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जुल्म की सजा

हमारे भारत देश को अंगरेजों की गुलामी से छुटकारा मिले हुए भले ही 65 साल से ज्यादा का समय बीत चुका है, पर आज भी न जाने कितने ऐसे गांव हैं, जो आजादी के सुख से अनजान हैं. ऐसा ही एक गांव है पिरथीपुर.

उत्तर प्रदेश के बदायूं, शाहजहांपुर और फर्रुखाबाद जिलों की सीमाओं को छूता, रामगंगा नदी के किनारे पर बसा हुआ गांव पिरथीपुर यों तो बदायूं जिले का अंग है, पर जिले तक इस की पहुंच उतनी ही मुश्किल है, जितनी मुश्किल शाहजहांपुर और फर्रुखाबाद जिला हैडक्वार्टर तक की है.

कभी इस गांव की दक्षिण दिशा में बहने वाली रामगंगा ने जब साल 1917 में कटान किया और नदी की धार पिरथीपुर के उत्तर जा पहुंची, तो पिरथीपुर बदायूं जिले से पूरी तरह कट गया. गांव के लोगों द्वारा नदी पार करने के लिए गांव के पूरब और पश्चिम में 10-10 कोस तक कोई पुल नहीं था, इसलिए उन की दुनिया पिरथीपुर और आसपास के गांवों तक ही सिमटी थी, जिस में 3 किलोमीटर पर एक प्राइमरी स्कूल, 5 किलोमीटर पर एक पुलिस चौकी और हफ्ते में 2 दिन लगने वाला बाजार था.

सड़क, बिजली और अस्पताल पिरथीपुर वालों के लिए दूसरी दुनिया के शब्द थे. सरकारी अमला भी इस गांव में सालों तक नहीं आता था.

देश और प्रदेश में चाहे जिस राजनीतिक पार्टी की सरकार हो, पर पिरथीपुर में तो समरथ सिंह का ही राज चलता था. आम चुनाव के दिनों में राजनीतिक पार्टियों के जो नुमाइंदे पिरथीपुर गांव तक पहुंचने की हिम्मत जुटा पाते थे, वे भी समरथ सिंह को ही अपनी पार्टी का झंडा दे कर और वोट दिलाने की अपील कर के लौट जाते थे, क्योंकि वे जानते थे कि पूरे गांव के वोट उसी को मिलेंगे, जिस की ओर ठाकुर समरथ सिंह इशारा कर देंगे.

पिरथीपुर गांव की ज्यादातर जमीन रेतीली और कम उपजाऊ थी. समरथ सिंह ने उपजाऊ जमीनें चकबंदी में अपने नाम करवा ली थीं. जो कम उपजाऊ जमीन दूसरे गांव वालों के नाम थी, उस का भी ज्यादातर भाग समरथ सिंह के पास गिरवी रखा था.

समरथ सिंह के पास साहूकारी का लाइसैंस था और गांव का कोई बाशिंदा ऐसा नहीं था, जिस ने सारे कागजात पर अपने दस्तखत कर के या अंगूठा लगा कर समरथ सिंह के हवाले न कर दिया हो. इस तरह सभी गांव वालों की गरदनें समरथ सिंह के मजबूत हाथों में थीं.

पिरथीपुर गांव में समरथ सिंह से आंख मिला कर बात करने की हिम्मत किसी में भी नहीं थी. पासपड़ोस के ज्यादातर लोग भी समरथ सिंह के ही कर्जदार थे.

समरथ सिंह की पहुंच शासन तक थी. क्षेत्र के विधायक और सांसद से ले कर उपजिलाधिकारी तक पहुंच रखने वाले समरथ सिंह के खिलाफ जाने की हिम्मत पुलिस वाले भी नहीं करते थे.

समरथ सिंह के 3 बेटे थे. तीनों बेटों की शादी कर के उन्हें 10-10 एकड़ जमीन और रहने लायक अलग मकान दे कर समरथ सिंह ने उन्हें अपने राजपाट से दूर कर दिया था. उन की अपनी कोठी में पत्नी सीता देवी और बेटी गरिमा रहते थे.

गरिमा समरथ सिंह की आखिरी औलाद थी. वह अपने पिता की बहुत दुलारी थी. पूरे पिरथीपुर में ठाकुर समरथ सिंह से कोई बेखौफ था, तो वह गरिमा ही थी.

सीता देवी को समरथ सिंह ने उन के बैडरूम से ले कर रसोईघर तक सिमटा दिया था. घर में उन का दखल भी रसोई और बेटी तक ही था. इस के आगे की बात करना तो दूर, सोचना भी उन के लिए बैन था.

कोठी के पश्चिमी भाग के एक कमरे में समरथ सिंह सोते थे और उसी कमरे में वे जमींदारी, साहूकारी, नेतागीरी व दादागीरी के काम चलाते थे. वहां जाने की इजाजत सीता देवी को भी नहीं थी.

समरथ सरकार के नाम से पूरे पिरथीपुर में मशहूर समरथ सिंह की कोठी में बाहरी लोगों का आनाजाना पश्चिमी दरवाजे से ही होता था. इस दरवाजे से बरामदे में होते हुए उन के दफ्तर और बैडरूम तक पहुंचा जा सकता था.

कोठी के पश्चिमी भाग में दखल देना परिवार वालों के लिए ही नहीं, बल्कि नौकरचाकरों के लिए भी मना था.

अपने पिता की दुलारी गरिमा बचपन से ही कोठी के उस भाग में दौड़तीखेलती रही थी, इसलिए बहुत टोकाटाकी के बाद भी वह कभीकभार उधर चली ही जाती थी.

गांव की हर नई बहू को ‘समरथ सरकार’ से आशीर्वाद लेने जाने की प्रथा थी. कोठी के इसी पश्चिमी हिस्से में समरथ सिंह जितने दिन चाहते, उसे आशीर्वाद देते थे और जब उन का जी भर जाता था, तो उपहार के तौर पर गहने दे कर उसे पश्चिमी दरवाजे से निकाल कर उस के घर पहुंचा दिया जाता था.

आतेजाते हुए कभी गांव की किसी बहूबेटी पर समरथ सिंह की नजर पड़ जाती, तो उसे भी कोठी देखने का न्योता भिजवा देते, जिसे पा कर उसे कोठी में हर हाल में आना ही होता था.

समरथ सिंह की इमेज भले ही कठोर और बेरहम रहनुमा की थी, पर वे दयालु भी कम नहीं थे. खुशीखुशी आशीर्वाद लेने वालों पर उन की कृपा बरसती थी. अनेक औरतें जबतब उन का आशीर्वाद लेने के लिए कोठी का पश्चिमी दरवाजा खटखटाती रहती थीं, ताकि उन के

पति को फसल उपजाने के लिए अच्छी जमीन मिल सके, दवा व इलाज और शादीब्याह के खर्च वगैरह को पूरा करने हेतु नकद रुपए मिल सकें.

लेकिन बात न मानने से समरथ सिंह को सख्त चिढ़ थी. राधे ने अपनी बहू को आशीर्वाद लेने के लिए कोठी पर भेजने से मना कर दिया था. उस की बहू को समरथ के आदमी रात के अंधेरे में घर से उठा ले गए और तीसरे दिन उस की लाश कुएं में तैरती मिली थी.

अपनी नईनवेली पत्नी की लाश देख कर राधे का बेटा सुनील अपना आपा खो बैठा और पूरे गांव के सामने समरथ सिंह पर हत्या का आरोप लगाते हुए गालियां बकने लगा.

2 घंटे के अंदर पुलिस उसे गांव से उठा ले गई और पत्नी की हत्या के आरोप में जेल भेज दिया. बाद में ठाकुर के आदमियों की गवाही पर उसे उम्रकैद की सजा हो गई.

राधे की पत्नी अपने एकलौते बेटे की यह हालत बरदाश्त न कर सकी और पागल हो गई. इस घटना से घबरा कर कई इज्जतदार परिवार पिरथीपुर गांव से भाग गए.

समरथ सिंह ने भी बचेखुचे लोगों से साफसाफ कह दिया कि पिरथीपुर में समरथ सिंह की मरजी ही चलेगी. जिसे उन की मरजी के मुताबिक जीने में एतराज हो, वह गांव छोड़ कर चला जाए. इसी में उस की भलाई है.

समरथ सिंह की बेटी गरिमा जब थोड़ी बड़ी हुई, तो समरथ सिंह ने उस का स्कूल जाना बंद करा दिया. अब वह दिनरात घर में ही रहती थी.

गरमी के मौसम में एक दिन दोपहर में उसे नींद नहीं आ रही थी. वह लेटेलेटे ऊब गई, तो अपने कमरे से बाहर निकल कर छत पर चली गई और टहलने लगी.

अचानक उसे कोठी के पश्चिमी दरवाजे पर कुछ आहट सुनाई दी. उस ने झांक कर देखा, तो दंग रह गई. समरथ सिंह का खास लठैत भरोसे एक औरत को ले कर आया था. कुछ देर बाद कोठी का पश्चिमी दरवाजा बंद हो गया और भरोसे दरवाजे के पास ही चारपाई डाल कर कोठी के बाहर सो गया.

गरिमा छत से उतर कर दबे पैर कोठी के बैन इलाके में चली गई. अपने पिता के बैडरूम की खिड़की के बंद दरवाजे के बीच से उस ने कमरे के अंदर झांका, तो दंग रह गई. उस के पिता नशे में धुत्त एक लड़की के कपड़े उतार रहे थे. वह लड़की सिसकते हुए कपड़े उतारे जाने का विरोध कर रही थी.

जबरन उस के सारे कपड़े उतार कर उन्होंने उस लड़की को किसी बच्चे की तरह अपनी बांहों में उठा कर चूमना शुरू कर दिया. फिर वे पलंग की ओर बढ़े और उसे पलंग पर लिटा कर किसी राक्षस की तरह उछल कर उस पर सवार हो गए.

गरिमा सांस रोके यह सब देखती रही और पिता का शरीर ढीला पड़ते ही दबे पैर वहां से निकल कर अपने कमरे में आ गई. उसे यह देख कर बहुत अच्छा लगा और बेचैनी भी महसूस हुई.

अब गरिमा दिनभर सोती और रात को अपने पिता की करतूत देखने के लिए बेचैन रहती. अपने पिता की रासलीला देखदेख कर गरिमा भी काम की आग से भभक उठती थी.

एक दिन समरथ सिंह भरोसे को ले कर किसी काम से जिला हैडक्वार्टर गए हुए थे. दोपहर एकडेढ़ बजे उन का कारिंदा भूरे, जिस की उम्र तकरीबन 20 साल होगी, हलबैल ले कर आया.

बैलों को बांध कर वह पशुशाला के बाहर लगे नल पर नहाने लगा, तभी गरिमा की निगाह उस पर पड़ गई. वह देर तक उस की गठीली देह देखती रही.

जब भूरे कपड़े पहन कर अपने घर जाने लगा, तो गरिमा ने उसे बुलाया. भूरे कोठरी के दरवाजे पर आया, तो गरिमा ने उसे अपने साथ आने को कहा.

गरिमा को पता था कि उस की मां भोजन कर के आराम करने के लिए अपने कमरे में जा चुकी है.

गरिमा भूरे को ले कर कोठी के पश्चिमी दरवाजे की ओर बढ़ी, तो भूरे ठिठक कर खड़ा हो गया. गरिमा ने लपक कर उस का गरीबान पकड़ लिया और घसीटते हुए अपने पिता के कमरे की ओर ले जाने लगी.

भूरे कसाई के पीछेपीछे बूचड़खाने की ओर जाती हुई गाय के समान ही गरिमा के पीछेपीछे चल पड़ा.

पिता के कमरे में पहुंच कर गरिमा ने दरवाजा बंद कर लिया और भूरे को कपड़े उतारने का आदेश दिया. भूरे उस का आदेश सुन कर हैरान रह गया.

उसे चुप खड़ा देख कर गरिमा ने खूंटी पर टंगा हंटर उतार लिया और दांत पीसते हुए कहा, ‘‘अगर अपना भला चाहते हो, तो जैसा मैं कह रही हूं, वैसा ही चुपचाप करते जाओ.’’

भूरे ने अपने कपड़े उतार दिए, तो गरिमा ने अपने पिता की ही तरह उसे चूमनाचाटना शुरू कर दिया. फिर पलंग पर ढकेल कर अपने पिता की तरह उस पर सवार हो गई.

भूरे कहां तक खुद पर काबू रखता? वह गरिमा पर उसी तरह टूट पड़ा, जिस तरह समरथ सिंह अपने शिकार पर टूटते थे.

गरिमा ने कोठी के पश्चिमी दरवाजे से भूरे को इस हिदायत के साथ बाहर निकाल दिया कि कल फिर इसी समय कोठी के पश्चिमी दरवाजे पर आ जाए. साथ ही, यह धमकी भी दी कि अगर वह समय पर नहीं आया, तो उस की शिकायत समरथ सिंह तक पहुंच जाएगी कि उस ने उन की बेटी के साथ जबरदस्ती की है.

भूरे के लिए एक ओर कुआं था, तो दूसरी ओर खाई. उस ने सोचा कि अगर वह गरिमा के कहे मुताबिक दोपहर में कोठी के अंदर गया, तो वह फिर अगले दिन आने को कहेगी और एक न एक दिन यह राज समरथ सिंह पर खुल जाएगा और तब उस की जान पर बन आएगी. मगर वह गरिमा का आदेश नहीं मानेगा, तो वह भूखी शेरनी उसे सजा दिलाने के लिए उस पर झूठा आरोप लगाएगी और उस दशा में भी उसे जान से हाथ धोना पड़ेगा.

मजबूरन भूरे न चाहते हुए भी अगले दिन तय समय पर कोठी के पश्चिमी दरवाजे पर हाजिर हो गया, जहां गरिमा उस का इंतजार करती मिली.

अब यह खेल रोज खेला जाने लगा. 6 महीने बीततेबीतते गरिमा पेट से हो गई. भूरे को जिस दिन इस बात का पता चला. वह रात में ही अपना पूरा परिवार ले कर पिरथीपुर से गायब हो गया.

गरिमा 3-4 महीने से ज्यादा यह राज छिपाए न रख सकी और शक होने पर जब सीता देवी ने उस से कड़ाई से पूछताछ की, तो उस ने अपनी मां के सामने पेट से होना मान लिया. फिर भी उस ने भूरे का नाम नहीं लिया.

सीता देवी ने नौकरानी से समरथ सिंह को बुलवाया और उन्हें गरिमा के पेट से होने की जानकारी दी, तो वे पागल हो उठे और सीता देवी को ही पीटने लगे. जब वे उन्हें पीटपीट कर थक गए, तो गरिमा को आवाज दी.

2-3 बार आवाज देने पर गरिमा डरते हुए समरथ सिंह के सामने आई. उन्होंने रिवाल्वर निकाल कर गरिमा को गोली मार दी.

कुछ देर तक समरथ सिंह बेटी की लाश के पास बैठे रहे, फिर सीता देवी से पानी मांग कर पिया. तभी फायर की आवाज सुन कर उन के तीनों बेटे और लठैत भरोसे दौड़े हुए आए.

समरथ सिंह ने उन्हें शांत रहने का इशारा किया, फिर जेब से रुपए निकाल कर बड़े बेटे को देते हुए कहा, ‘‘जल्दी से जल्दी कफन का इंतजाम करो और 2 लोगों को लकड़ी ले कर नदी किनारे भेजो. खुद भी वहीं पहुंचो.’’

समरथ सिंह के बेटे पिता की बात सुन कर आंसू पोंछते हुए भरोसे के साथ बाहर निकल गए.

एक घंटे के अंदर लाश ले कर वे लोग नदी किनारे पहुंचे. चिता के ऊपर बेटी को लिटा कर समरथ सिंह जैसे ही आग लगाने के लिए बढ़े, तभी वहां पुलिस आ गई और दारोगा ने उन्हें चिता में आग लगाने से रोक दिया.

यह सुनते ही समरथ सिंह गुस्से से आगबबूला हो गए और तकरीबन चीखते हुए बोले, ‘‘तुम अपनी हद से आगे बढ़ रहे हो दारोगा.’’

‘‘नहीं, मैं अपना फर्ज निभा रहा हूं. राधे ने थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई है कि आप ने अपनी बेटी की गोली मार कर हत्या कर दी है, इसलिए पोस्टमार्टम कराए बिना लाश को जलाया नहीं जा सकता.’’

समरथ सिंह ने दारोगा के पीछे खड़े राधे को जलती आंखों से देखा. वे कुछ देर गंभीर चिंता में खड़े रहे, फिर रिवाल्वर से अपने सिर में गोली मार ली.

इस घटना को देख कर वहां मौजूद लोग सन्न रह गए, तभी पगली दौड़ती हुई आई और दम तोड़ रहे समरथ सिंह के पास घुटनों के बल बैठ कर ताली बजाते हुए बोली, ‘‘देखो ठाकुर, तेरे जुल्मों की सजा तेरे साथ तेरी औलाद को भी भोगनी पड़ी. खुद ही जला कर अपनी सोने की लंका राख कर ली.’’

जैसेजैसे समरथ सिंह की सांस धीमी पड़ रही थी, वहां मौजूद लोगों में गुलामी से छुटकारा पाने का एहसास तेज होता जा रहा था.

– डा. गोपाल कृष्ण शर्मा 

नई जिंदगी की शुरुआत

फूलमनी जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही बुतरू के स्टाइल पर फिदा हो गई. प्यार के झांसे में आ कर एक दिन बिना सोचेसमझे वह अपना घर छोड़ उस के साथ शहर भाग आई. शादीशुदा जिंदगी क्या होती है, दोनों ही इस का ककहरा भी नहीं जानते थे. भाग कर शहर तो आ गए, लेकिन बुतरू कोई काम ही नहीं करना चाहता था. वह बस्ती के बगल वाली सड़क पर दिनभर हंडि़या बेचने वाली औरतों के पास निठल्ला बैठा बातें करता और हंडि़या पीता रहता था. इसी तरह दिन महीनों में बीत गए और खाने के लाले पड़ने लगे.

फूलमनी कब तक बुतरू के आसरे बैठे रहती. उस ने अगलबगल की औरतों से दोस्ती गांठी. उन्होंने फूलमनी को ठेकेदारी में रेजा का काम दिलवा दिया. वह काम करने जाने लगी और बुतरू घर संभालने लगा. जल्द ही दोनों का प्यार छूमंतर हो गया.बुतरू दिनभर घर में अकेला बैठा रहता. शाम को जब फूलमनी काम से घर लौटती, वह उस से सारा पैसा छीन लेता और गालीगलौज पर आमादा हो जाता, ‘‘तू अब आ रही है. दिनभर अपने भरतार के घर गई थी पैसा कमाने… ला दे, कितना पैसा लाई  है…’’

फूलमनी दिनभर ठेकेदारी में ईंटबालू ढोतेढोते थक कर चूर हो जाती. घर लौट कर जमीन पर ही बिना हाथमुंह धोए, बिना खाना खाए लेट जाती. ऊपर से शराब के नशे में चूर बुतरू उस के आराम में खलल डालते हुए किसी भी अंग पर बेधड़क हाथ चला देता. वह छटपटा कर रह जाती. एक तो हाड़तोड़ मेहनत, ऊपर से बुतरू की मार खाखा कर फूलमनी का गदराया बदन गलने लगा था. तरहतरह के खयाल उस के मन में आते रहते. कभी सोचती, ‘कितनी बड़ी गलती की ऐसे शराबी से शादी कर के. वह जवानी के जोश में भाग आई. इस से अच्छा तो वह सुखराम मिस्त्री है. उम्र्र में बुतरू से थोड़ा बड़ा ही होगा, पर अच्छा आदमी है. कितने प्यार से बात करता है…’

सुखराम फूलमनी के साथ ही ठेकेदारी में मिस्त्री का काम करता था. वह अकेला ही रहता था. पढ़ालिखा तो नहीं था, पर सोचविचार का अच्छा था. सुबहसवेरे नहाधो कर वह काम पर चला आता. शाम को लौट कर जो भी सुबह का पानीभात बचा रहता, उसे प्यार से खापी कर सो जाता. शनिवार को सुखराम की खूब मौज रहती. उस दिन ठेकेदार हफ्तेभर की मजदूरी देता था. रविवार को सुखराम अपने ही घर में मुरगा पकाता था. मौजमस्ती करने के लिए थोड़ी शराब भी पी लेता और जम कर मुरगा खाता. फूलमनी से सुखराम की नईनई जानपहचान हुई थी. एक रविवार को उस ने फूलमनी को भी अपने घर मुरगा खाने के लिए बुलाया, पर वह लाज के मारे नहीं गई.

साइट पर ठेकेदार का मुंशी सुखराम के साथ फूलमनी को ही भेजता था. सुखराम जब बिल्डिंग की दीवारें जोड़ता, तो फूलमनी फुरती दिखाते हुए जल्दीजल्दी उसे जुगाड़ मसलन ईंटबालू देती जाती थी. सुखराम को बैठने की फुरसत ही नहीं मिलती थी. काम के समय दोनों की जोड़ी अच्छी बैठती थी. काम करते हुए कभीकभी वे मजाक भी कर लिया करते थे. लंच के समय दोनों साथ ही खाना खाते. खाना भी एकदूसरे से साझा करते. आपस में एकदूसरे के सुखदुख के बारे में भी बतियाते थे. एक दिन मुंशी ने सुखराम के साथ दूसरी रेजा को काम पर जाने के लिए भेजा, तो सुखराम उस से मिन्नतें करने लगा कि उस के साथ फूलमनी को ही भेज दे.

मुंशी ने तिरछी नजरों से सुखराम को देखा और कहा, ‘‘क्या बात है सुखराम, तुम फूलमनी को ही अपने साथ क्यों रखना चाहते हो?’’ सुखराम थोड़ा झेंप सा गया, फिर बोला ‘‘बाबू, बात यह है कि फूलमनी मेरे काम को अच्छी तरह समझती है कि कब मुझे क्या जुगाड़ चाहिए. इस से काम करने में आसानी होती है.’’ ‘‘ठीक है, तुम फूलमनी को अपने साथ रखो, मुझे कोई एतराज नहीं है. बस, काम सही से होना चाहिए… लेकिन, आज तो फूलमनी काम पर आई नहीं है. आज तुम इसी नई रेजा से काम चला लो.’’

झक मार कर सुखराम ने उस नई रेजा को अपने साथ रख लिया, मगर उस से उस के काम करने की पटरी नहीं बैठी, तो वह भी लंच में सिरदर्द का बहाना बना कर हाफ डे कर के घर निकल गया. दरअसल, फूलमनी के नहीं आने से उस का मन काम में नहीं लग रहा था. दूसरे दिन सुखराम ने बस्ती जा कर फूलमनी का पता लगाया, तो मालूम हुआ कि बुतरू ने घर में रखे 20 किलो चावल बेच दिए हैं. फूलमनी से उस का खूब झगड़ा हुआ है. गुस्से में आ कर बुतरू ने उसे इतना मारा कि वह बेहोश हो गई. वह तो उसे मारे ही जा रहा था, पर बस्ती के लोगों ने किसी तरह उस की जान बचाई.

सुखराम ने पड़ोस में पूछा, ‘‘बुतरू अभी कहां है?’’

किसी ने बताया कि वह शराब पी कर बेहोश पड़ा है. सुखराम हिम्मत कर के फूलमनी के घर गया. चौखट पर खड़े हो कर आवाज दी, तो फूलमनी आवाज सुन कर झोंपड़ी से बाहर आई. उस का चेहरा उतरा हुआ था. सुखराम से उस की हालत देखी न गई. वह परेशान हो गया, लेकिन कर भी क्या सकता था. उस ने बस इतना ही पूछा, ‘‘क्या हुआ, जो 2 दिन से काम पर नहीं आ रही हो?’’ दर्द से कराहती फूलमनी ने कहा, ‘‘अब इस चांडाल के साथ रहा नहीं जाता सुखराम. यह नामर्द न कुछ करता है और न ही मुझे कुछ करने देता है. घर में खाने को चावल का एक दाना तक नहीं छोड़ा. सारे चावल बेच कर शराब पी गया.’’

‘‘जितना सहोगी उतना ही जुल्म होगा तुम पर. अब मैं तुम से क्या कहूं. कल काम पर आ जाना. तुम्हारे बिना मेरा मन नहीं लगता है,’’ इतना कह कर सुखराम वहां से चला आया. सुखराम के जाने के बाद बहुत देर तक फूलमनी के मन में यह सवाल उठता रहा कि क्या सचमुच सुखराम उसे चाहता है? फिर वह खुद ही लजा गई. वह भी तो उसे चाहने लगी है. कुछ शब्दों के एक वाक्य ने उस के मन पर इतना गहरा असर किया कि वह अपने सारे दुखदर्द भूल गई. उसे ऐसा लगने लगा, जैसे सुखराम उसे साइकिल के कैरियर पर बैठा कर ऐसी जगह लिए जा रहा है, जहां दोनों का अपना सुखी संसार होगा. वह भी पीछे मुड़ कर देखना नहीं चाह रही थी. बस आगे और आगे खुले आसमान की ओर देख रही थी.

अचानक फूलमनी सपनों के संसार से लौट आई. एक गहरी सांस भरी कि काश, ऐसा बुतरू भी होता. कितना प्यार करती थी वह उस से. उस की खातिर अपने मांबाप को छोड़ कर यहां भाग आई और इस का सिला यह मिल रहा है. आंखों से आंसुओं की बूंदें टपक आईं. बुतरू का नाम आते ही उस का मन फिर कसैला हो गया. अगले दिन सुबहसवेरे फूलमनी काम पर आई, तो उसे देख कर सुखराम का मन मयूर नाच उठा. काम बांटते समय मुंशी ने कहा, ‘‘सुखराम के साथ फूलमनी जाएगी.’’

साइट पर सुखराम आगेआगे अपने औजार ले कर चल पड़ा, पीछेपीछे फूलमनीपाटा, बेलचा, सीमेंट ढोने वाला तसला ले कर चल रही थी.सुखराम ने पीछे घूम कर फूलमनी को एक बार फिर देखा. वह भी उसे ही देख रही थी. दोनों चुप थे. तभी सुखराम ने फूलमनी से कहा, ‘‘तुम ऐसे कब तक बुतरू से पिटती रहोगी फूलमनी?’’ ‘‘देखें, जब तक मेरी किस्मत में लिखा है,’’ फूलमनी बोली.

‘‘तुम छोड़ क्यों नहीं देती उसे?’’ सुखराम ने सवाल किया.

‘‘फिर मेरा क्या होगा?’’

‘‘मैं जो तुम्हारे साथ हूं.’’

‘‘एक बार तो घर छोड़ चुकी हूं और कितनी बार छोडं़ू? अब तो उसी के साथ जीना और मरना है.’’

‘‘ऐसे निकम्मे के हाथों पिटतेपिटाते एक दिन तुम्हारी जान चली जाएगी फूलमनी. क्या तुम मेरा कहा मानोगी?’’

‘‘बोलो…’’

‘‘बुतरू एक जोंक की तरह है, जो तुम्हारे बदन को चूस रहा है. कभी आईने में तुम ने अपनी शक्ल देखी है. एक

बार देखो. जब तुम पहली बार आई थीं, कैसी लगती थीं. आज कैसी लग रही हो. तुम एक बार मेरा यकीन कर के

मेरे साथ चलो. हमारी अपनी प्यार की दुनिया होगी. हम दोनों इज्जत से कमाएंगेखाएंगे.’’

बातें करतेकरते दोनों उस जगह पहुंच चुके थे, जहां उन्हें काम करना था. आसपास कोई नहीं था. वे दोनों एकदूसरे की आंखों में समा चुके थे.

दरोगा और साढ़ आमने सामने

‘‘मिल गया. 15 रुपए की एक बता रहा था. 20 रुपए में 2 दे दी. यानी 10 रुपए की एक फूलगोभी,’’ कहते हुए बेनी बाबू जंग जीतने वाले सेनापति के अंदाज में खुश हो गए.

आलू, बैगन, अदरक, बंदगोभी वगैरह सब्जियों से भरे झोले को संभालते हुए वे जल्दीजल्दी घर लौट रहे थे.

सड़क पर दोनों तरफ सब्जी वाले बैठे थे. कोई हांक लगा रहा था, ‘‘20 में डेढ़, टमाटर ढेर.’’ फल वाला नारा बुलंद कर रहा था, ‘‘बहुत हो गया सस्ता, अमरूद ले भर बस्ता.’’

बिजली के तार पर बैठे बंदर सोच रहे थे, ‘मौका मिले, तो झपट कर अमरूद उठा लें. सौ फीसदी मुफ्त में.’ वैसे, भाषा विज्ञान का एक सवाल है कि पेड़ की शाखा पर चलने के कारण अगर बंदरों का नाम ‘शाखामृग’ पड़ा, तो आजकल के टैलीफोन और बिजली के तारों पर चलने के कारण उन का नाम ‘तारमृग’ भी क्यों न हो

उधर बेनी बाबू ने यह खयाल नहीं किया था कि भीड़ में कोई उन के पीछेपीछे चल रहा है. वह था एक भारीभरकम काला सांड़, जो शायद सोच रहा था, ‘बच्चू, तू अकेलेअकेले सब खाएगा  हजम नहीं होगा बे. एक फूलगोभी तो मुझे देता जा.’ पीछे से आती आवाज से चौंक कर बेनी बाबू ने पीछे मुड़ कर देखा और उन के मुंह से निकला, ‘‘अरे, सत्यानाश हो.’’

वे सिर पर पैर रख कर भागे. कुछकुछ उड़ते हुए. ‘अबे भाग कहां रहा है  सरकार का टैक्स है. पुलिसगुंडे सब का टैक्स है. हमारा टैक्स नहीं देगा क्या  चल, फूलगोभी निकाल,’ मानो सांड़ यह सोच कर उन के पीछे दौड़ने लगा. बेनी बाबू मानो यह सोचते हुए आगे भागे, ‘न मानूं, न मानूं, न मानूं रे. दगाबाज, तेरी बतिया न मानूं रे.’

‘अबे तुझे हजम नहीं होगा. तेरे पेट से निकलेगी गंगा. तेरा खानदान न रहेगा चंगा,’ सांड़ को जैसे गुस्सा आ गया.

एक राही ने जोरदार आवाज में कहा, ‘‘भाई साहब, जल्दीजल्दी भागिए.’’ दूसरे आदमी ने यूएनओ स्टाइल में समझौता कराना चाहा, ‘‘एक फूलगोभी उस के आगे फेंक कर घर जाइए.’’ ‘जाऊं तो जाऊं कहां ऐ दिल, कहां है तेरी मंजिल ’ यह सोचते हुए तड़पने लगे बेनी बाबू. तभी ध्यान आया कि दाहिने हाथ की गली के ठीक सामने पुलिस चौकी है. और कोई न बचाए, खाकी, अपनी रख लो लाज. बचा लो मुसीबत से आज.

दौड़तेहांफते हुए हाथ में थैला लटकाए बेनी बाबू थाने में दाखिल हुए. बेनी बाबू को भीतर आता देख दारोगा बलीराम चिल्लाए, ‘‘अरे, यह क्या हो रहा है  तुम… आप कौन हैं  ऐ गिरधारी, यह कौन अंदर दाखिल हो गया  देख तो…’’

‘‘एक सांड़ मेरे पीछे पड़ा है,’’ बेनी बाबू ने अपनी समस्या बताई.

‘‘सांड़  पीछा कर रहा है  कोई गुंडाबदमाश होता तो कोई बात होती,’’ दारोगा बलीराम ने कहा.

‘‘अरे साहब, यह सांड़ तो गुंडेबदमाश से भी दो कदम आगे है.’’

बाहर से गिरधारी ने मुनादी कर दी, ‘‘लीजिए, वे भी पधार चुके हैं.’’ इसी बीच थाने के अंदर काले पहाड़ जैसे सांड़ की ऐंट्री. दारोगा बलीराम चौंक गए और बोले, ‘‘सुबहसुबह यह क्या बला आ गई ’’ इतने में सांड़ झपटा बेनी बाबू की ओर. वे छिप गए दारोगा बलीराम के पीछे. शुरू हो गई म्यूजिकल चेयर रेस. टेबिल के चारों ओर चक्कर लगा रहे थे तीनों. सब से पहले बेनी, उन के पीछे दारोगा बलीराम और उन दोनों को खदेड़ता हुआ काला पहाड़ जैसा वह सांड़…

‘‘अरे गिरधारी, इस को भगाओ, नहीं तो तुम सब को लाइन हाजिर कराऊंगा,’’ फौजी स्टाइल में दारोगा बलीराम चिल्लाए.

‘‘साहब, हम क्या करें मामूली चोरउचक्के तो हाथ से छूट जाते हैं, ये तो बौखलाए सांड़ हैं. कैसे संभालें ’’ गिरधारी ने सच कहा.

उधर झूमझूम कर, घूमघूम कर चल रहा था तीनों का चक्कर. बीच में टेबिल को घेर कर.

दारोगा बलीराम ने आदेश दिया, ‘‘हवालात का दरवाजा खोल कर इसे अंदर करो.’’

‘‘हम लोग दरवाजा खोल रहे हैं हुजूर. आप अंदर से उसे बाहर हांकिए,’’ गिरधारी ने जोरदार आवाज में कहा.

‘‘यह तो मुझे दौड़ा रहा है. मैं कैसे हांकूंगा  इस आदमी को यहां से निकाल बाहर करो.’’

‘‘आप ही लोग जनता की हिफाजत नहीं करेंगे, तो कौन हमें बचाएगा ’’ बेनी बाबू बोले.

‘‘निकलते हो कि नहीं…’’

दारोगा बलीराम बेनी बाबू पर यों झपटे कि झोला समेत उसे निकाल बाहर करें. सांड़ उन पर लपका. बेनी बाबू ने तुरंत टेबिल के नीचे हाथ में झोला संभालते हुए आसन जमा लिया.

सांड़ हैरान रह गया. गोभी वाला बाबू गया कहां  उसे दारोगा पर गुस्सा आ गया कि कहीं इसी ने तो गोभी नहीं खा ली  वह सांड़ दारोगा बलीराम के पीछे दौड़ता हुआ मानो बोला, ‘छुप गए तारे नजारे सारे, ओए क्या बात हो गई. तू ने गोभी चुराई तो दिन में रात हो गई.’ हवालात का दरवाजा खुला था. बलीराम पहुंचे अंदर और चिल्लाए, ‘‘अरे गिरधारी, हवालात का दरवाजा बंद कर… जल्दी से.’’ गिरधारी ने तभी आदेश का पालन किया.

सांड़ बंद हवालात के सामने फुफकारने लगा और मानो बोला, ‘हुजूर, अब खोलो दरवाजा. मैं प्रजा हूं, तुम हो राजा. भूखे की गोभी मत छीनो. सुना नहीं क्या अरे कमीनो ’ इस के बाद क्या हुआ, मत पूछिए. दूसरे दिन अखबार में इस सीन की फोटो समेत खबर छपी थी.

हां, इतना बता सकता हूं कि मिसेज बेनी को दोनों फूलगोभी मिल गई थीं. सहीसलामत.

दो तरह की औरत

राकेश खाकी वरदी को बड़े ध्यान से पहन रहा था. यही वह समय है, जब उसे वरदी में एक भी सिलवट पसंद नहीं. ड्यूटी खत्म होतेहोते न जाने कितनी सिलवटें और गर्द इस में जम जाती हैं, पर तब उसे इस की परवाह नहीं होती. जब वरदी बदन से उतरती है, तब शरीर अखरोट की गिरी सा बाहर निकल आता है… नरम और कागजी सा.

दूसरा धुला जोड़ा अलमारी में हैंगर से लटका था, अगली सुबह के लिए. पहनते वक्त साफधुली और प्रैस की हुई वरदी से जो लगाव होता है, उसे दिन ढलने तक कायम रखने में बड़ी मुश्किल होती है. पुलिस इंस्पैक्टर होने के नाते दिनभर झगड़ेफसाद सुनना, चोरगिरहकटों के पीछे लगना, हत्या, बलात्कार और लूटपाट की तहकीकात करना और थक कर घर लौटना… रोज यही होता है.

राकेश चमचमाती लाल बैल्ट पैंट की लुप्पी में खोंसने लगा था, तभी उस की बेटी विभा की आवाज कानों में पड़ी, ‘‘पापा, आज हमारे कालेज का सालाना जलसा है. मुझे शाम 7 बजे तक कालेज पहुंचना है. मम्मी को साथ ले जाऊं?’’

‘‘मम्मी… क्यों?’’ उस ने पूछा.

‘‘7 बजे अंधेरा हो जाता है पापा, मुझे डर लगता है,’’ विभा बोली.

‘‘हां, आजकल देश में कई घटनाएं घट चुकी हैं. अकेले निकलना ठीक नहीं,’’ राकेश ने गरदन हिला कर सहमति जताई. उस का चेहरा गंभीर हो गया, जिस में घबराहट के भाव थे. अमूमन ऐसा नहीं होता था. जब वह थाने में होता, उस वक्त घबराहट और चिंता उस के रोब और रुतबे के नीचे पड़ी रहती.

‘‘क्यों टैंशन करते हो पापा, मम्मी साथ जाएंगी न,’’ विभा फिर बोली.

‘‘मम्मी बौडीगार्ड हैं क्या? एक कौकरोच देख कर उन की चीख निकल जाती है,’’ कह कर राकेश मुसकराया, फिर बोला, ‘‘थाने से किसी को भेज दूंगा… मम्मी के साथ ही जाना.’’

यहां दूसरे की बेटी का सवाल होता, तो राकेश कहता, ‘डरती हो, इतनी भी हिम्मत नहीं, क्या करोगी जिंदगी में.’

एक अपराधबोध आ कर राकेश के मन को बींध गया. एक पुलिस अफसर हो कर भी वह आम आदमी से अलग तो नहीं है. वरदी ही उस के स्वभाव को बदलती है. वरदी और सर्विस रिवाल्वर जब घर की अलमारी के भीतर दाखिल हो जाते हैं, तब वह एक आम आदमी होता है.

राकेश 2 बेटियों का पिता है. उस के भीतर भी कहीं न कहीं असुरक्षा और अपनेपन का भाव है. वह हर जगह बच्चों के आगेपीछे साए की तरह नहीं घूम सकता. बड़ा आदमी भी अपने बच्चे के लिए सिक्योरिटी रखता है, फिर भी कहता फिरता है, ‘जमाना खराब है, मुझे भी लड़कियों की फिक्र रहती है.’

खाल चाहे कितनी भी मोटी क्यों न हो, अंदर से नरम ही होती है. विचारों ने साथ छोड़ा कि राकेश का दाहिना हाथ अनचाहे ही सर्विस रिवाल्वर की ओर चला गया, फिर उस ने पिछली जेब को टटोला. कंधे के बैज को दुरुस्त किया. एक रुतबे का एहसास होते ही पुलिसिया रोब राकेश के चेहरे पर टिक गया. थोड़ी ही देर बाद बूटों की आवाज भी उस के साथ कहीं गुम हो गई.

राकेश थाने पहुंच चुका था. फिर वही रोजनामचा. किसी की कार चोरी हो गई, तो किसी की सोने की चेन. सुलहसफाई, मारपीट और फिर एफआईआर. दोपहर हो गई थी, दिमाग थक रहा था. तभी एक औरत आई. कोई 30-32 साल की उम्र रही होगी. राकेश ने सिर उठाया. होंठों पर ताजा लिपस्टिक, आंखों में काजल की तीखी धार, बालों में खोंसा लाल गुलाब और साधारण सा चेहरा. राकेश की पारखी नजर में वह एक दोयम दर्जे की औरत लगी. उस का काम ही कुछ ऐसा है, शक को पुख्ता करने की कोशिश करना… वह करता भी रहा.

उस औरत ने करीब आते ही अपना परिचय दिया, ‘‘मैं दया बस्ती में रहती हूं साहब… मेरा नाम गुलाबी है.’’ ‘‘आगे बोल,’’ राकेश ने कड़क आवाज में कहा और फिर मेज पर खुली फाइल को देखने लगा.

‘‘साहब, मेरी मौसी का घर पास में ही है. मैं तकरीबन हर रोज वहां आतीजाती हूं, इधर से…’’

‘‘अच्छा तो…’’

‘‘आतेजाते सामने नुक्कड़ की दुकान वाला मुझे देख कर गंदी जबान बोलता है साहब,’’ गुलाबी ने झिझक भरी आवाज में कहा.

राकेश ने नजर उठाई, फिर गुलाबी को घूर कर देखा, ‘‘नाम क्या है उस आदमी का?’’

‘‘राम सिंह…’’

‘‘कब बोला वह?’’

‘‘रोज बोलता है साहब.’’

‘‘तो अब शिकायत करने आई है, क्यों…? वैसे, तू करती क्या है?’’ उस ने लहजा सख्त किया.

गुलाबी सकपका गई. वह अब अच्छी तरह समझ गई कि उस ने अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी दे मारी है. इस के बावजूद गुलाबी ने हिम्मत जुटाई और फिर मोटेमोटे आंसू गिराते हुए धीमी आवाज में बोली, ‘‘मैं गलत काम नहीं करती साहब, पर आज उस ने मेरा हाथ पकड़ लिया और बोला कि मेरे साथ चल.’’ राकेश ने थोड़ी नरमी से कहा, ‘‘मैं ने कब बोला कि तू गलत काम करती है. तू कहती है, तो उसे भी देख लेते हैं… क्या नाम बताया था उस का?’’

‘‘राम सिंह,’’ गुलाबी बोली.

‘‘तुझे कैसे पता कि उस का नाम राम सिंह है?’’

गुलाबी को बताते न बना. राकेश गुलाबी को ताड़ गया कि कहीं दाल में कुछ काला है, फिर भी उस ने सिपाहियों को भेज कर राम सिंह को थाने में बुलवा लिया. राम सिंह बेहद घबराया हुआ था. राकेश अपनी कुरसी को छोड़ कर उठ खड़ा हुआ. सामने कोई बड़ा अफसर नहीं, बल्कि मुलजिम मुखातिब था. उस ने डंडा मेज पर फटकारा और गुलाबी से घूर कर पूछा, ‘‘यही है वह राम सिंह, जो तुझे छेड़ता है?’’

‘‘जी हां..’’

‘‘क्यों बे… यह सही कह रही है?’’ राकेश ने डंडे से राम सिंह की ठोड़ी ऊपर उठाई.

‘‘नहीं साहब… यह झूठ बोलती है, मैं ने कुछ नहीं किया,’’ राम सिंह गिड़गिड़ाया.

‘‘यह तो बोलती है कि तू इसे छेड़ता है? देख, अब कानून इतना सख्त है कि इस की शिकायत पर तू एक बार अंदर गया, तो तेरी जमानत भी नहीं होगी, समझा?’’ राम सिंह का डर के मारे गले का थूक सूख गया. उस ने मुड़ कर एक नफरत भरी नजर से उस औरत को देखा. जी किया कि अभी इस का जिस्म चिंदीचिंदी कर दे, लेकिन उसे अपने ही जिस्म की सलामती पर विश्वास नहीं रहा. राम सिंह घबराया, फिर हिम्मत जुटाने लगा. कुछ देर बाद राम सिंह राकेश के करीब आ कर फुसफुसाया, ‘‘साहब, यह चालू लगती है… मुझे फंसाना चाहती है.’’

राकेश के चेहरे की सख्ती पलभर में हट गई, वह ठठा कर हंस दिया, ‘‘सलमान खान समझता है अपनेआप को, चेहरा देखा है कभी आईने में.’’ ‘‘सच कह रहा हूं साहब… मेरा यकीन मानिए. इसी ने मुझ पर डोरे डाले थे. मैं ही बेवकूफ था, जो इस के झांसे में आ गया. यह पहले ही मेरे 5 हजार रुपए हजम कर चुकी है, अब देने में तकरार करती है,’’ राम सिंह बोला. राकेश वापस आ कर अपनी कुरसी पर बैठ गया और गुलाबी की तरफ डंडा हिलाते हुए पूछा, ‘‘तू ने इस से पैसे लिए थे? सच बता, वरना मैं सख्ती कर के उगलवाना भी जानता हूं.’’ गुलाबी की आंखों में खौफ के बादल तैरते जा रहे थे. ठीक सामने जेल का लौकअप आंखों में घूमने लगा था. वह जल्दी ही टूट गई.

‘‘हां, लिए थे साहब, लेकिन इस ने कीमत वसूल कर ली. अब मेरा इस से कोई लेनदेन नहीं है.’’ ‘‘फिर किस बात की शिकायत ले कर आई है… अंदर कर दूं दोनों को,’’ राकेश ने दोनों की ओर तीखी नजर डालते हुए कहा.

‘इस बार माफ कर दो साहब, आइंदा गलती नहीं होगी,’ दोनों के मुंह से एकसाथ निकला. राकेश सोचने लगा था. एक औरत जात इज्जतआबरू के लिए समाज के वहशी दरिंदों से डर खाती है. अंधेरे में बेखौफ नहीं निकल सकती. दूसरी वे हैं, जो अपने जिस्मानी संबंधों को सामाजिक लैवल पर उजागर कर देती हैं. एक अपनी हद पहचानती है, तो दूसरी हद के बाहर बेखौफ जीती है. उस के लिए दिनरात का फर्क नहीं रहता.

श्रीश्री 1008 परचून ऋषि

मैं हैरान हूं. हर तरफ ऋषियों की बाढ़ आई हुई है. परसों जिस दुकान पर परचून का सामान खरीदने के लिए गया, उस दुकान के मालिक ने अपना बड़ा सा फोटो दुकान के बाहर लटका कर उस के नीचे श्रीश्री 1008 परचून ऋषि लिखवा लिया है. अब जब डंडी मार कर कम तोलने वाला और उधार के पैसों पर मनमाने तरीके से ब्याज वसूलने वाला आदमी अपनेआप को ऋषि घोषित कर सकता है, तो फिर महर्षियों, देवर्षियों, राजर्षियों और ब्रह्मर्षियों की तो कल्पना कर के ही मन कांप उठता है. वह तो अच्छा हुआ कि कलियुग ने ऋषियों से श्राप देने की शक्ति छीन ली, वरना ये तो पता नहीं किनकिन अबलाओं पर अपनी इच्छाएं थोपते और मनमानी नहीं कर पाने पर उन्हें पत्थर की शिला में परिवर्तित कर देते.

सड़क पर चलते हुए कई बार लगता है कि भारत एक ऋषि प्रधान देश है. भ्रष्ट अफसरों, सत्ता के दलालों, संस्कृति के सौदागरों, पुरस्कारलोलुप लेखकों, उकताए हुए अध्यापकों से ले कर शहर की सड़कों पर आतीजाती महिलाओं के साथ छेड़खानी करने वाले लुच्चेलफंगों  तक के दिल में अपनी साधना के प्रति इतना समर्पण है कि ऋषिपना स्वयं आ कर उन से अनुमति मांगता प्रतीत होता है कि साहब, क्या मैं आप के व्यक्तित्व का वरण कर के खुद को धन्य कर लूं?

चौराहे पर खड़े ट्रैफिक पुलिस वाले को देखिए. लोग गलत तरीके से एकदूसरे को ओवरटेक कर रहे हों या खतरनाक तेजी से अपनी बाइक दौड़ा रहे हों, उसे फर्क नहीं पड़ता. ड्यूटी पर आते ही वह ध्यान में चला जाता है. कभीकभी किसी मेनका की सड़क पर उपस्थिति उस का ध्यान भंग भी करती है तो सिर्फ इसलिए कि वह जानता है कि वह ऋषि हो चुका है और हमारी संस्कृति में ऋषि होने के लिए अप्सराओं की उपस्थिति से विचलित होना आवश्यक माना जाता है.

थाने में मौजूद पुलिस वाला तो किसी आम आदमी को देखते ही उस पौराणिक ऋषि का आधुनिक अवतार हो जाता है, जिसे बातबात पर भड़कने की और लोगों को श्राप देने की आदत थी. चूंकि हमारा आधुनिक ऋषि श्राप नहीं दे पाता, इसलिए वह गैरजमानती धाराओं में फंसाने की धमकी दे कर या फिर आगंतुक को गालियां दे कर अपने ऋषिधर्म की पूर्ति कर लेता है.

एक पुलिस वाले की तो सारी चेतना इस बात पर केंद्रित थी कि वह मुसीबत में पड़ी औरतों के साथ उन की बेबसी का फायदा उठा कर उन का शोषण कर सके. जब उस पर 2-3 बार इस तरह के आरोप लग गए तो मैं ने एक दिन मौका पा कर उस से पूछ ही लिया कि वह इतनी जलील हरकतें क्यों करता है? पट्ठा पूरे हठयोग के साथ बोला, ‘‘मैं कामऋषि हूं और साधना के पथ पर निकल पड़ा हूं. अब कोई डर मुझे अपनी साधना से नहीं रोक सकता.’’ मैं हैरान था. जो किसी काम के नहीं, वो कामऋषि होने की प्रक्रिया में लीन हो गए हैं. पुराने जमाने में ऋषि खुद को मिलने वाली दक्षिणा और शिष्यों द्वारा लाई गई भिक्षा के दम पर जंगल में कुटिया और आश्रम बना कर भी ठीकठाक जीवनयापन कर लेते थे. लेकिन इस दौर में जब उतने घने जंगल ही नहीं बचे, तो फिर वैसे घनघोर ऋषियों की तलाश क्यों? क्या समाज के लिए यही बात संतोषजनक नहीं है कि जिस हाल में हैं और जो भी कर रहे हैं- लेकिन ऋषि कुछ कर तो रहे हैं.

ऋषियों के अड्डे (अब आश्रम बनाने जितनी जगह सब को कहां मिलती है?) रहेंगे तो राज से जुडे़ लोग अपनी प्रेमकथाओं के साथ वहां आते रहेंगे और राजधानी पहुंच कर अपनी कारगुजारियों को भुला देंगे. इस से दिव्य प्रेमकथाओं का और उस प्रेम के फलस्वरूप मोहक कविताओं का सृजन होगा.

मैं कवि हूं, इसलिए मैं ने कविताओं के बारे में सोचा. लेकिन इन आधुनिक ऋषियों की सक्रियता रहेगी तो न जाने कौनकौन से धंधों में बरकत होगी. गीतऋषि काव्यपाठ के लिए मोटे पारिश्रमिक के साथ अपनी चहेती कवयित्री को भी बुलाए जाने की मांग करेंगे और इस तरह अपने यश के संरक्षण में कुछ जरूरतमंदों के पेट भी खाली नहीं रहना सुनिश्चित करेंगे. वहीं, व्यंग्यऋषि किसी पद के लिए जुगाड़ करेंगे तो भ्रमर्षि अपने जुगाड़ों के साथ समाज को सत्य व भ्रम के मायाजाल में उलझा कर उन शक्तियों के हाथ मजबूत करेंगे, जिन शक्तियों से उन्हें अपने आश्रम के लिए बड़ी जमीन दान में मिलने की उम्मीद है. ज्योतिष और आध्यात्म से ले कर जड़ीबूटियों तक का व्यापार तो उन के लिए सदियों से सुरक्षित है ही.

इन आधुनिक ऋषियों की महिमा अपरंपार है. ये आसन से ले कर सिंहासन तक सब साध सकते हैं. मैं इन के बारे में कुछ और बोलता, लेकिन मैं देख रहा हूं कि श्रीमतीजी स्टंटर्षि हो गई हैं और हम जैसे मामूली लोगों के बस में यह कहां कि किसी ऋषि के स्टंट को बरदाश्त कर सकें. इसलिए बाकी ऋषिकथा आप अपने स्तर पर ही समझ लीजिए.

सूरज पाल और कुमार विश्वास : क्यों बदल रहे हैं धर्म के माने

धर्म के बाजार और कारोबार में इन दिनों भारी तब्दीलियां देखने को मिल रही हैं. नएनए बाबा नएनए गेटअप में आ रहे हैं जो लुभावनी कहानियां व प्रसंग सुना कर भक्तों का जी बहला रहे हैं लेकिन साथ ही उन की जेबें भी खाली कर रहे हैं. इन की ग्राहकी अलगअलग है.

कवि कुमार विश्वास और सूरज पाल सिंह उर्फ़ भोले बाबा में जितने फर्क हैं उतनी ही समानताएं भी हैं. मसलन, दोनों ही कथाओं और प्रवचनों के जरिए अकूत दौलत के मालिक बने. सूरज पाल ने खुद के भगवान होने का दावा कर डाला तो कुमार विश्वास ने यह जोखिम नहीं उठाया क्योंकि उन का ग्राहक वर्ग सवर्ण, शिक्षित और बुद्धिजीवी है जिस के लिए रामकथा आस्था के साथसाथ टाइमपास मूंगफली जैसा विषय भी है. इस के, खासतौर से पारिवारिक प्रसंगों के, जरिए वह अपनी आध्यात्मिक भूख मिटाता है. जबकि, सूरज पाल की ग्राहकी हाथरस हादसे के बाद सभी ने देखा कि गरीब, दलित, ओबीसी तबके की है. इन लोगों को मोक्ष नहीं बल्कि पैसा चाहिए, अपनी बीमारियों व परेशानियों से नजात चाहिए. ये दोनों ही बाबा अपनेअपने स्तर पर अपने ग्राहकों की जरूरत के मुताबिक प्रोडक्ट और सर्विस दोनों देते हैं.

एक बड़ा फर्क दोनों में यह भी है कि सूरज पाल का ग्राहक सड़क के किनारे लगे तम्बुओ में बैठ सब्जीपूरी के भंडारे को भगवान का प्रसाद मान संतुष्ट हो जाता है. मौसम की मार बरदाश्त कर लेता है. लेकिन कुमार विश्वास का ग्राहक बड़ी महंगी गाडियों में आता है और वातानुकूलित हौल की कुरसियों में धंस कर धार्मिक किस्सेकहानियां सुन झूमने लगता है. कुमार नए दौर के नए किस्म के बाबा हैं जिन का पहनावा आंशिक रूप से पंडेपुरोहितों जैसा होता है. वे नारद मुनि की स्टाइल में नहीं बल्कि विश्वामित्र की स्टाइल में रामकथा सुनाते हैं जिस में अधिकतर प्रवचन की केंद्रीय पात्र उर्मिला, कौशल्या, मंदोदरी या सीता होती है जिस से महिला ग्राहकों को लुभाया जा सके क्योंकि श्रोताओं में बड़ी हिस्सेदारी उन्हीं की होती है. वे पौराणिक महिला पात्रों की व्यथापीड़ा या तथाकथित त्याग वगैरह को आज की जिंदगी व समाज से रिलेट करते हैं. लेकिन वे इसे कोसते नहीं कि यह सब पितृसत्तात्मक समाज और धर्म की साजिश है कि औरत मर्दों की दादागीरी बरदाश्त करती रहे, यही उस के लिए विधाता ने तय कर रखा है. यही उस की नियति और ड्यूटी है. औरत महान इसलिए है कि वह तमन ज्यादतियां ख़ामोशी से बरदाश्त कर लेती है.
इस से उन का पुरुष ग्राहक भी खुश हो उठता है कि जो वे नहीं कर पाते यानी एक संपन्न घर में बैठी सजीधजी, गहनों से लदी औरत को सनातन धर्म का पालन करना चाहिए, वह कुमार विश्वास इतने लच्छेदार तरीके से करते हैं कि कोई महिला फिर यह सवाल नहीं करती कि आखिर उर्मिला या सीता का गुनाह क्या था जो उन्हें जिंदगीभर तकलीफें उठानी पड़ीं. पुरुषों के फैसलों को उन्हें ख़ामोशी से मानना पड़ा. उर्मिला की पीड़ा को उकेरते उस के त्याग को प्रधान साबित कर दिया जाता है. साथ ही, दोचार दोहे सुना कर वुमेन एंपावरमैंट की नई परिभाषा गढ़ दी जाती है कि त्याग ही किसी महिला को सशक्त बनाता है, अधिकार या समानता नहीं

जबकि सूरज पाल अपने अनुयायियों को सीधे एक काल्पनिक और चमत्कारी दुनिया की सैर कराता है. वह भी औरतों को दूसरे तरीकों से बरगलाता है जिस का सार यह होता है कि अबला जीवन तेरी यही कहानी, आंचल में है दूध और आखों में है पानी. इस तबके की औरत की तकलीफ उस के आसपास के पुरुष हैं जो शराबी, कबाबी और निकम्मे हैं. इन के जोरजुल्म और अत्याचारोंप्रताडनाओं से आजिज आ गई औरत बाबा से एक आश्वासन भर चाहती है कि उन के आशीर्वाद से सब ठीक हो जायेगा और एक दिन उन का पुरुष, फिर चाहे वह पति, पिता या भाई कोई भी हो, उसे तंग करना छोड़ देगा.
सूरज पाल खुद को भगवान घोषित करने से नहीं चूकता जबकि कुमार यह भरोसा दिलाते रहते हैं कि ईश्वर है लेकिन उसे पा लेना कोई हंसीखेल नहीं बल्कि उस के लिए एक तयशुदा रास्ता है जो इन्हीं भव्य और महंगी कथाओं और प्रवचनों से हो कर जाता है. ईश्वर तक पहुंचने, उसे महसूस करने या उसे पाने यानी मोक्ष के लिए यह जरूरी नहीं कि आप नाममात्र के कपड़ों में किसी गुफा या कन्दरा में सालों भूखेप्यासे बैठे रहें, तपस्या या भजन करते रहें बल्कि आप अपने घरगृहस्थी में रहते तमाम सांसारिक कर्म करते भी उसे पा सकते हैं पर शर्त इतनी है कि आप कथाओं को रस्वादन करते रहें और एवज में कथावाचकों की विलासी जिंदगी का खर्च उठाते रहें.

एक हादसा हुआ तो सूरज पाल की राजाओं, महाराजाओं जैसी जिंदगी सार्वजनिक हो गई. उस से पहले भी कई बाबाओं की हो चुकी है. चंद्रास्वामी से यह सिलसिला शुरू हो कर आशाराम, रामरहीम, निर्मल बाबा वगैरह से होते हुए सूरजपाल पर खत्म नहीं होता बल्कि बाबाओं की देश में भरमार है जो भक्तों की दानदक्षिणा पर शाही-विलासी और ऐयाशी की जिंदगी जी रहे हैं.
कुमार विश्वास जैसे बाबा इन मानों में अपवाद हैं. वे ब्राह्मण हैं, बुद्धिजीवी हैं और सामाजिक-राजनातिक घटनाक्रम पर पैनी नजर रखते हैं और उसी के मुताबिक अपनी भूमिका तय करते हैं. इस किस्म के बाबा आमतौर पर हलके स्तर के अंधविश्वास और टोनटोटके नहीं फैलाते. ये अभिजात्य वर्ग को बौद्धिक और पौराणिक रूप से घेरते हैं. दो टूक कहा जाए तो ये लोग वैचारिक और सैद्धांतिक तौर पर वैष्णव हैं जिन का मकसद सनातन धर्म का प्रचार करना है. एक तरह से ये भाजपा का काम आसान करते हैं लेकिन इसे आरोप के तौर पर नहीं स्वीकारते, उलटे, इस से तिलमिला उठते हैं.

बात सच भी है कि जब कांग्रेस सत्ता में थी तो इस किस्म के बाबा और कथावाचक उस के एजेंडे के मुताबिक काम करते थे लेकिन अब भाजपा बड़ी ताकत बन कर उभरी तो ये लोग राम-कृष्ण करने लगे.
कोई बाबा राजनीति से अछूता नहीं है. सूरजपाल सपा का काम आसान कर रहा था तो मौजूदा ब्रैंडेड बाबाओं में बागेश्वर बाबा, अनिरुद्धाचार्य और प्रदीप मिश्रा टाइप के बाबा भी यही कर रहे हैं.
लेकिन मकसद सभी का एक ही है कि बोरे भरभर कर पैसा कमाओ. हवाई जहाजों में उड़ो लेकिन भक्तों को यह उपदेश देते रहो कि त्याग करो, मोहमाया छोड़ो, भक्ति करो और इन से भी अहम बात, हमें दानदक्षिणा देते रहो, तभी सुखी रहोगे. दक्षिणा के एवज में पापमुक्ति और मोक्ष के इस महंगे कारोबार में अब भक्तों को भी सहूलियतें दे कर उन्हें सुविधाभोगी बनाया जा रहा है. तमाम बाबाओं के आश्रम हाईटैक हो गए हैं. प्रवचन और कथा अब एयरकंडीशंड हौल में किए जाते हैं. किसी कौर्पोरेट इवैंट की तरह भक्तों को सुबह के चायनाश्ते से ले कर बुफे वाला लंच-डिनर हाई टी वगैरह दी जाने लगी है. ऐसा सिर्फ धंधा बढ़ाने के लिए किया जा रहा है.

यही हाल मंदिरों का है जिन के आधुनिकीकरण और भव्यता के लिए मोदी सरकार ने जम कर पैसा फूंका है. हालांकि इस का खमियाजा भी उसे 4 जून के नतीजों में भुगतना पड़ा है. सूरजपाल और कुमार विश्वास जैसे बाबाओं से यह तो साफ़ हो ही जाता है कि अलगअलग तबकों के लिए न केवल धर्म अलग है बल्कि बाबा भी अलगअलग हैं.
अब यह भक्तों, खासतौर से महिलाओं, के सोचने व समझने की बात है कि ये मुफ्तखोर देते तो कुछ नहीं, उलटे, मेहनत की कमाई पर न केवल डाका डालते हैं बल्कि दिमागीतौर पर पिछड़ा भी रखते हैं जिस से कि व्रतत्योहार, दानदक्षिणा का माहौल बना रहे. फिर इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह धार्मिक आयोजन या कथा कोलकाता के किसी औडिटोरियम में हो रहा है या हाथरस के खेत में ही टैंपरेरी इंतजाम कर दिए गए हैं.

बौलीवुड July 3rd Week : एडल्ट मूवी BadNewz की कमाई का इशारा समझें

‘बैड न्यूज’ को सैक्स व विषाक्त मर्दानगी भी सफलता नहीं दिला पाई तो वहीं सरकारपरस्त सिनेमा भी ठुकराया गया
जुलाई के दूसरे सप्ताह में अक्षय कुमार की ‘सरफिरा’ और कमल हासन की फिल्म ‘हिंदुस्तानी 2’ को जिस तरह से दर्शकों ने नकारा था, उस से एक ही संदेश उभर कर आया था कि दर्शक की नजर में बौलीवुड या दक्षिण के सिनेमा में कोई फर्क नहीं है. उसे कंटैंट प्रधान अच्छा व मनोरंजक सिनेमा चाहिए. जुलाई माह के तीसरे सप्ताह यानी कि 19 जुलाई को विक्की कौशल व तृप्ति डिमरी की वयस्क फिल्म ‘बैड न्यूज’, गोधरा कांड पर ‘ऐक्सिडैंट और कांसपिरेसी गोधरा’ और ‘द हीस्ट’ ये 3 फिल्में रिलीज हुईं.

जुलाई माह के तीसरे सप्ताह 19 जुलाई को प्रदर्शित फिल्में देखने के बाद किसी भी फिल्म से कोई उम्मीद नहीं थी. विक्की कौशल, तृप्ति डिमरी और एमी विर्क की आनंद तिवारी निर्देशित फिल्म ‘बैड न्यूज’ में विषाक्त मर्दानगी और सैक्स के भूखे इंसानों का एक अलग पक्ष रखते हुए विज्ञान को धता बताने वाली अविश्वसनीय कहानी पेश की गई. इसे देख कर एहसास हुआ था कि इस फिल्म को दर्शक नहीं मिलने वाले.

लेकिन 80 करोड़ रुपए की लागत में बनी फिल्म ‘बैड न्यूज’ ने पूरे सप्ताह में बौक्सऔफिस पर 45 करोड़ रुपए कमा लिए. इस में से निर्माता की जेब में 20 करोड़ रुपए ही जाएंगे. जबकि निर्माता ने अपनी तरफ से काफी कोशिश की. 22 जुलाई से एक टिकट पर एक टिकट मुफ्त भी दिया, पर वह बात नहीं बनी जो निर्माता चाहते थे. फिर भी वाहियात फिल्म ‘बैड न्यूज़’ के 45 करोड़़ रुपए कमा लेने से एक बात उभर कर आती है कि हमारे देश में सैक्स के भूखे इंसानों की कमी नहीं है. दर्शकों का एक वर्ग आज भी फिल्म में सिर्फ सैक्स व हीरोईन की जिस्म की नुमाइश ही देखने जाता है. ऐसे दर्शकों के ही चलते कुछ फिल्मकार अच्छे कंटैंट वाला सिनेमा बनाने के बजाय सैक्स परोसने पर सारा ध्यान देते हैं. इस फिल्म ने सोचने पर विवश कर दिया है कि हमारा समाज किस दिशा में जा रहा है. ‘बैड न्यूज’ को सफलता नहीं मिली. इस से तृप्ति डिमरी के लिए संकेत हैं कि वह अपने जिस्म की नुमाइश व सैकस दृश्यों को करने पर ध्यान देने के बजाय अपनी अभिनय प्रतिभा के बल पर दर्शकों का दिल जीतने का प्रयास करे, तभी वह ‘लंबी रेस का घोड़ा’ बन सकती है.

दूसरी फिल्म ‘द हीस्ट’ ने पूरे सप्ताह में बामुश्किल 10 लाख रुपए ही कमाए. तीसरी फिल्म ‘ऐक्सिडैंट और कांसपिरेसी गोधरा’ ने 7 दिनों में एक करोड़ दस लाख रुपए ही कमाए. इस में से निर्माता की जेब में बामुश्किल 45 लाख रुपए ही आएंगे. इस फिल्म की बौक्सऔफिस पर हुई इतनी दुर्गति से फिल्मकारों को साफ संदेश है कि सराकरपरस्त सिनेमा से लोग दूर रहना चाहते हैं. लोग चाहते हैं कि फिल्मकार महज सरकार को खुश रखने के लिए तथ्यों को तोड़मरोड़ कर फिल्मों में पेश कर लोगों को दिग्भ्रमित करने का प्रयास छोड़ दें.
शान्तिस्वरुप त्रिपाठी

अनोखा सबक

सिपाही टीकाचंद बड़ी बेचैनी से दारोगाजी का इंतजार कर रहा था. वह कभी अपनी कलाई पर बंधी हुई घड़ी की तरफ देखता, तो कभी थाने से बाहर आ कर दूर तक नजर दौड़ाता, लेकिन दारोगाजी का कहीं कोई अतापता न था. वे शाम के 6 बजे वापस आने की कह कर शहर में किसी सेठ की दावत में गए थे, लेकिन 7 बजने के बाद भी वापस नहीं आए थे.

‘शायद कहीं और बैठे अपना रंग जमा रहे होंगे,’ ऐसा सोच कर सिपाही टीकाचंद दारोगाजी की तरफ से निश्चिंत हो कर कुरसी पर आराम से बैठ गया.

आज टीकाचंद बहुत खुश था, क्योंकि उस के हाथ एक बहुत अच्छा ‘माल’ लगा था. उस दिन के मुकाबले आज उस की आमदनी यानी वसूली भी बहुत अच्छी हो गई थी.

आज उस ने सारा दिन रेहड़ी वालों, ट्रक वालों और खटारा बस वालों से हफ्ता वसूला था, जिस से उस के पास अच्छीखासी रकम जमा हो गई थी. उन पैसों में से टीकाचंद आधे पैसे दारोगाजी को देता था और आधे खुद रखता था.

सिपाही टीकाचंद का रोज का यही काम था. ड्यूटी कम करना और वसूली करना… जनता की सेवा कम, जनता को परेशान ज्यादा करना.

सिपाही टीकाचंद सोच रहा था कि इस आमदनी में से वह दारोगाजी को आधा हिस्सा नहीं देगा, क्योंकि आज उस ने दारोगाजी को खुश करने के लिए अलग से शबाब का इंतजाम कर लिया है.

जिस दिन वह दारोगाजी के लिए शबाब का इंतजाम करता था, उस दिन दारोगाजी खुश हो कर उस से अपना आधा हिस्सा नहीं लेते थे, बल्कि उस दिन का पूरा हिस्सा उसे ही दे देते थे.

रात के तकरीबन 8 बजे तेज आवाज करती जीप थाने के बाहर आ कर रुकी. सिपाही टीकाचंद फौरन कुरसी छोड़ कर खड़ा हो गया और बाहर की तरफ भागा.

नशे में चूर दारोगाजी जीप से उतरे. उन के कदम लड़खड़ा रहे थे. आंखें नशे से बुझीबुझी सी थीं. उन की हालत से तो ऐसा लग रहा था, जैसे उन्होंने शराब पी रखी हो, क्योंकि चलते समय उन के पैर बुरी तरह लड़खड़ा रहे थे. उन के होंठों पर पुरानी फिल्म का एक गाना था, जिसे वे बड़े रोमांटिक अंदाज में गुनगुना रहे थे.

दारोगाजी गुनगुनाते हुए अंदर आ कर कुरसी पर ऐसे धंसे, जैसे पता नहीं वे कितना लंबा सफर तय कर के आए हों.

सिपाही टीकाचंद ने चापलूसी करते हुए दारोगाजी के जूते उतारे. दारोगाजी ने सामने रखी मेज पर अपने दोनों पैर रख दिए और फिर पैरों को ऐसे अंदाज में हिलाने लगे, जैसे वे थाने में नहीं, बल्कि अपने घर के ड्राइंगरूम में बैठे हों.

दारोगाजी ने अपनी पैंट की जेब में से एक महंगी सिगरेट का पैकेट निकाला और फिल्मी अंदाज में सिगरेट को अपने होंठों के बीच दबाया, तो सिपाही टीकाचंद ने अपने लाइटर से दारोगाजी की सिगरेट जला दी.

‘‘साहबजी, आज आप ने बड़ी देर लगा दी?’’ सिपाही टीकाचंद अपनी जेब में लाइटर रखते हुए बोला.

दारोगाजी सिगरेट का लंबा कश खींच कर धुआं बाहर छोड़ते हुए बोले, ‘‘टीकाचंद, आज माहेश्वरी सेठ की दावत में मजा आ गया. दावत में शहर के बड़ेबड़े लोग आए थे. मेरा तो वहां से उठने का मन ही नहीं कर रहा था, लेकिन मजबूरी में आना पड़ा.

‘‘अच्छा, यह बता टीकाचंद, आज का काम कैसा रहा?’’ दारोगाजी ने बात का रुख बदलते हुए पूछा.

‘‘आज का काम तो बस ठीक ही रहा, लेकिन आज मैं ने आप को खुश करने का बहुत अच्छा इंतजाम किया है,’’ सिपाही टीकाचंद ने धीरे से मुसकराते हुए कहा, तो दारोगाजी के कान खड़े हो गए.

‘‘कैसा इंतजाम किया है आज?’’ दारोगाजी बोले.

‘‘साहबजी, आज मेरे हाथ बहुत अच्छा माल लगा है. माल का मतलब छोकरी से है साहबजी, छोकरी क्या है, बस ये समझ लीजिए एकदम पटाखा है, पटाखा. आप उसे देखोगे, तो बस देखते ही रह जाओगे. मुझे तो वह छोकरी बिगड़ी हुई अमीरजादी लगती है,’’ सिपाही टीकाचंद ने कहा.

उस की बात सुन कर दारोगाजी के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई.

‘‘टीकाचंद, तुम्हारे हाथ वह कहां से लग गई?’’ दारोगाजी अपनी मूंछों पर ताव देते हुए बोले.

दारोगाजी के पूछने पर सिपाही टीकाचंद ने बताया, ‘‘साहबजी, आज मैं दुर्गा चौक से गुजर रहा था. वहां मैं ने एक लड़की को अकेले खड़े देखा, तो मुझे उस पर कुछ शक हुआ.

‘‘जिस बस स्टैंड पर वह खड़ी थी, वहां कोई भला आदमी खड़ा होना भी पसंद नहीं करता है. वह पूरा इलाका चोरबदमाशों से भरा हुआ है.

‘‘उस को देख कर मैं फौरन समझ गया कि यह लड़की चालू किस्म की है. उस के आसपास 2-4 लफंगे किस्म के गुंडे भी मंडरा रहे थे.

‘‘मैं ने सोचा कि क्यों न आज आप को खुश करने के लिए उस को थाने ले चलूं. ऐसा सोच कर मैं फौरन उस के पास जा पहुंचा.

‘‘मुझे देख कर वहां मौजूद आवारा लड़के फौरन वहां से भाग लिए. मैं ने उस लड़की का गौर से मुआयना किया.

‘‘फिर मैं ने पुलिसिया अंदाज में कहा, ‘कौन हो तुम? और यहां अकेली खड़ी क्या कर रही हो?’

‘‘मेरी यह बात सुन कर वह मुझे घूरते हुए बोली, ‘यहां अकेले खड़ा होना क्या जुर्म है?’

‘‘उस का यह जवाब सुन कर मैं समझ गया कि यह लड़की चालू किस्म की है और आसानी से कब्जे में आने वाली नहीं.

‘‘मैं ने नाम पूछा, तो वह कहने लगी, ‘मेरे नाम वारंट है क्या?’

‘‘वह बड़ी निडर छोकरी है साहब. मैं जो भी बात कहता, उसे फौरन काट देती थी.

‘‘मैं ने उसे अपने जाल में फंसाना चाहा, लेकिन वह फंसने को तैयार ही नहीं थी.

‘‘आसानी से बात न बनते देख उस पर मैं ने अपना पुलिसिया रोब झाड़ना शुरू कर दिया. बड़ी मुश्किल से उस पर मेरे रोब का असर हुआ. मैं ने उस पर 2-4 उलटेसीधे आरोप लगा दिए और थाने चलने को कहा, लेकिन थाने चलने को वह तैयार ही नहीं हुई.

‘‘मैं ने कहा, ‘थाने तो तुम्हें जरूर चलना पड़ेगा. वहां तुम से पूछताछ की जाएगी. हो सकता है कि तुम अपने दोस्त के साथ घर से भाग कर यहां आई हो.’

‘‘मेरी यह बात सुन कर वह बौखला गई और मुझे धमकी देते हुए कहने लगी, ‘‘मुझे थाने ले जा कर तुम बहुत पछताओगे, मेरी पहुंच ऊपर तक है.’

‘‘छोकरी की इस धमकी का मुझ पर कोई असर नहीं हुआ. ऐसी धमकी सुनने की हमें आदत सी पड़ गई है…

‘‘पता नहीं, आजकल जनता पुलिस को क्या समझती है? हर कोई पुलिस को अपनी ऊंची पहुंच की धमकी दे देता है, जबकि असल में उस की पहुंच एक चपरासी तक भी नहीं होती.

‘‘मैं धमकियों की परवाह किए बिना उसे थाने ले आया और यह कह कर लौकअप में बंद कर दिया कि थोड़ी देर में दारोगाजी आएंगे. पूछताछ के बाद तुम्हें छोड़ दिया जाएगा.

‘‘जाइए, उस से पूछताछ कीजिए, बेचारी बहुत देर से आप का इंतजार कर रही है,’’ सिपाही टीकाचंद ने अपनी एक आंख दबाते हुए कहा.

दारोगाजी के होंठों पर मुसकान तैर गई. उन की मुसकराहट में खोट भरा था. उन्होंने टीकाचंद को इशारा किया, तो वह तुरंत अलमारी से विदेशी शराब की बोतल निकाल लाया और पैग बना कर दारोगाजी को दे दिया.

दारोगाजी ने कई पैग अपने हलक से नीचे उतार दिए. ज्यादा शराब पीने से उन का चेहरा खूंख्वार हो गया था. उन की आंखें अंगारे की तरह लाल हो गईं.

वह लुंगीबनियान पहन लड़खड़ाते कदमों से लौकअप में चले गए. सिपाही टीकाचंद ने फुरती से दरवाजा बंद कर दिया और वह बैठ कर बोतल में बची हुई शराब खुद पीने लगा.

दारोगाजी को कमरे में घुसे अभी थोड़ी ही देर हुई थी कि उन के चीखनेचिल्लाने की आवाजें आने लगीं.

सिपाही टीकाचंद ने हड़बड़ा कर दरवाजा खोला, तो दारोगाजी उस के ऊपर गिर पड़े. उन का हुलिया बिगड़ा हुआ था.

थोड़ी देर पहले तक सहीसलामत दारोगाजी से अब अपने पैरों पर खड़ा भी नहीं हुआ जा रहा था. उन का सारा मुंह सूजा हुआ था. इस से पहले कि सिपाही टीकाचंद कुछ समझ पाता, उस के सामने वही लड़की आ कर खड़ी हो गई और बोली, ‘‘देख ली अपने दारोगाजी की हालत?’’

‘‘शर्म आनी चाहिए तुम लोगों को. सरकार तुम्हें यह वरदी जनता की हिफाजत करने के लिए देती है, लेकिन तुम लोग इस वरदी का नाजायज फायदा उठाते हो,’’ लड़की चिल्लाते हुए बोली.

लड़की एक पल के लिए रुकी और सिपाही टीकाचंद को घूरते हुए बोली, ‘‘तुम्हारी बदतमीजी का मजा मैं तुम्हें वहीं चखा सकती थी, लेकिन उस समय तुम ने वरदी पहन रखी थी और मैं तुम पर हाथ उठा कर वरदी का अपमान नहीं करना चाहती थी, क्योंकि यह वरदी हमारे देश की शान है और हमें इस का अपमान करने का कोई हक नहीं. पता नहीं, क्यों सरकार तुम जैसों को यह वरदी पहना देती है?’’

लड़की की इस बात से सिपाही टीकाचंद कांप उठा.

‘‘जातेजाते मैं तुम्हें अपनी पहुंच के बारे में बता दूं, मैं यहां के विधायक की बेटी हूं,’’ कह कर लड़की तुरंत थाने से बाहर निकल गई.

सिपाही टीकाचंद आंखें फाड़े खड़ा लड़की को जाते हुए देखता रहा.

दारोगाजी जमीन पर बैठे दर्द से कराह रहे थे. उन्होंने लड़की को परखने में भूल की थी, क्योंकि वह जूडोकराटे में माहिर थी. उस ने दारोगाजी की जो धुनाई की थी, वह सबक दारोगाजी के लिए अनोखा था.                   

ज्योतिष से रोजगार

किसी भी धंधे को शुरू करने के लिए आप को एक मोटी रकम को धंधे में लगाने का जोखिम उठाना पड़ता है. सरकारी सेवा क्षेत्र में जाने से पहले तमाम तरह की प्रतियोगी परीक्षाओं को ‘झेलना’ पड़ता है. चार्टर्ड अकाउंटैंट, वकील, डाक्टर, इंजीनियर वगैरह बनने के लिए बरसों तक हजारों लाखों रुपए बहा कर मोटीमोटी किताबों से दिनरात माथापच्ची कर के आप कोई डिगरी अगर हासिल कर भी लेते हैं, तो आप 15-20 हजार रुपए महीने ही कमा पाते हैं. इस के उलट ‘ज्योतिषाचार्य’ बनने के लिए आप को न तो ज्यादा रुपएपैसे खर्च करने की जरूरत है और न ही दिमाग की. बस, आप में बात करने की चालाकी व अंदाजा लगाने की लियाकत होनी चाहिए.

अगर आप शर्मीले मिजाज के हैं, तो हम आप को पहले ही बता देना चाहेंगे कि इस कमी की वजह से आप कभी भी इस क्षेत्र में कामयाबी हासिल नहीं कर पाएंगे. ज्योतिषी बनने से पहले शर्म छोड़ना उसी तरह बहुत जरूरी है, जिस तरह बीवी बनने के लिए मायके को छोड़ना. ज्योतिषाचार्य बनने के लिए सब से पहले तो आप को पैंटशर्ट छोड़ कर धोतीकुरते की ‘यूनीफार्म’ अपनानी पड़ेगी. शास्त्रों में लिखा है कि शिखा रखने से आदमी की बुद्धि तेज होती है. हर पंडित इस बात को ध्यान में रख कर ही औरतों की माफिक चोटी रखता है, इसलिए आप को भी रखनी पड़ेगी. इस के लिए आप को एक बार सिर मुंड़वाने की जरूरत भी पड़ सकती है.

अपने ललाट पर तिलक भी लगाना पड़ेगा. अगर आप का ललाट काफी चौड़ा है, तो हम आप को चंदन का बड़ा व गोल तिलक लगाने की सलाह देते हैं. अगर आप का मुंह पिचका हुआ है, तो आप अपनी धर्मपत्नी से सिंदूर ले कर, उस में थोड़ा पानी मिला कर, झाड़ू की तीली की मदद से लंबा सा तिलक, जिसे ‘श्री’ कहा जाता है, लगा सकते हैं.

आजकल बहुत तरह के तिलक चल निकले हैं. जिस तिलक को लगा कर आप की इमेज ‘ऐक्स्ट्रा और्डिनरी’ जैसी लगे, आप उसी को अपना सकते हैं. ऐसा इसलिए, क्योंकि इस पेशे में ऊटपटांग बोलचाल व हरकतों की बेहद अहमियत है.

आप अपना ‘ज्योतिष दफ्तर’ अपने घर के ही किसी कमरे में आराम से खोल सकते हैं. आप के घर के बाहर इस बारे में एक बोर्ड जरूर लगा होना चाहिए, ताकि लोगों को इस बात की जानकारी आसानी से हो सके.

जिस तरह किसी दिल के माहिर डाक्टर के क्लिनिक में दिल का बड़ा सा फोटो व कान के माहिर डाक्टर के यहां कान के फोटो लगे रहते हैं, उसी तरह आप के ‘दफ्तर’ में भी ‘हाथ’ का एक बड़ा सा फोटो लगा होना चाहिए.

पूरे कमरे में जहांतहां संस्कृत भाषा में लिखी सूक्तियां, मंत्रों व श्लोकों के स्टीकर चिपके होने चाहिए. भले ही इस से कमरे की शोभा खराब हो, पर ये आप के पहुंचे हुए ज्योतिषी होने की शख्सीयत में चार चांद लगा जाएंगे.

आप के दफ्तर में 4-5 तरह के पंचांग बेतरतीबी से बिखरे होने चाहिए. यह आप के बिजी होने का सुबूत होगा.

दफ्तर में सैकड़ों साल पहले लिखी हुई धर्म व कर्मकांडों की किताबों का भी अच्छाखासा संग्रह होना जरूरी है. ज्यादातर ज्योतिषियों की संतानें इतनी भ्रष्ट व कामचोर होती हैं कि वे अपने बाप का पेशा अपना नहीं पातीं. सो, अगर आप अपने शहर की किसी कबाड़ी की दुकान खंगालें, तो तमाम कीमती किताबें आप को रद्दी के भाव भी मिल सकती हैं.

इस से आप को एक फायदा और भी होगा. वह यह कि आप के ‘ग्राहकों’ की नजर जब इन पुरानी किताबों पर पड़ेगी, तो वे यही सोचेंगे कि आप ने इन किताबों का बड़ा गहरा अध्ययन किया है, तभी तो ये ग्रंथ इस हालत में हैं.

इस से आप के शहर में आप की इमेज शास्त्रों के ज्ञाता व महापंडित जैसी बनने लगेगी. भले ही आप को संस्कृत की एबीसीडी न आती हो, पर इस से आप के नाम के साथ ‘पुराणाचार्य’, ‘वेदाचार्य’ व ‘व्याकरणाचार्य’ जैसे शब्द लगने लगेंगे.

ये तो हुई बुनियादी बातें. अब जरा प्रैक्टिकल बातों को ध्यान से समझ लें.

आप अपनी बातों में संस्कृत के कुछ शब्दों को रट कर जहांतहां ‘फिट’ करने की आदत डालें. किसी आदमी के चेहरे को पढ़ कर कुछ जानने की कोशिश करें. कुछ बातें ऐसी होती हैं कि उन्हें हर किसी पर आसानी से फिट किया जा सकता है.

मसलन, आप काफी प्रतिभावान हैं, मगर यह दुख की बात है कि आप की प्रतिभा का सही इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है. समाज में जो इज्जत आप को मिलनी चाहिए, वह नहीं मिल रही है.

आप में काफी कुछ करगुजरने की क्षमता है, पर शनि की बुरी नजर की वजह से आप हर बार नाकाम हो रहे हैं. आप जिस क्षमता से काम कर रहे हैं, उस के मुताबिक आप को कामयाबी नहीं मिल रही है.

आप सभी से प्यार करने वाले जज्बाती इनसान हैं, पर इस के बदले आप को कभी किसी का प्यार नहीं मिल पा रहा है. उलटे आप अपनों द्वारा ही दुत्कारे जा रहे हैं.

आप कला प्रेमी, संगीत प्रेमी व खास काबिलीयत रखने वाले हैं. आप अपने वजूद की वजह से सब से अलग जानेपहचाने जाते हैं, वगैरह.

लड़कियां कुंआरी हैं या शादीशुदा, यह उन के सुहागचिह्नों की मदद से आसानी से पहचाना जा सकता है. लड़कों के संबंध में देखिए कि उस की अनामिका उंगली में कोई सोने की अंगूठी है या गले में सोने का हार है या नहीं.

जब आप के पास कोई कुंआरा लड़का आता है, तो वह यही जानना चाहेगा कि वह इम्तिहान में पास हो सकेगा या नहीं. या फिर उस के लिए कोई धंधा करना ठीक रहेगा या नौकरी.

अगर आप के पास कोई कुंआरी लड़की आती है, तो वह यकीनन अपनी शादी में आ रही अड़चनों को ले कर परेशान होगी और आप से यह जानना चाहेगी कि कौन सा ग्रह इस काम में रुकावट डाल रहा है. इस को शांत करने के लिए आप को कितना चढ़ावा देना पड़ेगा. गोया, आप ज्योतिषी न हो कर इस मृत्युलोक में सारे ग्रहों के प्रतिनिधि हो गए.

कोई शादीशुदा नौजवान यदि आए, तो वह अपनी बीवी से पीडि़त होता है. यदि कोई नवविवाहिता आए, तो वह बेचारी अपने पति के शराबी, दुर्व्यसनी व कामचोर होने की वजह से परेशान हो कर आप के पास पहुंचती है.

अगर आप के पास 25-30 साल के मियांबीवी आते हैं, तो आप सीधे ही इस नतीजे पर पहुंच जाइए कि उन को संतानसुख की प्राप्ति नहीं हो पा रही है.

इस के लिए पहले तो आप उन दोनों की कुंडली मिलाने के बहाने ‘मोटी फीस’ झटक सकते हैं. बाद में उन्हें बता सकते हैं कि क्या करने से संतान योग बनता दिख रहा है. इस के लिए ऐसा अनुष्ठान आदि का काम चुनें, जिस से कि आप को लंबा फायदा हो.

आप अपने पास पहुंचे ग्राहक की आंखों को ध्यान से देखिए, अगर वे गहरी लाल हैं और उन के नीचे गहरे काले गड्ढे भी हैं, तो वह आदमी बीमार ही नहीं, बल्कि अनिद्रा का भी शिकार होता है. ऐसे आदमी शारीरिक रूप से कम व दिमागी रूप से ज्यादा बीमार होते हैं. ऐसे लोगों के घर जा कर आप कोई जाप कर के कमाई कर सकते हैं.

पीडि़त आदमी आप को अपने घर से भोजन करा कर ही जाने देगा. ऐसे में आप अपना मनचाहा भोजन यह कह कर उस से बनवा सकते हैं कि अमुक भोजन ऊपर वाले को बहुत प्रिय है और इस का भोग लगाने से वे शीघ्र ही प्रसन्न होते हैं.

एक कहावत है कि सेठ, जेठ और ब्राह्मण का पेट बड़ा ही होता है. ब्राह्मणों को खुद का कमाया भोजन रास नहीं आता है और यह भोजन उन के शरीर को भी नहीं लग पाता है. ऐसे में मजबूत बदन बनाने के लिए यजमान के भोजन पर निर्भर रहना बहुत जरूरी होता है. इसलिए यजमान को उपाय बताते समय ‘ब्राह्मण भोज’ की बात जरूर बतानी चाहिए.

आप के पास रिटायर होने की उम्र में कोई आदमी पहुंचता है, तो वह निश्चित रूप से अपने बेटेबहुओं की अनदेखी का शिकार होता है.

सावधान रहें, ऐसा भी हो सकता है कि वह कोई सरकारी मुलाजिम रहा हो या उस की पेंशन अटकी पड़ी हो.

शुरूशुरू में आप को थोड़ी दिक्कत जरूर आ सकती है, पर 2-4 साल बाद आप अंदाजा लगाने में इतने माहिर हो जाएंगे कि आप का अंधेरे में छोड़ा गया तीर भी निशाने पर जा लगेगा. आप की आंखों की काबिलीयत किसी ‘ऐक्सरे मशीन’ जैसी बन जाएगी. कामयाबी आप के कदम चूमेगी.

आप के द्वारा यजमानों का सही भविष्यफल बता देने से वे आप के परमभक्त बन जाएंगे. वे आप के चलतेफिरते इश्तिहार भी साबित होंगे. इस से आप के दफ्तर में यजमानों की भीड़ लग जाएगी और आप डाक्टरों, वकीलों आदि की जलन की वजह बन जाएंगे.

इस धंधे का सब से बड़ा फायदा तो यह है कि यह तेजी व मंदी से बेअसर रहता है. उलटे ऐसे समय में जो लोग इस से पीडि़त होंगे, वे सभी आप की ही ‘शरण’ में आएंगे. सो, ऐसे उलट समय में भी आप का कारोबार अच्छाखासा चलता रहेगा.

तो जनाब, देरी किस बात की है  आज ही अपना कोई अच्छा सा नामकरण कर लीजिए और आज के जमाने में सब से ज्यादा मुनाफा देने वाला ज्योतिष का ‘धंधा’ शुरू कर दीजिए.

रज्जो – सुरेंद्र और माधवी की चाल

रज्जो रसोईघर का काम निबटा कर निकली, तो रात के 10 बज रहे थे. वह अपने कमरे में जाने से पहले सुरेंद्र के कमरे में पहुंची. वह उस समय बिस्तर पर आंखें बंद किए लेटा था.

‘‘साहबजी, मैं कमरे पर सोने जा रही हूं. कुछ लाना है तो बताइए?’’ रज्जो ने सुरेंद्र की ओर देखते हुए पूछा.

सुरेंद्र ने आंखें खोलीं और अपने माथे पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘रज्जो, आज सिर में बहुत दर्द हो रहा है.’’

‘‘मैं आप के माथे पर बाम लगा कर दबा देती हूं,’’ रज्जो ने कहा और अलमारी में रखी बाम की शीशी ले आई. वह सुरेंद्र के माथे पर बाम लगा कर सिर दबाने लगी.

कुछ देर बाद रज्जो ने पूछा, ‘‘अब कुछ आराम पड़ा?’’

‘‘बहुत आराम हुआ है रज्जो, तेरे हाथों में तो जादू है,’’ कहते हुए सुरेंद्र ने अपना सिर रज्जो की गोद में रख दिया.

रज्जो सिर दबाने लगी. वह महसूस कर रही थी कि एक हाथ उस की कमर पर रेंग रहा है. उस ने सुरेंद्र की ओर देखा.

सुरेंद्र बोला, ‘‘रज्जो, यहां रहते हुए तू किसी बात की चिंता मत करना. तुझे किसी चीज की कमी नहीं रहेगी. जब कभी जितने रुपए की जरूरत पड़े, तो बता देना.’’

‘‘जी साहब.’’

‘‘आज तेरी मैडम लखनऊ गई हैं. वहां जरूरी मीटिंग है. 4 दिन बाद वापस आएंगी,’’ कह कर सुरेंद्र ने उसे अपनी ओर खींच लिया.

रज्जो समझ गई कि सुरेंद्र की क्या इच्छा है. वह बोली, ‘‘नहीं साहबजी, ऐसा न करो. मुझे तो मां-काका ने आप की सेवा करने के लिए भेजा है.’’

‘‘रज्जो, यह भी तो सेवा ही है. पता नहीं, आज क्यों मैं अपनेआप पर काबू नहीं रख पा रहा हूं?’’ सुरेंद्र ने रज्जो की ओर देखते हुए कहा.

‘‘साहबजी, अगर मैडम को पता चल गया तो?’’ रज्जो घबरा कर बोली.

‘‘उस की चिंता मत करो. वह कुछ नहीं कहेगी.’’

रज्जो मना नहीं कर सकी और न चाहते हुए भी सुरेंद्र की बांहों समा गई.

कुछ देर बाद जब रज्जो अपने कमरे में आ कर बिस्तर पर लेटी, तो उस की आंखों से नींद भाग चुकी थी. उस की आंखों के सामने मां-काका, 2 छोटी बहनों व भाई के चेहरे नाचने लगे.

यहां से 3 सौ किलोमीटर दूर रज्जो का गांव चमनपुर है. काका राजमिस्त्री का काम करता है. महीने में 10-15 दिन मजदूरी पर जाता है, क्योंकि रोजाना काम नहीं मिलता.

रज्जो तो 5 साल पहले 10वीं जमात पास कर के स्कूल छोड़ चुकी थी. उस की 2 छोटी बहनें व भाई पढ़ रहे थे. मां ने उस का नाम रजनी रखा था, पर पता नहीं, कब वह रजनी से रज्जो बन गई.

एक दिन गांव की प्रधान गोमती देवी ने मां को बुला कर कहा था, ‘मुझे पता चला है कि तेरी बेटी रज्जो तेरी तरह बहुत बढि़या खाना बनाती है. तू उसे सुबह से शाम तक के लिए मेरे घर भेज दे.’

‘ठीक है प्रधानजी, मैं रज्जो को भेज दूंगी,’ मां ने कहा था.

2 दिन बाद रज्जो ने गोमती प्रधान के घर की रसोई संभाल ली थी.

एक दिन एक बड़ी सी कार गोमती प्रधान के घर के सामने रुकी. कार से सुरेंद्र व उस की पत्नी माधवी मैडम उतरे. कार पर लाल बत्ती लगी थी. गोमती प्रधान की दूर की रिश्तेदारी में माधवी मैडम बहन लगती थीं.

दोपहर का खाना खा कर सुरेंद्र व माधवी ने रज्जो को बुला कर कहा, ‘तुम बहुत अच्छा खाना बनाती हो. हमें तुम जैसी लड़की की जरूरत है. क्या तुम हमारे साथ चलोगी? जैसे तुम यहां खाना बनाती हो, वैसा ही तुम्हें वहां भी रसोई में काम करना है.’

रज्जो चुप रही.

गोमती प्रधान बोल उठी थीं. ‘यह क्या कहेगी? इस के मां-काका को कहना पड़ेगा.’

कुछ देर बाद ही रज्जो के मां-काका वहां आ गए थे.

गोमती प्रधान बोलीं, ‘रामदीन, यह मेरी बहन है. सरकार में एक मंत्री की तरह हैं. इस को रज्जो के हाथ का बना खाना बहुत पसंद आया, तो ये लोग इसे अपने घर ले जाना चाहते हैं रसोई के काम के लिए.’

‘रामदीन, बेटी रज्जो को भेज कर बिलकुल चिंता न करना. हम इसे पूरा लाड़प्यार देंगे. रुपएपैसे हर महीने या जब तुम चाहोगे भेज देंगे,’ माधवी मैडम ने कहा था.

‘साहबजी, आप जैसे बड़े आदमी के यहां पहुंच कर तो इस की किस्मत ही खुल जाएगी. यह आप की सेवा खूब मन लगा कर करेगी. यह कभी शिकायत का मौका नहीं देगी,’ काका ने कहा था.

सुरेंद्र ने जेब से कुछ नोट निकाले और काका को देते हुए कहा, ‘लो, फिलहाल ये पैसे रख लो. हम लोग हर तरह  से तुम्हारी मदद करेंगे. यहां से लखनऊ तक कोई भी सरकारी या गैरसरकारी काम हो, पूरा करा देंगे. अपनी सरकार है, तो फिर चिंता किस बात की.’

रज्जो उसी दिन सुरेंद्र व माधवी के साथ इस कसबे में आ गई थी.

सुरेंद्र की बहुत बड़ी कोठी थी, जिस में कई कमरे थे. एक कमरा उसे भी दे दिया गया था. माधवी मैडम ने उस को कई सूट खरीद कर दिए थे. उसे एक मोबाइल फोन भी दिया था, ताकि वह अपने घरपरिवार से बात कर सके.

रज्जो को पता चला था कि सुरेंद्र की काफी जमीनजायदाद है. एक ही बेटा है, जो बेंगलुरु में पढ़ाई कर रहा है.

माधवी मैडम बहुत बिजी रहती हैं. कभी पार्टी मीटिंग में, तो कभी इधरउधर दूसरे शहरों में और कभी लखनऊ में.

इन्हीं विचारों में डूबतेतैरते रज्जो को नींद आ गई थी. अगले दिन सुरेंद्र ने रज्जो को कमरे में बुला कर कुछ गोलियां देते हुए कहा, ‘‘रज्जो, ये गोलियां तुझे खानी हैं. रात जो हुआ है, उस से तेरी सेहत को नुकसान नहीं होगा.’’

‘‘जी…’’ रज्जो ने वे गोलियां देखीं. वह जान गई कि ये तो पेट गिराने वाली गोलियां हैं.

‘‘और हां रज्जो, कल अपने घर ये रुपए मनीऔर्डर से भेज देना,’’ कहते हुए सुरेंद्र ने 5 हजार रुपए रज्जो को दिए.

‘‘इतने रुपए साहबजी…?’’ रज्जो ने रुपए लेते हुए कहा.

‘‘अरे रज्जो, ये रुपए तो कुछ भी नहीं हैं. तू हम लोगों की सेवा कर रही है न, इसलिए मैं तेरी मदद करना चाहता हूं.’’

रज्जो सिर झुका कर चुप रही.

सुरेंद्र ने रज्जो का चेहरा हाथ से ऊपर उठाते हुए कहा, ‘‘तुझे कभी अपने गांव जाना हो, तो बता देना. ड्राइवर और गाड़ी भेज दूंगा.’’

सुन कर रज्जो बहुत खुश हुई.

‘‘रज्जो, तू मुझे इतनी अच्छी लगती है कि अगर मैडम की जगह मैं मंत्री होता, तो तुझे अपना पीए बना लेता,’’ सुरेंद्र ने कहा.

‘‘रहने दो साहबजी, मुझे ऐेसे सपने न दिखाओ, जो मैं रोटी बनाना ही भूल जाऊं.’’

‘‘रज्जो, तू नहीं जानती कि मैं तेरे लिए क्या करना चाहता हूं,’’ सुरेंद्र ने कहा.

खुशी के चलते रज्जो की आंखों की चमक बढ़ गई.

4 दिन बाद माधवी मैडम घर लौटीं. इस बीच हर रात को सुरेंद्र रज्जो को अपने कमरे में बुला लेता और रज्जो भी पहुंच जाती, उसे खुश करने के लिए.

अगले दिन रज्जो एक कमरे के बराबर से निकल रही थी, तो सुरेंद्र व माधवी की बातचीत की आवाज आ रही थी. वह रुक कर सुनने लगी.

‘‘कैसी लगी रज्जो?’’ माधवी ने पूछा.

‘‘ठीक है, बढि़या खाना बनाती है,’’ सुरेंद्र का जवाब था.

‘‘मैं रसोई की नहीं, बैडरूम की बात कर रही हूं. मैं जानती हूं कि रज्जो ने इन रातों में कोई नाराजगी का मौका नहीं दिया होगा.’’

‘‘तुम्हें क्या रज्जो ने कुछ बताया है?’’

‘‘उस ने कुछ नहीं बताया. मैं उस के चेहरे व आंखों से सच जान चुकी हूं.

‘‘खैर, मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं. तुम कहा करते थे कि मैं बाहर चली जाती हूं, तो अकेले रात नहीं कटती, इसलिए ही तो रज्जो को इतनी दूर से यहां लाई हूं, ताकि जल्दी से वापस घर न जा सके.’’

‘‘तुम बहुत समझदार हो माधवी…’’ सुरेंद्र ने कहा, ‘‘लखनऊ में तुम्हारे नेताजी के क्या हाल हैं? वह तो बस तुम्हारा पक्का आशिक है, इसलिए ही तो उस ने तुम्हें लाल बत्ती दिला दी है.’’

‘‘इस लाल बत्ती के चलते हम लोगों का कितना रोब है. पुलिस या प्रशासन में भला किस अफसर की इतनी हिम्मत है, जो हमारे किसी भी ठीक या गलत काम को मना कर दे.’’

‘‘नेताजी का बस चले तो वह तुम्हें लखनऊ में ही हमेशा के लिए बुला लें.’’

‘‘अगले हफ्ते नेताजी जनपद में आ रहे हैं. रात को हमारे यहां खाना होगा. मैं ने सोचा है कि नेताजी की सेवा में रात को रज्जो को उन के पास भेज दूंगी.

‘‘जब नेताजी हमारा इतना खयाल रखते हैं, तो हमारा भी तो फर्ज बनता है कि नेताजी को खुश रखें. अगले महीने रज्जो को लखनऊ ले जाऊंगी, वहां 2-3 दूसरे नेता हैं, उन को भी खुश करना है,’’ माधवी ने कहा.

सुनते ही रज्जो के दिल की धड़कनें बढ़ने लगीं. वह चुपचाप रसोई में जा पहुंची. उस ने तो साहब को ही खुश करना चाहा था, पर ये लोग तो उसे नेताओं के पास भेजने की सोच बैठे हैं. वह ऐसा नहीं करेगी. 1-2 दिन बाद ही वह अपने गांव चली जाएगी.

तभी मोबाइल फोन की घंटी बज उठी. वह बोली, ‘‘हैलो…’’

‘‘हां रज्जो बेटी, कैसी है तू?’’ उधर से काका की आवाज सुनाई दी.

काका की आवाज सुन कर रज्जो का दिल भर आया. उस के मुंह से आवाज नहीं निकली और वह सुबकने लगी.

‘‘क्या हुआ बेटी? बता न? लगता है कि तू वहां बहुत दुखी है. पहले तो तू साहब व मैडम की बहुत तारीफ किया करती थी. फिर क्या हो गया, जो तू रो रही है?’’

‘‘काका, मैं गांव आना चाहती हूं.’’

‘‘ठीक है रज्जो, मेरा 2 दिन का काम और है. उस के बाद मैं तुझे लेने आ जाऊंगा. मैं जानता हूं कि मैडम व साहब बहुत अच्छे लोग हैं. तुझे भेजने को मना नहीं करेंगे. तू हमारी चिंता न करना. यहां सब ठीक है. तेरी मां, भाईबहनें सब मजे में हैं,’’ काका ने कहा.

रज्जो चुप रही.

अगले दिन सुरेंद्र व माधवी ने रज्जो को कमरे में बुलाया.

सुरेंद्र ने कहा, ‘‘रज्जो, 4-5 दिन बाद लखनऊ से बहुत बड़े नेताजी आ रहे हैं. यह हमारा सौभाग्य है कि वे हमारे यहां खाना खाएंगे और रात को आराम भी यहीं करेंगे.’’

‘‘जी…’’ रज्जो के मुंह से निकला.

‘‘रात को तुम्हें नेताजी की सेवा करनी है. उन को खुश करना है. देखना रज्जो, अगर नेताजी खुश हो गए तो…’’ माधवी की बात बीच में ही अधूरी रह गई.

रज्जो एकदम बोल उठी, ‘‘नहीं मैडमजी, यह मुझ से नहीं होगा. यह गलत काम मैं नहीं करूंगी.’’

‘‘और मेरे पीठ पीछे साहबजी के साथ रात को जो करती रही, क्या वह गलत काम नहीं था?’’

रज्जो सिर झुकाए बैठी रही, उस से कोई जवाब नहीं बन पा रहा था.

‘‘रज्जो, तू हमारी बात मान जा. तू मना मत कर,’’ सुरेंद्र बोला.

‘‘साहबजी, ये नेताजी आएंगे, इन को खुश करना है. फिर कुछ नेताओं को खुश करने के लिए मुझे मैडमजी लखनऊ ले कर जाएंगी. मैं ने आप लोगों की बातें सुन ली हैं. मैं अब यह गलत काम नहीं करूंगी. मैं अपने घर जाना चाहती हूं. 2 दिन बाद मेरे काका आ रहे हैं,’ रज्जो ने नाराजगी भरे शब्दों में कहा.

‘‘अगर हम तुझे गांव न जाने दें तो…?’’ माधवी ने कहा.

‘‘तो मैं थाने जा कर पुलिस को और अखबार के दफ्तर में जा कर बता दूंगी कि आप लोग मुझ से जबरदस्ती गलत काम कराना चाहते हैं,’’ रज्जो ने कड़े शब्दों में कहा.

रज्जो के बदले तेवर देख कर सुरेंद्र ने कहा, ‘‘ठीक है रज्जो, हम तुझ से कोई काम जबरदस्ती नहीं कराएंगे. तू अपने काका के साथ गांव जा सकती है,’’ यह कह कर सुरेंद्र ने माधवी की ओर देखा.

उसी रात सुरेंद्र ने रज्जो की गला दबा कर हत्या कर दी और ड्राइवर से कह कर रज्जो की लाश को नदी में फिंकवा दिया. दिन निकलने पर इंस्पैक्टर को फोन कर के कोठी पर बुला लिया.

‘‘कहिए हुजूर, कैसे याद किया?’’ इंस्पैक्टर ने आते ही कहा.

‘‘हमारी नौकरानी रजनी उर्फ रज्जो घर से एक लाख रुपए व कुछ जेवरात चुरा कर भाग गई है.’’

‘‘सरकार, भाग कर जाएगी कहां वह? हम जल्द ही उसे पकड़ लेंगे,’’ इंस्पैक्टर ने कहा और कुछ देर बाद चला गया.

दोपहर बाद रज्जो का काका रामदीन आया. सुरेंद्र ने उसे देखते ही कहा, ‘‘अरे ओ रामदीन, तेरी रज्जो तो बहुत गलत लड़की निकली. उस ने हम लोगों से धोखा किया है. वह हमारे एक लाख रुपए व जेवरात ले कर कल रात कहीं भाग गई है.’’

‘‘नहीं हुजूर, ऐसा नहीं हो सकता. मेरी रज्जो ऐसा नहीं कर सकती,’’ घबरा कर रामदीन बोला.

‘‘ऐसा ही हुआ है. वह यहां से चोरी कर के भाग गई है. जब वह गांव में अपने घर पहुंचे तो बता देना. थाने में रिपोर्ट लिखा दी है. पुलिस तेरे घर भी पहुंचेगी.

‘‘अगर तू ने रज्जो के बारे में न बताया, तो पुलिस तुम सब को उठा कर जेल भेज देगी.

‘‘और सुन, तू चुपचाप यहां से भाग जा. अगर पुलिस को पता चल गया कि तू यहां आया है, तो पकड़ लिया जाएगा.’’

यह सुन कर रामदीन की आंखों में आंसू आ गए. रज्जो के लिए उस के दिल में नफरत बढ़ने लगी. वह रोता हुआ बोला, ‘‘रज्जो, यह तू ने अच्छा नहीं  किया. हम ने तो तुझे यहां सेवा करने के लिए भेजा था और तू चोर बन गई.’’

रामदीन रोतेरोते थके कदमों से कोठी से बाहर निकल गया.

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