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मेरे बौस मुझे बेहद अच्छे लगते हैं पर वे शादीशुदा हैं. जौब खोने के डर से उन्हें कुछ बोल नहीं पाती.

सवाल –

मुझे जौब ज्वाइन किए अभी कुछ ही महीने हुए हैं और मेरे बौस दिखने में बहुत यंग और डैशिंग हैं. मैं उनकी पर्सनैलिटी और लुक्स की तो मानो दीवानी सी हो गई हूं. वे जब भी मुझे अपने कैबिन में किसी काम से बुलाते हैं तो मेरा दिल बहुत ज़ोर ज़ोर से धड़कने लगता है. मुझे मेरे कलीग्स से पता चला कि उनकी शादी हो चुकी है और ये सुनके ही मेरा दिल टूट गया. लेकिन पता नहीं कयूं सब कुछ जानते हुए भी मैं उन्हें अपने दिल से निकाल नहीं पा रही हूं. मैने उन्हें उनके कैबिन में कई बार हिंट्स देने की भी कोशिश की जिसे उन्होनें साफ इग्नोर कर दिया. मैं औफिस से घर आने के बाद भी उनके बारे में सोचती रहती हूं. कभी कभी मेरा मन करता है कि उन्हें अपने दिल की बात बता दूं पर जौब खोने के डर से मैं उन्हें कुछ बोल नहीं पाती. मुझे क्या करना चाहिए.

जवाब –

आपकी उम्र में इस तरह के खयाल आना काफी नौर्मल हैं. कई स्टूडेंट्स अपनी टीचर्स के प्रति एट्रैक्ट हो जाते हैं तो कई बार एम्पलौइज़ भी अपने सीनियर्स के प्रति एट्रैक्शन फील करते हैं. आपको इस बात का खास खयाल रखना चाहिए कि आपके बौस शादीशुदा हैं और आपका कोई भी कदम आपको मुसीबत में डाल सकता है.

जैसा कि आपने बताया कि आपने उन्हें कई बार हिंट्स देने की भी कोशिश की तो ऐसे में बौस खुद सामने से अपने एम्पलौइज़ से फलर्ट करने लगते हैं और उन्हें कभी मीटिंग के बहाने तो कभी लंच डेट के लिए पूछ लेते हैं पर अगर आपके बौस यह सब इग्नोर कर रहे हैं तो और वे इस तरह की कोई हरकत को बढ़ावा नहीं देना चाह रहे तो आपको समझ जाना चाहिए कि वे अपनी पत्नी के लिए लौयल हैं और वे अपनी लाइफ में किसी प्रकार की कोई प्रोब्लम में नहीं फसना चाहते.

मेरी माने तो आपको उनसे दूरी बनानी चाहिए और उनके साथ प्रोफेशनल बिहेवियर रखना चाहिए. अगर उनके मन में आपके लिए कोई फीलिंग्स होंगी तो वे सामने से आपको अप्रोच कर लेंगें पर आपका एक गलत कदम आपको नौकरी से भी निकलवा सकता है. आपका उनसे दूरी बनान इसलिए भी जरूरी है क्योंकि आपकी यह फीलिंग्स उनका बसा बसाया घर उजाड़ सकती हैं.

दोहरे मापदंड

‘‘यह कैसी जगह है? यहां तो किसी से कोई मतलब ही नहीं रखता. तुम तो औफिस चले जाते हो, मेरे लिए वक्त काटना भारी पड़ता है,’’  मैं ने सचिन के औफिस से वापस आते ही हमेशा की तरह शिकायती लहजे में कहा.

‘‘यह मुंबई है श्वेता, यहां आने पर शुरू में सब को ऐसा ही लगता है, लेकिन बाद में सब इस शहर को, और यह शहर यहां आने वालों को अपना लेता है. जल्दी ही तुम भी यहां के रंगढंग में ढल जाओगी.’’

मुझे धौलपुर में छूटे हुए अपने ससुरालमायके की बहुत याद आती. शादी के बाद मैं सिर्फ 2 महीने ही अपनी ससुराल में रही थी लेकिन सब ने इतना प्यारदुलार दिया कि महसूस ही नहीं हुआ कि मैं इस परिवार में नई आई हूं. सचिन का परिवार उस के दादाजी की पुश्तैनी हवेली में रहता था. उस के परिवार में उस के चाचाचाची, मातापिता और एक विवाहित बहन पद्मजा थी.

पद्मजा थी तो सचिन से छोटी मगर उस की शादी हमारी शादी से एक साल पहले ही हो चुकी थी. उस की ससुराल भी धौलपुर में ही थी, इसलिए वह जबतब मायके आतीजाती रहती थी. चाचाचाची की कोई अपनी संतान नहीं थी, सो वे दोनों अपने अंदर संचित स्नेह सचिन और पद्मजा पर ही बरसाया करते थे. ऐसे हालात में जब मैं शादी के बाद ससुराल में आई तो मुझे एक नहीं, 2 जोड़े सासससुर का प्यार मिला.

सब के प्यार के रस से भीगी हुई मैं ससुराल नहीं छोड़ना चाहती थी. मगर ब्याहता तो मैं सचिन की थी और उन की नौकरी धौलपुर से मीलों दूर मुंबई में थी, इसलिए शादी के कुछ महीनों बाद जब मैं मुंबई आई तो मन में दुख और सुख के भाव साथसाथ उमड़ रहे थे.

एक तरफ अपने छोटे से घरौंदे में आने की खुशी तो दूसरी तरफ ससुरालमायके का आंगन पीछे छूटने का गम. ऊपर से मुंबई की भागमभाग जिंदगी जहां किसी को किसी के दुखसुख से मतलब नहीं. बस, लगे हैं ‘रैट रेस’ में अपनीअपनी रोजीरोटी की फिक्र में, जिस के पास जितना है उस से ज्यादा पाने की होड़ में. झोंपड़पट्टी वाले खोली में, खोली वाले अपार्टमैंट और अपार्टमैंट वाले बंगले के ख्वाब में जिंदगी के ट्रेडव्हील पर दौड़े जा रहे हैं.

हमारे अपार्टमैंट के हर फ्लोर पर 4 फ्लैट थे. हमारे फ्लोर का एक फ्लैट खाली पड़ा था. एक में हम रहते थे. बाकी बचे 2 फ्लैट्स में से एक में अधेड़ दंपती रहते थे और दूसरे में एक बैचलर. अधेड़ दंपती उत्तर भारत से आए हुए हर व्यक्ति को भइया लोग कह कर बुलाते थे और सोचते थे कि अगर उन्होंने अपना उठनाबैठना भइया लोगों के साथ बढ़ाया तो मुंबइया महाराष्ट्रियन उन का हुक्कापानी बंद कर देंगे. और वह बैचलर, वह तो उन से भी एक कदम आगे था. वह जब भी सामने आता तो मुसकराने तक की जहमत न उठाता. ऐसा लगता कि अगर वह मुसकरा दिया तो भारत सरकार उस पर अतिरिक्त कर लगा देगी.

जब तीसरे और महीनों से खाली पड़े हुए फ्लैट में उत्तर भारतीय निकिता और राज आए तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा. मैं दूसरे ही दिन उन के यहां चाय का थरमस और ताजी बनी मठरियों के साथ पहुंच गई. निकिता भी मुझ से ऐसे मिली जैसे कि अपनी किसी पुरानी सहेली से मिल रही हो.

2-3 दिनों तक मैं उन के घर ऐसे ही चाय ले कर जाती रही और नए घर में सामान लगाने में उन की मदद करती रही. निकिता और राज एक प्राइवेट बैंक में काम करते थे. उन का एक 6-7 साल का बेटा दिग्गज भी था. राज की माताजी भी उन के साथ ही रहती थीं.

जब घर व्यवस्थित होने के बाद उन की दिनचर्या ढर्रे पर आ गई तो निकिता ने मुझे और सचिन को अपने घर खाने पर आने का न्योता दिया, ‘‘श्वेता, तुम ने तो हमारे लिए बहुत किया वरना यहां मुंबई में कौन किसे पूछता है. मैं बहुत खुश हूं कि मुझे यहां आते ही तुम्हारे जैसी पड़ोसिन और सहेली मिल गई. अब आने वाले इतवार को तुम और सचिन हमारे यहां डिनर पर आओ. इसी बहाने सचिन और राज भी एकदूसरे से मिल लेंगे.’’

मैं ने निकिता का निमंत्रण बड़ी तत्परता के साथ स्वीकार कर लिया क्योंकि मैं जब भी उस के घर जाती तो निकिता की सास उस की पाककला की तारीफ करते न थकती थीं. मैं ने मन ही मन सोचा कि जिस खाने की तारीफ मैं इतने दिनों से सुनती आ रही हूं, अब उसे खाने का मजा भी मिलेगा.

‘‘तुम इतना सारा खाना कैसे बनाओगी, मैं भी अपने घर से एकदो चीजें बना लाऊंगी,’’ मैं ने निकिता का मन रखने के लिए ऊपरी तौर पर पूछ लिया.

‘‘कुछ मत बना कर लाना. बस, आ जाना टाइम से,’’ निकिता ने सामने पड़े हुए कपड़ों के गट्ठर में से एक तौलिया तह करते हुए कहा.

इतवार की शाम दोनों परिवार निर्धारित समय पर निकिता के घर में डाइनिंग टेबल के इर्दगिर्द बैठे थे. जायकेदार खाने के दौरान हर तरह की गपशप चल रही थी. राज की अत्यंत सौम्य स्वभाव की माताजी बड़े ही दुलार से सब की प्लेटों पर नजर रखे हुए थीं. किसी की भी प्लेट में जरा सी भी कोई चीज कम होती तो वे बड़ी ही मनुहार के साथ उस में और डाल देतीं. खाखा कर हम सब बेहाल हुए जा रहे थे.

गपशप भी अपनी चरम सीमा पर थी. पहले राज ने सचिन से उस के कामकाज के बारे में जानकारी ली, फिर उस ने अपने और निकिता के काम के बारे में उसे बताया. खेलकूद और राजनीति पर भी चर्चा हुई. घूमतेफिरते बातों ही बातों में वे सवाल भी पूछ लिए गए जो कि जब नए जोड़े पहली बार अनौपचारिक माहौल में मिलते हैं तो अकसर पूछ लेते हैं.

‘‘वैसे तुम्हारी शादी हुए कितना वक्त हो गया?’’ उस हलकेफुलके माहौल में सचिन ने राज और निकिता से पूछा.

‘‘सिर्फ 2 साल,’’ राज ने संक्षिप्त जवाब दे कर फिर से राजनीतिक मुद्दों की तरफ बात मोड़नी चाही, मगर उस का जवाब सचिन की जिज्ञासा बढ़ा चुका था.

‘‘क्या…सिर्फ 2 साल?’’ ऐसा कैसे हो सकता है, तुम्हारा बेटा दिग्गज ही करीब 6-7 साल का होगा, सचिन ने आश्चर्र्य से पूछा.

‘‘हां, हमारा बेटा अगले महीने पूरे

7 साल का हो जाएगा. बहुत ही प्याराप्यारा बेटा है मेरा,’’ राज के स्वर में गर्व और खुशी दोनों का भाव एकसाथ था.

‘‘वह तो ठीक है, सभी बच्चे अपने मांबाप को प्यारे ही लगते हैं. मगर जब तुम्हारी शादी को ही 2 साल हुए हैं तो यह 7 साल का बेटा तुम्हारा कैसे हो सकता है. अभी हम भारतीयों में शादी के पहले बच्चे पैदा करने का रिवाज तो नहीं है.’’

‘‘तुम ने बिलकुल सही कहा सचिन. हमारे समाज में विवाहपूर्व बच्चों की स्वीकृति अभी बिलकुल भी नहीं है. हां, कुछ हद तक लिवइन का ट्रैंड तो अब आ चुका है. असल में दिग्गज निकिता की पहली शादी की संतान है,’’ राज ने सलाद की प्लेट से एक गाजर का टुकड़ा उठा कर उसे कुतरते हुए कहा.

सचिन राज की तरफ ऐसे देख रहे थे जैसे कि उन का सामना किसी दूसरी दुनिया के प्राणी से हो गया हो. उन की जिज्ञासा अब हैरानी में बदल चुकी थी. वे अपने मुंह के खाने को चबाना भूल कर अधखुले मुंह से हक्केबक्के से मेजबान परिवार के सदस्यों को ताक रहे थे.

राज की अनुभवी माताजी ने सचिन की हालत को भांपते हुए बात आगे बढ़ाई, ‘‘बेटा सचिन, राज जो कह रहा है वह सच है. दिग्गज निकिता की पहली शादी की संतान है. मगर अब वह मेरा पोता है और राज ही उस का पिता है.’’

‘‘जब राज ने भोपाल में बैंक में काम शुरू किया तो मैं वहां पहले से ही काम करती थी. एक बार हम सब साथी काम के बाद डिनर पर गए. वहीं बातों ही बातों में मेरी एक सहेली से राज को पता चला कि मेरे पति की एक कार दुर्घटना में मृत्यु हो चुकी है. साथ ही, बताया कि मेरे बेटे का जन्म मेरे पति की मृत्यु के करीब 2 महीने बाद में हुआ था. बेचारे दिग्गज को तो उस के बायोलौजिकल पिता की छाया तक देखने को नहीं मिली,’’ बतातेबताते निकिता की आवाज कंपकंपाने लगी थी.

निकिता की बात को राज ने आगे बढ़ाया, ‘‘भोपाल में हमारी बैंक की शाखा में महीने में एक बार काम के बाद सब का एकसाथ डिनर पर जाने का अच्छा चलन था. ऐसे ही एक डिनर के बाद मैं ने निकिता से कहा था, ‘निकिता तुम दूसरी शादी क्यों नहीं कर लेती? अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है? ऐसे अकेले कहां तक जिंदगी ढोओगी? शादी कर लोगी तो तुम्हारे बेटे को अगर पिता का नहीं, तो किसी पिता जैसे का प्यार तो मिलेगा.’

‘‘इस पर निकिता ने अपनी शून्य में ताकती निगाहों के साथ मुझ से पूछा था, ‘ये सब कहने में जितना आसान होता है, करने में उतना ही मुश्किल. कौन बिताना चाहेगा मुझ विधवा के साथ जिंदगी? कौन अपनाएगा मुझे मेरे बेटे के साथ? क्या तुम ऐसा करोगे राज, अपनाओगे किसी विधवा को एक बच्चे के साथ?’

‘‘निकिता के शब्दों ने मेरे होश उड़ा दिए थे और उस वक्त मैं सिर्फ ‘सोचूंगा, और तुम्हारे सवाल का जवाब ले कर ही तुम्हारे पास आऊंगा,’ कह कर वहां से चला आया था.

‘‘मैं चला तो आया था मगर निकिता के शब्द मेरा पीछा नहीं छोड़ रहे थे. मेरे मन में एक अजब सी उथलपुथल मची हुई थी. मेरे मन की उलझन मां से छिपी न रह सकी. उन के पूछने पर मैं ने निकिता के साथ डिनर के दौरान हुए वार्त्तालाप का पूरा ब्योरा उन्हें दे दिया.

‘‘सब सुनने के बाद मां ने कहा, ‘सीधे रास्तों पर तो बहुत लोग हमराही बन जाते है मगर सच्चा पुरुष वह है जो दुर्गम सफर में हमसफर बन कर निभाए. बेटा, एक विधवा हो कर अगर मैं ने दूसरी विधवा स्त्री के दर्द को न समझा तो धिक्कार है मुझ पर. यह मैं ही जानती हूं कि तुम्हारे पिता की मृत्यु के बाद तुम्हें कैसेकैसे कष्ट उठा कर पाला था. कहने को तो मैं संयुक्त परिवार में रहती थी पर तुम्हारे पिता के दुनिया से जाते ही मुझे जीवन की हर खुशी से बेदखल कर दिया गया था.

‘‘‘घर और घर के लोग मेरे होते हुए भी बेगाने हो चुके थे. तुम्हारी परवरिश भी तुम्हारे चाचाताऊ के बच्चों की तरह न थी. जहां उन के बच्चे अच्छे कौन्वैंट स्कूल में जाते थे वहीं तुम्हें मुफ्त के सरकारी स्कूल में भेज दिया गया. जिन कपड़ों को पहन कर उन के बच्चे उकता जाते, वे तुम्हारे लिए दे दिए जाते.

‘‘‘राज बेटा, उस माहौल में मेरा तुम्हारा जीना, जीना नहीं था, सिर्फ जीवन का निर्वाह करना था. बेटा, मुझे तुम पर गर्व होगा अगर तुम निकिता और उस के बच्चे को अपना कर, उन की जिंदगी के पतझड़ को खुशगवार बहार में बदल दो.’ मां ने छलकते हुए आंसुओं के बीच आपबीती बयां की थी.

‘‘दूसरे दिन जब मैं ने निकिता को लंचटाइम में अपनी मां के साथ हुई सारी बातचीत बताई और कहा कि मैं उस से शादी करना चाहता हूं, तब निकिता बोली, ‘मैं किसी की दया की मुहताज नहीं हूं, कमाती हूं, जैसे 4 साल काटे हैं वैसे ही बची जिंदगी भी काट लूंगी.’

‘‘‘निकिता पैसा कमाना ही अगर सबकुछ होता तो संसार में परिवार और घर की परिकल्पना ही न होती. जिंदगी में बहुत से पड़ाव आते हैं जब हमसब को एकसाथी की जरूरत होती है.’

‘‘‘और अगर मुझे अपनाने के कुछ सालों बाद तुम्हें अपने निर्णय पर पछतावा होने लगा तो मैं कहीं की नहीं रहूंगी. पहले ही वक्त का क्रूर प्रहार झेल चुकी हूं, अब और झेलने की हिम्मत नहीं है. मुझ में. इसलिए किसी से भी मन जोड़ने से घबराती हूं, न मैं किसी से बंधन जोडूं, न वक्त के सितम ये बंधन तोड़ें.’

‘‘‘निकिता, डूबने के डर से किनारे पर खड़े रह कर उम्र बिता देने में कहां की बुद्धिमानी है? ऐसे ही खौफ के अंधेरों को दिल में बसा कर जिओगी तो उम्मीदों का उजाला तो तुम से खुदबखुद रूठा रहेगा.’

‘‘ऐसी ही कुछ और मुलाकातों, कुछ और तकरारों व वादविवादों के बाद अंत में निकिता और मैं शादी के बंधन में बंध गए.’’

राज की माताजी ने अब दिग्गज को अपना नातीपोता ही मान लिया था. वे नहीं चाहती थीं कि निकिता और राज के कोई दूसरी संतान पैदा हो और दिग्गज के प्यार का बंटवारा हो.

उन सब की बातें सुन कर मेरी आंखें छलछला गईं. मैं ने ऐसे महान लोगों के बारे में कहानियों में ही पढ़ा था, आज आमनेसामने बैठ कर देख रही थी. श्रद्घा से ओतप्रोत मेरा मन उन के सामने नतमस्तक होने को मचल रहा था. किसी तरह से मैं ने अपनी उफनती हुई भावनाओं पर काबू पाया और आज की शाम को खुशगवार बनाने के लिए धन्यवाद देते हुए विदाई लेने को उठ खड़ी हुई.

‘‘क्या बेवकूफ आदमी है,’’ राज के घर से दस कदम दूर आते ही सचिन का पहला वाक्य था.

‘‘कौन?’’

‘‘राज, और कौन.’’

‘‘क्यों, ऐसा क्या कर दिया उस ने. इतने अच्छे से हम दोनों का स्वागत किया, अच्छे से अच्छा बना कर खिलाया, और कैसे होते हैं भले लोग? तुम्हें इस सब में बेवकूफी कहां नजर आ रही है?’’

‘‘जो एक बालबच्चेदार सैकंडहैंड औरत के साथ बंध कर बैठा है, वह बेवकूफ नहीं तो और क्या है? देखने में अच्छाखासा है, बैंक में मैनेजर है, अच्छी से अच्छी कुंआरी लड़की से उस की शादी हो सकती थी. जिस ने भरीपूरी थाली को छोड़ कर किसी की जूठन को अपनाया हो, उसे बेवकूफ न कहूं तो और क्या कहूं.’’

‘‘मगर सचिन…’’

‘‘जैसा राज खुद, वैसी ही उस की वह मदर इंडिया. कह रही थीं कि उन्हें खुद का कोई नातीपोता भी नहीं चाहिए, और दिग्गज ही उन के लिए सबकुछ है. भारत सरकार को उन्हें तो मदर इंडिया के खिताब से नवाजना चाहिए.’’

सचिन राज और उस की मां की बुरी तरह से खिंचाई कर रहे थे. मैं ने चुप रहना ही ठीक समझा. इन विषयों पर बहस करने की कोई सीमा नहीं होती. तर्क का जवाब तो दिया जा सकता है पर कुतर्क का नहीं.

वक्त के साथ मेरी और निकिता की दोस्ती पक्की होती जा रही थी. वैसे, मैं निकिता से ज्यादा वक्त उस की सास के साथ बिताती क्योंकि निकिता तो अपनी नौकरी के कारण ज्यादातर घर में होती ही नहीं थी. पुराने जमाने की और कम पढ़ीलिखी होने के बावजूद उन के खयालात कितने ऊंचे थे. वे लकीर की फकीर नहीं थीं, लीक से हट कर सोचती थीं.

उन्हें देखते ही मेरा मन उन का सौसौ नमन करने लगता. वे हमेशा ही बहुत अच्छा बोलतीं, अच्छी सीख देतीं. उन के पास उठनेबैठने का दोहरा फायदा होता था, एक तो मेरी बोरियत का इलाज हो जाता, दूसरे मुझे बहुत सी ऐसी नैतिक बातें सीखने को मिलतीं जो कि दुनिया के किसी भी विश्वविद्यालय में सिखाई नहीं जाती हैं.

इधर, सचिन के विचारों में कोई परिवर्तन नहीं था. जब कभी भी मेरे घर में राज का जिक्र आता तो सचिन उस को उस के नाम से न बुला कर सैकंडहैंड बीवी वाला कह कर बुलाते. मैं ने उन्हें कई बार समझाने की कोशिश की कि किसी के लिए भी ऐसे शब्द बोलना अच्छी बात नहीं. ऐसे शब्द बोलने से दूसरे का अपमान होता है. सो, वे राज के लिए ऐसी बात न किया करें और उस को उस के नाम से बुलाने की आदत डालें. मगर मेरा उन्हें समझाना चिकने घड़े पर पानी डालने जैसे था.

आखिर में समझाने का कोई असर न होते देख मैं ने उन से इस बारे में कुछ भी कहना बंद कर दिया. हालांकि मेरा मन अपने उच्चशिक्षित पति के इस रवैए से बेहद आहत था. मुझ को हैरानी थी कि इतने शिक्षित होने पर भी सचिन कितनी संकीर्ण मानसिकता रखते हैं. अगर किसी के अच्छे कर्म की प्रशंसा करने का हौसला नहीं रखते थे तो कम से कम उस का यों सरेआम मजाक तो न बनाते.

दिनचर्या अपने ढर्रे पर चल रही थी. सचिन की हाल ही में पदोन्नति हुई थी. काम में उन की व्यस्तता दिनबदिन बढ़ती जा रही थी, इसलिए दीवाली पर भी हम धौलपुर न जा पाए. एक दिन सचिन ने औफिस से आते ही बताया कि उन के पापा का फोन आया था और तत्काल ही हम दोनों को धौलपुर बुलाया है. मेरी ननद पद्मजा के पति अस्पताल में भरती थे. पिछले कुछ दिनों से उन की तबीयत ठीक नहीं चल रही थी. सचिन के फोन पर बहुत बार पूछने पर भी ससुर साहब ने नहीं बताया कि क्या बीमारी है. बस, यह कहा कि जितनी जल्दी हो सके, धौलपुर आ जाओ.

‘‘इस में इतना सोचना क्या? जब घर में कोई बीमार है तो हमें जाना ही चाहिए. वैसे भी हम दीवाली पर भी जा नहीं पाए,’’ बुलावे की खबर सुनते ही मैं ने धौलपुर जाने की तत्परता जताई.

‘‘ठीक है, तो फिर जल्दी से दिल्ली की फ्लाइट बुक करा लेता हूं, फिर दिल्ली से टैक्सी ले कर धौलपुर चले चलेंगे.’’

फ्लाइट बुक होतेहोते और धौलपुर तक पहुंचने में 3 दिनों का वक्त लग गया. पहुंचने पर पता चला कि पद्मजा के पति की 2 घंटे पहले ब्रेन हेमरेज होने से मृत्यु हो चुकी है. सारे घर में मातम छाया हुआ था. पद्मजा का रोरो कर बुरा हाल था. उस के मुंह से कोई आवाज नहीं निकल रही थी. वह आंखें बंद किए हुए कोने में बेसुध सी बैठी थी और उस की पलकों के बांध को तोड़ कर गालों पर आसुंओं का सैलाब उमड़ रहा था.

उस की मुसकराहट से तर रहने वाले गुलाबी होंठ सूख कर चटख रहे थे. उस की इस हालत को देख कर मुझे विश्वास ही न होता था कि यह मेरी वही प्यारी सी ननद है जो सिर्फ 8 महीने पहले मेरी बरात में नाचती, गाती, हंसती, मुसकराती, गहनों से लदी हुई आई थी. तब मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था कि तब के बाद सीधे उसे इस बदहाल स्थिति में देखूंगी.

सचिन चाह कर भी धौलपुर में ज्यादा समय न रुक पाए. तेरहवीं के तीसरे दिन ही उन्हें मुंबई लौटना पड़ा. तेरहवीं के कुछ दिनों बाद ससुरजी पद्मजा को उस की ससुराल से ले आए थे. मैं ने उस के साथ रहना ही ठीक समझा, सोचा कि जब महीनेदोमहीने में परिवार पर आए हुए दुख के बादल थोड़े छंट जाएंगे तब मैं मुंबई लौट जाऊंगी. अभी पद्मजा को मेरे साथ की बहुत जरूरत थी. अगर वह कभी गलती से मुसकराती थी तो मेरे साथ, खाना खाती तो मेरे साथ और मेरे आग्रह करने पर. वह मेरे साथ सोती और मुझ से ही थोड़ीबहुत बातचीत करती.

इन हालात को देख कर परिवार के सभी बड़ों ने फैसला किया कि पद्मजा को भी मेरे साथ मुंबई भेज दिया जाए. इसी में उस की भलाई भी थी. मुंबई वापस आ कर मैं ने जैसेतैसे उसे एमबीए करने के लिए राजी कर लिया. दुखों के भार को दूर रखने का सब से सही तरीका होता है खुद को इतना व्यस्त करो कि दुखों को क्या, खुद को ही भूल जाओ.

पद्मजा को पढ़नेलिखने का शौक तो था ही, अब यह शौक उस का संबल बन गया. वह दिनरात असाइनमैंट्स और परीक्षाओं की तैयारी में व्यस्त रहती. अपनी जिंदगी के नकारात्मक पहलू को सोचने का ज्यादा वक्त ही न मिल पाता उसे. इस संबल की बदौलत उस की जिंदगी की उतरी हुई गाड़ी फिर से धीरेधीरे पटरी पर आने लगी थी.

एमबीए पूरा करते ही उसे एक कंपनी में नौकरी भी मिल गई और वह अपने इस नए माहौल में पूरी तरह से रम चुकी थी. अब उस के चेहरे पर पुरानी रंगत कुछ हद तक वापस आने लगी थी.

मगर सचिन के दिल को चैन नहीं था. वे कहा करते, ‘‘पद्मजा मेरी बहन है, मुझे अच्छा लगता अगर यह अपने पति के साथ हमारे पास कभीकभी छुट्टियां बिताने आतीजाती और अपने पति के घर में आबाद रहती. शादी के बाद बहनबेटियां इसी तरह आतीजाती अच्छी लगती हैं, दयापात्र बन कर बापभाई के घर में उम्र बिताती हुई नहीं. पद्मजा का इन परिस्थितियों में हमारे पास उम्र बिताना तो वह घाव है जिस पर वक्त मरहम नहीं लगाता बल्कि उस को नासूर बनाता है.’’

यह सच भी था, हम चाहे पद्मजा का कितना भी खयाल रख लें, कितना भी प्यार और सुखसुविधाएं दे लें, हमारे घर में उस का उम्र बिताना उस की जिंदगी की अपूर्णता थी. सचिन जब भी उस की तरफ देखते, उन की आंखों की बेबसी छिपाए न छिपती.

इधर कुछ दिनों से पद्मजा के हावभाव बदल रहे थे. वह औफिस से भी देर से आने लगी थी. पूछने पर कहती कि एक सहयोगी काम छोड़ कर चला गया है, सो, वह उस के हिस्से का काम करने में भी बौस की मदद कर रही है.

मगर उस के हावभाव कुछ और ही कहानी कहते से लगते. अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा वह अपने रखरखाव, कपड़ों और सौंदर्य प्रसाधनों पर खर्च करती. उस का मोबाइल उस के हाथ से न छूटता था. खातेपीते, टैलीविजन देखते हुए भी वह चैट करती रहती.

पहले तो मैं ने इसे मुंबई की हवा का असर समझा, मगर मेरा दिमाग ठनका जब मैं ने देखा कि वह मोबाइल को टौयलेट में भी अपने साथ ले जाती थी. जो मोबाइल पहले वह सिर्फ कौल करने और सुनने के लिए प्रयोग करती थी वह अब उस की लत बन गया था.

मैं ने सचिन से कई बार इस बारे में बात करनी चाही मगर उन्होंने मेरी बात को हर बार अनसुना कर दिया. आखिर मैं ने ही इस पहेली को सुलझाने का निश्चय किया और सही मौके का इंतजार करने लगी. और वह मौका मुझे जल्दी ही मिल गया.

रविवार का दिन था और पद्मजा अपनी किसी महिला सहकर्मी सोनाली के साथ सिनेमा देखने जाने वाली थी. आदतानुसार वह सुबह से उठ कर चैट कर रही थी. जब अचानक उसे खयाल आया कि जाने से पहले उसे अभी नहाना भी है, तो वह जल्दीजल्दी कपड़े समेट कर बाथरूम में भागी. इस हड़बड़ी में कपड़ों के बीच में रखा उस का मोबाइल बाथरूम के दरवाजे पर गिर गया और उसे पता न चला.

उस के बाथरूम का दरवाजा बंद करते ही मैं ने मोबाइल उठा लिया. चूंकि वह 2 सैकंड पहले ही उस पर चैट कर रही थी, इसलिए वह अभी अनलौक ही था. मैं ने फटाफट उस के मैसेज कुरेदने शुरू कर दिए. उस की कौल हिस्ट्री में सब से ज्यादा कौल किसी देवांश की थीं.

जब मैं ने देवांश के संदेशों को पढ़ा तो सारी स्थिति समझने में मुझे देर न लगी. वह सिनेमा देखने भी उसी के साथ जा रही थी किसी सोनाली के साथ नहीं. खैर, मैं ने अपनी भावनाओं को काबू में रख के पद्मजा का मोबाइल उस के हैंडबैग में ले जा कर रख दिया और किचन में जा कर काम करने लगी. वह गुनगुनाती हुई बाथरूम से निकली और मुझ से गले मिल कर खुशीखुशी सिनेमा देखने चली गई.

मैं ने धीरज रखा और सोचा कि जब वह वापस आएगी तब इत्मीनान से बैठ कर बात करूंगी. अभी मैं ने सचिन से भी इस बारे में कुछ कहना ठीक न समझा. बात को आगे बढ़ाने के पहले मैं खुद उस की तह तक जाना चाहती थी, इसलिए मैं पहले पद्मजा के मुंह से सबकुछ सुनना चाहती थी.

उस रात मैं घर का काम खत्म कर के पद्मजा के कमरे में आ कर उस के पास लेट गई और यहांवहां की बातें करने लगी.

‘‘मूवी कैसी थी पद्मजा?’’

‘‘ठीक ही थी, वैसी तो नहीं जैसी कि सोनाली ने बताई थी, जब वह पिछले हफ्ते देख कर आई थी.’’

‘‘सोनाली, क्या मतलब? वह यह मूवी पहले देख चुकी थी और आज फिर से तुम्हारे साथ गई थी.’’

‘‘भाभी वो मैं…’’

‘‘वो मैं क्या, पद्मजा, मुझे नहीं लगता कि तुम सोनाली के साथ मूवी देखने गई थीं.’’

‘‘मगर भाभी मैं…’’

‘‘अगरमगर क्या? मैं जानती हूं कि तुम किसी देवांश के साथ गई थीं.’’

‘‘पर आप ऐसा कैसे कह सकती हैं?’’

‘‘क्योंकि तुम जब नहाने गईं तो तुम्हारा मोबाइल बाथरूम के बाहर गिर गया था और मैं ने तुम्हारे कुछ मैसेजेस देख लिए थे. मुझे परेशानी इस बात की नहीं कि तुम किसी पुरुष मित्र के साथ गई थीं, दुख इस बात का है कि तुम ने मुझ से झूठ बोला और मुझे बेगाना समझा. शायद मैं ने ही तुम्हारे रखरखाव में कुछ कमी की होगी जो मैं तुम्हारा विश्वास न जीत सकी.’’

‘‘नहीं भाभी, ऐसी बात नहीं है. मेरी अच्छी भाभी, ऐसा तो भूल कर भी न सोचिए. आप ही हैं जो बुरे वक्त में मेरा सब से बड़ा सहारा, सब से अच्छी दोस्त बनीं. बताना तो मैं बहुत समय से चाहती थी मगर समझ नहीं आ रहा था कि कैसे बात शुरू करूं. डर था कि न जाने भैया की क्या प्रतिक्रिया हो.’’

‘‘ठीक है, कोई बात नहीं. पर अब तो जल्दी से मुझे सब बताओ.’’

‘‘देवांश मेरे साथ मेरे औफिस में काम करता है, भाभी वह बहुत अच्छा लड़का है. वह यह जानता है कि मैं एक विधवा हूं फिर भी वह मुझे अपनाने को तैयार है.’’

‘‘और तुम्हारी क्या मरजी है?’’

‘‘मेरा दिल भी उसे चाहता है, अभी मेरी उम्र भी क्या है. मैं अपने दिवंगत पति की यादों की काली चादर ओढ़ कर, जिंदगी के अंधेरों में उम्रभर नहीं भटक सकती.’’

‘‘हम ही कौन सा तुम्हें एकाकी जीवन बिताते हुए देख कर सुखी हैं. तुम और देवांश वयस्क हो, अपना भलाबुरा समझते हो. तुम दोनों जो भी फैसला करोगे, ठीक ही करोगे. और हां, अब ज्यादा देर न लगाओ, अगले ही इतवार को देवांश को घर बुला लो, हम से मिलने के लिए.’’ मैं ने पद्मजा के गालों पर बिखरे हुए बालों को हटाते हुए कहा.

‘‘ठीक है, मेरी अच्छी भाभी,’’ कह कर पद्मजा भावविभोर हो कर छोटे बच्चे की तरह मुझ से लिपट गई.

कहते हैं कि घर में जितने ज्यादा सदस्य होते हैं, उतना ही वहां सूनापन कम होता है. मगर जब से पद्मजा विधवा हो कर मेरे घर आई थी, तब से सूनेपन का बसेरा हो गया था घर में. ऐसा सूनापन जो नाग की तरह हम तीनों के हृदय में घर कर के हमें अंदर ही अंदर डस रहा था. आज पद्मजा की आंखों की चमक उस नाग पर वार कर के उसे पूर्णरूप से खत्म करने को तत्पर थी.

 

अगले रविवार की शाम मेरे घर में रूपहला उजाला सा बिखरा हुआ था और पद्मजा इस उजाले में सिर से पांव तक नहाई सी प्रतीत हो रही थी. रोशनखयाल देवांश ने कुछ ही घंटों में सचिन पर अपना प्रभुत्व कायम कर लिया.

‘‘औरत केवल एक शरीर नहीं है, पूरी सृष्टि है. जब विधुर पुरुष का विवाह अविवाहित स्त्री से हो सकता है तो फिर अविवाहित पुरुष एक विधवा को अपनाने में क्यों इतना सोचते हैं? रही बात समाज और रीतिरिवाजों की, तो ये सब इंसान के लिए बने हैं, इंसान  इन के लिए नहीं.

इंसानों के बदलने से युग परिवर्तन हुए हैं क्योंकि ये युग प्रवर्तक अच्छी सोच को करनी में उतारते हैं, कथनी तक सीमित नहीं रहने देते हैं,’’ कहतेकहते देवांश थोड़ा रुका, उस की आंखें पद्मजा पर एक सरसरी दृष्टि डालती हुई सचिन के चेहरे पर जम गईं और उस ने घोषणात्मक स्वर में ऐलान किया, ‘‘मैं पद्मजा को अपना जीवनसाथी बनाना चाहता हूं. अगर आप न भी करेंगे तो भी मैं ऐसा करूंगा क्योंकि मैं जानता हूं कि पद्मजा की खुशी इसी में है और मेरे लिए संसार में उस की खुशी से बढ़ कर कुछ नहीं हैं.’’

कुछ देर के लिए कमरे में गहरी चुप्पी छाई रही, सभी एकदूसरे के चेहरे ताक रहे थे. मन ही मन विचारों की कुछ नापतौल सी चल रही थी.

अंत में सचिन ने ही चुप्पी तोड़ी, ‘‘अरे भाई, जब तुम दोनों ने सबकुछ पहले से ही फाइनल कर लिया है तो मैं क्या, कोई भी तुम्हारा निर्णय नहीं बदल सकता,’’ कहते हुए सचिन अपनी जगह से उठे और उन्होंने पद्मजा का हाथ ले देवांश के हाथों में पकड़ा दिया. फिर दोनों को एकसाथ अपनी बाहों में ले कर अपने कलेजे से लगा लिया.

उस रात डिनर के बाद देवांश खुशीखुशी विदा हो गया था अपनी शादी की तैयारियां जो शुरू करनी थी उसे. पद्मजा के कमरे से खुशी के गीतों की गुनगुनाहटें आ रही थीं. सब से ज्यादा फूले नहीं समा रहे थे सचिन. वे बिना रुके देवांश की तारीफों के पुल बांधे जा रहे थे, ‘‘क्या कमाल का लड़का है, कैसे उत्तम विचार हैं उस के. अपने मांबाप का इकलौता बेटा है.

‘‘बहुतेरे लोग अपनी बेटी का रिश्ता उस से जोड़ने को दरवाजे पर खड़े रहते होंगे. मगर इसे कहते हैं संस्कार. बड़े ही ऊंचे संस्कार दिए हैं उस के मांबाप ने उसे. युगपुरुष, महापुरुष वाली बात है उस में. बहुत बड़ी बात है कि जो ऐसे उच्च विचारों का व्यक्ति हमारे यहां रिश्ता जोड़ रहा है.’’

और मैं हैरान, जड़वत सी, दोगली मानसिकता के शिकार अपने पति के दोहरे मापदंडों की गवाह बनी खड़ी थी.

दुकान और औरत

रमेश ने झगड़ालू और दबंग पत्नी से आपसी कलह के चलते दुखी जिंदगी देने वाला तलाक रूपी जहर पी लिया था. अगर चंद्रमणि उस की मां की सेवा करने की आदत बना लेती, तो वह उस का हर सितम हंसतेहंसते सह लेता, मगर अब उस से अपनी मां की बेइज्जती सहन नहीं होती थी.

ऐसी पत्नी का क्या करना, जो अपना ज्यादातर समय टैलीविजन देखने या मोबाइल फोन पर अपने घर वालों या सखीसहेलियों के साथ गुजारे और घर के सारे काम रमेश की बूढ़ी मां को करने पड़ें? बारबार समझाने पर भी चंद्रमणि नहीं मानी, उलटे रमेश पर गुर्राते हुए मां का ही कुसूर निकालने लगती, तो उस ने यह कठोर फैसला ले लिया.

चंद्रमणि तलाक पाने के लिए अदालत में तो खड़ी हो गई, मगर उस ने अपनी गलतियों पर गौर करना भी मुनासिब नहीं समझा. इस तरह रमेश ने तकरीबन 6 लाख रुपए गंवा कर अकेलापन भोगने के लिए तलाक रूपी शाप झेल लिया. ऐसा नहीं था कि चंद्रमणि से तलाक ले कर रमेश सुखी था. खूबसूरत सांचे में ढली गदराए बदन वाली चंद्रमणि उसे अब भी तनहा रातों में बहुत याद आती थी, लेकिन मां के सामने वह अपना दर्द कभी जाहिर नहीं करता था. लिहाजा, उस ने अपना मन अपनी दुकानदारी में पूरी तरह लगा लिया. रमेश मन लगा कर अपने जनरल स्टोर में 16-16 घंटे काम करने लगा… काम खूब चलने लगा. रुपया बरस रहा था. अब वह रेडीमेड कपड़ों की दूसरी दुकान खोलना चाहता था.

रविवार का दिन था. रमेश अपने कमरे में बैठा कुछ हिसाबकिताब लगा रहा था कि तभी उस का मोबाइल फोन बज उठा. फोन उठाते ही किसी अजनबी औरत की बेहद मीठी आवाज सुनाई दी. रमेश का मन रोमांटिक सा हो गया. उस ने पूछा, तो दूसरी तरफ से घबराई झिझकती आवाज में बताया गया कि उस औरत की 5 साला बेटी से गलती हो गई. माफी मांगी गई. ‘‘अरेअरे, इस में गलती की कोई बात नहीं. बच्चे तो शरारती होते ही हैं. बड़ी प्यारी बच्ची है आप की. इस के पापा घर में ही हैं क्या?’’ रमेश ने पूछा, तो दूसरी तरफ खामोशी छा गई.

रमेश ने फिर पूछा, तो उस औरत ने बताया कि उस ने अपने पति का घर छोड़ दिया है.

‘‘ऐसा क्यों किया? यह तो आप ने गलत कदम उठाया. घर उजाड़ने में समय नहीं लगता, पर बसाने में जमाने लग जाते हैं. आप को ऐसा नहीं करना चाहिए था.

‘‘आप को अपनी गलती सुधारनी चाहिए और अपने पति के घर लौट जाना चाहिए,’’ रमेश ने बिना मांगे ही उस औरत को उपदेश दे दिया.

औरत ने दुखी मन से बताया, ‘ऐसा करना बहुत जरूरी हो गया था. अगर मैं ऐसा न करती, तो वह जालिम हम मांबेटी को मार ही डालता.’

‘‘देखो, घर में छोटेमोटे मनमुटाव होते रहते हैं. मिलबैठ कर समझौता कर लेना चाहिए. एक बार घर की गाड़ी पटरी से उतर गई, तो बहुत मुश्किल हो जाता है.

‘‘तुम्हारा अपने घर लौट जाना बेहद जरूरी है. लौट आओ वापस. बाद में पछतावे के अलावा कुछ भी हाथ नहीं लगेगा,’’ रमेश ने रास्ते से भटकी हुई उस औरत को समझाने की भरपूर कोशिश की, पर उस का यह उपदेश सुन कर वह औरत मानो गरज उठी, ‘जो आदमी अपराध कर के बारबार जेल जाता रहता है. जब वह जेल से बाहर आता है, तो मेहनतमजदूरी के कमाए रुपए छीन कर फिर नशे में अपराध कर के जेल चला जाता है, तो हम उस राक्षस के पास मरने के लिए रहतीं?

‘अगर तुम अब यही उपदेश देते हो, तो तुम ही हम मांबेटी को उस जालिम के पास छोड़ आओ. हम तैयार हैं,’ उस परेशान औरत ने अपना दर्द बता कर रमेश को लाजवाब कर दिया. यह सुन कर रमेश को सदमा सा लगा. वह सोच रहा था कि जवान औरत अपनी मासूम बेटी के साथ अकेले बेरोजगारी की हालत में अपनी जिंदगी कैसे बिताएगी? यकीनन, ऐसे मजबूर इनसान की जरूर मदद करनी चाहिए. वैसे भी रमेश को औरतों के सामान वाले जनरल स्टोर पर किसी औरत को रखना था, तभी तो वह रेडीमेड कपड़ों की दूसरी दुकान कर पाएगा. अगर यह मीठा बोलने वाली औरत ऐसे ही दुकान पर ग्राहकों से मीठीमीठी बातें करेगी, तो दुकान जरूर चल सकती है.

रमेश ने उस से पूछा, ‘‘क्या आप पढ़ीलिखी हैं?’’

‘क्या मतलब?’ उस औरत ने चौंकते हुए पूछा.

‘‘मेरा मतलब यह है कि मुझे अपने जनरल स्टोर पर, जिस में लेडीज सामान ही बेचा जाता है, सेल्स गर्ल की जरूरत है. अगर आप चाहें, तो मैं आप को नौकरी दे सकता हूं. इस तरह आप के खर्चेपानी की समस्या का हल भी हो जाएगा.’’

‘क्या आप मुझे 10 हजार रुपए महीना तनख्वाह दे सकते हैं?’ उस औरत ने चहकते हुए पूछा.

‘‘हांहां, क्यों नहीं, अगर आप मेरी दुकान पर 12 घंटे काम करेंगी, तो मैं आप को 10 हजार रुपए से ज्यादा भी दे सकता हूं. यह तो तुम्हारे काम पर निर्भर करता है कि तुम आने वाले ग्राहकों को कितना प्रभावित करती हो.’’

‘काम तो मैं आप के कहे मुताबिक ही करूंगी. बस, मुझे मेरी बेटी की परेशानी रहेगी. अगर मेरी बेटी के रहने की समस्या का हल हो जाए, तो मैं आप की दुकान पर 15 घंटे भी काम कर सकती हूं. बेटी को संभालने वाला कोई तो हो,’ वह औरत बोली.

‘‘मैं आप की बेटी को सुबह स्कूल छोड़ आऊंगा. छुट्टी के बाद उसे मैं अपनी मां के पास छोड़ आया करूंगा. इस तरह आप की समस्या का हल भी निकल आएगा और घर में मेरी मां का दिल भी लगा रहेगा. आप की बेटी भी महफूज रहेगी,’’ रमेश ने बताया.

वह औरत खुशी के मारे चहक उठी, ‘फिर बताओ, मैं तुम्हारे पास कब आऊं? अपनी दुकान का पता बताओ. मैं अभी आ कर तुम से मिलती हूं. तुम मुझे नौकरी दे रहे हो, मैं तनमन से तुम्हारे काम आऊंगी. गुलाम बन कर रहूंगी, तुम्हारी हर बात मानूंगी.’

रमेश के मन में विचार आया कि अगर वह औरत अपने काम के प्रति ईमानदार रहेगी, तो वह उसे किसी तरह की परेशानी नहीं होने देगा. उस की मासूम बेटी को वह अपने खर्चे पर ही पढ़ाएगा.

तभी रमेश के मन में यह भी खयाल आया कि वह पहले उस के घर जा कर उसे देख तो ले. उस की आवाज ही सुनी है, उसे कभी देखा नहीं. उस के बारे में जानना जरूरी है. लाखों रुपए का माल है दुकान में. उस के हवाले करना कहां तक ठीक है?

रमेश ने उस औरत को फोन किया और बोला, ‘‘पहले आप अपने घर का पता बताएं? आप का घर देख कर ही मैं कोई उचित फैसला कर पाऊंगा.’’

वह औरत कुछ कह पाती, इस से पहले ही रमेश को उस के घर से मर्दों की आवाजें सुनाई दीं.

वह औरत लहजा बदल कर बोली, ‘अभी तो मेरे 2 भाई घर पर आए हुए हैं. तुम कल शाम को आ जाओ.

‘मैं तनमन से आप की दुकान में मेहनत करूंगी और आप की सेवा भी करूंगी. आप की उम्र कितनी है?’ उस औरत ने पूछा.

‘‘मेरी उम्र तो यही बस 40 साल के करीब होगी. अभी मैं भी अकेला ही हूं. पत्नी से आपसी मनमुटाव के चलते मेरा तलाक हो गया है,’’ रमेश ने भी अपना दुख जाहिर कर दिया.

यह सुन कर तो वह औरत खुशी के मारे चहक उठी थी, ‘अरे वाह, तब तो मजा आ जाएगा, साथसाथ काम करने में. मेरी उम्र भी 30 साल है. मैं भी अकेली, तुम भी अकेले. हम एकदूसरे की परेशानियों को दिल से समझ सकेंगे,’ इतना कह कर उस औरत ने शहद घुली आवाज में अपने घर का पता बताया.

उस औरत ने अपने घर का जो पता बताया था, वह कालोनी तो रमेश के घर से आधा किलोमीटर दूर थी. उस ने अपनी मां से औरत के साथ हुई सारी बातें बताईं.

मां ने सलाह दी कि अगर वह औरत ईमानदार और मेहनती है, तो उसे अभी उस के घर जा कर उस के भाइयों के सामने बात पक्की करनी चाहिए.

रमेश को अपनी मां की बात सही लगी. उस ने फोन किया, तो उस औरत का फोन बंद मिला.

रमेश ने अपना स्कूटर स्टार्ट किया और चल दिया उस के घर की तरफ. मगर घर का गेट बंद था. गली भी आगे से बंद थी. वहां खास चहलपहल भी नहीं थी. मकान भी मामूली सा था.

गली में एक बूढ़ा आदमी नजर आया, तो रमेश ने अदब से उस औरत का नाम ले कर उस के घर का पता पूछा. बूढ़े ने नफरत भरी निगाहों से उसे घूरते हुए सामने मामूली से मकान की तरफ इशारा किया.

रमेश को उस बूढ़े के बरताव पर गुस्सा आया, मगर उस की तरफ ध्यान न देते हुए बंद गेट तो नहीं खटखटाया, मगर गली की तरफ बना कमरा, जिस का दरवाजा गली की तरफ नजर आ रहा था, उसी को थपथपा कर कड़कती आवाज में उस औरत को आवाज लगाई.

थोड़ी देर में दरवाजा खुला, तो एक हट्टीकट्टी बदमाश सी नजर आने वाली औरत रमेश को देखते ही गरज उठी, ‘‘क्यों रे, हल्ला क्यों मचा रहा है? ज्यादा सुलग रहा है… फोन कर के आता. देख नहीं रहा कि हम आराम कर रहे हैं.

‘‘अगर हमारे चौधरीजी को गुस्सा आ गया, तो तेरा रामराम सत्य हो जाएगा. अब तू निकल ले यहां से, वरना अपने पैरों पर चल कर जा नहीं सकेगा. अगली बार फोन कर के आना. चल भाग यहां से,’’ उस औरत ने अपने पास खड़े 2 बदमाशों की तरफ देखते हुए रमेश को ऐसे धमकाया, जैसे वह वहां की नामचीन हस्ती हो.

‘‘अपनी आकौत में रह, गंदगी में मुंह मारने वाली औरत. मैं यहां बिना बुलाए नहीं आया हूं. मेरा नाम रमेश है.

‘‘अगर मैं कल शाम को यहां आता, तो तुम्हारी इस दुकानदारी का मुझे कैसे पता चलता. कहो तो अभी पुलिस को फोन कर के बताऊं कि यहां क्या गोरखधंधा चल रहा है,’’ रमेश ने धमकी दी.

रमेश समझ गया था कि उस औरत ने अपनी सैक्स की दुकान खूब चला रखी है. वह तो उस की दुकान का बेड़ा गर्क कर के रख देगी. उस ने मन ही मन अपनी मां का एहसान माना, जिन की सलाह मान कर वह आज ही यहां आ गया था.

उस औरत के पास खड़े उन बदमाशों में से एक ने शराब के नशे में लड़खड़ाते हुए कहा, ‘‘अबे, तू हमें पुलिस के हवाले करेगा? हम तुझे जिंदा नहीं छोड़ेंगे?’’ पर रमेश दिलेर था. उस ने लड़खड़ाते उस शराबी पर 3-4 थप्पड़ जमा दिए. वह धड़ाम से जमीन चाटता हुआ नजर आया. यह देख कर वह औरत, जिस का नाम चंपाबाई था, ने जूतेचप्पलों से पिटाई करते हुए कमरे से उन दोनों आशिकों को भगा दिया.

चंपाबाई हाथ जोड़ कर रमेश के सामने गिड़गिड़ा उठी, ‘‘रमेशजी, मैं अकेली औरत समाज के इन बदमाशों का मुकाबला करने में लाचार हूं. मैं आप की शरण में आना चाहती हूं. मुझ दुखियारी को तुम अभी अपने साथ ले चलो. मैं जिंदगीभर तुम्हारी हर बात मानूंगी.’’ चंपाबाई बड़ी खतरनाक किस्म की नौटंकीबाज औरत नजर आ रही थी. अगर आज रमेश आंखों देखी मक्खी निगल लेता, तो यह उस की गलती होती. वह बिना कोई जवाब दिए अपनी राह पकड़ घर की तरफ चल दिया.

हर दिन नया मर्द देखने वाली चंपाबाई अपना दुखड़ा रोते हुए बारबार उसे बुला रही थी, पर रमेश समझ गया था कि ऐसी औरतों की जिस्म की दुकान हो या जनरल स्टोर, वे हर जगह बेड़ा गर्क ही करती हैं.

मोबाइल पर फिल्म

ऐसे टुकुरटुकुर क्या देख रहा है?’’ अपना दुपट्टा संभालते हुए धन्नो ने जैसे ही पूछा, तो एक पल के लिए सूरज सकपका गया.

‘‘तुझे देख रहा हूं. सच में क्या मस्त लग रही है तू,’’ तुरंत संभलते हुए सूरज ने जवाब दिया. धन्नो के बदन से उस की नजरें हट ही नहीं रही थीं.

‘‘चल हट, मुझे जाने दे. न खुद काम करता है और न ही मुझे काम करने देता है…’’ मुंह बनाते हुए धन्नो वहां से निकल गई.

सूरज अब भी उसे देख रहा था. वह धन्नो के पूरे बदन का मुआयना कर चुका था.

‘‘एक बार यह मिल जाए, तो मजा आ जाए…’’ सूरज के मुंह से निकला.

सूरज की अकसर धन्नो से टक्कर हो ही जाती थी. कभी रास्ते में, तो कभी खेतखलिहान में. दोनों में बातें भी होतीं. लेकिन सूरज की नीयत एक ही रहती… बस एक बार धन्नो राजी हो जाए, फिर तो…

धन्नो को पाने के लिए सूरज हर तरह के हथकंडे अपनाने को तैयार था.

‘‘तू कुछ कामधंधा क्यों नहीं करता?’’ एक दोपहर धन्नो ने सूरज से पूछा.

‘‘बस, तू हां कर दे. तेरे साथ घर बसाने की सोच रहा हूं,’’ सूरज ने बात छेड़ी, तो धन्नो मचल उठी.

‘‘तू सच कह रहा है,’’ धन्नो ने खुशी में उछलते हुए सूरज के हाथ पर अपना हाथ रख दिया.

सूरज को तो जैसे करंट मार गया. वह भी मौका खोना नहीं चाहता था. उस ने झट से उस का हाथ पकड़ लिया और बोला, ‘‘सच धन्नो, मैं तुम्हें अपनी घरवाली बनाना चाहता हूं. तू तो जानती है कि मेरा बाप सरपंच है. नौकरी चाहूं, तो आज ही मिल जाएगी.’’

सूरज ने भरोसा दिया, तो धन्नो पूछ बैठी, ‘‘तो नौकरी क्यों नहीं करते? फिर मेरे मामा से मेरा हाथ मांग लेना. कोई मना नहीं करेगा.’’

सूरज ने हां में सिर हिलाया. धन्नो उस के इतना करीब थी कि वह अपनी सुधबुध खोने लगा.

‘‘यहां कोई नहीं है. आराम से लेट कर बातें करते हैं,’’ सूरज ने इधरउधर देखते हुए कहा.

‘‘मैं सब जानती हूं. तुम्हारे दिमाग का क्या भरोसा, कुछ गड़बड़ कर बैठे तो…’’ धन्नो ने तपाक से जवाब दिया, ‘‘ब्याह से पहले यह सब ठीक नहीं… मरद जात का क्या भरोसा?’’ इतना कहते हुए वह तीर की मानिंद निकल गई. जातेजाते उस ने सूरज के हाथ को कस कर दबा दिया था. सूरज इसे इशारा समझने लगा.

‘‘फिर निकल गई…’’ सूरज को गुस्सा आ गया. उसे पूरा भरोसा था कि आज उस की मुराद पूरी होगी. लेकिन धन्नो उसे गच्चा दे कर निकल गई. अब तो सूरज के दिलोदिमाग पर धन्नो का नशा बोलने लगा. कभी उस का कसा हुआ बदन, तो कभी उस की हंसी उसे पागल किए जा रही थी. वैसे तो वह सपने में कई बार धन्नो को पा चुका था, लेकिन हकीकत में उस की यह हसरत अभी बाकी थी. सरपंच मोहन सिंह का बेटा होने के चलते सूरज के पास पैसों की कोई कमी नहीं थी. सो, उस ने एक कीमती मोबाइल फोन खरीदा और उस में खूब ब्लू फिल्में भरवा दीं. उन्हें देखदेख कर धन्नो के साथ वैसे ही करने के ख्वाब देखने लगा.

‘‘अरे, तू इतने दिन कहां था?’’ धन्नो ने पूछा. उस दिन हैंडपंप के पास पानी भरते समय दोनों की मुलाकात हो गई.

‘‘मैं नौकरी ढूंढ़ रहा था. अब नौकरी मिल गई है. अगले हफ्ते से ड्यूटी पर जाना है,’’ सूरज ने कुछ सोच कर कहा, ‘‘अब तो ब्याह के लिए हां कर दे.’’

‘‘वाह… वाह,’’ नौकरी की बात सुनते ही धन्नो उस से लिपट गई. सूरज की भावनाएं उफान मारने लगीं. उस ने तुरंत उसे अपनी बांहों में भर लिया.

‘‘हां कर दे. और कितना तरसाएगी,’’ सूरज ने उस की आंखों में आंखें डाल कर पूछा.

‘‘तू गले में माला डाल दे… मांग भर दे, फिर जो चाहे करना.’’

सूरज उसे मनाने की जीतोड़ कोशिश करने लगा.

‘‘अरे वाह, इतना बड़ा मोबाइल फोन,’’ मोबाइल फोन पर नजर पड़ते ही धन्नो के मुंह से निकला, ‘‘क्या इस में सिनेमा है? गानेवाने हैं?’’

‘‘बहुत सिनेमा हैं. तू देखेगी, तो चल उस झोंपड़े में चलते हैं. जितना सिनेमा देखना है, देख लेना,’’ सूरज धन्नो के मांसल बदन को देखते हुए बोला, तो वह उस के काले मन के इरादे नहीं भांप सकी.

धन्नो राजी हो गई. सूरज ने पहले तो उसे कुछ हिंदी फिल्मों के गाने दिखाए, फिर अपने मनसूबों को पूरा करने के लिए ब्लू फिल्में दिखाने लगा.

‘‘ये कितनी गंदी फिल्में हैं. मुझे नहीं देखनी,’’ धन्नो मुंह फेरते हुए बोली.

‘‘अरे सुन तो… अब अपने मरद से क्या शरमाना? मैं तुम से शादी करूंगा, तो ये सब तो करना ही होगा न, नहीं तो हमारे बच्चे कैसे होंगे?’’ उसे अपनी बाजुओं में भरते हुए सूरज बोला.

‘‘वह तो ठीक है, लेकिन शादी करोगे न? नहीं तो मामा मेरी चमड़ी उतार देगा,’’ नरम पड़ते हुए धन्नो बोली.

‘‘मैं कसम खाता हूं. अब जल्दी से घरवाली की तरह बन जा और चुपचाप सबकुछ उतार कर लेट जा,’’ इतना कहते हुए सूरज अपनी शर्ट के बटन खोलने लगा. उस के भरोसे में बंधी धन्नो विरोध न कर सकी.

‘‘तू सच में बहुत मस्त है…’’ आधा घंटे बाद सूरज बोला, ‘‘किसी को कुछ मत बताना. ले, यह दवा खा ले. कोई शक नहीं करेगा.’’

‘‘लेकिन, मेरे मामा से कब बात करोगे?’’ धन्नो ने पूछा, तो सूरज की आंखें गुस्से से लाल हो गईं.

‘‘देख, मजा मत खराब कर. मुझे एक बार चाहिए था. अब यह सब भूल जा. तेरा रास्ता अलग, मेरा अलग,’’ जातेजाते सूरज ने कहा, तो धन्नो पर जैसे बिजली टूट गई.

अब धन्नो गुमसुम सी रहने लगी. किसी बात में उस का मन ही नहीं लगता.

‘‘अरे, तेरे कपड़े पर ये खून के दाग कैसे?’’ एक दिन मामी ने पूछा, तो धन्नो को जैसे सांप सूंघ गया. ‘‘पिछले हफ्ते ही तेरा मासिक हुआ था, फिर…’’

धन्नो फूटफूट कर रोने लगी. सारी बातें सुन कर मामी का चेहरा सफेद पड़ गया. बात सरपंच मोहन सिंह के पास पहुंची. पंचायत बैठी. मोहन सिंह के कड़क तेवर को सभी जानते थे. उस के लिए किसी को उठवाना कोई बड़ी बात नहीं थी.

‘‘तो तुम्हारा कहना है कि सूरज ने तुम्हारे साथ जबरदस्ती की है?’’ सरपंच के आदमी ने धन्नो से पूछा.

‘‘नहीं, सूरज ने कहा था कि वह मुझ से ब्याह करेगा, इसलिए पहले…’’

‘‘नहींनहीं, मैं ने ऐसा कोई वादा नहीं किया था…’’ सूरज ने बीच में टोका, ‘‘यह झूठ बोल रही है.’’

‘‘मैं भी तुम से शादी करूंगा, तो क्या तू मेरे साथ भी सोएगी,’’ एक मोटे से आदमी ने चुटकी ली.

‘‘तू है ही धंधेवाली…’’ भीड़ से एक आवाज आई.

‘‘चुप करो,’’ मोहन सिंह अपनी कुरसी से उठा, तो वहां खामोशी छा गई. वह सीधा धन्नो के पास पहुंचा.

‘‘ऐ छोकरी, क्या सच में मेरे सूरज ने तुझ से घर बसाने का वादा किया था?’’ उस ने धन्नो से जानना चाहा. मोहन सिंह के सामने अच्छेअच्छों की बोलती बंद हो जाती थी, लेकिन न जाने क्यों धन्नो न तो डरी और न ही उस की जबान लड़खड़ाई.

‘‘हां, उस ने मुझे घरवाली बनाने की कसम खाई थी, तभी तो मैं राजी…’’ यह सुनते ही सरपंच का सिर झुक गया. भीड़ अब भी शांत थी.

‘‘बापू, तू इस की बातों में न आ…’’ सूरज धन्नो को मारने के लिए दौड़ा.

‘‘चुप रह. शर्म नहीं आती अपनी घरवाली के बारे में ऐसी बातें करते हुए. खबरदार, अब धन्नो के बारे में कोई एक शब्द कहा तो… यह हमारे घर की बहू है. अब सभी जाओ. अगले लगन में हम सूरज और धन्नो का ब्याह रचाएंगे.’’

धन्नो मोहन सिंह के पैरों पर गिर पड़ी. उस के मुंह से इतना ही निकला, ‘‘बापू, तुम ने मुझे बचा लिया.’’

दुकानदार और ग्राहक के बीच के अपनेपन को निगलती स्क्रीन

सोशल मीडिया पर आए दिन कोई न कोई यह शिकायत करते मिल ही जाता है कि फेसबुक पर तो उसके सैकड़ोंहजारों फ्रेंड्स थे लेकिन जब हार्टअटैक के चलते अस्पताल में भर्ती हुआ तो मिजाजपुर्सी के लिए दो दोस्त भी नहीं आए. एक किसी के मरने की खबर व्हाट्सएप पर चलती है तो उसे RIP बोल कर श्रद्धांजलि देने वालों की होड़ लग जाती है. लेकिन जब उस की शव यात्रा निकलती है तो बमुश्किल 20 – 25 लोग ही नजर आते हैं .

इस फर्जी अपनेपन ने हमें कितना अकेला, चालाक और असंवेदनशील बना दिया है इसे नापने का कोई पैमाना ही नही . इस के नुकसान सभी समझ रहे हैं कि हम भीड़भाड़ वाले शहरों में अकेले पड़ते जा रहे हैं लेकिन सामाजिक शिष्टाचार निभाने का मौका या वक्त आता है तो हम खुद अपने आप में सिकुड़ जाते हैं . हम अप ने मोबाइल की स्क्रीन में ठीक पिंजरे के तोते की तरह कैद हो कर रह गये हैं जो पिंजरे के अंदर से टे टे तो बहुत करता रहता है पर पिंजरे की कैद को ही उस ने अपना सुख मान लिया है .

हम क्यों तोते के मानिंद एक छोटी सी स्क्रीन में कैद हो कर रह गए हैं इस का ठीकठाक जवाब शायद ही कोई दे पाए . इसे समझने के कई दूसरे तरीके भी हैं मसलन हम आप में से कब से किसी ने पड़ोसी से अचार ,दूध , शकर , चाय पत्ती या दही जमाने जरा सा जामन नही माँगा और न ही हमारे दरवाजे पर कोई कभी इस तरह के आइटम मांगने आया. ज्यादा नही कोई 20 – 25 साल पहले तक ये नज़ारे आम थे और यह भी कि बेटे से यह कहना कि देख पड़ोस बाले शर्मा जी के यहां कटहल की सब्जी बनी हो तो एक कटोरी लेते आना . और हाँ उन्हें कटोरे में खीर देते आना शर्मा जी को बहुत पसंद है तेरी माँ के हाथ की बनी खीर .

ऐसी कई बातें और यादें हैं जो रोमांचित करती हैं जिन्हें याद कर मन कसैला भी हो उठता है . – लेकिन इस कसैलेपन को दूर करने या उस से छुटकारा पाने की कोई कोशिश कोई कर रहा है ऐसा लगता नहीं . इसका यह मतलब नहीं कि अपनेआप में जीने के आदी हो गए हम आप बहुत सुकून से हैं . उलटे हम सामाजिक और मानसिक असुरक्षा से घिरते जा रहे हैं जिसके चलते जीने का सही लुत्फ भी नहीं उठा पा रहे .

अब दही , अचार , शकर , दूध या पत्ती मांगने कोई पड़ोसी के घर नहीं जाता क्योंकि इसमें हेठी लगती है शर्म भी आती है .यह मांगना या एक्सचेंज करना मजबूत रिश्तों और पड़ोस की निशानी था जिसे औनलाइन शापिंग और मार्केट कब निगल गया हमे पता ही नहीं चला . कोई छोटीमोटी चीज चाहिए तो ब्लिंकिट जैसी दर्जनों में से किसी औनलाइन शौपिंग वाले को मैसेज करिए उस का बन्दा 15 मिनट में सामान लेकर हाजिर हो जायेगा लेकिन वह पैमेंट लेकर छू हो जायेगा .

आप के पास बैठकर बतियाएगा नहीं और आप अप ने ड्राइंग लिविंग या बेडरूम में आकर फिर वह पिंजरा रुपी स्क्रीन खोल कर बकबास का हिस्सा बन जाएंगे . इस से भी जी भर जायेगा तो कुछ मिनिट टीवी देख लेंगे और इस से भी बोर हो जायेंगे तो फिर पिंजरे में घुस जायेंगे जहाँ कई तोते पहले से ही टें टें कर रहे होंगे . कोई राजनीति की , कोई धर्म की कोई फिल्मों या खेल की तो कोई हिन्दू मुस्लिम कर रहा होगा .

यह कचरा आपके दिमाग में घूरे की हद तक इकट्ठा हो चुका है जिसकी बदबू और भार से आपका जीना मुहाल हो चुका है . यह दरअसल में एक तरह का नशा है जिसकी लत कुछ इस कदर पड़ चुकी है कि कुछ देर भी इसकी खुराक न मिले तो बैचेनी होने लगती है . पहले ऐसा नहीं था . न आप घर में अकेले थे , न मोहल्ले पड़ोस में , न समाज और रिश्तेदारी में और न ही कार्यस्थल पर अकेले थे आपके साथ कुछ लोग थे जो अच्छा बुरा सुख दुःख साझा करते थे . तमाम सामयिक मुद्दों पर बहस करते थे . साथ में चाय पीते थे गपशप और हंसी मजाक भी करते थे जिससे स्ट्रेस बनते नहीं थे बल्कि दूर होते थे.

इस स्क्रीन ने हर रिश्ते पर फर्क डाला है और ऐसा डाला है कि बेहद अन्तरंग रिश्ते भी कभी कभी औपचारिक लगने लगते हैं . लेकिन एक बड़ा फर्क दुकानदार और ग्राहक के रिश्ते पर भी पड़ा है . खुदरा दुकानदार कभी परिवार का सदस्य नही तो सदस्य जैसा ही हुआ करता था. जिससे नगद उधार दोनों तरह का लेनदेन चला करता था . आप उसके लिए ग्राहक और वो आपके लिए सिर्फ दुकानदार ही नही हुआ करता था . बल्कि एक मजबूत बांडिंग दोनों के बीच हुआ करती थी जो अब टूट कर बिखर गई है .

ये रिश्ता बड़ा अजीब था . घंटों मोलभाव करना , नाप तौल पर यकीन होते भी शक जताना , अपने सुख दुःख को दुकानदार से शेयर करना और जरूरत पड़ने पर उससे पैसे भी उधार ले लेना भी इसमें शामिल था या असे जरूरत पड़ने पर दे देने में सोचा विचारी नहीं करना पड़ती थी . घर परिवार के हर फंक्शन में उसकी अनिवार्य हाजिरी बगैरह की कीमत अब समझ आती है जब आपका दुकानदार आपके पास ही नहीं .वह दूर कहीं बहुमंजिला ईमारत के अपने एसी आफिस में बैठा बिक्री के नये नये तरीके इजाद करने में लगा रहता है .

किसी भी कसबे या शहर का खुदरा दुकानदार भी दुखी और परेशान है लेकिन महज इसलिए नही कि उसे आन लाइन शापिंग के बढ़ते चलन से घाटा हो रहा है . बल्कि इसलिए भी कि बहुत कुछ खोया उसने भी है . उसने भी वही सब कुछ खोया है जो आपने खो दिया है लेकिन वह भी इस नये सिस्टम के आगे लाचार है और अपने बेटे को दुकान पर नही बैठाल रहा . यह वही दुकानदार है जो ग्राहक की बेटी की शादी में बारातियों की खातिरदारी में लगा रहता था .

आधी रात को भी दुकान खोलकर सामान देता था और ग्राहक को आश्वस्त करता था कि किसी बात की चिंता मत करना . ऐसी कई बातें और यादें उन लोगों के जेहन में जिन्दा हैं जो 50 – 60 वसंत देख चुके हैं लेकिन उनके बच्चे इससे वंचित हैं क्योंकि उनका दुकानदार कौन है उन्हें मालूम ही नही अब चौक बजरिया या बड़े बाजार के दुकानदार ने भी अपने बेटे को बीटेक या मेनेजमेंट के कोर्स के लिए बेंगुलुरु , पुणे , मुंबई या दिल्ली जैसे किसी बड़े शहर में पढ़ने के लिए भेज दिया है . क्योंकि उसे दुकानदारी में कोई भविष्य नजर नही आ रहा . अब बड़ी तादाद में खुदरा दुकाने बंद हो रही हैं और नई न के बराबर खुल रही हैं.

संस्कृति और धर्म की दुहाई देकर रोने बालों को इस खत्म होते सामाजिक रिश्ते से कोई वास्ता नही . वे कभी सडक पर आकर हाय हाय नहीं करते कि पीढ़ियों से हम जहाँ से किराने और मनिहारी का सामान ले रहे थे वह भी इस कड़ी का अहम हिस्सा था इनकी नजर में तो दुकानदार भी किसानो की तरह शूद्र है . वह दुधिया जो रोज सुबह शाम दूध देने आया करता था वह अब डेरी या सहकारी संस्था का मेम्बर बन कट चुका है दूध में पानी मिला है या लीटर भर में कम है यह शिकायत जो हास परिहास का बड़ा जरिया थी छीन चुकी है एक वस्त्र विक्रेता हुआ करता था जिसकी दुकान से दीवाली जैसे त्यौहार पर घर भर के कपडे आया करते थे .

एक सुनार था जिसकी मझोली दुकान से शादी के गहने बनते थे और पैसा बच जाने पर छिटपुट सोना चांदी भी उससे ख़रीदा जाता था . इतना ही नही इमरजेंसी में पैसो की जरूरत पड़ने पर गहने गिरवी रख ब्याज पर ही सही पैसा देने का काम भी वह करता था .अब सब कुछ आन लाइन उपलब्ध है ज्वेलरी भी डेरी प्रोडक्ट भी और पानी की बोतल भी .

गुजरे कल की ऐसी बहुत सी बाते और यादे जाने कहाँ लुप्त हो गई हैं पहले बढ़ते शहरीकरण को इसका दोष दिया गया फिर टीवी को और अब मोबाइल को दिया जाता है .जो सच भी है क्योंकि स्मार्ट फोन केवल बातचीत करने का जरिया भर नहीं रह गया है बल्कि इसके भीतर बैठे तरह तरह के एप्स पौराणिक काल के दानवो के मानिंद हो चले हैं जिनसे कोई बच नहीं पा रहा . इस टेक्नालाजी से सहूलियतें बिलाशक मिली हैं लेकिन वे अब सोने की जंजीरों सरीखी साबित हो रही हैं .

बाजार तेजी से बेरौनक हो रहे हैं क्योंकि ग्राहक घर से बाहर निकलकर दुकान तक जाने की जहमत नहीं उठा रहा . किस तेजी से लोग आन लाइन शापिंग के आदी हो रहे हैं आंकड़ों से परे हमारी आपकी रोजमर्रा की जिन्दगी इसी बेहतर गवाह है कि भूख लगने पर स्वीगी या जुमेटों के जरिये खाना या स्नेक्स मंगा लेना आसान लगता है . बजाय इसके कि किसी नजदीकी रेस्ट्रोरेन्ट या खोमचे बाले कजे पास टहलते घूमते चले जाएँ. यह ठीक है कि नई पीढ़ी के पास वक्त का टोटा है और पैसों की पिछली पीढ़ी जैसी कमी नहीं है लेकिन इसका यह मतलब तो नही कि हम अपनी उड़ान को पिंजरे में कैद कर लें और छटपटाते रहें .

नरेंद्र मोदी के स्वयं भू राज्यपाल

केंद्र सरकार के कहने पर राष्ट्रपति द्वारा कुछ राज्यों में राज्यपाल नियुक्त किए गए हैं. कैसी विडंबना है कि इन सभी पर भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं संघ की छाप है. जबकि संविधान में भावना यह थी कि राज्यपाल केंद्र और राज्य के बीच सेतु का काम करेंगे, समन्वय का काम करेंगे. मगर अब हो रहा है कि केंद्र का, उस से भी बढ़ कर केंद्र में बैठी सत्ता की विचारधारा की लाठी ले कर राज्यपाल राज्य की सरकार को हांकने का प्रयास रहे हैं.

यह देश और संवैधानिक संस्थाओं के लिए विचारणीय पहलू है कि अचानक “राज्यपाल” नामक संस्था में यह निम्न स्तरीय बदलाव क्यों और किस कारण आया है कि वह केंद्र द्वारा भेजे जाने के बाद संविधान के नियमों को दरकिनार करते हुए स्वयंभू बन गए हैं और सबसे मजेदार बात है कि जहांजहां भारतीय जनता पार्टी की सरकार नहीं है वहां राज्यपाल कुछ इस तरह का बर्ताव कर रहे हैं जैसे वे ही सत्ता के प्रमुख हैं.जबकि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत चुने हुए जनप्रतिनिधि विधायकों के नेता मुख्यमंत्री के रूप में मौजूद है.

लंबे समय से यह विवाद की स्थिति बनी हुई है और इस का सीधा सा कारण यह है कि राज्यपाल नामक इन चेहरों को केंद्र का संरक्षण मिला हुआ है. इसलिए चाहे पश्चिम बंगाल हो या दक्षिण के कुछ राज्य जहांजहां भाजपा सत्ता में नहीं है दूसरे दलों की सरकार है वह राज्यपाल से संघर्ष करते हुए दिखाई दे रही है. अब मामला पहुंच गया है देश की सबसे बड़े न्यायालय में. सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार और दो राज्यों पश्चिम बंगाल व केरल के राज्यपालों को नोटिस जारी कर उनसे जवाब मांग लिया है.दरअसल क्या यह सोचने और चिंतन की बात नहीं है कि पश्चिम बंगाल और केरल की सरकारों की तरफ से दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए प्रधान न्यायाधीश धनंजय यशवंत चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने केंद्रीय गृह मंत्रालय और दोनों राज्यपालों के सचिवों को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है.
देश के सबसे बड़े न्यायालय में यह मामला पहुंच गया, इससे पता चलता है कि केंद्र सरकार गृह मंत्रालय हाथ पैर हाथ बंधे बैठा हुआ है अन्यथा ऐसा कदापि नहीं होता.

राज्यपाल बनाम हास्यपाल

याचिकाओं में कई विधेयकों को लंबे समय तक लंबित रखने, मंजूरी न देने या उन्हें राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित रखने के राज्यपालों के फैसलों को चुनौती दी गई है. दरअसल इस तरह की कार्रवाई करके राज्यपाल अप ने पद की गरिमा कम कर रहे हैं और हंसी के पात्र बन रहे हैं. इधर याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान केरल की ओर से वरिष्ठ वकील केके वेणुगोपाल ने कहा कि वे विधेयकों को राष्ट्रपति के विचार के लिए भेजने के राज्यपाल के फैसले को चुनौती दे रहे हैं. जबकि पश्चिम बंगाल की ओर से वरिष्ठ वकील अभिषेक मनु सिंघवी और जयदीप गुप्ता ने बताया कि जब भी मामला सुप्रीम कोर्ट में सूचीबद्ध होता है, राज्यपाल के कार्यालय की ओर से विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेज दिया जाता है.

मार्च में केरल सरकार ने राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के कार्यालय की ओर से 4 विधेयकों को अनिश्चित काल तक लंबित रखने और बाद में उन्हें राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित रखने की कार्रवाई के खिलाफ अपील की थी. इससे पहले तमिलनाडु सरकार ने भी विधानसभा द्वारा पारित महत्वपूर्ण विधेयकों में देरी के लिए राज्य सरकार के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था. सुप्रीम कोर्ट में पश्चिम बंगाल की ओर से वकील संजय बसु ने जून में एक बयान जारी कर कहा था कि राज्यपाल द्वारा विधेयकों को मंजूरी देने से इनकार करना संविधान के अनुच्छेद 200 का उल्लंघन है.

संविधान में प्रावधान है कि राज्यपाल किसी विधेयक को अगर वह जायज नहीं समझता तो सरकार के पास वापस पुनर्विचार हेतु भेज सकता है और अगर सरकार पुनः उसे विधेयक को भेजती है तो उसे हस्ताक्षर करने होंगे मगर अब हो रहा है कि निश्चित कल तक राज्यपाल विधेयकों को अपने पास रख रहे हैं या फिर राष्ट्रपति के पास भेज देते हैं. कुल मिला कर के मंशा यह है कि विपक्ष की सरकार परेशान हलकान हो और किसी तरह सत्ता से हट जाए ऐसा कुछ राज्यों में देखा गया है जिनमें प्रमुख है राजस्थान और छत्तीसगढ़ जहां कांग्रेस की सरकार थी और राज्यपाल चुनी हुई सरकारों के साथ छत्तीसी संबंध बना कर मुख्यमंत्री को हलाकान कर रखा था. मगर जैसे ही भारतीय जनता पार्टी के सरकार बनी इन प्रदेशों में राज्यपाल से अब किसी विवाद की शुरुआत तक सुनाई नहीं देती है. इससे स्पष्ट हो जाता है कि राज्यपाल अपने संवैधानिक दायित्व को पूरा नहीं कर रहे हैं और अब जब मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंच गया है तो माना जा रहा है कोई रास्ता निकल आएगा.

फिर फिर विचारों के राज्यपाल

गुलाब चंद्र कटारिया को पंजाब का राज्यपाल और चंडीगढ़ का प्रशासक बनाया गया है , संतोष कुमार गंगवार को झारखंड का और विष्णुदेव वर्मा को तेलंगाना का नया राज्यपाल नियुक्त किया गया है.हरिभाऊ किशन राव बागड़े को राजस्थान, रमन डेका को छत्तीसगढ़ और सी.एच. विजय शंकर को मेघालय का राज्यपाल नियुक्त किया गया है.इसके अलावा के. कैलाशनाथ को पुडुचेरी का उपराज्यपाल नियुक्त किया गया है. इनमें सबसे ज्यादा चर्चित नाम है गुलाबचंद कटारिया का जो राजस्थान से हैं और एक समय में शिक्षा मंत्री के रूप में आर एस एस की विचारधारा को स्कूल पाठ्यक्रम में लाकर देश भर में चर्चित हुए थे.

झारखंड के नव नियुक्त राज्यपाल संतोष कुमार गंगवार पहले चुनाव कांग्रेस से लड़े और जीते और उसके बाद लगातार भाजपा से चुनाव बरेली लोकसभा से लड़ते रहे और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई और नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल में रहे, राज्यपाल नियुक्त होने के बाद उन्होंने कहा मैं मोदी का आभारी हूं अभिभूत हूं. पाठकों को बताएं कि छत्तीसगढ़ जहां भारतीय जनता पार्टी की सरकार है मुख्यमंत्री विष्णु देव साय हैं यहां रामेन डेंका को राज्यपाल बनाया है जिनका इतिहास ही भाजपा से जुड़ा हुआ है वर्तमान में भाजपा के राष्ट्रीय सचिव हैं दो बार भाजपा के सांसद रह चुके हैं असम राज्य के भाजपा के पार्टी सदर बन चुके हैं और मोदी के प्रिय चेहरों में एक है इसीलिए अभी लोकसभा अध्यक्षों के पैनल में भी उन्हें रखा गया था , प्रधानमंत्री आदर्श ग्राम योजना की केंद्रीय सलाहकार समिति के भी सदस्य रहे हैं. इस तरह आप हर एक नव नियुक्त राज्यपाल भारतीय जनता पार्टी और उसकी विचारधारा से जुड़ा हुआ पाएंगे.

उत्तर प्रदेश विधानसभा में भी लोकसभा जैसे हालात

2024 के लोकसभा चुनाव परिणामों के बाद उत्तर प्रदेश में विधानसभा का सत्र 29 जुलाई को सुबह 11 बजे शुरू हुआ. विधानसभा अध्यक्ष सतीश महाना ने सबसेे पहले कहा कि मुख्यमंत्री अपने 4 मंत्रिमंडल के सहयोगियों का परिचय सदन में कराना चाहते है. इसके बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्रिमंडल में शामिल मंत्रियों ओमप्रकाश राजभर, अनिल कुमार, दारा सिंह चैहान और सुनील शर्मा का परिचय सदन से कराया. इनको लोकसभा चुनाव से पहले मंत्री बनाया गया था. मंत्री के रूप इस सरकार में यह इनका पहला सत्र था.

इसके बाद विधानसभा अध्यक्ष सतीश महाना ने नेता प्रतिपक्ष बने माता प्रसाद पाण्डेय का स्वागत किया. वह पहली बार समाजवादी पार्टी की तरफ से नेता प्रतिपक्ष बने है. इसके पहले अखिलेश यादव नेता प्रतिपक्ष थे. लोकसभा चुनाव में वह कन्नौज के सांसद बने तो उन्होने करहल विधानसभा सीट छोडी और नेता प्रतिपक्ष का पद भी छोड दिया. माता प्रसाद पाण्डेय को समाजवादी पार्टी ने नेता प्रतिपक्ष बनाया.

नेता प्रतिपक्ष के परिचय के बाद बिजली कटौती, भ्रष्टाचार, कानून व्यवस्था, किसानों के मुददे पर समाजवादी पार्टी के विधायकों ने हंगामा करना शुरू कर दिया. लोकसभा की ही तरह से विधानसभा में हंगामा शुरू हो गया. विधायक वेल में आ गये. विधानसभा अध्यक्ष के बार बार कहने के बाद भी यह जारी रहा. ऐसा लग रहा था कि अखिलेश यादव नेता प्रतिपक्ष नहीं है तो विपक्षी विधायक कमजोर पड जायेगे. लेकिन सदन में आज का विरोध देखकर यह नहीं लगा कि अखिलेश यादव के सदन में न होने से कोई फर्क पडा है.

विपक्ष के दबाव में दिखी सरकार:

उत्तर प्रदेश में विधानसभा का मानसून सत्र की शुरूआत हंगामेदार रही. लोकसभा चुनाव के बाद यह विधानसभा का पहला सत्र है. लोकसभा चुनाव परिणामों का असर देखने को मिला. भाजपा विधायकों का चेहरा गिरा हुआ मनोबल साफ दिख रहा था. 33 सांसद ही जिता पाने का मलाल तो दिख रहा था. विधायकों और नेताओं के बीच घमासान का असर सदन में भी दिख रहा था. भाजपा की लौबीबाजी सदन में भी दिख रही थी. इसके उलट समाजवादी पार्टी के विधायकों के चहरों पर 37 सीटे जीतने का उत्साह साफ दिख रहा था. कांग्रेस के साथ बेहतर तालमेल सदन में भी दिख रहा था. कांग्रेस भी 6 सांसद जिताने की खुशी का इजहार कर रही थी.

नेता प्रतिपक्ष के रूप में माता प्रसाद पाण्डेय ने पहले ही दिन सरकार के डिप्टी सीएम और स्वास्थ्य मंत्री ब्रजेश पाठक के विभाग को लेकर घेरा. माता प्रसाद पांडेय ने सवाल किया कि ‘जब आप मेडिकल कॉलेज बना रहे थे तब उसमें प्रावधान था कि आप 500 1000 बेड का अस्पताल अलग बनाएंगे. लेकिन ऐसा न कर के आपने उसे जिला अस्पताल से संबद्ध कर दिया. उसी को आधार बना कर आपने मेडिकल कॉलेज बना दिया. अब जो जिला अस्पताल मेडिकल कॉलेज से संबद्ध कर दिया तो क्या यह सुनिश्चित किया जाएगा कि वहां निःशुल्क दवाएं मिलेंगी.

निःशुल्क सेवाएं मिलेंगी क्योंकि ऐसा हो नहीं रहा है.’

समाजवादी पार्टी के विधायक जाहिद बेग अपनी शर्ट पर एनसीआरबी की रिपोर्ट छपवाकर यूपी विधानसभा पहुंचे. जाहिद बेग ने कहा कि यूपी सीएम को सदन चलाना नहीं आता. इसलिए मैं ये सब लेकर यहां आया हूं. ये मेरी रिपोर्ट नहीं है. ये एनसीआरबी की रिपोर्ट है. हत्या, बलात्कार, महिलाओं के खिलाफ अपराध, दलितों पर अत्याचार, पेपर लीक, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों में यूपी नंबर वन पर है.

बिजली के मुद्दे पर विपक्ष ने हंगामा किया. विधायकों ने वेल में पहुंचकर प्रदर्शन किया. यह हंगामा तब रूका जब विधानसभा अध्यक्ष ने कहा कि नेता प्रतिपक्ष की इस मुद्दे पर नोटिस स्वीकार कर ली गई है. इस पर चर्चा होगी. नेता प्रतिपक्ष माता प्रसाद पांडेय ने कहा कि इस समय प्रदेश में बहुत गंभीर समस्याएं आ गईं हैं. बाढ़, कानून, विद्युत और भ्रष्टाचार भी है. माता प्रसाद पांडेय ने कहा कि ‘मैं विधानसभा में इस सरकार द्वारा उपेक्षित वंचित लोगों के मुद्दों को उठाने की पूरी कोशिश करूंगा. हम सभी मुद्दे उठाएंगे चाहे वो बिजली का मामला हो, कानून व्यवस्था का मामला हो या फिर शासन का. यह 5 दिन का सत्र है. अब हमने अनुरोध किया था कि सत्र को 5 दिन और बढ़ा दिया जाए. अब सरकार तय करे कि यह कितने दिन का होगा. हम इसे आगे भी जारी रखने की कोशिश करेंगे ताकि सभी समस्याओं पर चर्चा हो सके.’

कायम दिखा सरकार और संगठन का सवाल:

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि विपक्षी दलों से कहूंगा कि ‘प्रदेश और जनता से जुड़ी हर समस्या का समाधान के लिए सरकार प्रतिबद्ध है.’ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने राज्य विधानसभा के मानसून सत्र से पहले विधायक दल की बैठक की. सीएम योगी और डिप्टी सीएम केशव मौर्य एकदूसरे से बातचीत करने से बचते नजर आए. दूसरे डिप्टी सीएम ब्रजेश पाठक से योगी की बातचीत हुई. इससे साफ दिखा कि संगठन और सरकार के बीच की गाडी अभी पटरी से उतरी दिख रही है.

लोकसभा चुनाव परिणामों की समीक्षा के दौरान भाजपा में सरकार और संगठन में आपसी मतभेद खुल कर बाहर आये. हाई कमान और आरएसएस नेताओं के तमाम प्रयासों के बाद भी विरोध खत्म नहीं हुआ है. विरोध में खडी सेनाओं के लिये युद्व विराम की घोषणा के बाद भी सेनाएं बैरक मे वापस नहीं गई है. जिससे यह अंदाजा लग रहा है कि भाजपा के लिये उत्तर प्रदेश के लिये 10 उपचुनाव और 2027 के विधानसभा चुनाव सरल नहीं है. 2027 में अगर भाजपा को उत्तर प्रदेश में विपक्ष ने घेर लिया तो 2029 के लोकसभा चुनाव में भाजपा का डिब्बा गुल हो जायेगा.

अखिलेश ने फिर बेहतर समीकरण बनायें:

2024 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में इंडिया ब्लौक की जीत में अखिलेश यादव की चुनावी गणित सबसे प्रमुख रहा है. जैसे जैसे चुनाव आगे बढ रहा था वह अपने उम्मीदवार रणनीतिक तौर पर बदल रहे थे. उस समय इसको अखिलेश की नासमझी कहा जा रहा था. चुनाव परिणामों ने बताया कि यह उनकी चुनावी रणनीति थी. नेता प्रतिपक्ष के चुनाव में भी अखिलेश यादव ने सबको चांैका दिया है. 80 साल के माता प्रसाद पाण्डेय को नेता प्रतिपक्ष बनाकर उनका संदेश साफ है कि पार्टी में समाजवाद अभी जिंदा है. एक तरफ उनका पीडीए यानि पिछडा, दलित और अल्पसंख्यक है तो दूसरी तरफ ब्राहमण सहित दूसरी अगडी जातियां भी उनके निशाने पर है.

मुलायम सिंह यादव के करीबी रहे माता प्रसाद पांडेय 7 बार के विधायक हैं. वह समाजवादी विचाराधारा से आते है. इससे पहले मुलायम और अखिलेश यादव सरकार में विधानसभा अध्यक्ष भी रह चुके हैं. सिद्धार्थनगर की इटवा विधानसभा सीट से विधायक हैं. पार्टी में इनकी गिनती बड़े ब्राह्मण चेहरे के रूप में होती है.

माता प्रसाद पांडेय के नाम के ऐलान से पहले शिवपाल यादव, इंद्रजीत सहरोज और तूफानी सरोज के नाम चर्चा थी. लखनऊ में विधायकों के साथ करीब 3 घंटे चली बैठक के बाद अखिलेश यादव ने ब्राह्मण दांव चलते हुए माता प्रसाद पांडेय को विधायक दल का नेता चुना. माता प्रसाद पाण्डेय को नेता प्रतिपक्ष बनाने का फैसला अखिलेश यादव का था. माता प्रसाद पाण्डेय किसी दूसरे दल से आये हुये नहीं है. अगडी जाति का बडा चेहरा है इसका प्रभाव आगे की राजनीति पर भी पडेगा. इससे अखिलेश यादव ने यह भी दिखा दिया कि उनकी तैयारी 2027 को लेकर है. इंडिया ब्लौक मजबूती से नये समीकरण बनाते हुये चुनाव लडेगा.

माता प्रसाद पांडेय ने अपना पहला चुनाव साल 1980 में जनता पार्टी से लड़ा था और पहली बार विधानसभा में जगह बनाई. इसके बाद साल 1985 के चुनाव में इन्होंने लोकदल से जीत हासिल की थी. फिर 1989 के चुनाव में जनता दल से विजय हासिल की. इसके बाद 2002 के चुनाव में सपा प्रत्याशी के रूप में इन्होंने चुनाव लड़ा और एक बार फिर सदन में पहुंचे. 2007 और 2012 में ये फिर से सपा से ही विधानसभा पहुंचे.

2017 के विधानसभा चुनाव में इन्हें हार का सामना करना पड़ा था. साल 2022 में अखिलेश यादव ने इन पर एक बार फिर से भरोसा जताया और चुनाव मैदान में उतारने का फैसला किया. इस बार माता प्रसाद अखिलेश के उम्मीदों पर खरा उतरे और जीत हासिल कर सातवीं बार विधानसभा पहुंचे. 1991 में स्वास्थ्य मंत्री तथा 2003 में श्रम और रोजगार मंत्री बने रहे.

माता प्रसाद पांडेय का जन्म 31 दिसंबर 1942 को सिद्धार्थनगर में हुआ है. छात्र जीवन से ही इनका झुकाव राजनीति की ओर था. समाज के गरीब और वंचित लोगों के उत्थान के लिए ये कई राजनीतिक आंदोलन में भी शामिल रहे. मुलायम सिंह के जमाने से राजनीति करते आ रहे माता प्रसाद की गिनती पार्टी के कद्दावर नेताओं में होती है. 2022 के चुनाव में सिद्धार्थनगर और उसके आसपास के जिलों की कुछ सीटों पर टिकट वितरण में भी अहम भूमिका निभाई थी.

उत्तर प्रदेश विधानसभा मानसून सत्र के पहले ही दिन विपक्ष सत्ता पर भारी दिखा. लोकसभा की तर्ज पर समझे तो यह साफ हो गया है कि विपक्ष अब सत्ता पक्ष की मनमानी बुलडोजर नीति को चलने नही देगा. इस बात को फर्क नही पडेगा कि सपा नेता अखिलेश यादव सदन में नहीं है. उनके न करने के बाद भी पार्टी का मनोबल बढा हुआ है, और सत्ता पक्ष आपसी युद्व में अटका हुआ है.

अपने लिवर की परेशानी को हल्के में ना लें

रुखसाना अमीन को 40 की उम्र में गर्भाशय का ट्यूमर हुआ था, जिस को हटाने के लिए डाक्टर ने उन का औपरेशन किया.औपरेशन के बाद रुखसाना अमीन को 2 यूनिट खून चढ़ाया गया. उस औपरेशन को हुए 20 साल हो गए. मगर इन 20 सालों में रुखसाना अमीन पेट संबंधी बीमारियों से घिरी रहीं. उन्हें खाना हजम नहीं होता, सीने में जलन रहती है, कई बार तो उल्टी हो जाती है. पेट भी फूलाफूला महसूस होता है.लंबे समय तक वे इन लक्षणों को गैस का लक्षण मान कर इग्नोर करती रहीं. इस बीच वे शुगर की मरीज भी हो गयीं. एक दिन उन को खून की कई उल्टियां हुईं. घरवालों ने समझा उन को टीबी हो गया है. उन के कई टैस्ट हुए और बाद में पता चला कि वे हेपेटाइटिस की गंभीर मरीज हैं.

रुखसाना अमीन हमेशा पति से कहती थी कि औपरेशन के बाद जो खून चढ़ा वह ठीक नहीं था. बाद में डाक्टर ने भी हेपेटाइटिस सी की यही वजह बताई कि यह खराब और संक्रमित खून की वजह से है. यह संक्रमण कई सालों का है जिसने 75 फ़ीसदी लिवर डैमेज कर दिया है. आज रुखसाना अमीन सिर्फ 25 फीसद लिवर के साथ अपनी जी रही हैं. उन का लगातार इलाज चल रहा है. शरीर में खून नहीं बनता तो हर 3 महीने पर उन को खून चढ़ाना पड़ता है. खाना आज भी ठीक से हजम नहीं होता है. शरीर सूख कर कांटा हो गया है क्योंकि लिवर फंक्शन बहुत खराब है.

प्रमोद सिंह की उम्र मात्र 36 वर्ष थी जब वह लिवर सिरोसिस की बीमारी के कारण चल बसा. पीछे रह गयी उस की जवान बीवी और 2 साल का बेटा. प्रमोद सिंह को शराब पीने की लत थी. एक अखबार में काम करता था. अकसर पार्टियां होती थीं या प्रैस क्लब में यारदोस्त देररात बैठते थे तो फ्री की शराब खूब मिलती थी. हालत यह हो गई कि उस की सुबह शराब से होती और रात शराब पर खत्म होती. कई बार पेट में पानी भर गया. अस्पताल में भर्ती होना पड़ा. डाक्टर नीडल डाल कर पानी निकाल देते और शराब ना पीने की हिदायत के साथ डिस्चार्ज कर देते. मगर प्रमोद शराब नहीं छोड़ पाया और अंत में शराब ने उस को लील लिया. मौत के समय प्रमोद का पेट फूल कर कुप्पा हो गया था. यह डैमेज सूजन लिवर की थी.

लिवर हमारे शरीर का वह हिस्सा है जो 70 फीसदी तक खराब होने पर भी काम करता है. यही वजह है कि इसमें कोई रोग लग जाने पर उस के लक्षण जल्दी पता नहीं चलते. ज्यादातर लोगों को लिवर के खराब होने का पता तब चलता है जब वह आधे से ज्यादा बेकार हो चुका होता है. इसलिए लिवर की सेहत को लेकर हमें हमेशा बहुत सतर्क रहना चाहिए, खासतौर पर 40 की उम्र के बाद.

लिवर की बीमारी यानी हेपेटाइटिस का इन्फैक्शन पूरी दुनिया में एक बड़ी चुनौती के तौर पर उभर रहा है. इस से होने वाली मौतों की संख्या बड़ी तेजी से बढ़ रही है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुमान के मुताबिक प्रत्येक साल इस बीमारी से 13 लाख लोगों की मौत हो रही है. इसका मतलब है कि प्रत्येक 30 सैकंड में हेपेटाइटिस से एक व्यक्ति की मौत हो रही है. बच्चों से ले कर बुजुर्गों तक में हेपेटाइटिस के अनेक प्रकार देखे जा रहे हैं. इसलिए लिवर की किसी भी तकलीफ को हलके में नहीं लेना चाहिए.

हेपेटाइटिस का अर्थ है लिवर में सूजन या इन्फ्लेमेशन, लिवर में सूजन वायरस ए, बी, सी या ई की वजह से आ सकती है. यह बीमारी अधिकतर वायरल इंफेक्शन की वजह से होती है. आजकल इस का सबसे बड़ा कारण शराब है. यदि शुरू में ही ध्यान न दिया गया तो लिवर कैंसर, लिवर फेलियर और लिवर से संबंधित दूसरी कई बीमारियां हो सकती हैं. हेपेटाइटिस कई प्रकार का होता है और अकसर जानलेवा होता है. वैसे तो हेपेटाइटिस वायरस के 5 स्ट्रेन होते हैं. जिन का नाम ए से ले कर ई तक है. पर इन में से सबसे ज्यादा खतरनाक बी और सी हैं.

डब्ल्यूएचओ के अनुमान के मुताबिक दुनिया भर में 25.4 करोड़ लोग हेपेटाइटिस बी से ग्रसित हैं और 5 करोड़ लोगों को हेपेटाइटिस सी बीमारी है. डब्ल्यूएचओ का कहना है हर साल इन बीमारियों के 20 लाख से ज्यादा नए मामले सामने आते हैं. इस बीमारी से 6.5 करोड़ लोग अफ़्रीका में प्रभावित हैं. पश्चिमी पैसिफिक क्षेत्र में 9.7 करोड़ लोग इस बीमारी से लंबे समय से संक्रमित हैं. इसमें चीन, जापान, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड शामिल हैं. दक्षिणपूर्व एशिया क्षेत्र में, जिसमें भारत, थाईलैंड और इंडोनेशिया शामिल हैं, 6.1 करोड़ लोग इस बीमारी से प्रभावित हैं. डब्ल्यूएचओ का कहना है कि हेपेटाइटिस ई हर साल दुनिया में 2 करोड़ लोगों को संक्रमित करता है और इस से साल 2015 में 44 हज़ार लोगों की मौत हुई थी.

हेपेटाइटिस कैसे फैलता है?

हेपेटाइटिस ए ज़्यादातर मल या गन्दगी से दूषित भोजन या पानी पीने से या किसी संक्रमित व्यक्ति के सीधे संपर्क में आने से होता है. यह कम और मध्यम आय वाले देशों में सामान्य है, जहां स्वच्छता की स्थिति बहुत ख़राब है. इस के लक्षण जल्द ही ख़त्म हो जाते हैं और क़रीब सभी इस से ठीक हो जाते हैं. हालांकि इस से लिवर फेल होने का खतरा होता है.

हेपेटाइटिस ए दूषित भोजन या पानी वाले जगहों पर महामारी के रूप में फैलता है, जैसे साल 1998 में चीन के शंघाई में इस वायरस से 3 लाख लोग संक्रमित हुए थे. उस के बाद से चीन ने लोगों को हेपेटाइटिस ए के लिए टीका देना शुरू कर दिया.

हेपेटाइटिस बी वायरस संक्रमित व्यक्ति के रक्त, वीर्य या अन्य शारीरिक तरल पदार्थों के संपर्क में आने से फैलता है. हेपेटाइटिस सी और डी भी संक्रमित रक्त के संपर्क में आने से फ़ैलता है. केवल हेपेटाइटिस बी वाले लोग ही हेपेटाइटिस डी से संक्रमित हो सकते हैं. ऐसा करीब 5 फ़ीसदी लोगों के साथ होता है जो बहुत पहले से हेपेटाइटिस बी से संक्रमित हैं, और यह उन्हें विशेष रूप से ज़्यादा संक्रमित करता है. हेपेटाइटिस ई दूषित पानी पीने और खाना खाने से होता है. यह दक्षिण और पूर्वी एशिया में बहुत ही सामान्य बात है और ये खास कर गर्भवती महिला के लिए काफ़ी हानिकारक हो सकता है.

ये बीमारी इन कारणों से फैल सकती है –

– जन्म के दौरान मां से बच्चे में
– एक बच्चे से दूसरे बच्चे के संपर्क में आने से
– दूषित सुइयों और सिरिंजों से गोदने, छेदने या संक्रमित खून और शरीर के तरल पदार्थों के संपर्क में आने से
– दूषित खून चढाने से

हेपेटाइटिस के क्या लक्षण होते हैं?

डब्ल्यूएचओ के मुताबिक हेपेटाइटिस के लक्षणों में बुखार, कमजोरी, भूख की कमी, दस्त, उल्टी, पेट में दर्द, गहरे रंग का पेशाब आना और पीला मल के साथ पीलिया रोग के लक्षण जिस में त्वचा और आंखों के सफेद भाग का पीला होना शामिल है.

हालांकि हेपेटाइटिस से ग्रसित कई लोगों को बहुत हलके लक्षण होते है, वहीं कई लोगों में लक्षण नहीं भी दिखते. डब्ल्यूएचओ के साल 2022 के आंकड़ों से पता चलता है कि दुनिया में 13 फीसदी क्रोनिक हेपेटाइटिस बी के मरीजों और 36 फीसदी हेपेटाइटिस सी के ग्रसित लोगों के बारे में पता चला है. सबसे खतरनाक बात ये है कि वह लोग बिना जाने के संक्रमण को आगे फैला सकते हैं अन्य लोगों के सम्पर्क में रहते हैं. वे साथ उठते-बैठते, खातेपीते और सैक्स करते हैं. इसलिए डब्ल्यूएचओ और डॉक्टर लोगों से ज़्यादा से ज़्यादा जांच कराने का आग्रह करते हैं.

हाल ही में सब्जियों, दालों, अनाज आदि में कीटनाशकों की अत्यधिक मात्रा भी इस रोग की जनक मानी जा रही है. सब्जियों जैसे तोरी, घीया, कद्दू, तरबूज, खरबूजा, खीरा, ककड़ी आदि को जल्दी से जल्दी बड़ा करने और मोटा करने के लिए किसान इंजेक्शन का प्रयोग कर रहे हैं. जो स्वास्थ्य की दृष्टि से अत्यंत हानिकारक है. इस के अलावा सरसों आदि के तेल में मिलाया जाने वाले बिलोये के तेल को भी लिवर संबंधी बीमारियों को पैदा करने का कारण पाया गया है. आज हम जितने भी पिसे मसाले अपने खाने में इस्तेमाल करते हैं, सभी में मिलावट है. हाल ही में हुई जांच में पाया गया है कि एमडीएच जैसी नामी कंपनी के अलावा 16 अन्य कंपनियों के मसाले खाने योग्य नहीं हैं. इनमें बड़ी मात्रा में पेप्टिसाइड्स मिले हैं. जो सीधे हमारे लिवर को खराब करते हैं.

अपने लिवर को बचाये रखने के लिए उसके स्वास्थ्य की जांच समय समय पर करवाते रहना बहुत जरूरी है. ये जांच एलएफटी यानी लिवर फंक्शन टेस्ट के रूप में जानी जाती है. इसे अवश्य करवाएं. संदेह होने पर तुरंत डॉक्टर से संपर्क करें. लिवर का इलाज जितनी जल्दी शुरू हो मरीज के अच्छा होने की संभावना उतनी अधिक होती है.

“The UP Files” : योगी आदित्यनाथ की बायोपिक के नाम पर घटिया फिल्म

रेटिंगः एक स्टार
निर्माताः कुलदीप उमरावसिंह ओस्तवाल
लेखकः स्टैनिश गिल
निर्देशकः नीरज सहाय
कलाकारः मनोज जोशी, मंजरी फड़नीस, मिलिंद गुनाजी, अली असगर, शाहबाज़ खान, अमन वर्मा, विनीत शर्मा, अवतार गिल, अशोक समर्थ, अनिल जॉर्ज, वैभव माथुर
अवधिः दो घंटे दो मिनट

सिनेमा का काम आम लोगों का मनोरंजन करने के साथ ही उन्हें शिक्षा देना भी होता है. सिनेमा का काम सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दों को उठाना भी होता है. मगर 2014 के बाद हिंदी सिनेमा की दिशा बदल सी गयी है.अब तो सरकार व राजनेताओं को खुश करने के लिए,उन का महिमा मंडन करने वाली फिल्में बनने लगी हैं. देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर दो फिल्में और दो वैब सीरीज बन चुकी हैं,जिन्हें दर्शक सिरे से नकार चुके हैं. महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के गुरू रहे और महाराष्ट्र में ठाणे जिले के कद्दावर शिवसेना नेता स्व.आनंद दिघे पर मराठी में ‘धर्मवीर’ आयी और इस फिल्म के तीन माह बाद ही एकनाथ शिंदे मुख्यमंत्री बन गए थे.

अब उस का सीक्वेल ‘धर्मवीर 2’ बनी है, जिस का हाल ही में भव्य ट्रेलर लौंच मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने ही किया. इस के अलावा कई नेताओं पर फिल्में बन चुकी हैं.अब 26 जुलाई को निर्माता कुलदीप उमराव सिंह ओस्तवाल तथा निर्देशक नीरज सहाय की सच्ची घटनाओं पर आधारित राजनीतिक फिल्म ‘‘द यू पी फाइल्स’’ प्रदर्शित हुई है, जो कि यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की बायोपिक फिल्म है. फिल्म में उन चुनौतियों का चित्रण है, जिन का सामना मुख्यमंत्री बनने के बाद अभय सिंह को राज्य पर शासन करने और अपने दृष्टिकोण को लागू करने के प्रयासों के दौरान करना पड़ता है.

कहानीः

फिल्म शुरू होती है, जब महाराज अभय सिंह (मनोज जोशी) अपने आश्रम में गायों को चारा खिला रहे हैं, तभी दिल्ली से उन के पास फोन आता है कि उन्हें उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री नियुक्त किया जाता है और अब उन्हे इसे गुंडा राज्य हटा कर राज्य में एक सुशासन मॉडल स्थापित करना है. मुख्यमंत्री बनते ही अभय सिंह को याद आता है कि पिछली सरकार के वक्त किस तरह डीजीपी (शाहबाज खान ) ने उन की बात नही मानी थी और उन पर किस तरह जानलेवा हमला करवाया गया था. मुख्यमंत्री बनते ही सबसे पहले वह डीजीपी को नौकरी से निकाल कर सूर्यवंशी को नया डीजीपी बनाते हैं.इस महत्वाकांक्षी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए वह महिलाओं के कल्याण की दिशा में काम करते हुए, उन के धर्म की परवाह किए बिना मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक के बाद भी सुरक्षा देने के कानून, भूमाफिया, अपराधियों और भ्रष्ट नौकरशाहों से मुकाबला करते हुए राज्य में कौमन सिविल कोड भी लागू करते हैं.

मुख्यमंत्री अपराधियों को दंडित करने से लेकर बलात्कार पीड़ितों को सशक्त बनाने, भ्रष्ट नौकरशाहों को ग्रामीण क्षेत्रों में भेज कर रोजगार सृजन के लिए गांव के विद्युतीकरण को प्राथमिकता देने, किसानों की कर्ज माफी करने के साथ ‘किसान बांड’ के नाम पर जनता से पैसे वसूलने जैसे अद्वितीय उपायों को लागू करते हैं. वह किसी भी धर्म, जाति या वर्ग की परवाह किए बिना बारबार ‘‘एक देश, एक कानून’ की भी वकालत करते हैं. अप ने संवादों में बार बार संविधान से टस या मस न होेने की बात करते हैं.सड़क पर नमाज पढ़ने या आरती करने पर पाबंदी लगाते हैं. भ्रष्ट विरोधी नेताओं के घर, औफिस व फैक्टरी पर बुल्डोजर भी चलवाते हैं.

समीक्षाः

निर्देशक नीरज सहाय अपनी इस फिल्म के माध्यम से उत्तर प्रदेश की छवि को फिर से परिभाषित करने का प्रयास करते हैं. इसके लिए वह राज्य की गुंडागर्दी, अराजकता, गरीबी, खराब सड़क आदि का उल्लेख करते हैं. फिर वह यह बताते हैं कि नए मुख्यमंत्री अभय सिंह किस तरह अराजकता, गुंडागर्दी आदि को खत्म करने के लिए कानून से परे जाकर भी काम करते हैं. लेकिन निर्देशक व लेखक को तथ्यों की कोई जानकारी नहीं है. कहानी भी भटकी हुई है.कहानी के अनुसार दृश्यों में कहीं कोई तारतम्य नहीं है.फिल्म में गाने जबरन ठूंसे हुए हैं.एक गंभीर दृश्य चल रहा होता है कि अचानक गाना शुरू हो जाता है.

दर्शक की समझ में नहीं आता कि यह क्या हो गया. उस गाने का औचित्य भी नहीं दिखाया गया. जब निर्देशक का ध्यान किसी एक इंसान यानी कि योगी जी का महिमा मंडन करना हो, तो वह कहानी कैसे सोचेंगें. मजेदार बात यह है कि फिल्म की शुरूआत में ‘डिस्क्लेमर’ दिया गया है कि यह फिल्म देश के एक काल्पनिक प्रदेश की कहानी है. लेकिन फिल्म में हर जगह उत्तर प्रदेश सरकार के बोर्ड लगे हैं. यहां तक तक कि जब भी मुख्यमंत्री के दृश्य आते हैं, तो उनके पीछे भी उत्तर प्रदेश सरकार ही लिखा नजर आता है.

आखिर यह क्या है? इस पर सैंसर बोर्ड की भी नजर नही गयी… उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की ईमेज एक ‘फायरब्रांड’ धाकड़, निडर, ताकतवर नेता की है,मगर फिल्म में उनकी यह ईमेज कहीं नहीं उभरती.सिनेमाई स्वतंत्रता के नाम पर कभी भी कोई भी मुख्यमंत्री के औफिस या घर में पहुंच जाता है. सिर्फ दूसरी पार्टी के नेता ही नही बल्कि आम मुस्लिम महिलाओं के लिए तो कोई रोकटोक नही है.अजीब से दृश्य हैं. निर्देशक के तौर पर नीरज सहाय बुरी तरह से मात खा गए हैं. लेखक स्टैनिस गिल भी मात खा गए. मुख्यमंत्री अभय सिंह कई जगह अति क्लिस्ट हिंदी बोलते हैं, तो कहीं बहुत ही साधारण संवाद बोलते हैं,जो कि गलत है. यदि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपना महिमा मंडन करने के मकसद से इस फिल्म को बनवाया है,तो वह इस फिल्म को देखकर अपना माथा पीट लेंगे.

किसी का महिमा मंडन करने के लिए भी एक सशक्त और सुयोग्य कहानी की जरूरत होती है. हर समय पर विचारविमर्श होता है. पर फिल्म में किसी भी मुद्दे पर कोई चर्चा नहीं होती. केवल कार्रवाई होती है .मुख्यमंत्री का अपना दृष्टिकोण और वह स्वयं हर समाधान की वकालत करते हैं, इस से इंसान व सरकार का प्रभाव अति कमजोर हो जाता है.

लेखक स्टैनिश गिल की पटकथा नब्बे के दशक के बौलीवुड की याद दिलाते हुए असंबद्ध और असूत्रबद्ध तरीके से प्रस्तुत की गई है. घिसेपिटे चरित्रों और कहानी के ट्रैकों की भरमार है.एक तरफ आप सुजाता मेनन को निडर व अति बहादुर पुलिस अफसर बताते हैं, तो वहीं जिस तरह से बाहुबली नेताओं के साथ मुठभेड़ और उसमें सुजाता मेनन के शहीद होने को दिखाया गया है,यह पूरा दृश्य लेखक व निर्देशक की नासमझी का ही परिचायक है. फिल्म में व्यक्तिगत स्वतंत्रता और उसकी सीमाओं को लेकर सवाल जरुर उठाया गया है.

फिल्म को एडीटिंग टेबल पर कसने व ठीक करने की जरुरत थी. पर एडीटर अप ने काम को सही ढंग से अंजाम नही दे पाए.

अभिनयः

जहां तक अभिनय का सवाल है तो मुख्यमंत्री अभय सिंह के किरदार में मनोज जोशी ने षानदार अभिनय किया है.उन्होने योगी आदित्यनाथ के पहनावे के साथ ही चाल ढाल व बोलने के लहजे को भी पकडने का सही प्रयास किया है.मुख्यमंत्री के सचिव उमाष्ंाकर किरदार में अली असगर अपनी छाप छोड़ जाते हैं.उनकी ईमेज हास्य कलाकार की है,मगर इस फिल्म में धीर गंभीर सचिव के किरदार को जिस तरह से आत्मसात कर उन्होने निभाया है,उसके लिए उनकी प्रषंसा की जानी चाहिए.बाहुबली नेता अब्दुल के किरदार में अनिल जॉर्ज अपनी छाप छोड़ जाते हैं.निडर पुलिस इंस्पेक्टर सुजाता मेनन के किरदार में मंजरी फड़नीस भी प्रभावित करती हैं.पर स्टंट के सीन उनके वष के नहीं है.

मुझे अपनी टीचर बेहद सेक्सी लगती है और मैं उनके साथ संबंध बनाना चाहता हूं.

सवाल –

मैं 11th क्लास का स्टूडेंट हूं और मेरे स्कूल में एक इंग्लिश टीचर ने अभी एक महीने पहले ही ज्वाइन किया है. वे टीचर हमारी क्लास को भी इंग्लिश सिखाती है. जब से मैंने उन्हें देखा है तब से वे मेरे दिल और दिमाग में बस चुकी हैं. मुझे वे बेहद ही सेक्सी लगती हैं और यहां तक की जब वे साड़ी पहने स्कूल में एंट्री करती है तब मैं उन्हें देखने के लिए सबसे पहने गेट पर खड़ा हो जाता हूं. उनका फिगर बहुत कमाल का है. उनकी साड़ी का ब्लाउज़ भी बहुत फिटिंग का होता है जिससे की मेरी नज़र हमेशा वहीं रहती है. मेरा उन्हें देख पढ़ाई में बिल्कुल मन नहीं लगता और तो और उन्हें देखने के लिए मैं अपनी बाकी की क्लास भी बंक कर लेता हूं. मेरा उनके साथ संबंध बनाने का बहुत मन करता है लेकिन मुझे डर भी लगता है कि वे मेरी कंप्लेंट प्रिंसिपल से कर देंगी तो मेरे घरवालों तक यह बात पहुंच जाएगी. मुझे क्या करना चाहिए?

जवाब –

इस उम्र में किसी भी लड़की के प्रति एट्रैक्शन होना बहुत कौमन है. इसमें कोई गलत बात नहीं है कि आप किसी लड़की के प्रति एट्रैक्शन फील कर रहे हैं पर आपको इस बात का खयाल रखना चाहिए कि जिसकी आप बात कर रहे हैं वे आपकी टीचर है. आपकी उम्र में इस तरह के खयाल आना कोई बड़ी बात नहीं है. ऐसे में आपको ध्यान रखना चाहिए कि अपकी यह फीलिंग्स आपको बहुत बड़ी मुसीबत में डाल सकती है.

अगर आप यही सब सोचते रहे तो कहीं ऐसा ना हो कि आपकी मेंटल हेल्थ डिस्टर्ब होने लगे और आप इसके चलते अपनी पढ़ाई का नुकसान कर बैठें. अगर आपको उनके प्रति ज्यादा ही एट्रैक्शन है तो आप इसके बारे में ज्यादा सोचना बंद कर दें और ज्यादातर टाइम अपने फ्रेंड्स के साथ बिताएं पर बिना अपनी टीचर के बारे में सोचे.

अगर फिर भी आपको लगता है कि आप उनके बारे में सोचना बंद नहीं कर पा रहे तो ऐसे में आपको अपना ध्यान कहीं और लगाना चाहिए जिससे कि आप उनके बारे में ना सोचें. अगर आपने उनसे कुछ ऐसी बात की जिसे उन्होनें बुरा मान कर आपकी कंप्लेंट कर दी तो अपकी पूरे स्कूल में इंसल्ट हो सकती है.

इसमें आपकी कोई गलती नहीं है. आपकी उम्र के कई लड़कों को अपनी टीचर के प्रति एट्रैक्शन होता है पर हमें ऐसा कुछ भी करने से बचना चाहिए जो कि हमें किसी बड़ी मुसीबत में डाल सकता है.

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