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रेप की घटनाओं में राजनीति ज्यादा, पीड़ित की चिंता कम

बलात्कार की घटनाओं में राजनीति ज्यादा होती है, पीडित के प्रति मर्म कम होता है. मीडिया भी इस तरह की खबरों को ज्यादा महत्त्व देता है. भारत में एक दिन में औसतन रेप की 87 घटनाएं होती हैं. 2017 से 2022 के बीच रेप के मामलों में 13.23 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. 2022 में उत्तर भारत में रेप की 14,260 घटनाएं हुईं जो कि देश में हुई कुल घटनाओं की लगभग आधी हैं. इन में से कुछ घटनाओं को छोड दें तो किसी घटना की चर्चा नहीं हुई.

कोविड के दौरान रेप की घटनाएं कम हुईं. अगर लौकडाउन का प्रभाव न होता तो आंकडे ज्यादा भयावाह होते. रेप के ज्यादातर मामले सामने नहीं आते. जिन मामलों में एफआईआर दर्ज होती है वही सामने आते हैं. घरों के अंदर सगेसंबंधियों द्वारा किए जाने वाले रेप दबा दिए जाते हैं. रेप की जिन घटनाओं में राजनीति का प्रभाव नहीं होता वे अखबारों के किसी पन्ने में एक कौलम की खबर बन कर रह जाती हैं.

पिछले 24 सालों में रेप की सब से चर्चित घटना 2012 में दिल्ली का निर्भया कांड था. यह चर्चित इसलिए था क्योंकि इस के सहारे उस समय की डाक्टर मनमोहन सिंह सरकार के खिलाफ राजनीति हुई. निर्भया रेप मामले के बाद महिला हिंसा विरोधी कानून में कडे बदलाव किए गए. इस को आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम 2013 के रूप में जाना जाता है.

इस कानून में रेप की परिभाषा को विस्तार दिया गया. इस में रेप की धमकी देने को अपराध बताया गया. रेप के मामले में न्यूनतम सजा को 7 साल से बढ़ा कर 10 साल कर दिया गया है. अगर मामले में पीड़िता की मौत हो जाती है या उस का शरीर वेजीटेटीव स्टेट यानी निष्क्रिय स्थिति में चला जाता है तो उस के लिए अधिकतम सजा को बढ़ा कर 20 साल कर दिया गया है. इस के अलावा मौत की सजा का भी प्रावधान किया गया.

निर्भया कांड से पहले सब से अधिक चर्चा में उत्तर प्रदेश के कानपुर का बेहमई कांड था. फूलन देवी नामक महिला ने अपने साथ रेप की घटना के विरोध में 14 फरवरी, 1981 को 20 लोगों की गोली मार कर हत्या कर दी थी. इस के बाद फूलन देवी को जेल हुई. 1994 में समाजवादी पार्टी ने फूलन देवी के सारे मुकदमे वापस ले लिए और उन को पार्टी में शामिल किया. फूलन देवी 2 बार समाजवादी पार्टी के टिकट पर सांसद भी बनीं.

इस तरह की घटनाओं का राजनीतिकरण नया नहीं है. पौराणिक काल से यह सिलसिला चला आ रहा है. जहां महिला के मर्म से अधिक अपने प्रभाव को बढाने के लिए इस का इस्तेमाल किया जाता है. रामायण में अहल्या, सीता और सुपर्णखां के प्रति संवेदना नहीं थी. यही कारण है कि जिन घटनाओं में राजनीतिक लाभ नहीं दिखता वहां रेप के मामलों की चर्चा नहीं होती. अगर एफआईआर दर्ज हो तो खानापूर्ति भर हो कर रह जाती है.

अपनों ने किया रेप नहीं हुई चर्चा:

फर्रुखाबाद जिले में एक पिता ने अपनी 14 साल की बेटी को जान की धमकी दे कर उस से लगातार 2 साल तक दुष्कर्म किया. घरपरिवार में किसी तरह की चर्चा नहीं हुई. इस के बाद उस ने अपनी छोटी बेटी के साथ भी जब दुष्कर्म का प्रयास किया तो बड़ी बेटी ने विरोध किया. दोनों बेटियां रोती हुईं नानी के पास पहुंचीं और पूरी बात बताई. तब नानी दोनों को पुलिस के पास ले गईं. एएसपी के निर्देश पर शहर कोतवाली पुलिस ने पिता के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज की. न घटना मीडिया में बहुत चर्चा का विषय बनी न किसी राजनीतिक दल ने मुद्दा बनाया. इसी तरह का दूसरा मामला उन्नाव जिले के आसीवन थानाक्षेत्र के गांव का है जहां एक युवती ने अपने पिता के खिलाफ दुष्कर्म का मुकदमा दर्ज कराया. बेटी ने आरोप लगाया कि पिता करीब सालभर से शारीरिक शोषण कर रहा है. मां लकवाग्रस्त है और मायके में रहती है. किसी तरह वह भाग कर ननिहाल पहुंची और पूरा वाकेआ बताया. नाना युवती को ले कर थाने पहुंचे और रिपोर्ट दर्ज कराई.

कानपुर में चकेरी थाना के सनिगवां इलाके में पिता ने अपनी ही बेटी से उस समय दुष्कर्म किया जब उस की पत्नी मायके फतेहपुर गई हुई थी. मां के वापस घर आने पर बेटी ने रोरो कर आपबीती सुनाई. मां ने बेटी के साथ चकेरी थाने पहुंच कर रिपोर्ट दर्ज कराई. कानपुर के ही बाबूपुरवा इलाके में रिक्शाचालक पिता ने अपनी ही बेटी को प्रैग्नैंट कर दिया. उस समय लड़की की उम्र महज 13 वर्ष थी. लड़की की मां नहीं है. घटना का पता चला तब किशोरी के पेट में साढ़े पांच माह का गर्भ था.

मऊ के मुहम्मदाबाद क्षेत्र में ऐसी ही घटना सामने आई जिस में पिता ने अपनी 10 वर्षीया नाबालिग बेटी के साथ रेप किया. बेटी ने मां को घटना की जानकारी दी. मां की तहरीर पर पुलिस ने पिता के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज की. वाराणसी के शिवपुर क्षेत्र के एक गांव में पिता ने अपनी बेटी से हैवानियत की. उस ने 8 साल की बेटी के साथ रेप करने की कोशिश की. मासूम ने मां को पिता की हैवानियत बताई तो उस ने विरोध जताया. इस पर उस की पिटाई की गई. मां ने शिवपुर थाने में आरोपी पिता के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराई.

जौनपुर जिले के एक गांव में पिता ने अपनी नाबालिग बेटी के साथ दुष्कर्म किया. आरोपी अकसर नशे में डूबा रहता था. उस की हरकतों से आजिज आ कर उस की पत्नी 3 साल पहले पिता के घर मुंबई चली गई थी. बेटी ने मां को फोन पर घटना की जानकारी दी. मां ने आरोपी पिता के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई. केवल पिता ही नहीं, कई ऐसी घटनाएं भी हैं जहां पति के सामने रेप हुआ. उन घटनाओं पर भी चर्चा नहीं हुई.

राजस्थान के कोटा में पति ही अपने दोस्त को बुला कर अपनी पत्नी से रेप करवाता था. 10 जुलाई, 2024 को दादाबाड़ी थाने में दुष्कर्म व मारपीट सहित अन्य धाराओं में मुकदमा दर्ज किया गया है. पति पत्नी को कौलगर्ल बता कर दोस्त से शारीरिक संबंध बनवाता था. पीड़िता की ओर से दर्ज रिपोर्ट के मुताबिक विवाहिता घटना के बाद अवसाद में चली गई थी. वह अपने पति से तलाक भी नहीं लेना चाह रही थी, लेकिन पति ने लगातार परेशान किया. इस के बाद वह अपने पीहर में रहने लग गई. उस के परिजन चिकित्सक के पास ले कर गए जहां पर उस की काउंसलिंग की गई. इस के बाद पीड़िता ने अपनी मां को पूरा घटनाक्रम बताया.

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के बिजनौर थाना क्षेत्र में युवती के साथ रेप की घटना सामने आई है. युवती को नौकरी के नाम पर गेस्टहाउस में बुलाया गया, जहां कोल्ड ड्रिंक में नशीला पदार्थ दे दिया गया, फिर उस के बाद रेप की घटना को अंजाम दिया गया. पीड़िता के साथ रेप की घटना को अंजाम देने वाला आरोपी पीड़िता के पति का दोस्त है.

उस का लखनऊ के बिजनौर में गेस्टहाउस है, जहां उस ने युवती को नौकरी के नाम पर बुलाया था. युवती जब गेस्टहाउस पहुंची तो आरोपी ने कोल्ड ड्रिंक में उसे नशीला पदार्थ मिला कर दे दिया. जब युवती ने वह कोल्डड्रिंक पी तो कुछ देर में वह बेहोश हो गई. पुलिस ने आईपीसी की धारा 64(1) और 123 के तहत केस दर्ज किया.

चर्चा का कारण होता है राजनीतिक लाभ:

रेप के ऐसे मामले भरे पडे हैं जहां रेप केवल एक घटना बन कर रह जाती है. इस के विपरीत जहां राजनीतिक हित और लाभ होते है वहां रेप की घटना राजनीतिक रूप ले लेती है. अयोध्या जिलें में मोइद नामक व्यक्ति पर 13 साल की नाबालिग लडकी के रेप करने का आरोप लगा. आरोप में कहा गया कि लडकी जब गर्भवती हो गई तो इस का पता उस की मां को चला. तब मां ने पुलिस में मुकदमा लिखाया. मोइद खां समाजवादी पार्टी का नगर अध्यक्ष था. इस कारण मसला राजनीतिक हो गया.

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने विधानसभा में इस मामले की चर्चा की. अधिकारी दबाव में आए तो मामला गरम हो गया. मोइद खां के घर बुलडोजर पहुंच गया. उस के घर-बेकरी को ढहा दिया गया. मोइद और उस का नौकर जेल गया. समाजवादी पार्टी ने बचाव में डीएनए टैस्ट की मांग की. लडकी निषाद बिरादरी की थी तो निषाद पार्टी सक्रिय हुई. डाक्टर संजय निषाद ने समाजवादी पार्टी के पीडीए फैक्टर पर सवाल उठाया, कहा कि अखिलेश यादव उस निषाद जाति के साथ नहीं खडे हुए जिस बिरादरी की फूलन देवी को मुलायम सिंह यादव ने सांसद बनने का मौका दिया था.

उत्तर प्रदेश में विधानसभा की 10 सीटों के लिए उपचुनाव होने वाले हैं. इन में एक सीट अयोध्या जिले की मिल्कीपुर भी है जहां के विधायक अवधेष प्रसाद 2024 के लोकसभा चुनाव में सांसद चुने जा चुके हैं. अयोध्या की हार भाजपा के दिल में कसक बन कर चुभ रही है. चुनावी नजर से देखें तो मोइद खां के बहाने समाजवादी पार्टी को इस रेप कांड के जरिए घेरा जा सकता है. इस कारण यह घटना सुर्खियों में है.

कन्नौज के पूर्व ब्लौक प्रमुख नवाब सिंह यादव पर किशोरी से रेप का आरोप भी चर्चा में है. इस का भी राजनीतिक निहितार्थ है. नवाब सिंह यादव को ले कर सपा और भाजपा में टकराव हो रहा है. भाजपा नवाब सिंह यादव को अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव का सांसद प्रतिनिधि बता रही है. डिंपल यादव जब कन्नौज से सांसद थीं तब नवाब सिंह यादव उन का प्रतिनिधि था. समाजवादी पार्टी नेता उदयवीर सिंह कहते हैं, ‘नवाब सिंह यादव का डिंपल यादव प्रतिनिधि नहीं था. वह भाजपा नेता सुब्रत पाठक का करीबी है. उस के साथ फोटो है. उन का आपस में कारोबारी रिश्ता है.’

सपा ने बयान जारी कर के कहा कि पार्टी ने 5 साल पहले ही नवाब सिंह यादव को पार्टी से बाहर कर दिया है. 2017 के विधानसभा चुनाव में वह समाजवादी पार्टी का टिकट चाहता था. जब टिकट नहीं मिला तो आपसी रिश्ते खराब हो गए. अब वह भाजपा का करीबी है. नवाब सिंह यादव अब भाजपा के कन्नौज से सांसद रहे सुब्रत पाठक का करीबी है. भाजपा के समर्थक नवाब सिंह यादव के साथ अखिलेश यादव और उन की पत्नी डिंपल यादव के साथ फोटो जारी कर रहे हैं तो समाजवादी पार्टी के लोग नवाब सिंह यादव की सुब्रत पाठक के साथ फोटो जारी कर रहे हैं.

10 उपचुनाव में 1 सीट करहल विधानसभा की भी है जहां से विधायक रहे अखिलेश यादव अब कन्नौज से सांसद हैं. उन के इस्तीफे के कारण करहल में उपचुनाव होगा. यह मसला भी चुनाव कोण से जुडा हुआ है. समाजवादी पार्टी नेता जूही सिंह कहती हैं, ‘भाजपा केवल समाजवादी पार्टी को बदनाम करने के लिए रेप की घटनाओं पर राजनीति कर रही है. भाजपा की प्रदेश में सरकार है, वह जांच करे और जो सच हो उस के हिसाब से काम करे. अगर शिकायत झूठी है तो वहां भी एक्शन लिया जाए.’

रेप की तीसरी बडी घटना जो सुर्खियों में है वह पश्चिम बंगाल से जुडी है. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भाजपा के निशाने पर रहती हैं. सरकारी अस्पताल में महिला डाक्टर की हत्या और रेप का मामला पूरे देश में चर्चा में है. बंगाल में रेप की घटना के भी राजनीतिक निहितार्थ हैं. रेप की घटनाओं में जब राजनीतिक लाभ जुड जाता है तो मामला संगीन हो जाता है. जब कोई राजनीतिक लाभ नहीं होता, इन घटनाओं की चर्चा नहीं होती, पुलिस मुकदमा दर्ज नहीं करती, समाज और मीडिया चर्चा नहीं करता है. यही कारण है कि रेप के आरोपी बुहत सारे मामलों में सजा पाने से बरी हो जाते हैं.

जानकारी के अनुसार, 60 फीसदी मामलों में आरोपी बरी हो जाते हैं. अगर सरकार और पुलिस सही मानो में रेप की चिंता करती तो मुकदमा लिखने के लिए सजा दिलाने तक तत्पर रहती. रेप के ज्यादातर मामले पुलिस तक पंहुचते ही नहीं, जो मामले पुलिस तक जाते हैं उन में पुलिस मुकदमा लिखने से बचती है. जब ऊपर से दबाव पडता है तभी मुकदमा और सही आरोपी का नाम लिखा जाता है. रेप में राजनीतिक लाभ देख कर काम होता है. इस से कोई इनकार नहीं कर सकता है.

एक बेहया का पत्र एक बेवफा के नाम

विनायक काफी हद तक सोनम की यादों की गिरफ्त से दूर हो चुका था. उस ने बातों ही बातों में सोनम को बताया था कि वह उस से बेइंतिहा प्यार करता है और उस के बिना जी नहीं सकता पर उस से दूर हुए 2 महीने हो गए थे और वह जी रहा था और खुशीखुशी जी रहा था. सोनम के खयालों में पहले उस का काफी समय बरबाद होता था पर अब ऐसा नहीं है. अब वह औफिस के काम के साथसाथ अपनी हौबीज को भी पूरा समय दे रहा था और यह बात वह सोनम को बताना चाहता था.

‘‘मैं वह नहीं जो प्यार में रो कर गुजार दूं, परछाईं भी यह तेरी ठोकर से मार दूं…’’ उस के जेहन में गाने के बोल तैर गए.

अब न तो सोनम उस के पास आती थी और न वह सोनम के पास जाता था, जबतक आवश्यक औफिशियल काम नहीं होता. मगर अपनी बात सोनम को बतानी तो थी ही. उस ने सोनम को यह बताने के लिए पत्र लिखना मुनासिब सम?ा. लैटर पैड पर उस ने अपने मन के भाव लिख डाले :

‘‘सोनम, ‘‘बहुतबहुत धन्यवाद तुम्हारा. ‘‘अब तुम सोच रही होंगी कि धन्यवाद किस बात का जबकि तुम बेवफाई पर उतर आई हो. दरअसल इसे बेवफाई कहना उचित भी नहीं होगा. मैं ही कौन सा वफादार था. बेवफाई मैं भी कर रहा था अपनी पत्नी से. पत्नी से बेवफाई और तुम से बेहयाई. उधर तुम भी अपने पति से बेवफाई कर रही थीं.

‘‘पर इतना तो तय है कि बेहयाई सिर्फ मेरी ओर से ही नहीं, तुम्हारा भी इस में बराबर का योगदान था. यदि कहूं कि पहल तुम्हारी ओर से ही थी तो शायद तुम भी.

‘‘याद है, आज से 1 साल पहले जब हमतुम धीरेधीरे एकदूसरे की ओर आकर्षित होने लगे थे, तब मेरी क्या स्थिति थी? मैं तेरे प्यार में क्याक्या न बना सोना, कभी बना कुत्ता कभी बना कमीना. तुम्हारे इर्दगिर्द ही मेरा सारा संसार बन गया था.

‘‘ऐसा लगता था कि मेरी कहानी तुम्हीं से शुरू और तुम्हीं पर खत्म हो रही है. तुम भी कुछ ऐसा ही व्यवहार करती थीं, मानों मेरे अलावा तुम्हारा कोई महत्त्वपूर्ण साथी है ही नहीं.

तुम्हारी इन नजदीकियों ने मुझे ऐसा घेरा था कि मैं कहीं का नहीं रह गया था पर तुम्हारा दिल आवारा था, है, और रहेगा. यह मैं नहीं कह रहा, तुम ने ही बताया था कि तुम्हारे 2 बौयफ्रैंड रह चुके हैं और तुम ने शादी तीसरे व्यक्ति से की. चौथा मैं था. इतने तो वे हैं जिन्हें मैं तुम्हारी ही बातों से जान पाया हूं और भी कई होंगे तुम्हारे कई अजीज.

‘‘पर जब तुम्हारा दिल मेरे ही पड़ोसी सुमित पर आ गया तो यह मेरे लिए झटका सा था. याद है, तुम कहती थीं कि सुमित के साथ तुम्हारा कुछ भी नहीं है. वह मेरा मित्र है इसलिए तुम उस से मिलतीजुलती हो. धीरेधीरे तुम्हारे आवारा दिल ने मुझे छोड़ सुमित के दिल को ही डेरा बना लिया था.

‘‘बहुत बुरा लगा था शुरू में. ‘जुबां खामोश, होंठ गुमसुम, आंखें नम क्यों हैं, जो कभी अपना हुआ ही नहीं उस के खोने का गम क्यों है,’ यह जाने किस शायर ने लिखा है पर मैं जिस स्थिति को ?ोल रहा था उसी स्थिति में उस ने लिखा होगा, इतना तो तय है या फिर लेखकोंशायरों का क्या है, आपबीती से ज्यादा जगबीती से लिखने की क्षमता होती है उन में. परकाय प्रवेश और परकाल प्रवेश उन के लिए सामान्य बात है.

‘‘पहले बहुत बुरा लगा था. लगता था कि मेरी दुनिया ही उजड़ गई. लगा देवदास बन जाऊंगा पर तुलसीदास बनना ज्यादा उचित लगा. देवदास पारो के प्यार में शराबी बन गया था. तुलसीदास पत्नी की फटकार से महाकवि बन गए थे. मैं न देवदास था न तुलसीदास पर जो भी हूं तुम्हारी और अपनी बेवफाई और बेहयाई से उबर कर कुछ काम करने लगा हूं. पहले दिन बिताना मुश्किल होता था. अब काम में इतना व्यस्त हो गया हूं कि दिन कब बीतता है पता ही नहीं चलता है.

‘‘तो एक बार फिर से तुम्हारा बहुतबहुत धन्यवाद. बस, यही सोचता हूं कि कुछ महीनों के बाद तुम्हारा आवारा दिल सुमित से उचाट हो कर किसी और पर चला जाएगा तो सुमित का क्या होगा.’’

विनायक ने पत्र को लिफाफे में डाल कर बंद कर दिया. दफ्तरी को देते हुए आदेश दिया कि सोनम मैडम को दे देना. दफ्तरी पत्र ले कर चला गया. विनायक को लगा कि उस ने सोनम की बेवफाई का जोरदार जवाब दे दिया है. निश्ंिचत हो कर वह अपने काम में व्यस्त हो गया.

दूसरे दिन केबिन के दरवाजे पर किसी ने नौक किया. विनायक अपने कंप्यूटर पर कुछ काम कर रहा था. उस ने सोचा कि कैंटीन से कोई होगा.

‘‘अंदर आ जाओ,’’ उस ने कहा पर अपनी स्क्रीन पर निगाहें जमाए रहा, यह सोच कर कि चायवाला चाय रख कर जाएगा. थोड़ी देर के बाद उसे एहसास हुआ कि वह वहीं खड़ा है. उस ने नजरें ऊपर उठाईं. देख कर दंग रह गया कि सामने सोनम खड़ी थी.

एक पल को उसे लगा कि उस की चिट्ठी ने असर डाला है और सोनम उस के पास वापस आ गई है पर सोनम के चेहरे पर कठोरता के भाव थे. उस की आंखें अंगारे बरसा रही थीं.

एक पल को विनायक समझ ही नहीं पाया कि वह क्या कहे. उस ने सोनम को बैठने के लिए नहीं कहा. सिर्फ प्रश्नभरी निगाहों से देखता रहा.

सोनम सामने कुरसी पर बैठ गई. कठोर निगाहों से उसे देखते हुए बोली, ‘‘हम वह नहीं जो प्यार में रो कर गुजार दें. प्यार का मतलब भी पता है तुम्हें? तुम से मैं प्यार नहीं करती, सिर्फ दोस्ती थी तुम से. सुमित से भी सिर्फ दोस्ती ही है और कोई भी आदमी इस बात के लिए स्वतंत्र है कि वह किस से दोस्ती रखे, कब तक रखे और तुम ने किया क्या है मेरे साथ? सिर्फ गंदे चुटकुले शेयर किए, कुछ चौकलेट्स, मिठाइयां खिला दीं तो मैं गुलाम हो गई तुम्हारी? और मैं अपने पति से बेवफाई कर रही हूं? किसी पुरुष सहकर्मी के साथ मित्रता रखना बेवफाई है क्या? तुम्हें क्या लगता है कि सुमित के साथ मैं उस के केबिन में शारीरिक सुख भोगती हूं? याद करो खुद के साथ बिताए क्षण. दोस्ती अलग बात है पर शारीरिक संबंध बनाना आसान नहीं. क्या मैं ने तुम्हें कभी शारीरिक संबंध बनाने का मौका दिया?

तुम अपनी पत्नी से बेवफाई कर रहे होगे क्योंकि तुम्हारे मन में ऐसी आशा रही होगी. मैं अपने पति से बेवफाई नहीं कर रही,’’ सोनम उत्तेजना में बोले जा रही थी. बोलते समय उस के हाथ हवा में लहरा रहे थे. उस के हाथ में कागज का एक टुकड़ा था जो निश्चित ही वही पत्र था जो कल विनायक ने उसे भेजा था.

उस ने बोलना जारी रखा, ‘‘और रही बात पहले के 2 बौयफ्रैंड्स की, तो किसी भी व्यक्ति के जीवन में कई फ्रैंड हो सकते हैं. इस का यह मतलब नहीं कि सभी के साथ शारीरिक रिश्ता रखा जाए और तुम मेरे बौयफ्रैंड कभी नहीं रहे, सिर्फ कलीग हो. हां, अपने सरल स्वभाव के कारण मैं किसी के साथ ज्यादा घुलमिल जाती हूं. तुम्हारे साथ भी यही हुआ और सुमित के साथ भी यही है. फिर आने वाले दिनों में किसी और के साथ अच्छी दोस्ती हो सकती है और इस से यदि सुमित को आपत्ति होगी तो मैं परवा नहीं करती. मेरा जीवन मेरा है और इसे मैं कैसे जीऊंगी, इस का निर्णय मैं करूंगी, मेरा कोई दोस्त या कलीग नहीं.

‘‘रही बात मेरे पति की तो सुख में, दुख में मेरा साथ उन्होंने ही दिया है और वे ही देंगे. जबतक मुझे तुम्हारा साथ अच्छा लगा तुम से दोस्ती की, अब मुझे सुमित का साथ पसंद है तो उस से दोस्ती है, कल किसी और का साथ पसंद होगा तो उस से दोस्ती होगी. यह परस्पर पसंद की बात है. और हां, तुम्हारे लिए स्पष्ट चेतावनी है कि कभी मुझे बेवफा या बेहया साबित करने की कोशिश मत करना. बेवफाई तुम कर रहे होगे अपनी पत्नी से क्योंकि तुम मु?ा से शायद नाजायज संबंध की अपेक्षा रखते थे, बेहया भी तुम ही हो क्योंकि तुम किसी के व्यक्तिगत जीवन में दखलअंदाजी करते हो. तुम्हारा यह पत्र मेरे पास है, अमानत के रूप में. एक शिकायत तुम्हें कहां पहुंचा देगी तुम समझ सकते हो.’’

विनायक भौचक हो सोनम को देखता रहा. सोनम हाथ में उस की चिट्ठी लिए केबिन का दरवाजा खोल तूफान की तरह जा चुकी थी.

कोई लौटा दे मेरे बीते दिन

सुबह से अपने कमरे में बैठेबैठे में उक्ता सी गई थी. करने को कुछ था नहीं और करना भी चाहती है तो शरीर साथ नहीं दे रहा था. नाश्ता मुझे अपने कमरे में ही मिल जाता, फिर थोड़ा आराम कर के मैं अखबार पढ़ती. लगभग 11 बजे मैं अपने वाकर के सहारे बड़ी मुश्किल से कमरे से बाहर बरामदे तक जा पाती.

गठिया के कारण जमीन पर पांव घसीटघसीट कर चलना अब मेरी नियति बन चुकी थी. बस, यही रोज का क्रम था मेरा.

कमरे में मैं ने एक व्हीलचेयर भी रखी हुई थी पर उसे चलाने वाला कोई नहीं था. मैं अपने पांवों को भी चेयर पर नहीं टिका सकती थी. और वाकर ले कर भी मैं उस समय चलती थी जब मुझे कोई देख नहीं रहा होता. मैं 10-15 कदम भी नहीं चल पाती और लडख़ड़ा जाती. फिर चोरीचोरी इधरउधर देखती कि कोई मुझे देख न ले, नहीं तो ताने सुनने पड़ते. इस घर में आए मुझे 6 महीने से अधिक हो गए थे. कहने को मेरे सब थे मगर अपना कोई नहीं था जो मेरे खून के रिश्ते से बंधा हो. भाई सडक़ हादसे में कुछ समय पहले ही गुजर गए थे, भाभी इस घर  में अपने बेटे राहुल और बहू रेवती के साथ रहती थी.

बंसी उन का नौकर था जो हमेशा बड़बड़ाता ही रहता था.

मैं नहीं चाहती थी कि किसी पर बोझ बनूं, परंतु सच तो यह है कि वह तो मैं बन ही चुकी थी. अपने जूठे बरतन किचन में रखने जाती तो दूर से ही वह टोक देती, ‘दीदी, आप किचन में मत आया करो.’

‘मैं तो बस अपने बरतन रखने आ रही थी.’

‘मैं बरतन खुद ही उठा लूंगी, नहीं तो बंसी उठा लाएगा. कहीं चलतेचलते गिर पड़ी तो अस्पताल के चक्कर कौन लगाएगा. आप प्लीज अपने कमरे में ही रहा कीजिए. मुझे सुबहसुबह और भी कई काम होते हैं,’ यह कह कर वह चली जाती.

अब तक में जान चुकी थी कि वह जबान से भले ही तेज हो पर मन की साफ और प्रैक्टिकल थी. वह जैसी बाहर से थी वैसी ही भीतर भी. काश, मैं ने उस का यह गुण पहले ही अपना लिया होता तो आज मेरी यह हालत न होती.

10 बजे से पहले यदि बिस्तर से नीचे मैं पांव रख देती तो बंसी टोक देता, ‘अभी फर्श गीला है. कहीं फिसल गई तो मेमसाहब मुझे डांटेंगी. आप को जो चाहिए, मुझे बताइए, मैं यहीं ले कर आ जाऊंगा.’ यह कह कर वह भी अपना भद्दा सा मुंह बना कर चला जाता.

उन की बातें नश्तर बन कर दिल पर चुभतीं पर मैं कर भी क्या सकती थी. और जाऊं तो जाऊं भी कहां. वक्त जिंदगी की दशा यों बदल देगा, पता न था.

जैसा कि मैं ने पहले बताया, मेरे लिए कमरे से बरामदे तक चलना भी मुश्किल हो गया था. गठिया के कारण पांव के अंगूठे पर उंगलियां टेढ़ीमेढ़ी हो कर चढ़ गई थीं, कमर भी काफी झुक गई थी और बड़ी मुश्किल से मैं सीधा चलने का प्रयास करती. उन के सामने तो मैं बहुत नापतोल कर चलती. इस के अलावा और भी कई रोग शरीर में पनप रहे थे. मैं अपने दुखों को शेयर करती भी तो किस से. इस कालोनी में मैं किसी को जानती भी नहीं थी, थोड़ा चल पाती तो पास के मंदिर तक ही चली जाती. मेरी हालत भी बिगड़ती जा रही थी. मैं बीमारी से ज्यादा उपेक्षा और अकेलेपन का शिकार थी. मैं ने आज तक किस का भला किया था जो मेरे लिए कोई अपना काम छोड़ कर मुझे अस्पताल तक ले जाता, मेरे पास कुछ क्षण बैठता.

रात को एक बार बाथरूम जाने से पहले ही मेरा पेशाब निकल गया और मैं फिसल गई. आवाज सुन कर पहले रेवती आई और फिर बंसी. उन्होंने सारा फर्श साफ किया और मेरे कपड़े बदले. तब से उन्होंने रात के लिए मेरे लिए एक आया रख दी और मुझे डाइपर पहनने के लिए मजबूर होना पड़ा. आया मुझे सुबह ही नहलाधुला कर चली जाती.

लगभग 10 बजे तक सभी लोग अपनेअपने औफिस चले जाते. बस, रह जाती मैं और मेरी तनहाई. न कोई अपना न पराया, न कोई सुध लेने वाला न कोई सुखदुख का साथी, न कोई न रागद्वेष. बस, किसी तरह जिंदगी को ढोए जा रही थी. फिर शिकायत करती तो किस से. मेरा कियाधरा ही तो सामने आ रहा था.

कालेज से रिटायर होने के बाद मुझे ग्रेच्युटी भी काफी मिली और मैं ने जोड़ा भी काफी था. वहीं, मां के मरने के बाद भैयाभाभी ने उन का भी सारा पैसा मेरे नाम कर दिया था. पर यह सब अब मेरे किसी काम का न था. न भाभी मुझ से पैसे लेती और न ही कहीं देने देती. मैं ने उन्हें रुपएपैसों को ले कर सारी उम्र ताने ही तो दिए थे. और अब यह सारा पैसा मेरे भी किसी काम में नहीं आ रहा था. इन हालात में मुझे न तो कोई वृद्धाश्रम में रखने को तैयार था और न ओल्ड एज होम में. काश, मैं ने सोचा होता कि मैं भी कभी बूढ़ी, असहाय हो जाऊंगी, शरीर भी धीरेधीरे मेरा साथ छोड़ देगा. समय रहते अपने लिए कोई घरवर तलाश कर लेती, अपनी जिंदगी से समझौता कर लेती तो आज बात ही कुछ और होती.
राहुल और रेवती से मेरा संबंध लगभग न के बराबर था. उन के लिए मैं इस घर में एक अवांछित सदस्य थी. उन के जाने के बाद ही मुझे थोड़ा सुकून मिलता कि अब मैं स्वतंत्रता से घूम सकती हूं. बाहर बरामदे में मुझे बंसी चाय बना कर दे गया. मैं ने बड़ी मुश्किल से अपने पैरों को सामने की कुरसी पर जैसेतैसे रखा और सडक़ पर आतेजाते लोगों को देखने लगी. बंसी अपने कमरे में नहाने चला गया.

आज न जाने क्यों रहरह कर मुझे अपना अतीत कचोट रहा था. गुजरे कई वर्षों की छाप ने मुझे ऐसे गर्त कमरे में ढकेल दिया, जहां बहुत अंधेरा था. मैं अकेली बैठी अपनी जिंदगी के किताब के पन्ने पलटती रही और एकएक पड़ाव को जांच रही थी.

मुझे अच्छी तरह याद है, भैया जब भाभी को ब्याह कर घर लाए थे तो भाभी की साड़ी दरवाजे के हैंडल में उलझ कर रह गई और वह शगुन के थाल के साथ ही गिर पड़ी. मम्मी तो बड़बड़ाती हुई एक तरफ चली गई कि यह तो बहुत अपशकुन हुआ पर मैं ने तुनक कर ताना कसा, ‘क्या भैया, आप कैसी भाभी लाए हो जो खुद संभल कर तो चल नहीं सकती, घर क्या खाक चलाएगी,’ और ठहाका मारकर में हंसने लगी. मेरे साथ मेरी सहेलियां और रिश्तेदार भी चुहल में व्यस्त हो गए. भैया कुछ नहीं बोले. वह हाथ पकड़ कर उन्हें उठाने लगे तो मैं ने कहा, ‘उठाओउठाओ, गिरे हुए को उठाना ही तो आप का काम है.’

भैया अपनी पसंद की लडक़ी को ब्याह कर लाए थे, इसलिए वे चुप थे. मम्मी को यह लडक़ी शुरू से ही पसंद नहीं थी, फिर भी भैया का मन रखने के लिए उन्होंने हां कह दी. मैं मां के साथ उन के कमरे में चली गई. एकएक कर के सभी रिश्तेदार भी अपनेअपने घर चले गए और फिर भाभी का किसी ने स्वागत नहीं किया.

सुबह न तो उन को मम्मी ने किचन में ले जा कर कोई रस्म अदा की और न ही ठीक से कोई बात की. वह तैयार हो कर ड्राइंगरूम में जा कर बैठ गई. मैं ने किचन में जा कर अपनी चाय बनाई और अपने कमरे में चली गई. किचन से मेरे कमरे का रास्ता ड्राइंगरूम से ही हो कर जाता था. मैं ने जानबूझ कर उन्हें अनदेखा किया.

तब तक भैया भी आ गए थे. उन्होंने भाभी को ऐसे बैठा देख कर तीखे स्वर में कहा, ‘मम्मी, यह क्या है, नई बहू का स्वागत करने का यही तरीका है. वह बेचारी ड्राइंगरूम में बैठी है और आप हैं कि…’

इस से पहले कि मम्मी अपने कमरे से निकल कर आती, मैं ने कहा, ‘वाह भैया, एक ही रात में तुम्हारे तो रंगढंग ही बदल गए. मैं और मम्मी तो जैसे कुछ हैं ही नहीं.’

‘तो इस ने गलत क्या कह दिया. मां ने एक कमजोर सी दलील दी. बात आई गई हो गई. पापा घर की किसी बात में कोई टीकाटिप्पणी नहीं करते थे. पापा तो बस पापा थे. न किसी बात की खुशी न शिकवा न शिकायत. करते भी तो कैसे. तमाम उम्र तो उन्होंने मर्चेंट नेवी में बिता दी. कभी सालछह महीने बाद घर आते तो कभी सालभर बाद. घर के सारे फैसले मम्मी ही लिया करती. मम्मी बहुत सारी बातें उन से छिपा भी लेती थी. पापा का एक ही मकसद था कि रिटायर होने के बाद सुखचैन की जिंदगी बिता सकूं. कुल मिला कर मम्मी ने ही हम भाईबहन को पढ़ायालिखाया था.

मम्मी शुरू से ही तुनकमिजाज और तीखा बोलने वाली थी. अपने गलत उसूलों को सही ठहराने के लिए सौ झूठ का सहारा भी लेना पड़े तो वह पीछे नहीं हटती. और कोई झूठ पकड़ा जाता तो अकेली औरत होने का बहाना बना कर साफ बच जाती.

हर महीने दूधवाले, अखबार वाले, कामवाली बाई और कूड़े वाले कि कोई न कोई गलती निकाल कर उन के पैसे काटना जैसे उन का अधिकार बन गया था. और उन की इतनी कडक़ आवाज के सामने कोई भी बेचारा उन के चुप होने तक अपनी खैर मनाता. आज मैं उन को बेचारा ही कहूंगी क्योंकि उन को काम की जरूरत थी और मैं तो हमेशा मम्मी की ही तरफदारी करती रही. वे सब लोग हमेशा अपने पैसे कटवा कर भी अपना काम करते रहते. मम्मी के सामने भला किसी की क्या मजाल कि अलिफ से बे तक कुछ कह सके.

उन के हावभाव का मुझ पर भी असर तो पढऩा ही था. मैं भी तुनकमिजाज और बदजबान होती गई.

मेरी समझ में भी धीरेधीरे आने लगा कि लोगों से काम करवाना हो तो अपने नारी होने का फायदा उठाओ. मम्मी तो जैसे मेरा रोलमौडल थी.
वक्त गुजरता गया. भैया मुझ से 3 साल छोटे थे. शादी तो पहले मेरी होनी चाहिए थी. पर मम्मी ने उलटी चाल चली. भैया के दहेज में आने वाला समान मेरे लिए जमा करना शुरू कर दिया.

भाभी की महंगी साड़िय़ां, मिक्सर ग्राइंडर, एलईडी, पोर्सलिन का डिनर सेट, चांदी की कटलरी और जाने क्याक्या मेरे लिए समेट कर रख दिया. हमारे घर में रुपएपैसों का अभाव नहीं था, फिर भी मम्मी खर्च करने में बहुत कंजूस थी. आज मम्मी तो नहीं रही, पर उन का कंजूसी से जुड़ा हुआ पैसा किसी काम का नहीं रहा.

भाभी मम्मी के आगे क्या कहती, उन्हें तो इसी घर में रहना था. भैया कभी मम्मी की तारीफ करते तो कभी भाभी की. दरअसल, मम्मी चाहती ही नहीं थी कि बेटाबहू एक हो जाए, कोई न कोई बहाना बना कर अपने सास होने का फर्ज निभाती.

पढ़ाई में तो मैं शुरू से ही तेज थी. एमए इकोनौमिक्स में करने के बाद बीएड किया और पास ही के एक पब्लिक स्कूल में पढ़ाने लगी. लगभग 3 बजे तक घर आ ही जाया करती थी.

कुछ दिनों में मेरी शादी तय हो गई. मैं भी मम्मी के सारे दांवपेच समझ कर ससुराल आ गई. मेरे पति बैंक में काम करते थे. इस तरह मैं दिल्ली से जयपुर आ गई. मेरे सासससुर के अलावा देवर भी साथ ही रहता था. हमारे कुछ दिन तो हंसीखेल में बीत गए पर जब कल्पना के लोक से धरातल पर आई तो पता चला कि जिंदगी वैसी नहीं है जैसा में समझती थी और जैसा मुझे समझाया गया था. पति के औफिस चले जाने के बाद सारा दिन सासससुर के साथ रहना मुझे अटपटा सा लग रहा था क्योंकि मैं ने कभी यह सीखा ही नहीं था. और न ही मैं सुबह से शाम तक घर के कामों में उलझ सकती थी. मैं ने कभी चूल्हेचौके में जाना सीखा ही नहीं था. मम्मी नौकरों पर निर्भर थी और भाभी के आने के बाद तो हर छोटेबड़े काम मैं उन से ही करवाती.

थकहार कर जब शाम को पति घर आते तो मैं सारे दिन के गिलेशिकवे करती. वे इस बात को हंसखेल कर टाल जाते, ‘धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा, शुरूशुरू में ऐसा ही होता है. थोड़ा एडजस्ट करना सीखो.’ और सुबह उन के औफिस जाने के बाद मैं घंटों मम्मी से बात कर के अपना दुख हलका करती.

मम्मी ने एक दिन रास्ता सुझाया, ‘अभी कुछ दिन और एडजस्ट कर लो, फिर बाद में नौकरी कर लेना. आधा दिन तो यों ही बीत जाएगा और बाकी का आराम में.’

‘मुझे नहीं लगता वे नौकरी के लिए मानेंगे. उन की बातों से लगता है कि उन्होंने शादी अपने मातापिता के लिए की है ताकि कोई तो उन के पास रहे.’

‘ऐसा थोड़ी होता है,’ मम्मी बिफर कर बोली, ‘8 घंटे सोने में जाते हैं, 4 घंटे पति के साथ और सासससुर के लिए 12 घंटे?’ यह कह कर उन्होंने सीधासीधा गणित के साथ समझा दिया, वाह.’

इकोनौमिक्स के स्टूडैंटट मैं थी पर हिसाबकिताब और तर्क में मम्मी का कोई जोड़ नहीं था. मैं खुश हो गई. ‘ठीक है, मैं आज ही इन से बात करती हूं.’

‘यह इन से उन से वाले डायलौग छोड़, सीधासीधा नाम ले कर बुलाया कर और हां, उस की समझ में न आए तो अगली बार जब तुम यहां आओगे तो मैं समझा दूंगी. उसे पत्नी चाहिए या उस के मातापिता की सेवा और बच्चे पैदा करने वाली औरत.’

परंतु आज मानती हूं कि पारिवारिक संबंधों में यह गणित काम नहीं करता. मेरी जिंदगी का सब से खराब पक्ष यह था कि मैं कोई भी निर्णय स्वयं नहीं ले पाती थी. इसलिए हर छोटीबड़ी बातों को मम्मी से शेयर करती. मम्मी ने मुझे यह पहले ही समझा दिया था कि पति से कोई बात मनवानी हो तो अंतरंग पलों में उस से दूरी बना लेना और पास मत आने देना. नारी का संग पुरुष की सब से बड़ी कमजोरी होती है और इसी कमजोरी का फायदा उठाना सीखो.

फिर क्या था. मैं ने सासससुर से भी दूरी बनानी शुरू कर दी और उन की बहुत सारी बातों को अनसुना कर देती. कुछ दिनों पहले मुझे मेरी एक किटी पार्टी की सहेली ने बताया कि जयपुर के पास वनस्थली में एक लैक्चरर की आवश्यकता है. मेरी योग्यताएं उस में पूरी तरह अनुकूल बैठती थीं. मैं ने शाम को पति से इस बारे में बताया तो वे बोले, ‘वनस्थली विद्यापीठ पहुंचने में ही 2 घंटे चाहिए. इतनी दूर रोजाना जाना संभव नहीं है. तुम्हारा सारा दिन इसी भागदौड़ में लग जाएगा, फिर घर कब पहुंचेगी और मम्मी की तबीयत भी ठीक नहीं रहती.’

‘तो आप ने मुझे नौकर समझ रखा है. पहले बाजार से सामान लाती रहूं, फिर उन की सेवा करती रहूं और सारा दिन किचन में लगी रहूं. ऐसा ही था तो किसी गांव वाली को ब्याह कर लाते,’ मैं तुनक कर बोली. बहुत दिनों से वैसे भी मेरा मन भरा हुआ था.

‘मैं तुम को नौकरी के लिए मना नहीं कर रहा, परंतु इतनी दूर जाने का क्या फायदा. फिर मैं तो तुम्हारे भले के लिए ही कह रहा हूं. इस से तो अच्छा है कोई आसपास ही कोई काम कर लो.’

‘वनस्थली यूनिवर्सिटी है. उस में काम करने का मौका बहुत कम लोगों को ही मिलता है. फिर वहां मेरा एक स्टेटस होगा, अच्छा पैकेज होगा.’ मैं ने उन को समझाया.

‘परंतु मुझे यह समझ में नहीं आता,’ कह कर उन्होंने अपना निर्णय सुना दिया.

मैं जलभुन कर रह गई.

समझौता करना तो मम्मी ने सिखाया ही नहीं था और मुझ पर कोई अपना निर्णय थोपे, यह मैं सह नहीं सकती थी. फिर एक दिन वही हुआ जिस का मुझे एहसास था. मेरी सास गठिया के कारण ठीक से चलफिर नहीं पाती थी. एक दिन चलतेचलते वह फिसल गई. मैं ने भी जानबूझ कर उन पर कोई ध्यान नहीं दिया. चाय बनाई और अपने कमरे को बंद कर के मम्मी से बातें करती रही. बीचबीच में मैं ने ससुरजी के पुकारने की आवाज भी सुनी और अपने दरवाजे पर दस्तक भी.

मैं ने जानबूझ कर सबकुछ अनसुना कर दिया, फिर बातें करतेकरते कब आंख लग गई, पता ही नहीं चला. काफी समय बाद मुझे दरवाजे पर तेजतेज आवाज सुनाई दी. मैं हड़बड़ा कर उठी और दरवाजा खोलते ही भडक़ उठी, ‘क्या हुआ, अभी आती हूं न.’

मैं ने दरवाजे पर पति को खड़े देखा. मुझे घूर कर वे देखते हुए बोले, ‘आज तो तुम ने हद ही कर दी. मम्मी फिसल कर नीचे गिर पड़ी है और तुम अपने कमरे में आराम फरमा रही हो. इतना तो कोई गैरों के साथ भी नहीं करता.’ 

‘तो क्या करूं मैं, अस्पताल ले कर जाऊं क्या? आ तो रही थी. आप को बुलाने की क्या जरूरत थी. ये क्या जतलाना चाहती हैं कि मैं आप के पीछे उन का कोई ध्यान नहीं रखती.’

‘ध्यान रखती होती तो मुझे क्यों आना पड़ता. अब तुम पड़ी रहो अपने कमरे में. मैं मम्मी को ले कर अस्पताल जा रहा है और करती रहो अपनी मम्मी से बातें.’

हमारी गरमागरम बहस हुई और मैं ने अपने कमरे में जा कर दरवाजा बंद कर लिया. इधर वे मम्मी को ले कर अस्पताल गए उधर मैं ने अपनी मम्मी को सारी रामायण सुना दी और जोरजोर से रोने लगी. मम्मी ने सीधा वही कहा जो मैं सुनना चाहती थी. मैं वापस मम्मी के पास दिल्ली लौट गई. बाद में पता चला कि उन की मम्मी के कूल्हे की हड्डी में फ्रैक्चर हो गया है. ऐसे समय में मुझे वहां होना चाहिए था परंतु मेरे अहं और जिद ने मुझे वहां जाने नहीं दिया. मम्मी ने तो साफ कह दिया कि ऐसे घर में क्या जाना जहां लोगों की देखभाल करती रहो जैसे मेरा कोई वजूद ही न हो.

‘तू चिंता न कर बेटी. तेरे लिए कोई दूसरा घरवर देखूंगी. मैं जानती हूं उन से कैसे निबटना है.’ मुझे बहुत बाद में पता चला कि मेरे पति ने मुझ से कई बार संपर्क करने की कोशिश की थी परंतु मम्मी ने कोई न कोई बहाना बना कर उन्हें प्रताडि़त किया था.

फिर न कभी उन्होंने बुलाया, न मेरे पति आए और न मैं वहां गई. काश, मैं वहां चली जाती, उस समय उन के घरसंसार में अपनी एक जगह बना लेती तो उम्र के इस पड़ाव में उपेक्षित और तिरस्कृत हो कर जीवन न बिताना पड़ता. यह शादी 3 महीने भी न चली और हमारा अलगाव हो गया, वह तो होना ही था.

पापा को इस बात का पता बहुत दिनों बाद चला. वे तो चाहते थे कि मैं वापस चली जाऊं परंतु मेरी जिद और अहंकार आड़े आ गया, ऊपर से मम्मी का रौद्र रूप. अपनी इज्जत बचाने के लिए मम्मी ने पासपड़ोस और मिलने वालों से झूठी कहानियां कहीं कि वे सब उन की बार्तों का ही विश्वास करने लगे. वहशी, कपटी, दरिंदा, जंगली, दहेज लोलुप, उग्र स्वभाव का और न जाने क्याक्या मेरे पति को उपमा देने लगी. मैं सब सुनती और मम्मी की बातों में नमकमिर्च लगा कर बता देती.

तलाक के बाद मैं मम्मी के घर आ गई और यहीं एक पब्लिक स्कूल में पढ़ाने लगी. घर में रहतेरहते मम्मी ने मुझे यह भी घुट्टी पिला दी थी कि यदि भाईभाभी एक हो गए तो वे हमारी इज्जत करना बंद कर देंगे. और ढलती उम्र में कोई उन को सहारा देने वाला भी नहीं मिलेगा. मैं रोज भाभी को किसी न किसी बात पर नीचा दिखाने की ताक में रहती. कभी जानबूझ कर दाल में नमक ज्यादा डाल देती तो कभी भैया के पैसे छिपा देती. भाभी यह सब शायद जानती थी पर बोलती कुछ नहीं. वह जानती थी कि कुछ भी बोलेंगे तो मम्मी सारा घर सिर पर उठा लेंगी.
उस दिन वही हुआ जो नहीं होना चाहिए था. सुबहसुबह मेरे पास आ कर भैया बोले, ‘जिद्दी, मेरी पैंट तुम ने मशीन में डाली है क्या?’

‘कौन सी पैंट?’ मैं ने अनजान बनते हुए कहा.

दरअसल जब मैं नहाने गई थी तो दरवाजे के पीछे लटका देखा. मुझे शरारत सूझी. उस की पैंट में पैसे देख कर मैं ने उसे मशीन में डाल दी. भैया को जब पता चलेगा तो भाभी की लापरवाही पर उस पर जरूर बरसेंगे.

‘वही जो बाथरूम में दरवाजे के पीछे टंगी थी. तुम नहीं जानतीं आज मेरा कितना बड़ा नुकसान तुम ने कर दिया,’  गुस्से से लाल पीले हो गए भैया आगे बोले, ‘रात को ही मैं ने रेवती को बताया था कि पैंट की जेब में से चैक निकाल लेना. उस का अभीअभी फोन आया है कि वह चैक निकालना भूल गई. और तुम कहती हो कौन सी पैंट. फिर, तुम ने कब से कपड़े धोना शुरू कर दिया. शर्म आनी चाहिए तुम्हें.’

‘भैया, आप मुझ पर उलटासीधा इलजाम लगा रहे हैं. मैं क्यों कपड़े मशीन में डालूंगी. कपड़े धोना तो भाभी का काम है न.’

‘तो फिर मेरी पैंट मशीन में कैसे पहुंची,’ वे आग बबूला हो उठे, ‘अपना घरसंसार तो तुम से संभला नहीं, फिर इस घर में क्यों आग लगा रही हो. मैं तुम्हारे हावभाव को नहीं जानता क्या.’

तब तक मम्मी आ गई, ‘क्या हुआ, क्यों चिल्ला रहा है?’

‘मम्मी, आप बीच में न बोलो, तो अच्छा है. सुबहशाम मैं आप लोगों की शिकायतें और ताने सुनते आया हूं. दीदी को अपने घर बैठा लिया. उस के लिए कोई अच्छा घरवर देख कर विदा करो,’ कह कर वे मशीन से पैंट निकालने लगे और फिर बोले, ‘जानती हो, मैं ने पापा के पुराने शेयर बड़ी मुश्किल से बेच कर 40 हजार रुपए का चैक लिया था. अब क्या कहूंगा पापा से?’

चैक पूरी तरह बरबाद हो चुका था. वे गुस्से में नाश्ता छोड़ कर अपने औफिस चले गए. भैया के इस गुस्से के आगे घर में एक गहरा सन्नाटा छा गया. इस के बाद हमारे घर कई दिनों तक अबोला सा पसर गया. अच्छाबुरा सोचने की शक्ति तो समाप्त ही हो गई थी. मुझे पता ही नहीं चला कि मेरे भीतर कितना जहर भरा है.

भाभी सुबह घर का काम निबटा कर 8 बजे तक स्कूल चली जाती थी. और मैं 10 बजे तक. घर का नाश्ता भाभी ही बना कर जाती और शाम को 4 बजे तक आ कर बाकी का काम वह ही करती. मेरा इस घर में अब दम घुटने लगा था. आज लगता है जो मेरा था, उसे नकार दिया और जो अपनाया उन्होंने किनारा कर लिया. मुझे दिल्ली के पास ही एक प्राइवेट यूनिवर्सिटी में नौकरी मिल गई और मैं बिना किसी से सलाह लिए वहां चली गई.

जब भी दीवालीहोली होती, मैं घर आ जाती. पापा और भैया मेरी शादी पर दबाव डालते रहे. वे कोई न कोई रिश्ता ढूंढ कर मुझे बुलाते रहते और मम्मी उन में कई कमजोरियां निकाल कर मुझे और अच्छे रिश्ते की दिलासा देती रहती. उन में कई रिश्ते विदेशों से भी आए थे, कई बेंगलुरु और मुंबई से थे पर मैं भी हर बार जिद में आ कर दिल्ली के आसपास तक सीमित रही. मैं अब यह नौकरी छोडऩा नहीं चाहती थी.
यूनिवर्सिटी का नाम भी था और ऊपर से मुझे रहने के लिए फ्लैट भी दिया था. देखने में मैं खूबसूरत, पढ़ीलिखी, अच्छी नौकरी करती थी. उम्र भी ज्यादा नहीं थी परंतु इन सब के बावजूद कहीं बात पक्की न हो सकी. कुछ मम्मी की कसौटी पर खरे नहीं उतरे और कुछ को मैं ने मना कर दिया और बाकी जो कसर बची थी वह तलाकशुदा के ठप्पे ने पूरा कर दिया. यौवन एकदम सूना और बेमानी सा लगने लगा. मैं ने जीवन से सीखा तो बहुतकुछ पर महिलाओं के लिए जो सब से बड़ी बात सीखने की है वह है क्षमा. और वह मैं ने सीखी ही नहीं.

दिन बीतते गए. पापा रिटायर हो कर घर आ गए. मेरी उम्र भी 45 के पार होने वाली थी. अब या तो कोई विधुर मिलता या तलाकशुदा जिस के एकदो बच्चे होते. धीरेधीरे सब ने अपने कर्तव्य से इतिश्री मान ली और घर पर बात होना लगभग बंद सा हो गया था.

एक बार दीपावली के बाद मैं भैया के टीका करने लगी तो भाभी ने मेरा अच्छा मूड देख कर कहा, ‘दीदी, एक बात बताऊं आप को, बुरा लगे तो मन से निकाल देना.’

‘तुम जो बोलोगी उलटा ही बोलोगी.’ मैं ने मुंह बना कर कहा, ‘फिर भी कह दो जो तुम्हारे मन में है.’ सब लोग पास ही बैठे थे.

‘फिर रहने दीजिए,’ कहकर वह चुप्पी साध गई. भैया ने भाभी की तरफ देख कर बोला, ‘अब कह भी दो न, बात तो पूरी कर लो.’

‘मैं तो यह कह रही थी कि अब इस उम्र में जिंदगी से समझौता कर लीजिए. जहां जैसा भी व्यक्ति मिले, मेरा मतलब जो आप के लायक हो तो…’

‘अच्छाअच्छा, अब तुम ही रह गई हो मुझे पढ़ाने के लिए. तुम चिंता न करो, मैं अकेली जिंदगी काट लूंगी पर तुम पर बोझ नहीं बनूंगी. तुम्हारा घर तुम्हें मुबारक हो.’

भैया का बेटा, जो अब 15 साल का हो चुका था, मेरे इस उग्र व्यवहार को देख कर बोला, ‘बूआ, आप भी तो कोई बात सीधेमुंह नहीं करतीं. हमेशा मम्मी पर गुस्सा करती रहती हैं. गुस्सा तो आप की नाक पर रहता है.’

‘रोहन,’ भाभी खड़ी हो गई, ‘बूआ से ऐसे बात करते हैं क्या?  माफी मांगो इन से.’

वह तपाक से बोला, ‘पहले उन से बोलो कि वे आप से माफी मांगें.’ और बड़बड़ाता हुआ उठ कर वह बाहर चला गया.

मैं गुस्से से तिलमिला गई. अब यही हालत रह गई थी मेरी इस घर में. मैं भी उठ कर अपना सामान समेटने लगी.

आज सोचती हूं बात तो भाभी ठीक ही कह रही थी. समय रहते अपनेआप से समझौता कर लेती तो आज यों किसी के पास बेसहारा, लाचार बन कर मुझे जीना न पड़ता. मुझे क्या पता था कि वे कड़वे बोल मुझे इस कदर महंगे पड़ेंगे कि भाभी के पास ही मुहताज हो कर जिंदगी काटनी पड़ेगी. वक्त कब किस करवट अपना रुख बदल ले, कोई नहीं जानता. मैं अपने झूठे और दकियानूसी अहं में जीती रही. जी कम, मरी ज्यादा. मैं ने भी स्थान काल की महिमा भूल कर अपने ही हाथों अपना सर्वनाश कर लिया था पर अब दुखड़ा कहूं भी तो किस से.

वक्त के साथसाथ मम्मीपापा का स्वास्थ्य भी गिरता रहा. एक रूटीन चैकअप के दौरान पता चला कि मम्मी को किडनी का कैंसर है और वह भी अंतिम अवस्था में. फिर क्या था. मैं छुट्टी ले कर घर आ गई और आननफानन मम्मी को अस्पताल में भरती करा दिया. फिर वहां से वह शरीर में नहीं लौटी. पापा इस सदमे से कभी उबर नहीं पाए. सारी उम्र तो उन से दूर रहे और जब पास रहने का समय आया तो वह दूर चली गई और फिर वे एक रात ऐसा सोए कि कभी नहीं उठे.

मेरे लिए तो जैसे सब सहारे ही बंद हो गए. मैं वापस लौट गई और किसी तरह अपनी जिंदगी घसीटती रही. मुझे उन दोनों की मृत्यु का इतना सदमा लगा कि मैं एकदम खामोश हो गई. न कालेज में मेरा मन लगता, न ही घर पर. मैं खोईखोई सी रहने लगी. क्या करूं, कहां जाऊं. तमाम उम्र तो मम्मी के साए में गुजार दी थी. मेरा कोई अपना वजूद तो था ही नहीं और भाईभाभी को मैं ने कभी अपना माना नहीं. बस, ताने देती रही. सो वह सहारा भी लगभग न के बराबर था.

मेरे पास अब सब सुख थे. एक बढिय़ा महंगी कार, सभी सुखसुविधाओं से युक्त अपना घर, अच्छा बैंकबैलेंस, इज्जतदार नौकरी आदि परंतु नहीं था तो कोई मेरा अपना जिस से मैं अपना सुखदुख बांट सकूं. एक अकेली जिंदगी ढोतेढोते थक चुकी थी मैं. अब तो मेरा वजूद भी खोता जा रहा था. हमारे आपसी रिश्ते भी सिमटने को थे. न मैं ने कोई अपना दोस्त बनाया न संगीसाथी. लेकिन सूरज की रोशनी आखिर कब तक रहती. मेरे इर्दगिर्द अंधेरा तो होना ही था.

धीरेधीरे दिन महीनों में गुजर गए और महीने सालों में. एक दिन मैं दोपहर को क्लास ले रही थी कि अचानक सिर में तेज दर्द उठा और मेरी आंखों के सामने अंधेरा छा गया. न मुझ से बैठा जा रहा था न ही मैं कुछ सोच पा रही थी. बस, पाषाण बनी खड़ी की खड़ी रह गई. सारा शरीर एकदम से जम गया. और जब होश आया तो अस्पताल में मैं लेटी हुई थी. मैं किसी को भी पहचान नहीं पा रही थी और यह भी नहीं जान पाई कि मैं यहां कैसे आई. बस, कुछ रेंगते हुए साए दिख रहे थे. मैं उन को बस देखती रही. 2 दिनों बाद मैं थोड़ाथोड़ा होश में आने लगी. पता चला कि कालेज के ही लोग मुझे यहां लाए हैं.

मैं ने ध्यान से देखा, भाभी की धुंधली सी आकृति मुझे दिखी जो मेरे पास ही बैठी थी. मुझे देख कर वह मुसकराई और कुछ भी कहने से मना कर दिया. मेरे चेहरे पर एक कोमल स्पर्शभरा हाथ रखा, ‘चिंता न करो भाभी, मैं आ गई हूं. सब ठीक हो जाएगा.’  मेरी आंखों से रुलाई फूट पड़ी.

मुझे प्राइवेट वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया. डाक्टर के अनुसार मुझे तब तक डिस्चार्ज नहीं किया जा सकता था जब तक पूरी तरह ठीक न हो जाऊं और इस बात में हफ्ता भी लग सकता है और महीना भी.

मेरे ब्रेन में क्लौट आ गया था. जो अब धीरेधीरे खुलता जा रहा था. भाभी भी कब तक वहां बैठती. शुरुशुरु में तो मेरे कलीग मेरा हालचाल पता करने आते रहे पर अब वे कम से कमतर होते गए. मैं समझ चुकी थी कि मेरी जिंदगी के हालात बहुत बुरे हो चुके हैं. इन हालात में मेरे कालेज ने भी मुझे रिटायर कर दिया. यह मेरे लिए और भी बड़ा धमाका था. दोतीन दिनों बाद जब मेरी हालत बेहतर हुई तो भैया मुझे घर ले आए.

मेरे आने से घर का माहौल तनावपूर्ण हो गया था. बस, मेरे ही बारे में बातें होती रहतीं. मैं ने कई बार भैया को कहते सुना कि मुझे किसी वृद्ध आश्रम या ओल्ड एज होम में भेज देना चाहिए परंतु मैं इस काबिल भी नहीं थी कि ठीक से चलफिर सकूं. फिर मैं भला किस अधिकार से यहां रह सकती थी. सारी उम्र भाभी से ठीक तरह से व्यवहार भी नहीं बनाया. मम्मी के साथ मिल कर झूठे इलजाम लगाती रही. इतनी पढ़ीलिखी होने के बावजूद मैं ने कभी अपने विवेक से काम ही नहीं लिया. मेरे दिल का बांध टूट गया और मैं सिसकसिसक कर रोने लगी.

भाभी चाहती तो मुझे अस्पताल से ही अलविदा कह सकती थी, वह चाहती तो मुझे इस घर में रहने ही न देती. मेरा अपराध भी अक्षम्य था. परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया. मेरे सामने ढाल बन कर खड़ी हो गई और मुझे कहीं नहीं जाने दिया. इस के लिए शायद उन को भैया के क्रोध का सामना भी करना पड़ा होगा, बेटेबहू को मनाया होगा. मैं यह सब महसूस कर रही थी. मेरी हालत अब ऐसी भी नहीं थी कि घुटने टेक कर उन से माफी मांग सकूं.

मैं ने इस घर में अपना एक अलग ही साम्राज्य बनाने का प्रयास किया था. वह लड़ी भी नहीं और मैं हार गई. मेरा कियाधरा तो मेरे सामने आ ही गया था. ऊपरवाले, यदि कहीं है तो, की लाठी में आवाज नहीं होती पर उस की चोट कहीं भीतर तक आहत करती रहती है. काश, कोई मेरे बीते हुए दिन लौटा दे तो मैं फिर से अपने को सुधार लूं. काश…

रहिमन दाढ़ी राखिए : बाबाओं के चमत्कारों की ये है असलियत

मैं जवानी के दिनों में कंजूस नस्ल का आदमी था, इसलिए आदतन हमेशा बचत की तरकीबों के बारे में ही सोचता रहता था. एक दिन जब मैं अपने पड़ोसी वर्माजी से अखबार मांग कर पढ़ रहा था, तो अखबार में छपी एक खबर देख कर मुझे झटका सा लगा. सूचना इस तरह से थी, ‘एक आदमी अपनी पूरी जिंदगी में दाढ़ी बनाने पर तकरीबन एक लाख रुपए और एक साल बरबाद कर देता है’.

खबर पढ़ते ही मैं अपने दूसरे पड़ोसी शर्माजी के घर भागा. उन से कैलकुलेटर ले कर अपनी दाढ़ी बनाने पर खर्च किए गए पैसों का हिसाब लगाने लगा.

हिसाब लगाने के बाद मुझे थोड़ी राहत मिली कि मैं ने दाढ़ी बनाने पर ज्यादा खर्च नहीं किया है, क्योंकि मैं हमेशा अपनी दाढ़ी दूसरों के घर बनाना पसंद करता हूं.

लेकिन, जज्बाती आदमी होने की वजह से मुझे अफसोस भी हुआ कि मेरी दाढ़ी के चक्कर में मेरा न सही, पर दूसरों का ही खर्च तो हुआ. यह बात मेरे दिल में कील की तरह चुभ गई. इसलिए मैं ने उसी दिन तय कर लिया कि आज से दाढ़ी नहीं बनाऊंगा.

इरादे पर अमल करते हुए 2 महीने बीत गए. मेरी दाढ़ी अच्छीखासी बढ़ गई थी. मैं चेहरे से आतंकवादी नजर आने लगा. इस का फायदा उठा कर मेरे एक दुश्मन पड़ोसी ने थाने में मेरी शिकायत कर दी कि मेरा चेहरा ‘इंडियाज मोस्ट वांटेड’ में दिखाए गए एक दुर्दांत अपराधी से मिलता है.

बस, पुलिस को और क्या चाहिए. पहुंच गई मेरे दरवाजे पर. पुलिस मुझे पकड़ कर ले जाने लगी. किसी तरह एक हजार रुपए दे कर इस मुसीबत से पीछा छुड़ाया, लेकिन फिर भी मैं अपने इरादे पर डटा रहा.

अचानक एक दिन मेरी मुलाकात पुरानी प्रेमिका रितु से हो गई, जो कुकिंग कोर्स करने के लिए अमेरिका गई हुई थी. वह तो मुझे देखते ही डर गई. उसे लगा कि मैं ने उस की जुदाई में ही देवदास की तरह दाढ़ी बढ़ा ली है.

रितु अचानक चिल्लाते हुए बोली, ‘‘अगर इसी तरह मजनूछाप चेहरा बनाए रहे, तो मुझ से शादी करना तो दूर, तुम सगाई भी नहीं कर पाओगे.’’

दाढ़ी बनाने के लिए 2 रुपए का सिक्का मेरे हाथ में थमा कर वह पैर पटकती हुई चली गई.

लेकिन, मैं भी धुन का पक्का था. मैं ने भी सोच लिया था कि चाहे जो हो जाए, मैं अपने इरादे पर डटा रहूंगा, इसलिए मैं ने रितु का दिल तोड़ दिया.

अब लोगों में मेरी अलग ही पहचान बन चुकी थी. मैं संन्यासी निरोधानंद के नाम से जाना जाने लगा था.

बढ़ी हुई दाढ़ी मेरे लिए वरदान साबित हुई. जैसा कि अपने देश में होता है, अचानक मेरे चमत्कार के चर्चे दूरदूर तक फैलने लगे. औरत, मर्द, बच्चे और बूढ़े मेरे पैर छू कर आशीर्वाद लेने लगे. इस से मैं खुशी से फूला न समाता था.

लोग मेरी बातें सुनने के लिए बेचैन रहते थे. कोई मुझ से अपनी दिमागी तकलीफ का हल पूछता, तो कोई दूसरी तकलीफों से नजात पाने के बारे में पूछता. कोई अपने गुजरे समय के बारे में पूछता, तो कोई आने वाली जिंदगी के बारे में पूछता. ज्यादातर लोग तो इस लोक से ज्यादा परलोक के बारे में पूछते. मैं सभी को अपने जवाब से खुश कर के भेजता.

पहली बार मेरा संन्यासियों की ऐश्वर्य भरी जिंदगी से परिचय हुआ था. कल तक जो लड़कियां मुझे देखते ही मुंह बिदका कर भाग जाती थीं, अब वे मेरे पैर छू कर हंसते हुए अपना कोमल हाथ मेरे हाथ में दे कर अपनी तकदीर के बारे में जानना चाहती थीं. मैं उन की तकदीर बतातेबताते अपनी तकदीर पर फख्र कर उठता था.

कभीकभी तो मुझे अपनेआप पर गुस्सा भी आता था कि मैं और पहले संन्यासी क्यों नहीं बना.

अब तो यह हाल है कि मेरे महल्ले में कोई भी जलसा, मीटिंग या फिर किसी तरह का फंक्शन हो, मेरे बिना अधूरा समझा जाता है. किस लड़के या लड़की का रिजल्ट कैसा होगा? किस के घर लड़का होगा या लड़की होगी? किस की नौकरी लगेगी या नहीं? किस की शादी कब होगी? सभी का हिसाब मेरे पास है. अब तो कोई भी चढ़ावा चढ़ा कर अपनी तकदीर जान सकता था.

इस साल के चुनाव में तो गजब हो गया. मेरे इलाके के सांसद के पास मेरी जानकारी पहुंच गई. सुबह से ही वह मेरे आश्रम में पहुंच गए और सकुचाते हुए बोले, ‘‘देखिए स्वामीजी, अब आप के ऊपर ही मेरा सबकुछ टिका है. अगर आप चाहें, तो मुझे इस बार भी जनता की सेवा करने का मौका दिला सकते हैं. इस के बदले में आप को मुंहमांगा चढ़ावा मिलेगा.’’

मैं उन का दुख देख कर पिघल गया और उन्हें एक यज्ञ करने की नेक सलाह दे डाली. यज्ञ खत्म होतेहोते वह जीत भी गए. अब वह मुझे छोड़ने को तैयार ही नहीं हैं. अब मैं उन का पारिवारिक सदस्य हूं व राजनीतिक सलाहकार भी.

पिछले दिनों उन के लड़के ने एक राह चलती लड़की के साथ बलात्कार कर दिया. लेकिन मेरी पहुंच की वजह से कोई उन का और उन के लड़के का बाल भी बांका न कर सका.

अब धीरेधीरे मेरी पहुंच विदेशों में भी होने लगी है. माफिया वालों से तो मेरा संपर्क पहले से ही था. फिल्म वाले भी अब अपनी फिल्मों के मुहूर्त पर मुझे बुलाने लगे हैं. वहां जाने का मैं महज 5 लाख रुपए लेता हूं. बहुत सारी हीरोइनें भी मेरी चेलियां बन गई हैं. कौन सी फिल्म पिटेगी या चलेगी, यह मेरे दिए गए ज्योतिष काल की तारीख पर फिल्म को रिलीज करने पर निर्भर करता है. मैं तकरीबन पूरी दुनिया घूम चुका हूं. देशविदेश में मेरे चेले बढ़ते जा रहे हैं. मेरे एयरकंडीशंड आश्रम की लंबाईचौड़ाई तकरीबन 3 एकड़ में है. फिलहाल तो मेरे पास 15 विदेशी गाडि़यां हैं. देश के सभी महानगरों में मेरी कोठियां भी हैं. मेरी जिंदगी बहुत ही अच्छे ढंग से गुजर रही है.

अब तो बस एक ही तमन्ना है कि किसी तरह अमेरिका का राष्ट्रपति भी मेरा चेला बन जाए.

युवाओं के सपनों के बूते चलते कोचिंग संस्थान

27 जुलाई को दिल्ली समेत देशभर के कोचिंग संस्थानों को छात्रों के गुस्से का सामना तब करना पड़ गया जब अलगअलग हिस्सों से आईएएस बनने की आकांशा ले कर आए 3 छात्रों की मौत सरकार और कोचिंग संस्थानों की सिस्टमेटिक लापरवाही के चलते हुई. ये 3 छात्र नेविन डोल्विन, तान्य सोनी और श्रेया यादव थे जो राव कोचिंग के बेसमैंट में बनी लाइब्रेरी में पढ़ाई कर रहे थे. उन में से केरल के रहने वाले नेविन आईएएस की तैयारी कर रहे थे और वे जेएनयू से पीएचडी भी कर रहे थे. उत्तर प्रदेश की श्रेया यादव ने अभी एक महीना पहले ही कोचिंग सैंटर में दाखिला लिया था.

बाकी कोचिंग संस्थानों की तरह ही राव कोचिंग सैंटर के बेसमैंट में भी लाइब्रेरी चल रही थी जहां पर पूरी रात छात्र पढ़ाई करते हैं. वहां 150 छात्रों के बैठने की व्यवस्था थी. हादसे के वक्त वहां 35 छात्र मौजूद थे. चंद मिनटों में ही बेसमैंट में पानी भर गया. उस वक्त सभी छात्रों में अफरातफरी मच गई. ऐसे में बहुत से छात्र बाहर निकलने में सफल रहे लेकिन कुछ वहीँ पर फंस गए क्योंकि बेसमैंट में आनेजाने का एक ही गेट था वह भी बायमैट्रिक था जिस से बाहर निकलने में परेशानी हुई. बेसमैंट में पानी निकालने में भी फायर ब्रिगेड को काफी मशक्कत करनी पड़ी. इस के बाद छात्रों के शव मिले. पानी भरने का कारण पाइप फटना और ड्रेनेज सिस्टम को माना जा रहा है. अब वजह चाहे जो भी हो लेकिन कई घरों के चिराग बुझ गए जो बहुत ही दर्दनाक है.

यूपीएससी का गढ़ दिल्ली

दिल्ली का मुखर्जी नगर, ओल्ड राजिंदर नगर, करोल बाग और इस के आसपास के इलाके यूपीएससी कोचिंग सैंटरों का हब हैं. पूरे देश से हजारों युवा आंखों में सपने लिए आते हैं क्योंकि यहां अधिकांश कोचिंग संस्थानों की शाखाएं और 24 घंटे लाइब्रेरियां खुली रहती हैं. यहां आसपास अच्छी किताबें, नोट्स और पढ़ाई से संबंधित हर तरह की सुविधा तुरंत मिल जाती है, इसलिए बच्चों को यहां आ कर पढ़ना ज्यादा सुविधाजनक लगता है.

रहना और खानापीना है महंगा सौदा

यहां रहने के लिया कमरा ढूंढना किसी जंग से कम नहीं है क्योंकि इस के लिए ब्रोकर का सहारा लेना पड़ता है और वे सब मकानमालिक से मिले हुए होते हैं और छात्रों से इस के लिए मनमाना किराया वसूलते हैं. वहीं, किराए वाले कुछ कमरे इतने छोटे और घुटनभरे होते हैं कि वहां गुजारा करना मुश्किल होता है.

वहां खाना बनाने तक की जगह नहीं होती जिस वजह से छात्रों को बाहर खाना पड़ता है. वे बारबार बीमार तक हो जाते हैं. साथ ही, छात्रावासों में उन्हें अस्वस्थ तरीके से बना अपौष्टिक भोजन परोसा जाता है, जबकि इस के लिए मनमाना पैसा लिया जाता है.

महंगी कोचिंग फीस से जेब पर दबाव

यहां जो भी छात्र आते हैं वे इस के लिए मोटा खर्चा करते हैं क्योंकि यहां रहनाखाना तो छोड़िए, पढ़ना भी काफी महंगा है. आप राव कोचिंग सैंटर का उदाहरण लें, यहां जनरल स्टडीज इंटीग्रल फाउंडेशन की फीस 1 लाख 75 हजार रुपए है. इन छात्रों का पढ़ाई से इतर एक साल का खर्च भी लाखों में होता है, जिस के लिए वे पूरी तरह से अपने पेरैंट्स पर निर्भर होते हैं.

इस के साथ ही, पेरैंट्स का उन पर दबाव होता है कि जल्दी ही ये एग्जाम क्लियर करना है, जोकि काफी टेढ़ी खीर होता है और लगातार कई प्रयास में असफल होने पर उन्हें जो मानसिक तनाव झेलना पड़ता है वह अलग. कई तो कर्ज ले कर पढ़ने आते हैं और उन्हें कर्ज पर लगते ब्याज की चिंता भी साथसाथ सताती है. इस तरह कई बार मानसिक तनाव काफी हद तक बढ़ जाता है.

शारीरिक और मानसिक रूप से फिट रहना चैलेंज

दिल्ली में प्रतियोगी परीक्षा की पढ़ाई कर रही अकोला के गंगानगर इलाके की छात्रा अंजलि गोपनारायण ने 21 जुलाई को फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली. वह 4 साल से दिल्ली में रह रही थी. पुलिस कांस्टेबल पिता की बेटी अंजलि औफिसर बनने का सपना ले कर दिल्ली गई थी.

पढ़ाई और परीक्षा का तनाव, इन परीक्षाओं में होने वाली गड़बड़ियां, ट्यूशन क्लास, होस्टल और दलालों की उगाही से आर्थिक व मानसिक तौर पर परेशान अंजलि ने अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली. उस का पहले ही प्रयास में यूपीएससी क्लियर करने का सपना था. इसी वजह से वह डिप्रैशन का शिकार हो गई थी.

कोचिंग सैंटर बनाम डैथ सैंटर

यहां पढ़ने वाले छात्रों की संख्या बहुत ज्यादा है जबकि जगह कम. हर क्लास में इतनी भीड़ होती है कि छात्रों को खड़े हो कर क्लास लेनी पड़ती है और जहां सीट होती है वह इतनी महंगी होती है कि जेब इजाजत नहीं देती. इन कोचिंग केंद्रों में छात्रों को विषयों की गहन जानकारी देने के बजाय शौर्टकट सफलता हासिल करने के मंत्र दिए जाते हैं, जिस का फायदा कुछ छात्र उठा ले जाते हैं और कुछ को इस का नुकसान होता है और वे सिर्फ रट्टू तोता बन कर रह जाते हैं.

इस से कुछ ही छात्र सफल होते हैं और कुछ का अत्मविश्वास हमेशा के लिए टूट जाता है और वे इतने मैंटल ट्रामा में आ जाते हैं कि सुसाइड तक कर लेते हैं. परिवार वाले और छात्र अपने स्वर्णिम भविष्य के सपने संजो कर और लाखों की फीस दे कर यहां पढ़ने आते हैं लेकिन उन्हें नहीं पता होता कि उन्हें इस तरह मौत मिलेगी.

सरकारों को है फायदा

24 जुलाई को केंद्रीय शिक्षा मंत्री डाक्टर सुकांत मजूमदार ने राज्यसभा में बताया कि कोचिंग संस्थानों से बीते 5 सालों में जीएसटी कलैक्शन करीब 146 फीसदी बढ़ा है. वित्त वर्ष 2020 में सरकार ने कोचिंग संस्थानों से 2,240.73 करोड़ रुपए की जीएसटी वसूली थी जो वित्त वर्ष 2023 में बढ़ कर 5,517.45 करोड़ रुपए तक पहुंच गई. अब आप खुद ही समझ गए होंगे कि इन कोचिंग संस्थानों से सरकार को कितना फायदा हो रहा है. लेकिन जब जिम्मेदारी लेने की बात आती है तो ये सभी एकदूसरे पर आरोप लगा कर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं, जैसे कि इस घटना के बाद बीजेपी और आम आदमी पार्टी एकदूसरे पर आरोप लगा रही हैं.

बीजेपी इस के लिए एमसीडी और आप को जिम्मेदार बता रही है. उस का कहना है, इस से संबंधित सभी विभाग इन्हीं दोनों के अधीन आते हैं. तो वहीं आप नेताओं का इस बारे में कहना है कि अफसरों को सजा देने या फिर पुरस्कृत करने का अधिकार एलजी के हाथों में है. सच तो यह है कि न तो इस तरह की घटना को अंजाम देने वाले हालात नए हैं और न ही सरकारी तंत्र का कोई हिस्सा इस से अनजान है. सवाल यह है कि क्या भविष्य में इस तरह की घटनाओं को होने से रोका जा सकता है या फिर इसी तरह हम होनहार छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ करते रहेंगे.

नियमों का पालन जरूरी

• हादसे की स्थिति में बेसमैंट से बाहर निकलने का कोई दूसरा रास्ता भी होना चाहिए.

• सरकारों और स्थानीय निकाय द्वारा जारी की गई गाइडलाइंस का पालन किया जाना चाहिए.

• कोचिंग संस्थान के संचालन के लिए भवन नैशनल बिल्डिंग कोड के अनुरूप होना चाहिए.

• छात्रों के पढ़ने के लिए बैठने की व्यवस्था भी पूरी तरह आरामदायक होनी चाहिए ताकि उन्हें कोई स्वास्थ्य संबंधी परेशानी न हो.

• इन सभी जगहों पर सुरक्षा उपकरणों से लैस कैमरे होने चाहिए.

• यहां डबलडोर, हवादार कमरे और पानी की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए.

• कोचिंग संस्थानों में सुरक्षा के मद्देनजर सभी जरूरी चीजें होनी चाहिए.

• कोचिंग संस्थानों में साफ टौयलेट और मौसम के अनुरूप साफ व ठंडा पानी की सुविधा हो.

• कोचिंग संस्थान चलाने के लिए अनापत्ति प्रमाणपत्र ले कर नगर निकायों से अनुमति लेनी होती है. संस्थान चलाने के लिए 3,000 स्क्वायर फुट क्षेत्रफल न्यूनतम किया गया है. इस का पालन होना चाहिए.

• कोचिंग संस्थान बेसमैंट से ले कर छतों पर अस्थाई ढांचे का निर्माण कर चलाए जा रहे हैं, इस पर रोक लगनी चाहिए.

• सभी वाणिज्यिक और गैरवाणिज्यिक यूपीएससी संस्थान या कोई अन्य संस्थान, कार्यालय, पुस्तकालय या अन्य इकाई में 100 या उस से अधिक छात्रों को समायोजित करने पर एक फायर मार्शल होना चाहिए.

• नियमित मौक ड्रिल आयोजित की जानी चाहिए.

• पुस्तकालयों और पीजी के किराए में कमी, किराया आयुक्त के लिए एक डैस्क और एक औफलाइन व औनलाइन शिकायत निवारण सैल भी होना चाहिए.

उतावली : क्या कमी रह गई थी सारंगी के जीवन में

‘‘मैं क्या करती, उन से मेरा दुख देखा नहीं गया तो उन्होंने मेरी मांग में सिंदूर भर दिया.’’

सारंगी का यह संवाद सुन कर हतप्रभ सौम्या उस का मुंह ताकती रह गई. महीनेभर पहले विधवा हुई सारंगी उस की सहपाठिन थी.

सारंगी के पति की असामयिक मृत्यु एक रेल दुर्घटना में हुई थी.

सौम्या तो बड़ी मुश्किल से सारंगी का सामना करने का साहस जुटाती दुखी मन से उस के प्रति संवेदना और सहानुभूति व्यक्त करने आई थी. उलझन में थी कि कैसे उस का सामना करेगी और सांत्वना देगी. सारंगी की उम्र है ही कितनी और ऊपर से 3 अवयस्क बच्चों का दायित्व. लेकिन सारंगी को देख कर वह भौचक्की रह गई थी. सारंगी की मांग में चटख सिंदूर था, हथेलियों से कलाइयों तक रची मेहंदी, कलाइयों में ढेर सारी लाल चूडि़यां और गले में चमकता मंगलसूत्र. उसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ.

विश्वास होता भी कैसे. तीजत्योहार पर व्रतउपवास रखने वाली, हर मंदिरमूर्ति के सामने सिर झुकाने वाली व अंधभक्ति में लीन रहने वाली सारंगी को इस रूप में देखने की कल्पना उस के मन में नहीं थी. वह तो सोचती आई थी कि सारंगी सूनी मांग लिए, निपट उदास मिलेगी.

सारंगी की आंखों में जरा भी तरलता नहीं थी और न ही कोई चिंता. वह सदा सुहागन की तरह थी और उस के चेहरे पर दिग्विजयी खुशी फूट सी रही थी. सब कुछ अप्रत्याशित.

एक ही बस्ती की होने से सारंगी और सौम्या साथसाथ पढ़ने जाती थीं. दोनों का मन कुछ ऐसा मिला कि आपस में सहेलियों सा जुड़ाव हो गया था. सौम्या की तुलना में सारंगी अधिक यौवनभरी और सुंदर थी. उम्र में उस से एक साल बड़ी सारंगी, पढ़ाई में कमजोर होने के कारण वह परीक्षाओं में पास होने के लिए मंदिरों और देवस्थानों पर प्रसाद चढ़ाने की मनौती मानती रहती थी. सौम्या उस की मान्यताओं पर कभीकभी मखौल उड़ा देती थी. सारंगी किसी तरह इंटर पास कर सकी और बीए करतेकरते उस की शादी हो गई. दूर के एक कसबे में उस के पति का कबाड़ खरीदनेबेचने का कारोबार था.

शुरूशुरू में सारंगी का मायके आनाजाना ज्यादा रहा. जब आती तो गहनों से लद के सजीसंवरी रहती थी. खुशखुश सी दिखती थी.

एक दिन सौम्या ने पूछा था, ‘बहुत खुश हो?’

‘लगती हूं, बस’ असंतोष सा जाहिर करती हुई सारंगी ने कहा.

‘कोई कमी है क्या?’ सौम्या ने एकाएक तरल हो आई उस की आंखों में झांकते हुए पूछा.

‘पूछो मत,’ कह कर सारंगी ने निगाहें झुका लीं.

‘तुम्हारे गहने, कपड़े और शृंगार देख कर तो कोई भी समझेगा कि तुम सुखी हो, तुम्हारा पति तुम्हें बहुत प्यार करता है.’

‘बस, गहनों और कपड़ों का सुख.’

‘क्या?’

‘सच कहती हूं, सौम्या. उन्हें अपने कारोबार से फुरसत नहीं. बस, पैसा कमाने की धुन. अपने कबाड़खाने से देररात थके हुए लौटते हैं, खाएपिए और नशे में. 2 तरह का नशा उन पर रहता है, एक शराब का और दूसरा दौलत का. अकसर रात का खाना घर में नहीं खाते. घर में उन्हें बिस्तर दिखाई देता है और बिस्तर पर मैं, बस.’ सौम्या आश्चर्य से उस का मुंह देखती रही.

‘रोज की कहानी है यह. बिस्तर पर प्यार नहीं, नोट दिखाते हैं, मुड़ेतुड़े, गंदेशंदे. मुट्ठियों में भरभर कर. वे समझते हैं, प्यार जताने का शायद यही सब से अच्छा तरीका है. अपनी कमजोरी छिपाते हैं, लुंजपुंज से बने रहते हैं. मेरी भावनाओं से उन्हें कोई मतलब नहीं. मैं क्या चाहती हूं, इस से उन्हें कुछ लेनादेना नहीं.

‘मैं चाहती हूं, वे थोड़े जोशीले बनें और मुझे भरपूर प्यार करें. लेकिन यह उन के स्वभाव में नहीं या यह कह लो, उन में ऐसी कोईर् ताकत नहीं है. जल्दी खर्राटे ले कर सो जाना, सुबह देर से उठना और हड़बड़ी में अपने काम के ठिकाने पर चले जाना. घर जल्दी नहीं लौटना. यही उन की दिनचर्या है. उन का रोज नहानाधोना भी नहीं होता. कबाड़खाने की गंध उन के बदन में समाई रहती है.’

सारंगी ने एक और रहस्य खोला, ‘जानती हो, मेरे  मांबाप ने मेरी शादी उन्हें मुझे से 7-8 साल ही बड़ा समझ कर की थी लेकिन वे मुझ से 15 साल बड़े हैं. जल्दी ही बच्चे चाहते हैं, इसलिए कि बूढ़ा होने से पहले बच्चे सयाने हो जाएं और उन का कामधंधा संभाल लें. लेकिन अब क्या, जीवन तो उन्हीं के साथ काटना है. हंस कर काटो या रो कर.’

चेहरे पर अतृप्ति का भाव लिए सारंगी ने ठंडी सांस भरते हुए मजबूरी सी जाहिर की.

सौम्या उस समय वैवाहिक संबंधों की गूढ़ता से अनभिज्ञ थी. बस, सुनती रही. कोई सलाह या प्रतिक्रिया नहीं दे सकी थी.

समय बीता. सौम्या बीएड करने दूसरे शहर चली गई और बाहर ही नौकरी कर ली. उस का अपना शहर लगभग छूट सा गया. सारंगी से उस का कोई सीधा संबंध नहीं रहा. कुछ वर्षों बाद सारंगी से मुलाकात हुई तो वह 2 बच्चों की मां हो चुकी थी. बच्चों का नाम सौरभ और गौरव बताया, तीसरा होने को था परंतु उस के सजनेधजने में कोई कमी नहीं थी. बहुत खुश हो कर मिली थी. उस ने कहा था, ‘कभी हमारे यहां आओ. तुम जब यहां आती हो तो तुम्हारी बस हमारे घर के पास से गुजरती है. बसस्टैंड पर किसी से भी पूछ लो, कल्लू कबाड़ी को सब जानते हैं.’

‘कल्लू कबाड़ी?’

‘हां, कल्लू कबाड़ी, तेरे जीजा इसी नाम से जाने जाते हैं.’ ठट्ठा मार कर हंसते हुए उस ने बताया था.

सौम्या को लगा था कि वह अब सचमुच बहुत खुश है.

कुछ समय बाद आतेजाते सौम्या को पता चला कि सारंगी के पति लकवा की बीमारी के शिकार हो गए हैं. लेकिन कुछ परिस्थितियां ऐसी थीं कि वह चाहते हुए भी उस से मिल न सकी.

लेकिन इस बार सौम्या अपनेआप को रोक न पाई थी. सारंगी के पति की अचानक मृत्यु के समाचार ने उसे बेचैन कर दिया था. वह चली आई. सोचा, उस से मिलते हुए दूसरी बस से अपने शहर को रवाना हो जाएगी.

बसस्टैंड पर पता करने पर एक दुकानदार ने एक बालक को ही साथ भेज दिया, जो उसे सारंगी के घर तक पहुंचा गया था. और यहां पहुंच कर उसे अलग ही नजारा देखने को मिला.

‘कौन है वह, जिस से सारंगी का वैधव्य देखा नहीं गया. कोई सच्चा हितैषी है या स्वार्थी?’ सनसनाता सा सवाल, सौम्या के मन में कौंध रहा था.

‘‘सब जान रहे हैं कि कल्लू कबाड़ी की मौत रेल दुर्घटना में हुई है लेकिन मैं स्वीकार करती हूं कि उन्होंने आत्महत्या की है. सुइसाइड नोट न लिखने के पीछे उन की जो भी मंशा रही हो, मैं नहीं जानती,’’ सारंगी की सपाट बयानी से अचंभित सौम्या को लगा कि उस की जिंदगी में बहुत उथलपुथलभरी है और वह बहुतकुछ कहना चाहती है.

सौम्या अपने आश्चर्य और उत्सुकता को छिपा न सकी. उस ने पूछ ही लिया, ‘‘ऐसा क्या?’’

‘‘हां सौम्या, ऐसा ही. तुम से मैं कुछ नहीं छिपाऊंगी. वे तो इस दुनिया में हैं नहीं और उन की बुराई भी मैं करना नहीं चाहती, लेकिन अगर सचाई तुम को न बताऊं तो तुम भी मुझे गलत समझोगी. विनय से मेरे विवाहेतर संबंध थे, यह मेरे पति जानते थे.’’

‘‘विनय कौन है?’’ सौम्या अपने को रोक न सकी.

‘‘विनय, उन के दोस्त थे और बिजनैसपार्टनर भी. जब उन्हें पैरालिसिस का अटैक हुआ तो विनय ने बहुत मदद की, डाक्टर के यहां ले जाना, दवादारू का इंतजाम करना, सब तरह से. विनय उन के बिजनैस को संभाले रहे. और मुझे भी. जब पति बीमार हुए थे, उस समय और उस के पहले से भी.’’

सौम्या टकटकी लगाए उस की बातें सुन रही थी.

‘‘जब सौरभ के पापा की शराबखोरी बढ़ने लगी तो वे धंधे पर ठीक से ध्यान नहीं दे पाते थे और स्वास्थ्य भी डगमगाने लगा. मैं ने उन्हें आगाह किया लेकिन कोई असर नहीं हुआ. एक दिन टोकने पर गालीगलौज करते हुए मारपीट पर उतारू हो गए तो मैं ने गुस्से में कह दिया कि अगर अपने को नहीं सुधार सकते तो मैं घर छोड़ कर चली जाऊंगी.’’

‘‘फिर भी कोई असर नहीं?’’ सौम्या ने सवाल कर दिया.

‘‘असर हुआ. असर यह हुआ कि वे डर गए कि सचमुच मैं कहीं उन्हें छोड़ कर न चली जाऊं. वे अपनी शारीरिक कमजोरी भी जानते थे. उन्होंने विनय को घर बुलाना शुरू कर दिया और हम दोनों को एकांत देने लगे. फिसलन भरी राह हो तो फिसलने का पूरा मौका रहता है. मैं फिसल गई. कुछ अनजाने में, कुछ जानबूझ कर. और फिसलती चली गई.’’

‘‘विनय को एतराज नहीं था?’’

‘‘उन की निगाहों में शुरू से ही मेरे लिए चाहत थी.’’

‘‘कितनी उम्र है विनय की?’’

‘‘उन से 2 साल छोटे हैं, परंतु देखने में उम्र का पता नहीं चलता.’’

‘‘और उन के बालबच्चे?’’

‘‘विधुर हैं. उन का एक बेटा है, शादीशुदा है और बाहर नौकरी करता है.’’

सौम्या ने ‘‘हूं’’ करते हुए पूछा, ‘‘तुम्हारे पति ने आत्महत्या क्यों की?’’

‘‘यह तो वे ही जानें. जहां तक मैं समझती हूं, उन में सहनशक्ति खत्म सी हो गई थी. पैरालिसिस के अटैक के बाद वे कुछ ठीक हुए और धीमेधीमे चलनेफिरने लगे थे. अपने काम पर भी जाने लगे लेकिन परेशान से रहने लगे थे. मुझे कुछ बताते नहीं थे. उन्हें डर सताने लगा था कि विनय ने बीवी पर तो कब्जा कर लिया है, कहीं बिजनैस भी पूरी तरह से न हथिया ले. एक बार विनय से उन की इसी बात पर कहासुनी भी हुई.’’

‘‘फिर?’’

‘‘फिर क्या, मुझे विनय ने बताया तो मैं ने उन से पूछा. अब मैं तुम्हें क्या बताऊं, सौम्या. कूवत कम, गुस्सा ज्यादा वाली बात. वे हत्थे से उखड़ गए और लगे मुझ पर लांछन लगाने कि मैं दुश्चरित्र हूं, कुल्टा हूं. मुझे भी गुस्सा आ गया. मैं ने भी कह दिया कि तुम्हारे में ताकत नहीं है कि तुम औरत को रख सको. अपने पौरुष पर की गई चोट शायद वे सह न सके. बस, लज्जित हो कर घर से निकल गए. दोपहर में पता चला कि रेललाइन पर कटे हुए पड़े हैं.’’ बात खत्म करतेकरते सारंगी रो पड़ी. सौम्या ने उसे रोने दिया.

थोड़ी देर बाद पूछा, ‘‘और तुम ने शादी कब की?’’

‘‘विनय से मेरा दुख देखा नहीं जाता था, इसलिए एक दिन मेरी मांग…’’ इतना कह कर सारंगी चुप हो गई और मेहंदी लगी अपनी हथेलियों को फैला कर देखने लगी.

‘‘तुम्हारी मरजी से?’’

‘‘हां, सौम्या, मुझे और मेरे बच्चों को सहारे की जरूरत थी. मैं ने मौका नहीं जाने दिया. अब कोई भला कहे या बुरा. असल में वे बच्चे तीनों विनय के ही हैं.’’ कुछ क्षण को सौम्या चुप रह गई और सोचविचार करती सी लगी.

‘‘तुम ने जल्दबाजी की, मैं तुम्हें उतावली ही कहूंगी. अगर थोड़े समय के लिए धैर्य रखतीं तो शायद, कोई कुछ न कह पाता. जो बात इतने साल छिपा कर रखी थी, साल 2 साल और छिपा लेतीं,’’ कहते हुए सौम्या ने अपनी बायीं कलाई घुमाते हुए घड़ी देखी और उठ जाने को तत्पर हो गई. सारंगी से और कुछ कहने का कोई फायदा न था.

मृत्यु पूर्व हरिद्वार जांच : आजमाना है तो मर कर हरिद्वार पधारिए

ताउम्र व्यवस्था के खिलाफ लड़तेलड़ते मरने को आ गया तो अचानक याद आया कि मरने के बाद मैं कहीं जाऊं या न, कम से कम हरिद्वार तो जाना ही पड़ेगा. तो जिंदगी में क्यों न कम से कम वहां की स्थितियों का जायजा ले लिया जाए, ताकि मरने के बाद व्यवस्था से अपने को एक और शिकायत न हो.

सच पूछो तो मैं मरने से उतना नहीं डरता जितना धर्म से डरता हूं. यह धर्म ही है जो समाज में कभी भी, कुछ भी करने का माद्दा रखता है. कहते हैं, धर्म जोड़ता है पर मैं ने तो इसे तोड़तेमरोड़ते ही बहुधा देखा. एक ही आदमी को सैकड़ों हिस्सों में टांकते देखा. मरने के बाद बंदा ही जाने कि वह कहां जाता है, कहीं जाता भी है या नहीं, पर हम फिर भी लाख सैक्युलर, समाजवादी होने के बाद भी उस के जीतेजी उस के बारे में उतने चिंतित नहीं होते जितने चिंतित उस के मरने के बाद होते हैं.

बस, यही सोच सारे कामधाम छोड़ हरिद्वार के लिए बस पकड़ी और नाक की सीध में सीधे हरिद्वार जा पहुंचा. वहां पहुंचते ही एक पहुंचे हुए पंडितजी टकरा गए. गोया, वे मेरा ही इंतजार कर रहे हों. आत्माओं के प्रति उन के मन में इंतजार देख मन बागबाग हो उठा. मुझे सिर से पांव तक तोलनेदेखने के बाद वे अलापे, ‘‘कहो जजमान, कैसे आना हुआ?’’

‘‘बस, यों ही चला आया. यहां की व्यवस्था देखने. सोचा, मरने के बाद हांडीलोटे में पड़े तो सभी आप के दर्शन करते ही हैं, जीतेजी भी जो आप से एकबार साक्षात्कार हो जाए तो…’’ मैं ने कहा तो वे चौंक कर बोले, ‘‘मान गया तुम्हारा दुस्साहस, हे जीव! जो जिंदा रहते ही हमारे से मिलने चले आए. यहां तो जीव मरने के बाद भी आने से, हम से मिलने से डरता है जबकि तुम जिंदा ही चले आए?’’

‘‘पंडितजी, इसलिए आया हूं कि मरने के बाद यहां कि सुव्यवस्था देख परेशान न होना पड़े. पहले ही कहीं की व्यवस्था के बारे में पता हो तो कुछ भी घटते देखते मन नहीं दुखता. बस, इसीलिए…’’

‘‘गुड, वैरी गुड, बहुत दूरदर्शी मालूम होते हो?’’ कह वे अपनी राह होने को हुए तो मैं ने उन्हें तनिक रोकते पूछा, ‘‘माफ करना, पर सुना है जीवों को स्वर्ग पहुंचाने वाला रास्ता यहीं से शुरू होता है?’’

‘‘हां, कोई शक?’’

‘‘नहीं, आप पर शक कर नरक को जाना है क्या? बंदा अपने कर्मों से स्वर्ग को जाए या न, पर आप के बूते नरक को जा जरूर सकता है. मैं चाहता था कि जो आप की मेहरबानी हो तो…इस नरक में रहतेरहते असल में बहुत तंग आ गया हूं.’’ कह मैं ने जेब में हाथ डाला तो वे बोले, ‘‘नहीं, हम विधि के विधान के खिलाफ कुछ नहीं कर सकते. इसलिए बेहतर होगा अपना हाथ जेब से निकाल लो. बंदे के मरने के बाद तो हम खुद ही उस के लाख जेब पकड़े रखने के बाद भी उस की जेब में हाथ डाल लेते हैं. हमारी एक जीव ट्रांसपोर्ट कंपनी है, आइएसओ. पर हमारा कायदा है कि हम मरने के बाद ही जीव को स्वर्ग को भेजते हैं.’’

‘‘क्यों? जिंदा जीव क्यों नहीं? जिंदा जीव के पास दिमाग और आंखें तो दोनों होती हैं?’’

‘‘होती हैं, इसलिए तो यह नहीं हो सकता. जिंदा आदमी के पास पर वे आंखें नहीं होतीं जिन से स्वर्गनरकका रास्ता दिखे. नश्वर आंखें तो अपने स्वार्थ से आगे रत्तीभर नहीं देख सकतीं. स्वर्गनरक का रास्ता मरने के बाद ही जीव को दिखता है. जीवित की आंखों और दिमाग पर माया के बहुत भारी परदे पर परदे पड़े होते हैं,’’ उन्होंने सतर्क तर्क दिया.

‘‘पर मेरी आंखें तो सब देख सकती हैं,’’ मैं ने अपनी आंखों पर ठोक बजा कर दावा प्रस्तुत किया तो वे बोले, ‘‘बस, यहीं तो जीव धोखा खा जाता है, बुद्धू. सब्सिडी वाले राशन के चलते राशनकार्ड पर अंकित आटेदाल के अतिरिक्त और कुछ, असल में, बंदे को दिखता ही नहीं, चाहे वह कितनी ही कोशिश क्यों न कर ले. धर्म के विनाश का कारण भी यही तर्क है.

‘‘जीव दूसरों की आंखों से अधिक जब अपनी आंखों पर विश्वास करता है तभी तो सारे तीर्थ करने के बाद भी जीव नरक में औंधेमुंह जा कर पड़ता है. तुम्हें भी स्वर्ग का द्वार हम दिखाएंगे तो जरूर लेकिन तुम्हारे मरने के बाद ही. एक बार मर कर आओ, तो फिर देखना हमारा कमाल. पुश्तों से पूरी ईमानदारी से यह काम कर रहे हैं. पर क्या मजाल जो किसी ने भी एक शिकायत की हो कि हम ने उसे स्वर्ग भेजा लेकिन वह नरक में जा पहुंचा.

‘‘पूरे देश में एक भी केस ऐसा निकाल कर बता दो तो अपनी मूंछें कटवा कर रख दूं. यह लो उस्तरा और यह लो मेरा कार्ड. जरूरत पड़े आ जाना. हम मोक्ष के लिए आतुर जीवों की दिनरात सेवा में हाजिर रहते हैं.’’ बंदे ने अपनी जेब से विजिटिंग कार्ड और उस्तरा निकाला लेकिन मुझे देने के बजाय अपनी जेब के हवाले कर मुझे खैनी से सड़े दांत दिखाते, खिसियानी हंसी हंसता रहा.

हर घाट पर घूमतेघूमते स्वर्ग को भेजी जा रही आत्माओं को ठूंसठूंस कर रिकशा में बैठातेबैठाते देखने के बाद कुशाघाट पर जा पहुंचा. अब तक मेरे मन में पापपुण्य सावन के झूलों की तरह हिलोरें मारने लग गए थे. मुझे लग रहा था कभी पेटभर रोटी न खाने वाला भी पाप तले दब सा रहा है. मैं ने वहीं घाट पर अपने कपड़े उतारे और अवांछित पापों से मुक्ति के लिए गंगा में डुबकी लगाने को हुआ कि कहीं से आवाज आई, लगा, जैसे कोई मेरा नाम ले कर मुझे पुकार रहा हो. इधरउधर देखा, तो कोई नजर नहीं आया. फिर नाक पकड़ हिम्मत कर डुबकी लगाने को हुआ कि लगा, जैसे कोई मेरा नाम ले रहा हो. मैं ने डुबकी लगाने को पकड़ी नाक छोड़ी और कहा, ‘कौन?’

‘मैं, गंगा.’

‘गंगा में गंगा?’ मैं चौंका.

‘हां गंगा,’ पहले तो विश्वास ही न हुआ क्योंकि धर्म के नाम पर, भगवान के नाम पर विश्वास करने लायक अब कुछ बचा ही नहीं है. पर जब गंगा ने दृढ़ता से कहा तो सामने साक्षात् गंगा को पा, लगा मैं सशरीर मोक्ष पा गया.

‘पर तुम यहां पंडोंपापियों के मेले में क्या कर रहे हो?’

‘सोचा, बहती गंगा में मैं भी नहा ही लूं.’

‘तुम्हें तो नहा कर मुक्ति मिल जाएगी पर मेरा क्या होगा? कभी इस बारे में भी सोचा? अब मैं कहां नहाने जाऊं? है कहीं कोई ऐसी नदी?’ गंगा ने उदास हो पूछा तो मुझे काटो तो खून नहीं. कुछ देर तक एकटक मुझे देखने के बाद गंगा ने कहा, ‘नहीं सोचा, तो अब सोचो.’

‘सरकारी स्तर पर तो, हे गंगा, हम सोचसोच कर हार गए. अब किसी को स्वच्छ नहीं होना हो तो हम भी क्या करें?’ मैं ने अपनी जिम्मेदारी से बचने की कोशिश की तो वह बोली, ‘अपने स्तर पर भी कुछ सोचो तो बात बने. अपनी मुक्ति की बात तो युगों से करते रहे हो, मेरी मुक्ति की बात करो तो मेरा भी कल्याण हो,’ कह अंतर्ध्यान हुईं तो पीछे मुड़ कर देखा, एक पंडा मेरे कपड़े चुरा, बदहवास दौड़े जा रहा था.

बस एक भूल : जब एक पत्नी ने पति को बना दिया नामर्द

जब बड़ी बेटी मधु की शादी में विद्यासागर के घर शहनाई बज रही थी, तो खुशी से उन की आंखें भर आईं.

उधर बरातियों के बीच बैठे राजेश के पिता की भी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था, क्योंकि उन के एकलौते बेटे की शादी मधु जैसी सुंदर व सुशील लड़की से हो रही थी.

लेकिन उन्हें क्या पता था कि यह शादी उन के लिए सिरदर्द बनने वाली है. शादी को अभी 2 दिन भी नहीं हुए थे कि मधु राजेश को नामर्द बता कर मायके आ गई.

यह बात दोनों परिवारों के गांवों में जंगल में लगी आग की तरह फैल गई. सब अपनीअपनी कहानियां बनाने लगे. कोई कहता कि राजेश ज्यादा शराब पी कर नामर्द बन गया है, तो कोई कहता कि वह पैदाइशी नामर्द था. इस से दोनों परिवारों की इज्जत धूल में मिल गई.

राजेश जहां भी जाता, गांव वालों से यही सुनने को मिलता कि उन्हें तो पहले से ही मालूम था कि आजकल की लड़की उस जैसे गंवार के साथ नहीं रह सकती.

विद्यासागर के दुखों का तो कोई अंत ही नहीं था. वे बस एक ही बात कहते, ‘मैं अपनी बेटी को कैसी खाई में धकेल रहा था…’

मधु के घर में मातम पसरा हुआ था, पर जैसे उस के मन में कुछ और ही चल रहा था.

मधु की ससुराल वाले बस यही चाहते थे कि वे किसी तरह से मधु को अपने यहां ले आएं, क्योंकि गांव वाले उन को इतने ताने मार रहे थे कि उन का घर से निकलना मुश्किल हो गया था.

राजेश के पिता विद्यासागर से बात करना चाहते थे, पर उन्होंने साफ इनकार कर दिया था.

कुछ दिनों बाद मधु की ससुराल वाले कुछ गांव वालों के साथ मधु को लेने आए, तो मधु ने जाने से साफ इनकार कर दिया.

विद्यासागर ने भी मधु की ससुराल वालों की उन के गांव वालों के सामने जम कर बेइज्जती कर दी और धमकाते हुए कहा, ‘‘आज के बाद यहां आया, तो तेरी टांगें तोड़ दूंगा.’’

यह सुन कर राजेश के पिता भी उन्हें धमकाने लगे, ‘‘अगर तुम अपनी बेटी को मेरे साथ नहीं भेजोगे, तो मैं तुम पर केस कर दूंगा.’’

विद्यासागर ने कहा, ‘‘जो करना है कर ले, पर मैं अपनी बेटी को तेरे घर कभी नहीं भेजूंगा.’’

मामला कोर्ट में पहुंच गया. मधु तलाक चाहती थी, पर राजेश उसे रखना चाहता था.

कुछ दिनों तक केस चला, लेकिन दोनों परिवारों की माली हालत कमजोर होने की वजह से उन्होंने आपस में समझौता कर लिया व तलाक हो गया.

मधु बहुत खुश थी, क्योंकि वह तो यही चाहती थी. एक दिन जब मधु सुबहसवेरे दुकान पर जा रही थी, तो वहां उसे दीपक दिखाई दिया, जो उस के साथ पढ़ता था.

मधु ने दीपक को धीरे से कहा, ‘‘आज शाम को मैं तेरा इंतजार मंदिर में करूंगी. वहां आ जाना.’’

दीपक ने कुछ जवाब नहीं दिया. मधु मुसकरा कर चली गई.

जब शाम को वे दोनों मंदिर में मिले, तो मधु ने खुशी से कहा, ‘‘देख दीपक, मैं तेरे लिए सब छोड़ आई हूं. वह रिश्ता, वह नाता, सबकुछ.’’

‘‘मेरे लिए… तुम कहना क्या चाहती हो मधु?’’ दीपक ने थोड़ा चौंक कर उस से पूछा.

‘‘दीपक, मैं सिर्फ तुम से प्यार करती हूं और तुम से ही शादी करना चाहती हूं,’’ मधु ने थोड़ा बेचैन अंदाज में कहा.

‘‘यह तुम क्या कह रही हो मधु?’’ दीपक ने फिर पूछा.

मधु ने कहा, ‘‘मैं सच कह रही हूं दीपक. मैं तुम से प्यार करती हूं. कल यह समाज मेरे फैसले का विरोध करे, इस से पहले हम शादी कर लेते हैं.’’

‘‘मधु, तुम पागल तो नहीं हो गई हो. जब गांव वाले सुनेंगे, तो मुझे जान से मार देंगे और पता नहीं, मेरी मां मेरा क्या हाल करेंगी?’’ दीपक ने थोड़ा घबरा कर कहा.

‘‘क्या तुम गांव वालों और अपनी मां से डरते हो? क्या तुम ने मुझ से प्यार नहीं किया?’’

‘‘हां मधु, मैं ने तुम से ही प्यार किया है, पर तुम से शादी करूंगा, ऐसा कभी नहीं सोचा.’’

मधु ने गुस्से में कहा ‘‘धोखेबाज, तू ने शादी के बारे में कभी नहीं सोचा, पर मैं सिर्फ तेरे बारे में ही सोचती रही. ऐसा न हो कि मैं कल किसी और की हो जाऊं. चल, शादी कर लेते हैं,’’ मधु ने दीपक का हाथ पकड़ कर कहा.

‘‘नहीं मधु, मुझे अपनी मां से बहुत डर लगता है. अगर हम दोनों ने ऐसा किया, तो गांव में हम दोनों की बदनामी होगी,’’ दीपक ने समझाते हुए कहा.

मधु ने बोल्ड अंदाज में कहा, ‘‘तुम अपनी मां और गांव वालों से डरते होगे, पर मैं किसी से नहीं डरती. मैं करूंगी तुम्हारी मां से बात.’’

दीपक ने उसे समझाने की बहुत कोशिश की, पर मधु ने अपनी जिद के आगे उस की एक न सुनी.

अगले दिन जब मधु दीपक की मां से बात करने गई, तो उस की मां ने कड़क आवाज में कहा, ‘‘मुझे नहीं मालूम था कि तुम इतनी गिरी हुई लड़की हो. तुम ने इस नाजायज प्यार के लिए अपना ही घर उजाड़ दिया.’’

‘‘मैं अपना घर उजाड़ कर नहीं आई मांजी, बल्कि दीपक के लिए सब छोड़ आई हूं. मेरे लिए दीपक ही सबकुछ है. मुझे अपनी बहू बना लीजिए, वरना मैं मर जाऊंगी,’’ मधु ने गिड़गिड़ा कर कहा.

‘‘तो मर जा, लेकिन मुझे सैकंडहैंड बहू नहीं चाहिए,’’ दीपक की मां ने दोटूक शब्दों में कहा.

‘‘मैं सैकंडहैंड नहीं हूं मांजी. मैं वैसी ही हूं, जैसी गई थी,’’ मधु ने कहा.

‘‘लगता है कि शादी के बाद तुझ में कोई शर्मलाज नहीं रही है. अंधे प्यार ने तुझे पागल बना दिया है. दीपक तेरे गांव का है… तेरा भाई लगेगा. मैं तेरे पापा को सब बताऊंगी,’’ दीपक की मां ने मधु को धमकाते हुए कहा.

इस के आगे मधु ने कुछ नहीं कहा. वह चुपचाप वहां से चली गई.

दीपक की मां ने विद्यासागर से कहा, ‘‘तुम्हारी बेटी दीपक के प्यार के चलते ही अपनी ससुराल में न बस सकी. अपनी बेटी को बस में रखो, वरना एक दिन वह तुम्हारी नाक कटा देगी.’’

यह सुनते ही विद्यासागर का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया.

विद्यासागर ने घर जाते ही मधु से गुस्से में पूछा, ‘‘मधु, वह लड़का सच में नामर्द था या फिर तुम ने उसे नामर्द बना दिया?’’

‘‘वह मुझे पसंद नहीं था,’’ मधु ने बेखौफ हो कर कहा.

‘‘इसलिए तुम ने उसे नामर्द बना दिया,’’ विद्यासागर ने गुस्से में कहा.

‘‘हां,’’ मधु बोली.

‘‘मतलब, तुम ने पहले ही सोच लिया था कि यह रिश्ता तोड़ना है?’’

‘‘हां.’’

फिर विद्यासागर उसे बहुतकुछ सुनाने लगे, ‘‘जब तुम्हें रिश्ता तोड़ना ही था, तो यह रिश्ता जोड़ा ही क्यों? जब रिश्ते की बात हो रही थी, तो मैं ने बारबार पूछा था कि यह रिश्ता पसंद है न? हर बार तू ने हां कहा था. क्यों?

‘‘तेरी ससुराल वाले मुझ से बारबार एक ही बात कह रहे थे कि राजेश नामर्द नहीं है, पर मैं ने तुझ पर भरोसा कर के उन की एक न सुनी.

‘‘वह मेरी मजबूरी थी, क्योंकि आप से कहीं रिश्ता हो ही नहीं रहा था. बड़ी मुश्किल से आप ने मेरे लिए एक रिश्ता तय किया, तो मैं उसे कैसे नकार देती?’’ मधु ने शांत लहजे में कहा.

‘‘जानती हो कि तुम्हारे चलते मैं आज कितनी बड़ी मुसीबत में फंस गया हूं. तेरी शादी का कर्ज अभी तक मेरे सिर पर है. सोचा था कि इस साल तेरी छोटी बहन की शादी कर देंगे, पर तुझ से छुटकारा मिले तब न.’’

मधु पिता की बात ऐसे सुन रही थी, जैसे उस ने कुछ गुनाह ही न किया हो. ‘‘जेब में एक पैसा नहीं है. तेरा?छोटा भाई अभी 10 साल का है. उस से अभी क्या उम्मीद करूं? आसपास के लोग तो बस हम पर हंसते हैं.

‘‘पता नहीं, आजकल के बच्चों को हो क्या गया है. वे रिश्तों की अहमियत क्यों नहीं समझते हैं. रिश्ता तोड़ना तो आजकल एक खेल सा बन गया है. इस से मांबाप की कितनी परेशानी बढ़ती है, यह आजकल के बच्चे समझें तब न.

‘‘वैसे भी लड़कियों को रिश्ता तोड़ने का एक अच्छा बहाना मिल गया है कि लड़का पसंद न हो, तो उसे नामर्द बता दो. यह एक ऐसी बीमारी है, जिस का कोई इलाज ही नहीं है,’’ इस तरह एकतरफा गरज कर मधु के पिता बाहर चले गए.

यह बात धीरेधीरे पूरे गांव में फैल गई. गांव वाले मधु के खिलाफ होने लगे. अब तो उस का घर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया.

दीपक भी अपनी मां के कहने पर नौकरी के लिए शहर चला गया.

विद्यासागर ने मधु की दूसरी शादी कराने की बहुत कोशिश की, पर कहीं बात नहीं बनी. वे जानते थे कि लड़की की एक बार शादी होने के बाद उस की दूसरी शादी कराना बड़ा ही मुश्किल होता है. इस तरह एक साल गुजर गया. मधु को भी अपनी गलती का एहसास हो गया था. वह बारबार यही सोचती, ‘मैं ने क्यों अपना घर उजाड़ दिया? मेरे चलते ही परिवार वाले मुझ से नफरत करते हैं.’

फिर बड़ी मुश्किल से मधु के लिए एक रिश्ता मिला. उस आदमी की बीवी कुछ महीने पहले मर गई थी. वह विदेश में रह कर अच्छा पैसा कमाता था.

मधु की मां ने उस से पूछा, ‘‘सचसच बताना कि तुझे यह रिश्ता मंजूर है?’’

मधु ने धीरे से कहा, ‘‘हां.’’

मां ने कहा, ‘‘इस बार कुछ गड़बड़ की, तो अब इस घर में भी जगह नहीं मिलेगी.’’

मधु बोली, ‘‘ठीक है.’’

फिर मधु की शादी गांव से दूर एक शहर में कर दी गई. वह आदमी भी मधु को देख कर बहुत खुश था.

जब मधु एयरपोर्ट पर अपने पति के साथ विदेश जाने लगी, तो उस के परिवार वालों ने सबकुछ भुला कर उसे विदा किया. उस की मां ने नम आंखों से जातेजाते मधु से पूछ ही लिया, ‘‘क्या तुम इस रिश्ते से खुश हो?’’

मधु ने भी नम आंखों से कहा, ‘‘खुश हूं. एक गलती कर के पछता रही हूं. अब मैं भूल से भी ऐसी गलती दोबारा नहीं करूंगी.’’

विद्यासागर ने मधु से भर्राई आवाज में कहा, ‘‘मधु, मैं ने गुस्से में तुम से जोकुछ भी कहा, उसे भूल जाना.’’ कुछ देर बाद पूरे परिवार ने नम आंखों से मधु को विदा कर दिया.

कमजोर होने के बजाय 4 जून के बाद और मजबूत क्यों हो रहा इंडिया ब्लौक

“ये चुनौतियां मेरे लिए नहीं हैं, ये अध्यक्ष के लिए हैं. जिस का अर्थ है कि इस पर बैठा व्यक्ति अयोग्य है. मुझे सदन से वह समर्थन नहीं मिला जो मुझे मिलना चाहिए था, मेरे सर्वोत्तम प्रयासों के बाबजूद मैं निराश हूं. मेरे पास एक ही विकल्प है, भारीमन से मैं खुद को कुछ समय के लिए यहां बैठने में असमर्थ पाता हूं.”

इतना कहने के बाद राज्यसभा अध्यक्ष जगदीप धनखड़ सदन से बाहर चले गए. वाकेआ राज्यसभा का है. 8 अगस्त को विपक्षी सदस्य रैसलर विनेश फोगट को ओलिंपिक में अयोग्य ठहराए जाने पर चर्चा की मांग कर रहे थे. लेकिन धनखड़ ने इस से मना किया तो उन्होंने वाकआउट कर दिया. यह मामला कांग्रेस के मल्लिकार्जुन खड़गे ने उठाया था जिन का समर्थन टीएमसी, सीपीआई और आप सहित सभी विपक्षी दलों ने किया था. इन पार्टियों के सदस्यों ने बहस के लिए नियम 267 के तहत नोटिस भी दिया था. विनेश का मुद्दा वाकई गंभीर था लेकिन धनखड़ इस पर कुछ सुनने तैयार नहीं थे क्योंकि पूरी भाजपा इस से बच रही थी. भाजपा क्यों बच रही थी, कुश्ती में दिलचस्पी न रखने वाले भी इस की वजह जानते हैं.

होहल्ले के बीच अहम बात धनखड़ का वाकआउट करना रहा, नहीं तो अभी तक विपक्ष ही वाकआउट करता रहा था. यह संभवतया यह पहला मौका था जब राज्यसभा अध्यक्ष ही घबरा कर वाकआउट या पलायन कुछ भी कह लें कर गए. उन की स्थिति एक ऐसे ड्राइवर जैसी मुद्दत से दिख रही है जिस से बस चलाते नहीं बन रहा है या ऐसे टीचर की जिस से क्लास संभाले नहीं संभल रही है. सरकारी स्कूलों के गुरुओं की तरह वह चाहता है कि छुट्टी की घंटी बजने तक बच्चे मुंह में दही जमाए बैठे रहें और वह पैर टेबल पर फैलाए इत्मीनान से ऊंघता रहे.
लेकिन हो उलटा रहा है, छात्र कह रहे हैं कि गुरुजी उठो पढ़ाई चालू करो. ब्लैकबोर्ड पर चाक से कुछ लिखो, नहीं तो हम तो शोर मचाएंगे ही.

अब गुरुकुलों सा दौर नहीं है कि हम आप के पांव दबाते रहें, आश्रम के बाहर बंधी आप की गाय का दूध दुह कर गुरुमाता को दे कर अपनी शिक्षा पूरी हुई मान लें.

बस, इस लोकतांत्रिक मानसिकता पर धनखड़ झल्ला उठे और खुद ही अपनी काबिलीयत पर सवालिया निशान यह कहते लगा बैठे कि ये चुनौतियां मेरे लिए नहीं हैं, ये अध्यक्ष के लिए हैं जिस का अर्थ है कि इस पर बैठा व्यक्ति अयोग्य है. अगर सदस्यों की मांग चुनौती है तो उन्हें इस का सामना करना आना चाहिए. संसद में बैठे सदस्य कोई स्कूली बच्चे नहीं जो मास्टर की डांट सुन सहम कर बैठ जाएंगे.

ऐसी उम्मीद इंडिया ब्लौक के संसद सदस्यों से अब जगदीप धनखड़ सहित लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह या रक्षामंत्री राजनाथ सिंह को नहीं करनी चाहिए. क्योंकि 4 जून के नतीजों ने संदेश यही दिया है कि अब सत्ता पक्ष की और चेयर की मनमानी नहीं चलेगी जो 2014 से ले कर 2024 तक खूब चल चुकी, जिस से जनता को कुछ शकशुबहा हुआ या खटका लगा तो उस ने विपक्ष के मुंह में वोटों के जरिए आवाज और दिलोदिमाग में आत्मविश्वास भर दिया.

8 अगस्त की रात धनखड़ ढंग से सो पाए या नहीं, यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन 9 अगस्त की सुबह फिर राज्यसभा में उन की भड़ास, खीझ और गुस्सा दिखा. पिछले दिन निशाने पर टीएमसी के डेरेक ओ ब्रायन और कांग्रेस के जयराम रमेश थे तो इस दिन वे सपा की तेजतर्रार ऐक्ट्रैस सांसद जया बच्चन से उलझ पड़े.

इन दोनों की नोकझोंक ज्यादातर इंग्लिश में चली जिस का सार यह था कि धनखड़ जया बच्चन को अमिताभ जया बच्चन के नाम से न पुकारें. इस बाबत धनखड़ की दलील यह थी कि चूंकि उन का औफिशियल नाम यही है, इसलिए वे उन्हें इस नाम से ही पुकारेंगे. जया की आपत्ति यह थी कि आप की टोन यानी लहजा ठीक नहीं, तो धनखड़ इंग्लिश में ही बिफर पड़े जिस का सार यह था कि आप सैलिब्रेटी होंगी लेकिन यहां शिष्ट और संसदीय आचरण रखें. अब यह किसी ने नहीं पूछा कि नरेंद्र मोदी को उन के औफिशियल नाम नरेंद्र दामोदर दास मोदी से क्यों नहीं पुकारा जाता.

बहरहाल, धनखड़ की टोन इस बार भी वैसी ही थी जैसी किसी जेलर की कैदियों के सामने होती है. इस पर जया को भी गुस्सा आ गया और उन्होंने दो टूक कह दिया कि हम और आप कलीग हैं. फर्क इतना है कि आप वहां बैठे हैं. इस बहस के दौरान इंडिया गठबंधन के सदस्यों ने जया का पक्ष लेते हल्ला मचाया और वाकआउट करने को उठ खड़े हुए. नजारा विनेश की कुश्ती सरीखा ही था. जब धनखड़ तेज आवाज में बोलते थे तो भाजपाई उन की हिम्मत बढ़ाने के लिए शोर मचा कर समर्थन कर रहे थे और जया जब बोलती थीं तो विपक्षी सदस्य उन का साथ दे रहे थे. एक भाजपा सांसद घनश्याम तिवाड़ी द्वारा मल्लिकार्जुन खड़गे पर की गई आपत्तिजनक टिप्पणी पर भी गठबंधन सदस्यों ने कार्रवाई की मांग की.

उत्तरकांड में इंडिया ब्लौक के सदस्यों की तरफ से सुगबुगाहट सुनाई दी कि बहुत हो गया अब. अब, धनखड़ को हटाने के लिए महाभियोग लाया जाए. 10 अगस्त तक 87 सदस्यों ने इस पर सहमति भी दे दी. अगर ऐसा हुआ तो राज्यसभा में यह पहला मौका होगा जब उपराष्ट्रपति को हटाने के लिए महाभियोग लाया जाएगा. हालांकि यह आसान नहीं है क्योंकि इंडिया ब्लौक के पास 225 में से महज 87 ही सांसद हैं जबकि चाहिए 113.

87 में से कांग्रेस के 26, टीएमसी के 13, आप और डीएमके के 10-10 सांसद हैं. 26 और वोट कबाड़ना गठबंधन के लिए मुश्किल होगा लेकिन इस के बाद भी उस के हौसले बुलंद हैं और मंशा अपनी ताकत व एकजुटता दिखाने के साथ धनखड़ को सबक सिखाने की है तो नाकामी की चिंता भी उसे नहीं. अब देखना दिलचस्प होगा कि एकजुट और मजबूत हो चुका विपक्ष क्या करेगा?

हाल लोकसभा के भी यही हैं. स्पीकर ओम बिरला भी बौखलाए और खीझेखीझे से रहते हैं. लेकिन वे धनखड़ की तरह बिफरते नहीं हैं क्योंकि लोकसभा में इंडिया गठबंधन के निशाने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उन के मंत्री ज्यादा रहते हैं. ऐसा ही 9 अगस्त को वक्फ बोर्ड बिल पर बहस के दौरान हुआ जब अखिलेश यादव ने गृहमंत्री अमित शाह पर गोलमोल बातें करने का आरोप लगाया.

अखिलेश यादव ने एक तकनीकी तर्क यह रखा कि जब चुनाव के लिए लोकतांत्रिक प्रक्रिया है तो लोगों को नामित क्यों किया जाए. समुदाय के बाहर का कोई भी व्यक्ति अन्य धार्मिक निकायों का हिस्सा नहीं है. वक्फ निकायों में गैरमुसलिमों को शामिल करने का मतलब क्या है? भाजपा लोकसभा चुनाव में हार के बाद कुछ कट्टरपंथी समर्थकों को खुश करने के लिए यह बिल लाई है.

वक्फ बोर्ड संशोधन बिल पर भी इंडिया गठबंधन के घटक दलों ने एकता दिखाई तो थकहार कर अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री किरण रिजूजू को संयुक्त संसदीय समिति की घोषणा करनी पड़ी. यह मांग भी उन के सहयोगी दल टीडीपी की ही थी. यह 4 जून का ही इफैक्ट है नहीं तो 10 साल वही हुआ जो प्रधानमंत्री और उन के मंत्रियों ने कह दिया. तब विपक्ष के पास इतनी संख्या नहीं थी कि वह पूरे आत्मविश्वास से सरकार की मनमानी पर अंकुश लगाते लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका की किताबी बातों को अमल में ला कर दिखा सके.

यही एकजुटता उस वक्त भी दिखी थी जब योगी सरकार ने मुसलमानों का आर्थिक बहिष्कार करने की गरज से दुकानों पर नाम और पहचान की तख्तियां लटकाने का हुक्म जारी किया था. इंडिया ब्लौक के साथसाथ एनडीए के घटक दलों ने भी इस तुगलकी फरमान का कड़ा विरोध किया था तो एकबारगी सरकार खतरे में दिखाई देने लगी थी. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भाजपा और उस की सरकार की जम कर भद्द पिटी थी.

99 का फेर भाजपा सरकार को कितना भारी पड़ रहा है, यह संसद की कार्रवाई से साफ दिखता है कि वह पहले जैसे मनमाने ढंग से फैसले नहीं ले पा रही. असर संसद के बाहर भी साफसाफ दिख रहा है. 4 जून के बाद ईडी, आईटी और सीबीअई ने कहीं ‘उल्लेखनीय’ छापा नहीं मारा है. विपक्ष का कोई ‘वजनदार’ नेता जेल में नहीं ठूंसा गया है. उलटे, मनीष सिसोदिया को जमानत मिल गई है और अरविंद केजरीवाल को भी जमानत मिलने की संभावना बढ़ी है.

सोशल मीडिया पर भक्तों की मनमानी कम हुई है और मीडिया भी कुछ ही और कभीकभार ही सही सरकारी फैसलों और नीतियों पर निष्पक्षता से बोलने लगा है. इस की एक मिसाल वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के बजट पेश करने के बाद देखने में आई थी, जब एक न्यूजचैनल आज तक के एक एंकर सुधीर चौधरी ने उन पर ताने कसे थे. हालांकि मीडिया अभी भी वैचारिक और सैद्धांतिक तौर पर कट्टर हिंदुत्व और पाखंडों का विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है. वह अब अपने उपभोक्ताओं यानी दर्शकों और पाठकों का मूड और देश का माहौल देख कर अपनी रिपोर्टिंग करता है. यानी, सरकारी विज्ञापनों और अपने हिंदूवादी होने का असर अभी उस पर है.

65 दिनों में और इतना भी हुआ है कि हर कोई राहुल गांधी को उन की कदकाठी के हिसाब से जगह देने को मजबूर हो चला है. ऐसा इसलिए नहीं कि बकौल नरेंद्र मोदी वे शहजादे हैं या राजसी खानदान से ताल्लुक रखते हैं बल्कि इसलिए कि विपक्ष के नेता का संवैधानिक पद उन्होंने अपनी मेहनत और सूझबूझ से हासिल किया है.

राहुल गांधी के आक्रामक तेवर संसद के अंदर और बाहर दोनों जगह देखने को मिल जाते हैं. जैसे ही अनुराग ठाकुर ने लोकसभा में राहुल गांधी पर जातिगत भद्दी, छिछोरी, सनातनी टिप्पणी की थी तो पूरा इंडिया ब्लौक उन के साथ खड़ा दिखा. अखिलेश यादव का यह कहना कि आप किसी की जाति कैसे पूछ सकते हैं, आम लोगों और कुछ उदारवादी भाजपा समर्थकों के भी दिल में उतर गया था. राहुल ने भी बजाय भड़कने के, भगवा मंशा पूरी करने के गांधी स्टाइल में ही अनुराग ठाकुर को सदन में ही माफ कर दिया.

इस सब्र और चतुराई का जवाब किसी अनुराग ठाकुर या भाजपाई के पास नहीं है जो जाति देख कर यह तय करते हैं कि सामने वाले के साथ कैसा व्यवहार करना है. अभी तक मंदिरों में जाति पूछी जाती थी, अब संसद में भी पूछा जाना देश और समाज के लिए खतरे और चिंता की बात है. एक हद उस हिंदुत्व के लिए भी जिस का दम भगवा गैंग भरता है कि हम जातपांत नहीं मानते. हकीकत में तो कट्टर सनातनी जातपांत के अलावा कुछ और देखतामानता ही नहीं क्योंकि उस के संविधान ‘मनुस्मृति’ में तो यही लिखा है.

इस तरह की हरकतों से खुद भाजपा राहुल गांधी को कांग्रेस के मुकाबले ज्यादा मजबूत कर चुकी है. इस के बाद भी ‘लागी उस से छूट नहीं रही’ तो इस का भी खमियाजा भुगतने को उसे तैयार रहना चाहिए. भाजपा और उस की सरकार की बड़ी दिक्कत राहुल गांधी का आंख से आंख मिला कर बातें और बहस करना है. संसद में किसानों के अलावा उन अछूत लोगों से मिलने का रिवाज शुरू करना भी है जिन का कोई मानसम्मान हिंदू समाज में नहीं है.

संसद का मानसून सत्र खत्म होने के बाद सब से सुर्खियों वाली खबर यह थी कि राहुल और मोदी ने हाथ मिलाया. इस के पहले लोकसभा अध्यक्ष बनाए जाने के बाद ओम बिड़ला से हाथ मिलाने में नरेंद्र मोदी का मजबूरीभरा रोल हर किसी ने नोटिस किया था. नरेंद्र मोदी के बाद कौन, यह सवाल पूछा जाना अब लगभग खत्म सा हो चला है जो भाजपा के लिहाज से बड़ा खतरा है क्योंकि अंधभक्तों की तादाद में बड़ी गिरावट आई है और सब से दिलचस्प बात यह कि 4 जून के बाद शायद ही किसी ने नरेंद्र मोदी को हंसते देखा हो. इस के लिए उन्हें विदेश जाना पड़ता है जहां हंसता हुआ चेहरा एक तरह का प्रोटोकाल होता है.

लेकिन यह तभी तक है जब तक इंडिया गठबंधन एकजुट है. जिस दिन यह एकजुटता टूटेगी, उस दिन जरूर भाजपा जश्न मना सकती है जिस के आसार हालफिलहाल तो नजर नहीं आ रहे. लेकिन यह राजनीति है, यह भी याद रखा जाना चाहिए कि इस में कभी भी, कुछ भी हो सकता है. जरूरत उस संविधान से भरोसा उठनेभर की है जिस की प्रति सीने से लगाए इंडिया ब्लौक ने 234 का आंकड़ा छुआ है.

अनहाइजीनिक फूड का प्रचार करते व्लौगर्स

स्ट्रीट फूड्स की फूड वीडियोज देखते ही सब के मुंह में पानी आ जाता है और खासकर तब जब व्लौगर्स खाने की तारीफ करते नहीं थक रहे हों.

हाल ही में मैं ने एक फूड वीडियो देखा जिस में फूड व्लौगर किसी स्ट्रीट फूड की जम कर तारीफ कर रहा था लेकिन जब उस के पीछे जो नजारा दिखा तो उस फूड के जायके का असली सीक्रेट पता चल गया. गंदा नाला, कूड़े का ढेर, भिनभिनाती मक्खियां और व्लौगर कहता- ‘वाह क्या स्वाद है.’

वीडियो ने खोल दी पोल

आप ने भी ऐसे अनेक फूड रिलेटेड वीडियो देखे होंगे जिन में व्लौगर कहते हैं, ‘यह डिश दुनिया की सब से बेहतरीन डिश है और आप को उसे जरूर ट्राई करना चाहिए. लेकिन आप उन के कहने पर कोई भी फूड ऐसे ही ट्राइ न करें वरना आप की सेहत पर खतरा जरूर मंडरा सकता है.

फूडव्लौगिंग के दौर में बहुत से लोग अब फूड व्लौगर के रिव्यूज देख कर उन दुकानों तक पहुंचते हैं जहां उन्हें लजीज व्यंजनों का स्वाद चखने का मौका मिल सकता है. सोशल मीडिया पर इन दिनों ऐसा ही एक वीडियो खूब सुर्खियां बटोर रहा है, जिस में एक शख्स कैमरे के सामने स्ट्रीट फूड की जम कर तारीफ करता हुआ नजर आता है. लेकिन इस वीडियो में नेटिजन्स को कुछ ऐसा दिख गया जिस के बाद लोग अब उस फूड व्लौगर की जम कर क्लास ले रहे हैं.

सेहत के साथ न करें खिलवाड़

दरअसल होता यह है कि जब वह फूड व्लौगर कैमरे के सामने बैठ कर उस ठेले वाले के खाने की तारीफ कर रहा होता है, तभी उसी समय फूड व्लौगर के पीछे खड़ा ठेले वाला अपनी लुंगी के अंदर हाथ डाल कर अपना कूल्हा खुजलाते हुए कैमरे में कैद हो जाता है. यह पहला मामला नहीं है जब ऐसा कोई वीडियो सामने आया हो. इस से पहले भी गोलगप्पे बनाने, रेवड़ी बनाने और गुड़ बनाने जैसे कई वीडियो सामने आ चुके हैं जिन में देखा गया कि लोग हाथ या पैरों का इस्तेमाल कर इन्हें बना रहे हैं.

इन वीडियोज में कोई बड़े से कंटेनर में गंदा हाथ डाल कर फालूदा निकाल रहा होता है तो कोई रेवड़ी को नंगेपैर से चपटा करते हुए दिख रहा होता है. लेकिन फूड व्लौगर्स सोशल मीडिया पर उन खाने की तारीफ करते नहीं थकते.

जानलेवा हो सकता है यह भोजन

इन फूड के ठेलों और दुकानों पर रेहड़ी वाला अकसर अखबार में लपेट कर खाना दे देता है, लेकिन बहुत कम लोग इस बात से वाकिफ होंगे कि जिस अखबार पर उन्हें यह खाना परोसा जा रहा है उस पर रख कर खाना जानलेवा भी हो सकता है. यही वजह है कि अब भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण ने सभी फूड वैंडर्स और खाना खरीदने वालों को इस बारे में आगाह किया है.

वीडियोव्लौगर्स द्वारा नुकसानदेह फूड का प्रमोशन उन की बिक्री को बढ़ा रहा है. लेकिन इन सब के बीच सब से चिंताजनक बात यह है कि ऐसे भोजन का सेवन लोगों के बीच बढ़ता जा रहा है. आजकल डिजिटल प्लेटफौर्म और सोशल मीडिया पर व्लौगर्स बिना लोगों की सेहत का ध्यान रखे अस्वास्थ्यकर भोजन का प्रचार कर रहे हैं और इस प्रचार के नतीजों से बच्चों में अस्वास्थ्यकर भोजन की खपत बढ़ रही है.

स्ट्रीट फूड्स खाने से पहले संभल जाएं

अगर आप भी स्ट्रीट फूड्स खाने के शौकीन हैं और फूड व्लौगर्स के रिकमडेशन पर वहां का फूड खाने की सोच रहे हैं तो थोड़ा संभल जाएं और खाने से पहले इतना ध्यान जरूर दें कि वह कितने हाइजीनिक तरीके से बनाया जा रहा है और उसे बनाने में साफसफाई का कितना ध्यान रखा जा रहा है. आजकल फूड व्लौगर्स व्यूज और कमाई के चक्कर में सोशल मीडिया पर ऐसे फूड वीडियोज डाल रहे हैं जहां उन फूड वीडियोज के खाने की जम कर तारीफ की जाती है जबकि अगर ध्यान से देखा जाए तो वह भोजन बहुत ही अनहाईजीनिक तरीके से बनाया जा रहा होता है. इस से लोगों की सेहत के साथ खिलवाड़ हो रहा है.

डाक्टर्स का भी मानना है कि इस तरह के वीडियोज को देख कर बाहर का अनहाइजीनिक फूड खाना लोगों में स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ा रहा है. स्ट्रीट फूड्स में इस्तेमाल होने वाली चीजें और उन्हें अनहाईजीनिक तरीके से बनाना भी सेहत को काफी ज्यादा नुकसान पहुंचाता है.

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