Download App

Social Media : रील्स की अंधेरी खाई की तरफ बढ़ता युवा तबका

Social Media : भारत में युवाओं को रील्स के जाल में फंसाने में सब से बड़ा हाथ सरकारों का ही है. क्योंकि युवाओं के लिए पेश किया गया सरकारों द्वारा यही आत्मनिर्भर भारत का मौडल है. हाथ में एक मोबाइल और इंटरनेट पर छा जाने का सपना. यही मेक इन इंडिया भी है और यही स्किल इंडिया भी.

क्या हो जब एक पूरी जेनरेशन एक ऐसे सपने को पाने के लिए खप जाए जिस के पूरे होने की उम्मीद न के बराबर हो? क्या हो जब युवा खुद की एनर्जी और समय ऐसे काम में खर्च करे जिस का भविष्य चंद महीनों या दिनों का हो? और अधिक संभावना यह हो कि भविष्य कुछ हो ही न. बात सोशल मीडिया की और इस में गहरे तक नप चुके युवाओं की.

भारत में सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर्स की संख्‍या दिनोंदिन बढ़ रही है. रिपोर्ट की मानें तो इन की संख्या 25 लाख से अधिक है. कुछ और रिपोर्ट 40 लाख पार बताती हैं. ये युवा हर दिन उठ कर इसी उम्मीद में रील्स बनाए जा रहे हैं कि काश, सामने दिख रहे बड़े इंफ्लुएंसर की जिंदगी वे भी जी पाएं, काश एक वीडियो कैसे भी कर के वायरल हो जाए, इस के लिए चाहे जो कुछ करना हो फौलोवर्स बढ़ जाएं.

मगर हकीकत यही है कि रील्‍स बना कर कमाई करने की चाहत रखने वालों में से 90 फीसदी के करीब इंफ्लुएंसर्स ढेला भर भी नहीं कमा पा रहे हैं. जी, ढेला भर. ऐसी नपीतुली जानकारी बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप (बीसीजी) की एक रिसर्च में सामने आई है.

वेव्‍स समिट 2025 के अनुसार, भारत में तकरीबन 25 लाख इंफ्लुएंसर्स हैं, जिन के कम से कम 1,000 से अधिक फौलोअर्स हैं. लेकिन, इन में से बहुत कम ही अपनी क्रिएटिविटी से कमाई कर पाते हैं. वहीं मात्र 10 फीसदी इंफ्लुएंसर्स ही पैसा छाप रहे हैं. कमाई करने वाले ये इंफ्लुएंसर्स का प्रभाव बहुत बड़ा है. ये क्रिएटर्स देश के 30% से अधिक उपभोक्ताओं को प्रभावित कर रहे हैं और लगभग 33 लाख करोड़ के उपभोक्ता खर्च पर असर डालते हैं.

मगर इन के उलट बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप की रिपोर्ट बताती है, कि भारत में करीब 50% नैनो और माइक्रो इंफ्लुएंसर्स हैं, जो 18,000 रुपए प्रति माह से भी कम कमाते हैं. देखा जाए तो एक इंफ्लुएंसर अकेला वीडियो नहीं बनाता, उस के साथ सहायक कलाकारों से ले कर, कैमरा संभालने वाला और एडिट करने वाला तक होते हैं. कम से कम 4 – 5 युवाओं की एक टीम रील्स बनाती है और 18000 रुपए प्रति माह से भी कम कमाती है.

उस पर तुर्रा यह कि इन रील्स को बनाने के लिए इन्हें नई नई लोकेशन, अच्छा फोन, ट्रेंड के हिसाब से नएनए या सेकंड हेंड कपड़े खरीदने होते हैं. ऐसे में सवाल यह कि बगैर प्रोडक्टिविटी वाली ये रील्स आखिर इन का या देश का क्या भला कर रही हैं? और अगर देश का युवा रील बनाने लगेगा तो औफिसों, कारखानों, रिसर्च सेंटरों, विद्यालयों, अस्पतालों में काम कौन करेगा?

बीसीजी की इस रिपोर्ट ने कंटेंट से कमाई करने वाले इंफ्लुएंसर्स को 6 खांचों में बांटा है. सब से बड़ा खांचा “द ट्रस्ट एंबेसेडर्स” की है. इस में 14 से 17 लाख नैनो क्रिएटर्स आते हैं. इन के 10,000 से 50,000 फौलोअर्स हैं. ये ब्रांड अवेयरनेस और कन्वर्जन दोनों में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं. 4 से 6 लाख “निश क्रिएटर्स” हैं. ये किसी विशेष क्षेत्र में विशेषज्ञता रखते हैं. ये सीमित दर्शकों को बहुत प्रभावित करते हैं. वहीं “इनक्विजिटर्स” श्रेणी में 75,000 से 1 लाख क्रिएटर्स ऐसे हैं जो सवाल उठा कर चर्चा को जन्म देते हैं. “इन्फ्लुएंसर आइकन्स” श्रेणी के 60,000 से 80,000 क्रिएटर्स नए प्रोडक्ट्स के लिए उत्साह पैदा करने में माहिर हैं.

“डिसेमिनेटर्स” की श्रेणी में 10,000 से 15,000 क्रिएटर्स आते हैं जो बड़े स्तर पर लोगों तक जानकारी पहुंचाने का काम करते हैं. वहीं “ट्रेंड सेटर्स” श्रेणी के 2,000 से 4,000 क्रिएटर्स ब्रांड की विश्वसनीयता बनाए रखने और लौयल्टी बढ़ाने में सहायक होते हैं.

इन फेन्सी नामों को एक पल के लिए भूल भी जाएं तो सवाल खड़ा होता है कि युवा आखिर कर क्या रहा है? इन में सब से बड़ी संख्या उन की है जो चिंदी पैसों में अपने उस समय को जाया कर रहा है जिस में वह कुछ बुनियादी कामों को कर सकता था. समस्या इसी बड़ी संख्या की है जिन के पास कोई स्किल नहीं, न क्रिएटिविटी है, वह बस रील इसलिए बना रहा है क्योंकि सब बना रहे हैं.

यही युवा व्यूअर भी हैं और यही रीलमेकर्स भी. जिस उम्र में इन्हें दूसरे प्रोडक्टिव स्किल्स सीखने चाहिए थे, उस उम्र में इन का जीवन मोबाइल के इर्दगिर्द ही घूमने लगा है. समस्या यह भी है कि इन युवाओं को रील्स के जाल में फंसाने में सब से बड़ा हाथ सरकारों का ही है. क्योंकि युवाओं के लिए पेश किया गया सरकारों द्वारा यही आत्मनिर्भर भारत का मौडल है. हाथ में एक मोबाइल और इंटरनेट पर छा जाने का सपना. यही मेक इन इंडिया भी है और यही स्किल इंडिया भी.

इस से सरकारें अपनी जिम्मेदारियों से आसानी से पल्ला झाड़ लेती हैं. फिर क्यों ही अच्छी यूनिवर्सिटी और स्कूल चाहिए. क्यों ही बढ़िया रिसर्च सेंटर चाहिए? फिर क्यों ही देश को वैज्ञानिक और इनोवेटर चाहिए? भला रील बनाने में इन सब का क्या ही काम? यहां तक कि इन में से कुछ इंफ्लुएंसर्स को अवार्ड या विज्ञापन दे कर बाकी युवाओं की फौज को इस फील्ड में उतार आने का प्रोत्साहन भी सरकार ही देती है.

आज भारत टैकनोलोजी में अपने पड़ोसी देश चीन से मीलों पीछे है, इतना कि उस के वर्तमान तक पहुंचने में भारत को 20 साल खर्चने पड़ेंगे. कारण सीधा है, वहां की सरकार अपनी जीडीपी का ढाई प्रतिशत से ज्यादा रिसर्च डिवेलपमेंट में खर्च करती है, वहीं भारत लगभग 1 प्रतिशत से भी कम यानी 0.69 प्रतिशत खर्च करती है. चीन में जहां 25 लाख से अधिक रिसर्चर हैं, वहीं भारत में 9 लाख के आसपास ही हैं. करोड़ों की आबादी वाले देश में उंगलियों पर गिन सकने लायक ही आईआईटी हैं. और इस से बड़ी दिक्कत यह कि यहां से पढ़ कर निकलने वालों का सपना किसी बड़ी एमएनसी से जुड़ना होता है.

परिणाम यह कि वहां स्टार्टअप्स बड़ी संख्या में होते हैं और यहां उन स्टार्टअप्स के कंज्यूमर्स. वहां के युवा रील बनाने वाली एप्लीकेशन तैयार करते हैं और यहां उन रील्स पर नाचने वाले युवा तैयार हो रहे हैं. वहां प्रोडक्टिव फोर्स तैयार हो रही है यहां रील फोर्स.

कुछ महीने पहले ही चीन के आम से परिवार के 39 साल के लियांग ने डीपसीक एआई बना कर दुनियाभर को हिला दिया. यहां तक कि अमेरिकी शेयर बाजार में भारी हलचल मचा दी. समस्या यह है कि भारत में नेता ग्लोबल पावर बनने के लिए भाषण पर ज्यादा जोर देते हैं, न कि ग्लोबल पावर बनाने में. यही कारण भी है यहां युवा इनोवेशन के नाम पर रील बनाने तक ही सीमित रह गए हैं. वे हर एंगल से रील बना रहे हैं, हर तरह की रील बना रहे हैं, और जो नहीं बना रहे वे उन्हें अपने मोबाइल फोन से देख रहे हैं.

Bihar Politics : बिहार की जनता का निकम्मापन और बदलाव की चुनौतियां

Bihar Politics : बिहार को ले कर जब भी चर्चा होती है तो उस के पिछड़ेपन और गरीबी की होती है. सवाल यह कि इन समस्याओं का असल जिम्मेदार है कौन? आखिर क्यों बिहार की स्थिति में वे बदलाव नहीं आ पाए जो उस की इस छवि को बदल पाते.

बिहार, भारत का एक ऐसा राज्य जो ऐतिहासिक महत्त्व, सांस्कृतिक विरासत और अपनी उपजाऊ भूमि के लिए जाना जाता है. चंपारण सत्याग्रह, जिसे भारत में गांधीजी के पहले सत्याग्रह के रूप में जाना जाता है, 1917 में बिहार के चंपारण जिले में हुआ था, लेकिन आज देश को आजाद हुए दशकों बीत गए फिर भी बिहार और बिहारी आजाद नहीं हुए. ऐसा इसलिए क्योंकि न तो बिहार को अशिक्षा से आजादी मिली, न बंधुआ मजदूरी से आजादी मिली और न गरीबी से.

वोट देने की मशीन

12 करोड़ बिहारीयों के भविष्य की चिंता सत्ता धारियों को बिलकुल भी नहीं है. वे बिहार की जनता को बस एक वोट देने की मशीन समझते हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव में बिहार की 40 लोकसभा सीटों पर भाजपा और उस के घटक दलों ने मिल कर 39 सीट जीतीं और साल 2024 के चुनाव में भाजपा ने 12, जनता दल यूनाइटेड को 12, लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) को 5 सीटें मिली, लेकिन इस का कोई भी असर बिहार के मुलभूत विकास में तो बिल्कुल भी नजर नहीं आता.

सुदूर देहात में आज भी स्थति जस की तस बनी हुई है और मौडर्न बिहार में अरबोंखरबों की लागत में बन रहे पुल बनते बनते ही गिर जा रहे हैं और जो पुल या सड़क बन गई है वो इतनी जल्दी टूट रही है कि लगता है उसे पथ निर्माण विभाग का आदेश है कि भई! सड़क जितनी जल्दी टूटेगी तो उतनी जल्दी नया टेंडर फाइनल होगा, ‘तब ही न बिजनेस होगा जी बिहार में, इ हे तो बिहार का स्टार्टअप है’. इस के बावजूद बिहार की जनता अपनी मेहनत के बलबूते पर दिल्ली और मुम्बई जैसे बड़े शहरों में कई बड़ीबड़ी इमारत खड़ी कर देते हैं.

महीनो अपने गांव और खेत से दूर रहने वाले बिहारी जब पर्व त्यौहार पर अपने गांव घर जाने लगते हैं तो उन्हें वहां भी परेशानियों का सामना करना पड़ता है. बिहारियों को ट्रेनों में ऐसे ठूसठूस कर अपने अपने गांव जाना पड़ता है जैसे कि किसी ने ट्रकों में ठूसठूस कर अनाजों की बोरियां लाद दी हों. वहीं मोदीजी को भी अहमदाबाद से मुंबई के लिए ही पहली बुलेट ट्रेन शुरू करनी है. उन्हें उस बिहार से ज्यादा से ज्यादा सामान्य रेलगाड़ियां नहीं शुरू करनी है जहां के लोग सब से ज्यादा ट्रेनों में ठूसठूस कर आतेजाते हैं और रेलवे को त्योहारों के समय सब से ज्यादा पैसे देते हैं.

यही नहीं जितने लोग एक दिन में मुंबई अहमदाबाद की प्लेन में सफर नहीं करते उस से दो गुना से ज्यादा बिहारी रोज दिल्ली से पटना के लिए ट्रैवल करते हैं. लेकिन फिर भी सुविधाएं बिहार में नहीं बढ़ रही हैं. बिहारियों की धरती, जो कभी मगध और नालंदा जैसे वैभवशाली साम्राज्यों का केंद्र थी, आज विकास की दौड़ में सब से पीछे खड़ी है. बिहार की जनता को अकसर निकम्मेपन का तमगा दिया जाता है, लेकिन क्या यह केवल जनता की गलती है? या इस के पीछे नेताओं की नाकामी, सामाजिक-आर्थिक चुनौतियां, और ऐतिहासिक उपेक्षा भी जिम्मेदार है?

जनता का निकम्मापन : कड़वा सच या सामाजिक उपेक्षा?

बिहारियों के लिए जब बिहार में सरकार इन्वेस्टमेंट नहीं ला पाती है तब बिहारियों को दूसरे प्रदेशों का रूख अपना पेट पालने के लिए करना पड़ता है क्योंकि हर बिहारी तो जमीन का स्वामी है नहीं कि खेती कर के अपना और अपने परिवार का भरणपोषण कर सकें. ऐसे में बिहारियों को मुंबई, दिल्ली जैसे महानगरों में मजदूरी करने के लिए मजबूरन जाना ही पड़ता है. क्योंकि बिहार के स्कूलों और कालेजों में ठीक से पढ़ाई होती नहीं है इसलिए बिहारियों को मजदूरी के आलावा और कोई चारा समझ नहीं आता है. “बिहारी निकम्मे हैं” – यह वाक्य अकसर सुनने को मिलता है, खासकर उन लोगों से जो बिहार की स्थिति को बिना गहराई से समझे आलोचना करते हैं.

लेकिन क्या बिहार की 12 करोड़ जनता वाकई निकम्मी है? अगर हम आंकड़ों और तथ्यों की ओर देखें, तो बिहार की स्थिति जटिल और बहुआयामी है. बिहार की प्रति व्यक्ति आय देश में सब से कम है, और नीति आयोग के अनुसार, शिक्षा, स्वास्थ्य, और उद्योग के क्षेत्र में यह सब से पिछड़ा राज्य है. बिहार में बेरोजगारी की दर राष्ट्रीय औसत से कहीं अधिक है, और हर साल लाखों बिहारी मजदूरी के लिए दिल्ली, मुंबई, और पंजाब जैसे राज्यों में पलायन करते हैं.

लेकिन यह निकम्मापन नहीं, बल्कि अवसरों की कमी और दशकों की उपेक्षा का परिणाम है. 1990 के दशक में लालू प्रसाद यादव के शासनकाल में बिहार “जंगलराज” के लिए कुख्यात था, जहां अपराध, भ्रष्टाचार, और अव्यवस्था चरम पर थी. 2005 में नीतीश कुमार के सत्ता में आने के बाद कुछ सुधार हुए, जैसे सड़कों का निर्माण, बिजली की आपूर्ति में वृद्धि, और अपराध में कमी. फिर भी, बिहार आज भी बुनियादी सुविधाओं, जैसे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं, से वंचित है.

जनता की सब से बड़ी गलती शायद यह है कि वह बारबार उन्हीं नेताओं को चुनती है, जो जाति, धर्म, और वादों के नाम पर वोट मांगते हैं. बिहार का वोटिंग पैटर्न दशकों से जाति आधारित रहा है. यादव मुसलिम गठजोड़ राष्ट्रीय जनता दल का आधार है, जबकि कुर्मी, कोइरी और अति पिछड़ा वर्ग जनता दल यूनाइटेड के समर्थक हैं. भारतीय जनता पार्टी सवर्ण और कुछ ओबीसी जातियों के वोटों पर निर्भर है. इस जातिगत समीकरण ने बिहार की जनता को विकास के मुद्दों से भटकाया और नेताओं को जवाबदेही से बचने का मौका दिया.

बिहार में बदलाव: क्या कुछ हुआ?

2005 से नीतीश कुमार के नेतृत्व में बिहार में कुछ बदलाव तो हुए, लेकिन क्या ये बदलाव जनता के हित में पर्याप्त थे?

रोजगार और पलायन

बिहार में रोजगार सृजन आज भी सब से बड़ी चुनौती है. नीतीश सरकार ने शिक्षक भर्ती और पुलिस भर्ती जैसे कदम उठाए, लेकिन ये नाकाफी हैं. बिहार में औद्योगिक विकास न के बराबर है. बिहार को अगर अग्रिणी राज्यों लाना है तो बिहार में इंडस्ट्री लानी ही होगी. शुगर मील और छोटेमोटे पेपर बेग के फैक्ट्रियों से बिहार की 12 करोड़ जनता पर कुछ भी फर्क नहीं पड़ेगा. अगर बिहारियों का पलायन रोकना है तो बिहार में स्टार्टअप और स्किल्स पर जोर देना होगा. इस के साथ बिहार के सरकारी कालेजों की आधारभूत संरचना में सुधार की भारी आवश्यकता है. हर ब्लौक में एक ऐसा कालेज खोलने की जरुरत है जो वर्तमान व भविष्य को ध्यान में रखते हुए विषयों के सिलेबस में बदलाव कर उन्हें नई तरीके से डिजाइन करें, जिस से बिहार के युवाओं को शिक्षा और नौकरी में आसानी से मिल सके.

तेजस्वी की माई-बहिन मान योजना

तेजस्वी यादव ने “माई-बहिन मान योजना” के तहत महिलाओं को हर महीने 2500 रुपये देने का वादा है, जो आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को आकर्षित कर सकता है. लेकिन सवाल यह है कि क्या ये योजनाएं केवल चुनावी जुमले हैं या वास्तव में बिहार की अर्थव्यवस्था को बदल सकती हैं? बिहार में माई-बहिन योजना के लिए 1 लाख करोड़ रूपए से ज्यादा की धनराशि की जरुरत होगी. जो कि बिहार सरकार के बजट का एक तिहाई हिस्सा होगा.

अगर ये योजना लागू की जाएगी तो बिहार के बाकी योजनाओं की पूर्ति सरकार कहां से करेगी या सरकार बिहार की जनता को गरीब बनाने के लिए नई कर्ज से लाद देगी? बिहार की जनता को ऐसे चुनावी जुमले से सावधान रहने की जरुरत है, क्योंकि जब 15 लाख खाते में नहीं आए हैं तो 1 लाख करोड़ तो दिन में तारे देखने जैसा सपना होगा.

शिक्षा

बिहार की साक्षरता दर देश में सब से कम है और इस के लिए कहीं न कहीं बिहार की जनता ही जिम्मेदार है क्योंकि बिहार की जनता ने कभी भी शिक्षा स्वास्थ्य और विकास के नाम पर वोट नहीं दिया. बिहार में वोट सिर्फ और सिर्फ जातिवाद और परिवारवाद को दिया.

बिहार की जनता ने नीतीश को चुना तो नीतीश कभी भाजपा की गोद में जा कर बैठ गए तो कभी आरजेडी के खेमे में हो लिए. उन्होंने बिहार के विकास के लिए कम अपनी कुर्सी और पार्टी के विकास के लिए ज्यादा काम किया. वैसे नीतीश सरकार ने स्कूलों में साइकिल योजना और मिड डे मील जैसी योजनाएं शुरू कीं, जिस से स्कूलों में नामांकन बढ़ा. लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता अभी भी दयनीय है. सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की कमी, बुनियादी ढांचे की कमी, और पुरानी पाठ्यपुस्तकें आम समस्याएं हैं.

बिहार कभी स्कूल की छत गिर जाती है तो कभी गुरुजी बच्चों से अपनी गाड़ी साफ करवाते हैं. बिहार में शिक्षक की नौकरी पाने के बाद शिक्षक अपने आप को प्रधानमंत्री समझने लगते हैं. बिहार में स्कूल हो या कालेज, या फिर किसी सरकारी नौकरी की परीक्षा, सब के क्वेश्चन पेपर व्हाट्सऐप पर आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं. बिहार में सिर्फ नीतीश कुमार की कुर्सी सेफ है परीक्षा के प्रश्नपत्र नहीं. दो चार नेता छात्रों के आंदोलन में आ कर अपनी फुटेज मीडिया में दे कर अपनी ख्याति बटोर कर चलते बनते हैं. छात्र चीखचीख कर सड़क पर ही दम तोड़ देते हैं और नीतीश कुमार अपनी मस्ती में चलते रहते हैं.

अगर बिहार की जनता ने स्कूल और स्वास्थ्य और बिहार के विकास के नाम पर वोट किया होता तो ये आंदोलन की कोई नौबत ही नहीं आती. बिहार में रोजगार सृजन होता और 9वीं पास कभी भी बिहार का उपमुख्यमंत्री नहीं बनता. अब बिहार की राजनीति में एक नए खिलाड़ी आए हैं, जिन की पहचान बड़ेबड़े उद्योगपतियों से है, इन जनाब का नाम है प्रशांत किशोर.

प्रशांत भाजपा समेत कई पार्टियों के लिए काम कर चुके हैं. इसके साथ ही वे जदयू के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी रह चुके हैं. अगर प्रशांत बिहार का विकास चाहते हैं तो उन्हें उद्योगपतियों जितना चंदा जनसुराज को बनाने में बहाया है उस चंदे के पैसे से अगर वे बिहार में उद्योग लगाते तो कुछ बिहारियों का भला तो जरुर होता और शायद इस का फायदा प्रशांत को भी होता. लेकिन इन्हें तो बिहार का मुख्यमंत्री बनना है और उस से भी पहले इन्हें इतिहास में अपना नाम बहुत बड़े आंदोलनकारी नेता के रूप में दर्ज करवाना है.

वे अपनी सियासी रणनीतिकार की छवि को मिटा कर आंदोलनकारी की छवि को आगे बढ़ाना चाहते हैं और बात बिहार के छवि को बदलने की कहते हैं. बिहार की जनता को अगर शिक्षा चाहिए तो उसे जमीन से जुड़े नेताओं को वोट देने की जरुरत है, उद्योगपतियों से जुड़े नेताओं को नहीं.

स्वास्थ्य

बिहार में स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल हैं. इस की पोल आएदिन खुलती रहती है. कोरोना महामारी में बिहार के सरकारी अस्पतालों की जो तस्वीर सामने आई थी वह वाकई डराने वाली थी. बिहार के सरकारी अस्पतालों की हालत देख कर इंसानियत पर से भरोसा उठ जाता है. आखिर क्यों बिहार का स्वास्थ्य विभाग अपने ही प्रदेश के जनता के प्रति इतना निर्दयी हो गया है. बिहार के चुनाव में कभी भी स्वास्थ्य मुद्दा नहीं बनाया गया क्योंकि सत्ता और विपक्ष दोनों को पता है कि किसी के भी कार्यकाल में बिहार के अस्पतालों का कायाकल्प नहीं कर पाएं.

स्वास्थ्य मंत्रालय को हर साल बजट में हजारों करोड़ रुपए मिलते हैं, लेकिन बिहार की जनता को स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर ठेंगा दिखाया जाता है. बिहार की जनता ने भी कभी अस्पतालों के लिए कोई मांग नहीं की, न ही अच्छे डाक्टरों की कोई मांग की तो ऐसे में जो महामानव सत्ता में आए उन्होंने स्वास्थ्य मंत्रालय को आम समझ कर के चूसा और बिहार के अस्पतालों के इन्फ्रास्ट्रक्चर को नीव से ले कर छत तक कमजोर कर दिया.

इस का एक जीताजागता उदहारण है दरभंगा एम्स. इस अस्पताल को अब तक बन कर जनता के लिए समर्पित हो जाना था. लेकिन अभी तो जमीन में बस चारदीवारी काम भी ठीक से नहीं हो पाया है. क्योंकि ये प्रोजैक्ट बिहार की जनता के लिए है तो यह इतनी जल्दी कैसे पूरा होगा. अगर मंत्रियों के नए बंगले का प्रोजैक्ट आ जाए तो बिहार के विकासपुरुष इस की खुद निगरानी करेंगे और दिल्ली से चल कर महामानव आएंगे और मंत्रियों को नए बंगले में गृहप्रवेश करवाएंगे.

अब बिहार की जनता को ये सोचना चाहिए कि विकासपुरुष और महामानव दोनों ही बिहार के जनता की सेहत से खेल रहे हैं. उन्हें वोट देना मतलब कागजों में योजनाओं को पूरा करने जैसा है. आज भी सरकारी अस्पतालों में बेड, दवाइयां, और डाक्टरों की कमी है. नीतीश सरकार की “आयुष्मान भारत योजना” और अन्य स्वास्थ्य योजनाएं कागजों तक सीमित हैं.

विज्ञान और तकनीक

बिहार में विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में लगभग कोई प्रगति नहीं हुई है. न ही कोई नया रिसर्च सेंटर बनाया गया है और न ही बिहार के युवाओं को सरकार रिसर्च की ओर आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित कर सकी है. आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थान बिहार में हैं, लेकिन इन का लाभ स्थानीय युवाओं को कम मिलता है. स्टार्टअप और टैक्नोलौजी हब की कमी बिहार के युवाओं को अन्य राज्यों की ओर धकेलती है.

आखिर कब बिहार के युवा यादव और मुसलिम वोट बैंक का शिकार बनते रहेंगे. अगर तकनीक और विज्ञान में बिहार को आगे बढ़ाना है तो सब से पहले युवाओं को एकजुट हो कर बिहार सरकार से मांग करनी चाहिए कि बिहार को तकनीक और विज्ञान में आगे ले जाने के लिए नई संस्थान स्थापित करें और रिचर्स व विज्ञानिकों को अच्छी प्रोत्साहन राशि दें, जिस से वे ख़ुशीख़ुशी बिहार को आगे ले जाएंगे.

हिंदुत्व और सामाजिक समीकरण

इस बार भाजपा और जेडीयू बिहार चुनाव में औपरेशन सिंदूर को चुनाव में भुनाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं और स्थानीय मुद्दों से जनता का ध्यान भटका रहे हैं. वैसे 2014 से पहले से ही भाजपा हिंदुत्व का नारा दे रही है, और बिहार में इस का असर देखने को मिलता है. ‘औपरेशन सिंदूर’ जैसे कदमों से भाजपा ने हिंदू वोटरों को एकजुट करने की कोशिश की है. लेकिन बिहार में जाति की राजनीति अभी भी धर्म से ऊपर है. मुसलिम वोटर (लगभग 17%) आरजेडी के साथ मजबूती से खड़े हैं, जबकि सवर्ण और ओबीसी वोटरों का कुछ हिस्सा भाजपा और जेडीयू के बीच बंटे हैं. एनडीए का पूरा फोकस बिहार चुनाव में बिहार के मुद्दों के बजाय पाकिस्तान की धुलाई रहने वाली है.

बिहार की जनता को यह समझना होगा कि औपरेशन सिंदूर से बिहार के विकास का कोई लेना देना नहीं है. इस से बिहार के स्थानीय मुद्दे जस के तस रहने वाले हैं. जनता को तय करना होगा कि बिहार में कौन विकास की रक्षा करेगा, ताकि बिहार आगे बढ़ सकें.

नीतीश बनाम तेजस्वी : 2025 का असली मुकाबला?

2025 का बिहार विधानसभा चुनाव मुख्य रूप से नीतीश कुमार (एनडीए) और तेजस्वी यादव (महागठबंधन) के बीच माना जा रहा है, लेकिन प्रशांत किशोर और चिराग पासवान जैसे नेता इसे त्रिकोणीय बना सकते हैं. नीतीश कुमार बिहार के सब से लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहे हैं. उन की सरकार ने सड़क, बिजली, और महिला सशक्तिकरण (जैसे साइकिल योजना और शराबबंदी) के क्षेत्र में काम किया है. लेकिन उन की उम्र (74 वर्ष) और स्वास्थ्य समस्याएं उन के खिलाफ जा रही हैं. जेडीयू-भाजपा गठबंधन का लक्ष्य 225 सीटें जीतना है. भाजपा नीतीश के प्रति सहानुभूति वोट और ‘औपरेशन सिंदूर’ जैसे हिंदुत्व कार्ड का इस्तेमाल कर रही है. लेकिन नीतीश की बारबार पाला बदलने की आदत ने उन की विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचाया है.

तेजस्वी यादव

नीतीश के बारबार पाला बदलने से तेजस्वी यादव मजबूत हुए और छात्रों के आन्दोलन में सहयोग ने उन्हें और उन की पार्टी को मजबूती दी है, जिस से तेजस्वी यादव बिहार के युवाओं में लोकप्रिय हुए हैं. एक सर्वे के अनुसार, 36% लोग उन्हें अगले मुख्यमंत्री के रूप में देखते हैं. लेकिन आरजेडी का “जंगलराज” का इतिहास और लालू परिवार के भ्रष्टाचार के आरोप उन के लिए चुनौती हैं.

चिराग पासवान और अन्य

चिराग पासवान (लोक जनशक्ति पार्टी) भी बिहार में अपनी जगह बना रहे हैं. उन की पार्टी पासवान (दुसाध) वोटरों (5.31%) पर दावा ठोकती है. चिराग का एनडीए के साथ रहना या अलग चुनाव लड़ना 2025 के समीकरण को प्रभावित कर सकता है.

क्या बिहार की जनता अपनी गलती सुधारेगी?

बिहार की जनता की सब से बड़ी गलती है कि वह विकास के बजाय जाति और धर्म के आधार पर वोट देती है. लेकिन 2025 का चुनाव कुछ अलग हो सकता है. युवा वोटरों में जागरूकता बढ़ रही है, और सोशल मीडिया के जरिए बेरोजगारी, शिक्षा, और स्वास्थ्य जैसे मुद्दे चर्चा में हैं. प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी इस जागरूकता को भुनाने की कोशिश कर रही है. अगर जनता उन के “बच्चों के भविष्य” के नारे को गंभीरता से लेती है, तो बिहार में तीसरा विकल्प उभर सकता है. लेकिन इस के लिए जनता को अपने निकम्मेपन के तमगे को तोड़ना होगा और वोटिंग पैटर्न में बदलाव लाना होगा.

बिहार की जनता का निकम्मापन एक सतही आरोप है, जिस के पीछे दशकों की सामाजिक-आर्थिक उपेक्षा और नेताओं की नाकामी है. 2025 का चुनाव बिहार के लिए एक मौका है कि वह अपनी दिशा बदले. नीतीश कुमार का अनुभव, तेजस्वी यादव की युवा ऊर्जा, और प्रशांत किशोर का नया विजन – इन में से कौन बिहार को नई दिशा देगा, यह जनता के हाथ में है. लेकिन अगर बिहार की जनता फिर से जाति, धर्म, या मुफ्त वादों के जाल में फंसी, तो बदलाव की उम्मीद धूमिल हो जाएगी.

बिहार को चाहिए एक ऐसी सरकार जो शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और विज्ञान-तकनीक में क्रांति लाए. बिहार के 12 करोड़ लोग अगर ठान लें, तो यह राज्य फिर से भारत का गौरव बन सकता है. सवाल यह है – क्या बिहार की जनता अपनी गलतियों से सबक लेगी, या फिर वही पुराना चक्र चलेगा?

इन नेताओं ने बिहार में नई सामाजिक और राजनीतिक दिशा की तय

बिहार की राजनीती शुरू से ही केंद्र सरकार की दिशा तय करती आई है. लेकिन बिहार की राजनीति में कुछ ऐसे चंद सांसद विधायक भी हैं जिसे चुन कर बिहार की जनता ठगा हुआ नहीं महसूस कर रही है. इन नेताओं ने बिहार की सामाजिक-राजनीतिक दिशा तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. बिहार की राजनीति में इन्होने अपनी एक अलग छाप छोड़ी है.

यादव जाति

पप्पू यादव (पूर्णिया) – निर्दलीय

पूर्णिया से निर्दलीय सांसद पप्पू यादव बिहार के उन नेताओं से बिल्कुल अलग है जो मुसीबत के समय भाग खड़े होते हैं. बिहार में बाढ़ हो या कोरोना महामारी, पप्पू यादव हमेशा ही ग्राउंड पर जा कर जनता की मदद करते हुए दिखाई देते हैं. राजेश रंजन उर्फ़ पप्पू यादव का राजनीतिक सफर बड़ा ही रोमांचक रहा है. साल 2024 के लोकसभा चुनाव में पप्पू यादव छठी बार सांसद बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ.

लोकसभा चुनाव से पहले पप्पू यादव ने अपनी जनाधिकार पार्टी का कांग्रेस में विलय कर पूर्णिया लोकसभा सीट से टिकट की दावेदारी पेश की थी. लेकिन गठबंधन की वजह से यह टिकट आरजेडी को चला गया. इस से पप्पू यादव आगबबूला हो गए और पार्टी से इस्तीफा दे कर निर्दलीय चुनाव मैदान में कूद गए. इस के परिणाम यह हुआ इस इस सीट से आरजेडी प्रत्याशी को मुंह की खानी पड़ी और जनता ने पूर्णिया की कमान पप्पू यादव को सौंप दी. पप्पू यादव का चुनाव जीतना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी, क्योंकि वे सदैव जनता के बीच बने रहते हैं और उन की समस्याओं के समाधान के लिए तत्पर रहते हैं.

गिरधारी यादव (बांका) – जदयू

बांका लोकसभा सीट से सांसद गिरधारी यादव ने अपने राजनीतिक कैरियर की शुरुआत कांग्रेस से की थी इस के बाद वे आरजेडी से जुड़े रहे. गिरधारी यादव लोकसभा व विधानसभा दोनों के सदस्य रहे हैं. अपने क्षेत्र में गिरधारी यादव ने शिक्षा, सड़क और सिंचाई के मुद्दों पर विशेष रूप से काम किया है. बिहार में उन की पहचान एक अनुभवी नेता के रूप में है.

दिनेश चंद्र यादव (मधेपुरा) – जदयू

दिनेश चंद्र यादव का अपने लंबे राजनीतिक कैरियर में 4 बार सांसद रह चुके हैं. साल 2024 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने 6,24,334 वोट ला कर जीत दर्ज की. इस के साथ वे रेल मंत्रालय के सलाहकार समिति, कोयला और सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय की सलाहकार समिति और गृह मामलों की समिति के सदस्य के रूप में अपना योगदान दे चुके हैं. मधेपुरा सांसद दिनेश अपने क्षेत्र में सड़क, बिजली, पानी और किसानो के लिए खूब काम किया है.

नित्यानंद राय (उजियारपुर) – भाजपा

उजियारपुर लोकसभा सीट से भाजपा सांसद नित्यानंद राय राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से प्रशिक्षित नेता हैं. इस के साथ ही वे वर्तमान में गृह राज्य मंत्री भी हैं. नित्यानंद राय ने उजियारपुर के बुनियादी ढांचे को सुदृढ़ बनाया है. उन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों में सड़क, महिला सुरक्षा और युवाओं के प्रशिक्षण केन्दों को स्थापित कर उजियारपुर मौडल स्थापित किया है.

अशोक यादव (मधुबनी) – भाजपा

अशोक यादव को राजनीति विरासत मिली है, वे वरिष्ठ नेता हुकुमदेव नारायण यादव के पुत्र हैं. अशोक ने अपने संसदीय क्षेत्र में शिक्षा, पर्यटन के साथ साथ मिथिला पेंटिंग और संस्कृति को बढ़ावा देने पर विशेष जोर दिया है. इस के साथ ही मधुबनी में सड़क संपर्क को मजबूत करने की दिशा में कार्य किया है.

सुरेंद्र यादव (जहानाबाद) – राजद

जहानाबाद से आरजेडी सांसद सुरेन्द्र यादव विधायक भी रह चुके हैं. वे आरजेडी के समर्पित नेता के रूप में जाने जाते हैं. बताया जाता है कि सुरेन्द्र यादव के राजनीतिक जीवन में जातीय समीकरण और सामाजिक न्याय की निति हमेशा ही केंद्र में रही है.

मीसा भारती (पाटलिपुत्र) – राजद

पेशे से डाक्टर रहीं मीसा भारती आरजेडी सुप्रीमो लालू यादव की बेटी हैं. मीसा वर्तमान में पाटलिपुत्र संसदीय क्षेत्र से सांसद हैं. मीसा भारती ने सामाजिक न्याय के मुद्दों के साथसाथ महिला सशक्तिकरण के लिए काफी सराहनीय कार्य किया है. यही वजह रही कि मीसा को पाटलिपुत्र की जनता ने सांसद बना कर संसद भेजा.

कोयरी जाति

राजाराम सिंह कुशवाहा (काराकाट) – भाकपा माले

लोकसभा चुनाव 2024 में जिन सीटों की सब से ज्यादा चर्चा रहीं उन में से एक काराकाट लोकसभा सीट भी थी. क्योंकि एक अभिनेता ने यहां परचा भर कर चुनाव को रोमांचक बना दिया था. लेकिन फिर भी जनता ने कोयरी जाति से आने वाले भाकपा (माले) के राजाराम सिंह कुशवाहा को अपना सांसद चुना. बिहार की राजनीति में राजाराम की पहचान किसान आंदोलन और मजदूरों के हक की लड़ाई लड़ने वाले नेता की है. इस के साथ ही उन की राजनीति दलित और पिछड़े वर्ग के हक़ में संघर्ष और भूमि अधिकारों के इर्दगिर्द घूमती है.

अभय सिन्हा (औरंगाबाद) – राजद

औरंगाबाद लोकसभा के सांसद अभय कुमार सिन्हा पिछड़े वर्ग से ताल्लुक रखते हैं. उन की पहचान क्षेत्र में स्थानीय युवाओं को रोजगार, तकनीकी शिक्षा और चिकित्सा सुविधा दिलाने से बनी. साल 2024 के लोकसभा चुनाव में अभय ने बहुत ही रोमांचक मुकाबले में जीत हासिल की. इस चुनाव में अभय ने अपने निकटतम प्रतिद्वंदी को 79,111 वोटों के अंतर से हरा दिया.

विजय लक्ष्मी (सीवान) – जदयू

सीवान से जदयू सांसद विजय लक्ष्मी की अपने क्षेत्र में एक लग पहचान है. सीवान से सांसद होने के साथसाथ विजय लक्ष्मी पिछड़ी जाति का प्रतिनिधित्व करती हैं. अपने लोकसभा में उन्होंने महिला स्वास्थ्य, शिक्षा और सुरक्षा जैसे मुद्दों पर काम किया है.

कुर्मी जाति

कौशलेंद्र कुमार (नालंदा) – जदयू

नालंदा सांसद और जदयू नेता कौशलेंद्र कुमार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के करीबी माने जाते हैं. कौशलेंद्र राजनीतिक सफर काफी लंबा रहा है, वे चार बार सांसद चुने गए हैं. इस के साथ ही उन्होंने नालंदा में शिक्षा, मैडिकल कालेज, रेलवे कनेक्टिविटी, सिंचाई और कृषि उपकरण उपलब्ध कराने जैसे मुद्दों पर केंद्रित कार्य किया है. कौशलेंद्र नालंदा को एक मौडल संसदीय क्षेत्र में विकसित करने पर जोर दे रहे हैं.

बिहार में पिछड़ी जाति के ये विधायक बदल रहें हैं राज्य की तस्वीर

यादव जाति

मनोज कुमार यादव (कल्याणपुर) – राजद

बिहार में पिछड़ी जाति से आने वाले कई लोगों ने समाज में बदलाव का कार्य किया है. इन में से के नाम आरजेडी कल्यानपुर विधायक मनोज कुमार यादव है. मनोज ने अपने अपने क्षेत्र में सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन और व्यवस्था को बेहतर बनाने की दिशा में कई कदम उठाए हैं. सड़कों के निर्माण और शिक्षा व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए उन्होंने काफी जोर लगाया है, जिस से उन की पहचान जमीन से जुड़े नेता के तौर पर की जाती है.

श्यामबाबू प्रसाद यादव (पिपरा) – भाजपा

भाजपा नेता व पूर्वी चंपारण के पिपरा से विधायक श्यामबाबू अपने क्षेत्र में केंद्र सरकार की योजना पहुंचाने के लिए आने जाते हैं. उन्होंने अपने क्षेत्र में उज्ज्वला योजना, प्रधामंत्री आवास योजना और नल जल जैसे योजनाओं के क्रियान्वयन पर काफी जोर दिया है.

मुकेश कुमार यादव (बाजपट्टी) – राजद

सीतामढ़ी के बाजपट्टी से आरजेडी विधायक मुकेश कुमार की पहचान एक युवा और उर्जावान के नेता के रूप में की जाती है. मुकेश कुमार अपन क्षेत्र में बेरोजगार योवाओं के लिए काम काम कर रहे हैं. इस के साथ ही बिहार विधानसभा में उन्होंने सिंचाई की समस्या को जोरशोर से उठाया. वहीं स्कूलों की स्थिति सुधारने की दिशा में पहल भी की.

ललित कुमार यादव (दरभंगा ग्रामीण) – राजद

आरजेडी नेता और दरभंगा ग्रामीण विधायक ललित कुमार यादव लम्बे से समय से राजनीति में सक्रीय है. ललित यादव ने अपने विस क्षेत्र में ग्रामीण स्वास्थ्य, सड़क निर्माण और जल संसाधन जैसे विषयों पर विशेष रूप से काम किया है. इस के साथ ही गांवों में स्वच्छ जल आपूर्ति कराने में उन्होंने अहम भूमिका निभाई है. ललित कुमार यादव को उन के अनुभव और कार्य शैली की वजह से एक प्रभावशाली नेता के रूप में जाना जाता है.

तेज प्रताप यादव (हसनपुर) – राजद

लालू यादव के बड़े बेटे और आरजेडी के हसनपुर से विधायक तेजप्रताप यादव बिहार के युवाओं के बीच काफी लोकप्रिय हैं. तेजप्रताप बेरोजगारी, स्वच्छता और पर्यावरण के विषयों पर जागरूकता फैलाने का काम करते हैं. तेजप्रताप का कार्यकाल हमेशा से ही विवादों का हिस्सा रहा है, लेकिन उन्होंने अपने क्षेत्र में पौधारोपण, रोजगार मेला और ग्रामीण आधारभूत संरचना पर कई काम किए हैं.

कोयरी जाति

अमरजीत कुशवाह (जीरादेई) – सीपीआई (एमएल)

सीवान के जीरादोई से भाकपा (माले) विधायक अमरजीत कुशवाह दलित धिकार उअर भूमि सुधार जैसे मुद्दों पर खुल कर बोलते हैं. वे किसान आंदोलन और भाकपा (माले) की जनवादी राजनीति का चेहरा माने जाते हैं. अमरजीत को सड़क से सदन तक गरीबों और भूमिहीनों की लड़ाई लड़ने के लिए जाना जाता है. अमरजीत का राजनीतिक संघर्ष जमीनी आंदोलनों और समाजिक न्याय के सिद्धांतों पर आधारित है.

कुर्मी जाति

विजय कुमार सिन्हा (लखीसराय) – भाजपा

भाजपा का वरिष्ठ नेता विजय कुमार सिन्हा लखीसराय से विधायक हैं. उन्हें भाजपा के समर्पित कार्यकर्ता के रूप में जाना जाता है. वे विधानसभा के अध्यक्ष भी रह चुके हैं. विजय सिन्हा वर्तमान बिहार सरकार में उप मुख्यमंत्री का पद भी संभाल रहे हैं. कानून व्यवस्था, महिला सुरक्षा और शिक्षा जैसे मुद्दों पर विजय सिन्हा हमेशा से जोर देते हुए आए हैं. इस के साथ ही उन्होंने लखीसराय को मौडल जिला बनाने के लिए कई विकास परियोजनाओं की आधारशिला रखी है. विजय सुशासन और पारदर्शिता के हमेशा पक्षधर रहे हैं.

Special Hindi Story : आंटी का आंचल

Special Hindi Story : सौतेली मां की मार से कंचन का बचपन खो गया था. प्यार के दो बोल बोलने वाली और स्नेह के साथ खाना खिलाने वाली कोई थी तो बस, पड़ोस की सुधा आंटी. सुधा भी मां की ममता को तरस रहे कंचन के मन को अपने प्यार से भर देना चाहती थी लेकिन ऐसा वह कैसे करती?

दोपहर के 2 बज रहे थे. रसोई का काम निबटा कर मैं लेटी हुई अपने बेटे राहुल के बारे में सोच ही रही थी कि किसी ने दरवाजे की घंटी बजा दी. कौन हो सकता है? शायद डाकिया होगा यह सोचते हुए बाहर आई और दरवाजा खोल कर देखा तो सामने एक 22-23 साल की युवती खड़ी थी.

‘‘आंटी, मुझे पहचाना आप ने, मैं कंचन. आप के बगल वाली,’’ वह बोली.

‘‘अरे, कंचन तुम? यहां कैसे और यह क्या हालत बना रखी है तुम ने?’’ एकसाथ ढेरों प्रश्न मेरे मुंह से निकल पड़े. मैं उसे पकड़ कर प्यार से अंदर ले आई.

कंचन बिना किसी प्रश्न का उत्तर दिए एक अबोध बालक की तरह मेरे पीछेपीछे अंदर आ गई.

‘‘बैठो, बेटा,’’ मेरा इशारा पा कर वह यंत्रवत बैठ गई. मैं ने गौर से देखा तो कंचन के नक्श काफी तीखे थे. रंग गोरा था. बड़ीबड़ी आंखें उस के चेहरे को और भी आकर्षक बना रही थीं. यौवन की दहलीज पर कदम रख चुकी कंचन का शरीर बस, ये समझिए कि हड्डियों का ढांचा भर था.

मैं ने उस से पूछा, ‘‘बेटा, कैसी हो तुम?’’

नजरें झुकाए बेहद धीमी आवाज में कंचन बोली, ‘‘आंटी, मैं ने कितने पत्र आप को लिखे पर आप ने किसी भी पत्र का जवाब नहीं दिया.’’

मैं खामोश एकटक उसे देखते हुए सोचती रही, ‘बेटा, पत्र तो तुम्हारे बराबर आते रहे पर तुम्हारी मां और पापा के डर के कारण जवाब देना उचित नहीं समझा.’

मुझे चुप देख शायद वह मेरा उत्तर समझ गई थी. फिर संकोच भरे शब्दों में बोली, ‘‘आंटी, 2 दिन हो गए, मैं ने कुछ खाया नहीं है. प्लीज, मुझे खाना खिला दो. मैं तंग आ गई हूं अपनी इस जिंदगी से. अब बरदाश्त नहीं होता मां का व्यवहार. रोजरोज की मार और तानों से पीडि़त हो चुकी हूं,’’ यह कह कर कंचन मेरे पैरों पर गिर पड़ी.

मैं ने उसे उठाया और गले से लगाया तो वह फफक पड़ी और मेरा स्पर्श पाते ही उस के धैर्य का बांध टूट गया.

‘‘आंटी, कई बार जी में आया कि आत्महत्या कर लूं. कई बार कहीं भाग जाने को कदम उठे किंतु इस दुनिया की सचाई को जानती हूं. जब मेरे मांबाप ही मुझे नहीं स्वीकार कर पा रहे हैं तो और कौन देगा मुझे अपने आंचल की छांव. बचपन से मां की ममता के लिए तरस रही हूं और आखिर मैं अब उस घर को सदा के लिए छोड़ कर आप के पास आई हूं वह स्पर्श ढूंढ़ने जो एक बच्चे को अपनी मां से मिलता है. प्लीज, आंटी, मना मत करना.’’

उस के मुंह पर हाथ रखते हुए मैं ने कहा, ‘‘ऐसा दोबारा भूल कर भी मत कहना. अब कहीं नहीं जाएगी तू. जब तक मैं हूं, तुझे कुछ भी सोचने की जरूरत नहीं है.’’

उसे मैं ने अपनी छाती से लगा लिया तो एक सुखद एहसास से मेरी आंखें भर आईं. पूरा शरीर रोमांचित हो गया और वह एक बच्ची सी बनी मुझ से चिपकी रही और ऊष्णता पाती रही मेरे बदन से, मेरे स्पर्श से.

मैं रसोई में जब उस के लिए खाना लेने गई तो जी में आ रहा था कि जाने क्याक्या खिला दूं उसे. पूरी थाली को करीने से सजा कर मैं बाहर ले आई तो थाली देख कंचन रो पड़ी. मैं ने उसे चुप कराया और कसम दिलाई कि अब और नहीं रोएगी.

वह धीरेधीरे खाती रही और मैं अतीत में खो गई. बरसों से सहेजी संवेदनाएं प्याज के छिलकों की तरह परत दर परत बाहर निकलने लगीं.

कंचन 2 साल की थी कि काल के क्रूर हाथों ने उस से उस की मां छीन ली. कंचन की मां को लंग्स कैंसर था. बहुत इलाज कराया था कंचन के पापा ने पर वह नहीं बच पाई.

इस सदमे से उबरने में कंचन के पापा को महीनों लग गए. फिर सभी रिश्तेदारों एवं दोस्तों के प्रयासों के बाद उन्होंने दूसरी शादी कर ली. इस शादी के पीछे उन के मन में शायद यह स्वार्थ भी कहीं छिपा था कि कंचन अभी बहुत छोटी है और उस की देखभाल के लिए घर में एक औरत का होना जरूरी है.

शुरुआत के कुछ महीने पलक झपकते बीत गए. इस दौरान सुधा का कंचन के प्रति व्यवहार सामान्य रहा. किंतु ज्यों ही सुधा की कोख में एक नए मेहमान ने दस्तक दी, सौतेली मां का कंचन के प्रति व्यवहार तेजी से असामान्य होने लगा.

सुधा ने जब बेटी को जन्म दिया तो कंचन के पिता को विशेष खुशी नहीं हुई, वह चाह रहे थे कि बेटा हो. पर एक बेटे की उम्मीद में सुधा को 4 बेटियां हो गईं और ज्योंज्यों कंचन की बहनों की संख्या बढ़ती गई त्योंत्यों उस की मुसीबतों का पहाड़ भी बड़ा होता गया.

आएदिन कंचन के शरीर पर उभरे स्याह निशान मां के सौतेलेपन को चीखचीख कर उजागर करते थे. कितनी बेरहम थी सुधा…जब बच्चों के कोमल, नाजुक गालों पर मांबाप के प्यार भरे स्पर्श की जरूरत होती है तब कंचन के मासूम गालों पर उंगलियों के निशान झलकते थे.

सुधा का खुद की पिटाई से जब जी नहीं भरता तो वह उस के पिता से कंचन की शिकायत करती. पहले तो वह इस ओर ध्यान नहीं देते थे पर रोजरोज पत्नी द्वारा कान भरे जाने से तंग आ कर वह भी बड़ी बेरहमी से कंचन को मारते. सच ही तो है, जब मां दूसरी हो तो बाप पहले ही तीसरा हो जाता है.

अब तो उस नन्ही सी जान को मार खाने की आदत सी हो गई थी. मार खाते समय उस के मुंह से उफ तक नहीं निकलती थी. निकलती थीं तो बस, सिसकियां. वह मासूम बच्ची तो खुल कर रो भी नहीं सकती थी क्योंकि वह रोती तो मार और अधिक पड़ती.

खाने को मिलता बहनों का जूठन. कंचन बहनों को जब दूध पीते या फल खाते देखती तो उस का मन ललचा उठता. लेकिन उसे मिलता कभीकभार बहनों द्वारा छोड़ा हुआ दूध और फल. कई बार तो कंचन जब जूठे गिलास धोने को ले जाती तो उसी में थोड़ा सा पानी डाल कर उसे ही पी लेती. गजब का धैर्य और संतोष था उस में.

शुरू में कंचन मेरे घर आ जाया करती थी किंतु अब सुधा ने उसे मेरे यहां आने पर भी प्रतिबंध लगा दिया. कंचन के साथ इतनी निर्दयता देख दिल कराह उठता था कि आखिर इस मासूम बच्ची का क्या दोष.

उस दिन तो सुधा ने हद ही कर दी, जब कंचन का बिस्तर और सामान बगल में बने गैराज में लगा दिया. मेरी छत से उन का गैराज स्पष्ट दिखाई देता था.

जाड़ों का मौसम था. मैं अपनी छत पर कुरसी डाल कर धूप में बैठी स्वेटर बुन रही थी. तभी देखा कंचन एक थाली में भाईबहन द्वारा छोड़ा गया खाना ले कर अपने गैराज की तरफ जा रही थी. मेरी नजर उस पर पड़ी तो वह शरम के मारे दौड़ पड़ी. दौड़ने से उस के पैर में पत्थर द्वारा ठोकर लग गई और खाने की थाली गिर पड़ी. आवाज सुन कर सुधा दौड़ीदौड़ी बाहर आई और आव देखा न ताव चटाचट कंचन के भोले चेहरे पर कई तमाचे जड़ दिए.

‘कुलटा कहीं की, मर क्यों नहीं गई? जब मां मरी थी तो तुझे क्यों नहीं ले गई अपने साथ. छोड़ गई है मेरे खातिर जी का जंजाल. अरे, चलते नहीं बनता क्या? मोटाई चढ़ी है. जहर खा कर मर जा, अब और खाना नहीं है. भूखी मर.’ आवाज के साथसाथ सुधा के हाथ भी तेजी से चल रहे थे.

उस दिन का वह नजारा देख कर तो मैं अवाक् रह गई. काफी सोचविचार के बाद एक दिन मैं ने हिम्मत जुटाई और कंचन को इशारे से बाहर बुला कर पूछा, ‘क्या वह खाना खाएगी?’

पहले तो वह मेरे इशारे को नहीं समझ पाई किंतु शीघ्र ही उस ने इशारे में ही खाने की स्वीकृति दे दी. मैं रसोई में गई और बाकी बचे खाने को पालिथीन में भर एक रस्सी में बांध कर नीचे लटका दिया. कंचन ने बिना किसी औपचारिकता के थैली खोल ली और गैराज में चली गई, वहां बैठ कर खाने लगी.

धीरेधीरे यह एक क्रम सा बन गया कि घर में जो कुछ भी बनता, मैं कंचन के लिए अवश्य रख देती और मौका देख कर उसे दे देती. उसे खिलाने में मुझे एक आत्मसुख सा मिलता था. कुछ ही दिनों में उस से मेरा लगाव बढ़ता गया और एक अजीब बंधन में जकड़ते गए हम दोनों.

मेरे भाई की शादी थी. मैं 10 दिन के लिए मायके चली आई लेकिन कंचन की याद मुझे जबतब परेशान करती. खासकर तब और अधिक उस की याद आती जब मैं खाना खाने बैठती. यद्यपि हमारे बीच कभी कोई बातचीत नहीं होती थी पर इशारों में ही वह सारी बातें कह देती एवं समझ लेती थी.

भाई की शादी से जब वापस घर लौटी तो सीधे छत पर गई. वहां देखा कि ढेर सारे कागज पत्थर में लिपटे हुए पड़े थे. हर कागज पर लिखा था, ‘आंटी आप कहां चली गई हो? कब आओगी? मुझे बहुत तेज भूख लगी है. प्लीज, जल्दी आओ न.’

एक कागज खोला तो उस पर लिखा था, ‘मैं ने कल मां से अच्छा खाना मांगा तो मुझे गरम चिमटे से मारा. मेरा  हाथ जल गया है. अब तो उस में घाव हो गया है.’

मैं कागज के टुकड़ों को उठाउठा कर पढ़ रही थी और आंखों से आंसू बह रहे थे. नीचे झांक कर देखा तो कंचन अपनी कुरसीमेज पर दुबकी सी बैठी पढ़ रही थी. दौड़ कर नीचे गई और मायके से लाई कुछ मिठाइयां और पूरियां ले कर ऊपर आ गई और कंचन को इशारा किया. मुझे देख उस की खुशी का ठिकाना न रहा.

मैं ने खाने का सामान रस्सी से नीचे उतार दिया. कंचन ने झट से डब्बा खोला और बैठ कर खाने लगी, तभी उस की छोटी बहन निधि वहां आ गई और कंचन को मिठाइयां खाते देख जोर से चिल्लाने ही वाली थी कि कंचन ने उस के मुंह पर हाथ रख कर चुप कराया और उस से कहा, ‘तू भी मिठाई खा ले.’

निधि ने मिठाई तो खा ली पर अंदर जा कर अपनी मां को इस बारे में बता दिया. सुधा झट से बाहर आई और कंचन के हाथ से डब्बा छीन कर फेंक दिया. बोली, ‘अरे, भूखी मर रही थी क्या? घर पर खाने को नहीं है जो पड़ोस से भीख मांगती है? चल जा, अंदर बरतन पड़े हैं, उन्हें मांजधो ले. बड़ी आई मिठाई खाने वाली,’ कंचन के साथसाथ सुधा मुझे भी भलाबुरा कहते हुए अंदर चली गई.

इस घटना के बाद कंचन मुझे दिखाई नहीं दी. मैं ने सोचा शायद वह कहीं चली गई है. पर एक दिन जब चने की दाल सुखाने छत पर गई तो एक कागज पत्थर में लिपटा पड़ा था. मुझे समझने में देर नहीं लगी कि यह कंचन ने ही फेंका होगा. दाल को नीचे रख कागज खोल कर पढ़ने लगी. उस में लिखा था :

‘प्यारी आंटी,

होश संभाला है तब से मार खाती आ रही हूं. क्या जिन की मां मर जाती हैं उन का इस दुनिया में कोई नहीं होता? मेरी मां ने मुझे जन्म दे कर क्यों छोड़ दिया इस हाल में? पापा तो मेरे अपने हैं फिर वह भी मुझ से क्यों इतनी नफरत करते हैं, क्या उन के दिल में मेरे प्रति प्यार नहीं है?

खैर, छोडि़ए, शायद मेरा नसीब ही ऐसा है. पापा का ट्रांसफर हो गया है. अब हम लोग यहां से कुछ ही दिनों में चले जाएंगे. फिर किस से कहूंगी अपना दर्द. आप की बहुत याद आएगी. काश, आंटी, आप मेरी मां होतीं, कितना प्यार करतीं मुझ को. तबीयत ठीक नहीं है…अब ज्यादा लिख नहीं पा रही हूं.’

समय धीरेधीरे बीतने लगा. अकसर कंचन के बारे में अपने पति शरद से बातें करती तो वह गंभीर हो जाया करते थे. इसी कारण मैं इस बात को कभी आगे नहीं बढ़ा पाई. कंचन को ले कर मैं काफी ऊहापोह में रहती थी किंतु समय के साथसाथ उस की याद धुंधली पड़ने लगी. अचानक कंचन का एक पत्र आया. फिर तो यदाकदा उस के पत्र आते रहे किंतु एक अज्ञात भय से मैं कभी उसे पत्र नहीं लिख पाई और न ही सहानुभूति दर्शा पाई.

अचानक कटोरी गिरने की आवाज से मैं अतीत की यादों से बाहर निकल आई. देखा, कंचन सामने बैठी है. उस के हाथ कंपकंपा रहे थे. शायद इसी वजह से कटोरी गिरी थी.

मैं ने प्यार से कहा, ‘‘कोई बात नहीं, बेटा,’’ फिर उसे अंदर वाले कमरे में ले जा कर अपनी साड़ी पहनने को दी. बसंती रंग की साड़ी उस पर खूब फब रही थी. उस के बाल संवारे तो अच्छी लगने लगी. बिस्तर पर लेटेलेटे हम काफी देर तक इधरउधर की बातें करते रहे. इसी बीच कब उसे नींद आ गई पता नहीं चला.

कंचन तो सो गई पर मेरे मन में एक अंतर्द्वंद्व चलता रहा. एक तरफ तो कंचन को अपनाने का पर दूसरी तरफ इस विचार से सिहर उठती कि इस बात को ले कर शरद की प्रतिक्रिया क्या होगी. शायद उन को अच्छा न लगे कंचन का यहां आना. इसी उधेड़बुन में शाम के 7 बज गए.

दरवाजे की घंटी बजी तो जा कर दरवाजा खोला. शरद आफिस से आ चुके थे. पूरे घर में अंधेरा छाया देख पूछ बैठे, ‘‘क्यों, आज तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’

कंचन को ले कर मैं इस तरह उलझ गई थी कि घर की बत्तियां जलाना भी भूल गई.

घर की बत्तियां जला कर रोशनी की और रसोई में आ कर शरद के लिए चाय बनाने लगी. विचारों का क्रम लगातार जारी था. बारबार यही सोच रही थी कि कंचन के यहां आने की बात शरद को कैसे बताई जाए. क्या शरद कंचन को स्वीकार कर पाएंगे. सोचसोच कर मेरे हाथपैर ढीले पड़ते जा रहे थे.

शरद मेरी इस मनोदशा को शायद भांप रहे थे. तभी बारबार पूछ रहे थे, ‘‘आज तुम इतनी परेशान क्यों दिख रही हो? इतनी व्यग्र एवं परेशान तो तुम्हें पहले कभी नहीं देखा. क्या बात है, मुझे नहीं बताओगी?’’

मैं शायद इसी पल का इंतजार कर रही थी. उचित मौका देख मैं ने बड़े ही सधे शब्दों में कहा, ‘‘कंचन आई है.’’

मेरा इतना कहना था कि शरद गंभीर हो उठे. घर में एक मौन पसर गया. रात का खाना तीनों ने एकसाथ खाया. कंचन को अलग कमरे में सुला कर मैं अपने कमरे में आ गई. शरद दूसरी तरफ करवट लिए लेटे थे. मैं भी एक ओर लेट गई. दोनों बिस्तर पर दो जिंदा लाशों की तरह लेटे रहे. शरद काफी देर तक करवट बदलते रहे. विचारों की आंधी में नींद दोनों को ही नहीं आ रही थी.

बहुत देर बाद शरद की आवाज ने मेरी विचारशृंखला पर विराम लगाया. बोले, ‘‘देखो, मैं कंचन को उस की मां तो नहीं दे सकता हूं पर सासूमां तो दे ही सकता हूं. मैं कंचन को इस तरह नहीं बल्कि अपने घर में बहू बना कर रखूंगा. तब यह दुनिया और समाज कुछ भी न कह पाएगा, अन्यथा एक पराई लड़की को इस घर में पनाह देंगे तो हमारे सामने अनेक सवाल उठेंगे.’’

शरद ने तो मेरे मुंह की बात छीन ली थी. कभी सोचा ही नहीं था कि वे इस तरह अपना फैसला सुनाएंगे. मैं चिपक गई शरद के विशाल हृदय से और रो पड़ी. मुझे गर्व महसूस हो रहा था कि मैं कितनी खुशनसीब हूं जो इतने विशाल हृदय वाले इनसान की पत्नी हूं.

जैसा मैं सोच रही थी वैसा ही शरद भी सोच रहे थे कि हमारे इस फैसले को क्या राहुल स्वीकार करेगा?

राहुल समझदार और संस्कारवान तो है पर शादी के बारे में अपना फैसला उस पर थोपना कहीं ज्यादती तो नहीं होगी. आखिर डाक्टर बन गया है, कहीं उस के जीवन में अपना कोई हमसफर तो नहीं? उस की क्या पसंद है? कभी पूछा ही नहीं. एक ओर जहां मन में आशंका के बादल घुमड़ रहे थे वहीं दूसरी ओर दृढ़ विश्वास भी था कि वह कभी हम लोगों की बात टालेगा नहीं.

कई बार मन में विचार आया कि फोन पर बेटे से पूछ लूं पर फिर यह सोच कर कि फोन पर बात करना ठीक नहीं होगा, अत: उस के आने का हम इंतजार करने लगे. इधर जैसेजैसे दिन व्यतीत होते गए कंचन की सेहत सुधरने लगी. रंगत पर निखार आने लगा. सूखी त्वचा स्निग्ध और कांतिमयी हो कर सोने सी दमकने लगी. आंखों में नमी आ गई.

मेरे आंचल की छांव पा कर कंचन में एक नई जान सी आ गई. उसे देख कर लगा जैसे ग्रीष्मऋतु की भीषण गरमी के बाद वर्षा की पहली फुहार पड़ने पर पौधे हरेभरे हो उठते हैं. अब वह पहले से कहीं अधिक स्वस्थ एवं ऊर्जावान दिखाई देने लगी थी. उस ने इस बीच कंप्यूटर और कुकिंग कोर्स भी ज्वाइन कर लिए थे.

और वह दिन भी आ गया जब राहुल दिल्ली से वापस आ गया. बेटे के आने की जितनी खुशी थी उतनी ही खुशी उस का फैसला सुनने की भी थी. 1-2 दिन बीतने के बाद मैं ने अनुभव किया कि वह भी कंचन से प्रभावित है तो अपनी बात उस के सामने रख दी. राहुल सहर्ष तैयार हो गया. मेरी तो मनमांगी मुराद पूरी हो गई. मैं तेजी से दोनों के ब्याह की तैयारी में जुट गई और साथ ही कंचन के पिता को भी इस बात की सूचना भेज दी.

कंचन और राहुल की शादी बड़ी  धूमधाम से संपन्न हो गई. शादी में न तो सुधा आई और न ही कंचन के पिता. कंचन को बहुत इंतजार रहा कि पापा जरूर आएंगे किंतु उन्होंने न आ कर कंचन की रहीसही उम्मीदें भी तोड़ दीं.

अपने नवजीवन में प्रवेश कर कंचन बहुत खुश थी. एक नया घरौंदा जो मिल गया था और उस घरौंदे में मां के आंचल की ठंडी छांव थी.

Latest Hindi Stories :  एक और परिणीता

Latest Hindi Stories :  अपने चेहरे की विकृति के कारण स्वर्णा अपने सहयोगियों के तानों से परेशान हो चुकी थी लेकिन शिवेन के लिए उस की यह विकृति कोई माने नहीं रखती थी. शिवेन के उदार स्वभाव से हैरान स्वर्णा के सामने यह राज तब खुला जब वह शिवेन की अनुपस्थिति में उस के घर पहुंची. शिवेन दत्त के चार्ज लेते ही पूरे दफ्तर में खलबली मच गई कि दादा अडि़यल इनसान हैं. हां, चपरासी और मेकैनिक खुश हैं. दोनों की खुशी की वजह अलगअलग हैं. चपरासी तो इसलिए खुश हैं कि बाबुओं की तीमारदारी से उन्हें अब कुछ राहत मिलेगी.

मेकैनिक खुश हैं कि शिवेन दत्त तकनीकी जानकारी रखते हैं और उन का चयन योग्यता के आधार पर हुआ है, किसी की सिफारिश से नहीं. दूर संचार विभाग के मैनेजर पद पर आंखें तो बहुत से लोग गड़ाए बैठे थे मगर इन में से एक भी तकनीकी जानकारी नहीं रखता था और विभाग को ऐसे इंजीनियर की तलाश थी जो आज के तेज रफ्तार संचार माध्यमों का सही ढंग से संचालन कर सके. इसीलिए चयन कार्यक्रम में पूरी तरह से पारदर्शिता बरती गई. दूर संचार विभाग में काम करने वाली महिलाओं का अपना एक संगठन भी था जिस की अध्यक्ष स्वर्णा कपूर थी.

वह बोलती कम पर लिखती अधिक थी. आएदिन किसी न किसी पुरुषकर्मी की शिकायत लिख कर वह अधिकारी के पास भेजती रहती थी और पुरुषकर्मी अपना शिकायतीपत्र पी.ए. को कुछ दे कर हथिया लेते थे. कहने का मतलब यह कि स्वर्णा कपूर किसी का कुछ भी बिगाड़ नहीं सकी. नई झाड़ू जरा जोरदार सफाई करती है. इस कहावत को ध्यान में रखते हुए सभी पुरुषकर्मी कुछ अधिक चौकन्ने हो गए थे. शिवेन दत्त ने स्वर्णा कपूर को पहली बार तब देखा जब वह लंबी छुट्टी मांगने उन के पास आई. साड़ी का पल्लू शौल की तरह लपेटे वह किसी मूर्ति की तरह मेज के पास जा खड़ी हुई. शिवेन दत्त खामोशी की उस मूर्ति को देखते ही हतप्रभ रह गए.

स्वर्णा पलकें झुकाए दृढ़ स्वर में बोली, ‘‘अगर आप छुट्टी मंजूर नहीं करेंगे तो मैं नौकरी से इस्तीफा दे दूंगी, क्योंकि मैं कभी छुट्टी नहीं लेती हूं.’’

शिवेन दत्त जैसे जाग पड़े, ‘‘तो फिर आज क्यों? और वह भी इतनी लंबी छुट्टी ली जा रही है?’’
‘‘एम.ए. फाइनल की परीक्षा देनी है मुझे.’’ शाम को काम खत्म कर शिवेन जाने लगे तो अपने पी.ए. से पूछ बैठे, ‘‘कब से हैं मिसेज कपूर यहां?’’

‘‘5 बरस तो हो ही गए हैं. पर सर, आप इन्हें मिसेज नहीं मिस कहिए.’’
‘‘शटअप,’’ शिवेन ने डांट दिया.
बचपन में मैनिंजाइटिस होने से स्वर्णा का मुंह टेढ़ा हो गया और जवानी में वह हताश व कुंठित थी, क्योंकि दोनों छोटी बहनों की शादी हो चुकी थी. स्वर्णा को सितार सिखाने वाली महिला, जिसे पति की जगह दूर संचार विभाग में नौकरी मिली थी, ने स्वर्णा को दूर संचार विभाग में काम करने का रास्ता दिखाया और वह टेलीफोन आपरेटर बन गई. शिवेन का अपने विभाग पर ऐसा दबदबा कायम हुआ कि हर बात में निंदा करने वाले भी अब उन की बात मानने लगे. यही नहीं, उन्होंने अपनी मेजकुरसी हाल में ही एक ओर लगवा ली ताकि सब को उन के होने का एहसास बना रहे.

उन से खार खाने वाले अधेड़ उम्र के सहकर्मी भी उन के विनम्र स्वभाव से दब गए. 3 महीने पलक झपकते ही निकल गए. स्वर्णा जब लौट कर दफ्तर आई तो किसी पुराने मनचले ने फब्ती कसी, ‘‘डिगरी पर डिगरी लिए जाओ, बरात नहीं आने वाली.’’ इस फब्ती से प्रथम श्रेणी में डिगरी हासिल करने का गर्व व खुशी मटियामेट हो गई. स्वर्णा ने एक बार फिर अपने आंसू पी लिए. शिवेन के पी.ए. ने जा कर जब यह छिछोरा व्यंग्य उन्हें सुनाया तो वह भी तिलमिला पड़े पर वह जानते थे कि स्वर्णा उन से कहने नहीं आएगी.

अगली बार वह स्वर्णा के सामने से गुजरे तो अनायास रुक गए और एक अभिभावक की तरह उन्होंने नम्र स्वर में पूछा, ‘‘पास हो गईं?’’ ‘‘जी,’’ स्वर्णा ने गरदन नीची किए ही उत्तर दिया. ‘‘मिठाई नहीं खिलाओगी?’’
‘‘जी, पापाजी से कह दूंगी.’’ अगले दिन स्वर्णा मिठाई का कटोरदान ले कर शिवेन की मेज के सामने जा खड़ी हुई तो वह कुछ झेंप से गए.

‘‘अरे, आप…मैं ने तो यों ही कह दिया था.’’ ‘‘मैं ने खुद बनाए हैं,’’ स्वर्णा उत्साह से बोली.
शिवेन ने 1 लड्डू उठा लिया और कहा कि बाकी लड्डुओं को अपने सहकर्मियों में बांट दो. इस के कुछ दिन बाद ही सरकारी आदेश आया कि रात की ड्यूटी के लिए कुछ टेलीफोन आपरेटर रखे जाएंगे जिन्हें तनख्वाह के अलावा अलग से भत्ता मिलेगा. मौजूदा कर्मचारियों को प्राथमिकता दी जाएगी. स्वर्णा ने रात की शिफ्ट में काम करने का मन बनाया तो मिसेज ठाकुर भी उस के साथ हो लीं. तय हुआ कि रात को आते समय दफ्तर के ही सरकारी चौकीदार को कुछ रुपए महीना दे देंगी ताकि वह उन को घर तक छोड़ जाया करेगा.

यह सबकुछ इतना गोपनीय ढंग से हुआ कि विभाग में किसी को पता ही नहीं चला. स्वर्णा को अपनी जगह न देख कर शिवेन ने पूछताछ की तो पता चला कि स्वर्णा और मिसेज ठाकुर ने शाम की शिफ्ट ली है. उस रात जब दोनों ड्यूटी खत्म कर बाहर निकलीं तो जहां उन का रिकशा और चपरासी खड़ा होता था वहां शिवेन अपनी जीप ले कर खुद खड़े थे. दोनों को जीप में बैठने का आदेश दिया और खुद चालक की सीट पर बैठ कर जीप चलाने लगे. पहले स्वर्णा को उस के घर छोड़ा फिर मिसेज ठाकुर जब अकेली रह गईं तो उन्हें आड़े हाथों लिया.

अपनी सफाई में मिसेज ठाकुर ने सारा सच उगल दिया. ‘‘सर, आप समझने की कोशिश कीजिए. दफ्तर के लोगों ने स्वर्णा का जीना दूभर कर दिया था. कौन क्या कहता है आप को शायद इस का आभास नहीं है.’’ ‘‘एक कुंआरी लड़की का रात को बाहर अकेले काम पर जाना क्या ठीक है?’’ ‘‘नहीं, मगर यहां उसे कोई छेड़ता तो नहीं है. रामदेवजी बाप की तरह उसे स्नेह देते हैं. मैं उस के साथ हूं. रिकशे वाले को मैं पिछले 15 साल से जानती हूं.’’ ‘‘अच्छा, आप लोगों को रात के समय घर छोड़ने के लिए कल से आरिफ रोज जीप ले कर आएगा,’’ शिवेन बोले, ‘‘कुछ ही दिनों में मैं आप लोगों के लिए एक वैन का इंतजाम करा दूंगा.’’ कभीकभी शिवेन विभाग में दौरा करने आते तो स्वर्णा से हालचाल पूछ लेते. धीरेधीरे शिवेन स्वर्णा से इधरउधर की भी बातें करने लगे. मसलन, कौनकौन से लेखक तुम्हें पसंद हैं, कहांकहां घूमी हो, क्याक्या तुम्हारी अभिरुचि है.

स्वर्णा उत्तर देने में झिझकती. मिसेज ठाकुर ने उसे प्यार से समझाया, ‘‘मित्रता बुरी नहीं होती. बातचीत से आत्मविश्वास पनपता है.’’ एक दिन रामदेव ने कहा, ‘‘बेटी, शिवेन को तुम्हारी बड़ी चिंता रहती है,’’ और उस पर गहरी नजर डाल दी. स्वर्णा संभल गई. अगली बार जब शिवेन उस के पास बैठ कर शहर में लगी फिल्मों की बात करने लगे तो वह झुंझला कर बोली, ‘‘सर, मेरे पास इतना समय नहीं है कि फिल्में देखती फिरूं.’’ उस की इस बेरुखी से शिवेन शर्मिदा हो चुपचाप वहां से हट गए. स्वर्णा का मन फिर काम में नहीं लगा. अनमनी सी सोचने लगी कि सब तो उस के चेहरे का इतिहास पूछते हैं, फिर सहानुभूति जताते हैं और उस के अंदर की वेदना को जगा कर अपना मनोरंजन करते हैं. लेकिन इस व्यक्ति ने कभी भी उस से वह सबकुछ नहीं पूछा जो और लोग पूछते हैं. शिवेन फिर दिखाई नहीं दिए. अगर आते भी थे तो रामदेव से औपचारिक पूछताछ कर के चले जाते थे. उधर स्वर्णा की बेचैनी बढ़ने लगी. हर रोज उस की आंखें बारबार दरवाजे की ओर उठ जातीं. इतने सरल, स्वच्छ इनसान पर उस ने यह कैसा वार किया. क्या बुरा था. दो बातें ही तो वह करते थे. हंसनामुसकराना जुर्म है क्या.

वह तो उस के संग हंसते थे न कि उस पर. अपने ही अंतर्द्वंद्व में उलझी स्वर्णा को जब कोई रास्ता नहीं सूझा तो एक दिन बिना किसी को कुछ बताए उस ने एक छोटा सा पत्र लिख कर डाक द्वारा शिवेन को भिजवा दिया. कई दिनों तक कोई उत्तर नहीं आया. फिर एक पत्र उस के घर के पते पर सरकारी लिफाफे में आया जिस में उसे एक नए पद के साक्षात्कार के लिए बुलाया गया था. दिल्ली से आए 3 उच्च अधिकारियों ने उस का साक्षात्कार लिया और वह सहायक प्रबंधक के रूप में चुन ली गई. शिवेन के सामने वाले कमरे में अब उस की मेज लगा दी गई थी.

उसे प्रबंधन व नियंत्रण की सारी जानकारी शिवेन स्वयं देने लगे. वह एक चतुर शिष्या की तरह सब ग्रहण करती गई. ऊपर से भले ही सबकुछ शांत था पर अंदर ही अंदर इस नई नियुक्ति को ले कर दफ्तर में काफी उथलपुथल थी. आतेजाते किसी ने वही पुराना राग छेड़ दिया, ‘‘यार, नया न सही, 4 बच्चों वाला ही सही.’’ स्वर्णा तिलमिला कर रह गई. घर आने के बाद रोरो कर उस ने अपनी आंखें सुजा लीं. दशहरे पर शिवेन ने 15 दिन की छुट्टी ली तो उन की गैरमौजूदगी में स्वर्णा बिना किसी सहायता के विभाग सुचारु रूप से चलाती रही. इसी दौरान एक दिन घर पर शिवेन का फोन आया.

दफ्तर के बाबत औपचारिक बातें करने के बाद उसे बाजार की एक बड़ी दुकान के बाहर मिलने को कहा. स्वर्णा ने घर में किसी को कुछ नहीं बताया और मिलने चली गई. शिवेन ने उस की पसंद से अपनी मां और बहन के लिए कपड़ों की खरीदारी की. फिर दोनों एक रेस्तरां में बैठ कर इधरउधर की बातें करते रहे.

बातों के सिलसिले में ही स्वर्णा पूछ बैठी, ‘‘बच्चों के लिए कुछ नहीं लिया आप ने?’’ ‘‘नहीं,’’ शिवेन एकदम खिलखिला कर हंस दिए और बोले, ‘‘किस के बच्चे? मेरी तो अभी शादी भी नहीं हुई है.’’ स्वर्णा अविश्वास से बोली, ‘‘दफ्तर में तो सब कहते हैं कि आप 4 बच्चों के बाप हैं.’’ ‘‘स्वर्णा, मेरी उम्र 36 साल हो गई है पर मैं कुंआरा हूं. अगर एक 30 साल की स्त्री कुंआरी हो तो लोग कहते हैं कि किसी ने उसे पसंद नहीं किया. मगर एक पुरुष अविवाहित रहे तो जानती हो लोग उस के विषय में क्या सोचते हैं…मैं शादीशुदा हूं यही भ्रम बना रहे तो अच्छा है.’’ शिवेन ने अपना हृदय खोल कर रख दिया था और स्वर्णा जीवन में पहली बार किसी की राजदार बनी थी. 2 दिन बाद शिवेन ने स्वर्णा को अपने साथ सिनेमा देखने के लिए आमंत्रित किया. इस बार भी वह घर से बहाना बना कर शिवेन के साथ चली गई. यद्यपि इस तरह घर वालों से झूठ बोल कर जाने पर उस के मन ने उसे धिक्कारा था मगर इस खतरे में बाजी जीत जाने का स्वाद भी था. कोई उसे भी चाह रहा था, यह एहसास होते ही उस के सपने अंगड़ाई लेने लगे थे. वह सुबह उठती तो अपनी उनींदी मुसकान उसे समेटनी पड़ती. कहीं कोई कुछ पूछ न ले. अगली शाम वह उसी दुकान पर गई और अपने लिए सुंदर साडि़यां खरीद लाई. फिर जाने क्या सोच कर अपनी मां के लिए ठीक वैसी ही साड़ी खरीदी जैसी शिवेन की मां के लिए उस ने पसंद की थी. मां को ला कर साड़ी दी तो वह उदास स्वर में बोलीं, ‘‘क्या मेरी तकदीर में बेटी की कमाई की साड़ी ही लिखी है?’’ ‘‘मां, तुम यह क्यों नहीं समझ लेतीं कि मैं तुम्हारा बेटा हूं.’’ स्वर्णा अपनी खुशी में मिसेज ठाकुर को शरीक करने के लिए उन के घर की ओर चल दी. धीरेधीरे उन्हें सबकुछ बता दिया. वह गंभीर हो गईं. समझाते हुए बोलीं, ‘‘स्वर्णा, तुम जवान लड़की हो. आगेपीछे सोच कर कदम उठाना. शिवेन बड़े ओहदे वाला इनसान है.

क्या तुम्हें अपनी बिरादरी के सामने स्वीकार करेगा? कहीं ऐसा न हो कि जिस दिन उसे अपनी बिरादरी की कोई अच्छी लड़की मिले तो तुम्हें फटे कपड़े की तरह छोड़ दे. थोड़े दिनों की खुशी के लिए जीवन भर का दुख मोल लेना कहां की समझदारी है? अब अगर शिवेन बुलाए तो मत जाना.’’ अगली बार शिवेन ने फोन पर उसे अपने घर आने के लिए कहा. स्वर्णा ने पहली बार टाल दिया. लेकिन दूसरी बार शिवेन ने फिर बुलाया तो उस ने मिसेज ठाकुर को बताया. सुनते ही वह भड़क उठीं. ‘‘देखा न, घर पर बुला रहा है. इस का इरादा कतई नेक नहीं है, कुछ करना पड़ेगा.’’ ‘‘दीदी, अगर मैं नहीं गई तो भी वह बदला निकाल सकते हैं. मेरी नौकरी और पदोन्नति का भी तो खयाल करो. सब उन्हीं की मेहरबानी है. टेलीफोन पर उन की बातों से ऐसा नहीं लगता कि उन का कोई बुरा इरादा होगा. समझ नहीं आ रहा कि क्या करूं क्या न करूं.’’

‘‘ठीक से सोच लो, स्वर्णा. जाना तो तुम्हें कल है.’’ मिसेज ठाकुर के घर से लौटते समय आगे की सोच कर उस का गला सूखा जा रहा था. मन का तनाव उस की नसनस में बह रहा था. अनायास उस ने महसूस किया कि वह नितांत अकेली है. उस के आसपास के सभी व्यक्ति, जो उस पर अधिकार जताते हैं, किसी न किसी डर के अधीन हैं. अपनीअपनी सामाजिकता से बंधे पालतू पशुओं की तरह एक नियत जीवनयापन कर रहे हैं. दादी को जातबिरादरी का डर, पिताजी को अपने कर्तव्य से गिर जाने का डर, मां को इन दोनों को नाराज करने का डर और इन सब के नीचे, लगभग कुचला हुआ उस का अपना अस्तित्व था. इन सब के विपरीत उस के मन को एक शिवेन ही तो था जो बादलों तक उड़ा ले जा रहा था.

शिवेन का खयाल आते ही उस का अंगअंग झंकृत हो उठा. सहसा उसे लगा कि वह इतनी हलकी है कि कोई शिला उसे पूरी तरह दबा दे, नहीं तो वह उड़ जाएगी. वह अपने ही हाथपैरों को कस कर समेटे गठरी सी बनी खिड़की के बाहर देखती कब सो गई उसे पता ही न चला. सुबह आंख खुली तो उस की नजर सामने अलमारी पर पड़ी जिस के एक खाने में उस की दोनों छोटी बहनों के विवाह की तसवीरें रखी थीं. उन के ठीक बीच में एक बंगाली दूल्हादुलहन की जोड़ी रखी थी जो वर्षों पहले उस ने एक मेले से खरीदी थी. सुबह उस ने अपना फैसला फोन पर मिसेज ठाकुर को सुनाया. वह बोली, ‘‘चलो, मैं तुम्हारे साथ चलती हूं. तुम आगे जा कर दरवाजा खुलवाना. बाहर ही खड़ी रह कर बात करना. यदि अंदर आने के लिए शिवेन जोर दें तो बताना मैं भी साथ हूं. रिकशे वाला भी हमारा अपना है. यदि जरूरत पड़ी तो शोर मचा देंगे.’’ हिम्मत कर के स्वर्णा शिवेन के घर चल दी. मिसेज ठाकुर भी रिकशे में पीछेपीछे हो लीं. शिवेन का मकान कई गलियों से गुजरने के बाद मिला था. स्वर्णा ने दरवाजा खटखटाया. अंदर से एक स्त्री कंठ ने कहा, ‘‘कौन है, दरवाजा खुला है, आ जाओ.’’ स्वर्णा ने अपना नाम बताया और दरवाजा जरा सा खोला तो वह पूरा ही खुल गया. सामने आंगन में बैठी एक अधेड़ उम्र की महिला उसे बुला रही थी. स्वर्णा ने दरवाजा खुला ही छोड़ दिया क्योंकि उस के ठीक सामने 10 गज की दूरी पर मिसेज ठाकुर उसे अपने रिकशे में बैठेबैठे देख सकती थीं. ‘‘बेटी शेफाली, देखो, स्वर्णा आई है.’’ शेफाली धड़धड़ाती हुई सीढि़यों से उतरी और स्वर्णा को प्रेम से गले लगाया. ‘‘शिबू ने बताया था कि आप आएंगी. वह कोलकाता गया है. परसों आ जाएगा. आइए, बैठिए.’’ शेफाली को देख कर स्वर्णा का मुंह खुला का खुला रह गया, क्योंकि उस का ऊपर का होंठ बीच में से कटा हुआ था. इस के बाद भी शेफाली ने सहज ढंग से उस की खातिर की. मांजी के पास रखे बेंत के मूढ़ों पर दोनों बैठीं बातचीत करती रहीं. नाश्ता किया और फिर शेफाली उसे अपना घर दिखाने के लिए अंदर ले गई. स्वर्णा ने देखा कि शिवेन के कमरे में ढेरों पुस्तकें पड़ी थीं. एक कोने में सितार रखा था. शेफाली ने बताया, ‘‘शिबू मुझ से 3 साल छोटा है और वह तुम को बेहद पसंद भी करता है. इस से पहले शिवेन ने कभी अपनी शादी की बात नहीं की थी.

तुम पहली लड़की हो जो उस के जीवन में आई हो. ‘‘आज से 20 साल पहले जब पिताजी का देहांत हुआ था तब मैं 19 साल की थी और शिवेन 16 का रहा होगा. इतनी छोटी उम्र में ही उस पर मेरी शादी का बोझ आ पड़ा. मेरा ऊपर का होंठ जन्म से ही विकृत था. विकृति के कारण रिश्तेदारों ने मेरे योग्य जो वर चुने उन में से कोई विधुर था, कोई अपंग. स्वयं अपंग होते हुए भी लोग मुझे देख कर मुंह बना लेते थे. ‘‘एक दिन एक आंख से अपंग व्यक्ति ने जब मुझे नकार दिया तो शिवेन उसे बहुत भलाबुरा कहते हुए बोला कि चायमिठाई खाने आ जाते हैं, अपनी सूरत नहीं देखते. ‘‘इस बात को ले कर हमारे रिश्तेदारों ने हमें बहुत फटकारा. बस, उसी दिन मैं ने शिवेन को बुला कर कह दिया कि बंद करो यह नाटक.

मुझे किसी से शादी नहीं करनी है. शिवेन रोते हुए बोला, ‘ऐसा मत सोचिए, दीदी. मैं अपना फर्ज पूरा नहीं करूंगा तो समाज यही कहेगा कि बाप रहता तो बेटी कुंआरी तो न बैठी रहती,’’’ शेफाली स्वर्णा को बता रही थी. ‘‘ बाबा मेरी शादी करवा सकते थे क्या?’’ क्या उन के पास देने के लिए लाखों रुपए का दहेज था?’ मैं ने शिवेन से पूछा, ‘अभी तू छोटा है तभी फर्ज की बात कर रहा है. कल को जब तू शादी लायक होगा तो क्या तू मेरी जैसी लड़की से शादी कर लेगा? दूसरों को क्यों लज्जित करता है?’ ‘‘बस, उसी दिन से उस ने शपथ ले ली कि विकृत चेहरे वाली लड़की से ही शादी करूंगा.’’

थोड़ा रुक कर शेफाली फिर बोली, ‘‘स्वर्णा, जिस दिन पहली बार उस ने तुम्हें देखा था उसी दिन शिबू ने तुम से शादी के लिए अपना मन बना लिया था. इस पर तुम इतनी गुणी निकलीं. अब तुम्हारी बारी है. घरबार भी तुम ने देख लिया है. बोलो, क्या कहती हो?’’

स्वर्णा ने दोनों हाथों से अपना मुंह ढांप लिया. उस की रुलाई फूट पड़ी. शेफाली ने उसे गले से लगाया. स्वर्णा चुपचाप उठी, साड़ी का पल्लू पीछे से खींच कर सर ढक लिया और घुटनों के बल बैठ कर मांजी के पांव छुए. स्वर्णा जाते समय धीरे से शेफाली से बोली, ‘‘आज से चौथे दिन मैं आप सब का अपने घर पर इंतजार करूंगी.’’

Sad Love Story : मेरे प्‍यार की मंजिल

Sad Love Story : दिसंबर का पहला पखवाड़ा चल रहा था. शीतऋतु दस्तक दे चुकी थी. सूरज भी धीरेधीरे अस्ताचल की ओर प्रस्थान कर रहा था और उस की किरणें आसमान में लालिमा फैलाए हुए थीं. ऐसा लग रहा था मानो ठंड के कारण सभी घर जा कर रजाई में घुस कर सोना चाहते हों. पार्क लगभग खाली हो चुका था, लेकिन हम दोनों अभी तक उसी बैंच पर बैठे बातें कर रहे थे. हम एकदूसरे की बातों में इतने खो गए थे कि हमें रात्रि की आहट का भी पता नहीं चला. मैं तो बस, एकाग्रचित्त हो अखिलेश की दीवानगी भरी बातें सुन रही थी.

‘‘मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं रीमा, मुझे कभी तनहा मत छोड़ना. मैं तुम्हारे बगैर बिलकुल नहीं जी पाऊंगा,’’ अखिलेश ने मेरी उंगलियों को सहलाते हुए कहा.

‘‘कैसी बातें कर रहे हो अखिलेश, मैं तो हमेशा तुम्हारी बांहों में ही रहूंगी, जिऊंगी भी तुम्हारी बांहों में और मरूंगी भी तुम्हारी ही गोद में सिर रख कर.’’

मेरी बातें सुनते ही अखिलेश बौखला गया, ‘‘यह कैसा प्यार है रीमा, एक तरफ तो तुम मेरे साथ जीने की कसमें खाती हो और अब मेरी गोद में सिर रख कर मरना चाहती हो? तुम ने एक बार भी यह नहीं सोचा कि मैं तुम्हारे बिना जी कर क्या करूंगा? बोलो रीमा, बोलो न.’’ अखिलेश बच्चों की तरह बिलखने लगा.

‘‘और तुम… क्या तुम उस दूसरी दुनिया में मेरे बगैर रह पाओगी? जानती हो रीमा, अगर मैं तुम्हारी जगह होता तो क्या कहता,’’ अखिलेश ने आंसू पोंछते हुए कहा, ‘‘यदि तुम इस दुनिया से पहले चली जाओगी तो मैं तुम्हारे पास आने में बिलकुल भी देर नहीं करूंगा और यदि मैं पहले चला गया तो फिर तुम्हें अपने पास बुलाने में देर नहीं करूंगा, क्योंकि मैं तुम्हारे बिना कहीं भी नहीं रह सकता.’’

अखिलेश का यह रूप देख कर पहले तो मैं सहम गई, लेकिन अपने प्रति अखिलेश का यह पागलपन मुझे अच्छा लगा. हमारे प्यार की कलियां अब खिलने लगी थीं. किसी को भी हमारे प्यार से कोई एतराज नहीं था. दोनों ही घरों में हमारे रिश्ते की बातें होने लगी थीं. मारे खुशी के मेरे कदम जमीन पर ही नहीं पड़ते थे, लेकिन अखिलेश को न जाने आजकल क्या हो गया था. हर वक्त वह खोयाखोया सा रहता था. उस का चेहरा पीला पड़ता जा रहा था. शरीर भी काफी कमजोर हो गया था.

मैं ने कई बार उस से पूछा, लेकिन हर बार वह टाल जाता था. मुझे न जाने क्यों ऐसा लगता था, जैसे वह मुझ से कुछ छिपा रहा है. इधर कुछ दिनों से वह जल्दी शादी करने की जिद कर रहा था. उस की जिद में छिपे प्यार को मैं तो समझ रही थी, मगर मेरे पापा मेरी शादी अगले साल करना चाहते थे ताकि मैं अपनी पढ़ाई पूरी कर लूं. इसलिए चाह कर भी मैं अखिलेश की जिद न मान सकी.

अखिलेश मुझे दीवानों की तरह प्यार करता था और मुझे पाने के लिए वह कुछ भी कर सकता था. यह बात मुझे उस दिन समझ में आ गई जब शाम को अखिलेश ने फोन कर के मुझे अपने घर बुलाया. जब मैं वहां पहुंची तो घर में कोई भी नहीं था. अखिलेश अकेला था. उस के मम्मीपापा कहीं गए हुए थे. अखिलेश ने मुझे बताया कि उसे घबराहट हो रही थी और उस की तबीयत भी ठीक नहीं थी इसलिए उस ने मुझे बुलाया है.

थोड़ी देर बाद जब मैं उस के लिए कौफी बनाने रसोई में गई, तभी अखिलेश ने पीछे से आ कर मुझे आलिंगनबद्ध कर लिया, मैं ने घबरा कर पीछे हटना चाहा, लेकिन उस की बांहों की जंजीर न तोड़ सकी. वह बेतहाशा मुझे चूमने लगा, ‘‘मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता रीमा, जीना तो दूर तुम्हारे बिना तो मैं मर भी नहीं पाऊंगा. आज मुझे मत रोको रीमा, मैं अकेला नहीं रह पाऊंगा.’’

मेरे मुंह से तो आवाज तक नहीं निकल सकी और एक बेजान लता की तरह मैं उस से लिपटती चली गई. उस की आंखों में बिछुड़ने का भय साफ झलक रहा था और मैं उन आंखों में समा कर इस भय को समाप्त कर देना चाहती थी तभी तो बंद पलकों से मैं ने अपनी सहमति जाहिर कर दी. फिर हम दोनों प्यार के उफनते सागर में डूबते चले गए और जब हमें होश आया तब तक सारी सीमाएं टूट चुकी थीं. मैं अखिलेश से नजरें भी नहीं मिला पा रही थी और उस के लाख रोकने के बावजूद बिना कुछ कहे वापस आ गई.

इन 15 दिन में न जाने कितनी बार वह फोन और एसएमएस कर चुका था. मगर न तो मैं ने उस के एसएमएस का कोई जवाब दिया और न ही उस का फोन रिसीव किया. 16वें दिन अखिलेश की मम्मी ने ही फोन कर के मुझे बताया कि अखिलेश पिछले 15 दिन से अस्पताल में भरती है और उस की अंतिम सांसें चल रही हैं. अखिलेश ने उसे बताने से मना किया था, इसलिए वे अब तक उसे नहीं बता पा रही थीं.

इतना सुनते ही मैं एकपल भी न रुक सकी. अस्पताल पहुंचने पर मुझे पता चला कि अब उस की जिंदगी के बस कुछ ही क्षण बाकी हैं. परिवार के सभी लोग आंसुओं के सैलाब को रोके हुए थे. मैं बदहवास सी दौड़ती हुई अखिलेश के पास चली गई. आहट पा कर उस ने अपनी आंखें खोलीं. उस की आंखों में खुशी की चमक आ गई थी. मैं दौड़ कर उस के कृशकाय शरीर से लिपट गई.

‘‘तुम ने मुझे बताया क्यों नहीं अखिलेश, सिर्फ ‘कौल मी’ लिख कर सैकड़ों बार मैसेज करते थे. क्या एक बार भी तुम अपनी बीमारी के बारे में मुझे नहीं बता सकते थे? क्या मैं इस काबिल भी नहीं कि तुम्हारा गम बांट सकूं?‘‘

‘‘मैं हर दिन तुम्हें फोन करता था रीमा, पर तुम ने एक बार भी क्या मुझ से बात की?’’

‘‘नहीं अखिलेश, ऐसी कोई बात नहीं थी, लेकिन उस दिन की घटना की वजह से मैं तुम से नजरें नहीं मिला पा रही थी.’’

‘‘लेकिन गलती तो मेरी भी थी न रीमा, फिर तुम क्यों नजरें चुरा रही थीं. वह तो मेरा प्यार था रीमा ताकि तुम जब तक जीवित रहोगी मेरे प्यार को याद रख सकोगी.’’

‘‘नहीं अखिलेश, हम ने साथ जीनेमरने का वादा किया था. आज तुम मुझे मंझधार में अकेला छोड़ कर नहीं जा सकते,’’ उस के मौत के एहसास से मैं कांप उठी.

‘‘अभी नहीं रीमा, अभी तो मैं अकेला ही जा रहा हूं, मगर तुम मेरे पास जरूर आओगी रीमा, तुम्हें आना ही पड़ेगा. बोलो रीमा, आओगी न अपने अखिलेश के पास’’,

अभी अखिलेश और कुछ कहता कि उस की सांसें उखड़ने लगीं और डाक्टर ने मुझे बाहर जाने के लिए कह दिया.

डाक्टरों की लाख कोशिशों के बावजूद अखिलेश को नहीं बचाया जा सका. मेरी तो दुनिया ही उजड़ गई थी. मेरा तो सुहागन बनने का रंगीन ख्वाब ही चकनाचूर हो गया. सब से बड़ा धक्का तो मुझे उस समय लगा जब पापा ने एक भयानक सच उजागर किया. यह कालेज के दिनों की कुछ गलतियों का नतीजा था, जो पिछले एक साल से वह एड्स जैसी जानलेवा बीमारी से जूझ रहा था. उस ने यह बात अपने परिवार में किसी से नहीं बताई थी. यहां तक कि डाक्टर से भी किसी को न बताने की गुजारिश की थी.

मेरे कदमों तले जमीन खिसक गई. मुझे अपने पागलपन की वह रात याद आ गई जब मैं ने अपना सर्वस्व अखिलेश को समर्पित कर दिया था.

आज उस की 5वीं बरसी है और मैं मौत के कगार पर खड़ी अपनी बारी का इंतजार कर रही हूं. मुझे अखिलेश से कोई शिकायत नहीं है और न ही अपने मरने का कोई गम है, क्योंकि मैं जानती हूं कि जिंदगी के उस पार मौत नहीं, बल्कि अखिलेश मेरा बेसब्री से इंतजार कर रहा होगा.

मैं ने अखिलेश का साथ देने का वादा किया था, इसलिए मेरा जाना तो निश्चित है परंतु आज तक मैं यह नहीं समझ पाई कि मैं ने और अखिलेश ने जो किया वह सही था या गलत?

अखिलेश का वादा पक्का था, मेरे समर्पण में प्यार था या हम दोनों को प्यार की मंजिल के रूप में मौत मिली, यह प्यार था. क्या यही प्यार है? क्या पता मेरी डायरी में लिखा यह वाक्य मेरा अंतिम वाक्य हो. कल का सूरज मैं देख भी पाऊंगी या नहीं, मुझे पता नहीं. Sad Love Story 

Emotional Hindi Story : आज भी है श्रवण कुमार

Emotional Hindi Story : श्रवण कुमार केवल पहले ही नहीं, आज के समय में भी काफी पाए जाते हैं. यदि आप को विश्वास नहीं है तो गंगाधर के पास आ कर स्थानांतरण के इन आवेदनों को पढ़ लें. आंखों का जाला हट जाएगा, एक नहीं अनेक श्रवण कुमार मिलेंगे. स्थापना शाखा में पदस्थापना होने से गंगाधार का दिनभर वास्ता स्थानांतरणों संबंधी भिन्नभिन्न तरह की अर्जियों से पड़ता. क्या महिला क्या पुरुष, क्या कनिष्ठ क्या वरिष्ठ, क्या मैदानी क्या कार्यालय पदस्थापना वाले कर्मी. सब के सबों के स्थानांतरण के भिन्नभिन्न आवेदनों में एक तरह की अभिन्नता रहती.

मां-बाप के प्रति उमड़ता ऐसा श्रद्धाभाव देख श्रवण कुमार भी सकुचा जाता. गंगाधर ठहरा एक होनहार कर्मी. तो उस ने डाटा एनालिसिस के इस युग में स्थानांतरण के आवेदन पत्रों का विश्लेषण करना शुरू कर दिया. किसकिस बीमारी के कितने प्रतिशत आवेदन हैं. एक व्यक्ति आखिर स्थानांतरण चाहता क्यों है. बच्चों की अच्छी शिक्षा के लिए, पदस्थापना स्थल में मनोरंजन के साधनों की कमी, मांबाप या सासससुर की बीमारी या अन्य किसी कारण से.

बड़े गजब के रुझान सामने आए. उन में से कुछ प्रमुख आप के लाभार्थ नीचे हैं. 90 प्रतिशत आवेदन मांबाप की बीमारी हेतु देखभाल के वास्ते होते हैं. इस में 70 प्रतिशत से अधिक कैंसर या हार्ट या किडनी आदि गंभीर बीमारियों वाले होते हैं. इन सभी आवेदकों के माता या पिता अत्यधिक बुजुर्ग होते हैं. 21 साल के रंगरूट व 42 साल के पके कर्मी दोनों के ही मातापिता अनिवार्यतौर से अत्यधिक पके हुए यानी बुजुर्ग होते हैं. बुजुर्ग के साथ ही साथ वे किसी न किसी असाध्य बीमारी से भी अवश्य पीडि़त रहते हैं. कुछ आवेदन तो 50 वर्ष पार कर चुके कर्मियों के होते हैं.

ऐसे आवेदनों में यह समझना मुश्किलभरा होता है कि ये अपनी बुजुर्गियत की बात कर रहे होते हैं या कि अपने मांबाप की. ऐसे आवेदनों का लब्बोलुआब होता है आवेदक का मांबाप की सेवा करने के भाव से लबालब भरा रहना. असाध्य बीमारियों में नंबर एक पर कैंसर, उस के बाद बीपी, हृदय रोग आते हैं. डायबिटीज से पीडि़त भी मुतके बताए जाते हैं. ऐसे वाले मातापिता इंसुलिन बेटे के हाथों से ही लेते हैं. किडनी की बीमारी वाले भी काफी तादाद में होते हैं. ऐसे सभी पेरैंट्स का सप्ताह में 2 बार डायलिसिस करवाना जरूरी होता है जिस में इन की उपस्थिति आवश्यक रहती है.

 

कुछकुछ मांबाप को लकवा भी लगवा दिया जाता है. और भी कि इन सभी मांबाप का एक ही बेटा होता है जोकि नौकरीशुदा ही होता है. आश्चर्य की बात इतने ज्यादा एकल संतान वाले मांबाप होने के बावजूद देश की जनसंख्या इतनी तेज रफ्तार से कैसे बढ़ी, शोध का गूढ़ विषय है. एक और बात, आधी दर्जन संतानों वाले मांबाप की यही एक संतान देखभाल करने लायक होती है. नहीं तो फिर इतनी दूर विदेश में होती है कि घड़ीघड़ी नहीं आ सकती. केवल ये ही आ सकते हैं. या बहुत अधिक जिम्मेदारियां होती हैं कि आवेदक के अलावा वे देखभाल नहीं कर सकते. स्थानांतरण के आवेदन पत्र अकसर झूठ का पुलिंदा होते हैं.

मांबाप की बीमारी के भार से ज्यादा एक पृष्ठ का बदली का आवेदन मांबाप की बीमारियों के सैकड़ाभर सहीगलत कागज का भार संभाले रहता है. इसी नौकरीशुदा, सब से मजबूत कंधों वाले सपूत पर ही मांबाप की असाध्य बीमारियों का भार टिका रहता है. सरकारी नौकरी में ऐसा क्या होता है कि यह वाला बेटा ही सब से लायक व बाकी के नालायक व नकारे साबित होते हैं. अपने सासससुर के किसी असाध्य रोग के आधार पर स्थानांतरण चाहने वाला कोई भी आवेदन आना नहीं पाया गया. अभी इस का चलन नहीं है. और भी कि सासससुर के नाम से कोई श्रवण कुमार इतिहास में नहीं पाया गया है. इसी तरह अपनी पत्नी की किसी बीमारी के आधार पर स्थानांतरण के आवेदन भी देखने में नहीं आते.

आखिर स्थानांतरण के आवेदन हेतु बुजुर्गियत का वह भाव इन में कहां से आता है जो अकेले, वृद्ध, बेसहारा गंभीर बीमारी से गंभीररूप से पीडि़त निशक्त हो चले मांबाप को आवेदन में ला बारबार घसीटने से उत्पन्न होता है. एक और महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष सामने आया कि ऐसे सभी कर्मचारियों के मांबाप की लाइलाज बीमारी का इलाज बड़े शहरों मुंबई, दिल्ली आदि में ही चल रहा होता है. और भी कि, इसी सपूत को उन्हें इन शहरों में ले कर बारबार जाना पड़ता है. सो, उस की पदस्थापना बड़े शहरों में करना आवश्यक हो जाता है. यह भी कि यदि उस की पदस्थापना इन शहरों में शीघ्र नहीं की गई तो इलाज के अभाव में कोई भी अनहोनी घटने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता. जिस की समस्त जिम्मेदारी आवेदक की न हो कर जिस को आवेदन किया गया हो उस की होगी.

 

अब गंगाधर के पास विश्वास करने के पर्याप्त कारण हैं कि लोग नाहक ही नई पीढ़ी को बदनाम करने पर तुले हैं कि वे मांबाप की केयर नहीं करते. वे तो बेचारे मांबाप की छोटी से छोटी तकलीफ के हमराह बनना चाहते हैं. इतने फेयर हैं वे अपनी सोच में. वे ऐसे क्षुद्र आधारों जैसे कि पदस्थापना देहात या दुर्गम क्षेत्र या घर से कई सौ मील दूर होना, वहां बच्चों की शिक्षा के लिए कौन्वेंट स्कूल न होना, इन छोटे शहरों में मनोरंजन के माकूल साधन न होना, पत्नी को जगह मनहूस लगना आदि के आधार पर कभी स्थानांतरण के आवेदन नहीं प्रस्तुत करते. ऐसे आधुनिक श्रवण कुमारों के आवेदनों पर तरजीह नहीं देना एक तरह का अपराध ही होगा. गंगाधर को तो आश्चर्य है कि नएनए वृद्धाश्रम क्यों खुलते जा रहे हैं.

जब सारे नौजवान अपने मांबाप की वृद्धावस्था में बीमारी की हालत में गहन सेवासुश्रुषा करना चाहते हैं. कहीं वृद्धाश्रमों की आड़ में घपलेबाजी का खेल तो नहीं खेला जा रहा. इस की जांच होनी चाहिए. ढेरों आवेदनों के मजमून से तो सिद्ध होता है कि घोर कलियुग में भी ये युवा सतयुगी हैं. श्रवण कुमार केवल पहले नहीं, आज हमारेआप के समय में भी काफी पाए जाते हैं यदि आप को विश्वास नहीं है तो गंगाधर के पास आ कर स्थानांतरण के इन आवेदनों को पढ़ लें. आंखों का जाला हट जाएगा और एक नहीं, अनेक श्रवण कुमार मिलेंगे. गंगाधर का मानना है कि जब इतने अच्छे पारदर्शी आंकड़े उपलब्ध हैं तो फिर उन पर विश्वास न कर जबरदस्ती वृद्धाश्रम खोलने का मतलब क्या है. गंगाधर का मानना है कि जब तक ऐसे युवा हैं तो वृद्धाश्रमों की जरूरत देश को नहीं है. Emotional Hindi Story

Short Story : रंगबिरंगी तितली

Short Story : सियाली के मम्मीपापा का तलाक क्या हुआ, वह एक आजाद चिडि़या हो गई, जो कहीं भी उड़ान भरने के लिए अपनी मरजी की मालकिन थी. अब वह खुल कर जीना चाहती थी, मगर यह इतना आसान नहीं था. रविवार के दिन की शुरुआत भी मम्मी व पापा के आपसी झगड़ों की कड़वी आवाजों से हुई. सियाली अभी अपने कमरे में सो ही रही थी, चिकचिक सुन कर उस ने चादर सिर पर ओढ़ ली. आवाज पहले से कम तो हुई पर अब भी कानों से टकरा रही थी. सियाली मन ही मन कुढ़ कर रह गई थी. पास पड़े मोबाइल को टटोल कर उस में ईअरफोन लगा कर बड्स को कानों में कस कर ठूंस लिया और वौल्यूम को फुल कर दिया.

18 वर्षीया सियाली के लिए यह नई बात नहीं थी. उस के मम्मीपापा आएदिन झगड़ते रहते थे, जिस का सीधा कारण था उन दोनों के संबंधों में खटास का होना, ऐसी खटास जो एक बार जीवन में आ जाए तो उस की परिणति आपसी रिश्तों के खात्मे से होती है. सियाली के मम्मीपापा प्रकाश और निहारिका के संबंधों में यह खटास एक दिन में नहीं आई, बल्कि, यह तो एक मध्यवर्गीय परिवार के कामकाजी दंपती के आपसी सामंजस्य बिगड़ने के कारण धीरेधीरे आई एक आम समस्या थी. सियाली का पिता अपनी पत्नी के चरित्र पर शक करता था. उस का शक करना जायज था क्योंकि निहारिका का अपने औफिसकर्मी के साथ संबंध चल रहा था. पतिपत्नी की हिंसा और शक समानुपाती थे. जितना शक गहरा हुआ उतना ही प्रकाश की हिंसा बढ़ती गई और परिणामस्वरूप परपुरुष के साथ निहारिका का प्रेम बढ़ता गया. ‘जब दोनों साथ नहीं रह सकते तो तलाक क्यों नहीं दे देते एकदूसरे को?’ सियाली झुं झला कर मन ही मन बोली.

सियाली जब अपने कमरे से बाहर आई तो दोनों काफी हद तक शांत हो चुके थे. शायद, वे किसी निर्णय तक पहुंच गए थे. ‘‘ठीक है, मैं कल ही वकील से बात कर लेता हूं, पर सियाली को अपने साथ कौन रखेगा?’’ प्रकाश ने निहारिका की ओर घूरते हुए कहा. ‘‘मैं सम झती हूं कि सियाली को तुम मु झ से बेहतर संभाल सकते हो,’’ निहारिका ने कहा. उस की इस बात पर प्रकाश भड़क गया, ‘‘हां, तुम तो सियाली को मेरे पल्ले बांधना चाहती हो ताकि तुम अपने उस औफिस वाले यार के साथ गुलछर्रे उड़ा सको और मैं जवान बेटी के चारों तरफ गार्ड सा बन कर घूमता रहूं.’’ प्रकाश की इस बात पर निहारिका ने भी तेवर दिखाते हुए कहा, ‘‘मर्दों के समाज में क्या सारी जिम्मेदारी एक मां की ही होती है?’’ निहारिका ने गहरी सांस ली और कुछ देर रुक कर बोली, ‘‘हां, वैसे सियाली कभीकभी मेरे पास भी आ सकती है. 1-2 दिन मेरे साथ रहेगी तो मु झे एतराज नहीं होगा,’’ निहारिका ने मानो फैसला सुना दिया था. सियाली कभी मां की तरफ देख रही थी तो कभी अपने पिता की तरफ.

उस से कुछ कहते न बना पर इतना सम झ गई थी कि मांबाप ने अपनाअपना रास्ता अलग कर लिया है और उस का अस्तित्व एक पैंडुलम से अधिक नहीं है, जो दोनों के बीच एक सिरे से दूसरे सिरे तक डोल रही है. मांबाप के बीच रोजरोज के झगड़े ने एक अजीब विषाद से भर दिया था सियाली को. इस विषाद का अंत शायद तलाक जैसे कदम से ही संभव था, इसलिए सियाली के मन में कहीं न कहीं चैन की सांस ने प्रवेश किया कि चलो, आपस की कहासुनी अब खत्म हुई. और अब सब के रास्ते अलगअलग हैं. शाम को सियाली कालेज से लौटी तो घर में एक अलग सी शांति थी. उस के पापा सोफे पर बैठे चाय पी रहे थे, चाय, जो उन्होंने खुद ही बनाई थी. उन के चेहरे पर महीनों से बने रहने वाले तनाव की शिकन गायब थी. सियाली को देख कर उन्होंने मुसकराने की कोशिश भी की, ‘‘देख लो, तुम्हारे लिए चाय बची होगी.’’ सियाली पास आ कर बैठी तो उस के पापा ने अपनी सफाई में कहना शुरू किया, ‘‘मैं बुरा आदमी नहीं हूं, पर तेरी मम्मी ने गलत किया था.

उस के कर्म ही ऐसे थे कि मु झे उसे देख कर गुस्सा आ ही जाता था और फिर तेरी मां ने भी तो रिश्तों को बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी.’’ पापा की बातें सुन कर सियाली से न रहा गया, ‘‘मैं नहीं जानती कि आप दोनों में से कौन सही है और कौन गलत, पर इतना जरूर जानती हूं कि शरीर में अगर नासूर हो जाए तो औपरेशन ही सही रास्ता और ठीक इलाज होता है,’’ दोनों बापबेटी ने कई दिनों के बाद आज खुल कर बात की थी. पापा की बातों में मां के प्रति नफरत और द्वेष छलक रहा था जिसे चुपचाप सुनती रही सियाली. अगले दिन ही सियाली के मोबाइल पर मां का फोन आया और उन्होंने सियाली को अपना पता देते हुए शाम को उसे अपने फ्लैट पर आने को कहा, जिसे सियाली ने खुशीखुशी मान भी लिया था और शाम को मां के पास जाने की सूचना भी उस ने अपने पापा को दे दी, जिस पर पापा को कोई एतराज न हुआ. शाम को शालीमार अपार्टमैंट में पहुंच गई थी सियाली. पता नहीं क्या सोच कर उस ने लाल गुलाब का एक बुके खरीद लिया था.

फ्लैट नंबर 111 में सियाली पहुंच गई थी. घंटी बजाई, तो दरवाजा मां ने खोला. अब चौंकने की बारी सियाली की थी. मां गहरे लाल रंग की साड़ी में बहुत खूबसूरत लग रही थी. मांग में भरा हुआ सिंदूर और माथे पर तिलक की शक्ल में लगाई हुई बिंदी. सियाली को याद नहीं कि उस ने मां को कब इतनी अच्छी तरह से शृंगार किए हुए देखा था. हमेशा सादे वेश में ही रहती थी उस की मां और टोकने पर दलील देती, ‘अरे, हम कोई अगड़ी जाति के तो हैं नहीं जो हमेशा सिंगार ओढ़े रहें. हम पिछड़ी जाति वालों के लिए सिंपल रहना ही अच्छा है.’ ‘‘आज मां को यह क्या हो गया? उन की सादगी आज शृंगार में कैसे परिवर्तित हो गई थी और क्यों वे जातपांत की गंदी व बेकार की दलीलें दे कर सही बात को छिपाना चाह रही थीं?’’ सियाली ने बुके मां को दे दिया. मां ने बहुत उत्साह से बुके लिया. ‘‘अरे, अंदर आने को नहीं कहोगी सियाली से?’’ मां के पीछे से आवाज आई. आवाज की दिशा में नजर उठाई तो देखा कि सफेद कुरता और पाजामा पहने हुए एक आदमी खड़ा हुआ मुसकरा रहा था. सियाली उसे पहचान गई. वह मां का सहकर्मी देशवीर था. उस की मां उसे पहले भी घर भी ला चुकी थी. मां ने बहुत खुशीखुशी देशवीर से सियाली का परिचय कराया, जिस पर सियाली ने कहा, ‘‘जानती हूं मां, पहले भी तुम इन से मिलवा चुकी हो मु झे.’’ ‘‘पर पहले जब मिलवाया था तब यह सिर्फ मेरे अच्छे दोस्त थे पर आज मेरे सबकुछ हैं. हम लोग फिलहाल तो लिवइन में रह रहे हैं और तलाक होते ही शादी कर लेंगे.’’ मुसकरा कर रह गई थी सियाली. सब ने एकसाथ खाना खाया. डाइनिंग टेबल पर भी माहौल सुखद ही था.

मां के चेहरे की चमक देखते ही बनती थी और यह चमक कृत्रिम या किसी फेशियल की नहीं थी, उस के मन की खुशी उस के चेहरे पर झलक रही थी. सियाली रात में मां के साथ ही सो गई और सुबह वहीं से कालेज के लिए निकल गई. चलते समय मां ने उसे 2,000 रुपए देते हुए कहा, ‘‘रख लो, घर जा कर पिज्जा वगैरह मंगवा लेना.’’ कल से ले कर आज तक मां ने सियाली के सामने एक आदर्श मां होने के कई उदाहरण प्रस्तुत किए थे पर सियाली को यह सब नहीं भा रहा था और न ही उसे सम झ में आ रहा था कि यह मां का कैसा प्यार है जो उस के पिता से अलग होने के बाद और भी अधिक छलक रहा है. फिलहाल तो वह अपनी जिंदगी खुल कर जीना चाहती थी, इसलिए मां के दिए गए पैसों से सियाली उसी दिन अपने दोस्तों के साथ पार्टी करने चली गई. ‘‘सियाली, आज तुम किस खुशी में पार्टी दे रही हो?’’ महक ने पूछा. ‘‘बस, यों सम झो आजादी की,’’ मुसकरा दी थी सियाली. सच तो यह था कि मांबाप के अलगाव के बाद सियाली बहुत रिलैक्स महसूस कर रही थी. रोजरोज की टोकाटाकी से अब उसे मुक्ति मिल चुकी थी और सियाली अब अपनी जिंदगी अपनी शर्तों पर जीना चाहती थी.

इसीलिए उस ने अपने दोस्तों से अपनी एक इच्छा बताई, ‘‘यार, मैं एक डांस ट्रिप जौइन करना चाहती हूं ताकि मैं अपने जज्बातों को डांस द्वारा दुनिया के सामने पेश कर सकूं.’’ उस के दोस्तों ने उसे और भी कई रास्ते बताए जिन से वह अपनेआप को व्यक्त कर सकती थी, जैसे ड्राइंग, सिंगिंग, मिट्टी के बरतन बनाना. पर सियाली तो मजे और मौजमस्ती के लिए डांस ट्रिप जौइन करना चाहती थी, इसलिए उसे औप्शन अच्छे नहीं लगे. अपने शहर के डांस ट्रिप गूगल पर खंगाले तो डिवाइन डांसर नामक एक डांस ट्रिप ठीक लगा, जिस में 4 सदस्य लड़के थे और एक लड़की. सियाली ने तुरंत ही वह ट्रिप जौइन कर लिया और अगले ही दिन से डांस प्रैक्टिस के लिए जाने लगी. सियाली अपना सारा तनाव अब डांस द्वारा भूलने लगी और इस नई चीज का मजा भी लेने लगी. डिवाइन डांसर नाम के इस ट्रिप को परफौर्म करने का मौका भी मिलता तो सियाली भी साथ में जाती और स्टेज पर सभी परफौर्मेंस देते जिस के बदले सियाली को भी ठीकठाक पैसे मिलने लगे.

इस समय सियाली से ज्यादा खुश कोई नहीं था. वह निरंकुश हो चुकी थी. न मांबाप का डर और न ही कोई टोकाटोकी करने वाला. जब चाहती, घर जाती और अगर नहीं भी जाती तो भी कोई पूछने वाला न था. उस के मांबाप का तलाक क्या हुआ, सियाली तो एक आजाद चिडि़या हो गई, जो कहीं भी उड़ान भरने के लिए आजाद थी. सियाली का फोन बज रहा था. फोन पापा का था, ‘‘सियाली, कई दिनों से घर नहीं आईं तुम क्या बात है? हो कहां तुम?’’ ‘‘पापा, मैं ठीक हूं और डांस सीख रही हूं.’’ ‘‘पर तुम ने बताया नहीं कि तुम डांस सीख रही हो?’’ ‘‘जरूरी नहीं कि मैं आप लोगों को सब बातें बताऊं. आप लोग अपनी जिंदगी अपने ढंग से जी रहे हैं, इसलिए मैं भी अब अपने हिसाब से ही जीना चाहती हूं.’’ फोन काट दिया था सियाली ने, पर उस का मन एक अजीब सी खटास से भर गया था. डांस ट्रिप के सभी सदस्यों से सियाली की अच्छी दोस्ती हो गई थी पर पराग नाम के लड़के से उस की कुछ ज्यादा ही पटने लगी. पराग स्मार्ट भी था और पैसे वाला भी.

वह सियाली को गाड़ी में घुमाता और खिलातापिलाता. उस की संगत में सियाली को सुरक्षा का एहसास होता था. अगले दिन डांस क्लास में जब दोनों मिले तो पराग ने एक सुर्ख गुलाब सियाली की ओर बढ़ा दिया. ‘‘सियाली, मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं और शादी करना चाहता हूं,’’ घुटनों को मोड़ कर जमीन पर बैठते हुए पराग ने कहा. सभी लड़केलड़कियां इस बात पर तालियां बजाने लगे. सियाली ने भी मुसकरा कर गुलाब पराग के हाथों से ले लिया और कुछ सोचने के बाद बोली, ‘‘लेकिन, मैं शादी जैसी किसी बेहूदा चीज के बंधन में नहीं बंधना चाहती. शादी एक सामाजिक तरीका है 2 लोगों को एकदूसरे के प्रति ईमानदारी दिखाते हुए जीवन बिताने का. पर क्या हम ईमानदार रह पाते हैं?’’ सियाली के मुंह से ऐसी बड़ीबड़ी बातें सुन कर डांस ट्रिप के लड़केलड़कियां शांत थे. सियाली ने रुक कर कहना शुरू किया, ‘‘मैं ने अपने मांबाप को शादीशुदा जीवन में हमेशा लड़ते देखा है, जिस की परिणति तलाक के रूप में हुई और अब मेरी मां अपने प्रेमी के साथ लिवइन में रह रही हैं और पहले से कहीं अधिक खुश हैं.’’ पराग यह सुन कर तपाक से बोला कि वह भी सियाली के साथ लिवइन में रहने को तैयार है अगर उसे मंजूर हो तो. पराग की बात सुन कर उस के साथ लिवइन के रिश्ते को झट से स्वीकार कर लिया था सियाली ने. और कुछ दिनों बाद ही पराग और सियाली लिवइन में रहने लगे,

जहां पर दोनों जीभर कर अपने जीवन का आनंद ले रहे थे. पराग के पास आय के स्रोत के रूप में एक बड़ा जिम था, जिस से पैसे की कोई समस्या नहीं आई. पराग और सियाली ने अब भी डांस ट्रिप को जौइन कर रखा था और लगभग हर दूसरे दिन ही दोनों क्लासेज के लिए जाते और जीभर नाचते. इसी डांस ट्रिप में गायत्री नाम की लड़की थी. उस ने सियाली से एक दिन पूछ ही लिया, ‘‘सियाली, तुम्हारी तो अभी उम्र बहुत कम है और इतनी जल्दी किसी के साथ… मतलब लिवइन में रहना कुछ अजीब सा नहीं लगता तुम्हें?’’ सियाली के चेहरे पर एक मीठी सी मुसकराहट आई और चेहरे पर कई रंग आतेजाते गए, फिर सियाली ने अपनेआप को संयत करते हुए कहा,

‘जब मेरे मांबाप ने सिर्फ अपनी जिंदगी के बारे में सोचा और मेरी परवा नहीं की तो मैं अपने बारे में क्यों न सोचूं? और गायत्री, जिंदगी मस्ती करने के लिए बनी है. इसे न किसी रिश्ते में बांधने की जरूरत है और न ही रोरो कर गुजारने की. ‘‘मैं आज पराग के साथ लिवइन में हूं और कल मन भरने के बाद किसी और के साथ रहूंगी और परसों किसी और के साथ. ‘‘उम्र का तो सोचो ही मत, एंजौय योर लाइफ, यार,’’ सियाली यह कहते हुए वहां से चली गई थी जबकि गायत्री अवाक खड़ी थी. तितलियां कभी किसी एक फूल पर नहीं बैठीं. वे कभी एक फूल के पराग पर बैठती हैं तो कभी दूसरे फूल के. और तभी तो इतनी चंचल होती हैं व इतनी खुश रहती हैं तितलियां, रंगबिरंगी तितलियां, जीवन से भरपूर तितलियां..

Love Story : अजब प्रेम की गजब कहानी

Love Story :  एक बार देखने पर रीवा को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ. सो उस ने दोबारा दर्पण में देखा और पूरा ध्यान अपनी आंख के उस कोने पर केंद्रित किया जहां पर उसे संदेह था, क्या त्वचा की यह सिकुड़न उस की बढ़ती आयु को दिखा रही है, कहीं यह झुर्री तो नहीं है? हां, यह झुर्री ही तो है.

‘खुश रहा करो, तनाव लेने से ऐसी झुर्रियां आती हैं चेहरे पर,’ यह सुना था रीवा ने लेकिन तनाव तो वह लेती नहीं.

‘बहुत से तनाव लिए नहीं जाते पर वे हमारे अंतर्मन में इस तरह बैठे होते हैं कि चेहरे पर अनजाने में ही अपनी छाप छोड़ जाते हैं,’ कहा था एक बार रीवा की सहेली सिमरन ने.

‘कोई बात नहीं, अब हम और भी अनुभवी कहलाएंगे इस हलकी सी झुर्री के साथ,’ 48-वर्षीया रीवा ने मुसकराते हुए अपनेआप से कहा.

रीवा की आयु भले ही बढ़ गई हो पर उस के अंदर सकारात्मक ऊर्जा का भंडार था. गिलास आधा खाली या भरा में से उस ने सदैव ही भरे गिलास को चुना था. जीवन की हार को भी अच्छे शब्दों में परिभाषित कर के उसे एक अच्छा आयाम दे देना रीवा के व्यक्तित्व का मुख्य हिस्सा था.

अभी रीवा आईने के सामने से हट नहीं पाई थी कि उस का मोबाइल बज उठा. मोबाइल पर एक निश्चित रिंगटोन के बजने से ही रीवा को पता चल गया था कि यह फोन सुबाहु का था. रीवा जब तक मोबाइल उठाती तब तक मोबाइल कट गया पर रीवा के डायल करने से पहले ही दोबारा कौल आ गई, उधर से सुबाहु का व्यग्र स्वर था-

“क्या आंटी, आप ने आने में इतनी देर कर दी, हम सब कब से आप का वेट कर रहे हैं. और कितनी देर लगाओगी आप?”

सुबाहु और भी लंबी शिकायत करता पर रीवा ने बीच में ही टोक कर कहा कि अभी उसे 15 मिनट और लगेंगे. सुबाहु का हताशाभरा स्वर “ओह नो” रीवा के कानों में सुनाई दिया, जिसे सुन कर  बिना मुसकराए नहीं रह सकी वह, मोबाइल रख कर वह झटपट तैयार होने लगी.

रीवा को लखनऊ शहर के बाहरी इलाके में बने रिजौर्ट गोमती राइड में पहुंचना था जहां पर सुबाहु का 25वां जन्मदिन सैलिब्रेट होना था. सुबाहु अपनी मम्मी रेवती और पापा अभिराज के साथ पहुंच चुका था.

रीवा के वहां पहुंचते ही सुबाहु का चेहरा खिल गया और उस ने लपक कर रीवा का स्वागत किया. रेवती और अभिराज से मिलने के बाद सुबाहु ने अपने दोस्तों से भी रीवा को मिलवाया और केक काटने के बाद जब गिफ्ट देने की बारी आई तो रीवा सुबाहु को गोमती राइड के लौन में ले गई जहां पर एक शानदार कवर से ढकी थी एक चमचमाती स्पोर्ट्स बाइक. सुबाहु बाइक देख कर खुशी से चीख पड़ा. अभी वह ठीक से खुश भी नहीं हो पाया था कि अभिराज ने रीवा से इतना महंगा गिफ्ट देने के लिए नाराज़गी जताई.

“कुछ भी महंगी नहीं, सुबाहु के शौक के आगे इस बाइक की कीमत कोई माने नहीं रखती,” रीवा ने कहा तो अभिराज प्यारभरी कसमसाहट में पड़े दिखाई दिए पर कुछ कह नहीं सके. पत्नी रेवती और रीवा एकसाथ खड़े मुसकरा रहे थे. सुबाहु बाइक स्टार्ट कर चुका था. सारे दोस्त सुबाहु से मन ही मन रश्क कर रहे थे.

सुबाहु ने जब से होश संभाला है तब से रीवा आंटी को मेहता परिवार की फैमिलीफ्रैंड के रूप में ही जाना, जो उस परिवार के हर सुख और दुख में शामिल होती थी.

सीबीडी बैंक में मैनेजर के पद पर काम करने वाली रीवा, मेहता परिवार की नई गाड़ी की प्लानिंग में शामिल होती तो पिकनिक में भी साथ होती. खूबसूरत और अपने जीवन में  एक सफल महिला होने के बावजूद रीवा ने शादी क्यों नही की, यह बात बहुत से लोगों को समझ नहीं आती थी. सुबाहु भी उन में से एक था और उस ने कई बार अपनी जिज्ञासा शांत करने की कोशिश भी की पर हर बार रीवा ने उस के प्रश्न को टाल दिया.

सुबाहु भी अपने जीवन के हर छोटेबड़े काम में रीवा की सहायता लेता था फिर चाहे वह कालेज के ऐनुअल डे की स्पीच हो या फिर किसी प्रोजैक्ट का. रीवा भी व्यस्त होने के बावजूद बड़े मनोयोग से सहायता करती थी सुबाहु की.

उस दिन सुबाहु देरशाम रात 8 बजे  रीवा के फ्लैट पर पहुंचा. वह काफी परेशान लग रहा था. जब उस की परेशानी रीवा ने जाननी चाही तो उस ने बताया कि उसे उस के क्लास में साथ पढ़ने वाली एक बहुत सुंदर लड़की से प्यार हो गया है.

“बधाई हो भाई, तुम्हें प्यार हुआ. इस में हैरान और परेशान होने वाली बात क्या है?” रीवा ने चुटकी लेते हुए कहा तो सुबाहु ने अपनी प्रौब्लम बताते हुए कहा, “वह लड़की बहुत सुंदर है और उसे इस बात का गुमान भी है. कालेज का हर लड़का उस पर डोरे डाल रहा है. वह मेरी अच्छी फ्रैंड है. मैं उस से अपनी प्रौब्लम्स शेयर करता हूं पर उस की बातों से लगता है कि वह मेरी  25 और उस की 23 वर्ष की आयु को विवाह के लिये ठीक नहीं मानती और पहले अपना कैरियर बनाना चाहती है.”

रीवा बड़े ध्यान से सुबाहु की सारी बातें सुनीं. उस ने सुबाहु से कुछेक सवाल किए, मसलन वह उस लड़की को कब से जानता है, वह उसे क्यों पसंद है इत्यादि. जो उत्तर सुबाहु ने उसे दिए उस के आधार पर रीवा ने जो फैसला सुनाया वह सुबाहु को बड़ा नागवार गुज़रा था.

रीवा ने कहा कि कुछ दिनों की जानपहचान और शारीरिक सुंदरता को देख कर होने वाला प्यार अकसर ही आभासी प्यार होता है. उस में व्यग्रता तो होती है पर स्थायित्व नहीं होता. जोश और जनून तो होता है पर गहराई नहीं होती.

रीवा की बातें सुबाहु को समझ नहीं आ रही थीं. उस ने मुंह बना कर कहा कि प्रेम तो प्रेम होता है, असली और नकली क्या?

“अकसर ही नकली चीजें असली चीजों से भी ज्यादा असली लगती हैं,” रीवा ने मुसकराते हुए कहा तो सुबाहु खीझ उठा, बोला, “आप ने अब तक शादी नहीं की पर प्यार तो किया होगा न, तो क्या वह नकली प्यार था या कोई ऐसा था जो आप को धोखा दे कर चला गया, तो क्या आप पहचान पाईं असली और नकली प्यार को?”

सुबाहु के इन तीखे सवालों पर रीवा का जी चाहा कि वह इन सब बातों का उत्तर दे दे पर नाजुक विषय और सुबाहु के इमोशन देख कर फिलहाल चुप रह जाना पड़ा था उस को. सुबाहु अभी भी प्यार के जनून में तो था पर उसे भी लगा कि वह थोड़ा अधिक बोल गया है.

कुछ देर की खामोशी के बाद रीवा सहज होते हुए बोली कि अभी वह घर चला जाए, सुबह इस मैटर पर बात होगी.

सुबाहु वापस लौट आया था पर उस ने रीवा के दबे जख्मों को कुरेद दिया था जिस से अब दर्द की टीस उठनी शुरू हो गई थी और वह टीस चीखचीख़ कर अपना दर्द किसी दूसरे को बताना चाहती थी.

रीवा ने किसी तरह रात काटी और सुबह होते ही सुबाहु से मिलने के लिए उस के घर जा पहुंची. रेवती और अभिराज उसे देख कर थोड़ा चौंके.

रीवा सीधा सुबाहु के कमरे में गई और उसे एक पैनड्राइव देते हुए कहा, “असल में इस पैनड्राइव के अंदर मेरी डायरी के कुछ ऐसे राज़ हैं जिन्हें मैं अपनी डायरी पर लिखती थी, सोचती थी समय मिलने पर इन्हें किताब का रूप दूंगी पर दे नहीं सकी. इस पैनड्राइव में स्टोर डायरी के पन्ने तुम्हें प्रेम की सही परिभाषा समझाने में मदद करेंगे.”

रीवा का यह रूप देख कर अभिराज और रेवती दोनों की आंखों में कई सवाल उभर आए थे और सारे सवाल मिल कर यही कह रहे थे कि नहीं, रीवा, ये सब उसे बताना ठीक नहीं. पर रीवा भला कहां सुनने वाली थी, वह हवा के झोंके की तरह बाहर निकल गई. अभिराज शांत खड़े थे, उन्होंने इशारे से रेवती को भी शांत रह कर अपना काम करने को कहा.

सुबाहु उस पैनड्राइव में स्टोर बातों को पढ़ने के लिए बहुत व्यग्र हो रहा था. उस ने अपने लैपटौप में पैनड्राइव लगा दी और बिस्तर पर लेट कर लैपटौप बगल में रख लिया और जो कुछ लैपटौप की स्क्रीन पर आया उसे बड़े धयान से वह पढ़ने लगा. जैसेजैसे वह पंक्तिदरपंक्ति पढ़ता गया वैसेवैसे ही उसके चेहरे पर कई रंग बदलते गए और उत्सुकता की चरमसीमा पर पहुंचने लगा. सुबाहु से लेटा न जा सका. उस की रीढ़ की हड्डी में चेतना और व्यग्रता का संचार तेज़ी से हो रहा था, वह उठ कर बैठ गया.

‘पर इतना सब कैसे हो सकता है? और मुझे इस बात का बिलकुल भी अंदाज़ा नहीं लग सका?’ अगली सुबह नाश्ते की टेबल पर मां से यही सवाल था सुबाहु का.

“मां, रीवा आंटी की पैनड्राइव से मुझे पता चल चुका है कि आप तीनों ने मुझ से बहुतकुछ छिपाया. आप तीनों में एक अद्भुत रिश्ता है. रीवा आंटी और पापा एक दूसरे से कालेज के समय से प्यार करते थे और शादी भी करना चाहते थे पर रीवा आंटी की दूसरी जाति यानी बढ़ई जाति के होने से पापा के घरवालों को एतराज़ था जिस के कारण वे दोनों शादी नहीं कर पाए पर पापा और रीवा आंटी की दोस्ती अब तक कायम है,” सुबाहु किसी कथाकार की तरह सबकुछ वर्णित कर रहा था और रेवती शांति से उसे सुने जा रही थी.

“रीवा आंटी का हमारे घर में इतना इन्वौल्वमैंट? आई मीन, आप ने पापा की पत्नी होते हुए भी किसी दूसरी औरत को घर में और हमारे जीवन में दखल सहन कैसे कर लिया?” सुबाहु चुप हो गया था पर एक प्रश्नचिन्ह उस के चेहरे पर तैर रहा था.

रेवती ने अब बोलना ठीक समझा और सुबाहु को बताया कि जब उस की शादी अभिराज से हुई तो किसी भी अन्य लड़की की तरह उस के अरमान भी आसमान छू रहे थे पर ये अरमान तब धड़ाम हो गए जब एक रात को अभिराज ने खुद ही अपने और रीवा के रिश्ते के बारे में उसे बता दिया. वह सदमे में आ गई थी कि उस का पति पहले से किसी लड़की के प्रेम में रंगा हुआ है, ऐसे में उस का प्रेम फीका ही रह जाएगा और वह अपने हिस्से के प्रेम और अधिकार की मांग करते हुए अभिराज से विवाद कर वैठी. अभिराज से उस ने कई हफ्तों तक बात ही नहीं की. विवाह के तुरंत बाद पत्नी से मनमुटाव हो जाए, तो उस का असर पूरे घर पर होता ही है, अभिराज भी तनाव में रहने लगे थे. उन्होंने उसे मनाना चाहा पर वह न मानी.

रेवती पुरानी यादें बता रही थी पर इस समय उस के चेहरे पर बीती बातों का कसैलापन नहीं दिख रहा था बल्कि एक असीम शांति छाई हुई थी. रेवती ने आगे बोलना शुरू किया, “मैं अभिराज के साथ रिश्ता तोड़ देती अगर उस दिन रीवा ने घर आ कर मुझे न समझाया होता कि प्रेम के सही माने क्या होते हैं.

“रीवा के शब्दों में- ‘जब 2 लोग आपस में प्रेम करते हैं तो उन का प्रेम एकदूसरे के ह्रदय को स्पर्श तो करता है पर इस का मतलब यह नहीं होता कि उन्होंने एकदूसरे के शरीरों को भी स्पर्श किया है.’

“रीवा की इस बात से मैं थोड़ा नरम हुई थी. इस के बाद रीवा अकसर मुझ से मिलने के लिए घर आने लगी. वह अकसर ही हरवंशराय बच्चानजी की कविता की पंक्तियां दोहराती कि ‘जो बीत गई सो बात गई’ और बड़े जोशीले अंदाज़ में कहती, ‘लेट्स मूव औन, यार.’

“उस की बातों में कभीकभी बनावटीपन भी लगता था पर एक बार जब मुझे मेरे ममेरे भाई की शादी में मायके जाना था पर उस समय अभिराज अपना नाम और कैरियर बनाने में व्यस्त थे और चाहते थे

कि मैं उन के साथ रहूं और काम की व्यस्तता में उन का ध्यान रखूं तो रीवा ने मुझे सपोर्ट करते हुए अभिराज से कहा कि शादी के शुरुआती कुछ दिनों में लड़की को अपने मायके आनेजाने से नहीं रोकना चाहिए क्योंकि इन दिनों में लड़कियों के मन में मायके का प्रेम हिलोरें मारता रहता है.

“रीवा की इस बात से मेरे मन में उस के लिए थोड़ी जगह बनी तो बाकी जगह उस ने गुजरते वक्त के साथ बना ली, जैसे मेरी तबीयत खराब होने पर मेरे सिरहाने बैठी रहती और एक नर्स की तरह मेरा ध्यान रखती. जब तुम गर्भ में आए तब भी वह परछाई की तरह मेरे साथ और पास रही. कभीकभी अभिराज से मेरी वकालत करते करते वह लड़ जाती और वुमेनहुड को सपोर्ट करती.

“उस का मेरी तरफ यह झुकाव भी मुझे असहज बना रहा था. मुझे लगा कि उस का मेरे घर यों आनाजाना और मुझे एक दोस्त की तरह ट्रीट करना कहीं उस का कोई निजी स्वार्थ या प्रयोजन तो नहीं,’ रेवती की बातों को बड़े धयान से सुन और समझ रहा था सुबाहु.

“‘क्यों करती हो ऐसा? क्या महान बनना चाहती हो अभिराज की नज़रों में?’ मैं लगभग चीख कर बोली थी रीवा से लेकिन इस बात का उस ने बड़ी शांति से उत्तर दिया, ‘मुझे गलत मत समझो, रेवती. तुम अगर कहो तो अभिराज की तरफ देखूंगी भी नहीं और मैं यहां आना बंद कर दूंगी पर फिर भी बताना चाहूंगी कि मैं यहां क्यों आती हूं?’ और फिर उस ने मुझे अपनी लिखी पंक्तियां सुनाईं जो उस ने कभी अभिराज के लिए लिखी थीं-

‘हां यह सच है कि मैं तुम से प्रेम करती हूं

पर प्रेम की परिणीति विवाह हो, 

यह आवश्यक तो नहीं

ज़रूरी तो प्रेम है

जो बेशर्त है, निस्वार्थ और निश्च्छल,

तुम्हें बताऊं

तुम्हारे सिवा अब मुझ को कोई और नहीं भाएगा 

मेरे जीवन में अब कोई और न आएगा

और हां,

मैं तुम्हारी हर चीज़ से प्रेम करती रहूंगी

यहां तक कि

तुम्हारी बाकी सब प्रेमिकाओं से भी.’

“रीवा की इन पंक्तियों ने मेरा मन साफ कर दिया था. मेरी रीवा के प्रति सारी ईर्ष्या तिरोहित होती जा रही थी भले ही अभिराज से मेरा विवाह हुआ है पर उस से सच्चा प्रेम तो रीवा ने ही किया है. मैं रीवा के सामने अपनेआप को काफी छोटा महसूस कर रही थी और इसी कारण मैं उसे एक सौतन नहीं बल्कि एक अच्छी दोस्त के रूप में स्वीकार कर पाई और आज रीवा हम सब की अच्छी फैमिलीफ्रैंड है.”

रेवती खामोश हो गई, अभिराज चाय के घूंट लेने लगे थे. सुबाहु के मन के अंदर रीवा की एक नई इमेज बन गई थी जो पहले से बहुत अलग थी. वह काफीकुछ समझ गया था और उस के कई सवालों के उत्तर भी मिल गए थे.

कुछ दिनों तक उस ने रीवा आंटी से कोई संपर्क नहीं किया. एक दिन उस ने रीवा आंटी को फोन किया और अपनी बाइक ले कर रीवा को पिक करने उस के बैंक पहुंच गया और उसे ले कर सीधा अपने घर पर आ गया जहां पर रेवती और अभिराज पहले से ही रीवा और सुबाहु का वेट कर रहे थे.

रीवा की आंखों में कई प्रश्न तैर रहे थे, जल्द ही उसे इन सब के उत्तर मिल गए. सुबाहु ने रीवा को सुनहरी जिल्द में लिपटी हुई एक पुस्तक भेंट की. रीवा ने किताब को देखा, किताब का शीर्षक था- ‘परिभाषा प्रेम की’.

रीवा समझ गई थी कि पैनड्राइव के डिजिटल और व्यक्तिगत पन्नों को किताब के रूप में लाने का साहस रीवा तो नहीं कर पाई थी पर वह काम सुबाहु ने कर दिखाया.

“आंटी, आप से ही मैं ने जाना है कि प्रेम किसी को जबरदस्ती पाने का नाम नहीं है बल्कि दूसरे के प्यार में अपने प्रेम को ढूंढ लेना ही सच्चा प्यार है. आप से पापा का मिलन नहीं हो सका पर आप ने उन के परिवार से दोस्ताना निभा कर इस रिश्ते को नई पहचान दी है. और तो और, मेरी दोस्त बन कर भी आप ने मुझे कई गलत रास्तों में पड़ने से बचाया.”

सुबाहु इमोशनल होता, इस से पहले ही रीवा बोल पड़ी, “मैं यह अनोखा रिश्ता निभा सकी, इस का असली श्रेय जाता है रेवती को, क्योंकि कोई भी पत्नी अपने पति के शादी से पहले के रिश्ते से द्वेष ही रखती है पर रेवती ने न केवल मुझे अपने दिल में जगह दी बल्कि अपने परिवार के मैंबर की तरह रखा. हमारे इस आपसी प्रेम का शीशमहल इसीलिए खड़ा हो सका क्योंकि इस के सभी स्तंभों ने अपनी ज़िम्मेदारी बखूबी निभाई है.”

अभिराज बड़ी देर से खामोश खड़े थे, बोल पड़े, “अरे भाई, इस पूरी पिक्चर में इस असली हीरो को भी तो याद कर लो तुम लोग.”

अभिराज के इस नाटकीयताभरे कथन पर सब लोग हंस पड़े थे. रीवा ने सब को एकपास इकट्ठा कर लिया. वह सब की सैल्फी लेना चाहती थी. सभी ने मोबाइल की तरफ मुसकराता चेहरा कर दिया. रीवा ने देखा कि उस की आंख के कोने पर आई हुई झुर्री अब धुंधला चुकी थी.

Film Review : भावुक कर देने वाली फिल्म “चिड़िया”

Film Review : सच्ची, सरल व बेहतरीन फिल्म है ‘चिडि़या’ जिसे बड़ों के साथसाथ बच्चों को भी दिखानी चाहिए. यह फिल्म बच्चों के सपनों को पूरा करती है. फिल्म में दिखाया गया है कि जिस उम्र में बच्चे पढ़ते हैं, खेलते हैं, उस उम्र में उन्हें मजदूरी क्यों करनी पड़ती है. गरीब बच्चों की भी बालसुलभ जिज्ञासाएं होती हैं, तमन्नाएं होती हैं लेकिन उन की मजबूरी, गरीबी, बेबसी दिखा कर निर्देशक ने दर्शकों की आंखें गीली कर दी हैं. फिल्म दिखाती है कि सपने देखने का हक सिर्फ पैसे वालों को ही नहीं होता.

फिल्म छोटी सी चिडि़या पक्षी पर नहीं है बल्कि बैडमिंटन पर खेली जाने वाली चिडि़या (शटल कौक) पर है. बैडमिंटन रैकेट से शटल कौक पर शौट लगाते खिलाडि़यों को देख उन दोनों बच्चों का जिज्ञासु मन उन पर शौट लगाने को करता है और वे खुद के बैडमिंटन खिलाड़ी होने का सपना देखने लगते हैं.

फिल्म 15 साल से बनी पड़ी थी, अब जा कर इसे बड़े परदे पर दिखाने का मौका मिला है. फिल्म सादगी से भरी है, इसीलिए ऐसी फिल्मों की कहानियां सब से ज्यादा असर करती हैं. विदेशों में आयोजित फिल्म समारोहों में फिल्म की खूब सराहना की गई है और इस फिल्म ने कई अवार्ड भी जीते हैं. फिल्म में बच्चों का बचपन, चाइल्ड लेबर, शिक्षा, सामाजिक विसंगतियां और अभाव जैसे कई मुद्दों को बिना किसी नाटकीयता के सहज, सरल ढंग से उठाया गया है जिस से दर्शकों की आंखों में आंसू तो आते हैं मगर होंठों पर मुसकान भी तैर जाती है.

बच्चों की फिल्मों के प्रति बौलीवुड हमेशा से उदासीन रहा है. ‘चिल्लर पार्टी’, ‘तारे जमीं पर’, ‘मकड़ी’ और ‘स्टेनली का डब्बा’ जैसी बाल फिल्में उंगलियों पर गिनी जा सकती हैं.

फिल्म की कहानी मुंबई की एक चाल में रहने वाले 2 बच्चों शानू (स्वर कांबले) और बुआ (आयुष पाठक) की है, जिन के पिता की अस्पताल में मौत हो गई. मां वैष्णवी (अमृता सुभास) पर बच्चों के लालनपालन की जिम्मेदारी के साथ पति के औटो की भारीभरकम किस्त की जिम्मेदारी भी आ जाती है. फीस न भर पाने के कारण दोनों बच्चों को स्कूल से निकाल दिया जाता है. इन के पड़ोस में ही अपनी पत्नी और बेटी ईशानी (हेतल गाड़ा) के साथ रहने वाले बच्चों का चाचा बाली (विनय पाठक) भी रहता है. वह एक प्रोडक्शन कंपनी में स्पौट बौय का काम करता है. वैष्णवी चाहती है कि बाली उस के दोनों बच्चों को भी काम पर लगवा दे. मगर शानू और बुआ का मन तो खेलने की जुगत में लगा है. वे बैडमिंटन के रैकेट, नैट, चिडि़या (कौक) और खेल की जगह का बंदोबस्त करने के जुगाड़ में लग जाते हैं.

यह बच्चा पार्टी चाल के आगे की सफाई कर के एक मैदान बनाती है. स्पौटबौय का काम करने वाले एक्टर (श्रेयस तलपड़े) से उन्हें एक चिडि़या मिलती है. एक दर्जी (इमामुल हक) कपड़ों के पैच से सी कर बैडमिंटन का नैट बना कर देता है. एक ठेकेदार उन्हें लोहे के खंबे ले जाने देता है. क्रू मैंबर बल्ब और तार का इंतजाम कर देता है. उन का बैडमिंटन कोर्ट तैयार हो जाता है. मगर कोई न कोई दिक्कत आ ही जाती है. कहानी के अंत में ये बच्चे शूटिंग के लिए पंचगनी पहुंचते हैं और वहां उन का बैडमिंटन खेलने का सपना पूरा होता है.

फिल्म का क्लाइमैक्स दर्शकों को असीम खुशियों से भर देता है. बालसुख कहानी फिल्म की खासीयत है. दोनों बच्चों ने बेहतरीन अभिनय किया है. सभी कलाकार अपनीअपनी भूमिकाओं में फिट हैं. निर्देशक ने आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था के बीच समाज को बहुत बड़ा विलेन दिखाया है. उस ने दिखाया है कि जिन बच्चों के बाप मर जाते हैं उन्हें पुलिस वाले खाना खिलाते हैं. फिल्म के संवाद दिलों को छू जाते हैं. सैट डिजाइनिंग अच्छी की गई है. फिल्म की लंबाई ठीकठाक है. संगीत के सांचे में ढले ‘ऐ दिल की नन्ही चिडि़या…’, ‘बादल बरसे…’, ‘दोनों तरफ सन्नाटा…’ गीत विषयानुकूल हैं. सिनेमेटोग्राफी अच्छी है.

Family Problem : हम ग्रैंड पेरैंट्स के साथ समय बिताने में असमर्थ हैं

Family Problem : दादादादी के साथ कैसे जुड़ा जाए? उन की सेहत कमजोर है, जिस कारण मु झे सम झ नहीं आता कि मैं कैसे उन्हें खुश रखूं, उन को स्पैशल फील कराऊं? मम्मीपापा दोनों वर्किंग हैं, बिजी रहते हैं. वे उन का ध्यान रखते हैं पर ज्यादा टाइम उन्हें नहीं दे पाते. मैं कालेजगोइंग बौय हूं और मेरा शैड्यूल भी बहुत बिजी है. आप की राय मु झे रास्ता दिखा सकती है.

जवाब : आप अपने दादादादी के बारे में इतना सोच रहे हैं, अच्छा लगा जान कर. आज के समय में युवा केवल खुद पर ध्यान देते हैं और दादादादी से कटेकटे रहते हैं. जैसा कि आप ने कहा, आप के दादादादी की सेहत ठीक नहीं रहती है, इसलिए उन के स्वास्थ्य का खास ध्यान रखें. उन के साथ डाक्टर के अपौइंटमैंट पर जाएं. उन की दवाओं का समय याद दिलाएं. यह आप की उन के प्रति परवा को दर्शाता है.

ऐसी गतिविधियां चुनें जो उन की सेहत के अनुकूल हों, जैसे घर में बोर्ड गेम खेलना या हलकी सैर. उन की आंखें कमजोर हैं तो उन की पसंद की किताब, अखबार पढ़ कर उन्हें सुनाएं.

उन्हें अपनी दुनिया में शामिल करें, जैसे उन्हें अपनी पसंद का मौडर्न गाना सुनाएं और उन की राय पूछें. अपनी जिंदगी की छोटीछोटी बातें, जैसे कालेज का कोई किस्सा, उन के साथ सा झा करें. उन की जिंदगी के अनुभव पूछें. यह आप को उन की भावनाओं से जोड़ेगा और उन्हें लगेगा कि आप उन की परवा करते हैं.

छोटेछोटे तरीकों से भी प्यार दिखाएं, जैसे उन के लिए चाय बनाना या गले लगाना, उन के साथ पुरानी फोटो देखें या बचपन की कोई मजेदार घटना पर बात करें आदि.

उन के लिए एक छोटा हैल्थ जर्नल बनाएं, जिस में उन की दवाएं और डाइट का रिकौर्ड रखें. ये सब बातें अपना कर आप अपने दादादादी के साथ रिश्ते को गहरा, स्नेहपूर्ण और यादगार बना सकते हैं.

अपनी समस्‍याओं को इस नंबर पर 8588843415 लिख कर भेजें, हम उसे सुलझाने की कोशिश करेंगे.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें