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घरवापसी के बहाने धर्म की दुकानदारी

आखिरकार बीती 17 फरवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को साफतौर पर वह बात कहनी ही पड़ी जिस का उन के पीएम बनने के बाद से लोग इंतजार कर रहे थे. लोगों की दिलचस्पी यह जानने में थी कि क्या नरेंद्र मोदी हिंदूवादी संगठनों के इशारे पर नाचते धर्म और हिंदुत्व की राजनीति करेंगे या फिर तरक्की की जिस के लिए उन्हें वोट दिया गया है. उस दिन नरेंद्र मोदी दिल्ली में ईसाइयों के एक बड़े धार्मिक जलसे में शामिल हुए थे जहां उन्होंने कहा कि धर्म किसी भी आदमी का निजी मामला है और हर किसी को अपनी मरजी से धर्म चुनने का, उस में रहने या न रहने का और उसे बदलने का भी हक है.तमाम धर्मों के लोगों को हिफाजत की गारंटी देते पीएम ने भरोसा दिलाया कि किसी भी तरह की धार्मिक हिंसा बरदाश्त नहीं की जाएगी, देश का संविधान धर्म के नाम पर हिंसा की कतई इजाजत नहीं देता.

हालांकि मुश्किल है पर यकीन करना पड़ेगा कि ये वही नरेंद्र मोदी हैं जिन की इमेज एक कट्टरवादी हिंदू नेता की रही है और जिन के माथे पर गोधरा कांड का काला टीका लगा हुआ है. फौरी तौर पर जानकारों द्वारा अंदाजा यही लगाया गया कि यह ओबामा फैक्टर का असर है. गणतंत्र दिवस पर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा जब भारत आए थे तब मोदी और उन की सरकार ने स्वागत में लाल कालीन और पलकपांवड़े बिछाए. वापस जाते ओबामा ने नरेंद्र मोदी को आगाह किया था कि उन्हें धर्म के नाम पर समाज को बांटने वालों से बचना चाहिए.

ओबामा का सीधा इशारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस की तरफ था. वजह, दिसंबरजनवरी के महीनों में हिंदूवादियों ने धर्म के नाम पर जम कर धमाल मचाया था जो अभी तक जारी है. उस दौरान गिरजाघरों पर भी हमले हुए थे. कोई अयोध्या में राममंदिर बनाने की बात कर रहा था, कोई हिंदुओं को ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करने का मशवरा दे रहा था तो कोई देश को हिंदू राष्ट्र घोषित करवाने पर तुला था. आरएसएस के सहयोगी संगठन विश्व हिंदू परिषद का खुला ऐलान यह था कि चाहे कुछ भी हो जाए, हिंदू धर्म छोड़ कर जो लोग दूसरे धर्मों में गए हैं, उन्हें हर कीमत पर हिंदू धर्म में वापस लाया जाएगा. विहिप के कार्यकारी अध्यक्ष प्रवीण तोगडि़या की मानें तो ऐसे हिंदुओं की तादाद तकरीबन 15 करोड़ है.

यह इत्तेफाक है या इस के पीछे हिंदू धर्म के पैरोकारों की साठगांठ, यह खुलासा मुद्दत बाद होगा लेकिन 17 फरवरी को ही आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत ने कानपुर में साफ कहा कि घरवापसी यानी हिंदुओं को अपने धर्म में वापस लाने की मुहिम में कुछ गलत नहीं है, यह मुहिम जारी रहेगी. अगर कोई भटका हुआ घर वापस आना चाहता है तो उसे रोकना ठीक नहीं.इन बयानों से एक बात जरूर वक्त रहते साबित हो गई कि नरेंद्र मोदी और हिंदूवादी संगठनों के बीच टकराव शुरू हो गया है क्योंकि मोदी इन संगठनों की कठपुतली बनने को तैयार नहीं. इस के पहले दिसंबर 2014 के तीसरे हफ्ते में ही वे साफ  कर चुके थे कि लोगों ने मुझे विकास और बेहतर शासन के लिए वोट दिया है, लेकिन हिंदूवादी संगठन उपद्रव मचाते हैं जिस से तरक्की में खलल पड़ता है. आरएसएस से गुजारिश सी करते हुए उन्होंने यह धौंस भी दी थी कि अगर बजरंग दल और विहिप जैसे संगठन अपनी कारगुजारियों से बाज नहीं आते हैं तो मैं पीएम पद की कुरसी छोड़ दूंगा.

जाहिर है यह धौंस नरेंद्र मोदी की सियासी कमजोरी ही कांग्रेस की तरह कही और मानी जाएगी कि उन में इन कट्टरपंथियों से निबटने का दम और ताकत नहीं जैसे करोड़ों हिंदुओं ने घुटने टेक रखे हैं वैसे ही मोदी ने भी इन के सामने घुटने टेक दिए हैं. यह बात कतई देश की तरक्की, हिफाजत और खुशहाली के लिहाज से ठीक नहीं कि अगर असल राज इन्हीं का है तो बंटाधार होने में देर नहीं लगने वाली. हिंदूवादियों के इरादे कितने खतरनाक हो चले हैं, इस का अंदाजा सतना में 20 फरवरी को प्रवीण तोगडि़या के इस बयान से लगाया जा सकता है कि हम रावलपिंडी में भगवा फहरा कर हिंदू राष्ट्र बनाएंगे. बकौल तोगडि़या, अब से 1400 साल पहले शाहरुख और सलमान खान नहीं थे क्योंकि तब मुसलमान पैदा ही नहीं हुए थे. हिंदू बीते 2000 सालों से  धर्मांतरण का शिकार हैं.

कमजोरियां धर्म की

धर्म से संबंध रखती इन बातों और बयानों से हिंदुओं का क्या भला होगा, यह शायद ही कोई हिंदूवादी नेता या किसी संगठन का मुखिया बता पाए पर मौजूदा हालत यह है कि लोग इस धर्म के जाल में फंसे मछली की तरह छटपटा रहे हैं.इस सवाल पर तमाम लोग कन्नी काटते नजर आते हैं कि हिंदू धर्म की कमजोरियां क्या हैं जिन के चलते थोड़े से पैसों या सहूलियतों के लालच में लोग इसे छोड़ देते हैं. दरअसल, ये कमजोरियां कभी किसी सुबूत की मुहताज नहीं रहीं, उलटे रोजाना  उजागर होती हैं. झांसी में एक दलित अमरसिंह की नाक महज इसलिए काट दी गई कि बरात में उस ने ऊंची जाति वालों के बराबर में बैठ कर खाना खाने का गुनाह कर डाला था जो दबंगों को नागवार गुजरा था. छुआछूत, जातिपांति, भेदभाव और अत्याचार इतने आम हैं कि देशभर के अखबारों में रोज कोई दर्जन भर खबरें छपती हैं.

दलित दूल्हे को घोड़ी पर चढ़ कर बरात निकालने का हक नहीं. दलित औरतों की आबरू लूटना ऊंची जाति वाले अपना पैदाइशी हक समझते हैं. दलितों को मंदिरों में दाखिल नहीं होने दिया जाता. उन्हें गांव के कुओं से पीने का पानी तक भरने नहीं दिया जाता. ऐसे में वे लोग क्यों उस धर्म में बने रह कर अत्याचार और शोषण सहेंगे. इन बातों पर सब के होंठ सिले रहते हैं लेकिन रावलपिंडी जा कर भगवा फहराने की बात की जा रही है, 15 करोड़ लोगों को वापस हिंदू धर्म में लाने की मुहिम छेड़ी जा रही है. मोहन भागवत की मानें तो इस बाबत स्वयं सेवकों और सहयोगी हिंदूवादी संगठनों की जिम्मेदारी और बढ़ गई है. यानी छुआछूत और जातिगत भेदभाव से इन्हें कोई मतलब नहीं क्योंकि उन के मुताबिक ये हिंदू धर्म की कमजोरियां नहीं, खूबियां हैं जिन से फायदा पंडेपुजारियों का होता है.

छुआछूत से जुड़ेबुंदेलखंड इलाके के दमोह जिले के एक मामले पर आप भी गौर करें. जिले के जवेरा ब्लौक के गांव गुजराकलां में 2 साल की एक मासूम दलित ने खेलतेखेलते नल पर रखे ऊंची जाति वालों के बरतन छू लिए तो ऊंची जाति वालों ने बेटी के पिता भागचंद प्रजापति से बरतनों के पैसे मांगने शुरू कर दिए. उन का कहना था कि तुम्हारी बेटी के छूने से हमारे बरतन दूषित हो गए हैं, इन्हें तुम ही रखो और हमें बरतनों की कीमत दे दो.

जड़ में पैसा

मतलब, पैसे लेने से परहेज नहीं है. यही वह वजह है जो बताती है कि बवंडर चाहे बरतन छूने का हो या फिर भगवा फहराने का, उन की जड़ में पैसा होता है. अधिकतर दलित गरीब हैं, इसलिए उन्हें हिंदू नहीं माना जाता लेकिन एक बड़ा बदलाव 30 साल में यह आया है कि पिछड़ों की गिनती हिंदुओं में इज्जत से की जाने लगी है. पंडे इन के घर जा कर पूजापाठ करवाने लगे हैं. वे यज्ञ, हवन सहित सत्यनारायण की कथा वांचते हैं, शादियां करवाते हैं और एवज में खूब मालपुआ उड़ाते हैं व जेबों में दक्षिणा के नोट ठूंस कर लाते हैं. इन पिछड़ों की हालत भी 30-40 साल पहले तक आज के दलितों सरीखी ही थी लेकिन पढ़लिख कर इन्होंने पैसा कमाया, सरकारी नौकरियां हासिल कीं व खेती और कारोबार से भी खासा पैसा कमाया तो ये कब इतने बड़े हिंदू हो गए कि इन के इशारे पर पंडेपुजारी नाचने लगे, यह पता ही नहीं चला.

देश की तसवीर और माहौल 20 सालों में तेजी से बदले हैं. अब ऊंची जाति वाले अधिकांश लोग धार्मिक पाखंडों और मकड़जाल से छुटकारा चाहने लगे हैं लेकिन वे मुसलमान या ईसाई नहीं बनते. चुपचाप हिंदू धर्म का हिस्सा बने हैं. इन्होंने धर्म के नाम पर खूब पैसा लुटाया और जब सदियों बाद होश आया तो संभल गए और अपनी बेवकूफियों व ठगाए जाने पर हाथ मल रहे हैं. पिछड़े और दलित अभी भी नहीं संभल रहे हैं. पिछड़ों को बताया जा रहा है कि तुम हिंदू हो, खूब धरमकरम करो, उपवास रखो, तीर्थ करो, जनेऊ लटकाओ. लेकिन दलितों को दुत्कारा जा रहा है क्योंकि उन की गांठ में चढ़ाने के लिए पैसा नहीं है. जस दिन ये भी पैसे वाले हो जाएंगे, उस दिन इन्हें भी हिंदू करार दे दिया जाएगा.

जो दलित घबरा जाते हैं वे दूसरे धर्म में चले जाते हैं. आदिवासी बड़े पैमाने पर ईसाई बन रहे हैं. उन्हें ईसाई मिशनरियां चर्च में ले ज कर प्रार्थना करना सिखाते हैं व गले में क्रास लटका देते हैं कि अब तुम्हारे प्रभु यीशु हैं जो सारे कष्ट, दुख, दर्द हरेंगे, इसलिए चिंता मत करो. हालांकि दलितों का पहला पसंदीदा धर्म बौद्ध है जिस से हिंदूवादी ज्यादा खतरा नहीं महसूस करते क्योंकि बौद्ध धर्म में जाने के बाद भी दलित हिंदू धर्म के पाखंड और कर्मकांड नहीं छोड़ते. लगभग 10 फीसदी दलित मुसलमान बनते हैं जिस से हिंदूवादियों की त्योरियां चढ़ जाती हैं और झगड़ेफसाद शुरू हो जाते हैं. मकसद, समाज में दहशत फैलाना रहता है.

दहशत भी चढ़ावे के लिए

दरअसल, यह सारा खेल जो शुरू से ही साजिश है, महज चढ़ावे के लिए है. इसीलिए दलितों को समझाइश दी जाती है कि इस जन्म और जाति में रहते पंडेपुजारियों को अपनी हैसियत के मुताबिक दान देते रहो, भगवान तुम्हें अगले जन्म में जरूर ऊंची जाति में पैदा करेगा. अधिकतर दलित इसी लालच के चलते हिंदू दलित बने रहते हैं कि चलो, यह तो दुत्कार खाने में कट गया, अब अगला जन्म तो दक्षिणा के दम से सुधर जाएगा. यह सिलसिला 2000 सालों से चल रहा है. पहले सवर्ण बड़े ग्राहक थे, अब पिछड़े हैं, कुछ सालों बाद दलित होंगे जो हकीकत समझने के बाद भी खिसियाहट में कुछ न कुछ चढ़ाते रहेंगे यानी पंडेपुजारियों के हाथों में हर तरफ से लड्डू हैं. हर हाल में उन की थाली में हलवापूरी रहनी है. शर्त इतनी भर है कि पूजापाठ होते रहने चाहिए और दानदक्षिणा का माहौल बना रहना चाहिए.

असल मुद्दों और इस हकीकत से ध्यान बंटाए रखने के लिए घरवापसी का हल्ला मचाया जाता है. इस से भी बात बनती न दिखे तो मंदिर निर्माण का जिन्न निकाल कर हिंदूवादी कार्यकर्ता गांवगांव में अखंड रामायण का पाठ करने/करवाने लगते हैं. ऐसा भी नहीं है कि दूसरे धर्म में जाने के बाद दलित हिंदुओं की बदहाली दूर हो जाती है. उलटे होता यह है कि ये दूसरे धर्म की गुलामी करने लगते हैं. ईसाई बने आदिवासियों का आज तक कोई भला नहीं हुआ है. वे पंडे की जगह फादर और शंकर, हनुमान, राम के बजाय ईसा को पूजने लगे हैं. वे हाड़तोड़ मेहनत कर पैसा कमाते हैं और चर्च की पेटी में डाल आते हैं. वहां छुआछूत या भेदभाव इसलिए नहीं है कि कभी कोई ऊंची जाति वाला मुसलमान, ईसाई या बौद्ध नहीं बनता. इस धर्म में सभी उन्हीं की बराबरी की हैसियत के लोग हैं. अलावा इस के, ईसाई लोग अपने धर्म में आए लोगों की मदद भी करते हैं और सेहत व तालीम का भी इंतजाम करते हैं. इस से जागरूकता आती है तो हिंदू ठेकेदार तिलमिलाते हैं. इसी तिलमिलाहट में आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत ने बीती 23 फरवरी को जयपुर में मशहूर समाजसेवी मदर टेरेसा पर निशाना साधते हुए कह ही डाला कि वे सेवा की आड़ में धर्म बदलवाती थीं. इस बयान पर कुदरती तौर पर खासा बवाल मचा लेकिन साबित यह भी हुआ कि हिंदू धर्म में सेवा और मदद करने की बातों पर कोई अमल नहीं करता. जो दलित बौद्ध बन गए उन्होंने इतना भर किया कि बुद्ध की मूर्ति की पूजा शुरू कर दी. पूजापाठ की आदत से बौद्ध धर्म के ठेकेदारों को भी एतराज नहीं क्योंकि उन्हें भी तादाद के साथसाथ तगड़ा पैसा चाहिए. दलित मेहनतमजदूरी कर पैसा कमाते हैं और बौद्ध मंदिरों में दान कर देते हैं. मुसलमान बने और बन रहे दलितों को तो शुरू में यह भी नहीं करना पड़ता.

प्रवीण तोगडि़या जैसे हिंदूवादी नेताओं की नजर में जो आज सलमान, शाहरुख खान हैं उन के पूर्वज हिंदू थे. तकलीफ इस बात की है कि ये खान पैसा इसलाम को देते हैं, हिंदू होते तो अमिताभ बच्चन की तरह करोड़ों का चढ़ावा पंडों को देते.

क्या करे आम आदमी

धर्म और उस की दुकानदारी बेधड़क चल रही है और खूब फलफूल रही है. अंदरूनी तौर पर धर्म के ठेकेदारों को कोई शिकायत या गिला एकदूसरे से नहीं, बल्कि सहूलियत है कि ग्राहक किसी भी धर्म में रहे, पैसा तो देगा ही. फिर झगड़ा क्या है और मुद्दा क्या है, इस सवाल का जवाब भी बेहद साफ है कि कुछ नहीं, सारे झगड़ेफसाद और विवाद चढ़ावे के हैं, मुफ्त में मालपुए खाने के लिए हैं. दिखावे की लड़ाई इसलिए लड़ी जाती है कि लोग धर्म के अलावा कुछ और सोचने व करने न लगें. अब यह आम लोगों के समझने की बात है कि धर्म के कारोबारियों की नजर उन के धर्म या जाति के नाम पर उन की जेब पर रहती है, जिसे धर्म की कैंची से काटा जाता है. धर्म की लत इस तरह डाली जाती है कि लोग यह नहीं सोच पाते कि हम किसी विशेष धर्म में क्यों रहे. धर्म अगर बदला जा सकता है तो छोड़ा भी जा सकता है यह बात खुद पीएम नरेंद्र मोदी 17 फरवरी को इशारे में कह चुके हैं.

देश ही नहीं, पूरी दुनिया इन धर्म के दुकानदारों की गुलामी झेल रही है. सब से ताकतवर देश अमेरिका भी इस से अछूता नहीं, जहां मंदिरों पर हमले होते हैं. लोग तालीम हासिल करें, मेहनत से पैसा कमाएं तो ही इज्जत की जिंदगी जी पाएंगे, शर्त यह है कि वे धर्मों से दूर हों यानी नास्तिक बन जाएं. फिर कोई उन के बारे में यह नहीं कह सकता कि इन की घरवापसी करना है. धर्म, दरअसल, कुछ नहीं पीढि़यों से चली आ रही दिमागी गुलामी है जिस के आका वे पंडेपुजारी हैं जो मेहनत की नहीं, बल्कि दक्षिणा की खाते हैं और न मिले तो दादागीरी भी करते हैं व लोगों को आपस में लड़ाते भी हैं. सारे धर्म, धर्मगुरु और धर्म के कारोबारियों का इकलौता मकसद यही है कि लोग धर्म को मानते रहें, फिर चाहे वे हिंदू हों, मुसलमान हों, ईसाई हों या बौद्ध, चढ़ावा किसी को तो मिलेगा ही. कहीं से कोई भीतरी या बाहरी खतरा किसी धर्म को नहीं है, यह खतरा तो बनाया जाता है, उस का डर दिखाया जाता है और फिर उसे दूर करने  या उस से बचाने के लिए पैसे ऐंठे जाते हैं. घरवापसी मुहिम का मकसद भी यही है. 

अच्छे दिनों की आस में निराशा का बजट 2015-16

केंद्र सरकार का 2015-16 का बजट विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने वाला और आर्थिक विकास के ज्यादा अनुकूल नजर आता है जिस से भविष्य में निवेश बढ़ेगा और रोजगार के अवसर पैदा होंगे. वित्त मंत्री अरुण जेटली ने फुरसत के साथ और चुनावी राजनीति के दबाव के बिना देश के आर्थिक आधार को मजबूत बनाने वाला बजट तैयार किया है. इस का लाभ लंबी अवधि में देखने को मिलेगा लेकिन फिलहाल यह जनसामान्य की भावनाओं के विपरीत है. जनसाधारण को तात्कालिक लाभ ज्यादा लुभाते हैं और इस का बजट में जरा भी ध्यान नहीं रखा गया है. यों कह सकते हैं कि यह बजट आम आदमी के लिए निराशा ले कर आया है. सामान्य व्यक्ति बजट से एक ही उम्मीद करता है कि सरकार का बजट लंबी अवधि के लिए अच्छे दिनों की भूमिका जरूर तैयार करे लेकिन इस कवायद में तात्कालिक रूप से उस के घर का बजट नहीं चरमराए. बजट में यह उस की उम्मीद की धुरी होता है.

जेटली का बजट आम जन की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है. बजट सर्वाधिक सेवाकर के रूप में आम आदमी की जेब हलकी करने वाला है. जनसामान्य के लिए इस में खुश करने वाली स्थिति बिलकुल नहीं है. वजह, सिर्फ उस के उपयोग की सामान्य वस्तुओं की कीमत बढ़ा कर उस पर बोझ डाला गया है. बजट में सेवाकर 12.36 फीसदी से बढ़ा कर 14 फीसदी किया गया है. सेवाकर के नाम से हाशिए पर खड़े आदमी की जेब से पैसा निकाल कर विकास की बुनियाद में लगाना है.

मतलब कि यदि आम आदमी टीवी देखता है, रेल का सफर करता है, बस से यात्रा करता है, अपनों को फोन करता है और कभीकभार मध्यवर्ग का आदमी छोटेमोटे रेस्तरां में जा कर खाना खाता है तो उस को इस की कीमत के साथ ही, इस सेवा का इस्तेमाल करने का जुर्म पहले की तुलना में ज्यादा झेलना पड़ेगा. यह अनावश्यक बोझ है. इस से आम आदमी की झुंझलाहट बढ़ी है, साथ ही छोटेमोटे व्यापारियों के लिए काम करने का भी संकट बढ़ गया है. उन का कारोबार चौपट होने की कगार पर पहुंच गया है. आखिर विकास की राह को आम आदमी की जेब पर डाका डाल कर आसान बनाने की कोशिश कैसे न्यायसंगत हो सकती है. इस व्यवस्था से गरीब पर बोझ बढ़ा है. इस से यही लगता है कि मोदी सरकार ने गरीब को दिखाए गए अच्छे दिनों के सपने को चकनाचूर कर दिया है. सपना टूटने की वजह जनसामान्य की सीमित महत्त्वाकांक्षा है. उसे लंबी अवधि में सुख तो चाहिए लेकिन पहले उस के समक्ष उस सुख को पाने के लिए जिंदा रहने का संकट है. जिंदा रहने के लिए उसे दो वक्त का भरपेट भोजन चाहिए और जब बजट उस के पेट से जुड़ी वस्तुओं की कीमत उस के दायरे से बाहर ले जाता हो तो खुशहाल आर्थिक आधार वाले बजट का उस के लिए कोई मतलब नहीं रह जाता है.

सामाजिक सरोकार

जेटली ने नया आर्थिक अध्याय लिखने का प्रयास किया है. आर्थिक प्रगति में साथ देने वाले संस्थानों को मजबूती प्रदान करने के लिए आर्थिक आधार पर खुशहाल भारत के निर्माण की पटकथा लिखी है. तत्कालीन वित्त मंत्री डा. मनमोहन सिंह के 1992 के बजट में आर्थिक सुधारों के लिए उठाए गए कदमों की याद दिलाई है, जब पहली बार सार्वजनिक क्षेत्रों की 20 फीसदी हिस्सेदारी बेचने की घोषणा की गई, बाजार नियामक संस्था सेबी कागठन किया गया और इस के 2 साल बाद पहली बार सेवाकर की व्यवस्था शुरू की गई. उसी तरह, यह बजट अच्छे दिनों की शुरुआत के लिए आर्थिक सुधारों की रफ्तार बढ़ाने की अच्छी पहल है लेकिन इस दौड़ में सामाजिक सरोकारों की फिक्र बिलकुल नहीं की गई है. वित्त मंत्री ने बेफिक्र हो कर आर्थिक मजबूती की दूरगामी दृष्टि रखी है.

ऐसा लगता है कि बजट सिर्फ भविष्य को ध्यान में रख कर बनाया गया है. वर्तमान सरोकारों की उपेक्षा की गई है. वित्त मंत्री के समक्ष बजट बनाते समय किसी के नाराज होने या निराश होने का कोई डर न था. लक्ष्य था, सिर्फ आर्थिक हालात को पटरी पर लाना और आर्थिक विकास की दर साढ़े 8 प्रतिशत पहुंचाना.

कहां हुई चूक

इस समय देश की जनता को तेज रफ्तार आर्थिक सुधारों से ज्यादा महंगाई की मार से राहत पाने की जरूरत है लेकिन सरकार है कि दिन में आर्थिक सुधारों की बुनियाद वाला बजट पेश करती है और शाम को डीजल व पैट्रोल के दाम बढ़ा देती है. यह बजटीय संतुलन आम आदमी को कैसे पसंद आएगा.बजट में आजादी की 75वीं वर्षगांठ यानी 2022 को लक्ष्य कर के नीतियां निर्धारित की गई हैं. बिजली उत्पादन, गंगा सफाई अभियान, गरीबों के लिए आवास जैसी कई योजनाओं का लक्ष्य 2022 तक रखा गया है.  शहरों में हर व्यक्ति को आवास सुविधा देने का लक्ष्य तय किया गया है लेकिन इस उपलब्धि को हासिल करने के वास्ते रियल एस्टेट के लिए कुछ खास कदम नहीं उठाए गए हैं. रियल एस्टेट देश में रेलवे के बाद सर्वाधिक नौकरियां उपलब्ध कराने वाला क्षेत्र है. इस क्षेत्र में ढांचागत सुधार की बात तो की गई है लेकिन ठोस आर्थिक पंच दिए बिना यह क्षेत्र तरक्की नहीं कर सकता है.

इसी तरह से बिजली क्षेत्र में सुधार के लिए 5 नई अल्ट्रा मेगा पावर परियोजनाओं की घोषणा हुई जिन से 20 हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन किया जाएगा. इस परियोजना पर 1 लाख करोड़ रुपए तक खर्च होने का अनुमान है. यह सब पैसा निजी क्षेत्र से आएगा, इसलिए पारदर्शी नीलामी प्रक्रिया के तहत इन परियोजनाओं को निजी संगठनों को सौंपा जाएगा. इस में ‘प्लग ऐंड प्ले’ मतलब कि योजना से जुड़े विवाद पहले ही सुलझा लिए जाएंगे और आवंटित होते ही उन पर सीधा निर्माण कार्य शुरू किया जाएगा. सरकार इसी तरह का सिद्धांत सड़क, रेल, हवाई अड्डों आदि के निर्माण के लिए भी अपना रही है. इस से परियोजना पर आवंटन के तत्काल बाद काम शुरू हो जाएगा और बेवजह की देरी से लागत में आने वाली बेवजह की तेजी से बचा जा सकेगा. तात्पर्य यह है कि सरकार विकास परियोजनाओं का ठेका देने से पहले परियोजना से जुड़ी सभी मंजूरियों व अन्य जरूरी सुविधाओं का इंतजाम कर लेगी.

राह में अड़चनें

बजट में कई संस्थानों को बंद करने के कदम उठाए गए हैं. एफएमसी यानी वायदा बाजार आयोग का विलय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) के साथ कर दिया गया है. एफएमसी का गठन जींस बाजार के कारोबार पर निगरानी रखने के लिए 1953 में किया गया था लेकिन जींस बाजार में सट्टेबाजी पर अंकुश लगाना कठिन हो गया था, इसलिए शेयर बाजार की गतिविधियों पर एफएमसी का विलय किया गया है. इसी तरह से बैंकों को और अधिक स्वायत्तता देने का प्रावधान किया गया है. वित्त मंत्री का कहना है कि उन का लक्ष्य वित्तीय घाटे को कम करना है और अगले 4 वर्ष में वे वित्तीय घाटा 4.3 प्रतिशत से घटा कर 3 प्रतिशत से कम पर ला देंगे. इसी तरह उन का दावा देश की विकास दर को अगले वित्त वर्ष में 8.5 फीसदी तक पहुंचाने का है. इस के लिए वे बुनियादी ढांचागत विकास को बढ़ावा देने पर जोर दे रहे हैं.

अमीरों का बजट

वित्त मंत्री का कहना है कि एक ही जगह सारी सुविधाएं दे कर व्यवसायी को कारोबार शुरू करने की सुविधा प्रदान की जा रही है और उस के लिए एक वैब पौर्टल तैयार किया गया है जिस के जरिए कोई भी कारोबारी कारोबार शुरू करने से संबंधित 14 मंजूरियां एक ही जगह हासिल कर सकता है. वित्त मंत्री को कौर्पोरेट कर की दर घटाने की घोषणा के कारण सब से अधिक आलोचना का शिकार होना पड़ रहा है. इस की वजह से कोई उसे अव्यावहारिक बजट बता रहा है तो किसी का कहना है कि बजट में कौर्पोरेटरों व धन्ना सेठों को खुश करने का प्रयास किया गया है. सरकार का कहना है कि विकास की अपेक्षित रफ्तार बनाने और धन्ना सेठों को निवेश के लिए आकर्षित करने की वजह से यह व्यवस्था की गई है. कौर्पोरेट कर को 4 साल में 30 फीसदी से घटा कर 25 फीसदी पर लाया जाएगा. चालू वित्त वर्ष में कौर्पोरेट कर से सरकार को 4 लाख 26 हजार करोड़ रुपए मिले हैं और अगले वर्ष तक उस के 4 लाख 70 हजार करोड़ रुपए होने का अनुमान है.

अमीरों का संपत्ति कर भी खत्म कर दिया गया है और 1 करोड़ रुपए से अधि की आय पर 2 प्रतिशत अतिरिक्त कर लगाने की व्यवस्था की गई है. उस कर से सरकार को 1 हजार करोड़ रुपए की आय होती है और इस की वसूली में नाकों चने चबाने पड़ते हैं. वहीं, 2 प्रतिशत अतिरिक्त कर से सरकार को 9 हजार करोड़ रुपए की आय का अनुमान लगाया गया है. इसी तरह से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में न्यूनतम कर की वैकल्पिक व्यवस्था खत्म कर दी गई है. इस व्यवस्था के तहत शून्य कर देने वाली कंपनियों को अच्छा मुनाफा हो रहा था लेकिन सरकार को उस से कुछ नहीं मिल रहा था. अब इन विदेशी कंपनियों को पारदर्शी तरीके से अंशधारकों को मिलने वाले लाभांश पर कर का आकलन कर के टैक्स देना पडे़गा.

किसानों की अनदेखी

किसानों के लिए उपज लागत का उचित मूल्य दिलाने के लिए राष्ट्रीय कृषि बाजार विकसित करने के साथ ही परंपरागत जैविक खेती और मृदा उपज बढ़ाने के लिए कदम उठाए गए हैं. हालांकि इस क्षेत्र का आवंटन पिछले साल के मुकाबले सिर्फ 50 हजार करोड़ रुपए ही बढ़ाया गया है लेकिन सपने बखूबी दिखाए गए हैं. कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि उस का फायदा बीज, कीटनाशक दवा तथा कृषि से जुड़े उपकरण बनाने वाली कंपनियों  को ज्यादा होगा. किसानों के लिए यदि आर्थिक पैकेज की व्यवस्था की गई होती तो उस का सीधा लाभ उन्हें जरूर मिलता. हां, हर खेत को पानी पहुंचाने की जोरदार व्यवस्था जरूर की गई है. बजट में अल्पसंख्यकों की छवि सुधारने का प्रयास जरूर किया गया है और इस वर्ग के लिए भाजपा सरकार ने अल्पसंख्यक समुदाय के युवाओं को हुनर देने के लिए ‘नई मंजिल’ नाम से एक नई व एकीकृत योजना शुरू करने की घोषणा की है.

क्या है भविष्य

विशेषज्ञ बजट को विकास के साथ सधी हुई सियासत का खेल बता रहे हैं लेकिन सब का एक ही मत है कि बजट के जरिए देश के आर्थिक ढांचे को मजबूत बनाने की पहल हुई है. डा. मनमोहन सिंह ने भी उसे उम्मीद के इर्दगिर्द बताया है लेकिन आर्थिक विश्लेषक यह कहने से नहीं चूक रहे हैं कि इस तरह का बजट सरकार आने वाले वर्षों में नहीं दे पाएगी. सत्ता हासिल करने के पहले संपूर्ण बजट में उस ने आलोचनाओं की परवा किए बिना हिम्मत के साथ आर्थिक सुधारों का बजट पेश कर दिया है लेकिन आने वाले समय में उस पर चुनावी दबाव रहेंगे.वित्त मंत्री ने आयकर से छेड़छाड़ नहीं की है और लोगों का धैर्य बांधे रखा है लेकिन इस के पीछे भी उन्होंने ठोस सोच का सहारा लिया है और जब उन्हें विश्वास हो गया कि ढांचागत सुधार के प्रयास से 2015-16 में आयकर राजस्व 15 फीसदी  बढ़ रहा है तब ही उन्होंने आयकर को यथावत बनाए रखा है. इस का मतलब इस के अलावा निवेशक भी बजट से उत्साहित हैं.

भूमि अधिग्रहण अध्यादेश सबै भूमि कौर्पोरेट गोपाल की

भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को ले कर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली राजग सरकार की संसद के अंदर और बाहर जबरदस्त घेराबंदी हो रही है. मौजूदा सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून को पलट दिया जिसे दिसंबर 2013 में संसद में पारित कराया गया था. इसे ले कर विपक्षी दल संसद में सरकार पर हमला कर रहे हैं तो सड़कों पर किसानों, आदिवासियों, मजदूरों का गुस्सा उबल रहा है. देशभर के करीब एक दर्जन किसानों और दूसरे जन संगठनों ने दिल्ली के जंतरमंतर पर विरोध जता कर सरकार के सामने चुनौती खड़ी कर दी है.

आक्रोश में किसान

इस अध्यादेश के विरोध में 20 फरवरी को हरियाणा के पलवल से शुरू हुई जन संगठनों की यात्रा जंतरमंतर पर पहुंची, 2 दिन का धरना दे कर अध्यादेश को किसान विरोधी करार दिया गया और इसे वापस लेने की मांग की गई. अन्ना हजारे की अगुआई वाले इस आंदोलन से एनडीए सरकार खासी बेचैन है. इस के बावजूद वह भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को संसद में पास कराने की कोशिश में है. जंतरमंतर पर उमड़ी हजारों की भीड़ के गुस्से से साफ लग रहा था कि ‘सब का साथ, सब का विकास’ जैसे नारे के साथ जो भाजपा सत्ता में आई थी, 9 महीने होतेहोते उस के खिलाफ लोगों का गुस्सा दिखने लगा है.

सामाजिक संगठनों का बड़ा विरोध उस प्रावधान को पलटने को ले कर है जिस में कहा गया था कि आवश्यक सार्वजनिक कार्य को छोड़ कर किसी भी जगह की जमीन का अधिग्रहण करना पड़ा तो वहां की 80 प्रतिशत भूमि मालिकों  की सहमति से लेनी होगी और सार्वजनिक सहयोग वाली परियोजनाओं में 70 फीसदी भूमि के लिए ही मालिकों की सहमति जरूरी होगी.

कंपनियों की मनमानी

इस प्रावधान को हटाने पर सवाल उठाए जा रहे हैं. कहा गया है कि इस के होने से किसानों की जमीन सुरक्षित रहती और जमीन लेने के मामलों में कंपनियों की मनमानी नहीं चलती. जंतरमंतर पर आए हरियाणा के रेवाड़ी जिले के किसान नेता अतर सिंह सांगवान कहते हैं कि यहां किसानों से सरकार ने अधिकृत कर के 22 लाख रुपए प्रति एकड़ जमीन कंपनियों को दी. अब वे पट्टे पर उसी को डेढ़ करोड़ रुपए में दे रही है. इसलिए यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि इस प्रावधान के हटने से यह काम बेलगाम हो कर किया जाने लगेगा. इस के अलावा 2013 के कानून में जनहित, सामाजिक व आर्थिक असर को समझने की बात थी जिसे संशोधन के जरिए बेहद कमजोर कर दिया गया. कानून में यह भी प्रावधान था कि अगर अधिग्रहीत भूमि का इस्तेमाल 5 साल की समयसीमा में नहीं होता है तो 5 साल बाद इसे वापस करना होगा लेकिन इस अध्यादेश में 5 साल की मयसीमा को हटा दिया गया है. यही नहीं, जमीन से जुड़े लाभार्थियों की संख्या भी सीमित कर दी गई है.

असमंजस और विरोध

बढ़ते विरोध को देखते हुए सरकार शुरू में असमंजस में दिखी. फिर कहा गया कि किसानों का हित सर्वोपरि रखा जाएगा. लेकिन अब सरकार ने लोकसभा सत्र में बजट के साथसाथ संशोधन का विधेयक पेश कर यह साफ कर दिया कि वह इस मुद्दे पर कदम पीछे नहीं खींचेगी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पार्टी के सांसदों को इस विधेयक के पक्ष में मजबूती से खड़ा होने को कहा है. जबकि सरकार के सहयोगी दल शिवसेना, अकाली दल अध्यादेश के पक्ष में नहीं हैं. शिवसेना तो खुल कर विरोध कर रही है. सरकार द्वारा कौर्पाेरेट को किसानों की जमीन देने के लिए अध्यादेश का सहारा लिया गया. इस के लिए राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अध्यादेशों के जरिए कानून बनाने की प्रवृत्ति पर सरकार को चेताया भी था पर सरकार का कहना है कि वह आर्थिक सुधारों को जारी रखना चाहती है.

दरअसल, दिसंबर 2013 में संप्रग सरकार ने ब्रिटिश काल के 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून को बदल कर ‘भूमि अर्जन, पुनर्वासन और पुनर्व्यवस्थापन विधेयक-2011’ संसद में पारित कराया था. हालांकि कांग्रेस नेतृत्व वाली संप्रग सरकार भी किसानों, मजदूरों, आदिवासियों के हितों को ताक पर रख कर कानून बनाना चाहती थी पर कानून के प्रारूप को ले कर जन संगठनों ने आंदोलन चलाया. किसान संगठनों से ले कर गैर सरकारी संगठनों ने धरने, प्रदर्शन किए और सत्याग्रह यात्रा निकाली.

यह उस समय हुआ जब भ्रष्टाचार के खिलाफ संप्रग सरकार जनाक्रोश का सामना कर रही थी और लोकसभा चुनाव सामने थे. एकता परिषद के नेतृत्व में हजारों किसानों, आदिवासियों की जनयात्रा जब दिल्ली कूच के लिए ग्वालियर से आगे पहुंची तो तब के केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश इस जनयात्रा में जा पहुंचे और आंदोलनकारियों को उन की मांगें कानून में समाहित करने का आश्वासन दिया. स्वयं जयराम रमेश और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने किसानों, आदिवासियों, मछुआरों के लिए समुचित मुआवजे के साथसाथ रोजगार की व्यवस्था का प्रावधान भी जोड़ा. इस के साथ ही कानून में भूमिहीनों के लिए जमीन देना भी आवश्यक किया गया. इस में न केवल जनहित विकास परियोजनाओं, उद्योग जगत और शहरियों, ग्रामीणों, किसानों, आदिवासियों, मजदूरों, भूमिहीनों का पूरा खयाल रखा गया था बल्कि बिल में भूमालिकों की जमीन को संरक्षित रखने और पर्याप्त मुआवजे व रोजगार के प्रावधान भी किए गए थे.

जल्दबाजी क्यों

कांग्रेस सरकार के कानून में भूमिहीन परिवारों के लिए जमीन मुहैया कराना और अधिग्रहण की चपेट में आए किसानों, मकानमालिकों को पर्याप्त मुआवजा, आजीविका व पुनर्वास को सुनिश्चित करना शामिल था. यह कानून हर तबके के लिए अच्छा माना गया. यह बात अलग है कि इस से कांग्रेस को बिलकुल भी चुनावी फायदा नहीं हुआ. नरेंद्र मोदी सरकार को ऐसी क्या जल्दी थी कि एक साल पुराने विधेयक को सदन में चर्चा कराए बगैर आननफानन में अध्यादेश के जरिए वैधानिक रूप दे दिया गया? इस पर भाजपा सरकार का तर्क है कि जब स्मार्ट शहर बनाए जाएंगे तो ऐसे संशोधनों की आवश्यकता है. हालांकि अध्यादेश में भी पुनर्वास के लिए मुआवजा देने का प्रावधान रखा गया है पर सच यह है कि बढ़ा हुआ मुआवजा वैकल्पिक आजीविका नहीं दे सकता. हाल के दिनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी महाराष्ट्र दौरे के दौरान रांकापा नेता शरद पवार से मिले और बाद में पवार दिल्ली आ कर मोदी से मिले. दोनों नेताओं ने एकदूसरे की खूब प्रशंसा की. अनुमान लगाया जा रहा है कि शरद पवार से मोदी कौर्पोरेट को साधने के लिए कोई मंत्र लेना चाह रहे हैं. शरद पवार 2003 से कानून के विरोधी रहे थे.

कांग्रेस सरकार द्वारा भूमि अर्जन बिल पेश करने से पहले केंद्रीय कृषि मंत्री के तौर पर शरद पवार भी कौर्पाेरेटों की पैरवी वाली भाषा बोल रहे थे. उन्होंने कहा था कि भूमि अर्जन बिल से बांध और अन्य परियोजनाओं के लिए बगैर रजामंदी वाले किसानों से भूमि अधिग्रहण करना मुश्किल हो जाएगा. साफ था कि वे किसानों से जबरन भूमि हड़पने के पक्ष में थे. लिहाजा, अब मोदी सरकार ने भूमि  अधिग्रहण अध्यादेश में 70 प्रतिशत भूमि के लिए मालिकों की रजामंदी का प्रावधान हटा दिया.

कौर्पोरेटों की तरफदारी

भाजपा कांग्रेस द्वारा लाए गए कानून से भी खुश नहीं थी और वह कौर्पोरेट की तरफदारी कर रही थी. कांग्रेस सरकार के कानून के प्रावधानों को ले कर कई औद्योगिक घरानों ने आशंका व्यक्त की थी कि इन के कारण भूमि की कीमत बढ़ जाएगी और कीमतें बढ़ने से उद्योगों की ढांचागत लागत 3 से 5 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी. भवन निर्माण परियोजनाओं में लागत वृद्धि 25 प्रतिशत तक होगी. देश के औद्योगिक और व्यापारिक संगठन आलोचना कर रहे हैं कि इस कारण उत्पादन व निर्माण उद्योग चरमरा जाएंगे. सामाजिक आकलन के प्रावधान के कारण परियोजनाएं समय पर शुरू नहीं हो पाएंगी. पब्लिकप्राइवेट पार्टनरशिप परियोजनाएं प्रभावित होंगी. खनन उद्योग बाधित होगा. औद्योगिक क्षेत्र की इन्हीं आशंकाओं के चलते मोदी सरकार ने कई संशोधन किए हैं. असल में नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा यह अध्यादेश इसलिए लाया गया है ताकि वह औद्योगिक क्षेत्रों, स्मार्ट सिटी, स्पैशल इकोनौमिक जोन, निजी फाइवस्टार अस्पताल, शिक्षण संस्थान, सड़कें, रेलवे, उद्योग स्थापित करने के नाम पर उद्योगपतियों, कौर्पोरेट कंपनियों, रियल एस्टेट कारोबारियों, बिल्डरों को फायदा पहुंचा सके. मुनाफा कमाने के लिए जमीनें किसानों से छीन कर उन्हें दी जा सकें. भाजपा सरकार के अध्यादेश में कौर्पोरेट क्षेत्र की अधिक तरफदारी है. इस में गांवों के भूस्वामियो की जमीनें जबरन छीन लेने के प्रावधान हैं. यह न भूलें कि गांवों के किसान आमतौर पर पिछड़े व दलित वर्गों के ही हैं.

कहा जा रहा है कि अकेले दिल्लीमुंबई कौरिडोर के लिए ही 3,99,000 वर्ग हैक्टेयर क्षेत्रफल की कृषि योग्य जमीन किसानों के हाथों से निकल कर कंपनियों के हाथों में चली जाएगी. मुंबई, चेन्नई, हैदराबाद, अहमदाबाद, रायपुर, रांची बेंगलुरु जैसे शहरों के विस्तार का काम अंबानी, अडाणी, टाटा, मित्तल जैसे चंद लोगों के हाथों में चला जाएगा. आने वाले 10 सालों में किसानों, झुग्गीझोंपड़ी वालों की जमीनें छिन जाएंगी. बड़े शहरों में कच्ची बस्तियों को पक्के मकान देने के नाम पर हटाए जाने की तिकड़में चल रही हैं.

कांग्रेस सरकार जब भूमि अधिग्रहण कानून ले कर आई थी तब कौर्पोरेट जगत इस से नाराज था. फैडरेशन औफ इंडियन चैंबर्स औफ कौमर्स ऐंड इंडस्ट्री (फिक्की) तथा कन्फडरेशन औफ इंडियन इंडस्ट्री (सीआईआई) ने कानून को उद्योगों के लिए सही नहीं बताया, कहा गया था कि बिल के प्रावधान इंडस्ट्री के लिए अच्छे नहीं हैं. फिक्की की अध्यक्ष नैनालाल किदवई ने तब कहा था कि कांग्रेस सरकार का बिल बड़ी उत्पादन परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण की खातिर सही नहीं है. पोस्को, आर्सेलर मित्तल जैसी परियोजनाओं को जमीन मिलने में बाधा का सामना करना पड़ा है.

देश का नया जमींदार

कौर्पोरेट जगत चाहता था कि उसे जमीन बिना किसी बाधा के तुरतफुरत मिले. नैनालाल किदवई ने मुआवजे और पुनर्वास के प्रावधान पर भी एतराज जताया था. लेकिन अब भाजपा के अध्यादेश से कौर्पोरेट जगत तालियां बजा रहा है. शहरी, ग्रामीण भूमालिक, गरीब, आदिवासी, किसान, दलित, पिछड़ों को अपना हितैषी दिखाने के लिए कांग्रेस सरकार ने आम चुनाव से पहले अपने दामन पर लगे महंगाई, भ्रष्टाचार जैसे तमाम दाग धो देने का तब प्रयास किया था. सरकारें अब तक किसानों, आदिवासियों, झुग्गीवासियों से जमीनें ले कर कौर्पोरेट जगत को मुहैया कराने में खूब रुचि दिखाती आई हैं. हां, देश की तरक्की के लिए जमीनों की जरूरत होती है और जमीन अधिग्रहीत की जानी चाहिए लेकिन इस प्रक्रिया में उन लोगों की उपेक्षा की जाती रही जिन की रोजीरोटी जमीन के बल पर ही चल रही थी. हाल के दशकों में हजारों एकड़ संरक्षित और अनुसूचित भूमि कांग्रेस सरकारों द्वारा ही बलपूर्वक खनन व औद्योगिकीकरण के नाम पर हस्तांतरित कर दी गई. बड़े पैमाने पर कृषि और वन भूमि उद्योग, खनन और विकास परियोजनाओं या ढांचागत सुविधा के लिए दे दी गई. झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, गुजरात, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में कौर्पोरेट कंपनियों को किसानों की कृषि भूमि, आदिवासियों के जंगल, शहरी लोगों की शहरों से सटी जमीनें अन्यायपूर्ण कानून के सहारे छीनी गईं. पिछले

2 दशकों में लगभग 8 लाख एकड़ भूमि खनन और 2 लाख 50 हजार एकड़ जमीन स्थानीय लोगों की आजीविका की परवा किए बिना औद्योगिक मकसद से हस्तांतरित कर दी गई. परिणामस्वरूप, कुछ समय पहले पश्चिम बंगाल में टाटा, ओडिशा में पोस्को व आर्सेलर मित्तल, गुजरात में अडाणी व रिलायंस, छत्तीसगढ़  व झारखंड में जिंदल ग्रुप, उत्तर प्रदेश में अंबानी के विरोध में हिंसक घटनाएं हुईं. देश में आज करीब 5 करोड़ लोगों के पास आवास नहीं हैं. सरकारों ने किसानों, आदिवासियों, झुग्गीझोंपड़ी वालों की जमीनें अधिग्रहण कर निजी कंपनियों को बेचीं. ऐसे लोग सरकार की इन नीतियों का खमियाजा भुगत रहे हैं. आजादी के बाद से ही भूमि सुधार की प्रक्रिया चलती रही है. पहले जमींदारी प्रथा का उन्मूलन हुआ और हर पंचवर्षीय योजना में भूमि सुधार के लिए नीतिनियमों को शामिल किया गया. जमीन बंटवारे को ले कर जो गैरबराबरी थी, उसे खत्म करने के प्रयास किए गए. सभी राज्य सरकारों से कहा गया कि कृषि भूमि सीलिंग ऐक्ट और अधिकतम भू अधिग्रहण सीमा को ले कर कानून बनाए जाएं और भूमिहीनों व सीमांत किसानों को सरप्लस जमीन बांटी जाए.

तकरीबन सभी राज्यों में 1961 तक कृषि सीलिंग कानून पारित कर दिए गए थे. जागीरदारी प्रथा उन्मूलन के पूरी तरह नाकाम रहने के परिणामस्वरूप योजना आयोग ने 1955 में सभी राज्यों को अधिग्रहण व भूमिहीनों और अन्य सीमांत किसानों को भूमि आवंटन करने के लिए कृषि भूमि जोत सीलिंग करने की सलाह दी थी लेकिन कानून निर्माण में पूरी तरह छिद्र छोड़ दिए गए जो बड़े भूस्वामियों के पक्ष में ही रहे.

नए कानून में झोल

नरेंद्र मोदी सरकार के नए कानून में घूसखोरी के रास्ते बंद होते दिखाई नहीं देते. पुरानी अंधकार भरी जागीरदारी नए रूप में नजर आ रही है. धन्ना सेठ अब देश का नया जमींदार बन रहा है और सरकार उस से लगान वसूल करने वाली सामंतशाह. कुछ लोगों को सारे संसाधनों का मालिक बनाया जा रहा है, बाकी को फटेहाल छोड़ दिया जा रहा है. इस कानून से असमानता, भेदभाव, अमीरीगरीबी की दीवार और बढ़ेगी. ठीक भी है जमीन के मालिकाना अधिकार को ले कर सदियों से चली आ रही सोच से धर्म के मार्ग पर चलने वाली भाजपा सरकार अलग कैसे चल सकती है. ‘सबै भूमि गोपाल की’ यह वाक्य बहुत प्रसिद्घ है. इस का अर्थ यह नहीं है कि सारी भूमि ईश्वर की है, बल्कि इस का सीधा सा अर्थ है सारी भूमि ईश्वर के एजेंट ब्राह्मणों की है. ब्राह्मण चाहे जहां रह सकता था, चाहे जिस की भूमि कब्जा सकता था, चाहे जिसे बेदखल कर सकता था, किसी को भी श्राप देने का वरदान उसे प्राप्त है. धर्मग्रंथों में लिखी इन बातों का मर्म यही है कि सारी पृथ्वी ब्राह्मण के अधीन है. लेकिन अब सरकार नए ब्राह्मण कौर्पोरेट क्षेत्र को यह हक दे रही है. सबै भूमि कौर्पोरेट गोपाल की

सरित प्रवाह

जेटली का बातों का जाल

अगर बातों से देश का विकास हो सकता है तो 2022 तक देश में रामराज आ जाएगा. अब आचार्य अरुण जेटली ने कह दिया है तो होगा ही. उन्होंने कह डाला है कि 24 घंटे बिजली, साफ पानी, शौचालय, हरेक को घर, हरेक को नौकरी, सड़कें, सारे गांवों में बिजली, स्वास्थ्य–सब मिल जाएगा. ऐसा लग रहा है कि पिछले सभी वित्तमंत्रियों ने इन सब सुविधाओं को नौर्थ ब्लौक में छिपा रखा था, जेटलीजी ने उस के दरवाजे खोल दिए हैं. बातों से चुनाव जीते जाते हैं, देश का विकास नहीं होता. देश का विकास तो जनता करती है अपनी मेहनत से, उत्पादकता से, विकास से. वित्त मंत्री से अपेक्षा होती है कि वे सरकार चलाने के लिए इस तरह कर वसूलें कि जनता का उत्साह बना रहे और वह पैसा देती भी रहे. अब तक सभी वित्त मंत्री लगता है जनता के हाथ में पैसा दान में छोड़ते रहे हैं और अरुण जेटली ने भी वही किया है.

उन्होंने व्यक्तिगत आयकर में मामूली हेरफेर किया है. 2-4 हजार का लाभ कई  अमीरों को दिया है और 10-20 हजार ज्यादा अमीरों से लिया है. यह बेमतलब की कवायद है. इस से ज्यादा उन्होंने सेवा कर बढ़ा कर झटक लिया है. कहने को वित्त मंत्री ने बताया है कि 4,44,200 रुपए की छूट दी है पर यह तब है जब 50 हजार रुपए फंड में जमा किए जाएं, 2 लाख रुपए का ब्याज मकान के कर्जे पर दिया जाए, 25 हजार रुपए का जीवन बीमा हो, 19,200 रुपए यात्राभत्ता मिलता हो. यह गणित किसी को भी समझ में आ जाएगा कि जिस की आय 40 हजार रुपए मासिक के आसपास हो, वह ऐसा मकान ले ही नहीं सकता कि जिस पर ब्याज 2 लाख रुपए देना हो और ऊपर से 25 हजार रुपए का बीमा हो यानी 20 हजार रुपए महीने की देनदारी.

करों के बिना देश नहीं चलता पर कर एकत्र करना कला है और यह देश ने कभी नहीं सीखी. यहां कर एकत्र करने वाले मंत्री से ले कर चपरासी तक रंगदारों की तरह से चूसने की कोशिश करते हैं और तभी पूरी अर्थव्यवस्था कालेधन पर चल रही है. जो कर दिया जा रहा है वह मन मार कर ही दिया जा रहा है.

बजट और आमजन

वित्त मंत्रियों से यह अपेक्षा कम ही की जाती है कि वे ऐसा बजट बना सकते हैं जिस से देश तालियां बजाए क्योंकि हर बजट का काम तो सरकार के लिए कर वसूलना होता है. सरकारी खर्च हमेशा बढ़ता ही है. अगर कोई वित्त मंत्री 2-4 चीजों पर करों में छूट दे दे तो लोग वाहवाह करते हैं पर जल्दी ही व्यापारी उन्हीं चीजों के दाम बढ़ा कर लोगों की हंसी छीन लेते हैं. अगर कोई खड़ूस वित्त मंत्री ज्यादा टैक्स बढ़ा दे तो लोग बिना हिसाब का काम ज्यादा शुरू कर देते हैं. रही बातें बड़ीबड़ी योजनाओं, सड़कों, अस्पतालों, स्कूलों, कालेजों, जहाजों, हवाई अड्डों की, तो ये खयालीपुलाव हैं जो कब पूरे होंगे, उस का न तो पता किया जा सकता है, न उन में जनता की रुचि होती है. उन में तो रुचि केवल बड़े कौर्पोरेट घरानों को होती है जो उन के सहारे अपने धंधे के सपने बुनने लगते हैं.

बजट में किसी नई सोच वाली सरकार की कोई छाप नहीं है, पुरानी बातों को दोहराया गया है, पुराने प्रोजैक्टों को नया नाम दिया गया है. ये वे काम हैं जिन की घोषणा सरकार 28 फरवरी को करे या कभी भी, कोई फर्क नहीं पड़ता. आम आदमी को अरुण जेटली के बजट से यही पता चलता है कि भाजपा सरकार के सारे चुनावी वादे 14 मई, 2014 को पूरे हो चुके हैं जब नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल ने शपथ ली. अब तो सरकार भैया यों ही चलेगी.

किसान, सरकार और भाजपा

आम आदमी पार्टी नेता अरविंद केजरीवाल के हाथों दिल्ली में बुरी तरह हारने के बाद ऐसा लग रहा है कि भाजपा नेता व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बादशाहत मुगलई दिनों की हो गई है. अध्यादेशों को कानूनों में बदलवाने के लिए भारतीय जनता पार्टी को मुंह में जिस तरह लोहे के चने डालने पड़े हैं, वह अप्रत्याशित है. भूमि अधिग्रहण कानून पर विपक्षी इतने मुखर हो जाएंगे और अपने भी आंखें दिखाने लगेंगे, इस की आशा न थी. रोचक बात यह है कि जिस भूमि अधिग्रहण कानून को बचाने के लिए सारे भाजपा विरोधी एकमत हो गए हैं, वह जब बना था तो शायद ही किसी ने सोनिया गांधी की तारीफ की थी. भूमि अधिग्रहण कानून 1947 के बाद से किसानों को लूटने का सब से खौफनाक हथियार रहा है. देशभर में फैले शहर असल में किसानों को मुट्ठीभर रेत का मुआवजा दे कर उन से हथियाई गई जमीनों पर उगे हैं. जिन की वे जमीनें थीं, वे आज भी दरदर भटक रहे हैं.

ऐसा अनाचार और ज्यादा न हो, इस के लिए न जाने किस प्रेरणा से सोनिया गांधी ने यह कानून बनवाया था. पर तब कांगे्रसी ही इस से नाखुश थे. राज्य सरकारें भी उसे नहीं चाहती थीं पर सोनिया गांधी अपनी जिद पर अड़ी रहीं. अब पता चल रहा है कि यह कानून किस तरह का क्रांतिकारी था कि सभी हमदर्दों को इस में थोड़ाबहुत परिवर्तन भी स्वीकार्य नहीं है. यह अगले चुनावों में भाजपा के गले की फांस बन सकता है. किसान की जमीन उस की इच्छा के बिना जबरन ले कर किसी और काम में लगाई जाए, यह मूलभूत तौर पर गलत है. सिवा सड़कों, रेलों, नहरों के यह इजाजत किसी को नहीं होनी चाहिए. अगर भवन या कालोनी निर्माणकर्ताओं को जरूरत है तो वे किसानों से जमीनें खरीदें, जैसे वे और दूसरे सामान खरीदते हैं. किसान की जमीन का दाम जबरन कोई और तय करे, यह कैसे हो सकता है?

हां, भारतीय जनता पार्टी के लिए इस कानून में बदलाव किया जाना आवश्यक है क्योंकि उसे चुनावों में अमीरों का जो समर्थन मिला था, उस के पीछे इस ढील का वादा था. आज पैसा बनाने का सब से सरल तरीका सरकारी जमीन का अलौट कराना और उस पर मकान, उद्योग, मौल, सिनेमा, होटल बनाना है. जमीन अगर सीधे किसानों से खरीदनी पड़े तो बहुत ज्यादा परेशानियां होती हैं. यह गनीमत है कि भारतीय जनता पार्टी को लगभग शुरू में ही कड़वा घूंट पीना पड़ रहा है और अब उस की सरकार द्वारा केवल अमीरों को लाभ पहुंचाने वाले फैसले शायद कम ही लिए जाएंगे. देश का विकास अमीरों को और अमीर बना कर ही नहीं, गरीबों को भी अमीर बना कर करना होगा और इस के लिए किसानों को अपनी जमीन पर मनचाहा काम करने की छूट देनी होगी, उन की जमीनों को हथियाना नहीं होगा.

कालाधन और कानून

नए बजट पर बोलते हुए केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा है कि सरकार विदेशों में रखे कालेधन पर एक कानून तैयार कर रही है जिस के तहत नागरिक अपना पैसा वापस ला कर कर चुका दे वरना उन पर मुकदमा चला कर 10 साल की कैद हो सकती है. यह अव्यावहारिक है, यह साफ है. नरेंद्र मोदी 15 दिनों में 15 लाख रुपए लाने की बातें कर रहे थे और अब 9 माह के बाद भी कानून पर बस विचार हो रहा है. और यह कानून होगा भी क्या? अगर विदेशों में रखे कालेधन के बारे में पता करना आसान होता तो पिछली सरकारें क्यों चुप रहतीं? हर आयकर कार्यालय में फाइलें भरी होतीं कि किन नागरिकों को पकड़ना है. अगर कांगे्रस सरकार की मिलीभगत थी तो क्या भाजपा सरकार को 9 माह में भी एक को भी पकड़ने का मौका नहीं मिला? ऐसे में नया कानून क्या करेगा?

नए कानून में भी पहले तो पता करना होगा कि किस का पैसा है. यदि पैसा ज्यादा है तो भारतीय नागरिक विदेशी बन कर निकल सकता है. जो विदेश में पैसे रख सकता है, भारत में कामधंधे करेगा, नागरिक कहीं का बन भी जाएगा. नागरिकता तो आसानी से खरीदी जा सकती है. किसी इक्केदुक्के को पकड़ भी लिया तो भी दर्जनों अफसरों को मिल कर सुबूत जुटाने होंगे. वकील रखने होंगे, कागज तैयार करने होंगे. इस दौरान जहां पैसा रखा होगा वहां की विदेशी यात्रा पर अफसर जाएंगे. जितना पैसा हाथ लगेगा उस सेज्यादा हर मामले में अफसरों पर, कागजों पर, यात्राओं में, होटलों पर खर्च होगा और यह हर मामले में अलग होगा. वे सरकार से सुप्रीम कोर्ट तक लड़ेंगे. तब जा कर कहीं गिरफ्तारी होगी. हां, अगर सख्ती के नाम पर पहले कैद, सजा और फिर मुकदमा वाला तानाशाही कानूनी फंदा तैयार करने की मंशा हो तो बात दूसरी है. वह न दलील, न वकील वाली बात होगी, सिर्फ मनमानी होगी.

वैसे भी करों से बचाया गया पैसा विदेश में कौन रखेगा? व्यापारी और उद्योगपति तो हरगिज नहीं क्योंकि उन्हें देश में पैसा चाहिए. यह तो नेता और अफसरों का काम है या तस्करों का. उन्हें पकड़ना आसान नहीं क्योंकि उन की पहुंच होती है और उन की धमकियां भी कारगर होती हैं. अफसर उन्हें छूते नहीं. और फिर नरेंद्र मोदी ऐसे अफसर कहां से पैदा करेेंगे जो ईमानदारी से काम करेंगे. साक्षी महाराज और निरंजन ज्योति वाले फालतू के बच्चे हो भी जाएं और वे उन के सद्व्यवहार आसारामी, नित्यानंदी आश्रमों से निकल कर आए तो भी 30 वर्ष लगेंगे.

यह कानून बनाना होता तो अब तक बन जाता पर इसे बनाना मर्ज का इलाज नहीं. सरकारी आदेश से सूर्य पश्चिम से उगना तो शुरू नहीं कर देगा. सरकारी प्रचार से देश तो स्वच्छ नहीं हो गया. कालाधन खत्म करने का कानून बना देंगे, यह तो हर वित्त मंत्री कहता रहा है.

‘आप’ में विवाद

आम आदमी पार्टी यानी आप में उभरे आंतरिक विवाद पर आम आदमी की चिंता स्वाभाविक है. अलग तरह की राजनीति का वादा कर के जीती आम आदमी पार्टी के नेता भी और पार्टियों की तरह अहं और आत्ममुगालता के शिकार हों और अपने गुस्से को सार्वजनिक करें, यह आमजन को आसानी से नहीं पचेगा. असहमति वैसे लोकतंत्र की निशानी है. लोकतंत्र में हर विचार के लोग होते हैं, फिर भी वे एक मंच पर बैठते हैं और तभी सरकारें चलती हैं. इसी तरह हर दल में हर विचार के लोग होते हैं और वे अपने तमाम गुणों से पार्टी को बनाते हैं, उसे ऊंचा उठाते हैं. यह बात दूसरी है कि अकसर कुछ लोग पार्टी को बिगाड़ते हैं पर उन की भी जरूरत होती है क्योंकि जो अडि़यल होते हैं वे भी इस स्तर पर, जब नीतियों पर अपनी छाप छोड़ सकें, पहुंचने के पहले पार्टी के लिए बहुत योगदान देते हैं. आम आदमी पार्टी के मतभेद स्वाभाविक हैं क्योंकि यह बराबरी के स्तर वाले लागों की बनाई पार्टी है जिस में अब सत्ता और प्रभाव का बंटवारा होने पर कद घटनेबढ़ने लगे हैं. अब तक विवाद महत्त्व के नहीं थे क्योंकि सारे महल हवाई थे पर अब हकीकत में, चाहे दिल्ली में ही सही, प्रभाव का इस्तेमाल होने लगा है. अब पार्टी में लिए गए निर्णयों का असर हरेक की सोच पर पड़ने लगा है.

अरविंद केजरीवाल के लिए यह चुनौती है कि वे रूठों को कैसे मनाएं. जिस तरह से उन्होंने रूठे अन्ना हजारे को मनाया और भूमि अधिग्रहण कानून पर धरने में उन का साथ दे कर पुरानी नाराजगी दूर कर दी वैसे ही वे शायद इन लोगों को भी मना लें जो आम आदमी पार्टी के निर्माताओं में से हैं और उन के बिना पार्टी लड़खड़ा सकती है. वैसे, किरण बेदी जैसे कई नामों की नाराजगी के बावजूद आम आदमी पार्टी चली और अच्छी चली. फिर भी अच्छा रहता कि ये मतभेद 2-4 साल और छिपे रहते. ये पार्टी के विरोधियों को सुकून देते हैं और आम समर्थक के मन में संशय पैदा करते हैं. केजरीवाल को साबित करना है कि उन के सीधेपन का मतलब यह नहीं कि वे इस तरह के विवादों को हल नहीं कर पाएंगे.

ये पत्नियां

मेरी बीवी की आदत है कि जब भी वह बाजार से कोई साड़ी वगैरह लाती है तो घर आ कर पसंद न आने पर उसे बदलवाती जरूर है. मैं उस की इस आदत से परेशान हो गया था. एक दिन वह साड़ी ले कर आई और फिर वापस करने गई. जब वह घर आई तो मैं ने कहा, ‘तुम्हारी आदत में यह शामिल हो गया है, हर चीज को जरूर बदलवाती हो.’ इस पर वह तपाक से बोली, ‘मैं तो सिर्फ साडि़यां ही बदलवाती हूं, आप ने तो बीवी भी बदल ली.’ अब मेरा मुंह देखने लायक था. बस, इतना ही बोल पाया ‘उफ मेरी बीवी.’ असल में एक जगह सगाई हो जाने के बाद किसी कारणवश मैं ने रिश्ता तोड़ कर दूसरी जगह (अपनी इसी पत्नी से) शादी की थी.

विष्णुकांत अग्रवाल, फिरोजाबाद (उ.प्र.)

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मेरी शादी के बाद पहली होली आई. हम लोग होली की तैयारी में लगे थे कि अचानक दरवाजा खटखटाने की आवाज आई. जैसे ही मैं ने दरवाजा खोला, पड़ोस में रहने वाली 2 महिलाएं मेरे मुंह पर रंग लगाने के लिए झपटीं. मैं ने उन दोनों के हाथ पकड़ लिए. दोनों लाचार सी मुझे देखने लगीं. वे हाथ नहीं छुड़ा पाईं. यह दृश्य कालोनी के काफी लोगों ने देख लिया. वे लोग मेरे पति से बोले, ‘मिसेज गुप्ता, बड़ी ताकतवर हैं. 2-2 औरतों को एकसाथ अपने कब्जे में कर लिया.’ यह सुन कर मेरे पति गर्व से फूले नहीं समाए.   

आशा गुप्ता, जयपुर (राज.)

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कड़ाके की सर्दी से बचने के लिए मेरे पति ने तसले में 7-8 लकड़ी रख कर जला दीं. कमरा गरम होने लगा. हम लोग उस के चारों तरफ बैठ कर चाय पीने लगे. उसी समय मेरी पड़ोसिन गुंजन आ गई. उस ने भी आग के सामने बैठ कर चाय पी, फिर चली गई. रात के 8 बजे, अचानक गुंजन की घबराहटभरी आवाज आई, ‘‘दीदी, आइए, देखिए, क्या हो गया?’’ हम लोग दौड़ते हुए उस के कमरे में पहुंचे तो देखा, उन का सनमाइका वाला मेज गोल आकृति में सुलगा पड़ा है और आग वाला तसला नीचे रखा है. उस ने बताया कि तसले में आग जला कर उस ने उसे मेज पर रख दिया था. उस की बेवकूफी पर मैं ने खीज कर कहा, ‘‘तुम ने देखा नहीं. मेरे घर में फर्श पर भी तसला ईंट के ऊपर रखा था. इतनी सावधानी तो तुम्हें बरतनी ही चाहिए थी,’’ उस की मूर्खता पर अफसोस हुआ. तभी कहते हैं नकल के लिए भी अक्ल चाहिए.

रेणुका श्रीवास्तव, लखनऊ (उ.प्र.)

रसोई की गृहनीति

एक समय था जब महिलाएं घंटों सिलबट्टे पर मसाला घिस कर या इमामदस्ते से खड़ा मसाला कूट कर ताजे मसाले तैयार करतीं और बातों के चटखारों के साथ मिलजुल कर खाना बनाया करती थीं. तब रसोई का मतलब एक ऐसे कमरे से होता था जहां धुएं और गंध के बीच घर की औरतों को अपने हाथों से खाना तैयार करना होता था. जमाना बदलने के साथ रसोई अब फैले व बड़े कमरे से हट कर मौड्यूलर किचन में तबदील हो गई है. ओपन किचन आज घर का स्टेटस सिंबल भी बन गया है. आज के वक्त में कुछेक घर छोड़ दें तो सभी के किचन अब ओपन हो गए हैं. रसोई महज कुकिंग तक ही सीमित नहीं रह गई है बल्कि वह अब घरों का आईना बनती जा रही है. ओपन और घर के सैंटर में होने की वजह से अब रसोई सभी को एक धागे में पिरोती महसूस होती है, जैसे बच्चों का होमवर्क कराना हो या पति के साथ हंसीठिठोली करनी हो या फिर सहेलियों के साथ बैठ कर गरम चाय की चुसकियों के साथ गप हांकनी हो आदि सभी कुछ यहां हो सकता है. यहां अब महिलाएं काम करते हुए बच्चों पर नजर रखती हैं तो अब अपना सीरियल भी मिस होने नहीं देतीं. वे वहीं से टीवी पर भी नजरें गड़ाए रहती हैं. ओपन किचन होने की वजह से पति भी बारबार जहां उन की मदद करते हैं, वहीं उन को प्यार करने का मौका नहीं चूकते.

आज की भागमभाग और एकल परिवारों के चलते किचन में काम अब 8 से 10 घंटे से घट कर 1 से 2 घंटे तक का ही रह गया है.

समय की बचत

प्रीति जौब करती है. उस के परिवार में कुल 3 सदस्य हैं. प्रीति का सुबह का शैड्यूल औफिस जाने के लिए पहले जल्दी उठ, फटाफट बच्चे का टिफिन, खुद व पति के लिए बे्रकफास्ट व लंच बना कर झटपट तैयार हो कर निकल जाना है. अब देखा जाए तो बाकी काम जैसे कपड़े धोना, नहाना, बच्चे को तैयार करना आदि में भले ही उस ने ज्यादा देर लगाई हो लेकिन किचन में उस को लगा सिर्फ 1 घंटा. प्रीति शाम को थकहार कर घर पहुंची और चायनाश्ता कर रात का डिनर तैयार किया. इस में लगा 1 घंटा. यानी पूरे दिन का किचन का टोटल टाइम हुआ 2 घंटे. हम कह सकते हैं कि रसोई का काम अब 8-10 घंटे से घट कर मात्र 2 घंटे का रह गया है. दूसरी तरफ एडवांस और वर्किंग महिलाओं की रसोई आप को अपडेटेड मिलेगी, जहां विभिन्न तरह के एप्लाइंसेंज मौजूद होंगे. फिर चाहे ये एप्लाएंसेज महीनों इस्तेमाल न हों. आजकल बाजार में या टीवी पर कोई भी किचन एप्लाएंस देखा नहीं कि झट से खरीद लाए या घर बैठे ही औनलाइन मंगवा लिया.

लुभाते हैं कई विज्ञापन

अंजू से मेरी मुलाकात औफिस से आते वक्त मेरे फ्लैट के नीचे हुई. एकदूसरे के हालचाल की बात जानने के बाद मिसेज सिंघल और मिसेज कपूर भी आ गईं. तिकड़ी के जमते ही मैं वहां से खिसक नहीं पाई. अब उन की बातें मुझे न चाहते हुए भी सुननी पड़ीं और उन की हां में हां मिलानी पड़ी. तभी अंजू ने टीवी पर आ रहे एअरफ्रायर के विज्ञापन का जिक्र किया. जिक्र जरा ऐसे किया कि आजकल मैं अपने बच्चों के टिफिन में हैल्दी रेसिपीज और बिना तेल का खाना दे रही हूं. सब चौंके, कैसे अंजू, हमें बता. अंजू लगी अपनी एअरफ्रायर का प्राइस टैग बताने, साथ ही यह जाहिर करने कि उन के यहां एअरफ्रायर आ गया है. अंजू ने सभी को बता डाला कि उन्होंने यह नया एप्लाएंस खरीदा है. टीवी पर किचन एप्लाएंस को ले कर ढेरों विज्ञापन आने लगे हैं. विज्ञापन इतने लुभावने होते हैं कि लगता है हैल्दी व फिट रहने के लिए फलांफलां आइटम हम भी खरीद लें. जरूरत के अनुसार तरहतरह के एप्लाएंसेज खरीदना भले ही अच्छी बात हो पर इन का सही व रोजाना इस्तेमाल नहीं हुआ तो किचन में एप्लाएंसेंजों की भरमार ही लगेगी. और यह समझदारी का परिचय नहीं है.

कैसा हो इंटीरियर

इंटीरियर डिजाइनर और आर्किटैक्ट अनुपम सक्सेना के मुताबिक घर का आईना होती है रसोई, जहां खाने के साथसाथ रिश्तों में मिठास घुलती है. घर का इंटीरियर कराएं तो लेआउट ऐसा होना चाहिए जिस में किचन कोने के बजाय केंद्र में हो और वह डाइनिंगरूम से ही अटैच हो. ऐसा होने से जहां आप हर एक चीज पर नजर रख सकेंगी, वहीं डाइनिंग एरिया में आराम भी कर सकेंगी. ओपन किचन होने से आप खाना पकातेपकाते कई काम एकसाथ कर सकती हैं. ओपन किचन के लिए कुछ बातों का ध्यान रखें-

ओपन रसोई में कचरा इकट्ठा न होने दें क्योंकि यह दूर से ही नजर आ जाएगा. ऐसा करना न सिर्फ आप को बीमार करेगा बल्कि घर के अन्य सदस्य भी बीमार हो जाएंगे.

ओपन किचन में खाना बनाते वक्त परदे डाल कर खाना न बनाएं बल्कि खिड़कियां, परदे खोल दें वरना इस से सफोकेशन होगा. वैसे आजकल मौड्यूलर किचन में एक्जौस्ट फैन और चिमनी लगी रहती है.

किचन का वैंटिलेशन सही होना चाहिए. ध्यान रखें कि आप का किचन बंदबंद न हो. अगर ऐसा हो तो तुरंत वैंटिलेशन का इंतजाम करवाएं. नए घर में किचन इंटीरियर का खास ध्यान रखें.

किचन का वाल कलर कूलिंग होना चाहिए क्योंकि अगर भड़कीला होगा तो रोशनी कम रहेगी, जिस के लिए आप को काफी लाइट्स लगवानी पड़ेंगी, साथ ही आप को भड़कीले रंगों से नेगेटिविटी महसूस होगी.

किचन का हर सामान कैबिनेट्स में ही रखें, बिखरा कर नहीं क्योंकि यह दूर से ही फैला नजर आएगा.

इन बातों का ध्यान रख कर आप अपने किचन को अच्छा लुक दे सकती हैं. ऐसा करने से आप की रसोई सुंदर दिखेगी, केवल काम ही नहीं.

रसोई ही रसोई

आधुनिक दौर में जैसे सभी आधुनिकता की चकाचौंध देख बदलाव करते रहते हैं ठीक ऐसे ही घर में किचन का बदलना भी बहुत जरूरी है. इंटीरियर ऐक्सपर्ट के मुताबिक, किचन एरिया घर के बाकी हिस्सों से ज्यादा शानदार दिखना चाहिए. यह आधुनिक उपकरणों से लैस भी होना चाहिए. ओपन किचन के लिए हमेशा ध्यान रखें कि ओपन में होने की वजह से यहां फालतू सामान नहीं रखना चाहिए. किचन के लिए जरूरत अनुसार ही किचन एप्लाएंसेज खरीदें. इस समय हो न हो आप के किचन में एडवांस स्मार्ट चूल्हा, इंडक्शन माइक्रोवेव, चिमनी, हैंड ब्लैंडर, एअरफ्रायर, मिक्सर ग्राइंडर, जूसर, इलैक्ट्रिक तंदूर, मेजरिंग इक्विपमैंट, आइसक्रीम मेकर, रोटी मेकर, मौडर्न कुकर, इलैक्ट्रिक कैटल जैसे ढेरों अलगअलग इस्तेमाल होने वाले सामान मौजूद हों. ध्यान रखें कि इतने सब किचन एप्लाएंसेज से रसोई तो खूबसूरत दिखेगी लेकिन आप को इस की मैंटिनैंस का भी खास ध्यान रखना होगा.

पैसों और जगह की बरबादी

भले ही आप अपने किचन को आधुनिक दौर के मद्देनजर अपग्रेड करती हों पर उस का सही इस्तेमाल भी बेहद जरूरी है. यह जरूरी नहीं कि जो सामान या किचन एप्लाएंस देखा या सुना, रोब दिखाने के लिए उसे खरीद लाए. जाहिर है ऐसा करना आप की जेब पर तो भारी पड़ेगा ही, साथ ही आप को उसे रखने का इंतजाम भी करना होगा. अगर आप ने इंतजाम कर भी दिया तो क्या गारंटी है कि उस एप्लाएंस का इस्तेमाल होगा ही. अगर ऐसा नहीं हुआ तो किचन में वह महीनों पड़ा रहेगा. इसलिए इन चीजों की खरीदारी सोचसमझ कर करें.

स्टेटस सिंबल मान कर या आज की जरूरत व मेहनत लगा कर अगर आप ने स्मार्ट किचन बना ही लिया है तो कोशिश कीजिए सप्ताहभर का मैन्यू चार्ट बनाएं और उसे फौलो करें. इस से भले ही आप किचन को 2 घंटे दे रही हों पर आप को प्रौपर फूड मिलेगा साथ ही मैन्यू में स्पैशल डिशेज के चलते आप के किचन एप्लाएंसेज भी इस्तेमाल में आ जाएंगे. तब आप का किचन देखने योग्य दिखने के साथ ही उस में काम भी दिखता नजर आएगा.

महंगा नहीं बाहर का खाना

नेहा का 10 वर्षीय बेटा चेतन जब भी बाहर खाने की जिद करता तो वह हमेशा उसे बहलाफुसला कर मना कर देती कि बेटा, यह अच्छा नहीं है, यह ताजा बना हुआ नहीं है. मैं घर पर तुम्हें इस से भी अच्छा और स्वादिष्ठ खाना बना कर दूंगी. दरअसल, नेहा को लगता था कि बाहर का खाना घर के खाने की तुलना में महंगा होता है. अगर इसे घर में बनाया जाए तो यह सस्ता पड़ता है. इसलिए वह हमेशा हर चीज घर पर ही बनाती थी, बाजार से अलगअलग तरह की सामग्री खरीद कर लाती और किचन में घंटों मेहनत कर के बनाती. नेहा की तरह ही अधिकांश लोग सोचते हैं कि इतनी महंगाई में बाहर का खाना कौन खाए, इतने में तो घर में 10 चीजें बन जाएंगी और भरपेट भी खा लेंगे. पर क्या कभी आप ने घर पर बने खाने की कीमत को जोड़ कर देखा है कि उस की कीमत कितनी पड़ती है. पहले के समय में बात अलग थी, परिवार में ज्यादा सदस्य हुआ करते थे, एक बार में ही ज्यादा खाना बनता था, चीजें ज्यादा इस्तेमाल हुआ करती थीं.

पहले घर में जो बनता था, सब वही खाते थे, लेकिन अब परिवार छोटा हो चुका है, सब की पसंद भी अलग हो चुकी है. किसी को दाल में प्याज, टमाटर का तड़का चाहिए तो किसी को सिर्फ जीरे का. किसी को समौसे मीठी चटनी के साथ खाने हैं तो किसी को हरी चटनी के साथ. आज अगर घर पर दाल मक्खनी बनानी हो तो इस की कीमत लगभग 200 रुपए पड़ती है. इस के लिए दाल, क्रीम, मक्खन, मसाले इत्यादि चीजें खरीदनी पड़ती हैं. लेकिन अगर इसी दाल मक्खनी को बाहर खाया जाए तो 70-80 रुपए में 3 लोग आराम से खा सकते हैं.

घर पर बनाने पर 3 लोगों के हिसाब से सामग्री इतनी ज्यादा होती है कि सोचना पड़ता है कि इन बची हुई चीजों का इस्तेमाल किस में किया जाए. हफ्ते में 2 बार दाल मक्खनी भी नहीं बना सकते, क्योंकि बच्चे व पति कहने लगते हैं, ‘‘यह क्या है, कल ही आप ने दाल मक्खनी बनाई थी, आज फिर से.’’ एक के लिए खाना बनाया जाए या 2 लोगों के लिए मेहनत, समय व गैस उतनी ही लगती है जितनी 4 लोगों के लिए लगती है. अब आप समोसे का ही उदाहरण ले लीजिए. बाहर हम 16-20 रुपए में 2 समोसे आराम से खा सकते हैं, लेकिन अगर इसे घर पर बनाने की सोचें तो समौसे के लिए मैदा, आलू, तेल, मसाले, प्याज, मिर्ची के साथ गैस का खर्च मिला कर कई गुना ज्यादा पड़ेगा.

कहने का तात्पर्य है कि आज के समय में बाहर का खाना महंगा नहीं है बल्कि आप के बजट में है. आप आराम से परिवार के साथ बाहर का खाना खा सकते हैं.

बाहर का खाना कैसे सस्ता

घर पर अगर हमें कोई स्पैशल डिश बनानी हो जैसे चिकन बनाना हो तो इस की सारी सामग्री प्याज, टमाटर, चिकन, लहसुन, अदरक से ले कर गरम मसाले तक सभी चीजें खरीदनी पड़ती हैं, गैस का खर्च अलग आता है. लेकिन बाहर लगभग 150-200 रुपए में आराम से चिकन खाया जा सकता है. बाहर खाने का फायदा यह होता है कि खाने में सलाद व चटनी साथ में मिल जाती है, घर पर इस के लिए भी सभी चीजों को खरीदना पड़ता है और इसे बनाना पड़ता है. बाहर खाना खाने पर न तो बरतन धोने का झंझट होता है और न ही किचन साफ करने व कूड़ा फेंकने की समस्या होती है.

बाहर खाने के फायदे

बोरियत से मिलता है बदलाव : हर दिन एक ही तरह का खाना खा कर बच्चे ऊब जाते हैं, बाहर के खाने से उन्हें एक बदलाव मिलता है. आप घर पर उन का पसंदीदा खाना कितना भी अच्छा क्यों न बनाएं पर उन्हें जो खुशी बाहर के खाने में मिलती है, वह घर के खाने में नहीं मिलती. बजट का रहता है ध्यान : हम सोचते हैं कि घर के खाने में हम बजट में रहते हैं और बाहर खाने पर खर्च ज्यादा होता है, लेकिन ऐसा नहीं है बल्कि हम बाहर के खाने में ज्यादा अच्छे से बजट में रहते हैं. घर पर खाना बनाने में जरूरत से ज्यादा खर्च करते हैं, ज्यादा खाना बना लेते हैं. सोचते हैं बच गया तो क्या हुआ, फ्रिज में रख देंगे. चाहे बाद में खाएं चाहे न खाएं, पर बना जरूर लेते हैं. खाते समय भूख से ज्यादा खाना खा लेते हैं. लेकिन जब हम बाहर खाते हैं तब कम खाना और्डर करते हैं. सोचते हैं–पहले इतना खा लेते हैं, कम पड़ेगा तो फिर और्डर करेंगे. अगर घर में खाते समय दाल खत्म हो जाती है तो हम फिर से एक कटोरी दाल ले लेते हैं, भले ही प्लेट में सब्जी हो. लेकिन जब हम बाहर खाते हैं तो ऐसा नहीं करते. आधी रोटी के लिए फिर से दाल या सब्जी नहीं लेते, क्योंकि हमें अपना बजट पता होता है, इसलिए यह कभी न सोचें कि बाहर के खाने से आप का बजट बढ़ सकता है.

परिवार के लिए समय : कामकाजी महिलाओं के लिए संभव नहीं होता है कि दिनभर के औफिस के बाद वे बच्चों को पढ़ाएं, घर का कामकाज करें, सब की पसंद का कुछ बनाएं. ऐसे में जब रविवार आता है तो बच्चे व पति जिद करने लगते हैं कि आज कुछ स्पैशल खाना है और छुट्टी वाले दिन भी आप परिवार के साथ समय बिताने के बजाय किचन में व्यस्त रहती हैं. लेकिन बाहर खाना खाने से आप को किचन के कामों से छुट्टी मिलती है. आप को इस बात की टैंशन नहीं रहती है कि खाना बनाना है, किचन साफ करना है, बरतन धोने हैं. बल्कि आप अपने परिवार को समय दे पाती हैं, अपने बच्चों के साथ खेल सकती हैं, पति से बातें कर सकती हैं, रविवार का पूरा दिन परिवार के साथ बिता सकती हैं.

कब खाएं बाहर का खाना

किटी पार्टी में किफायती : आप अपने घर पर किट्टी पार्टी कर रही हैं तो सुबह से ही अलगअलग वैराइटी बनाने के बजाय बाहर से टिफिन मंगवा लें. आजकल टिफिन वाले टिफिन में स्नैक्स भी देने लगे हैं, जिस की कीमत 50-60 रुपए तक होती है. आप इस में अपनी सुविधानुसार चीजें रखवा सकती हैं. इस से आप को न तो सामग्री खरीदने व बनाने का झंझट होता है और न ही बरतन धोने की टैंशन. इस से आप का समय भी बचता है और पार्टी भी बजट में आसानी से हो जाती है.

पिकनिक पर खाएं बाहर का खाना: अगर आप परिवार व दोस्तों के साथ पिकनिक पर जा रही हैं तो आप के लिए संभव नहीं है कि आप इतने सारे लोगों का खाना अकेले बना कर ले जाएं. बच्चों की पसंद और बड़ों की पसंद अलगअलग होती है और ऐसे में किसी को खाना पसंद न आए या बच्चे यह कहने लगें कि मुझे यह नहीं खाना तो सारा मूड खराब हो जाता है. पिकनिक पर मस्ती करने का मन ही नहीं करता. हमें लगता है कि हम ने इतनी मेहनत कर के बनाया, लेकिन फिर भी किसी को पसंद नहीं आया. इसलिए पिकनिक के लिए घर से खाना बना कर ले जाने के बजाय बाहर के खाने का मजा लें. 

मनाएं बर्थडे पार्टी बाहर : आज के बच्चों को घर पर कितना भी स्वादिष्ठ खाना बना कर क्यों न दिया जाए, उन्हें बाहर के बर्गर के आगे फीका ही लगता है. बच्चे बर्थडे पार्टी में पावभाजी या छोलेभठूरे देने पर कहते हैं, ‘‘आंटी, मेरी मम्मी इस में ये नहीं डालतीं, मैं ये नहीं खाऊंगा. इस में शिमला मिर्च है.’’ सारा खाना बरबाद होता है. पैसे भी खर्च होते हैं और बच्चे एंजौय भी नहीं करते. लेकिन अगर वहीं उन्हें बाहर का बर्गर या पिज्जा दिया जाए तो मना नहीं करते, बल्कि अच्छे से खाते हैं. आजकल तो इन जगहों पर आसानी से बर्थडे पार्टी की जा सकती है, यहां न तो सर्व करने की, घर गंदा होने की टैंशन होती है और न ही पार्टी के बाद कूड़ा फेंकने का झंझट होता है. घर पर सामान खरीद कर बनाने में जितना खर्च आता है, बाहर आराम से बर्गर व कोल्ड डिं्रक के साथ पार्टी की जा सकती है.

पौष्टिकता का रखें ध्यान : जब भी बाहर खाएं तो पौष्टिकता का ध्यान रखें. हमेशा वैसी ही चीजें खाएं जिस में पौष्टिकता ज्यादा हो और हैल्दी भी. कुछ भी और्डर करने से पहले मैन्यू को अच्छी तरह से देखें और उस में से ऐसी डिशेज को चुनें जिस में प्रचुर मात्रा में पौष्टिक तत्त्व हों.

आधा घर का आधा बाहर का

 आप चाहें तो आधा घर का और आधा बाहर के खाने का अनुपात रख सकती हैं. जैसे हर चीज को घर पर बनाने के बजाय कुछ रेडीमेड चीजों का इस्तेमाल कर सकती हैं. इस से आप का समय भी बचेगा और मेहनत भी कम लगेगी. जैसे आप को सूप बनाना है और आप इसे घर पर बनाती हैं तो आप को सारी सब्जियों को खरीदना पड़ेगा, उन्हें धो कर काटना पड़ेगा. इस में काफी समय लगता है. आप इन सब्जियों को थोड़ाथोड़ा भी खरीदेंगी तो भी वे ज्यादा हो जाएंगी. इसलिए आधा घर का और आधा बाहर का मिला कर खाना बनाएं. इस से समय भी बचेगा और पैसा भी. सूप बनाने के लिए आप सूप पैकेट ले कर आइए और बस पानी में सूप पाउडर डाल कर उबाल लें. मिनटों में गरमागरम सूप तैयार. आज तो मसाले भी गे्रवी वाले आने लगे हैं. बस, गे्रवी को गरम कीजिए और इस में पनीर या सब्जियां मिलाइए. आप की मनपसंद सब्जी तैयार.

हमारी बेडि़यां

मेरे एक रिश्तेदार का बेटा बीमार था. शायद उसे सर्दी लग गई थी. बेटे की मां बहुत रूढि़वादी थीं. उन के मन में वहम था कि किसी पड़ोसी ने उन के बेटे को नजर लगा दी है जिस के कारण वह बीमार हो गया है. उन्होंने शाम होते ही बहुत सारी मिर्चों को अपने बेटे के सिर से वारा (नजर उतारी) और कमरा बंद कर के उन मिर्चों को आग पर रख कर उन की धूनी जलाई मिर्चों की गंध से उन के बेटे की हालत बहुत खराब हो गई. उस रात को पड़ोसियों ने बच्चे को स्थानीय अस्पताल में ले जाने का आग्रह किया. परंतु बेटे की मां नहीं मानीं और अपनी जिद पर अड़ी रहीं. डाक्टर के इलाज के बजाय उस की अपने तरीके से ही झाड़फूंक करती रहीं. कुछ दिनों बाद वे अपने बेटे से हाथ धो बैठीं. मां की रूढि़वादिता ने अपने ही बेटे की जान ले ली.

प्रदीप गुप्ता, बिलासपुर (हि.प्र.)

*

गांव में एक पहलवान थे. जब भी कोई दंगल होता वे जरूर जाते और जीत कर इनाम लाते. तमाम लोग उन से जलते थे. एक बार वे सावन के महीने में किसी दंगल में कुश्ती लड़ने गए थे. लौटने में अंधेरा हो गया. वे अकेले आ रहे थे. रास्ते में बारिश होने लगी. गांव आने से पहले एक बड़े बाग को पार करना पड़ता है. बाग में खूब अंधेरा था. वातावरण में दहशत थी. एक व्यक्ति, जो उन से जलता था, उस बाग की एक नीची डाल पर सिर नीचे और पैर ऊपर कर के लटक गया, देखने से दूर से वह भूत नजर आ रहा था. पहलवान उसे देख कर भूतभूत चिल्ला कर भागे और गांव आ कर डर के मारे बेहोश हो गए. काफी रात गए उन्हें होश आया लेकिन उन के दिलोदिमाग में भूत का खौफ बैठा था. वे किसी को भी देख कर भूतभूत चिल्लाने लगते थे. वे बीमार रहने लगे. घर वालों ने तमाम ओझा व भूत उतारने वाले बुलवाए. कई दिन तक भूत उतारने के लिए थाली बजी, लेकिन भूत न उतरा. कुछ पढ़ेलिखे लोगों ने कहा कि पहलवान को किसी अच्छे डाक्टर या मनोचिकित्सक को दिखाओ तो घर वाले कहने लगे कि भूतप्रेत के बारे में डाक्टर क्या जानें. धीरेधीरे पहलवान महोदय की हालत बिगड़ती गई और एक दिन वे दुनिया से चल बसे. काश, पहलवान के घर वालों ने पढ़ेलिखे लोगों की बात मान ली होती और किसी अच्छे डाक्टर को दिखाया होता तो शायद पहलवान की जान बच जाती.

एस पी सिंह, लखनऊ (उ.प्र.)

कम बजट में अधिक बचत

महंगाई बढ़ती जा रही है तो पैसा भी ज्यादा खर्च हो रहा है. मिडिल क्लास की सब से बड़ी चिंता है कि आमदनी उतनी ही है जबकि खर्च ज्यादा हो रहा है. लेकिन थोड़ी सी समझदारी और प्लानिंग के साथ आप पैसे को अपने इशारे पर नचा सकते हैं. बस, आप पैसों को खर्च करने के मामले में ही नहीं बल्कि बचत के मामलों में भी रुचि लेना शुरू कर दें. आप होममेकर हैं, दिन भर काम में ऐसी उलझी रहती हैं कि दूसरी चीजों पर ध्यान ही नहीं जाता. कभी फुरसत मिले तो बस एक ही बात की चिंता लगी रहती है, घर का बजट और थोड़ी सी बचत. हां, पति भी इन बातों का ध्यान रखते हैं लेकिन आप भी इस कोशिश में उन का हाथ बंटाएं. हम जो सोचते हैं उस में असल में कामयाब नहीं हो पाते. इस की वजह बड़ी न हो कर छोटीछोटी बातों में छिपी है. कभी जानकारी की कमी तो कभी फैसले लेने की क्षमता का अभाव हमारी योजनाओं पर ब्रेक लगा देते हैं.

आज के युवा जिंदगी में आगे बढ़ने के लिए गाड़ी, बंगला और शोहरत सबकुछ फास्ट ट्रैक पर डाल देते हैं. ईएमआई से उन्हें परहेज नहीं, यही कारण है कि वे कर्ज की राशि की तरफ ध्यान नहीं देते, बल्कि ईएमआई कितनी आ रही है उस ओर देखते हैं. इस का मतलब यह भी नहीं कि केवल बचत ही की जाए, बल्कि समय के अनुसार और परिस्थितियों को भांपते हुए बचत की ओर ध्यान देना चाहिए. आगे की सोच आप को परिस्थितियों से लड़ने के लिए पहले से तैयार करनी है. परिस्थितियों की नब्ज पर आप का हाथ हो तो यह निश्चित है कि आप किसी भी तरह के खतरे को पहले से भांप सकते हैं और उस के अनुसार निर्णय ले सकते हैं.

चलन विदेशों का

विदेशों में चलन है कि वहां पर सप्ताहभर नौकरी करने के बाद शुक्रवार की शाम पैसे मिल जाते हैं और ये पैसे शनिवार और रविवार को मौजमस्ती में उड़ाए जाते हैं. सोमवार से युवा फिर से मेहनत कर पैसे कमाने के लिए नौकरी पर जाते हैं, इस विदेशी संस्कृति की छाया हम पर भी पड़ती जा रही है. हम भी उन्हीं की देखादेखी पैसे उड़ाने में मशरूफ हो जाते हैं जबकि बचत के नाम पर कुछ नहीं सोचते. चाहे कम तनख्वाह हो, ज्यादा बचत सभी को अच्छी लगती है और सभी अपनेअपने अनुसार बचत करना चाहते हैं व करते भी हैं. इस के लिए जरूरी है कि बचत की शुरुआत आज से ही की जाए. हर महीने अपने खर्च की समीक्षा करनी चाहिए. साथ ही गैर जरूरी खर्च को नजरअंदाज करना चाहिए.

खर्चों में कटौती और इस के लेखाजोखा के लिए एक मासिक बजट तैयार करें, फिर उस बजट के दायरे में रह कर खर्च करें. इस से यह जानने में आसानी हो जाएगी कि पैसा कहां और कितना खर्च हो रहा है और इस पर कैसे नियंत्रण रखा जा सकता है. ज्यादातर विकसित देशों ने ऐसी योजनाएं शुरू की हैं, जिन के तहत नागरिकों को बचत के लिए बढ़ावा दिया जाता है. इस मकसद से खास वित्तीय संस्थाएं भी संचालित हैं. दुनिया की तीसरी बड़ी इकोनौमी जापान की हैसियत के पीछे उस के नागरिकों की बचत की आदत ही है.

कम बजट, ज्यादा बचत

बजट कम होते हुए भी बचत का स्तर बढ़ाया जा सकता है. ऐसा नहीं है कि आमदनी ज्यादा होने पर ही आप बचत कर सकते हैं. हम ने कुछ परिवारों में जा कर उन की बचत का तरीका देखा.

(बौक्स में देखें साहिल के खर्चे)

साहिल व कीर्ति के मुताबिक, हर महीने हाथ इतना तंग रहता है कि 1 रुपया तक नहीं बचता. कभीकभी तो उधार तक लेने की स्थिति आ जाती है. परिणामत: आगे बजट बिगड़ता ही चला जाता है.

साहिल व कीर्ति बजट में रह कर ऐसे काम करें :

खर्च    रु. प्रतिमाह

राशन   7,000

शिक्षा   4,000

अन्य खर्चे      2,000

आनेजाने का भाड़ा      2,000

मनोरंजन व संचार      1,000

सागसब्जी, फल 2,000

पानी/बिजली बिल 1,000

कुल खर्च       19,000

बचत   1,000

यानी 20 हजार रुपए प्रतिमाह कमाई हो तो 1 हजार रुपए प्रतिमाह कम से कम बचाया जा सकता है. रही बात उधारी की तो आप की चादर जितनी हो उतने ही पैर फैलाएं. अगर आप मनोरंजन व शाही शौक आदि में चीजों पर गलत खर्च करेंगे तो बचत कभी नहीं हो सकेगी. ऐसे में कभीकभार चलता है मान कर खर्च करें तब तो सही अन्यथा बचत की मत सोचिए.

(बौक्स में देखें अभिषेक के खर्चे)

अभिषेक द्वारा कमाई के कुछ हिस्से को किसी आकस्मिक घटना, बीमारी या घर बनाने के लिए धीरेधीरे जोड़ना चाहिए. बुरे व अच्छे वक्त में यह बचत काम आ सकती है. अभिषेक पूरे महीने की कमाई को पूरा ही खर्च कर देता है. हालांकि यह सारे खर्च जरूरी हैं पर अगर इन में कुछ खर्चों को कुछ हद तक कम कर दिया जाए तो बचत आसानी से की जा सकती है. आइए, अभिषेक की कमाई को प्रतिशत में दर्शाएं कि वह कैसे अपने वेतन का कुछ हिस्सा बचा सकता है.
इस के 2 तरीके हैं :

अगर औफिस के चायपानी, कपड़े व मनोरंजन के खर्चे कुछ हद तक अभिषेक कम करे तब अभिषेक आराम से अपनी कमाई से 1 हजार रुपए प्रतिमाह तक बचत कर सकता है और सीमित आय में अधिक बचत के उद्देश्य को पूरा कर सकता है.

गुल्लक से निवेश का सफर

बचत का सब से पुराना तरीका गुल्लक है. कहानियों, फिल्मों या असल जीवन में भी हम ने गुल्लक से बचत की शुरुआत देखी और की है. आज बचत का तरीका पोस्ट औफिस, बैंक, शेयर मार्केट से होते हुए गोल्ड और प्रौपर्टी में निवेश तक जा पहुंचा है. बचत और निवेश में अंतर यह है कि जहां बचत से आप अपनी पूंजी को सुरक्षित रखते हैं वहीं निवेश का इस्तेमाल लोग अपनी जमापूंजी को बढ़ाने के लिए करते हैं. हालांकि रोजाना चढ़तेउतरते शेयर बाजार से जमापूंजी के कम होने का खतरा बना रहता है. लेकिन जमा रकम को बैंक या दूसरी सरकारी सेवाओं की मदद से न केवल सुरक्षित रखा जा सकता है बल्कि उसे बढ़ाया भी जा सकता है. क्रैडिट कार्ड का भुगतान जल्दी कर देना चाहिए, क्योंकि इस में भुगतान में देरी होने पर उच्च दर से ब्याज भी देना पड़ता है.

कम बजट में हैल्दी कुकिंग

सीजनल सब्जियों का प्रयोग करें, डंठल न फेंकें. ब्रोकली, गोभी, मशरूम के डंठलों को अच्छी तरह छील व काट कर उन के पकौड़े या फिर सब्जी बनाई जा सकती है. प्याज महंगी हो तो कसूरी मेथी का प्रयोग करें. टमाटर की जगह कैचप और क्रीम की जगह दूध का प्रयोग करें. जरूरी नहीं कि महंगी चीजों से ही हैल्दी कुकिंग की जाए. लैफ्टओवर खाने से नया खाना तैयार करें जैसे सब्जियों की बिरयानी, कटलेट, स्टफ्ड परांठा आदि. चावल बनाने के बाद उस का बचा पानी फेंकने के बजाय उस का प्रयोग अन्य डिशेज बनाने में करें.

क्यों जरूरी है बचत

मुश्किल वक्त कभी बता कर नहीं आता. क्या आप ने अपने मुश्किल दिनों के लिए पैसे बचाए हैं? अगर कोई स्वास्थ्य संबंधी आपातस्थिति आए तो आप कैसे मैनेज करेंगे? अपने बच्चों की ऊंची शिक्षा के लिए आप के पास रकम होगी या नहीं? किसी भी अस्पताल में मरीज की भरती कराने से पहले एकमुश्त बड़ी रकम की जरूरत होती है. इस के अलावा परिवार बढ़ने पर बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए भी रकम होनी जरूरी है. अगर कोई मुकदमा चल रहा हो तो वहां पर बचत के रुपयों से सहायता मिलेगी. अगर शुरुआत से ही कुछ बचत की गई होगी तो आकस्मिक खर्चे आने पर किसी भी तरह की कोई दिक्कत नहीं होगी. आप सोच रहे होंगे कि बंधीबंधाई आमदनी में से आप अपने खर्चे पूरे कर लें, यही बहुत है. ऐसे में बचत कैसे होगी. आप को हैरानी होगी कि दक्षता और अनुशासन में इस का जवाब छिपा है. सब से पहले देखें कि आप का खर्च कहां हो रहा है. हर महीने के खर्च के लिए एक डायरी रखें, कौफी ब्रेक से ले कर घर के सामान पर खर्च हुए 1-1 पैसे का हिसाब रखें. आप को हैरानी होगी कि इन्हीं मदों से आप को सब से ज्यादा पैसा बचाने की प्रेरणा मिलेगी. खर्चों के लिए लक्ष्य बना कर चलें. जो तय खर्चे हैं जैसे कि घर का किराया, विभिन्न बिल, कार लोन, होम लोन की किस्तें, क्रैडिट कार्ड के बिल आदि में तो काटछांट नहीं हो सकती, लेकिन घर के सामान और कपड़ों के लिए खर्च की सीमा रखें, साथ ही मनोरंजन और यात्राओं के लिए भी तयशुदा सीमा से ज्यादा खर्च न करें.

दरअसल, बजट बनाने का मतलब यह नहीं है कि आप किसी फंदे में फंस गए हैं. यह आप की आर्थिक स्वतंत्रता और सहूलियत के लिए होना चाहिए न कि कोई वित्तीय बंधन. अच्छा बजट आप को पैसे पर नियंत्रण के रूप में बड़ी ताकत देता है. इस के जरिए आप अपने खर्चों को अधिक तर्कसंगत बनाते हैं और चिंताओं को बढ़ाने के बजाय आनंद उठा सकते हैं. बजट आप को आर्थिक समस्याओं से लड़ने की ताकत देता है.

पूंजी बाजार

भारी बिकवाली से बाजार में निराशा की स्थिति

बौंबे स्टौक एक्सचेंज यानी बीएसई का सूचकांक 30 हजार अंक के स्तर को छूने के लिए तत्पर है. इस मनोवैज्ञानिक स्तर तक पहुंचने में कई बार यह गहरा गोता भी लगा रहा है तो कई बार ऊंची छलांग लगा रहा है. इस ऊहापोह के बीच 29 जनवरी को सूचकांक ने सर्वाधिक ऊंचाई हासिल की लेकिन अगले ही सत्र में 500 अंक का गोता लगा गया. नैशनल स्टौक एक्सचेंज यानी निफ्टी भी औसतन इसी स्तर पर आगेपीछे हो रहा है. इन सब स्थितियों के बावजूद निवेशकों में देश की आर्थिक तरक्की को ले कर विश्वास का भाव है और उन का उत्साह लगातार बाजार को नई ऊंचाई पर ले जाने के लिए बना हुआ है. हालांकि फरवरी के पहले दिन से ही बाजार में गिरावट का माहौल रहा और प्रथम सत्र में ही सूचकांक एक सप्ताह के निचले स्तर पर पहुंच गया. फरवरी की शुरुआत से सूचकांक लगातार 7 सत्र तक गिरावट के साथ बंद होता रहा. सप्ताह के आखिरी दिन यानी 5 फरवरी को बाजार रिजर्व बैंक के नीतिगत दरों में कटौती नहीं करने की वजह से निवेशकों में निराशा का माहौल बना और सूचकांक बिकवाली के भारी दबाव में 2 सप्ताह के निचले स्तर पर आ गया और 29 हजार के मनोवैज्ञानिक स्तर से उतर गया. बावजूद इस के, जानकारों को उम्मीद है कि बाजार उठेगा और इस का संकेत रुपए का मजबूत होता रुख दे रहा है. हालांकि राजनीतिक समीकरणों के बदले रुख के अनुमान से फरवरी के दूसरे सप्ताह की शुरुआत जोरदार झटके के साथ हुई और सूचकांक करीब 5 अंक टूट गया.

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कुशल कामगारों की कमी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘मेक इन इंडिया’ नीति कितनी कारगर होगी यह अनुमान लगाना फिलहाल आसान नहीं है. लेकिन इस बहाने देश के 10 करोड़ युवकों के लिए विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार के अवसर पैदा करने का जो लक्ष्य निर्धारित किया गया है उस से बेरोजगार युवकों में उत्साह है. इस के ठीक विपरीत स्थिति विनिर्माण क्षेत्र की कंपनियों की है. इस की वजह कौशल के आधार पर कामगारों की व्यवस्था पर नजर रखने वाले नैशनल एक्युपेशनल क्लासिफिकेशन कोड का वह डाटा है जिस में कहा गया है कि देश में विनिर्माण क्षेत्र के लिए कुशल कामगारों की भारी कमी है.

कोड का कहना है कि इस क्षेत्र में नौकरी पाने के लिए 90 फीसदी कामगारों का कुशल होना आवश्यक है जबकि 90 फीसदी युवक कालेजों से सीधे निकल कर नौकरी मांग रहे हैं. उन युवकों में ज्ञान, विज्ञान की अच्छी समझ है लेकिन विनिर्माण क्षेत्र के लिए जिस कौशल की आवश्यकता है उस का अभाव है. देश में 4 करोड़ लोग संगठित क्षेत्रों में काम कर रहे हैं लेकिन इन में मात्र 2 फीसदी ही व्यावसायिक प्रशिक्षणप्राप्त हैं. इसी तरह से 70 फीसदी कामगार प्राथमिक अथवा उस से कम स्तर तक पढ़ेलिखे हैं. मुश्किल से 10 प्रतिशत ही व्यावसायिक प्रशिक्षण हासिल किए हुए हैं जबकि निर्माण क्षेत्र में 10 में से एक ही कुशल श्रमिक है. इस की बड़ी वजह है कि आईटीआई कौशल विकास के उचित प्रबंध नहीं हैं. वहां से सर्टिफिकेट तो मिल जाता है लेकिन युवकों को व्यावहारिक ज्ञान उपकरणों की कमी आदि की वजह से नहीं हो पाता है.

राष्ट्रीय कौशल विकास परिषद का हाल ही में एक सर्वेक्षण आया है जिस में कहा गया है कि हालात नहीं सुधरे तो 2022 तक आटोमोबाइल क्षेत्र में 3.50 करोड़, निर्माण क्षेत्र में 1.5 करोड़ तथा ज्वैलरी क्षेत्र में 5 करोड़ कुशल कामगारों की कमी हो जाएगी. सरकार को उस कमी को पूरा करने के लिए सरकारी के साथ ही निजी क्षेत्र के प्रशिक्षण संस्थानों को महत्त्व देने की जरूरत है.

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डिजिटल इंडिया का ‘कमजोर’ सिगनल

देश में इंटरनैट और मोबाइल फोन उपभोक्ताओं की संख्या जिस गति से बढ़ रही है उस रफ्तार से उन्हें यह सेवा उपलब्ध नहीं हो पा रही है. सिगनल्स बहुत ही कमजोर हैं, उपभोक्ता इस से बेहद आहत है. संचार मंत्री और प्रधानमंत्री इस समस्या से अवगत हैं. प्रधानमंत्री ने तो देश में इंटरनैट की गति धीमी होने की वजह जानने के लिए संचार सचिव को रिपोर्ट प्रस्तुत करने को भी कहा था, इसी तरह से संचार मंत्री भी मोबाइल कनैक्टिविटी के कमजोर होने से परेशान हैं. संचार मंत्री का दावा है कि उन्होंने सेवा प्रदाताओं को सेवा में सुधार के लिए सख्त आदेश दिए हैं और जल्द ही उपभोक्ताओं को बेहतर सेवा मिलनी शुरू हो जाएगी. उन का कहना है कि ब्रौडबैंड का सीधा संबंध सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी से है और इस के स्तर पर समझौता नहीं किया जा सकता है.

मंत्री का कहना है कि संचार क्षेत्र में अरबों का कारोबार हो रहा है और उस से 10 लाख लोगों को सीधे और 30 लाख लोगों को अप्रत्यक्ष तौर पर रोजगार मिल रहा है. देश में 90 करोड़ मोबाइल उपभोक्ता और 30 करोड़ लोग इंटरनैट का इस्तेमाल कर रहे हैं. इतने बड़े स्तर पर जिस सेवा की सेवाएं ली जा रही हैं उस में सुधार किया जाना समय की जरूरत है. लेकिन दिक्कत यह है कि इस सेवा क्षेत्र पर निगरानी रखने वाले दूरसंचार नियामक यानी ट्राई के द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार सेवा उपलब्ध कराई जा रही है. इस स्थिति में या तो सेवा प्रदाता के स्तर पर कुछ गड़बड़ी है या फिर ट्राई ने उचित स्तर पर मानक तय नहीं किए हैं. स्थिति जो भी हो, जब सरकार ही इस क्षेत्र की सेवा से खुश नहीं है तो आम उपभोक्ता के संतुष्ट होने की जगह ही नहीं बचती है. ग्रामीण क्षेत्रों में तो सिगनल्स मिलते ही नहीं हैं. उपभोक्ता को बात करने के लिए छतों पर या ऊंचे स्थान पर जाना पड़ता है. सरकारी क्षेत्र के उपभोक्ता तो महानगरों में भी परेशान हैं. पोर्टिबिलिटी में यदि यही स्थिति रही तो डिजिटल इंडिया का सपना किस तरह पूरा हो सकता है.

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जनधन योजना का ‘आधार’ चरण

केंद्र सरकार जनधन योजना को अपनी उपलब्धि की अब तक की सब से सफल योजना बता रही है. यह सचाई भी है. इस से गरीबों के खातों में पैसा भले ही नहीं हो लेकिन उस के हाथ में पासबुक है. इस से कई गरीबों का बैंक खाता होने का सपना पूरा हुआ है. रिकौर्ड समय में रिकार्ड खाते खुले. योजना को कम समय में सर्वाधिक खाता खोलने के लिए गिनीज बुक औफ वर्ल्ड रिकौर्ड्स में भी जगह मिली. जीरो बैलेंस के इन खातों में सूखापन नहीं रहे इसलिए विभिन्न सरकारी योजनाओं में मिलने वाली सब्सिडी को प्रत्यक्ष लाभ अंतरण यानी डीवीटी के जरिए इस योजना से जोड़ दिया गया. मतलब कि रसोई गैस का सिलेंडर दोगुनी कीमत पर खरीदिए और सब्सिडी का पैसा डीवीटी में आ जाएगा. इस का तात्पर्य यह हुआ कि आप का बटुआ तत्काल भरा होना चाहिए. इस से गरीब परेशान है.

बहरहाल, सरकार का कहना है कि योजना का पहला चरण पूरा हो चुका है और दूसरे चरण में इन खातों का उपयोग अब खाताधारक को कर्ज देने, उस के बीमा करने और यहां तक कि उस की पैंशन योजना के लिए भी किया जाएगा. इस के लिए जनधन योजना के सभी खातों को आधार से जोड़ा जा रहा है. ठीक है कि गरीब के लिए आधार नया प्लेटफौर्म होगा लेकिन जरूरत योजनाओं के क्रियान्वयन की है. वृद्धावस्था पैंशन अथवा विधवा पैंशन समय पर मिले, इस के लिए गरीब को तंग नहीं होना पडे़. पैसा आधार से जुड़े या पोस्ट औफिस के जरिए पहुंचे, उस से फर्क नहीं पड़ता. कर्ज मिले अथवा पैंशन, वह समय पर गरीब को उपलब्ध हो, उसे इस से ज्यादा कुछ नहीं चाहिए. गरीब के लिए योजनाएं तब ही फायदेमंद हैं जब जरूरत के समय उसे उन का लाभ मिले. लाभ तब ही मिलेगा जब समय पर उस के पास पैसा पहुंचेगा.

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