लोगों की जिंदगी खेती पर टिकी हुई है, क्योंकि खेती से ही खाना पैदा होता है और खाने के बगैर जीवन मुमकिन नहीं है. लेकिन खेती करने वाले किसानों की जिंदगी एक मजाक बन कर रह गई है. हालात से हार कर किसान मौत को गले लगा रहे हैं.
‘चाहे जेठ हो या हो पूस किसानों को आराम नहीं है.
छूटे कभी संग बैलों का
ऐसा कोई याम नहीं है.
मुंह में जीभ,
शक्ति भुजा में,
जीवन में सुख का नाम नहीं है.
वसन कहां सूखी रोटी भी मिलती सुबहशाम नहीं है.’
किसानों की बदहाली पर रामधारी सिंह दिनकर की यह कविता बरसों पुरानी है, लेकिन आज भी सच है. हाड़तोड़ मेहनत के बाद भरपेट रोटी न मिले तो इनसान क्या करे? पेट की आग जब गरीब की हिम्मत तोड़ देती है तो रूह का परिंदा अचानक पिंजरा तोड़ कर उड़ जाता है. हालांकि मौत को गले लगाना आसान नहीं है, फिर भी लोग खुदकुशी करते हैं. अपना वजूद खत्म करने की वजह माली मजबूरी, दिमागी परेशानी या सामाजिक मामला हो, लेकिन खुदकुशी से मुश्किलें हल नहीं होतीं. नेशनल क्राइम ब्यूरो खुदकुशी करने वालों के सालाना आंकड़े जमा करता है. इस ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक साल 2014 के दौरान देश में कुल 1,31,666 लोगों ने खुदकुशी की. इन में करीब 4 फीसदी यानी 5650 किसान थे. इन में 5178 आदमी व 472 औरतें थीं. खुदकुशी करने वाले किसानों में सब से ज्यादा 44 फीसदी किसान 2 हेक्टेयर से कम जोत वाले थे, 27 फीसदी किसान 1 हेक्टेयर से कम जोत वाले थे और 29 फीसदी किसान 10 हेक्टेयर से कम जोत वाले थे. राज्य सरकारों के मुताबिक करीब 1400 किसानों ने खुदकुशी की और उन में 63 उत्तर प्रदेश के थे.