भारत ही नहीं, विश्व के सभी देशों में जीवन एक पहेली बनता जा रहा है. आतंकवाद के फैलते पांव ने जानमाल को असुरक्षित कर डाला है तो आर्थिक संकट के चलते अर्थव्यवस्थाएं लोगों का जीवन दूभर कर रही हैं. यह आशा थी कि 21वीं सदी विज्ञान और तकनीक के सहारे सुखदायी होगी पर इस में चारों ओर हत्याएं, बमबारी, विध्वंस, बेकारी, डांवांडोल होते परिवार, अकेलापन, महंगी चिकित्सा आदि दिख रहे हैं. सभ्य समाज के दिन आने से पहले ही लद गए लग रहे हैं. दुनिया के शासक एक बार फिर शीत युद्ध की ओर बढ़ रहे हैं. और तकनीक ने जिन जमीनी सीमाओं को मिटा दिया था उन्हें बैंकरों, शक्ति के पुजारियों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने फिर से खींच दिया है.
नागरिक फिर से असुरक्षा, संदेह, भय, सरकार की बढ़ती ताकत, विचारों की स्वतंत्रता को रौंदे जाने का गवाह बन रहा है. अब नौन स्टेट यानी शासकों के अतिरिक्त शक्तियां सरकारों से शक्ति का मुकाबला करने लगी हैं. इसलामिक स्टेट, बोको हरम, हिंदू अतिवादी, ईसाई कू क्लक्स क्लान फिर से सिर उठा ही नहीं रहे, सरकार और जनता को चुनौतियां भी दे रहे हैं. सब से ज्यादा चौंकाने वाली बात यह है कि लाखों युवा बेचैन हो रहे हैं कि कैसे शक्ति की खातिर अपने हाथों की खुजली तोपों, बंदूकों, हिंसा से मिटाएं. वर्षों की शिक्षा, समान अधिकारों के पाठ, प्रकृति से लड़ने का जज्बा दुनिया के रहस्यों को खोलने के संकल्प फीके पड़ने लगे हैं. मैं और मेरा गुट देश, समाज और विश्व से ऊपर होने लगा है और शातिर शासक, शक्ति के दलाल, धर्म के ठेकेदार इस का लाभ उठा रहे हैं.
इस का कारण यह मोबाइल क्रांति तो नहीं जिस ने तकनीक के पीछे से भद्दे, अश्लील, भड़काऊ, अपशब्द कहने की कला को उजागर कर दिया है? अब जो चाहे, जिसे चाहे गाली दे सकता है, मारने को उकसा सकता है. नया सोशल मीडिया, ऐंटीसोशल बनता जा रहा है जिस में अपने से भिन्न लोगों को गालियों की बौछारों से रंगा जा सकता है, अपनों के जीवन के रहस्यों को सार्वजनिक किया जा सकता है आदि. आज का ज्ञानअर्जन केवल 140 कैरेक्टर तक रह गया है जिस में गाली दी जा सकती है, समझदारी नहीं. लोग 10 मिनट में 20 समाचार सुन कर अपने को समझदार समझने लगे हैं. नारों की नीतियां समझना शुरू कर दिया गया है. बहस का मतलब विचारों का आदानप्रदान नहीं, चीखचिल्लाहट हो गया है जिस में विजडम गायब हो गई है. जिस तकनीक की वकालत की जा रही है वह हर नागरिक को स्क्रीन का गुलाम बनाएगी, आजाद नहीं करेगी. और गुलामों के अधिकार नहीं होते, उन के लिए हुक्म होते हैं. फिर क्या फर्क पड़ता है कि हुक्म देने वाला लोकतंत्र से चुन कर आया हो या टैंकतंत्र से या इंटरतंत्र से.