निर्देशक रमेश सिप्पी की 1982 में आई फिल्म ‘शक्ति’ इसलिए हिट हुई थी कि उस में बौलीवुड के 2 दिग्गज ऐक्टर दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन पहली बार एकसाथ नजर आए थे लेकिन क्राइम और ऐक्शन प्रधान इस फिल्म की कहानी एक ऐसे आला पुलिस अफसर और उस के बेटे पर केंद्रित थी जो निहायत ही उसूल वाला, सख्त और अनुशासनप्रिय है और इतना है कि अपने इकलौते बेटे को अपराधियों के चंगुल से छुड़ाने वह अपनी ईमानदारी से समझता नहीं करता. नन्हा बेटा जिंदगीभर इस हादसे को नहीं भुला पाता और यह मान कर चलता है कि पिता अगर चाहता तो अपराधियों की गिरफ्त से उसे छुड़ा सकता था. ऐसे में उस की जान अपराधियों के ही एक साथी ने बचाई थी. कहानी कुछ ऐसे आगे बढ़ती है कि बड़ा हो कर बेटा इंट्रोवर्ट होता जाता है और फिर स्मगलरों के साथ ही मिल कर गैरकानूनी काम करने लगता है और आखिर में पिता के ही हाथों मारा जाता है.

जरूरी नहीं कि यह या ऐसी ही कोई दूसरी फिल्मी कहानी हर पुलिस वाले की जिंदगी पर लागू होती हुई हो. लेकिन इतना जरूर तय है कि पुलिस वालों के बच्चे आमतौर पर आम बच्चों से कुछ या ज्यादा अलग हट कर ही होते हैं. वे बहुत अच्छे भी हो सकते हैं और बहुत बुरे भी. यह बात उन की पेरैंटिंग पर निर्भर करती है. उम्मीद यह की जाती है कि कानून के रखवालों की संतानें जुर्म का रास्ता अख्तियार नहीं करेंगी लेकिन जब किसी पुलिस वाले की संतान ही कानून अपने हाथ में लेती है तो कठघरे में पूरा पुलिस महकमा खड़ा नजर आता है. ऐसा ही एक हादसा भोपाल में 25 मई की देररात हुआ.

जहांगीराबाद स्थित पुलिस आवासीय परिसर में कुछ पुलिसकर्मियों के बिगड़ैल बेटों ने कोई दर्जनभर खड़ी कारों के कांच तोड़ दिए और कारों में रखे कागजात व नकदी लूट ली. गुस्साए लड़कों ने दूसरी जगह भी ऐसा ही किया. क्यों किया, पूछताछ में यह खुलासा हुआ कि चूंकि आवासीय परिसर के ही लोग उन के देररात आने पर एतराज जताते हैं, इसलिए उन्हें सबक सिखाने की गरज से यह हंगामा बरपाया गया, जिस में कुछ बाहरी लड़कों ने भी इन का साथ दिया. एफआईआर दर्ज हुई और मामला मीडिया में आया तो हर किसी ने यही कहा कि जब पुलिस वालों की औलादें ही ऐसा जुर्म करेंगी तो औरों का क्या दोष. ये पुलिस वालों के लड़के होते ही उद्दंड और बिगड़ैल हैं जिन्हें कानून और पुलिस का डर नहीं रहता. जब अपने ही बच्चों को कानून की इज्जत और लिहाज करना इन के मांबाप इन्हें नहीं सिखा पाए तो मुजरिमों को क्या सुधारेंगे और सबक सिखाएंगे. तो क्या सभी पुलिस वालों के बच्चे ऐसे ही उपद्रवी और कानून तोड़ने वाले होते हैं?

इस सवाल का जवाब न में निकलता है क्योंकि इस उपद्रव की रात कई पुलिस वालों के बच्चे अपनी पढ़ाई भी कर रहे थे. अभी ये बच्चे ‘शक्ति’ फिल्म के पोर्टेबल अमिताभ बच्चन जैसे हैं, जिन्हें वक्त रहते सबक और नसीहत नहीं मिले तो ये बड़े कारनामों को भी अंजाम देने से चूकेंगे नहीं और इस का भी दोष अपने पुलिसकर्मी पिता पर मढ़ते तरहतरह की दलीलें भी देंगे. लेकिन राह भटक चले इन नौजवानों को समझाए कौन कि यह गलत है? बच्चों की आजादी पर असर जब पुलिस वाला पिता ही नहीं सिखा सका तो कोई और क्या खाक इन्हें जिंदगी की ऊंचनीच और भविष्य के बारे में बताएगा कि पुलिस वाले की संतान हो, इसलिए पुलिस से नहीं डरते. लेकिन हर बार बाप का रुतबा और रसूख काम नहीं आएगा. एकाध बार तो बाप अपने अफसरों के सामने रोधो कर, माफी मांग कर तुम्हें बचा लेगा लेकिन अगली या हर बार ऐसा नहीं होगा.

अगर पहली बार में ही तुम्हें थाने में कैद कर आम अपराधियों सरीखी तुम्हारी कंबलकुटाई की जाए तो तुम दोबारा ऐसी जुर्रत नहीं करोगे. पुलिस वाला भले ही हो लेकिन तुम्हारे पिता के सीने में भी बाप का दिल धड़कता है जो तुम्हें थाने की उन यातनाओं और रातभर किस्तों में की जाने वाली मारपिटाई से बचा लेगा जिन से एक बार गुजर कर 90-95 फीसदी लोग दोबारा गुंडागर्दी करने से डरते हैं और जो नहीं डरते वे ‘शक्ति’ फिल्म के अमिताभ बच्चन जैसे पेशेवर मुजरिम बन जाते हैं जिन का हश्र पुलिस की गोली या फिर जेल ही होती है. पुलिस वालों के बच्चे कैसे और बच्चों से अलग होते हैं, इस बाबत भोपाल के ही कोई दर्जनभर पुलिसकर्मियों और उन के बच्चों से बातचीत की गई तो जो बातें उभर कर सामने आईं उन से यह साबित होता है कि जब पुलिस वालों की ही जिंदगी आम लोगों सरीखी आम या सामान्य नहीं होती तो उस का कुछ असर तो बच्चों पर पड़ेगा लेकिन वह हमेशा नकारात्मक हो, यह कतई जरूरी नहीं.

एक कौंस्टेबल ने बताया कि वह थाना इंचार्ज इंस्पैक्टर साहब के बच्चे की ड्यूटी करता है. 15 साल के इस बच्चे को अकेला बाहर नहीं जाने दिया जाता क्योंकि उसे उन अपराधियों से खतरा हो सकता है जो साहब पर किसी बात से खार खाए बैठे हों. यह बच्चा आजादी से दूसरे बच्चों के साथ खेलकूद नहीं सकता. कोचिंग जब भी जाता है तो बाहर मेरी ड्यूटी रहती है. एक तरह से मैं साहब के इकलौते बच्चे का बौडीगार्ड हूं जो पूरे वक्त साए की तरह उस के साथ रहता है. इस पर कभीकभी वह बच्चा झल्ला उठता है और मुझे मेरे नाम से पुकार कर कहता है कि तू पीछा छोड़ यार मेरा. इस बच्चे को पैसों की कोई कमी नहीं है. वह जिस चीज पर हाथ रख देता है वह उसे दिलाई जाती है, साहब उस की कीमत नहीं देखते. उन के पास बेटे को देने का वक्त कम है जबकि पैसा ज्यादा है और वह भी कैसे आता है, यह आप को बताने की जरूरत नहीं.

जाहिर इस बच्चे का मानसिक विकास अपनी उम्र के दूसरे बच्चों की तरह नहीं हो रहा है जो उसे स्वाभाविक तौर पर कुंठित बना रहा है. यह बच्चा सुबह जब स्कूल जा रहा होता है तो टाटा करने के लिए पापा नहीं होते जो अकसर आधी रात को घर आते हैं यानी और बच्चों की तरह वह रात को पापा के गले से लिपट कर उन से गुडनाइट भी नहीं कर पाता. मम्मी जितना हो सकता है उस का उतना ध्यान रखती हैं लेकिन अधिकांश समय वे मोबाइल पर व्यस्त रहती हैं या पड़ोसिनों से गप्पें लड़ा रही होती हैं. वह बताता है, कभीकभी मम्मीपापा में मुझे ले कर कलह होती है तो दोनों एकदूसरे को दोष देते रहते हैं. मम्मी कहती हैं तुम्हारे पास टाइम नहीं तो मैं क्या करूं, जितना हो सकता है ध्यान रखती हूं. लेकिन बच्चे को बाप का भी प्यार मां की बराबरी से चाहिए रहता है. इस पर पापा रटारटाया जवाब यही देते हैं कि तो मैं क्या करूं, पुलिस की नौकरी होती ही ऐसी है कि जिस में खुद के लिए भी वक्त नहीं रहता. सो, तुम लोगों को कहां से दूं. इस कलह से कोई हल नहीं निकलता लेकिन बच्चे के दिमाग पर जरूर बुरा असर पड़ता है. वक्त की कमी पैसों से पूरी नहीं हो सकती. यह बात शायद कुछ पुलिस वालों को समझ आती.

इसलिए वे अपने स्तर पर कोई न कोई इंतजाम कर लेते हैं, मसलन छोटी जगह ट्रांसफर करा लेना और सालदोसाल में लंबी छुट्टी ले कर बीवीबच्चों के साथ घूमने निकल जाना. इस दौरान वे बड़े होते बच्चे को अपनी नौकरी की व्यस्तता और दुश्वारियों के बारे में सलीके से समझ पाने में सफल होते हैं. ट्रांसफर होने का डर एक और सबइंस्पैक्टर की मानें तो एक पुलिस वाले की और भी दिक्कतें होती हैं जिन का असर बच्चों पर पड़ता है. मसलन, बारबार ट्रांसफर होना और जहां पुलिस विभाग के आवास न हों वहां किराए का मकान आसानी से नहीं मिलता. हर मकान वाला यह मान बैठता है कि यह पुलिस वाला है, क्या पता नियमित किराया देगा या नहीं और अगर नहीं दिया तो मैं इस का क्या बिगाड़ लूंगा.

अलावा इस के, रातबिरात देर से आएगा और इस के यहां जो मिलनेजुलने वाले आएंगे भी, इस के ही जैसे लोग होंगे, जिन के कोई नियमधरम नहीं होते. पीता होगा तो और दिक्कतें खड़ी करेगा, इसलिए कौन कुछ पैसों के लिए झंझट मोल ले. इस सबइंस्पैक्टर के मुताबिक, नई जगह जब हम जौइन करने जाते हैं तो अकेला देख मकानमालिक दूर से ही हाथ इन बहानों के साथ जोड़ लेता है कि अभी मकान रिनोवेट कराना है या फिर कुछ दिनों बाद भतीजा पढ़ने के लिए आने वाला है या कि बयाना ले कर मकान का सौदा कर दिया है, कभी भी रजिस्ट्री करनी पड़ सकती है. एक साल पहले मैं सागर से भोपाल आया था तो 6 महीने होटल में रुकना पड़ा था, बाद में जैसेतैसे साथ वालों के सहयोग से मकान मिला. निर्वासित जीवन एक लेडी सबइंस्पैक्टर ने तो और भी दिलचस्प बात बताई कि ‘‘पुलिस वालों की लड़कियों और लड़कों का रिश्ता आसानी से तय नहीं होता क्योंकि सामने वाले की नजर में पुलिस वालों के बच्चों की इमेज अच्छी नहीं होती. और तो और, पुलिस वालों की लड़कियों को तो बौयफ्रैंड भी मुश्किल से मिलते हैं. हंसते हुए यह मिलनसार सबइंस्पैक्टर खुद का उदाहरण देते हुए बताती है कि मेरे पापा भी पुलिस में थे, इसलिए लड़के मुझे प्रपोज करने से डरते थे कि कहीं ऐसा न हो कि किसी चौराहे पर अपने डीएसपी पापा से ठुकाई लगवा दे.

इस युवती के साथ अब नई परेशानी परफैक्ट मैच का न मिलना है. नौकरी या बिजनैस में जमे हुए लड़के और उन के परिवार वाले पुलिस वाली बहू के नाम से ही ऐसे बिदकते हैं मानो वह कोई हौआ हो.’’ फिर कुछ गंभीर हो कर वह बताती है, ‘‘दरअसल हम पुलिसवालियों का कैरेक्टर शक की निगाह में रहता है कि यह तो रातरातभर गैरमर्दों के साथ ड्यूटी करती है, क्या पता क्याक्या करती होगी. पुलिसवालियां आम औरत नहीं होतीं, वे बेलगाम होती हैं. वे घर नहीं चला पातीं वगैरहवगैरह.

वैसे भी, पुलिस महकमा तो पहले से ही बदनाम है. मेरे साथ की 2 सबइंस्पैक्टरों को बेमन से ऐसे लोगों से शादी करनी पड़ी जिन के पति तकरीबन निठल्ले हैं. एक का हमेशा घाटे में चलने वाला छोटा सा बिजनैस है जिस के लोन की किस्तें अब सहेली भरती है तो दूसरा वकील है जिसे कभी अर्जी लिखने का भी काम मिल जाए तो वह खुद को कपिल सिब्बल समझने लगता है.’’ बातचीत के आखिर में वह कहती है, ‘‘लगता है मु?ो भी ऐसे ही किसी लल्लूपंजू से शादी करनी पड़ेगी क्योंकि खुद पुलिसवाले भी पुलिसवाली से शादी नहीं करना चाहते.

पुलिस की जिंदगी की दुश्वारियां और कुछ वास्तविकताएं वे रोजरोज देखते हैं.’’ जब खुद पुलिस वाले समाज का हिस्सा होते हुए भी एक निर्वासित सी जिंदगी जीने को मजबूर हों तो उन के बच्चे तो अलग होंगे ही. भोपाल के एक नामीगिरामी स्कूल की टीचर की मानें तो यह सच है कि पुलिस वालों के बच्चे जिद्दी होते हैं लेकिन दूसरे बच्चों से कम प्रतिभाशाली और कम मेहनती नहीं होते. एक उम्र के बाद उन का गिल्ट या कौंप्लेक्स कुछ भी कह लें दूर हो जाता है लेकिन जिंदगी के सुनहरे 15-16 साल तो उन्हें मुश्किलों में गुजारने पड़ते हैं.

आईपीएस अफसरों के बच्चों के साथ यह दिक्कत नहीं है. उलटे, दूसरे बच्चे उन से दोस्ती करने को बेताब रहते हैं लेकिन उस से नीचे के पद वालों के बच्चों को कुछ दिक्कतें होती हैं जिन्हें अच्छे दोस्त और अच्छा माहौल मिल जाए तो कोई खास मुश्किल पेश नहीं आती. पति अगर पुलिस में है तो पत्नी की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वह पिता की भूमिका में भी रहे और अपनी सामाजिक जिंदगी और हैसियत से बच्चे को परिचित कराती रहे जिस से उस के मन में कोई शंका न रहे.

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