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वसंतोत्सव

तुम्हारे घर की खिड़की से

मैं देखना चाहती हूं मधुमास

तुम्हारे घर के सारे कमरों में

भर देना चाहती हूं मोगरे की सुगंध

और चंदन की शीतलता

तुम्हारे घर की सारी दीवार पर

कच्ची हलदी के रंग से

लिख देना चाहती हूं प्रेम

तुम्हारे घर के आंगन में

बनाना चाहती हूं

पीले गेंदे के फूल से रंगोली

उतार लाना चाहती हूं

तुम्हारे घर की छत पर

आकाश से पीले रंग के बादल

परोसना चाहती हूं

तुम्हें पीतल की पीली थाली में

बना कर तुम्हारे घर की

रसोई में पीले चावल

तुम्हारे घर के एक कोने में बैठ कर

तुम्हें सुनाना चाहती हूं

पीली डायरी में लिखी कविता

और एक कोने में बैठ कर

लिखना चाहती हूं

प्रेम की बहुत सारी कहानी

तुम्हारे घर की सारी सीढि़यों पर

रख देना चाहती हूं थोड़ीथोड़ी चांदनी

और सभी अलमारियों पर

रखना चाहती हूं थोड़ीथोड़ी धूप

तुम्हारे घर में तुम्हारी हथेलियों पर

रखना चाहती हूं पलाश में रंगी हुई

बहुत सारी शरबती बातें

तुम्हारे घर के दरवाजों पर

बांधना चाहती हूं

आम के महकते पत्तों का बंदनवार

तुम्हारे घर की हर ईंट में

भर देना चाहती हूं ढेर सारी हंसी

तुम्हारे घर की चौखट पर

रख देना चाहती हूं समंदर भर खुशी

इस बार कुछ इस तरह मनाना चाहती हूं

मैं वसंतोत्सव…

             – शुचिता श्रीवास्तव

शादी व्यंग्यविचार

शादी एक एडवैंचर ट्रिप है — युद्ध पर जाने की तरह.

शादी से पहले आंखें पूरी तरह खुली रखनी चाहिए और शादी के बाद आधी मूंद लेनी चाहिए.

उन 2 लोगों का मिलन होता है जिन में से एक कभी सालगिरह याद नहीं रखता और दूसरा उसे कभी भूलता नहीं.

प्यार करो, युद्ध नहीं, बेकार की बातें हैं. शादी करो तो ये दोनों साथसाथ कर सकते हो.

आदर्श विवाह सिर्फ अंधी बीवी और बहरे पति के बीच ही हो सकता है.

शादी एक ऐसी प्रेमकहानी है जिस का नायक पहले अध्याय में ही मर जाता है.

शादी वह रस्म है जिस में औरत के हाथ में अंगूठी और पुरुष की नाक में नकेल पड़ती है.

शादी एक शब्द भर नहीं है, वह एक पूरा वाक्य है.

शादी होने तक मुझे मालूम नहीं था कि खुशी क्या होती है, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी.

सभी शादियां हंसीखुशी संपन्न होती हैं. मुश्किल तो तब आती है जब साथसाथ रहना पड़ता है.

शादी वह रस्म है जिस के बाद पुरुष का अपनेआप पर नियंत्रण नहीं रह जाता.

शादी का सफल होना सही साथी पाने पर ही नहीं बल्कि खुद के सही होने पर भी निर्भर करता है.

मेरी आप को यही सलाह है कि आप शादी जरूर कीजिए. अच्छी पत्नी मिली तो आप सुखी हो जाएंगे और बुरी मिली तो आप दार्शनिक बन जाएंगे.

मैं ने कभी शादी नहीं की, लेकिन लोगों को बताता हूं कि मैं तलाकशुदा हूं ताकि लोग यह न समझें कि मेरे साथ कुछ गड़बड़ है.

यदि विवाह संस्था नहीं होती तो पुरुष और महिलाएं मिल कर किसी अजनबी से लड़ते.

विवाह को सफल बनाने के लिए 2 की जरूरत होती है. असफल बनाने के लिए एक ही काफी है.

मैं ने शादी नहीं की. मुझे उस की जरूरत भी महसूस नहीं हुई. मेरे घर में 3 पालतू प्राणी थे जो पति की जरूरत को पूरा कर देते थे–कुत्ता था, जो सुबह गुर्राता था, तोता था, जो दोपहर भर कसमें खाता था और बिल्ली थी, जो रात को देर से लौटती थी.

हास्य का जरिया बनती पिंक ब्रिगेड

क्या आप ने कभी गौर किया है कि हास्य की विभिन्न विधाओं, फिर चाहे वह चुटकुला हो, कार्टून हो, हास्य कविता हो या व्यंग्य हो, में अकसर महिलाओं को ही निशाना क्यों बनाया जाता है, क्योें उन्हें ही मजाक का पात्र बनाया जाता है? आप कोई भी टीवी चैनल, अखबार या पत्रपत्रिका उठा कर देखिए, महिलाओं पर ही अधिक जोक्स, व्यंग्य देखने को मिलते हैं. औफिस में भी जहां महिलापुरुष एकसाथ काम करते हैं, हंसीमजाक में महिलाओं के फैशन, उन की चालढाल, उन की बातचीत, उन की शारीरिक बनावट पर व्यंग्य किए जाते हैं. और तो और, सोशल नैटवर्किंग साइट्स के चैट बौक्स या मोबाइल के जरिए भी ऐसे ही जोक्स भेजे जाते हैं.

जैंडर आधारित भेदभाव

अंगरेजी में कहावत है, ‘मैन आर फ्रौम मार्स, वीमेन आर फ्रौम वीनस’ यानी पुरुष मंगल ग्रह से और महिलाएं शुक्र ग्रह से आई हैं. यानी दोनों अलगअलग हैं फिर चाहे वे शारीरिक रूप से हों, मानसिक रूप से या स्वभाव के तौर पर. पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय से जुड़े अमेरिकी वैज्ञानिकों द्वारा स्त्री व पुरुषों के मस्तिष्क पर किए गए अध्ययन के अनुसार, महिला व पुरुष दोनों की मस्तिष्क संरचना भिन्न होती है जिस से उन के अलगअलग परिस्थितियों में अलगअलग व्यवहार व प्रतिक्रिया को समझा जा सकता है. शायद इसी आधार पर महिलाएं व्यंग्य का शिकार अधिक होती हैं.

महिलाएं और फैशन

निसंदेह प्रकृति ने स्त्रियों को ऐसा बनाया है कि वे सुंदर दिखना चाहती हैं और अपनी खूबसूरती को बरकरार रखने के लिए कुछ भी कर गुजरती हैं. सर्दियों में महिलाएं बिना शाल के शादी अटैंड करती हैं. मैरिज गार्डन के ओपन लौन की सर्द हवा में, जहां मर्दों के दांत किटकिटाने लगते हैं वहां ये वीर बालाएं एक्स्ट्रा रुपए दे कर दरजी से बनवाए ब्लाउज के यू कट व डीप नैक को दिखाने के लिए स्वेटर नहीं पहनतीं. 4 घंटे के फंक्शन में उन्हें अपनी चारों ड्रैसें पहननी होती हैं. हर नई ड्रैस पहनने से पहले यह कन्फर्म करना होता है कि पहले वाली सब ने देखी या नहीं. ऐसी बहादुर वीरांगनाओं का हर साल 26 जनवरी को सम्मान होना चाहिए. कैसा लगेगा जब घोषणा होगी कि पिंकी कुमारी ने अदम्य साहस, अटूट इच्छाशक्ति और अद्भुत पराक्रम का परिचय देते हुए भीषण शीत लहर के बीच इस सीजन की 7 शादियां बिना शौल व स्वेटर के अटैंड कीं. नारीशक्ति का यह रूप अद्भुत है जिस के लिए वे बधाई की पात्र हैं.

शौपिंग एडिक्शन

शौपिंग की एडिक्ट महिलाएं खरीदारी का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहतीं. इस के पीछे भी उन की खूबसूरत दिखने और तारीफ पाने की चाहत झलकती है. अपने इस शौक को वे पति पर इमोशनल अत्याचार कर के पूरा करवाती हैं. शौपिंग से परेशान पति अपनी पत्नी की शौपिंग करने को टालने के लिए नित नए बहाने ढूंढ़ता रहता है-

त्नी : सुनिए जी, मुझे एक नई साड़ी दिला दीजिए, प्लीज.

पति : लेकिन तुम्हारी अलमारी तो साडि़यों से भरी पड़ी है, फिर नई क्यों?

पत्नी : वे सभी साडि़यां तो महल्ले वालों ने देख ली हैं.

पति : हम साड़ी क्यों खरीदें. महल्ला ही बदल लेते हैं.

बातूनी स्वभाव

गप करने में सब से आगे रहती हैं महिलाएं. फिर चाहे वे औफिस में हों, पड़ोस में हों या मार्केट में. इसीलिए उन के ऊपर जोक्स बनते हैं. जैसे एक सिंगल लाइनर चुटकुला- रेल का महिला डब्बा वह होता है जो इंजन से भी ज्यादा आवाज करता है. इसी तरह एक अन्य प्रसिद्ध चुटकुला जिस में पत्नी अपने पति से कहती है, सुनो, मैं 2 मिनट में पड़ोसिन से मिल कर आ रही हूं. आप आधे घंटे बाद पानी भर लीजिएगा. सिर्फ अपनी कहने वाली और पति की न सुनने वाली पत्नी पर एक अन्य जोक-

पति : एक लेखक ने लिखा है कि पति को भी घर के मामलों में बोलने का हक होना चाहिए.

पत्नी : देखो, वह बेचारा भी लिख ही पाया, बोल नहीं पाया.

ऐसा नहीं है कि पुरुषों पर जोक्स या व्यंग्य नहीं बनते लेकिन जो बनते हैं वे भी ऐसे पुरुषों पर बनाए जाते हैं जो पत्नी से डरते हैं या घर के वे काम करते हैं जो महिलाओं के लिए निर्धारित हैं, जैसे रसोई में खाना बनाना, कपड़े धोना, बच्चे संभालना, बरतन मांजना आदि. ये सभी काम कम पुरुष ही करते हैं और बहुमत ऐसे लोगों का है जो इन कामों को करने में अपनी तौहीन समझते हैं.

खानपान और महिलाएं

जिस समाज में औरतें आज भी रसोई की बागडोर अपने हाथ में संभालती हैं, वहां भी महिलाओं पर जोक्स बनते हैं फिर चाहे वे उन के खानेपीने के शौक को ले कर हों या कुकिंग में उन के माहिर होने को ले कर-

पत्नी : खाने में क्या बनाऊं– इटैलियन, इंडियन, कौंटिनैंटल या चायनीज?

पति : पहले तुम बना लो, नाम तो शक्ल देख कर रख लेंगे.

पुरुष प्रधान समाज

समाज में जहां पुरुषों के लिए महिलाओं पर अपना रोब जमाना शान की बात समझी जाती थी वहां अब महिलाएं घर से बाहर निकल कर दोहरी जिम्मेदारी संभालने लगी हैं. ऐसे में पुरुषों को महिलाओं से दबने या उन्हें बराबरी का दरजा देने को उन के डरपोक व कमजोर होने के रूप में देखा जाता है और उस पर भी जोक्स बनते हैं. उदाहरण के तौर पर, पतियों की भारी मांग पर एक नई ऐप लौंच की जा रही है ‘डर’. इस में आप को सिर्फ ‘वाइफ’ कहना होगा और यह अपनेआप सारी वैबसाइट्स बंद कर देगी, चैट छिपा देगी, सभी स्पैशल फोल्डर छिपा देगी और सब से अच्छा फीचर यह कि यह ऐप अपनेआप ही आप की पत्नी की तसवीर को मोबाइल का वालपेपर बना देगी. इन जोक्स का विश्लेषण कुछ इस तरह भी किया जा सकता है कि या तो पत्नियां शक्की स्वभाव की होती हैं या फिर पति आशिकमिजाज होते हैं जो हासपरिहास का कारण बनते हैं.

महिलाओं को देर से समझ आता है मजाक

कैलिफोर्निया स्थित स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के अनुसार, किसी व्यंग्य, चुटकुले या कार्टून को समझने के लिए महिलाएं, पुरुषों की तुलना में अपने मस्तिष्क के अधिक हिस्से का इस्तेमाल करती हैं. उन्हें चुटकुले सुनने या कार्टून देखने के बाद पुरुषों की अपेक्षा थोड़ी अधिक देर में हंसी आती है. लेकिन अच्छी पंचलाइन का वे पुरुषों की तुलना में ज्यादा लुत्फ उठाती हैं. इस अध्ययन का उद्देश्य खुलासा करना था कि हमारा हास्य बोध कैसे काम करता है. अध्ययन के तहत महिलाओं को कार्टून दिखा कर उन की प्रतिक्रिया ली गई जिस में पाया गया कि महिलाओं ने मजेदार चुटकुलों पर प्रतिक्रिया जाहिर करने में कुछ ज्यादा वक्त लिया. शायद इसीलिए ‘रहने दो, तुम्हें समझ नहीं आएगा’ या ‘अरे, तुम तो मजाक भी नहीं समझती हो’ जैसे वाक्य महिलाओं के लिए आम सुने जाते हैं. इस का एक नमूना पेश है :

पत्नी : सुनो जी, अखबार में खबर है कि एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी को बेच डाला.

पति : ओह, कितने में?

पत्नी : एक साइकिल के बदले में. कहीं तुम भी तो ऐसा नहीं करोगे?

पति : मैं इतना मूर्ख थोड़े ही हूं, तुम्हारे बदले में तो एक कार आ सकती है.

टीवी और फिल्मों से उड़नछू होता हास्य

बीते साल जब मशहूर हास्य कलाकार रौबिन विलियम्स ने खुदकुशी की तब किसी ने हास्य कलाकारों को ले कर बेहद दिलचस्प और अजीबोगरीब धारणा प्रस्तुत करते हुए कहा था कि दुनियाभर के कलाकारों, खासतौर से हास्य कलाकारों की मौत आकस्मिक और तनावग्रस्त परिस्थितियों में होती है. कितनी अजीब बात है कि परदे पर दुनिया को हंसाने वाले ज्यादातर हास्य कलाकार या तो चार्ली चैपलिन, भगवान दादा व महमूद जैसे मुफलिसी या तनाव में अपना आखिरी वक्त काटते हैं या फिर रौबिन की तरह मौत को गले लगा लेते हैं. इन दिनों टीवी और सिनेमा पर दिखाया जाने वाला हास्य भी लगता है मुफलिसी और डिप्रैशन की गिरफ्त में है. इसीलिए मनोरंजन के माध्यमों से हास्य लगभग गायब हो चुका है.

ज्यादातर शो या तो किसी पुरुष कलाकार को भौंडी महिला के गैटअप में पेश कर मजाक के नाम पर अश्लीलता परोसते हैं और बाकी सीनियर कलाकारों की मिमिक्री की आड़ में उन्हीं की बेइज्जती करने में मसरूफ दिखते हैं. फिल्मों की बात तो मत ही कीजिए, वहां तो हंसाने के लिए किसी किरदार को अंधा या लूलालंगड़ा बना कर उस की अपंगता से उपजी विसंगतियों पर हंसने को कहा जाता है. या फिर किसी महिला की साड़ी का पल्लू नीचे खिसका कर हंसाने की बेहूदगीभरी कोशिश की जाती है. बड़ा सवाल है कि आखि?र क्यों टीवी और फिल्मों पर सामाजिक सरोकारों से भरे हास्य की कमी होती जा रही है? आइए, जवाब तलाशते हैं.

हास्य के सामाजिक सरोकार

दुनिया में अगर किसी कलाकार ने हास्य को सामाजिक विसंगतियों के साथ सटीक ढंग से पेश किया है तो वे हैं चार्ली चैपलिन. चार्ली ही अकेले हास्य कलाकार थे जिन्होंने हास्य का ऐसा स्वरूप रचा, जिस में विनोद के साथसाथ संवेदनशीलता, विचार, व्यंग्य और कू्रर व्यवस्था पर प्रहार था. उन की बनाई लगभग सारी फिल्में समाज के वंचित तबके की आवाज को हास्य की चाशनी में लपेट कर प्रस्तुत करती हैं. उन्हीं की बनीबनाई छवि की नकल कर राज कपूर ने भारत से रूस तक लोकप्रियता हासिल की. उन की फिल्मों में दी ग्रेट डिक्टेटर, दी गोल्ड रश, मौडर्न टाइम्स, सर्कस ऐसी ही हैं जो व्यवस्था के मारे लोगों की बेबसी को हास्य के सहारे सब तक पहुंचाती हैं.

मशहूर फिल्म दी गोल्ड रश का जूतों के सूप वाला सीन याद कीजिए. जोरदार बर्फबारी के बीच सोने की तलाश में आए समूह में खाने का संकट है. जब कोई उपाय नहीं सूझता तो चार्ली अपना बूट गरम बरतन में उबालते हैं. मानो सूप बना रहे हों. फिर लकड़ीनुमा चमचे से बारीबारी जूतों को उबाल कर एक बरतन में जूतों को सूप समेत परोसा जाता है. अब उन जूतों को फौर्क के साथ खाते देख दर्शक खिलखिलाए बिना नहीं रहते. उस के ठीक बाद चार्ली जूतों के तले से कीलें निकाल कर यों चूसते हैं, मानो कोई जायकेदार चिकन डिश से लेगपीस का लुत्फ उठा रहा हो. अभाव और जानलेवा परिस्थितियों में उत्पन्न ऐसा स्वाभाविक हास्य विरला ही दिखता है.

हमारे यहां आज भी हास्य में किसी को केले के छिलके पर ही गिरा कर हंसाया जाता है. आज भारत के टीवी प्रोग्राम्स या फिल्म में पौलिटिकल सटायर तो दूर गांव, गरीब और सामाजिक मसलों पर हास्य रचने के बजाय इन्हीं को मजाक का विषयवस्तु बना दिया जाता है. अब कोई कौर्पोरेट जगत और सत्ताधारियों पर कटाक्ष कर सिनेमा नहीं बना सकता. चार्ली चैपलिन ने अपनी एक किताब में कहा है, ‘‘मेरा दर्द किसी के लिए हंसने की वजह हो सकता है, पर मेरी हंसी कभी भी किसी के दर्द की वजह नहीं होनी चाहिए.’’ उन्होंने ताउम्र दूसरों पर हंसने के बजाय खुद को निशाना बनाया लेकिन हम तो टीवी पर आएदिन किसी न किसी को मजाक की आड़ में चोटिल करते रहते हैं. शायद बदली मानसिकता और अपने बजाय दूसरों पर हंसने की प्रवृत्ति के चलते सार्थक हास्य की इतनी कमी खलती है.

मजाक और व्यंग्य में फर्क

आज के ज्यादातर हास्य कलाकार और लेखक हास्य और व्यंग्य में अंतर नहीं कर पाते. इसीलिए कई बार संवेदनशील मसलों को भी व्यंग्य की कसौटी पर रखने के बजाय मजाक के तराजू पर तौल दिया जाता है. जैसा कि आएदिन आम आदमी पार्टी नेता अरविंद केजरीवाल का फूहड़ अंदाज में चुटकी लेते हुए मजाक उड़ाया जाता है. इन्हें यह बात समझ नहीं आती कि हास्य और व्यंग्य एक जैसे लगते हुए भी प्रकृति में काफी अलहदा हैं. आज कोई हास्य कलाकार राजनीतिक, सामाजिक और अन्य क्षेत्र की हस्तियों को ले कर चार्ली जैसा व्यंग्य क्यों नहीं रच पा रहा है, यह सवाल है. एक समय हृषिकेश मुखर्जी, बासु चटर्जी और कुंदन शाह जैसे निर्देशक आम आदमी और समाज की तकलीफों को हलकेफुलके व्यंग्य के अंदाज में कहते थे पर अब तो साजिद खान जैसे निर्देशकों को हंसाने के लिए अफीम के परांठे खा कर हंगामा मचाने जैसे बेतुके सीन लिखने पड़ते हैं. उन की फिल्म हमशकल्स में कभी बौनों को ले कर तो कभी महिलाओं को ले कर भद्दा मजाक साफ दिखता है.

डिमांड, दबाव व सासबहू ड्रामा

हास्य के गिरते स्तर और इस की कमी के पीछे निजी चैनल्स की गलाकाट प्रतिद्वंद्विता और टीआरपी का फर्जी पैमाना भी है. हर चैनल चाहता है कि अगर बेसिरपैर के हास्य व सासबहू ड्रामा से टीआरपी आती है तो उसी को बारबार दोहराओ. इस के साथसाथ फिल्मों या टीवी पर हास्य लिखने वाले ज्यादातर लेख के सामाजिक संदर्भों से बच कर लिखते हैं या फिर द्विअर्थी संवादों को ही हास्य का पैमाना समझते हैं. कई हास्य लेखक बताते हैं कि उन्हें चैनल प्रोड्यूसर के कहने पर ही चुटकुले तैयार करने पड़ते हैं, मिमिक्री आइटम लिखने पड़ते हैं. ग्लोबलाइजेशन के बाद यहां हर चीज में बिजनेस और मुनाफा ढूंढ़ा जा रहा है. टैलीविजन और फिल्मी हस्ती जयंत कृपलानी, जो धारावाहिक जी मंत्री जी में काफी पसंद किए गए थे, के मुताबिक आज के हास्य कार्यक्रमों में हास्य नहीं बल्कि सिर्फ चुटकुले सुनाए जाते हैं. हास्य वह चीज है जो हमारे जीवन के किसी हिस्से से आता है.

वे कहते हैं कि एक कार्यक्रम में तीन मेजबान हैं जो आप के चुटकुला सुनने से पहले ही हंसना शुरू कर देते हैं और चुटकुला खत्म होने तक लगातार हंसते रहते हैं और उस के बाद पता चलता है कि चुटकुले में हंसने लायक कुछ था ही नहीं.

हास्य का सूरतेहाल

हास्य कार्यक्रमों के नाम पर टीवी पर कौमेडी नाइट विद कपिल, कौमेडी क्लास, यम किसी से कम नहीं, तारक मेहता का उल्टा चश्मा, यम हैं हम, बड़ी दूर से आए हैं और एफआईआर जैसे कुछ कार्यक्रम चल रहे हैं. इन चंद नामों के अलावा टीवी पर अपराध, फंतासी आधारित, सासबहू और डौक्यूमैंट्रीनुमा सीरियल्स की भरमार है. यही हाल फिल्मों का है. हास्य पर पूरी तरह से आधारित आखिरी फिल्म नो एंट्री ही याद आती है. यों तो इस में कई कौमेडी के बेहतरीन सींस थे लेकिन क्लाइमैक्स में जब सभी पुरुष किरदार पहाड़ी से लटके हैं और अचानक सांप आ जाता है, तो दर्शकों के ठहाके सुनने वाले होते हैं. उस पर बीन की धुन पर मेरा तन डोले मेरा मन डोले का बैकग्राउंड संगीत हंसी में चारचांद लगा देता है. नो एंट्री के बाद की बनी क्या कूल हैं हम और मस्ती जैसी फिल्में हास्य के नाम पर एडल्ट जोक्स से ज्यादा कुछ नहीं थीं.

मशहूर हास्य कलाकार जौनी लीवर का कहना है कि आजकल हास्य प्रस्तुति गायब होती जा रही है. फिल्मों में हास्य की जगह पर संवाद और मारधाड़ प्रधान होते जा रहे हैं. जबकि हास्य भावभंगिमा और संकेतों वाली कला है. पहले के समय हास्य फिल्म का जरूरी हिस्सा होता था जो कहानी के साथ पिरोया जाता था. उसी दौर में उत्पल दत्त, देवेन वर्मा, अमोल पालेकर, डेविड, ओम प्रकाश, महमूद, जौनी वाकर, धूमल, मुकरी, जगदीप, मनोरमा, टुनटुन, राजेंद्रनाथ, किशोर कुमार, केश्टो मुखर्जी और असरानी जैसे हास्य कलाकारों का उदय हुआ लेकिन बाद में फिल्मों में कौमेडी का अलग से ट्रैक जुड़ने लगा, शायद यह ट्रैंड दक्षिण भारतीय फिल्मों से आयातित था. लिहाजा, कहानी से कोई सरोकार न होने के चलते हास्य लगभग अनदेखा कर दिया गया. कौमेडी में सबकुछ चलता है, यही कुतर्क हास्य को गायब करने में महत्त्व भूमिका अदा करता रहा.

बदलते दौर से उम्मीद बाकी

जब हास्य अपने सर्वश्रेष्ठ दौर में था तब राज कपूर ने श्री 420 व जागते रहो में सामाजिक व्यवस्था की विसंगति पर खासा कटाक्ष किया. ऐसे ही कई फिल्मकारों ने सार्थक हास्य फिल्में बनाई. कुंदन शाह ने जाने भी दो यारों, हृषिकेश मुखर्जी ने गोलमाल, चुपकेचुपके व रंगबिरंगी, बासु चटर्जी ने चमेली की शादी, खट्टामीठा व छोटी सी बात, सई परांजपे ने कथा, दिल्लगी व चश्मे बद्दूर, गुलजार ने अंगूर जैसी उत्कृष्ट हास्य फिल्में दीं.

जाने भी दो यारो का वह महाभारत के मंचन वाला दृश्य तो कल्ट बन चुका है. महाभारत के किरदारों में जब दूसरे ऐतिहासिक कथाओं के पात्र घुसते हैं तो दर्शक पेट पकड़ लेते हैं. कोई अर्जुन का 2 रुपए का धनुष तोड़ रहा है तो कोई पंजाबी लहजे में अपने ही कौरव साथियों को धमका रहा है. मजा तो तब आता है जब एक लाश को द्रौपदी बना कर मंच पर लाया जाता है और उस के चीरहरण को कौरवों के ही पात्र रोकने लगते हैं. रंगमंच पर महाभारत की यह खिचड़ी आज भी आंखों में हंसी के आंसू ले आती है. कह सकते हैं कि 80 के दशक के आखिर तक हास्य खारिज होने लगा. बाद में स्टैंडअप आर्टिस्ट आ गए और सामाजिक सरोकार से जुड़े हास्य की जगह चुटकुलों पर आधारित कौमेडी होने लगी, जिसे सुन कर त्वरित हंसी तो आ जाती है लेकिन उस का असर भी त्वरित उतर जाता है.

अच्छी बात यह है कि पिछले एक दशक में सार्थक हास्य का कम ही सही, दोबारा से चलन शुरू हुआ है. फिल्मकारों का एक खास वर्ग है जो अपनी फिल्मों में सामाजिक मसलों को हास्य या कहें सटायर के लहजे में सफलतापूर्वक पेश करता है. इस में सब से पहला नाम निर्देशक राजकुमार हिरानी का आता है. हिरानी अपनी फिल्म मुन्ना भाई एमबीबीएस से ले कर पीके तक अपनी हास्य की गुणवत्ता बरकरार रखे हैं. उन की मुन्ना भाई एमबीबीएस जहां चिकित्सा व्यवस्था की जड़ता व खामियों को मजेदार ढंग से उजागर करती है तो वहीं लगे रहो मुन्ना भाई महात्मा गांधी के विचारों को गांधीगीरी के नए कलेवर में पेश करती है. उन्होंने थ्री इडियट्स में देश की शिक्षा व्यवस्था और आगे बढ़ने की होड़ पर कटाक्ष किया और हालिया रिलीज पीके में तो धर्म के धंधेबाजों पर किए गए हास्यास्पद कटाक्ष से सब वाकिफ हैं ही. उन्हीं की तरह दिबाकर बनर्जी ने खोसला का घोसला, ओए लकी लकी ओए में हास्य के साथ गंभीर मसले दर्शकों के सामने रखे. तेरे बिन लादेन,  पीपली लाइव और ओह माई गौड जैसी कई फिल्मों में हास्य का सहारा ले कर लोगों को गुदगुदाया गया.

ओह माई गौड के एक मजेदार सीन में जब कृष्ण का मौडर्न अवतार ले कर अक्षय कुमार कांजी भाई के घर प्रकट होते हैं तो कांजी उन्हें भगवान की नंगे पेट और दर्जनों हाथों वाली तसवीरें दिखा कर कहता है कि हमारे भगवान ऐसे होते हैं, तेरी तरह सूटबूट में नहीं घूमते. जवाब में कृष्ण का किरदार कहता है कि वह क्या है फेसबुक पर अभी हमारी नई फोटो अपडेट नहीं हुई है. जौली एलएलबी में अदालती प्रक्रिया से उकताए वकील त्यागी का संवाद सुनिए, ‘‘बचपन से फिल्मों में सुनते आए हैं कि कानून के हाथ लंबे होते हैं…घंटा लंबे होते हैं.’’ इन तमाम फिल्मों में हर तरह के समाज की बेबसी और आकांक्षाओं को दिखाया गया था. इन दिनों फिल्म निर्माण की 2 धाराएं चल रही हैं. एक बड़े सितारों को ले कर महंगी फिल्म बनाने की और दूसरी, सीमित बजट में विषय केंद्रित फिल्में बनाने की. दूसरी धारा की फिल्मों में प्रयोग करने और जोखिम उठाने की ज्यादा संभावना होती है, लिहाजा अगर इन्हें बढ़ावा मिले तो शायद मनोरंजन की दुनिया से हास्य की कमी दूर हो जाए.

जीवन की मुसकान

रात के 8 बजे थे. काफी बारिश हो रही थी. मैं कार द्वारा कपूरथला से पूर्णिया की ओर जा रही थी. मोबाइल की घंटी बजी, आवश्यक कौल देख कर मैं ने कार किनारे खड़ी की और बात करने लगी. तभी मुझे लगा कि कार का अगला हिस्सा नीचे की ओर झुका जा रहा है. फोन बंद कर मैं कार से उतरी तो देखा कार के अगले पहिए बंपर समेत कीचड़ में धंस गए हैं. मैं ने गाड़ी स्टार्ट कर निकालने की कोशिश की लेकिन कार टस से मस न हुई. क्या करूं, कुछ समझ में नहीं आ रहा था. तभी एक संभ्रांत से सज्जन पैदल उधर से गुजरे. मुझे पानी में खड़े देख कर पूछा, ‘मैडम, क्या बात है?’ मैं ने अपनी परेशानी बताई तो वे रुक गए और साइकिल पर जाते 2 लोगों को रोका व उन की सहायता से गाड़ी निकलवाने की कोशिश की पर गाड़ी निकल न सकी.

तभी एक मालवाहक टैंपो उधर से गुजरा. उन सज्जन ने उसे रोक कर सहायता मांगी. ड्राइवर राजी हो गया. उस ने एक रस्सी निकाली और बंपर से बांधने की कोशिश की लेकिन बंपर तो कीचड़ में धंसा था तो उस ने पीछे से रस्सी बांध कर खींचा तो रस्सी ही टूट गई. तब उस ने 4-5 आदमियों को बुला कर धक्का लगाने को कहा और खुद कार स्टार्ट कर गाड़ी को बाहर निकाल दिया. मैं ने खुशीखुशी टैंपो वाले और उस के साथियों को 400 रुपए दिए. वे सज्जन पूरे समय मेरे साथ खड़े रहे. घबराहट में मैं उन को धन्यवाद कह कर, गाड़ी ले कर चली आई. उन का परिचय नहीं पूछा. रास्ते में मैं सोचने लगी, स्वार्थ से भरी इस दुनिया में निस्वार्थ सहायता करने वाले लोग भी हैं.

ऋतु अरोरा, लखनऊ (उ.प्र.)

*

कुछ दिन पहले मेरी दादी काफी बीमार हो गईं. उन्हें बिलासपुर के एक हौस्पिटल में भरती कराया गया. उन की शुगर एकदम डाउन हो गई थी. डाक्टरों ने मुझ से शक्कर लाने को कहा. रात के 12 बज रहे थे. मेरा घर हौस्पिटल से काफी दूर था. मैं आसपास दुकान में शक्कर की तलाश के लिए निकला. एक घर के सामने एक बुजुर्ग दंपती बैठे थे. मैं ने उन से जा कर अपनी समस्या बताते हुए पूछा, ‘‘आंटीजी, यहां कहीं आसपास किराने की दुकान है क्या?’’

उन्होंने कहा, ‘‘दुकानें तो सामने ही हैं पर वे बंद हो चुकी हैं.’’ उन के पति ने कहा, ‘‘शक्कर चाहिए तो हम से ले जाओ.’’ इतने में उन की पत्नी ने एक डब्बे में शक्कर के साथसाथ कुछ मिठाइयों के पीस भी ला कर मुझे दिए, जिस से मेरी दादी को काफी आराम मिला. मैं आज भी उन दंपती का हृदय से आभारी हूं.

सौरभ वर्मा, बिलासपुर (छ.ग.)

नास्तिक न होऊं तो क्या होऊं

कंजूस सेठ करोड़ीमल समुद्रतट पर अपने परिवार के साथ तफरीह करने गए थे. ज्वार के दिन थे. अचानक समुद्र में एक बड़ी लहर आई और उन के 2 साल के बच्चे झुम्मन को अपने साथ बहा कर ले गई. क्या हुआ, यह ठीक से समझ में आने तक झुम्मन एकदो बार लहरों पर दिखाई दिया और फिर गायब हो गया. सेठ करोड़ीमल की जान हलक में आ गई. झट उन्होंने दोनों हाथ आकाश की तरफ उठाए, रेत में घुटने टेके और गिड़गिड़ाए, मेरे बच्चे को बचा लो. मेरा सबकुछ लुटा जा रहा है.

सेठ करोड़ीमल गिड़गिड़ा ही रहे थे कि पहले से भी बड़ी एक लहर और आई और झुम्मन को किनारे पटक कर चली गई. सेठ करोड़ीमल एक पल में होश में आए. सामने अपने बच्चे को जिंदा देख कर उन की जान में जान आई. उन्होंने झुम्मन को ध्यान से देखा, ऊपर से नीचे तक ताका और फिर आकाश की तरफ मुंह उठा कर गुस्से से बोले, इसीलिए तो मुझे तुम पर श्रद्धा नहीं होती. आज तक तुम ने मेरी एक भी प्रार्थना सुनी है? मैं नास्तिक न होऊं तो क्या होऊं? तुम्हें मेरी जरा भी फिक्र नहीं है. अब यही देखो, मेरा बच्चा तो बच गया लेकिन उस का मोबाइल कहां गया, बताओ?                      

बच्चों के मुख से

मेरी 8 वर्षीय बेटी चेरी एक दिन बोली, ‘‘मम्मी, आज मुझे टिफिन में पोहा बना कर देना.’’ मैं ने उसे टिफिन में पोहा बना कर दे दिया. स्कूल से जब वह वापस आई तो बहुत खुश थी, चहक कर बोली, ‘‘मम्मी, मेरी सब सहेलियों को पोहा बहुत टेस्टी लगा. सब ने मुझ से कहा, ‘वाह, तेरी मम्मी कितना अच्छा पोहा बनाती हैं.’’’

‘‘अच्छा,’’ मैं ने प्यार से उस से कहा.

‘‘हां मम्मी, तो मैं ने उस से कहा कि मेरी मम्मी बहुत अच्छी कुकर हैं. खाना बहुत अच्छा बनाती हैं.’’

उस की बात सुन कर मुझे जोर से हंसी आ गई और मैं ने उसे समझाया कि अच्छा खाना बनाने वाले को ‘कुकर’ नहीं ‘कुक’ कहते हैं.

विनीता राहुरीकर, भोपाल (म. प्र.)

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बात मेरी चचेरी बहन के विवाह की है. बरातियों के स्वागत के लिए गरमागरम चाय, कौफी, सूप की व्यवस्था की गई थी. 12 बजे रात को शादी का विधिविधान आरंभ हुआ. सभी बुजुर्ग व महिलाएं स्टाल पर जा कर गरमागरम कौफी की चुसकियां ले रहे थे. तभी मेरी 5 वर्षीया भतीजी ईशा आई. उस ने मुझ से बड़े प्यार से कहा, ‘‘बूआ, मुझे भी कौफी चाहिए.’’

मैं ने सहमति देते हुए कहा, ‘‘ठीक है, जाओ ले लो.’’

इस पर ईशा ने बड़ी मासूमियत से कहा, ‘‘मेरे पास पैसे नहीं हैं, पैसे दो न.’’ उस की बात सुन कर मैं ही नहीं, आसपास खड़े लोग भी मुसकरा उठे. दरअसल, विवाह में लगे स्टौल को भी वह दुकान समझ बैठी थी.

मृणालिनी, कोलकाता (प.बं.)

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मेरी 2 पोतियां हैं–मनु और इनु. वे 3 व 4 साल की हैं. मुझे सब्जी वगैरह लाने के लिए रोज बाजार जाना पड़ता है. मैं जब भी बाहर जाने लगती हूं तो बच्चे साथ में जाने के लिए मचलने लगते हैं. एक दिन गरमी में जब मैं बाहर जाने के लिए निकलने लगी तो वे पीछे लग गए और बोलने लगे, ‘‘आप कहां जा रहे हो, हम भी जाएंगे.’’ मैं ने उन्हें साथ न ले जाने के बहाने से उन से कहा, ‘‘मैं धक्के खाने जा रही हूं.’’ तो बच्चे एकसाथ बोल पड़े, ‘‘हम भी धक्के खाएंगे.’’ बच्चों के मुख से निकले इस वाक्य को याद कर हम सब आज भी हंसे बिना नहीं रह पाते.

विमलजीत छाबड़ा, महासमुंद (छ.ग.)

शादी के बाद कैरियर में बे्रेक क्यों : गुरुदीप पुंज

मुंबई की रहने वाली गुरुदीप ने अपने अभिनय कैरियर की शुरुआत मौडलिंग से की. उन को पहचान मिली ‘संजीवनी’, ‘सिंदूर तेरे नाम का’, ‘नच बलिए’ व ‘दिया और बाती हम’ सीरियलों से. गुरुदीप ने फिल्म ‘राउडी राठौर’ में भी काम किया. गुरुदीप  ने ‘संजीवनी’ के साथी कलाकार अर्जुन पुंज से साल 2006 में शादी की. 2010 में उन की बेटी मेहर हुई. अर्जुन और गुरुदीप दोनों ने एकसाथ ‘दिया और बाती हम’ में काम किया है. पेश हैं उन से हुई बातचीत के खास अंश :

शादी से पहले और शादी के बाद अपने कैरियर में क्या बदलाव महसूस करती हैं?

शादी से पहले हमारा ध्यान केवल कैरियर पर होता है. शादी के बाद हमें पति, परिवार और बच्चे सभी पर ध्यान देना पड़ता है. यह सब बहुत मजे से व्यवस्थित हो जाता है. हमें यह महसूस नहीं होता कि कैरियर के चक्कर में हमें क्या गंवा देना पड़ा. काम के बाद अपने परिवार के साथ समय गुजार कर बहुत अच्छा लगता है. काम का सारा बोझ, तनाव बच्चों की एक मुसकान मात्र से दूर हो जाता है.

एक सोच होती थी कि शादी और उस पर बच्चे होने के बाद अभिनय के कैरियर में ब्रेक  लग जाता था?

अब ऐसा नहीं होता. शादी और बच्चों के बाद भी कैरियर को आगे बढ़ाया जा सकता है. टीवी ही नहीं, फिल्मों में भी ऐसे तमाम उदाहरण मौजूद हैं जब कलाकारों ने कैरियर के ऊंचे शिखर पर शादी की है. शादीके बाद भी लोग उन को पसंद करते हैं. टीवी की दुनिया में ऐसे बहुत उदाहरण हैं. शादी और बच्चों को कैरियर पर ब्रेक मानने वाली बात मुझे बेमानी लगती है.

क्या इस की वजह यह नहीं है कि आज की औरत शादी और बच्चों के बाद भी अपने को फिट रख सकती है?

सही बात है. आज औरतों को अपने को फिट और सुंदर बनाए रखने की कला आती है. वे अपने पर पहले से अधिक ध्यान देती हैं. वे महिलाएं ही नहीं जो फिल्मी कैरियर में हैं. आम महिलाएं भी आज अपनी सेहत और सुंदरता के प्रति बहुत जागरूक हैं.

आप और आप के पति दोनों ही अभिनय के क्षेत्र से हैं. एक ही फील्ड में काम करने में कोई परेशानी तो नहीं होती?

मुझे तो इस में कोई परेशानी नहीं होती है. मुझे तो लगता है कि एक फील्ड में काम करने का लाभ ही होता है. पतिपत्नी के बीच अनबन तो हर उस जगह हो सकती है जहां आपसी प्यार और सहयोग नहीं होगा. हम ने कई बार एकदूसरे के साथ वाले रोल किए हैं. ‘दिया और बाती हम’ में हम एकदूसरे के अपोजिट भूमिका की. परदे पर हम भले ही अलगअलग हों पर घर में साथसाथ होते हैं. परदे पर काम करते समय हमें यह भूलना पड़ता है कि हम पतिपत्नी हैं. हम अपने अभिनय पर आपस में बात करते हैं. हम जानते हैं कि सब से अच्छी सलाह हमें आपसी बातचीत के बाद ही पता चल सकेगी.

आप की बेटी करीब 4 साल की है. वह अपनी ‘स्टार मौम’ को कैसे देखती है?

बच्चे हमें देखते बडे़ होते हैं. वे धीरेधीरे सबकुछ समझ लेते हैं. कई बार हम बेटी को शूटिंग पर ले जाते हैं. अब वह स्कूल जाने लगी है. हमें सब से ज्यादा परेशानी उस के साथ स्कूल जाने में होती है. सब हम लोगों से मिलने के चक्कर में लग जाते हैं. हमारी बेटी को अपनी स्टार मौम और डैड दोनों से बहुत प्यार है.

आप की दूसरी हौबीज क्या हैं?

मुझे तरहतरह के खाने बनाने का शौक है. इस के लिए मैं पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाले रेसिपी के लेख बहुत पढ़ती हूं. गृहशोभा व सरिता में प्रकाशित होने वाली रेसिपी हम ने बहुत पढ़ी हैं. इन से बहुत सीखने को मिला है. एक टैलीविजन चैनल पर कुकिंग प्रोग्राम ‘बच्चा पार्टी’ और एबीसी (औल बाउट कुकिंग) होस्ट किए. मेरे पति तो एक रेस्तरां भी चलाते हैं. पंजाबी फूड खासतौर पर पसंद है. मुझे घूमना भी बहुत पसंद है.

नैगेटिव रोल करने के बाद क्या कैरियर पर किसी तरह का नैगेटिव प्रभाव पड़ता है?

मेरा मानना है कि कलाकार को हर तरह के रोल करने चाहिए. इस से ऐक्ंिटग के तमाम शेड्स करने को मिलते हैं. मुझे ऐसे रोल करने में कोई परेशानी नहीं होती. इस को मैं चैलेंज के रूप में लेती हूं. मुझे सब से ज्यादा मुश्किल वैसे रोल निभाने में आती है जहां मुझे पुरुष का किरदार निभाने को कहा जाता है. ‘दिया और बाती हम’ में मुझे एक सीन में दाढ़ीमूंछ लगा कर पुरुष बनना पड़ा था.

शादी के बाद अपने को फिट कैसे रखें?

आप अपने से प्यार करना शुरू कर दीजिए. अपने को फिट रखने में केवल थोड़ी सी जागरूकता और ऐक्सरसाइज की जरूरत है. खानपान का ध्यान रखें. फैट बढ़ाने वाली चीजें न खाएं. ऐसी चीजें टेस्टी जरूर लगती हैं पर इन से बचना पडे़गा. सब से जरूरी चीज स्किन केयर होती है. इस के लिए पानी खूब पिएं. अपने फिगर को ध्यान में रख कर अपने लिए ड्रैस का चुनाव करें. इस के अलावा मेकअप का प्रयोग जरूरत के हिसाब से ही करें.

होली, साली और उमरिया बाली

सुबहसुबह लखनऊ से सालीजी का फोन आया, ‘‘जीजाजी नमस्कार, आप की साली रंजना बोल रही हूं, इस बार होली साथसाथ मनाएंगे. कल की गाड़ी से आ रही हूं.’’ न जाने किस का मुंह देखा था जो इतना अच्छा समाचार मिल गया. हम अपनी इकलौती साली के साथ होली मनाने और उसे रंगने के सपने देखने लगे. अभी होली के 15 दिन बाकी थे. साली के आने से होली की तैयारियों में भी मजा आ जाएगा. खैर, अगले दिन साली साहिबा आ गईं, और घर रंगों से भर गया.

पहले सामान लेने के लिए बाजार जाने में हम अलसाते थे, लेकिन इस बार तो दौड़ कर जाते और भाग कर वापस आ जाते. इसी के चलते एक दिन बाजार से सामान रीद कर लौटते समय मियां रफ्फू मिल गए. हम उन को दूध में मिश्री घोलघोल कर साली के आने वाली बात बताने लगे. जब हम घर पहुंचे तो दरवाजे पर सालीजी खड़ी सामान का और हमारा इंतजार कर रही थीं. हमें देखते ही बोलीं, ‘‘जीजाजी, लगता है बुढ़ापा आ गया, पहले तो आधपौन घंटे में बाजार से लौट आते थे लेकिन इस बार पूरा डेढ़ घंटा लग गया, यानी कि बुढ़ापे की वजह से चाल में फर्क आ गया.’’

साली की बात बेचैनी बढ़ाने वाली थी. हम अपनी उम्र का हिसाब लगाने बैठ गए, वो अम्मा कहती थीं, ‘जब मुल्क आजाद हुआ था, उस से 2 महीने पहले हम पैदा हुए थे,’ इस हिसाब से अभी हमारी उम्र 68 के आसपास चल रही है. लेकिन अभी तक हम अपने को छैलछबीला ही समझ रहे थे. इसी के साथ श्रीमतीजी का भी राग उमरिया चालू हो गया. वे कोई मौका हाथ से जाने नहीं देती थीं. वे बोलीं, ‘‘सुनते हो जी, ये कब तक सूखी बगिया में काला रंग घोलते रहोगे, अरे जब सिर पर झाडि़यां ही नहीं हों तो रंगने का क्या मतलब?’’

श्रीमतीजी की बात पर हम ने गौर किया और जब सिर पर हाथ फेरा तो मालूम हुआ कि सिर, सपाट मैदान बन चुका. हम महसूस कर रहे थे कि एक बात खत्म नहीं होती, श्रीमतीजी एक मुद्दा पकड़तीं तो साली दूसरा पकड़ लेती.

अब साली बोलीं, ‘‘जीजाजी, होली खेलना आसान थोड़े न है, उस के लिए दम चाहिए. होली में अभी 10-15 दिन बाकी हैं. अभी से थोड़ीबहुत कसरत करना चालू कर दो…’’ इस के बाद वह रहस्यमयी हंसी के साथ जोर से हंस दी, फिर बरामदे में 5 से 10 किलो तक के रखे हुए पत्थरों को दिखाते हुए साली ने कहा, ‘‘देखो जीजाजी, अब आप को ‘वर्ल्ड चैंपियन’ तो बनना नहीं है, इसलिए होली तक आप इन्हीं से सेहत बनाओ.’’ इधर, सालीजी हमारी हैल्थ पर लगी थीं तो श्रीमतीजी की निगाह हमारे खानपान पर लग गई थी, वे बोलीं, ‘‘अब होली की गुजिया, पापड़ी भूल जाओ, तुम्हारे लिए तो दलिया वगैरह ठीक रहेगा, अरे तंदुरुस्ती का मामला है. और कल ही तो डाक्टर ने तुम्हें ब्लडप्रैशर हाई बताया है.’’

हम सोचने लगे श्रीमतीजी की बात तो सोलह आने ठीक है पर ये ब्लडप्रैशर नहीं हुआ, कोई प्रैशर कुकर हो गया, जिस की सीटी कभी भी बजने को तैयार रहती है. इस बार हम अपने निगोड़े बुढ़ापे को कोस रहे थे, जिस ने होली पर हमारा जीना दूभर कर दिया था और अच्छीखासी जिंदगी में तूफान ला दिया था. खैर, साली के संग होली खेलने के सपने देख कर मन में लड्डू फूट रहे थे. तभी श्रीमतीजी ने कहा, ‘‘सुनते हो, वो तुम्हारी साली कह रही थी कि जीजाजी से कह देना इस बार खाली गुलाल की ही होली खेलें, अरे उम्र का खयाल रखें, बेकार में रंग लगाने, लगवाने के चक्कर में गिर गए तो मुफ्त में अस्पताल के चक्कर लगाने पड़ेंगे.’’ इस तरह से रहीसही कसर साली ने और निकाल दी और उस ने हमारी रंगबिरंगी होली को बेरंग बना दिया.

होली से पहले श्रीमतीजी ने फिर हमारे ऊपर निशाना साधते हुए कहा, ‘‘मुझे होली के बहुत से काम निबटाने हैं लेकिन तुम रातभर खर्राटे लेते रहते हो जिस से मेरी नींद खराब होती है. अब कल से तुम बाहर दालान में सोया करो.’’

अगले दिन दालान में जब हम सो कर उठे तो देखा कि हमारे महल्ले के 4-5 आवारा कुत्ते भी हमारे साथ सो रहे थे. बाद में मालूम हुआ कि महल्ले के लड़के हमें खटिया से नीचे डाल कर, खटिया होली में जलाने के लिए ले गए हैं. इस बार श्रीमतीजी ने साली के साथ होली खेलने के हमें मौके दिए ही नहीं, क्योंकि घर में अंदर बहुओं का राज था और मानमर्यादा का ध्यान रखना जरूरी था. इस तरह से होली पर हमारी हर उम्मीद पर पानी फिरता जा रहा था.

होली वाले दिन पोतेपोतियां जिद करने लगे कि दादाजी, घोड़ा बन कर हमें पीठ पर बैठाओ, हमें होली का जुलूस निकालना है. जब हम मना करने लगे तब साली ने फिर कहा, ‘‘अरे जरा बच्चों का दिल रख लोगे जीजाजी, तो आप गधे तो नहीं बन जाओगे. चलो जल्दी से अपना जुलूस निकलवाओ.’’

अब हमारी पीठ पर नातीपोते लद गए. बुढ़ापे की कमर थी, सो दरक गई और हमें 2-3 महीने के लिए खटिया पकड़नी पड़ी.

साली का बेसुर का सुर फिर चालू हो गया, ‘‘होली पर फूल से बच्चों का वजन तो उठा नहीं सकते, फिर काहे के जवान. अरे अब तो मान लो जीजाजी कि बुढ़ापा आ गया है.’’

लेकिन हम में अभी भी अकड़ बाकी थी, इसलिए हम ने फिर भी अकड़ कर कहा, ‘‘सालीजी, होली के लिए दिल जवान होना चाहिए, उम्र बाली होनी चाहिए, समझीं न.’’

अब श्रीमतीजी ने फिर नहले पर दहला मारते हुए कहा, ‘‘अरे मियां, दिल को कौन देखता है, पहले तो लोगों को तुम्हारा पिचकी पिचकारी जैसा चेहरा ही देखेगा न और अब से ये साली, रंग, होली सोचना बंद कर दो.’’

साली और श्रीमतीजी की अब तक की बातों से हमारा जोश खत्म हो चला था और हम दालान के कोने में बैठे ललचाई निगाहों से साली को होली खेलते देखते हुए, होली खेलने के सपनों में खो गए.

इन्हें भी आजमाइए

अगर आप को एक असरदार क्लीनर बनाना है तो घर पर जितने भी नीबू के छिलके मिलें उन्हें संभाल कर एक जार में भर लें. ऊपर से सिरका डालें और इसे 2 हफ्तों के लिए रखा रहने दें. यह एक एसिडिक मिश्रण है जिसे आप किसी भी प्रकार की गंदगी को साफ करने के लिए प्रयोग कर सकती हैं.

शिमला मिर्च में कैलोरी बहुत कम होती है, इस में वसा को घटाने की शक्ति होती है और इस के सेवन से उपापचय दुरुस्त रहता है और शरीर से टौक्सिन निकालने की प्रक्रिया होती है. आप इसे सब्जी, सूप या सलाद के रूप में आसानी से खा सकते हैं.

अगर आप का बाथरूम बड़ा है तो उस में पौधे रखें जो बदबू मिटाने का एक कारगर उपाय है. आप का बाथरूम अच्छा दिखने के साथसाथ प्राकृतिक रूप से महकेगा भी.

मल्टीग्रेन ब्रैड को रागी, जौ, जई व गेहूं के आटे से बनाया जाता है. इस के सेवन से वजन व कोलैस्ट्रौल नियंत्रित रहता है. पाचन समस्याओं से नजात दिलाती है.

पुदीना ठंडा होता है लेकिन आप को सर्दी लग गई है तो इस की पत्तियों को खाने से राहत मिलेगी.

घर पर लाइटों को क्रिएटिव तरीके से लगवाएं. भारी और महंगे लैंप खरीदने में ज्यादा पैसे खर्च न करें.

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