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पूंजी बाजार

भारी बिकवाली से बाजार में निराशा की स्थिति

बौंबे स्टौक एक्सचेंज यानी बीएसई का सूचकांक 30 हजार अंक के स्तर को छूने के लिए तत्पर है. इस मनोवैज्ञानिक स्तर तक पहुंचने में कई बार यह गहरा गोता भी लगा रहा है तो कई बार ऊंची छलांग लगा रहा है. इस ऊहापोह के बीच 29 जनवरी को सूचकांक ने सर्वाधिक ऊंचाई हासिल की लेकिन अगले ही सत्र में 500 अंक का गोता लगा गया. नैशनल स्टौक एक्सचेंज यानी निफ्टी भी औसतन इसी स्तर पर आगेपीछे हो रहा है. इन सब स्थितियों के बावजूद निवेशकों में देश की आर्थिक तरक्की को ले कर विश्वास का भाव है और उन का उत्साह लगातार बाजार को नई ऊंचाई पर ले जाने के लिए बना हुआ है. हालांकि फरवरी के पहले दिन से ही बाजार में गिरावट का माहौल रहा और प्रथम सत्र में ही सूचकांक एक सप्ताह के निचले स्तर पर पहुंच गया. फरवरी की शुरुआत से सूचकांक लगातार 7 सत्र तक गिरावट के साथ बंद होता रहा. सप्ताह के आखिरी दिन यानी 5 फरवरी को बाजार रिजर्व बैंक के नीतिगत दरों में कटौती नहीं करने की वजह से निवेशकों में निराशा का माहौल बना और सूचकांक बिकवाली के भारी दबाव में 2 सप्ताह के निचले स्तर पर आ गया और 29 हजार के मनोवैज्ञानिक स्तर से उतर गया. बावजूद इस के, जानकारों को उम्मीद है कि बाजार उठेगा और इस का संकेत रुपए का मजबूत होता रुख दे रहा है. हालांकि राजनीतिक समीकरणों के बदले रुख के अनुमान से फरवरी के दूसरे सप्ताह की शुरुआत जोरदार झटके के साथ हुई और सूचकांक करीब 5 अंक टूट गया.

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कुशल कामगारों की कमी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘मेक इन इंडिया’ नीति कितनी कारगर होगी यह अनुमान लगाना फिलहाल आसान नहीं है. लेकिन इस बहाने देश के 10 करोड़ युवकों के लिए विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार के अवसर पैदा करने का जो लक्ष्य निर्धारित किया गया है उस से बेरोजगार युवकों में उत्साह है. इस के ठीक विपरीत स्थिति विनिर्माण क्षेत्र की कंपनियों की है. इस की वजह कौशल के आधार पर कामगारों की व्यवस्था पर नजर रखने वाले नैशनल एक्युपेशनल क्लासिफिकेशन कोड का वह डाटा है जिस में कहा गया है कि देश में विनिर्माण क्षेत्र के लिए कुशल कामगारों की भारी कमी है.

कोड का कहना है कि इस क्षेत्र में नौकरी पाने के लिए 90 फीसदी कामगारों का कुशल होना आवश्यक है जबकि 90 फीसदी युवक कालेजों से सीधे निकल कर नौकरी मांग रहे हैं. उन युवकों में ज्ञान, विज्ञान की अच्छी समझ है लेकिन विनिर्माण क्षेत्र के लिए जिस कौशल की आवश्यकता है उस का अभाव है. देश में 4 करोड़ लोग संगठित क्षेत्रों में काम कर रहे हैं लेकिन इन में मात्र 2 फीसदी ही व्यावसायिक प्रशिक्षणप्राप्त हैं. इसी तरह से 70 फीसदी कामगार प्राथमिक अथवा उस से कम स्तर तक पढ़ेलिखे हैं. मुश्किल से 10 प्रतिशत ही व्यावसायिक प्रशिक्षण हासिल किए हुए हैं जबकि निर्माण क्षेत्र में 10 में से एक ही कुशल श्रमिक है. इस की बड़ी वजह है कि आईटीआई कौशल विकास के उचित प्रबंध नहीं हैं. वहां से सर्टिफिकेट तो मिल जाता है लेकिन युवकों को व्यावहारिक ज्ञान उपकरणों की कमी आदि की वजह से नहीं हो पाता है.

राष्ट्रीय कौशल विकास परिषद का हाल ही में एक सर्वेक्षण आया है जिस में कहा गया है कि हालात नहीं सुधरे तो 2022 तक आटोमोबाइल क्षेत्र में 3.50 करोड़, निर्माण क्षेत्र में 1.5 करोड़ तथा ज्वैलरी क्षेत्र में 5 करोड़ कुशल कामगारों की कमी हो जाएगी. सरकार को उस कमी को पूरा करने के लिए सरकारी के साथ ही निजी क्षेत्र के प्रशिक्षण संस्थानों को महत्त्व देने की जरूरत है.

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डिजिटल इंडिया का ‘कमजोर’ सिगनल

देश में इंटरनैट और मोबाइल फोन उपभोक्ताओं की संख्या जिस गति से बढ़ रही है उस रफ्तार से उन्हें यह सेवा उपलब्ध नहीं हो पा रही है. सिगनल्स बहुत ही कमजोर हैं, उपभोक्ता इस से बेहद आहत है. संचार मंत्री और प्रधानमंत्री इस समस्या से अवगत हैं. प्रधानमंत्री ने तो देश में इंटरनैट की गति धीमी होने की वजह जानने के लिए संचार सचिव को रिपोर्ट प्रस्तुत करने को भी कहा था, इसी तरह से संचार मंत्री भी मोबाइल कनैक्टिविटी के कमजोर होने से परेशान हैं. संचार मंत्री का दावा है कि उन्होंने सेवा प्रदाताओं को सेवा में सुधार के लिए सख्त आदेश दिए हैं और जल्द ही उपभोक्ताओं को बेहतर सेवा मिलनी शुरू हो जाएगी. उन का कहना है कि ब्रौडबैंड का सीधा संबंध सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी से है और इस के स्तर पर समझौता नहीं किया जा सकता है.

मंत्री का कहना है कि संचार क्षेत्र में अरबों का कारोबार हो रहा है और उस से 10 लाख लोगों को सीधे और 30 लाख लोगों को अप्रत्यक्ष तौर पर रोजगार मिल रहा है. देश में 90 करोड़ मोबाइल उपभोक्ता और 30 करोड़ लोग इंटरनैट का इस्तेमाल कर रहे हैं. इतने बड़े स्तर पर जिस सेवा की सेवाएं ली जा रही हैं उस में सुधार किया जाना समय की जरूरत है. लेकिन दिक्कत यह है कि इस सेवा क्षेत्र पर निगरानी रखने वाले दूरसंचार नियामक यानी ट्राई के द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार सेवा उपलब्ध कराई जा रही है. इस स्थिति में या तो सेवा प्रदाता के स्तर पर कुछ गड़बड़ी है या फिर ट्राई ने उचित स्तर पर मानक तय नहीं किए हैं. स्थिति जो भी हो, जब सरकार ही इस क्षेत्र की सेवा से खुश नहीं है तो आम उपभोक्ता के संतुष्ट होने की जगह ही नहीं बचती है. ग्रामीण क्षेत्रों में तो सिगनल्स मिलते ही नहीं हैं. उपभोक्ता को बात करने के लिए छतों पर या ऊंचे स्थान पर जाना पड़ता है. सरकारी क्षेत्र के उपभोक्ता तो महानगरों में भी परेशान हैं. पोर्टिबिलिटी में यदि यही स्थिति रही तो डिजिटल इंडिया का सपना किस तरह पूरा हो सकता है.

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जनधन योजना का ‘आधार’ चरण

केंद्र सरकार जनधन योजना को अपनी उपलब्धि की अब तक की सब से सफल योजना बता रही है. यह सचाई भी है. इस से गरीबों के खातों में पैसा भले ही नहीं हो लेकिन उस के हाथ में पासबुक है. इस से कई गरीबों का बैंक खाता होने का सपना पूरा हुआ है. रिकौर्ड समय में रिकार्ड खाते खुले. योजना को कम समय में सर्वाधिक खाता खोलने के लिए गिनीज बुक औफ वर्ल्ड रिकौर्ड्स में भी जगह मिली. जीरो बैलेंस के इन खातों में सूखापन नहीं रहे इसलिए विभिन्न सरकारी योजनाओं में मिलने वाली सब्सिडी को प्रत्यक्ष लाभ अंतरण यानी डीवीटी के जरिए इस योजना से जोड़ दिया गया. मतलब कि रसोई गैस का सिलेंडर दोगुनी कीमत पर खरीदिए और सब्सिडी का पैसा डीवीटी में आ जाएगा. इस का तात्पर्य यह हुआ कि आप का बटुआ तत्काल भरा होना चाहिए. इस से गरीब परेशान है.

बहरहाल, सरकार का कहना है कि योजना का पहला चरण पूरा हो चुका है और दूसरे चरण में इन खातों का उपयोग अब खाताधारक को कर्ज देने, उस के बीमा करने और यहां तक कि उस की पैंशन योजना के लिए भी किया जाएगा. इस के लिए जनधन योजना के सभी खातों को आधार से जोड़ा जा रहा है. ठीक है कि गरीब के लिए आधार नया प्लेटफौर्म होगा लेकिन जरूरत योजनाओं के क्रियान्वयन की है. वृद्धावस्था पैंशन अथवा विधवा पैंशन समय पर मिले, इस के लिए गरीब को तंग नहीं होना पडे़. पैसा आधार से जुड़े या पोस्ट औफिस के जरिए पहुंचे, उस से फर्क नहीं पड़ता. कर्ज मिले अथवा पैंशन, वह समय पर गरीब को उपलब्ध हो, उसे इस से ज्यादा कुछ नहीं चाहिए. गरीब के लिए योजनाएं तब ही फायदेमंद हैं जब जरूरत के समय उसे उन का लाभ मिले. लाभ तब ही मिलेगा जब समय पर उस के पास पैसा पहुंचेगा.

भारत भूमि युगे युगे

अवसाद में राव

हमारे देश में वैज्ञानिकों की खास पूछपरख नहीं है. वे कभी किसी के, खासतौर से युवा वर्ग के रोल मौडल नहीं रहे. भारतरत्न से सम्मानित वैज्ञानिक सीएनआर राव की भड़ास आखिरकार फूट ही पड़ी कि देश में वैज्ञानिक अगर कुछ गलत कर दें तो हर कोई उन की खिंचाई के लिए तैयार रहता है, इसलिए वे अवसाद में रहते हैं. बात सच है. कुछ भी गलत करने की छूट व अधिकार लोगों ने राजनेताओं और खिलाडि़यों को दे रखे हैं. वे गलती न करें तो लोगों को हैरानी होने लगती है. अवसाद बुरी चीज है और अगर विज्ञान जगत में हो तो बात चिंतनीय हो जाती है. सो, वैज्ञानिकों को जिस प्रोत्साहन और प्रशंसा की खुराक चाहिए वह उन्हें दी जानी चाहिए. यह सम्मानों से पूरी नहीं होती. तो कैसे पूरी होगी यह, राव ही बताते तो बेहतर होता.

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जेटली का विजन

केंद्र सरकार आमदनी से ज्यादा खर्च कर रही है तो इस के जिम्मेदार वित्त मंत्री अरुण जेटली हैं जिन्हें अब समझ आ रहा होगा कि अपने कार्यकाल के उत्तरार्ध में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने गलत नहीं कहा था कि पैसे पेड़ पर नहीं उगते. खर्च चलाने के लिए अरुण जेटली ने सब्सिडी खैरात की तरह न बांटने और मंत्रालयों के खर्चों में 20 फीसदी की कटौती की जो घोषणा की है उस से ही लोगों ने अंदाजा लगा लिया कि एनडीए सरकार का पहला बजट जेटली की बातों की तरह गोलमोल और फ्लौप होगा. खर्च में कटौती कोई आमदनी नहीं होती, यह तो सियासी शिगूफा और टैक्स बढ़ाने की पूर्व सूचना होती है और इस से लोगों का कोई भला नहीं होता.

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फिर से अन्ना

मुकम्मल आराम और चिंतन के बाद अन्ना हजारे फिर आंदोलन के मूड और मोड़ पर आ गए हैं. मुद्दे पुराने कालाधन और भ्रष्टाचार हैं पर इस दफा निशाने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी होंगे. राजनीति की भेंट चढ़े चेलों-अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी की जगह नए शिष्य हिंदूवादी चिंतक गोविंदाचार्य दिखेंगे जो बीते दिनों रालेगण सिद्धी में अन्ना से खासतौर से मिलने गए थे. ये दोनों भूमि अधिग्रहण पर भी हल्ला मचा सकते हैं. नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री की कुरसी तक पहुंचाने में अन्ना आंदोलन का बड़ा रोल था जिस ने बदलाव की प्रस्तावना लिखी थी. तकनीकी दिक्कत अन्ना खेमे को यह पेश आ रही है कि आंदोलन की मार्केटिंग कैसे की जाए. माहौल और समर्थन पहले जैसे तो मिलने से रहे. वजह, लोग घरबार छोड़ आंदोलनों को तीजत्योहार सरीखा नहीं मान सकते, दूसरे, गोविंदाचार्य आए हुए नहीं भेजे हुए लग रहे हैं. मुमकिन है कल को वे हिंदुत्व के जरिए कालाधन लाने और भ्रष्टाचार मिटाने जैसी काल्पनिक बातें करने लगें तो अन्ना की मुश्किलें और बढ़ जाएंगी.

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मझधार में मांझी

बजाय सलीके से बिहार चलाने के जीतनराम मांझी दलित होने का रोना रोते अगड़ों को कोसने का अपना पसंदीदा काम करते सहानुभूति बटोरने में जुटे रहे, जो काफी फ्लौप शो साबित हो चुका है. न मानने पर जदयू ने उन्हें ससम्मान बाहर का रास्ता दिखा दिया तो वे बहुमत और नीतीश की सत्तालोलुपता का राग अलापने लगे. इस से उन की अक्षमता ही सामने आई. दरअसल, मांझी रबरस्टैंप सीएम ही थे जो मजबूती का भ्रम पाल बैठे और समझ नहीं पाए कि लोकतंत्र में भी खड़ाऊं शासन चलता है. फर्क छोटेबड़े सिंहासन का है. असली शासक सामने नहीं आता बल्कि परदे के पीछे से कठपुतलियों की तरह नचाता रहता है. बहरहाल, राजनीति के अपने ज्ञान व तजरबे के मुताबिक मांझी ने नीतीश के सब से बड़े राजनीतिक दुश्मन व देश के सब से ताकतवर राजनेता नरेंद्र मोदी की शरण में दस्तक दे दी.

जनता से किए वादे पूरे करेंगे

दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में ऐतिहासिक जीत से न सिर्फ भाजपा को शिकस्त दी बल्कि कांगे्रस को दिल्ली से साफ कर दिया. दिल्ली की जनता को ‘आप’ से बहुत उम्मीदें हैं कि दिल्ली में अब सबकुछ ठीक होगा. करप्शन खत्म होगा, बिजलीपानी के बिलों में राहत मिलेगी. आइए जानते हैं दिल्ली के डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया इस बारे में क्या कहते हैं :

आज तक किसी भी सरकार ने अपने मैनिफेस्टो में किए गए वादे पूरे नहीं किए. क्या ‘आप’ से यह उम्मीद कर सकते हैं कि यह ट्रैंड बदलेगा?

हम तो राजनीति में आए ही इसलिए हैं कि काम करना है. आज की राजनीति जीत में जश्न मनाती है. मेरे पास जितने भी लोग आते हैं वे माला ले कर आते हैं पर मैं कोशिश करता हूं कि यह माला आप खुद पहनिए. यह आप की जीत है क्योंकि जीते आप हैं. हम बारबार कहते थे कि हम राजनीति को बदलने आए हैं अगर राजनीति करने लगे तो फिर पहले जीत का जश्न मनाएंगे, फिर शपथ लेंगे और फिर 15-20 दिन उस का जश्न मनाएंगे. हनीमून पीरियड मांगेंगे, उस के बाद काम करना शुरू करेंगे, यही तो राजनीति की दिक्कत है. सबकुछ बहुत लेट हो गया है. बहुत सारी समस्याएं हैं. अब किसी के घर के आगे सीवर की समस्या है. उस से परेशानी हो रही है तो हम हनीमून पीरियड तक इंतजार नहीं कर सकते. उस समस्या का निवारण तुरंत होना चाहिए. हम अपने वादों को ले कर बेहद गंभीर हैं और उन्हें पूरा करने की दिशा में हम लोग काम करने में जुट गए हैं. हमारा पहला लक्ष्य सस्ती बिजली और पानी मुहैया कराना है. इस के अलावा गरमी के दौरान फलों और सब्जियों के दाम काबू में रहें, इस के लिए सारी व्यवस्था तय कर ली गई है. किसी भी चीज के लिए हम ने अभी टाइम फिक्स नहीं किया है. हम ने अपने हिसाब से कैलकुलेशन किए हैं. जनता ने हमें 5 साल दिए हैं काम करने के लिए.

आप ने नए स्कूलकालेज खोलने की बात कही है. क्या बिल्डिंग्स बनाने पर जोर देना रहेगा या फिर शिक्षा के स्तर को सुधारने में फोकस रहेगा?

इसे एक लाइन में नहीं बताया जा सकता. क्वालिटी में हमें बहुत काम करना होगा. टीचर और पेरैंट्स को प्रोत्साहन देना होगा. कंटैंट को बदलना होगा. पढ़ाई के प्रति बच्चों में इंटै्रस्ट जगाना होगा. एजुकेशन को इंट्रैस्ट का विषय बनाना है. कई ऐसे विषय हैं जिन्हें पढ़ कर बच्चा बोर हो जाता है. इसलिए जब तक उन्हें इंट्रैस्टिंग नहीं बनाया जाएगा तब तक वह पढ़ नहीं सकता.

दिल्ली में प्राइवेट स्कूलों की मनमानी से अभिभावकों को राहत नहीं मिल पा रही है, खासकर नर्सरी ऐडमिशन के दौरान अभिभावक परेशान रहते हैं. क्या इस से उन को नजात मिलेगी?

इस वर्ष तो ऐडमिशन लगभग पूरे हो चुके हैं. बतौर मिनिस्टर अब हम देखेंगे कि लास्ट मिनट तक हम कितना काम कर पाते हैं लेकिन अगले साल इस प्रोसैस को पूरी तरह ठीक कर लिया जाएगा.

अवैध कालोनियों को केवल वैध कर देने से क्या समस्या का हल हो जाएगा और कितना समय लग जाएगा?

इस के लिए मैप बनाना पड़ेगा. मैप के बाद उन को दिल्ली के मास्टर प्लान में शामिल कराना पड़ेगा. उस मास्टर प्लान को पार्लियामैंट से अमेंड कराना पड़ेगा. तब समस्या का समाधान होगा. अलगअलग कालोनियों के लिए अलगअलग समय लगेगा पर दिल्ली सरकार जितना जल्दी हो सके मैपिंग का काम करवा लेगी.

दिल्ली को पूर्ण राज्य का दरजा मिल जाने से क्या वाकई में दिल्ली की तसवीर बदल जाएगी?

हम तो पूर्ण राज्य का दरजा मांग ही रहे हैं. इस के लिए जो भी जरूरी होगा रेगुलेशन से ले कर स्ट्रैटिजी तक करेंगे. प्रधानमंत्री ने भी इस पर विचार करने का भरोसा दिया है.

क्या आप को लगता है यह सब आसान होगा? आप कई फैसले तो ले लेंगे पर कई फैसलों में आप का टकराव केंद्र सरकार से होगा, फिर आप क्या करेंगे?

केंद्र सरकार को जोजो देना है वह हम केंद्र सरकार से मांगेंगे. दिल्ली के लोगों ने हमें 67 विधायक दिए हैं. इस का मतलब साफ है कि जो दिल्ली सरकार के हाथ में है वह धड़ल्ले से करो और अगर नहीं है तो सभी विधायकों के साथ मांग करो.

महिला सुरक्षा की बात करें तो क्या केवल सीसीटीवी लगा देने से महिलाएं सुरक्षित हो जाएंगी?

सीसीटीवी बहुत जरूरी हैं लेकिन इस के लिए कई कानूनों में बदलाव लाना होगा. एजुकेशन सिस्टम को ठीक करना होगा. एक 4 साल का बच्चा जब स्कूल जाता है तब वह महिलाएं नहीं छेड़ रहा होता लेकिन वह बच्चा जब 24 साल का हो कर जैसे ही एजुकेशन सिस्टम से बाहर आता है तो यह शिक्षा की गारंटी होगी कि वह आगे महिलाओं के लिए खतरा नहीं होगा. वह शिक्षा हमें उन्हें देनी होगी.

दिल्ली में चलने वाली आरटीवी बसों के लिए कोई नियमकानून नहीं है. वे ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन कर के अपनी मनमानी करते हैं जिस से आम आदमी बहुत परेशान है?

अब यह नहीं चलेगा. इन सभी को रेगुलेट करेंगे ताकि ये नियमों का ध्यान रखें और आम जनता को परेशानी न हो.

इस के अलावा रेहड़ीपटरी से भी लोग परेशान हैं. जहांतहां लगाने से अकसर लोगों को जाम से जूझना पड़ता है?

इसे भी रेगुलेट करने की जरूरत है. देखिए, रेगुलेट करने की कोशिश नहीं होती. नगरनिगम वाले, पुलिस वाले, जिन की दुकान के आगे ये लगाते हैं वे भी इन से पैसा लेते हैं. इन सभी को रेगुलेट कर देने और परची काटने से न तो पुलिस वाले और न ही नगरनिगम वाले वसूली कर पाएंगे. इस के बावजूद ये इधरउधर रेहड़ीपटरी लगाएंगे तब उन पर सख्ती की जाएगी.

आप ये सब जितनी बातें करते हैं कि पूरी दिल्ली में वाईफाई फ्री होगा या सीसीटीवी कैमरे लगाए जाएंगे या फिर बिजलीपानी सस्ती कर देंगे. खर्चों का आप ने तो कैलकुलेशन कर रखा है पर इतने पैसे आएंगे कहां से?

40 हजार करोड़ रुपए हर साल दिल्ली सरकार खर्च करती है. बहुत सारा फुजूलखर्ची में जाता है. बहुत सारा करप्शन में जाता है, इसे रोकेंगे. हमारा मुख्य लक्ष्य सब्सिडी के बजाय बिजली कंपनियों का औडिट करवाना है ताकि सचाई सामने आ सके और सब्सिडी दिए बगैर बिजली के बिल कम आएं.

जनलोकपाल बिल कब आएगा?

कोशिश करेंगे कि विधानसभा के पहले सत्र में आ जाए. यह हमारी प्राथमिकता है. 47 दिनों की सरकार में जो लोकपाल और स्वराज बिल का मसौदा था वही पेश किया जाएगा.

क्या आप मानते हैं कि दिल्ली की जनता ने कट्टरता को नकार दिया है?

कौन हारा कौन जीता, यह आप देखिए. मेरा काम है कि दिल्ली की जनता ने हमें 67 विधायक दिए हैं काम करने के लिए.

क्या गारंटी है कि आप लोगों में अहंकार नहीं आएगा?

जिस में अहंकार आएगा और जो गलत काम करेगा उसे सजा मिलेगी, इस की गारंटी है.

बिखरता समाज

भारत ही नहीं, विश्व के सभी देशों में जीवन एक पहेली बनता जा रहा है. आतंकवाद के फैलते पांव ने जानमाल को असुरक्षित कर डाला है तो आर्थिक संकट के चलते अर्थव्यवस्थाएं लोगों का जीवन दूभर कर रही हैं. यह आशा थी कि 21वीं सदी विज्ञान और तकनीक के सहारे सुखदायी होगी पर इस में चारों ओर हत्याएं, बमबारी, विध्वंस, बेकारी, डांवांडोल होते परिवार, अकेलापन, महंगी चिकित्सा आदि दिख रहे हैं. सभ्य समाज के दिन आने से पहले ही लद गए लग रहे हैं. दुनिया के शासक एक बार फिर शीत युद्ध की ओर बढ़ रहे हैं. और तकनीक ने जिन जमीनी सीमाओं को मिटा दिया था उन्हें बैंकरों, शक्ति के पुजारियों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने फिर से खींच दिया है.

नागरिक फिर से असुरक्षा, संदेह, भय, सरकार की बढ़ती ताकत, विचारों की स्वतंत्रता को रौंदे जाने का गवाह बन रहा है. अब नौन स्टेट यानी शासकों के अतिरिक्त शक्तियां सरकारों से शक्ति का मुकाबला करने लगी हैं. इसलामिक स्टेट, बोको हरम, हिंदू अतिवादी, ईसाई कू क्लक्स क्लान फिर से सिर उठा ही नहीं रहे, सरकार और जनता को चुनौतियां भी दे रहे हैं. सब से ज्यादा चौंकाने वाली बात यह है कि लाखों युवा बेचैन हो रहे हैं कि कैसे शक्ति की खातिर अपने हाथों की खुजली तोपों, बंदूकों, हिंसा से मिटाएं. वर्षों की शिक्षा, समान अधिकारों के पाठ, प्रकृति से लड़ने का जज्बा दुनिया के रहस्यों को खोलने के संकल्प फीके पड़ने लगे हैं. मैं और मेरा गुट देश, समाज और विश्व से ऊपर होने लगा है और शातिर शासक, शक्ति के दलाल, धर्म के ठेकेदार इस का लाभ उठा रहे हैं.

इस का कारण यह मोबाइल क्रांति तो नहीं जिस ने तकनीक के पीछे से भद्दे, अश्लील, भड़काऊ, अपशब्द कहने की कला को उजागर कर दिया है? अब जो चाहे, जिसे चाहे गाली दे सकता है, मारने को उकसा सकता है. नया सोशल मीडिया, ऐंटीसोशल बनता जा रहा है जिस में अपने से भिन्न लोगों को गालियों की बौछारों से रंगा जा सकता है, अपनों के जीवन के रहस्यों को सार्वजनिक किया जा सकता है आदि. आज का ज्ञानअर्जन केवल 140 कैरेक्टर तक रह गया है जिस में गाली दी जा सकती है, समझदारी नहीं. लोग 10 मिनट में 20 समाचार सुन कर अपने को समझदार समझने लगे हैं. नारों की नीतियां समझना शुरू कर दिया गया है. बहस का मतलब विचारों का आदानप्रदान नहीं, चीखचिल्लाहट हो गया है जिस में विजडम गायब हो गई है. जिस तकनीक की वकालत की जा रही है वह हर नागरिक को स्क्रीन का गुलाम बनाएगी, आजाद नहीं करेगी. और गुलामों के अधिकार नहीं होते, उन के लिए हुक्म होते हैं. फिर क्या फर्क पड़ता है कि हुक्म देने वाला लोकतंत्र से चुन कर आया हो या टैंकतंत्र से या इंटरतंत्र से.

करे कोई भरे कोई

बरसात में सड़क का पानी घर में न घुसे, इस के लिए देशभर में सड़कों से 1-2 फुट ऊंची जमीन पर मकान बनाए जाते हैं. ऐसे में मकान में जाने के लिए सड़क पर रैंप या सीढि़यां बनाना जरूरी हो जाता है. कहीं कोई मकान ज्यादा ऊंचाई पर होता है क्योंकि बरसात का पानी वहां इतना हो जाता है कि नालियों से निकल नहीं पाता और मकान में घुसने का डर रहता है. शाहरुख खान ने अपने बांद्रा के मकान में कुछ ऐसा ही किया जो देशभर में किया भी जा रहा है. चूंकि इस सैलिब्रिटी को निशाना बनाना आसान है, उस पर जम कर आरोप लग रहे हैं और रैंप तोड़ने की मांग की जा रही है. इस बाबत तरहतरह के तर्क दिए जा रहे हैं. और लगता है करोड़ों लोगों के दिलों पर राज करने वाले शाहरुख खान को कुछ मुट्ठी भर लोगों की मांग पर झुकना ही पड़ेगा. वैसे, यह गलती नगर निकायों की है जो बिना पूरी योजना के सड़कें बनाती हैं, नालियां प्लान करती हैं. देशभर में सड़कों, गलियों पर पानी जमा होना आम बात है और निचले घरों में पानी का घुस जाना भी अनजाना नहीं है. बहुत मकान वालों को निचली मुंडेर, दीवार, सीढि़यां केवल पानी को रोकने के लिए बनानी होती हैं पर इन मामलों में नगर निकायों के इंजीनियरों को कोई दोष नहीं दिया जाता क्योंकि हमारा सिद्धांत है ‘किंग कैन डू नो रौंग’, सरकार गलती कर ही नहीं सकती. हमारे यहां तो नियम है कि आम आदमी हमेशा गलत होता है और वह सांस भी ले तो कोई कानून जरूर भंग कर रहा होगा.

हमारी सरकार और उस के अफसर आम आदमी को परेशान करने व उन्हें कानून की छड़ी से मारने से कभी पीछे नहीं हटते. अपने कर्तव्यों का कभी खयाल नहीं रखते. उन्होंने जो किया, गलत किया पर वह कभी गैरकानूनी हो ही नहीं सकता, जबकि आम नागरिक कभी सही हो ही नहीं सकता, यह कैसी व्यवस्था है? रैंप अगर कोई बनाता है तो जबरन बनाता है क्योंकि तभी वह मकान को सुरक्षित रख सकता है. एक्शन तो उन इंजीनियरों पर लिए जाने चाहिए जिन्होंने नालियां छोटी बनाईं, उन्हें साफ करने का इंतजाम नहीं किया, उन की निकासी का खयाल नहीं किया और सड़कों व मकानों के बीच पर्याप्त जगह नहीं छोड़ी कि रैंप बिना सड़क पर आए बन सकें.

चंचल छाया

बेबी

‘बेबी’ फिल्म किसी बच्चे या बेबी पर नहीं है, यह आतंकवाद पर बनी फिल्म है और ‘बेबी’ उस आतंकवाद को खत्म करने के लिए एक मिशन है. दर्शकों को पिछले वर्ष आई फिल्म ‘हौलिडे’ याद होगी. वह फिल्म भी आतंकवाद के खात्मे पर थी और उस में भी अक्षय कुमार ने एक मिशन के तहत आतंकवादियों का सफाया किया था. यह फिल्म भी ठीक उसी प्रकार की है. दोनों फिल्मों की कहानियों में कई समानताएं हैं.

इस फिल्म की कई विशेषताएं हैं. एक तो फिल्म की कहानी और पटकथा काफी कसी हुई है, दूसरे, फिल्म की गति काफी तेज है, कहीं भी फिल्म स्लो नहीं होती. फिल्म का संपादन इतना चुस्त है कि दर्शक दम साधे सीटों पर जमे रहते हैं. फिल्म में सिर्फ आतंकवाद का मुद्दा ही नहीं है, एक अंडर कवर एजेंट की जिंदगी को भी दिखाया गया है. अंडर कवर एजेंट के दिल में देश की सुरक्षा का जनून भरा होता है. वह मरने से नहीं डरता. हालांकि उसे पता होता है कि उस के पकड़े जाने पर उस के देश की सरकार उसे पहचानने से भी इनकार कर देगी, फिर भी वह अपने देश के लिए जीजान तक लगा देता है. इस फिल्म के अंडर कवर एजेंट के घर में उस की पत्नी भी है. हर बार वह अपनी पत्नी को झूठी कहानी सुनाता है.

नीरज पांडे की यह कहानी देशभक्ति से ओतप्रोत है. 26 नवंबर, 2008 को मुंबई में हुए आतंकवादी हमले के बाद कुछ अफसरों की एक टीम बनाई जाती है. उस मिशन का नाम ‘बेबी’ रखा जाता है. इस टीम के मुखिया हैं फिरोज (डैनी). एक जांबाज अफसर अजय सिंह टीम का नेतृत्व करता है. शुक्लाजी (अनुपम खेर) टीम में टैक्नीशियन है. इस टीम में एक महिला एजेंट प्रिया (तापसी पन्नू) भी है और एक मजबूत कदकाठी वाला जय सिंह राठौड़ (राणा दग्गूनाती) भी है. इन का काम आतंकियों की पहचान करना और उन के मनसूबों को विफल करना है. अजय सिंह को एक खूंखार आतंकवादी बिलाल खान (के के मेनन) की तलाश है. मिशन बेबी की शुरुआत इस्तांबुल से होती है. मिशन के सदस्यों को पता चलता है कि आतंकी धर्म के नाम पर किसी खास समुदाय के लोगों को बरगला कर अपने साथ कर रहे हैं और उस समुदाय के लोग अपने देश पर भरोसा खोते जा रहे हैं. अजय सिंह अपने साथियों के साथ मिल कर बिलाल खान को मार गिराता है और आतंकवादियों को बरगलाने वाले एक धार्मिक नेता (यह किरदार हाफिज सईद जैसा लगता है) को गिरफ्तार कर भारत वापस लौटता है.

फिल्म की यह कहानी शुरू होते ही दौड़ लगाती है और अंत में आतंकवादियों के मरने के बाद जा कर रुकती है. इस फिल्म के निर्देशक नीरज पांडे अक्षय कुमार के साथ ‘स्पैशल-26’ में काम कर चुके हैं. इसलिए उन्हें पता था कि इस फिल्म की मुख्य भूमिका सिर्फ अक्षय कुमार ही कर सकता है, क्योंकि ‘स्पैशल-26’ में वे अक्षय की काबिलीयत को देख चुके थे और अक्षय ने भी निराश नहीं किया है. पूरी फिल्म में उस के ऐक्शन सीन भरे पड़े हैं. उस ने अपनी ऐक्ंिटग से अपने फैंस को खुश किया है. फिल्म का क्लाइमैक्स जानदार है. अक्षय के अलावा अनुपम खेर और तापसी पन्नू ने भी काफी ऐक्शन किए हैं जिन्हें देख कर मजा आता है. बाकी कलाकारों का काम भी अच्छा है. हर कलाकार अपने काम में व्यस्त नजर आता है. फिल्म में लव सीन और कौमेडी की गुंजाइश बिलकुल नहीं थी. फिल्म का गीतसंगीत प्रभावित नहीं करता. छायांकन बढि़या है. आबूधाबी के रेत के टीले खूबसूरत लगते हैं.

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तेवर

फिल्म ‘तेवर’ के तेवर घिसेपिटे हैं. जहां तक फिल्म के नायक अर्जुन कपूर की बात है तो यह फिल्म उस के पिता बोनी कपूर ने बनाई है. इसलिए यह तो पक्का है कि फिल्म के हर फ्रेम में अर्जुन ही होगा. फिल्म में एक गीत है, ‘मैं हूं सुपरमैन, सलमान का फैन’, तो जनाब, इस बौलीवुडिया अर्जुन को निर्देशक ने ‘दबंग’, ‘बौडीगार्ड’ के सलमान खान और ‘सिंघम’ के अजय देवगन की तरह दे दनादन फाइट करते हुए दिखाया है. ‘तेवर’ तेलुगू फिल्म ‘ओक्काडू’ की रीमेक है. फिल्म में ऐसा कुछ नहीं है जो झकझोरे. ‘तेवर’ की कहानी उत्तर प्रदेश की है जहां बाहुबलियों का सरकार और पुलिस पर दबदबा बना रहता है. मथुरा शहर का बाहुबली गजेंद्र सिंह (मनोज वाजपेयी) गृहमंत्री का भाई है. उसे एक पत्रकार की बहन राधिका (सोनाक्षी सिन्हा) को देखते ही उस से प्यार हो जाता है. राधिका उस के प्यार को ठुकरा देती है तो गजेंद्र सिंह उस के पत्रकार भाई की सरेआम हत्या कर देता है. राधिका का पिता डर कर उसे मथुरा से बाहर भाग जाने को कहता है.

राधिका बस स्टैंड पहुंचती है तो गजेंद्र सिंह वहां पहुंच कर उसे जबरदस्ती उठा कर ले जाने लगता है. वहीं पर आगरा का पिंटू शुक्ला (अर्जुन कपूर) राधिका को गजेंद्र सिंह के चंगुल से छुड़ा कर भगा ले जाता है. गजेंद्र सिंह के बहुत से गुंडे पिंटू और राधिका के पीछे लग जाते हैं. भागमभाग लगी रहती है और पिंटू सब की धुनाई करता रहता है. पिंटू और राधिका के बारे में जब पिंटू के पिता एस पी (राज बब्बर) को पता चलता है तो वह पिंटू को गजेंद्र से पंगा न लेने को कहता है. गजेंद्र राधिका को अपने साथ ले जाता है परंतु पिंटू पिता की हिरासत से भाग कर गजेंद्र और उस के गुंडों से अकेले ही भिड़ जाता है. गजेंद्र पिंटू पर गोली चलाने ही वाला होता है कि उस का भाई उसे अपने प्यादे से इसलिए मरवा डालता है क्योंकि गजेंद्र ने सरेआम अपने बड़े भाई गृहमंत्री को थप्पड़ मारा था. अर्जुन और राधिका का मिलन होता है. फिल्म की गति तेज है. अर्जुन कपूर से ज्यादा मनोज वाजपेयी ने प्रभावित किया है. सोनाक्षी सिन्हा की ऐक्ंिटग कामचलाऊ है. राज बब्बर ने अपना प्रभाव छोड़ा है. फिल्म का निर्देशन कुछ हद तक अच्छा है. गीतसंगीत साधारण है. फिल्म में एक आइटम सौंग भी है जो श्रुति हसन पर फिल्माया गया है. फिल्म का छायांकन अच्छा है. मथुरा, आगरा, दिल्ली के अलावा कुछ और शहरों में भी शूटिंग की गई है.

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डौली की डोली

‘डौली की डोली’ एक कौमेडी फिल्म है, जिस में सोनम कपूर ने अपनी चुलबुली अदाओं से दर्शकों को हंसाने की कोशिश की है. ‘भाग मिल्खा भाग’ में एक सीधीसादी लड़की का रोल करने के बाद उस ने ‘खूबसूरत’ में अपने चुलबुलेपन से दर्शकों को चौंकाया और ‘इंजन की सीटी पे म्हारो बम डोले’ गाने पर टल्ली हो कर खूब धूमधड़ाका किया. ‘डौली की डोली’ में भी उस? ने ‘खूबसूरत’ जैसी ऐक्ंिटग ही की है. इस फिल्म में सोनम कपूर ने लुटेरी दुलहन का किरदार निभाया है. कुछ वर्ष पहले देश में लुटेरी दुलहन के किस्से अखबारों में पढ़ने को मिलते थे. यह दुलहन शादी वाली रात को ही घर के सभी लोगों को बेहोश कर घर का सारा कीमती सामान ले कर चंपत हो जाती थी. निर्देशक अभिषेक डोगरा ने इसी विषय पर यह हलकीफुलकी कौमेडी फिल्म बनाई है.

फिल्म की कहानी घिसीपिटी और धीमी है. निर्देशक दर्शकों को बांधे रखने में नाकामयाब रहा है. कहानी डौली (सोनम कपूर) की है. वह इंस्पैक्टर रौबिन सिंह (पुलकित सम्राट) से प्यार करती थी. अचानक कुछ ऐसा हुआ कि रौबिन चाहते हुए भी डौली से शादी नहीं कर पाया. अब डौली का मकसद रह जाता है, शादी करो और ससुराल वालों को लूट कर अगली सुबह रफूचक्कर हो जाओ. इस काम के लिए वह एक गिरोह से मिलती है. इस गिरोह में नकली बाप, नकली भाई और नकली दादी है. एक फोटोग्राफर भी है.

डौली पहले एक हरियाणवी नौजवान सोनू शेरावत (राज कुमार राव) से शादी करती है. वह उस के परिवार वालों को बेहोश कर कीमती सामान ले कर भाग जाती है. उस के बाद वह एक पंजाबी युवक मनोज चड्ढा (वरुण शर्मा) के परिवार वालों को चूना लगाती है. तभी इंस्पैक्टर रौबिन उसे गिरफ्तार कर लेता है. वह कभी डौली से प्यार करता था. डौली उसे भी अपने जाल में फंसाती है और उसे भी ठग कर फरार हो जाती है. अभिषेक डोगरा के निर्देशन में बनी यह पहली फिल्म है. उस ने फिल्म में इमोशंस भी डालने की कोशिश की है. उस ने दुलहन बनी सोनम कपूर को हर दृश्य में दूल्हे और उस के परिवार वालों को नशीला दूध पिलाते हुए दिखाया है. यह बात हजम नहीं होती. क्या सभी लोग इतने बेवकूफ होते हैं कि बहू के हाथ से दूध का गिलास ले कर गटागट पी जाएं? फिर भी छोडि़ए इन बातों को, कौमेडी जो है. सोनम कपूर कई दृश्यों में खूबसूरत लगी है, खासकर वरुण शर्मा के साथ शादी के मौके पर लहंगा पहने हुए. पूरी फिल्म उसी पर फोकस्ड है. राजकुमार राव का हरियाणवी भाषा में बोलना अच्छा लगता है. डौली के भाई की भूमिका में जीशान अयूब का काम भी अच्छा है. इस से पहले वह ‘रांझणा’ में अपनी अदाकारी दिखा चुका है. पुलकित सम्राट को देख कर तो चुलबुल पांडे की याद ताजा हो आती है. फिल्म में मलाइका अरोड़ा पर एक गरमागरम आइटम डांस भी डाला गया है. फिल्म में एक और किरदार दादी का बड़ा ही रोचक है. वह सिर्फ एक ही डायलौग बोलती है, ‘बेटी दे दी, सबकुछ दे दिया.’ इस के अलावा फिल्म में कुछ और रोचक प्रसंग भी हैं जैसे लुटेरी दुलहन द्वारा अपनी सास की ब्रापैंटी भी चुरा कर ले जाना. फिल्म का गीतसंगीत असरदायक नहीं है. छायांकन अच्छा है.

बिंब प्रतिबिंब

जैकलीन के अच्छे दिन

सलमान खान की फिल्म ‘किक’ की सफलता से सब से ज्यादा किसी के कैरियर को फायदा पहुंचा है तो वह नाम है जैकलीन फर्नांडीज. फिल्म की सफलता के बाद उन के पास बड़ीबड़ी फिल्मों के औफरों की लाइन लग गई. एक तरफ जहां उन की रणवीर कपूर और अर्जुन रामपाल के साथ फिल्म ‘रौय’ रिलीज होने को है तो दूसरी तरफ उन्हें मोहम्मद अजहरुद्दीन पर बन रही फिल्म में इमरान हाशमी के अपोजिट साइन कर लिया गया है. गौरतलब है कि इस बायोपिक में भारतीय क्रिकेट टीम के भूतपूर्व कप्तान मोहम्मद अजहरुद्दीन की भूमिका इमरान हाशमी निभाएंगे और संगीता बिजलानी का रोल जैकलीन फर्नांडीज करती नजर आएंगी. माना जा रहा है कि बायोपिक फिल्म में काम करना उन के कैरियर में अच्छे दिन जरूर लाएगा.

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भारतरत्न और बिग बी

सुपरस्टार अमिताभ बच्चन को पद्म विभूषण से सम्मानित करने की जब से खबर आई, बधाइयों का तांता लग गया. उन्हें बधाई देने वालों में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी हैं, जो न सिर्फ उन्हें बधाई देती हैं बल्कि उन्हें भारतरत्न का हकदार भी मानती हैं. ट्विटर पर ममता बनर्जी का कहना है कि बिग बी के लिए पद्म विभूषण काफी नहीं है. वे भारतरत्न के काबिल हैं. हालांकि बिग बी ने इस बात पर किसी तरह का विवाद न पैदा हो जाए. इसलिए बात को खत्म करते हुए जवाब दिया कि मैं भारतरत्न के काबिल नहीं हूं. देश ने मुझे जो सम्मान दिया है, मैं उसी से गर्व महसूस कर रहा हूं. वैसे, कहने वालों का तो यहां तक कहना है कि ममता ने बिग बी के बहाने मोदी सरकार पर निशाना साधा है.

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‘रहस्य’ को हरी झंडी

वास्तविक घटनाक्रमों पर आधारित ज्यादातर फिल्मों को ले कर कभी सैंसर बोर्ड तो कभी आमजन में विवाद पैदा हो जाता है. ऐसा ही एक मामला कथित तौर पर आरुषि हत्याकांड पर आधारित फिल्म ‘रहस्य’ के साथ होता दिख रहा था. आरुषि के मातापिता नूपुर और राजेश तलवार ने इस फिल्म को अपनी बेटी की जिंदगी पर आधारित मानते हुए कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. लेकिन बौंबे हाईकोर्ट ने फिल्म को हरी झंडी दिखा दी है. अदालती फैसले से खुश फिल्म निर्देशक मनीष गुप्ता कहते हैं कि उन्होंने इस फिल्म को बनाने में बहुत मेहनत की थी अगर यह फिल्म रुक जाती तो उन्हें काफी नुकसान होता. इस फिल्म में के के मेनन, टिस्का चोपड़ा, आशीष विद्यार्थी प्रमुख भूमिकाओं में नजर आएंगे.

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जय जवान, जय किसान

सालों पहले भारत के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने ‘जय जवान जय किसान’ का नारा दिया था. आज उसी नारे को टाइटल बना कर एक फिल्म बन कर तैयार है. यह फिल्म शास्त्रीजी के जीवन को बड़े परदे पर उतारेगी. फिल्म में आजादी से पहले ब्रिटिशों से लड़ाई, गांधीजी के दौर और शास्त्रीजी की इस दौरान क्या भूमिका रही, रोशनी डाली गई है. फिल्म में ओमपुरी, प्रेम चोपड़ा, जतिन खुराना और अखिलेश जैन जैसे कलाकार हैं. शास्त्रीजी की भूमिका अखिलेश जैन कर रहे हैं. फिल्म के प्रचार के दौरान अखिलेश शास्त्रीजी के गेटअप में नजर आए. वैसे इस तरह की फिल्में बनाना चुनौती भरा काम होता है, लेकिन ऐसी फिल्में बनना सार्थक सिनेमा के लिए जरूरी है.

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‘हवाईजादा’ आयुष्मान

लंबे अरसे से सफलता की बाट जोह रहे अभिनेता आयुष्मान खुराना को फिल्म ‘हवाईजादा’ से बेहद उम्मीदें हैं. आयुष्मान का कहना है कि चूंकि यह पीरियड फिल्म है, इसलिए जरूरत से ज्यादा मेहनत करनी पड़ी. इतना ही नहीं, उन्होंने अपने किरदार को जीवंत बनाने के लिए मराठी भी सीखी है. बता दें कि फिल्म शिवकर तलपड़े नाम के व्यक्ति पर आधारित है. माना जाता है कि 1895 में इसी शख्स ने सब से पहले हवाई जहाज बनाया था. उस ने किस तरह अंगरेजों के जमाने में यह जहाज बनाया और किस तरह ब्रिटिश सरकार ने उस के सामने मुश्किलें खड़ी कीं, इन्हीं बातों के इर्दगिर्द फिल्म का कथानक रचा गया है. उम्मीद करते हैं कि ‘हवाईजादा’ आयुष्मान के कैरियर को आसमान की ऊंचाई तक ले जाए.

वसंतोत्सव

तुम्हारे घर की खिड़की से

मैं देखना चाहती हूं मधुमास

तुम्हारे घर के सारे कमरों में

भर देना चाहती हूं मोगरे की सुगंध

और चंदन की शीतलता

तुम्हारे घर की सारी दीवार पर

कच्ची हलदी के रंग से

लिख देना चाहती हूं प्रेम

तुम्हारे घर के आंगन में

बनाना चाहती हूं

पीले गेंदे के फूल से रंगोली

उतार लाना चाहती हूं

तुम्हारे घर की छत पर

आकाश से पीले रंग के बादल

परोसना चाहती हूं

तुम्हें पीतल की पीली थाली में

बना कर तुम्हारे घर की

रसोई में पीले चावल

तुम्हारे घर के एक कोने में बैठ कर

तुम्हें सुनाना चाहती हूं

पीली डायरी में लिखी कविता

और एक कोने में बैठ कर

लिखना चाहती हूं

प्रेम की बहुत सारी कहानी

तुम्हारे घर की सारी सीढि़यों पर

रख देना चाहती हूं थोड़ीथोड़ी चांदनी

और सभी अलमारियों पर

रखना चाहती हूं थोड़ीथोड़ी धूप

तुम्हारे घर में तुम्हारी हथेलियों पर

रखना चाहती हूं पलाश में रंगी हुई

बहुत सारी शरबती बातें

तुम्हारे घर के दरवाजों पर

बांधना चाहती हूं

आम के महकते पत्तों का बंदनवार

तुम्हारे घर की हर ईंट में

भर देना चाहती हूं ढेर सारी हंसी

तुम्हारे घर की चौखट पर

रख देना चाहती हूं समंदर भर खुशी

इस बार कुछ इस तरह मनाना चाहती हूं

मैं वसंतोत्सव…

             – शुचिता श्रीवास्तव

शादी व्यंग्यविचार

शादी एक एडवैंचर ट्रिप है — युद्ध पर जाने की तरह.

शादी से पहले आंखें पूरी तरह खुली रखनी चाहिए और शादी के बाद आधी मूंद लेनी चाहिए.

उन 2 लोगों का मिलन होता है जिन में से एक कभी सालगिरह याद नहीं रखता और दूसरा उसे कभी भूलता नहीं.

प्यार करो, युद्ध नहीं, बेकार की बातें हैं. शादी करो तो ये दोनों साथसाथ कर सकते हो.

आदर्श विवाह सिर्फ अंधी बीवी और बहरे पति के बीच ही हो सकता है.

शादी एक ऐसी प्रेमकहानी है जिस का नायक पहले अध्याय में ही मर जाता है.

शादी वह रस्म है जिस में औरत के हाथ में अंगूठी और पुरुष की नाक में नकेल पड़ती है.

शादी एक शब्द भर नहीं है, वह एक पूरा वाक्य है.

शादी होने तक मुझे मालूम नहीं था कि खुशी क्या होती है, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी.

सभी शादियां हंसीखुशी संपन्न होती हैं. मुश्किल तो तब आती है जब साथसाथ रहना पड़ता है.

शादी वह रस्म है जिस के बाद पुरुष का अपनेआप पर नियंत्रण नहीं रह जाता.

शादी का सफल होना सही साथी पाने पर ही नहीं बल्कि खुद के सही होने पर भी निर्भर करता है.

मेरी आप को यही सलाह है कि आप शादी जरूर कीजिए. अच्छी पत्नी मिली तो आप सुखी हो जाएंगे और बुरी मिली तो आप दार्शनिक बन जाएंगे.

मैं ने कभी शादी नहीं की, लेकिन लोगों को बताता हूं कि मैं तलाकशुदा हूं ताकि लोग यह न समझें कि मेरे साथ कुछ गड़बड़ है.

यदि विवाह संस्था नहीं होती तो पुरुष और महिलाएं मिल कर किसी अजनबी से लड़ते.

विवाह को सफल बनाने के लिए 2 की जरूरत होती है. असफल बनाने के लिए एक ही काफी है.

मैं ने शादी नहीं की. मुझे उस की जरूरत भी महसूस नहीं हुई. मेरे घर में 3 पालतू प्राणी थे जो पति की जरूरत को पूरा कर देते थे–कुत्ता था, जो सुबह गुर्राता था, तोता था, जो दोपहर भर कसमें खाता था और बिल्ली थी, जो रात को देर से लौटती थी.

हास्य का जरिया बनती पिंक ब्रिगेड

क्या आप ने कभी गौर किया है कि हास्य की विभिन्न विधाओं, फिर चाहे वह चुटकुला हो, कार्टून हो, हास्य कविता हो या व्यंग्य हो, में अकसर महिलाओं को ही निशाना क्यों बनाया जाता है, क्योें उन्हें ही मजाक का पात्र बनाया जाता है? आप कोई भी टीवी चैनल, अखबार या पत्रपत्रिका उठा कर देखिए, महिलाओं पर ही अधिक जोक्स, व्यंग्य देखने को मिलते हैं. औफिस में भी जहां महिलापुरुष एकसाथ काम करते हैं, हंसीमजाक में महिलाओं के फैशन, उन की चालढाल, उन की बातचीत, उन की शारीरिक बनावट पर व्यंग्य किए जाते हैं. और तो और, सोशल नैटवर्किंग साइट्स के चैट बौक्स या मोबाइल के जरिए भी ऐसे ही जोक्स भेजे जाते हैं.

जैंडर आधारित भेदभाव

अंगरेजी में कहावत है, ‘मैन आर फ्रौम मार्स, वीमेन आर फ्रौम वीनस’ यानी पुरुष मंगल ग्रह से और महिलाएं शुक्र ग्रह से आई हैं. यानी दोनों अलगअलग हैं फिर चाहे वे शारीरिक रूप से हों, मानसिक रूप से या स्वभाव के तौर पर. पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय से जुड़े अमेरिकी वैज्ञानिकों द्वारा स्त्री व पुरुषों के मस्तिष्क पर किए गए अध्ययन के अनुसार, महिला व पुरुष दोनों की मस्तिष्क संरचना भिन्न होती है जिस से उन के अलगअलग परिस्थितियों में अलगअलग व्यवहार व प्रतिक्रिया को समझा जा सकता है. शायद इसी आधार पर महिलाएं व्यंग्य का शिकार अधिक होती हैं.

महिलाएं और फैशन

निसंदेह प्रकृति ने स्त्रियों को ऐसा बनाया है कि वे सुंदर दिखना चाहती हैं और अपनी खूबसूरती को बरकरार रखने के लिए कुछ भी कर गुजरती हैं. सर्दियों में महिलाएं बिना शाल के शादी अटैंड करती हैं. मैरिज गार्डन के ओपन लौन की सर्द हवा में, जहां मर्दों के दांत किटकिटाने लगते हैं वहां ये वीर बालाएं एक्स्ट्रा रुपए दे कर दरजी से बनवाए ब्लाउज के यू कट व डीप नैक को दिखाने के लिए स्वेटर नहीं पहनतीं. 4 घंटे के फंक्शन में उन्हें अपनी चारों ड्रैसें पहननी होती हैं. हर नई ड्रैस पहनने से पहले यह कन्फर्म करना होता है कि पहले वाली सब ने देखी या नहीं. ऐसी बहादुर वीरांगनाओं का हर साल 26 जनवरी को सम्मान होना चाहिए. कैसा लगेगा जब घोषणा होगी कि पिंकी कुमारी ने अदम्य साहस, अटूट इच्छाशक्ति और अद्भुत पराक्रम का परिचय देते हुए भीषण शीत लहर के बीच इस सीजन की 7 शादियां बिना शौल व स्वेटर के अटैंड कीं. नारीशक्ति का यह रूप अद्भुत है जिस के लिए वे बधाई की पात्र हैं.

शौपिंग एडिक्शन

शौपिंग की एडिक्ट महिलाएं खरीदारी का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहतीं. इस के पीछे भी उन की खूबसूरत दिखने और तारीफ पाने की चाहत झलकती है. अपने इस शौक को वे पति पर इमोशनल अत्याचार कर के पूरा करवाती हैं. शौपिंग से परेशान पति अपनी पत्नी की शौपिंग करने को टालने के लिए नित नए बहाने ढूंढ़ता रहता है-

त्नी : सुनिए जी, मुझे एक नई साड़ी दिला दीजिए, प्लीज.

पति : लेकिन तुम्हारी अलमारी तो साडि़यों से भरी पड़ी है, फिर नई क्यों?

पत्नी : वे सभी साडि़यां तो महल्ले वालों ने देख ली हैं.

पति : हम साड़ी क्यों खरीदें. महल्ला ही बदल लेते हैं.

बातूनी स्वभाव

गप करने में सब से आगे रहती हैं महिलाएं. फिर चाहे वे औफिस में हों, पड़ोस में हों या मार्केट में. इसीलिए उन के ऊपर जोक्स बनते हैं. जैसे एक सिंगल लाइनर चुटकुला- रेल का महिला डब्बा वह होता है जो इंजन से भी ज्यादा आवाज करता है. इसी तरह एक अन्य प्रसिद्ध चुटकुला जिस में पत्नी अपने पति से कहती है, सुनो, मैं 2 मिनट में पड़ोसिन से मिल कर आ रही हूं. आप आधे घंटे बाद पानी भर लीजिएगा. सिर्फ अपनी कहने वाली और पति की न सुनने वाली पत्नी पर एक अन्य जोक-

पति : एक लेखक ने लिखा है कि पति को भी घर के मामलों में बोलने का हक होना चाहिए.

पत्नी : देखो, वह बेचारा भी लिख ही पाया, बोल नहीं पाया.

ऐसा नहीं है कि पुरुषों पर जोक्स या व्यंग्य नहीं बनते लेकिन जो बनते हैं वे भी ऐसे पुरुषों पर बनाए जाते हैं जो पत्नी से डरते हैं या घर के वे काम करते हैं जो महिलाओं के लिए निर्धारित हैं, जैसे रसोई में खाना बनाना, कपड़े धोना, बच्चे संभालना, बरतन मांजना आदि. ये सभी काम कम पुरुष ही करते हैं और बहुमत ऐसे लोगों का है जो इन कामों को करने में अपनी तौहीन समझते हैं.

खानपान और महिलाएं

जिस समाज में औरतें आज भी रसोई की बागडोर अपने हाथ में संभालती हैं, वहां भी महिलाओं पर जोक्स बनते हैं फिर चाहे वे उन के खानेपीने के शौक को ले कर हों या कुकिंग में उन के माहिर होने को ले कर-

पत्नी : खाने में क्या बनाऊं– इटैलियन, इंडियन, कौंटिनैंटल या चायनीज?

पति : पहले तुम बना लो, नाम तो शक्ल देख कर रख लेंगे.

पुरुष प्रधान समाज

समाज में जहां पुरुषों के लिए महिलाओं पर अपना रोब जमाना शान की बात समझी जाती थी वहां अब महिलाएं घर से बाहर निकल कर दोहरी जिम्मेदारी संभालने लगी हैं. ऐसे में पुरुषों को महिलाओं से दबने या उन्हें बराबरी का दरजा देने को उन के डरपोक व कमजोर होने के रूप में देखा जाता है और उस पर भी जोक्स बनते हैं. उदाहरण के तौर पर, पतियों की भारी मांग पर एक नई ऐप लौंच की जा रही है ‘डर’. इस में आप को सिर्फ ‘वाइफ’ कहना होगा और यह अपनेआप सारी वैबसाइट्स बंद कर देगी, चैट छिपा देगी, सभी स्पैशल फोल्डर छिपा देगी और सब से अच्छा फीचर यह कि यह ऐप अपनेआप ही आप की पत्नी की तसवीर को मोबाइल का वालपेपर बना देगी. इन जोक्स का विश्लेषण कुछ इस तरह भी किया जा सकता है कि या तो पत्नियां शक्की स्वभाव की होती हैं या फिर पति आशिकमिजाज होते हैं जो हासपरिहास का कारण बनते हैं.

महिलाओं को देर से समझ आता है मजाक

कैलिफोर्निया स्थित स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के अनुसार, किसी व्यंग्य, चुटकुले या कार्टून को समझने के लिए महिलाएं, पुरुषों की तुलना में अपने मस्तिष्क के अधिक हिस्से का इस्तेमाल करती हैं. उन्हें चुटकुले सुनने या कार्टून देखने के बाद पुरुषों की अपेक्षा थोड़ी अधिक देर में हंसी आती है. लेकिन अच्छी पंचलाइन का वे पुरुषों की तुलना में ज्यादा लुत्फ उठाती हैं. इस अध्ययन का उद्देश्य खुलासा करना था कि हमारा हास्य बोध कैसे काम करता है. अध्ययन के तहत महिलाओं को कार्टून दिखा कर उन की प्रतिक्रिया ली गई जिस में पाया गया कि महिलाओं ने मजेदार चुटकुलों पर प्रतिक्रिया जाहिर करने में कुछ ज्यादा वक्त लिया. शायद इसीलिए ‘रहने दो, तुम्हें समझ नहीं आएगा’ या ‘अरे, तुम तो मजाक भी नहीं समझती हो’ जैसे वाक्य महिलाओं के लिए आम सुने जाते हैं. इस का एक नमूना पेश है :

पत्नी : सुनो जी, अखबार में खबर है कि एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी को बेच डाला.

पति : ओह, कितने में?

पत्नी : एक साइकिल के बदले में. कहीं तुम भी तो ऐसा नहीं करोगे?

पति : मैं इतना मूर्ख थोड़े ही हूं, तुम्हारे बदले में तो एक कार आ सकती है.

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