अवसाद में राव
हमारे देश में वैज्ञानिकों की खास पूछपरख नहीं है. वे कभी किसी के, खासतौर से युवा वर्ग के रोल मौडल नहीं रहे. भारतरत्न से सम्मानित वैज्ञानिक सीएनआर राव की भड़ास आखिरकार फूट ही पड़ी कि देश में वैज्ञानिक अगर कुछ गलत कर दें तो हर कोई उन की खिंचाई के लिए तैयार रहता है, इसलिए वे अवसाद में रहते हैं. बात सच है. कुछ भी गलत करने की छूट व अधिकार लोगों ने राजनेताओं और खिलाडि़यों को दे रखे हैं. वे गलती न करें तो लोगों को हैरानी होने लगती है. अवसाद बुरी चीज है और अगर विज्ञान जगत में हो तो बात चिंतनीय हो जाती है. सो, वैज्ञानिकों को जिस प्रोत्साहन और प्रशंसा की खुराक चाहिए वह उन्हें दी जानी चाहिए. यह सम्मानों से पूरी नहीं होती. तो कैसे पूरी होगी यह, राव ही बताते तो बेहतर होता.
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जेटली का विजन
केंद्र सरकार आमदनी से ज्यादा खर्च कर रही है तो इस के जिम्मेदार वित्त मंत्री अरुण जेटली हैं जिन्हें अब समझ आ रहा होगा कि अपने कार्यकाल के उत्तरार्ध में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने गलत नहीं कहा था कि पैसे पेड़ पर नहीं उगते. खर्च चलाने के लिए अरुण जेटली ने सब्सिडी खैरात की तरह न बांटने और मंत्रालयों के खर्चों में 20 फीसदी की कटौती की जो घोषणा की है उस से ही लोगों ने अंदाजा लगा लिया कि एनडीए सरकार का पहला बजट जेटली की बातों की तरह गोलमोल और फ्लौप होगा. खर्च में कटौती कोई आमदनी नहीं होती, यह तो सियासी शिगूफा और टैक्स बढ़ाने की पूर्व सूचना होती है और इस से लोगों का कोई भला नहीं होता.
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फिर से अन्ना
मुकम्मल आराम और चिंतन के बाद अन्ना हजारे फिर आंदोलन के मूड और मोड़ पर आ गए हैं. मुद्दे पुराने कालाधन और भ्रष्टाचार हैं पर इस दफा निशाने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी होंगे. राजनीति की भेंट चढ़े चेलों-अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी की जगह नए शिष्य हिंदूवादी चिंतक गोविंदाचार्य दिखेंगे जो बीते दिनों रालेगण सिद्धी में अन्ना से खासतौर से मिलने गए थे. ये दोनों भूमि अधिग्रहण पर भी हल्ला मचा सकते हैं. नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री की कुरसी तक पहुंचाने में अन्ना आंदोलन का बड़ा रोल था जिस ने बदलाव की प्रस्तावना लिखी थी. तकनीकी दिक्कत अन्ना खेमे को यह पेश आ रही है कि आंदोलन की मार्केटिंग कैसे की जाए. माहौल और समर्थन पहले जैसे तो मिलने से रहे. वजह, लोग घरबार छोड़ आंदोलनों को तीजत्योहार सरीखा नहीं मान सकते, दूसरे, गोविंदाचार्य आए हुए नहीं भेजे हुए लग रहे हैं. मुमकिन है कल को वे हिंदुत्व के जरिए कालाधन लाने और भ्रष्टाचार मिटाने जैसी काल्पनिक बातें करने लगें तो अन्ना की मुश्किलें और बढ़ जाएंगी.
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मझधार में मांझी
बजाय सलीके से बिहार चलाने के जीतनराम मांझी दलित होने का रोना रोते अगड़ों को कोसने का अपना पसंदीदा काम करते सहानुभूति बटोरने में जुटे रहे, जो काफी फ्लौप शो साबित हो चुका है. न मानने पर जदयू ने उन्हें ससम्मान बाहर का रास्ता दिखा दिया तो वे बहुमत और नीतीश की सत्तालोलुपता का राग अलापने लगे. इस से उन की अक्षमता ही सामने आई. दरअसल, मांझी रबरस्टैंप सीएम ही थे जो मजबूती का भ्रम पाल बैठे और समझ नहीं पाए कि लोकतंत्र में भी खड़ाऊं शासन चलता है. फर्क छोटेबड़े सिंहासन का है. असली शासक सामने नहीं आता बल्कि परदे के पीछे से कठपुतलियों की तरह नचाता रहता है. बहरहाल, राजनीति के अपने ज्ञान व तजरबे के मुताबिक मांझी ने नीतीश के सब से बड़े राजनीतिक दुश्मन व देश के सब से ताकतवर राजनेता नरेंद्र मोदी की शरण में दस्तक दे दी.