावी यूक्रेन राष्ट्रीय भावना का केंद्रीय आधार बन गया. मध्यकालीन युग में किलवनरूस नामक एक शक्तिशाली साम्राज्य अस्तित्व में था, जिस ने यूक्रेन की भौगोलिक, राजनीतिक सीमाओं की पहचान दी. इस शासनकाल की यूक्रेन के इतिहास में ‘गोल्डन होर्ड’ के विशेषण से ख्याति है. 15वीं शताब्दी में लिथुआनिया की ग्रांड डची तथा परवर्तीकाल में पोलैंड का साम्राज्य स्थापित हुआ जो 1768-69 में कृषकों के व्यापक विद्रोह के कारण समाप्त हो गया. इस बीच, 1653 में यूक्रेनियों ने पोलैंड के प्रभुत्वशाली चर्च के विरुद्ध भी विद्रोह कर अपनी खोई पहचान की स्थापना की.

यूक्रेन की कृषि योग्य और खाद्यान्नों की उपजाऊ भूमि पर पड़ोसी साम्राज्यों की गिद्ध दृष्टि लग रही है. रूस के जार, तुर्की के औटोमन तथा आस्ट्रिया के साम्राज्य ने समय पर यूक्रेन के भागों को अपने साम्राज्य में मिला रखा था. इन के अतिरिक्त क्राइमिया के खानेत शासकों ने 1772 से 1795 तक यूक्रेन के बड़े भूभाग पर अधिकार बनाए रखा था. खानेत शासकों का राज्य खत्म होतेहोते रूस के जार साम्राज्य ने फिर यूक्रेन के एक भाग पर तथा आस्ट्रिया के हैब्सबर्ग शासकों ने दूसरे भाग पर अधिकार कर आपस में बांट लिया. अधिकारकर्ता साम्राज्यवादियों ने यूक्रेनी जनता का दमन करना आरंभ किया तो यूक्रेनी राष्ट्रवाद की भावना सुदृढ़ होती गई. उधर, आस्ट्रियाई दमन ने यूक्रेनी राष्ट्रवाद को एकताबद्ध कर दिया. यह समय 19वीं शताब्दी का था.

यूके्रन का उदय

इन्हीं वर्षों में रूस और आस्ट्रिया के संघर्षों ने मध्य और दक्षिण यूरोप के देशों की सुरक्षा और शांति को रौंद डाला था. प्रथम महायुद्ध आरंभ होने पर आस्ट्रिया ने टलेरहाफ के कंसैंट्रेशन कैंप में अनेक यूक्रेनी बुद्धिजीवियों को मौत के घाट उतार दिया था. रूस में जारशाही की समाप्ति और साम्यवादी राज्य की स्थापना होने तक यूक्रेन आंतरिक उथलपुथल से ग्रसित रहा. अशांत काल में ही ‘यूक्रेनी जन गणराज्य’ का उदय हुआ. नवोदित गणराज्य को अपने जन्मकाल में रूस के साथ युद्ध में उलझना पड़ा. आखिरकार, 1919 में लाल सेना की विजय हुई और 1922 में यूक्रेन ‘सोवियत संघ’ का घटक राज्य बना.

सोवियत राज का प्रमुख लाभ यूक्रेनी भाषा को हुआ. उसे विधिवत राजकीय मान्यता के साथ शिक्षा के माध्यम तथा शासकीय कार्यव्यवहार के लिए प्रतिष्ठित किया गया. सोवियत राज्य में रूस का प्रभाव हर क्षेत्र में गहराता गया. साम्यवादी विचारधारा के आधार पर धनवान कुलक (जमींदार) वर्ग को समाप्त किया गया. परिणामस्वरूप 1932-33 में तत्कालीन सोवियत संघ में 60 से 80 लाख मरने वाले लोगों में अकेले यूक्रेन के 40 से 50 लाख लोग थे. स्तालिन की मृत्यु के बाद सोवियत प्रधानमंत्री बने निकिता ख्रुश्चोव 1935 में यूक्रेन कम्युनिस्ट पार्टी के प्रमुख थे.

द्वितीय विश्वयुद्ध आरंभ होने पर हिटलर की भी कुदृष्टि यूक्रेन पर पड़ी. 1941 से 44 तक जरमनी ने अधिकार जमा रखा था. इस अवधि में यूक्रेन की ‘इन्सर्जेंट आर्मी’ स्वदेश की मुक्ति के लिए शत्रुओं से संघर्ष करती रही. 1945 में विश्वयुद्ध की समाप्ति पर संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हुई. यूक्रेन इस विश्व संगठन के संस्थापक सदस्यों में से एक है. उल्लेखनीय बात यह रही कि महायुद्ध की समाप्ति के बाद यूक्रेन, सोवियत संघ का अंग रहते हुए भी संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बना रहा. बेलारूस के अपवाद को छोड़ सोवियत संघ के अन्य घटकों को यह सुविधा नहीं थी.

सोवियत संघ के बिखराव के समय उस की आर्थिक स्थिति जर्जर हो गई थी, स्वतंत्र होने के बाद के पहले दशक तक यूक्रेन की अर्थनीति और राजनीति के कर्णधार सोवियतकालीन नीतियों को अपनाए रहे. परिणाम यह हुआ कि देश की आर्थिक स्थिति में न सकारात्मक परिवर्तन हुआ और न आगे बढ़ी.

स्वतंत्र होने के बाद चुनाव जीत कर लियोनिद क्रावचुक पहले राष्ट्रपति बने, जो पुराने कम्युनिस्ट थे. क्रावचुक ने बिगड़ी अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए लियोनिद कुचमा को प्रधानमंत्री नियुक्त किया. सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत करते हुए कुचमा 1994 तथा 1999 में राष्ट्रपति निर्वाचित हुए. सत्ता पर आसीन होने के लिए व्यक्ति बदलते रहे, परंतु आर्थिक स्थिति में बहुत अधिक अच्छे परिणाम नहीं आए.

यूक्रेन की राजनीतिक अस्थिरता और डगमगाती अर्थव्यवस्था की स्थिति को महादेशों ने कूटनीति की गेंद बना लिया. एक ओर ब्रिटेन और संयुक्त राज्य अमेरिका यूक्रेन को पश्चिमी ब्लौक (गुट) में सम्मिलित करने के लिए दबाव डाल रहे हैं तो दूसरी ओर रूस उसे अपने प्रभावक्षेत्र से अलग नहीं होने देना चाहता. नाटो और यूरोपियन यूनियन की सदस्यता द्वारा उसे आर्थिक समस्याओं से छुटकारा दिलाने का प्रलोभन पश्चिमी गुट दे रहा है तो रूस उसे आर्थिक सहायता और ऋण दे कर अपनी ओर बनाए रखने के लिए दृढ़संकल्प है. यही खींचतान यूक्रेन की वर्तमान समस्या के मूल में है. दोनों पक्ष इस देश की आंतरिक राजनीति को प्रभावित कर अपनेअपने मोहरे बिठा कर अपने गुटों का शक्ति प्रदर्शन करने का लक्ष्य रखे हुए हैं.

सोवियत संघ का विघटन पिछली शताब्दी की बड़ी राजनीतिक घटना थी. रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन इसे महान दुर्घटना मानते हैं. रूस सोवियत संघ की सब से बड़ी इकाई ही नहीं, बल्कि उस संघ का मुखिया और पूर्ववर्ती साम्राज्य का उत्तराधिकारी भी था. विघटन से रूस मात्र आहत ही नहीं हुआ, उस के स्वाभिमान को भी गहरा सदमा लगा. सोवियत संघ वास्तव में जारशाही का नया अवतार था. समाप्त होते जार साम्राज्य को लेनिन ने नए सामाजिक आदर्शों व कार्यक्रमों के सपनों से बचा लिया था.

बिखराव के बाद मिखाइल गोर्बाचोव के शासनकाल में विघटित सोवियत संघ के सब से बड़े घटक देश रूस की बागडोर बोरिस येल्तसिन ने संभाली. आरंभिक 10-12 वर्ष रूस को संभलने में लग गए. इस अवधि में जर्जर अर्थव्यवस्था और रूसी परिसंघ के चेचेन्या जैसे अल्पसंख्यक गणराज्यों की विद्रोही गतिविधियों से निबटना अनिवार्य हो गया था. इस कारण स्वयं के महादेश और महाशक्ति होने और उस के लिए आत्मविश्वास जगाने के लिए समय चाहिए था. वैसे, रूस का सपना रहा है कि उस का फिर जार जैसा साम्राज्य और दबदबा स्थापित हो जाए. विघटन के कुछ समय बाद रूस ने अपने पड़ोसी देशों (पूर्व सोवियत घटकों) के साथ एक संगठन ‘कौमन वैल्थ औफ इंडिपेंडैंट स्टेट्स’ के नाम से बनाया था जिस में एशिया और यूरोप के कुछ पुराने साथी देश भी थे. येल्तसिन के बाद व्लादिमीर पुतिन और मेदवेदेव की जोड़ी ने रूस की शासन व्यवस्था संभाली. दोनों पारीपारी से राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की आपस में अदलाबदली कर सत्तासूत्र अपने नियंत्रण में रखे हुए हैं.

पुतिन के मंसूबे

कहते हैं कि पुतिन का सपना एक यूरेशियन संघ की स्थापना का है. इस संघ में पुराने साथी देशों को फिर से मिला कर एक नया शक्तिशाली शक्तिधु्रव पुतिन खड़ा करना चाहते हैं. पुतिन स्वयं सोवियतकालीन जासूसी संस्था केजीबी के उच्च स्तर के अधिकारी रहे हैं. वे रूस के इतिहास के भी अच्छे जानकार हैं इसलिए उन की महत्त्वाकांक्षाओं के पंख लगना स्वाभाविक है. महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति में बाधक है उन का दंभी और अडि़यल स्वभाव, जो आधुनिक युग की लोकतांत्रिक हवा के विपरीत है. 18वीं शताब्दी की मानसिकता के लिए हुए पुतिन अपने मंसूबों को ठोस रूप कैसे दे सकेंगे?

यूके्रन के वर्तमान राष्ट्रपति पेत्रो पोरोशेंको पश्चिम के समर्थक कहे जाते हैं. रूस उन्हें पश्चिमी शक्तियों का बिठाया हुआ मोहरा मानते हैं, जबकि पोरोशेंको के पूर्व पदस्थ राष्ट्रपति यूक्रेन छोड़ कर विक्टर यानुकोविच रूस में शरण लिए हुए हैं. सोवियतकाल में रोजगार, विशेषज्ञसेवा और सेवाओं में स्थानांतरण के कारण संघ के घटक देशों में आबादी का अच्छी संख्या में आप्रवासन और उत्प्रवासन हुआ था. उस समय सोवियत संघ के विघटन के संबंध में किसी ने सोचा नहीं था. यही कारण है कि रूसी मूल के लोग यूक्रेन के अलावा बाल्टिक देशों और मध्यएशियाई देशों में जा बसे थे. रूसी मूल के बहुसंख्यकों के हितों की रक्षा करने और उन के अपने मूल देश के प्रति लगाव की भावना का लाभ ले कर पहले तो रूस ने क्राइमिया को अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया और अब यूक्रेन की रूस से लगी पूर्वी सीमा के लुहांस्क दोनेत्स्क क्षेत्र में आबाद रूसी मूलक लोगों की सहायता के नाम पर पुतिन सैनिक हस्तक्षेप करना चाहते हैं. रूसी मूल के बहुसंख्यक लोगों ने अपने क्षेत्र को जनमत संग्रह के आधार पर पृथक घोषित कर दिया है. यह स्थिति यूक्रेन के लिए ‘विद्रोह’ की है और वह अपने विद्रोहियों का दमन कर रहा है. फिलवक्त, यूक्रेन को पश्चिमी ब्लौक का नैतिक और राजनीतिक समर्थन मिल रहा है, और रूस ‘मानवीय’ सहायता के आधार पर विद्रोहियों को सहायता दे रहा है.

इस स्थिति में पुतिन की साख दांव पर है. यदि वे अपनी योजना में विफल रहते हैं तो यह संदेश जाएगा कि वे छोटे पड़ोसी देशों को नियंत्रण में नहीं रख सकते. इस का दुष्परिणाम यह भी होगा कि वे न तो यूरेशिया संघ और न साझा बाजार कायम कर पाएंगे. एक प्रकार से पुतिन का राजनीतिक भविष्य दांव पर है. यूक्रेन की घटनाओं का शेष देशों पर भी प्रभाव होगा.

यूरोप और अमेरिका के लिए यूक्रेन एक ज्वलंत मुद्दा बन गया है. और रूस भी बाजी हारना नहीं चाहता. 1945 से 1991 तक अमेरिका और सोवियत संघ के मध्य चले ‘शीतयुद्ध’ का मुद्दा था, ‘साम्यवाद बनाम लोकतंत्र’. प्रतीत होता है कि शीतयुद्ध का दूसरा अवतार होने जा रहा है. कोई नहीं जानता कि इसे कौन सा सैद्धांतिक जामा पहनाया जाएगा. बहरहाल, यह तो स्पष्ट है कि रूस शक्ति संचय कर अपनी धाक जमाना चाहता है जबकि अमेरिका की दृष्टि है कि रूस उस के लिए चुनौती न बने.

पढ़ाई पर भारी मुनाफे की पाठशाला

शहरों के बड़े पब्लिक स्कूलों में पढ़ने वाले ज्यादातर बच्चों के मातापिता उन स्कूलों की चमकदमक से प्रभावित तो हैं लेकिन उन के द्वारा वसूली जा रही भारीभरकम फीस से दुखी व परेशान भी हैं. हजारों रुपए खर्च करने के बावजूद बच्चे स्कूल के बाद ट्यूशन पढ़ने को विवश हैं. इतना ही नहीं, शैक्षिक व अशैक्षिक गतिविधियों के नाम पर भी धन बटोरने में ये तथाकथित स्कूल कोताही बरतने से बाज नहीं आते. बातबात पर पैसा, कदमकदम पर डांटफटकार और न्याय की बात करने पर बच्चों को स्कूल से निकाल देने या उन का कैरियर खराब कर देने की धमकी, यही सब कुछ हो रहा है इन धन बटोरने की दुकानों में.

बड़ेबड़े नामधारी स्कूल प्रवेश फौरम की बिक्री से ले कर परीक्षा के नतीजों तक अभिभावकों की जेब पर कैंची चलाने में लगे रहते हैं. विकास शुल्क व सुविधा शुल्क के नाम पर की जा रही खुली लूट तो कई जगह बेशर्मी की हद को पार कर गई है. इन स्कूलों में बच्चों की शिक्षा व ज्ञान पर उतना ध्यान नहीं दिया जा रहा है जितना उन की यूनिफौर्म, टाई, जूतों, महंगी किताबकौपियों व अन्य स्टेशनरी की खरीद पर दिया जा रहा है.

ये सब बातें तब खुल कर सामने आईं जब पिछले दिनों जयपुर के सीबीएसई स्कूलों में पढ़ रहे बच्चों के अभिभावकों को एक ही कक्षा व एक ही कोर्स की अलगअलग कीमत चुकानी पड़ी तथा जयपुर के एक नामी स्कूल ने अभिभावकों से डैवलपमैंट के नाम पर मनमानी फीस मांगी. इसी बीच कई स्कूलों, बच्चों व अभिभावकों से की गई बातचीत से और कई बातें सामने आईं.

किताबों की कीमतें अलगअलग

सभी जानते है कि एनसीईआरटी की किताबें देश के मशहूर माहिर विद्वान तैयार करते हैं और उन किताबों को अंतिम रूप दिए जाने से पहले उन का परीक्षण किया जाता है कि वे उस आयुवर्ग के बच्चों के मानसिक स्तर के काबिल है या नहीं. लेकिन बावजूद इस के, निजी स्कूल एनसीईआरटी पब्लिकेशंस की किताबों से पढ़ाई न करवा कर बच्चों को अपने पसंदीदा प्राइवेट पब्लिशर्स की किताबों से पढ़ाई करवा रहे हैं. तमाम स्कूल वाले प्राइवेट पब्लिशर्स की किताबों को एनसीईआरटी के करिकुलम पर आधारित बताते हैं. लेकिन सचाई यह है कि इन किताबों के पाठ एनसीईआरटी की किताबों से काफी अलग हैं. यही नहीं, इन किताबों की कीमतें एनसीईआरटी की किताबों से 5 से 6 गुना ज्यादा भी हैं.

ज्यादातर स्कूल एनसीईआरटी की ओर से बेसिक करिकुलम में सालाना बदलाव नहीं होने के बावजूद हर सत्र में अभिभावकों को नएनए पब्लिशर्स की किताबें खरीदने के लिए कहते हैं. कुछ किताबों का कवर पेज बदलते हुए कंटैंट के पेज बदलवा देते हैं. ऐसा किए जाने के चलते अभिभावक चाह कर भी अपने बच्चों के लिए पिछले सत्र की पुरानी किताबों का उपयोग नहीं कर पाते हैं. नियम तो यह कहता है कि सीबीएसई से संबद्ध स्कूलों में कक्षा 1 से 12वीं तक एनसीईआरटी का करिकुलम ही चलना चाहिए. इस के लिए सीबीएसई की ओर से तमाम स्कूलों को सख्त निर्देश दिए हुए हैं. बावजूद इस के, स्कूल संचालक अपनी मनमरजी से प्राइवेट पब्लिशर्स से किताबें छपवाते हैं और उन की कीमत भी खुद ही तय करते हैं.

इन किताबों की महंगी कीमत का आलम यह है कि कईकई स्कूलों में तो पहली कक्षा में पढ़ाई जाने वाली हिंदी व अंगरेजी की किताबें यूनिवर्सिटीज में ग्रेजुएशन में पढ़ाई जाने वाली इसी सब्जैक्ट की किताबों से 3 से 4 गुना ज्यादा महंगी हैं. वहीं, इन स्कूलों में छठीसातवीं कक्षा में पढ़ाई जाने वाली मैथ और साइंस की किताबों की कीमतें इंजीनियरिंग के विद्यार्थियों की किताबों की कीमतों से कहीं ज्यादा हैं. सीबीएसई की कक्षा 6 की मैथ व साइंस की किताबों की कीमतें क्रमश: 1053 रुपए व 1090 रुपए हैं, जबकि राजस्थान विश्वविद्यालय की बीएससी फर्स्ट ईयर की फिजिक्स की 6 किताबों की कीमत महज 850 रुपए है. 11वीं कक्षा की कौमर्स सब्जैक्ट की 9 किताबों की कीमत 2,400 रुपए है, वहीं बीकौम की फर्स्ट ईयर की 10 किताबें महज 1,250 से 1500 रुपए में बाजार में उपलब्ध है ं.

निजी स्कूल खास बुक स्टोर का नाम बता कर वहीं से किताबें खरीदने के लिए अभिभावकों को बाध्य करते हैं. बाजार में बुक स्टोर प्रिंट रेट पर ही किताबें बेचते हैं, जिन्हें विवश हो कर अभिभावकों को खरीदना पड़ता है. निजी स्कूलों व प्रकाशकों के मुनाफे के इस खेल में अभिभावक खुद को ठगा सा महसूस करता है, वह लुट जाता है.

शिक्षा महकमे के अफसर सबकुछ जानतेसमझते हुए भी बंद आंख से तमाशा देख रहे हैं. आखिर एक ही कक्षा, एक सा कोर्स और एकसमान बोर्ड होने के बावजूद किताबों की कीमतों में कई गुने का फर्क अफसरों को दिखाई क्यों नहीं देता?

पढ़ाई पर भारी फीस

देश में बढ़ती महंगाई के बीच अभिभावकों को सब से ज्यादा बच्चों के स्कूल की महंगी फीस की मार झेलनी पड़ रही है. निजी स्कूल महंगाई सूचकांक के अनुपात को नजरअंदाज कर मनमरजी से कई गुना फीस बढ़ा रहे हैं और यह सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है. स्कूल हर साल 10 से 40 फीसदी तक फीस बढ़ा देते हैं और फीस लिस्ट हर साल लंबी हो जाती है.

हालांकि राजस्थान में फीस कानून के बाद अस्तित्व में आई ‘फीस निर्धारण कमेटी’ ने निजी शिक्षण संस्थानों को अनुमति के बिना फीस नहीं बढ़ाने के सख्त निर्देश दिए हुए हैं लेकिन बावजूद इस के स्कूल मनमरजी से फीस बढ़ा रहे हैं. राजस्थान फीस निर्धारण कमेटी के अध्यक्ष व न्यायाधीश रह चुके शिव कुमार शर्मा ने बताया कि सुप्रीम कोर्ट के सी जे कपाडि़या, स्वतंत्र कुमार और के एस राधाकृष्णन की बैंच के 12 अप्रैल, 2012 के फैसले के पैरा नंबर 99 के मुताबिक, स्कूल सिर्फ रीजनेबल फीस ही बढ़ा सकते हैं. किसी भी निजी स्कूल को मुनाफाखोरी करने और फीस कमेटी की अनुमति के बिना फीस बढ़ाने का हक नहीं है.

राजस्थान फीस अधिनियम की धारा 2 ‘ड’ के अनुसार, निजी स्कूल की ओर से अभिभावकों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से ली गई रकम फीस ही मानी जाएगी, चाहे यह किसी भी नाम से वसूली गई हो. फीस कमेटी को स्कूल की फीस निर्धारित करने का हक है. वह मुनाफाखोरी करने वाले स्कूलों के खिलाफ सजा व आर्थिक जुर्माना लगाने के साथ मान्यता खत्म करने की अनुशंसा भी कर सकती है.

अभिभावकों से हुई बातचीत के मुताबिक, अच्छे स्कूल में ऐडमिशन की इच्छा को स्कूल पूरा भुनाते हैं. दाखिले के लिए अभिभावकों को मजबूरन स्कूल की मनमरजी के हिसाब से चलना पड़ता है.

कदमकदम पर लूट

अभिभावक बच्चों की शिक्षा के लिए मोटी रकम खर्च करने को तो तैयार हैं लेकिन उन्हें स्कूल संचालकों का आएदिन किसी न किसी बहाने से पैसा वसूलना गवारा नहीं है. ये स्कूल इतनी तरह की फीस वसूलते हैं कि अभिभावकों की समझ में ही नहीं आता. जयपुर पेरैंट्स वैलफेयर सोसायटी के संयोजक दिनेश कावंट ने बताया कि स्कूल प्रौस्पैक्टस, रजिस्ट्रेशन, ट्यूशन फीस, मैंबरशिप, ट्रांसपोर्टेशन, डैवलपमैंट, ऐक्टिविटी, ऐनुअल फीस, मैगजीन, एमएमएस, लेट फीस, स्मार्ट क्लासरूम, लाइब्रेरी, स्पोर्ट्स फीस के साथसाथ यूनिफौर्म, कौपीकिताबों के अलावा साल में कई और चीजों के नाम पर पैसा वसूला जाता है.

जयपुर के एक नामी स्कूल की छात्रा महिमा कुंतल ने बताया कि उस के स्कूल में हर 3 महीने बाद 700 रुपए ऐक्टिविटी फीस के रूप में लिए जाते हैं जबकि यहां ऐक्टिविटी के नाम पर खेलकूद के अलावा कुछ भी खास नहीं होता. स्कूल में हर महीने 200 रुपए लाइब्रेरी के नाम पर भी लिए जाते हैं जबकि लाइब्रेरी तो स्कूल की मूल जरूरत है. जयपुर के एसबीआई बैंक में कैशियर सौरभ राजदान का कहना है कि यह सब वसूली और लूटखसोट जैसा काम है. मेरा बेटा सुबोध पब्लिक स्कूल में पढ़ता है. पिछले दिनों उसे चौकलेट पर प्रोजैक्ट दिया गया, जिस के लिए मुझे काफी परेशान होना पड़ा.

एक अन्य अभिभावक अशोक गुप्ता ने बताया कि ऐडमिशन के समय विद्यालय के शानदार भवन और ढेरों सुविधाओं की बात कही गई थी, लेकिन पहले ही दिन बच्चे ने आ कर बताया कि उसे टिनशेड के नीचे बैठाया गया. हैरत की बात तो यह है कि शिक्षा में सब से आगे बच्चों का सर्वांगीण विकास, कुदरती विकास, नैतिकता, आध्यात्मिकता, अनुशासन और शतप्रतिशत परीक्षा परिणाम जैसे भारीभरकम दावे वाले बड़ेबड़े पब्लिक स्कूलों के प्रशासन की पेशानी पर उस वक्त बल पड़ जाते हैं जब उन से फीस की बात की जाती है.

स्कूल की प्रशंसा करते वे नहीं थकते, लेकिन फीस की जानकारी मांगने पर बिफर पड़ते हैं. इस प्रतिनिधि ने जब एक स्कूल रौयल इंटरनैशनल की प्राचार्या ज्योति खंडेलवाल से फीस की जानकारी चाही तो सुनना पड़ा, ‘‘यह हमारा अंदरूनी मामला है, मीडिया वालों को इस से क्या मतलब?’’

हिंदी बोलने पर जुर्माना

कई अंगरेजी स्कूलों में हिंदी में बातचीत करने पर पाबंदी ही नहीं, जुर्माना भी है. ऐसे स्कूलों में शिक्षक बच्चों के साथसाथ उन के अभिभावकों से भी अंगरेजी में ही बात करते हैं. जो अभिभावक अंगरेजी में कमजोर हैं वे शिक्षकों को अपनी बात तक नहीं बता पाते. जयपुर में एक पब्लिक स्कूल में तो हिंदी का एक शब्द बोलने पर 10 रुपए जुर्माना होता है, जो अगले दिन न दिए जाने पर 20 रुपए हो जाता है. इस के अलावा शारीरिक सजा अलग. इन स्कूलों में अंगरेजी पर ज्यादा जोर की वजह से बच्चे स्कूल में अंगरेजी ही बोलते हैं पर बाहर तो हिंदी में ही बात करनी पड़ती है. इस से बच्चों को टूटीफूटी अंगरेजी में बात करना तो आ जाता है लेकिन वे अपने घर व परिवेश से कट जाते हैं.

भव्य इमारतों में बिकता ज्ञान

बड़ीबड़ी भव्य इमारतों और उस से भी बड़ेबड़े दावों के साथ निजी स्कूल शान से खड़े हैं. एक हैक्टेअर क्षेत्रफल में विद्यालय परिसर, तीन मंजिला भव्य इमारत, विद्यार्थियों के शारीरिक विकास के लिए खेलकूद की उचित व्यवस्था, बच्चों की सुविधा हेतु स्कूल परिसर में कैंटीन की व्यवस्था आदि विद्यालय की महत्त्वपूर्ण विशेषताएं हैं. निजी स्कूलों के प्रौस्पैक्टस पर अंकित इस तरह की बातें बच्चों के परिजनों को कोरा सब्जबाग दिखाने के लिए होती हैं. चमचमाती भव्य इमारत को देख कर कोई भी जरूर भ्रमित हो सकता है कि इस इमारत में ही भारत के इंटैलीजैंट भविष्य का निर्माण होता है. आज के दौर में शिक्षा का पूरी तरह व्यवसायीकरण हो चुका है. शिक्षा की दुकानें ही क्या, पूरा का पूरा बाजार सज चुका है.

ट्रांसपोर्ट के जरिए वसूली

निजी स्कूल कमाई का कोई भी मौका अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहते. बच्चों को स्कूल लाने, ले जाने के लिए वाहन सुविधा के नाम पर वे लाखों रुपए की उगाही कर रहे हैं. जयपुर के संताकेबा बाल भारती स्कूल में बच्चों के परिजनों से 3 स्तर पर वाहन का भाड़ा वसूला जाता है. 5वीं तक के बच्चे से 900, छठी से 8वीं तक के बच्चों से 1,200 व 9वीं से 12वीं तक के बच्चों से 1,500 रुपए प्रतिमाह किराया वसूला जाता है. कईकई जगह बच्चे के घर की स्कूल की दूरी के हिसाब से वसूली की जाती है. इस के लिए कई स्कूलों ने अपने खुद के वाहन खरीद रखे हैं, तो कइयों ने किराए के वाहनों की व्यवस्था कर रखी है.

निजी स्कूलों में किताबों से सीधे कंप्यूटर पर छलांग मार ली गई है. इस से बच्चा ज्यादा ऐक्टिव तो नहीं हो पाया है, हां, उस के लिए पढ़ाई मुश्किल जरूर हो गई है. पढ़ाई के दौरान पब्लिक स्कूल में 8वीं की छात्रा स्मृति बताती है कि उस के यहां टिग्नोमेट्री टैलीविजन पर ग्राफिक से पढ़ाई जाती है. क्लिपिंग्स के जरिए भी पढ़ाई होती है.

कैसे रुके शिक्षा के नाम पर लूट

निजी स्कूलों की मनमानी रोकने के लिए उच्चतम न्यायालय के निर्देशों के तहत बने ‘राजस्थान विद्यालय अधिनियम 2013’ से प्रदेश के लोगों को काफी उम्मीदें थीं लेकिन इस कानून से अभी तक निजी स्कूलों की मनमानी पर किसी भी तरह की लगाम नहीं लग पाई है. ज्यादातर निजी स्कूल फीस निर्धारण कमेटी के निर्देशों को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं. स्कूल में पाठ्यसामग्री व स्कूल यूनिफौर्म न देने के प्रावधानों का खुलेआम उल्लंघन किया जा रहा है.

निजी स्कूल फीस निर्धारण कमेटी के निर्देशों को ज्यादा तवज्जुह नहीं दे रहे हैं, तो इस की खास वजह यह है कि कमेटी ने अभी ज्यादा सख्ती नहीं बरती है. मनमानी रोकने के लिए फीस निर्धारण कमेटी ही नहीं, शिक्षा महकमे और कलैक्टरों को भी सक्रियता दिखानी होगी. इस मामले में प्रदेश के श्रीगंगानगर शहर का उदाहरण सामने है. मामले के अनुसार, स्कूल में ही किताबें, कौपियां, यूनिफौर्म वगैरह बेचने की शिकायत मिलने पर शिक्षा महकमे के अफसर सक्रिय हुए और स्कूल के खिलाफ कार्यवाही हुई.

इस का मतलब यह है कि स्कूलों की मनमानी रोकने के लिए पर्याप्त कानून व एजेंसियां मौजूद हैं पर वे सुस्त हैं. वे अगर सजगता व सक्रियता दिखाएं तो लोगों को स्कूल संचालकों की लूट से मुक्ति मिल सकती है. लूट के केंद्र के रूप में तबदील हो चुके इन शिक्षा के मंदिरों के संचालकों को राजनीतिक व प्रशासनिक संरक्षण मिला हुआ है. इसलिए ये स्कूल किसी की परवा नहीं करते और लूट का कोई न कोई नया जरिया अपनाते रहते हैं. असरदार लोगों के बच्चों को फीस में भारी रियायत दे कर वे उन के आंख, कान, मुंह को बंद कर देते हैं.

ऐसा भी नहीं है कि इन स्कूलों को मान्यता देने वाली एजेंसियों व श्रम विभाग को इस की जानकारी न हो. सरकार से मामूली दरों पर जमीन हासिल कर के स्कूल खोलने वाले अच्छी तरह से जानते हैं कि कानून की गलियों से कैसे निकला जा सकता है और किसे खुश कर के अपनी जिम्मेदारी से बचा जा सकता है.

निजी स्कूलों पर नकेल

निजी स्कूलों की मनमानी पर दिल्ली सरकार (फिलहाल उपराज्यपाल कामकाज देख रहे हैं) ने जरूर कुछ कड़े कदम उठाने की तैयारी की है. छठे वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने के नाम पर मनमाने ढंग से फीसवृद्धि करने वाले दिल्ली के 364 प्राइवेट स्कूलों पर गाज गिर सकती है. गौरतलब है कि दिल्ली सरकार ने सर्कुलर जारी कर मनमाने ढंग से स्कूल फीस बढ़ाने वाले सभी स्कूलों को वसूली गई अतिरिक्त फीस लौटाने को कहा था. लेकिन किसी भी स्कूल प्रबंधन ने इस संबंध में न तो जवाब दिया और न ही आदेश माना. अब दिल्ली सरकार आदेश न मानने वाले सभी स्कूल संचालकों पर कड़ी कार्यवाही की तैयारी कर रही है. दिल्ली के 364 स्कूलों को करीब 100 करोड़ रुपए अभिभावकों को लौटाने के लिए कहा गया था.

यह जानकारी दिल्ली सरकार की ओर से दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति बी डी अहमद व न्यायमूर्ति सिद्धार्थ मृदुल की खंडपीठ के समक्ष दी गई है. दिल्ली सरकार कार्यवाही संबंधी स्टेटस रिपोर्ट 28 अक्तूबर तक अदालत के समक्ष पेश करेगी. ज्ञात हो कि 28 अक्तूबर को ही स्कूल फीसवृद्धि मामले को ले कर दिल्ली हाई कोर्ट में सुनवाई होगी. दरअसल, दिल्ली के स्कूलों द्वारा मनमाने ढंग से स्कूल फीसवृद्धि किए जाने के विरोध में बच्चों के अभिभावकों ने अधिवक्ता अशोक अग्रवाल के माध्यम से फरवरी 2009 में जनहित याचिका दायर की थी. इस पर सुनवाई करते हुए अगस्त 2011 में हाई कोर्ट ने मामले की जांच के लिए कमेटी गठित की थी. कमेटी को दिल्ली के 1200 प्राइवेट स्कूलों के खातों की जांच कर रिपोर्ट तैयार करनी थी.

कमेटी अब तक 725 स्कूलों के खातों की जांच कर चुकी है. कमेटी ने364 स्कूलों को मनमाने ढंग से फीसवृद्धि करने का दोषी पाया और वसूली गई अतिरिक्त फीस वापस लौटाने की अनुशंसा भी सरकार से की. कमेटी ने पहली रिपोर्ट 13 जनवरी, 2013 को हाई कोर्ट को सौंपी थी. कमेटी अब तक 6 रिपोर्ट हाई कोर्ट को दे चुकी है. अभी करीब 500 स्कूलों के खातों की जांच होनी बाकी है. अगर झारखंड की बात करें तो रांची में निजी स्कूलों में ऐनुअल फीस व रीऐडमिशन के नाम पर बच्चों से 2 हजार से 4 हजार रुपए तक वसूले जाते हैं. एक आंकड़े के मुताबिक, वहां सीबीएसई व आइसीएसई बोर्ड से मान्यताप्राप्त लगभग 65 स्कूल हैं और 50 प्ले ग्रुप के स्कूल ऐसे हैं, जिन्हें किसी बोर्ड से मान्यता नहीं प्राप्त है, पर वे दूसरे स्कूल की 10वीं की परीक्षा में अपने बच्चों को शामिल कराते हैं.

एक स्कूल में औसत 2 हजार बच्चे पढ़ते हैं, इस तरह 100 स्कूल में बच्चों की कुल संख्या 2 लाख हुई. एक बच्चे से औसत वार्षिक शुल्क, रीऐडमिशन, मिसलेनिएस चार्ज 2 हजार रुपए भी मान लिया जाए तो प्रतिवर्ष सत्र शुरू होने के साथ रांची के स्कूल बच्चों से लगभग 40 करोड़ रुपए की वसूली कर लेते हैं. इतना ही नहीं, किताब और नोटबुक के नाम पर लूट पूरे झारखंड में जारी है. इस खेल में पब्लिशर्स, स्कूल प्रबंधन और दुकानदार खूब पैसा कमा रहे हैं. आमतौर पर जिस किताब की कीमत 100 रुपए होनी चाहिए, उस की कीमत 190 रुपए प्रिंट की जाती है. दुकानदार कम कीमत वाली एनसीईआरटी की पुस्तकें बेचने से बचते हैं क्योंकि इन में कमीशन बहुत कम मिलता है. एक आंकड़े के अनुसार, सिर्फ रांची के किताब दुकानदार स्कूली किताबों और कौपियों से लगभग 12 करोड़ रुपए कमीशन से कमाते हैं.

चौंकाने वाले आंकड़े

अध्ययन बताता है कि मुंबई के म्युनिसिपल स्कूलों में 2007-08 में 7.26 फीसदी, 2008-09 में 6.32 फीसदी और 2009-10 में 6.63 फीसदी छात्रों ने ड्रौपआउट किया. कुछ ऐसा ही हाल हिमाचल प्रदेश का भी है. यहां भी सरकारी स्कूलों में छात्रों की संख्या एकतिहाई कम हो गई है. हिमाचल सरकार की सर्वे रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश के सरकारी स्कूलों के छात्र 90 फीसदी से घट कर 65 फीसदी रह गए हैं. इस का सीधा फायदा निजी स्कूलों को मिला है और प्राइवेट स्कूलों के छात्रों की संख्या 10 फीसदी से बढ़ कर 35 फीसदी पहुंच गई है.

सर्वशिक्षा ने वर्ष 2007 से ले कर 2012 तक के सरकारी व प्राइवेट स्कूलों के छात्रों की अध्ययन रिपोर्ट तैयार की है. इस के अनुसार, वर्ष 2007 में प्रदेश के कुल छात्रों की संख्या के 90 फीसदी छात्र सरकारी स्कूलों में शिक्षा ग्रहण करते थे. इस के मुकाबले प्राइवेट स्कूलों में मात्र 10 फीसदी छात्र ही पढ़ रहे थे. अब 2012 तक किए गए इस अध्ययन में सर्वशिक्षा अभियान के चौंकाने वाले आंकड़े मिले हैं. प्रदेश के महज 10 फीसदी छात्रों को शिक्षा देने वाले प्राइवेट स्कूलों ने सरकारी स्कूलों के 25 फीसदी छात्र उन से छीन लिए हैं. सरकारी स्कूलों में बड़े स्तर पर उलटफेर होते हुए 90 फीसदी छात्रों का ग्राफ 65 फीसदी चला गया है. जाहिर है, बच्चे निजी स्कूलों का रुख कर रहे हैं. दरअसल, सरकारी शिक्षा में बदहाली भी अभिभावकों को निजी स्कूलों में जाने पर मजबूर कर देती है. फिर भले ही उन्हें कर्ज लेना पड़े.

शिक्षकों की कमी

वर्ष 2010 में तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने राज्यसभा में कहा था कि भारत में 12 लाख शिक्षकों की कमी है और 5.23 लाख पद रिक्त पड़े हैं. अगर शिक्षा का अधिकार कानून 2009 की बात करें तो इस में 30 छात्रों पर 1 शिक्षक होने की बात की गई है पर वास्तविकता कुछ और ही है. देश के 11 फीसदी प्राथमिक विद्यालयों में मात्र 1 शिक्षक है. कई राज्यों में स्थिति और भी बदतर है.

ऐसा नहीं है कि देशभर में योग्य शिक्षक नहीं हैं, इस के लिए सरकारें ही गंभीर नहीं हैं. सरकारें चाहती हैं कि स्थायी पद भरने के बजाय शिक्षकों को कम पैसों में कौन्ट्रैक्ट बेसिस पर रखा जाए. वर्ष 1990 में जब देश की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी तब ऐसा किया गया था और आज सिर्फ दिल्ली की बात करें तो तकरीबन 20 हजार शिक्षक कौन्ट्रैक्ट पर काम कर रहे हैं. राज्यों में कौन्ट्रैक्ट पर जो शिक्षक काम करते हैं उन्हें  अलगअलग वेतनमान दिए जाते हैं. देशभर में सरकारी विद्यालयों की संख्या तकरीबन 10.9 लाख है और देशभर के विद्यालयों में तकरीबन 65.3 लाख शिक्षक हैं जबकि सरकारी विद्यालयों में शिक्षकों की संख्या तकरीबन 46.1 लाख है.

फलताफूलता कोचिंग कारोबार

रातोंरात अमीर बनने के मंसूबों ने शिक्षा को धंधा बना दिया है. मिडल व हायर सैकंडरी स्कूल एसोसिएशन, जयपुर से मिली जानकारी के मुताबिक, अकेले जयपुर शहर में 355 कोचिंग इंस्टिट्यूट हैं. इन में से 170 कोचिंग इंस्टिट्यूट निजी स्कूल संचालकों के हैं. चौधरी ग्रुप औफ स्कूल ऐंड कालेज, परिश्कार एजुकेशन ग्रुप, पोद्दार स्कूल ऐंड कालेज, माहेश्वरी एजुकेशन सैंटर, पूर्णिमा, आकाश दीप, नैशनल एजुकेशन इंस्टिट्यूट जैसे दर्जनों नाम हैं, जिन के पब्लिक स्कूलों के साथसाथ कोचिंग इंस्टिट्यूट व कालेज चलते हैं.

पब्लिक स्कूलों की आड़ में कोचिंग व ट्यूशन सैंटर भी धड़ल्ले से चलाए जा रहे हैं. यहां निजी स्कूल बनाम कोचिंग संस्थानों का तगड़ा नैटवर्क है. पिछली 16 जुलाई को निजी स्कूलों व कोचिंग संस्थानों की मिलीभगत व मनमानी के खिलाफ छात्रों व उन के परिजनों का गुस्सा कहीं से भी गलत नहीं था. परिजनों का आरोप था कि निजी स्कूल संचालक 9वीं से 12वीं कक्षा तक के बच्चों को स्कूल के साथसाथ उन के कोचिंग संस्थान में दाखिला लेने को मजबूर करते हैं. उन का यह भी आरोप था कि कोर्स पूरा कराने के एवज में कोचिंग संस्थान उन से स्कूल फीस के अलावा 15 से 45 हजार रुपए प्रति महीना अतिरिक्त वसूलते हैं.

12वीं की पढ़ाई कर रही छात्रा सोनाली के पिता गोविंद सिन्हा कहते हैं, ‘‘अगर बच्चे को स्कूल में ही मेहनत कराई जाए, तो फिर कोचिंग का क्या मतलब है? पब्लिक स्कूल आजकल क्या पढ़ा रहे हैं? अगर नंबर लाने और रिजल्ट के अच्छे होने का सारा दारोमदार कोचिंग सैंटरों पर निर्भर करता है तो फिर ये पब्लिक स्कूल किस बात का दम भर रहे हैं और बतौर फीस मोटी रकम किस बात की वसूल रहे हैं?’’ सुधा चोपड़ा एक कामकाजी महिला हैं और उन के दोनों बच्चे इस साल बोर्ड की परीक्षाएं देंगे. वे कहती हैं, ‘‘ऐसा क्यों है कि टीचरपेरैंट्स मीटिंग में टीचर सीधे पेरैंट्स से पूछता है कि क्या आप का बच्चा ट्यूशन, स्पैशल क्लासें वगैरह ले रहा है? ‘‘ऐसी बातों से साफ जाहिर होता है कि हम पढ़ाएं या न पढ़ाएं, बच्चा ट्यूशन पढ़े ही पढ़े.़’’

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