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मौडर्न बहुओं की बैस्‍ट फ्रैंड बन गई हैं Mother in law

 

Mother in Law & Dauther in law Relation : मौडर्न समय में रिश्ते जोरजबरदस्ती से नहीं बल्कि आपसी तालमेल से बनाने पड़ते हैं. तालमेल ऐसा जिस में दबनेदबाने की भावना न हो और एकदूसरे के प्रति सम्मान हो. सासबहू को ले कर समाज में परसैप्शन है कि इन का नेचर आपस में लड़ने?ागड़ने का है पर आज के बदले समय में सासबहू में तालमेल दिखाई देने लगा है. इवनिंग वाक से वापस आते हुए लिफ्ट में मेरे सामने रहने वाली मिसेज मौली अपने बेटे की पत्नी के साथ मिल गईं. अकसर सासबहू की यह जोड़ी मुझे आतेजाते मिल ही जाती है. उन्हें यों एकसाथ देख कर मैं ने कहा, ‘‘कहां चली यह सासबहू की खूबसूरत जोड़ी?’’ ‘‘मेला, मूवी और बाहर ही डिनर ले कर घर आने का प्लान है आंटी,’’ बहू आरती ने अपनी सास की ओर मुसकरा कर देखते हुए कहा.

‘‘वाह, आदर्श सासबहू हो आप दोनों,’’ मैं ने कहा तो बहू खिलखिलाते हुए बोली, ‘‘बाय द वे आंटी, क्या हम सासबहू लगती हैं?’’ ‘‘रियली नहीं, मुझे तो हमेशा आप दोनों मांबेटी ही लगती हो. अभी ही देख लो, दोनों ही जींसटौप में हो. मांबेटी भी नहीं, बहनें ही अधिक लग रही हो,’’ मैं ने हंस कर कहा तो वे दोनों खुश होते हुए चली गईं. सच में आज सासबहू की परिभाषा पूरी तरह से उलट गई है. मुझे अपनी मां का बहू रूप आज भी याद है जब उन के मुख पर घूंघट हुआ करता था. उसी घूंघट में वे घर के समस्त कार्यों को निबटाती थीं. घरबाहर सभी जगह पर मजाल है कि उन का घूंघट जरा सा भी ऊंचा हो जाए. उन की अपनी कोई मरजी न थी. बस, दादी के निर्देशों का पालन भर करना होता था. जब मैं बहू बन कर अपनी ससुराल आई तो घूंघट का स्थान सिर के पल्ले ने ले लिया और हमें घरबाहर के विभिन्न मुद्दों पर अपनी राय सासुमां के सामने रखने का अधिकार तो था परंतु अंतिम निर्णय सासुमां का ही होता था जो अप्रत्यक्ष रूप से घर के मर्दों का ही हुआ करता था.

 

आज की daugher in law परिवार में समानता का अधिकार रखती है. उस के पहनावे में साड़ी का स्थान जींसटौप, कुरतेलैगिंग्स और अन्य आधुनिक परिधानों ने ले लिया है. वह अपने पति के साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़ी है. परिवार में उस की राय बहुत माने रखती है. न केवल पति बल्कि सासससुर भी उस की राय को तवज्जुह देते हैं. यह बदलाव सासबहू के रिश्ते में भी परिलक्षित होता है. वे आज सासबहू कम, मांबेटी, बहनें या दोस्त अधिक हैं. जो एकदूसरे को बखूबी सम?ाती हैं, साथसाथ शौपिंग करती हैं, मूवी देखती और घूमती हैं. एकदूसरे के बारे में उस की उम्र के मानसिक स्तर पर जा कर सोचती हैं और एकदूसरे का खयाल रखना भी बखूबी जानती हैं.

छोटा होता परिवार का आकार इस बदलाव का सब से बड़ा कारण है परिवार का छोटा होता आकार. मेरी बूआ के 4 बेटे थे. बूआ सदैव एक न एक बहू को अपने साथ रखती थीं. एक बेटेबहू से बिगड़ जाने पर कोई न कोई उन की देखभाल के लिए उपलब्ध रहता ही था. परंतु आज परिवार में एक या दो संतानें ही होती हैं. श्रद्धा कहती है, ‘‘आज की कटु सचाई तो यह है कि हम सासबहुएं एकदूसरे की पूरक बन गई हैं क्योंकि पहले की तरह आज कई बच्चे तो होते नहीं कि एक के पास नहीं पट रही तो दूसरे या तीसरे के पास चले जाएंगे. एक ही बेटा है और एक ही बहू. हमें उन के साथ और उन्हें हमारे साथ ही रहना है तो फिर क्यों न हंसीखुशी रहा जाए.’’ इसी प्रकार एक मल्टीनैशनल कंपनी में सीए के पद पर कार्यरत प्रियंका कहती हैं, ‘‘हमें उन की जरूरत है और उन्हें हमारी. आज सोसाइटी में इतना अधिक एक्सपोजर है कि बच्चों को कदमकदम पर किसी मार्गदर्शक की आवश्यकता होती है और वह मार्गदर्शक उन के ग्रांडपेरैंट्स से बढ़ कर कोई नहीं हो सकता.

 

‘‘उन के सुरक्षित हाथों में अपने बच्चों को छोड़ कर हम निश्चिंतता से काम कर पाते हैं. आजीवन अपने बच्चों के लिए खटने वाले मातापिता के लिए भी यह अपनी मेहनत को सफल होते देखने का स्वर्णिम पल होता है. उन्हें भी इस उम्र में किसी सहारे की आवश्यकता होती है और वह सहारा उन के बच्चों से अच्छा कोई नहीं हो सकता. थोड़े उन के और थोड़े हमारे बदलने से बात बन जाती है. ‘‘मेरे विवाह के इन 7 वर्षों में हम ने छोटेबड़े सभी त्योहार, बर्थडे, एनिवर्सरी जैसे सभी अवसरों को सदैव एकसाथ ही सैलिब्रेट किया है. यदि हम नहीं जा पाते हैं तो उन यादगार पलों में मम्मीपापा हमारे साथ होते हैं क्योंकि वे हमारी जौब की विवशताओं को भलीभांति सम?ाते हैं.

मेरे दोनों बच्चे अपने ग्रांडपेरैंट्स के साथ ही पलेबढ़े हैं.’’ बेटी की कमी पूरी करती बहुएं वर्तमान समय में जिन परिवारों में बच्चों के नाम पर केवल एक या दो बेटे ही हैं वहां पर बेटियों के लिए तरसती मां के लिए बेटे की पत्नी अर्थात बहू उन की बेटी की कमी को पूरी करती है. बेटी को ले कर अपने समस्त अरमानों को वे अपनी बहू के जरिए पूरा कर रही हैं. बहुएं भी अपनी सास को मां समान ही मानती हैं. परिधान, हेयरस्टाइल और ज्वैलरी का निर्धारण कर अपनी सास को आधुनिक और स्टाइलिश बना रही हैं. 2 बेटों की मां मेरी चचेरी बहन नीता का ही उदाहरण ले लीजिए. वह कहती है, ‘‘दूसरे बेटे के समय मुझे  बेटी की बड़ी चाह थी परंतु दूसरा भी बेटा होने के बाद बेटी की चाह मन में ही रह गई पर जब से बड़े बेटे का विवाह हुआ है, बहू रागिनी के रूप में मुझे बेटी मिल गई है.

बेटी वाले सारे अरमान मैं अपनी बहू के जरिए पूरा कर रही हूं. ‘‘कई बार तो अपनी कुछ नितांत निजी बातें, जिन्हें मैं पति के साथ भी शेयर नहीं कर पाती, बहू के साथ सा?ा करती हूं. अपनी मजबूत अंडरस्टैंडिंग के कारण हम बिना कहे ही एकदूसरे की बातें सम?ा जाते हैं.’’ इस के अतिरिक्त आज की सासें अपनी बहू की इच्छाओं का मान रखना भी बखूबी जानती हैं. अंजू को मैंटेनैंस के कारण कौटन पहनना कभी नहीं भाया परंतु कल वह बड़ी ही सुंदर कौटन साड़ी में थी तो मैं ने कहा, ‘‘तुम्हें तो कौटन पसंद नहीं था, फिर आज यह खूबसूरत कौटन साड़ी?’’ ‘‘बहू की पसंद है, उस का कहना है कि कौटन मेरे ऊपर बहुत फबता है, इसलिए अब यह मेरा भी पसंदीदा फैब्रिक हो गया है,’’ अंजू ने अपनी बहू की प्रशंसा करते हुए कहा. आत्मनिर्भर होती बेटियां पहले जहां बेटी को पढ़ालिखा कर उस का विवाह कर देना ही मातापिता अपना मुख्य दायित्व समझते थे,

 

वहीं आज के मातापिता बेटों की ही भांति बेटियों को भी पूरी तरह शिक्षित कर आत्मनिर्भर बना कर ही विवाह करते हैं. यही बेटियां आगे चल कर आत्मनिर्भर बहुएं बनती हैं क्योंकि लड़के भी आज नौकरीपेशा पत्नी को ही प्राथमिकता दे रहे हैं जो कंधे से कंधा मिला कर न केवल आर्थिक बल्कि जीवन के प्रत्येक मोरचे पर अपने पति का साथ निभा सके. कुछ मामलों में लड़कियों को बच्चे होने के बाद नौकरी छोड़नी पड़ती है. ऐसे में घर पर रहने के साथसाथ अपने परिवार की संपूर्ण देखभाल करने का दायित्व भी बहू का ही होता है. गौरव एक मल्टीनैशनल कंपनी में मैनेजर के पद पर कार्यरत है. प्रतिदिन गाजियाबाद से अपने औफिस दिल्ली जाने के लिए उसे सुबह 8 बजे निकलना पड़ता है. रात को 9 बजे ही घर वापस आ पाता है. ऐसे में पीछे रह गए वृद्ध सासससुर के साथसाथ 9 वर्षीय बेटे की शिक्षा का दायित्व भी गौरव की पत्नी गरिमा के कंधों पर है. गौरव स्वयं कहता है,

‘‘गरिमा मु?ा से कहीं बेहतर ढंग से घरबाहर सभी कुछ मैनेज कर लेती है. मेरे औफिस जाने के बाद पापामम्मी को डाक्टर के पास ले जाने से ले कर बेटे को पढ़ाने तक का सारा काम वही संभालती है और इसीलिए मैं अपने काम पर बेहतर ढंग से कंसन्ट्रेट कर पाता हूं.’’ सम?ादार होती सास आज की सास शिक्षित हैं. वे जानती हैं कि प्रतिदिन औफिस जाने वाली बेटे के बराबर पैकेज लेने वाली बहू को किसी भी प्रकार के बंधन, फिर वह चाहे रहनसहन हो या खानपान में बांधना अनुचित है क्योंकि बंधन जहां रिश्ते में खटास उत्पन्न करेगा वहीं आजादी रिश्ते की डोर को मजबूत और रेशमी बनाएगी. वे सम?ाती हैं कि आज की बहुओं को बेटी जैसी ही आजादी और प्यार दे कर ही उन का प्यार पाया जा सकता है. सुनंदा के पति जब बेटे के विवाह के बाद उस के पोस्ंिटग स्थल पर गए तो बहू को शौर्ट्स पहने देख कर अचंभित रह गए. अपनी पत्नी से दबे स्वर में बोले, ‘‘तुम ने इसे कपड़ों के बारे में कुछ नहीं सम?ाया?’’ ‘‘नहीं, मैं ने उसे अपनी मरजी से ही पहनने को कहा है.’’

‘‘तुम्हें पता है न, इस तरह के कपड़े घर की बहू पहने, यह बिल्कुल भी पसंद नहीं है मु?ो,’’ पतिदेव बोले. ‘‘ठीक है, मैं उसे साड़ी या सूट पहनने को कह देती हूं. परंतु फिर जब भी हम अपने बेटे के पास आएंगे तो बहू को अपने स्वाभाविक रहनसहन में परिवर्तन करना पड़ेगा जो निश्चय ही उसे और बेटे को पसंद नहीं आएगा और हमारा आना उन्हें भारस्वरूप प्रतीत होगा. ‘‘हम उन के साथ लंबे समय तक खुशीखुशी रह सकें, इस के लिए आवश्यक है कि हम उन के जीने के अंदाज और तौरतरीकों में अनावश्यक हस्तक्षेप न करें. उन्हें उन की जिंदगी अपने ढंग से जीने दें. जब बेटी पहन सकती है तो बहू क्यों नहीं? उस की भी तो इच्छाएं हैं. फिर आप जैसा कहें,’’ सुनंदा अपने पति को सम?ाते हुए बोली. ‘‘हां, शायद तुम ठीक कह रही हो. तुम्हारी सम?ादारी पर मु?ो गर्व है,’’ उन्हें भी अपनी पत्नी की बात जंच गई. समधीसमधन भी हो रहे प्यारे आज की बेटियां अपने मातापिता को ले कर बहुत पजैसिव होती हैं. उन की देखभाल करना वे अपनी जिम्मेदारी सम?ाती हैं.

मेरी बहन अनुजा ने इस मर्म को भलीभांति सम?ा लिया था. उस के बेटे ने जब सिंगापुर घूमने के लिए सुनंदा और उस के पति से भी चलने के लिए कहा तो वह बोली, ‘‘हम केवल तभी तुम लोगों के साथ चलेंगे जब स्निग्धा भी अपने मांपापा को साथ चलने के लिए तैयार करे.’’ स्निग्धा को तो मनमांगी मुराद मिल गई. वह तो कब से यही सोच रही थी परंतु संकोच में कह नहीं पा रही थी. अपनी सास की बात सुन कर वह सास के गले से लग गई और बोली, ‘‘मां आप कैसे मेरे मन की बातें बिना बोले ही सम?ा लेती हो?’’ सुनंदा कहती है, ‘‘मेरे ऐसा करने से बहू की नजरों में मैं बहुत ऊंची उठ गई. आखिर मेरे बेटे की ही भांति अपने मातापिता के लिए वह भी तो कुछ करना चाहती है, उस ने भी उन्हें ले कर कुछ सपने देखे होंगे. आखिर उस के मातापिता ने भी अपनी बेटी को आत्मनिर्भर बनाने में उतनी ही मेहनत और खर्चा किया है जितना हम ने, फिर उस के मातापिता के साथ भेदभाव क्यों?

‘‘कोई भी बहू अपने सासससुर का तभी मन से सम्मान कर पाएगी जब हम उस के मातापिता को सम्मान देंगे. प्रारंभ से ही हम ने ऐसा नियम बनाया है कि जब भी हम बेटेबहू के साथ घूमने जाते हैं तो बहू के मातापिता सदैव साथ में होते हैं. इस से हमें कंपनी तो मिलती ही है, बहू भी अपने मातापिता की ओर से नि रहती है जिस का सीधा असर हमारे परिवार के वातावरण और आपसी संबंधों पर परिलक्षित होता है.’’ आज बेटाबेटी का भेद पूरी तरह समाप्त हो चुका है. ऐसे में बहू के मातापिता को हेय नजरों से देखना अथवा उन्हें अपने से निम्नस्तर का सम?ाना सर्वथा अनुचित है. दरअसल, आज की लड़कियां अपने सासससुर के साथ बेटी बन कर रहती हैं. उन की प्रत्येक छोटीछोटी आवश्यकता का ध्यान रखती हैं. परंतु इस के साथ ही वे अपने मातापिता के लिए भी ससुराल के सदस्यों से मान और सम्मान की अपेक्षा रखती हैं जो सर्वथा उचित भी है. परंतु समस्या तब आती है जब अभिभावक अपने ही बच्चों के साथ कोई सम?ाता करने को तैयार नहीं होते.

जैसे, जब सासें अपनी बहू की भावनाओं का मान रखने की अपेक्षा अपने ईगो को ही सर्वोपरि रखने लगती हैं, जब अभिभावक बेटे द्वारा किए गए समस्त अनुचित कार्यों का दायित्व बहू पर डाल देते हैं, जब सासें बहुओं से आवश्यकता से अधिक अपेक्षाएं रखना प्रारंभ कर देतीं हैं अथवा बहू जब केवल ससुराल के अन्य सदस्यों की अपेक्षा अपने पति से ही मतलब रखती है, जब बहू अपनी मां के आगे सास को कुछ नहीं सम?ाती, जब अपनी ससुराल में भी मां की राय के अनुसार कार्य करती है और जब इन्हीं छोटीछोटी बातों को तूल दे कर बड़ा कर दिया जाता है तो यही छोटी बातें कब बड़ी हो कर रिश्तों में जहर घोलना प्रारंभ कर देती हैं, हम समझ ही नहीं पाते.

सासबहू का रिश्ता बेहद नाजुक होता है जिस के लिए सास और बहू दोनों को ही मानसिक रूप से तैयारी करनी होती है. सास को जहां बहू के हाथों अपना बेटा छिनता प्रतीत होता है वहीं बहू अपने पति पर एकाधिकार चाहती है. बहू यदि सास को ले कर शंकित और भ्रमित होती है तो सास भी चिंतित होती है कि वह अपनी बहू की कसौटी पर खरी उतर भी पाएगी या नहीं. रिश्ता कोई भी हो, उस की सफलता परस्पर समझदारी, विश्वास, सहयोग और समर्पण में ही निहित होती है. छोटीछोटी बातों को इग्नोर कर, एकदूसरे को यथोचित मानसम्मान दे कर और 2 पीढि़यों के अंतर को भलीभांति समझ कर व वक्त के अनुसार स्वयं में थोड़ा सा बदलाव कर के सासबहू के रिश्ते को अधिक खूबसूरत, प्यारा और आदर्श बनाया जा सकता है.

Office Romance : जब हो जाए लेडी बौस से प्‍यार

Office Romance :  लेडी बौस सुंदर हो तो उस पर दिल आना स्वाभाविक है. लेकिन यहां खतरे बहुत अधिक हैं. ऐसे में सावधानी से काम लें. ज्यादातर मामलों में यह प्यार एकतरफा होता है. यह बात और है कि कहानियों में ऐसे प्यार को काफी रंगीन बना कर पेश किया जाता है. दीपक की पहली जौब एक मल्टीनैशनल कंपनी में थी. छोटे से सीतापुर शहर का रहने वाला दीपक पहली बार किसी बड़े शहर आया था. सरकारी स्कूल से उस ने कक्षा 12 तक की पढ़ाई की, उस के बाद इंजीनियरिंग करने के लिए प्रवेश परीक्षा दी. जहां से उस का सलैक्शन बीटैक करने के लिए हो गया.

दीपक ने कंप्यूटर साइंस से 4 साल में इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की. वहां से ही उस का चयन मुंबई की एक मल्टीनैशनल कंपनी में हो गया. दीपक के लिए यह सपने जैसा था. सबकुछ एक के बाद एक जल्दीजल्दी हो गया. नौकरी के कुछ माह तक तो उसे कुछ सम झ ही नहीं आ रहा था. धीरेधीरे वह नौकरी और मुंबई की जिंदगी में रचनेबसने लगा. नौकरी के 6 माह बाद उस की कंपनी ने नए लोगों और पुराने अधिकारियों को 3 दिनों के लिए गोवा भेज दिया. वे 3 दिन मस्तीभरे थे. मीटिंग तो नाममात्र की थी. बाकी केवल आउटिंग होनी थी जिस से लोग आपस में सहज हो सकें. दीपक के साथ नौकरी करने वालों में लड़केलड़कियां दोनों थे. गांव से बाहर आ कर पहली बार उस ने लड़कियों को इतने करीब से देखा था.

दीपक की नजर अपने साथ काम करने वाली लड़कियों से अधिक अपनी जूनियर एचआर मैनेजर रुचि पर टिक जाती थी. देखा जाए तो रुचि उम्र में दीपक से 10 साल बड़ी थी. दीपक धीरेधीरे रुचि के प्रति आकर्षित होने लगा. उस का मन कर रहा था कि वह ज्यादा से ज्यादा रुचि के साथ रहे. गोवा में 3 दिनों के टूर में उसे यह मौका भरपूर मिला. दीपक का समय अपने साथियों से अधिक रुचि के साथ बीत रहा था. रुचि और दूसरे लोग यह सोच रहे थे कि एचआर मैनेजर को प्रभावित करने के लिए दीपक ऐसा कर रहा है. असल में दीपक उस के आकर्षण में यह सब कर रहा था. गोवा टूर खत्म हो गया. वापस लोग मुंबई आए और अपनेअपने काम पर लग गए. दीपक का कोई सीधा काम रुचि से नहीं पड़ता था.

ऐसे में उस के सामने दिक्कत यह हो रही थी कि वह कैसे बहाना बना कर रुचि से मिलने जाए. दीपक अब यह कोशिश करने लगा कि जिस समय रुचि औफिस में आए और जिस समय छुट्टी हो, वह रिसैप्सन एरिया में रहे, जिस से रुचि से मिलनेदेखने का मौका मिल जाए. रुचि अकसर देर से औफिस आती थी और देर से औफिस से जाती थी. दीपक आता तो समय से था पर काम का बहाना बना कर देर तक काम करता रहता था. जैसे ही रुचि के जाने का समय होता था वह भी अपना काम खत्म कर लेता था. यह सिलसिला चलता रहा. कभी दीपक बात करने का साहस नहीं कर पाया. दीपक ने यह पता लगा लिया था कि रुचि ने अभी शादी नहीं की है. यह जान कर दीपक का मन खुश हो गया.

दीपक का समय बलवान था. औफिस से निकल कर वह ओला बुक कर रहा था तो पता चला कि आज ओला नहीं चल रही, हड़ताल है. वह सोचने लगा कि अब कैसे घर जाएगा. उस के साथ के लोग पहले ही जा चुके थे. इतने में रुचि ने उस से पूछा, ‘क्या हो गया?’ ‘कुछ नहीं मैम, आज ओला नहीं चल रही. घर जाने की दिक्कत हो रही है,’ दीपक ने कहा. रुचि बोली, ‘कोई बात नहीं, मेरे साथ चलो, मैं छोड़ दूंगी.’ दीपक के लिए यह कल्पना से बाहर की बात थी. वह तैयार हो गया. रुचि की कार में बैठते हुए वह बेहद खुश था. वह ध्यान लगा कर रुचि को कार चलाते देख रहा था. रुचि ने पूछा, ‘क्या देख रहे हो?’ ‘आप कार चलाती हुई बहुत अच्छी लग रही हैं. मु झे कार चलानी नहीं आती,’ दीपक ने कहा. ‘कोई बात नहीं, मैं तुम को कार चलाना सिखा दूंगी’ रुचि ने कहा. एक चौराहे पर दीपक ने कहा,

‘बस, यहीं छोड़ दीजिए. आगे कुछ दूरी पर मैं रहता हूं.’ रुचि ने कार रोकी. दीपक उतरते हुए बोला, ‘मैम, आगे एक कौफी शौप है. अगर आप को बुरा न लगे तो कौफी पी लें.’ दीपक ने जिस तरह से कहा था, रुचि मना नहीं कर पाई. दोनों ने कौफी पी. ज्यादा बातें इधरउधर की हो रही थीं. दीपक का मन कर रहा था कि वह अपने मन की बात कह दे पर उसे डर लग रहा था. कौफी पीते हुए पहली बार उस ने रुचि के साथ मोबाइल से सैल्फी ली. यहां से दोनों की बातचीत का रास्ता खुल गया. मोबाइल पर अब मैसेज आने लगे. रातभर दीपक रुचि के साथ वाली सैल्फी ही देखता रहा. अब रुचि उसे और भी अच्छी लगने लगी थी. रुचि को भी दीपक की याद आने लगी थी. एक दिन वह छुट्टी ले कर अपने गांव आ गया.

वहां उस की मां की तबीयत ठीक नहीं थी. मां बारबार कह रही थी कि ‘मेरे जिंदा रहते तुम शादी कर लो.’ दीपक 2 दिनों के बाद वापस आ गया. इधर दीपक की मां की तबीयत खराब होने की बात रुचि को पता चली तो वह फोन कर हालचाल लेने लगी. मुंबई वापस आया तो दीपक और रुचि फिर उसी कौफी शौप पर बैठे. दीपक ने पूरी बात बताई. रुचि ने कहा, ‘तुम शादी कर लो. अब तो तुम्हारा वेतन भी अच्छा हो गया है.’ दीपक यह सुनते ही बिना किसी लागलपेट के बोला, ‘मैम, मैं आप को पंसद करता हूं. आप के अलावा किसी और से शादी की बात नहीं सोच सकता.’ दीपक के यह कहते ही कुछ समय के लिए दोनों चुप हो गए. रुचि ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा,

‘हम एकदूसरे को इतना जानते नहीं हैं कि शादी कर लें और फिर तुम उम्र में भी हम से छोटे हो. तुम्हारे घर वालों को एतराज हुआ तो?’ ‘आप जैसी लड़की लाखों में एक है. मेरी मां बहुत खुश होगी,’ दीपक ने कहा. रुचि ने एक दिन का समय मांगा और अगले दिन वह औफिस से छुट्टी ले कर दीपक के साथ उस की मां से मिलने गांव गई. वहां से 2 दिनों बाद वापस आ कर रुचि ने अपने मातापिता को भी पूरी बात बताई. दीपक ने अपनी मां और पिता को मुंबई बुला लिया और दोनों ने पहले सगाई और बाद में शादी कर ली. बड़ा कारण शारीरिक आकर्षण हर किसी के साथ ऐसा नहीं होता. कई बार महिला बौस से प्यार का इजहार भी नहीं हो पाता. महिला बौस से प्यार क्यों हो जाता है? इस का सब से बड़ा कारण शारीरिक आकर्षण होता है. महिला बौस में अपना एक अलग स्टाइल और आकर्षण होता है.

यह लोगों को लुभाता है. ऐसे ही आकर्षण के चलते कई बार अपनी टीचर से लोग प्यार कर बैठते हैं. बड़ी उम्र की औरतों के साथ प्यार और शादी के उदाहरण बहुत मिलते हैं. इन में से अधिकतर केवल खयालों में रह जाते हैं. आजकल ऐसी बहुत सारी कहानियां सोशल मीडिया पर पढ़ने को मिलती हैं जिन में महिला बौस के साथ प्यार की सीमा से पार सैक्स तक लोग पहुंच जाते हैं. ऐसी तमाम कहानियां लेखक के मन की उपज भी होती हैं. लेकिन जिस तरह से पुराने समय में भी ऐसे प्यार को ले कर लिखा गया है, उस से साफ है कि लैडी बौस से प्यार लोगों को हो ही जाता है. इस की वजह यह भी होती है कि उस के साथ औफिस का एक लंबा समय बीतता है.

सुंदरता के प्रति सहज आकर्षण होता है. संभल कर करें प्यार का इजहार एकतरफा किसी का चाहना बुरा नहीं होता. लेडी बौस के साथ प्यार हो जाए तो उस का इजहार संभल कर करें. इस में नौकरी जाने का खतरा होता है. यह जरूरी नहीं कि जिसे आप चाहते हों वह भी आप को चाहे तो प्यार का इजहार करने से पहले यह जरूर जान लें कि वह आप को प्यार करता है या नहीं. प्यार के लिए जोरजबरदस्ती उचित नहीं होती. यह अपराध की भावना को जन्म देता है. अगर प्यार हो गया और दूसरा प्यार नहीं कर रहा तो उसे भूल जाने में ही भलाई होती है. फिल्मों में एक गाना है- ‘वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन उसे इक खूबसूरत मोड़ दे कर छोड़ना बेहतर…’ लेडी बौस से प्यार हो जाए तो पहले समझ लें कि आप का प्यार अंजाम तक पहुंचने वाला है या नहीं. अगर आप को यह लगता है कि प्यार अपने अंजाम तक नहीं पहुंचेगा तो उसे छोड़ देना बेहतर होता है. इस को एक गाने से सम झने की कोशिश करें- ‘खता तो तब है जब हाल ए दिल किसी से कहें, किसी को चाहते रहना कोई खता तो नहीं…’

emotional story : अम्मां जा चुकी थीं

लेखिका- रीता गुप्ता

बिमला आंटी हैरानपरेशान सी इधरउधर हो रही थीं. सालों एक ही तरह से रहने की आदी हो चुकीं बुजुर्ग  आंटी बदलाव की हलकी कंपन से ही विचलित हो उठती थीं.

दरअसल, बात यह थी कि आंटी जिस बिल्डिंग में 40 सालों से भी कुछ अधिक सालों से रह रही थीं, वह बेहद जर्जर अवस्था में आ चुका था. छत टपकने लगी थी, दीवारें कमजोर हो चुकी थी और प्लास्टर झड़झड़ कर बिल्डिंग को बीभत्स बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही थी. इस कारण बिल्डिंग वालों ने पूरी बिल्डिंग को ध्वस्त कर फिर से बनाने का सामूहिक निर्णय लिया था और तब तक वहां रहने वालों को दूसरी जगह शिफ्ट होने का निर्देश दिया गया था. उस बिल्डिंग में रहने वाले सभी फ्लैट ओनर्स ने खुशीखुशी सहमति और सहयोग दिया था सिवाय बिमला आंटी के.

85 से अधिक वसंत देख चुकीं, झुकी कमर, धुंधलाती नजर और क्षीण काया की आंटी अपने फ्लैट में लगभग अकेली ही रहती थीं. 4 बेटियोंदामादों, नातीनतनियों का भरापूरा परिवार था. बारीबारी सब आतेजाते और रहते भी थे. पर आंटी कभी नहीं जाती थीं उन के यहां. शायद ही उन्होंने कोई रात अपने फ्लैट से इतर बिताई हो. अब तो बेटीदामाद भी बुजुर्ग हो चले थे. आंटी अकेली रहती थीं और गृहस्थी को इस तरह से जमा कर सहेजा था कि 10 वर्ष पूर्व अंकल के गुजरने के बावजूद भी टकधुमटकधुम चल ही रही थीं.

 

सालों पुरानी महरी की चौथी पुश्त यानी कि उस की पोती इन के घर का एकएक काम और इन की देखभाल करती थी. महरी की पोतीपोतों को तो आंटी ने ही पढ़ाया था. उस की पोती एक ब्यूटीपार्लर में पार्ट टाइम काम करती और बाकी वक्त इन के काम.

वैसे घर में काम ही कितना होता था, चिड़िया सा तो पेट था आंटी का जो वह झटपट पका देती, बाकी वक्त तो आंटी को बाहर दुनिया की चटपटी कहानियां सुनाने में गुजरता था. ड्राइवर भी कुछ ऐसा ही खानदानी था जो इन का बैंक, दुकान, अस्पताल इत्यादि की जिम्मेदारियां पूरी करता था. अंकल सरकारी नौकरी से रिटायर हुए थे तो पेंशन अच्छीखासी मिलती ही थी और बाकी सारी जरूरतें उन की बेटियां पूरी करती थीं.

बिमला आंटी में एक बात और खास थी वे अन्य बूढ़ों की तरह मरने की बातें कभी नहीं करती थीं, उन में जीने की अदम्य इच्छा थी. जीवन जीने की लालसा ही उन्हें अब तक जीवित भी रखा था और सक्रिय भी. हां, सौ बातों की एक बात कि आंटी अपना फ्लैट नहीं छोड़ना चाहती थीं.

बिल्डिंग के ज्यादातर लोग घर खाली कर अगलबगल रहने चले गए थे, पर आंटी मानों जिद पर अड़ी थीं कि वे घर नहीं खाली करेंगी. उन की बेटियां समझासमझा कर हार गई थीं. बिल्डर की अंतिम नोटिस पर अब छोटी बेटी और दामाद आ कर रह रहे थे ताकि शिफ्टिंग का कार्य पूरा कर दिया जाए. बिल्डर को जो अतिरिक्त राशि देनी थी उस का भुगतान भी हो चुका था पर आंटी टस से मस नहीं हो रही थीं.

पर घर को खाली तो करनी ही थी सो समान शिफ्ट करने वालों को बुला लिया गया और घर खाली होनी शुरू हो गई. नजदीक तो कोई फ्लैट नहीं मिल पाया था इसलिए शहर के अगले छोर पर जाने की तैयारी हो रही थी. बेटीदामाद तो शहर छोड़ने की ही जिद्द कर रहे थे,”अम्मां, अब छोड़ो गृहस्थी का मोह, साथ रहो हमारे. क्या रखा है इस शहर में अब? इन फर्निचर को बांट दो और जो भी ले कर चलना है चलो हमारे साथ. देखो, मैं खुद 2 बरस पर आ पाई हूं,”60 की दहलीज पार चुकी बिटिया बारबार दोहरा रही थी.

“मैं कैसे चली जाऊं, मैं कैसे यहां से चली जाऊं?” आंटी धीमेधीमे लगातार बुदबुदा रही थीं.“अम्मां, जिद मत करो, देखो मेरे बाल सफेद हो रहे हैं. तुम साथ रहोगी तो मैं निश्चिंत रहूंगी न…” बिटिया आखिरी कोशिश कर रही थी. फिर खीज कर अपने पति की तरफ देख कर कहा,”अम्मां, शुरू से हम बेटियों को कमतर ही समझती रहीं और परायापन भी बरकरार रखा. आज भी देखो कैसे जिद कर रही हैं. न होगा तो मैं कुछ महीने नए घर में साथ रह जाऊंगी और सब सेट कर दूंगी.”

 

आंटीजी तो मानों किसी और ही दुनिया में चली गई थीं, बेटी की बातों को अनसुनी करते हुए,”मैं कैसे जा सकती हूं इस घर को छोड़ कर…” की रट लगाए हुई थीं.

अब बिटिया की भी आंखे भर आई थीं, पास आ कर उस ने आंटीजी को अपने अंक में भरते हुए कहा,”अम्मां, मान भी जाओ कि अब वह नहीं आएगा. आना होता तो कब का आ चुका होता. सुमेध नहीं आएगा यह मान जाओ प्लीज,” कहते हुए सुगंधा फफकफफक कर रो पड़ी.

शून्य में विचरते सूने नयन जाग्रत हो उठे,”ना मेरी सुग्गा, मत रो… मुझे उस पंडित ने कहा था कि सुमेध जिंदा है और एक दिन जरूर वापस आएगा. मुझे पंडितजी की बातों पर पूरा विश्वास है, देखो क्या किसी को उस के नहीं रहने का कोई प्रमाण मिला है? जब तक उस का शरीर नहीं मिलेगा हम कैसे मान सकते हैं कि तुम्हारा भाई नहीं रहा?” बिमला आंटी बेटी को समझाते बोल रही थीं. अब की पथराने की बारी सुगंधा के नयनों की थी.

सुमेध 4 बहनों का एकलौता भाई, और 4 लड़कियों के बाद उस का जन्म हुआ था तो वर्मा आंटी को लगा था कि उन का जीवन अब जा कर पूर्ण हुआ. लड़कियों को उच्च शिक्षित करने का कोई खास रिवाज नहीं था उन के घर में, सो सभी को जल्दीजल्दी ब्याह कर निबटा दिया गया. बेटे को खूब पढ़ाना था इसलिए  जब ग्रैजुएशन के बाद उस ने अमेरिका जा कर पढ़ने की इच्छा जाहिर की तो, झट से मान ली गई.

सुमेध बहुत होशियार था पढ़ने में. वहां जा कर भी अच्छा रिजल्ट करता रहा. उस की नौकरी भी लग चुकी थी. जौइन करने से पहले वह देश आने का प्रोग्राम बना रहा था कि अचानक उस के गायब हो जाने की खबर आई.

35 साल हो गए होंगे लगभग इस बात को. वर्मा अंकल और आंटी विश्वास ही नहीं कर पाए कभी कि सुमेध जिंदा नहीं होगा. अमेरिका जैसे बड़े से देश में उन का बेटा गुम हो गया, यह बात उन की गले ही नहीं उतरती थी. दुख अनंत था, किसी के पालेपोसे, कमाऊ लड़के का अचानक से गायब हो जाना किसी पहेली से कम नहीं था.

उस वक्त आज की तरह संचार के साधन नहीं थे. हर संभव कोशिश की गई कि कुछ सुराग तो मिले, न दूतावास से कोई खास खबर मिली न उस के वहां के दोस्तों से. कोई कहता स्विमिंग पूल में डूब गया तो कोई कहता किसी ने मर्डर कर दिया. पर सुबूत? कोई तो सुबूत हो, बौडी तक नहीं मिला तो कैसे मान लिया जाए कि सुमेध नहीं रहा?

गहन अंधकार वाली रात थी. अंकलआंटी की पूरी दुनिया लुट चुकी थी. उलझनों में उलझ वे मानों न जीने में थे न मरने में. बारबार दिल यही कहता कि वह जिंदा है और एक दिन वापस जरूर आएगा. यही कारण था कि वे लोग कभी घर छोड़ कर नहीं जाते थे.“सुमेध को तो यहीं का पता मालूम है, हम कहीं जाएं और पीछे से वह आ जाए तो?”

किसी को यह बात बहुत मामूली लग सकती है, कई तर्क भी दिए जा सकते हैं, पर मां के दिल से बहस नहीं किया जा सकता. उस का अंतर्मन हमेशा यही कहता कि किसी कारणवश सुमेध उन्हें भूल गया है पर उस की तंद्रा एक दिन टूटेगी और वह वापस उस की आंचल में आ जाएगा. इस सोच के पीछे उस पंडित का भी बड़ा हाथ था जिस ने सुमेध की जन्मपत्री देख यह भविष्यवाणी की थी कि वह वापस जरूर आएगा.

जब उम्मीद के सारे रास्ते बंद दिखते हैं तो लोग पूजापाठ, टोनाटोटका, जन्मपत्री बंचवाने जैसे कर्म भी आजमाने लगते हैं, पर तब तक सिर्फ इंतजारइंतजार और इंतजार…साल दर साल गुजरते गए पर न ही सुमेध आया और न ही उस की कोई खबर. अंकलआंटी एकदूसरे से छिपछिप कर रोते. दोनों एकदूसरे से सुमेध की चर्चा तक नहीं करते कि अगला खुश और मुसकराता दिख रहा है तो उस की हंसी क्यों छिनी जाए. अकसर दोनों की आंखों में तिनका चला जाता था कि आंखे लाल दिखती थीं.

बेटियों ने बहुत सहारा दिया ताउम्र. उन बेटियों ने, जिन्हें पालनपोषण के क्रम में पराया धन ही समझा था. कभीकभी वर्मा दंपति बेहद अफसोस करते कि बेटियों को उन्होंने आत्मनिर्भर नहीं बनाया, क्या पता किसी बेटी को यह बेरूखी गहरी चुभ गई हो कि पुत्र को ज्यादा मानध्यान दिया जा रहा और उस की आह लग गई. मन हर कोठी भटकता कि आखिर क्या हुआ होगा? अमेरिका जाना आसान नहीं था और न ही कोई आतापता या सूत्र ही जिसे पकड़ सुमेध को खोजा जा सके, उस अनजान सुदूर देश में. हर आतीजाती सांसों के साथ अमेरिका को कोसते दोनों, जिस ने उन का बेटा निगल लिया.

दुख कहर बन कर टूटा पर दोनों ने कभी मरने की इच्छा नहीं की, ‘वह लौट कर आएगा एक दिन…’इस विश्वास ने उन की जिजीविषा को जाग्रत रखा. अंकल कोई 10 साल पहले गुजरे. उन दिनों उन की आंखों में आएदिन कोई तिनका मानों चुभा रहता, हर वक्त लाल जो रहती थी. आंटी जब पूछतीं कि आंखें लाल दिख रही हैं, तो अंकल का जवाब हाजिर रहता,”तुम्हें तो बस डाक्टर के पास मुझे ले जाने का बहाना चाहिए. कह तो रहा हूं कि टहलते वक्त आंखों में कुछ चला गया है. अभी ठंडे पानी के छींटे मारता हूं, निकल जाएगा…” और इस तरह दिनभर आंखें गीली रहतीं, तिनका निकला या नहीं पर एक दिन उन के प्राण अवश्य निकल गए. आंटी ने बेहद बहादुरी से उन की मौत को स्वीकार किया और अब अकेली ही सुमेध की राह देखने लगी थीं.

“अम्मां, देखो अब लगभग सभी कुछ जा चुका है, थोड़ेबहुत बचे हैं उन्हें मैं समेटती हूं,” सुगंधा ने ड्राइंगरूम की दीवारों से तसवीरों को उतारते हुए कहा. अपनी रौकिंग चेयर पर बगल में ही बैठी आंटी अभी भी, ‘मैं नहीं जाऊँगी’ की जाप कर रही थीं. सुगंधा ने अपने पिता की हार चढ़ी तसवीर को उतारा, कुछ क्षण को थम उन्हें देखती रही. कैसे तड़पते हुए गए अपने अंतिम समय में. काश कि भाई की कोई खबर ही मिल जाती… उस ने बेहद संभाल कर वर्मा अंकल की तसवीर को दीवार के सहारे खड़ा किया.

अब बस सुमेध की तसवीर बची थी, उस पर आज तक किसी ने हार नहीं चढ़ाया था. फोटो उतारने के पहले सुगंधा ने अपनी अम्मां की तरफ फिर देखा, ‘जाने अम्मां अब इस घर के दोबारा बनने तक जीवित भी रहेंगी या नहीं. पर अम्मां बड़ी अदम्य इच्छा शक्ति वाली हैं, सुमेध से मिले बिना नहीं ही जाएंगी,’ऐसा सोचतेसोचते उस ने तसवीर को दीवार से उतारा, ‘यह क्या गिरने लगा?’

फोटो के पीछे से एक मोटा सा लिफाफा फिसल कर गिर पड़ा जो गिरते हुए बिखर गया. यह क्या… यह तो तसवीरे हैं, दूतावास से आई कोई चिठ्ठी भी है. सुगंधा हाथ में तसवीर को थामे ही लेटर पढ़ने लगी. लेटर में लिखा था कि वर्षों बाद सुमेध के गायब हो जाने की गुत्थी सुलझ गई है. सुमेध अमेरिका प्रवास के दौरान किसी लड़की से प्रेम करने लगा था पर वह प्यार एकतरफा निकला. लड़की के इनकार करने पर सुमेध ने पुल से नदी में कूद आत्महत्या कर ली थी शायद, जैसाकि उस के किसी दोस्त ने आशंका व्यक्त की थी, बौडी बहते हुए कहीं दूर निकल गई थी और शायद चट्टानों के बीच फंसी रह गई थी.

लेटर में अफसोस जताते हुए कहा गया था कि हम आज भी यह बताने में असमर्थ हैं कि उस ने आत्महत्या की या उस की हत्या की गई या यह महज एक दुर्घटना थी. बहुत खोजबीन के बाद भी सही तथ्यों की जानकारी नहीं मिल पाई है पर इतना तय है कि वह मर चुका है. साथ में उस की पानी में फूली सड़ीगली सी शरीर की तसवीरें भी थीं. कुछ फोटो जूम कर लिए गए थे जिस में उस की कलाई की तसवीर थी, हाथ में चांदी के कड़े को उस ने तुरंत पहचान लिया. चिठ्ठी पर तारीख कोई 10 साल पहले की थी यानी अंकल ने सचाई जानने के बाद ही दुनिया छोड़ा था.

सुगंधा धम्म से नीचे बैठ गई. सुमेध की बिखरी तसवीरों के बीच और फफकफफक कर रो पड़ी. कुछ देर बाद मानों तंद्रा भंग हुई, नजर घूमा कर अम्मां की तरफ देखा, अम्मां अब भी रौकिंग चेयर पर ही थीं, आंखें मूंदी हुई थीं पर अब बुदबुदाना बंद था. सुगंधा तत्परता से सभी तसवीरों को समेटने लगी. अम्मां की नजर न पड़ जाए, यह सोच कर चिठ्ठी सहित सभी को दोबारा लिफाफे में भरने लगी. वह भी वही करेगी जो उस के पिता कर के गए थे. इन को कहीं ऐसी जगह छिपा देगी कि अम्मां की नजर नहीं पड़े.

जल्दी से अपने पर्स में डाल वह अम्मां को उठाने गई. छूते ही उन की देह एक तरफ झूल गई और आंचल से एक तसवीर फिसलते हुए नीचे गिर गई. सुगंधा को मानों करंट लगा, यानी अम्मां ने देख लिया था तसवीरों को बिखरते हुए.

कुछ ही पलों में वर्षों का इंतजार समाप्त हो चुका था और साथ ही साथ मानों अम्मां के जीने का मकसद भी. राह ताकती सूनी अंखियां अब सदा के लिए बंद हो चुके थे, चेहरे पर तल्लीनता थी, अम्मां जा चुकी थीं.

Lust : कमरे में छिपा नरपिशाच

Lust : हर साल इस नदी के किनारे मेला लगता है. इस बार भी मेला लगा. मेले में कमला भी रमिया बूआ को अपने साथ ले कर आई थीं. तभी जोर का शोर उठा.

2 संत वेशधारी आपस में जगह के लिए झगड़ पड़े और देखते ही देखते कुछ ही देर में एक छोटी तमाशाई भीड़ जुट गई. जो संत वेशधारी अभीअभी लोगों की श्रद्धा का पात्र बने प्रवचन दे रहे थे, उन का इस तरह झगड़ पड़ना मनोरंजन की बात बन गया.

कमला बहुत देख चुकी थीं ऐसे नाटक. क्या पुजारी, क्या मुल्ला, सभी अपना मतलब साधते हैं और दूसरों को आपस में लड़ाने की कोशिश करते हैं. सब दुकानदारी करते हैं. डरा कर लोगों की अंटी ढीली कराते हैं. कमला के पति किसना पिछले कई महीनों तक बीमार रहे थे. डाक्टर ने उन्हें टीबी की बीमारी बताई थी. कितना इलाज कराया, कितनी सेवा की उन की, तनमनधन से. अपने सारे जेवर, यहां तक कि सुहाग की निशानियां भी बेच दीं. जिस ने जोजो बताया, वे सब करती चली गईं और आखिर में उन के किसना बिलकुल ठीक हो गए, बल्कि अब तो वे पहले से भी कहीं ज्यादा सेहतमंद हैं.

लोग कहते नहीं थकते हैं कि कमला अपने पति किसना को मौत के मुंह से वापस खींच कर ले आई हैं. इस बात से उन की इज्जत बढ़ी है. कमला को घर लौटने की जल्दी हो रही थी, पर रमिया बूआ का मन अभी भरा नहीं था.

‘‘अब चलो भी बूआ, बहुत देर हो गई है,’’ बूआ को मनातेसमझाते उन्हें अपने साथ ले कर कमला अपने घर की ओर लौट चलीं. अपनी झोंपड़ी की ओर कमला आगे बढ़ीं कि उन के इंतजार में आंखें बिछाए शन्नोमन्नो भाग कर आती दिखीं.

कमला ने प्यार से उन के लिए लाई चूड़ी, माला दोनों को पहना दीं, तब तक किसना भी आ गए, कमला ने उन्हें भी मिठाई दे दी. तभी इन पलों का सम्मोहन एक झटके से टूट गया. एक लंबी, छरहरी, खूबसूरत औरत कमला से आ लिपटी. इस धक्के से अपने परिवार में मगन कमला संभलतेसंभलते भी लड़खड़ा गईं.

‘‘दीदी, मुझे अपनी शरण में ले लो. अब तो तुम्हारा ही आसरा है,’’ वह औरत बोली. ‘‘ऐसे कैसे आई लक्ष्मी? क्या हुआ?’’ उसे पहचानते ही किसी अनहोनी के डर से कमला का दिल बैठने लगा. किसना भी हैरानी से खड़े रहे.

लक्ष्मी को हांफतीकांपती देख कमला उसे सहारा दे कर झोंपड़ी के अंदर ले आईं और पानी लाने के लिए मुड़ीं, तो शन्नो को कटोरे में संभाल कर पानी लाते देखा. पानी का घूंट भरते ही लक्ष्मी ने रोतेबिलखते टूटे शब्दों में जो बताया, उस का मतलब यह था कि कुछ ही दिन पहले लक्ष्मी का मरद उसे अपने मांबाप के पास छोड़ कर दूसरे शहर में काम करने चला गया. कल सुबह तक तो सब ठीक ही चला, पर शाम को जब सासू मां रोज की तरह पड़ोस में चली गईं, उस के ससुर काम पर से जल्दी घर लौट आए और आते ही उस से पानी मांगा. जब वह पानी देने गई, तो उन्होंने उस का हाथ ही पकड़ लिया. उन की बदनीयती भांप कर उन्हें एक जोर से धक्का दे कर वह सीधी बाहर भाग ली.

लक्ष्मी का भोला चेहरा और रोने से गुड़हल सी लाल और सूजी आंखें देख कर कमला ने पूछा, ‘‘पर, तू यहां तक आई कैसे? तुझे अकेले बाहर निकलते डर नहीं लगा? कहीं कुछ हो जाता तो?’’ ‘‘नहीं दीदी, डर तो अपने ही घर में लगा, तभी तो अपनी लाज बचाने के लिए यहां भाग आई. पहले तो कभी अकले घर की दहलीज भी नहीं लांघी थी, पर उस समय इतना डर गई कि और कुछ समझ में ही नहीं आया, होश उड़ गए थे मेरे. बस, फिर तुम्हारा ध्यान आया और निकल भागी इधर की ओर,’’ लक्ष्मी ने बताया.

कमला अपने जंजालों को भूल लक्ष्मी को अपने साथ ले कर पीसीओ तक आई और उस के मरद से बात कराई. मरद से बात हो जाने पर लक्ष्मी ने किलकती आवाज में उन्हें बताया कि उस के मरद ने कहा है कि अभी वह दीदी के पास ही रहे.

झोंपड़ी पर पहुंच कर कमला ने फौरन चाय का पानी चढ़ा दिया. किसना दुकान से डबलरोटी ले आए. मासूम बच्चियां बहुत भूखी थीं. कमला अपने हिस्से का भी उन्हें खिला कर किसना को जरूरी हिदायतें दे कर लक्ष्मी को साथ ले कर अपने काम पर चल दी. मेहंदीरत्ता मेमसाहब के यहां आज किटी पार्टी है. उन्होंने काफी मेहमान बुला रखे हैं. लक्ष्मी साथ रहेगी, तो थोड़ा हाथ बंटा देगी. जल्दी काम हो जाएगा.

लक्ष्मी यह देख कर हैरान थी कि मेहंदीरत्ता मेमसाहब अपनी किटी पार्टी में मस्त थीं और साहब अकेले अपने कमरे में कंप्यूटर और मोबाइल फोन में बिजी थे. कमला ने लक्ष्मी से कहा, ‘‘जरा साहब को चाय दे आ.’’

अपने में मस्त साहब ने चाय देने आई ताजगी से भरी लक्ष्मी को नजर उठा कर देखा और देखते ही मुसकरा कर उस से कुछ ऐसी हलकी बात कह दी कि वह घबरा कर फिर कमला के पास भाग गई. लौटते समय रास्ते में लक्ष्मी बोली, ‘‘इतने पढ़ेलिखे आदमी हैं, लेकिन नजरें बिलकुल वैसी ही.

‘‘हम लोग तो ढोरडंगरों की जिंदगी जीते हैं, पर ऐसी शानदार जिंदगी जीने वाले सफेदपोश लोग भी कितने ओछे होते हैं.’’ लक्ष्मी की इस बात पर कमला

चुप थीं. लक्ष्मी ने फिर पूछा, ‘‘दीदी, क्या सभी बड़े आदमी ऐसे होते हैं?’’

‘‘नहीं, सब ऐसे नहीं होते. अच्छेबुरे, ओछे आदमी तो कभी भी कहीं भी हो सकते हैं,’’ कमला ने कहा, फिर कुछ याद कर वे कहने लगीं, ‘‘जानती हो, कुछ समय पहले यहां से थोड़ी दूरी पर एक साहब व मेमसाहब रहते थे और साथ में उन का एक छोटा सा खूबसूरत बच्चा था. दोनों ही एकदूसरे से बड़ा प्यार करते थे. मेमसाहब कभी झगड़ती भी थीं, तो साहब उन्हें प्यार से मना लेते थे.

‘‘उन्होंने अपने ही घर में एक बड़े कमरे में कोई प्रयोगशाला बनाई थी, वहीं दोनों मिल कर कुछ किया करते, फिर एक दिन…’’ कहतेकहते कमला का गला रुंध आया, ‘‘मेमसाहब प्रयोगशाला में कुछ कर रही थीं. साहब बाहर चंदा मांगने वाले आए थे, उन्हें चंदा दे रहे थे, हम भी तभी काम करने पहुंचे कि अंदर से धमाके की आवाज आई और आग की लपटें… ‘‘साहब बदहवास अंदर भागे. वहां सब धूंधूं कर जल रहा था. मेमसाहब और बच्चे को साहब जलती आग की लपटों से खींच लाए थे, पर वे उन्हें बचा नहीं पाए…

‘‘वे खुद भी बुरी तरह झुलस गए थे, एक खूबसूरत, प्यार भरा घर उजड़ गया. फिर उन के कई आपरेशन हुए. बाद में चलनेफिरने लायक होते ही अपनी सारी जायदाद महिला आश्रम और बाल आश्रम को दान कर न जाने कहां चले गए. ‘‘कुछ लोग बताते हैं कि वे शायद वैरागी हो गए हैं,’’ कमला ने एक गहरी सांस ली.

बातों में न समय का पता चला और न ही रास्ते का, झोंपड़ी आ गई थी. कमला ने झोंपड़ी के अंदर ही शन्नोमन्नो के साथ लक्ष्मी के भी सोने का इंतजाम कर दिया. वे और किसना बाहर खुले में सो जाएंगे.

अचानक ही किसी ने कमला को झकझोर कर उठा दिया. थरथर कांपती लक्ष्मी उन के कान में फुसफुसा रही थी, ‘‘अंदर कोई नरपिशाच है दीदी.’’ कमला झटके से उठीं, ढिबरी जला कर पूरी झोंपड़ी में देखने लगीं. कनस्तर और संदूक के पीछे भी देखा. कहीं कोई नहीं था.

‘‘तुझे वहम हुआ होगा, कौन आएगा यहां,’’ चिढ़ कर कमला ने झिड़क दिया लक्ष्मी को, फिर वे रसोई की तरफ बढ़ी थीं कि वहां उकड़ू बैठे, मुंह छिपाए अपने पति को देख झट से ढिबरी बुझाई और बोलीं, ‘‘यहां तो कोई नहीं, चल तू आराम से सो जा. मैं दरवाजे पर बैठी हूं.’’ अंधेरे में कमला ने अपने पति किसना को बाहर निकल जाने दिया. फिर वे भरभरा कर दरवाजे पर ही ढह गईं.

caste issue : प्‍यार न जाने जात

caste issue : “लो, तुम्हारी गोरी बहू लाने की तमन्ना पूरी हो गई,” मोबाइल पर आंखें गड़ाए  दिनेश सोफे से उठ कर किचन में सब्जी काट रही शैलजा के पास जा पहुंचा.

दिनेश के शब्दों को सुन शैलजा के हाथ रुक गए. चेहरा उत्सुकता से स्वयं ही दिनेश के मोबाइल की ओर मुड़ गया.

“अरे वाह, यह तो सचमुच गोरी है,” बेटे विशाल द्वारा व्हाट्सएप पर भेजी फोटो देख शैलजा आह्लादित हो उठी.

“होगी क्यों नहीं? गोरी जो है, मतलब विदेशी,” ठहाका लगाते हुए दिनेश अपने शब्दों का उत्तर शैलजा की भावभंगिमाओं में खोजने लगा. शैलजा की आंखों में दिख रही चमक और मुखमंडल की आभा यह बताने के लिए पर्याप्त थी कि उसे विशाल की पसंद पर गर्व सा हो रहा था.

“मैं विशाल से कहना चाहती हूं कि जल्द से जल्द इस गौरवर्णा को मेरी बहू बनाने की तैयारी कर ले. अभी फोन कर लो न.”

“कुछ देर बाद करता हूं. आज संडे है तो वह घर पर ही होगा,” दिनेश उत्सुकता दबा मोबाइल पर अन्य मैसेज पढ़ने में व्यस्त हो गया.

शैलजा को आज अचानक जैसे पंख लग गए. धरती से आसमान में पहुंच गई हो वह. कुछ अकाल्पनिक सा घटित हो रहा है उस के साथ. फ्रांस में रहने वाले 32 वर्षीय बेटे विशाल के लिए कब से वह जीवनसंगिनी की तलाश में थी. कितनी लड़कियों के फोटो देखे थे उस ने. रिश्तेदारों और सहेलियों को बारबार याद दिलाती कि उसे एक मनभावन कन्या की तलाश है. विभिन्न मैरिज साइट्स के माध्यम से भी एक योग्य बहू पाने की उस की तलाश पूरी नहीं हो पा रही थी. कभी उसे लड़की पसंद नहीं आती, तो किसी का बायोडेटा या फोटो देख विशाल बात आगे बढ़ाने से मना कर देता. जहां सब की रजामंदी हुई वहां शैलजा और दिनेश गए भी, लेकिन निराशा हाथ लगी. आदर्श बहू के गुणों में उस का रंग गोरा होना शैलजा की प्राथमिकता थी. दिनेश से वह कहती कि जब किसी लड़की की प्रोफाइल ठीकठाक होती तो न जाने क्यों सांवला रंग चिढ़ाने आ जाता है, लेकिन उस ने भी ठान लिया है कि बहू तो गोरी ही लाएगी वह.

दिन रात एक करने के बाद भी बात न बनने से शैलजा को चिंता सताने लगी थी कि परदेश में बैठे विशाल ने यदि अपने लिए स्वयं ही कोई लड़की पसंद कर ली तो क्या होगा? वह मानदंडों पर खरी न उतरी तो उस की नाक कट जाएगी. पड़ोस में रहने वाली मिसेज तनेजा की बहू का डस्की कौम्प्लेक्शन देख नाकभौं सिकोड़ने वालों में वह भी सम्मिलित थी.

दिनेश के मित्र सिंह साहब के बेटे की सगाई के अवसर पर दबी जबान में मेहमान उस विजातीय विवाह की आलोचना कर रहे थे. ऐसी किसी लड़की का विशाल द्वारा चुन लिया जाना शैलजा के लिए कितना पीड़ादायक होगा, इस की कल्पना कर ही वह सिहर उठती.

आज जब उस ने विशाल द्वारा भेजी तसवीर देखी तो बागबाग हो उठी. गोरे रंग में डूबी काया सभी को चकाचौंध कर देगी और जातिपांति की बात भी कोई नहीं उठाएगा जब बहू विदेशी होगी. उस का मन प्रसन्नता से नाचने लगा. बस एक समस्या उसे थोड़ी चुभन दे रही थी.

“होने वाली बहू न तो हिंदी बोल पाएगी और शायद समझ भी न पाए. यही थोड़ा तकलीफदेह लग रहा है, बाकी तो सब ठीक ही है,” सब सोचनेसमझने के बाद वह दिनेश से बोली.

“हां, हिंदी में उसे दिक्कत होगी, लेकिन इंगलिश का सहारा तो है ही. तुम अपनी पैंतीस साल की नौकरी के दौरान फर्राटेदार न सही कामचलाऊ इंगलिश तो बोल ही लेती हो. फिर क्या सोचना?” बेफिक्री के अंदाज में दिनेश ने जवाब दिया.

“उन लोगों का लहजा कुछ अलग ही होता है. दूसरी बात यह है कि मेरा काम औफिस में कर्मचारियों की छुट्टियों का हिसाब रखना, उन के द्वारा जमा बिलों की सत्यता की जांच और उन की अर्जियों को आगे बढ़ाने का ही है. इंगलिश में बातें करने का मौका न के बराबर ही मिलता है.”

शैलजा फिर सोच में पड़ गई. कुछ देर की माथापच्ची के बाद सिर झटकते हुए वह बोली, “मैं भी क्या ले कर बैठ गई. बहू से ज्यादा बोलने की नौबत आएगी ही कहां? फोन पर तो ज्यादा बातें विशाल से ही होंगी. रही यहां आने की बात तो दो महीने के लिए ही आएगा विशाल. उसी दौरान शादी कर देंगे, कुछ दिन वे साथसाथ घूमेंगे, फिरेंगे, फिर वापस चले जाएंगे.

“चलो ठीक है, बहू के साथ बात हो न हो, बस रिश्तेदारों और अड़ोसपड़ोस में नाक ऊंची हो जाए, इतना ही बहुत है,” मन ही मन होने वाली बहू के प्रति की लोगों की आंखों में प्रशंसा के भावों की कल्पना कर शैलजा गदगद हुए जा रही थी.

कुछ देर बाद उन्होंने विशाल को वीडियो काल किया. थोड़ी घबराई, थोड़ी संकोची सी मुद्रा में लड़की भी विशाल के पास बैठी थी. विशाल ने मम्मीपापा और भावी जीवनसंगिनी इवाना का परस्पर परिचय करवाया.

इवाना बेहद आकर्षक, सौम्य दिख रही थी. हर्षातिरेक से शैलजा व दिनेश एकसाथ “हेलो” बोल खिलखिला कर हंस पड़े.

इवाना के गुलाबी होंठ खिल उठे. चांद से उस के चेहरे पर लाल लिपस्टिक खूब फब रही थी. सुनहरी बालों में खोंसा हुआ उज्जवल डेजी का फूल मोतियों सी दमकती धवल ड्रैस के साथ मैच कर रहा था.

शैलजा का ह्रदय तरंगित होने लगा. स्वयं से कह उठी, ‘अरे वाह, गुलबहार लगाया है बालों में. यह तो मेरा प्रिय फूल है और इस फूल सी खूबसूरत, सलोनी है इवाना.’

दिनेश भी इवाना से प्रभावित हो टकटकी लगाए स्क्रीन की ओर देख रहा था.

उन दोनों को अभी एक और अचरज मिलना बाकी था. बातें शुरू हुईं, तो यह देख उन की प्रसन्नता असीमित हो चली कि इवाना हिंदी में बात कर पा रही है और हिंदी भी ऐसी कि आसानी से समझ में आ जाए.

शैलजा व दिनेश की लगभग हर बात समझते हुए वह पूरे आत्मविश्वास के साथ उत्तर दे रही थी. हिंदी भाषा पर इवाना की इतनी पकड़ का कारण पूछने पर पता लगा कि उस के पिता एक भारतीय हैं.

इवाना ने बताया कि उस की मां इटली की रहने वाली हैं, लेकिन वे भी हिंदी समझती हैं और थोड़ाबहुत बोल भी लेती हैं, क्योंकि उन्होंने कई वर्ष भारत में बिताए हैं. पिता फ्रांस की एंबेसी में एक महत्वपूर्ण पद पर थे.

“तुम्हारे पापा का पूरा नाम क्या है? मैं एजुकेशन डिपार्टमेंट में होने के कारण उस एंबेसी में काम करने वाले लोगों को जानता हूं. भारत में फ्रेंच भाषा के प्रचारप्रसार को ले कर मुझ से वे मशवरा करते रहते हैं,” दिनेश इवाना की बात सुन उत्सुक हो पूछ बैठा

इवाना द्वारा पिता का पूरा नाम लिए जाने पर शैलजा को सांप सूंघ गया. सब के बीच चल रही बातचीत उस के कानों से टकरा कर लौट रही थी. मन में तूफान उठ रहा था, ‘सरनेम तो यही बता रहा है कि इवाना के पिता एक दलित हैं. मां विदेशी हैं, लेकिन पिता तो भारतीय हैं और यदि वे नीची जाति के हैं, तो इवाना भी…’

शैलजा के हृदय में अकस्मात भूकंप आ गया. कुछ देर पहले बनी सपनों की इमारतें पलभर में ढह गईं. बोलीं, ‘विशाल ने यह क्या किया? जिस का डर था वही हो गया.’

वीडियो काल समाप्त होने के बाद इस विषय में वह कुछ कहती, इस से पहले ही दिनेश बोल उठा, “एक ही बेटा है हमारा, वह भी नाम डुबोएगा खानदान का. विदेश जा कर सब भुला दिया. क्या इसलिए ही बाहर भेजा था कि इतने उच्च कुल का हो कर नीचे लोगों से रिश्ता जोड़े?”

“वही तो… गोरी ढूंढ़ी भी, लेकिन किएकराए पर पानी फेर दिया. जल्द ही कुछ करना पड़ेगा. याद है, लखनऊ वाली दीदी ने जो लड़की बताई थी, उस के कामकाजी न होने और केवल बीए पास होने के कारण हम चुप थे. सोच रहे थे कि विशाल न जाने ऐसी पत्नी चाहेगा या नहीं? दीदी कई बार पूछ चुकी हैं. गोरीचिट्टी, सुंदर नैननक्श वाली है वह लड़की. दीदी को फोन कर आज ही बात करती हूं. विशाल को रात में फोन कर के कह देंगे कि इवाना बहू नहीं बन सकती हमारी. कुछ दिन नानुकुर करने के बाद मान ही जाएगा वह. अभी कुछ नहीं किया तो खूब जगहंसाई होगी हमारी.”

‘न जाने इवाना और विशाल का रिश्ता कितना आगे बढ़ चुका होगा? एकदूसरे के साथ कितना समय बिताते होंगे? यदि भावनात्मक रूप से पूरी तरह जुड़ चुके होंगे, तो विशाल उन के मना करने पर मानेगा भी या नहीं?’ इन बातों पर विचार करने लगे दोनों.

शैलजा को अचानक याद आया कि कुछ दिन पहले जब वह अपने भाई के घर गई थी तो एक ज्योतिषी से भेंट हुई थी. उन्होंने विशाल की जन्मतिथि पूछ कर कुंडली बनाई थी और उसे देख कर बताया था कि ग्रह दशा के अनुसार इस के विवाह में थोड़ी बाधा आएगी. कुछ दिनों के पूजापाठ द्वारा यह बाधा दूर हो सकती है और अति उत्तम पत्नी मिलने का योग बन सकता है. आज भाई के घर जा कर ज्योतिषी से मिलना तो संभव नहीं है, किंतु पास वाले मंदिर के पंडितजी से सलाह तो ली जा सकती है.

इस विचार ने शैलजा को कुछ राहत दी. दिनेश को भी बात जंच गई.

शाम को तैयार हो कर दिनेश पार्क में इवनिंग वौक करने और शैलजा उस मंदिर की ओर चल दी, जहां वह कोविड से पहले प्रायः जाती रहती थी. कोरोना के बाद मंदिर खुले बहुत समय नहीं हुआ था. इस बार कई दिनों बाद जा रही थी वहां.

मंदिर में इन दिनों भीड़भाड़ पहले की तरह ही होने लगी थी, लेकिन इस समय ज्यादा लोग नहीं थे. दोपहर को 4 घंटे बंद रहने के बाद संध्याकाल में खुला ही था मंदिर.अहाते के बाहर लगी दुकानों से पुष्प व मिठाई खरीद वह भीतर चली गई.

मूर्ति के पास खड़े पुजारी को जैसे ही उस ने फूलों का दोना थमाया, वह बुरी तरह चौंक गई. पुजारी वह नहीं था, जो पहले हुआ करता था, लेकिन उस पुजारी का चेहरा जानापहचाना सा था. ‘यह तो माधव की तरह दिख रहा है, जो मेरे औफिस में सफाई कर्मचारी है.’

शैलजा को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था.

“आप को पहले कभी इस मंदिर में नहीं देखा था. सुखीराम पंडितजी हुआ करते थे यहां तो. वे दिख नहीं रहे,” शैलजा शंकित स्वर में बोली.

“हां, मैं पहले नहीं था यहां. सुखीरामजी कुछ दिनों के लिए अपने गांव गए हैं,” नए पुजारी ने बताया, तो आवाज सुन शैलजा का संदेह पुख्ता हो गया. ‘यह तो वास्तव में माधव है. क्या माधव उसे पहचान गया होगा? क्या वह चुपचाप चली जाए या और पूछताछ करे?’ एक सफाई करने वाले को पुजारी के स्थान पर देख उसे बहुत अटपटा लग रहा था. माधव मिठाई का भोग लगाकर डिब्बा उसे लौटाने आया तो हाथ आगे बढ़ाने के साथ ही एक प्रश्न भी शैलजा ने आगे कर दिया. “माधव ही हो न तुम? पहचाना मुझे?”

माधव पहचान तो गया था शैलजा को, लेकिन बिना कुछ बोले सिर झुकाए खड़ा रहा.

“मैं फोर्थ फ्लोर पर बैठती हूं. अकसर तुम्हारी ड्यूटी उसी फ्लोर पर लगती है. सुबह जब तुम मेरी टेबल से धूल झाड़ते हो तो मैं आई हुई होती हूं. रोज देखती हूं तुम्हें. मेरी आंखें धोखा नहीं खा सकतीं.”

“जी मैडम, मैं माधव हूं. आप को पहचानता हूं. मुझे तो यह भी याद है कि एक बार मेरी बेटी की बीमारी के दौरान दवाओं का बिल लंबा हो गया था. सब कह रहे थे कि मुझे पूरा पैसा वापस नहीं मिलेगा. आप ने फाइनेंस सैक्शन को सख़्ती से लिखा था कि मेरा एकएक पैसा रिइम्बर्स हो.”

“माधव, जब तुम सही थे, तो मैं ने साथ दिया था तुम्हारा, लेकिन यह क्या किया तुम ने? मुझे बेहद अफसोस हुआ देख कर कि तुम मंदिर में पुजारी बन कर धोखा दे रहे हो सब को.”

“मैडम, मैं यह काम अपनी इच्छा से नहीं कर रहा हूं. कोविड के कारण सुखीरामजी दो साल से अपने मातापिता से नहीं मिले थे. अब पाबंदियां हटीं और सबकुछ खुला तो वे उन से मिलने गांव चले गए. मुझ से उन्होंने कुछ दिनों के लिए मंदिर की देखभाल करने काआग्रह किया था. इसलिए ही मैं मंदिर का कार्यभार संभाल रहा हूं.”

“लेकिन, तुम सुखीरामजी के इतने करीबी कैसे हो गए कि तुम्हें यहां रख कर वे अपने गांव चले गए?”

“मैडम, सुखीरामजी की कोरोना काल में मंदिर बंद रहने पर क्या दशा हो गई थी, यह जानने कोई भी भक्त नहीं आया, जबकि मंदिर में उस के पहले खूब भीड़ रहती थी. सुखीरामजी के परिवार की भूखों मरने की नौबत आ गई थी. उस समय न तो चढ़ावा आ पा रहा था और न ही किसी प्रकार का दान. मेरा घर मंदिर के बगल में ही है. पंडितजी की ऐसी दशा मुझ से देखी न गई. यों तो मैं भी कोई मोटा वेतन नहीं पाता, किंतु सोचा कि जितना भी पाता हूं, उस में अपने परिवार के अतिरिक्त 4 लोगों का पेट तो भर ही सकता हूं. पंडितजी, उन की पत्नी, 10 वर्षीय पुत्र व 5 वर्षीया पुत्री इन दो वर्षों में मुझ पर ही निर्भर थे. आप बताइए कि मुझ से अधिक कौन निकट हो सकता था उन के?”

शैलजा ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि माधव पुनः बोल उठा, “सुखीरामजी का कहना था कि किसी और पंडित को यदि वे यह काम दे कर जाएंगे तो लौटने पर संभव है मंदिर वह हथिया ले.

“उन्होंने बारबार मुझ से यह निवेदन भी किया था कि मैं पुजारी की वेशभूषा धारण कर ही मंदिर में पूजा आदि का कार्य करूं, ताकि कोई हंगामा न खड़ा कर दे.”

शैलजा के रुके शब्द बाहर आ गए. तनिक कुपित स्वर में वह बोली, “क्या तुम संतुष्ट हो ऐसा कर के? अपना यह बहरूपियापन अच्छा लग रहा है क्या तुम्हें?”

“मैडम, आप सच बताइए कि क्या बहरूपिया मैं हूं? मेरे विचार से बहरूपिए तो वे लोग हैं, जो मेरे साथ दोगला व्यवहार करते हैं. जब मैं एक सफाई कर्मचारी के रूप में उन के सामने होता हूं, तो उन का व्यवहार बेहद रूखा और उपेक्षापूर्ण होता है, लेकिन मुझे मंदिर में पुजारी के रूप में देख कर मेरे आगे हाथ जोड़ते हैं, मेरे पैर छूते हैं.”

“लेकिन, वे हाथ तुम्हारे आगे नहीं जोड़ते, बल्कि तुम्हें मंदिर का पुजारी समझ वे ऐसा करते हैं.”

“तब तो वे लोग मूर्ख हुए. जब मैं साफसफाई द्वारा उन की मदद और सेवा करता हूं तो वे मुझे दुत्कारते हैं, लेकिन यहां मैं मूर्ति के आगे खड़ा हुआ केवल उन के लाए प्रसाद और फूल को प्रतिमा के आगे रख वापस लौटा देता हूं तो मेरा सम्मान करते हैं. दरअसल, वे मुझे देख ही नहीं रहे. अलगअलग जगहों पर मैं उन के लिए किसी जाति विशेष का प्रतिनिधित्व कर रहा हूं.

“मैडम, आप ही बताइए कि क्या यह सही है कि किसी व्यक्ति की पहचान उस की जाति या वेशभूषा के आधार पर हो? क्या व्यक्ति के गुण उस की कोई पहचान नहीं है?

“एक बात और है मेरे मन में. यदि ऐसे लोगों से पूछा जाए कि किसी जाति का सम्मान और दूसरी का वे अपमान क्यों कर रहे हैं, तो उन के पास कोई जवाब नहीं होगा.”

अतार्किक सी शैलजा गहरी सोच में डूब गई. कुछ देर बाद वह इतना ही बोल सकी, “माधव, सच है व्यक्ति की पहचान उस के जन्म से नहीं, बल्कि कर्मों से होनी चाहिए. और हां, जाति के भेदभाव को मन से निकालना बहुत जरूरी है.”

मंदिर से वापस आते हुए शैलजा माधव द्वारा कहे शब्दों पर जैसे स्वयं को परख रही थी. घर पहुंच कर दिनेश को सब बताते हुए बोली, “इवाना ने इतनी अच्छी यूनिवर्सिटी से एमएस किया है और अब रिप्युटिड कंपनी में सीनियर एनैलिस्ट की पोस्ट पर काम कर रही है. एक हम हैं कि उसे उस की जाति से जोड़ रहे हैं. उस के पापा ऊंची जाति के होते तो भी क्या होता? न तो तब वे बदले हुए होते और न ही इवाना. तो क्या रखा है इस जातिपांति के फेर में?”

“मेरा मन भी खिन्न सा था. शायद इस का कारण यह बेतुका नजरिया ही था, जो बिना सोचेसमझे हम भी अपनाए थे, आंखें बंद कर चल रहे थे, लोगों ने जिस राह पर धकेल दिया था. चलो, विशाल को फोन कर कहते हैं कि इवाना जैसी बहू का ही सपना देखते थे हम.”

दिनेश के हृदय पर रखा मनों बोझ जैसे आज उतर गया हो.

 

Dental Problem : मेरे दांत टेढ़ेमेढ़े, पीले, आधे टूटे हैं.  मुझे शर्मिंदगी होती है,

मेरे दांतों का शेप और कलर खराब होने की वजह से मैं ठीक से हंस भी नहीं पाता हूं.  मेरे अंदर हीनभावना पैदा हो गई है.    स्कूलटाइम तक तो मैं ने ज्यादा परवाह नहीं की, अब मैं कालेज जाने लगी हूं. मुझे अच्छा नहीं लगता जब कोई मुझे मेरे दांतों के लिए टोकता है. मैं डैंटिस्ट के पास जाने से डरती थी. मैं ने रिमूवेबल वीनिर्स के बारे में विज्ञापनों को देखा है.  मेरे केस में ये ठीक रहेंगे?

 

दांतों से चेहरे की सुंदरता बढ़ती है. सुंदर और साफ दांत मुसकान को आकर्षक बनाते हैं. आप की उम्र अभी कम है. हमारी राय में आप को परमानैंट वीनिर्स लगाने चाहिए. डैंटिस्ट के पास एकदो बार जा कर ड्रिमेंट करवा व थोड़ा दर्द सह कर हमेशा के लिए खूबसूरत दांतों के साथ चेहरे को देखें.

 

वीनिर्स लगाने के लिए दांतों की ऊपरी परत यानी एनामेल का थोड़ा हिस्सा हटाना पड़ता है जिस से दांतों की सतह तैयार हो सके. इस के बाद वीनिर्स को मजबूत चिपकने वाले मैटीरियल की मदद से दांतों पर स्थायी रूप से लगाया जाता है, एक कुशल डैंटिस्ट वीनिर्स को इस तरह डिजाइन कर सकते हैं कि वे नैचुरल दांतों की तरह दिखें, जिस से आप की मुसकान और नैचुरल दिखती है.

 

आप रिमूवेबल वीनिर्स की बात कर रही हैं तो ये हर किसी के दांतों पर फिट नहीं हो पाते और इन्हें खानेपीने के समय हटाना पड़ सकता है ताकि गंदगी या बैक्टीरिया के फंसने से बचा जा सके. लंबे समय तक पहनने में ये थोड़े असहज महसूस हो सकते हैं, खासकर अगर ठीक से फिट न हों. ये परमानैंट वीनिर्स जैसे नैचुरल नहीं लग सकते और इन के साथ थोड़ा मोटा या अननैचुरल फील हो सकता है.

 

विशेष अवसरों, जैसे पार्टी, शादी, फोटोशूट या किसी प्रोफैशनल इवैंट के लिए रिमूवेबल वीनिर्स फायदेमंद हो सकते हैं, खासकर, यदि आप केवल कुछ घंटों के लिए एक शानदार मुसकान चाहते हैं.

 

आप के सामने तो अभी पूरी जिंदगी है. लाइफ में अभी कितने मौके आएंगे जहां आप को प्रेजैंटेबल रहना है. हालांकि अंतिम निर्णय के लिए डैंटिस्ट से परामर्श कर लें.

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Indian Migration : भारतीय गरीबों का गैरकानूनी घुसपैठ

Non Resident Indian : भारत के गरीब पैसा कमाने के लिए कानूनी व गैरकानूनी तरीकों से भारी संख्या में विदेश जा रहे हैं, यह भयावह है. अभी अक्तूबर के अंत में बिना डौक्यूमैंट वाले भारतीयों को अमेरिका ने एक बड़े जहाज में भर कर वापस भारत भेजा है. इन भारतीयों के परिवारों ने अपनी बची हुई जमीनजायदाद को बेच कर अपने युवाओं को दुनिया में कहीं बसने के लिए भेजा था कि भारत में बढ़ती बेरोजगारी, भुखमरी से बचने का उपाय भारत में नहीं है, सो भारत छोड़ कर जाना ही होगा.

 

लेकिन, अब बड़ी तेजी से अमीर लोग भी भारत छोड़ कर विदेशों में बस रहे हैं. उन का कारण दूसरा है. वे भारत की गंदगी, भ्रष्टाचार, बढ़ते प्रदूषण, गंदी हवा, जहरीले पानी, ट्रैफिक की अफरातफरी से परेशान हैं. बहुत से देश 50-60 लाख से 5-7 करोड़ रुपए की खरीद पर अपनी नागरिकता दे देते हैं. भारतीय छोटेबड़े सभी देशों को अपना रहे हैं. वे एक पैर भारत में रखते हैं, एक विदेश में.

 

मजेदार मगर दर्दनाक बात यह है कि ये दोनों वर्ग हिंदूहिंदू (Hindu Hindu) ज्यादा चिल्लाते हैं, ‘महान’ भारत के गुणगान करते हैं, भारत के पुरातन ?ाठे महान होने का गुणगान करते थकते नहीं हैं. ये दोगले अपने साथ सूटकेस में भारतीयता की निशानी, हिंदू अंधविश्वासों की अब चमकदार एल्युमिनियम की स्ट्रिपों में मिलने वाली दवाओं के साथ ले जाते हैं और सुबहशाम उन्हें खाना नहीं भूलते.

 

वे यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि देश की गरीबी, प्रदूषण, भ्रष्टाचार और गलत राजकाज के कारण हमारे अंधविश्वास, धार्मिक विचार और झूठे अहं हैं. भारत में न टैलेंट की कमी है, न कर्मठ लोगों की. यहां की जमीन खासी उपजाऊ है. यहां आसानी से उद्योग लग जाते हैं, व्यापार जम जाते हैं. यहां की सरकारें उन्हीं उद्योगों, कृषि और सेवाओं से ही तो भारीभरकम पैसा बनाती हैं. दुनिया की तीसरीचौथी सब से बड़ी अर्थव्यवस्था हम यों ही नहीं हैं. हमारे यहां उत्पादन हो रहा है पर उस का प्रबंध बेहद खराब है, बंटवारा बेहूदा है. नेता, धन्ना सेठ और सरकारी कर्मचारी उसे पूरी तरह नष्ट कर रहे हैं.

 

जो लोग विदेशों में कानूनी या गैरकानूनी ढंग से पहुंच जाते हैं वे वहां रिफ्यूजी कैंपों में नहीं रह रहे. वे वहां काम कर रहे हैं, अच्छा कमा रहे हैं. वे कारखानों में काम कर रहे हैं, सड़क की सफाई के काम से ले कर कंपनियों के सर्वोच्च अफसर तक के काम कर रहे हैं. उन्हें वहां की आम जनता घृणा या डर से नहीं देखती. उन का कालों और मिडिलईस्ट वालों की तरह से बहिष्कार भी नहीं होता. वे शांत रहते हैं, काम से काम रखते हैं. बराबर की इज्जत चाहे न मिले पर उन्हें काफी सहजता से लिया जाता है. और इसीलिए कुछ के अलावा वहां के ज्यादातर नेता उन की कानूनीगैरकानूनी घुसपैठ पर आपत्ति नहीं करते.

 

समस्या तो यह है कि वे भारत के लिए कलंक हैं. वे दर्शाते हैं कि अपने को महान समझने वाले कितने खोखले हैं, उन के दिमाग में किस तरह का कूड़ा भरा है. वे कैसे अपनी गरीबी को अपनी महानता मानते हैं. वे यह समझने को तैयार नहीं हैं कि पौराणिक सोच आज की वैज्ञानिकता पर भारी पड़ रही है. पौराणिक सोच के कारण देश दुर्दशा के दोजख में पड़ा है और हम भारतीय, कीड़ों की तरह, यहां बिलबिला रहे हैं व कीचड़ को शुद्धपवित्र गोबर मान कर उसे ही जन्नत मान रहे हैं

  सरहद पार से

कट्टर हिंदू परिवार के कौस्तुभ को लाहौर इंजीनियरिंग कालिज में गुलाबी सूट में लिपटी उस गोरी युवती में न जाने क्या दिखा जो वह उसे दिलोजान से चाहने लगा. लेकिन धार्मिक कट्टरता व सरहद पार के कारण कौस्तुभ के लिए अपने सपनों की रानी को पाना क्या इतना आसान था?

 

 

‘इंडोपाक कल्चरल मिशन’ के लिए जिन 5 शिक्षकों का चयन हुआ है उन में एक नाम कौस्तुभ का भी है. अभी 2 साल पहले ही तो आई.आई.टी. कानपुर से एम. टेक. करने के बाद प्रवक्ता के पद पर सीधेसीधे यहीं आया था. स्टाफ रूम के खन्ना सर किसी न किसी बहाने लाहौर की चर्चा करते रहते हैं. वह आज तक इतने और ऐसे ढंग से किस्से सुनाते रहे हैं कि लाहौर और खासकर अनारकली बाजार की मन में पूरी तसवीर उतर गई है. इस चयन से कौस्तुभ के तो मन की मुराद पूरी हो गई.

 

सुनयनाजी बेटे कौस्तुभ की शादी के सपने देखने लगी हैं. ठीक भी है. सभी मातापिता की इच्छा होती है बेटे को सेहरा बांधे, घोड़ी पर चढ़ते देखने की. छमछम करती बहू घर में घूमती सब को अच्छी लगती है. सुबहसुबह चूडि़यां खनकाती जब वह हाथ में गरमागरम चाय का प्याला पकड़ाती है तो चाय का स्वाद ही बदल जाता है. फिर 2-3 साल में एक बच्चा लड़खड़ाते कदम रखता दादी पर गिर पड़े तो क्या कहने. बस, अब तो सुनयनाजी की यही तमन्ना है. उन्होंने तो अभी से नामों के लिए शब्दकोष भी देखना शुरू कर दिया है. उदयेशजी उन के इस बचकानेपन पर अकसर हंस पड़ते हैं, ‘क्या सुनयना, सूत न कपास जुलाहे से लट्ठमलट्ठा वाली कहावत तुम अभी से चरितार्थ कर रही हो. कहीं बात तक नहीं चली है, लड़का शादी को तैयार नहीं है और तुम ने उस के बच्चे का नाम भी ढूंढ़ना शुरू कर दिया. लाओ, चाय पिलाओ या वह भी बहू के हाथ से पिलवाने का इरादा है?’

 

‘आप तो मेरी हर बात ऐसे ही मजाक में उड़ा देते हैं. शादी तो आखिर होगी न. बच्चा भी होगा ही. तो नाम सोचने में बुराई क्या है?’

 

यह बोल कर सुनयना किचन में चली गईं और 2 कप चाय ले कर आईं. एक कप उन्हें पकड़ाया और दूसरा अपने सामने की तिपाई पर रखा. प्याला होंठों से लगाते हुए उदयेशजी ने फिर चुटकी ली, ‘अच्छा बताओ, क्या नाम सोचा है?’

 

‘अरे, इतनी जल्दी दिमाग में आता कहां है. वैसे भी मैं नाम रखने में इतनी तेज कहां हूं. तेज तो सुमेघा थी. उस ने तो मेरी शादी तय होते ही मेरे बेटे का नाम चुन लिया था. उसी का रखा हुआ तो है कौस्तुभ नाम.’

 

‘अच्छा, मुझे तो यह बात पता ही नहीं थी,’ उदयेशजी की आवाज में चुहल साफ थी, ‘हैं कहां आप की वह नामकर्णी सहेलीजी. आप ने तो हम से कभी मिलवाया ही नहीं.’

 

‘क्यों, मिलवाया क्यों नहीं, शादी के बाद उस के घर भी हो आए हैं आप. कितनी बढि़या तो दावत दी थी उस ने. भूल गए?’ उलाहना दिया सुनयनाजी ने.

 

‘अरे हां, वह लंबी, सुंदर सी, बड़ीबड़ी आंखों वाली? अब कहां है? कभी मिले नहीं न उस के बाद? न फोन न पत्र? बाकी सहेलियों से तो तुम मिल ही लेती हो. विदेश में कहीं है क्या?’ उदयेशजी अब गंभीर थे.

 

‘वह कहां है, इस की किसी को खबर नहीं.’

 

बचपन की सहेली का इस तरह गुम हो जाना सुनयनाजी की जिंदगी का एक बहुत ही दुखदायी अनुभव है. वह अकसर उन की फोटो देख कर रो पड़ती हैं.

 

 

कौस्तुभ समेत 5 शिक्षकों और 50 छात्रों का यह दल लाहौर पहुंच गया है. लाहौर मुंबई की तरह पूरी रात तो नहीं पर आधी रात तक तो जागता ही रहता है. शहर के बीचोबीच बहती रोशनी में नहाई नहर की लहरें इस शहर की खूबसूरती में चार चांद लगा देती हैं. एक रात मेहमानों का पूरा दल अलमहरा थिएटर में नाटक भी देख आया.

 

लाहौर घूम कर यह दल पाकिस्तान घूमने निकला. हड़प्पा देखने के बाद दल ननकाना साहब भी गया. गुजरांवाला की गलियां और कराची की हवेलियां भी देखी गईं. पाकिस्तान का पंजाब तो उन्हें भारत का पंजाब ही लगा. वही सरसों के लहलहाते खेत और तंदूर पर रोटी सेंकती, गाती हुई औरतें. वही बड़ा सा लस्सी भर गिलास और मक्के की रोटी पर बड़ी सी मक्खन की डली. 55 भारतीयों ने यही महसूस किया कि गुजरे हुए 55 सालों में राजनेताओं के दिलों में चाहे कितनी भी कड़वाहट आई हो, आम पाकिस्तानी अब भी अपने सपनों में अमृतसर के गलीकूचे घूम आता है और हिंदू दोस्तों की खैरखबर जानने को उत्सुक है.

 

कौस्तुभ की अगवाई में 10 छात्रों ने लाहौर इंजीनियरिंग कालिज के 25 चुने हुए छात्रों से मुलाकात की. भारतपाक विद्यार्थी आपस में जितने प्रेम से मिले और जिस अपनेपन से विचारों का आदान- प्रदान किया उसे देख कर यही लगा कि एक परिवार के 2 बिछुड़े हुए संबंधी अरसे बाद मिल रहे हों. और वह लड़की हाथ जोड़ सब को नमस्ते कर रही है. कौस्तुभ के पूछने पर उस ने अपना नाम केतकी बताया. गुलाबी सूट में लिपटी उस लंबी छरहरी गोरी युवती ने पहली नजर में ही कौस्तुभ का दिल जीत लिया था.

 

रात में कौस्तुभ बड़ी देर तक करवटें बदलता रहा. उस की यह बेचैनी जब डा. निरंजन किशोर से देखी नहीं गई तो वह बोल पड़े, ‘‘क्या बात है, कौस्तुभ, लगता है, कहीं दिल दे आए हो.’’

 

‘‘नहीं, ऐसा कुछ नहीं है पर न जाने क्यों उस लड़की के खयाल मात्र से मन बारबार उसी पर अटक रहा है. मैं खुद हैरान हूं.’’

 

‘‘देखो भाई, यह कोई अजीब बात नहीं है. तुम जवान हो. लड़की सुंदर और जहीन है. तुम कहो तो कल चल पड़ें उस के घर?’’ डा. किशोर हलके मूड में थे.

 

 

वह मन ही मन सोचने लगे कि ये तो इस लड़की को ले कर सीरियस है. चलो, कल देखते हैं. हालीडे इन में सभी पाकिस्तानी छात्रछात्राओं को इकट्ठा होना ही है.

 

डा. किशोर गंभीर हो गए. उन्होंने निश्चय कर लिया कि इस प्रकरण को किसी न किसी तरह अंजाम तक जरूर पहुंचाएंगे.

 

दूसरे दिन डा. किशोर तब सकते में आ गए जब कौस्तुभ ने उन्हें केतकी से सिर्फ मिलवाया ही नहीं बल्कि उस का पूरा पता लिखा परचा उन की हथेली पर रख दिया. डा. किशोर भी उस लड़की से मिल कर हैरान रह गए. उस की भाषा में शब्द हिंदी के थे. वह ‘एतराज’ नहीं ‘आपत्ति’ बोल रही थी. उन्होंने आग्रह किया कि वह उस के मातापिता से मिलना चाहेंगे.

 

अगले दिन वे दोनों केतकी के घर पहुंचे तो उस ने बताया कि पापा किसी काम से कराची गए हैं. हां, ममा आ रही हैं. मिलने तब तक नौकर सत्तू की कचौड़ी और चने की घुघनी ले कर आ चुका था.

 

केतकी की ममा आईं तो उन को देख कर दोनों आश्चर्य में पड़ गए. सफेद सिल्क की चौड़े किनारे वाली साड़ी में उन का व्यक्तित्व किसी भारतीय महिला की तरह ही निखर रहा था. वह मंदमंद हंसती रहीं और एक तश्तरी में कचौड़ी- घुघनी रख कर उन्हें दी. उन्हें देख कर दोनों अभिभूत थे, जितनी सुंदर बेटी उतनी ही सुंदर मां.

 

‘‘देखिए मैडम, मेरे दोस्त को आप की केतकी बेहद पसंद है,’’ डा. किशोर बोले, ‘‘पता नहीं इस के घर वाले मानेंगे या नहीं, लेकिन आप लोगों को एतराज न हो तो मैं भारत पहुंच कर कोशिश करूं. आप कहें तो आप के पति से मिलने और इस बारे में बात करने के लिए दोबारा आ जाऊं?’’

 

‘‘नहीं, इस की कोई जरूरत नहीं है,’’ केतकी की ममा बोलीं, ‘‘मुझे केतकी ने सबकुछ बता दिया है और हम दोनों को कोई एतराज नहीं, बल्कि मैं तो बहुत खुश होऊंगी अगर मेरी बेटी का ब्याह भारत में हो जाए.’’

 

‘‘क्यों? क्या आप लोग उधर से इधर आए हैं?’’ कौस्तुभ ने पूछा.

 

‘‘हां, हम बंटवारे के बहुत बाद में आए हैं. मेरे मातापिता तो अभी भी वहीं हैं.’’

 

‘‘अच्छा, कहां की हैं आप?’’

 

वह बहुत भावुक हो कर बोलीं, ‘‘पटना की.’’

 

डा. किशोर को लगा कि उन्हें अपने अतीत में गोता लगाने के लिए अकेले छोड़ देना ही ठीक होगा. अत: कौस्तुभ का हाथ पकड़ धीमे से नमस्ते कह कर वे वहां से चल दिए.

 

घर में पूरा हंगामा मच गया. एक मुसलमान और वह भी पाकिस्तानी लड़की से कौस्तुभ का प्रेम. सुनयना ने तो साफ मना कर दिया कि एक संस्कारी ब्राह्मण परिवार में ऐसी मिलावट कैसे हो सकती है? डा. किशोर की सारी दलीलें बेकार गईं.

 

‘‘आंटी, लड़की संस्कारी है,’’

 

डा. किशोर ने बताया, ‘‘उस की मां आप के पटना की हैं.’’

 

‘‘होगी. पटना में तो बहुत मुसलमान हैं. केवल इसलिए कि वह मेरे शहर की है, उस से मैं रिश्ता जोड़ लूं. संभव नहीं है.’’

 

डा. किशोर मन मार कर चले गए. सुनयनाजी ने यह सोच कर मन को सांत्वना दे ली कि वक्त के साथ हर जख्म भर जाता है, उस का भी भर जाएगा.

 

 

उस दिन शाम को उदयेशजी ने दरवाजा खोला तो उन के सामने एक अपरिचित सज्जन खड़े थे.

 

‘‘हां, कहिए, किस से मिलना है आप को?’’

 

‘‘आप से. आप कौस्तुभ दीक्षित के वालिद हैं न?’’ आने वाले सज्जन ने हाथ आगे बढ़ाया. उदयेशजी आंखों में अपरिचय का भाव लिए उन्हें हाथ मिलाते हुए अंदर ले आए.

 

‘‘मैं डा. अनवर अंसारी,’’  सोफे पर बैठते हुए आगंतुक ने अपना परिचय दिया, ‘‘इलाहाबाद विश्वविद्यालय में फिजिक्स का प्रोफेसर हूं. दिल्ली विश्वविद्यालय में आयोजित सेमिनार में सिर्फ इसलिए आ गया कि आप से मिल सकूं.’’

 

‘‘हां, कहिए. मैं आप के लिए क्या कर सकता हूं?’’ उदयेश बहुत हैरान थे.

 

‘‘मैं अपने चचेरे भाई अहमद की बेटी का रिश्ता ले कर आया हूं. ये रही उस की फोटो और बायोडाटा. मैं परसों फोन करूंगा. मेरा भाई डाक्टर है और उस की बीवी कैमिस्ट्री में रीडर. अच्छा खातापीता परिवार है. लड़की भी सुंदर है,’’ इतना कह कर उन्होंने लिफाफा आगे बढ़ा दिया.

 

नौकर मोहन तब तक चायनाश्ता ले कर आ चुका था. हक्केबक्के उदयेश को थोड़ा सहारा मिला. सामान्य व्यवहार कर सहज ढंग से बोले, ‘‘आप पहले चाय तो लीजिए.’’

 

‘‘तकल्लुफ के लिए शुक्रिया. बेटी का रिश्ता ले कर आया हूं तो आप के यहां खानापीना बेअदबी होगी, इजाजत दें,’’ कह कर वह उठ खड़े हुए और नमस्कार कर के चलते बने.

 

सुनयना भी आ गईं. उन्होंने लिफाफा खोला. अचानक ध्यान आया कि कहीं ये वही पाकिस्तान वाले लोग तो नहीं हैं. फिर सीधे सपाट स्वर में उदयेश से कहा, ‘‘उन का फोन आए तो मना कर दीजिएगा.’’

 

तभी कौस्तुभ आ गया और मेज पर चायनाश्ता देख कर पूछ बैठा, ‘‘पापा, कौन आया था?’’

 

‘‘तेरे रिश्ते के लिए आए थे,’’ उदयेशजी ने लिफाफा आगे बढ़ाया.

 

फोटो देख कर कौस्तुभ एकदम चौंका, ‘‘अरे, यह तो वही लाहौर वाली केतकी है. लाहौर से आए थे? कौन आया था?’’

 

‘‘नहीं, इलाहाबाद से उस के चाचा आए थे,’’ उदयेशजी बेटे की इस उत्कंठा से परेशान हुए.

 

‘‘अच्छा, वे लोग भी इधर के ही हैं. कुछ बताया नहीं उन्होंने?’’

 

‘‘बस, तू रहने दे,’’ सुनयना देवी बोलीं, ‘‘जिस गली जाना नहीं उधर झांकना क्या? जा, हाथमुंह धो. मैं नाश्ता भेजती हूं.’’

 

दिन बीतते रहे. दिनचर्या रोज के ढर्रे पर चलती रही, लेकिन 15वें दिन सुबहसुबह घंटी बजी. मोहन ने आने वाले को अंदर बिठाया. सुनयनाजी आईं और नीली साड़ी में लिपटी एक महिला को देख कर थोड़ी चौंकी. महिला ने उन पर भरपूर नजर डाली और बोली, ‘‘मैं केतकी की मां…’’

 

सुनयना ने देखा, अचानक दिमाग में कुछ कौंधा, ‘‘लेकिन आप…तु… तुम…सुमे…’’ और वह महिला उन से लिपट गई.

 

‘‘सुनयना, तू ने पहचान लिया.’’

 

‘‘लेकिन सुमेधा…केतकी…लाहौर… सुनयना जैसे आसमान से गिरीं. उन की बचपन की सहेली सामने है. कौस्तुभ की प्रेयसी की मां…लेकिन मुसलमान…सिर चकरा गया. अपने को मुश्किल से संभाला तो दोनों फूट कर रो पड़ीं. आंखों से झरते आंसुओं को रोकने की कोशिश करती हुई सुनयना उन्हें पकड़ कर बेडरूम में ले गईं.

 

‘‘बैठ आराम से. पहले पानी पी.’’

 

‘‘सुनयना, 25 साल हो गए. मन की बात नहीं कह पाई हूं किसी से, मांपापा से मिली ही नहीं तब से. बस, याद कर के रो लेती हूं.’’

 

‘‘अच्छाअच्छा, पहले तू शांत हो. कितना रोएगी? चल, किचन में चल. पकौड़े बनाते हैं तोरी वाले. आम के अचार के साथ खाएंगे.’’

 

सुमेधा ने अपनेआप को अब तक संभाल लिया था.

 

‘‘मुझे रो लेने दे. 25 साल में पहली बार रोने को किसी अपने का कंधा मिला है. रो लेने दे मुझे,’’ सुमेधा की हिचकियां बंधने लगीं. सुनयना भी उन्हें कंधे से लगाए बैठी रहीं. नयनों के कटोरे भर जाएंगे, तो फिर छलकेंगे ही. उन की आंखों से भी आंसू झरते रहे.

 

 

बड़ी देर बाद सुमेधाजी शांत  हुईं. मुसकराने की कोशिश की और बोलीं, ‘‘अच्छा, एक गिलास शरबत पिला.’’

 

दोनों ने शरबत पिया. फिर सुमेधा ने अपनेआप को संभाला. सुनयना ने पूछा, ‘‘लेकिन तू तो उस रमेश…’’

 

‘‘सुनयना, तू ने मुझे यही जाना? हम दोनों ने साथसाथ गुडि़या खेल कर बचपन विदा किया और छिपछिप कर रोमांटिक उपन्यास पढ़ कर यौवन की दहलीज लांघी. तुझे भी मैं उन्हीं लड़कियों में से एक लगी जो मांबाप के मुंह पर कालिख पोत कर पे्रमी के साथ भाग जाती हैं,’’ सुमेधा ने सुनयना की आंखों में सीधे झांका.

 

‘‘लेकिन वह आंटी ने भी यही…’’ सुनयना उन से नजर नहीं मिला पाईं.

 

‘‘सुन, मेरी हकीकत क्या है यह मैं तुझे बताती हूं. तुझे कुलसुम आपा याद हैं? हम से सीनियर थीं. स्कूल में ड्रामा डिबेट में हमेशा आगे…?’’

 

‘‘हां, वह जस्टिस अंसारी की बेटी,’’ सुनयना को जैसे कुछ याद आ गया, ‘‘पापा पहले उन्हीं के तो जूनियर थे.’’

 

‘‘और कुलसुम आपा का छोटा भाई?’’

 

‘‘वह लड्डन यानी अहमद न… हैंडसम सा लड़का?’’

 

‘‘हां वही,’’ सुमेधा बोलीं, ‘‘तू तो शादी कर के ससुराल आ गई. मैं ने कैमिस्ट्री में एम.एससी. की. तब तक वह लड्डन डाक्टर बन चुका था. कुलसुम आपा की शादी हो चुकी थी. उस दिन वह मुझे ट्रीट देने ले गईं. अंसारी अंकल की कार थी. अहमद चला रहा था. मैं पीछे बैठी थी. लौटते हुए कुलसुम आपा अचानक अपने बेटे को आइसक्रीम दिलाने नीचे उतरीं और अहमद ने गाड़ी भगा दी. मुझे तो चीखने तक का मौका नहीं दिया. एकदम एक दूसरी कार आ कर रुकी और अहमद ने मुझे खींच कर उस कार में डाल दिया. 2 आदमी आगे बैठे थे.’’

 

‘‘तू होश में थी?’’

 

‘‘होश था, तभी तो सबकुछ याद है. मुझे ज्यादा दुख तो तब हुआ जब पता चला कि सारा प्लान कुलसुम आपा का था. मैं शायद इसे अहमद की सफाई मान लेती लेकिन अंसारी अंकल ने खुद यह बात मुझे बताई. उन्हें अहमद का यहां का पता कुलसुम आपा ने ही दिया था. वह भागे आए थे और मुझे छाती से लगा लिया था.

 

‘‘यह सच है, अहमद मुझे पाना चाहता था पर उस में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह मुझे भगाता. एक औरत हो कर कुलसुम आपा ने मेरा जीवन नरक बना दिया. क्या बिगाड़ा था मैं ने उन का. हमेशा मैं ने सम्मान दिया उन्हें लेकिन…’’ और सुमेधा ऊपर देखने लगीं.

 

‘‘जज अंकल गए थे तेरे पास तो अहमद को क्या कहा उन्होंने?’’ बात की तह में जाने के लिए सुनयना ने पूछा.

 

‘‘उन्होंने पहले मुझ से पूछा कि अहमद ने मेरे साथ कोई बदतमीजी तो नहीं की. मेरे ‘न’ कहने पर वे बोले, ‘देखो बेटा, यह जीवन अल्लाह की दी हुई नेमत है. इसे गंवाने की कभी मत सोचना. इस के लिए सजा इस बूढ़े बाप को मत देना. तुम कहो तो मैं तुम्हें अपने साथ ले चलता हूं.’ लेकिन मैं ने मना कर दिया, सुनयना. मेरा तो जीवन इन भाईबहन ने बरबाद कर ही दिया था, अब मैं नवनीत, गरिमा और मम्मीपापा की जिंदगी क्यों नरक करती. ठीक किया न?’’ सुमेधा की आंखें एकदम सूखी थीं.

 

‘‘तो तू ने अहमद से समझौता कर लिया?’’

 

‘‘जज अंकल ने कहा कि बेटा, मैं तो इसे कभी माफ नहीं कर पाऊंगा, हो सके तो तू कर दे. उन्होंने अहमद से कहा, ‘देख, यह मेरी बेटी है. इसे अगर जरा भी तकलीफ हुई तो मैं तुम्हें दोनों मुल्कों में कहीं का नहीं छोड़ूंगा.’ दूसरी बार वह केतकी के जन्म पर आए थे, बहुत प्यार किया इसे. यह तो कई बार दादादादी के पास हो भी आई. दो बार तो अंसारी अंकल इसे मम्मी से भी मिलवा लाए.

 

‘‘जानती है सुनयना, अंसारी अंकल ने कुलसुम आपा को कभी माफ नहीं किया. आंटी उन से मिलने को तरसती मर गईं. आंटी को कभी वह लाहौर नहीं लाए. अंकल ने अपने ही बेटे को जायदाद से बेदखल कर दिया और जायदाद मेरे और केतकी के नाम कर दी. शायद आंटी भी अपने बेटेबेटी को कभी माफ नहीं कर सकीं. तभी तो मरते समय अपने सारे गहने मेरे पास भिजवा दिए.’’

 

सुमेधा की दुखभरी कहानी सुन कर सुनयना सोचती रहीं कि एक ही परिवार में अलगअलग लोग.

 

अंकल इतने शरीफ और बेटाबेटी ऐसे. कौन कहता है कि धर्म इनसान को अच्छा या बुरा बनाता है. इनसानियत का नाता किसी धर्म से नहीं, उस की अंतरात्मा की शक्ति से होता है.

 

‘‘लेकिन यह बता, तू ने अहमद को माफ कैसे कर दिया?’’

 

‘‘हां, मैं ने उसे माफ किया, उस के साथ निभाया. मुझे उस की शराफत ने, उस की दरियादिली ने, उस के सच्चे प्रेम ने, उस के पश्चात्ताप ने इस के लिए मजबूर किया था.’’

 

‘‘अहमद और शराफती?’’ सुनयना चौंक कर पूछ बैठीं.

 

‘‘हां सुनयना, उस ने 2 साल तक मुझे हाथ नहीं लगाया. मैं ने उसे समझने में बहुत देर लगाई. लेकिन फिर ठीक समझा. मैं समझ गई कि कुलसुम आपा इसे न उकसातीं, शह न देतीं तो वह कभी भी ऐसा घिनौना कदम नहीं उठाता. मैं ने उसे बिलखबिलख कर रोते देखा है.

 

‘‘अहमद ने एक नेक काम किया कि उस ने मेरा धर्म नहीं बदला. मैं आज भी हिंदू हूं. मेरी बेटी भी हिंदू है. हमारे घर में मांसाहारी भोजन नहीं बनता है. बस, केतकी के जन्म पर उस ने एक बात कही, वह भी मिन्नत कर के, कि मैं उस का नाम बिलकुल ऐसा न रखू जो वहां चल ही न पाए.’’

 

‘‘तू सच कह रही है? अहमद ऐसा है?’’ सुनयना को जैसे विश्वास ही नहीं हो रहा था.

 

‘‘हां, अहमद ऐसा ही है, सुनयना. वह तो उस पर जुनून सवार हो गया था. मैं ने उसे सचमुच माफ कर दिया है.’’

 

‘‘तो तू पटना क्यों नहीं गई? एक बार तो आंटी से मिल आ.’’

 

‘‘मुझ में साहस नहीं है. तू ले चले तो चलूं. मायके की देहली के दरस को तरस गई हूं. सुनयना, एक बार मम्मी से मिलवा दे. तेरे पैर पड़ती हूं,’’ कह कर सुमेधा सुनयना के पैरों पर गिर पड़ी.

 

‘‘क्या कर रही है…पागल हो गई है क्या…मैं तुझे ले चलूं. क्या मतलब?’’

 

‘‘देख, मम्मी ने कहा है कि अगर तू केतकी को अपनाने को तैयार हो गई तो वह अपने हाथों से कन्यादान करेंगी. बेटी न सही, बेटी की बेटी तो इज्जत से बिरादरी में चली जाए.’’

 

‘‘तू लाहौर से अकेली आई है?’’

 

‘‘नहीं, अहमद और केतकी भी हैं. मेरी हिम्मत नहीं हुई उन्हें यहां लाने की.’’

 

‘‘अच्छा, उदयेश को आने दे?’’ सुनयना बोलीं, ‘‘देखते हैं क्या होता है. तू कुछ खापी तो ले.’’

 

 

सुनयना ने उदयेश को फोन किया और सोचती रही कि क्या धर्म इतना कमजोर है कि दूसरे धर्म के साथ संयोग होते ही समाप्त हो जाए और फिर  क्या धार्मिक कट्टरता इनसानियत से बड़ी है? क्या धर्म आत्मा के स्नेह के बंधन से ज्यादा बड़ा है?

 

उदयेश आए, सारी बात सुनी. सब ने साथ में लंच किया. सुमेधा को उन्होंने कई बार देखा पर नमस्ते के अलावा बोले कुछ नहीं.

 

उदयेशजी ने गाड़ी निकाली और दोनों को साथ ले कर होटल पहुंचे. सब लोग बैठ गए. सभी चुप थे. अहमद ने कौफी मंगवाई और पांचों चुपचाप कौफी पीते रहे. आखिर कमरे के इस सन्नाटे को उदयेशजी ने तोड़ा :

 

‘‘एक बात बताइए डा. अंसारी, आप की सरकार, आप की बिरादरी कोई हंगामा तो खड़ा नहीं करेगी?’’

 

अहमद ने उदयेश का हाथ पकड़ा, ‘‘उदयेशजी, सरकार कुछ नहीं करेगी. बिरादरी हमारी कोई है नहीं. बस, इनसानियत है. आप मेरी बेटी को कुबूल कर लीजिए. मुझे उस पाप से नजात दिलाइए, जो मैं ने 25 साल पहले किया था.

 

‘‘सरहद पार से अपनी बेटी एक हिंदू को सौंपने आया हूं. प्लीज, सुनयनाजी, आप की सहेली 25 साल से जिस आग में जल रही है, उस से उसे बचा लीजिए,’’ कहते हुए वह वहीं फर्श पर उन के पैरों के आगे अपना माथा रगड़ने लगा.

 

उदयेश ने डा. अंसारी को उठाया और गले से लगा कर बोले, ‘‘आप सरहद पार से हमें इतना अच्छा तोहफा देने आए हैं और हम बारात ले कर पटना तक नहीं जा सकते? इतने भी हैवान नहीं हैं हम. जाइए, विवाह की तैयारियां कीजिए.’’

 

सुनयनाजी ने अपने हाथ का कंगन उतार कर केतकी की कलाई में डाल दिया.

 

जब ऐसा मिलन हो, दो सहेलियों का, दो प्रेमियों का, दो संस्कृतियों का, दो धर्मों का तो फिर सरहद पर कांटे क्यों? गोलियों की बौछारें क्यों?

Married Life : प्रेम की लंबी तपस्‍या

शिखर ने मातापिता के दबाव में आ कर शैली से शादी कर ली. शादी के बाद भी वह उस से दूरदूर रहने का प्रयास करता लेकिन शैली के संयम, त्याग और मूक तपस्या की गरमाहट पा कर कठोर हृदय शिखर खुदबखुद मोम की मानिंद पिघल गया.

शैली उस दिन बाजार से लौट रही थी कि वंदना उसे रास्ते में ही मिल गई.

‘‘तू कैसी है, शैली? बहुत दिनों से दिखाई नहीं दी. आ, चल, सामने रेस्तरां में बैठ कर कौफी पीते हैं.’’

वंदना शैली को घसीट ही ले गई थी. जाते ही उस ने 2 कप कौफी का आर्डर दिया.

‘‘और सुना, क्या हालचाल है? कोई पत्र आया शिखर का?’’

‘‘नहीं,’’ संक्षिप्त सा जवाब दे कर शैली का मन उदास  हो गया था.

‘‘सच शैली कभी तेरे बारे में सोचती हूं तो बड़ा दुख होेता है. आखिर ऐसी क्या जल्दी पड़ी थी तेरे पिताजी को जो तेरी शादी कर दी? ठहर कर, समझबूझ कर करते. शादीब्याह कोई गुड्डेगुडि़या का खेल तो है नहीं.’’

इस बीच बैरा मेज पर कौफी रख गया और वंदना ने बातचीत का रुख दूसरी ओर मोड़ना चाहा.

‘‘खैर, जाने दे. मैं ने तुझे और उदास कर दिया. चल, कौफी पी. और सुना, क्याक्या खरीदारी कर डाली?’’

पर शैली की उदासी कहां दूर हो पाई थी. वापस लौटते समय वह देर तक शिखर के बारे में ही सोचती रही थी. सच कह रही थी वंदना. शादीब्याह कोई गुड्डेगुडि़या का खेल थोड़े ही होता है. पर उस के साथ क्यों हुआ यह खेल? क्यों?

वह घर लौटी तो मांजी अभी भी सो ही रही थीं. उस ने सोचा था, घर पहुंचते ही चाय बनाएगी. मांजी को सारा सामान संभलवा देगी और फिर थोड़ी देर बैठ कर अपनी पढ़ाई करेगी. पर अब कुछ भी करने का मन नहीं हो रहा था. वंदना उस की पुरानी सहेली थी. इसी शहर में ब्याही थी. वह जब भी मिलती थी तो बड़े प्यार से. सहसा शैली का मन और उदास हो गया था. कितना फर्क आ गया था वंदना की जिंदगी में और उस की  अपनी जिंदगी में. वंदना हमेशा खुश, चहचहाती दिखती थी. वह अपने पति के साथ  सुखी जिंदगी बिता रही थी. और वह…अतीत की यादों में खो गई.

शायद उस के पिता भी गलत नहीं होंगे. आखिर उन्होंने शैली के लिए सुखी जिंदगी की ही तो कामना की थी. उन के बचपन के मित्र सुखनंदन का बेटा था शिखर. जब वह इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था तभी  उन्होंने  यह रिश्ता तय कर दिया था. सुखनंदन ने खुद ही तो हाथ मांग कर यह रिश्ता तय किया था. कितना चाहते थे वह उसे. जब भी मिलने आते, कुछ न कुछ उपहार अवश्य लाते थे. वह भी तो उन्हें चाचाजी कहा करती थी.

‘‘वीरेंद्र, तुम्हारी यह बेटी शुरू से ही मां के अभाव में पली है न, इसलिए बचपन में ही सयानी हो गई है,’ जब वह दौड़ कर उन की खातिर में लग जाती तो वह हंस कर उस के पिता से कहते.

फिर जब शिखर इंजीनियर बन गया तो शैली के पिता जल्दी शादी कर देने के लिए दबाव डालने लगे थे. वह जल्दी ही रिटायर होने वाले थे और उस से पहले ही यह दायित्व पूरा कर लेना चाहते थे. पर जब सुखनंदन का जवाब आया कि शिखर शादी के लिए तैयार ही नहीं हो रहा है तो वह चौंक पड़े थे. यह कैसे संभव है? इतने दिनों का बड़ों द्वारा तय किया रिश्ता…और फिर जब सगाई हुई थी तब तो शिखर ने कोई विरोध नहीं किया था…अब क्या हो गया?

शैली के पिता ने खुद भी 2-1 पत्र लिखे थे शिखर को, जिन का कोई जवाब नहीं आया था. फिर वह खुद ही जा कर शिखर के बौस से मिले थे. उन से कह कर शायद जोर डलवाया था उस पर. इस पर शिखर का बहुत ही बौखलाहट भरा पत्र आया था. वह उसे ब्लैकमेल कर रहे हैं, यह तक लिखा था उस ने. कितना रोई थी तब वह और पिताजी से भी कितना कहा था, ‘क्यों नाहक जिद कर रहे हैं? जब वे लोग नहीं चाहते तो क्यों पीछे पड़े हैं?’

‘ठीक है बेटी, अगर सुखनंदन भी यही कहेगा तो फिर मैं अब कभी जोर नहीं दूंगा,’ पिताजी का स्वर निराशा में डूबा हुआ था.

तभी अचानक शिखर के पिता को दिल का दौरा पड़ा था और उन्होंने अपने बेटे को सख्ती से कहा था कि वह अपने जीतेजी अपने मित्र को दिया गया वचन निभा देना चाहते हैं, उस के बाद ही वह शिखर को विदेश जाने की इजाजत देंगे. इसी दबाव में आ कर शिखर  शादी के लिए तैयार हो गया था. वह तो कुछ समझ ही नहीं पाई थी.  उस के पिता जरूर बेहद खुश थे और उन्होंने कहा था, ‘मैं न कहता था, आखिर सुखनंदन मेरा बचपन का मित्र है.’

‘पर, पिताजी…’ शैली का हृदय  अभी  भी अनचाही आशंका से धड़क रहा था.

‘तू चिंता मत कर बेटी. आखिरकार तू अपने रूप, गुण, समझदारी से सब का  दिल जीत लेगी.’

फिर गुड्डेगुडि़या की तरह ही तो आननफानन में उस की शादी की सभी रस्में अदा हो गई थीं. शादी के समय भी शिखर का तना सा चेहरा देख कर वह पल दो पल के लिए आशंकाओं से घिर गई थी. फिर सखीसहेलियों की चुहलबाजी में सबकुछ भूल गई थी.

शादी के बाद वह ससुराल आ गई थी. शादी की पहली रात मन धड़कता रहा था. आशा, उमंगें, बेचैनी और भय सब के मिलेजुले भाव थे. क्या होगा? पर शिखर आते ही एक कोने में पड़ रहा था, उस ने न कोई बातचीत की थी, न उस की ओर निहार कर देखा था.

वह कुछ समझ ही नहीं सकी थी. क्या गलती थी उस की? सुबह अंधेरे ही वह अपना सामान बांधने लगा था.

‘यह क्या, लालाजी, हनीमून पर जाने की तैयारियां भी शुरू हो गईं क्या?’ रिश्ते की किसी भाभी ने छेड़ा था.

‘नहीं, भाभी, नौकरी पर लौटना है. फिर अमरीका जाने के लिए पासपोर्ट वगैरह भी बनवाना है.’

तीर की तरह कमरे से बाहर निकल गया था वह. दूसरे कमरे में बैठी शैली ने सबकुछ सुना था. फिर दिनभर खुसरफुसर भी चलती रही थी. शायद सास ने कहा था, ‘अमरीका जाओ तो फिर बहू को भी लेते जाना.’

‘ले जाऊंगा, बाद में, पहले मुझे तो पहुंचने दो. शादी के लिए पीछे पड़े थे, हो गई शादी. अब तो चैन से बैठो.’

न चाहते हुए भी सबकुछ सुना था शैली ने. मन हुआ था कि जोर से सिसक पड़े. आखिर किस बात के लिए दंडित किया जा रहा था उसे? क्या कुसूर था उस का?

 

पिताजी कहा करते थे कि धीरेधीरे सब का मन जीत लेगी वह. सब सहज हो जाएगा. पर जिस का मन जीतना था वह तो दूसरे ही दिन चला गया था. एक हफ्ते बाद ही फिर दिल्ली से अमेरिका भी.

पहुंच कर पत्र भी आया था तो घर वालों के नाम. उस का कहीं कोई जिक्र नहीं था. रोती आंखों से वह देर तक घंटों पता नहीं क्याक्या सोचती रहती थी. घर में बूढ़े सासससुर थे. बड़ी शादीशुदा ननद शोभा अपने बच्चों के साथ शादी पर आई थी और अभी वहीं थी. सभी उस का ध्यान रखते थे. वे अकसर उसे घूमने भेज देते, कहते, ‘फिल्म देख आओ, बहू, किसी के साथ,’ पर पति से अपनेआप को अपमानित महसूस करती वह कहां कभी संतुष्ट हो पाती थी.

शोभा जीजी को भी अपनी ससुराल लौटना था. घर में फिर वह, मांजी और बाबूजी ही रह गए थे. महीने भर के अंदर ही उस के ससुर को दूसरा दिल का दौरा पड़ा था. सबकुछ अस्तव्यस्त हो गया. बड़ी कठिनाई से हफ्ते भर की छुट्टी ले कर शिखर भी अमेरिका से लौटा था, भागादौड़ी में ही दिन बीते थे. घर नातेरिश्तेदारों से भरा था और इस बार भी बिना उस से कुछ बोले ही वह लौट गया था.

‘मां, तुम अकेली हो, तुम्हें बहू की जरूरत है,’ यह जरूर कहा था उस ने.

शैली जब सोचने लगती है तो उसे लगता है जैसे किसी सिनेमा की रील की तरह ही सबकुछ घटित हो गया था उस के साथ. हर क्षण, हर पल वह जिस के बारे में सोचती रहती है उसे तो शायद कभी अवकाश ही नहीं था अपनी पत्नी के बारे में सोचने का या शायद उस ने उसे पत्नी रूप में स्वीकारा ही नहीं.

इधर सास का उस से स्नेह बढ़ता जा रहा था. वह उसे बेटी की तरह दुलराने लगी थीं. हर छोटीमोटी जरूरत के लिए वह उस पर आश्रित होती जा रही थीं. पति की मृत्यु तो उन्हें और बूढ़ा कर गई थी, गठिया का दर्द अब फिर बढ़ गया था. कईर् बार शैली की इच्छा होती, वापस पिता के पास लौट जाए. आगे पढ़ कर नौकरी करे. आखिर कब तक दबीघुटी जिंदगी जिएगी वह? पर सास की ममता ही उस का रास्ता रोक लेती थी.

‘‘बहूरानी, क्या लौट आई हो? मेरी दवाई मिली, बेटी? जोड़ों का दर्द फिर बढ़ गया है.’’

मां का स्वर सुन कर तंद्रा सी टूटी शैली की. शायद वह जाग गई थीं और उसे आवाज दे रही थीं.

‘‘अभी आती हूं, मांजी. आप के लिए चाय भी बना कर लाती हूं,’’ हाथमुंह धो कर सहज होने का प्रयास करने लगी थी शैली.

चाय ले कर कमरे में आई ही थी कि बाहर फाटक पर रिकशे से उतरती शोभा जीजी को देखते ही वह चौंक गई.

‘‘जीजी, आप इस तरह बिना खबर दिए. सब खैरियत तो है न? अकेले ही कैसे आईं?’’

बरामदे में ही शोभा ने उसे गले से लिपटा लिया था. अपनी आंखों को वह बारबार रूमाल से पोंछती जा रही थी.

‘‘अंदर तो चल.’’

और कमरे में आते ही उस की रुलाई फूट पड़ी थी. शोभा ने बताया कि अचानक ही जीजाजी की आंखों की रोशनी चली गई है, उन्हें अस्पताल में दाखिल करा कर वह सीधी आ रही है. डाक्टर ने कहा है कि फौरन आपरेशन होगा. कम से कम 10 हजार रुपए लगेंगे और अगर अभी आपरेशन नहीं हुआ तो आंख की रोशनी को बचाया न जा सकेगा.

‘‘अब मैं क्या करूं? कहां से इंतजाम करूं रुपयों का? तू ही शिखर को खबर कर दे, शैली. मेरे तो जेवर भी मकान के मुकदमे में गिरवी  पड़े  हुए हैं,’’ शोभा की रुलाई नहीं थम रही थी.

जीजाजी की आंखों की रोशनी… उन के नन्हे बच्चे…सब का भविष्य एकसाथ ही शैली के  आगे घूम गया था.

‘‘आप ऐसा करिए, जीजी, अभी तो ये मेरे जेवर हैं, इन्हें ले जाइए. इन्हें खबर भी करूंगी तो इतनी जल्दी  कहां पहुंच पाएंगे रुपए?’’

और शैली ने अलमारी से निकाल कर अपनी चूडि़यां और जंजीर  आगे रख दी थीं.

‘‘नहीं, शैली, नहीं…’’ शोभा स्तंभित थी.

फिर कहनेसुनने के बाद ही वह जेवर लेने के लिए तैयार हो पाई थी. मां की रुलाई फूट पड़ी थी.

‘‘बहू, तू तो हीरा है.’’

‘‘पता नहीं शिखर कब इस हीरे का मोल समझ पाएगा,’’ शोभा की आंखों में फिर खुशी के आंसू छलक पड़े थे.

पर शैली को अनोखा संतोष  मिला था. उस के मन ने कहा, उस का नहीं तो किसी और का परिवार तो बनासंवरा रहे. जेवरों का शौक तो उसे वैसे ही नहीं था. और अब जेवर पहने भी तो किस की खातिर? मन की उसांस को उस ने दबा  दिया था.

8 दिन के बाद खबर मिली थी, आपरेशन सफल रहा. शिखर को भी अब सूचना मिल गई थी, और वह आ रहा था. पर इस बार शैली ने अपनी सारी उत्कंठा को दबा लिया था. अब वह किसी तरह का उत्साह  प्रदर्शित नहीं कर  पा रही थी. सिर्फ तटस्थ भाव से रहना चाहती थी वह.

‘‘मां, कैसी हो? सुना है, बहुत बीमार रही हो तुम. यह क्या हालत बना रखी है? जीजाजी को क्या हुआ था अचानक?’’ शिखर ने पहुंचते ही मां से प्रश्नों की झड़ी लगा दी.

‘‘मेरी  तो तबीयत तू देख ही रहा है, बेटे. बीच में तो और भी बिगड़ गई थी. बिस्तर से उठ नहीं पा रही थी. बेचारी बहू ने ही सब संभाला. तेरे जीजाजी  की तो आंखों की रोशनी ही चली गई थी. उसी समय आपरेशन नहीं होता तो पता नहीं क्या होता. आपरेशन के लिए पैसों का भी सवाल था, लेकिन उसी समय बहू ने अपने जेवर दे कर तेरे जीजाजी  की आंखों की रोशनी वापस ला दी.’’

‘‘जेवर दे दिए…’’ शिखर हतप्रभ था.

‘‘हां, क्या करती शोभा? कह रही थी कि तुझे खबर कर के रुपए मंगवाए तो आतेआते भी तो समय लग जाएगा.’’

मां बहुत कुछ कहती जा रही थीं पर शिखर के सामने सबकुछ गड्डमड्ड हो गया था. शैली चुपचाप आ कर नाश्ता रख गई थी. वह नजर उठा कर  सिर ढके शैली को देखता रहा था.

‘‘मांजी, खाना क्या बनेगा?’’ शैली ने धीरे से मां से पूछा था.

‘‘तू चल. मैं भी अभी आती हूं रसोई में,’’ बेटे के आगमन से ही मां उत्साहित हो उठी थीं. देर तक उस का हालचाल पूछती रही थीं. अपने  दुखदर्द  सुनाती रही थीं.

 

‘‘अब बहू भी एम.ए. की पढ़ाई कर रही है. चाहती है, नौकरी कर ले.’’

‘‘नौकरी,’’ पहली बार कुछ चुभा शिखर के मन में. इतने रुपए हर महीने  भेजता हूं, क्या काफी नहीं होते?

तभी उस की मां बोलीं, ‘‘अच्छा है. मन तो लगेगा उस का.’’

वह सुन कर चुप रह गया था. पहली बार उसे ध्यान आया, इतनी बातों के बीच इस बार मां ने एक बार भी नहीं कहा कि तू बहू को अपने साथ ले जा. वैसे तो हर चिट्ठी में उन की यही रट रहती थी. शायद अब अभ्यस्त हो गई हैं  या जान गई हैं कि वह नहीं ले जाना चाहेगा. हाथमुंह धो कर वह अपने किसी दोस्त से मिलने के लिए घर से निकला  पर मन ही नहीं हुआ जाने का.

शैली ने शोभा को अपने जेवर दे  दिए, एक यही बात उस  के मन में गूंज रही थी. वह तो शैली और उस के पिता  दोनों को ही बेहद स्वार्थी समझता रहा था जो सिर्फ अपना मतलब हल करना जानते हों. जब से शैली के पिता ने उस के बौस से कह कर उस पर शादी के लिए दबाव डलवाया था तभी से उस का मन इस परिवार के लिए नफरत से भर गया था और उस ने सोच लिया था कि मौका पड़ने पर वह भी इन लोगों से बदला ले कर रहेगा. उस की तो अभी 2-4 साल शादी करने की इच्छा नहीं थी, पर इन लोगों ने चतुराई से उस के भोलेभाले पिता को फांस लिया. यही सोचता था वह अब तक.

फिर शैली का हर समय चुप रहना उसे खल जाता. कभी अपनेआप पत्र भी तो नहीं लिखा था उस ने. ठीक है, दिखाती रहो अपना घमंड. लौट आया तो  मां ने उस का खाना परोस दिया था. पास ही बैठी बड़े चाव से खिलाती रही थीं. शैली रसोई में ही थी. उसे लग रहा था कि  शैली जानबूझ कर ही उस  के सामने आने से कतरा रही है.

खाना खा कर उस ने कोई पत्रिका उठा ली थी. मां और शैली ने भी खाना खा लिया था. फिर मां को दवाई  दे कर शैली मां  के कमरे से जुड़े अपने छोटे से कमरे में चली गई और कमरे की बत्ती जला दी थी.

देर तक नींद नहीं आई थी शिखर को. 2-3 बार बीच में पानी पीने के बहाने  वह उठा भी था. फिर याद आया था पानी का जग  तो शैली  कमरे में ही  रख गई थी. कई बार इच्छा हुई थी चुपचाप उठ कर शैली को  आवाज देने की. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि आज  पहली बार उसे क्या हो रहा है. मन ही मन वह अपने परिवार के बारे में सोचता रहा था. वह सगा बेटा हो कर भी घरपरिवार का इतना ध्यान नहीं रख पा रहा था. फिर शैली तो दूसरे घर की है. इसे क्या जरूरत है सब के लिए मरनेखपने की, जबकि उस का पति ही उस की खोजखबर नहीं ले रहा हो? पूरी रात वह सो नहीं सका था.

दूसरा दिन मां को डाक्टर के यहां दिखाने के लिए ले जाने, सारे परीक्षण फिर से करवाने में बीता था.

सारी दौड़धूप में शाम तक काफी थक चुका था वह. शैली अकेली कैसे कर पाती होगी? दिनभर वह भी तो मां के साथ ही उन्हें सहारा दे कर चलती रही थी. फिर थकान के  बावजूद रात को मां से पूछ कर उस की पसंद के कई व्यंजन  खाने  में बना लिए थे.

‘‘मां, तुम लोग भी साथ ही खा लो न,’’ शैली की तरफ देखते हुए उस ने कहा था.

‘‘नहीं, बेटे, तू पहले गरमगरम खा ले,’’ मां का स्वर लाड़ में भीगा हुआ था.

कमरे में आज अखबार पढ़ते हुए शिखर का मन जैसे उधर ही उलझा रहा था. मां ने शायद खाना खा लिया था, ‘‘बहू, मैं तो थक गईर् हूं्. दवाई दे कर बत्ती बुझा दे,’’ उन की आवाज आ रही थी. उधर शैली रसोईघर में सब सामान समेट रही थी.

‘‘एक प्याला कौफी मिल सकेगी क्या?’’ रसोई के दरवाजे पर खड़े हो कर उस ने कहा था.

शैली ने नजर उठा कर देखा भर था. क्या था उन नजरों में, शिखर जैसे सामना ही नहीं कर पा रहा था.

शैली कौफी का कप मेज पर रख कर जाने के लिए मुड़ी ही थी कि शिखर की आवाज सुनाई दी, ‘‘आओ, बैठो.’’

उस के कदम ठिठक से गए थे. दूर की कुरसी की तरफ बैठने को उस के कदम बढ़े ही थे कि शिखर ने धीरे से हाथ खींच कर उसे अपने पास पलंग पर बिठा लिया था.

लज्जा से सिमटी वह कुछ बोल भी नहीं पाई थी.

‘‘मां की तबीयत अब तो काफी ठीक जान पड़ रही है,’’ दो क्षण रुक कर शिखर ने बात शुरू करने का प्रयास किया था.

‘‘हां, 2 दिन से घर में खूब चलफिर रही हैं,’’ शैली ने जवाब में कहा था. फिर जैसे उसे कुछ याद हो आया था और वह बोली थी, ‘‘आप शोभा जीजी से भी मिलने जाएंगे न?’’

‘‘हां, क्यों?’’

‘‘मांजी को भी साथ ले जाइएगा. थोड़ा परिवर्तन हो जाएगा तो उन का मन बदल जाएगा. वैसे….घर से जा भी कहां पाती हैं.’’

शिखर चुपचाप शैली की तरफ देखता भर रहा था.

‘‘मां को ही क्यों, मैं तुम्हें भी साथ ले चलूंगा, सदा के लिए अपने साथ.’’

धीरे से शैली को उस ने अपने पास खींच लिया था. उस के कंधों से लगी शैली का मन जैसे उन सुमधुर क्षणों में सदा के लिए डूब जाना चाह रहा था.

Maharashtra Election : महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव परिणाम किस ने की धर्म की अफीम चटाने वालों की जीतने में मदद

Maharashtra Election : महाराष्ट्र राज्य विधान सभा चुनाव परिणामों ने हर किसी को चौंका दिया है. महाविकास अघाड़ी की बुरी तरह से हुई पराजय और महायुति की प्रचंड जीत ने कई सवाल उठा दिए हैं. ऐसा पहली बार हुआ है, जब इन चुनाव परिणामों को देख कर महाराष्ट्र की जनता भी गुस्से में है. तो वहीं विपक्ष यानी कि ‘महाविकास अघाड़ी’ की तरफ से हार को स्वीकार करने की बजाय चुनाव आयोग व सरकारी मशीनरी पर ही सारा दोश मढ़ा जा रहा है. उधर उद्धव ठाकरे और संजय राउत ने अपनी पार्टी की पार्टी की हार का ठीकरा चुनाव आयोग के साथ ही पूर्व मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ पर फोड़ा है, मगर कोई भी अपने गिरेबान में झांक कर नहीं देखना चाहता. जबकि ‘महा विकास अघाड़ी की इस पराजय के पीछे सरकारी मशीनरी और चुनाव आयोग की करतूतों के साथ इन दलों के अंदर पल रहे ‘पैरासाइट्स / परजीवी तथा इन दलों की अपनी कार्यशैली कम जिम्मेदार नहीं है. तो वहीं इस बार पूरे महाराष्ट्र में ‘आरएसएस’ जमीनी सतह पर बहुत ही ज्यादा सक्रिय रहा.

भजपा और आरएसएस ने जम कर वोटरों को ढर्म की चाशनी चटाई. चुनाव के दौरान सक्रिय रहे पत्रकार भी विपक्षी दलों की हार से आश्चर्यचकित हैं, मगर किसी ने भी इन की कार्यशैली की कमियों की तरफ इशारा न चुनाव के दौरान किया था और परिणाम आने के बाद कर रहे हैं. किसी को भी दोश देने से पहले जरुरत होती है कि पहले आप अपना घर मजबूत करें, अफसोस विपक्षी दलों के घर के अंदर ही मतभेद और एकदूसरे को नीचा दिखाने की आग धधकती रही.

विपक्षी दल व कुछ राजनैतिक विश्लेशक दावा कर रहे हैं कि भाजपा समर्थित ‘महायुति’ को ‘लाड़ली बहना योजना’, जिस के तहत महिलाओं को हर माह 1500 दिए गए, ने जिताया. यह एक फैक्टर हो सकता है मगर बड़ा फैक्टर नहीं. महज इस योजना के चलते ‘महायुति’ के खाते में 288 में से 230 सीटें और महाविकस अघाड़ी केवल 49 पर सिमट जाए, यह नहीं हो सकता. बहरहाल, महाराष्ट्र राज्य के दल गत चुनाव परिणाम इस प्रकार रहे. भजपा 132, शिवसेना शिंदे गुट 57, एनसीपी अजीत पवार गुट 41 सीट, शिवसेना उद्धव गुट 20, कांग्रेस 16 और एनसीपी शरद पवार गुट 10 सीटें.

महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव परिणामों के विश्लेशण करने से पहले विपक्षी दलों की हार की मूल वजह पर एक नजर डाना जरुरी है. ‘यथा राजा तथा प्रजा.’ यही सच है. 2014 से बौलीवुड और विपक्षी दलों की कार्यशैली एक जैसी हो गई है. इसी वजह से बौलीवुड की हर फिल्म व हर दिग्गज कलाकार बौक्स औफिस पर डूब रहा है, तो वहीं विपक्षी दल हर चुनाव हारते जा रहे हैं.

2014 के बाद बौलीवुड दो खेमों में बंट चुका है. एक खेमा वह है जो कि ‘द कश्मीर फाइल्स’ या ‘द साबरमती रिपोर्ट’ जैसी सरकार परस्त व धर्म बेचने वाली प्रपोगंडा सिनेमा बना रहा है, जिसे सरकारी मशीनरी से भरपूर मदद मिल रही है तो दूसरी तरफ वह खेमा है जो कि पैरासइट्स / परजीवियों की सलाह पर काम करते हुए घटिया फिल्में बनाने के साथ ही फिल्म के प्रमोशन के लिए जनता व पत्रकारों से दूर हो कर कुछ शहरों के कालेज ग्राउंड या माल्स में जा कर भाड़े की भीड़ बुला कर अपनी फिल्म के सुपरडुपर हो जाने के दावे करते रहते हैं. पर फिल्म बौक्स औफिस पर धराशाही हो जाती है.

वास्तव में जब से बौलीवुड के दिग्गजों ने अपनी कार्यशैली बदली है तब से उन का आम दर्शकों से संबंध विच्छेद हो गया है और अब इन्हें जनता की नब्ज की पहचान नहीं रही कि जनता किस तरह का सिनेमा देखना चाहती है.

ठीक यही हालत राजनीतिक जगत में है. राजनीति में सत्तापक्षा के पास धन बल के साथ ही धर्म भीरू जनता है. सत्ता पक्ष हिंदू धर्म को बचाने व राष्ट्र को मजबूत बनाने के नाम पर आम जनता को मूर्ख बनाते हुए चुनाव दर चुनाव अपनी विजय पताका फहराता जा रहा है. दूसरी तरफ विपक्ष में बैठे पुराने नेता अपनेअपने दलों के मठाधीशों व पैरासाइट्स / परजीवियों की गलत राय पर चलते हुए चुनाव दर चुनाव पराजय का मुंह देखते जा रहे हैं.

अब जब हम इसी तर्ज पर इस बार के महाराष्ट्र चुनाव की जांच पड़ताल करते हैं तो यह बात साफ तौर पर उभर कर आती है कि आम जनता ने इन्हें नहीं हराया बल्कि इन्हें इन के परजीवियों और खुद को खुदा मानने वालों ने ही हराया है. अन्यथा महज ठाणे क्षेत्र की दो तीन सीटों पर प्रभुत्व रखने वाले एकनाथ शिंदे की पार्टी कैसे 57 सीटें जीत गई. अथवा शरद पवार के गढ़ को महज 5 माह पहले संपन्न लोकसभा चुनावों न भेद पाने वाले अजीत पवार ने इस बार कैसे नेस्तानाबूद कर 41 सीट जीत लीं.

इस बार महाराष्ट्र में अमित शाह से ले कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुनावी सभाओं में खाली पड़ी कुर्सियों को देख कर विपक्षी दल और विपक्षी दलों का समर्थन करने वाले पत्रकार गदगद होते रहे और दावा करते रहे कि इस बार भाजपा समर्थित ‘महायुति’ का विस्तार गोल हो जाएगा. मगर विपक्षी दल के नेता और यह पत्रकार इस बात की तरफ ध्यान ही नहीं दे रहे थे कि इस बार भाजपा और आरएसएस असली खेल क्या कर रही है.

इस बार महायुति ने चुनावी सभाओं में भाड़े की भीड़ बुलाने पर पैसा खर्च नहीं किए, जबकि विपक्षी पार्टीयां चुनावी सभाओं में भीड़ बुलाने पर ही ध्यान केंद्रित रखा. आम जनता से सीधा संपर्क बनाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. वहीं भाजपा और आरएसएस हर दरवाजा खटखटाते रहे. सब से पहले आरएसएस व भाजपा के कार्यकर्ता घरघर जा कर दो पन्नों का हिंदी व मराठी भाषा में छपे पम्पलेट बांटे, जिस का शीर्षक है- मतादाताओं से विनम्र अपील’. इस में राष्ट्र निर्माण, देश की आंतरिक सुरक्षा, विकास वगैरह को ध्यान में रख कर वोट देने की बात लिखी है.

आरएसएस के कार्यकर्ता यह पम्पलेंट देने के साथ ही हर घर के सदस्य से कम से कम 5 मिनट तक बात कर उन्हें भाजपा व महायुति के साथ जुड़ने के लिए प्रेरित करने का काम किया. इस के बाद उम्मीदवार की तरफ से हर घर अपनी व अपने नेता की तस्वीर सहित पोस्टर भिजवाने गए. फिर सभी के पास वोटर पर्ची भिजवाई जिस में उम्मीदवार की तस्वीर के साथ ही मतदान केंद्र पर ले कर जाने वाली जानकारी अंकित थी. जबकि चुनाव आयोग की तरफ से हर वोट के पास जानकारी भेजी जा चुकी थी.

उम्मीदवार ने सड़क पर रैली निकालने के साथ ही हर इमारत / सोसायटी के गेट पर रूक कर लोगों से बात की, कुछ सोसायटी के सदस्यों ने गेट पर उस उम्मीदवार की आरती भी उतारी. मतदान से एक दिन पहले 19 नवंबर को आरएसएस के कार्यकर्ता घरघर जा कर सभी से वोट डालने का निवेदन किया. मतदान वाले दिन आरएसएस कार्यकर्ता सुबह 9 बजे और फिर दोपहर 2 बजे घरघर पहुंच कर पूछा कि वोट दिया या नहीं और जिस ने उस वक्त तक नहीं दिया था, उस से कहा कि आप हमारे साथ चले और अपने हक का उपयोग करें.

आरएसएस कार्यकर्ता सिर्फ भाजपा उम्मीदवार ही नहीं बल्कि एकनाथ शिंदे और अजीत पवार के दल के उम्मीदवार के क्षेत्र में भी इसी तरह सक्रिय रहे. इसी के साथ शहरी क्षेत्रों में कुछ भाजपा उम्मीदवारों ने मास कम्युनिकेशन की पढ़ाई कर चुके लड़केलड़कियों को अपना पीआरओ बना कर घरघर भेजा. मजेदार बात यह है कि इन में से कई तो महज 228 या 500 वोट से जीत गए.

इस के विपरीत कांग्रेस, शिवसेना उद्धव गुट और एनसीपी शरद पवार गुट के उम्मीदवार तो सिर्फ अपने बडे़ नेताओं की रैली में जुट रही भीड़ के बल पर जीत जाने के भ्रम में बैठे रहे. यह सभी पैरासाइट्स / परजीवी ही कहे जाएंगे. इतना ही नहीं महाविकास अघाड़ी के नगर सेवक वगैरह भी अपनेअपने औफिसों को शोभायमान करते रहे. इन सभी में अहम ही नजर आता है.

बतौर उदाहरण हम ‘ओवला माजीवाड़ा’ विधान सभा क्षेत्र की बात कर लें. यहां से महयुति की तरफ से एकनाथ शिंदे के शिवसेना गुट के उम्मीदवार प्रताप बाबू राव सरनाइक थे. जिन की टक्कर उद्धव ठाकरे की शिवसेना के उम्मीदवार नरेश मणेरा से थी. मतदान से पहले तक इस क्षेत्र की जनता को पता ही नहीं था कि नरेश मणेरा उम्मीदवार हैं. नरेश मणेरा तो छोड़िए, उद्धव ठाकरे गुट की नगरसेवक तक ने कोई प्रचार नहीं किया. इसी चुनाव क्षेत्र में एक कालोनी है, जहां 40 इमारतें / सोसायटी हैं. इसी कालेनी के अंदर भाजपा और शिवसेना, उद्धव ठाकरे गुट की नगर सेविका का औफिस हैं. भाजपा कार्यालय दिनभर खुला रहता, चहल पहल बनी रहती थी. जबकि उद्धव ठाकरे की शिवसेना का औफिस दोपहर 11 से एक बजे तक और शाम को 6 से 8 बजे तक खुलता, नगरसेविका आ कर बैठती थी. औफिस से बाहर वह खड़ी कभी नजर नहीं आई.

उन्होने इस कालोनी की 40 सोसायटी वालों से भी बात कर शिवसेना, उद्धव गुट के उम्मीदवार को जिताने की बात नहीं की. उम्मीदवार नरेश मणेरा खुद भी किसी से नहीं मिले और न ही तो घर घर वोटर पर्ची ही भिजवाई. ऐसे में आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि आप चुनाव जीत जाएंगे और अब आप दूसरों पर दोष मढ़ रहे हैं. यदि आप वोटरों के बीच नहीं जाएंगे तो आप वोटर की नब्ज कैसे पहचान सकते हैं. अब वह वक्त गया जब बाला साहेब ठाकरे के नाम पर आप घर बैठे चुनाव जीत सकते थे.

इस चुनाव क्षेत्र में प्रताप सरनाइक को 184178 वोट मिले, जबकि नरेश को महज 76020 वोट मिले. यानी कि प्रताप सरनाइक ने 108158 वोटो से जीत हासिल की. यह महज एक उदाहरण है, मगर इस चुनाव के दौरान कांग्रेस पार्टी, शरद पवार की पार्टी और उद्धव ठाकरे की पार्टी के कार्यकर्ता, नगर सेवक आदि इसी तरह से सिर्फ बड़ी रैलियों में नजर आने के अलावा कहीं नजर नहीं आए.

माना कि इन दलों के पास भाजपा की तरह धन बल की कमी है, पर इन के उम्मीदवार, इन के कार्यकर्ता अपने घर से निकल कर आम जनता तक शारीरिक रूप से तो पहुंच कर अपनी बात कह सकते थे. पर ऐसा करना इन लोगों ने अपनी शान के विपरीत समझा. यही वजह है कि अब तक शिवसेना, उद्धव गुट का गढ़ रहा मुंबई की सीटें भी उद्धव ठाकरे नहीं बचा पाए.

क्या रहा स्ट्राइक रेट

अब पहले चुनाव परिणामों के नतीजों का विश्लेषण कर लिया जाए. भाजपा ने 149 सीटों पर चुनाव लड़ा और 132 पर जीत हासिल की, यानी कि भाजपा का स्ट्राइक रेट 89 प्रतिशत रहा. जबकि शिंदे गुट की शिवसेना ने 81 सीटों पर चुनाव लड़ कर 57 पर जीत हासिल की तो इन का स्ट्राइक रेट 70 प्रतिशत रहा, एनसीपी अजीत पवार गुट ने 59 सीटों पर चुनाव लड़ कर 41 सीटें जीत लीं. इन का स्ट्राइक रेट 69 प्रतिशत रहा. कांग्रेस 100 सीटों पर लड़ कर महज 16 सीटें जीती, इन का स्ट्राइक रेट रहा 16 प्रतिशत, शिवसेना, उद्धव ठाकरे गुट 94 सीटों पर लड़ कर 20 सीटें जीती, स्ट्राइक रेट रहा 21.3 प्रतिशत, शरद पवार की एनसीपी 86 सीटों पर लड़ कर केवल 10 पर जीत हासिल की, स्ट्राइक रेट रहा 11.6 प्रतिशत.

शिवसेना, उद्धव गुट ने इसे बेइमानी की जीत व ईमानदारी की हार की संज्ञा दी है. संजय राउत ने ‘सामना’ में लिखा है, ‘‘ महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव के परिणाम आ गए हैं. मगर यह जनमत यानी कि जनादेश नहीं है. महायुति को 230 सीटें मिल सकती हैं, इस पर कौन यकीन करेगा. यह नतीजा विचलित करने वाला है. सरकार के खिलाफ प्रचंड आक्रोश फिर भी इतनी सीटें. कैसे?

महाराष्ट्र की धरती पर बंटेंगे तो कटेंगे जैसे जहरीले प्रचार अभियान के तीर चलाए गए, पर चुनाव अयोग ने कोई आपत्ति नहीं उठाई. अब गर पैसे के बल पर चुनाव जीतना है तो फिर लोकतंत्र को ताला ही जड़ देना होगा और यहां पर केवल अडाणी की पार्टी ही चुनाव लड़ सकेगी.’..वगैरह..वगैरह’.

संजय राउत ने जो कुछ सामना में लिखा है, उस के पीछे उन की अपनी बौखलाहट है, क्योंकि अब उन्हें अहसास हो गया है कि अगली बार वह राज्य सभा नहीं पहुंच पाएंगे. अगर उद्धव ठाकरे अपने दल की हार पर गंभीरता से विचार करें, तो उन्हें पता चलेगा कि इस हार के लिए असली दोषी संजय राउत और उन का बड़बोलापन ही है.

चुनाव के वक्त टिकट बंटवारे को ले कर ‘महायुति’ में भी मतभेद रहे होंगे, मगर वह मतभेद बाहर नहीं आए. जबकि महाविकास अघाड़़ी के यहां टिकट बंटवारे के मतभेद बहुत बड़ा मुद्दा बन कर आम लोगों के सामने आता रहा और यह काम संजय राउत ही कर रहे थे हर मीटिंग के बाद संजय राउत बाहर आ कर बेवजह की बयान बाजी करने के साथ ही मुख्यमंत्री शिवसेना, उद्धव गुट का ही होना चाहिए कि रट लगाते रहे. इस तरह देखा जाए तो उद्धव ठाकरे के लिए संजय रउत ने दुष्मन का ही काम किया, पर उद्धव ठाकरे सच को कब समझ पाएंगे पता नहीं.

इस के अलावा चुनावों के दौरान उद्धव ठाकरे के कुछ बयानों का मतलब यह निकाला गया कि वह भाजपा के साथ जा सकते हैं. मगर उद्धव ठाकरे या संजय राउत की तरफ से इस को ले कर स्पष्टीकरण नहीं दिया गया. इस का खामियाजा भी उद्धव ठाकरे की पार्टी को झेलना पड़ा. इतना ही नहीं बाल ठाकरे की आवाज में एक जोश हुआ करता था, उन के भाषण सुन कर लोग उन की तरफ खिंचते थे. मगर उद्धव ठाकरे या आदित्य ठाकरे की आवाज में वह बात नहीं है. संजय राउत बयानबाजी करने में माहिर हैं, पर वह कुछ ज्यादा ही बड़बोले है, जिस का नुकसान पार्टी को हो रहा है. इस के अलावा जब तक बाल ठाकरे जिंदा रहे, तब तक उद्धव ठाकरे ने पार्टी की राजनीति में बहुत ज्यादा सक्रिय भूमिका नहीं निभाई.

150 चुनाव याचिकाएं होगी दाखिलः जीते हुए विधायक देंगें इस्तीफा ?

चुनाव में बुरी तरह से हारने के बाद कांग्रेस, शरद पवार और उद्धव ठाकरे गुट ने जम कर चुनाव आयोग पर वार किया है और इन का आरोप है कि ईवीएम मशीनों में गड़बड़ी की गई. इसी के चलते इन दलों ने योजना बनाई है कि इन के 150 उम्मीदवार प्रति बूथ 47 हजार रूपए भर कर चुनाव आयोग से वीवीपैट की मिलान कराने के लिए कहेंगे. तो वहीं इस पर विचार किया जा रहा है कि सभी विधायक इस्तीफा दें, इस पर कितना अमल होगा, यह कहना मुश्किल है पर यदि ऐसा हुआ तो चुनाव आयोग पर दबाव जरुर बनेगा.

वायनाड और झारखंड की बजाय महाराष्ट्र पर रहा भाजपा का सारा जोर

महाराष्ट्र में आम राय यही बन रही है कि केंद्र सरकार और भाजपा की सरकारी मशीनरी ने वायनाड और झारखंड की बजाय सारा खेल महाराष्ट्र में किया जिस के पीछे कई वजहें हैं. आरोप लगाए जा रहे हैं कि गुजरात से कंटेनर में भर कर 3400 करोड़़ रूपए महाराष्ट्र ला कर चुनाव में बांटे गए. भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव विनोद तावड़े को मतदान से दो दिन पहले 5 करोड़ रूपए नगद के साथ पकड़ा गया. कहा जा रहा है कि भाजपा ने इस नीति पर काम किया कि ‘झारखंड ले लो और महाराष्ट्र दे दो’.

अब यह आरोप भी लगाए जा रहे हैं कि कांग्रेस पार्टी के अंदर मौजूद कुछ जयचंद तो भाजपा के इशारे पर काम करते हुए कांग्रेस को हराने में अहम भूमिका निभाई. भाजपा के लिए महाराष्ट्र महत्वपूर्ण क्यों है. पहली बात तो इस वक्त 2 लाख करोड़ का धारावी प्रोजेक्ट अहम है. धारावी के रिडेवलपमेंट का कमा अडाणी को दिया गया है और चुनावी सभा में उद्धव ऐलान करते रहे हैं कि चनाव जीतने के बाद उन की सरकार अडाणी से धारावी का प्रोजेक्ट छीन लेगी. अब भला अडाणी दो लाख करोड़ के प्रोजेक्ट को जाने से देने के लिए धन बल सहित हर तरह की मदद भाजपा की की होगी, ऐसे आरोप लग रहे हैं.

इस के अलावा भी महाराष्ट्र में अडाणी के कई प्रोजेक्ट लंबित हैं. दूसरी बात यह है कि भाजपा कुछ समय से देश की आर्थिक राजधानी को मुंबई से अहमदाबाद, गुजरात ले जाने के लिए भी प्रयासरत है. 2014 के बाद कई बड़े प्रोजेक्ट व कई बड़े उद्योगपति महाराष्ट्र से गुजरात पहुंच चुके हैं.

लाड़ली बहना योजना

आज विपक्ष इस बात पर चिल्ला रहा है कि एकनाथ शिंदे की सरकार की 1500 रूपए देने की ‘लाड़की बहना योजना’ ने महायुति को जिता दिया. पहली बात तो हमें इस योजना के चलते दो तीन प्रतिशत से ज्यादा वोटों में फर्क पड़ना नजर नहीं आता. पर अहम सवाल यह है कि इस का फायदा विपक्ष को क्यों नहीं मिला? जबकि उद्धव ठाकरे, शरद पवार आदि ने अपनी चुनावी सभाओं में घोषणा की थी कि वह ‘लाड़ली बहना योजना’ के तहत चुनाव जीतने पर 1500 की बजाय 3 हजार रूपए देंगे, पर महिलाओं ने इन की बातों पर यकीन क्यों नहीं किया. इस की वजह जमीनी सतह पर काम न करना.

जब जुलाई माह में एकनाथ शिंदे की भाजपा समर्थित सरकार ने ‘लाड़ली बहना योजना’ के तहत हर महिला को 1500 रूपए देने की घोषणा की थी और कहा था कि पहली किश्त रक्षा बंधन के अवसर पर दी जाएगी, तो भाजपा, अजीत पवार व शिंदे की पार्टी के कार्यकर्ता औनलाइन फार्म भरने में औरतों की मदद कर रहे थे. पर उद्धव गुट, शरद पवार गुट और कांग्रेस के लोगों ने इस से दूरी बना कर रखी हुई थी. जबकि उस वक्त इन्हें पता था कि यह तो चुनावी छुनछुना है.

ऐसे में इन्हे भी आगे बढ़ कर महिलाओ के फार्म भरने में मदद करनी चाहिए थी. हमें पता है कि उद्धव ठाकरे व कांग्रेस के कार्यकर्ताओं व नगर सेवकों के पास जब महिलाएं गई कि उन का फार्म भरवा दें, तो इन लोगों ने मदद नहीं की, बल्कि यह कह कर चलता कर दिया कि भाजपा के कार्यायल में जाएं. जबकि फार्म तो इंटरनेट पर भरने थे. अगर शिवसेना, कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने भी अपने क्षेत्र के मतदाता महिलाओं के फार्म भरवाए होते तो उन्हें भी रकम मिलती और अब यकीन करते कि कांग्रेस व उद्धव की सरकार आने पर उन्हें 1500 से बढ़ा कर 3 हजार मिलेंगें पर ऐसा नहीं हुआ.

‘बंटेंगे तो कटेंगे’ का सही जवाब देने में विपक्ष रहा असफल

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ ने नारा दिया था कि ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ जिस से वह समाज में हिंदू मतों का धुरीकरण कर सके, जिस में वह सफल रहे. इस के जवाब में कांग्रेस ने कहा, ‘एक हैं तो सेफ हैं.’’ पर योगी आदित्यनाथ के नारे के जवाब में विपक्ष मतदाताओं को समझाने में असफल रहा कि ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ की बात करने वाले ही किस तरह समाज को बांटने का काम कर रहे हैं.

प्रचार में आक्रामता का अभाव

इस के अलावा विपक्षी पार्टियां आम मतदाता, किसानों की समस्याओ को सही ढंग से उठाने में विफल रहीं. यह लोग महंगाई के मुद्दे पर खामोश ही रहे. कांग्रेस चुनाव प्रचार के दौरान आक्रामक नहीं रही. आखिर संविधान की दुहाई देने और खुद को ‘राष्ट्र प्रहरी’ बताने वाली कांग्रेंस ने कैसे धर्म की अफीम चटाने वालों का सच जनता तक नहीं पहुंचा पाई, इस पर गहन विचार करने की जरुरत है.

वास्तव में कांग्रेस के अंदर ही बैठे नाना पटोले व वेणुगोपाल जैसे ही जय चंद हैं. यह तो सिर्फ मुख्यमंत्री बनने के लिए ताल ठोकते रहे, पर वोटरों को कांग्रेस के पक्ष में लाने की दिशा में कोई काम नहीं किया. सब कुछ राहुल गांधी के भरोसे रहे. उद्धव ठाकरे की सब से बड़ी गलती यह रही कि इस चुनाव के दैारान वह खुद चेहरा नहीं बने. उन की पार्टी के तमाम उम्मीदवारों के पोस्टरों में उद्धव व बाल ठाकरे का चेहरा प्रमुख नहीं रहा. इन्हें एकनाथ शिंदे से कुछ तो सीखना चाहिए. रिजल्ट आने के बाद दूसरे दिन विजयी बनाने के लिए मतदाताओं को धन्यवाद देने के विज्ञापन में एकनाथ शिंदे ने खुद को केंद्र में रखा. अपने अगलबगल में अजीत पवार व देवेंद्र फड़नवीस की छोटी तस्वीर रखी और बाला साहेब ठाकरे तथा मोदी की तस्वीर को उपर बड़े आकार में दिया. इस तरह उन्होने मुख्यमंत्री के तौर पर अपनी दावेदारी भी ठोक दी.

ज्योतिषी की भविष्यवाणी भी कांग्रेस को रही डुबा

कांग्रेस को डुबाने में एक मशहूर ज्येातिषी की भी अहम भूमिका की तरफ कुछ लोग इशारा कर रहे हैं. इन दिनों एक यूट्यूब चैनल पर हर रविवार कांग्रेस व राहुल गांधी के ग्रहों की बात कर उन्हें 2024 के हर चुनाव में प्रचंड जीत हासिल होने व मोदी के बुरे वक्त की भविष्यवाणी करते रहे हैं.

लोकसभा चुनाव से ले कर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा के चुनावों में भी उन्होंने कांग्रेस के ही विजय होने की बात कही थी. पर उन की भविष्यवाणियां गलत निकली, तो सफाई में कह दिया कि फलां ग्रह की वजह से ईवीएम का खेल हो गया. महाराष्ट्र व झारखंड चुनाव से पहले भी इस ज्येतिषी ने कांग्रेस गठबंधन को पूर्ण बहुमत दिलाया था. अब फिर वह ईवीएम पर सारा दोष मढ़ेगें. कांग्रेस, शरद पवार व उद्धव ठाकरे को कम से कम ऐसे ज्योतिषियों के मायाजाल में फंसने से बचना चाहिए.

शरद पवार, प्रियंका चतुर्वेदी और संजय राउत के लिए राज्यसभा का रास्ता बंद

अब जो महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव के परिणाम आए हैं, उन के चलते अब शरद पवार, प्रियंका चतुर्वेदी और संजय राउत के लिए राज्यसभा की राह पकड़ना मुश्किल हो गया. शरद पवार व प्रियंका चतुर्वेदी का राज्यसभा का कार्यकाल 3 अप्रैल 2026 के तथा संजय राउत का कार्यकाल 1 जलुाई 2028 को खत्म होगा. पर अब विधान सभा में ‘महायुति’ के पास इतनी ताकत नहीं रही कि वह इन्हें राज्यसभा में भेज सके.

 

बौक्स आयटम
कहीं 75 तो कहीं 377 वोटों से हुई जीत

बुलढाणा विधानसभा सीट पर एकनाथ शिंदे की शिवसेना के गायकवाड संजय रामभाऊ ने महज 841 वोटों से शिवसेना (यूबीटी) की महिला प्रत्याशी जयश्री सुनील शेलके को हराया.

मलेगांव सेंट्रल में ओवैसी की पार्टी औल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के प्रत्याशी मुफ्ती मोहम्मद इस्माइल अब्दुल खलीके ने इंडियन सेकुलर लार्जेस्ट असंबेली औफ महाराष्ट्र के प्रत्याशी आसिफ शेख रशीद को 75 वोटों से हराया.
औरंगाबाद पूर्व से भाजपा प्रत्याशी अतुल मोरेश्वर सेव ने सिर्फ 2161 वोटों से चुनाव जीता.
बेलापुर सीट पर भाजपा की मंदा विजय म्हात्रे ने शरद पवार की पार्टी के प्रत्याशी संदीप गणेश नाईक को 377 वोटों से हराया.
करवी विधानसभा सीट पर शिवसेना के चंद्रदीप शशिकांत सिर्फ 1976 वोटों से विधायक बने.
शाहपुर से एनसीपी के दौलत भीका दरोदा ने 1672 वोटों से जीते
अंबेगांव से दिलीप दत्तात्रेय पाटिल ने 1523 मतों से जीत हासिल की.
जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई से शिवसेना (यूबीटी) के अनंत ने 1541 वोटों से जीत हासिल की.
वर्सोवा से हारून खान ने 1600 से जीत पक्की की.
माहिम, मुंबई से महेश बलिराम सावंत 1316 मतों से सीट अपने कब्जे में की.
नवापुर से कांग्रेस प्रत्याशी शिरीश कुमार नाईक ने 1121 सीट हासिल की.
अकोला पूर्व, मुंबई से साजिद खान 1283 वोटों से जीते.
कर्जत जामखेड से एनसीपी (एसपी) के रोहित पवार 1243 मतों से जीते.

10 सीटों पर 5 हजार से कम अंतर से जीता महाविकास अघाड़ी.
भाजपा ने 9 सीटों पर 5 हजार मतों से कम के अंतर से चुनाव जीता
शिवसेना, शिंदे गुट की 6 और अजित पवार की एनसीपी ने 4 सीटों पर 5 हजार से कम मतों से जीत हासिल की.

एक लाख से अधिक मतों से जीतने वाले प्रत्याशी
शिरपुर से भाजपा के आशीराम वेचन पवारा ने 1,45,944 मतों से चुनाव जीता.
बागलान से भाजपा के दिलीप मंगलू बोरसे ने 1,29,297 मतों से चुनाव जीता.
चिंचवाड़ सीट से भाजपा के जगताप शंकर पांडुरंग 103865 मतों से जीते.
बोरीवली, मुंबई से भाजपा के संजय उपाध्याय 1,00,257 मतों से जीते.
कोथरुड से भाजपा के चंद्रकांत पाटिल ने 1,12,041 मतों से जीत दर्ज की.
सतारा से भाजपा के शिवेन्द्रराजे अभयसिंहराजे भोंसले ने 1,42,124 मतों से चुनाव जीता.
मालेगांव आउटर से शिवसेना प्रत्याशी दादाजी दगडू भूसे ने 1,06,606 मतों से जीत दर्ज की.
ओवाला माजीवाड़ा से शिवसेना के प्रताप बाबूराव सरनाईक 1,08,158 मतों से जीते.
कोपरी – पचपाखड़ी से सीएम एकनाथ शिंदे ने 1,20,717 मतों से चुनाव जीता.
बारामती से अजित पवार ने 1,00,899 मतों से जीत दर्ज की.
मावल से एनसीपी के सुनील शंकरराव शेलके ने 1,08,565 मतों से जीत दर्ज की.
कोपरगांव से एनसीपी के आशुतोष अशोकराव काले 124624 मतों से जीते.
पर्ली से एनसीपी के धनंजय मुंडे 140224 मतों से जीते.

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