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महाराज : आमिर खान के बेटे व अभिनेता जुनैद खान हैं कमजोर कड़ी

(दो स्टार)

फिल्म ‘हिचकी’ फेम निर्देशक सिद्धार्थ पी मल्होत्रा इस बार सौरभ शाह लिखित उपन्यास ‘‘महाराज’’ पर इसी नाम से एक पीरियाडिक फिल्म ले कर आए हैं, जो कि अदालती झंझटों का सामना करने के बाद 21 जून से ओटीटी प्लेटफौर्म ‘नेटफ्लिक्स’ पर स्ट्रीम हो रही है. सौरभ शाह ने 1862 के चर्चित ‘महाराजा लाइबल केस’ को आधार बना कर इस उपन्यास को लिखा.

इस उपन्यास में एक समाज सुधारक व पत्रकार करसनदास मूलजी के खिलाफ वैष्णव पुष्टिमार्ग संप्रदाय के धार्मिक नेता यदुनाथ द्वारा मानहानि का केस करने व अदालत में हारने की कहानी है. हकीकत में यह फिल्म धर्म के नाम पर नारी शोषण की गाथा है. निर्माता व निर्देशक ने फिल्म की शुरुआत में ही घोषित किया है कि यह सत्य घटनाक्रम पर आधारित है, मगर वह इस की सत्यता को प्रमाणित नहीं करते.

सौरभ शाह की किताब ‘महाराज’ पर किसी भी धर्मावलंबी ने विरोध नहीं जताया था, बल्कि इस पुस्तक को 2013 में पुरस्कृत किया गया था. मगर देश में जिस तरह की सरकार है, उसी के चलते कुछ हिंदू संगठनों ने इस का प्रदर्शन रूकवाने के लिए अदालत की शरण ली थी, पर अदालत ने फिल्म को प्रदर्शन की अनुमति दे दी. मेरी राय में इस फिल्म में विरोध जताने वाला कोई मसला नहीं है. यह फिल्म तो 1862 के समय की ‘‘चरण सेवा’’ की कुप्रथा के खिलाफ बात करती है. ‘आश्रम’ जैसी वेब सीरीज का विरोध न करने वाले अब ‘महाराज’ के विरोध में उतरे थे.

कहानी

1862 के सर्वाधिक चर्चित अदालती केस ‘महाराजा लाइबल’ पर सौरभ शाह लिखित किताब ‘महाराज’ पर आधारित इस फिल्म की कहानी के केंद्र में पत्रकार व समाज सुधारक करसनदास मूलजी (जुनैद खान) और वैष्णव संप्रदाय की सब से बड़ी हवेली के पुजारी (मंदिर) यदुनाथ हैं. यदुनाथ हिंदू धर्म के वैष्णव पुष्टिमार्ग संप्रदाय के धार्मिक नेता थे. पुष्टिमार्ग की स्थापना 16वीं शताब्दी में वल्लभ द्वारा की गई थी और यह कृष्ण को सर्वोच्च मान कर पूजा करता है. संप्रदाय का नेतृत्व वल्लभ के प्रत्यक्ष पुरुष वंशजों के पास रहा, जिन के पास महाराजा की उपाधियां थीं.

धार्मिक रूप से वल्लभ और उन के वंशजों को कृष्ण की कृपा के लिए मध्यस्थ व्यक्ति के रूप में आंशिक देवत्व प्रदान किया गया है जो भक्त को तुरंत कृष्ण की उपस्थिति प्रदान करने में सक्षम हैं. फिल्म की शुरुआत 1840 में गुजरात के एक गांव में मूलजी भाई (संदीप मेहता) के बेटे के रूप में करसनदास मूलजी के जन्म से होती है. जो कि बचपन से ही ‘महिलाएं घूंघट क्यों ओढ़ती हैं?’ या ‘क्या देवता उन की भाषा बोल सकते हैं?’ जैसे सवाल पूछना शुरू करता है. करसन की मां की मौत के बाद उस के पिता करसनदास को बौम्बे (वर्तमान मुंबई) में उस के मामा और विधवा मासी (स्नेहा देसाई) के पास छोड़ जाते हैं. जहां पढ़लिख कर करसनदास पत्रकार के रूप में दादाभाई नौरोजी (सुनील गुप्ता) जैसे प्रगतिशील पुरुषों के साथ काम करते हुए दादाभाई नौरोजी के अखबार में समाज सुधारक लेख लिखते हैं. मसलन वह अपने लेख में विधवा विवाह की वकालत करते हैं. धार्मिक व्यक्ति होते हुए भी अंधविश्वास में विश्वास नहीं करते हैं.

करसन की सगाई किशोरी (शालिनी पांडे) से हुई है और वह जल्द शादी करने वाले हैं. किशोरी यदुनाथजी (जयदीप अहलावत) की भक्त है. होली के त्योहार वाले दिन यदुनाथजी, किशोरी को ‘चरण स्पर्श’ समारोह के लिए चुनते हैं. ‘चरण स्पर्श’ प्रथा के तहत पुजारी यदुनाथ जी हमेशा अविवाहित महिला के साथ शारीरिक संपर्क बनाते हैं, ज्यादातर उन से जिन का विवाह होने वाला होता है. ‘चरण स्पर्श’ की प्रक्रिया को आम लोग पैसा दे कर ‘हवेली’ की खिड़कियों से देख सकते हैं.

करसनदास, किशोरी को महाराज के साथ आपत्तिजनक स्थिति में देख कर हर बाधा को पार कर यदुनाथ व किशोरी तक पहुंच जाता है. मगर उस वक्त किशोरी, करसन के साथ चलने से इंकार कर देती है और यदुनाथजी कहते हैं कि वह किसी भी लड़की के साथ जबरन कुछ नहीं करते. यदुनाथ, गीता के एक श्लोक को संस्कृत में पढ़ कर हिंदी में उस की गलत ढंग से व्याख्या करते हुए कहते हैं कि मोक्ष पाने के लिए भगवान को तन मन धन सब कुछ समर्पित करना होता है. तन का समर्पण ही ‘चरण सेवा’ है.
करसन, किशोरी संग विवाह करने से इंकार करने के साथ ही ‘चरण सेवा’ प्रथा पर भी सवाल उठाता है. करसन की राय में यह तो नारी का शोषण है. फिर वह आवाज उठाने का निर्णय लेता है. यदुनाथ महाराज की ‘चरण सेवा’ के खिलाफ करसन लेख लिखता है, जिसे दादाभाई नौरोजी अपने अखबार में छापने से मना कर देते हैं. उन की राय में वह ‘बड़ी हवेली’ के पुजारी यदुनाथ के खिलाफ कुछ भी नहीं छापेंगे. तब करसन अपना अखबार ‘सत्य प्रकाश’ निकाल कर उस में पुजारी यदुनाथ व ‘चरण सेवा’ प्रथा के विरोध में लेख छापता है.

करसन अपनी तरफ से समाज को शिक्षित करने की कोशिश करता है, लेकिन उस के समुदाय के लोग महाराज को अपने परिवार की महिलाओं के साथ शारीरिक संबंध बनाने में कोई बुराई देखने की बजाय उस दिन घर पर खुशी में मिठाई बनाते हैं. यदुनाथ दबाव बनाते हैं, जिस के चलते करसन के पिता भी उसे त्याग देते हैं. सभी दबाव असफल होने के बाद यदुनाथ, अदालत में करसन के खिलाफ 50 हजार रुपए का मानहानि का मुकदमा करते हैं. बौम्बे सुप्रीम कोर्ट 5 अप्रैल 1862 को करसनदास मूलजी के पक्ष में निर्णय देता है.

समीक्षा:

बतौर निर्देशक सिद्धार्थ पी मल्होत्रा ने 1862 के मुंबई को सही ढंग से चित्रित करने में सफलता पाई है. मगर पूरी फिल्म करसनदास मूलजी और पुजारी यदुनाथ महाराज के ही इर्द गिर्द सीमित है. फिल्म उस वक्त के माहौल, राजनीतिक व सामाजिक परिस्थितियों, वैष्णव संप्रदाय, यदुनाथ महाराज की हरकतों व करसनदास द्वारा उठाए गए कदम का समाज पर क्या असर हो रहा था, किस तरह बड़ी हवेली की छवि धूमिल हो रही थी, आदि पर यह फिल्म कुछ नहीं कहती. शायद लेखक व निर्देशक भूल गए कि 1850 से 1870 का वह कालखंड है, जब नारी की मुक्ति के बारे में बातचीत शुरू हो रही थी (मुख्य रूप से, विधवा पुनर्विवाह के आसपास की बातचीत). लेकिन यह सब पितृसत्तात्मक परिवार व्यवस्था के दायरे में ही हो रही थी. पर फिल्म इस पर कुछ नहीं कहती.

फिल्म कहीं न कहीं करसन की यदुनाथ महाराज के साथ निजी दुश्मनी को भी दर्शाती है. अगर करसन की मंगेतर किशोरी के साथ घटना न घटती, तब भी करसन, यदुनाथ व ‘चरण सेवा’ के खिलाफ जनजागृति फैलाने का काम करते? इस सवाल का जवाब फिल्म में नहीं है. जब कभी किसी कुप्रथा पर कुठाराघात किया जाता है, तो उस का समाज पर काफी गहरा असर होता है, जिस का चित्रण फिल्म में नहीं है. इतना ही नहीं समाज सुधारक करसनदास का अपनी मंगेतर किशोरी से शादी तोड़ने की बात करना, उन के समाज सुधारक वाली छवि पर प्रश्नचिन्ह लगाता है. पर फिल्म इस तरह से कुछ नहीं कहती.

1862 तो वह काल था, जब ब्रिटिश शासन था. पर फिल्मकार इस बात को भी रेखांकित करने में विफल रहे हैं. खैर, फिल्म देख कर अहसास होता है कि निर्देशक को कथानक की संवेदनशीलता की समझ है, जिस का उन्होंने इस में पूरा ख्याल रखा है. परिणामतः किसी धर्म पर हमला न करते हुए भी फिल्म कई सवाल उठाती है. तो वहीं वैद्य भाई दाजी लाड के किरदार को अचानक जिस तरह से बिना किसी स्पष्टीकरण के साथ पर्दे पर लाया जाता है, वह लेखक व निर्देशक की कमजोरी की निशानी है.
यह निर्देशक की कुशलता ही है कि जब करसनदास अपनी मंगेतर किशोरी को यदुनाथ महाराज के साथ देखता है, तो वह परेशान होता है, मगर यह दृश्य उत्तेजक नहीं है. इंटरवल से पहले फिल्म की गति काफी धीमी है. मूल कहानी यानी कि मानहानि केस का ट्रैक देर से शुरू होता है. अदालती कार्रवाई के दौरान कोई तनाव नहीं पैदा होता. अदालती दृश्य कुछ शुष्क हैं. अदालत के बाहर जिस तरह से यदुनाथ महाराज के समर्थकों का जमावड़ा दिखाया गया है, वह गलत लगता है. इतना ही नहीं फिल्म देख कर अहसास होता है जैसे कि ब्रिटिश हुकूमत के वक्त के न्यायाधीश भी यदुनाथ महाराज से प्रभावित थे. क्या वास्तव में ऐसा था, हमें पता नहीं.

फिल्म के गीतसंगीत से 19वीं सदी का अहसास होने की बजाय लगता है कि हम वर्तमान समय के बौलीवुड में जी रहे हैं.

अभिनय:

करसनदास मूलजी जैसे सशक्त किरदार में जुनैद खान का चयन गलत ही कहा जाएगा. इस किरदार में जुनैद खान फिट नहीं बैठते. कई दृश्यों में उन का सपाट चेहरा निराश करता है. भावनात्मक दृश्यों में वह काफी निराश करते हैं. जुनैद खान को अपनी संवाद अदायगी पर काफी मेहनत करने की जरुरत है.
करसनदास के किरदार में जुनैद खान को देख कर अभिनय में उन के उज्ज्वल भविष्य की उम्मीद कम ही नजर आती है. क्रोध आने पर भी क्रोध को दबा कर मुसकराने वाले अति विनम्र यदुनाथ महाराज के किरदार में जयदीप अहलावत जरुर प्रभावित करते हैं. धर्मभीरू गुजराती लहजे वाली किशोरी के छोटे किरदार में शालिनी पांडे ठीकठाक हैं. दर्शक उन्हें इस से पहले फिल्म ‘सम्राट पृथ्वीराज’ में भी देख चुके हैं. जय उपाध्याय, संजय गोराडिया, स्नेहा देसाई, संदीप मेहता, कमलेश ओझा, प्रियल गोर, सुनील गुप्ता, उत्कर्ष मजूमदार, जेमी आल्टर, मार्क बेनिंगटन, एडवर्ड सोनेंब्लिक और वैभव तत्ववादी का अभिनय ठीकठाक है. विराज के किरदार में शरवरी वाघ खास प्रभाव नहीं डाल पाईं.

क्या पुरुषों को भी मेनोपोज होता है?

डा. विकास जैन

आजकल परिवारों में ऐसे पुरुष आम तौर से देखने को मिलते हैं, जिन की उम्र 45 वर्ष के आसपास है और जो काम एवं घर, दोनों जगह चिड़चिड़ापन महसूस करते हैं और सुस्त जीवन व्यतीत करते हुए जीवन की नकारात्मकताओं के बारे में बात करते रहते हैं. ये वही लोग हैं, जो कुछ साल पहले तक बहुत खुशमिजाज हुआ करते थे और हंसीमजाक करते रहते थे. जो लोग रात में जोश से भरे होते थे, आज उन का जोश ठंडा पड़ चुका है. उन के साथ ऐसा क्या हो गया है? इस का कारण जानने की फिक्र कोई नहीं करता बल्कि सभी लोग उन से दूरी बना लेते हैं और अंत में स्थिति यहां तक बिगड़ जाती है कि उन्हें मनोवैज्ञानिक के पास ले जाना पड़ता है.

ये लोग काम में अच्छा प्रदर्शन करने के दबाव (काम संबंधी तनाव) में होते हैं, उन्हें अपने बच्चों की शिक्षा और उनके कैरियर की चिंता होती है, जिस के लिए उन्हें ज्यादा पैसे कमाने और ज्यादा बचत करने की जरूरत होती है. उन्हें अपने वृद्ध होते मातापिता और उन की बीमारियों आदि की भी चिंता होती है. यह सभी घरों की आम कहानी है और ये पुरुष इस उम्र में जिस पीड़ा से ग्रसित हैं, उसे ‘पुरुषों का मेनोपोज’ या ‘एंड्रोपोज’ कहा जाता है.

30 साल की उम्र में पुरुषों में हार्मोन (टेस्टोस्टेरोन) धीरेधीरे कम होना शुरू हो जाते हैं. आम तौर से टेस्टोस्टेरोन हर साल 1 प्रतिशत कम होते हैं. जब तक वो 45 वर्ष की आयु तक पहुंचते हैं, तो टेस्टोस्टेरोन में कमी के लक्षण कम ऊर्जा, मूड स्विंग, और कामेच्छा में कमी के रूप में प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देने लगते हैं. इसलिए इस समय पुरुषों को मनोवैज्ञानिक की नहीं, बल्कि उन्हें समझने वाले परिवार और उनके एंड्रोपोज को नियंत्रित करने के लिए विशेषज्ञ सुझाव की जरूरत होती है.

मेनोपोज उम्र बढ़ने पर महिलाओं के जीवन में प्राकृतिक रूप से होने वाली एक घटना है, लेकिन मेनोपोज से केवल महिलाएं ही नहीं गुजरती हैं, बल्कि पुरुष भी इस चरण से गुजरते हैं, जिसे पुरुषों का मेनोपोज या एंड्रोपोज कहा जाता है. ‘पुरुषों के मेनोपोज’ का सिद्धांत, जिसे एंड्रोपोज या लेट-औनसेट हाईपोगोनैडिज्म कहा जाता है, वास्तविक है, हालांकि यह महिलाओं के मेनोपोज से बिल्कुल अलग है. महिलाओं के मेनोपोज में प्रजनन हार्मोन में स्पष्ट और बहुत तेजी से कमी आती है, जो आम तौर से 50 वर्ष के आसपास होता है. वहीं पुरुषों के मेनोपोज में टेस्टोस्टेरोन का स्तर धीरेधीरे कम होता है, जिस की शुरुआत 30 से 40 वर्ष की आयु के बीच होती है.

क्या पुरुषों को मेनोपोज से गुजरना पड़ता है?

मेनोपोज हार्मोन कम हो जाने के कारण महिलाओं का प्रजनन काल की समाप्ति है. माहवारी बंद होने के साथ यह प्राकृतिक रूप से होता है. लेकिन पुरुषों में हार्मोन का स्तर धीरेधीरे कम होता है. हालांकि कुछ पुरुषों में टेस्टोस्टेरोन अचानक कम होते हैं और एंड्रोपोज के लक्षण प्रकट होते हैं.

एंड्रोपोज को ‘पुरुषों का मेनोपोज’ भी कहते हैं, लेकिन यह पूरी तरह से सही नहीं है. मेनोपोज का मतलब माहवारी का बंद होना है, लेकिन पुरुषों को माहवारी नहीं हुआ करती है, इसलिए उन के लिए एंड्रोपोज शब्द का उपयोग करना चाहिए.

यह मुख्यतः मध्य आयु में या बुजुर्गों में तब होता है, जब टेस्टोस्टेरोन का उत्पादन और प्लाज़्मा का घनत्व कम हो जाता है. पुरुषों के यौन कार्य में टेस्टोस्टेरोन का घनत्व काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जो लगभग 10.4 mmol/L (10 मिलीमोल/लीटर) होता है, हालांकि यह अलगअलग पुरुषों में अलगअलग होता है. पुरुषों के टेस्टोस्टेरोन स्तर में 40 साल की उम्र के बाद हर साल औसतन 1 प्रतिशत की कमी आ जाती है. ज्यादातर वृद्ध पुरुषों में टेस्टोस्टेरोन का स्तर सामान्य होता है, केवल 10-25 प्रतिशत के स्तर को कम माना जाता है.

लेट औनसेट हाईपोगोनैडिज्म

कुछ मामलों में ‘पुरुषों का मेनोपोज’ जीवनशैली या मनोवैज्ञानिक समस्याओं के कारण नहीं बल्कि हाईपोगोनैडिज्म के कारण होता है. इस स्थिति में टेस्टिस बहुत कम या फिर बिल्कुल भी हार्मोन नहीं बनाते.

हाईपोगोनैडिज्म कभीकभी जन्म से होता है, जिस के कारण यौवन विलंब से प्राप्त होने और टेस्टिस छोटे होने जैसे लक्षण प्रकट होते हैं. यह बाद में भी हो सकता है, जो खासकर उन लोगों को होता है, जो मोटापे या टाईप 2 डायबिटीज़ से पीड़ित हैं. इसे लेट-औनसेट हाईपोगोनैडिज्म भी कहते हैं और इस की वजह से ‘पुरुषों के मेनोपोज’ के लक्षण उत्पन्न होते हैं. लेकिन यह एक बहुत विशेष मैडिकल स्थिति है. लेट औनसेट हाईपोगोनैडिज्म का निदान उन लक्षणों और परीक्षणों के आधार पर किया जा सकता है, जिन का उपयोग टेस्टोस्टेरोन का स्तर मापने के लिए करते हैं.

लक्षणः

इस के सब से आम लक्षण हैं

● यौनेच्छा और यौन कार्य में कमी
● थकान और ऊर्जा में कमी
● मूड में परिवर्तन, चिड़चिड़ापन और अवसाद
● मांसपेशियों और शक्ति में कमी
● शरीर में ज्यादा फैट
● हड्डियों का घनत्व कम होना, जिस के कारण ओस्टियोपोरोसिस हो सकता है
● संज्ञानात्मक परिवर्तन, जैसे ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई या स्मृति की समस्याएं

व्यक्तिगत या जीवनशैली की समस्याएं

उपरोक्त लक्षणों के लिए जीवनशैली एवं मनोवैज्ञानिक समस्याएं भी जिम्मेदार होती हैं. उदाहरण के लिए यौनेच्छा में कमी, इरेक्टाईल डिस्फंक्शन, और मूड में परिवर्तन तनाव, अवसाद, और चिंता के कारण हो सकते हैं.

इरेक्टाईल डिस्फंक्शन के अन्य कारणों में धूम्रपान या हृदय की समस्याएं शामिल हैं, जो मनोवैज्ञानिक समस्या के साथ हो सकती हैं. यह ‘मिड-लाईफ क्राईसिस’ के कारण भी हो सकता है, जब पुरुषों को लगता है कि वो अपने जीवन के आधे पड़ाव पर पहुंच चुके हैं. उन्होंने अपनी नौकरी या व्यक्तिगत जीवन में क्या हासिल किया या क्या खो दिया, इस की चिंता उन्हें अवसाद की ओर ले जाती है.

कारण

इस का प्राथमिक कारण टेस्टोस्टेरोन के उत्पादन में धीरेधीरे कमी होना है. महिलाओं में हार्मोन का परिवर्तन अचानक होने की बजाय पुरुषों में यह परिवर्तन दशकों में धीरेधीरे होता है.

इस स्थिति को बढ़ाने वाले अन्य कारणों में मोटापा, पुरानी बीमारी (जैसे डायबिटीज़), विशेष दवाएं, और जीवनशैली, जैसे धूम्रपान और अत्यधिक मदिरा सेवन शामिल हैं.
कई अन्य कारण, जिनकी वजह से एंड्रोपोज के लक्षण समय से पहले प्रकट हो सकते हैं, उन में शामिल हैंः

● डायबिटीज
● धूम्रपान
● मदिरा सेवन
● तनाव
● चिंता या अवसाद

यदि इन में से कोई भी लक्षण महसूस हो, तो डाक्टर से परामर्श लेना चाहिए. इन लक्षणों का कारण कुछ गंभीर समस्याएं हो सकती हैं.

निदान व इलाज

निदान में लक्षणों का मूल्यांकन और टेस्टोस्टेरोन का स्तर मापने के लिए खून की जांच की जाती है. यदि युवा पुरुषों में टेस्टोस्टेरोन का स्तर सामान्य से कम है, तो यह एंड्रोपोज का संकेत हो सकता है. जांच का सब से अच्छा समय सुबह होता है क्योंकि टेस्टोस्टेरोन का स्तर पूरे दिन बदलता रहता है. लक्षणों के अन्य कारणों में थायरायड की समस्याएं या अवसाद हैं.

पुरुषों में कम टेस्टोस्टेरोन के इलाज की ओर पहला कदम जीवनशैली में परिवर्तन है. इस में स्वस्थ वजन बनाए रखना, बेहतर आहार, नियमित व्यायाम, तनाव प्रबंधन, और पर्याप्त नींद लेना शामिल है. अगर किसी को मानसिक स्वास्थ्य की कोई समस्या है, तो उसे एंटीडिप्रेसेंट या चिंता को नियंत्रित करने की दवाओं से लाभ मिल सकता है.
लक्षण बने रहने पर डाक्टर से संपर्क करना चाहिए, जो टेस्टोस्टेरोन रिप्लेसमेंट थेरैपी का परामर्श दे सकते हैं. टेस्टोस्टेरोन रिप्लेसमेंट थेरैपी (टीआरटी) उन पुरुषों के लिए लाभदायक है, जिन में टेस्टोस्टेरोन का स्तर बहुत कम और लक्षण गंभीर होते हैं. हालांकि टेस्टोस्टेरोन थेरैपी के अपने जोखिम और साईड इफैक्ट हैं, जिनमें कार्डियोवैस्कुलर समस्याएं और प्रोस्टेट की समस्याएं शामिल हैं, इसलिए इन के लिए डाक्टर से नियमित निगरानी कराते रहना चाहिए.

पुरुषों में मेनोपोज वास्तव में होता है, हालांकि यह महिलाओं के मुकाबले बिल्कुल अलग होता है. एंड्रोपोज के लक्षण पुरानी बीमारी के साथ भी हो सकते हैं. इसलिए किसी भी लक्षण को उम्र बढ़ने का सामान्य हिस्सा न समझें. यदि कोई भी लक्षण महसूस हो, तो फौरन अपने डाक्टर से संपर्क करें. वो इसके लिए सब से अच्छे इलाज का परामर्श दे सकते हैं.

लेखक मणिपाल हौस्पिटल, द्वारका, दिल्ली में यूरोलौजी विभाग में एचओडी एवं कंसल्टैंट हैं

सतर्क हो जाइए, कहीं आप के साथ ब्रेडक्रंबिंग तो नहीं हो रही है?

ब्रेडक्रंबिंग शब्द अंग्रेजी की फेयरी टेल हैंसल एंड ग्रेटल से आया है जिस में वे ब्रेड के टुकड़े रास्ते में डालते चले थे ताकि लौटते समय वे रास्ता न भूलें. ब्रेडक्रंबिंग व्यवहार में दूसरा जना थोड़ाथोड़ा समय तो देता है पर लंबा रिलेशनशिप नहीं बनाता.

आज के समय में रिश्तों में बहुत तेजी से बदलाव आ रहा है. रिश्तों के न केवल मायने बदल गए हैं, बल्कि रिश्तों की नईनई टर्म्स भी सामने आ रही हैं. ब्रेडक्रंबिंग रिलेशनशिप में एक ऐसा ही नया टर्म है, जहां एक व्यक्ति सामने वाले के साथ सिर्फ दिमाग से जुड़ा होता है जबकि दूसरा इंसान दिल से रिश्ता निभाता है. ब्रेडक्रंबिंग पारिवारिक रिश्तों, दोस्ती और कार्यस्थल कहीं भी हो सकती है.

दरअसल, ब्रेडक्रंबिंग किसी के साथ कम्युनिकेट करने के लिए छोटीछोटी मीठी बातों के साथ बांधने के लिए एक शब्द है. ब्रेडक्रंबिंग एक ऐसा व्यवहारिक पैटर्न है जो किसी की इमोशनल हैल्थ को भी नेगेटिव रूप से प्रभावित कर सकता है.

क्या होती है ब्रेडक्रंबिंग?

हालांकि ब्रेडक्रंबिंग आम तौर पर कैजुअल डेटिंग या कई रिश्तों के शुरुआती दिनों में अधिक होती है, लेकिन यह एक गंभीर कमिटमैंट और लौन्ग टर्म रिलेशनशिप, यहां तक कि शादीशुदा रिश्ते में भी हो सकती है. ब्रेडक्रंबिंग में शामिल पार्टनर की इंटेंशन आप के साथ पूरी तरह से इन्वौल्व होने की नहीं होती है, लेकिन इस के बावजूद वह इंसान आप को बीचबीच में थोड़ीथोड़ी अटेंशन देता रहता है, जिस से न तो सामने वाला पूरी तरह से उस के साथ रिलेशनशिप में रह पाता है और न ही उसे छोड़ पाता है.

ब्रेडक्रंबिंग डेटिंग में दो कपल्स साथ होते हुए भी साथ नहीं होते हैं, और जब किसी का इरादा आप के साथ रोमांटिक रूप से शामिल होने का नहीं होता है, लेकिन फिर भी वह चाहते हैं कि आप उन्हें थोड़ीथोड़ी अटेंशन देते रहें या आप उन के अलावा किसी के साथ न रहें, और आप उन पर ही अटके रहें, ऐसी परिस्थिति को ब्रेडक्रंबिंग कहा जाता है.

ऐसे लोग अपने पार्टनर को झूठी उम्मीद देते हैं, उन्हें रोमांटिक रूप से बहकाते हैं और उन्हें अपनी बातों में फंसा कर रखते हैं. ऐसे रिश्ते का आमतौर पर कोई भविष्य नहीं होता. अगर आप किसी सुखद रिश्ते और भविष्य की आस में ऐसे किसी रिश्ते में फंस गए हैं, तो यह आप की मैंटल हैल्थ के लिए भी खतरनाक हो सकता है.

ब्रेडक्रंबिंग करने वाले अपने रिलेशनशिप को ले कर हमेशा कंफ्यूज रहते हैं. वे यह तय नहीं कर पाते कि वे एक कैजुअल रिलेशनशिप में हैं या सीरियस रिलेशनशिप में. ब्रेडक्रंबिंग करने वाला आप के कौल या मैसेज का रिस्पौन्स अपनी सहूलियत के हिसाब से देता है. खुद कंफ्यूजन में रहने की वजह से ऐसे लोग सामने वाले को भी कंफ्यूज करते हैं, जिस की वजह से दूसरे पार्टनर को मानसिक परेशानी हो सकती है. जो लोग ब्रेडक्रंबिंग करते हैं, वह उस समय अपने साथी पर ध्यान देते हैं जब आप की रुचि कम होने लगती है. ऐसा इसलिए क्योंकि उन्हें अचानक लगता है कि उन का साथी उन से दूर हो रहा है. इस दौरान वह आप का ध्यान वापस पाने के लिए हर संभव प्रयास करते हैं, लेकिन जब सब कुछ नौर्मल हो जाता है, तो उन का रवैया बिल्कुल पहले जैसा हो जाता है.

ब्रेडक्रंबिंग करने वाले सावधान हो जाएं

आज के समय में अगर किसी की पर्सनैलिटी या व्यवहार ब्रेडक्रंबिंग वाला है और वह ऐसा सोच रहा है कि वह सामने वाले के साथ ब्रेडक्रंबिंग करने में सफल हो जाएगा, वह अपने मनसूबों में कामयाब हो जाएगा, तो वह गलत है क्योंकि आज के ज़माने में हर इंसान की पर्सनैलिटी एक दूसरे से अलग है, सब की अपनी सोच है, अपनी समझ है. किसी की पर्सनैलिटी किसी के साथ मर्ज नहीं हो सकती या कहें किसी को लंबे समय तक बहकावे में नहीं रखा जा सकता.

पहले के जमाने की बात और थी जब लड़कियों की परवरिश इस तरह होती थी कि वह अपनी राय, अपना अस्तित्व न रखने वाली मोम की गुड़िया होती थी. हर बात में सर झुका कर हां में हां मिलाना उन की पर्सनैलिटी होती थी, लेकिन आज समय बदल गया है. आज की लड़की पहले की लड़की की तरह नहीं है, वह न तो एडजस्ट करेगी न खुद पर किसी को हावी होने देगी.

आज की लड़की अपनी एजुकेशन, कैरियर, जौब, विवाह सब के निर्णय खुद लेती है. वह किसी की ब्रेडक्रंबिंग या किसी भी तरह की चालाकी का शिकार नहीं होगी. वह अपने अच्छेबुरे की समझ रखती है. वह आप के बिहेवियर के साथ खुद को मर्ज नहीं करेगी. वह अपनी टर्म्स पर अपने रिश्ते चुनने की ताकत रखती है. आप उस से यह उम्मीद नहीं रख सकते कि वह आप के अनुसार चले या आप के नियम कायदों के अनुसार चले.

आज के समय में किसी को भी किसी के नियमकायदों को मानने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता. वह जमाने लद गए जब महिलाएं सिर झुका कर हर बात मानती थीं. आज की महिला अपनी टर्म्स और कंडीशंस पर अपनी जिंदगी जीना चाहती है.

आज की महिला हमारे धर्म ग्रंथों में दिखाए गए स्त्री किरदारों की तरह त्याग की मूर्ति बनने में विश्वास नहीं रखती. साथ ही आज का पुरुष भी एक मौडर्न अप-टू-डेट पार्टनर की तलाश में है. इसलिए अगर आप का स्वभाव ब्रेडक्रंबिंग करने का है, तो आज ही अपने इस तौर-तरीके को बदल डालिए.

गुड गर्ल : तान्या के साथ क्या हुआ था उस रात?

लेखक-चिरंजीव नाथ सिन्हा

कई पीढ़ियों के बाद माहेश्वरी खानदान में रवि और कंचन की सब से छोटी संतान के रूप में बेटी का जन्म हुआ था. वे दोनों फूले नहीं समा रहे थे, क्योंकि रवि और कंचन की बहुत इच्छा थी कि वे भी कन्यादान करें क्योंकि पिछले कई पीढ़ियों से उन का परिवार इस सुख से वंचित था.

आज 2 बेटों के जन्म के लगभग 7-8 सालों बाद फिर से उन के आंगन में किलकारियां गूंजी थीं और वह भी बिटिया की.

बिटिया का नाम तान्या रखा गया. तान्या यानी जो परिवार को जोड़ कर रखे. अव्वल तो कई पीढ़ियों के बाद घर में बेटी का आगमन हुआ था, दूसरे तान्या की बोली एवं व्यवहार में इतना मिठास एवं अपनापन घुला हुआ था कि वह घर के सभी सदस्यों को प्राणों से भी अधिक प्रिय थी.

सभी उसे हाथोहाथ उठाए रखते. यदि घर में कभी उस के दोनों बड़े भाई झूठमूठ ही सही जरा सी भी उसे आंख भी दिखा दें या सताएं तो फिर पूछो मत, उस के दादादादी और खासकर उस के प्यारे पापा रण क्षेत्र में तान्या के साथ तुरंत खड़े हो जाते.

दोनों भाई उस की चोटी खींच कर उसे प्यार से चिढ़ाते कि जब से तू आई है, हमें तो कोई पूछने वाला ही नहीं है.

जिस प्रकार एक नवजात पक्षी अपने घोंसले में निडरता से चहचहाते रहता है, उसे यह तनिक भी भय नहीं होता कि उस के कलरव को सुन कर कोई दुष्ट शिकारी पक्षी उन्हें अपना ग्रास बना लेगा. वह अपने मातापिता के सुरक्षित संसार में एक डाली से दूसरी डाली पर निश्चिंत हो कर उड़ता और फुदकता रहता है. तान्या भी इसी तरह अपने नन्हे पंख फैलाए पूरे घर में ही नहीं अड़ोसपड़ोस में भी तितली की तरह अपनी स्नेहिल मुसकान बिखेरती उड़ती रहती थी. सब को सम्मान देना और हरेक जरूरतमंद की मदद करना उस का स्वभाव था.

समय के पंखों पर सवार तान्या धीरेधीरे किशोरावस्था के शिखर पर पहुंच गई, लेकिन उस का स्वभाव अभी भी वैसा ही था बिलकुल  निश्छल, सहज और सरल. किसी अनजान से भी वह इतने प्यार से मिलती कि कुछ ही क्षणों में वह उन के दिलों में उतर जाती. भोलीभाली तान्या को किसी भी व्यक्ति में कोई बुराई नहीं दिखाई देती थी.

पूरे मोहल्ले में गुड गर्ल के नाम से मशहूर सब लोग उस की तारीफ करते नहीं थकते थे और अपनी बेटियों को भी उसी की तरह गुड गर्ल बनाना चाहते थे.

हालांकि तान्या की मां कंचनजी काफी प्रगतिशील महिला थीं, लेकिन थीं तो वे भी अन्य मांओं की तरह एक आम मां ही, जिन का हृदय अपने बच्चों के लिए सदा धड़कता रहता था. उन्हें पता था कि लडकियों के लिए घर की चारदीवारी के बाहर की दुनिया घर के सुरक्षित वातावरण की दुनिया से बिलकुल अलग होती है.

बड़ी हो रही तान्या के लिए वह अकसर चिंतित हो उठतीं कि उसे भी इस निर्मम समाज, जिस में स्त्री को दोयम दरजे की नागरिकता प्राप्त है, बेईमानी और भेदभाव के मूल्यों का सामना करना पड़ेगा.

एक दिन मौका निकाल कर बड़ी होती तान्या को बङे प्यार से समझाते हुए वे बोलीं,”बेटा, यह समाज लड़की को सिर्फ गुड गर्ल के रूप में जरूर देखना चाहता है लेकिन अकसर मौका मिलने पर उन्हें गुड गर्ल में सिर्फ केवल एक लङकी ही दिखाई देती है जो अनुचित को अनुचित जानते हुए भी उस का विरोध न करे और खुश रहने का मुखौटा ओढ़े रहे. यह समाज हम स्त्रियों से ऐसी ही अपेक्षा रखता है.”

तान्या बोलती,”ओह… इतने सारे अनरियलिस्टिक फीचर्स?”

तब कंचनजी फिर समझातीं, “हां, पर एक बात और, आज का समय पहले की तरह घर में बंद रहने का भी नहीं है. तुम्हें भी घर के बाहर अनेक जगह जाना पड़ेगा, लेकिन अपने आंखकान सदैव खुले रखना.”

तान्या आश्चर्य से बोली,”मगर क्यों?”

“बेटा, यह समाज लड़कियों को देवी की तरह पूजता तो है पर मौका पाने पर हाड़मांस की इन जीतीजागती देवियों की भावनाओं और इच्छाओं अथवा अनिच्छाओं को कुचलने से तनिक भी गुरेज नहीं करता.”

समाज के इस निर्मम चेहरे से अनजान तान्या ने कंचन जी से पूछा,”मां, लेकिन ऐसा क्यों? मैं भी तो भैया जैसी ही हूं. मैं भी एक इंसान हूं फिर मैं अलग कैसे हुई?”

“बेटा, पुरुष के विपरीत स्त्री को एक ही जीवनचक्र में कई जीवन जीना पड़ता है. पहले मांबाप के नीड़रूपी घर में पूर्णतया लाङप्यार और सुरक्षित जीवन और दूसरा घर के बाहर भेदती हुई हजारों नजरों वाले समाज के पावरफुल स्कैनर से गुजरने की चुभती हुई पीड़ा से रोज ही दोचार होते हुए सीता की तरह अग्नि परीक्षा देने को विवश.

“बेटा, एक बात और, विवाह के बाद अकसर यह स्कैनर एक नया स्वरूप धारण कर लेता है, जिस की फ्रीक्वैंसी कुछ अलग ही होती है.”

“लेकिन हम लड़कियां ही एकसाथ इतने जीवन क्यों जिएं?”

“बेटा, निश्चित तौर पर यह गलत है और हमें इस का पुरजोर विरोध जरूर करना चाहिए. लेकिन स्त्री के प्रति यह समाज कभी भी सहज या सामान्य नहीं रहा है. या तो हमें रहस्य अथवा अविश्वास से देखा जाता है या श्रद्धा से लेकिन प्रेम से कभी नहीं, क्योंकि हम स्त्रियों की जैंडर प्रौपर्टीज समाज को हमेशा से भयाक्रांत करती रही है. सभी को अपने लिए एक शीलवती, सच्चरित्र और समर्पित पत्नी चाहिए जो हर कीमत पर पतिपरायण बनी रहे लेकिन दूसरे की पत्नी में अधिकांश लोगों को एक इंसान नहीं बल्कि एक वस्तु ही दिखाई पड़ती है.”

“लेकिन मां, यह तो ठीक बात नहीं, ऐसा क्यों?”

“बेटा, हम स्त्रियों के मामले में पुरुष हमेशा से इस गुमान में जीता आया है कि यदि कोई स्त्री किसी पुरुष के साथ जरा सा भी हंसबोल ले तो कुछ न होते हुए भी वह इसे उस के प्रेम और शारीरिक समर्पण की सहमति मान लेता है.”

“तो क्या मैं किसी के साथ हंसबोल भी नहीं सकती?”

“नहीं बेटा, मेरे कहने का अभिप्राय यह बिलकुल भी नहीं है. मैं तो तुम्हें सिर्फ आगाह करना चाहती हूं कि समाज के ठेकेदारों ने हमारे चारो ओर नियमकानूनों का एक अजीब सा जाल फैला रखा है, जिस में काजल का गहरा लेप लगा हुआ है. लेकिन हमें भी अपनेआप को कभी कमजोर या कमतर नहीं आंकना चाहिए जबकि उन्हें यह एहसास करा देना चाहिए कि हम न केवल इस जाल को काट फेंकने का सामर्थ्य रखते हैं बल्कि हमारे इर्दगिर्द फैलाए गए इसी काजल को अपने व्यक्तित्व की खूबसूरती का माध्यम बना उसे आंखों में सजा लेना जानते हैं, ताकि हम सिर उठा कर खुले आकाश में उड़ सकें और अपनी खुली आंखों से अपने सपनों को पूरा होते देख सकें.”

“मां, यह हुई न झांसी की रानी लक्ष्मी बाई वाली बात.”

अपनी फूल सी बिटिया को सीने से लगाती हुईं कंचनजी बोलीं,”बेटा, मैं तुम्हें कतई डरा नहीं रही थी. बस समाज की सोच से तुम्हें परिचित करा रही थी ताकि तुम परिस्थितियों का मुकाबला कर सको. तुम वही करना जो तुम्हारा दिल कहे. तुम्हारे मम्मीपापा सदैव तुम्हारे साथ हैं और हमेशा रहेंगे.”

समय अपनी गति से पंख लगा कर उड़ता रहा और देखतेदेखते एक दिन छोटी सी तान्या विवाह योग्य हो गई. संयोग से रवि और कंचनजी को उस के लिए एक सुयोग्य वर ढूंढ़ने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी.

एक पारिवारिक शादी समारोह में दिनकर का परिवार भी आया हुआ था. तान्या की निश्छल हंसी और मासूम व्यवहार पर मोहित हो कर दिनकर उसे वहीं अपना दिल दे बैठा. शादी की रस्मों के दौरान जब कभी तान्या और दिनकर की नजरें आपस में एक दूसरे से मिलतीं तो तान्या दिनकर को अपनी ओर एकटक देखता हुआ पाती. उस की आंखों में उसे एक अबोले पर पवित्र प्रस्ताव की झलक दिखाई पड़ रही थी. उस ने भी मन ही मन दिनकर को अपने दिल में जगह दे दिया.

दिनकर की मां को छोड़ कर और किसी को इस रिश्ते पर कोई आपत्ति नहीं थी. दरअसल, दिनकर की मां शांताजी अपने दूर के रिश्ते की एक लड़की को अपनी बहू बनाना चाहती थी जो कनाडा में रह रही थी और पैसे से काफी संपन्न परिवार की थी, दूसरे उन्हें तान्या का सब के साथ इतना खुलकर बातचीत करना पसंद नहीं था. लेकिन बेटे के प्यार के आगे उन्हें झुकना ही पड़ा और कुछ ही समय के अंदर तान्या और दिनकर विवाह के बंधन से बंध गए.

सरल एवं बालसुलभ व्यवहार वाली तान्या ससुराल में भी सब के साथ खूब जी खोलकर बातें करती, हंसती और सब को हंसाती रहती.

पति दिनकर बहुत अच्छा इंसान था. उस ने तान्या को कभी यह महसूस नहीं होने दिया कि वह मायके में नहीं ससुराल में है. उस ने तान्या को अपने ढंग से अपनी जिंदगी जीने की पूरी आजादी दी.

दिनकर की मां शांताजी कभी तान्या को टोकतीं तो वह उन्हें बड़े प्यार से समझाता, “मां, तुम अपने बहू पर भरोसा रखो. वह इस घर का मानसम्मान कभी कम नहीं होने देगी. वह एक परफैक्ट गुड गर्ल ही नहीं एक परफैक्ट बहू भी है.”

लेकिन कुछ ही दिनों मे तान्या को यह एहसास हो गया कि उस के ससुराल में 2 लोगों का ही सिक्का चलता है, पहला उस की सास और दूसरा उस के ननदोई राजीव का.

दरअसल, उस के ननदोई राजीव काफी अमीर थे. जब तान्या के ससुर का बिजनैस खराब चल रहा था तो राजीव ने रूपएपैसे से उन की काफी मदद की थी. इसलिए राजीव का घर में दबदबा था और उस की सास तो अपने दामाद को जरूरत से ज्यादा सिरआंखों पर बैठाए रखती थी.

राजीव का ससुराल में अकसर आना होता रहता था. अपनी निश्छल प्रकृति के कारण तान्या राजीव के घर आने पर उस का यथोचित स्वागतसत्कार करती. जीजासलहज का रिश्ता होने के कारण उन से खूब बातचीत भी करती थी. लेकिन धीरेधीरे तान्या ने महसूस किया कि राजीव जरूरत से ज्यादा उस के नजदीक आने की कोशिश कर रहा है.

उस के सहज, निश्छल व्यवहार को वह कुछ और ही समझ रहा है. पहले तो उस ने संकेतों से उसे समझाने की कोशिश की, लेकिन जब उस की बदतमीजियां मर्यादा की देहरी पार करने लगी तो उस ने एक दिन दिनकर को हिम्मत कर के सबकुछ बता दिया.

दिनकर यह सुन कर आपे से बाहर हो गया. वह राजीव को उसी समय फोन पर ही खरीखोटी सुनाने वाला था लेकिन तान्या ने उसे उस समय रोक दिया.

वह बोली,”दिनकर, यह उचित समय नहीं है. अभी हमारे पास अपनी बात को सही साबित करने का कोई प्रमाण भी नहीं है. मांजी इसे एक सिरे से नकार कर मुझे ही झूठा बना देंगी. तुम्हें मुझ पर विश्वास है, यही मेरे लिए बहुत है. मुझ पर भरोसा रखो, मैं सब ठीक कर दूंगी.”

दिनकर गुस्से में मुठ्ठियां भींच कर तकिए पर अपना गुस्सा निकालते हुए बोला, “मैं जीजाजी को छोङूंगा नहीं, उन्हें सबक सिखा कर रहूंगा.”

कुछ दिनों बाद राजीव फिर उस के घर आया और उस रात वहीं रूक गया. संयोग से दिन कर को उसी दिन बिजनैस के काम से शहर से बाहर जाना पड़ गया. राजीव के घर में मौजूद होने की वजह से उसे तान्या को छोड़ कर बाहर जाना कतई अच्छा नहीं लग रहा था लेकिन बिजनैस की मजबूरियों की वजह से उसे जाना ही पड़ा. पर जातेजाते वह तान्या से बोला,”तुम अपना ध्यान रखना और कोई भी परेशानी वाली बात हो तो मुझे तुरंत बताना.”

“आप निश्चिंत रहिए. आप का प्यार और सपोर्ट मेरे लिए बहुत है.”

रात को डिनर करने के बाद सब लोग अपनेअपने कमरों में चले गए. तान्या भी अपने कमरे का दरवाजा बंद कर बिस्तर पर चली गई. दिनकर के बिना खाली बिस्तर उसे बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता था, खासकर रात में उस से अलग रहना उसे बहुत खलता था. जब दिनकर सोते समय उस के बालों में उंगलियां फिराता, तो उस की दिनभर की सारी थकान छूमंतर हो जाती. उस की यादों में खोईखोई कब आंख लग गई उसे पता ही नहीं चला.

अचानक उसे दरवाजे पर खटखट की आवाज सुनाई पड़ी. पहले तो उसे लगा कि यह उस का वहम है पर जब खटखट की आवाज कई बार उस के कानों में पड़ी तो उसे थोड़ा डर लगने लगा कि इतनी रात को उस के कमरे का दरवाजा कौन खटखटा सकता है? कहीं राजीव तो नहीं. फिर यह सोच कर कि हो सकता है कि मांबाबूजी में से किसी की तबियत खराब हो गई होगी, उस ने दरवाजा खोल दिया तो देखा सामने राजीव खड़ा मुसकरा रहा है.

“अरे जीजाजी, आप इतनी रात को इस वक्त यहां? क्या बात है?”

“तान्या, मैं बहुत दिनों से तुम से एक बात कहना चाहता हूं.”

कुदरतन स्त्री सुलभ गुणों के कारण राजीव का हावभाव उस के दिल को कुछ गलत होने की चेतावनी दे रहा था. उस की बातें उसे इस आधी रात के अंधेरे में एक अज्ञात भय का बोध भी करा रही थी. लेकिन तभी उसे अपनी मां की दी हुई वह सीख याद आ गई कि हमें कभी भी हिम्मत नहीं हारनी चाहिए बल्कि पूरी ताकत से कठिन से कठिन परिस्थितियों का पुरजोर मुकाबला करते हुए हौसले को कम नहीं होने देना चाहिए.”

उस ने हिम्मत कर के राजीव से पूछा, “बताइए क्या बात है?”

“तान्या, तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो. आई लव यू. आई कैन डू एनीथिंग फौर यू…”

“यह आप क्या अनापशनाप बके जा रहे हैं? अपने कमरे में जाइए.”

“तान्या, आज चाहे जो कुछ भी हो जाए, मैं तुम्हे अपना बना कर ही रहूंगा,” इतना कहते हुए वह तान्या का हाथ पकड़ कर उसे बैडरूम में अंदर ले जाने लगा कि तान्या ने एक जोरदार थप्पड़ राजीव के मुंह पर मारा और चिल्ला पड़ी,”मिस्टर राजीव, आई एम ए गुड गर्ल बट नौट ए म्यूट ऐंड डंब गर्ल. शर्म नहीं आती, आप को ऐसी हरकत करते हुए?”

तान्या के इस चंडी रूप की कल्पना राजीव ने सपने में भी नहीं किया था. वह यह देख कर सहम उठा, पर स्थिति को संभालने की गरज से वह ढिठाई से बोला,”बी कूल तान्या. मैं तो बस मजाक कर रहा था.”

“जीजाजी, लड़कियां कोई मजाक की चीज नहीं होती हैं कि अपना टाइमपास करने के लिए उन से मन बहला लिया. आप के लिए बेशक यह एक मजाक होगा पर मेरे लिए यह इतनी छोटी बात नहीं है. मैं अभी मांपापा को बुलाती हूं.”

फिर अपनी पूरी ताकत लगा कर उस ने अपने सासससुर को आवाज लगाई, मांपापा…इधर आइए…”

रात में उस की पुकार पूरे घर में गूंज पङी. उस की चीख सुन कर उस के सासससुर फौरन वहां आ गए.

गहरी रात के समय अपने कमरे के दरवाजे पर डरीसहमी अपनी बहू तान्या और वहीं पास में नजरें चुराते अपने दामाद राजीव को देख कर वे दोनों भौंचक्के रह गए.

कुछ अनहोनी घटने की बात तो उन दोनों को समझ में आ रही थी लेकिन वास्तव में क्या हुआ यह अभी भी पहेली बनी हुई थी.

तभी राजीव बेशर्मी से बोला, “मां, तान्या ने मुझे अपने कमरे में बुलाया था.”

“नहीं मां, यह झूठ है. मैं तो अपने कमरे में सो रही थी कि अचानक कुंडी खड़कने पर दरवाजा खोला तो जीजाजी सामने खड़े थे और मुझे बैडरूम में जबरन अंदर ले जा रहे थे.”

“नहीं मां, यह झूठी है, इस ने ही…”

अभी वह अपना वाक्य भी पूरा नहीं कर पाया था कि अकसर खामोश रहने वाले तान्या के ससुर प्रवीणजी की आवाज गूंज उठी,”राजीव, अब खामोश हो जाओ, तुम ने क्या हम लोगों को मूर्ख समझ रखा है? माना हम तुम्हारे एहसानों के नीचे दबे हैं, लेकिन तुम्हारी नसनस से वाकिफ हैं. तुम ने आज जैसी हरकत किया है, उस के लिए मैं तुम्हें कभी माफ नहीं करूंगा. तुम ने मेरी बहू पर बुरी नजर डाली और अब उलटा उसी पर लांछन लगा रहे हो…” इतना कह कर तान्या के सिर पर हाथ फेरते हुए बोले,”बेटा, तुम्हारा बाप अभी जिंदा है. मैं तुम्हें  कुछ नहीं होने दूंगा. मैं अभी पुलिस को बुला कर इस को जेल भिजवाता हूं.”

अपने पिता समान ससुर का स्नेहिल स्पर्श पा कर तान्या उन से लिपट कर रो पड़ी जैसे उस के अपने बाबूजी उसे फिर से मिल गए हों. फिर थोड़ा संयत हो कर बोली, “पापा, आप का आर्शीवाद और विश्वास मेरे लिए सब कुछ है लेकिन पुलिस को मत बुलाइए. जीजाजी को सुधरने का एक मौका हमें देना चाहिए और फिर दीदी और बच्चों के बारे में सोचिए, इन के जेल जाने पर उन्हें कितना बुरा लगेगा.”

दिनकर के पिता प्रवीणजी कुछ देर सोचते रहे, फिर बोले,”बेटा, तुम्हारे मातापिता ने तुम्हारा नाम तान्या कुछ सोचसमझ कर ही रखा होगा. ये तुम जैसी बेटियां ही हैं, जो अपना मानसम्मान कायम रखते हुए भी परिवार को सदा जोड़े रखती हैं. जब तक तुम्हारी जैसी बहूबेटियां हमारे समाज में हैं, हमारी संस्कृति जीवित रहेगी.”

फिर अपनी पत्नी से बोले,”शांता, देखिए ऐसी होती हैं हमारे देश की गुड गर्ल. जो न अपना सम्मान खोए न घर की बात को देहरी से बाहर जाने दे.”

शांताजी के अंदर भी आज पहली बार तान्या के लिए कुछ गौरव महसूस हो रहा था. पति से मुखातिब होते हुए दामाद राजीव के विरूद्ध वे पहली बार बोलीं,”आप ठीक कहते हैं. घर की इज्जत बहूबेटियों से ही होती है. पता नहीं एक स्त्री होने के बावजूद मेरी आंखें यह सब क्यों नहीं देख पाईं…” फिर तान्या से बोलीं,”बेटा, मुझे माफ कर देना.”

“राजीव, तुम अब यहां से चले जाओ. मैं तुम्हारा पाईपाई चुका दूंगा पर अपने घर की इज्जत पर कभी हलकी सी भी आंच नहीं आने दूंगा. तान्या हमारी बहू ही नहीं, हमारी बेटी भी है और सब से बढ़ कर इस घर का सम्मान है,” प्रवीणजी बोल पङे.

सासससुर का स्नेहिल आर्शीवाद पा कर आज तान्या को उस का ससुराल उसे सचमुच अपना घर लग रहा था बिलकुल अपना जिस के द्वार पर एक सुहानी भोर मीठी दस्तक दे रही थी.

रक्ष : श्मशान घाट पर क्या हुआ था

लेखक- राम बजाज रक्ष

एक कपड़े को कस कर दबोचे सो रहा था. इसे देख राघव की आंखों में आंसू आ गए और एक क्षणभंगुर विचार उस के दिमाग में कौंध गया कि रक्ष क्या उस के पिता की गंजी पकड़ कर सो रहा है या उन का असीमित स्नेह रक्ष को पकड़े है. आखिर रक्ष का बाबूजी से रिश्ता कैसा था. बाबूजी का असली नाम नरेंद्र कुमार था. वे इलाहाबाद बैंक के बैंक प्रबंधक पद से रिटायर हुए थे. रिटायर होने से पहले वे गीता प्रैस रोड, गांधी नगर, गोरखपुर में बैंक के मुख्यालय में थे.

उन्हें ‘बाबूजी’ का उपनाम तब मिला जब वे अल्फांसो रोड पर बैंक में शुरूशुरू में टेलर (क्लर्क) थे. हालांकि उन के पास बीकौम प्रथम श्रेणी की डिग्री थी लेकिन उन्हें एक उपयुक्त नौकरी नहीं मिली और उन्हें टेलर की नौकरी के लिए सम?ाता करना पड़ा. वे अपने ग्राहकों, सहकर्मियों और अपने वरिष्ठों व मालिकों के साथ सम्मान व मुसकराहट के साथ व्यवहार करते थे. नौकरी से वे खुश थे. ग्राहक उन के अच्छे स्वभाव व हास्य के कारण उन्हें बाबूजी कहने लगे. बाबूजी को उन का प्यार पसंद आया और उन्हें इस उपनाम से कोई आपत्ति न थी और इस का आनंद लेना शुरू कर दिया क्योंकि इस में प्यार, स्नेह और आशीर्वाद सभी एकसाथ विलीन थे तो, नरेंद्र ‘बाबूजी’ बन गए.

नरेंद्र चूंकि बहुत महत्त्वाकांक्षी और उज्ज्वल व्यक्ति थे, अपने कैरियर में चमकना चाहते थे, इसलिए जब वे काम कर रहे थे, रात्रि कक्षाएं लीं और प्रथम श्रेणी के साथ एमकौम पास किया. जल्द ही उन का परिवार बढ़ गया और उन्हें जुड़वां बेटों का आशीर्वाद मिला, जिन के नाम भार्गव और राघव थे. भार्गव राघव से लगभग 2 मिनट बड़ा था और दोनों के बीच जो बंधन था, वह असाधारण था- राघव हमेशा अपने भाई का सम्मान करता था और अपने भाई को बड़े भाई के रूप में संदर्भित करता था. आखिरकार, वे बड़े हुए. अच्छी तरह से शिक्षित हुए. शादी हुई और उन के परिवार में दोदो बच्चे थे,

एकएक लड़का और एकएक लड़की. परंतु, घर के दूसरे परिवारों से उन्हें दूर जाना पड़ा. भार्गव मुंबई के चेंबूर में स्थित परमाणु ऊर्जा आयोग में अकाउंटैंट था और राघव केरल में एक रिजोर्ट प्रबंधक. राघव ने होटल मैनजमैंट की डिग्री हासिल की थी. जब बाबूजी 60 वर्ष के हुए तो उन्हें सरकारी नियमों और विनियमों के अनुसार सेवानिवृत्त होना पड़ा. उन्होंने अपने पैतृक घर में सेवानिवृत्त होने का फैसला किया क्योंकि उन की जन्मजात इच्छा उस शहर में रहने की थी जहां उन का जन्म, पालनपोषण हुआ और जहां उन के मातापिता जीवनभर रहे. उन का निवास गोरखपुर के एक मध्यर्गीय क्षेत्र में था और यह बाबूजी की शैली में फिट बैठता था. उन्होंने 2 नौकरों, एक रसोइया और एक ड्राइवर व पुराने पड़ोसियों और परिचित दोस्तों की प्रेमभरी धूमधाम में बड़ी शांति और आराम पाया.

ऐसा लगा कि वे संसार के साथ हैं और संन्यास में भी हैं. पूरे जीवनभर बाबूजी परिवार, दोस्तों, पड़ोसियों और रिश्तेदारों व जानवरों सहित सभी के प्रति बहुत दयालु थे. एक दिन बाबूजी पोर्च में अपनी सीट पर बैठे थे और एक छोटा सा कुत्ता उन के पास आया. बाबूजी ने उसे प्यार से थपथपाया और उन दोनों में तत्काल एक बंधन बन गया. बाबूजी ने उसे रोटी खिलाई और कुत्ते ने उसे बिजली की गति से खत्म कर दिया क्योंकि वह भूखा लग रहा था. भले ही वह आवारा कुत्ता था, वह वहीं रहता था. वह दिन में ज्यादातर समय बाबूजी के बरामदे में ही रहता था, चाहे बाबूजी अपनी दिनचर्या में व्यस्त रहें या जब वे बरामदे में भी रहें. वह सफेद धब्बे और छोटे बालों वाला एक सुंदर, भूरा कुत्ता था जो ऐसा लगता था जैसे वह पेशेवर मुंडा था. कुत्ता हर दिन दिखाई देता था. जब बाबूजी पोर्च पर होते थे तो दोनों को एकदूसरे का साथ भाता था.

कुत्ते ने कभी बाबूजी को परेशान नहीं किया, बल्कि उन के लिए सुरक्षात्मक था. वह हर उस व्यक्ति पर भूंकता था जो बाबूजी के पास जाता था जब तक कि बाबूजी यह न इशारा देते कि आगंतुक मित्र है, शत्रु नहीं. वह कुत्ता रोज ही सुबह पोर्च पर दिखाई देता और बाबूजी के साथ बैठता. फिर अंधेरा होने पर चुपचाप घर के साथ वाली गली में, यातायात से दूर, सो जाता. नौकरों और पड़ोसियों को उस के होने की आदत हो गई और वे लोग उसे बाबूजी का कुत्ता सम?ाने लगे. चूंकि बाबूजी और नौकर उसे सुबह व शाम को खाना खिलाते थे, वह खुश लग रहा था और आखिरकार एक सुंदर कुत्ते के रूप में बड़ा हुआ, जिस ने कभी किसी को परेशान न किया और बाबूजी को अच्छी संगति प्रदान की. वह बाबूजी के बाहर जाने पर उन के साथ जाता. वह बिना पट्टे के ही उन के साथ चलता था

और अपने आसपास के सभी लोगों के साथ दोस्ताना व्यवहार करता था. जो लोग उसे पहचानते थे, वे हमेशा उस कुत्ते की प्रशंसा करते थे. बाबूजी ने अपने कुत्ते का नाम ‘रक्ष’ (रक्षक से बना) रखा, क्योंकि एक बार उस ने बाबूजी के जीवन को गुंडों के एक ?ांड से बचाया था, जो उन के पैसे चोरी करने की कोशिश कर रहे थे. बाबूजी एक एटीएम बूथ से बहुत रुपयों की राशि के साथ बाहर निकल रहे थे कि अचानक 3 गुंडों ने उन्हें पकड़ लिया और उन से पैसे छीनने लगे. एटीएम बूथ में घुसने से पहले ही वे बाबूजी की घात में थे और धीरेधीरे उन का पीछा कर रहे थे. जैसे ही वे बाहर आए, उन्होंने उन पर हमला कर दिया और उन्हें पीटा व उन के पैसे ले कर भागे. बाबूजी की नाक, कुहनी, घुटने लहूलुहान हो गए. बूथ में मौजूद गार्ड खर्राटे ले रहा था, शोर सुन कर उस की नींद खुल गई.

वैसे भी, बूथ को जल्दी से बंद करने व ग्राहकों की सुरक्षा करने के लिए उसे प्रशिक्षित ही नहीं किया गया था. बाबूजी दयनीय पीड़ा में थे, उन को हौस्पिटल ले जाया गया. उन्हें 19 टांके लगवाने पड़े. वे पूरे एक सप्ताह तक निष्क्रिय रहे. उधर, रक्ष ने तीनों बदमाशों का पीछा कर उन्हें धर दबोचा और वे पैसे छोड़ कर अपनी जान बचाने की कोशिश करते रहे. कुत्ते ने उन पर तब तक हमला किया जब तक कि पुलिस ने तीनों गुंडों को कुत्ते से नहीं बचाया. बाद में उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया. कुत्ते के काटने के कारण उन्हें 14-14 इंजैक्शनों के साथ इलाज करवाना पड़ा. बाबूजी के पड़ोसियों सहित अन्य लोगों को बचाने के लिए रक्ष के बारे में और भी कहानियां हैं. इस घटना के बाद कुत्ता ‘रक्ष’ बन गया और बाबूजी जब उसे रक्ष कह कर संबोधित करते तो वह उन के पास आ जाता.

उस को पता लग गया था कि अब उस का नाम रक्ष है. अब जब भी बाबूजी खरीदारी करने जाते तो वे निश्ंिचत रहते क्योंकि रक्ष उन के साथ होता. रक्ष दुकान के बाहर बैठ कर बाबूजी के आने तक प्रतीक्षा करता था और उन के साथ घर जाता था जब तक कि बाबाजी सुरक्षित घर न पहुंच जाते. एक बार, पोर्च सीट से उठने के बाद बाबूजी ने देखा कि उन का रूमाल गायब था. उन्होंने इधरउधर खोजा, परंतु नहीं मिला. उन्होंने सोचा कि कहीं छोड़ दिया होगा और उस के बाद ज्यादा ध्यान नहीं दिया. दूसरी बार उन्होंने अपने जूते से एक मोजा खो दिया. फिर उसे भी तुच्छ सम?ा कर वे इस के बारे में भूल गए. उन्हें थोड़ी चिंता हुई कि शायद वे चीजों को भूलने लगे हैं- सोचा कि शायद वे बूढ़े हो रहे हैं. आखिर वे 65 साल की उम्र के आगे बढ़ चुके थे. जीवन सामान्यतया और शांति से चल रहा था. बाबूजी को अपनी पत्नी की बड़ी याद आती थी. लेकिन वे खुद को सांत्वना देते कि प्रकृति से कोई नहीं लड़ सकता. कोई कितनी भी कोशिश करे, होनी को नहीं टाल सकता और जीवन तो जीना ही है. बाबूजी के बच्चे कभीकभार उन से मिलने आते थे और हो सका तो वे अपने पोतेपोतियों की संगति का आनंद लेते थे.

उन के दोनों पुत्रों ने उन्हें उन के साथ रहने की पेशकश की. उन दोनों के बीच समय बांटे. उन्होंने इस प्रस्ताव पर लंबे समय तक गंभीर और गहन विचार कर फैसला किया कि वे अपने पुश्तैनी घर में अपने नौकरों के साथ ही रहेंगे. बच्चों की अपनी जिंदगी है. उन की पत्नियां भी नौकरीपेशे वाली थीं और उन के जीवन में वे हस्तक्षेप नहीं करना चाहते थे. उन्होंने सोचा कि वे खुश हैं. उन के लिए यह ही काफी सुकून देने वाला था कि उन के बेटों का प्रस्ताव गंभीर था और मन की शांति थी कि उन के पास विकल्प था कि वे उन के साथ रह सकते हैं अगर अपने दम पर जीने में असमर्थ हों तो. उन के पास मित्र, सुविधाएं, स्वतंत्रता, वांछनीय संगति और गतिविधियां थीं और सब से अच्छी बात यह थी कि कोई दायित्व न था. उन्होंने खुद को अपने जीवनसाथी की कंपनी के बिना रहने में सक्षम बनाया था,

भले ही वह हर समय उन के विचारों में थी. उन्होंने सोचा कि कभीकभी यादों को संजोने के लिए अंतराल भर देता है. बाबूजी ने यह भी महसूस किया कि रक्ष की संगति और वह मौन और समर्पित प्रेम, जो उस ने उन्हें कम अपेक्षा के साथ दिया था, उन के स्वार्थहीन जीवन के लिए पर्याप्त था. विरले ही, लेकिन निश्चितरूप से बाबूजी राजनीति और धर्म व अन्य मामलों के बारे में अपनी कुंठाओं को बाहर निकालते और रक्ष सौ प्रतिशत सहमत होता. जैसेजैसे प्रकृति ने अपनी भूमिका निभाना जारी रखा, बाबूजी बूढ़े हो गए और प्राकृतिक प्रक्रियाएं अपना काम करने लगीं. वे सही खाना खाते, व्यायाम करते और सकारात्मक सोचते, लेकिन प्रकृति को कोई नहीं हरा सकता. उन की वार्षिक चिकित्सा परीक्षा के बाद डाक्टर ने उन से कहा कि वे चौथे चरण के लिवर कैंसर से ग्रसित हैं. यह एक भयंकर, घातक व तेजी से बढ़ता कैंसर है. वे इस के कारण होने वाले दर्द को कम करने के लिए पूरी कोशिश करें और शरीर को ज्यादा विश्राम दें. यह कैंसर लाइलाज है और रोगी के पाचनतंत्र के साथसाथ मानसिक स्थिरता पर भी भारी पड़ता है. बाबूजी आश्चर्यचकित थे क्योंकि वे कभी भी जोखिमभरे कार्यों में लिप्त नहीं हुए. वे जीवनभर शाकाहारी रहे थे. उन्होंने कभी शराब नहीं पी, धूम्रपान नहीं किया. उन्होंने नियमितरूप से व्यायाम किया और जीवनभर एक सुरक्षित कार्यालय की नौकरी की. उसी दोपहर, बाबूजी रक्ष के साथ पोर्च पर बैठे थे, सुबह का आनंद ले रहे थे, लेकिन चिंतित थे. उसी समय धोबी नियमित तरीके से गंदे कपड़े मांगने के लिए दरवाजे पर आया कि वह धो सके और उन्हें वापस कर सके.

बाबूजी कपड़े बाहर छोड़ कर धोबी को भुगतान करने के लिए पैसे लेने चले गए. धोबी भी समय बचाने के लिए अगले घर से कपड़े लाने के लिए निकल गया. जब वह वापस आया तो बाबूजी ने उसे भुगतान दिया और उस से कपड़े गिनने के लिए कहा. बाबूजी ने धोबी को देने के लिए 20 कपड़े इकट्ठे किए थे और हमेशा की तरह, धोबी ने केवल 19 कपड़ों की गिनती की. बाबूजी ने उस से बारबार गिनने के लिए कहा और अपने सामने देखा पर केवल 19 कपड़े थे. बाबूजी यह सुनिश्चित करने के लिए अंदर गए कि कुछ भी गलती से गिरा तो नहीं था. लेकिन कुछ भी न मिला. उन को कपड़े के गायब होने की नहीं, बल्कि अपनी मानसिक क्षमता के बारे में चिंता हुई. लेकिन उन्होंने इसे नजरअंदाज कर दिया. धोबी को जाने दिया. जैसे ही वे वापस सीट पर बैठे, रक्ष दौड़ता हुआ आया और उन की बगल में बैठ गया. वह जीभ से हांफ रहा था, फुफकार रहा था. बाबूजी को आराम करने के बाद, उन्हें मानसिक उथलपुथल हुई और इस बारे में बहुत मानसिक स्ट्रैस हुआ कि क्या उन्हें अपनी बीमारी के बारे में अपने बेटों को सूचित करना चाहिए या उन्हें अभी थोड़े समय के बाद करना चाहिए या एक पत्र या ईमेल या कौल द्वारा ऐसा करना चाहिए.

उन्होंने फैसला किया कि उन्हें बुलाना सब से अच्छा है. राघव और भार्गव दोनों आए. वे बुरी खबर सुन कर चौंक गए. उन्हें इस तरह के आघात का कभी अनुभव नहीं था. वे रोना बंद नहीं कर पा रहे थे. उन दोनों ने डाक्टर और बाबूजी के मानसिक तनाव व मानसिक दर्द को कम करने के बारे में सलाह मांगी. डाक्टर ने बहुत मदद की और उन्हें सलाह दी कि वे उन्हें अपनी पसंद के अनुसार काम करने दें और उन के लिए कम से कम तनाव का माहौल बनाएं और उन के सामने बीमारी के बारे में ज्यादा बात न करें. कुछ हफ्ते बाद वे अपने कर्तव्यों को निभाने के लिए अपनेअपने घर चले गए और उन्हें हर दिन फोन करने का वादा किया और उन से उन के साथ खुल कर बात करने व जितनी जल्दी हो सके उन्हें बुलाने का वादा किया अगर उन्हें उन की जरूरत है. सितंबर माह की एक सुहानी सुबह बाबूजी को सांस लेने में तकलीफ महसूस हुई और वे उठ नहीं पाए. उन्होंने अपने नौकर को बुलाया, जिस ने तुरंत एंबुलैंस को फोन किया और उन्हें अस्पताल पहुंचाया. लेकिन बाबूजी को एंबुलैंस के कर्मचारियों द्वारा उन्हें पुनर्जीवित करने के प्रयासों के बावजूद उन्होंने एंबुलैंस में ही दम तोड़ दिया.

उन्हें बड़ा घातक दिल का दौरा पड़ा था और वे डिफिब्रिलेशन द्वारा भी उन्हें पुनर्जीवित न कर सके. सभी उचित संस्कारों के बाद बेटे वापस आए और बाबूजी के दाह संस्कार की तैयारी की. बाबूजी ने अपनी पत्नी की तरह ही पालदारों द्वारा श्मशान घाट ले जाने की इच्छा व्यक्त की थी. श्मशान घाट उन के घर से करीब 3 मील की दूरी पर था. जब पाल वाले चल रहे थे, भार्गव ने देखा कि रक्ष भी अपनी जीभ बाहर लटकाए हुए, हांफते हुए उन का पीछा कर रहा था. भार्गव ने उसे बुलाया और वापस जाने का इशारा किया, लेकिन रक्ष ने उस की बात अनसुनी कर दी. उन्होंने अर्थी चलना जारी रखा और जब वे सभी श्मशान घाट पहुंचे व संस्कार के लिए तैयार हुए तो वह बैठे हुए – बहुत करीब लेकिन पर्याप्त जगह छोड़ कर, उदास चेहरे और फटी आंखों के साथ बाबूजी के अवशेषों के दहन को घूर रहा था. पूरे संस्कार के दौरान, भार्गव ने देखा कि भीड़ में बाकी सभी लोगों की तरह रक्ष की आंखों से आंसू की धारा बह रही थी. दहन की रस्म के बाद सभी लोग कारों से घर लौट आए, रक्ष 3 मील दौड़ कर बाबूजी के घर पहुंचा.

सभी थके हुए और उदास थे और अपने साधारण भोजन के बाद सभी रात को विश्राम के लिए चले गए. रक्ष भी दौड़भाग कर थक गया था और निश्चय ही दुख में था. सब बहुत जल्दी सो गए. भार्गव सो न सका और कुछ ताजी हवा लेने के लिए बाहर आया. तब उस ने देखा कि रक्ष अभी भी पोर्च पर था, शांति से सो रहा था. यह एक असामान्य घटना, क्योंकि रक्ष आमतौर पर सोने के लिए गली में चला जाता था, राघव को अजूबी लगी कि सोते समय रक्ष पर एक सफेद कपड़ा था. जब उस ने गौर से देखा तो ऐसा लग रहा था कि यह बाबूजी की सफेद गंजी है. रक्ष उसे कस कर दबोचे सो रहा था. इसे देख भार्गव की आंखों में आंसू आ गए और एक क्षणभंगुर विचार उस के दिमाग में कौंध गया- क्या रक्ष बाबूजी की गंजी पकड़ कर सो रहा है या बाबूजी का असीमित स्नेह रक्ष को पकड़े है?- उस दिन, बाद में, भार्गव और राघव घर के साथ वाली गली में गए और एक कोने में, उन्हें एक घोंघा छेद मिला, जहां रक्ष ने बाबूजी के रूमाल, उन के जुराब और अन्य सामान को साथ रखा था, जिसे रक्ष हमेशा बाबूजी की सुगंध लिए संजोता रहा था. उन्हें जलन हुई कि रक्ष के पास कुछ ऐसा है जो उन के पास नहीं हो सकता, लेकिन वे इस बात से संतुष्ट थे कि उन के पास उस की सुखद यादें हमेशा संजोने के लिए हैं.

मेरे पति के साथ लगातार इरैक्शन की प्रौब्लम आ रही है क्या करें?

सवाल 

मैं 45 वर्षीय नौनवर्किंग, विवाहित महिला हूं. मेरे पति मुझ से 2 वर्ष बड़े हैं. वे अच्छी प्राइवेट जौब में हैं, शारीरिक रूप से बलिष्ठ हैं. उन्हें कोई बीमारी नहीं है. किसी तरह की दवाई का सेवन भी नहीं करते. आजकल उन के साथ इरैक्शन की प्रौब्लम आ रही है. इस से उदास हो जाते हैं. इस का हमारे वैवाहिक जीवन पर असर पड़ रहा है. क्या करूं?

जवाब 

सब से पहले जानने की कोशिश करें कि पति को कोई परेशानी तो नहीं है जो वे आप से शेयर नहीं कर रहे. हो सकता है औफिस की कोई प्रौब्लम चल रही हो जो वे आप से छिपा रहे हों. यदि उपरोक्त बात न हो तो कुछ अपनेआप पर भी ध्यान दें. पति के सामने जरा बनसंवर कर रहें. कुछ सैक्सी कपड़े पहनें और पति से खुल कर जानें कि उन्हें क्या चाहिए. अपने शरीर पर ध्यान दें, उसे आकर्षक बनाएं. रोज सैर पर जाएं. एक्सरसाइज करें और पति को भी करवाएं. गरिष्ठ भोजन के बजाय हैल्दी फूड खाएं. आप पतिपत्नी साथ बैठ कर रात में अपने कमरे में रोमांटिक फिल्म देखें तो आप की समस्या 90 फीसदी हल हो सकती है. पत्नियों को वैसे भी पतियों को लुभा कर रखना चाहिए. हमारी राय मान कर देखिए. फिर भी, कुछ फर्क नजर न आए तो डाक्टरी परामर्श ले सकती हैं.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem 

अपने पराए,पराए अपने : क्या थी इसकी वजह

पार्किंग में कार खड़ी कर के मैं दफ्तर की ओर बढ़ ही रहा था कि इतने में तेजी से चलते हुए वह आई और ‘भाई साहब’ कहते हुए मेरा रास्ता रोक कर खड़ी हो गई. उस की गोद में दोढ़ाई साल की एक बच्ची भी थी. एक पल को तो मैं सकपका गया कि कौन है यह? यहां तो दूरदराज के रिश्ते की भी मेरी कोई बहन नहीं रहती. मैं अपने दिमाग पर जोर डालने लगा.

मुझे उलझन में देख कर वह बोली, ‘‘क्या आप मुझे पहचान नहीं पा रहे हैं? मैं लाजवंती हूं. आप की बहन लाजो. मैं तो आप को देखते ही पहचान गई थी.’’ मैं ने खुशी के मारे उस औरत की पीठ थपथपाते हुए कहा, ‘‘अरी, तू है चुड़ैल.’’

मैं बचपन में उसे लाड़ से इसी नाम से पुकारता था. सो बोला, ‘‘भला पहचानूंगा कैसे? कहां तू बित्ती भर की थी, फ्रौक पहनती थी और अब तो तू एक बेटी की मां बन गई है.’’

मेरी बातों से उस की आंखें भर आईं. मुझे दफ्तर के लिए देर हो रही थी, इस के बावजूद मैं ने उसे घर ले चलना ही ठीक समझा. वह कार में मेरी साथ वाली सीट पर आ बैठी. रास्ते में मैं ने गौर किया कि वह साधारण थी. सूती साड़ी पहने हुए थी. मामूली से गहने भी उस के शरीर पर नहीं थे. सैंडल भी कई जगह से मरम्मत किए हुए थे.

बातचीत का सिलसिला जारी रखने के लिए मैं सब का हालचाल पूछता रहा, मगर उस के पति और ससुराल के बारे में कुछ न पूछ सका. लाजवंती को मैं बचपन से जानता था. वह मेरे पिताजी के एक खास दोस्त की सब से छोटी बेटी थी. दोनों परिवारों में बहुत मेलजोल था. 8

हम सब भाईबहन उस के पिताजी को चाचाजी कहते थे और वे सब मेरे पिताजी को ताऊजी. अम्मां व चाची में खूब बनती थी. दोनों घरों के मर्द जब दफ्तर चले जाते तब अम्मां व चाची अपनी सिलाईबुनाई ले कर बैठ जातीं और घंटों बतियाती रहतीं.

हम बच्चों के लिए कोई बंधन नहीं था. हम सब बेरोकटोक एकदूसरे के घरों में धमाचौकड़ी मचाते हुए खोतेपीते रहते. पिताजी ने हाई ब्लडप्रैशर की वजह से मांस खाना व शराब पीना बिलकुल छोड़ दिया था. वैसे भी वे इन चीजों के ज्यादा शौकीन नहीं थे, लेकिन चाचाजी खानेपीने के बेहद शौकीन थे.

अकसर उन की फरमाइश पर हमारे यहां दावत हुआ करती. इस पर अम्मां कभीकभी पिताजी पर झल्ला भी जाती थीं कि जब खुद नहीं खाते तो दूसरों के लिए क्यों इतना झंझट कराते हो. तब पिताजी उन्हें समझा देते, ‘क्या करें बेचारे पंडित हैं न. अपने घर में तो दाल गलती नहीं, हमारे यहां ही खा लेते हैं. तुम्हें भी तो वे अपनी सगी भाभी की तरह ही मानते हैं.’

मेरे पिताजी ऐक्साइज इंस्पैक्टर थे और चाचाजी ऐजूकेशन इंस्पैक्टर. चाचाजी मजाक में पिताजी से कहते, ‘यार, कैसे कायस्थ हो तुम… अगर मैं तुम्हारी जगह होता तो पानी की जगह शराब ही पीता.’ तब पिताजी हंसते हुए जवाब देते, ‘लेकिन गंजे को खुदा नाखून देता ही कहां है…’

इसी तरह दिन हंसीखुशी से बीत रहे थे कि अचानक न जाने क्या हुआ कि चाचाजी नौकरी से सस्पैंड हो गए. कई महीनों तक जांच होती रही. उन पर बेईमानी करने का आरोप लगा था. एक दिन वे बरखास्त कर दिए गए. बेचारी चाची पर तो जैसे मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ा. 2 बड़ी लड़कियों की तो शादी हो चुकी थी, पर 3 बच्चे अभी भी छोटे थे. सुरेंद्र 8वीं, वीरेंद्र 5वीं व लाजो चौथी जमात में पढ़ रही थी.

चाचाजी ने जोकुछ कमाया था, वह जी खोल कर मौजमस्ती में खर्च कर दिया था. आड़े समय के लिए चाचाजी ने कुछ भी नहीं जोड़ा था. चाचाजी को बहुत मुश्किल से नगरनिगम में एक छोटी सी नौकरी मिली. जैसेतैसे पेट भरने का जुगाड़ तो हुआ, लेकिन दिन मुश्किल से बीत रहे थे. वे लोग बढि़या क्वार्टर के बजाय अब छोटे से किराए के मकान में रहने लगे. चाची को चौकाबरतन से ले कर घर का सारा काम करना पड़ता था.

लाड़प्यार में पले हुए बच्चे अब जराजरा सी चीजों के लिए तरसते थे. दोस्ती के नाते पिताजी उस परिवार की ज्यादा से ज्यादा माली मदद करते रहते थे.

समय बीतता गया. चाचाजी के दोनों लड़के पढ़ने में तेज थे. बड़े लड़के को बीए करने के बाद बैंक में नौकरी मिल गई और छोटे बेटे का मैडिकल कालेज में दाखिला हो गया. मगर लाजो का मन पढ़ाई में नहीं लगा. वह अकसर बीमार रहती थी. वह बेहद चिड़चिड़ी और जिद्दी भी हो गई थी और मुश्किल से 8वीं जमात ही पास कर पाई.

फिर पिताजी का तबादला बिलासपुर हो गया. मैं भी फोरैस्ट अफसर की ट्रेनिंग के लिए देहरादून चला गया. कुछ अरसे के लिए हमारा उन से संपर्क टूट सा गया. फिर न पिताजी रहे और न चाचाजी. हम लोग अपनीअपनी दुनिया में मशगूल हो गए. कई सालों के बाद ही इंदौर वापस आना हुआ था.

शाम को जब मैं दफ्तर से घर पहुंचा तो देखा कि लाजो सब से घुलमिल चुकी थी. मेरे दोनों बच्चे ‘बूआबूआ’ कह कर उसे घेरे बैठे थे और उस की बेटी को गोद में लेने के लिए उन में होड़

मची थी. मेरी एकलौती बहन 2 साल पहले एक हादसे में मर गई थी, इसलिए मेरी बीवी उमा भी ननद पा कर खुश हुई.

खाना खाने के बाद हम लोग उसे छोड़ने गए. नंदानगर में एक चालनुमा मकान के आगे उस ने कार रुकवाई. मैं ने चाचीजी के पैर छुए, पर वे मुझे पहचान न पाईं. तब लाजो ने मुझे ढूंढ़ निकालने की कहानी बड़े जोश से

सुनाई. चाचीजी मुझे छाती से लगा कर खुश हो गईं और रुंधे गले से बोलीं, ‘‘अच्छा हुआ बेटा, जो तुम मिल गए. मुझे तो रातदिन लाजो की फिक्र खाए जाती है. दामाद नालायक निकला वरना इस की यह हालत क्यों होती.

‘‘भूखों मरने से ले कर गालीगलौज, मारपीट सभी कुछ जब तक सहन करते बना, यह वहीं रही. फिर यहां चली आई. दोनों भाइयों को तो यह फूटी आंख नहीं सुहाती. अब मैं करूं तो क्या करूं? जवान लड़की को बेसहारा छोड़ते भी तो नहीं बनता. ‘‘बेटा, इसे कहीं नौकरी पर लगवा दो तो मुझे चैन मिले.’’

सुरेंद्र भी इसी शहर में रहता था. अब वह बैंक मैनेजर था. एक दिन मैं उस के घर गया. उस ने मेरी बहुत खातिरदारी की, लेकिन वह लाजो की मदद के नाम पर टस से मस नहीं हुआ. लाजवंती का जिक्र आते ही वह बोला, ‘‘उस का नाम मत लीजिए भाई साहब. वह बहुत तेज जबान की है. वह अपने पति को छोड़ आई है.

‘‘हम ने तो सबकुछ देख कर ही उस की शादी की थी. उस में ससुराल वालों के साथ निभाने का ढंग नहीं है. माना कि दामाद को शराब पीने की लत है, पर घर में और लोग भी तो हैं. उन के सहारे भी तो रह सकती थी वह… घर छोड़ने की क्या जरूरत थी?’’ सुरेंद्र की बातें सुन कर मैं अपना सा मुंह ले कर लौट आया.

मैं बड़ी मुश्किल से लाजो को एक गांव में ग्रामसेविका की नौकरी दिला सका था. चाचीजी कुछ दिन उस के पास रह कर वापस आ गईं और अपने बेटों के साथ रहने लगीं.

मेरा जगहजगह तबादला होता रहा और तकरीबन 15 साल बाद ही अपने शहर वापस आना हुआ. एक दिन रास्ते में लाजो के छोटे भाई वीरेंद्र ने मुझे पहचान लिया. वह जोर दे कर मुझे अपने घर ले गया. उस ने शहर में क्लिनिक खोल लिया था और उस की प्रैक्टिस भी अच्छी चल रही थी.

लाजो का जिक्र आने पर उस ने बताया कि उस की तो काफी पहले मौत हो गई. यह सुनते ही मुझे धक्का लगा. उस का बचपन और पिछली घटनाएं मेरे दिमाग में घूमने लगीं. लेकिन एक बात बड़ी अजीब लग रही थी कि मौत की खबर सुनाते हुए वीरेंद्र के चेहरे पर गम का कहीं कोई निशान नहीं था. मैं चाचीजी से मिलने के लिए बेताब हो उठा. वे एक कमरे में मैलेकुचैले बिस्तर पर पड़ी हुई थीं. अब वे बहुत कमजोर हो गई थीं और मुश्किल से ही उठ पाती थीं. आंखों की रोशनी भी तकरीबन खत्म हो चुकी थी.

मैं ने अपना नाम बताया तभी वे पहचान सकीं. मैं लाजो की मौत पर दुख जाहिर करने के लिए कुछ बोलने ही वाला था कि उन्होंने हाथ पकड़ कर मुझे अपने नजदीक बैठा लिया. वे मेरे कान में मुंह लगा कर धीरे से बोलीं, ‘‘लाजो मरी नहीं है बेटा. वह तो इसी शहर में है. ये लोग उस के मरने की झूठी खबर फैला रहे हैं. तुम ने जिस गांव में उस की नौकरी लगवा दी थी, वहीं एक ठाकुर साहब भी रहते थे. उन की बीवी 2 छोटेछोटे बच्चे छोड़ कर मर गई. गांव वालों ने लाजो की शादी उन से करा दी.

‘‘लाजो के अब 2 बेटे भी हैं. वैसे, अब वह बहुत सुखी है, लेकिन एक बार उसे अपनी आंखों से देख लेती तो चैन से मरती. ‘‘एक दिन लाजो आई थी तो वीरेंद्र की बीवी ने उसे घर में घुसने तक नहीं दिया. वह दरवाजे पर खड़ी रोती रही. जातेजाते वीरेंद्र से बोली थी कि भैया, मुझे अम्मां से तो मिल लेने दो. लेकिन ये लोग बिलकुल नहीं माने.’’

लाजो की यादों में डूब कर चाचीजी की आंखों से आंसू बहने लगे थे. वे रोतेरोते आगे बोलीं, ‘‘बताओ बेटा, उस ने क्या गलत किया? उसे भी तो कोई सहारा चाहिए था. सगे भाई हो कर इन दोनों ने उस की कोई मदद नहीं की बल्कि दरदर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया. तुम्हीं ने उस की नौकरी लगवाई थी…’’

तभी मैं ने महसूस किया कि सब की नजरें हम पर लगी हुई हैं. मैं उस जगह से फौरन हट जाना चाहता था, जहां अपने भी परायों से बदतर हो गए थे. मैं ने मन ही मन तय कर लिया था कि लाजो को ढूंढ़ निकालना है और उसे एक भाई जरूर देना है.

किसानों को रिझाने में जुटी भाजपा, वाकई मदद या लौलीपोप?

प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद 18 जून को मोदी वाराणसी पहुंचे जहां उन्होंने सब से पहले किसान सम्मेलन को संबोधित किया. साथ ही उन्होंने 20 हजार करोड़ रुपया 17वीं पीएम किसान निधि के रूप में किसानों के खाते में ट्रांसफर किया. किसानों को संबोधित करते हुए मोदी ने कहा, “मैं ने किसान, नौजवान, नारी शक्ति और गरीब को विकसित भारत का मजबूत स्तंभ माना है. अपने तीसरे कार्यकाल की शुरुआत मैं ने इन्हीं के सशक्तिकरण से की है. सरकार बनते ही सब से बड़ा किसान और गरीब परिवारों से जुड़ा फैसला लिया गया है. देश में गरीब परिवारों के लिए 3 करोड़ नए घर बनाने हों या फिर पीएम किसान सम्मान निधि को आगे बढ़ाना हो… ये फैसले करोड़ोंकरोड़ों लोगों की मदद करेंगे.”

कार्यक्रम के दौरान उन्होंने स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) की 30,000 से अधिक महिलाओं को कृषि सखी के रूप में प्रमाण पत्र भी प्रदान किए. बकौल प्रधानमंत्री पीएम-किसान निधि योजना के तहत अब तक 11 करोड़ से अधिक पात्र किसान परिवारों को 3.04 लाख करोड़ रुपए से अधिक का लाभ मिल चुका है.

19 जून को किसानों के हित में मोदी सरकार ने एक और काम किया. मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 14 खरीफ फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को मंजूरी दे दी. सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के मंत्री अश्विनी वैष्णव ने मीडिया को बताया कि धान, रागी, बाजरा, ज्वार, मक्का और कपास समेत 14 खरीफ सीजन की फसलों पर एमएसपी को लागू कर दिया गया है. जिस के फलस्वरूप किसानों को एमएसपी के रूप में लगभग 2 लाख करोड़ रुपए मिलेंगे. धान का नया एमएसपी 2300 रुपए होगा जो पहले से 117 रुपए ज्यादा है. उन्होंने यह भी कहा कि प्रधानमंत्री मोदी का तीसरा कार्यकाल किसानों के कल्याण के लिए निरंतर कार्य करेगा.

अचानक मोदी सरकार किसानों के प्रति इतनी दयालु होती क्यों नजर आ रही है. वह सरकार जो अब तक किसानों की मांगों पर कान भी नहीं धर रही थी. वो सरकार जो किसानों के आंदोलन को अपने क्रूर दमनात्मक रवैया से कुचल देने पर उतारू थी, वो सरकार जिस ने किसानों की राह में बड़ेबड़े कीलकांटे और सीमेंट की दीवारें खड़ी कर के उन्हें अपनी बात कहने दिल्ली के अंदर आने नहीं दिया, वो सरकार जिस के मंत्री ने आंदोलनरत किसानों को अपनी गाड़ियों से कुचल कर मारा और तोहफे में लोकसभा चुनाव का टिकट पाया, वो सरकार जिसके कानों तक अपनी बात पहुंचाने की कोशिश करते हुए 700 किसानों ने अपनी जान दे दी, आखिर ऐसी कठोर सरकार का दिल किसानों के प्रति इतनी ममता कैसे उंडेलने लगा?

दरअसल इस की वजह है लोकसभा चुनाव का परिणाम, जिसके जरिए किसानों ने न सिर्फ अपनी ताकत का अहसास भारतीय जनता पार्टी को करा दिया है, बल्कि यह भी समझा दिया है कि उन की बात ना सुनी गई तो वे आगे राज्यों के विधानसभा चुनावों में वे भारतीय जनता पार्टी को मूल समेत उखाड़ फेंकेंगे.

अब की लोकसभा चुनाव में किसानों ने भाजपा को काफी करारा जवाब दिया है. खासतौर पर हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश के किसानों ने तो भाजपा के पैरों तले जमीन खींच ली. उत्तर प्रदेश में तो भाजपा को इतना बड़ा धक्का पहुंचा कि अपने बलबूते केंद्र की सत्ता पर आसीन होने और अपनी तानाशाही कायम करने का उन का सपना छन्न से टूट गया.

उत्तर प्रदेश जहां की 80 सीटों पर भाजपा जीत का दावा ठोंक रही थी, राम मंदिर उद्घाटन के बाद भी उस को मात्र 37 सीटें ही मिलीं जबकि समाजवादी पार्टी ने 42 सीटें जीत लीं. उत्तर प्रदेश की करारी शिकस्त ने ही भाजपा को सहयोगियों की बैसाखियों पर झूलने के लिए मजबूर किया. इस में सब से बड़ी भूमिका निभाई उत्तर प्रदेश के किसानों ने और उस के बाद व्यापारियों ने, जिन के काम धंधे मोदी सरकार की गलत नीतियों ने बिलकुल चौपट कर दिए है.

सिर्फ यह 3 राज्य ही नहीं, इस बार के लोकसभा चुनाव में पूरे देश से भाजपा के हक में कोई अच्छा फैसला जनता ने नहीं दिया. जबकि धर्म का ढोलतमाशा खूब हुआ, मंदिर महिमा के बखान के साथ मुसलमानों को भी जम कर गरियाया गया. ‘अब की बार 400 पार’ का स्लोगन ले कर भाजपा ने चुनाव प्रचार किया, लेकिन जनता ने उस को 240 सीटों पर ही रोक दिया. जबकि यही भाजपा 2019 के लोकसभा चुनाव में अकेले 303 सीटों पर जीत कर आई थी और अपने दम पर सरकार बनाई थी. मगर इस बार भाजपा को 63 सीटों का बहुत बड़ा नुकसान हुआ है, जिस का मुख्य कारण किसान हैं. लिहाजा अब किसानों को साधना जरूरी है.

भाजपा ने एनडीए के अन्य घटक दलों के सहयोग से किसी तरह सरकार तो बना ली है, लेकिन इस ‘खिचड़ी’ सरकार में भाजपा की ताकत और फैसले लेने की क्षमता पहले की तरह नहीं है. कुछ ही समय बाद देश के कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, ऐसे में यदि किसानों को नहीं पटाया गया तो बहुत बड़ा खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ेगा. इसी के मद्देनजर पार्टी ने अपनी स्थिति पर मंथन शुरू कर दिया है.

गौरतलब है कि तीन काले कृषि कानूनों को ले कर भाजपा के खिलाफ देश में बड़ा आंदोलन चला. ऐसे कानून जिस में अपने अमीर उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाने की नीयत से मोदी सरकार ने किसानों को उन की ही जमीनों पर उन्हें मजदूर बनाने के सारे इंतजाम कर डाले थे. इस के खिलाफ साल भर से ऊपर दिल्ली की सीमा पर कई राज्यों के किसान धरने पर बैठे रहे. इस विरोध प्रदर्शन के दौरान पुलिस की कड़ी कार्रवाई, मौसम की मार, कड़ाके की ठंड और बारिश के बीच बार बार पुलिस द्वारा मारनेभगाने की कोशिशें, जिस के चलते सैकड़ों बुजुर्ग और युवा किसानों की जान गई. भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत का कहना था कि विरोध प्रदर्शन के दौरान लगभग 700 किसानों की मौत हुई है.

किसानों को जबरदस्त तरीके से प्रताड़ित करने के बाद जब सरकार ने देखा कि किसान सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ लड़ने मरने और जान देने पर उतारू हैं मगर आंदोलन ख़त्म करने को तैयार नहीं हैं तो किसानों के गुस्से को देखते हुए मोदी सरकार ने अपने तीन काले कृषि कानून वापस तो ले लिए, लेकिन किसानों का गुस्सा शांत करने या उन से माफी मांगने का कोई उपक्रम नहीं किया क्योंकि सरकार भारी अहंकार और दम्भ में थी. नतीजा यह हुआ कि लोकसभा चुनाव में किसानों ने भाजपा को जबरदस्त पटखनी दी. ग्रामीण क्षेत्रों में भाजपा का वोट शेयर जो 2019 में 39.5% था, से गिर कर 35% हो गया. इस के अलावा किसानों के विरोध के चलते भाजपा को 40 सीटों का नुकसान भी उठाना पड़ा. खासकर पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के पश्चिमी हिस्से में.

पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने पंजाब में गुरदासपुर और होशियारपुर से दो सीटें जीती थीं, लेकिन इस बार वह कुल 13 में से एक भी सीट नहीं जीत पाई. पंजाब में भाजपा की अलोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि राज्य में चुनाव प्रचार शुरू होने के बाद से ही उस के उम्मीदवारों को विरोध का सामना करना पड़ा. भाजपा के प्रति लोगों में इतनी नफरत थी कि कई गांवों में तो भाजपा उम्मीदवारों को वोट मांगने के लिए आने से ही रोक दिया गया. तो कई जगह भाजपा उम्मीदवार और उन के समर्थकों को दौड़ा दौड़ा कर गांव वालों ने पीटा.

हरियाणा में भी भाजपा की हार पंजाब जैसी ही रही. पिछले लोकसभा चुनाव में भगवा पार्टी ने राज्य में सभी 10 सीटों पर कब्जा कर के क्लीन स्वीप किया था, लेकिन इस बार वह सिर्फ 5 सीटें ही जीत पाई. पंजाब के बाद हरियाणा के किसानों ने 2020-21 के विरोध प्रदर्शनों में सब से जोरदार भागीदारी की थी. पंजाब की तरह हरियाणा में भी ग्रामीण जनता ने भाजपा उम्मीदवारों को वोट मांगने के लिए गांवों में घुसने नहीं दिया.

लोकसभा चुनाव से पहले फरवरी में हरियाणा के हजारों किसानों ने मोदी सरकार को उस के अधूरे वादों की याद दिलाने के लिए दिल्ली की सीमाओं पर मार्च भी किया था. तब भी हरियाणा सरकार ने सख्त कदम उठाते हुए किसानों को शंभू बौर्डर पार करने से रोक दिया था.

दिलचस्प बात यह है कि केंद्र द्वारा कृषि कानूनों को निरस्त करने के बाद, 2022 के विधानसभा चुनावों के दौरान पश्चिमी जिलों में भाजपा का चुनावी प्रदर्शन उल्लेखनीय रहा, मगर लोकसभा चुनावों में पासा पलट गया. गन्ना उत्पादक प्रमुख जिले मुजफ्फरनगर में भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा, केंद्रीय मंत्री और लोकप्रिय क्षेत्रीय नेता संजीव बालियान तक अपनी सीट जीतने में विफल रहे और 24,000 से अधिक वोटों से चुनाव हार गए. काशी की धरती पर भाजपा का ध्रुव तारा बने नरेंद्र मोदी मात्र डेढ़ लाख वोटों से ही विजयी हुए जबकि कई अन्य नेताओं का प्रदर्शन उन से कई गुना बेहतर रहा.

इस डैमेज कंट्रोल के लिए अब कवायद शुरू हो चुकी है. काशी के घाट से प्रधानमंत्री मोदी ने किसान सभा को सम्बोधित किया, कृषि- सखी के तौर पर अनेकों महिलाओं को सम्मान चिन्ह भेंट किए और किसानों के खातों में सम्मान निधि डालने की घोषणा की. उन को लग रहा है कि शायद देश का भोला किसान इस झुनझुने से बहल जाएगा और राज्यों के विधानसभा चुनावों में फिर भाजपा की झोली वोटों से भर देगा. मगर मोदी सरकार अब भ्रम में न रहे क्योंकि उसने अपने दस सालों के शासनकाल में देश के किसानों की जो दुर्दशा की है, वह इतने भर से ठीक होने वाली नहीं है.

आज किसानों की समस्याएं देश भर में सुरसा की तरह मुंह फाड़े खड़ी हैं. मोदी काशी के मंच से भले पीएम सम्मान निधि की घोषणा कर गए, लेकिन जमीनी स्तर पर क्या वह पैसा किसानों के खाते में पहुंच रहा है? यह किस ने देखा? 20 हजार करोड़ रुपए की सम्मान राशि सुनने में बहुत बड़ी धनराशि मालूम पड़ती है, बड़ी आकर्षक बात लगती है, मगर एक किसान को इस में से क्या मिलता है यह जानना महत्वपूर्ण है.

पीएम किसान निधि योजना 2019 से चल रही है. जिस के तहत किसानों को साल में तीन बार 2-2 हजार रुपए उन के बैंक खाते में दिए जाते हैं. यानी एक किसान को साल में मात्र 6 हजार रुपए ही सरकार दे रही है. मगर यह 6 हजार रुपए भी प्राप्त करने में किसानों की एड़ियां घिस जाती हैं. उत्तर प्रदेश के देवरिया का एक किसान 2 साल से किसान निधि का पैसा पाने के लिए दौड़ रहा है.

वह कहता है, “कृषि विभाग के अधिकारी और कर्मचारी कार्यालय में मिलते ही नहीं हैं. बैंक जाओ तो वो कहते हैं कृषि विभाग से लिखवा कर लाओ, या पहले केवाईसी करवाओ. किसान सम्मान निधि के लिए 2 सालों से दौड़ रहे हैं, लेकिन समस्या का समाधान नहीं हो रहा है और अधिकारी एकदूसरे पर काम करने का ठीकरा फोड़ते हैं. मेरे साथ बहुत सारे किसान हैं जो इसी तरह परेशान हैं. अधिकारी उन्हें बहाने बना कर इधर से उधर टरकाते रहते हैं.

“सरकार को क्या लगता है कि तीनचार महीने में दो हजार रुपए एक किसान को दे देने से वह आत्मनिर्भर नहीं बन जाएगा? उस के घर में खुशहाली आ जाएगी? उस के बच्चों के पेट भर जाएंगे? या उनकी अच्छी शिक्षादीक्षा हो जाएगी? दो हजार रुपए भागदौड़ कर के अगर मिल भी गए तो वह ऊंट के मुंह में जीरा मात्र है.”

किसानों की समस्या यह है कि उन की फसलों के उचित दाम उन्हें नहीं मिल रहे हैं. चना सहित सभी दालें बहुत कम कीमत पर बिकती हैं. जो अनाज सरकार खरीदती है उस में से दलाल अपना बड़ा हिस्सा मार लेता है. देश में तिलहन और दलहन की खेती के बावजूद सरकार तेल और दालें बाहर से मंगवाती है. मगर इस की उपज बढ़ाने के लिए न तो किसानों को प्रोत्साहित करती है और न कोई आर्थिक मदद देती है. मोदी सरकार अगर किसानों की इतनी हितैषी बन रही है तो क्यों नहीं उन को अच्छे बीज, खाद, कीटनाशक, कृषि यंत्र आदि कम दाम पर उपलब्ध कराती है? छोटे जोत वाले किसानों के लिए ब्याज मुक्त ऋण उपलब्ध कराना सरकार का काम है, जिस की तरफ मोदी सरकार ने कभी ध्यान नहीं दिया. अपने अमीर उद्योगपतियों, व्यापारियों के अरबोंकरोड़ों रुपए के कर्ज चुटकियों में माफ करने वाली मोदी सरकार अन्नदाता का एक लाख रुपए का कर्ज भी माफ नहीं करती है.

कर्ज में हताश हो कर उस से सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता है. देश भर का किसान कभी सूखे का सामना कर रहा है, कभी बाढ़ से अपनी फसलें बरबाद होते देख रहा है. ग्रामीण क्षेत्रों में सरकार लगातार बिजली के दाम बढ़ाती जा रही है. अव्वल तो बिजली आती नहीं, जो मिलती है उस के दाम बढ़ाए जा रहे हैं. आखिर फसलों की सिंचाई कैसे हो? छोटा किसान तो आज भी मौसम की बारिश के आसरे ही बैठा है. बारिश समय पर हो जाए तो ठीक, वरना कर्ज का बोझ और बढ़ जाता है, क्योंकि बच्चों के भूखे पेट को एक वक्त की रोटी तो देनी ही है. जिस दिन सरकार सम्मान निधि की घोषणा कर रही थी उसी दिन आई चाइल्ड पौवर्टी पर यूनीसेफ एक रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत दुनिया के सब से खराब देशों में एक है जहां बच्चों को उचित आहार नहीं मिल रहा है. निश्चित ही यह बच्चे गरीब किसान और मजदूर वर्ग के ही हैं. खुद मोदी सरकार पूरे गुरूर के साथ यह दावा करती है कि वह 80 करोड़ आबादी को मुफ्त राशन बांट रही है. यानी 80 करोड़ गरीब सरकार की दी गई भीख पर जिंदा हैं.

देशभर में जिस तरह एक्सप्रैस वे का जाल बिछाया जा रहा है उस से सब से अधिक पीड़ित देश का किसान ही है. इन एक्सप्रैस वे पर उस की बैलगाड़ी तो कभी नहीं चलेगी, इस पर तो मोदी सरकार के करीबी व्यापारियों, उद्योगपतियों और अमीरों की चमचमाती गाड़ियां ही दौड़ेंगी, मगर इन एक्सप्रैस वे का जाल पूरे देश में बिछाने के लिए किसानों की जमीनें जबरन अधिग्रहित की जा रही हैं. उदाहरण के तौर पर महाराष्ट्र के शक्तिपीठ एक्सप्रैस वे की बात करें तो यह एक्सप्रैस वे 12 जिलों से होकर गुजरेगा. इस हाइवे से राज्य के करीब 12589 किसानों को नुकसान होगा, जिस में बीड के परली चुनाव क्षेत्र के 700 किसान भी शामिल हैं. कहा जा रहा है कि राज्य की 27 हजार एकड़ जमीन इस हाईवे में चली जाएगी. मराठवाड़ा में प्रभावित कृषि भूमि कई सिंचाई नहरों, नदियों, कुओं, तालाबों की वजह से सिंचित और उपजाऊ है. यह सारी उपजाऊ जमीन यह एक्सप्रैस वे खा जाएगा और किसान के हिस्से फाके आएंगे.

देश की सेना में नेताओं और व्यापारियों के बेटे नहीं बल्कि इन्हीं किसानों के बेटे जाते हैं. देश का पेट भरना हो या देश की रक्षा करनी हो, उस की सारी जिम्मेदारी हमारा किसान ही ढोता है. मगर सरकार उसे क्या दे रही है? सेना में जा कर देश पर अपनी जान न्योछावर करने का जज्बा रखने वाले किसान पुत्रों को 4 साला अग्निवीर बना कर मोदी सरकार ने उन के राष्ट्रप्रेम के जज्बे की जो तौहीन की है उसे किसान कभी माफ नहीं करेगा.

कांग्रेस की चुनौतियों से निबटेगी राहुल-प्रियंका की जोड़ी

2024 के लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी के लिए अच्छा अवसर था, अगर मध्य प्रदेश और बिहार में कांग्रेस या उस का गठबंधन 25 से 30 सीटें जीत जाता तो नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनने से रोका जा सकता था. उत्तर प्रदेश में भाजपा की हार को ईवीएम में गड़बड़ी के आरोप से जोड़ कर देखा जा सकता है. भाजपा को उत्तर प्रदेश में अति आत्मविश्वास था जिस की वजह से पार्टी चुनाव मैनेजमैंट में चूक गई. विरोधी दल ईवीएम पर जिस तरह से सवाल उठा रहे हैं ऐसे में ईवीएम से होने वाली गड़बड़ी को नजरअंदाज करना कठिन है.

उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार की सामाजिक संरचना करीबकरीब एकजैसी है. इन के चुनावी मुद्दे भी कमोबेश यूपी वाले ही थे. ऐसे में यूपी में इतनी करारी हार मिली और मध्य प्रदेश, बिहार में भाजपा को तगड़ी बढ़त मिली. यूपी में गच्चा कैसे खा गए, यह बात हर किसी को समझ नहीं आ रही? क्या भाजपा यूपी के मूड को पढ़ने में चूक गई? उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर केंद्र सरकार का भरोसा ज्यादा था? अपनी जीत के बाद भी राहुल गांधी और अखिलेश यादव यह भरोसा करने को तैयार नहीं हैं कि ईवीएम में गड़बड़ी नहीं हो सकती?

लोकसभा चुनावों में जो परिणाम आए उन्होंने कांग्रेस की चुनौतियों को बढ़ा दिया है. देश की जनता ने कांग्रेस को 99 सीटें दे कर बता दिया है कि उस का कांग्रेस पर कितना भरोसा है. इंडिया ब्लौक को 234 सीटें मिली हैं जो सरकार बनाने वाली एनडीए की 292 सीटों से 58 सीटें ही कम हैं. इस बार सत्ता और विपक्ष की ताकत बराबर की है. ऐसे में कांग्रेस और इंडिया ब्लौक की जिम्मेदारी है कि वह सत्ता पक्ष को मनमानी नहीं करने दे. इस के लिए सब से पहले तो आपसी एकजुटता रखनी है. आपस में योजना बना कर सत्ता पक्ष की कमजोरियों पर हमला करना है.

ससंद में ताकतवर हुआ गांधी परिवार

राहुल गांधी ने रायबरेली लोकसभा सीट अपने पास रखी है और केरल की वायनाड सीट से इस्तीफा दे दिया है. वहां से प्रियंका गांधी चुनाव लड़ेंगी. अब लोकसभा में गांधी परिवार से राहुल और प्रियंका होंगे तो राज्यसभा में सोनिया गांधी सदस्य हैं. आजादी के बाद पहली बार गांधी परिवार के 3 सदस्य संसद में साथ होंगे. इस से कांग्रेस को मजबूती मिलेगी. अल्पमत वाली एनडीए सरकार के लिए मनमानी करना आसान नहीं होगा.

इंडिया ब्लौक का सब से बड़ा घटक दल कांग्रेस है. ऐसे में उस की जिम्मेदारी अधिक है. कांग्रेस की लोकसभा में चुनाव दर चुनाव सीटें कम होती जा रही हैं. कांग्रेस के ज्यादातर नेता राहुल गांधी पर निर्भर हैं. एक अकेले राहुल गांधी पूरी पार्टी की नैया कैसे पार लगा सकते हैं, यह बड़ा सवाल है. कांग्रेस ने अगर मध्य प्रदेश और बिहार में अच्छा प्रदर्शन किया होता, इस के साथ ही उत्तराखंड, दिल्ली और हिमांचल में भाजपा को रोका होता तो परिणाम कुछ और होते. हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की सरकार है. इस के बाद भी एक सीट नहीं जीत पाई.

कांग्रेस में तमाम ऐसे नेता हैं जो पार्टी पर बोझ हैं. ये समयसमय पर ऐसे काम करते रहते हैं जिन से कांग्रेस की मुसीबत बढ़ जाती है. दिग्विजय सिंह, कमलनाथ और शशि थरूर जैसे तमाम नेता ऐसे हैं जो कांग्रेस पर बोझ हैं. ऐसे नेता समय देख पार्टी बदल लेते हैं. 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले इसी तरह के कांग्रेसी नेताओं ने दल बदले. इन में राधिका खेड़ा, गौरव वल्लभ, अरविंदर सिंह लवली, संजय निरूपम, मिलिंद देवड़ा, रोहन गुप्ता, अक्षय कांति बम, अर्जुन मोडवाढ़िया और अशोक चव्हाण प्रमुख थे. इस तरह के नेता अभी भी कांग्रेस में हैं, पार्टी को इन से दूरी बना लेनी चाहिए. यह खुद किसी लायक हैं नहीं, केवल राहुल गांधी पर निर्भर हैं.

लोकसभा सीटों में लगातार गिरावट

2024 के लोकसभा चुनाव की बात करें तो इंडिया ब्लौक की तरफ से 295 सीट से अधिक जीतने का दावा किया गया था. वह 234 सीटें ही जीत पाया है. उसे समीक्षा करने की जरूरत है कि वह लक्ष्य को क्यों हासिल नहीं कर पाया. कांग्रेस की दिक्कत यह है कि 1989 के लोकसभा चुनाव से कांग्रेस की संसद में सीटें लगातार कम होती जा रही हैं. कांग्रेस इस तथ्य को स्वीकार कर इस का निदान तलाशने की जगह पर इस को ढकने का प्रयास करती है.

प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उपजी लहर के बाद 1984 के आम चुनाव में कांग्रेस को 414 लोकसभा की सीटें मिली थीं. इस के बाद कांग्रेस में गिरावट शुरू हुई. वह 1984 से 2024 के बीच केवल 2 बार 200 से अधिक सीट हासिल कर पाई. 1989 में कांग्रेस को 197 सीटें ही मिल पाई थीं, जिस के बाद वी पी सिंह प्रधानमंत्री बने थे. 1991 में मध्यावधि चुनाव हुए. आधे चुनाव पहले हुए और आधे राजीव गांधी की हत्या के बाद हुए.

राजीव गांधी की हत्या के बाद 1991 के हुए 10वें लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की लहर होने के बाद भी उस को 521 में से सिर्फ 232 सीटें ही मिली थीं. कांग्रेस नेता नरसिम्हाराव प्रधानमंत्री बने थे. 1996 में हुए चुनाव में कांग्रेस को 140 सीटें मिली थीं. इस दौर में इंद्रकुमार गुजराल और एच डी दैवगोड़ा प्रधानमंत्री बने. 1998 में कांग्रेस को 141 सीटें मिलीं. 1999 के चुनाव में कांग्रेस घट कर 114 पर पहुंच गई.

सरकार तो बनाई पर पार्टी नहीं बचाई

साल 2004 में जब कांग्रेस सत्ता में आई और सोनिया गांधी ने यूपीए गठबंधन कर सरकार बनाई उस समय भी कांग्रेस के पास सीटें केवल 145 ही थीं. जो भाजपा से केवल 7 सीटें ही ज्यादा थीं. 2009 में कांग्रेस फिर सत्ता में वापस आई. इस बार उसे 204 सीटें मिलीं. इस तरह से देखें कि जब 10 साल कांग्रेस सत्ता में रही तो उसे पहली बार 145 और दूसरी बार 204 सीटें ही मिलीं. 1991 में 232 सीटों के मुकाबले उस की संख्या 28 घट गई थी. चूंकि उस ने 10 साल सरकार चलाई तो इस तरफ किसी का ध्यान नहीं गया.

कांग्रेस ने अपने संगठन को बढ़ाने पर उस दौर में कोई काम नहीं किया. उसे लग रहा था कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर उसे जनता बारबार जिताती रहेगी. सरकार में रहते पार्टी के लिए काम नहीं हुआ. इस का नतीजा यह हुआ कि 2014 के लोकसभा चुनाव में उस को करारा झटका लगा. जहां विपक्षी भारतीय जनता पार्टी को 282 सीटें मिलीं, वहीं कांग्रेस केवल 44 सीटों पर सिमट गई. इस के बाद भी कांग्रेस इस मुगालते में रही कि भाजपा सरकार चलेगी नहीं, अगले चुनाव में हार जाएगी. कांग्रेस खुद को मजबूत करने की जगह भाजपा के कमजोर होने का इंतजार करती रही.

जब 2019 में लोकसभा चुनाव के परिणाम आए तो पता चला कि कांग्रेस 52 सीटों पर सिमट गई. भाजपा ने 303 सीटें हासिल कर लीं. कांग्रेस में राहुल गांधी ने अपनी भारत जोड़ो यात्राओं, अडानी-अम्बानी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना के साथ जातीय जनगणना, संविधान बचाओ और आरक्षण बचाओ को मुद्दा बना कर नरेंद्र मोदी के खिलाफ एक माहौल बनाया. इस के बाद जब परिणाम सामने आए तो कांग्रेस की सीटें बढ़ कर 99 हो गईं. इंडिया ब्लौक 234 सीटें ही पा सका, जिस वजह से नरेंद्र मोदी को तीसरी बार एनडीए का प्रधानमंत्री बनने से वह रोक नहीं पाया. पिछले 43 साल से कांग्रेस अपने बल पर 240 सांसदों को जिताने में सफल नहीं हो पाई है.

लक्ष्य तक पहुंचना हो रहा मुश्किल

2024 के लोकसभा चुनाव परिणामों के उत्साह में कांग्रेस इस कदर डूब गई है कि उसे लग रहा है कि लक्ष्य हासिल हो गया है. नरेंद्र मोदी 400 सीटें नहीं ला पाए, इतना बहुत है. कांग्रेस का लक्ष्य नरेंद्र मोदी की 400 सीटों को रोकने से अधिक अपनी 272 सीटें लाने का होना चाहिए. कांग्रेस की सब से बड़ी चुनौती यही है कि वह लक्ष्य तक कैसे पहुंचेगी.

लोकसभा चुनाव में इंडिया ब्लौक के दल साथसाथ लड़े लेकिन विधानसभा चुनाव में उन के साथ लड़ने की संभावना नहीं दिखती. कम से कम दिल्ली और पश्चिम बंगाल से इस तरह की जानकारियां मिल रही हैं. भाजपा को देश के स्तर पर हराने की ताकत केवल कांग्रेस के पास है. कांग्रेस यह तब तक नहीं कर पाएगी जब तक वह अपने को मजबूत नहीं करती.

कांग्रेसी खेमा बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने का इंतजार कर रहा है. उसे लग रहा है कि नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू किस दिन भाजपा से नाराज हो कर समर्थन वापस लें और मोदी-3 सरकार गिर जाए. यह कब होगा, इस का पता नहीं? इस बीच कई राज्यों के विधानसभा चुनाव 2024 और 2025 में आने वाले हैं.
कांग्रेस ने 1980 और 1989 में सत्ता पलट कर के चौधरी चरण सिंह और चंद्रशेखर को प्रधानमंत्री बनवा कर मोरारजी देसाई की जनता पार्टी सरकार और विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार गिरावा दी थी. उस समय उस के पास सांसदों की संख्या इतनी थी कि वह चरण सिंह और चंद्रशेखर को प्रधानमंत्री बनवा ले गई थी. 2024 में उस के पास इतने सांसद नहीं हैं कि वह नीतीश कुमार, चंद्रबाबू नायडू को प्रधानमंत्री बनवा सके. ऐसे में वह केवल समय का इंतजार ही कर सकती है. इंतजार के साथ ही साथ उसे अपने को अवसर का लाभ उठाने लायक मजबूत भी करना होगा.

हाथ आतेआते फिसल गई सत्ता

कांग्रेस की सब से बड़ी चुनौती यह है कि जिन राज्यों में उस का भारतीय जनता पार्टी से सीधा मुकाबला है वहां वह सब से कमजोर प्रदर्शन करती है. 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के पास अच्छा मौका था कि वह नरेंद्र मोदी को सत्ता से बेदखल कर सकती थी. जनता ने नरेंद्र मोदी को हटाने के लिए जम कर वोट दिया. अगर कांग्रेस 25 से 30 सीट और ले आती तो उस के पास मौका था.

मध्य प्रदेश में कांग्रेस की बुरी हार हुई है. प्रदेश की सभी 29 लोकसभा सीटों पर भारतीय जनता पार्टी की जीत हुई है. राजगढ़ से कांग्रेस नेता एवं पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह और छिंदवाड़ा से कमलनाथ के बेटे एवं निवर्तमान सांसद नकुल नाथ तक अपनी सीट नहीं बचा पाए. ऐसे में कांग्रेस कैसे चुनाव जीत सकती थी.
मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की मेहनत और उन के काम पर जनता ने भाजपा को वोट दिया. कांग्रेस की तरफ से चुनाव अभियान का नेतृत्व राहुल गांधी, पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और प्रियंका गांधी वाड्रा ने किया. लोकल लैवल पर कोई भी नेता जिम्मेदारी उठाने को तैयार नहीं था. कमलनाथ अनमने से कांग्रेस में हैं. वे अच्छे अवसर की राह देख रहे हैं. दिग्विजय सिंह बड़बोले नेता हैं. कोई जनाधार बचा नहीं. कांग्रेस उन को ढो रही है.

मध्य प्रदेश में कांग्रेस अच्छा कर सकती थी. इस का दर्द उस को लंबे समय तक परेशान कर सकता है. दिल्ली प्रदेश में भी कांग्रेस एक भी सीट नहीं ला पाई. जबकि यहां पर उस का आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन भी था. यहां कांग्रेस के लोकल नेताओं का आम आदमी पार्टी के साथ विरोध था. जिस से लोकल नेताओं ने काम नहीं किया. कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अरविंदर सिंह लवली ने इस मुद्दे पर पार्टी छोड़ दी थी. संदीप दीक्षित जैसे दूसरे बड़े नेता भी इस के विरोध में थे. पूरी कांग्रेस राहुल गांधी के भरोसे ही जीत की आस लगाए बैठी थी. आम आदमी पार्टी पूरी की पूरी जेल में है और विवादों में घिरी है. ऐसे में उस के कार्यकर्ताओं में उत्साह नहीं था.

सहयोगी बनेंगे बड़ी मुसीबत

इंडिया ब्लौक में जो घटक दल हैं उन में से कई दलों की राजनीति कांग्रेस के विरोध से शुरू हुई थी. जैसे उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, पश्चिम बंगाल में टीएमसी, बिहार में राजद. इन दलों का विकास कांग्रेस के वोटबैंक टूटने से हुआ था. कांग्रेस के 2 बड़े वोटबैंक मुसलिम और दलित अपने लिए मजबूत ठिकाने की तलाश में हैं. उन्हें लगता है कि कांग्रेस ही अकेली ऐसी पार्टी है जो भाजपा से लड़ सकती है. कांग्रेस में जैसे ही उसे उम्मीद दिखी और भाजपा से उस को खतरा दिखा कि 400 सीटें ला कर वह संविधान में बदलाव कर के आरक्षण खत्म कर देगी, वह कांग्रेस के पाले में खड़ा हो गया.

जब दलित कांग्रेस के साथ खड़ा हुआ तो पिछले लोकसभा में 10 सीटें जीतने वाली बसपा को उत्तर प्रदेश में एक भी सीट नहीं मिली. समाजवादी पार्टी को जो सफलता मिली है उस का बड़ा कारण कांग्रेस है. दलित कांग्रेस की तरफ आया. गठबंधन में होने के कारण उस का वोट सपा को भी मिल गया. मुसलिम अभी सपा के साथ था. इस चुनाव में वह कांग्रेस के साथ गया. इसी खतरे को भांपते हुए अखिलेश ने कांग्रेस से गठबंधन किया था. ऐसे में कांग्रेस जितना मजबूत होगी, उस के यह सहयोगी दल उतने कमजोर होंगे.

पश्चिम बंगाल में इसी खतरे को भांपते हुए टीएमसी ने कांग्रेस को सीट नहीं दी थी. समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने हमेशा कांग्रेस को बाहर से समर्थन दिया. कभी भी कांग्रेस के साथ चुनावपूर्व तालमेल नहीं किया. 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और सपा का जब गठबंधन राहुल गांधी और अखिलेश यादव के बीच हुआ था तब मुलायम सिंह यादव इस से खुश नहीं थे. उन को यह डर हमेशा रहा कि अगर मुसलिम कांग्रेस की तरफ गया तो सपा की राजनीति खत्म हो जाएगी.
सहयोगी दल भी इस खतरे को समझते हैं. ऐसे में कांग्रेस को योजना बनानी चाहिए कि वह खुद कैसे मजबूत हो. सहयोगी दलों के पिछलग्गू बन कर चलने से भला नहीं होने वाला. जनता ने कांग्रेस को एक अवसर दिया है. इस का लाभ उठा कर आगे चलने से ही लाभ होगा. देखना है कांग्रेस अपने को मजबूत कर आगे बढ़ने का सोचेगी या सहयोगी दलों की बैसाखी पर ही चलना कबूल है.

राहुल गांधी मेहनती हैं, वे पार्टी में जान फूंक सकते हैं. अपने दल की चुनौतियों से वे कैसे निबटेंगे, उन के सामने यह सब से बड़ा सवाल है. सहयोगी दलों के साथ चलते हुए उन को कांग्रेस को मजबूत करना है. प्रियंका गांधी अब तक पार्टी लैवल पर ही राहुल गांधी की मदद करती थीं, अब वायनाड से सांसद बनने के बाद लोकसभा में राहुल की मदद करेंगी. भाईबहन की यह जोड़ी कांग्रेस को चुनौतियों से निबटने में मदद करेगी

यूजीसी-नेट में धांधली, ऐसे गुरुओं को नमन करें कैसे?

‘गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु, गुरु देवो महेश्वरा गुरु साक्षात परब्रह्म, तस्मै श्री गुरुवे नमः’ अर्थात गुरु ही ब्रह्मा है. गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है. गुरु ही साक्षात परब्रह्म है. ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूं. भारत में गुरुओं को ले कर इस नैतिकता की दुहाई हमेशा दी जाती रही है. इस के विपरीत आज गुरु कैसे बन रहे हैं, इस का उदाहरण यूजीसी-नेट परीक्षा की धांधली में नजर आता है. क्या हम ऐसे गुरु की कल्पना कर सकते हैं जो नकल और धांधली कर के परीक्षा में पास हो. इस के बाद यह गुरु स्कूलकालेजों में बच्चों को पढ़ाएंगे. बच्चों को परीक्षा में जब नकल करने से रोकेंगे तो उन को अपनी नकल याद नहीं आएगी.

क्या ऐसे गुरुओं को नकल से रोकने का अधिकार होना चाहिए? क्या ऐसे गुरुओं का सम्मान हमारी नजर में हो सकता है? क्या यही वे नकल कर के पास होने वाले गुरु हैं जिन के सहारे हम विश्वगुरु बनने की रातदिन दुहाई देते हैं? देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सुचिता और ईमानदारी की बात करते हैं? 10 साल में पेपर लीक जैसी धांधली को रोक नहीं पा रहे, ऐसे में हम विश्व की तीसरी ताकत बनने की बात करते हैं, जो सरकार अपने देश में बिना धांधली के परीक्षा नहीं करवा पाती वह विश्व की तीसरी ताकत कैसे बन सकती है?

यथा राजा तथा प्रजा

पढ़ाई का स्तर क्या है, इस की एक झलक नरेंद्र मोदी मंत्रिमंडल की केंद्रीय महिला बाल विकास राज्यमंत्री सावित्री ठाकुर के रूप में देखी जा सकती है. भारतीय जनता पार्टी का एक नारा था- ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’. मध्य प्रदेश में धार के ब्रह्मकुंडी स्कूल इलाके में स्कूल चलो अभियान कार्यक्रम का उदघाटन समारोह था. उस में केंद्रीय राज्यमंत्री सावित्री ठाकुर मुख्य अतिथि थीं. वहां हस्ताक्षर अभियान में उन को अपना संदेश लिख कर हस्ताक्षर करना था. सावित्री ठाकुर अपनी पार्टी के स्लोगन ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ की जगह ‘बेढी पड़ाओ बच्चाव’ लिख दिया. केंद्रीय मंत्री का गलत तरह से लिखना मीडिया से ले कर सोशल मीडिया में चर्चा का विषय बन गया.

लोकतंत्र का दुर्भाग्य है कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोग और बड़े विभागों के लिए जिम्मेदार लोग अपनी मातृभाषा में भी सक्षम नहीं हैं. वे अपना मंत्रालय कैसे चला सकते हैं, यह सवाल लोगों के बीच घूम रहा है. एकतरफ देश की बेटियों को पढ़ाने की बात की जा रही है तो वहीं दूसरी तरफ जिम्मेदार लोगों में साक्षरता की कमी है. क्या इसी तरह से भारत देश विश्वगुरु बन पाएगा? सवाल उठता है कि सांसद और केंद्रीय मंत्री होने के बावजूद सावित्री ठाकुर दो शब्द भी ठीक से नहीं लिख पाईं. बच्चों ने जब उन्हें गलत लिखते देखा होगा तो उन्हें कैसा लगा होगा? केंद्र सरकार में वे किस तरह का नेतृत्व देंगी, इस की केवल कल्पना ही की जा सकती है?

सवाल यह भी उठ रहा है कि जब प्रधानमंत्री की अपनी डिग्री विवादों के घेरे में रही है, तब मंत्रियों से क्या उम्मीद की जा सकती है? ऐसे राज में शिक्षकों की भरती में धांधली कोई बड़ा काम नहीं है. इस व्यवस्था से यही उम्मीद की जा सकती है कि शिक्षक नकल कर के ही नौकरी पा सकता है. ऐसे में गुरुओं के सम्मान और नैतिककता की बात केवल किताबी है. इस की बातें केवल पौराणिक कथाओं भर में रह गई हैं. सचाई से ये कोसों दूर हैं. क्या छात्र ऐसे गुरु का सम्मान कर सकते हैं जो नकल कर के पास हुआ हो?

यूजीसी-नेट में धांधली

विश्वगुरु बनने वाले देश का हाल यह है कि 18 जून की परीक्षा हुई और 19 जून को कैंसिल हो गई. नीट परीक्षा में गड़बड़ी से चर्चा में आई एनटीए यूजीसी-नेट धांधली की भी जिम्मेदार मानी जा रही है. विश्वविद्यालय में असिस्टैंट प्रोफैसर बनने या फैलोशिप लेने के लिए कैंडिडेट्स को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा आयोजित नेट की परीक्षा को पास करना होता है.

18 जून, 2024 को 11 लाख छात्रों ने इस उम्मीद से परीक्षा दी थी कि अच्छे अंक लाने पर उन्हें अच्छे संस्थान में असिसटैंट प्रोफैसर का पद मिलेगा या सरकार की तरफ से जूनियर रिसर्च फैलोशिप की सुविधा मिलेगी. परीक्षा के अगले ही दिन पता चला कि परीक्षा रद्द कर दी गई है. इस से छात्रों का हौसला तो टूटा ही है, साथ ही, परीक्षा आयोजित कराने वाली एजेंसी एनटीए से भरोसा भी उठा है.

पहले नेट की परीक्षा सीबीटी मोड में होती थी, ऐसे में पेपर तुरंत लौक हो जाता था. एनटीए ने इस बार परीक्षा ओएमआर शीट पर कराई. परीक्षा में प्रयोग हुई ओएमआर शीट खराब और हलके पेपर पर थी. पैन और पेपर का प्रयोग करने से वह फट जा रही थी. लकड़ी की बैंच पर शीट रख कर स्टूडैंट्स ने उन्हें भरा था. विश्व की 5वी अर्थव्यवस्था का दावा करने वाला देश अपने छात्रों को परीक्षा में अच्छी क्वालिटी के पेपर वाली ओएमआर शीट तक नहीं दे पा रहा है.

नेट क्लीयर करने के लिए कैंडिडेट्स को पेपर 1 और पेपर 2 देना होता है. ये दोनों पेपर कंबाइन हो कर आते हैं, जिन्हें 3 घंटे में पूरा करना होता है. पेपर वन में 50 प्रश्न और पेपर 2 में 100 प्रश्न होते हैं. हर सवाल 2 अंकों का होता है. इसे पास करने के लिए कैंडिडेट्स को न्यूनतम 35 प्रतिशत अंक लाना जरूरी है. इस के बाद जूनियर रिसर्च फैलोशिप यानी जेआरएफ देना केंद्र सरकार के फंड पर निर्भर करता है. अगर केंद्र सरकार की तरफ से 10 लोगों को जेआरएफ दिया जा रहा है तो टौप 10 स्टूडैंट्स को फैलोशिप मिल जाएगी. इस के बाद बाकी स्टूडैंट्स के लिए यूनिवर्सिटीज फौर्म निकालती हैं, कैंडिडेट्स इन फौर्म को फिल कर के नेट स्कोर के आधार पर एडमिशन लेते हैं. जब पीएचडी शुरू हो जाती है तब जेआरएफ के छात्रों का पैसा आने लगता है.

बढ़ रही उम्र कैसे बनेगा कैरियर

यूजीसी-नेट परीक्षा देने वाले छात्रों की औसत उम्र 23 से 27 साल के बीच में होती है. इस का मतलब यह है कि इस उम्र तक छात्र अपने कैरियर के लिए परीक्षा दे रहे हैं. विश्वगुरु और 5वीं अर्थव्यवस्था का दावा करने वाला देश इस उम्र के छात्रों को नौकरी नहीं दे पा रहा है. इस उम्र में बच्चों को अपना घर बसा लेना चाहिए था. अभी ये नौकरी ही तलाश कर रहे हैं. उस में भी परीक्षा में पेपर लीक और दूसरे व्यवधान के चलते नौकरी मिलने की उम्र 35 साल हो जा रही है. 60 में रिटायरमैंट होने वाली जौब में 35 साल केवल नौकरी तलाश करने में निकल जा रहे हैं. केवल 25 साल ही नौकरी करने का मौका मिलेगा.

परीक्षा में व्यवधान होने पर छात्रों का अमूल्य समय खराब होता है. छात्रों में हताशा होती है. वे निराश होते हैं. डिप्रैशन का शिकार होते हैं. कई बार वे आत्महत्या करने जैसे कदम भी उठा लेते हैं. यूजीसी नेट परीक्षा में गड़बड़ी नहीं हुई होती तो छात्र समय पर अपना एग्जाम खत्म करते और समय पर उन का एडमिशन हो जाता. दिसंबर तक सभी एलिजिबल छात्रों की पीएचडी शुरू भी होती और कैंडिडेट्स का जेआरएफ भी आने लगता. अब यह पूरा चक्र पिछड़ गया है, जिस का प्रभाव छात्रों की उम्र पर पड़ेगा.

क्यों बनते हैं प्राइवेट सैंटर

इन परीक्षाओं की पहले विश्वविद्यालयों में निगरानी होती थी. एनटीए ने अब अलग सैंटर देने शुरू कर दिए हैं. असल में सैंटर बनवाने में ही पैसे का असल खेल होता है. प्राइवेट सैंटर भरोसेमंद नहीं होते. यहीं पेपर लीक और नकल कराने जैसे आरोप लगते हैं. एनटीए प्राइवेट सैंटर को परीक्षा केंद्र क्यों बनाता है, इस की जांच होनी चाहिए. कोई भी परीक्षक अपने पसंदीदा कैंडिडेट से यह भी कह सकता है कि ओएमआर शीट ब्लैंक छोड़ दो. अगर सारे सवाल पता हों तो कुछ ही देर में ओएमआर शीट भर कर पेपर भिजवाया जा सकता है. ओएमआर शीट की पेक्षा कंप्यूटर पर परीक्षा कराना ज्यादा सुरक्षित होता है.

यूजीसी नेट का एग्जाम दोबारा कराया जाएगा. सवाल उठता है कि क्या दोबारा परीक्षा कराने से छात्रों का जो नुकसान हुआ है उस की भरपाई हो जाएगी? जून का महीना ऐसा महीना है जब सभी स्टूडैंट्स के सैमेस्टर खत्म होते हैं. अगर आप एग्जाम फिर से करवाओगे तो वह अभ्यार्थियों की अन्य परीक्षाओं के साथ क्लैश करेगा. क्या दोबारा परीक्षा कराने का खर्च सरकार देगी?

पौराणिक कथाओं में गुरु का महत्त्व

पौराणिक कथाओें में गुरुओं का महत्त्व सब से अधिक बताया गया है. देश में हर साल 5 सितंबर को शिक्षक दिवस मनाया जाता है. इस दिन पूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्मदिन होता है. वे शिक्षक से राष्ट्रपति बने थे. ऐसे में छात्र उन के जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाते हैं. पौराणिक ग्रंथों में गुरु का दर्जा भगवान के समान बताया गया है. गुरु के बिना ज्ञान मिल ही नहीं सकता. अनंत काल से गुरु को लोग भगवान मानते आ रहे हैं. गुरु मिलते ही उन के चरण स्पर्श करना चाहिए.
आज के गुरुओं की हालत यह है कि वे नकल कर के परीक्षा पास करते हैं. ऐसे में गुरु अपना फर्ज निभाने में असफल साबित हो रहे हैं. हिंदू पंचांग के अनुसार, आषाढ़ मास की पूर्णिमा तिथि पर गुरुपूर्णिमा का त्योहार मनाया जाता है. इस पर्व पर अपने गुरु के प्रति आस्था को प्रगट किया जाता है तथा विधिवत रूप से गुरुपूजन किया जाता है. पौराणिक ग्रंथों के अनुसार, इस दिन को व्यास पूर्णिमा भी कहते हैं. इस दिन को चारों वेदों के रचयिता और महाभारत की रचना करने वाले वेद व्यास का जन्म हुआ था.

व्यास पूर्णिमा से रक्षाबंधन तक आरएसएस गुरुदक्षिणा का कार्यक्रम आयोजित करता है. इस में संघ के भगवा ध्वज के सामने गुरुदक्षिणा रखी जाती है. राशि और दक्षिणा देने वाले का नाम सार्वजनिक नहीं किया जाता है. आरएसएस की शुरुआत 1925 में हुई पर गुरुदक्षिणा का कार्यक्रम 1928 से गुरुपूजा के रूप में लगातार चल रहा है. गुरुओं का महत्त्व पूरे समाज को बताया जाता है. अब के गुरु तो नकल कर के, पेपर लीक कर के परीक्षा में पास हो रहे हैं. इन को आदर्श कैसे माना जा सकता है, यह बड़ा सवाल है.

गुरु की आड़ में जितनी भी नैतिकता की बातें होती हैं वे सब आज के समय में बेमानी हैं. गुरु और सरकारी मास्टर में फर्क है. वह नौकरी के लिए कुछ भी कर सकता है. ऐसे में उस की आदर्शवादी बातें छात्रों को मजाक लगती हैं. पैसा खर्च कर के नौकरी पाने वाला शिक्षक छात्रों को पढ़ाने के बजाय पैसे बनाने की सोचता रहता है. ऐसे में नकल कराने और पेपर लीक कराने वाले काम भी करता है. इस तरह ‘गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु, गुरु देवो महेश्वरा, गुरु साक्षात परब्रह्म, तस्मै श्री गुरुवे नमः’ वाली बात पूरी तरह से बेमानी है.

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