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Romantic Story : पेइंग गैस्ट – कैसा खेल दिलीप और मिताली खेल रहे थे

Romantic Story : 19 साल का दिलीप शहर में पढ़ाई करने आया था ताकि अपने मांबाप के सपनों को साकार कर सके. कहने को तो यह शहर बहुत बड़ा था, हजारों मकान थे पर दिलीप को रहने के लिए एक छत तक भी न मिल सकी.

एक कुंआरे लड़के को कौन किराएदार रखने का जोखिम उठाता? दरदर भटकने के बाद आखिरकार उसेbbhtgf      कर गया. एक लायक बेटे की तरह वह मिसेज कल्पना की सेवा कर रहा था. एक दिन वह अस्पताल से घर लौट रहा था कि बारिश शुरू हो गई. बारिश तेज होती जा रही थी. दिलीप जल्दी से जल्दी घर पहुंचना चाहता था ताकि किताबें भीगने से बच जाएं.

जैसे ही वह घर पहुंचा तो दरवाजा खुला देख चौंक गया. वह घर के भीतर दाखिल हुआ तो आंगन का नजारा देख कर अपनी सुधबुध भूल गया. मिताली लहंगाब्लाउज पहने बरसात के पानी में नहा रही थी. भीगे कपड़ों में उस का सौंदर्य और भी गजब ढा रहा था. यही वजह थी कि दिलीप एकटक मिताली को निहारता रह गया. इतने करीब से जब दिलीप ने मिताली के आकर्षक बदन को भीगते हुए देखा तो जैसे उस की धमनियों में बह रहा रक्त उबाल खाने लगा हो.

‘‘तुम… तुम कब आए?’’ दिलीप को सामने पा कर मिताली चौंकते हुए बोली. उस ने कोई जवाब नहीं दिया. एकटक वह अपनी लाललाल आंखों से मिताली की भीगी देह का अमृत पी रहा था. मिताली की नजरें दिलीप की शोले जैसी दहकती आंखों से मिलीं तो उस के बदन में भी झुरझुरी होने लगी.

लज्जावश उस का गोराचिट्टा चेहरा गुलाबी पड़ता गया. न जाने ऐसा क्या हुआ कि मिताली अपनी जगह खड़ी न रह सकी. दौड़ कर वह दिलीप के चौड़े सीने से जा लगी. दिलीप खुद पर काबू नहीं रख पाया और उस ने बलिष्ठ बांहों के घेरे में मिताली को कस कर जकड़ लिया और अपने तपते होंठ उस के लरजते होंठों पर रख दिए. मिताली ने कोई प्रतिकार नहीं किया.

देह के इस महासंग्राम में दोनों युवा तन देर तक गोते लगाते रहे. जब वासना का ज्वार थमा तो दोनों एकदूसरे से नजरें चुराते हुए अपनेअपने कमरे में चले गए.

‘तू ने यह क्या किया दिलीप? जिस औरत ने तुझे बेटा समझ कर अपने घर में रखा उसी घर की बहू के जिस्म पर तू ने डाका डाल दिया,’ दिलीप अपने ही सवालों में उलझ गया. ‘पहल मैं ने कहां की? मिताली खुद ही मेरी बांहों में आ कर समा गई तो मैं क्या करता? देहसुख के उफान के आगे अच्छेबुरे का सवाल ही कहां रह जाता है?’ दिलीप ने मानो अपना पक्ष रखा.

उधर मिताली अभी भी सामान्य नहीं हो पाई थी. आज एक अनजान पुरुष के संसर्ग में उसे अकल्पनीय सुख की प्राप्ति हुई थी. ऐसा आनंद तो उसे आज तक उस का कारोबारी पति भी नहीं दे पाया था. उस ने विचारों को झटका और कपड़े बदल लिए. फिर चाय बनाई और टे्र में एक कप रख कर दिलीप को देने चली आई. दिलीप सोने की तैयारी में था. मिताली को सामने खड़ा पा कर वह हड़बड़ा गया.

‘‘लो, चाय पी लो. पानी में इतनी देर भीगने के बाद चाय पीना ठीक रहता है,’’ मिताली ने कप आगे बढ़ाते हुए मुसकरा कर देखा. सचमुच चाय अच्छी बनी थी. रात के खाने में मिताली ने उस की मनपसंद करेले की सब्जी बनाई थी. न जाने कैसे मिताली को उस की पसंदनापसंद का पता चल गया. यहां तक कि दाल, सब्जी, मिठाई में उसे क्याक्या पसंद है, उस की बाकायदा लिस्ट मिताली ने बना रखी थी.

एक रात वह दूध का गिलास ले कर कमरे में आ गई. दिलीप को गरमी लग रही थी. उस ने ज्यादातर कपड़े खोल रखे थे. अचानक मिताली को सामने पा कर उस ने तौलिया उठा लिया. यह देख कर मिताली जोर से हंस पड़ी. निर्झर झरने सरीखी हंसी कानों में मिसरी घोल रही थी. पारदर्शी गाउन में मिताली किसी अप्सरा जैसी नजर आ रही थी. गिलास मेज पर रख कर वह पलंग पर ही बैठ गई और अपने हाथों से दिलीप के बालों को सहलाने लगी. दिलीप इतना भोला नहीं था जो किसी स्त्री के मनोभावों को न समझ पाता.

उस रात दोनों ने जीभर कर देहसुख भोगा. पूरे घर में वे दोनों अकेले और रात की तनहाई का सहारा, ऐसे में कोई कसर कैसे रह पाती. 2-3 दिन में मिसेज कल्पना अस्पताल से स्वस्थ हो कर घर लौट आईं. ‘‘बेटा, तू तो मेरे सगे बेटे से भी बढ़ कर निकला,’’ अपनी सेवा से खुश मिसेज कल्पना ने उसे ढेरों असीस दे डालीं.

दिलीप और मिताली को लगा कि मांजी के घर लौट आने के बाद वे शायद अब नहीं मिल सकेंगे. पर देह की भाषा जब देश की दूरियां तक लांघ जाती है तो फिर यहां एक ही घर में रजामंदी के साथ मिलने में क्या मुश्किल आती. अब तो हालत यह थी कि जब दिल करता दिलीप मिताली को अपने कमरे में बुला लेता और उस के साथ देह की तृष्णा पूरी करता. उधर मिताली भी इस सुख का उपभोग करने में पीछे नहीं थी.

पति की अनुपस्थिति में किसी युवा स्त्री की देह जो सुख चाहती है, दिलीप वह सुख मिताली को प्रदान कर रहा था. देहसुख के भोग में दोनों शायद यह बात भूल गए कि सुख हमेशा अकेला नहीं आता, अपने साथ दुख भी ले कर आता है.

मिताली के समर्पण ने दिलीप को निरंकुश बना दिया. वह हरदम मनमानी करने लगा. मिताली उस के लिए जिस्म की भूख मिटाने वाली महज मशीन बन कर रह गई. भावना की जगह अधिकार हावी होने लगा. दिलीप एक पति की तरह हुक्म दे कर उस से बात करता. एक बार तो उस ने हाथ भी उठा दिया. ‘‘मुझे लगता है, मुझे गर्भ ठहर गया है,’’ एक रोज मिताली ने कहा तो दिलीप जैसे आसमान से गिरा. मौजमजे के लिए बनाए गए संबंध में ऐसे मोड़ की कल्पना उसे नहीं थी.

‘‘मैं दवा ला दूंगा. अगर बच्चे के पेट में होने की बात सामने आ गई तो हम कहीं के नहीं रहेंगे,’’ दिलीप झुंझला कर बोला. इस बार तो गोलियों से बात बन गई पर गर्भ ठहरने का डर हमेशा बना रहा. अब उन के मिलन में वह पहले जैसी गरमाहट भी नहीं रह गई थी. दोनों के लिए संबंध बोझ में तबदील हो चुका था.

कहीं न कहीं मिसेज कल्पना की अनुभवी आंखें भी ताड़ गईं कि घर में उन की नाक के नीचे क्या गुल खिलाए जा रहे हैं. उधर दिलीप जब से इस चक्कर में पड़ा था उस की पढ़ाईलिखाई पूरी तरह चौपट हो गई थी. एक रात जब वह नाइट लैंप की रोशनी में पढ़ रहा था तो मिताली उस के कमरे में आ गई. उस ने लैंप का स्विच औफ किया तो दिलीप चीख पड़ा, ‘‘यह क्या तमाशा है? जा कर अपना काम करो और मुझे पढ़ने दो.’’

मिताली यह सुन कर हक्कीबक्की रह गई. उसे पहली बार महसूस हुआ कि पति की गैरमौजूदगी में किसी गैर मर्द के साथ संबंध बना कर उस ने कितनी बड़ी भूल की है. ‘नहीं, अब वह इस दलदल में और नहीं गिरेगी, जो होना था हो गया. यह संबंध अंधे कुएं में गिरने के समान है. मुझे कुएं में नहीं गिरना,’ मिताली ने मन ही मन निर्णय लिया.

उस ने फोन कर के अपने पति को जल्दी आने को कह दिया ताकि यह किस्सा विराम ले सके. दिलीप भी जितना जल्दी हो सके इस संबंध के बोझ को सिर से हटाने के बारे में सोच चुका था. मिलने की पहल रजामंदी से हुई तो अलग होने के लिए भी परस्पर रजामंदी काम आई. दिलीप ने बहाना बना कर घर छोड़ दिया. जीवन में घटे इस घटनाक्रम को दोनों पक्ष एक स्वप्न समझ कर भुलाने की कोशिश करने लगे.

Hindi Story : औरत का रूप – क्या शादी के बाद मुमताज के सपने पूरे हुए?

Hindi Story : आखिरकार मुमताज ने एक दिन अपनी सास से अपने मन की बात कह ही दी, ‘‘अम्मी… जब से मैं शादी कर के आई हूं, तब से ये रोज रात में कहीं निकल जाते हैं और सुबह को ही घर लौटते हैं… और मुझे हाथ भी नहीं लगाते… मैं शादी से पहले जैसी थी, वैसी ही आज भी हूं.’’

‘‘अच्छा… थोड़ा मूडी तो है मेरा बेटा… और फिर कामधंधे का भी तनाव रहता है उस पर. ऐसे में एक बीवी की जिम्मेदारी होती है कि वह घर के साथसाथ अपने शौहर को भी संभाले. अगर शौहर उस पर किसी वजह से ध्यान नहीं दे रहा है, तो अपनी अदाओं से उसे रिझाए और शौहर की मरजी के हिसाब से चल कर उसे खुश रखे.’’

अब्दुल की अम्मी बातोंबातों में मुमताज को रास्ता दिखा गई थीं.

आज शाम को जब अब्दुल घर आया, तो मुमताज ने होंठों पर गहरे रंग की लिपस्टिक लगाई हुई थी और मैरून रंग का लिबास पहना हुआ था.

मुमताज को देखते ही अब्दुल को भी यह अहसास हो गया था कि आज वह कुछ अलग लग रही है, इसलिए जब अब्दुल बाथरूम से नहा कर निकला तो उस ने मुमताज को अपनी बांहों में भर लिया और होंठों से अपने इश्क की छाप उस के जिस्म पर लगाने लगा.

मुमताज का कुंआरा जिस्म धधक उठा था और आंखें मदहोशी से मुंदने लगीं. दोनों के जिस्म एकदूसरे में समाने को बेताब थे.

अब्दुल ने मुमताज के ऊपरी कपड़े भी हटा दिए. शर्म से मुमताज ने अपने हाथों से कैंची बना कर अपने गोरे उभारों को ढक लिया, पर इस कोशिश में वह नाकाम रही, क्योंकि उस के हाथों को अब्दुल ने खोल दिया था और अब हुस्न का ज्वालामुखी अब्दुल के सामने था.

अब्दुल ने अपने होंठ आगे बढ़ाए, पर  इतने में अब्दुल का मोबाइल बज उठा. ऐसे वक्त किसी का भी फोन आना अब्दुल को अखर रहा था, ‘‘अरे मुमताज, थोड़ा काम याद आ गया है… अभी निबटा कर आता हूं.’’

‘भला अपनी नई दुलहन को इस तरह छोड़ कर जाता है कोई… और फिर ये इस तरह से कहां चले जातें हैं,’ गहरी सोच में पड़ गई थी मुमताज.

अगली सुबह तकरीबन 9 बजे की बात है, जब मुमताज अपने कमरे से बाहर आ रही थी, तो उस ने बरामदे में नौकरानी सबरीना और अब्दुल को एकसाथ खड़े हुए देखा. वे दोनों बहुत धीमी आवाज में एकदूसरे से बातें कर रहे थे.

उसी समय अब्दुल ने अपनी जेब से कुछ पैसे निकाले और सबरीना को दिए और सबरीना ने जल्दी से वे पैसे अपनी कुरती में रख लिए.

मुमताज एक पल को ठिठक गई थी. क्या अब्दुल और सबरीना के बीच कुछ चल रहा है?

‘अरी मुमताज, जिस नेकदिल शौहर ने अपने काम के आगे अभी तक तेरे कुंआरे जिस्म को छुआ तक नहीं है, वह भला एक नौकरानी के साथ… तू भी न जाने क्याक्या सोच लेती है…’ अपने सिर को झटक कर अब्दुल की तरफ मुसकराते हुए बढ़ गई मुमताज.

एक दिन मेज पर कुछ कागजात सही करतेकरते एक पुरानी किताब नीचे गिर गई और उस में से एक तसवीर बाहर निकल गई. मुमताज की नजर उस तसवीर पर टिकी तो हटी ही नहीं. हटती भी कैसे… यह तो उस के शौहर अब्दुल की तसवीर है, जो सिर पर सेहरा बांधे किसी और के साथ है… मतलब, अब्दुल की शादी पहले भी किसी और से हो चुकी है?

आंखों में आंसुओं का सैलाब ले कर मुमताज दौड़ीदौड़ी अपनी सास के पास पहुंची, ‘‘अम्मी, यह क्या… यह इन के साथ कौन है? क्या अब्दुल पहले से ही शादीशुदा हैं?’’ एकसाथ कई सवाल मुमताज के जेहन में घूम रहे थे.

‘‘बेटी मुमताज, हम ने तुम से यह राज जरूर छिपाया है, पर यकीन मानो हमारी मंशा कुछ भी गलत नहीं थी. अब्दुल का निकाह जिस लड़की से हुआ था, वह दिमागी रूप से बीमार थी. उस के घर वालों ने अपने सिर की बला टालने के लिए हम से झुठ बोल कर अब्दुल के साथ अपनी लड़की को बांध दिया.’’

‘‘पर अम्मी, जो धोखा आप के साथ हुआ, वही आप लोगों ने मेरे साथ दोहरा दिया. आप लोगों ने हम से यह बात क्यों छिपाई? हमें यह बताने की जरूरत ही नहीं समझ गई कि अब्दुल का बीता समय ऐसे हादसे से भरा रहा है और क्या अब आप लोगों का इस तरह राज छिपाना मेरे और अब्दुल के बीच तलाक की वजह नहीं बन सकता है…’’

‘‘मुमताज बेटी… तुम्हारा गुस्सा जायज है, पर जरा यह भी तो सोचो कि अब उस लड़की का अब्दुल की जिंदगी में कोई वजूद नहीं है. वह लड़की एक दिन पता नहीं घर छोड़ कर कहां चली गई. हम लोगों ने चारों तरफ उसे बहुत ढूंढ़ने की कोशिश की, पर वह नहीं मिली…’’

अब्दुल की अम्मी ने लंबी सांस ले कर बोलना जारी रखा, ‘‘वह तो भला हो डाक्टर खान का, जिन्होंने इस हादसे से उबरने में अब्दुल की मदद की. अब अगर तुम उसे छोड़ कर जाना चाहती हो तो जा सकती हो… मेरे अब्दुल के नसीब में औरत का साथ ही नहीं है शायद,’’ अम्मी की आंखों में आंसू तैर आए थे.

मुमताज अपने कमरे में लौट आई और अपनेआप को घर के कामों में मसरूफ कर लिया.

‘‘बेटी मुमताज… मैं ने तुम्हें डाक्टर खान के बारे में बताया था न, जिन्होंने अब्दुल का इलाज किया था… उन से हमारे घरेलू संबंध हैं और वे लोग आज शाम को हमारे घर खाने पर आ रहे हैं,  इसलिए कुछ अच्छा सा बना लेना,’’ अम्मी ने कहा.

‘‘जी अम्मी, ठीक है… मैं सब संभाल लूंगी.’’

दिनभर किचन की मेहनत के बाद शाम को खाने की मेज पर जब उस के बनाए खाने की तारीफ होने लगी, तो मुमताज के दिल को सुकून मिला.

‘‘अरे मुमताज, जरा हमारे साथ भी तो बैठ लो,’’ मिसेज खान कहतेकहते उठ कर किचन में आ गई थीं.

‘‘प्यार तो खूब करता होगा अब्दुल तुम्हें?’’ मिसेज खान ने पूछा.

‘‘जी, अभी तो इन्हें काम में ही काफी देर हो जाती है और फिर मेरे पास भी काफी काम रहता है… ऐसे में…’’ आगे की बातों को मुमताज ने मन में ही रोक लिया था.

‘‘अच्छा तो यह बात है… कोई बात नहीं, मैं तुम्हें ऐसे नुसखे बताती हूं, जिन से तू अपने शौहर के दिल पर राज करेगी,’’ मिसेज खान ने मुमताज को अपने शौहर को बस में रखने के गुर बताए.

पहली ही मुलाकात में मिसेज खान ने मुमताज के मन को मोह लिया था और दोनों ने एकदूसरे के ह्वाट्सएप नंबरों को भी ले लिया था.

एक शाम को अब्दुल की गाड़ी की आवाज आई, तो मुमताज की नजर गेट के बाहर चली गई. उस ने देखा कि अब्दुल के साथ कोई साथी सवारी थी, जो औरत थी. उस ने अपने मुंह पर कपड़ा लपेटा हुआ था. वह औरत अब्दुल की गाड़ी से उतर कर एक कैब की ओर बढ़ गई.

‘तो मेरा शक सही था… अब्दुल का जरूर किसी के साथ चक्कर चल रहा है…’ मुमताज अब्दुल की अम्मी के पास गई और बोली, ‘‘अम्मी, मेरा शक सही था… मैं ने इन के साथ एक औरत को देखा है. जो इन की गाड़ी से उतर कर जा रही थी.’’

‘‘अरी मुमताज, तू बेवजह शक कर रही है. मेरा बेटा बहुत रहमदिल है, इसलिए महल्ले में रहने वाली किसी औरत को उस ने बिठा लिया होगा…’’ अम्मी ने सिरे से ही मुमताज की बात खारिज कर दी.

मुमताज परेशान हो उठी. वह जानती थी कि यह बात अम्मी ने अभी तक मानी नहीं और मायके में भी बताने से कोई फायदा नहीं होगा…

रात में जब अब्दुल आया, तो मुमताज ने उसे बताया कि उस के अब्बू की तबीयत अचानक खराब हो गई है और इसलिए उसे 2 दिन के लिए अपने मायके जाना पड़ेगा.

उस की इस बात पर अब्दुल ने ऐंठ कर कहा कि उस के पास समय नहीं है, इसलिए वह अम्मी के साथ चली जाए.

मुमताज का मायका इसी शहर में था, इसलिए वह अम्मी को ले कर चली गई.

मुमताज और अम्मी के मायके जाने के बाद अब्दुल किसी को मोबाइल पर फोन करने लगा, ‘‘हां सुनो… आज मुमताज और अम्मी दोनों बाहर गई हैं और वह भी पूरे 2 दिन के लिए… ऐसा करो, तुम अभी आ जाओ… हम दोनों खूब जम कर मस्ती करेंगे… और हां, अपने हाथ की बनी बिरयानी जरूर लाना…’’

कुछ देर बाद ही अब्दुल के घर पर कोई औरत आ गई, जिसे अब्दुल ने अपनी बांहों में भर लिया और उस के पूरे जिस्म को चूमने लगा.

‘‘अरे, इतनी भी क्या जल्दी है… पहले बिरयानी तो खा लो…’’ उस औरत ने कहा.

‘‘जिस की आंखों के सामने तुम्हारे जैसी लाजवाब गोश्त वाली हूर हो, वह भला ये बिरयानी क्यों खाएगा…’’ यह कहने के साथ ही अब्दुल ने उस औरत के कपड़ों को उतारना शुरू कर दिया और कुछ ही देर में वे दोनों एकदूसरे में समा जाने की पुरजोर कोशिश कर रहे थे. अब्दुल ने उस औरत के साथ कई बार अपनी प्यास बु?ाई.

‘‘तुम्हें मुझ में ऐसा क्या दिख गया, जो तुम ने मुझे अपना जिस्म सौंप दिया?’’ अब्दुल ने उस औरत से सवाल किया.

‘‘मेरे शौहर दिनभर मेहनत कर के आते हैं और जल्दी ही सो जाते हैं,’’ उस औरत ने बेशर्मी से हंसते हुए कहा.

अब्दुल उस औरत के इश्क में डूबउतर ही रहा था कि अचानक से दरवाजे की घंटी बजी, तो अब्दुल चौंक गया, ‘‘भला इस समय कौन हो सकता है?’’

अब्दुल ने एक चादर अपने बदन पर डाली और दरवाजा खोला, तो सामने मुमताज को देख कर चौंक गया, ‘‘तुम… पर, तुम तो 2 दिन के लिए गई थीं न, आज तो पहला दिन ही हुआ है.’’

‘‘पर, तुम हमें देख कर परेशान क्यों हो रहे हो… जरा अंदर तो आने दो.’’

तभी अंदर से आवाज आई, ‘‘अरे क्या हुआ जानू, कौन है जो हमारा मजा खराब कर रहा है?’’

‘‘मैं बताती हूं कि कौन है…’’ इतना कह कर मुमताज अंदर चली गई. अंदर कमरे में बिस्तर पर और कोई नहीं, बल्कि मिसेज खान लेटी हुई थीं.

मिसेज खान के ऊपर के शरीर पर एक भी कपड़ा नहीं था. मुमताज को सामने देख कर वे चौंक गई थीं और जल्दबाजी में कपड़े पहनने लगीं.

‘‘तो तुम ही हो, मेरे शौहर के बिजी होने की वजह. तुम्हें मेरा घर तोड़ते हुए शर्म नहीं आई…’’ यह कहते हुए मुमताज ने अपना मोबाइल निकाल लिया था और मिसेज खान की वीडियो क्लिप बनाने लगी.

‘‘अच्छा हुआ जो तुम सब जान गई हो… अब्दुल, तुम देख क्या रहे हो… पकड़ो इस को और मिट्टी का तेल डाल कर आग लगा दो इस के बदन में… अब हमें इस का भी वही हाल करना पड़ेगा, जो हम ने तुम्हारी पहली बीवी का किया था,’’ मिसेज खान की यह बात सुन कर चौंक गई थी मुमताज.

‘‘तो तुम क्या सोच रही हो कि मेरी पहली बीवी पागल थी. नहीं, वह तो तुम से भी ज्यादा खूबसूरत थी. बस, उस की गलती यही थी कि उस ने हमें रंगरलियां मनाते हुए देख लिया था…’’

मुमताज के हाथों में मोबाइल का कैमरा अब भी सबकुछ रिकौर्ड कर रहा था.

तभी अब्दुल ने एक डंडा मुमताज के सिर पर दे मारा. मुमताज की आंखों के सामने अंधेरा छा गया और वह फर्श पर बेहोश हो कर गिर गई.

मुमताज को कितनी देर बाद होश आया था उसे याद नहीं, पर जब होश आया तो उस ने अपनेआप को बिस्तर पर पाया और आंखों के सामने अम्मी थीं.

अम्मी उसे देख कर मुसकरा उठीं, ‘‘अब चिंता की कोई बात नहीं है मुमताज. भले ही तुम मेरी बहू हो, पर मेरे लिए अब्दुल से बढ़ कर हो… अब्दुल और उस चुड़ैल को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है.’’

‘‘पर अम्मी, वे लोग तो मुझे मार कर जलाने जा रहे थे, फिर आप यहां कैसे पहुंच गईं?’’ मुमताज ने पूछा.

‘‘मुमताज, अब्दुल ने अपनी पहली बीवी को मार कर मुझे झुठी कहानियां सुनाई थीं और मुझे भी उस की बातों पर यकीन हो गया था, पर तुझ से निकाह करने के बाद भी उस ने तुम में बेरुखी ही दिखाई, तभी मेरी पारखी आंखों ने अब्दुल के बदलते मिजाज को भांप लिया था, पर मिसेज खान ही मेरे बेटे को अपने कब्जे में कर के अपना मुंह काला करेंगी, यह मैं ने ख्वाब में भी नहीं सोचा था.’’

‘‘पर अम्मी, मिसेज खान तो शादीशुदा हैं और फिर उन के शौहर शहर के एक अच्छे डाक्टर हैं, फिर उन्होंने अब्दुल के साथ ऐसा क्यों किया?’’ मुमताज ने पूछा.

‘‘क्या बताऊं मुमताज, अगर औरत अपने जमीर को ऊंचा उठाती है, तो वह आसमां की बुलंदियों को छू लेती है. वह अच्छी मां बनती है, अच्छी बहन बनती है और अच्छी बीवी भी बनती है और अगर वह नीचे गिरती है, तो गड्ढे में गिरती ही चली जाती है और मिसेज खान बन जाती है…’’औरत का एक रूप यह भी होता है.

Relationship : पूतसपूत तो क्यों धन संचय

Relationship : सवाल वाकई बहुत पेचीदा है कि पैसा अपने शौक पूरे करने खर्च किया जाए या संतान के लिए छोड़ दिया जाए. कहना बहुत आसान और तात्कालिक प्रतिक्रिया है कि अपने शौक पूरे किए जाएं लेकिन इस पर अमल 10 फीसदी से भी कम पेरैंट्स नहीं कर पाते क्योंकि….

ऐसी धारणा है कि यह कहावत बहुत पुरानी है लेकिन इस का प्रमाणिक और घोषित उल्लेख सब से पहले 30 के दशक के मशहूर साहित्यकार मधुशाला के रचयिता और अभिनेता अमिताभ बच्चन के पिता डाक्टर हरिवंश राय बच्चन के खंड काव्य `विरासत` में मिलता है. लेकिन इस से इस कहावत की लोकप्रियता और प्रासंगिकता पर कोई असर नहीं पड़ता. हर कोई मानता है कि बात जिस ने भी कही हो सौ फीसदी खरी और तजुर्बों के तराजू पर तुली हुई है.

लेकिन इस कहावत पर लोग अगर अमल करते होते तो शायद पेरैंट्स और बच्चों का रिश्ता बहुत ज्यादा परवान नहीं चढ़ता और न ही उस में पारिवारिक, सामाजिक और कानूनी झंझटें होतीं. ऐसी खबरें भी हर कभी मीडिया की सुर्खियां न बनती कि जायदाद के लिए बूढ़े मांबाप को घर से निकाला, बेटों ने बूढ़े मांबाप को पाईपाई के लिए मोहताज किया और ऐसी खबरें भी पढ़नेसुनने में न आतीं कि अदालत ने बेटों को मांबाप को गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया.

ऐसी घटनाओं पर आम प्रतिक्रिया यही होती है कि ऐसी कलयुगी औलादों से लोग बेऔलाद भले. क्यों आजकल की नालायक संतानों के लिए जिंदगीभर बैल की तरह जुते रह कर पैसा कमाया और इकट्ठा किया जाए. इस से तो बेहतर यह है कि अपनी कमाई से जी भर कर जियो, खूब ऐश करो, घूमोफिरो और अपने शौक पूरे करो. ऐसा कहते सब हैं लेकिन इस पर अमल विरले भी कर नहीं पाते. वजह वही शाश्वत संतान का मोह है जिस ने महाभारत जैसे भीषण युद्ध करवा दिए फिर आम लोगों की विसात क्या.

आम भी मोहग्रस्त और खास भी

लेकिन विजयपत सिंघानिया की गिनती आम लोगों में नहीं की जा सकती. रेमंड जैसे लोकप्रिय ब्रांड के मैनेजिंग डायरेक्टर और चेयरमैन रहे इस खरबपति कारोबारी की दयनीयता पर हर कोई तरस खाता है. विजयपत के पिता कैलाशपत सिंघानिया कोई खास या उल्लेखनीय जायदाद पैसा नहीं छोड़ गए थे लेकिन अपनी मेहनत और लगन से विजयपत ने इतिहास रच डाला. अपने पिता के छोड़े फैब्रिक ब्रांड रेमंड को उन्होंने कारोबार के आसमान का सूरज एक वक्त में बना डाला था. रेमंड के साथ पार्क एंड एवेन्यू ब्रांड भी विजयपत ने लौंच किया था.

1990 में जब उन्होंने रेमंड का पहला शोरूम खोला था तब किसी को अंदाजा नहीं था कि एक दिन वे देश के सब से बड़े रईस कारोबारी बन जाएंगे. 2015 आतेआते उन की नेटवर्थ लगभग 12000 करोड़ रुपए हो गई थी.

विजयपत की शान और रसूख का अंदाजा लगाने यह हकीकत ही काफी है कि लोग उन से मिलने तो दूर की बात है उन की एक झलक पाने के लिए भी तरसते थे. मुंबई स्थित उन के घर जेके हाउस के आगे मुकेश अंबानी का घर एंटेलिया आज भी उन्नीस ही लगता है.

विजयपत के शौक भी उन की शख्सियत और रईसी की तरह निराले थे. उन्हें हवा में उड़ने का शौक था. हवाईजहाज और हेलीकाप्टर वे खिलौनों की तरह उड़ाते थे. उन के पास 5000 घंटों की उड़ान का तजुर्बा है. इतना ही नहीं 67 साल की उम्र में विजयपत ने हौट एयर बैलून सब से ऊंचाई तक उड़ाने के वर्ल्ड रिकौर्ड भी रच रखा था.
फिर एक दिन हवा से वे जमीन पर ऐसे गिरे कि आजतक उठ नहीं पाए. बुढ़ापे में उन्होंने वही गलती की जो आम पिता करता है. वह गलती थी अपने बेटे गौतम सिंघानिया को रेमंड की कमान सहित सारा कारोबार सौंप देने की. यह 2015 की बात है जब इन बापबेटे में एक फ्लैट को ले कर विवाद शुरू हुआ.

अपना सबकुछ बेटे के हाथों में सौंप देने वाले विजयपत को गौतम ने हद से ज्यादा क्रूरता दिखाते घर से ही खदेड़ दिया. जिस के पास अपने ही पैसों का कभी कोई हिसाब नहीं होता था वह कारोबारी मुंबई में ही किराए के फ्लैट में रहने मजबूर हो गया. महंगी गाड़ियों से पांव नीचे न रखने वाले विजयपत को पब्लिक ट्रांसपोर्ट का किराया देने भी पैसे नहीं होते.

सिंघानिया बापबेटे का यह झगड़ा कोर्ट में है जिस का फैसला कुछ भी आए लेकिन यह सबक हर किसी को इस से मिला था कि कभी भी संतान पर इतना अंधा भरोसा नहीं करना चाहिए जितना कि विजयपत ने किया था. उन के शौक अब हवा हो चुके हैं और बेटा उन की कमाई दौलत पर महलों के सुख भोग रहा है. वह सिर्फ इसलिए कि पिता ने अपने शौक तो शौक, जरूरतें पूरी करने अपने पास फूटी कौड़ी भी नहीं रखी थी.

इन दिनों मुकेश अंबानी भी बेटे के मोह में पड़ कर बेहिसाब पैसा फूंक रहे हैं. उस का बेहतर हालिया उदाहरण उन के बेटे अनंत अंबानी की जामनगर से ले कर द्वारकाधीश मंदिर तक की 170 किलोमीटर की पद यात्रा रही जिसे आध्यत्मिक यात्रा करार दे कर करोड़ों रुपए मुकेश ने उस पर खर्च किए. खर्च क्या किए बहा डाले. इतिहास में शायद ही किसी ने बेटे को दुबला बनाने इतना पैसा खर्च किया होगा.

इस शोबाजी के दीगर माने कुछ भी हों पर बेटे की चाहत पर उंगली नहीं उठाई जा सकती ठीक वैसे ही जैसे कभी विजयपत सिंघानिया पर नहीं उठाई जा सकती थी जिस ने इस धारणा को झुठला दिया था कि रईसों के पास इतना पैसा तो होता है कि वे संतानों के लिए आकूत दौलत भी छोड़ जाएं और अपने शौक भी पूरे कर लें.

महंगी पड़ती समझौतावादी मानसिकता

इस में कोई शक नहीं कि आदमी संतान को जान से भी ज्यादा चाहता है और जो भी करता है उसी के लिए करता है. 50 – 55 की उम्र के बाद ही लोग यह राग अलापना शुरू कर देते हैं कि हमारा क्या है हम तो अपनी जिंदगी जी चुके, अब जो भी है बच्चों के लिए है. ये पढ़लिख कर कुछ करने लगें, अपना कमाने खाने लगें, इन की घरगृहस्थी जम जाए तो समझो हम ने गंगाजी नहा ली. पर यह वह गंगा नहाना नहीं है जिस की ख्वाहिशें उन्होंने अपनी जवानी के दिनों में बुनी होती हैं.

खुद सुखसुविधाओं और ऐशोआराम से जिएं या जिंदगीभर जरूरतों की हत्या कर जो पैसा जोड़ा है उसे संतान के लिए छोड़ जाएं यह सवाल हमेशा से ही पेरैंट्स के सामने मुंह बाए खड़ा रहा है. जिस की हकीकत कुछ और यह है कि दरअसल में जिंदगी शुरू ही इस उम्र में होती है जिस में हर किसी के पास इतना तो वक्त और पैसा होता है कि वह वह जिंदगी जी ले जिस के सपने उस ने जवानी में देखे थे.

जिन सपनों पूरा करने के लिए दिनरात मेहनत कर बेहतर आज बनाया था. लेकिन यही आज औलाद के लिए पैसा जमा करने में गुजरता जाता है. सोच यही रहती है कि कभी हमारी औलाद को पैसों की वजह से कभी नीचा न देखना पड़े, किसी के सामने झुक कर बात न करना पड़े और वह कभी किसी की मोहताज न हो.
संतान को कोई कमी न हो भले ही हमें मरने तक कई कमियों से जूझना पड़े यह मानसिकता तय है 90 फीसदी से ज्यादा पेरैंट्स की रहती है. और यही मानसिकता उन्हें वे समझौते करने मजबूर कर देती है जिन्हें वे कैरियर के शुरुआती दौर से ही करते आ रहे होते हैं. यानी जितना हो सके पैसा जमा करो, ज्यादा से ज्यादा बचत करो जो आगे चल कर बच्चों के काम आएगी.

कोई यह नहीं सोचता कि आगे चल कर ये बच्चे उन के काम आएंगे या नहीं. तय है उन्हें यह भी समझ नहीं आता कि पैसे की उपयोगिता और अहमियत खुद के शौक पूरे करने में ज्यादा है या संतान के लिए जमा करते जाने में है. इस में भी कोई शक नहीं कि इस सवाल का जवाब 11 के पहाड़े की तरह आसान नहीं है लेकिन यह 99 के पहाड़े की तरह कठिन भी नहीं है.

इसी सवाल के फेर में उलझे भोपाल के अखिलेश बताते हैं कि इस का सामना उन्हें भी करना पड़ा था. अखिलेश वल्लभ भवन के एक सरकारी महकमे में द्वितीय श्रेणी के राजपत्रित पद से एक साल पहले रिटायर हुए थे. उन्हें जीपीएफ वगैरह का 50 लाख रुपए के लगभग मिला था जिस में से आधे उन्होंने मकान के लोन के चुका कर बैंक की किश्तों के बोझ से छुटकारा पाया 20 लाख रुपए बतौर इमरजैंसी फंड और बेटे की शादी के लिए फिक्स में जमा कर दिए और बचे 5 लाख खुद के शौक पूरा करने रख लिए.

बाकी सब यानी कार, थोड़ा सोना वगैरह तो वे सर्विस में रहते ले ही चुके थे. यानी जिंदगी में कोई झंझट और बड़ी जिम्मेदारी न थी सिवाय इस चिंता के बेटे की छोटीमोटी ही सही नौकरी लग जाए तो अच्छी सी लड़की देख उस के हाथ पीले कर दिए जाएं. तो उन्होंने रिटायर्ड लोगों के संविधान के मुताबिक यही सोचने में लगा दिया कि अब बची जिंदगी में क्याक्या करना है आराम करना है, रिश्तेदारों से मिलनाजुलना है, समाज सेवा करनी है और भी बहुत कुछ करना है जो रिटायर्ड आदमी सोचता तो है तो लेकिन करता नहीं. इसी कड़ी में उन की पत्नी सहित दुबई जाने की पुरानी इच्छा जागृत हुई जिस के लिए बचे 5 लाख रुपए पर्याप्त थे.

जब यह बात बेटे को बताई तो वह सुनते ही बड़ा खुश हुआ और दुबई के बारे में बहुत कुछ बताता रहा. आनेजाने का पैकेज भी उस ने इंटरनेट से निकाल कर रख दिया पर दोतीन दिन में ही जाने कहां से उसे ज्ञान प्राप्त हो गया कि वह अपनी पुरानी जिद और मांग पर अड़ गया कि मुझे बुलेट बाइक चाहिए. जिस की कीमत 3 लाख रुपए के लगभग है.

कहने की जरूरत नहीं कि बेटे की गिद्ध और कुत्सित नजर उन 5 लाख रुपयों पर थी जो अखिलेश जी ने दुबई घूमने जाने रख छोड़े थे. यह मांग रखते वक्त बेटे उन तमाम टोटकों का सहारा लिया था जिस के आजकल के बेटे विशेषज्ञ होते हैं.

मसलन मुंह लटका कर बैठ जाना, खाना कम यानी दिखावे के लिए खाना, रात देर रात घर लौटना और बारबार यह कह कर इमोशनली ब्लैकमेल करना कि अच्छा तो आप लोग ही दुबई हो आओ. किस्मत अच्छी रही तो बाइक तो मैं जौब लगने के बाद ले लूंगा.

मोहग्रस्त कमजोर पिता

अखिलेश हमेशा की तरह बेटे की जिद के आगे कमजोर पड़ गए और दुबई जाने की इच्छा त्याग बेमन से ही सही बेटे को बुलेट दिला दी. लेकिन ऐसा पहली बार हुआ कि वह बेटे की कोई मांग पूरी करने के बाद वे खुश नहीं हुए. वे बताते हैं “मुझे एहसास है कि मैं ने गलत किया मुझे अपना इकलौता अधूरा शौक पूरा कर लेना चाहिए था. पर मुझे लगा कि जिस इकलौते बेटे के लिए जिंदगीभर त्याग किया उस की यह इच्छा भी पूरी कर ही दूं. जिस से उसे यह सोचने में न आए कि वह चूंकि बेरोजगार है इसलिए पेरैंट्स पर बोझ बन गया है.”

इस एक और ऐसे कई उदाहरणों से सहज समझा जा सकता है कि मांबाप कहां, कब, कैसे धर्म संकट में फंसते हैं. इस से बचने का ऐसा भी नहीं कि कोई रास्ता न हो, रास्ता है पैसे के विभिन्न मदों में बंटवारा करने का.

अखिलेश का 20 लाख की एफडी करना भी भविष्य के लिहाज से ठीक था. 25 लाख का होम लोन जमा कर देने का फैसला भी वित्तीय बुद्धिमानी की निशानी था. लेकिन जौब ढूंढे रहे बेटे को 3 लाख की बाइक दिला देने का फैसला शुद्ध मोह से ग्रस्त था.

होना तो यह चाहिए कि अपनी कमाई का 20 फीसदी हिस्सा अपने शौक पूरे रखे जाएं बाकी 80 में से परिस्थितयों के मुताबिक अलगअलग रख देना चाहिए. संतान को भी हालातों के हिसाब से ही देना चाहिए. लेकिन बेहतर यह है कि देने के बजाय अलग रख देना चाहिए जिस से वह बाइक जैसी फिजूलखर्ची में जाया न हो. जिंदगीभर की अपनी गाढ़ी कमाई की पाई भी धार्मिक कार्यों और तीर्थ वगैरह पर लुटाना नहीं चाहिए.

अपनों पे सितम

दौलत को लुटाना तो रिश्तेदारों पर भी नहीं चाहिए क्योंकि रिटर्न उस का भी नहीं मिलता. 45 वर्षीय अम्बुज की पीड़ा यह है कि उस के किसान पिता जिंदगीभर भाईभतीजों पर पैसा उड़ाते रहे. मां ने और अम्बुज ने समझाने की कोशिश की ऊंचनीच बताई तो वे और भड़क गए. अम्बुज बताता है “अब पिता अशक्त हो कर मेरे घर पड़े रहते हैं लेकिन मैं उन की दिल से सेवा शुमार नहीं कर पाता और इस बाबत मुझे कोई गिल्ट भी महसूस नहीं होता. क्योंकि उन्होंने हमारे साथ ज्यादतियां तो की थीं हां मैं उन के साथ वह व्यवहार नहीं करता जो उन्होंने मेरे साथ किया था.

“कालेज के दिनों में उन्होंने अपने बड़े भाई के बेटे यानी मेरे कजिन को बाइक दिलाई थी और मैं कल्पता रह गया था. बात सिर्फ एक बाइक की ही नहीं है बल्कि उन 50 लाख रुपए की भी है जो उन्होंने अपनी भतीजी की शादी के लिए तीन एकड़ जमीन बेच कर दिए थे. फिर छोटीमोटी बातों का तो आप सहज अंदाजा लगा सकते हैं. एक वक्त में तो मैं मां और छोटा भाई इस बात से डरने लगे थे कि कहीं रोकने पर वे हमें घर से ही न निकाल दें. अब हालत यह है कि उन का कोई भाईभतीजा सेहत का हालचाल पूछने भी नहीं फटकता क्योंकि अब उन के पास देने को कुछ नहीं बचा.”

छोटे कस्बों और शहरों में जब कोई मरता है तो उस की शवयात्रा के पीछे चलने वाले लोग रामनाम सत है की रस्म निभाने के बाद मृतक के चरित्र और उस के आर्थिक स्वभाव की चर्चा चटखारे ले कर करते हैं. मसलन बड़ा कंजूस था यार यह आदमी, जिंदगीभर पैसों को दांत से पकड़े रहा. लेकिन तुक के काम में कभी एक पाई भी खर्च नहीं की. और तो और बेटों को भी अच्छा खाने और अच्छा रहने तरसा दिया. अब सब मिलना तो उन्ही बेटों को है जो मुन्नालाल की होटल के पीछे चिलम फूंकते रहते हैं. देखना इन का पैसा अब गांजे और दारू के ठेकेदारों की तिजोरी भरेगा. किस काम का ऐसा पैसा.

कभी संजीदगी से सोचें कि आप कमाते क्यों हैं जाहिर है पहला जवाब यही होगा कि घर के लिए और बच्चों के लिए लेकिन एक मुकाम यानी उन के कमाने की उम्र हो जाने के बाद संतान पर खर्च करना अक्ल की बात नहीं. यह भी ठीक है अधिकतर आर्थिक फैसले हालातों के मुताबिक लिए जाते हैं मगर इन में एक खाना अपने शौक पूरे करने भी रखा जाना चाहिए. नहीं तो वह कमाई भी किस काम की जो जिंदगीभर अपनों के नाम पर हलाल होती रहे.

Bollywood : बौक्स औफिस पर घिसटती सनी देओल की फिल्म ‘जाट’ को ले कर विवाद गरम, तमिल व तेलुगु में नहीं हो पाई रिलीज

Bollywood : फिल्म ‘सिकंदर’ के मुकाबले समझा जा रहा था कि ‘जाट’ अच्छा बिसनेस करेगी मगर बौक्स औफिस पर यह फिल्म डिजास्टर साबित हुई.

11 अप्रैल से शुरू हुआ अप्रैल माह का दूसरा सप्ताह भी बौलीवुड के लिए खुशियां नहीं ला पाया. दूसरा सप्ताह खत्म होने तक पूरे 19 दिन के अंदर सलमान खान की फिल्म ‘सिकंदर’ 105 करोड़ रोरो कर ही बौक्स औफिस पर इकट्ठा कर पाई, जब कि सलमान खान ने अपनी तरफ से सारे जतन कर डाले जिस से फिल्म को सफलता मिल जाए.

सलमान खान ने फिल्म इंडस्ट्री से जुडे़ लोगों से भी यह कर सपोर्ट मांगा कि ‘भाई मुझे भी सपोर्ट की जरूरत होती है.’ उस के बाद अक्षय कुमार पर बयान दे डाला कि सलमान खान खत्म नहीं हुआ है. वह टाइगर है वगैरहवगैरह. तो वहीं सलमान खान ने अपने फैंस से माफी तक मांग ली. पर इस का बौक्स औफिस पर कोई असर नजर नहीं आया.

अप्रैल माह के दूसरे सप्ताह की शुरूआत से एक दिन पहले 10 अप्रैल को ही सनी देओल की फिल्म ‘जाट’ रिलीज हुई. फिल्म के रिलीज से पहले इस का अच्छा बज बना हुआ था. लोगों को ट्रेलर भी पसंद आया था. मगर अफसोस बौक्स औफिस पर यह फिल्म कारनामा नहीं दिखा सकी.

पूरे 8 दिन के अंदर ‘जाट’ बौक्स औफिस पर केवल 62 करोड़ रुपए ही एकत्र कर सकी. इस में से लगभग 21 करोड़ रूपए ही निर्माता की जेब में जाएंगे. जब कि फिल्म का बजट 150 करोड़ रुपए बताया जा रहा है. इस तरह ‘जाट’ भी डिजास्टर हो चुकी है. फिल्म ‘जाट’ में अति विभत्स हिंसा के दृश्यों ने दर्शकों को इस फिल्म से दूर रखा.

दूसरी बात इस फिल्म को ले कर विवाद गरमा गए. फिल्म के एक दृश्य में रणदीप हुड्डा का किरदार रणतुंगा चर्च के अंदर जिस तरह से क्रास के सामने खड़े हो कर खुद को भगवान बताते हुए नरसंहार करता है, उस का पंजाबी क्रिश्चयन ने जम कर विरोध किया.

पहले निर्माताओं ने इसे बहुत हलके में लिया पर अंततः छठे दिन निर्माताओं ने फिल्म से इस पूरे दृश्य को हटा देने का ऐलान किया. यही काम निर्माता को दूसरे दिन करना चाहिए था. इस के अलावा ‘जाट’ दक्षिण भारत में गायब ही रही. क्योंकि इस का तमिल व तेलुगु वर्जन रिलीज नहीं हो पाया. फिल्म में रणदीप हुडा के किरदार रणतुंगा को जाफना लिबरेशन फ्रंट का कमांडर बताया गया.

इस से वहां के लोग भड़के हुए हैं. दक्षिण भारत में लिट्टे समर्थक काफी हैं. सूत्र बता रहे हैं कि निर्माताओं ने अब ‘जाट’ को तमिल व तेलुगु में रिलीज करने का इरादा छोड़ दिया है. लेकिन निर्माताओं ने सनी देओल के ही साथ ‘जाट’ का सिक्वअल ‘जाट 2’ बनाने का ऐलान कर दिया है. पर इस से बौक्स औफिस पर कोई असर नहीं पड़ा.

Family Story : काश – क्या मालती ने अपनी गलतियों का प्रायश्चित्त किया?

Family Story : ‘‘यह लीजिए, ताई मम्मा, आज की आखिरी खुराक और ध्यान से सुनिए, नो अचार, नो चटनी और नो ठंडा पानी, तभी ठीक होगी आप की खांसी. अब आप सो जाइए,’’ बल्ब बंद कर श्रेया ने ‘गुड नाइट’ कहा और कमरे से बाहर निकल गई.

‘‘बहुत लंबी उम्र पाओ, सदा सुखी रहो बेटा,’’ ये ताई मम्मा के दिल से निकले शब्द थे. आंखें मूंद कर वह सोने की कोशिश करने लगीं लेकिन न जाने क्यों आज नींद आने का नाम ही नहीं ले रही थी. मन बेलगाम घोड़े सा सरपट अतीत की ओर भागा जा रहा था और ठहरा तो उस पड़ाव पर जहां से वर्षों पहले उन का सुखद गृहस्थ जीवन शुरू हुआ था.

मालती इस घर की बहू बन कर जब आई थी तो बस, 3 सदस्यों का परिवार था और चौथी वह आ गई थी, जिसे घरभर ने स्नेहसम्मान के साथ स्वीकारा था. सास यों लाड़ लड़ातीं जैसे वह बहू नहीं इकलौती दुलारी बेटी हो. छोटे भाई सा उस का देवर अक्षय भाभीभाभी कहता उस के आगेपीछे डोलता और पति अभय के दिल की तो मानो वह महारानी ही थी.

मालती की एक मांग उठती तो घर के तीनों सदस्य जीजान से उसे पूरा करने में जुट जाते और फिर स्वयं अपने ही पर वह इतरा उठती. सोने पर सुहागे की तरह 4 सालों में 2 प्यारे बेटों अनुज और अमन को जन्म दे कर तो मानो मालती ने किला ही फतह कर लिया.

दोनों बेटों के जन्म के उत्सव किसी शादीब्याह के जैसे ही मनाए गए थे. राज कर रही थी मालती, घर पर भी और घर वालों के दिलों में भी. ‘स्वर्ग किसे कहते हैं? यही तो है मेरी धरती का स्वर्ग’ मालती अकसर सोचती.

अक्षय ने अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान ही लड़की पसंद कर ली थी और नौकरी लगते ही उसे ला कर मां और भाईभाभी के सामने खड़ा कर दिया. जब इन दोनों ने कोई एतराज नहीं किया तो भला वह कौन होती थी विरोध करने वाली. इस तरह शगुन देवरानी बन कर इस घर में आई तो मालती को पहली बार लगा कि उस का एकछत्र ऊंचा सिंहासन डोलने लगा है.

शगुन देखने में जितनी खूबसूरत थी उतना ही खूबसूरत उस का विनम्र स्वभाव भी था. ऊपर से वह कमाऊ भी थी. अक्षय के साथ ही काम करती थी और उस के बराबर ही कमाती थी. इतने गुणों के बावजूद अभिमान से वह एकदम अछूती थी. देवरानी के यह तमाम गुण मालती के सीने में कांटे बन कर चुभते थे और उस के मन में हीनगं्रथियां पनपाते थे.

मालती के निरंकुश शासन को चुनौती देने शगुन आ पहुंची थी जो उसे ‘खलनायिका’ की तरह लगती थी. ‘शगुन…’ मां की इस पुकार पर जब वह काम छोड़ कर भागी आती तो मालती जल कर खाक हो जाती. अक्षय जो बच्चों की तरह हरदम ‘भाभी ये दो, भाभी वो दो,’ के गीत गाता उस के आगेपीछे घूमता और अपनी हर छोटीबड़ी जरूरत के लिए उसे ही पुकारता था, अब शगुन पर निर्भर हो गया था. हां, पति अब भी उस के ‘अपने’ ही थे, लेकिन जब मालती शगुन के साथ मुकाबला करती या उसे नीचा दिखाने की कोशिश करती तो अभय समझाते, ‘मालू, शगुन के साथ छोटी बहन की तरह आचरण करो तभी इज्जत पाओगी.’ तब वह कितना भड़कती थी और शगुन का सारा गुस्सा अभय पर निकालती थी. शगुन के प्रति मालती का कटु व्यवहार मां को भी बेहद अखरता था, मगर वह खामोश रह कर अपनी  नाराजगी जताती थीं क्योंकि लड़ना- झगड़ना या तेज बोलना मांजी के स्वभाव में शामिल नहीं था.

शगुन, अनुज और अमन को भी बहुत प्यार करती थी. वे दोनों भी ‘चाचीचाची’ की रट लगाए उस के इर्दगिर्द मंडराते. लेकिन यह सबकुछ भी मालती को कब भाया था? कभी झिड़क कर तो कभी थप्पड़ मार कर वह बच्चों को जता ही देती कि उसे चाची से उन का मेलजोल बढ़ाना पसंद नहीं. बच्चे भी धीरेधीरे पीछे हट गए.

फिर साल भर बाद ही शगुन भी मां बन गई, एक प्यारी सी गोलमटोल बेटी को जन्म दे कर. पहली बार मालती ने चैन की सांस ली. उसे लगा कि बेटी को जन्म दे कर शगुन उस से एक कदम पीछे और एक पद नीचे हो गई है. लेकिन यह मालती का बड़ा भारी भ्रम था. 3 पीढि़यों के बाद इस घर में बेटी आई थी, जिसे मांजी ने पलकों पर सजाया और शगुन को दुलार कर ‘धन्यवाद’ भी दिया. मां और अक्षय ही नहीं अभय भी बहुत खुश थे. उतना ही भव्य नामकरण हुआ जितना अनुज और अमन का हुआ था और उसे नाम दिया गया ‘श्रुति’, फिर 2 साल के बाद दूसरी बेटी श्रेया आ गई.

अक्षय की गुडि़या सी बेटियों में मांजी के प्राण बसते थे. लगभग यही हाल अभय का भी था. मालती से यह बरदाश्त नहीं होता था. वह अकसर चिढ़ कर बड़बड़ाती, ‘वंश तो बेटों से ही चलता है न. बेटियां तो पराया धन हैं, इन्हें इस तरह सिर पर धरोगे तो बिगडे़ंगी कि नहीं?’

उधर मालती के कटु वचनों का सिलसिला बढ़ता जा रहा था, इधर बच्चों में भी अनबन रहती. अकसर अनुजअमन के हाथों पिट कर श्रुति और श्रेया रोती हुईं दादी के पास आतीं तो शगुन बिना किसी को कोई दोष दिए बच्चियों को बहला लेती कि कोई बात नहीं बेटा, बड़े भैया लोग हैं न? लेकिन दादीमां से सहन नहीं होता. आखिर एक दिन तंग आ कर उन्होंने स्पष्ट घोषणा कर दी, ‘बस, अब समय आ गया है कि तुम दोनों भाइयों को अपने जीतेजी अलग कर दूं, नहीं तो किसी दिन किसी एक बच्ची का सिर फूटा होगा यहां.’

मां का फैसला मानो पत्थर की लकीर था और घर 2 बराबर हिस्सों में बंट गया. मां ने साफ शब्दों में मालती से कह दिया, ‘बड़ी बहू, तुम अपनी गृहस्थी संभालो. मैं अक्षय के पास रहूंगी. शगुन नौकरी पर जाती है और उस की बच्चियां बहुत छोटी हैं. अभी, उन्हें मेरी सख्त जरूरत है. हां, तुम्हें भी अगर कभी मेरी कोई खास जरूरत पड़े तो पुकार लेना, शौक से आऊंगी.’

मालती स्वतंत्र गृहस्थी पा कर बहुत खुश थी. लेकिन हर समय बड़बड़ाना उस की आदत में शुमार हो चुका था. अत: जबतब उच्च स्वर में सुनाती, ‘अरे, कर लो अपनी बेटियों पर नाज. उन के ब्याह के समय तो भाइयों के नेग पूरे करवाने के लिए मेरे बेटों को ही बुलाने आओगी न?’ या ‘बेटे के बिना तो ‘गति’ भी नहीं होती. बेटा ही तो चिता को आग देता है. खुश हो लो अभी…’

मालती की इन हरकतों की वजह से मांजी ने तो उस के साथ बातचीत ही बंद कर दी. शगुन ने भी पलट कर न तो कभी जेठानी को जवाब दिया और न ही झगड़ा किया. अपनी इसी विनम्रता के कारण तो वह सास और पति के मन में बसी थी. अभय भी उस की सराहना करते न थकते थे.

जीवन के बहीखाते से एकएक साल घटता गया और एकएक जुड़ता गया. एक घर के 2 हिस्सों में बच्चे पलबढ़ रहे थे. अनुज पढ़ाई और खेल में अच्छाखासा था जबकि अमन का ध्यान पढ़नेलिखने में था ही नहीं. उस के लिए एक क्लास में 2 साल लगाना आम बात थी. इधर श्रुति और श्रेया दोनों ही बेहद जहीन थीं. पढ़ाई में और व्यवहार में अति शालीन और शिष्ट. अक्षय, शगुन और मां ने उन्हें बेटों की तरह पाला था. वैसे भी यह तो सर्वविदित है कि ‘यथा मां तथा संतान’ कुछ इसी तरह के थे दोनों घरों के बच्चे. कब उन का बचपन बीता और कब यौवन की दहलीज पर उन्होंने कदम रखा, पता ही न चला.

फिर आए अप्रिय घटनाओं के साल जिन्होंने नएनए इतिहास लिखे. एक साल वह आया जब अनुज अपनी योग्यता के बलबूते पर ऊंचे पद पर नियुक्त हुआ और दूसरे साल बिना किसी की राय लिए उस ने एक एन.आर.आई. लड़की से ‘कोर्ट मैरिज’ कर ली. जरूरी औपचारिकताएं पूरी होते ही उस ने चंद महीने बाद ही सब को ‘गुडबाय’ कह कर कनाडा की ओर उड़ान भर ली.

तीसरे साल अमन अपने दोस्तों के साथ घूमने के लिए गोआ गया तो वहां से वापस ही नहीं आया. बाद में एक दोस्त ने घर आ कर मालती को अमन द्वारा एक क्रिश्चियन लड़की से प्रेम विवाह किए जाने के बारे में बताया, ‘आंटी, उस का नाम डेजी है. उस की आंखें नीलम जैसी नीली हैं, बाल सुनहले हैं और रंग दूध सा गोरा…पूरी अंगरेज लगती है वह. उस के पिता का पणजी में एक शानदार बियर बार है.’

इन तमाम बातों को सच साबित करने के लिए अमन का खत चला आया, ‘मां, मुझे डेजी पसंद थी, वह भी मुझे पसंद करती थी. हम शादी करना चाहते थे, मगर उस के डैड की 2 शर्तें थीं. एक तो मैं धर्म बदल कर ईसाई बन जाऊं और दूसरी मुझे वहीं रह कर उन का काम संभालना होगा. मां, मेरे लिए यह सुनहरा मौका था. अत: मैं ने डेजी के डैड की दोनों शर्तें मान लीं और कल चर्च में उस के साथ शादी कर ली. आप लोगों से इजाजत लेना बेकार था क्योंकि आप कभी इस के लिए तैयार न होते. इसीलिए बस, सूचित कर रहा हूं और आप का आशीर्वाद मांग रहा हूं-अमन.’

मालती और अभय को लगा जैसे सारे कहर एकसाथ टूट कर उन पर आ गिरे. बस, एक धरती ही नहीं फटी जिस में दोनों समा जाते.

‘धर्म बदल लिया? अपने अस्तित्व को ही बेच डाला? ऐसा अधम और अवसरवादी इनसान मेरा बेटा कैसे हो सकता है? उस लड़की से बेशक ब्याह करता मगर धर्म तो न बदलता, तब शायद मैं उस को माफ भी कर देता और लड़की को बहू भी मान लेता, लेकिन अब कभी नाम भी न लेना उस का मालू मेरे सामने,’ अभय ने एक लंबी खामोशी के बाद ये शब्द कहे थे.

मालती भी जाने किस रौ में एक ठंडी सांस ले कर बोल गई, ‘काश, बेटों की जगह हमारी भी 2 बेटियां होतीं तो सिमट कर, इज्जत से घर तो बैठी होतीं.’

‘बेटियां हैं हमारी भी, आंखों पर अपनेपन का चश्मा चढ़ा कर देखो मालू, नजर आ जाएंगी,’ तल्ख स्वर में अभय ने कहा था.

इस घटना के एक माह बाद ही मांजी चल बसीं एकदम अचानक. शायद अमन और अभय की तरफ से मिला दुख ही इस मौत की वजह रहा हो.

मालती का अभिमान अब चूरचूर हो कर बिखर गया था. अब न तो वह चिड़चिड़ाती थी और न ही चिल्लाती थी. खुद अपने से ही वह बेहद शर्मिंदा थी. एकदम खामोश रहती और जब दर्द सहनशक्ति की सीमा को लांघ जाता तो रो लेती.

श्रेया और श्रुति को अब मालती अपने पास बुलाना चाहती, दुलराना चाहती मगर वह हिम्मत नहीं जुटा पाती. उन बच्चियों के साथ किया अपना कपटपूर्ण दुर्व्यवहार उसे याद आता तो शरम से सिर नीचा हो जाता.

एम.बी.ए. के बाद श्रुति को एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में मैनेजर की पोस्ट मिल गई तो मालती के दिल की गहराई से आवाज आई कि काश, 2 बेटों की जगह सिर्फ एक बेटी होती तो आज मैं गर्व से भर उठती.

श्रेया एम.बी.बी.एस. कर डाक्टर बन चुकी थी और अब एम.डी. की तैयारी कर रही थी. श्रुति का रिश्ता उस के ही स्तर के एक सुयोग्य युवक शिखर से हो गया था. श्रुति की शर्त थी कि वह बिना दानदहेज के ब्याह करेगी और शिखर को यह शर्त मंजूर थी. ब्याह हो गया और कन्यादान मालती और अभय के हाथों कराया गया. मालती कृतज्ञ थी शगुन की, कम से कम एक संतान को ब्याह का सुखसौभाग्य तो शगुन ने उस के सूने आंचल में डाल दिया.

श्रुति की बिदाई के बाद तो अभय बिलकुल ही खामोश हो गए. बोलते तो वह पहले भी ज्यादा नहीं थे लेकिन अब तो बस, जरूरत भर बात के लिए ही मुंह खोलते. उम्र के साथसाथ शायद उन का गम भी बढ़ता जा रहा था. गम बेटों के विछोह का नहीं उन की कपटपूर्ण चालाकियों का था. उन के दिल का सब से बड़ा दर्द था अमन का धर्म परिवर्तन. कई बार वह सपने में बड़बड़ाते, ‘कभी माफ नहीं करूंगा नीच को. मेरी चिता को भी हाथ न लगाने देना उस को मालू.’

कहते हैं न इनसान 2 तरह से मरता है. एक तो सांसें थम जाने पर और दूसरा जीते जी पलपल मर कर. यह दूसरी मौत पहली मौत से ज्यादा तकलीफदेह होती है क्योंकि जिंदगी की हसरतें और जीने की इच्छा मरती है लेकिन एहसास तो जीवित रहते हैं न. ऐसी ही मौत जी रहे थे अभय और एक रात वह सदा के लिए खामोश और मुक्त हो गए.

पति के मौत की वह भयानक रात याद आते ही मालती अतीत के घरौंदे से निकल कर वर्तमान के धरातल पर आ गई. उसे अच्छी तरह से वह रात याद है जब दोनों एकसाथ ही एक ही पलंग पर सोए थे लेकिन सुबह वह अकेली उठी और वह हमेशा के लिए सो गए. कैसी अजीब बात थी उस शांत निंद्रा में कि रात खुद चल कर गए बिस्तर तक और सुबह किसी और ने उतार कर नीचे धरती पर लिटाया. इस तरह काल का प्रवाह अपने साथ उस के जीवन के उस आखिरी तिनके को भी बहा ले गया जिस के सहारे उसे इस संसारसागर से पार उतरना था.

अक्षय ने बाद में बहुत जोर दिया कि अनुज तो विदेश में है, अमन को ही बुला लिया जाए लेकिन पति की इच्छाओं का मान रखते हुए मालती ने किसी भी बेटे को खबर तक नहीं करने दी. अक्षय ने ही भाई का दाह संस्कार किया.

‘कैसी सोने सी अयोध्या नगरी थी, जिस में वह ब्याह कर आई थी और अपने ईर्ष्या व द्वेष की आग में जल कर उसे लंका बना डाला.’

बेटे बाद में बारीबारी से आए पर उन का आना और जाना एकदम औपचारिक था. मालती भी बेटों के लिए वीतरागी ही बनी रहीं. फिर तो यह अध्याय भी सदा के लिए बंद हो गया.

श्रुति, शिखर, श्रेया, शगुन चारों एक दिन एकसाथ आए और जिद पकड़ कर बैठ गए, ‘ताई मम्मा, आप यह भूल जाएं कि हम आप को यहां अकेला छोड़ेंगे. आप को अब हमारे साथ रहना होगा. उठिए ताई मम्मा.’

बच्चों के प्यार के आगे मालती हार गई और वह एक आंगन से दूसरे आंगन में चली आई. उसे याद आया, श्रुति के ब्याह के लिए जब शगुन उस के लिए अपनी ही जैसी सुंदर और महंगी साड़ी लाई थी और श्रेया ने उसे खूबसूरती से तैयार किया था. तब वह हुलस कर उठी थी, ‘देखा, अभय, कितनी प्यारी बच्चियां हैं और एक हमारे पूत हैं… काश…और’ एक निश्वास ले कर मालती ने फिर यादों का सूत्र थाम लिया.

यह क्षतिपूर्ति थी अपने दुष्कर्मों की, बच्चियों के प्रति प्यार था या उन के मधुर व्यवहार का पुरस्कार कि एक दिन मालती ने अपने वकील को बुलवाया और अपने हिस्से की तमाम चलअचल संपत्ति श्रुतिश्रेया के नाम करने की इच्छा जाहिर की लेकिन अक्षय और शगुन ने वकील को यह कह कर लौटा दिया, ‘भाभी, आप मानें या न मानें यह अमनअनुज की धरोहर है और हम इस अमानत में आप को खयानत नहीं करने देंगे.’

श्रुतिशिखर छुट्टियों में आते तो शगुन की तरह ही मालती को भी स्नेहसम्मान देते. शिखर दामाद की तरह नहीं बेटे की तरह खुल कर मिलता और उन्हें ‘ताई मम्मा’ नहीं ‘बड़ी मम्मा’ कह कर बुलाता. कहता कि आप ने ही तो श्रुति का हाथ मेरे हाथ में दिया है, फिर आप मेरी बड़ी मम्मा हुईं कि नहीं?

घर की मीठी चहलपहल पहले मन में कसक जगाती थी अब उमंग भरती है कि काश, ये मेरे बेटीदामाद होते तो मैं दुनिया की सब से सुखी मां होती. तभी अचानक उसे अभय की तिरस्कारपूर्ण निगाहें याद आ गईं तो अपनी ओछी मानसिकता पर उसे अफसोस हुआ.

‘मेरे ही तो बच्चे हैं ये, और सुखी ही तो हूं मैं और कैसा होता है सुख? चौथेपन की लाठी बनाने के लिए ही तो मांबाप पुत्र की कामना करते हैं और वह पुत्र तो कब के मेरा साथ छोड़ गए, मेरे पति की मृत्यु का कारण भी बने और यह फूल सी बच्चियां कैसे मेरे आगेपीछे डोलती हैं. यह सुख नहीं तो और क्या है? यहीं सुख भी है और स्वर्ग भी.’

सहसा मालती के मन में यह खयाल खलबली मचा गया कि बेईमान सांसों का क्या भरोसा, न जाने कब थम जाए और हो सकता है उस की इसी रात का कोई सवेरा न हो. अभय के साथ भी तो ऐसा ही हुआ था. इसीलिए अपनी एक खास इच्छा को आकार देने के लिए कागजकलम ले कर मालती ने लिखना शुरू किया.

‘मेरी संतान, मेरी 2 बेटियां श्रुति और श्रेया ही हैं. और यह मेरी हार्दिक इच्छा है कि मेरी मृत्यु के बाद मेरे शरीर को आग मेरी बड़ी बेटी श्रुति और दामाद शिखर दें. यदि किसी वजह से वह मौजूद न हों तो यह हक मेरी छोटी बेटी श्रेया भारद्वाज को दिया जाए. मेरे घर, जेवर, बैंक के पैसे और शेष संपत्ति पर शगुन, श्रुति और श्रेया का बराबर अधिकार होगा. मैं मालती भारद्वाज पूरे होशोहवास में बिना किसी दबाव के यह घोषणा कर रही हूं ताकि सनद रहे.

अब ‘काश’ शब्द को वह अपनी बाकी की बची जिंदगी में कभी जबान पर नहीं लाएगी, यह निश्चय कर मालती ने चैन की सांस ली और पत्र को लिफाफे में यह सोच कर बंद करने लगी कि सुबह यह पत्र मैं अक्षय के हवाले कर दूंगी.

पत्र को तकिए के नीचे रख कर मालती सोने की कोशिश करने लगी. अब उस का मन शांत था और फूलों सा हलका भी.

Best Hindi Story : अपराधबोध – बरसों से किस बात की टीस थी उसके मन में ?

Best Hindi Story : शहर के व्यस्तम बाजार से गुजर रहा था. पहले तो इस शहर में लगभग हर वर्ष आता था. धीरेधीरे अंतराल बढ़ता गया. अब एक लंबे अंतराल के बाद आया था. हर गुजरने वाले को बड़े गौर से देख रहा था इस आशा के साथ कि शायद वह भी दिख जाए. अचानक उस पर नजर ठहर गई. वही तो थी जिसे मैं वर्षों से ढूंढ रहा था. उस की नजर भी मुझ पर पड़ गई तो वह भी ठिठक गई.

पता नहीं अचानक मुझे क्या हुआ. बिना कुछ देखे मैं उस की ओर लपक लिया. गुजरती हुई एक कार ने उठा के मुझे एक ओर पटक दिया. पता नहीं मुझे क्या हुआ, शायद बेहोश हो गया था. आंखें खोलीं तो देखा, मेरे चारों ओर एक भीड़ थी और एक व्यक्ति मेरे मुंह पर पानी के छींटे मार रहा था. मैं हड़बड़ा कर उठा और चारों ओर देखने लगा. वह मुझे भीड़ के पीछे चिंतित हो देख रही थी.

“मरने का इतना ही शौक है तो किसी रेलगाड़ी के नीचे आ जाओ, मेरी गाड़ी के आगे क्यों कूद गए,” एक सूटिड-बूटिड व्यक्ति क्रोध में बोल रहा था. वह कार मालिक था. मैं ने उस से हाथ जोड़ कर क्षमा मांगी और वह बुदबुदाता चला गया और भीड़ भी छंट गई. वह हाथों में भरेभरे 2 थैले लिए वहीं मुझे घूर रही थी. माथे पर चिंता की लकीरें दृष्टिगोचर थीं और आंखों में पानी.

मैं धीमेधीमे कदमों से चलता हुआ उस के समीप गया. चाह कर मेरे मुंह से दो शब्द न निकल सके. शायद, उस की भी यही हालत थी. बस, देखते रहे एकदूसरे को. जब भीड़ के एकदो धक्के लगे तो सचेत हुए.

“कैसे हो?” चुप्पी उसी ने तोड़ी. मेरे होंठ फड़फड़ा के रह गए. मुझे अब भी विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं उस के सामने खड़ा था जिसे वर्षों से मिलना चाहता था. गला भी रुंध गया था.

“कहीं चोट तो नहीं लगी? उस ने फिर पूछा.

मैं ने न में सिर हिल दिया.

फिर एक खामोशी छा गई. बोल रहीं थीं तो केवल आंखें. एक बार फिर कोई मुझ से टकराया तो मैं सजग हुआ.

“तुम कैसी हो?” मैं ने पूछा तो उस ने भी सिर हिला कर उत्तर दे दिया कि ठीक है.

“चलो, कहीं बैठ कर चाय पीते हैं,” मैं ने सुझाया.

“मिलन रैस्तरां चलते हैं,” वह बोली.

मेरे दिल में एक चुभन सी हुई. हम अकसर यहीं मिलबैठ चाय आदि पीते हुए बातें करते थे. रैस्तरां अधिक दूर नहीं था. उस के एक कोने में हम बैठ गए.

“लगता है ढेर सारी शौपिंग हो रही है,” बात चलाने के लिए मैं बोला.

“हां, शादी है बेटी की.”

“अकेले ही शौपिंग कर रही हो?”

“नहीं, नमिता अपने डैडी के साथ गई है दूसरी मार्केट और मैं घर के लिए वापस निकली थी.”

“कितने बच्चे हैं?”

“तीन, दो बेटे और एक बेटी.“

“पति?”

“रिटायर होने वाले हैं?”

इतने में वेटर चाय आदि ले आया.

“अपने बारे में बताओ,” उस ने पूछा.

“सब बच्चे सैटल हो गए हैं. अपनी फैमिली के साथ मस्त हैं. बस, हम दोनों ही हैं,” एक सांस में मैं ने सब बताया दिया और पूछ बैठा, “तुम बताओ, कैसी चल रही है तुम्हारी लाइफ?”

“सब ठीक है, पति बहुत खुले विचारों वाले हैं. बच्चे भी बहुत अच्छे हैं. अभी जमाने कि ज्यादा हवा नहीं लगी है,” वह हंस कर बोली.

उस के बाद फिर एक सन्नाटा पसर गया. हम चाय की चुसकियां लेते हुए एकदूसरे को देखते रहे.

“मैं अकसर शहर में आया करता था, लेकिन वह कभी भी नहीं दिखी, जिस की तलाश में आता था,” मैं ने ही चुप्पी तोड़ी. मैं ने साफ महसूस किया कि उस ने ठंडी सांस भरी थी.

“मैं ने 10 वर्ष प्रतीक्षा की,” वह भरे गले से बोली.

“मैं जानता हूं,” मैं ने स्वीकार किया.

“कैसे?”

“लवली ने बताया था.”

“अरे हां, तुम्हारी बहन लवली मिली थी एक बार रास्ते में. उस ने बताया था कि तुम्हारा तलाक हो गया है,” उस की आवाज में एक दर्द था.

“तलाक के बाद मैं अकसर यहां आता था. तुम्हारा पता नहीं चला. जहां तुम रहा करती थीं, वहां से पता चला कि तुम परिवार सहित शिफ्ट हो गई हो. कोई तुम्हारा नया ऐड्रेस नहीं बता पाया.”

“जब सब खत्म ही हो गया था तो फिर क्यों मिलना चाहते थे. तुम ने दूसरी शादी कर ली, मैं ने भी अपना घर बसा लिया,” इस बार उस की आवाज में तल्खी थी.

एकाएक मुझ से कुछ कहते न बन सका. बस, उस के चेहरे को ताकता रहा, जिस पर गुस्सा नजर आ रहा था. वह भी मुझे घूर रही थी.

“वेल, रश्मि,” पहली बार मैं ने उसे नाम से पुकारा. वैसे मैं उसे रूषी कह कर बुलाया करता था. मेरे मन पर एक बोझ था और अभी भी है- ‘अपराधबोध’.

वह चुप ही रही.

“मैं तुम्हें बताना चाहता था कि मैं ने ऐसा क्यों किया.”

वह अब भी कुछ न बोली.

“मैं अच्छी नौकरी करता था. रहता अकेला ही था दूसरे शहर में. तुम्हारी व तुम्हारे परिवार का पूरा सपोर्ट था. स्टैंड ले लेता तो कोई मुझे रोक नहीं सकता था,” मैं ने अपनी बात आगे बढ़ाई.

“मुझे इसी बात का तो दुख हुआ था,” वह अब भी गुस्से में थी.

“यह 50 वर्ष पुरानी बात है. आज का युग होता तो शायद मैं भी अपने पेरैंट्स, अपनी बहनों की परवा न करता. तुम जानती हो, वह ज़माना और था जब सब जज़्बातों की कदर करते थे, बड़ों की पूरी इज्जत करते थे, समाज से डरते थे कि लोग क्या कहेंगे. उसूलन मुझे तुम्हारे साथ किया वादा निभाना चाहिए था लेकिन मैं ने अपने जज़्बात निभाए. घर में कोई तुम्हारे फ़ेवर में न था, यह तुम्हें पता ही है. फिर आना तो तुम्हें इसी घर में था. क्या लाभ होता तुम्हें वहां ला कर जहां तुम्हारा तिरस्कार होता. बहनों की भी अभी शादी होनी थी, इसलिए मैं अपना परिवार नहीं छोड़ सकता था.” मेरे भीतर से वह सबकुछ निकल गया जिसे मैं बरसों से मन में दबाए बैठा था, जिस का मेरे मन पर बोझ था.

“एक बार मुझ से बात तो की होती?” वह लगभग चिल्लाते हुए बोली तो आसपास की  टेबल पर बैठे लोग हमारी ओर देखने लगे.

“मैं तुम्हें फेस नहीं कर सकता था. इसे मेरी कमजोरी समझ लो या कायरता,” मैं मन में शर्मिंदगी अनुभव कर रहा था.

“तुम नहीं मिले, एक बार भी नहीं सोचा कि मेरे ऊपर क्या बीतेगी. एक बार बात तो करते. मैं तुम से प्रेम नहीं करती थी बल्कि पूजती थी. तुम्हें भी याद होगा कि एक बार जब हम एकांत में बैठे थे तो मैं स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख पाई तो तुम ने ही मुझे समझाया था और तुम ने संयम नहीं खोया और मुझे जबरदस्ती रोका. इसलिए तुम्हें पूजती थी,” उस की आंखों में छिपे आंसू उस के गालों पर लुढ़कने लगे. मैं चाह कर भी उस के आंसू न पोंछ सका.

तभी उस के फोन की घंटी बजने लगी. वह बात करने लग गई. मैं ने अंदाजा लगाया कि फोन पर पति से बात कर रही थी.

“उन का फोन था. पिक करने के लिए कह रहे थे. मैं ने उन से कहा है कि वे घर जाएं, मैं भी आ रही हूं.” मेरा अनुमान ठीक था.

उस ने मेरा फोन ले कर अपने फोन पे एक नंबर डायल किया और बताया कि यह उस का फोन नंबर है. वह औटो ले कर बिना अपना घर का पता दिए या मेरा लिए चली गई. मैं वहीं खड़ा देखता रहा जब तक कि औटो आंखों से ओझल नहीं हो गया. आज मैं बहुत हलका अनुभव कर रहा था. वर्षों से जो मन पर एक अपराधबोध महसूस कर रहा था, वह निकल गया.

सुबह जब मैं वापस जाने के लिए तैयार हो रहा था तो मेरे फोन पर एक अजनबी फोन नंबर से कौल आई. मैंने अटेंड की तो हक्काबक्का रह गया. यह रश्मि के पति सौरभ की कौल थी. वह मिलना चाहता था. मैं असमंजस में पड़ गया. कोई और चारा न देख मैं ने उस से बसस्टैंड पर मिलने के लिए कह दिया क्योंकि एक घंटे बाद मेरी बस निकलने वाली थी.

हम एकदूसरे को नहीं जानते थे, देखा ही नहीं था कभी. बसस्टैंड पहुंचते ही मैं ने उस के फोन पर कौल की तो उस ने तुरंत अटेंड की.

देखा तो वह बस के समीप ही फोन कान पर लगाए बात कर रहा था. उस ने भी मुझे देख लिया. उस के हाथ में एक डब्बा था.

हाथ मिलाने की औपचारिकता के बाद वह डब्बा मुझे पकड़ाते हुए बोला, ”यह रश्मि ने भेजा है, कह रही थी कि आप को खीर बहुत पसंद है. इस के साथ ही मैं आप का धन्यवाद करना चाहता हूं कि आप से मिलने के बाद वह आज वर्षों बाद गहरी और चैन की नींद सोई है. नहीं तो वह आधी रात के बाद करवटें ही बदलती रहती थी. आज पहली बार मैं ने उस के चेहरे पर एक शांति देखी है.  यह कार्ड भी भेजा है. हमारी बेटी की शादी है, आना अवश्य.”

मैं डब्बा और कार्ड लिए किंकर्तव्यविमूढ़ सा खड़ा रह गया. बस कंडक्टर ने सीटी बजाई तो चेता और बस पर चढ़ते हुए केवल उस का धन्यवाद ही कर सका. हम बेवफा हरगिज़ न थे, पर हम वफ़ा कर न सके.

Hindi Kahani : बिना जड़ का पेड़ – क्या किशनराय अपने परिवार से दूर रह पाया?

Hindi Kahani : मैं आज से कोई 5-6 साल पहले अपना घर व व्यवसाय छोड़ कर पाकिस्तान से हिंदुस्तान आया था खुद को अपने सहधर्मी व्यक्तियों के बीच सुरक्षित रखने के लिए,’ यह वे हमेशा अपने से मिलने वाले लोगों से बोला करते. किशनराय हमारे बंगले के पास अभी रहने आए थे. मैं उन के मुख से कई बार यहां भारत के अनुभव व पाकिस्तान में उन की सुखद आर्थिक स्थिति के बारे में सुनता रहता था. एक दिन मैं ने उन से यों ही मजाक में कहा, ‘‘किशनरायजी, आप हमेशा अपने बारे में किस्तों में बताते रहते हैं, कभी साथ बैठ कर अपनी पूरी कहानी सुनाइए,’’ मगर उन के चेहरे के भावों को देख कर मैं ने जल्दी क्षमा मांगी.

उन्होंने गहरी सांस ली और बोले, ‘‘चांडक साहब, इस में क्षमा की बात नहीं है. आप ठीक कहते हैं, मुझे हर किसी से अपनी बात नहीं कहनी चाहिए. लेकिन क्या करूं, मन में रख नहीं रख पाता हूं, अंदर घुटन महसूस करता हूं. सच कहूं, मैं अपनी पूरी कहानी किसी को सुनाना चाहता हूं ताकि जी हलका हो सके.’’ यह कह कर उन्होंने उदासी जाहिर की.

‘‘आज मैं अपने काम से फारिग हूं, आप को एतराज न हो तो मैं आप की कहानी सुनना चाहता हूं. विश्वास कीजिए, मैं आप की कहानी का मजाक नहीं बनाऊंगा,’’ मैं ने संजीदगी से कहा. उन्होंने मेरी ओर गंभीर नजरों से देखा, शायद सोचा हो कि कहूं या नहीं? लेकिन फिर उन्होंने अपनी कहानी शुरू की, अपने पाकिस्तान में जन्म से ले कर व भारत में स्थायी होने तक.

‘‘मेरा जन्म पाकिस्तान में एक रईस व जमींदार हिंदू परिवार में हुआ था. मैं ने बचपन से ले कर जवानी तक कभी भी किसी चीज की कमी महसूस नहीं की, जो चाहा वह मिला. घर पर नौकरों की फौज थी. मेरे बाबा हमारे गांव के सब से बड़े जमींदार थे. गांव में वही होता था जो हमारे बाबा चाहते थे. यह सब आजादी के पहले की नहीं, आजादी के बाद की बात थी.

‘‘हमारा वहां बहुत बड़ा संयुक्त परिवार था. हम ने कभी भी अपनेआप को अकेला महसूस नहीं किया. 2 साल पढ़ने के लिए मैं कराची गया. लेकिन पढ़ाई बीच में छोड़ कर मैं जल्दी जमींदारी में लग गया.

‘‘कुछ समय बाद हम ने शहर में भी अपना व्यवसाय खोल दिया. हम हिंदू थे पर पूरा गांव मुसलमान था. हमारे नौकर व ग्राहक मुसलिम थे.

‘‘मैं ने कभी जाना भी नहीं कि हिंदू व मुसलिमों में फर्क भी होता है. न ही कभी गांव के मुसलिमों ने हमें यह महसूस होने दिया. 1965 व 1971 में जब हमारे रिश्तेदारों ने, जो पाकिस्तान छोड़ कर हिंदुस्तान जा रहे थे, हमारे दादा से भी हिंदुस्तान चलने का आग्रह किया था. लेकिन दादा अपनी जन्मभूमि छोड़ कर जाने को तैयार ही नहीं थे. वे हठीले जमींदार थे, दूसरा, उन्होंने कभी खतरा महसूस नहीं किया.

‘‘हम लोग वहां सुख व आनंद के साथ जी रहे थे. मेरे बड़े भाई स्थानीय समर्थकों की सहायता से वहां की नगरपालिका के अध्यक्ष बने. उन्होंने वहां की जनता के लिए अच्छे काम किए और लंबे समय तक इस पद पर बने रहे. लेकिन इस बीच अयोध्या के मामले ने हमारे दिलोदिमाग को भीतर तक झकझोरा और हम पहली बार खुद को असुरक्षित समझने लगे. हम अपने दोस्तों व गांव वालों से नजरें मिलाते तो ऐसा लगता जैसे हिंदुस्तान में जो हो रहा है उस के लिए हम जिम्मेदार हैं.

‘‘हमें हिंदुओं के बारे में धार्मिक स्थिति तो पता थी पर सामाजिक व राजनीतिक स्थिति से हम लोग अनजान थे. अब हम जब अपने दूसरी जगहों के रिश्तेदारों से मिलते तो यही चर्चा होती कि क्या हम पाकिस्तान में सुरक्षित हैं? यदि हां, तो कब तक? हमारे चेहरे भले ही शांत हों पर मनमस्तिष्क में द्वंद्व चलता रहता था. मस्तिष्क कह रहा था कि हम सुरक्षित नहीं हैं पर मन कहता कि यह तो हमारी जन्मभूमि है.

‘‘इस बीच रथयात्रा निकली. हिंदुस्तान के दंगों की चर्चा पाकिस्तानी समाज व अखबारों में होने लगी. वहां कुछ लोग इस की प्रतिक्रिया करने लगे. पुराने मंदिर खंडहर फिर समतल मैदान होने लगे. हिंदुओं की दुकानें, जो गिनीचुनी थीं, लूटी जाने लगीं.

‘‘मुझे लग रहा था कि भारत व पाकिस्तान के विभाजन की प्रक्रिया अभी तक पूरी नहीं हुई है. अब हमारा पाकिस्तान में रहना मुझे असहज लगने लगा. मैं अब जल्द से जल्द विधर्मी देश को छोड़ कर सहधर्मी देश में आने की सोचने लगा ताकि मैं अपने लोगों के बीच सुरक्षित महसूस कर सकूं. मुझे लग रहा था कि भारत पाकिस्तान के विभाजन की प्रक्रिया अभी तक पूरी नहीं हुई है. मैं परिवार के सदस्यों के बीच इस बात को ले कर विचारविमर्श करने लगा. लेकिन सब ने मुझे यही समझाया कि यहां से उखड़ कर, वहां पनपना आसान नहीं होगा. यहां की जमींदारी व जमाजमाया व्यवसाय छोड़ कर कहीं तुम्हें वहां पर दरदर की ठोकरें न खानी पड़ें. तुम्हारी हालत बिना जड़ के पेड़ की तरह हो जाएगी. आखिर उन का तर्क सही था.

‘‘लेकिन दूसरी तरफ मन कहता कि जहां चाह वहां राह. दूसरा, मेरा हठीला स्वभाव अपने बाबा पर गया था. ‘‘जब मेरे मुसलमान दोस्तों व गांव वालों को मेरे निर्णय के बारे में पता चला तो वे सब मेरे पास आए और मुझे समझाने लगे, ‘किशन, तुम्हें हम पर विश्वास नहीं, हम लोग न जाने कितनी पीढि़यों से एकसाथ रह रहे हैं, क्या हमारे होते हुए तुम्हें आंच आ सकती है?’ समझाते हुए उन की आंखों में आंसू आने लगे. मैं भी रोने लगा. एक बार तो मैं ने भी अपना निर्णय बदलने की सोची लेकिन कुछ समय बाद के बुरे खयालों से मेरा दिल कांपने लगा.

‘‘आखिरकार, मैं अपना घर, कारोबार व जन्मभूमि, बसबसाया सुख छोड़ कर अनजाने लेकिन सहधर्मी देश की ओर निकल पड़ा, संशयपूर्ण भविष्य को साथ में ले कर.

‘‘घर व गांव को छोड़ते हुए मेरे आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे. मेरे परिजन, गांव वालों व दोस्तों की आंखों में आंसू थे. मेरे दोस्तों व गांव वालों ने विदा करते समय कहा, ‘किशन, यदि तुम्हें पराई जमीन पंसद न आए तो निसंकोच अपने गांव वापस आ जाना,’ यह उन के अंतिम वाक्य थे, जो मुझे न जाने कितनी बार याद आए. ‘‘अभी तक तो मेरी जिंदगी सुख के धरातल पर चल रही थी. पुरखों के बोए बीजों के फल मैं खा रहा था. ऊबड़खाबड़ और परेशानियों वाली जिंदगी के दर्शन अभी तक बाकी थे जो यहां आने के बाद होने लगे.

‘‘नई आशा व विश्वास में आ गया अपने सहधर्मी देश. बहुत सारे सामान व अपने परिवार के साथ मैं मुंबई एयरपोर्ट पर उतरा. सब से पहली परेशानी यहीं से शुरू होती है. यहां पर कस्टम अधिकारियों ने शुरू में बहुत परेशान किया क्योंकि एक तो मैं पाकिस्तान से आया था, दूसरा मेरे साथ पूंजी के रूप में बहुत सारा सोना आभूषणों के रूप में मेरे साथ था पर जब उन्होंने पाकिस्तान में एक हिंदू के रूप में मेरी व्यथा सुनी तो उन का दिल पसीजा और उन्होंने न सिर्फ कस्टम ड्यूटी माफ की बल्कि उन्होंने मेरे और मेरे परिवार को कैंटीन में खाना भी खिलाया. मेरे प्रति एक हिंदू के रूप में यह पहली सहानुभूति थी.

‘‘हिंदुस्तान आ कर कुछ दिन मैं अपनी बड़ी बहन के यहां रहा. कुछ दिनों बाद उन्हीं के शहर में एक मकान भी लिया, जहां मैं ने पहली बार सहधर्मी पड़ोसियों के अनुभव लिए. मैं जहां रह रहा था वहां पाकिस्तान से विस्थापित हो कर आना जिज्ञासा का विषय नहीं था, क्योंकि हमारी तरह के बहुत सारे परिवार विस्थापित हो कर यहां आ कर बस गए थे. जिज्ञासा का विषय तो हमारा शाही रहनसहन व खानपान था. साथ में, हमारा बड़ा परिवार भी सब की नजरों में चर्चा का विषय था. हमारे यहां 8-10 सदस्यों का परिवार सामान्य समझा जाता था. लेकिन यहां के 2-3 सदस्यों वाले परिवारों में हमें स्वाभाविक रूप से चर्चा का विषय बनना ही था.

‘‘हमारी मातृभाषा सिंधी थी जो यहां की गुजराती भाषा से बहुत भिन्न थी. हालांकि मुझे इस की खास परेशानी नहीं थी क्योंकि कराची में मेरे कुछ दोस्त गुजरात से आए हुए थे, लेकिन बच्चों व बीवी को बहुत परेशानी होती थी. ‘‘हम ने कुछ ही समय में सारी भौतिक सुखसुविधाएं जुटा लीं. हमारा शाहीखर्च उन को आश्चर्यचकित कर देता था. मेरी पत्नी का उन को चायनाश्ते के साथ स्वागत करना विस्मय से भर देता था क्योंकि वे लोग चाय तक ही सीमित रहते थे. बच्चों का दिनभर झगड़ना उन की शांत जिंदगी में तूफान ला देता था. बहुत लोगों ने इस की शिकायत की. लेकिन मेरे कहने पर कि- ये तो बच्चे हैं- वे गुस्से में आ जाते थे, कहते, ‘आप तो बड़े हैं,’ हमारा ऐसा अपमान बहुत बार हुआ.

‘‘काम करने वाली जिस दिन नहीं आती उस दिन जूठे बरतनों व कपड़ों का अंबार लग जाता था. मेरे घर का माहौल देख कर लोगों ने धीरेधीरे आना बंद कर दिया. ‘‘उधर मैं व्यवसाय ढूंढ़ने के लिए इधरउधर अपने भाई के दोस्त के साथ भटकने लगा. व्यवसाय शुरू करना व उसे सुचारु रूप से चलाना कितना मुश्किलभरा होता है, यह मुझे अब पता लगना था. अब तक मैं अपने बापदादा की जमीजमाई जमींदारी पर आराम के साथ जिंदगी गुजार रहा था.

‘‘दूसरी तरफ मेरी बहन के परिवार के साथ मेरा संबंध कटने लगा. वे मुझे व्यवसाय में मदद के लिए असमर्थ लगे. लेकिन आज सोचता हूं कि वे उस समय कितने सही थे. उन का मुझे कुछ समय राह देख कर व्यवसाय शुरू करने की सलाह को मैं ने गलत तरीके से लिया था. आज यह सोच कर ग्लानि से भर उठता हूं.

‘‘मैं ने जल्द ही भाई, दोस्त के कहने पर अहमदाबाद के नजदीक शहर में अपना व्यवसाय शुरू किया, लेकिन जो व्यवसाय मैं ने शुरू किया उस का मुझे तनिक भी अनुभव नहीं था. जिस कारण शुरू में मैं बहुत परेशान रहा. ‘‘मेरी परेशानी देख कर मेरी बहन ने अपने बेटे को मेरी मदद करने के लिए भेजा. वह इस मामले में बड़ा अनुभवी व होशियार निकला. उस ने मेरे व्यवसाय को जमाने में मेरी बहुत मदद की. मेरे बच्चे तो बहुत ही छोटे थे.

‘‘बच्चों को भी शुरू में विद्यालय व आसपास के माहौल में सामंजस्य बैठाने में बहुत तकलीफें आईं. भाषा की तकलीफें तो थीं ही, साथ में और भी कई परेशानियां थीं. ‘‘एक बार मेरे बेटे से विद्यालय में राष्ट्रगान बोलने को कहा गया तो उस ने पाकिस्तान का राष्ट्रगान सुना दिया. इस पर विद्यालय व शहर में बहुत हंगामा हुआ. घर पर बुलावा आया, मुझे माफी मांगनी पड़ी व भविष्य में ऐसा नहीं होगा, लिखित आश्वासन भी देना पड़ा. ‘‘हर महीने पुलिस थाने जा कर उपस्थिति के साथ नजराना भी देना पड़ता था. यहां पर व्यवसाय के चक्कर में सरकारी अधिकारियों के साथ रोज पाला पड़ता था.

‘‘मेरा सपना हिंदुस्तान आ कर चकनाचूर हो गया. मैं ने तो यह सपना देखा था कि सहधर्मी देश आ कर मैं सुरक्षित व सुखी रहूंगा. हालांकि मुझे व्यवसाय में सफलता मिल रही थी पर मैं यहां की परेशानियां झेलने में असफल व असमर्थ था. ‘‘जब मैं अपने साथी व्यापारी व रिश्तेदारों से बातें करता तो वे हंस कर कहते, ‘ये तो रोज की साधारण बातें हैं जिन का जिंदगीभर सामना करना पड़ता है. जितना बड़ा व्यापारी उतनी ज्यादा परेशानियां.’

‘‘मैं परेशान हो गया, मन में अजीब सा द्वंद्व पैदा हो गया. कभीकभी सोचता था कि सबकुछ छोड़ कर वापस पाकिस्तान चला जाऊं लेकिन वहां मेरे दोस्त व रिश्तेदार क्या कहेंगे? क्या उन के व्यंग्यबाण मैं झेल पाऊंगा? हो सकता है वहां की सरकार मुझे शक की नजरों से देखे.

‘‘इस तनाव के कारण मैं चिड़चिड़ा हो गया. मैं तनाव में रहने लगा. मेरे व्यवहार में अजीब सी कर्कशता आ गई. बच्चे भी सहमने लगे. मैं ने पहली बार जाना कि अपनी जड़ों से कट कर दूसरी जगह जुड़ना कितना कठिन व कष्टदायक होता है. ‘‘मुझे बीमार व तनाव में देख कर मेरी पत्नी ने बड़ी बहन को बुलाया. मेरी हालत देख कर मेरी बहन की आंखों में आंसू आ गए.

‘‘मैं ने रोते हुए कहा कि ‘दीदी, अब मैं यहां और नहीं रह सकता. मेरे में और परेशानियां झेलने की क्षमता नहीं है. मैं अब वापस अपने लोगों के बीच लौट जाना चाहता हूं.’

‘‘उस ने कहा, ‘क्या हम तुम्हारे नहीं हैं, किशन? और फिर क्या बारबार एक जगह से पेड़ों को उखाड़ कर दूसरी जगह रोपना आसान है? क्या तुम पहले की तरह वहां रह सकोगे? इतना फैला हुआ व्यापार समेटना क्या आसान है? तुम्हारे बच्चों का यहां मन लग गया है. देखो, वे कितने खुश हैं,’ मस्ती से खेलते बच्चों को देखती हुई बहन आगे बोली, ‘क्या वापस पाकिस्तान जा कर बच्चों की हालत तेरी जैसी नहीं हो जाएगी?’

‘‘कुछ देर रुक कर दीदी आगे बोली, ‘तुम एक बार वहां की जिंदगी को भूल कर, वहां के सारे सुखों को भूल कर, यहां नई जिंदगी शुरू कर दो. यही सोचो कि तुम्हारा जन्म यहीं पर हुआ है. मैं जब ससुराल आई थी, तब मेरा यहां कोई नहीं था. मैं अपना सुखदुख किसी को सुना नहीं सकती थी. लेकिन तुम्हारा तो यहां पूरा परिवार है, मैं हूं, अपने लोगों से तुम्हारा फोन पर संपर्क है. फिर भी तुम जल्दी घबरा गए, जल्दी हार मान गए. मैं तो तुम्हारी तरह वापस भी नहीं जा सकती थी. तू तो मेरा भाई है, तेरे में तो मेरे से भी ज्यादा हिम्मत, हौसला व हिम्मत होनी चाहिए. उठ और हिम्मत से काम ले. सहनशील व संयमशील बन कर जिंदगी को आसान व सफल बना.’ दीदी ने मेरे सिर पर हाथ फेरा.

‘‘उन की बात सही थी कि मेरा वापस जाना संभव नहीं. मेरे बच्चों की भी हालत मेरी जैसी न हो जाए. अब मुझे यहीं रहना होगा. मुझे ही इस मुल्क के अनुकूल होना पड़ेगा, यह सोच कर मैं ने अपना मन मजबूत किया. इस से जो समस्याएं मुझ में पहाड़ सी दिखती थीं वे कंकड़ के समान दिखने लगीं. मैं वही हंसमुख किशन बना. मुझ में हद से ज्यादा संयमशीलता आ गई. मेरा व्यवसाय अच्छा जमने लगा.’’ किशनराय के घर से आने के बाद मैं सोचने लगा कि सच में कितना मुश्किल होता है अपनी जड़ों से कट कर दूसरी जगह पनपना, भले ही वह जगह अपनी मनपंसद व अनुकूल ही क्यों न हो.

Love Story : तबाही – आखिर क्या हुआ था उस तूफानी रात को

Love Story : सब कुछ पहले की तरह सामान्य होने लगा था. 1 सप्ताह से जिन दफ्तरों में काम बंद था, वे खुल गए थे. सड़कों पर आवाजाही पहले की तरह सामान्य होने लगी थी. तेज रफ्तार दौड़ने वाली गाडि़यां टूटीफूटी सड़कों पर रेंगती सी नजर आ रही थीं. सड़क किनारे हाकर फिर से अपनी रोजीरोटी कमाने के लिए दुकानें सजाने लगे थे. रोज कमा कर खाने वाले मजदूर व घरों में काम करने वाली महरियां फिर से रास्तों में नजर आने लगी थीं.

पिछले दिनों चेन्नई में चक्रवाती तूफान ने जो तबाही मचाई उस का मंजर सड़कों व कच्ची बस्तियों में अभी नजर आ रहा था. अभी भी कई जगहों में पानी भरा था. एअरपोर्ट बंद कर दिया गया था. पिछले दिनों चेन्नई में पानी कमरकमर तक सड़कों पर बह रहा था. सारी फोन लाइनें ठप्प पड़ी थीं, मोबाइल में नैटवर्क नहीं था. गाडि़यों के इंजनों में पानी चला गया था, जिस के चलते कार मालिकों को अपनी गाडि़यां वहीं छोड़ जाना पड़ा था. कई लोग शाम को दफ्तरों से रवाना हुए, तो अगली सुबह तक घर पहुंचे थे और कई तो पानी में ऐसे फंसे कि अगली सुबह तक भी न पहुंचे. कई कालेजों और यूनिवर्सिटीज में छात्रछात्राएं फंसे पड़े थे, जिन्हें नावों द्वारा सेना ने निकाला.  पूरे शहर में बिजली नहीं थी.

चेन्नई तो वैसे भी समुद्र के किनारे बसा शहर है, जहां कई झीलें थीं. उन झीलों पर कब्जा कर सड़कें व अपार्टमैंट बना दिए गए हैं. इन 7 दिनों में चेन्नई का दृश्य देख ऐसा मालूम होता था जैसे वे झीलें आक्रोश दिखा कर तबाही मचाते हुए अपना हक वापस मांग रही हों. चेन्नई की सड़कों पर हर तरफ पानी ही पानी नजर आ रहा था.

निचले तबके के लोगों के घर तो पूरी तरह डूब चुके थे. लोग फुटपाथों पर अपने परिवारों के संग सोने को मजबूर थे और सुबह के वक्त जब पेट की आग तन को जलाने लगी, तो वे झपट पड़े एक छोटे रैस्टोरैंट मालिक पर खाने के लिए. क्या करते बेचारे जब बच्चे भूख से बिलख रहे हों. जेब में एक फूटी कौड़ी न हो तो इनसान जानवर बन ही जाएगा न. हर तरफ तबाही का मंजर था. रात के करीब 11 बजे थे. जिस को जहां जगह मिली उस ने वहीं शरण ले ली. ऊपर से मूसलाधार बारिश और नीचे समुद्र का साम्राज्य. ऐसे में दफ्तर से निकली रिया पैदल एक स्टोर की पार्किंग में पनाह के लिए आ खड़ी हुई. धीरेधीरे पार्किंग में 2-4 और लोग भी शरण लेने आ पहुंचे. तभी 2-4 लोग शराब के नशे में धुत्त वहां आ गए और फिर रिया से छेड़छाड़ करने लगे. वह समझ चुकी थी कि उसे वहां खतरा है, लेकिन करती भी क्या? आगे समुद्र की तरह हाहाकार मचाता पानी और पीछे जैसे देह के भूखे भेडि़ए. वे उसे ठीक वैसे ही घूर रहे थे जैसे जंगली जानवर ललचाई नजरों से अपने शिकार को देखते हैं. वहां खड़ी भीड़ यह सब देख रही थी और समझ भी रही थी, लेकिन गुंडेबदमाशों से पंगा कौन ले? अत: सब समझते हुए भी अनजान बने हुए थे.

वहीं भीड़ में खड़े आकाश से यह सब होते देखा न गया तो वह बोल पड़ा, ‘‘अरे भाई साहब क्यों परेशान कर रहे हैं आप इन्हें? पहले ही पानी ने इतनी तबाही मचाई है, ऊपर से आप लोग एक अकेली लड़की को परेशान कर रहे हैं.’’

बस फिर क्या था. अब आफत आकाश पर आन पड़ी थी. उन शराबियों में से एक बोला, ‘‘तू कौन लगता है इस का? क्या लगती है यह तेरी? बड़ी फिक्र है तुझे इस की?’’ और फिर उस लड़की को छूते हुए बोला, ‘‘क्या छूने से घिस गई यह? अब बोल तू क्या कर लेगा? और छुएंगे इसे बोल क्या करेगा तू?’’

आसपास के सभी लोग सहमे से खड़े तमाशा देख रहे थे. सब देख कर भी नजरें इधरउधर घुमा रहे थे. कोई अपनी जान जोखिम में नहीं डालना चाहता था.

रिया घबराई, सहमी सी आकाश के पीछे खड़ी हुई. आकाश ही उस का एकमात्र सहारा है, यह वह जान चुकी थी. अब तो उन शराबियों की हरकतें और बढ़ गईं.

आकाश ने रिया को घबराते देख कहा, ‘‘जब तक मैं हूं तुम्हें कुछ नहीं होगा. तुम डरो नहीं.’’

रिया सिर्फ  रोए जा रही थी. अब तो उन शराबियों ने आकाश के साथ हाथापाई भी शुरू कर दी.

तभी भीड़ में से कुछ लोग आकाश का साथ देने लगे और रिया को घेर कर खड़े हो गए ताकि वे उसे परेशान न कर सकें. शराबियों को अब आकाश से मुकाबला करना भारी पड़ रहा था. उन्हें ऐसा महसूस हुआ जैसे आकाश के कारण आज उन का शिकार उन के पंजे से छूट गया.

वे आकाश को गालियां दे रहे थे. तभी उन शराबियों में से एक ने छुरा निकाल कर आकाश के सीने में 5-6 वार कर दिए उसे बुरी तरह जख्मी कर वहां से भाग निकले. किसी के मुंह से खौफ के मारे उफ तक न निकली. ऐसी तबाही में आकाश को अस्पताल पहुंचाते भी तो कैसे? जैसेतैसे एक नाव का इंतजाम किया और उसे अस्पताल ले जाया गया. उस के शरीर से बहुत खून बह चुका था. डाक्टर ने उसे मृत घोषित कर दिया.

आकाश चेन्नई में सौफ्टवेयर इंजीनियर के पद पर कार्यरत था और उस का परिवार मुंबई में रहता था. उसे कंपनी ने तबादले पर यहां भेजा था. मैं और आकाश एक ही दफ्तर में कार्य करते थे. जब मैं ने उस की मौत की खबर अखबारों में पढ़ी तो मुझ से रहा न गया और मैं अगले ही दिन मुंबई चल दी. ताकि उस के परिवार वालों को सांत्वना दे सकूं.

मुंबई पहुंची तो आकाश के घर में मातम पसरा था. उस के बच्चों के आंसू रोके न रुकते थे और उस की पत्नी वह तो स्वयं तबाही का एक मंजर लग रही थी. मैं मन ही मन कुदरत से पूछती रही कि अच्छे काम का तो इनाम मिलता है. तो फिर यह कैसी सजा मिली है आकाश व उस के परिवार को? एक असहाय लड़की की इज्जत को तबाह होने से बचाने की यह सजा? आखिर क्यों?

आकाश के घर में ऐसा हाहाकार मचा था मानो धरती का करूण हृदय भी फूट पड़े और आंसुओं की अविरल धारा में सारा शहर समा जाए. चेन्नई में तो तबाही के बाद जनजीवन सामान्य होने लगा था, किंतु वह तबाही जो चेन्नई से मुंबई आकाश के घर पहुंची थी शायद कभी सामान्य न हो. झीलें तो शायद अपना हक हाहाकार मचा कर मांग रही थीं, किंतु आकाश की पत्नी अपना हक किस से मांगे? क्या कोई लौटा सकता है उन बच्चों के पिता को? आकाश को?

Romantic Story : जो जाती नहीं कभी वह – नमिता और अखिल किसके खिलाफ थे?

Romantic Story : दरवाजे की घंटी बजने पर नमिता ने गेट के बाहर देखा तो लगभग 32-33 साल का एक युवक खड़ा था.
“सुना है, आप के यहां कमरा खाली है…” उस ने पूछा.

“हां, खाली तो है। एक कमरा, किचन, बाथरूम और डाइनिंग स्पेस है… 3,500 से कम किराए में नहीं देंगे और बिजली का मीटर अलग से लगा है…” नमिता बोली।

नमिता के पास अपने घर के बगल से लगा 100 वर्ग गज का एक प्लौट था, जिस में एक कमरा, किचन, बाथरूम बने हुए थे, जिसे वह किराए पर उठा देती थी। छोटा और पुरानी बनावट का होने के कारण कोई अच्छी सर्विस वाला व्यक्ति किराए पर नहीं लेता था और अकसर कोई लेबर, औटो वाले, सिक्युरिटी गार्ड जैसे लोगों को ही उठाना पड़ता था। कम आमदनी के कारण कोई भी 2-3 हजार से ज्यादा नहीं देना चाहता था। एक तो रहना फिर बिजलीपानी। नमिता को 2,500 चूरन के पैसों के बराबर भी न लगते और ऊपर से इतना किराया भी कई बार याद दिलादिला कर मिलता। लेकिन जब खाली पड़ा रहता तो गंदगी होती इसलिए किराए पर उठा देना भी ठीक लगता। कम से कम साफसफाई तो होती रहती थी.

“इस बगल वाले मकान को तुड़वा कर होस्टल बनवा लेंगे। पढ़ने वाले बच्चे रख लिया करेंगे। किराया भी समय पर देंगे और ज्यादा किचकिच भी नहीं करेंगे,” नमिता के पति अखिल अपनी योजनाएं बनाते रहते।

“होस्टल तो तब बनवा लेंगे न जब पैसा होगा। अब क्या मकान बनवाना आसान काम है,” नमिता मुंह बना कर कहती।

“जब सस्ता मिल गया तो प्लौट ले लिया यह ही क्या कम है। बेटी की शादी में काम आएगा…” नमिता की अपनी सोच और योजना थी.

“दीदी, कुछ कम कर लो, इतना कहां से दे पाएंगे। सिक्युरिटी गार्ड की नौकरी करते हैं एक सोसाइटी में। कुल 12,500 मिलते हैं जिस में बीवीबच्चों का खर्चा भी चलाना है,” वह युवक गिड़गिड़ाने सा लगा तो नमिता को अच्छा नहीं लगा।

“कहां हमारे बच्चे एक दिन में हजारों की खरीदारी कर लाते हैं और कहां 10-12 हजार में पूरे महीने का खर्चा चलाना…” कितना कठिन होता होगा, उसे एहसास था।

“3,000 से कम में नहीं देंगे और 1 महीने का किराया ऐडवांस में देना होगा और बिजली का मीटर अलग लगा है। बिजली का अलग देना होगा,” उस ने जबरदस्ती कठोर बनने का प्रयास करते हुए कहा।

“कुछ कम हो जाता तो अच्छा था,” वह बोला पर नमिता टस से मस नहीं हुई।

आखिर में 1,000 रुपए ऐडवांस दे कर वह कमरा बुक करने को कहने लगा।

“नाम क्या है तुम्हारा?” नमिता ने पूछा।

वह कठोर हृदय नहीं थी और देश के हालात और निम्नवर्ग की स्थिति से अच्छी तरह से वाकिफ थी। निजीकरण ने देश के बेरोजगार वर्ग को 10-12 हजार का मज़दूर बना कर रख दिया था। ‘इतनी सी कमाई में कौन कैसे जी सकता है?’ इस प्रश्न से वह अकसर जूझती रहती थी।

“हमारा नाम दीपक है और एक बात और बताना चाहते हैं आप को…” उस ने बड़े कातर भाव से कहा।

“क्या? कहो…”

“हम जाति के वाल्मीकि हैं…”

नमिता को एक बार तो झटका सा लगा मगर फिर भी उस ने खुद को रोक लिया क्योंकि वह भी कोई ऊंची जाति से नहीं थी न ही उस की सोच नकारात्मक थी और समाज में फैले जातिवादी जहर से वह अच्छी तरह से परिचित थी। प्लौट के बगल में जो परिवार था वे बड़े अहं वाले एवं पूजापाठ वाले व्यक्ति थे। वैसे तो लोग कहते थे कि वे ओबीसी के हैं मगर बहुत धार्मिक व रूढ़िवादी सोच के थे। उन्हें दीपक का अपने बगल में रहना घोर नागवार गुजरता। पर नमिता भी जिद्दी थी और गलत बात पर झुकना या समझौता कर लेना उस की प्रवृत्ति में नहीं था।

“ठीक है, तुम कोई गलत काम तो करते नहीं हो तो हमें कोई दिक्कत नहीं है। तुम अपना सामान ले कर रहने आ जाना।”

“धन्यवाद दीदी…आप को किराया बिलकुल समय से मिल जाया करेगा…” उस के चेहरे पर सम्मान व संतुष्टि के भाव थे।

महीने की 1 तारीख को दीपक अपनी पत्नी और 2 बच्चों के साथ रूम में शिफ्ट होने आ गया। उस के पास बहुत सारे गमले थे जिन में उस ने फूलों वाले पौधे लगा रखे थे। पत्नीबच्चे खूब सुंदर और साफसुथरे थे।

जाति व स्त्रीपुरुष के नाम पर मनुष्यमनुष्य में भेद करने वाली सामाजिक व्यवस्था से नमिता को बड़ी खीज होती थी. अपने बगावती तेवरों के साथ वह समाज में किसी भी तरह के अन्याय और भेदभाव के विरुद्ध थी और खुल कर अपनी बात कहती थी साथ ही स्वयं अमल भी करती थी. अपनी दोनों बेटियों के बाद सास और ससुराल वालों के पूरे जोर डालने पर भी उस ने तीसरा बच्चा नहीं किया. बेटेबेटी के भेद से उसे सख्त ऐतराज था.

ऊंची जाति वालों का खून क्या ज्यादा गाढ़ा होता है या उन के ब्लड ग्रुप अन्य जाति वालों से अलग होते हैं?
मोहल्ले वाले नाकभों सिकोड़ेंगे, यह वह जानती थी फिर भी उस ने दीपक को कमरा किराए पर दे दिया था. उस के 2 बच्चे, एक बेटा, एक बेटी थे। पत्नी का नाम पार्वती था. वह घर पर ही रहती। घर को साफसुथरा रखती थी. दोनों बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ने जाते थे. दीपक बातचीत और व्यवहार में बहुत शिष्ट था और नमिता को दीदी कह कर पुकारता था। जब भी सामने पड़ता नमस्ते कर लेता था.

“दीदी, तुम ने मेहतर को किराए पर रख लिया है…कमरे में…” पड़ोसी का बेटा कुछ नाराजगी और कुछ गुस्से में बोला उस के घर आ कर.

“हां, तो क्या हुआ… क्या वह इंसान नहीं है…और मेरा घर मैं चाहे जिस को दूं…वैसे भी मैं इन सब बातों पर विश्वास नहीं करती.”

“उस के घर के कपड़े या कोई सामान हमारे घर आ गिरा तो हम क्या करेंगे और कैसे वापस करेंगे?”

“वे अपने घर में रहते हैं तुम अपने घर में और तुम कौन होते हो आपत्ति करने वाले? क्या तुम्हें मालूम नहीं है कि इस देश में प्रजातंत्र है और जातपात, धर्म के आधार पर भेद करना कानून के खिलाफ है…” नमिता ने आवेश में उसे बहुत सारी बातें सुना डालीं.”

लड़का भुनभुनाता हुआ चला गया. दीपक और उस का परिवार कमरे में रहने लगा था। नमिता अपने घरबाहर के कामों में व्यस्त हो गई। वैसे भी किराएदार कैसे रह रहे हैं, क्या कर रहे हैं इन सब मामलों में वह ज्यादा दखल नहीं देती थी। अखिल की भी ऐसी ही आदत थी। न ही वे समय पर किराए के लिए किराएदार का दिमाग खाते थे. कोरोनाकाल में रह रही एक महिला से तो नमिता ने महीनों किराया ही नहीं लिया था. 1 महीना पूरा होने में 4-6 दिन ही बाकी थे कि दीपक एक दिन नमिता से बोला, “दीदी, कल कमरा खाली कर देंगे… बच्चों को वहीं बस्ती में रहना अच्छा लगता है जहां वे पहले रहते थे। यहां उन का मन नहीं लगता.”

“क्यों क्या परेशानी है यहां?” चौंक गई नमिता.

“कुछ नहीं… बस बच्चों का मन नहीं लगता यहां…”

“तो फिर आए ही क्यों थे?” गुस्सा आ गया उसे.

‘इस के लिए सब की नाराजगी की परवाह नहीं की और यह झट से भागने लगा…भगोड़ा…’ उस ने मन ही मन सोचा.

सचमुच महीना पूरा होते ही बाकी का किराया और बिजली का बिल दे कर दीपक कमरा खाली कर अपना सामान ले कर चला गया. नमिता से अपना गुस्सा दबाए नहीं दब रहा था. वह लगातार अपनी भड़ास दीपक को भलाबुरा कह कर निकाल रही थी,”ये लोग होते ही इसी लायक हैं। किए का एहसान नहीं मानते और शर्मिंदा करते हैं.”

“तुम करती भी तो हो ऐसे ही काम…ज्यादा भलमनसाहत दिखाने का यही परिणाम होता है,” अखिल कहता. नमिता क्या कहती. मनमसोस कर रह गई पर उस के मन से दीपक के प्रति नाराजगी नहीं गई।

दीपावली की लाइट्स लगवानी थीं इसलिए इलैक्ट्रिशियन रविंद्र को बुलाया था अखिल ने. अखिल अपनी निगरानी में झालरें लगवा रहा था.
रविंद्र जबतब घर की बिजली के काम करने आता रहता था और बहुत बोलता था.

“आप ने अपने घर में किराए पर वाल्मीकि को रख लिया था?” वह पूछ रहा था.

“तुम्हें कैसे मालूम?”अखिल ने कहा।

“पूरा मोहल्ला जानता है. कोई उस बेचारे से बोलता भी नहीं था. बहिष्कार सा कर रखा था सब ने उसका. इसलिए तो खाली कर के चला गया,” रविंद्र ने भेद खोला तो अखिल और नमिता दोनों स्तब्ध रह गए. कहां तो चिल्लाचिल्ला कर सारे नेता कहते हैं कि अब देश से जातिवाद खत्म हो गया है और कहां कदमकदम पर वही जाति, धर्म की लड़ाइयां…वोट लेते समय उसी धर्म और जाति का इस्तेमाल, दलितों को बहलाफुसला कर उन के वोट हड़पना और फिर उन को उसी हजारों सालों पुरानी स्थिति में बनाए रखने का षड्यंत्र रखना. क्यों हजारों सालों बाद भी वाल्मीकि केवल गंदगी साफ करने का काम करें… हर साल कितने सफाईकर्मी गटर में उतर कर जहरीली गैस से मर जाते हैं और हम बस खबरें पढ़ कर रह जाते हैं. क्यों नहीं बदलता इस देश का समाज…क्यों नहीं बदलती यहां की व्यवस्था… मन में कुलबुलाते प्रश्नों के कोई जवाब नहीं थे नमिता और अखिल के पास.

दीपक तो कमरा खाली कर के चला ही गया था.खाली पड़े हिस्से में फिर से धूलमिट्टी, गंदगी जमा होने लगी थी।

“चला गया तो चला जाने दो. फिर किसी और को उठा देंगे किराए पर…वह खुद ही डरपोक था. वरना जब हम कुछ नहीं कह रहे थे तो उसे बाकी लोगों की परवाह करने की जरूरत ही क्या थी…” नमिता को बीचबीच में रोष आ जाता.

“कमजोर आदमी मानसिक दबाव में जल्दी आ जाता है और सामाजिक बहिष्कार तो एक अमानवीय कृत्य है वह भी सिर्फ जाति के आधार पर. इसलिए वह इन तथाकथित सभ्य, प्रबुद्ध, प्रगतिशील जनों के बीच में रहने के बजाय अपने साथी बस्ती वालों के साथ रहने चला गया. हमें उस की स्थिति समझनी चाहिए न कि उस से नाराज़ होना चाहिए,” अखिल ने संपूर्ण स्थिति का अपना तार्किक विश्लेषण प्रस्तुत किया.

काफी हद तक नमिता भी उस से सहमत थी। उस के बाद कई लोग रूम देखने आए। एक कमरा, किचन, बाथरूम कोई कमजोर व्यक्ति ही लेता और सब को 2-3 हजार और बिजली का खर्चा भी ज्यादा लगता। एक हद तक सही भी था कि जो खुद 10-12 हजार कमा कर गुजारा कर रहा हो वह 5 हजार किराए में ही दे देगा तो खाएगा क्या. पर नमिता भी फ्री में तो नहीं दे सकती थी। खैर, सौदा पटा नहीं और बगल का हिस्सा खाली ही पड़ा रहा.

“दीदी, कोई आया है, किराए के लिए मकान देखने,” कामवाली ने उसे बुलाया।

“कह दो अभी आती हूं…”

24-25 साल का एक लड़का था।

“कौन हो?”

“यहीं फैक्टरी में काम करता हूं. किराए पर कमरा चाहिए,” युवक ने कहा। लड़का इटावा का रहने वाला था. साथ में पत्नी और एक बच्चा था.

“3,000 रुपए किराया और बिजली का अलग से देना होगा,” नमिता ने स्पष्ट कहा.

“3,000 रूपए तो बहुत है 25,00 में दे दो। कुल 12,000 ही तो कमाता हूं. आप की दया से मेरा परिवार रह लेगा,” वह युवक बोला।

अमित नाम था उस का. आधार कार्ड और 500 रुपए ऐडवांस ले कर नमिता ने उसे आ कर रहने को कह दिया.

वह उसी दिन फटाफट अपना सामान और पत्नी, बच्चे को ले कर रहने आ गया जैसेकि कहीं सड़क पर रह रहा था. नमिता ने चैन की सांस ली. उसे इधरउधर से सुनने को मिल रहा था कि चूंकि उस ने एक वाल्मीकि को किराए पर रख लिया था इसलिए उस के इस घर में अब कोई किराएदार नहीं आ रहा था रहने को… अब अमित आ गया तो नमिता को लग रहा था कि जैसे उस ने इन मोहल्ले वालों को जवाब दे दिया हो. दोनों पतिपत्नी सफाईधुलाई आदि में लगे थे. सही किराए में रहने को ठिकाना मिल गया था शायद इसलिए दोनों खुश नजर आ रहे थे.

एक दिन न बीता था कि अमित दनदनाता हुआ उस के पास आया.
नमिता कुछ समझ पाती इस से पहले ही उस ने अपने गुस्से का इजहार कर दिया,”तुम ने अपने घर में मेहतर को रख रखा था?” वह गुस्से में था.

“तो क्या हुआ…और वह कोई गलत काम तो करता नहीं था। सिक्युरिटी गार्ड का काम करता था. और तुम्हें क्या परेशानी है उस से. मैं वैसे भी इन सब बातों को नहीं मानती,” नमिता का भी गुस्सा फूट पड़ा।

“तुम्हें बताना चाहिए था…” वह बदतमीजी से ‘तुमतुम…’ कर के बोल रहा था।

“जब से मेरी पत्नी को पता चला है उन की तबियत खराब हो गई है.” वह बहुत गुस्से में था।

नमिता को उस की बीमार सी पत्नी की शक्ल याद आ गई,”नहीं रहना तो भाग जाओ अपना सामान उठा कर… हम चाहे वाल्मीकि को रखें चाहे किसी और को हमारी मरजी है. हमारा घर है,” नमिता को इतना गुस्सा आ रहा था कि मन कर रहा था कि अभी धकेल कर बाहर निकाल दे। उसे अपने स्वभाव पर गुस्सा आ रहा था कि क्यों वह हर ऐरेगेरे पर भरोसा कर लेती है और उन से सहानुभूति रखने लगती है. अगली सुबह अमित अपना सामान और अपना परिवार ले कर कमरा खाली कर के जा चुका था.

नमिता और अखिल कुछ समझ नहीं पा रहे थे कि संविधान, लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले इस देश में जिस में आजादी के बाद जातिधर्म के भेद को खत्म कर कानून के समक्ष समानता स्थापित हो चुकी है जबकि वास्तव में तो यहां हर जाति के ऊपर एक जाति है जो खुद को ऊंची जाति का और दूसरी को नीची जाति का समझती है. धोबी खुद को जाटव से ऊंचा समझता है तो जाटव खुद को वाल्मीकि से. ठाकुर से ऊपर ब्राह्मण हैं तो कोइरी, तेली के ऊपर बनिया. सारा समाज ही जातियों में विभाजित है. वैवाहिक विज्ञापनों में बाकायदा जाति के अनुसार वरवधू के कौलम छपते हैं.

नमिता और अखिल भूल गए थे लेकिन अब अच्छी तरह से समझ गए थे कि जो जाती नहीं कभी वह ही जाति होती है…

Hindi Story : प्यार में कंजूसी – कौन से रिश्ते की डोर को नहीं तोड़ा जा सकता है?

Hindi Story : कुछ दिन से मन में बड़ी उथल- पुथल है. मन में कितना कुछ उमड़घुमड़ रहा है जिसे मैं कोई नाम नहीं दे पा रहा हूं. उदासी और खुशी के बीच की अवस्था को क्या कहा जाता है समझ नहीं पा रहा हूं. शायद, स्तब्ध सा हूं, कोई निर्णय लेने की स्थिति में नहीं हूं. चाहूं तो खुश हो सकता हूं क्योंकि उदास होने की भी कोई खास वजह मेरे पास नहीं है.

‘‘क्या बात है पापा, आप चुपचाप से हैं?’’

‘‘नहीं तो, ऐसा तो कुछ नहीं…बस, यही सोच रहा हूं कि पानीपत जाऊं या नहीं.’’

‘‘सवाल ही पैदा नहीं होता. चाचीचाचा ने एक बार भी ढंग से नहीं बुलाया. हम क्या बेकार बैठे हैं जो सारे काम छोड़ कर वहां जा बैठें…इज्जत करना तो उन्हें आता ही नहीं है और बेइज्जती कराने का हमें कोई शौक नहीं है.’’

‘‘मैं उस बेवकूफ के बारे में नहीं सोच रहा. वह तो नासमझ है.’’

‘‘नासमझ हैं तो इतने चुस्त हैं अगर समझदार होते तो पता नहीं क्याक्या कर जाते…पापा, आप मान क्यों नहीं जाते कि आप के भाई ने आप की अच्छाई का पूरापूरा फायदा उठाया है. बच्चों को पढ़ाना था तो आप के पास छोड़ दिया. आज वे चार पैसे कमाने लगे तो उन की आंखें ही पलट गईं.’’

‘‘मुझे खुशी है इस बात की. छोटे से शहर में रह कर वह बच्चों को कैसे पढ़ातालिखाता, सो यहां होस्टल में डाल दिया.’’

‘‘और घर का खाना खाने के लिए महीने में 15 दिन वे हमारे घर पर रहते थे. कभी भी आ धमकते थे.’’

‘‘तो क्या हुआ बेटा, उन के ताऊ का घर था न. उन के पिता का बड़ा भाई हूं मैं. अगर मेरे घर पर मेरे भाई के बच्चे कुछ दिन रह कर खापी गए तो ऐसी क्या कमी आ गई हमारे राशनपानी में? क्या हम गरीब हो गए?’’

‘‘पापा, आप भी जानते हैं कि मैं क्या कहना चाह रहा हूं. किसी को खिलाने से कोई गरीब नहीं हो जाता, यह आप भी जानते हैं और मैं भी. सवाल यह नहीं है कि वे हमारे घर पर रहे और हमारे घर को पूरे अधिकार से इस्तेमाल करते रहे. सवाल यह है कि दोनों बच्चे लंदन से वापस आए और हम से मिले तक नहीं. दोनों की शादी हो गई, उन्होंने हमें शामिल तक नहीं किया और अब गृहभोज कर रहे हैं तब हमें बुला लिया. यह भी नहीं कहा कि 1-2 दिन पहले चले आएं. बस, कह दिया…रात के 8 बजे पार्टी दे रहे हैं… आप सब आ जाना. पापा, यहां से उन के शहर की दूरी कितने घंटे की है, यह आप जानते हैं न. कहां रहेंगे हम वहां? रात 9 बजे खाना खाने के बाद हम कहां जाएंगे?’’

‘‘उस के घर पर रहेंगे और कहां रहेंगे. कैसे बेमतलब के सवाल कर रहे हो तुम सब. तुम्हारी मां भी इसी सवाल पर अटकी हुई है और तुम भी. हमारे घर पर जब कोई आता है तो रात को कहां रहता है?’’

‘‘हमारे घर पर जो भी आता है, वह हमारे सिरआंखों पर रहता है, हमारे दिल में रहता है और हमारे घर में शादी जैसा उत्सव जब होता है तब हम बड़े प्यार से चाचाचाची को बुला कर अपनी हर रस्म में उन्हें शामिल करते हैं. मां हर काम में चाचीचाचा को स्थान देती हैं. मेहमानों को बिस्तर पर सुलाते हैं और खुद जमीन पर सोेते हैं हम लोग.’’

दनदनाता हुआ चला गया अजय. मैं समझ रहा हूं अजय के मनोभाव. अजय उन्हें अपना भाई समझता था. नरेन और महेन को चचेरा भाई समझा कब था जो उसे तकलीफ न होती. अजय की शादी जब हुई तो नईनवेली भाभी के आगेपीछे हरपल डोलते रहते थे नरेन और महेन.

दोनों बच्चे एमबीए कर के अच्छी कंपनियों में लग गए और वहीं से लंदन चले गए. जब जा चुके थे तब हमें पता चला. विदेश जाते समय मिल कर भी नहीं गए. सुना है वे लाखों रुपए साल का कमा रहे हैं…मुझे भी खुशी होती है सुन कर, पर क्या करूं अपने भाई की अक्ल का जिसे रिश्ते का मान रखना कभी आया ही नहीं.  एकएक पैसा दांत से कैसे पकड़ा जाता है, उस ने पता नहीं कहां से सीखा है. एक ही मां के बच्चे हैं हम, पर उस की और मेरी नीयत में जमीनआसमान का अंतर है. रिश्तों को ताक पर रख कर पैसा बचाना मुझे कभी नहीं आया. सीख भी नहीं पाया क्योंकि मेरी पत्नी ने कभी मुझे ऐसा नहीं करने दिया. नरेनमहेन को अजय जैसा ही मानती रही मेरी पत्नी. पूरे 6 साल वे दोनों हमारे पास रहे और इन 6 सालों में न जाने कितने तीजत्योहार आए. जैसा कपड़ा शुभा अजय के लिए लाती वैसा ही नरेन, महेन का भी लाती. घर का बजट बनता था तो उस में नरेनमहेन का हिस्सा भी होता था. कई बार अजय की जरूरत काट कर हम उन की जरूरत देखा करते थे.

हमारी एक ही औलाद थी लेकिन हम ने सदा 3 बेटों को पालापोसा. वे दोनों इस तरह हमें भूल जाएंगे, सोचा ही नहीं था. भूल जाने से मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि उन्होंने मेरा कर्ज नहीं चुकाया. सदा देने वाले मेरे हाथ आज भी कुछ देते ही उन्हें, पर जरा सा नाता तो रखें वे लोग. इस तरह बिसरा दिया है हमें जैसे हम जिंदा ही नहीं हैं.  शुभा भी दुखी सी लग रही है.   बातबात पर खीज उठती है. जानता हूं उसे बच्चों की याद आ रही है. किसी न किसी बहाने से उन का नाम ले रही है, खुल कर कुछ कहती नहीं है पर जानता हूं नरेनमहेन से मिलने को उस का मन छटपटा रहा है. दोनों ने एक बार फोन पर भी बात नहीं की. अपनी बड़ी मां से कुछ देर बतिया लेते तो क्या फर्क पड़ जाता.

‘‘कितना सफेद हो गया है इन दोनों का खून. विदेश जा कर क्या इंसान इतना पत्थर हो जाता है?’’

‘‘विदेश को दोष क्यों दे रही हो. मेरा अपना भाई तो देशी है न. क्या वह पत्थर नहीं है?’’

‘‘पत्थर नहीं, इसे कहते हैं प्रैक्टिकल होना. आज सब इतने ज्यादा मतलबी हो गए हैं कि हम जैसा भावुक इंसान बस ठगा सा रह जाता है. हम लोग प्रैक्टिकल नहीं हैं न इसीलिए बड़ी जल्दी बेवकूफ बन जाते हैं.’’

‘‘क्या करें हम? हमारा दिल यह कैसे भूल जाए कि रिश्तों के बिना मनुष्य कितना अपाहिज, कितना बेसहारा है. जहां दो हाथ काम आते हैं वहां रुपएपैसे काम नहीं आ सकते.’’

‘‘आप यह ज्ञान मुझे क्यों समझा रहे हैं? रिश्तों को निभाने में मैं ने कभी कोई कंजूसी नहीं की.’’

‘‘इसलिए कि अगर एक इंसान बेवकूफी करे तो जरूरी नहीं कि हम भी वही गलती करें. जीवन के कुछ पल इतने मूल्यवान होते हैं जो बस एक ही बार जीवन में आते हैं. उन्हें दोहराया नहीं जा सकता. गया पल चला जाता है…पीछे यादें रह जाती हैं, कड़वी या मीठी.

‘‘नरेनमहेन हमारे बच्चे हैं. हम यह क्यों न सोचें कि वे मासूम हैं, जिन्हें रिश्ता निभाना ही नहीं आया. हम तो समझदार हैं. उन का सुखी परिवार देखने की मेरी तीव्र इच्छा है जिसे मैं दबा नहीं पा रहा हूं. अजय का गुस्सा भी जायज है. मैं मानता हूं शुभा, पर तुम्हीं सोचो, हफ्ते भर में दोनों लौट भी जाएंगे. फिर मिलें न मिलें. कौन जाने हमारी जीवनयात्रा कब समाप्त हो जाए.’’

मेरा स्वर अचकचा सा गया. मैं दिल का मरीज हूं. आधे से ज्यादा हिस्सा काम ही नहीं कर रहा. कब धड़कना बंद कर दे क्या पता. मैं दोनों बच्चों से बहुत प्यार करता हूं. चाहता हूं उन की नईनई बसी गृहस्थी देख लूं. उन बच्चियों का क्या कुसूर. उन्हें मेरे बारे में क्या पता कि मैं कौन हूं. उन के ताऊताई उन से कितनाममत्व रखते हैं, उन्हें तभी पता चलेगा जब वे देखेंगी हमें और हमारा आशीर्वाद पाएंगी.

‘‘बस, मैं जाना चाहता हूं. वह मेरे भाई का घर है. वहीं रात काट कर सुबह वापस आ जाऊंगा. नहीं रहूंगा वहां अगर उस ने नहीं चाहा तो…फुजूल मानअपमान का सवाल मत उठाओ. मुझे जाने दो. इस उम्र में यह कैसा व्यर्थ का अहं.’’

‘‘रात में सोएंगे कहां. 3 बैडरूम का उन का घर है. 2 में बच्चे और 1 में देवरदेवरानी सो जाएंगे.’’

‘‘शादी में सब लोग नीचे जमीन पर गद्दे बिछा कर सोते हैं. जरूरी नहीं सब को बिस्तर मिलें ही. नीचे कालीन पर सो जाऊंगा. अपने घर में जब शादी थी तो सब कहां सोए थे. हम ने नीचे गद्दे बिछा कर सब को नहीं सुलाया था.’’

‘‘हमारे घर में कितने मेहमान थे. 30-40 लोग थे. वहां सिर्फ उन्हीं का परिवार है. वे नहीं चाहते वहां कोई जाए… तो क्यों जाएं हम वहां.’’

‘‘उन की चाहत से मुझे कुछ लेनादेना नहीं है. मेरी खुशी है, मैं जाना चाहता हूं, बस. अब कोई बहस नहीं.’’

चुप हो गई थी शुभा. फिर मांबेटे में पता नहीं क्या सुलह हुई कि सुबह तक फैसला मेरे हक में था. बैंगलूरु से पानीपत की दूरी लंबी तो है ही सो तत्काल में 2 सीटों का आरक्षण अजय ने करवा दिया.

जिस दिन रात का भोज था उसी दोपहर हम वहां पहुंच गए. नरेनमहेन को तो पहचान ही नहीं पाया मैं. दोनों बच्चे बड़े प्यारे और सुंदर लग रहे थे. चेहरे पर आत्मविश्वास था जो पहले कभी नजर नहीं आता था. बच्चे कमाने लगें तो रंगत में जमीनआसमान का अंतर आ ही जाता है. दोनों बहुएं भी बहुत अपनीअपनी सी लगीं मुझे, मानो पुरानी जानपहचान हो.

एक ही मंडप में दोनों बहनों को   ब्याह लाया था मेरा भाई. न कोई  नातेरिश्तेदार, न कोई धूमधाम. ‘‘भाईसाहब, मैं फुजूलखर्ची में जरा भी विश्वास नहीं करता. बरात में सिर्फ वही थे जो ज्यादा करीबी थे.’’

‘‘करीबी लोगों में क्या तुम हमें नहीं गिनते?’’

मेरा सवाल सीधा था. भाई जवाब नहीं दे पाया. क्योंकि इतना सीधा नहीं था न मेरे सवाल का जवाब. उस की पत्नी भी मेरा मुंह देखने लगी.

‘‘क्यों छोटी, क्या तुम भी हमारी गिनती ज्यादा करीबी रिश्तेदारों में नहीं करतीं? 6 साल बच्चे हमारे पास रहे. बीमार होते थे तो हम रातरात भर जागते थे. तब हम क्या दूर के रिश्तेदार थे? बच्चों की परीक्षा होती थी तो अजय की पत्नी अपनी नईनई गृहस्थी को अनदेखा कर अपने इन देवरों की सेवाटहल किया करती थी, वह भी क्या दूर की रिश्तेदार थी? वह बेचारी तो इन की शादी देखने की इच्छा ही संजोती रह गई और तुम ने कह दिया…’’

‘‘लेकिन मेरे बच्चे तो होस्टल में रहते थे. मैं ने कभी उन्हें आप पर बोझ नहीं बनने दिया.’’

‘‘अच्छा?’’

अवाक् रह गई शुभा अपनी देवरानी के शब्दों पर. भौचक्की सी. हिसाबकिताब तो बराबर ही था न उन के बहीखाते में. हमारे ममत्व और अनुराग का क्या मोल लगाते वे क्योंकि उस का तो कोई मोल था ही नहीं न उन की नजर में.  नरेनमहेन दोनों वहीं थे. हमारी बातें सुन कर सहसा अपने हाथ का काम छोड़ कर वे पास आ गए. ‘‘मैं ने कहा था न आप से…’’  नरेन ने टोका अपनी मां को. क्षण भर को सब थम गया. महेन ने दरवाजा बंद कर दिया था ताकि हमारी बातें बाहर न जाएं. नईनवेली दुलहनें सब न सुन पाएं.

‘‘कहा था न कि ताऊजीताईजी के बिना हम शादी नहीं करेंगे. हम ने सारे इंतजाम के लिए रुपए भी भेजे थे. लेकिन इन का एक ही जवाब था कि इन्हें तामझाम नहीं चाहिए. ऐसा भी क्या रूखापन. हमारा एक भी शौक आप लोगों ने पूरा नहीं किया. क्या करेंगे आप इतने रुपएपैसे का? गरीब से गरीब आदमी भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार बच्चों के चाव पूरे करते हैं. हमारी शादी इस तरह से कर दी कि पड़ोसी तक नहीं जानता इस घर में 2-2 बच्चों का ब्याह हो गया है…सादगी भी हद में अच्छी लगती है. ऐसी भी क्या सादगी कि पता ही न चले शादी हो रही है या किसी का दाहसंस्कार…’’

‘‘बस करो, नरेन.’’

‘‘ताऊजी, आप नहीं जानते…हमें कितनी शर्म आ रही थी, आप लोगों से.’’

‘‘शर्म आ रही थी तभी लंदन जाते हुए भी बताया नहीं और आ कर एक फोन भी नहीं किया. क्या सारे काम अपने बाप से पूछ कर करते हो, जो हम से बात करना भी मुश्किल था? तुम्हारी मां कह रही हैं तुम होस्टल में रहते थे. क्या सचमुच तुम होस्टल में रहते थे? वह लड़की तुम्हारी क्या लगती थी जो दिनरात भैयाभैया करती तुम्हारी सेवा करती थी…भाभी है या दूर की रिश्तेदार…तुम्हारा खून भी उतना ही सफेद है बेटे, बाप को दोष क्यों दे रहे हो?’’  मैं इतना सब कहना नहीं चाहता था फिर भी कह गया.

‘‘चलो छोड़ो, हमारी अटैची अंदर रख दो. कल शाम की वापसी है हमारी. जरा बच्चियों को बुलाना. कम से कम उन से तो मिल लूं. ऐसा न हो कि वे भी हमें दूर के रिश्तेदार ही समझती रहें.’’

चारों चुप रह गए. चुप न रह जाते तो क्या करते, जिस अधिकार की डोर पकड़ कर मैं उन्हें सुना रहा था उसी अधिकार की ओट में पूरे 6 साल हमारे स्नेह का पूरापूरा लाभ इन लोगों ने उठाया था. सवाल यह नहीं है कि हम बच्चों पर खर्चा करते रहे. खर्चा ही मुद्दा होता तो आज खर्चा कर के मैं बैंगलूरु से पानीपत कभी नहीं आता और पुत्रवधुओं के लिए महंगे उपहार भी नहीं लाता.  छोटेछोटे सोने के टौप्स और साडि़यां उन की गोद में रख कर शुभा ने दोनों बहनों का माथा चूम लिया.

‘‘बेटा, क्या पहचानती हो, हम लोग कौन हैं?’’ चुप थीं वे दोनों. पराए खून को अपना बनाने के लिए बड़ी मेहनत करनी पड़ती है. इस नई पीढ़ी को अपना बनाने और समझाने की कोशिश में ही तो मैं इतनी दूर चला आया था.

‘‘हम नरेनमहेन के ताईजी और ताऊजी हैं. हम ने एक ही संतान को जन्म दिया है लेकिन सदा अपने को 3 बच्चों की मां समझा है. तुम्हारा एक ससुराल यहां पानीपत में है तो दूसरा बैंगलूरु में भी है. हम तुम्हारे अपने हैं, बेटा. एक सासससुर यहां हैं तो दूसरे वहां भी हैं.’’  दोनों प्यारी सी बच्चियां हमारे सामने झुक गईं, तब सहसा गले से लगा कर दोनों को चूम लिया हम ने. पता चला ये दोनों बहनें भी एमबीए हैं और अच्छी कंपनियों में काम कर रही हैं.

‘‘बेटे, जिस कुशलता से आप अपना औफिस संभालती हो उसी कुशलता से अपने रिश्तों को भी मानसम्मान देना. जीवन में एक संतुलन सदा बनाए रखना. रुपया कमाना अति आवश्यक है लेकिन अपनी खुशियों के लिए उसे खर्च ही न किया तो कमाने का क्या फायदा… रिश्तेदारी में छोटीमोटी रस्में तामझाम नहीं होतीं बल्कि सुख देती हैं. आज किस के पास इतना समय है जो किसी से मिला जाए. बच्चों के पास अपने लिए ही समय नहीं है. फिर भी जब समय मिले और उचित अवसर आए तो खुशी को जीना अवश्य चाहिए.

‘‘लंदन में दोनों भाई सदा पासपास रहना. सुखदुख में साथसाथ रहना. एकदूसरे का सहारा बनना. सदा खुश रहना, बेटा, यही मेरा आशीर्वाद है. रिश्तों को सहेज कर रखना, बहुत बड़ी नेमत है यह हमारे जीवन के लिए.’’

शुभा और मैं देर तक उन से बातें  करते रहे. उन पर अपना स्नेह, अपना प्यार लुटाते रहे. मुझे क्या लेना था अपने भाई या उस की पत्नी से जिन्हें जीवन को जीना ही नहीं आया. मरने के बाद लाखों छोड़ भी जाएंगे तो क्या होगा जबकि जीतेजी वे मात्र कंगाली ओढ़े रहे.  भोज के बाद बच्चों ने हमें अपने कमरों में सुलाया. नरेनमहेन की बहुओं के साथ हम ने अच्छा समय बिताया. दूसरी शाम हमारी वापसी थी. बहुएं हमें स्टेशन तक छोड़ने आईं. घुलमिल गई थीं हम से.

‘‘ताऊजी, हम लंदन जाने से पहले भाभी व भैया से मिलने जरूर आएंगे. आप हमारा इंतजार कीजिएगा.’’

बच्चों के आश्वासन पर मन भीगभीग गया. इस उम्र में मुझे अब और क्या चाहिए. इतना ही बहुत है कि कभीकभार एकदूसरे का हालचाल पूछ कर इंसान आपस में जुड़ा रहे. रोटी तो सब को अपने घर पर खानी है. पता नहीं शब्दों की जरा सी डोर से भी मनुष्य कटने क्यों लगता है आज. शब्द ही तो हैं, मिल पाओ या न मिल पाओ, आ पाओ या न आ पाओ लेकिन होंठों से कहो तो सही. आखिर, इतनी कंजूसी भी किसलिए?

‘‘मैं उस बेवकूफ के बारे में नहीं सोच रहा. वह तो नासमझ है.’’

‘‘नासमझ हैं तो इतने चुस्त हैं अगर समझदार होते तो पता नहीं क्याक्या कर जाते…पापा, आप मान क्यों नहीं जाते कि आप के भाई ने आप की अच्छाई का पूरापूरा फायदा उठाया है. बच्चों को पढ़ाना था तो आप के पास छोड़ दिया. आज वे चार पैसे कमाने लगे तो उन की आंखें ही पलट गईं.’’

‘‘मुझे खुशी है इस बात की. छोटे से शहर में रह कर वह बच्चों को कैसे पढ़ातालिखाता, सो यहां होस्टल में डाल दिया.’’

‘‘और घर का खाना खाने के लिए महीने में 15 दिन वे हमारे घर पर रहते थे. कभी भी आ धमकते थे.’’

‘‘तो क्या हुआ बेटा, उन के ताऊ का घर था न. उन के पिता का बड़ा भाई हूं मैं. अगर मेरे घर पर मेरे भाई के बच्चे कुछ दिन रह कर खापी गए तो ऐसी क्या कमी आ गई हमारे राशनपानी में? क्या हम गरीब हो गए?’’

‘‘पापा, आप भी जानते हैं कि मैं क्या कहना चाह रहा हूं. किसी को खिलाने से कोई गरीब नहीं हो जाता, यह आप भी जानते हैं और मैं भी. सवाल यह नहीं है कि वे हमारे घर पर रहे और हमारे घर को पूरे अधिकार से इस्तेमाल करते रहे. सवाल यह है कि दोनों बच्चे लंदन से वापस आए और हम से मिले तक नहीं. दोनों की शादी हो गई, उन्होंने हमें शामिल तक नहीं किया और अब गृहभोज कर रहे हैं तब हमें बुला लिया. यह भी नहीं कहा कि 1-2 दिन पहले चले आएं. बस, कह दिया…रात के 8 बजे पार्टी दे रहे हैं… आप सब आ जाना. पापा, यहां से उन के शहर की दूरी कितने घंटे की है, यह आप जानते हैं न. कहां रहेंगे हम वहां? रात 9 बजे खाना खाने के बाद हम कहां जाएंगे?’’

‘‘उस के घर पर रहेंगे और कहां रहेंगे. कैसे बेमतलब के सवाल कर रहे हो तुम सब. तुम्हारी मां भी इसी सवाल पर अटकी हुई है और तुम भी. हमारे घर पर जब कोई आता है तो रात को कहां रहता है?’’

‘‘हमारे घर पर जो भी आता है, वह हमारे सिरआंखों पर रहता है, हमारे दिल में रहता है और हमारे घर में शादी जैसा उत्सव जब होता है तब हम बड़े प्यार से चाचाचाची को बुला कर अपनी हर रस्म में उन्हें शामिल करते हैं. मां हर काम में चाचीचाचा को स्थान देती हैं. मेहमानों को बिस्तर पर सुलाते हैं और खुद जमीन पर सोेते हैं हम लोग.’’

दनदनाता हुआ चला गया अजय. मैं समझ रहा हूं अजय के मनोभाव. अजय उन्हें अपना भाई समझता था. नरेन और महेन को चचेरा भाई समझा कब था जो उसे तकलीफ न होती. अजय की शादी जब हुई तो नईनवेली भाभी के आगेपीछे हरपल डोलते रहते थे नरेन और महेन.

दोनों बच्चे एमबीए कर के अच्छी कंपनियों में लग गए और वहीं से लंदन चले गए. जब जा चुके थे तब हमें पता चला. विदेश जाते समय मिल कर भी नहीं गए. सुना है वे लाखों रुपए साल का कमा रहे हैं…मुझे भी खुशी होती है सुन कर, पर क्या करूं अपने भाई की अक्ल का जिसे रिश्ते का मान रखना कभी आया ही नहीं.  एकएक पैसा दांत से कैसे पकड़ा जाता है, उस ने पता नहीं कहां से सीखा है. एक ही मां के बच्चे हैं हम, पर उस की और मेरी नीयत में जमीनआसमान का अंतर है. रिश्तों को ताक पर रख कर पैसा बचाना मुझे कभी नहीं आया. सीख भी नहीं पाया क्योंकि मेरी पत्नी ने कभी मुझे ऐसा नहीं करने दिया. नरेनमहेन को अजय जैसा ही मानती रही मेरी पत्नी. पूरे 6 साल वे दोनों हमारे पास रहे और इन 6 सालों में न जाने कितने तीजत्योहार आए. जैसा कपड़ा शुभा अजय के लिए लाती वैसा ही नरेन, महेन का भी लाती. घर का बजट बनता था तो उस में नरेनमहेन का हिस्सा भी होता था. कई बार अजय की जरूरत काट कर हम उन की जरूरत देखा करते थे.

हमारी एक ही औलाद थी लेकिन हम ने सदा 3 बेटों को पालापोसा. वे दोनों इस तरह हमें भूल जाएंगे, सोचा ही नहीं था. भूल जाने से मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि उन्होंने मेरा कर्ज नहीं चुकाया. सदा देने वाले मेरे हाथ आज भी कुछ देते ही उन्हें, पर जरा सा नाता तो रखें वे लोग. इस तरह बिसरा दिया है हमें जैसे हम जिंदा ही नहीं हैं.  शुभा भी दुखी सी लग रही है.   बातबात पर खीज उठती है. जानता हूं उसे बच्चों की याद आ रही है. किसी न किसी बहाने से उन का नाम ले रही है, खुल कर कुछ कहती नहीं है पर जानता हूं नरेनमहेन से मिलने को उस का मन छटपटा रहा है. दोनों ने एक बार फोन पर भी बात नहीं की. अपनी बड़ी मां से कुछ देर बतिया लेते तो क्या फर्क पड़ जाता.

‘‘कितना सफेद हो गया है इन दोनों का खून. विदेश जा कर क्या इंसान इतना पत्थर हो जाता है?’’

‘‘विदेश को दोष क्यों दे रही हो. मेरा अपना भाई तो देशी है न. क्या वह पत्थर नहीं है?’’

‘‘पत्थर नहीं, इसे कहते हैं प्रैक्टिकल होना. आज सब इतने ज्यादा मतलबी हो गए हैं कि हम जैसा भावुक इंसान बस ठगा सा रह जाता है. हम लोग प्रैक्टिकल नहीं हैं न इसीलिए बड़ी जल्दी बेवकूफ बन जाते हैं.’’

‘‘क्या करें हम? हमारा दिल यह कैसे भूल जाए कि रिश्तों के बिना मनुष्य कितना अपाहिज, कितना बेसहारा है. जहां दो हाथ काम आते हैं वहां रुपएपैसे काम नहीं आ सकते.’’

‘‘आप यह ज्ञान मुझे क्यों समझा रहे हैं? रिश्तों को निभाने में मैं ने कभी कोई कंजूसी नहीं की.’’

‘‘इसलिए कि अगर एक इंसान बेवकूफी करे तो जरूरी नहीं कि हम भी वही गलती करें. जीवन के कुछ पल इतने मूल्यवान होते हैं जो बस एक ही बार जीवन में आते हैं. उन्हें दोहराया नहीं जा सकता. गया पल चला जाता है…पीछे यादें रह जाती हैं, कड़वी या मीठी.

‘‘नरेनमहेन हमारे बच्चे हैं. हम यह क्यों न सोचें कि वे मासूम हैं, जिन्हें रिश्ता निभाना ही नहीं आया. हम तो समझदार हैं. उन का सुखी परिवार देखने की मेरी तीव्र इच्छा है जिसे मैं दबा नहीं पा रहा हूं. अजय का गुस्सा भी जायज है. मैं मानता हूं शुभा, पर तुम्हीं सोचो, हफ्ते भर में दोनों लौट भी जाएंगे. फिर मिलें न मिलें. कौन जाने हमारी जीवनयात्रा कब समाप्त हो जाए.’’

मेरा स्वर अचकचा सा गया. मैं दिल का मरीज हूं. आधे से ज्यादा हिस्सा काम ही नहीं कर रहा. कब धड़कना बंद कर दे क्या पता. मैं दोनों बच्चों से बहुत प्यार करता हूं. चाहता हूं उन की नईनई बसी गृहस्थी देख लूं. उन बच्चियों का क्या कुसूर. उन्हें मेरे बारे में क्या पता कि मैं कौन हूं. उन के ताऊताई उन से कितनाममत्व रखते हैं, उन्हें तभी पता चलेगा जब वे देखेंगी हमें और हमारा आशीर्वाद पाएंगी.

‘‘बस, मैं जाना चाहता हूं. वह मेरे भाई का घर है. वहीं रात काट कर सुबह वापस आ जाऊंगा. नहीं रहूंगा वहां अगर उस ने नहीं चाहा तो…फुजूल मानअपमान का सवाल मत उठाओ. मुझे जाने दो. इस उम्र में यह कैसा व्यर्थ का अहं.’’

‘‘रात में सोएंगे कहां. 3 बैडरूम का उन का घर है. 2 में बच्चे और 1 में देवरदेवरानी सो जाएंगे.’’

‘‘शादी में सब लोग नीचे जमीन पर गद्दे बिछा कर सोते हैं. जरूरी नहीं सब को बिस्तर मिलें ही. नीचे कालीन पर सो जाऊंगा. अपने घर में जब शादी थी तो सब कहां सोए थे. हम ने नीचे गद्दे बिछा कर सब को नहीं सुलाया था.’’

‘‘हमारे घर में कितने मेहमान थे. 30-40 लोग थे. वहां सिर्फ उन्हीं का परिवार है. वे नहीं चाहते वहां कोई जाए… तो क्यों जाएं हम वहां.’’

‘‘उन की चाहत से मुझे कुछ लेनादेना नहीं है. मेरी खुशी है, मैं जाना चाहता हूं, बस. अब कोई बहस नहीं.’’

चुप हो गई थी शुभा. फिर मांबेटे में पता नहीं क्या सुलह हुई कि सुबह तक फैसला मेरे हक में था. बैंगलूरु से पानीपत की दूरी लंबी तो है ही सो तत्काल में 2 सीटों का आरक्षण अजय ने करवा दिया.

जिस दिन रात का भोज था उसी दोपहर हम वहां पहुंच गए. नरेनमहेन को तो पहचान ही नहीं पाया मैं. दोनों बच्चे बड़े प्यारे और सुंदर लग रहे थे. चेहरे पर आत्मविश्वास था जो पहले कभी नजर नहीं आता था. बच्चे कमाने लगें तो रंगत में जमीनआसमान का अंतर आ ही जाता है. दोनों बहुएं भी बहुत अपनीअपनी सी लगीं मुझे, मानो पुरानी जानपहचान हो.

एक ही मंडप में दोनों बहनों को   ब्याह लाया था मेरा भाई. न कोई  नातेरिश्तेदार, न कोई धूमधाम. ‘‘भाईसाहब, मैं फुजूलखर्ची में जरा भी विश्वास नहीं करता. बरात में सिर्फ वही थे जो ज्यादा करीबी थे.’’

‘‘करीबी लोगों में क्या तुम हमें नहीं गिनते?’’

मेरा सवाल सीधा था. भाई जवाब नहीं दे पाया. क्योंकि इतना सीधा नहीं था न मेरे सवाल का जवाब. उस की पत्नी भी मेरा मुंह देखने लगी.

‘‘क्यों छोटी, क्या तुम भी हमारी गिनती ज्यादा करीबी रिश्तेदारों में नहीं करतीं? 6 साल बच्चे हमारे पास रहे. बीमार होते थे तो हम रातरात भर जागते थे. तब हम क्या दूर के रिश्तेदार थे? बच्चों की परीक्षा होती थी तो अजय की पत्नी अपनी नईनई गृहस्थी को अनदेखा कर अपने इन देवरों की सेवाटहल किया करती थी, वह भी क्या दूर की रिश्तेदार थी? वह बेचारी तो इन की शादी देखने की इच्छा ही संजोती रह गई और तुम ने कह दिया…’’

‘‘लेकिन मेरे बच्चे तो होस्टल में रहते थे. मैं ने कभी उन्हें आप पर बोझ नहीं बनने दिया.’’

‘‘अच्छा?’’

अवाक् रह गई शुभा अपनी देवरानी के शब्दों पर. भौचक्की सी. हिसाबकिताब तो बराबर ही था न उन के बहीखाते में. हमारे ममत्व और अनुराग का क्या मोल लगाते वे क्योंकि उस का तो कोई मोल था ही नहीं न उन की नजर में.  नरेनमहेन दोनों वहीं थे. हमारी बातें सुन कर सहसा अपने हाथ का काम छोड़ कर वे पास आ गए. ‘‘मैं ने कहा था न आप से…’’  नरेन ने टोका अपनी मां को. क्षण भर को सब थम गया. महेन ने दरवाजा बंद कर दिया था ताकि हमारी बातें बाहर न जाएं. नईनवेली दुलहनें सब न सुन पाएं.

‘‘कहा था न कि ताऊजीताईजी के बिना हम शादी नहीं करेंगे. हम ने सारे इंतजाम के लिए रुपए भी भेजे थे. लेकिन इन का एक ही जवाब था कि इन्हें तामझाम नहीं चाहिए. ऐसा भी क्या रूखापन. हमारा एक भी शौक आप लोगों ने पूरा नहीं किया. क्या करेंगे आप इतने रुपएपैसे का? गरीब से गरीब आदमी भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार बच्चों के चाव पूरे करते हैं. हमारी शादी इस तरह से कर दी कि पड़ोसी तक नहीं जानता इस घर में 2-2 बच्चों का ब्याह हो गया है…सादगी भी हद में अच्छी लगती है. ऐसी भी क्या सादगी कि पता ही न चले शादी हो रही है या किसी का दाहसंस्कार…’’

‘‘बस करो, नरेन.’’

‘‘ताऊजी, आप नहीं जानते…हमें कितनी शर्म आ रही थी, आप लोगों से.’’

‘‘शर्म आ रही थी तभी लंदन जाते हुए भी बताया नहीं और आ कर एक फोन भी नहीं किया. क्या सारे काम अपने बाप से पूछ कर करते हो, जो हम से बात करना भी मुश्किल था? तुम्हारी मां कह रही हैं तुम होस्टल में रहते थे. क्या सचमुच तुम होस्टल में रहते थे? वह लड़की तुम्हारी क्या लगती थी जो दिनरात भैयाभैया करती तुम्हारी सेवा करती थी…भाभी है या दूर की रिश्तेदार…तुम्हारा खून भी उतना ही सफेद है बेटे, बाप को दोष क्यों दे रहे हो?’’  मैं इतना सब कहना नहीं चाहता था फिर भी कह गया.

‘‘चलो छोड़ो, हमारी अटैची अंदर रख दो. कल शाम की वापसी है हमारी. जरा बच्चियों को बुलाना. कम से कम उन से तो मिल लूं. ऐसा न हो कि वे भी हमें दूर के रिश्तेदार ही समझती रहें.’’

चारों चुप रह गए. चुप न रह जाते तो क्या करते, जिस अधिकार की डोर पकड़ कर मैं उन्हें सुना रहा था उसी अधिकार की ओट में पूरे 6 साल हमारे स्नेह का पूरापूरा लाभ इन लोगों ने उठाया था. सवाल यह नहीं है कि हम बच्चों पर खर्चा करते रहे. खर्चा ही मुद्दा होता तो आज खर्चा कर के मैं बैंगलूरु से पानीपत कभी नहीं आता और पुत्रवधुओं के लिए महंगे उपहार भी नहीं लाता.  छोटेछोटे सोने के टौप्स और साडि़यां उन की गोद में रख कर शुभा ने दोनों बहनों का माथा चूम लिया.

‘‘बेटा, क्या पहचानती हो, हम लोग कौन हैं?’’ चुप थीं वे दोनों. पराए खून को अपना बनाने के लिए बड़ी मेहनत करनी पड़ती है. इस नई पीढ़ी को अपना बनाने और समझाने की कोशिश में ही तो मैं इतनी दूर चला आया था.

‘‘हम नरेनमहेन के ताईजी और ताऊजी हैं. हम ने एक ही संतान को जन्म दिया है लेकिन सदा अपने को 3 बच्चों की मां समझा है. तुम्हारा एक ससुराल यहां पानीपत में है तो दूसरा बैंगलूरु में भी है. हम तुम्हारे अपने हैं, बेटा. एक सासससुर यहां हैं तो दूसरे वहां भी हैं.’’  दोनों प्यारी सी बच्चियां हमारे सामने झुक गईं, तब सहसा गले से लगा कर दोनों को चूम लिया हम ने. पता चला ये दोनों बहनें भी एमबीए हैं और अच्छी कंपनियों में काम कर रही हैं.

‘‘बेटे, जिस कुशलता से आप अपना औफिस संभालती हो उसी कुशलता से अपने रिश्तों को भी मानसम्मान देना. जीवन में एक संतुलन सदा बनाए रखना. रुपया कमाना अति आवश्यक है लेकिन अपनी खुशियों के लिए उसे खर्च ही न किया तो कमाने का क्या फायदा… रिश्तेदारी में छोटीमोटी रस्में तामझाम नहीं होतीं बल्कि सुख देती हैं. आज किस के पास इतना समय है जो किसी से मिला जाए. बच्चों के पास अपने लिए ही समय नहीं है. फिर भी जब समय मिले और उचित अवसर आए तो खुशी को जीना अवश्य चाहिए.

‘‘लंदन में दोनों भाई सदा पासपास रहना. सुखदुख में साथसाथ रहना. एकदूसरे का सहारा बनना. सदा खुश रहना, बेटा, यही मेरा आशीर्वाद है. रिश्तों को सहेज कर रखना, बहुत बड़ी नेमत है यह हमारे जीवन के लिए.’’

शुभा और मैं देर तक उन से बातें  करते रहे. उन पर अपना स्नेह, अपना प्यार लुटाते रहे. मुझे क्या लेना था अपने भाई या उस की पत्नी से जिन्हें जीवन को जीना ही नहीं आया. मरने के बाद लाखों छोड़ भी जाएंगे तो क्या होगा जबकि जीतेजी वे मात्र कंगाली ओढ़े रहे.  भोज के बाद बच्चों ने हमें अपने कमरों में सुलाया. नरेनमहेन की बहुओं के साथ हम ने अच्छा समय बिताया. दूसरी शाम हमारी वापसी थी. बहुएं हमें स्टेशन तक छोड़ने आईं. घुलमिल गई थीं हम से.

‘‘ताऊजी, हम लंदन जाने से पहले भाभी व भैया से मिलने जरूर आएंगे. आप हमारा इंतजार कीजिएगा.’’

बच्चों के आश्वासन पर मन भीगभीग गया. इस उम्र में मुझे अब और क्या चाहिए. इतना ही बहुत है कि कभीकभार एकदूसरे का हालचाल पूछ कर इंसान आपस में जुड़ा रहे. रोटी तो सब को अपने घर पर खानी है. पता नहीं शब्दों की जरा सी डोर से भी मनुष्य कटने क्यों लगता है आज. शब्द ही तो हैं, मिल पाओ या न मिल पाओ, आ पाओ या न आ पाओ लेकिन होंठों से कहो तो सही. आखिर, इतनी कंजूसी भी किसलिए?

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