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Family Story : किस्सा डाइटिंग का – गुप्ताजी की पत्नी उनका वजन क्यों कम करवाना चाहती थी ?

Family Story : एक दिन सुबहसुबह पत्नी ने मुझ से कहा, ‘‘आप ने अपने को शीशे में देखा है. गुप्ताजी को देखो, आप से 5 साल बड़े हैं पर कितने हैंडसम लगते हैं और लगता है जैसे आप से 5 साल छोटे हैं. जरा शरीर पर ध्यान दो. कचौरी खाते हो तो ऐसा लगता है कि बड़ी कचौरी छोटी कचौरी को खा रही है. पेट की गोलाई देख कर तो गेंद भी शरमा जाए.’’

मैं आश्चर्यचकित रह गया. यह क्या, मैं तो अपने को शाहरुख खान का अवतार समझता था. मैं ने शीशे में ध्यान से खुद को देखा, तो वाकई वे सही कह रही थीं. यह मुझे क्या हो गया है. ऐसा तो मैं कभी नहीं था. अब क्या किया जाए? सभी मिल कर बैठे तो बातें शुरू हुईं. बेटे ने कहा, ‘‘पापा, आप को बहुत तपस्या करनी पड़ेगी.’’

फिर क्या था. बेटी भी आ गई, ‘‘हां पापा, मैं आप के लिए डाइटिंग चार्ट बना दूं. बस, आप तो वही करते जाओ जोजो मैं कहूं, फिर आप एकदम स्मार्ट लगने लगेंगे.’’

मैं क्या करता. स्मार्ट बनने की इच्छा के चलते मैं ने उन की सारी बातें मंजूर कर लीं पर फिर मुझे लगा कि डाइटिंग तो कल से शुरू करनी है तो आज क्यों न अंतिम बार आलू के परांठे खा लिए जाएं. मैं ने कहा कि थोड़ी सी टमाटर की चटनी भी बना लेते हैं. पत्नी ने इस प्रस्ताव को वैसे ही स्वीकार कर लिया जैसे कि फांसी पर चढ़ने वाले की अंतिम इच्छा को स्वीकार करते हैं.

मैं ने भरपेट परांठे खाए. उठने ही वाला था कि बेटी पीछे पड़ गई, ‘‘पापा, एक तो और ले लो.’’

पत्नी ने भी दया भरी दृष्टि मेरी ओर दौड़ाई, ‘‘कोई बात नहीं, ले लो. फिर पता नहीं कब खाने को मिलें.’’

आमतौर पर खाने के मामले में इतना अपमान हो तो मैं कदापि नहीं खा सकता था पर मैं परांठों के प्रति इमोशनल था कि बेचारे न जाने फिर कब खाने को मिलें.

रात को सो गया. सुबह अलार्म बजा. मैं ने पत्नी को आवाज दी तो वे बोलीं, ‘‘घूमने मुझे नहीं, आप को जाना है.’’

मैं मरे मन से उठा. रात को प्रोग्राम बनाते समय सुबह 5 बजे उठना जितना आसान लग रहा था अब उतना ही मुश्किल लग रहा था. उठा ही नहीं जा रहा था.

जैसेतैसे उठ कर बाहर आ गया. ठंडीठंडी हवा चल रही थी. हालांकि आंखें मुश्किल से खुल रही थीं पर धीरेधीरे सब अच्छा लगने लगा. लगा कि वाकई न घूम कर कितनी बड़ी गलती कर रहा था. लौट कर मैं ने घर के सभी सदस्यों को लंबा- चौड़ा लैक्चर दे डाला. और तो और अगले कुछ दिनों तक मुझे जो भी मिला उसे मैं ने सुबह उठ कर घूमने के फायदे गिनाए. सभी लोग मेरी प्रशंसा करने लगे.

पर सब से खास परीक्षा की घड़ी मेरे सामने तब आई जब लंच में मेरे सामने थाली आई. मेरी थाली की शोभा दलिया बढ़ा रहा था जबकि बेटे की थाली में मसालेदार आलू के परांठे शोभा बढ़ा रहे थे. चूंकि वह सामने ही खाना खा रहा था इसलिए उस की महक रहरह कर मेरे मन को विचलित कर रही थी.

मरता क्या न करता, चुपचाप मैं जैसेतैसे दलिए को अंदर निगलता रहा और वे सभी निर्विकार भाव से मेरे सामने आलू के परांठों का भक्षण कर रहे थे, पर आज उन्हें मेरी हालत पर तनिक भी दया नहीं आ रही थी.

खाने के बाद जब मैं उठा तो मुझे लग ही नहीं रहा था कि मैं ने कुछ खाया है. क्या करूं, भविष्य में अपने शारीरिक सौंदर्य की कल्पना कर के मैं जैसेतैसे मन को बहलाता रहा.

डाइटिंग करना भी एक बला है, यह मैं ने अब जाना था. शाम को जब चाय के साथ मैं ने नमकीन का डब्बा अपनी ओर खिसकाया तो पत्नी ने उसे वापस खींच लिया.

‘‘नहीं, पापा, यह आप के लिए नहीं है,’’ यह कहते हुए बेटे ने उसे अपने कब्जे में ले लिया और खोल कर बड़े मजे से खाने लगा. मैं क्या करता, खून का घूंट पी कर रह गया.

शाम को फिर वही हाल. थाली में खाना कम और सलाद ज्यादा भरा हुआ था. जैसेतैसे घासपत्तियों को गले के नीचे उतारा और सोने चल दिया. पर पत्नी ने टोक दिया, ‘‘अरे, कहां जा रहे हो. अभी तो तुम्हें सिटी गार्डन तक घूमने जाना है.’’

मुझे लगा, मानो किसी ने पहाड़ से धक्का दे दिया हो. सिटी गार्डन मेरे घर से 2 किलोमीटर दूर है. यानी कि कुल मिला कर आनाजाना 4 किलोमीटर. जैसेतैसे बाहर निकला तो ठंडी हवा बदन में चुभने लगी. आंखों में आंसू भले नहीं उतरे, मन तो दहाड़ें मार कर रो रहा था. मैं जब बाहर निकल रहा था तो बच्चे रजाई में बैठे टीवी देख रहे थे. बाहर सड़क पर भी दूरदूर तक कोई नहीं था पर क्या करता, स्मार्ट जो बनना था, सो कुछ न कुछ तो करना ही था.

फिर यही दिनचर्या चलने लगी. एक ओर खूब जम कर मेहनत और दूसरी ओर खाने को सिर्फ घासफूस. अपनी हालत देख कर मन बहुत रोता था. लोग बिस्तर में दुबके रहते और मैं घूमने निकलता था. लोग अच्छेअच्छे पकवान खाते और मैं वही बेकार सा खाना.

तभी एक दिन मैं ने सुबह 9 बजे अपने एक मित्र को फोन किया. मुझे यह जान कर आश्चर्य हुआ कि वह अभी तक सो कर ही नहीं उठा था जबकि उस ने मुझे घूमने के मामले में बहुत ज्ञान दिया था. करीब 10 बजे मैं ने दोबारा फोन किया. तो भी जनाब बिस्तर में ही थे. मैं ने व्यंग्य से पूछा, ‘‘क्यों भई, तुम तो घूमने के बारे में इतना सारा ज्ञान दे रहे थे. सुबह 10 बजे तक सोना, यह सब क्या है.’’

मित्र हंसने लगा, ‘‘अरे भई, आज संडे है. सप्ताह में एक दिन छुट्टी, इस दिन सिर्फ आराम का काम है.’’

मुझे लगा, यही सही रास्ता है. मैं ने फौरन एक दिन के साप्ताहिक अवकाश की घोषणा कर दी और फौरन दूसरे ही दिन उसे ले भी लिया. देर से सो कर उठना कितना अच्छा लगता है और वह भी इतने संघर्ष के बाद. उस दिन मैं बहुत खुश रहा. पर बकरे की मां कब तक खैर मनाती, दूसरे दिन तो घूमने जाना ही था.

तभी बीच में एक दिन एक रिश्तेदार की शादी आ गई. खाना भी वहीं था. पहले यह तय हुआ था कि मेरे लिए कुछ हल्काफुल्का खाना बना लिया जाएगा पर जब जाने का समय आया तो पत्नी ने फैसला सुनाया कि वहीं पर कुछ हल्का- फुल्का खाना खा लेंगे. बस, मिठाइयों पर थोड़ा अंकुश रखें तो कोई परेशानी थोड़े ही है.

उन के इस निर्णय से मन को बहुत राहत पहुंची और मैं ने वहां केवल मिठाई चखी भर, पर चखने ही चखने में इतनी खा गया कि सामान्य रूप से कभी नहीं खाता था. उस रात को मुझे बहुत अच्छी नींद आई थी क्योंकि मैं ने बहुत दिनों बाद अच्छा खाना खाया था लेकिन नींद भी कहां अपनी किस्मत में थी. सुबह- सुबह कम्बख्त अलार्म ने मुझे फिर घूमने के लिए जगा दिया. जैसेतैसे उठा और घूमने चल दिया.

मेरी बड़ी मुसीबत हो गई थी. जो चीजें मुझे अच्छी नहीं लगती थीं वही करनी पड़ रही थीं. जैसेतैसे निबट कर आफिस पहुंचा. पर यहां भी किसी काम में मन नहीं लग रहा था. सोचा, कैंटीन जा कर एक चाय पी लूं. आजकल घर पर ज्यादा चाय पीने को नहीं मिलती थी. चूंकि अभी लंच का समय नहीं था इसलिए कैंटीन में ज्यादा भीड़ नहीं थी पर मैं ने वहां शर्मा को देखा. वह मेरे सैक्शन में काम करता था और वहां बैठ कर आलूबड़े खा रहा था. मुझे देख कर खिसिया गया. बोला, ‘‘अरे, वह क्या है कि आजकल मैं डाइटिंग पर चल रहा हूं. अब कभीकभी अच्छा खाने को मन तो करता ही है. अब इस जबान का क्या करूं. इसे तो चटपटा खाने की आदत पड़ी है पर यह सब कभीकभी ही खाता हूं. सिर्फ मुंह का स्वाद चेंज करने के लिए…मेरा तो बहुत कंट्रोल है,’’ कह कर शर्मा चला गया पर मुझे नई दिशा दे गया. मेरी तो बाछें खिल गईं. मैं ने फौरन आलूबड़े और समोसे मंगाए और बड़े मजे से खाए.

उस दिन के बाद मैं प्राय: वहां जा कर अपना जायका चेंज करने लगा. हां, एक बात और, डाइटिंग का एक और पीडि़त शर्मा, जोकि अपने कंट्रोल की प्रशंसा कर रहा था, वह वहां अकसर बैठाबैठा कुछ न कुछ खाता रहता था. शुरूशुरू में वह मुझ से शरमाया भी पर फिर बाद में हम लोग मिलजुल कर खाने लगे.

बस, यह सिलसिला ऐसे ही चलने लगा. इधर तो पत्नी मुझ से मेहनत करवा रही थी और दूसरी ओर आफिस जाते ही कैंटीन मुझे पुकारने लगती थी. मैं और मेरी कमजोरी एकदूसरे पर कुरबान हुए जा रहे थे. पत्नी ध्यान से मुझे ऊपर से नीचे तक देखती और सोच में पड़ जाती.

फिर 2 महीने बाद वह दिन भी आया जहां से मेरा जीवन ही बदल गया. हुआ यों कि हम सब लोग परिवार सहित फिल्म देखने गए. वहां पत्नी की निगाह वजन तौलने वाली मशीन पर पड़ी. 2-2 मशीनें लगी हुई थीं. फौरन मुझे वजन तौलने वाली मशीन पर ले जाया गया. मैं भी मन ही मन प्रसन्न था. इतनी मेहनत जो कर रहा था. सुबहसुबह उठना, घूमनाफिरना, दलिया, अंकुरित नाश्ता और न जाने क्याक्या.

मैं शायद इतने गुमान से शादी में घोड़ी पर भी नहीं चढ़ा होऊंगा. सभी लोग मुझे घेर कर खड़े हो गए. मशीन शुरू हो गई. 2 महीने पहले मेरा वजन 80 किलो था. तभी मशीन से टिकट निकला. सभी लोग लपके. टिकट मेरी पत्नी ने उठाया. उस का चेहरा फीका पड़ गया.

‘‘क्या बात है भई, क्या ज्यादा कमजोर हो गया? कोई बात नहीं, सब ठीक हो जाएगा,’’ मैं ने पत्नी को सांत्वना दी.

पर यह क्या, पत्नी तो आगबबूला हो गई, ‘‘खाक दुबले हो गए. पूरे 5 किलो वजन बढ़ गया है. जाने क्या करते हैं.’’

मैं हक्काबक्का रह गया. यह क्या? इतनी मेहनत? मुझे कुछ समझ में नहीं आया. कहां कमी रह गई, बच्चों के तो मजे आ गए. उस दिन की फिल्म में जो कामेडी की कमी थी, वह उन्होंने मुझ पर टिप्पणी कर के पूरी की. दोनों बच्चे बहुत हंसे.

मैं ने भी बहुत सोचा और सोचने के बाद मुझे समझ में आया कि आजकल मैं कैंटीन ज्यादा ही जाने लगा था. शायद इतने समोसे, आलूबडे़, कचौरियां कभी नहीं खाईं. पर अब क्या हो सकता था. पिक्चर से घर लौटने के बाद रात को खाने का वक्त भी आया.

मैं ने आवाज लगाई, ‘‘हां भई, जल्दी से मेरा दलिया ले आओ.’’

पत्नी ने खाने की थाली ला कर रख दी. उस में आलू के परांठे रखे हुए थे. ‘‘बहुत हो गया. हो गई बहुत डाइटिंग. जैसा सब खाएंगे वैसा ही खा लो. और थोड़े दिन डाइटिंग कर ली तो 100 किलो पार कर जाओगे.’’

मैं भला क्या कहता. अब जैसी पत्नीजी की इच्छा. चुपचाप आलू के परांठे खाने लगा. अब कोई नहीं चाहता कि मैं डाइटिंग करूं तो मेरा कौन सा मन करता है. मैं ने तो लाख कोशिश की पर दुबला हो ही नहीं पाया तो मैं भी क्या करूं. इसलिए मैं ने उन की इच्छाओं का सम्मान करते डाइटिंग को त्याग दिया. Family Story

Social Story : राधेश्याम नाई – आखिर क्यों खास था राधेश्याम नाई ?

Social Story : ‘‘अरे भाई, यह तो राधेश्याम नाई का सैलून है. लोग इस की दिलचस्प बातें सुनने के लिए ही इस की छोटी सी दुकान पर कटिंग कराने या दाढ़ी बनवाने आते हैं. ये बड़ा जीनियस व्यक्ति है. इस की दुकान रसिक एवं कलाप्रेमी ग्राहकों से लबालब होती है, जबकि यहां आसपास के सैलून ज्यादा नहीं चलते. राधेश्याम का रेट भी सारे शहर के सैलूनों से सस्ता है. राधेश्याम के बारे में यहां के अखबारों में काफी कुछ छप चुका है.’’

राजेश तो राधेश्याम का गुण गाए जा रहा था और मुझे उस का यह राग जरा भी पसंद नहीं आ रहा था क्योंकि गगन टायर कंपनी वालों ने मुझे राधेश्याम का परिचय कुछ अलग ही अंदाज से दिया था.

गगन टायर का शोरूम राधेश्याम की दुकान के ठीक सामने सड़क पार कर के था. मैं उन के यहां 5 दिनों से बतौर चार्टर्ड अकाउंटेंट बहीखातों का निरीक्षण अपने सहयोगियों के साथ कर रहा था. कंपनी के अधिकारियों ने इस नाई के बारे में कहा था कि यह दिमाग से जरा खिसका हुआ है. अपनी ऊलजलूल हरकतों से यह बाजार का माहौल खराब करता है. चीखचिल्ला कर ड्रामा करता है और टोकने पर पड़ोसियों से लड़ता है.

इन 5 दिनों में राधेश्याम मुझे किसी से लड़ते हुए तो दिखा नहीं, पर लंच के समय मैं अपने कमरे की खिड़की से उस की हरकतें जरूर देख रहा था. उस की दुकान से लोगों की जोरदार हंसी और ठहाकों की आवाज मेरे लंच रूम तक पहुंचती थी.

इस कंपनी में मेरे निरीक्षण कार्य का अंतिम दिन था. मैं ने अपनी फाइनल रिपोर्ट तैयार कर के स्टेनो को दे दी थी. फोन कर के राजेश को बुलाया था. मुझे राजेश के साथ उस के घर लंच के लिए जाना था. राजेश मेरा मित्र था और मैं उस के  यहां ही ठहरा था.

राजेश मुझे लेने आया तो रिपोर्ट टाइप हो रही थी. अत: वह मेरे पास बैठ गया. राधेश्याम के बारे में राजेश के विचार सुन कर लगा जैसे मैं आसमान से नीचे गिरा हूं. तो क्या मैं अपनी आंखों से 5 दिनों तक जो कुछ देख रहा था वह भ्रम था.

पिछले दिनों काम करते हुए मेरा ध्यान नाई की दुकान की ओर बंट जाता तो मैं लावणी की तर्ज पर चलने वाले तमाशे को देखने लगता. तब एक दिन भल्ला साहब बोले थे, ‘साहब, मसखर नाई की एक्ंिटग क्या देख रहे हो, अपना जरूरी काम निबटा लो. यहां तो मटरगश्ती करने वाले लोग दिन भर बैठे रहते हैं.’

‘ऐसे लोगों के अड्डे की शिकायत पुलिस से करो,’ मैं ने सुझाव दिया.

‘हम ने सब प्रयास कर लिए,’ भल्ला साहब बोले, ‘इस की शिकायत पुलिस और यहां तक कि स्थानीय प्रशासन और मंत्री तक से कर दी है, पर इस उस्तरे वाले का बाल भी बांका नहीं होता. मीडिया के लोगों और स्थानीय नेताओं ने इस को सिर पर बैठा रखा है.’

अब राजेश ने तो मानो पासा ही पलट दिया था. रास्ते में राजेश को मैं ने टायर कंपनी के अधिकारियों की राय राधेश्याम के बारे में बताई. राजेश हंस कर बोला, ‘‘तुम इस शहर में नए हो न, इसलिए ये लोग बात को तोड़मरोड़ कर पेश कर रहे थे. दरअसल, राधेश्याम की चलती दुकान से उस के कई पड़ोसी दुकानदारों को ईर्ष्या है. वे राधेश्याम की दुकान हथिया कर वहां शोरूम खोलना चाहते हैं. अरे भई, बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है, यह कहावत तो तुम ने सुन रखी है न?’’

गाड़ी चलाते हुए राजेश ने एक पल को मुझे देखा फिर कहने लगा, ‘‘टायर कंपनी वालों ने पहले तो उसे रुपयों का भारी लालच दिया. जब वह उन की बातों में नहीं आया तो उस पर तरहतरह के आरोप लगा कर सरकारी महकमों और पुलिस में उस की शिकायत की और इस पर भी बात न बनी तो अब उस के खिलाफ जहर उगलते रहते हैं.’’

‘‘इस का मतलब यह हुआ कि वह नाई बहुत बड़ी तोप है?’’

‘‘नहीं…नहीं…पर नगर का बुद्धिजीवी वर्ग उस के साथ है.’’

‘‘परंतु राजेश, मुझे उस अनपढ़ नाई की हरकतें बिलकुल भी अच्छी नहीं लगीं,’’ मैं ने उत्तर दिया.

‘‘तुम तो अभी इस शहर में 2 महीने और ठहरोगे. किसी दिन उस की दुकान पर ग्राहक बन कर जाना और स्वयं उस के स्वभाव को परखना,’’ राजेश ने चुनौती भरे स्वर में कहा.

मैं चुप हो गया. राजेश को क्या जवाब देता? मैं कभी ऐसी छोटी सी दुकान पर कटिंग कराने के लिए नहीं गया. दिल्ली के मशहूर सैलून में जा कर मैं अपने बाल कटवाता था.

राजेश ने मुझे अपनी कार घूमनेफिरने और काम पर जाने के लिए सौंपी हुई थी. मैं भी राजेश की कंपनी का लेखा कार्य निशुल्क करता था. एक दिन मैं कार से नेहरू मार्ग से गुजर रहा था कि अचानक ही कार झटके लेने लगी और थोड़ी दूर तक चलने के बाद आखिरी झटका ले कर बंद हो गई. मैं ने खिड़की के बाहर झांक कर देखा तो गगन टायर कंपनी का शोरूम ठीक सामने था. मैं ने इस कंपनी का काम किया था, सोचा मदद मिलेगी. उन के दफ्तर में पहुंचा तो जी.एम. साहब नहीं थे. दूसरे कर्मचारी अपने कार्य में व्यस्त थे. एक कर्मचारी से मैं ने पूछा, ‘‘यहां पर कार मैकेनिक की दुकान कहां है?’’ उस ने बताया कि मैकेनिक की दुकान आधा किलोमीटर दूर है. मैं ने उस से कहा, ‘‘2-3 लड़के कार में धक्का लगाने के लिए चाहिए.’’

‘‘लेकिन सर, अभी तो लंच का समय चल रहा है. 1 घंटे बाद लड़के मिलेंगे. मैं भी लंच पर जा रहा हूं,’’ कह कर वह रफूचक्कर हो गया.

सड़क पर जाम लगता देख कर मैं ने किसी तरह अकेले ही गाड़ी को ठेल कर किनारे लगा दिया. इस के बाद पसीना सुखाने के लिए खड़ा हुआ तो देखता हूं कि राधेश्याम नाई की दुकान के आगे खड़ा हूं.

दुकान के ऊपर बड़े से बोर्ड पर लिखा था, ‘राधेश्याम नाई.’ इस के बाद नीचे 2 पंक्तियों का शेर था :

‘जाते हो कहां को, देखते हो किधर,

राधेश्याम की दुकान, प्यारे है इधर.’

मेरी निगाहें बरबस दुकान के अंदर चली गईं. 3-4 ग्राहक बेंच पर बैठे थे और बड़े से आईने के सामने रखी कुरसी पर बैठे एक ग्राहक की दाढ़ी राधेश्याम बना रहा था. आपस में हमारी आंखें मिलीं तो राधेश्याम एकदम से बोल पड़ा, ‘‘सेवा बताइए साहब, कोई काम है हम से क्या? यदि कटिंग करवानी है तो 1 घंटा इंतजार करना पड़ेगा.’’

‘‘कटिंग तो फिर कभी करवाएंगे, राधेश्यामजी. अभी तो मेरी कार खराब हो गई है और मैकेनिक की दुकान तक इसे पहुंचाना है, क्या करें,’’ मैं परेशान सा बोला.

‘‘गाड़ी कहां है?’’ राधेश्याम बोले.

‘‘वो रही,’’ मैं ने उंगली के इशारे से बताया.

‘‘आप जरा ठहर जाओ,’’ फिर दुकान से नीचे कूद कर, आसपास के लड़कों को नाम ले कर राधेश्याम ने आवाज लगाई तो 3-4 लड़के वहां जमा हो गए.

उन की ओर मुखातिब हो कर राधेश्याम गायक किशोर कुमार वाले अंदाज में बोला, ‘‘छोरां, मेरा 6 रुपैया 12 आना मत देना पर इन साहब की गाड़ी को धक्का मारते हुए इस्माइल मिस्त्री के पास ले जाओ. उस से कहना, राधेश्याम ने गाड़ी भेजी है, ज्यादा पैसे चार्ज न करे. और हां, गाड़ी पहुंचा कर वापस आओगे तो गरमागरम समोसे खिलाऊंगा.’’

राधेश्याम का अंदाज और संवाद मुझे पसंद आया. मैं ने 50 का नोट राधेश्याम के आगे बढ़ाया, ‘‘धन्यवाद, राधेश्यामजी… लड़कों के लिए समोसे मेरी तरफ से.’’

‘‘ये लड़के मेरे हैं साहब…समोसे भी मैं ही खिलाऊंगा. इन पैसों को रख लीजिए और अभी तो इस्माइल मैकेनिक के पास पहुंचिए. फिर कभी दाढ़ी बनवाने आएंगे तब हिसाब बराबर करेंगे,’’ राधेश्याम गंवई अंदाज में मुसकराते हुए बोला.

मेरी एक न चली. मैं मैकेनिक के पास पहुंचा. बोनट खोलने पर मालूम हुआ कि बैटरी से तार का कनेक्शन टूट गया था. उस ने तार जोड़ दिया पर पैसे नहीं लिए.

राधेश्याम से यह मेरी पहली मुलाकात थी जो मेरे हृदय पर छाप छोड़ गई थी. मैं ने शाम को राजेश से यह घटना बताई तो वह भी खूब हंसा और बोला, ‘‘राधेश्याम वक्त पर काम आने वाला व्यक्ति है.’’

मेरे मन का अहम कुछ छंटने लगा था इसलिए मैं ने मन में तय किया कि राधेश्याम की दुकान पर दाढ़ी बनवाने जरूर जाऊंगा.

रविवार के दिन राधेश्याम की दुकान पर मैं सुबह ही पहुंच गया. उस समय दुकान पर संयोग से कोई ग्राहक नहीं था. उस ने मुसकरा कर मेरा स्वागत किया, ‘‘आइए साहब, लगता है कि आप दाढ़ी बनवाने आए हैं.’’

‘‘तुम्हें कैसे पता?’’ मैं ने परीक्षा लेने वाले अंदाज में पूछा.

‘‘क्योंकि हर बार तो आप की कार खराब नहीं हो सकती न,’’ वह हंसने लगा.

‘‘राधेश्यामजी, पिछले दिनों मेरी कार में धक्का लगवाने के लिए शुक्रिया, पर मैं ने भी आप के यहां दाढ़ी बनवाने का अपना वादा निभाया,’’ मैं ने बात शुरू की.

‘‘बहुतबहुत शुक्रिया, हुजूर. खाकसार की दालरोटी आप जैसे कद्रदानों की बदौलत ही चल रही है. हुजूर, देखना, मैं आप की दाढ़ी कितनी मुलायम बनाता हूं. आप के गाल इतने चिकने हो जाएंगे कि इन गालों का बोसा आप की घरवाली बारबार लेना चाहेगी.’’

‘‘अरे, राधेश्यामजी अभी तो मेरी शादी ही नहीं हुई. घरवाली बोसा कैसे लेगी.’’

‘‘हुजूर, राधेश्याम से दाढ़ी बनवाते रहोगे तो इन गालों पर फिसलने वाली कोई दिलरुबा जल्दी ही मिल जाएगी.’’

‘‘हुजूर, खाकसार जानना चाहता है कि आप कहां रहते हैं, जिंसी, अनाज मंडी, छावनी या ग्वाल टोला…’’ राधेश्याम लगातार बोले जा रहा था.

‘‘मैं जूता फैक्टरी के मालिक राजेश वर्मा का मित्र हूं और उन्हीं के यहां ठहरा हूं.’’

‘‘तब तो आप इस खाकसार के भी मेहमान हुए हुजूर. राजेश बाबूजी ने आप को बताया नहीं कि मुझ से आप अपने सिर की चंपी जरूर करवाएं. दिलीप कुमार और देव आनंद तो जवानी में मुझ से ही चंपी करवाते थे,’’ यह बताते हुए राधेश्याम ने मेरे गालों पर झागदार क्रीम मलनी शुरू कर दी थी.

फिर राधेश्याम बोला, ‘‘किशोर दा, अहा, क्या गाते थे. आज भी उन की यादों को भुलाना मुश्किल है. मैं ने किशोर कुमार और अशोक कुमार की भी चंपी की है.’’

‘‘आप शायद मेरी बात को झूठ समझ रहे हैं. मैं ने फिल्मी दुनिया की बड़ी खाक छानी है और गुनगुनाना भी वहीं से सीखा है,’’ कहते हए वह ऊंचे स्वर में गाने लगा :

‘ओ मेरे मांझी, ले चल पार,

मैं इस पार, तू उस पार ओ मेरे मांझी, अब की बार ले चल पार…’

मुझे लगा कि मेरे गालों पर लगाया साबुन सूख जाएगा अगर यह आदमी इसी तरह से गाता रहा. आखिर मैं ने उसे टोका, ‘‘राधेश्याम, पहले दाढ़ी बनाओ.’’

‘‘हां…हां… हुजूर साहब,’’ और इसी के साथ वह मेरे गालों पर उस्तरा चलाने लगा. पर अधिक देर तक चुप न रह सका. बोल ही पड़ा, ‘‘सर, आप को पता है कि आप की दाढ़ी में कितने बाल हैं?’’

‘‘नहीं,’’ मैं ने इनकार में सिर हिला दिया.

‘‘इसी तरह इस देश में कितनी कारें होंगी. किसी भी आम आदमी को नहीं पता. सड़कों पर चाहे पैदल चलने के लिए जगह न हो पर कर्ज ले कर लोग प्रतिदिन हजारों कारें खरीद रहे हैं और वातावरण को खराब कर रहे हैं,’’ राधेश्याम ने पहेली बूझी और मैं हंस पड़ा.

इस के बाद राधेश्याम अपने हाथ का उस्तरा मुझे दिखा कर बोला, ‘‘ये उस्तरा नाई के अलावा किसकिस के हाथ में है, पता है?’’

‘‘नहीं…’’ मैं अब की बार मुसकरा कर बोला.

‘‘सब से तेज धार वाला उस्तरा हमारी सरकार के हाथ में है. नित नए टैक्स लगा कर आम आदमी की जेब काटने में लगी हुई है,’’ राधेश्याम बोला.

अब तक राधेश्याम मेरी शेव एक बार बना चुका था. दूसरी बार क्रीम वाला साबुन मेरे गालों पर लगाते हुए बोला, ‘‘यह क्रीम जो आप की दाढ़ी पर लगा रहे हैं, इस का मतलब समझे हैं आप?’’

‘‘नहीं,’’ मैं बोला.

‘‘लोग आजकल बहुत चालाक और चापलूस हो गए हैं. जब अपना मतलब होता है तो इस क्रीम की तरह चिकना मस्का लगा कर दूसरों को खुश कर देते हैं किंतु जब मतलब निकल जाता है तो पहचानते भी नहीं,’’ राधेश्याम अपनी बात पर खुद ही ठहाका लगाने लगा.

मुझे राधेश्याम की इस तरह की उपमाएं बहुत पसंद आईं. वह एक खुशदिल इनसान लगा. मैं ने अपनी आंखें बंद कर लीं पर राधेश्याम चालू रहा और बताने लगा कि उस के घर में उस की बूढ़ी मां, पत्नी, 2 पुत्र और 1 पुत्री हैं.

पुत्री की वह शादी कर चुका था. उस का बड़ा बेटा एम.काम. कर चुका था और छोटा बी.ए. सेकंड ईयर में था. पर राधेश्याम को दुख इस बात का था कि उस का बड़ा बेटा एम.काम. करने के बाद भी पिछले 2 वर्षों से बेरोजगार था. वह सरकारी नौकरी का इच्छुक था पर उसे सरकारी नौकरी बेहद प्रयासों के बावजूद भी नहीं मिली.

अपनी दुकान से 5-6 हजार रुपए महीना राधेश्याम कमा रहा था. उस ने बेटे को सलाह दी थी कि वह दुकान में काम करे तो अभी जो दुकान 7 घंटे के लिए खुलती है उस का समय बढ़ाया जा सकता है. परंतु बेटे का तर्क था कि जब नाईगिरी ही करनी है तो एम.काम. करने का फायदा क्या था. पर राधेश्याम का कहना था कि नाईगिरी करो या कुछ और… पर काम करने की कला आनी चाहिए.

राधेश्याम की यह बात खत्म होतेहोते मेरी दाढ़ी बन चुकी थी. अब उस को अपनी असली कला मुझे दिखानी थी. उस ने अपनी बोतल से मेरे सिर पर पानी की फुहार मारी. फिर थोड़ी देर चंपी कर के सिर में कोई तेल डाला और मस्ती में अपने दोनों हाथों से मेरे सिर पर बड़ी देर तक उंगलियों से कलाबाजी दिखाता रहा.

मुझे पता नहीं सिर की कौनकौन सी नसों की मालिश हुई पर सच में आनंद आ गया. सारी थकान दूर हो गई. शरीर बेहद हलका हो गया था.

मैं राधेश्याम नाई को दिल से धन्यवाद देने लगा. उस का मेहनताना पूछा तो बोला, ‘‘कुल 20 रुपए, सरकार… यदि कटिंग भी बनवाते तो सब मिला कर 35 रुपए ले लेता.’’

मैं ने 100 का नोट निकाल कर कहा, ‘‘राधेश्याम, 20 रुपए तुम्हारी मेहनत के और शेष बख्शीश.’’

वह कुछ जवाब में कहता इस से पहले ही मैं बोल पड़ा, ‘‘देखो राधेश्याम, पहली बार तुम्हारी दुकान पर आया हूं… अनेक यादें ले कर जा रहा हूं इसलिए इसे रखना होगा. बाद में मिलने पर तुम्हारे फिल्मी दुनिया के अनुभव सुनूंगा.’’

अगले दिन ही मुझे दिल्ली लौटना पड़ा. इस के 6 माह बाद एक दिन राजेश का फोन आया कि उसे मेरी जरूरत पड़ गई है. मैं दिल्ली से राजेश के शहर में पहुंचा. 2 दिन में सारा काम निबटाया. इस के बाद दिल्ली लौटने से पहले सोचा कि राधेश्याम की दुकान पर 10 मिनट के लिए चल कर उस से मिल लूं, वह खुश हो जाएगा.

दुकान पर राधेश्याम का बड़ा लड़का मिला. वह कटिंग कर रहा था. मैं ने बड़ी व्याकुलता से पूछा, ‘‘राधेश्यामजी कहां हैं?’’

जवाब में वह फूटफूट कर रोने लगा. बोला, ‘‘पापा का पिछले महीने हार्ट अटैक के कारण निधन हो गया.’’

उस के रोते हुए बेटे को मैं ने अपने सीने से लगा कर दिलासा दी. जब वह थोड़ा शांत हुआ तो मैं ने उसे अपने पिता के व्यवसाय को अपनाते देख आश्चर्य प्रकट किया. कहा, ‘‘बेटे, तुम तो यह काम करना नहीं चाहते थे? क्या तुम्हारे लिए मैं नौकरी ढूंढूं. कामर्स पढ़े हो, मेरी किसी क्लाइंट की कंपनी में नौकरी लग जाएगी.’’

‘‘नहीं, अंकल, अब नौकरी नहीं करनी. पापा ठीक कहते थे कि पढ़ाई- लिखाई से आदमी का बौद्धिक विकास होता है पर सच्ची सफलता तो अपने काम को ही आगे बढ़ाने से मिलती है. नाई का काम करने से मैं छोटा नहीं बन जाऊंगा. छोटा बनूंगा, गलत काम करने से.’’

राधेश्याम के बेटे की आवाज में आत्मविश्वास झलक रहा था. Social Story

Senior Citizen Rights : कानूनी पचड़ों से बच कर, प्लान करें अपना बुढ़ापा

Senior Citizen Rights : देश के संविधान ने बुजुर्गों के अधिकार और भरण पोषण को ले कर कई कानून बनाए हैं. बुजुर्गों की समस्या कानूनी पचड़ों में पड़ने से नहीं बल्कि युवाओं के साथ मेलजोल से सुलझाना ज्यादा बेहतर होता है.

केरल हाईकोर्ट ने अपने आदेश डब्लू.ए. नंबर 1301/ 2019 में कहा, ‘निःसंतान वरिष्ठ नागरिक के भरण-पोषण मामले में आदेश देते में कहा है कि ‘केवल कानूनी उत्तराधिकारी ही निःसंतान बुजुर्ग के भरण-पोषण के लिए उत्तरदायी माने जाएंगे. किसी वरिष्ठ नागरिक की संपत्ति पर कब्जा अपने आप में भरण का दायित्व नहीं बनाता, जब तक कि वह व्यक्ति लागू पर्सनल ला के तहत कानूनी उत्तराधिकारी न हो. हाई कोर्ट ने मेंटिनेंस ट्रिब्यूनल और अपीलीय ट्रिब्यूनल का फैसला खारिज करते हुए कहा कि अपीलकर्ता महिला बुआ सास (पति की बुआ) के भरण-पोषण के लिए उत्तरदायी नहीं हैं.’

मेंटिनेंस ट्रिब्यूनल और अपीलीय ट्रिब्यूनल ने मातापिता व वरिष्ठ नागरिकों के भरण-पोषण और कल्याण कानून, 2007 के तहत महिला को बुआ सास का भरण पोषण करने के लिए जिम्मेदार ठहराया था क्योंकि निःसंतान वरिष्ठ नागरिक की संपत्ति उस के पास थी. घटना के मुताबिक अपीलकर्ता एस. सीजा नामक 40 साल की महिला के पति की अविवाहित व निःसंतान बुआ ने 1992 में अपनी संपत्ति भतीजे को उपहार में दे दी थी और 2008 में भतीजे की मृत्यु के बाद वह संपत्ति उस की पत्नी के पास चली गई थी. ऐसे में भतीजे की मृत्यु के बाद बुजुर्ग महिला ने वरिष्ठ नागरिक भरण-पोषण कल्याण कानून के तहत भतीजे की पत्नी को भरण पोषण का आदेश देने की मांग की थी.

केरल हाई कोर्ट के न्यायाधीश सतीश निनान और पी. कृष्ण कुमार की खंडपीठ ने बुआ सास के भरण पोषण की जिम्मेदारी डालने वाले आदेश के विरुद्ध दाखिल महिला की याचिका स्वीकार करते हुए कहा कि उसे पति की बुआ का भरण पोषण करने का आदेश नहीं दिया जा सकता क्योंकि वह मातापिता एवं वरिष्ठ नागरिक भरण-पोषण अधिनियम की धारा 2(जी) के मुताबिक ‘रिश्तेदार’ की श्रेणी में नहीं आएगी.

हाई कोर्ट ने स्पष्ट किया कि किसी वरिष्ठ नागरिक की संपत्ति पर कब्जा अपनेआप में भरण पोषण का दायित्व नहीं बनाता, जब तक कि वह व्यक्ति लागू पर्सनल ला के तहत कानूनी उत्तराधिकारी न हो. कोर्ट ने कहा कि जो व्यक्ति वरिष्ठ नागरिक का कानूनी उत्तराधिकारी नहीं है, वह कानून के तहत सिर्फ इस आधार पर ‘रिश्तेदार’ नहीं कहा जा सकता कि उस के पास वरिष्ठ नागरिक की संपत्ति है.

हाई कोर्ट ने कहा कि वह उस फैसले से सहमत नहीं है जिस में कहा गया है कि जो व्यक्ति निरूसंतान वरिष्ठ नागरिक की संपत्ति का उत्तराधिकारी होगा, उसे उस का ‘रिश्तेदार’ माना जाएगा. हाई कोर्ट ने कहा कि ऐसा समझा जाना कानून की स्पष्ट भाषा के साथ अन्याय होगा. हाई कोर्ट ने कानून के तहत ‘रिश्तेदार’ की व्याख्या की है.

कोर्ट ने कहा कि मातापिता और वरिष्ठ नागरिक भरण पोषण कानून की धारा-5 कहती है कि मातापिता अपने बच्चों से भरण पोषण का दावा कर सकते हैं और अगर वरिष्ठ नागरिक निःसंतान है तो वह अपने ‘रिश्तेदार’ से भरण पोषण का दावा कर सकता है. कानून के मुताबिक वह व्यक्ति वरिष्ठ नागरिक का रिश्तेदार होना चाहिए. उस के पास भरण पोषण के साधन होने चाहिए. उस के कब्जे में वरिष्ठ नागरिक की संपत्ति होनी चाहिए या उसे वरिष्ठ नागरिक की संपत्ति का उत्तराधिकार हो.

कानून में जो ‘रिश्तेदार’ की व्याख्या की गई है उस के मुताबिक निःसंतान वरिष्ठ नागरिक का कोई कानूनी उत्तराधिकारी, जो नाबालिग न हो और जिस के कब्जे में उस की संपत्ति हो या वह उस की संपत्ति पर उत्तराधिकार रखता है. हाई कोर्ट ने कहा कि इस का मतलब है कि वह व्यक्ति कानून के मुताबिक वरिष्ठ नागरिक के कानूनी उत्तराधिकारी के वर्ग या श्रेणी में आता हो.

इसलिए जो व्यक्ति कानूनी उत्तराधिकारी नहीं है, वह कानून के मुताबिक वरिष्ठ नागरिक का ‘रिश्तेदार’ नहीं हो सकता. केवल संपत्ति पर कब्जा होने भर से या उसे उत्तराधिकार में संपत्ति मिलने से वह ‘रिश्तेदार’ नहीं माना जाएगा. सिर्फ इस आधार पर कानून में उसे ‘रिश्तेदार’ नहीं माना जा सकता कि उस महिला ने अपने पति की संपत्ति पर उत्तराधिकार पाया है, जो वरिष्ठ नागरिक ने उपहार में दी थी. अगर गिफ्ट डीड में अलग से इस बात को लिखा गया होता तो अलग बात थी.

क्या होती है गिफ्ट डीड ?

गिफ्ट डीड बिना किसी प्रतिफल के संपत्ति को उपहार के रूप में देने की कानून प्रक्रिया को कहा जाता है. यह ‘दाता’ द्वारा संपत्ति के अधिकारों के हस्तांतरण का एक स्वैच्छिक कार्य है. जहा ‘दान पाने वाले’ को इस के बदले कुछ देना नहीं पड़ता है. इस का उपयोग आमतौर पर अचल संपत्ति, नकदी या अन्य मूल्यवान संपत्तियों को उपहार में देने के लिए किया जाता है. यह दूसरे संपत्ति हस्तांतरणों से भिन्न है क्योंकि इस में स्वामित्व का हस्तांतरण धन के आदान प्रदान के बिना किया जाता है. संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882 है, जो भारत में संपत्ति हस्तांतरण को नियंत्रित करता है. इस अधिनियम की प्रमुख धारा 122 और धारा 126 हैं, जिस में गिफ्ट डीड को परिभाषित किया गया है.

गिफ्ट डीड के जरिए संपत्तियां किसी भी पारिवारिक या गैर पारिवारिक सदस्य को उपहार में दी जा सकती है. गिफ्ट डीड में देने वाले को दान दी गई संपत्ति का स्वामित्व का प्रमाण के दस्तावेज देने होते हैं. इस के अलावा दानकर्ता और दान प्राप्तकर्ता दोनों को पहचान और पते का प्रमाण, जैसे आधार कार्ड, पासपोर्ट या मतदाता पहचान पत्र, प्रस्तुत करना होगा. यदि संपत्ति पहले इसके माध्यम से अर्जित की गई थी तो रजिस्ट्री की कापी लागनी होगी. किसी संपत्ति को कानूनी बकाया या लंबित देनदारियों से मुक्त करने के दषा में प्रमाणपत्र देना होगा.

गिफ्ट डीड के पंजीकरण और लागू होने के दौरान दो गवाहों की जरूरत होती है. जो अपनेअपने पहचान पत्र और पते के प्रमाण के साथ हो. स्थानीय उप-पंजीयक कार्यालय गिफ्ट डीड करने के लिए स्टाम्प शुल्क स्वीकार लेता है. दानकर्ता और उपहार प्राप्तकर्ता सभी दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करते हं और गवाह कार्यालय में ही इसे सत्यापित करते हैं.

गिफ्ट डीड जमा होने के बाद उसे उप पंजीयक कार्यालय में पंजीकृत किया जाता है. उप पंजीयक सभी दस्तावेजों और उनके कानूनी अनुपालन की पुष्टि करता है. जिस के बाद उप पंजीयक उपहार की रसीद कानूनी प्रमाण के रूप में देता है. स्टाम्प शुल्क की गणना राज्य के आधार पर की जाती है, क्योंकि अलगअलग राज्यों में स्टाम्प शुल्क अलग अलग होते हैं. यह बिना किसी छूट के संपत्ति उपहार में देने पर लागू होता है.

भरण पोषण एवं कल्याण अधिनियम

कांग्रेस की अगुवाई वाली डाक्टर मनमोहन सिंह सरकार ने सामाज के हित में कई कानून बनाए थे. मातापिता और वरिष्ठ नागरिकों के भरण पोषण एवं कल्याण अधिनियम 2007 उन्ही में से एक है. यह संविधान द्वारा मातापिता और वरिष्ठ नागरिकों के भरण-पोषण एवं कल्याण हेतु वैधानिक सुरक्षा प्रदान करता है. इस को 29 सितंबर 2008 से लागू किया गया था.

इस कानून के मुताबिक कोई वरिष्ठ नागरिक या माता पिता जो अपनी आय से या अपनी स्वामित्व वाली संपत्ति से अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, वह अपने बच्चों या कानूनी उत्तराधिकारियों से भरण पोषण राशि प्राप्त करने के लिए अधिनियम की धारा 5 के तहत आवेदन करने का हकदार है. इस अधिनियम के तहत मासिक भत्ते के लिए दायर आवेदन का निपटारा 90 दिनों के भीतर किए जाने का प्रावधान है.

यदि बच्चे या रिश्तेदार न्यायाधिकरण के आदेशों का पालन करने में विफल रहते हैं, तो न्यायाधिकरण जुर्माना लगा सकता है और ऐसे व्यक्तियों को वरिष्ठ नागरिकों के भरण पोषण और व्यय के लिए प्रत्येक माह के भत्ते के पूरे या उसके किसी भाग के लिए दंडित कर सकता है या एक माह तक या भुगतान किए जाने तक कारावास का आदेश दे सकता है. अधिकतम भरण पोषण भत्ता 10,000 रुपए प्रति माह से अधिक नहीं होगा.

न्यायाधिकरण कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान ऐसे बच्चों या रिश्तेदारों को वरिष्ठ नागरिक के अंतरिम भरण-पोषण के लिए मासिक भत्ता प्रदान करने का आदेश दे सकता है. यदि वरिष्ठ नागरिकों की देखभाल और सुरक्षा के लिए जिम्मेदार व्यक्ति वरिष्ठ नागरिकों को छोड़ देते हैं, तो ऐसे व्यक्तियों को तीन महीने के कारावास या 5,000 तक का जुर्माना या दोनों से दंडित किया जाएगा.

इस अधिनियम के अंतर्गत प्राप्त याचिकाओं के शीघ्र निपटारे हेतु, प्रत्येक उप मंडल में राजस्व संभागीय अधिकारी की अध्यक्षता में एक न्यायाधिकरण का गठन किया गया है, जो वरिष्ठ नागरिकों और माता पिता द्वारा बच्चो और कानूनी उत्तराधिकारियों से भरण पोषण राशि प्राप्त करता है. जिला समाज कल्याण अधिकारी भरण पोषण अधिकारी के साथ साथ सुलह अधिकारी के रूप में भी इन मामलों को सुनते हैं.

मातापिता और वरिष्ठ नागरिकों के भरण-पोषण और कल्याण अधिनियम 2007 में ‘उत्तराधिकारी’ शब्द को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया है. अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार यह उन बच्चों, रिश्तेदारों, या किसी अन्य व्यक्ति को संदर्भित करता है जो वरिष्ठ नागरिक की मृत्यु के बाद उस की संपत्ति या देखभाल के लिए जिम्मेदार होते हैं.

अधिनियम के अनुसार ‘बच्चे’ में पुत्र, पुत्री, पोता, और पोती शामिल हैं जो नाबालिग नहीं हैं. ‘रिश्तेदार’ शब्द में भाई, बहन भतीजे शामिल हैं जो वरिष्ठ नागरिक के कानूनी उत्तराधिकारी हैं. जिन के पास पर्याप्त साधन हैं उन्हें वरिष्ठ नागरिक का भरण-पोषण करना होगा. ‘उत्तराधिकारी’ शब्द इस अधिनियम में कानूनी रूप से जिम्मेदार व्यक्ति को दर्शाता है, जो वरिष्ठ नागरिक के जीवित रहने पर उन की देखभाल करने और उनकी मृत्यु के बाद उन की संपत्ति या देखभाल के लिए जिम्मेदार होता है.

टकराव नहीं मेलजोल से रहे

देश के संविधान ने बुजुर्गों के अधिकार और भरण पोषण को ले कर कई कानून बनाए हैं. बुजुर्गों की समस्या कानूनी पचड़ों में पड़ने से नहीं बल्कि युवाओं के साथ मेलजोल से सुलझाना ज्यादा बेहतर होता है. कानूनी अधिकार लेने के लिए परिजनों के साथ टकराव की हालत बन जाती है. हमारे देश में कानून भले ही बने हों लेकिन उन का पालन कठिन होता है. ऐसे में कोर्ट और बाबूओं के चक्कर लगाना बुजुर्गों के बस के बाहर होता है. परिवार के लोगों से ही जब टकराव के हालत बन जाएं तो मुसीबत और बढ़ जाती है. ऐसे में जरूरी है कि परिजनों और उत्तराधिकारियों से मेलजोल कर के रहना ही सही रहता है.

बुजुर्गों के लिए जरूरी है कि वह 60 साल की उम्र के बाद अपना बुढ़ापा प्लान करना शुरू कर दें. उन की यह कोशिश रहनी चाहिए कि वह किसी पर बोझ बन कर न रहें. परिवार में अपनी उपयोगिता बनाए रखने का स्किल सीख लें. जैसे घर के कामकाज करना सीख लें. परिवार के छोटे बच्चों की जिम्मेदारी उठाएं. उन को स्कूल लाए ले जाए करें. घर में अगर पेड़ पौधे हैं तो उन की केयर करें. बाजार से छोटी बड़ी खरीददारी करें. घर के जरूरी पेपर संभाल कर रखें. इस तरह के बहुत सारे काम हैं जिन को कर के परिवार में अपनी उपयोगिता बनाए रखें.

बुजुर्गों की कोशिश यह रहनी चाहिए कि वह परिजनों के साथ टकराव वाली बातें न करें. कई बार उन के कामकाज में सलाह दे कर टांग अड़ाने का काम करते हैं. इस से बचें. सलाह उचित समय पर उचित तरह से ही दें. अगर सलाह न मानी जाए तो उस को भी मुद्दा न बनाएं. ज्यादातर टकराव खाने को ले कर होता है. जो बच्चे खा रहे हो उसी को खा कर खुश रहें. अपनी जिम्मेदारी खुद उठाएं. जैसे अपने कपड़े धोना है बिस्तर लगाना है. इस तरह के छोटेछोटे काम उपयोगी होते हैं.

अगर बुजुर्ग अपने अंदर इस तरह का बदलाव करने में सफल रहते हैं तो उन का बुढ़ापा सही से कट सकता है. दूसरे घरों की तुलना न करें. कई बार बुजुर्ग यह करते हैं कि वह अपने घर की तुलना दूसरे घरों से करने लगते हैं. वह यह दिखने की कोशिश करते हैं कि उन की देखभाल कम हो रही है. यह तुलना ठीक नहीं होती है. यह भी बारबार करना ठीक नहीं रहता है कि वह अपने मातापिता की जिस तरह से सेवा करते थे उन की सेवा नहीं हो रही है. आर्थिक रूप से जितना अपने पर निर्भर रह सकते हैं रहें. अपनी संपत्ति जीवन काल में अपने पास रखें. अगर जरूरी है तो उस की वसीयत करें. वसीयत के चलते आप के बाद टकराव न हो इस के लिए पूरे परिवार की जानकारी और सहमति से करें. Senior Citizen Rights 

Social Story : पछतावे की चुभन

Social Story : महेश की नौकरी भारतीय वायु सेना में बतौर मैडिकल अटैंडैंट लगी थी. वायु सेना सिलैक्शन सैंटर के कमांडर ने कहा, ‘‘बधाई हो महेश, तुम्हें एक नोबेल ट्रेड मिला है. तुम नौकरी के साथसाथ इनसानियत के लिए भी काम कर सकोगे. किसी लाचार के काम आ सकोगे.’’ जो भी हो, महेश की समझ में तो यही आया कि उसे एक अच्छी नौकरी मिल गई है बस. अस्पताल में तकरीबन 3 महीने की ट्रेनिंग चल रही थी. सबकुछ करना था. मरीजों का टैंपरेचर, ब्लडप्रैशर, नाड़ी वगैरह के रिकौर्ड रखने से ले कर उन्हें बिस्तर पर सुलाने तक की जिम्मेदारी थी. हर बिस्तर तक जा कर मरीजों को दवा खिलानी पड़ती थी. लाचार मरीजों को स्पंज बाथ देना पड़ता था.

महेश तो एक पिछड़े इलाके से था, जहां के अस्पताल के नर्स से ले कर कंपाउंडर, डाक्टर तक मरीजों को डांटते रहते थे. एकएक इंजैक्शन लगाने के लिए नर्स फीस लेती थी. डाक्टरों से बात करने में डर लगता था कि कहीं डांटने न लगें. स्पंज बाथ का तो नाम भी नहीं सुना था. कभी कोई सगा अस्पताल में भरती हुआ, तो उसे एकएक रिलीफ के लिए दाम देते देखा था. पर यहां तो नर्सों का ‘इंटरनैशनल एथिक्स’ हम पर लागू था. हमें पहले ही ताकीद कर दी गई थी कि किसी मरीज से कभी भी चाय मत पीना, वरना कोर्ट मार्शल हो सकता है.

पलपल यही खयाल रहता था कि कैसे नौकरी महफूज रखी जाए. एक दिन जब महेश अपनी शिफ्ट ड्यूटी पर गया, तो उस से पहले काम कर रहे साथी ने बताया, ‘‘एक मरीज भरती हुआ है. उस का आपरेशन होना है और उसे तैयार करना है.’’

यह कह कर वह साथी चला गया. महेश ने देखा, तो वह बवासीर का मरीज था. महेश ने उसे नुसखे के मुताबिक समझा दिया और दवा दे दी. पर एक बात के लिए महेश दुविधा में पड़ गया कि उस मरीज के गुप्त भाग की शेविंग करनी थी. उस की शेविंग कैसे की जाए? अब महेश को अफसोस होने लगा कि यह कैसी नौकरी में वह फंस गया. ड्यूटी उस की थी. उस से पूछा जाएगा.

महेश ने एक उपाय निकाला. मरीज को बुलाया. रेजर में ब्लेड लगा कर उस से कहा, ‘‘अंदर से दरवाजा बंद कर लो और पूरा समय ले कर शेविंग कर डालो.’’ उस मरीज ने हामी में सिर हिलाया और रेजर ले कर चला गया. महेश ने संतोष की सांस ली. दूसरे दिन जब उस मरीज को औपरेशन के लिए जाना था, तब महेश ही ड्यूटी पर था. वह सोच रहा था कि सब ठीक हो.

उस के सीनियर ने उस से पूछा, ‘‘क्या मरीज का ‘प्रीऔपरेटिव’ केयर फालो हुआ?’’ महेश ने ‘हां’ में सिर हिला दिया.

उस सीनियर ने स्क्रीन पर लगा कर मरीज की जांच की. महेश के पास आ कर वह चिल्लाया, ‘‘यह क्या है? तुम ने तो मरीज का कोई केयर ही नहीं किया है?’’

यह सुन कर महेश के पैरों तले जमीन खिसक गई. वह बोला, ‘‘सर, मैं ने उसे समझा दिया था.’’ वह सीनियर महेश पर बिगड़ा, ‘‘तुम्हारी समझाने की ड्यूटी नहीं है. तुम्हें खुद करना है और यह तय करना है कि मरीज को तुम्हारी लापरवाही के चलते कोई इंफैक्शन न हो.’’ महेश की बोलती बंद हो गई. अगले ही महीने उसे छुट्टी पर घर जाना था. उसे बड़ी कुंठा होने लगी कि यही सब जा कर घर पर बताऊंगा. अब वह अपनेआप को बड़ा बेबस महसूस कर रहा था. वह पूरी तरह हार मान कर सीनियर के पास चला गया, ‘‘सर, मुझे तो अपनेआप को नंगा देखने में शर्म आती है और आप मुझ से उस के गुप्त भाग की शेविंग करने को कह रहे हैं.’’

वह सीनियर तुरंत मुड़ा और मरीज को आवाज दी. उस ने शेविंग का सामान उठाया और कमरे में चला गया. थोड़ी देर बाद वे दोनों बाहर आए.

सीनियर ने महेश से कहा, ‘‘मैं ने इस मरीज की शेविंग कर दी है. किसी लाचार की सेवा करना छोटा या घटिया काम नहीं होता. मैडिकल के प्रोफैशन में औरतमर्द या अंगगुप्तांग नहीं होता, बस एक मरीज होता है और उस का शरीर होता है. तो फिर इस शरीर की साफसफाई करने में किस बात की दिक्कत?’’

इतना कह कर सीनियर चला गया. कितनी आसानी से बिना किसी हीनभावना के उस ने सब कर दिया था. यह देख कर महेश को दुख होने लगा कि उस ने पहले ही ये सब क्यों नहीं किया? उस के अंदर कितनी कुंठा है. उस की नौकरी का असली माने तो यही था. यही तो उस का असली काम था, जिसे करने से वह चूक गया था. उसके पछतावे की चुभन काफी  चोट पहुंचा रही थी. Social Story 

Social Story In Hindi : मैला दामन

Social Story In Hindi : शीला का अंग अंग दुख रहा था. ऐसा लग रहा था कि वह उठ ही नहीं पाएगी. बेरहमों ने कीमत से कई गुना ज्यादा वसूल लिया था उस से. वह तो एक के साथ आई थी, पर उस ने अपने एक और साथी को बुला लिया था. फिर वे दोनों टूट पड़े थे उस पर जानवरों की तरह. वह दर्द से कराहती रही, पर उन लोगों ने तभी छोड़ा, जब उन की हसरत पूरी हो  शीला ने दूसरे आदमी को मना भी किया था, पर नोट फेंक कर उसे मजबूर कर दिया गया था. ये कमबख्त नोट भी कितना मजबूर कर देते हैं. जहां शीला लाश की तरह पड़ी थी, वह एक खंडहरनुमा घर था, जो शहर से अलग था. वह किसी तरह उठी, उस ने अपनी साड़ी को ठीक किया और ग्राहकों के फेंके सौसौ रुपए के नोटों को ब्लाउज में खोंस कर खंडहर से बाहर निकल आई.

वह सुनसान इलाका था. दूर पगडंडी के रास्ते कुछ लोग जा रहे थे. शीला से चला नहीं जा रहा था. अब समस्या थी कि घर जाए तो कैसे? वह ग्राहक के साथ मोटरसाइकिल पर बैठ कर आई थी. उसे बूढ़ी सास की चिंता थी कि बेचारी उस का इंतजार कर रही होगी. वह जाएगी, तब खाना बनेगा. तब दोनों खाएंगी.

शीला भी क्या करती. शौक से तो नहीं आई थी इस धंधे में. उस के पति ने उसे तनहा छोड़ कर किसी और से शादी कर ली थी. काश, उस की शादी नवीन के साथ हुई होती. नवीन कितना अच्छा लड़का था. वह उस से बहुत प्यार करता था. वह यादों के गलियारों में भटकते हुए धीरेधीरे आगे बढ़ने लगी. शीला अपने मांबाप की एकलौती बेटी थी. गरीबी की वजह से उसे 10वीं जमात के बाद पढ़ाई छोड़नी पड़ी थी.

उस के पिता नहीं थे. उस की मां बसस्टैंड पर ठेला लगा कर फल बेचा करती थी. घर संभालना, सब्जी बाजार से सब्जी लाना और किराने की दुकान से राशन लाना शीला की जिम्मेदारी थी. वह अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाती थी. साइकिल पकड़ती और निकल पड़ती. लोग उसे लड़की नहीं, लड़का कहते थे.

एक दिन शीला सब्जी बाजार से सब्जी खरीद कर साइकिल से आ रही थी कि मोड़ के पास अचानक एक मोटरसाइकिल से टकरा कर गिर गई. मोटरसाइकिल वाला एक खूबसूरत नौजवान था. उस के बाल घुंघराले थे. उस ने आंखों पर धूप का रंगीन चश्मा पहन रखा था. उस ने तुरंत अपनी मोटरसाइकिल खड़ी की और शीला को उठाने लगा और बोला, ‘माफ करना, मेरी वजह से आप गिर गईं.’ ‘माफी तो मुझे मांगनी चाहिए. मैं ने ही अचानक साइकिल मोड़ दी थी,’ शीला बोली.

‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं. आप को कहीं चोट तो नहीं आई?’

‘नहीं, मैं ठीक हूं,’ शीला उठ कर साइकिल उठाने को हुई, पर उस नौजवान ने खुद साइकिल उठा कर खड़ी कर दी. वह नौजवान अपनी मोटरसाइकिल पर सवार हो गया और स्टार्ट कर के बोला, ‘‘क्या मैं आप का नाम जान सकता हूं?’’

‘शीला… और आप का?’

‘नवीन… अच्छा चलता हूं.’

इस घटना के 4 दिन बाद फिर दोनों की सब्जी बाजार में मुलाकात हो गई. ‘अरे, शीलाजी आप…’ नवीन चहका, ‘सब्जी ले रही हो?’

 

‘हां, मैं तो हर दूसरेतीसरे दिन सब्जी खरीदने आती हूं. आप भी आते हैं…?’

नहीं, सच कहूं, तो मैं यह सोच कर आया था कि शायद आप से फिर मुलाकात हो जाए…’ कह कर नवीन मुसकराने लगा, ‘अगर आप बुरा न मानें, तो क्या मेरे साथ चाय पी सकती हैं?’

‘चाय तो पीऊंगी… लेकिन यहां नहीं. कभी मेरे घर आइए, वहीं पीएंगे,’ कह कर शीला ने उसे घर का पता दे दिया.

शीला आज सुबह से नवीन का इंतजार कर रही थी. उसे पूरा यकीन था कि नवीन जरूर आएगा. वह घर पर अकेली थी. उस की मां ठेला ले कर जा चुकी थी, तभी मोटरसाइकिल के रुकने की आवाज आई. वह दौड़ कर बाहर आ गई. नवीन को देख कर उस का मन खिल उठा, ‘आइए… आइए न…’ नवीन ने शीला के झोंपड़ी जैसे कच्चे मकान को गौर से देखा और फिर भीतर दाखिल हो गया.

शीला ने बैठने के लिए लकड़ी की एक पुरानी कुरसी आगे बढ़ा दी और चाय बनाने के लिए चूल्हा फूंकने लगी. ‘रहने दो… क्यों तकलीफ करती हो. चाय तो आप के साथ कुछ पल बिताने का बहाना है. आइए, पास बैठिए कुछ बातें करते हैं.’

दोनों बातों में खो गए. नवीन के पिता सरकारी नौकरी में थे. घर में मां, दादी और बहन से भरापूरा परिवार था. वह एक दलित नौजवान था और शीला पिछड़े तबके से ताल्लुक रखती थी. पर जिन्हें प्यार हो जाता है, वे जातिधर्म नहीं देखते. इस बात की खबर जब शीला की मां को हुई, तो उस ने आसमान सिर पर उठा लिया. दोनों के बीच जाति की दीवार खड़ी हो गई.

शीला का घर से निकलना बंद कर दिया गया. शीला के मामाजी को बुला लिया गया और शीला की शादी बीड़ी कारखाने के मुनीम श्यामलाल से कर दी गई. शीला की शादी होने की खबर जब नवीन को हुई, तो वह तड़प कर रह गया. उसे अफसोस इस बात का रहा कि वे दोनों भाग कर शादी नहीं कर पाए. सुहागरात को न चाहते हुए भी शीला को पति का इंतजार करना पड़ रहा था. उस का छोटा परिवार था. पति और उस की दादी मां. मांबाप किसी हादसे का शिकार हो कर गुजर गए थे.

श्यामलाल आया, तो शराब की बदबू से शीला को घुटन होने लगी, पर श्यामलाल को कोई फर्क नहीं पड़ना था, न पड़ा. आते ही उस ने शीला को ऐसे दबोच लिया मानो वह शेर हो और शीला बकरी. शीला सिसकने लगी. उसे ऐसा लग रहा था, जैसे आज उस की सुहागरात नहीं, बल्कि वह एक वहशी दरिंदे की हवस का शिकार हो गई हो. सुबह दादी की अनुभवी आंखों ने ताड़ लिया कि शीला के साथ क्या हुआ है.

उस ने शीला को हिम्मत दी कि सब ठीक हो जाएगा. श्यामलाल आदत से लाचार है, पर दिल का बुरा नहीं है. शीला को दादी मां की बातों से थोड़ी राहत मिली. एक दिन शाम को श्यामलाल काम से लौटा, तो हमेशा की तरह शराब के नशे में धुत्त था. उस ने आते ही शीला को मारनापीटना शुरू कर दिया, ‘बेहया, तू ने मुझे धोखा दिया है. शादी से पहले तेरा किसी के साथ नाजायज संबंध था.’

‘नहीं…नहीं…’ शीला रोने लगी, ‘यह झूठ है.’

‘तो क्या मैं गलत हूं. मुझे सब पता चल गया है,’ कह कर वह शीला पर लातें बरसाने लगा. वह तो शायद आज उसे मार ही डालता, अगर बीच में दादी न आई होतीं, ‘श्याम, तू पागल हो गया है क्या? क्यों बहू को मार रहा है?’

‘दादी, शादी से पहले इस का किसी के साथ नाजायज संबंध था.’

‘चुप कर…’ दादी मां ने कहा, तो श्यामलाल खिसिया कर वहां से चला गया.

‘बहू, यह श्यामलाल क्या कह रहा था कि तुम्हारा किसी के साथ…’

‘नहीं दादी मां, यह सब झूठ है. यह बात सच है कि मैं किसी और से प्यार करती थी और उसी से शादी करना चाहती थी. मेरा विश्वास करो दादी, मैं ने कोई गलत काम नहीं किया.’ ‘मैं जानती हूं बहू, तुम गलत नहीं हो. समय आने पर श्याम भी समझ जाएगा.’ और एक दिन ऐसी घटना घटी, जिस की कल्पना किसी ने नहीं की थी.
श्यामलाल ने दूसरी शादी कर ली थी और अलग जगह रहने लगा था. श्यामलाल की कमाई से किसी तरह घर चल रहा था. उस के जाने के बाद घर में भुखमरी छा गई. शीला मायके में कभी काम पर नहीं गई थी, ससुराल में किस के साथ जाती, कहां जाती. घर का राशन खत्म हो गया था. दादी के कहने पर शीला राशन लाने महल्ले की लाला की किराने की दुकान पर पहुंच गई. लाला ने चश्मा लगा कर उसे ऊपर से नीचे तक घूर कर देखा, फिर उस की ललचाई आंखें शीला के उभारों पर जा टिकीं. ‘मुझे कुछ राशन चाहिए. दादी ने भेजा है,’ शीला को कहने में संकोच हो रहा था.

‘मिल जाएगा, आखिर हम दुकान खोल कर बैठे क्यों हैं? पैसे लाई हो?’

शीला चुप हो गई. ‘मुझे पता था कि तुम उधार मांगोगी. अपना भी परिवार है. पत्नी है, बच्चे हैं. उधारी दूंगा, तो परिवार कैसे पालूंगा? वैसे भी तुम्हारे पति ने पहले का उधार नहीं दिया है. अब और उधार कैसे दूं?’

शीला निराश हो कर जाने लगी.

‘सुनो…’

‘जी, लालाजी.’

‘एक शर्त पर राशन मिल सकता है.’

‘बोलो लालाजी, क्या शर्त है?’

‘अगर तुम मुझे खुश कर दो तो…’

‘लाला…’ शीला बिफरी, ‘पागल हो गए हो क्या? शर्म नहीं आती ऐसी बात करते हुए.’ लाला को भी गुस्सा आ गया, ‘निकलो यहां से. पैसे ले कर आते नहीं हैं. उधार में चाहिए. जाओ कहीं और से ले लो…’ शीला को खाली हाथ देख कर दादी ने पूछा, ‘क्यों बहू, लाला ने राशन नहीं दिया क्या?’

‘नहीं दादी…’

‘मुझ से अब भूख और बरदाश्त नहीं हो रही है. बहू, घर में कुछ तो होगा? ले आओ. ऐसा लग रहा है, मैं मर जाऊंगी.’ शीला तड़प उठी. मन ही मन शीला ने एक फैसला लिया और दादी मां से बोली, ‘दादी, मैं एक बार और कोशिश करती हूं. शायद इस बार लाला राशन दे दे.’

‘लाला, तुम्हें मेरा शरीर चाहिए न… अपनी इच्छा पूरी कर ले और मुझे राशन दे दे…’ लाला के होंठों पर कुटिल मुसकान तैर गई, ‘यह हुई न बात.’ लाला उसे दुकान के पिछवाड़े में ले गया और अपनी हवस मिटा कर उसे कुछ राशन दे दिया. इस के बाद शीला को जब भी राशन की जरूरत होती, वह लाला के पास पहुंच जाती. एक दिन हमेशा की तरह शीला लाला की दुकान पर पहुंची, पर लाला की जगह उस के बेटे को देख कर ठिठक गई.

‘‘क्या हुआ… अंदर आ जाओ.’’

‘लालाजी नहीं हैं क्या?’

‘पिताजी नहीं हैं तो क्या हुआ. मैं तो हूं न. तुम्हें राशन चाहिए और मुझे उस का दाम.’

‘इस का मतलब?’

‘मुझे सब पता है,’ कह कर शीला को दुकान के पिछवाड़े में जाने का इशारा किया. अब तो आएदिन बापबेटा दोनों शीला के शरीर से खेलने लगे. इस की खबर शीला के महल्ले के एक लड़के को हुई, तो वह उस के पीछे पड़ गया.

शीला बोली, ‘पैसे दे तो तेरी भी इच्छा पूरी कर दूं.’ यहीं से शीला ने अपना शरीर बेचना शुरू कर दिया था. एक से दूसरे, दूसरे से तीसरे. इस तरह वह कई लोगों के साथ सो कर दाम वसूल कर चुकी थी. उस की दादी को इस बात की खबर थी, पर वह बूढ़ी जान भी क्या करती. शीला अब यादों से बाहर निकल आई थी. दर्द सहते, लंगड़ाते हुए वह भीड़भाड़ वाले इलाके तक आ गई थी. उस ने रिकशा रोका और बैठ गई अपने घर की तरफ जाने के लिए. एक दिन हमेशा की तरह शीला चौक में खड़े हो कर ग्राहक का इंतजार कर रही थी कि तभी उसे किसी ने पुकारा, ‘शीला…’

शीला ग्राहक समझ कर पलटी, लेकिन सामने नवीन को देख कर हैरान रह गई. वह अपनी मोटरसाइकिल पर था.

‘‘तुम यहां क्या कर रही हो?’’ नवीन ने पूछा.

शीला हड़बड़ा गई, ‘‘मैं… मैं अपनी सहेली का इंतजार कर रही थी.’’

‘‘शीला, मैं तुम से कुछ बात करना चाहता हूं.’’

‘‘बोलो…’’

‘‘यहां नहीं… चलो, कहीं बैठ कर चाय पीते हैं. वहीं बात करेंगे.’’

शीला नवीन के साथ नजदीक के एक रैस्टोरैंट में चली गई.

‘‘शीला,’’ नवीन ने बात की शुरुआत की, ‘‘मैं ने तुम से शादी करने के लिए अपने मां पापा को मना लिया था, लेकिन तुम्हारे परिवार वालों की नापसंद के चलते हम एक होने से रह गए.’’

‘‘नवीन, मैं ने भी बहुत कोशिश की थी, लेकिन हम दोनों के बीच जाति की एक मजबूत दीवार खड़ी हो गई.’’

‘‘खैर, अब इन बातों का कोई मतलब नहीं. वैसे, तुम खुश तो हो न? क्या करता है तुम्हारा पति? कितने बच्चे हैं तुम्हारे?’’ शीला थोड़ी देर चुप रही, फिर सिसकने लगी, ‘‘नवीन, मेरे पति ने दूसरी शादी कर ली है,’’ शीला ने अपनी आपबीती सुना दी.

‘‘तुम्हारे साथ तो बहुत बुरा हुआ,’’ नवीन ने कहा.

‘‘तुम अपनी सुनाओ. शादी किस से की? कितने बच्चे हैं?’’ शीला ने पूछा.

‘‘एक भी नहीं. मैं ने अब तक शादी नहीं की.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘क्योंकि मुझे तुम जैसी कोई लड़की नहीं मिली.’’

शीला एक बार फिर तड़प उठी.

‘‘शीला, मेरी जिंदगी में अभी भी जगह खाली है. क्या तुम मेरी पत्नी…’’

‘‘नहीं… नवीन, यह मुमकिन नहीं है. मैं पहली वाली शीला नहीं रही. मैं बहुत गंदी हो गई हूं. मेरा दामन मैला हो चुका है. मैं तुम्हारे लायक नहीं रह गई हूं.’’ ‘‘मैं जानता हूं कि तुम गलत राह पर चल रही हो. पर, इस में तुम्हारा क्या कुसूर है? तुम्हें हालात ने इस रास्ते पर चलने को मजबूर कर दिया है. तुम चाहो, तो इस राह को अभी भी छोड़ सकती हो. मुझे कोई जल्दी नहीं है.तुम सोचसमझ कर जवाब देना.’’ इस के बाद नवीन ने चाय के पसे काउंटर पर जमा कए और बाहर आ गया.

शीला भी नवीन के पीछे हो ली. नवीन ने मोटरसाइकिल स्टार्ट कर के कहा, ‘‘मुझे तुम्हारे जवाब का इंतजार रहेगा. उम्मीद है कि तुम निराश नहीं करोगी,’’ कह कर नवीन आगे बढ़ गया. शीला के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. उस ने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि वक्त उसे दलदल से निकलने का एक और मौका देगा. अभी शीला आगे बढ़ी ही थी कि एक नौजवान ने उस के सामने अपनी मोटरसाइकिल रोक दी, ‘‘चलेगी क्या?’’

‘‘हट पीछे, नहीं तो चप्पल उतार कर मारूंगी…’’ शीला गुस्से से बोली और इठलाती इतराती अपने घर की तरफ बढ़ गई. Social Story In Hindi 

Family Story In Hindi : गलत फैसला

Family Story In Hindi :  जयश्री को गुजरे एक महीना भी नहीं हुआ था कि उस के मम्मीपापा उस के ससुराल आ धमके. लगभग धमकीभरे लहजे में अपने दामाद प्रशांत से बोले, ‘‘राजन मेरे पास रहेगा.’’

‘‘क्यों आप के पास रहेगा? उस का बाप जिंदा है,’’ प्रशांत ने भी उसी लहजे में जवाब दिया.

‘‘उस की परवरिश करना तुम्हारे वश में नहीं,’’ वे बोले.

‘‘बड़े होने के नाते मैं आप की इज्जत करता हूं लेकिन यह हमारा निजी मामला है.’’

‘‘निजी कैसे हो गया? राजन मेरी बेटी का पुत्र है. उस की उम्र अभी मात्र 6 महीने है. तुम नौकरी करोगे कि बेटा पालोगे,’’ प्रशांत के ससुर रामानंद बोले.

‘‘आशा दीदी के हाथों वह सुरक्षित है,’’ प्रशांत ने सफाई दी.

‘‘तो भी यह बच्चा तुम्हें मुझे देना ही होगा,’’ रामानंद ‘देना’ शब्द पर जोर दे कर बोले.

‘‘रवि, तू अंदर जा कर बच्चा ले आ,’’ रवि उन का इकलौता बेटा था. भले ही उम्र के 40वें पायदान पर था तथापि स्वभाव से उद्दंडता गई न थी. आशा दौड़ कर कमरे में गई और राजन को सीने से लगा कर शोर मचाने लगी. प्रशांत ने भरसक प्रतिरोध किया लेकिन रवि ने उसे झटक दिया. रवि की उद्दंडता से नाराज प्रशांत, रवि को थप्पड़ मारने ही जा रहा था कि रामानंद बीच में आ गए. तब तक आसपड़ोस की भीड़ इकट्ठी हो गई. भीड़ के भय से रामानंद ने अपने पांव पीछे खींच लिए. उस रोज वे खाली हाथ लौट गए जिस का उन्हें मलाल था. प्रसंगवश, यह बता देना आवश्यक है कि प्रशांत और जयश्री का अतीत क्या था.

प्रशांत की जयश्री से शादी हुए 16 साल हो चुके थे. इन सालों में जब जयश्री गर्भवती नहीं हुई तो उन दोनों ने टैस्टट्यूब बेबी का सहारा लिया. इस तरह जयश्री की गोद भर गई. जब तक जयश्री मां न बन सकी थी तब तक प्रशांत ने उसे सरकारी नौकरी में जाने की पूरी छूट दे रखी थी. इसी का परिणाम था कि वह एक सरकारी स्कूल में अध्यापिका बन गई. नौकरी मिलते ही जयश्री के मांबाप, भाईबहन सब उस के इर्दगिर्द मंडराने लगे. जयश्री का मायका मोह अब भी नहीं छूटा था. कहने के लिए वह प्रशांत की बीवी थी पर रायमशवरा वह मायके से ही लेती. एक दिन रामानंद जयश्री से बोले, ‘बेटी, तुम्हारे पास रुपयों की कोई कमी न रही. तुम दोनों सरकारी नौकरी में हो.’ जयश्री चुपचाप उन की बात सुनती रही.

 

वे आगे बोले, ‘तुम्हारी छोटी बहन लता जमीन खरीदना चाहती है. हो सके तो तुम उस की मदद कर दो.’

रामानंद व उन की बीवी दोनों बड़े चापलूस और मक्कार किस्म के थे. उन का बेटा रवि भी उन्हीं के नक्शेकदम पर चलता. शादी के बाद भी वे लोग जयश्री पर छाए रहे. जयश्री कभी भी पूर्णतया ससुराल की हो कर न रह पाई थी. छोटीछोटी समस्याओं के लिए अपने मम्मीपापा और भाई रवि पर निर्भर रहती. उन की राय के बिना एक कदम न बढ़ाती. यहां तक कि लता को 2 लाख रुपए उस ने चोरी से लोन ले कर दे दिए. यह बात प्रशांत तक को पता न थी. लोन के पैसे वेतन से कटते. जयश्री ने अपने सारे गहने मायके में रख छोड़े थे. प्रशांत ने आपत्ति की तो उस ने यह कह कर उन्हें शांत कर दिया कि वहां लौकर में सुरक्षित हैं. मांबाप कहीं बेटी का हक थोड़े ही मारते हैं. इस के पीछे उसे डर अपनी बड़ी ननद आशा को ले कर था. वे अकसर आती रहतीं. प्रशांत उन से कुछ ज्यादा घुलामिला था. आशा की जयश्री से कभी नहीं पटी.

आशा सोचती कि प्रशांत के मांबाप नहीं रहे, इसलिए उसी ने उस की शादी का जिम्मा लिया तो प्रशांत की तरह जयश्री भी उस से दब कर रहे. जयश्री सोचती, आशा प्रशांत की बहन है, वे चाहे उस से जैसे भी पेश आएं, मैं क्यों उन के तलवे चाटूं. इन्हीं सब बातों को ले कर दोनों में तनातनी रहती. जयश्री को अपने मायके से जुड़ाव का एक बहुत बड़ा कारण यह भी था. जयश्री की इसी कमजोरी का फायदा उस के मांबाप, भाईबहनों ने उठाया. वे कोई न कोई बहाना बना कर उस से रुपए ऐंठते रहते. उस दोपहर अचानक जयश्री की तबीयत बिगड़ी. प्रशांत ने नजदीक के एक प्राइवेट अस्पताल में उसे भरती कराया. 2 दिन इलाज चला. तीसरे दिन अचानक उसे बेचैनी महसूस हुई. डाक्टरों ने भरसक कोशिश की परंतु उसे बचा न सके.

जयश्री की मृत्यु की खबर सुन कर उस के मायके के लोग भागेभागे आए. आते ही प्रशांत को कोसने लगे, ‘तुम ने मेरी बेटी का ठीक से इलाज नहीं करवाया.’ गनीमत थी कि वह प्राइवेट अस्पताल में मरी. अगर घर में मरती तो निश्चय ही वे कोई न कोई आरोप लगा कर प्रशांत को जेल भिजवा देते.

 

‘ये आप क्या कह रहे हैं, बाबूजी. वह मेरी पत्नी थी. मैं भला उस के इलाज में कोताही क्यों बरतूंगा,’ प्रशांत बोला.

‘बरतोगे,’ व्यंग्य के भाव उन के चेहरे पर तिर गए, ‘16 साल के वैवाहिक जीवन में वह एक दिन भी खुश नहीं रही.’

‘यह आप कैसे कह सकते हैं?’

‘क्यों नहीं कहूंगा? तुम्हें फिट आते थे. क्या तुम ने शादी के पहले इस का जिक्र किया था?’

‘गड़े मुर्दे उखाड़ने से क्या फायदा?’ प्रशांत बात टालने की नीयत से बोला.

‘इसीलिए कह रहा हूं, अगर फायदा होता तो नहीं उखाड़ता.’

‘दोष तो आप की बेटी में भी था.’

‘दोष? तुम्हारा दिमाग तो नहीं खराब हो गया है.’

‘16 साल इलाज किया, लाखों रुपए खर्च हुए, तब भी वह मां न बन सकी. जानते हैं क्यों? क्योंकि उस के बच्चेदानी में टीबी थी, जो शादी के पहले से थी. अगर समय रहते आप लोगों ने उस की समुचित चिकित्सा की होती तो यह दिन न देखना पड़ता.’ ‘बेकार की बातें मत करो,’ रामानंद का स्वर किंचित तेज था, ‘जो भी खामी आई वह सब तुम्हारे माहौल का दोष है. मेरे यहां तो वह भलीचंगी थी.’

 

‘झूठ मत बोलिए, आप 5 बेटियों के पिता हैं. आप भला क्यों इलाज कराएंगे. आप तो चाहेंगे कि वह मरमरा जाए तो अच्छा है.’ प्रशांत की बात उन्हें कड़वी लगी, तथापि संयत रहे.

‘जबान को लगाम दीजिए, जीजाजी,’ रवि उखड़ा.

‘सत्य बात हमेशा कड़वी लगती है.’

‘तब आप ने उस सच को उजागर क्यों नहीं किया?’

‘कौन सा सच?’

‘आप के फिट आने का,’ रवि बोला.

‘फिट कोई लाइलाज बीमारी नहीं. मुख्य बात यह है कि मुझे बीमारी से कोई शिकायत नहीं. मैं अपने पैरों पर खड़ा हूं. बिना मदद के अपने औफिस जाता हूं. अच्छीखासी तनख्वाह पाता हूं. अपने परिवार का भरणपोषण करने में सक्षम हूं और क्या चाहिए एक पुरुष से?’

‘मेरी बहन हमेशा आप की बीमारी को ले कर चिंतित रहती थी. इसी ने उस की जान ली,’ रवि बोला.

‘और शादी के 16 साल बाप न बनने की जो चिंता मुझे हुई, क्या उस चिंता ने मुझे चैन से जीने दिया? आप के पिता ने एक पुत्र के लिए 5 बेटियां जनीं. मुझे तो सिर्फ 1 पुत्री की आस थी. वह भी जयश्री के बीमारी के चलते पूरी न हो सकी. हार कर मुझे टैस्टट्यूब बेबी का सहारा लेना पड़ा,’ प्रशांत भावुक हो उठा.

‘जैसे भी हो, आप बाप बन गए न,’ रवि बोला.

‘‘इस बच्चे के बारे में क्या सोचा है?’’ रामानंद का स्वर सुन कर प्रशांत अपनी सोच से बाहर आ गया, ‘‘सोचना क्या है, बच्चा मेरे पास रहेगा.’’

कुछ सोच कर रामानंद बोले, ‘ठीक है. तुम्हारे पास ही रहेगा लेकिन इस शर्त पर कि बीचबीच में मैं इसे देखने आता रहूंगा. फोन से भी इस की खबर लेता रहूंगा. अगर इस की परवरिश में लापरवाही हुई तो बच्चा तुम्हें देना पड़ेगा,’ वे अपनी बात पर थोड़ा जोर दे कर बोले. प्रशांत को यह नागवार लगा. उस रोज सब चले गए. तेरहवीं के रोज जब आए तो वही बात दोहराई, ‘‘बच्चा मुझे दे दो. तुम्हारे वश में संभालना संभव नहीं,’’ प्रशांत की सास बोलीं.

‘‘मम्मीजी, आप बारबार बच्चा लेने की बात क्यों करती हैं. बच्चा मेरा है, मैं उस की बेहतर परवरिश कर सकता हूं.’’

‘‘किस के भरोसे?’’

‘‘अभी तो आशा दीदी हैं, बाद का बाद में देखा जाएगा.’’

‘‘आशा दीदी क्या पालेंगी? बांझ को बच्चा पालने का क्या अनुभव?’’ प्रशांत की सास मुंह बना कर बोलीं.

प्रशांत चाहता तो उन्हें धक्के मार कर निकाल सकता था पर चुप रहा. अब हर दूसरे दिन कभी रवि तो कभी रामानंद का फोन बच्चे के हालचाल के लिए आता. फोन पर अकसर वे बच्चे की आड़ में अनापशनाप बकते. मसलन, ‘कहां थी अब तक, कब से फोन लगा रहा हूं. बच्चा नहीं संभलता तो हमें दे दीजिए,’ रवि तीखे स्वर में आशा से कहता. आशा लाख कहती कि उस ने फोन उठाने में देरी नहीं की, फिर भी रवि उसे अनापशनाप बोलता रहता. उस की हरकतों से आजिज आ कर प्रशांत ने वकील से सलाह ली.

‘‘देखिए, जब तक आप की शादी नहीं हो जाती तब तक बच्चे पर हक नानानानी का ही बनता है. आप के मांबाप हैं नहीं,’’ वकील ने कानूनी पक्ष सामने रखा.

‘‘तो क्या किया जाए?’’

‘‘अतिशीघ्र शादी. तब तक उन से कोई बैर मोल मत लीजिए. जितनी सहूलियत से बोलबतिया सकते हैं बतियाइए वरना…’’

‘‘वरना क्या?’’

‘‘कानूनन वे कुछ भी कर सकते हैं. यहां तक कि बच्चा भी ले सकते हैं. जब तक कि आप शादी नहीं कर लेते हैं.’’

प्रशांत को सारा माजरा अब समझ में आया कि वे लोग क्यों इतने ताव से बातें करते हैं. जयश्री के मरने के 1 महीने के अंदर ही जब उन सब ने बच्चा उठाने की नीयत से उस के घर पर धावा बोला था तब भी इसी कानून का सुरक्षा कवच उन के पास था. वह तो महल्ले वालों के भय से वे अपने मिशन में कामयाब न हो सके वरना…

उस रोज के एक हफ्ते बाद सबकुछ शांत था. प्रशांत के लिए जोरशोर से लड़की देखी जाने लगी. विवाह की बात थी. हड़बड़ी दिखाना, वह भी 6 महीने के 1 बच्चे की परवरिश के लिए किसी को भी ब्याह कर के लाना उचित न था. प्रशांत खूब सोचसमझ कर किसी लड़की से शादी करना चाहता था ताकि बच्चे को ले कर कोई टकराव की स्थिति न बने. इधर, रामानंद ने जो सोचा था वह न हो पाने के कारण बेचैन वे थे.

वे चाहते थे कि किसी तरह बच्चा उन के पास आ जाए ताकि प्रशांत को वे उंगलियों पर नचा सकें. उंगलियों पर नचाने का भी उन का अपना मकसद था. जब तक जयश्री जिंदा थी, अपनी कमाई का ज्यादातर हिस्सा मायके पर खर्च करती थी. अब एकाएक वह चली गई तो वह स्रोत बंद हो गया. लालची किस्म के रामानंद को यह बात सीने पर नश्तर की तरह चुभती. वे बच्चे के बहाने प्रशांत से और भी कुछ ऐंठना चाहते थे, जैसे पीएफ व बीमे के रुपए जिन्हें वे अपनी बेटी का मानते थे.

प्रशांत उन की बदनीयती से कुछकुछ वाकिफ हो चुका था. जयश्री के मरने के बाद जब प्रशांत उस के औफिस बकाया पीएफ व बीमे के लिए गया तो पता चला कि 2 लाख रुपए का उस पर कर्जा है जो उस के वेतन से कटता है.

अब सरकार तो छोड़ेगी नहीं, जो भी फंड जयश्री के नाम होगा उसी से भरपाई करेगी. उसी समय प्रशांत को भान हो गया था कि जयश्री के मांबाप किस प्रवृत्ति के हैं व उस से क्या चाहते हैं. बच्चे से प्रेम महज बहाना था. जिसे अपनी बेटी से प्रेम नहीं वह भला अपनी बेटी के पुत्र से स्नेह क्यों रखने लगा?

एक रोज रवि सपत्नी आया, ‘‘पापा ने राजन को देखने के लिए लखनऊ बुलाया है.’’

‘‘इतने छोटे से बच्चे को कौन ले जाएगा? वे खुद नहीं आ सकते?’’ प्रशांत बोला.

‘‘वे बीमार हैं,’’ रवि का जवाब था.

‘‘ठीक हो जाएं तब आ कर देख जाएं.’’

‘‘नहीं, उन्होंने अभी देखने की इच्छा जाहिर की है.’’

‘‘यह कैसे संभव है?’’ प्रशांत लाचार स्वर में बोला.

‘‘मैं ले जाऊंगा,’’ रवि का यह कथन प्रशांत को अच्छा न लगा.

‘‘यह असंभव है.’’

‘‘कुछ भी असंभव नहीं. आप राजन को मुझे दे दीजिए. मैं सकुशल उसे पापा से मिलवा कर आप के पास पहुंचा दूंगा.’’

प्रशांत कुछ देर शांत था. फिर एकाएक उबल पड़ा, ‘‘आप लोग झूठ बोल रहे हैं. किसी को राजन से प्रेम नहीं है. साफसाफ बताइए, आप लोग चाहते क्या हैं?’’

रवि के चेहरे पर एक कुटिल मुसकान तैर गई. वह धीरे से बोला, ‘‘दीदी के पीएफ और बीमे के रुपए.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘क्योंकि वे मेरी बहन की कमाई के थे.’’

‘‘वह मेरी कुछ नहीं थी?’’

‘‘तो ठीक है, राजन को हमें दे दीजिए.’’

प्रशांत की आंखें भर आईं. ‘‘क्या रुपयापैसा खून के रिश्ते से ज्यादा अहमियत रखने लगे हैं? क्या रिश्तेनाते, संस्कार गौण हो गए हैं?’’ किसी तरह उस ने अपने जज्बातों पर नियंत्रण रखा. 5 लाख रुपए बीमे की रकम व 3 लाख रुपए का पीएफ. यही कुल जमापूंजी जयश्री की थी. गनीमत थी कि रामानंद ने नवनिर्मित मकान में हिस्सेदारी का सवाल नहीं खड़ा किया.

‘‘2 लाख रुपए उस ने लोन लिए थे,’’ प्रशांत ने कहा.

‘‘लोन?’’ रवि चिहुंका.

‘‘चिहुंकने की कोई जरूरत नहीं. आप अच्छी तरह जानते हैं कि वे लोन के रुपए किस के काम आए,’’ प्रशांत के कथन पर वह बगलें झांकने लगा, फिर बोला, ‘‘गहने?’’

‘‘वे सब आप के पास हैं.’’

‘‘फिर भी कुछ तो होंगे ही?’’

प्रशांत ने जयश्री के कान के टौप्स, चूड़ी, एक सिकड़ी ला कर दे दी जो जयश्री के बदन पर मरते समय थे. 8 लाख रुपए का चैक काट कर प्रशांत ने अपने बेटे का सौदा कर लिया. उस रोज के बाद रामानंद ने भूले से भी कभी अपने नाती राजन का हाल नहीं लिया. Family Story In Hindi 

Family Story : मृत सविता की हमशक्‍ल कौन थी

Family Story :  बाजार के बीचोबीच स्थित रामलीला मैदान में दोस्तों के साथ रामलीला देख रहे दिनेश पटेल ने कहा, ‘‘भाइयो, मैं तो अब जा रहा हूं. मैं ट्यूबवेल चला कर आया हूं. मेरा खेत भर गया होगा. इसलिए ट्यूबवेल बंद करना होगा, वरना बगल वाले खेत में पानी चला गया तो काफी नुकसान हो जाएगा.’’

‘‘थोड़ी देर और रुक न यार, रामलीला खत्म होने वाली है. हम सब साथ चलेंगे. तुम्हें तुम्हारे खेतों पर छोड़ कर हम सब गांव चले जाएंगे.’’ दिनेश के बगल में बैठे उस के दोस्त कान्हा ने उसे रोकने के लिए कहा, ‘‘अब थोड़ी ही रामलीला बाकी है. पूरी हो जाने दो.’’

दिनेश गुजरात के बड़ौदा शहर से करीब 15-16 किलोमीटर दूर स्थित मंजूसर कस्बे में रहता था. मंजूसर कभी शामली तहसील जाने वाली सड़क किनारे बसा एक गांव था. लेकिन जब गुजरात सरकार ने यहां जीआईडीसी (गुजरात इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट कारपोरेशन) बना दिया तो यहां छोटीबड़ी तमाम इंडस्ट्रीज लग गईं, जिस की वजह से मंजूसर गांव एक कस्बा बन गया.

दिनेश की जमीन सड़क से दूर थी, जिस पर वह खेती करता था. सिंचाई के लिए उस ने अपना ट्यूबवेल भी लगवा रखा था. बगल वाले खेत में पानी चला जाता तो उस का काफी नुकसान हो जाता, इसलिए वह कान्हा के रोकने पर भी वह नहीं रुका. एक हाथ में टौर्च और दूसरे हाथ में डंडा ले कर वह रामलीला से खेतों की ओर चल पड़ा.

उस समय रात के लगभग डेढ़ बज रहे थे. जिस रास्ते से वह जा रहा था, उस के दोनों ओर ऊंचेऊंचे सरपत खड़े थे, जिन में झींगुर अपनी पूरी ताकत से अपना राग अलाप रहे थे. कोई अगर पीछे से सिर में टपली मार कर चला जाए, तब भी पहचान में न आए उस समय इस तरह का अंधेरा था. उस सुनसान रास्ते पर दिनेश अपनी धुन में चला जा रहा था.

मुख्य रास्ते से जैसे ही वह अपने खेत के रास्ते की ओर मुड़ा, अंधेरे में भी उसे कुछ ऐसा दिखाई दिया, जिसे देख कर वह चौंक उठा. दिनेश को लगा कि रास्ते में कोई जानवर लेटा है. उस ने हाथ में ली लकड़ी को मजबूती से पकड़ कर दूसरे हाथ में ली टौर्च जलाई तो उस ने जो दृश्य देखा, उस के छक्के छूट गए.

उसे देखते ही वह वापस रामलीला मैदान की ओर भागा. जितने समय में वह खेत के रास्ते तक पहुंचा था, उस के एक चौथाई समय में ही वह रामलीला देख रहे दोस्तों के पास पहुंच गया था. लेकिन तब तक रामलीला खत्म हो चुकी थी. पर अभी उस के दोस्त कान्हा, करसन, रफीक और महबूब रामलीला मैदान में ही बैठे थे.

दिनेश को इस तरह भाग कर आते देख कर सभी हैरानी से उठ खड़े हुए. कान्हा ने पूछा, ‘‘क्या हुआ दिनेश, तू इतनी जल्दी क्यों वापस आ गया? तू तो बहुत डरा हुआ लग रहा है?’’

‘‘डरने की ही बात है,’’ डरे हुए दिनेश ने हांफते हुए कहा,‘‘जल्दी चलो, मेरे खेत वाले रास्ते में एक औरत की लाश पड़ी है. मैं ने अपनी आंखों से देखी है, उस के आसपास सियार घूम रहे हैं.’’

‘‘तेरा दिमाग तो ठीक है, तू ये क्या बक रहा है? किस की लाश हो सकती है?’’ करसन ने हैरानी जताते हुए कहा.

‘‘करसन भाई, मुझे क्या पता वह किस की लाश है,’’ हांफते हुए दिनेश ने कहा.

कान्हा ने जल्दी से अपनी बुलेट स्टार्ट की तो अन्य दोस्तों ने भी अपनीअपनी बाइकें स्टार्ट कर लीं. दिनेश कान्हा के पीछे उस की बुलेट पर बैठ गया तो सभी दिनेश के खेत की ओर चल पड़े. दिनेश के खेत के रास्ते पर जहां लाश पड़ी थी, वहां पहुंचते ही दिनेश ने चिल्ला कर बुलेट रुकवाते हुए कहा, ‘‘रुकोरुको यहीं वह लाश पड़ी है.’’

सभी ने अपनीअपनी मोटरसाइकिलें  मुख्य रास्ते पर खड़ी कर दीं और उस ओर चल पड़े, जहां दिनेश ने लाश पड़ी होने की बात कही थी. जहां लाश पड़ी थी, वहां पहुंच कर दिनेश ने टौर्च जलाई तो वहां लाश नहीं थी. लाश गायब थी. लाश न देख कर दिनेश हतप्रभ रह गया. हैरान होते हुए उस ने कहा, ‘‘अरे यहीं तो लाश पड़ी थी. इतनी देर में कहां चली गई?’’

‘‘अरे यार दिनेश, मैं तो तुम्हें बहुत बहादुर समझता था, पर तुम तो बहुत डरपोक निकले. पता नहीं क्या देख लिया कि तुम्हें लगा लाश पड़ी है. लगता है, जागते में सपना देखा है. यहां कहां है लाश?’’ कान्हा ने कहा.

कान्हा की बात खत्म होते ही करसन ने कहा, ‘‘भले आदमी तुम्हें वहम हुआ है. यहां कहां है लाश? लाश होती तो इतनी देर में कहां चली जाती. सियार तो उठा कर ले नहीं जा सकता. घसीटने का भी यहां कोई निशान नहीं है.’’

दिनेश सोचने लगा कि कुछ तो गड़बड़ हुई है. पर अब उस के पास ऐसा कोई सबूत नहीं है था कि वह दोस्तों को विश्वास दिला देता कि उस ने जो देखा था, वह सच था.

दिनेश यही सब सोच रहा था कि कान्हा ने बुलेट स्टार्ट की तो दिनेश उस के पीछे बैठ गया. बाकी सब ने भी अपनीअपनी बाइकें स्टार्ट कर लीं. सब के सब दिनेश के खेत पर जा पहुंचे. थोड़ी देर बातचीत कर के सभी अपनेअपने घर चले गए.

दिनेश ट्यूबवेल पर पड़ी चारपाई पर लेट गया. रात का चौथा पहर हो चुका था. दिनेश की आंखों में नींद का नामोनिशान नहीं था. बारबार उस की आंखों के सामने उस लाश का दृश्य आजा रहा था. इस बीच कब दिनेश की आंख लग गई, उसे पता नहीं चला.

सुबह 10 बजे मंजूसर बसअड्डे पर स्थित केतन की चाय की दुकान पर कान्हा, करसन, महबूब और अन्य दोस्त इकट्ठा हुए तो रात की बात याद कर के सब दिनेश की हंसी उड़ाने लगे. उसी बीच रफीक ने आ कर कहा, ‘‘अरे यार कान्हा, अर्जुन काका के यहां क्या हुआ है, जो तमाम लोग इकट्ठा हैं?’’

कान्हा अर्जुन के घर की ओर चला तो बाकी के दोस्त भी उस के पीछेपीछे चल पड़े. कुछ देर में यह टोली अर्जुन के घर पहुंच गई. गांव के तमाम लोग अर्जुन के घर के सामने इकट्ठा थे.

उन के बीच अर्जुन मुंह लटकाए सिर पर हाथ रखे बैठा था. पहुंचते ही कान्हा ने सीधे पूछा, ‘‘क्या हुआ अर्जुन काका? इस तरह मुंह लटका कर क्यों बैठे हो?’’

‘‘अरे, हमारे मोहन की बहू रात को रामलीला देखने गई थी. अभी तक लौट कर नहीं आई है. उस का मोबाइल भी बंद आ रहा है,’’ अर्जुन ने बताया.

कान्हा सोच में पड़ गया. उसे तुरंत पिछली रात की बात याद आ गई. उस के मन में सीधा सवाल उठा कि कहीं दिनेश की बात सच तो नहीं थी?

थोड़ी ही देर में यह खबर एकदूसरे के मुंह से होते हुए पूरे कस्बे में फैल गई.

अर्जुन से मामला जान कर कान्हा अपने दोस्तों के साथ सीधे दिनेश के खेत पर पहुंचा. दिनेश अभी भी खेत पर ही था. उस के पास पहुंच कर कान्हा ने कहा, ‘‘यार दिनेश, रात वाली बात पर अब मुझे विश्वास हो रहा है. तू जो कह रहा था, लगता है वह सच था.’’

‘‘मुझे लगता है, रात को किसी ने अर्जुन काका की विधवा बहू सविता की इज्जत लूट कर उसे मार डाला है.’’ अंदाजा लगाते हुए कान्हा के साथ आए करसन ने कहा, ‘‘एक काम करते हैं, चलो यह बात अर्जुन काका को बताते हैं.’’

दिनेश पटेल ने करसन की हां में हां मिलाई तो कान्हा ने उन सब को चेताते हुए कहा, ‘‘भई देख लेना दिनेश, कहीं यह बवाल अपने माथे ही न पड़ जाए. अर्जुन काका बहुत काईयां आदमी है. बिना कुछ समझेबूझे हम लोगों के सिर ही न आरोप मढ़ दे.’’

‘‘नहीं यार कान्हा, हम लोगों के अलावा और कोई यह बात जानता भी तो नहीं है. इसलिए यह बात हमें अर्जुन काका को जरूर बतानी चाहिए.’’ दिनेश ने दृढ़ता के साथ अपना निर्णय दोस्तों को सुना दिया.

वहां से सभी सीधे अर्जुन के घर पहुंचे. उस समय अर्जुन घर में अकेला ही था. तभी दिनेश ने रामलीला देख कर लौटते समय अपने खेत वाले रास्ते में जो लाश देखी थी, पूरी बात अर्जुन को बता दी. दिनेश की बात सुन कर अर्जुन के तो जैसे होश ही उड़ गए. उस का शरीर ढीला पड़ गया. उस के चेहरे पर चिंता की रेखाएं साफ दिखाई देने लगीं.

अर्जुन को इस तरह परेशान देख कर उसे आश्वस्त कर के सलाह देते हुए दिनेश ने कहा, ‘‘काका मेरी मानो तो अभी भादरवा थाने जा कर रात की पूरी बात बता कर सविता के गायब होने की रिपोर्ट दर्ज करा दो.’’

दिनेश और उस के दोस्तों के सामने ही अर्जुन ने तुरंत कपड़े बदले और गांव के प्रधान को साथ ले कर सीधे थाना भादरवा पहुंच गया. थानाप्रभारी भोपाल सिंह जडेजा को पूरी बात बता कर उस ने अपनी बहू सविता के गायब होने की रिपोर्ट दर्ज करा दी. रिपोर्ट दर्ज होने के बाद जब थानाप्रभारी ने उस से पूछा कि उसे किसी पर शक है तो उस ने कहा, ‘‘जी साहब…’’

‘‘किस पर शक है?’’ थानाप्रभारी ने पूछा.

‘‘मुझे अपने ही गांव के दिनेश पटेल पर शक है.’’ अर्जुन ने पूरे आत्मविश्वास के साथ दिनेश का नाम ले लिया था.

अर्जुन के मुंह से दिनेश का नाम सुन कर उस के साथ आया ग्रामप्रधान अवाक रह गया. पर वह कुछ बोल नहीं सका. क्योंकि वह जानता था कि इस समय थानाप्रभारी के सामने उस का कुछ बोलना ठीक भी नहीं है.

थाने के बाहर आते ही ग्रामप्रधान ने दिनेश का बचाव करते हुए कहा, ‘‘क्यों अर्जुन, तुम ने दिनेश का नाम क्यों लिया? वह लड़का तो इस तरह का नहीं है.’’

‘‘नहीं… नहीं प्रधानजी, मैं पागल थोड़े ही हूं जो किसी को गलत फंसा दूंगा. मोहन के मरने के बाद सविता जब से विधवा हुई है, जब देखो तब दिनेश उस से मिलने आता रहता था, उस के हिस्से की खेतों को जोतवाता था, कहीं बाहर जाना होता तो उसे साथ ले कर जाता था. पर बहू बेचारी भोलीभाली थी, आखिर उस के जाल में फंस ही गई. दिनेश ने उस के साथ मनमानी कर के कांटा निकाल फेंका. अब वह लाश देखने का नाटक कर रहा है.’’ अर्जुन ने दिनेश पर गंभीर आरोप लगाते हुए ग्रामप्रधान से कहा.

रात 9 बजे पुलिस दिनेश के घर पहुंची. पुलिस जीप के रुकते ही आसपास के लोग उत्सुकता से देखने लगे. एक पुलिस वाले ने जीप से उतर कर दिनेश को दरवाजे के बाहर से आवाज लगाई, ‘‘दिनेश… ओ दिनेश.’’

पुलिस वाले की आवाज सुन कर दिनेश बाहर आया. पुलिस वाले को देख कर बोला, ‘‘क्या बात है साहब?’’

‘‘चलो, जीप में बैठो.’’ पुलिस वाले ने रौब से कहा.

डरासहमा दिनेश चुपचाप जीप में बैठ गया. जीप वापस थाने के लिए चल पड़ी. थोड़ी ही देर में यह खबर पूरे गांव में फैल गई कि दिनेश को पुलिस थाने ले गई है.

मोहन और दिनेश पक्के दोस्त थे. एकदूसरे के बिना घड़ी भर नहीं रह सकते थे. मोहन की शादी को साल भर ही हुआ था कि एक दिन वह खेत में घास काट रहा था, तभी उसे जहरीले सांप ने काट लिया. तमाम कोशिशों के बावजूद उसे बचाया नहीं जा सका.

एक अच्छा दोस्त होने की वजह से मोहन के मरने के बाद दिनेश उस की पत्नी सविता की घर या खेतों के काम में मदद करने लगा.

दिनेश अकेला ही था. उस की पत्नी किसी बात से नाराज हो कर उसे पहले ही छोड़ कर मायके चली गई थी. सविता और दिनेश की निकटता देख कर गांव वाले तरहतरह की बातें करते थे.

सविता के ससुर अर्जुन को दिनेश का सविता के पास आनाजाना जरा भी पसंद नहीं था. इसलिए गांव वालों को यह मानने में जरा भी देर नहीं लगी थी कि सविता की हत्या के पीछे दिनेश का हाथ हो सकता है. इसलिए अर्जुन ने दिनेश के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करा कर उसे गिरफ्तार करा दिया था.

थाने ला कर दिनेश से पूछताछ शुरू हुई. थानाप्रभारी भोपाल सिंह ने उसे अपने पैरों के पास बैठा कर हाथ में बेंत ले कर पूछा, ‘‘तू ने उस औरत की हत्या क्यों की, उस की लाश कहां छिपाई?’’

‘‘साहब, आप चाहे जिस की कसम खिला लीजिए, मैं इस बारे में कुछ नहीं जानता.’’

‘‘तू  इस तरह नहीं मानेगा. अभी चार डंडे पिछवाड़े पर पड़ेंगे तो सब कुछ बक देगा.’’ थानाप्रभारी ने हाथ में लिया डंडा उस की आंखों के सामने घुमाते हुए कहा.

‘‘तेरे कहने का मतलब यह है कि तू ने सविता की लाश देखी नहीं है?’’

‘‘साहब, ऐसा मैं ने कब कहा है. पर रात को मैं ने जो लाश देखी थी, वह किस की थी, मुझे पता नहीं. मैं निर्दोष हूं साहब,’’ रुआंसे हो कर दिनेश ने दोनों हाथ जोड़ कर कहा.

अगले दिन थाना भादरवा पुलिस ने दिनेश को अदालत में पेश कर के पूछताछ के लिए 8 दिनों के पुलिस रिमांड पर ले लिया. दिनेश ने जहां लाश देखी थी, पुलिस दिनेश को ले जा कर लगातार 3 दिनों तक लाश ढूंढती रही. पुलिस ने आसपास का एकएक कोना छान मारा, पर लाश का कुछ पता नहीं चला.

चौथे दिन बगल के गांव मालपुर के प्रधान ने थाना भादरवा पुलिस को फोन कर के सूचना दी कि गांव के बाहर स्थित एक कुएं में किसी औरत की लाश पड़ी है. पुलिस तुरंत उस कुएं पर पहुंची और गांव वालों की मदद से लाश बाहर निकलवाई. लाश अब तक काफी हद तक सड़ चुकी थी. उस से बहुत तेज दुर्गंध आ रही थी.

लाश का सिर इस तरह कुचल दिया गया था कि उस की शिनाख्त नहीं की जा सकती थी. चूंकि 4 दिन पहले ही सविता के गायब होने की  रिपोर्ट दर्ज हुई थी, इसलिए पुलिस को पूरा विश्वास था कि यह लाश उसी की होगी. इसलिए पुलिस ने लाश की शिनाख्त के लिए अर्जुन को बुलवा लिया.

लाश देखते ही अर्जुन सिसकसिसक कर रोने लगा. रोते हुए वह कह रहा था, ‘‘बहू, तुम ने भी मोहन की राह पकड़ ली. मुझे अकेला छोड़ कर चली गई. अब इस दुनिया में मेरा कोई नहीं रहा.’’

थानाप्रभारी ने जोर से रो रहे अर्जुन को सांत्वना दी, ‘‘काका धीरज रखो, अपराधी हमारे कब्जे में है. हम आप को न्याय दिला कर रहेंगे.’’

‘‘साहब, उस राक्षस को छोड़ना मत. उस ने मेरे बुढ़ापे का सहारा छीन लिया.’’ रोते हुए अर्जुन ने कहा.

गांव वाले अर्जुन को संभाल कर वापस ले आए. 8 दिनों का रिमांड समाप्त होने पर पुलिस ने दिनेश को दोबारा कोर्ट में पेश किया, जहां से उसे जेल भेज दिया गया. दिनेश ने सविता के साथ दुष्कर्म करने और उस की हत्या का अपराध स्वीकार कर लिया था.

उस के दोस्तों ने उस की जमानत के लिए काफी प्रयास किया, पर उस पर दुष्कर्म के साथसाथ हत्या का भी आरोप था, इसलिए निचली अदालत से उस की जमानत नहीं हो सकी.

यह मामला काफी उछला था, इसलिए सरकार ने इस मामले की सुनवाई लगातार करने के आदेश दे दिए थे. लगातार सुनवाई होने की वजह से 3 महीने में ही दिनेश को आजीवन कारावास की सजा सुना दी गई थी.

दिनेश के अपराध स्वीकार करने के बाद उस की गांव में थूथू हो रही थी. लोगों का कहना था कि देखने में वह कितना भोला और भला आदमी लगता था. पर निकला कितना नालायक.

भाई जैसे दोस्त की पत्नी की इज्जत लूट कर उसे मौत के घाट उतार दिया. उस की पत्नी को लगता है पहले ही पता चल गया था कि यह आदमी ठीक नहीं है, इसीलिए वह छोड़ कर चली गई.

गांव में लगभग रोज ही इस बात की चर्चा होती थी. पर कान्हा, करसन और उस के अन्य दोस्तों के गले यह बात नहीं उतर रही थी. पर दिनेश ने थाने में ही नहीं, अदालत में भी अपना अपराध स्वीकार कर लिया था, इसलिए कान्हा के मन में थोड़ा शक जरूर हो रहा था.

सजा सुनाए जाने के बाद दिनेश को अहमदाबाद की साबरमती जेल भेज दिया गया था. एक दिन केतन की दुकान पर चाय पीते हुए करसन ने अपने दिल की कही, ‘‘यार कान्हा, एक बार हमें अहमदाबाद चल कर दिनेश से मिलना चाहिए. मेरी आत्मा कहती है कि दिनेश इस तरह का घटिया काम नहीं कर सकता.’’

‘‘छोड़ न यार करसन, उस की कोई बात मुझ से मत कर. अब मैं उस कलमुंहे का मुंह भी नहीं देखना चाहता. अब तो उसे दोस्त कहने में भी शरम आती है.’’ कान्हा ने दुखी मन से कहा.

‘‘ऐसा मत कह यार कान्हा. बुरा ही सही, पर दिनेश हमारा बहुत अच्छा दोस्त है. दोस्ती की खातिर बस एक बार चल कर मिल लेते हैं. फिर दोबारा उस से मिलने के लिए कभी नहीं कहूंगा. एक बार मिलने से मेरी आत्मा को थोड़ा संतोष मिल जाएगा.’’ करसन ने कान्हा से दिनेश से मिलने की सिफारिश करते हुए कहा.

‘‘तू इतना कह रहा है तो चलो एक बार मिल आते हैं. पर इस मिलने से कोई फायदा नहीं है. ऐसे आदमी से क्या मिलना, जो इस तरह का घिनौना काम करे. मेरे खयाल से उस से मिल कर तकलीफ ही होगी.’’ कान्हा ने कहा.

‘‘कुछ भी हो, मैं एक बार उस से मिलना चाहता हूं.’’ करसन ने कहा.

अगले दिन दोनों दोस्त दिनेश से मिलने के लिए अहमदाबाद जा पहुंचे. जेल में मिलने की जो प्रकिया होती है, उसे पूरी कर दोनों दिनेश से मिलने जेल के अंदर पहुंचे.

अपने जिगरी दोस्त की हालत देख कर कान्हा और करसन की आंखों में आंसू आ गए. दाहिने हाथ की हथेली से आंसू साफ करते हुए भर्राई आवाज में कान्हा ने कहा, ‘‘यह सब क्या है दिनेश?’’

‘‘भाई कान्हा, मैं एकदम निर्दोष हूं. मैं ने कुछ नहीं किया. मैं कसम खा कर कह रहा हूं कि इस बारे में मैं कुछ नहीं जानता.’’ यह कहतेकहते दिनेश फफक कर रो पड़ा.

 

‘‘जब तू ने कुछ किया ही नहीं था तो फिर थाने और अदालत में यह क्यों कहा कि सविता के साथ तू ने ही दुष्कर्म कर के उस की हत्या की है?’’ कान्हा ने प्रश्न किया.

‘‘पुलिस ने मुझे मारमार कर कहलवाया है कि मैं ने यह अपराध किया है. थानाप्रभारी ने कहा कि अगर मैं ने उस की बात नहीं मानी तो वह मेरे सारे दोस्तों को पकड़ कर जेल भिजवा देगा. मजबूरन मुझे वह सब कहना पड़ा, जो पुलिस ने कहा. क्योंकि मैं तो फंसा ही था. मै नहीं चाहता था कि मेरे दोस्त भी फंसें. तुम्हीं बताओ कि ऐसे में मैं क्या करता. पुलिस की बात मानने के अलावा मेरे पास दूसरा कोई रास्ता नहीं था.’’

दिनेश कुछ और कहता, जेल के सिपाही ने आ कर कहा, ‘‘चलिए भाई, आप लोगों का मिलने का समय खत्म हो चुका है.’’

‘‘दोस्त, तू धीरज रख, अगर तू ने यह अपराध नहीं किया है तो मैं असलियत का पता लगा कर रहूंगा.’’ चलतेचलते कान्हा ने कहा.

दिनेश दोनों मित्रों को तब तक ताकता रहा, जब तक वे आंखों से ओझल नहीं हो गए. गांव में दिनेश के निर्दोष होने की बात करने का अब कोई फायदा नहीं था.

इसलिए दोनों दोस्त दिनेश के निर्दोष होने के सबूत बड़ी ही गोपनीयता से खोजने शुरू कर दिए. पर कोई कड़ी हाथ नहीं लग रही थी. इसी तरह धीरेधीरे 7 महीने का समय बीत गया.

दूसरी ओर अर्जुन ने बेटे और पुत्रवधू की मौत के बाद गांव वालों से कहा था कि अब उस का गांव में है ही कौन, इसलिए वह  दुकानें, मकान और जमीन बेच कर हरिद्वार जा कर किसी आश्रम को सारा पैसा दान कर देगा और वहीं जब तक जीवित रहेगा, भगवान के भजन करेगा.

गांव में ऐसे तमाम लोग थे, जो इस तरह के मौके की तलाश में रहते थे. इसलिए अर्जुन की दुकानें, मकान और जमीनें अच्छे दामों में बिक गईं. करोड़ों रुपए बैंक में जमा कर अर्जुन एक दिन हरिद्वार जाने की बात कह कर हमेशा के लिए गांव छोड़ कर चला गया.

बहुत हाथपैर मारने के बाद भी कान्हा और करसन अपने दोस्त दिनेश को निर्दोष साबित करने का सबूत नहीं खोज सके. धीरेधीरे पूरा एक साल बीत गया.

बरसात खत्म होते ही खेती के सारे काम निपटा कर करसन के बड़े भाई रामजी अपने 2 दोस्तों के साथ मोटरसाइकिलों से द्वारकाजी के दर्शन के लिए निकले. रात होने तक ये सभी खंभाडि़या पहुंचे.

आराम करने के लिए ये लोग एक गांव के पंचायत घर में रुके. गांव वालों ने पंचायत घर में एक कमरा अतिथियों के लिए बनवा रखा था. क्योंकि द्वारकाजी जाने वाले तीर्थयात्री अकसर उस गांव में रात में आराम करने के लिए ठहरते थे.

रामजी भी दोस्तों के साथ पंचायत घर के उसी कमरे में ठहरा था. अगले दिन सुबह उठ कर हलके उजाले में रामजी पंचायत घर के बरामदे में बैठे कुल्लादातून कर रहे थे, तभी अचानक उन की नजर सिर पर पानी का घड़ा रख कर ले जाती एक औरत पर पड़ी.

उन के मन में तुरंत एक सवाल उठा, ‘लगता है इस औरत को पहले कहीं देखा है.’ उन्होंने उसे दोबारा देखने के लिए नजर उठाई तो वह दूर निकल गई थी. अभी वह फिर पानी भरने आएगी तो उसे पहचान लूंगा, यह सोच कर रामजी वहीं बैठे रहे.

थोड़ी देर बाद वह औरत घड़ा ले कर फिर पानी के लिए आई तो रामजी ने उसे पहचान लिया. उसे पहचान कर उन के पैरों तले से जमीन खिसक गई.

उन्होंने खुद से ही कहा, ‘अरे, यह तो मोहन की पत्नी सविता है. पर सविता यहां कहां से आएगी? वह तो मर चुकी है. दिनेश ने उस की हत्या की बात खुद स्वीकार की है. उस की लाश भी बगल के गांव के कुएं से बरामद हुई थी.’ वह सोच में पड़ गया कि कहीं वह जागते में सपना तो नहीं देख रहा है. उस के मन में भूकंप सा आ गया. शंकाकुशंका के बादल उस के मन में घुमड़ने लगे.

द्वारिकाधीश के दर्शन कर के वह गांव लौटे तो उन्होंने यह बात अपने छोटे भाई करसन को बताई तो करसन ने अपने दोस्त कान्हा को. वे दोनों भी यह जान कर हैरान थे. अगर सविता जीवित है तो फिर वह लाश किस की थी? यह एक बड़ा सवाल उन दोनों के सामने आ खड़ा हुआ था.

करसन और कान्हा अगले ही दिन उस गांव पहुंच गए, जिस गांव में रामजी ने सविता को देखने की बात बताई थी. उस गांव में जा कर कान्हा और करसन ने सारी सच्चाई का पता लगा लिया. अर्जुन और सविता उस गांव में नाम बदल कर पतिपत्नी बन कर रह रहे थे.

अर्जुन ने पूरे गांव को बेवकूफ बना दिया था. सविता की हत्या का कौतुक रच कर दिनेश को तो फंसा ही दिया, साथ ही बड़ी होशियारी से पूरे गांव की सहानुभूति भी पा ली थी. बेटी समान पुत्रवधू से अवैध संबंध बना कर अधेड़ अर्जुन, सोच भी नहीं सकता था उस से भी अधिक होशियार निकला था.

करसन और कान्हा अगले दिन गांव लौट आए. गांव में किसी को कुछ बताए बगैर वे सीधे थाना भादरवा पहुंचे और नए आए थानाप्रभारी फौजदार सिंह से मिले. फौजदार सिंह ईमानदार और सख्त पुलिस अधिकारी थे. वह अपने कर्तव्य के प्रति काफी सजग माने जाते थे. शिकायतकर्ता की बात ध्यान से सुन कर अपराधी को कानून का भान कराना उन्हें अच्छी तरह आता था.

कान्हा और करसन ने जब सारी बात बता कर फौजदार सिंह को अर्जुन और सविता द्वारा किए गए कारनामे के बारे में बताया तो उन का कारनामा सुन कर फौजदार सिंह भी हैरान रह गए.

उन्होंने तुरंत दोनों से एक एप्लीकेशन ले कर अर्जुन और सविता के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया. उस के बाद अपनी एक टीम बना कर कान्हा तथा करसन को साथ ले कर अर्जुन और सविता की गिरफ्तारी के लिए चल पड़े.

खंभाडि़या पुलिस की मदद से थानाप्रभारी फौजदार सिंह ने गांव में छिप कर रह रहे अर्जुन और सविता को गिरफ्तार कर लिया. दोनों को गिरफ्तार कर थाना भादरवा लाया गया. थाने ला कर दोनों से पूछताछ की गई तो बिना किसी हीलाहवाली के दोनों ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया.

उस के बाद उन्होंने इस अपराध के पीछे की जो कहानी सुनाई, उसे सुन कर सभी दंग रह गए. अवैध संबंध की इस कहानी ने रिश्तों को तो कलंकित किया ही, एक निर्दोष और रिश्तों के प्रति समर्पित आदमी की जिंदगी भी बरबाद कर दी थी.

अर्जुन रबारी मंजूसर गांव का बहुत पुराना निवासी था. उस के पूर्वजों ने दूध बेच कर काफी पैसा कमाया था. अपनी कमाई का सही उपयोग करते हुए उन्होंने गांव में काफी जमीनें खरीद ली थीं. उस की कुछ जमीन जीआईडीसी में चली गई थी, जिस का उसे अच्छाखासा मुआवजा मिला था.

मुआवजे की रकम से अपनी सड़क के किनारे वाली जमीन पर उस ने दुकानें और कमरे बनवा कर किराए पर उठा दिए थे. इस तरह किराए के रूप में उसे एक मोटी रकम मिल रही थी. बाकी बची जमीन पर वह खेती करवा कर आराम की जिंदगी जी रहा था.

उस का एक ही बेटा था मोहन. अचानक 2 साल पहले उस की पत्नी की मौत हो गई तो बापबेटे ही बचे. गुजरात में जबारियों में देर से शादी करने का रिवाज है. पर अर्जुन के घर रोटी बनाने वाला कोई नहीं था, इसलिए पत्नी की मौत के बाद उस ने बेटे की शादी जल्दी ही कर डाली.

पुत्रवधू के आने से दोनों को दो जून की रोटी आराम से मिलने लगी. बापबेटे की जिंदगी आराम से कट रही थी. मोहन ने अपनी जिम्मेदारी संभाल ली थी. उस ने कई गाएं और भैंसें पाल रखी थीं, जिन का दूध बेच कर वह अच्छा पैसा कमा रहा था.

मकानों और दुकानों का किराया तो आता ही था, खेती से भी ठीकठाक आमदनी हो जाती थी. उस की पत्नी सविता भी उस के हर काम में उस के साथ रह कर उस की मदद करती थी.

मोहन का सब से अच्छा दोस्त था दिनेश. हालांकि दिनेश उस से 2-3 साल बड़ा था, पर दोनों में खूब पटती थी. उन की दोस्ती ऐसी थी कि ज्यादा देर तक दोनों एकदूसरे से अलग नहीं रह पाते थे. ज्यादा देर तक दोनों एकदूसरे के साथ रह सकें, इस के लिए दोनों ही खेती या घर के कामों में एकदूसरे की मदद भी करते या दोनों ही कोई भी काम एक साथ मिल कर करते.

इस से वे ज्यादा से ज्यादा देर साथ भी रह लेते और काम भी आसानी से निपट जाता. सिर्फ वे काम के ही साथी नहीं थे, दुखसुख में भी एकदूसरे का साथ देते थे.

दिनेश के पिता की बहुत पहले मौत हो गई थी. उस की शादी के साल भर बाद ही अचानक उस की मां की भी मौत हो गई थी. मां की मौत के बाद दिनेश और उस की पत्नी ही रह गए थे.

दिनेश यारों का यार था, इसलिए उस के मोहन के अलावा भी तमाम दोस्त थे. उन में कान्हा, करसन, रफीक और महबूब खास दोस्त थे. जबकि मोहन की दोस्ती सिर्फ दिनेश से ही थी. बाकी से उस की हायहैलो भले हो जाती थी, पर साथ उठनाबैठना कोई खास नहीं था.

सब कुछ बढि़या चल रहा था कि एक दिन अचानक मोहन को घास काटते समय जहरीले सांप ने काट लिया तो उस की मौत हो गई. मोहन की मौत के बाद सविता का तो संसार ही उजड़ गया था, अर्जुन का भी बुढ़ापे का सहारा छिन गया था.

मोहन की मौत का उतना ही दुख दिनेश को भी था, जितना सविता और अर्जुन को था. इसलिए उस की मौत के बाद भी दिनेश का मोहन के घर उसी तरह आनाजाना बना रहा.

पहले जिस तरह वह हर काम में मोहन की मदद करता था, उसी तरह उस की मौत के बाद सविता की मदद करता रहा. चूंकि अब सविता विधवा हो चुकी थी, दूसरे अभी वह एकदम जवान थी, इसलिए दिनेश का उस के घर आना, उस की मदद करना लोगों की आंखों में कांटे की तरह चुभ रहा था.

सविता के ससुर अर्जुन को भी यह जरा भी पसंद नहीं था. क्योंकि दिनेश की पत्नी उसे छोड़ कर चली गई थी. वह भी अकेला था.

सविता जवान भी थी और सुंदर भी. इसलिए गांव के हर लड़के की नजर उस पर थी. अर्जुन को पता था कि सविता अभी जवान है, इसलिए कभी भी उस का पैर फिसल सकता है.

दिनेश उस के साथ हमेशा लगा ही रहता था. हालांकि वह जानता था कि दिनेश इस तरह का आदमी नहीं है, पर किसी का क्या भरोसा कब मन बदल जाए. आग और फूस करीब रहेंगे तो कभी भी आग लग सकती है.

सविता अब करोड़ों की मालकिन थी. क्योंकि अर्जुन की सारी संपत्ति अब उसी की थी. अर्जुन नहीं चाहता था कि गांव का कोई शोहदा उस की पुत्रवधू से संबंध बना कर उस की दौलत पर उस की पुत्रवधू के साथ मौज करे. इस के लिए उस ने बिना किसी शरम संकोच के सीधे सविता से बात की.

अर्जुन ने स्पष्ट कहा कि अगर वह उस की बन कर रहेगी तो वह उसे रानी बना कर रखेगा. उस की सारी दौलत उसी की होगी.

दोनों को ही एकदूसरे की जरूरत थी. अर्जुन के पास देह के साथ दौलत भी थी, इसलिए सविता ने हामी भर दी थी. फिर क्या था, दोनों पतिपत्नी की तरह रहने लगे. इस का परिणाम यह निकला कि सविता गर्भवती हो गई. यह एक तरह का पाप ही था, जो सविता की कोख में आ गया था.

अगर यह पाप उजागर होता तो अर्जुन गांव में ही नहीं, पूरी बिरादरी में मुंह दिखाने लायक न रहता. दोनों का जीना हराम हो जाता. इसलिए उन्होंने गांव छोड़ कर कहीं ऐसी जगह जा

कर रहने का निर्णय लिया, जहां उन्हें कोई न जानता हो.

इस के लिए उन्होंने ऐसी योजना बनाई, जिस में गांव का कोई आदमी उन पर शक न कर सके. कभी कोई उन की तलाश भी न करे.

इस के लिए सविता ने दशहरा के दिन जब गांव के लोग रामलीला मैदान में रामलीला देखने में मग्न थे, तभी सविता ने गांव में कई दिनों से घूम रही एक पागल औरत की रात में सोते समय लोहे के भारी सरिए से सिर पर कई वार कर के हत्या कर दी. चूंकि उन की योजना में दिनेश को फंसाना भी शामिल था. इसलिए लाश का चेहरा एक पत्थर से कुचल कर उसे दिनेश के खेत की ओर जाने वाले रास्ते पर फेंक दिया.

बगल के खेत में दोनों छिप कर दिनेश के आने का इंतजार करने लगे. उन्हें दिनेश की हर गतिविधि का पता था ही, इसलिए वे उसी हिसाब से अपना सारा काम कर रहे थे. आधी रात के बाद जब दिनेश आया तो लाश देख कर वह दोस्तों को बुलाने उल्टे पैर भागा.

उसी बीच सविता और अर्जुन ने लाश उठाई और बगल के गांव मालपुर ले जा कर गांव के बाहर स्थित कुएं में डाल दी. सविता वहां से सीधे बड़ौदा जा कर वहां एक धर्मशाला में ठहर गई. वह तब तक उस धर्मशाला में छिपी रही, जब तक अर्जुन ने उस के रहने की ठीक से व्यवस्था नहीं कर दी.

खंभाडि़या के उस गांव में अर्जुन ने जमीन खरीद कर मकान बनवाया और गुजरबसर के लिए किराने की दुकान खोल ली. समय पर सविता ने एक बेटी को जन्म दिया. पर वह बच नहीं सकी. अर्जुन के पास पैसा था ही, उस ने खेती की कुछ जमीन भी खरीद ली थी. दोनों आराम से रह रहे थे, पर उन का अपराध छिप नहीं सका और वे पकड़े गए. इस के बाद जो हुआ, आप ऊपर पढ़ ही चुके हैं.

अपना कारनामा बताते हुए जहां सविता जोरजोर से रोने लगी थी, वहीं अर्जुन का सिर शरम और ग्लानि से झुक गया था. अर्जुन ने अपने अपराध को छिपाने का निशाना तो बहुत सही लगाया था, पर उस का निशाना चूक गया और वह जेल पहुंच गया.

पूछताछ के बाद थाना भादरवा पुलिस ने दोनों को अदालत में पेश कर उन के बयान कराए, जिस से आजीवन कारावास की सजा काट रहे निर्दोष दिनेश को जेल से रिहा कराया जा सके. थानाप्रभारी फौजदार सिंह ने दिनेश के निर्दोष होने के सारे सबूत पेश कर उसे जेल से रिहा कराया.

दिनेश की रिहाई के कागज ले कर आए  कान्हा और करसन के साथ थानाप्रभारी फौजदार सिंह भी अहमदाबाद की साबरमती जेल के गेट पर खड़े थे. दिनेश जैसे ही जेल से बाहर आया, दौड़ कर दोस्तों के गले लग गया. फौजदार सिंह को वे तीनों उस समय त्रिदेव लग रहे थे.

(कहानी सत्य घटना पर आधारित है. कथा में पात्रों के नाम बदले हुए हैं) Family Story

Romantic Story In Hindi : एक बेवफा थी

Romantic Story In Hindi : श्रेया से गौतम की मुलाकात सब से पहले कालेज में हुई थी. जिस दिन वह कालेज में दाखिला लेने गया था, उसी दिन वह भी दाखिला लेने आई थी.

वह जितनी सुंदर थी उस से कहीं अधिक स्मार्ट थी. पहली नजर में ही गौतम ने उसे अपना दिल दे दिया था.

गौतम टौपर था. इस के अलावा क्रिकेट भी अच्छा खेलता था. बड़ेबड़े क्लबों के साथ खेल चुका था. उस के व्यक्तित्व से कालेज की कई लड़कियां प्रभावित थीं. कुछ ने तो खुल कर मोहब्बत का इजहार तक कर दिया था.

उस ने किसी का भी प्यार स्वीकार नहीं किया था. करता भी कैसे? श्रेया जो उस के दिल में बसी हुई थी.

श्रेया भी उस से प्रभावित थी. सो, उस ने बगैर देर किए उस से ‘आई लव यू’ कह दिया.

वह कोलकाता के नामजद अमीर परिवार से थी. उस के पिता और भाई राजनीति में थे. उन के कई बिजनैस थे. दौलत की कोई कमी न थी.

गौतम के पिता पंसारी की दुकान चलाते थे. संपत्ति के नाम पर सिर्फ दुकान थी. जिस मकान में रहते थे, वह किराए का था. उन की एक बेटी भी थी. वह गौतम से छोटी थी.

अपनी हैसियत जानते हुए भी गौतम, श्रेया के साथ उस के ही रुपए पर उड़ान भरने लगा था. उस से विवाह करने का ख्वाब देखने लगा था.

कालांतर में दोनों ने आधुनिक रीति से तनमन से प्रेम प्रदर्शन किया. सैरसपाटे, मूवी, होटल कुछ भी उन से नहीं छूटा. मर्यादा की सारी सीमा बेहिचक लांघ गए थे.

2 वर्ष बीत गए तो गौतम ने महसूस किया कि श्रेया उस से दूर होती जा रही है. वह कालेज के ही दूसरे लड़के के साथ घूमने लगी थी. उसे बात करने का भी मौका नहीं देती थी.

बड़ी मुश्किल से एक दिन मौका मिला तो उस से कहा, ‘‘मुझे छोड़ कर गैरों के साथ क्यों घूमती हो? मुझ से शादी करने का इरादा नहीं है क्या?’’

श्रेया ने तपाक से जवाब दिया, ‘‘कभी कहा था कि तुम से शादी करूंगी?’’

वह तिलमिला गया. किसी तरह गुस्से को काबू में कर के बोला, ‘‘कहा तो नहीं था पर खुद सोचो कि हम दोनों में पतिपत्नी वाला रिश्ता बन चुका है तो शादी क्यों नहीं कर सकते हैं?’’

‘‘मैं ऐसा नहीं मानती कि किसी के साथ पतिपत्नी वाला रिश्ता बन जाए तो उसी से विवाह करना चाहिए.

‘‘मेरा मानना है कि संबंध किसी से भी बनाया जा सकता है, पर शादी अपने से बराबर वाले से ही करनी चाहिए. शादी में दोनों परिवारों के आर्थिक व सामाजिक रुतबे पर ध्यान देना अनिवार्य होता है.

‘‘तुम्हारे पास यह सब नहीं है. इसलिए शादी नहीं कर सकती. तुम्हारे लिए यही अच्छा होगा कि अब मेरा पीछा करना बंद कर दो, नहीं तो अंजाम बुरा होगा.’’

श्रेया की बात गौतम को शूल की तरह चुभी. लेकिन उस ने समझदारी से काम लेते हुए उसे समझने की कोशिश की पर वह नहीं मानी.

आखिरकार, उसे लगा कि श्रेया किसी के बहकावे में आ कर रिश्ता तोड़ना चाहती है. उस ने सोचा, ‘उस के घर वालों को सचाई बता दूंगा तो सब ठीक हो जाएगा. परिजनों के कहने पर उसे मुझसे विवाह करना ही होगा.’

एक दिन वह श्रेया के घर गया. उस के पिता व भाई को अपने और उस के बारे में सबकुछ बताया.

श्रेया अपने कमरे में थी. भाई ने बुलाया. वह आई. भाई ने गौतम की तरफ इंगित कर उस से पूछा, ‘‘इसे पहचानती हो?’’

श्रेया सबकुछ समझ गई. झट से अपने बचाव का रास्ता भी ढूंढ़ लिया. बगैर घबराए कहा, ‘‘यह मेरे कालेज में पढ़ता है. इसे मैं जरा भी पसंद नहीं करती. किंतु यह मेरे पीछे पड़ा रहता है. कहता है कि मुझ से शादी नहीं करोगी तो इस तरह बदनाम कर दूंगा कि मजबूर हो कर शादी करनी ही पड़ेगी.’’

वह कहता रहा कि श्रेया झठ बोल रही है परंतु उस के भाई और पिता ने एक न सुनी. नौकरों से उस की इतनी पिटाई कराई कि अधमरा हो गया. पैरों की हड्डियां टूट गईं.

किसी पर किसी तरह का इलजाम न आए, इसलिए गौतम को अस्पताल में दाखिल करा दिया गया.

थाने में श्रेया द्वारा यह रिपोर्ट लिखा दी गई, ‘घर में अकेली थी. अचानक गौतम आया और मेरा रेप करने की कोशिश की. उसी समय घर के नौकर आ गए. उस की पिटाई कर मुझे बचा लिया.’

थाने से खबर पाते ही गौतम के पिता अस्पताल आ गए. गौतम को होश आया तो सारा सच बता दिया.

सिर पीटने के सिवा उस के पिता कर ही क्या सकते थे. श्रेया के परिवार से भिड़ने की हिम्मत नहीं थी.

उन्होंने गौतम को समझाया, ‘‘जो हुआ उसे भूल जाओ. अस्पताल से वापस आ कर पढ़ाई पर ध्यान लगाना. कोशिश करूंगा कि तुम पर जो मामला है, वापस ले लिया जाए.’’

 

अस्पताल में गौतम को 5 माह रहना पड़ा. वे 5 माह 5 युगों से भी लंबे थे. कैलेंडर की तारीखें एकएक कर के उस के सपनों के टूटने का पैगाम लाती रही थीं.

उसे कालेज से निकाल दिया गया तो दोस्तों ने भी किनारा कर लिया. महल्ले में भी वह बुरी तरह बदनाम हो चुका था. कोई उसे देखना नहीं चाहता था.

श्रेया के आरोप पर किसी को विश्वास नहीं हुआ तो वह थी इषिता. वह उसी कालेज में पढ़ती थी और गौतम की दोस्त थी. वह अस्पताल में उस से मिलने बराबर आती रही. उसे हर तरह से हौसला देती रही.

गौतम घर आ गया तो भी इषिता उस से मिलने घर आती रही. शरीर के घाव तो कुछ दिनों में भर गए पर आत्मसम्मान के कुचले जाने से उस का आत्मविश्वास टूट चुका था.

मन और आत्मविश्वास के घावों पर कोई औषधि काम नहीं कर रही थी. गौतम ने फैसला किया कि अब आगे नहीं पढ़ेगा.

परिजनों तथा शुभचिंतकों ने बहुत सम?ाया लेकिन वह फैसले से टस से मस नहीं हुआ.

इस मामले में उस ने इषिता की भी नहीं सुनी. इषिता ने कहा था, ‘‘ पढ़ना नहीं चाहते हो तो कोई बात नहीं. क्रिकेट में ही कैरियर बनाओ.’’

‘‘मेरा आत्मविश्वास टूट चुका है. कुछ नहीं कर सकता. इसलिए मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो,’’ उस ने दोटूक जवाब दिया था.

वह दिनभर चुपचाप घर में पड़ा रहता था. घर के लोगों से भी ठीक से बात नहीं करता था. किसी रिश्तेदार या दोस्त के घर भी नहीं जाता था. हर समय चिंता में डूबा रहता.

पहले छुट्टियों में पिता की दुकान संभालता था. अब पिता के कहने पर भी दुकान पर नहीं जाता था. उसे लगता था कि दुकान पर जाएगा तो महल्ले की लड़कियां उस पर छींटाकशी करेंगी तो वह बरदाश्त नहीं कर पाएगा.

इसी तरह घटना को 2 वर्ष बीत गए. इषिता ने ग्रैजुएशन कर ली. जौब की तलाश की, तो वह भी मिल गई. बैक में जौब मिली थी. पोस्टिंग मालदह में हुई थी.

जाते समय इषिता ने उस से कहा, कोलकाता से जाने की इच्छा तो नहीं है पर सवाल जिंदगी का है. जौब तो करनी ही पड़ेगी, पर 6-7 महीने में ट्रांसफर करा कर आ जाऊंगी. विश्वास है कि तब तक श्रेया को दिल से निकाल फेंकने में सफल हो जाओगे.

इषिता मालदह चली गई तो गौतम पहले से अधिक अवसाद में आ गया. तब उस के मातापिता ने उस की शादी करने का विचार किया.

मौका देख कर मां ने उस से कहा, ‘‘जानती हूं कि इषिता सिर्फ तुम्हारी दोस्त है. इस के बावजूद यह जानना चाहती हूं कि यदि वह तुम्हें पसंद है तो बोलो, उस से शादी की बात करूं?’’

‘‘वह सिर्फ मेरी दोस्त है. हमेशा दोस्त ही रहेगी. रही शादी की बात, तो कभी किसी से भी शादी नहीं करूंगा. यदि किसी ने मुझ पर दबाव डाला तो घर छोड़ कर चला जाऊंगा.’’

गौतम ने अपना फैसला बता दिया तो मां और पापा ने उस से फिर कभी शादी के लिए नहीं कहा. उसे उस के हाल पर छोड़ दिया.

लेकिन एक दोस्त ने उसे समझाते हुए कहा, ‘‘श्रेया से तुम्हारी शादी नहीं हो सकती, यह अच्छी तरह जानते हो. फिर जिंदगी बरबाद क्यों कर रहे हो? किसी से विवाह कर लोगे तो पत्नी का प्यार पा कर अवश्य ही उसे भूल जाओगे.’’

‘‘जानता हूं कि तुम मेरे अच्छे दोस्त हो. इसलिए मेरे भविष्य की चिंता है. परंतु सचाई यह है कि श्रेया को भूल पाना मेरे वश की बात नहीं है.’’

दोस्त ने तरहतरह से समझाया. पर वह किसी से भी शादी करने के लिए राजी नहीं हुआ.

इषिता गौतम को सप्ताह में 2-3 दिन फोन अवश्य करती थी. वह उसे बताता था कि जल्दी ही श्रेया को भूल जाऊंगा. जबकि हकीकत कुछ और ही थी.

हकीकत यह थी कि इषिता के जाने के बाद उस ने कई बार श्रेया को फोन लगाया था. पर लगा नहीं था. घटना के बाद शायद उस ने अपना नंबर बदल लिया था.

न जाने क्यों उस से मिलने के लिए वह बहुत बेचैन था. समझ नहीं पा रहा था कि कैसे मिले. अंजाम की परवा किए बिना उस के घर जा कर मिलने को वह सोचने लगा था.

तभी एक दिन श्रेया का ही फोन आ गया. बहुत देर तक विश्वास नहीं हुआ कि उस का फोन है.

विश्वास हुआ, तो पूछा, ‘‘कैसी हो?’’

‘‘तुम से मिल कर अपना हाल बताना चाहती हूं. आज शाम के 7 बजे साल्ट लेक मौल में आ सकते हो?’’ उधर से श्रेया ने कहा.

खुशी से लबालब हो कर गौतम समय से पहले ही मौल पहुंच गया. श्रेया समय पर आई. वह पहले से अधिक सुंदर दिखाई पड़ रही थी.

उस ने पूछा, ‘‘मेरी याद कभी आई थी?’’

‘‘तुम दिल से गई ही कब थीं जो याद आतीं. तुम तो मेरी धड़कन हो. कई बार फोन किया था, लगा नहीं था. लगता भी कैसे, तुम ने नंबर जो बदल लिया था.’’

उस का हाथ अपने हाथ में ले कर श्रेया बोली, ‘‘पहले तो उस दिन की घटना के लिए माफी चाहती हूं. मुझे इस का अनुमान नहीं था कि मेरे झठ को पापा और भैया सच मान कर तुम्हारी पिटाई करा देंगे.

‘‘फिर कोई लफड़ा न हो जाए, इस डर से पापा ने मेरा मोबाइल ले लिया. अकेले घर से बाहर जाना बंद कर दिया गया.

‘‘मुंबई से तुम्हें फोन करने की कोशिश की, परंतु तुम्हारा नंबर याद नहीं आया. याद आता तो कैसे? घटना के कारण सदमे में जो थी. उन्होंने सोर्ससिफारिश की तो श्रेया के पिता ने मामला वापस ले लिया.

‘‘फिलहाल वहां ग्रैजुएशन करने के बाद 3 महीने पहले ही आई हूं. बहुत कोशिश करने पर तुम्हारे एक दोस्त से तुम्हारा नंबर मिला, तो तुम्हें फोन किया. मेरी सगाई हो गई है. 3 महीने बाद शादी हो जाएगी.

‘‘यह कहने के लिए बुलाया है कि जो होना था वह हो गया. अब मुद्दे की बात करते हैं. सचाई यह है कि हम अब भी एकदूसरे को चाहते हैं. तुम मेरे लिए बेताब हो, मैं तुम्हारे लिए.

‘‘इसलिए शादी होेने तक हम रिश्ता बनाए रख सकते हैं. चाहोगे तो शादी के बाद भी मौका पा कर तुम से मिलती रहूंगी. ससुराल कोलकाता में ही है. इसलिए मिलनेजुलने में कोई परेशानी नहीं होगी.’’

श्रेया का चरित्र देख कर गौतम को इतना गुस्सा आया कि उस का कत्ल कर फांसी पर चढ़ जाने का मन हुआ. लेकिन ऐसा करना उस के वश में नहीं था. क्योंकि वह उसे अथाह प्यार करता था. उसे लगता था कि श्रेया को कुछ हो गया तो वह जीवित नहीं रह पाएगा.

उसे सम?ाते हुए उस ने कहा, ‘‘मुझे इतना प्यार करती हो तो शादी मुझ से क्यों नहीं कर लेतीं?’’

‘‘इस जमाने में शादी की जिद पकड़ कर क्यों बैठे हो? वह जमाना पीछे छूट गया जब प्रेमीप्रेमिका या पतिपत्नी एकदूसरे से कहते थे कि जिंदगी तुम से शुरू, तुम पर ही खत्म है.

‘‘अब तो ऐसा चल रहा है कि जब तक साथ निभे, निभाओ, नहीं तो अपनेअपने रास्ते चले जाओ. तुम खुद ही बोलो, मैं क्या कुछ गलत कह रही हूं? क्या आजकल ऐसा नहीं हो रहा है?

‘‘दरअसल, मैं सिर्फ कपड़ों से ही नहीं, विचारों से भी आधुनिक हूं. जमाने के साथ चलने में विश्वास रखती हूं. मैं चाहती हूं कि तुम भी जमाने के साथ चलो. जो मिल रहा है उस का भरपूर उपभोग करो. फिर अपने रास्ते चलते बनो.’’

श्रेया जैसे ही चुप हुई, गौतम ने कहा, ‘‘लगा था कि तुम्हें गलती का अहसास हो गया है. मु?ा से माफी मांगना चाहती हो. पर देख रहा हूं कि आधुनिकता के नाम पर तुम सिर से पैर तक कीचड़ से इस तरह सन चुकी हो कि जिस्म से बदबू आने लगी है.

‘‘यह सच है कि तुम्हें अब भी अथाह प्यार करता हूं. इसलिए तुम्हें भूल जाना मेरे वश की बात नहीं है. लेकिन अब तुम मेरे दिल में शूल बन कर रहोगी, प्यार बन कर नहीं.’’

श्रेया ने गौतम को अपने रंग में रंगने की पूरी कोशिश की, परंतु उस की एक दलील भी उस ने नहीं मानी.

उस दिन से गौतम पहले से भी अधिक गमगीन हो गया.

इस तरह कुछ दिन और बीत गए. अचानक इषिता ने फोन पर बताया कि उस ने कोलकाता में ट्रांसफर करा लिया है. 3-4 दिनों में आ जाएगी.

3 दिनों बाद इषिता आ भी गई. गौतम के घर गई तो वह गहरी सोच में था.

उस ने आवाज दी. पर उस की तंद्रा भंग नहीं हुई. तब उसे झंझोड़ा और कहा, ‘‘किस सोच में डूबे हुए हो?’’

‘‘श्रेया की यादों से अपनेआप को मुक्त नहीं कर पा रहा हूं,’’ गौतम ने सच बता दिया.

इषिता गुस्से से उफन उठी, ‘‘इतना सबकुछ होने के बाद भी उसे याद करते हो? सचमुच तुम पागल हो गए हो?’’

‘‘तुम ने कभी किसी को प्यार नहीं किया है इषिता, मेरा दर्द कैसे समझ सकती हो.’’

‘‘कुछ घाव किसी को दिखते नहीं. इस का मतलब यह नहीं कि उस शख्स ने चोट नहीं खाई होगी,’’ इषिता ने कहा.

गौतम ने इषिता को देखा तो पाया कि उस की आंखें नम थीं. उस ने कहा, ‘‘तुम्हारी आंखों में आंसू हैं. इस का मतलब यह है कि तुम ने भी प्यार में धोखा खाया है?’’

‘‘इसे तुम धोखा नहीं कह सकते. जिसे मैं प्यार करती थी उसे पता नहीं था.’’

‘‘यानी वन साइड लव था?’’

‘‘कुछ ऐसा ही समझो.’’

‘‘लड़का कौन था. निश्चय ही वह कालेज का रहा होगा?’’

इषिता उसे उलझन में नहीं रखना चाहती थी, रहस्य पर से परदा हटाते हुए कह दिया, ‘‘वह कोई और नहीं, तुम हो.’’

गौतम ने चौंक कर उसे देखा तो वह बोली, ‘‘कालेज में पहली बार जिस दिन तुम से मिली थी उसी दिन तुम मेरे दिल में घर कर गए थे. दिल का हाल बताती, उस से पहले पता चला कि तुम श्रेया के दीवाने हो. फिर चुप रह जाने के सिवा मेरे पास रास्ता नहीं था.

‘‘जानती थी कि श्रेया अच्छी लड़की नहीं है. तुम से दिल भर जाएगा, तो झट से किसी दूसरे का दामन थाम लेगी. आगाह करती, तो तुम्हें लगता कि अपना स्वार्थ पूरा करने के लिए उस पर इलजाम लगा रही हूं. इसलिए तुम से दोस्ती कर ली पर दिल का हाल कभी नहीं बताया.

‘‘श्रेया के साथ तुम्हारा सबकुछ खत्म हो गया, तो सोचा कि मौका देख कर अपनी मोहब्बत का इजहार करूंगी और तुम से शादी कर लूंगी. पर देख रही हूं कि आज भी तुम्हारे दिल में वह ही है.’’

दोनों के बीच कुछ देर तक खामोशी पसर गई. गौतम ने ही थोड़ी देर बार खामोशी दूर की, ‘‘उसे दिल से निकाल नहीं पा रहा हूं, इसीलिए कभी शादी न करने का फैसला किया है.’’

‘‘तुम्हें पाने के लिए मैं ने जो तपस्या की है उस का फल मुझे नहीं दोगे?’’ इषिता का स्वर वेदना से कांपने लगा था. आंखें भी डबडबा आई थीं.

‘‘मुझे माफ कर दो इषिता. तुम बहुत अच्छी लड़की हो. तुम से विवाह करता तो मेरा जीवन सफल हो जाता. पर मैं दिल के हाथों मजबूर हूं. किसी से भी शादी नहीं

कर सकता.’’

इषिता चली गई. उस की आंखों में उमड़ा वेदना का समंदर देख कर भी वह उसे रोक नहीं पाया. वह उसे कैसे समझाता कि श्रेया ने उस के साथ जो कुछ भी किया है, उस से समस्त औरत जाति से उसे नफरत हो गई है.

3 दिन बीत गए. इषिता ने न फोन किया न आई. गौतम सोचने लगा, ‘कहीं नाराज हो कर उस ने दोस्ती तोड़ने का मन तो नहीं बना लिया है?’

उसे फोन करने को सोच ही रहा था कि अचानक उस के मोबाइल की घंटी बज उठी. उस समय शाम के 6 बज रहे थे. फोन किसी अनजान का था.

उस ने ‘‘हैलो’’ कहा तो उधर से किसी ने कहा, ‘‘इषिता का पापा बोल रहा हूं. तुम से मिलना चाहता हूं. क्या हमारी मुलाकात हो सकती है?’’

उस ने ?ाट से कहा, ‘‘क्यों नहीं अंकल. कहिए, कहां आ जाऊं?’’

‘‘तुम्हें आने की जरूरत नहीं है बेटे. 7 बजे तक मैं ही तुम्हारे घर आ जाता हूं.’’

इषिता उसे 3-4 बार अपने घर ले गई थी. वह उस के मातापिता से मिल चुका था.

उस के पिता रेलवे में उच्च पद पर थे. बहुत सुलझे हुए इंसान थे. वह उन की इकलौती संतान थी. मां कालेज में अध्यापिका थीं. बहुत समझदार थीं. कभी भी उस के और इषिता के रिश्ते पर शक नहीं किया था.

इषिता के पापा समय से पहले ही आ गए. गौतम के साथसाथ उस की मां और बहन ने भी उन का भरपूर स्वागत किया.

उन्होंने मुद्दे पर आने में बहुत देर नहीं लगाई. पर उन चंद लमहों में ही अपने शालीन व्यक्तित्व की खुशबू से पूरे घर को महका दिया था. इतनी आत्मीयता उड़ेल दी थी वातावरण में कि उसे लगने लगा कि उन से जनमजनम का रिश्ता है.

कुछ देर बाद इषिता के पापा को गौतम के साथ कमरे में छोड़ कर मां और बहन चली गईं तो उन्होंने कहा, ‘‘बेटा, इषिता तुम्हें प्यार करती है और शादी करना चाहती है. उस ने श्रेया के बारे में भी सबकुछ बता दिया है.

‘‘श्रेया से तुम्हारा रिश्ता टूट चुका है तो इषिता से शादी क्यों नहीं करना चाहते? वैसे तो बिना कारण भी कोई किसी को नापसंद कर सकता है. यदि तुम्हारे पास इषिता से विवाह न करने का कारण है तो बताओ. मिलबैठ कर कारण को दूर करने की कोशिश करें.’’

उसे लगा जैसे अचानक उस के मन में कोई बड़ी सी शिला पिघलने लगी है. उस ने मन की बात बता देना ही उचित समझा.

‘‘इषिता में कोई कमी नहीं है अंकल. उस से जो भी शादी करेगा उस का जीवन सार्थक हो जाएगा. कमी मुझ में है. श्रेया से धोखा खाने के बाद लड़कियों से मेरा विश्वास उठ गया है.

‘‘लगता है कि जिस से भी शादी करूंगा वह भी मेरे साथ बेवफाई करेगी. ऐसा भी लगता है कि श्रेया को कभी भूल नहीं पाऊंगा और पत्नी को प्यार नहीं कर पाऊंगा,’’ गौतम ने दिल की बात रखते हुए बताया.

‘‘इतनी सी बात के लिए परेशान हो? तुम मेरी परवरिश पर विश्वास रखो बेटा. तुम्हारी पत्नी बन कर इषिता तुम्हें इतना प्यार करेगी कि तुम्हारे मन में लड़कियों के प्रति जो गांठ पड़ गई है वह स्वयं खुल जाएगी.’’

वे बिना रुके कहते रहे, ‘‘प्यार या शादी के रिश्ते में मिलने वाली बेवफाई से हर इंसान दुखी होता है, पर यह दुख इतना बड़ा भी नहीं है कि जिंदगी एकदम से थम जाए.

‘‘किसी एक औरतमर्द या लड़कालड़की से धोखा खाने के बाद दुनिया के तमाम औरतमर्द या लड़केलड़की को एकजैसा सम?ाना सही नहीं है.

‘‘यह जीवन का सब से बड़ा सच है कि कोई भी रिश्ता जिंदगी से बड़ा नहीं होता. यह भी सच है कि हर प्रेम संबंध का अंजाम शादी नहीं होता.

‘‘जीवन में हर किसी को अपना रास्ता चुनने का अधिकार है. यह अलग बात है कि कोई सही रास्ता चुनता है कोई गलत.

‘‘श्रेया के मन में गलत विचार भरे पड़े थे. इसलिए चंद कदम तुम्हारे साथ चल कर अपना रास्ता बदल लिया. अब तुम भी उसे भूल कर जीने की सही राह पर आ जाओ. गिरते सब हैं पर जो उठ कर तुरंत अपनेआप को संभाल लेता है, सही माने में वही साहसी है.’’

थोड़ी देर बाद इषिता के पापा चले गए. गौतम ने मंत्रमुग्ध हो कर उन की बातें सुनी थीं.

श्रेया के कारण लड़कियों के प्रति मन में जो गांठ पड़ गई थी वह खुल गई.

अब देर करना उस ने मुनासिब नहीं समझा. इषिता के पापा को फोन किया, ‘‘अंकल, कल अपने घर वालों के साथ इषिता का हाथ मांगने आप के घर आना चाहता हूं.’’

उधर से इषिता के पापा ने कहा, ‘‘वैलकम बेटे. देर आए दुरुस्त आए. अब तुम्हें आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता. तुम ने अपने भीतर के डर पर विजय जो प्राप्त कर ली है.’’ Romantic Story In Hindi

Hindi Love Stories : फेसबुक वाला लव

Hindi Love Stories : देर रात को फेसबुक खोलते ही रितु चैटिंग करने लगती. जैसे वह पहले से ही इंटरनैट पर बैठ कर विनोद का इंतजार कर रही हो. उस से चैटिंग करने में विनोद को भी बड़ा मजा मिलने लगा था. रितु से बातें कर के विनोद की दिनभर की थकान मिट जाती थी. स्कूल में बच्चों को पढ़ातेपढ़ाते थका हुआ उस का दिमाग व जिस्म रितु से चैटिंग कर तरोताजा हो जाता था.

पत्नी मायके चली गई थी, इसलिए घर में विनोद का अकेलापन कचोटता रहता था. ऐसी हालत में रितु से चैटिंग करना अच्छा लगता था. विनोद से चैटिंग करते हुए रितु एक हफ्ते में ही उस से घुलमिल सी गई थी. वह भी उस से चैटिंग करने के लिए बेताब रहने लगा था.

आज विनोद उस से चैटिंग कर ही रहा था कि उस का मोबाइल फोन घनघना उठा, ‘‘हैलो… कौन?’’ उधर से एक मीठी आवाज आई, ‘हैलो…विनोदजी, मैं रितु बोल रही हूं… अरे वही रितु, जिस से आप चैटिंग कर रहे हो.’

‘‘अरे…अरे, रितु आप. आप को मेरा नंबर कहां से मिल गया?’’ ‘‘लगन सच्ची हो और दिल में प्यार हो तो सबकुछ मिल जाता है.’’

फेसबुक पर चैटिंग करते समय विनोद कभीकभी अपना मोबाइल नंबर भी डाल देता था. शायद उस को वहीं से मिल गया हो. यह सोच कर वह चुप हो गया था. अब विनोद चैटिंग बंद कर उस से बातें करने लगा, ‘‘आप रहती कहां हैं?’’

‘वाराणसी में.’ ‘‘वाराणसी में कहां रहती हैं?’’

‘सिगरा.’ ‘‘करती क्या हैं?’’

‘एक नर्सिंग होम में नर्स हूं.’ ‘‘आप की शादी हो गई है कि नहीं?’’

‘हो गई है…और आप की?’ ‘‘हो तो मेरी भी गई है, पर…’’

‘पर, क्या…’ ‘‘कुछ नहीं, पत्नी मायके चली गई है, इसलिए उदासी छाई है.’’

‘ओह, मैं तो कोई अनहोनी समझ कर घबरा गई थी…’ ‘‘मुझ से इतना लगाव हो गया है एक हफ्ते में… आप की रातें तो रंगीन हो ही रही होंगी?’’

‘यही तो तकलीफ है विनोदजी… पति के रहते हुए भी मैं अकेली हूं,’ कहतेकहते रितु बहुत उदास हो गई. उस का दर्द सुन कर विनोद भी दुखी हो गया था. उस ने अपना फोटो चैट पर भेजा. रितु ने भी अपना फोटो भेज दिया था. वह बड़ी खूबसूरत थी. गोलमटोल चेहरा, कजरारी आंखें… पतले होंठ… लंबे घने बाल देख कर विनोद का मन उस की मोहिनी सूरत पर मटमिटा था. वह उस से बातें करने के लिए बेचैन रहने लगा. मोबाइल फोन से जो बात खुल कर न कह पाता, वह बात फेसबुक पर चैट कर के कह देता. रितु का पति मनोहर शराबी था. वह जुआ खेलता, शराबियों के साथ आवारागर्दी करता, नशे में झूमता हुआ वह रात में घर आ कर झगड़ा करता और गालीगलौज कर के सो जाता.

रितु जब तनख्वाह पाती तो वह छीनने लगता. न देने पर वह उसे मारतापीटता. मार से बचने के लिए वह अपनी सारी तनख्वाह उसे दे देती. रितु विनोद से अपनी कोईर् बात न छिपाती. वह अपनी रगरग की पीड़ा जब उसे बताती, तब दुखी हो कर वह भी कराह उठता. स्कूल में बच्चों को अब पढ़ाने का मन न करता. पत्नी घर पर होती तो बाहुपाश में उस को… उस की पीड़ा को वह भ्ूल जाता. पर अब तो रितु की याद उसे सोने ही न देती. चैट से मन न भरता तो वह मोबाइल फोन से बात करने लगता. ‘‘हैलो… क्या कर रही हो तुम?’’ ‘आप की याद में बेचैन हूं. आप से मिलने के लिए तड़प रही हूं… और आप?’

‘‘मेरा भी वही हाल है.’’ ‘तब तो मेरे पास आ जाओ न. आप वहां अकेले हो और मैं यहां अकेली. दोनों छटपटा रहे हैं. मैं आप को पत्नी का सारा सुख दूंगी.’

रितु की बात सुन कर विनोद के बदन में तरंगें उठने लगतीं. बेचैनी बढ़ जाती. तब वह जोश में उस से कहता, ‘‘मैं कैसे आऊं… तुम्हारा पति मनोहर जो है. हम दोनों का मिलना क्या उसे अच्छा लगेगा?’’ ‘आप आओ तो मैं कह दूंगी कि आप मेरे मौसेरे भाई हो. वैसे, वे कल अपने गांव जा रहे हैं. गांव से लौटने में उन को 2-4 दिन तो लग ही जाएंगे. परसों रविवार है. आप उस दिन आ जाओ न. ऐसा मौका जल्दी नहीं मिलेगा. मैं आप का इंतजार करूंगी,’ रितु का फोन कटा तो विनोद की बेचैनी बढ़ गई. वह रातभर करवटें बदलता रहा.

रविवार को विनोद उस से मिलने वाराणसी चल पड़ा. उस के बताए पते पर पहुंचने में उसे कोई दिक्कत नहीं हुई. मकान की दूसरी मंजिल पर रितु जिस फ्लैट में रहती थी, उस में 2 कमरे, रसोईघर, बरामदा था. उस ने अपना घर खूब सजा रखा था, जिसे देख कर विनोद का मन खिल उठा. खातिरदारी और बात करतेकरते दिन ढलने लगा तो विनोद ने कहा, ‘‘आप से बात कर के बड़ा मजा आया. वापस भी तो जाना है मुझे.’’

‘‘कहां वापस जाना है आज? आज रात तो मैं कम से कम आप के साथ रह लूं… फिर कब मिलना हो, क्या भरोसा?’’ रितु ने इतना कहा, तो विनोद की बांछें खिल उठीं. इतना कह कर वह उस के गले लग गया. रितु कुछ नहीं बोली. ‘‘मैं आप की बात भी तो नहीं टाल सकता… चलो, अब कमरे में चल कर बातें करें.’’

विनोद ने कमरे में रितु को डबल बैड पर लिटा दिया और उस के अंगों से खेलने लगा. इतने में पता नहीं कहां से मनोहर उस कमरे में आ घुसा और विनोद को डपटा, ‘‘तू कौन है रे, जो मेरे घर में आ कर मेरी पत्नी का रेप कर रहा है?’’

मनोहर को देख विनोद घबरा गया. उस का सारा नशा गायब हो गया. रितु अपनी साड़ी ओढ़ कर एक कोने में सिमट गई. मनोहर ने पहले तो विनोद को खूब लताड़ा, लातघूंसों से मारा, फिर पुलिस को फोन मिलाने लगा.

विनोद उस के पैर पकड़ कर पुलिस न बुलाने की भीख मांगता हुआ उस से बोला, ‘‘इस में मेरी कोई गलती नहीं है. रितु ने ही फेसबुक पर मुझ से दोस्ती कर के मुझे यहां बुलाया था.’’ ‘‘मैं कुछ नहीं जानता. फेसबुक पर दोस्ती कर के औरतों को अपने प्यार के जाल में फांस कर उन के साथ रंगरलियां मनाने वाले आज तेरी खैर नहीं है. जब पुलिस का डंडा पीठ पर पड़ेगा तब सारा नशा उतर जाएगा,’’ कह कर मनोहर फिर से पुलिस को फोन मिलाने लगा.

‘‘नहीं मनोहर बाबू, मुझे छोड़ दो. मेरा भी परिवार है. मेरी सरकारी नौकरी है. मुझे पुलिस के हवाले कर दोगे तो मैं बरबाद हो जाऊंगा,’’ कहता हुआ विनोद उस के पैरों पर अपना माथा रगड़ने लगा. काफी देर बाद हमदर्दी दिखाता हुआ मनोहर उस से बोला, ‘‘अपनी इज्जत और नौकरी बचाना चाहता है, तो 50 हजार रुपए अभी दे, नहीं तो मैं तुझे पुलिस के हवाले कर दूंगा,’’

इतना कहने के बाद मनोहर कमरे में लगा कैमरा हाथ में ले कर उसे दिखाता हुआ बोला, ‘‘तेरी सारी हरकत इस कैमरे में कैद है. जल्दी रुपए ला, नहीं तो…’’ ‘‘इतने रुपए मैं कहां से लाऊं भाई. मेरे पास तो अभी 10 हजार रुपए हैं,’’ कह कर विनोद ने 2-2 हजार के 5 नोट जेब से निकाल कर मनोहर के सामने रख दिए. गुस्से से लालपीला होता हुआ मनोहर बोला, ‘‘10 हजार रुपए…?

50 हजार रुपए से कम नहीं चाहिए, नहीं तो पुलिस को करता हूं फोन…’’ मनोहर की दहाड़ सुन कर विनोद रोने लगा. वह बोला, ‘‘आप मुझ पर दया कीजिए मनोहर बाबू. मैं घर जा कर बैंक से रुपए निकाल कर आप को दे दूंगा.’’

‘‘बहाना कर के भागना चाहता है तू. मुझे बेवकूफ समझता है. अभी जा और एटीएम से 15 हजार रुपए निकाल और कल 25 हजार रुपए ले कर आ, नहीं तो… कोई चाल तो नहीं चलेगा न. चलेगा तो जान से भी हाथ धो बैठेगा, क्योंकि तेरी सारी करतूत मेरे इस कैमरे में कैद है.’’ मनोहर की बात मानना विनोद की मजबूरी थी. वह बहेलिए के जाल में फंसे कबूतर की तरह फेसबुक की दोस्ती के जाल में फंस कर छटपटाने लगा था. Hindi Love Stories 

Brazil : रातोंरात अमीर हुए 6 मजदूर

Brazil : कभीकभी संयोग से कुछ ऐसी अनहोनी भी हो जाती है जो किसी इंसान की नियति को बदल कर रख देती है. ब्राजील के कुछ मजदूरों के साथ भी कुछ ऐसी ही अनहोनी हुई है जिस ने 6 मजदूरों की नियति को ऐसा बदला कि उन की 7 पीढ़ियां नाम लेंगी.

यह कहानी 50 वर्ष के मेनुएल नामक मजदूर और उस के 5 साथियों की है जो पहले एक दूसरे खदान में एक ठेकेदार के यहा दिहाड़ी पर काम करते थे लेकिन उन का ठेकेदार उन्हें इतना कम पैसा देता था जिस से उन के परिवार का गुजारा मुश्किल से हो पाता था इसलिए मेनुएल ने उस ठेकेदार का काम छोड़ने का फैसला किया लेकिन दूसरी जगह काम मिलना इतना आसान भी नहीं था.

वह कई जगह भटका लेकिन उसे कहीं काम नहीं मिला तो उस ने एक पुराने बंद पड़े खादान में हाथ आजमाने की सोची कि शायद वहां से कुछ मिल जाए. मेन्युअल अकेला ही उस खादान में खुदाई करने लगा. 10 दिन की मेहनत के बाद भी मेन्युअल को वहां से कुछ विशेष नहीं मिला लेकिन उसे खुद पर पूरा भरोसा था और वो इस पुराने खादान में 23 वर्ष काम भी कर चुका था लेकिन वह अकेला यहां से कुछ भी हासिल नहीं कर सकता था इसलिए मेन्युअल ने अपने कुछ साथियों को उस खादान में काम करने की बात बताई तो सभी ने उस का मजाक उड़ाया लेकिन 5 ऐसे लोग थे जिन्हें मेनुएल पर पूरा भरोसा था इसलिए वे मेनुएल के साथ उस पुराने खदान में काम करने को तैयार हो गए.

मेनुएल और उस के साथी लगातार 3 महीने तक उस खदान में काम करते रहे लेकिन उन्हें कुछ हाथ नहीं लगा. एक दिन वे मन बना कर आए थे कि आज आखिरी बार काम करने के बाद वे फिर कभी यहां नहीं आएंगे और उसी दिन उन्हें वो चीज हाथ लग गई जिस ने उन्हें एक ही झटके में मजदूर से सम्राट बना दिया. खुदाई के दौरान उन्हें एक ऐसी वस्तु मिली जिस के बाद में वे अरबपति बन गए.

इस खुदाई में इन मजदूरों को एक चट्टान का टुकड़ा मिला जिस पर कई पन्ने लगे हैं और इस चट्टान की कीमत वर्तमान में 19 अरब 35 करोड़ से भी ज्यादा है. आज तक जितने भी खदानों से पन्ने मिले, उन में ये सब से बड़ा है. इस का वजन करीब 360 किलो है.

इस चट्टान के टुकड़े के कारण अब इन सभी मजदूरों की जान को खतरा आ पड़ा है, क्योंकि वर्तमान में ब्राजील में काफी अपराध और क्रिमिनल्स का बोलबाला है. ब्राजील सरकार ने इन मजदूरों की सुरक्षा की गारंटी ली है, साथ ही इस कीमती खनीज को भी अपने कंट्रोल में रखा है. बहिया नामक यह क्षेत्र जहां से यह पन्ना रत्न जड़ी चट्टान निकली है, यह खदान बहुमूल्य रत्न निकलने के कारण प्रसिद्ध था लेकिन इसे 2006 में ब्राज़ील सरकार ने बंद कर दिया था. Brazil 

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