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एक तीर दो शिकार : आरती ने किस की अक्ल ठिकाने लगाई

अटैची हाथ में पकड़े आरती ड्राइंगरूम में आईं तो राकेश और सारिका चौंक कर खडे़ हो गए.

‘‘मां, अटैची में क्या है?’’ राकेश ने माथे पर बल डाल कर पूछा.

‘‘फ्रिक मत कर. इस में तेरी बहू के जेवर नहीं. बस, मेरा कुछ जरूरी सामान है,’’ आरती ने उखड़े लहजे में जवाब दिया.

‘‘किस बात पर गुस्सा हो?’’

अपने बेटे के इस प्रश्न का आरती ने कोई जवाब नहीं दिया तो राकेश ने अपनी पत्नी की तरफ प्रश्नसूचक निगाहों से देखा.

‘‘नहीं, मैं ने मम्मी से कोई झगड़ा नहीं किया है,’’ सारिका ने फौरन सफाई दी, लेकिन तभी कुछ याद कर के वह बेचैन नजर आने लगी.

राकेश खामोश रह कर सारिका के आगे बोलने का इंतजार करने लगा.

‘‘बात कुछ खास नहीं थी…मम्मी फ्रिज से कल रात दूध निकाल रही थीं…मैं ने बस, यह कहा था कि सुबह कहीं मोहित के लिए दूध कम न पड़ जाए…कल चाय कई बार बनी…मुझे कतई एहसास नहीं हुआ कि उस छोटी सी बात का मम्मी इतना बुरा मान जाएंगी,’’ अपनी बात खत्म करने तक सारिका चिढ़ का शिकार बन गई.

‘‘मां, क्या सारिका से नाराज हो?’’ राकेश ने आरती को मनाने के लिए अपना लहजा कोमल कर लिया.

‘‘मैं इस वक्त कुछ भी कहनेसुनने के मूड में नहीं हूं. तू मुझे राजनगर तक का रिकशा ला दे, बस,’’ आरती की नाराजगी उन की आवाज में अब साफ झलक उठी.

‘‘क्या आप अंजलि दीदी के घर जा रही हो?’’

‘‘हां.’’

‘‘बेटी के घर अटैची ले कर रहने जा रही होे?’’ राकेश ने बड़ी हैरानी जाहिर की.

‘‘जब इकलौते बेटे के घर में विधवा मां को मानसम्मान से जीना नसीब न हो तो वह बेटी के घर रह सकती है,’’ आरती ने जिद्दी लहजे में दलील दी.

‘‘तुम गुस्सा थूक दो, मां. मैं सारिका को डांटूंगा.’’

‘‘नहीं, मेरे सब्र का घड़ा अब भर चुका है. मैं किसी हाल में नहीं रुकूंगी.’’

‘‘कुछ और बातें भी क्या तुम्हें परेशान और दुखी कर रही हैं?’’

‘‘अरे, 1-2 नहीं बल्कि दसियों बातें हैं,’’ आरती अचानक फट पड़ीं, ‘‘मैं तेरे घर की इज्जतदार बुजुर्ग सदस्य नहीं बल्कि आया और महरी बन कर रह गई हूं…मेरा स्वास्थ्य अच्छा है, तो इस का मतलब यह नहीं कि तुम महरी भी हटा दो…मुझे मोहित की आया बना कर आएदिन पार्टियों में चले जाओ…तुम दोनों के पास ढंग से दो बातें मुझ से करने का वक्त नहीं है…उस शाम मेरी छाती में दर्द था तो तू डाक्टर के पास भी मुझे नहीं ले गया…’’

‘‘मां, तुम्हें बस, एसिडिटी थी जो डाइजीन खा कर ठीक भी हो गई थी.’’

‘‘अरे, अगर दिल का दौरा पड़ने का दर्द होता तो तेरी डाइजीन क्या करती? तुम दोनों के लिए अपना आराम, अपनी मौजमस्ती मेरे सुखदुख का ध्यान रखने से कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण है. मेरी तो मेरी तुम दोनों को बेचारे मोहित की फिक्र भी नहीं. अरे, बच्चे की सारी जिम्मेदारियां दादी पर डालने वाले तुम जैसे लापरवाह मातापिता शायद ही दूसरे होंगे,’’ आरती ने बेझिझक उन्हें खरीखरी सुना दीं.

‘‘मम्मी, हम इतने बुरे नहीं हैं जितने आप बता रही हो. मुझे लगता है कि आज आप तिल का ताड़ बनाने पर आमादा हो,’’ सारिका ने बुरा सा मुंह बना कर कहा.

‘‘अच्छे हो या बुरे, अब अपनी घरगृहस्थी तुम दोनों ही संभालो.’’

‘‘मैं आया का इंतजाम कर लूं, फिर आप चली जाना.’’

‘‘जब तक आया न मिले तुम आफिस से छुट्टी ले लेना. मोहित खेल कर लौट आया तो मुझे जाते देख कर रोएगा. चल, रिकशा करा दे मुझे,’’ आरती ने सूटकेस राकेश को पकड़ाया और अजीब सी अकड़ के साथ बाहर की तरफ चल पड़ीं.

‘पता नहीं मां को अचानक क्या हो गया? यह जिद्दी इतनी हैं कि अब किसी की कोई बात नहीं सुनेंगी,’ बड़बड़ाता हुआ राकेश अटैची उठा कर अपनी मां के पीछे चल पड़ा.

परेशान सारिका को नई आया का इंतजाम करने के लिए अपनी पड़ोसिनों की मदद चाहिए थी. वह उन के घरों के फोन नंबर याद करते हुए फोन की तरफ बढ़ चली.

करीब आधे घंटे के बाद आरती अपने दामाद संजीव के घर में बैठी हुई थीं. अपनी बेटी अंजलि और संजीव के पूछने पर उन्होंने वही सब दुखड़े उन को सुना दिए जो कुछ देर पहले अपने बेटेबहू को सुनाए थे.

‘‘आप वहां खुश नहीं हैं, इस का कभी एहसास नहीं हुआ मुझे,’’ सारी बातें सुन कर संजीव ने आश्चर्य व्यक्त किया.

‘‘अपने दिल के जख्म जल्दी से किसी को दिखाना मेरी आदत नहीं है, संजीव. जब पानी सिर के ऊपर हो गया, तभी अटैची ले कर निकली हूं,’’ आरती का गला रुंध गया.

‘‘मम्मी, यह भी आप का ही घर है. आप जब तक दिल करे, यहां रहें. सोनू और प्रिया नानी का साथ पा कर बहुत खुश होंगे,’’ संजीव ने मुसकराते हुए उन्हें अपने घर में रुकने का निमंत्रण दे दिया.

‘‘यहां बेटी के घर में रुकना मुझे अच्छा…’’

‘‘मां, बेकार की बातें मत करो,’’ अंजलि ने प्यार से आरती को डपट दिया, ‘‘बेटाबेटी में यों अंतर करने का समय अब नहीं रहा है. जब तक मैं उस नालायक राकेश की अक्ल ठिकाने न लगा दूं, तब तक तुम आराम से यहां रहो.’’

‘‘बेटी, आराम करने के चक्कर में फंस कर ही तो मैं ने अपनी यह दुर्गति कराई है. अब आराम नहीं, मैं काम करूंगी,’’ आरती ने दृढ़ स्वर में मन की इच्छा जाहिर की.

‘‘मम्मी, इस उम्र में क्या काम करोगी आप? और काम करने के झंझट में क्यों फंसना चाहती हो?’’ संजीव परेशान नजर आने लगा.

‘‘काम मैं वही करूंगी जो मुझे आता है,’’ आरती बेहद गंभीर हो उठीं, ‘‘जब अंजलि के पापा इस दुनिया से अकस्मात चले गए तब यह 8 और राकेश 6 साल के थे. मैं ससुराल में नहीं रही क्योेंकि मुझ विधवा की उस संयुक्त परिवार में नौकरानी की सी हैसियत थी.

‘‘अपने आत्मसम्मान को बचाए रखने के लिए मैं ने ससुराल को छोड़ा. दिन में बडि़यांपापड़ बनाती और रात को कपड़े सिलती. आज फिर मैं सम्मान से जीना चाहती हूं. अपने बेटेबहू के सामने हाथ नहीं फैलाऊंगी. कल सुबह अंजलि मुझे ले कर शीला के पास चलेगी.’’

‘‘यह शीला कौन है?’’ संजीव ने उत्सुकता दर्शाई.

‘‘मेरी बहुत पुरानी सहेली है. उस नेबडि़यांपापड़ बनाने का लघुउद्योग कायम कर रखा है. वह मुझे भी काम देगी. अगर रहने का इंतजाम भी उस ने कर दिया तो मैं यहां नहीं…’’

‘‘नहीं, मां, तुम यहीं रहोगी,’’ अंजलि ने उन्हें अपनी बात पूरी नहीं करने दी और आवेश भरे लहजे में बोली,  ‘‘जिस घर में तुम्हारे बेटाबहू ठाट से रह रहे हैं, वह घर आज भी तुम्हारे नाम है. अगर बेघर हो कर किसी को धक्के खाने ही हैं तो वह तुम नहीं वे होंगे.’’

‘‘तू इतना गुस्सा मत कर, बेटी.’’

‘‘मां, तुम ने कभी अपने दुखदर्द की तरफ पहले जरा सा इशारा किया होता तो अब तक मैं ने राकेश और सारिका के होश ठिकाने लगा दिए होते.’’

‘‘अब मैं काम करना शुरू कर के आत्मनिर्भर हो जाऊंगी तो सब ठीक हो जाएगा.’’

‘‘मुझे तुम पर गर्व है, मां,’’ आरती के गले लग कर अंजलि ने अपने पति को बताया, ‘‘मुझे वह समय याद है जब मां अपना सुखचैन भुला कर दिनरात मेहनत करती थीं. हमें ढंग से पालपोस कर काबिल बनाने की धुन हमेशा इन के सिर पर सवार रहती थी.

‘‘आज राकेश बैंक आफिसर और मैं पोस्टग्रेजुएट हूं तो यह मां की मेहनत का ही फल है. लानत है राकेश पर जो आज वह मां की उचित देखभाल नहीं कर रहा है.’’

‘‘मेरी यह बेटी भी कम हिम्मती नहीं है, संजीव,’’ आरती ने स्नेह से अंजलि का सिर सहलाया, ‘‘पापड़बडि़यां बनाने में यह मेरा पूरा हाथ बटाती थी. पढ़ने में हमेशा अच्छी रही. मेरा बुरा वक्त न होता तो जरूर डाक्टर बनती मेरी गुडि़या.’’

‘‘आप दोनों बैठ कर बातें करो. मैं जरा एक बीमार दोस्त का हालचाल पूछने जा रहा हूं. मम्मी, आप यहां रुकने में जरा सी भी हिचक महसूस न करें. राकेश और सारिका को मैं समझाऊंगा तो सब ठीक हो जाएगा,’’ संजीव उन के बीच से उठ कर अपने कमरे में चला गया.

कुछ देर बाद वह तैयार हो कर बाहर चला गया. उस के बदन से आ रही इत्र की खुशबू को अंजलि ने तो नहीं, पर आरती ने जरूर नोट किया.

‘‘कौन सा दोस्त बीमार है संजीव का?’’ आरती ने अपने स्वर को सामान्य रखते हुए अंजलि से पूछा.

‘‘मुझे पता नहीं,’’ अंजलि ने लापरवाह स्वर में जवाब दिया.

‘‘बेटी, पति के दोस्तों की…उस के आफिस की गतिविधियों की जानकारी हर समझदार पत्नी को रखनी चाहिए.’’

‘‘मां, 2 बच्चों को संभालने में मैं इतनी व्यस्त रहती हूं कि इन बातों के लिए फुर्सत ही नहीं बचती.’’

‘‘अपने लिए वक्त निकाला कर, बनसंवर कर रहा कर…कुछ समय वहां से बचा कर संजीव को खुश करने के लिए लगाएगी तो उसे अच्छा लगेगा.’’

‘‘मैं जैसी हूं, उन्हें बेहद पसंद हूं, मां. तुम मेरी फिक्र न करो और यह बताओ कि क्या कल सुबह तुम सचमुच शीला आंटी के पास काम मांगने जाओगी?’’ अपनी आंखों में चिंता के भाव ला कर अंजलि ने विषय परिवर्तन कर दिया था.

आरती काम पर जाने के लिए अपने फैसले पर जमी रहीं. उन के इस फैसले का अंजलि ने स्वागत किया.

रात को राकेश और सारिका ने आरती से फोन पर बात करनी चाही, पर वह तैयार नहीं हुईं.

अंजलि ने दोनों को खूब डांटा. सारिका ने उस की डांट खामोश रह कर सुनी, पर राकेश ने इतना जरूर कहा, ‘‘मां ने कभी पहले शिकायत का एक शब्द भी मुंह से निकाला होता तो मैं जरूर काररवाई करता. मुझे सपना तो नहीं आने वाला था कि वह घर में दुख और परेशानी के साथ रह रही हैं. उन्हें घर छोड़ने से पहले हम से बात करनी चाहिए थी.’’

अंजलि ने जब इस बारे में मां से सवाल किया तो वह नींद आने की बात कह सोने चली गईं. उन के सोने का इंतजाम सोनू और प्रिया के कमरे में किया गया था.

उन दोनों बच्चों ने नानी से पहले एक कहानी सुनी और फिर लिपट कर सो गए. आरती को मोहित बहुत याद आ रहा था. इस कारण वह काफी देर से सो सकी थीं.

अगले दिन बच्चों को स्कूल और संजीव को आफिस भेजने के बाद अंजलि मां के साथ शीला से मिलने जाने के लिए घर से निकली थी.

शीला का कुटीर उद्योग बड़ा बढि़या चल रहा था. घर की पहली मंजिल पर बने बडे़ हाल में 15-20 औरतें बडि़यांपापड़ बनाने के काम में व्यस्त थीं.

वह आरती के साथ बड़े प्यार से मिलीं. पहले उन्होंने पुराने वक्त की यादें ताजा कीं. चायनाश्ते के बाद आरती ने उन्हें अपने आने का मकसद बताया तो वह पहले तो चौंकीं और फिर गहरी सांस छोड़ कर मुसकराने लगीं.

‘‘अगर दिल करे तो अपनी परेशानियों की चर्चा कर के अपना मन जरूर हलका कर लेना, आरती. कभी तुम मेरा सहारा बनी थीं और आज फिर तुम्हारा साथ पा कर मैं खुश हूं. मेरा दायां हाथ बन कर तुम चाहो तो आज से ही काम की देखभाल में हाथ बटाओ.’’

अपनी सहेली की यह बात सुन कर आरती की पलकें नम हो उठी थीं.

आरती और अंजलि ने वर्षों बाद पापड़बडि़यां बनाने का काम किया. उन दोनों की कुशलता जल्दी ही लौट आई. बहुत मजा आ रहा था दोनों को काम करने में.

कब लंच का समय हो गया उन्हें पता ही नहीं चला. अंजलि घर लौट गई क्योंकि बच्चों के स्कूल से लौटने का समय हो रहा था. आरती को शीला ने अपने साथ खाना खिलाया.

आरती शाम को घर लौटीं तो बहुत प्रसन्न थीं. संजीव को उन्होंने अपने उस दिन के अनुभव बडे़ जोश के साथ सुनाए.

रात को 8 बजे के करीब राकेश और सारिका मोहित को साथ ले कर वहां आ पहुंचे. उन को देख कर अंजलि का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया.

बड़ी कठिनाई से संजीव और आरती उस के गुस्से को शांत कर पाए. चुप होतेहोते भी अंजलि ने अपने भाई व भाभी को खूब खरीखोटी सुना दी थीं.

‘‘मां, अब घर चलो. इस उम्र में और हमारे होते हुए तुम्हें काम पर जाने की कोई जरूरत नहीं है. दुनिया की नजरों में हमें शर्मिंदा करा कर तुम्हें क्या मिलेगा?’’ राकेश ने आहत स्वर में प्रश्न किया.

‘‘मैं इस बारे में कुछ नहीं कहनासुनना चाहती हूं. तुम लोग चाय पिओ, तब तक मैं मोहित से बातें कर लूं,’’ आरती ने अपने 5 वर्षीय पोते को गोद में उठाया और ड्राइंगरूम से उठ कर बच्चों के कमरे में चली आईं.

उस रात राकेश और सारिका आरती को साथ वापस ले जाने में असफल रहे. लौटते समय दोनों का मूड बहुत खराब हो रहा था.

‘‘मम्मी अभी गुस्से में हैं. कुछ दिनों के बाद उन्हें समझाबुझा कर हम भेज देंगे,’’ संजीव ने उन्हें आश्वासन दिया.

‘‘उन्हें पापड़बडि़यां बनाने के काम पर जाने से भी रोको, जीजाजी,’’ राकेश ने प्रार्थना की, ‘‘जो भी इस बात को सुनेगा, हम पर हंसेगा.’’

‘‘राकेश, मेहनत व ईमानदारी से किए जाने वाले काम पर मूर्ख लोग ही हंसते हैं. मां ने यही काम कर के हमें पाला था. कभी जा कर देखना कि शीला आंटी के यहां काम करने वाली औरतों के चेहरों पर स्वाभिमान और खुशी की कैसी चमक मौजूद रहती है. थोड़े से समय के लिए मैं भी वहां रोज जाया करूंगी मां के साथ,’’ अपना फैसला बताते हुए अंजलि बिलकुल भी नहीं झिझकी थी.

बाद में संजीव ने उसे काम पर न जाने के लिए कुछ देर तक समझाया भी, पर अंजलि ने अपना फैसला नहीं बदला.

‘‘मेरी बेटी कुछ मामलों में मेरी तरह से ही जिद्दी और धुन की पक्की है, संजीव. यह किसी पर अन्याय होते भी नहीं देख सकती. तुम नाराज मत हो और कुछ दिनों के लिए इसे अपनी इच्छा पूरी कर लेने दो. घर के काम का हर्जा, इस का हाथ बटा कर मैं नहीं होने दूंगी. तुम बताओ, तुम्हारे दोस्त की तबीयत कैसी है?’’ आरती ने अचानक विषय परिवर्तन कर दिया.

‘‘मेरे दोस्त की तबीयत को क्या हुआ है?’’ संजीव चौंका.

‘‘अरे, कल तुम अपने एक बीमार दोस्त का हालचाल पूछने गए थे न.’’

‘‘हां, हां…वह…अब ठीक है…बेहतर है…’’ अचानक बेचैन नजर आ रहे संजीव ने अखबार उठा कर उसे आंखों के सामने यों किया मानो आरती की नजरों से अपने चेहरे के भावों को छिपा रहा हो.

आरती ने अंजलि की तरफ देखा पर उस का ध्यान उन दोनों की तरफ न हो कर प्रिया की चोटी खोलने की तरफ लगा हुआ था.

आरती के साथ अंजलि भी रोज पापड़बडि़यां बनाने के काम पर जाती. मां शाम को लौटती पर बेटी 12 बजे तक लौट आती. दोनों इस दिनचर्या से बेहद खुश थीं. मोहित को याद कर के आरती कभीकभी उदास हो जातीं, नहीं तो बेटी के घर उन का समय बहुत अच्छा बीत रहा था.

आरती को वापस ले जाने में राकेश और सारिका पूरे 2 हफ्ते के बाद सफल हुए.

‘‘आया की देखभाल मोहित के लिए अच्छी नहीं है, मम्मी. वह चिड़चिड़ा और कमजोर होता जा रहा है. सारा घर आप की गैरमौजूदगी में बिखर सा गया है. मैं हाथ जोड़ कर प्रार्थना करती हूं…अपनी सारी गलतियां सुधारने का वादा करती हूं…बस, अब आप घर चलिए, प्लीज,’’ हाथ जोड़ कर यों विनती कर रही बहू को आरती ने अपनी छाती से लगाया और घर लौटने को राजी हो गईं.

अंजलि ने पहले ही यह सुनिश्चित करवा लिया कि घर में झाड़ूपोछा करने व बरतन मांजने वाली बाई आती रहेगी. वह तो आया को भी आगे के लिए रखवाना चाहती थी पर इस के लिए आरती ही तैयार नहीं हुईं.

‘‘मैं जानती थी कि आज मुझे लौटना पडे़गा. इसीलिए मैं शीला से 15 दिन की अपनी पगार ले आई थी. अब हम सब पहले बाजार चलेंगे. तुम सब को अपने पैसों से मैं दावत दूंगी…और उपहार भी,’’ आरती की इस घोषणा को सुन कर बच्चों ने तालियां बजाईं और खुशी से मुसकरा उठे.

आरती ने हर एक को उस की मनपसंद चीज बाजार में खिलवाई. संजीव और राकेश को कमीज मिली. अंजलि और सारिका ने अपनी पसंद की साडि़यां पाईं. प्रिया ने ड्रेस खरीदी. सोनू को बैट मिला और मोहित को बैटरी से चलने वाली कार.

वापस लौटने से पहले आरती ने अकेले संजीव को साथ लिया और उस आलीशान दुकान में घुस गइ्रं जहां औरतों की हर प्रसाधन सामग्री बिकती थी.

‘‘क्या आप यहां अपने लिए कुछ खरीदने आई हैं, मम्मी?’’ संजीव ने उत्सुकता जताई.

‘‘नहीं, यहां से मैं कुछ बरखा के लिए खरीदना चाहती हूं,’’ आरती ने गंभीर लहजे में जवाब दिया.

‘‘बरखा कौन?’’ एकाएक ही संजीव के चेहरे का रंग उड़ गया.

‘‘तुम्हारी दोस्त जो मेरी सहेली उर्मिला के फ्लैट के सामने वाले फ्लैट में रहती है…वही बरखा जिस से मिलने तुम अकसर उस के फ्लैट पर जाते हो..जिस के साथ तुम ने गलत तरह का रिश्ता जोड़ रखा है.’’

‘‘मम्मी, ऐसी कोई बात नहीं…’’

‘‘संजीव, प्लीज. झूठ बोलने की कोशिश मत करो और मेरी यह चेतावनी ध्यान से सुनो,’’ आरती ने उस की आंखों में आंखें डाल कर सख्त स्वर में बोलना शुरू किया, ‘‘अंजलि तुम्हारे प्रति…घर व बच्चों के प्रति पूरी तरह से समर्पित है. पिछले दिनों में तुम्हें इस बात का अंदाजा हो गया होगा कि वह अन्याय के सामने चुप नहीं रह सकती…मेरी बेटी मानसम्मान से जीने को सब से महत्त्वपूर्ण मानती है.

‘‘उसे बरखा  की भनक भी लग गई तो तुम्हें छोड़ देगी. मेरी बेटी सूखी रोटी खा लेगी, पर जिएगी इज्जत से. जैसे मैं ने बनाया, वैसे ही वह भी पापड़बडि़यां बना कर अपने बच्चों को काबिल बना लेगी.

‘‘आज के बाद तुम कभी बरखा के फ्लैट पर गए तो मैं खुद तुम्हारा कच्चा चिट्ठा अंजलि के सामने खोलूंगी. तुम्हें मुझे अभी वचन देना होगा कि तुम उस से संबंध हमेशा के लिए समाप्त कर लोगे. अगर तुम ऐसा नहीं करते हो, तो अ%

मौर्निंग सैक्स के फायदे

प्यार करने वालों को कहां पता होता है कि प्यार करने का भी कोई वक्त होता है, उन्हें तो बस प्यार करने से मतलब होता है. आजकल के कपल्स सैक्स को सिर्फ एक प्रोसेस न समझ कर सैक्स को अच्छे से ऐंजौय और पूरी फील के साथ करने में विश्वास रखते हैं और इस के लिए कुछ कपल्स तो पूरी रिसर्च करते हैं कि सैक्स को किस तरफ से ऐंजौय किया जा सकता है.

मौर्निंग सैक्स के हैं बहुत फायदे

कुछ लोगों को ऐसा लगता है कि सैक्स का वक्त सिर्फ रात का होता है और सोने से पहले सैक्स करना चाहिए पर यह बात पूरी तरह से गलत है. सैक्स को सुबह भी ऐंजौय कर सकते हैं.

पूरे दिन के थके हुए हम जब औफिस या अपने काम से घर आते हैं और खाना खाने के बाद सैक्स करने लगते हैं तो हमारी बौडी में पूरी तरह से ऐनर्जी नहीं रहती कि हम अपने पूरे पोटेंशियल से सैक्स कर पाएं.

तो ज्यादा देर तक कर पाएंगे सैक्स

ऐसे में अगर हम मौर्निंग में उठ कर सैक्स करते हैं तो हमारी बौडी पूरी तरह से चार्ज्ड होती है और हम अपनी पूरी ऐनर्जी के साथ सैक्स कर पाते हैं. रात के अकौर्डिंग सुबह हम देर तक सैक्स कर पाते हैं जिस से कि हमारी सैक्स लाइफ और भी ज्यादा मजेदार बन जाती है.

मौर्निंग सैक्स हमारी बौडी के लिए एक तरह से वर्कआउट का भी काम करता है क्योंकि सैक्स करते समय हम काफी ऐनर्जैटिक होते हैं तो ऐसे में हमारी बौडी का एक अच्छा वर्कआउट भी हो जाता है.

जवान रहने के लिए

नाइट सैक्स की तुलना में मौर्निंग सैक्स एक अच्छा स्ट्रैस रिलीवर माना गया है यानि कि सुबह सैक्स करने से हमारे दिमाग का स्ट्रैस गायब हो जाता है और पूरा दिन खुशहाल रहता है. और तो और मौर्निंग सैक्स हमें ज्यादा समय तक जवान रखता है.

स्टडीज बताती हैं कि मौर्निंग सैक्स हमें जवान दिखने में मदद करता है और इस से हमारा इम्यून सिस्टम भी बूस्ट होता है.

बिस्तर छोड़ने से पहले पत्नी को लें बांहों में

अगर आप ने अभी तक मौर्निंग सैक्स ट्राई नहीं किया है तो आप बहुत कुछ मिस कर रहे हैं. आप को मौर्निंग सैक्स जरूर ट्राई करना चाहिए और सुबर बिस्तर से उठने से पहले अपनी पत्नी को अपनी बांहों में भर लेना चाहिए जिस से कि आप दोनों सैक्स का एक अलग ही आनंद ले पाएं.

सफाई अभियान : देशमुखजी ने बाजी हारनी नहीं सीखी थी

पांडुरावजी रात भर सो नहीं पाए थे. बात ही ऐसी हो गई थी. देशमुखजी ने कल रात की बैठक में उन पर जो हमला किया था, उस से वह तिलमिला गए थे. हां, देशमुख ही कह रहे थे, ‘‘इतनी गंदगी शहर में है कि नागरिकों का रहना मुश्किल हो गया है. सड़कों पर गड्ढे, खंबों पर बल्ब नहीं, ट्यूब लाइटें बंद पड़ी हैं. सारा शहर सड़ रहा है. लगता है प्रशासन ही सो गया है. मैं तो राज्य सरकार से अपील करूंगा कि बोर्ड ही भंग कर दिया जाए.’’ ‘‘बोर्ड भंग कर दिया जाए…बोर्ड भंग…’’

पांडुरावजी की नींद गायब हो गई थी. समाचारपत्र में छपा था, ‘‘पिछले साल 16 इस साल 56 फिर भी शहर गंदा.’’

उधर गाएं चारे के अभाव में गोशाला में मर रही थीं. हर वार्ड के सदस्य कुश्ती पर उतारू हो गए थे. बहन तारा व कसारा तो पांडुरावजी से ही लड़ गई थीं. सुबह उठते ही उन्होंने दरवाजे पर खड़ी नगर परिषद की कार को देखा. देखते ही रह गए. मोह आया, गाय जैसे बछड़े को चाटती है उसे हाथ से सहलाते रहे…गाय जड़ थी नहीं तो रंभा जाती.

माली आ गया था. जमादार बाहर सड़क पर हरिजनों को डांट रहा था. ‘हूं, यह हुकूमत ही तो देशमुख को चुभ गई है.’ वह बड़बड़ाए. टेलीफोन पर हाथ गया. रिसीवर उठाया. कमिश्नर को आने को तुरंत कह कर तैयार होने चले गए.

सक्सेनाजी की रात, मीठे सपनों में गुजर गई थी. कल की बैठक क्या हुई, लगा मानो शीरनी बरस रही हो. हैल्थ आफिसर पांडे पास ही बैठा था. बोला, ‘‘सर, अभियान हो जाए.’’ ‘‘सफाई अभियान,’’ गुप्ता चीफ सेनेटरी इंस्पेक्टर उछल गया था.

‘‘साल भर हो गया, कुछ तो होना ही चाहिए. जो कुछ अब तक हुआ वह तो ऊंट के मुंह में जीरा ही गया.’’ सक्सेना बाबू मीटिंग के बाद इसी उधेड़बुन में लग गए थे और वह चेयरमैन के घर की जगह देशमुख के घर चले गए थे. साथ में पांडेजी भी थे.

देशमुख चौंके, ‘‘आप?’’ ‘‘आप ने क्या भाषण दिया, मजा ही आ गया,’’ पांडेजी बोले.

‘‘वास्तव में शहर सड़ने लग गया है.’’ ‘‘पर जिम्मेदारी आप की है.’’

‘‘साहब, हम क्या करें, 150 हरिजनों की स्टाफ पेटर्न में जरूरत है पर यहां भरती 100 से अधिक नहीं है. जमादार का पद खाली है. एस.आई. नहीं है, आप ने कभी हमारी तकलीफ भी जानी है.’’ ‘‘वह तो है ही.’’

‘‘इधर फिनायल नहीं है. लाइट के सामान का आर्डर इस बार बाहर भिजवा दिया गया है. माल का पता नहीं. 3 बार आदमी गया है, आप भी बताइए…’’ ‘‘बिजली का आर्डर…’’ देशमुख को लगा, घाव पर मरहम पांडेजी लगा गए हैं.

अब तक देशमुख की दुकान से सारा सामान जाता था. शिकायत यही थी कि माल डुप्लीकेट हुआ करता था. ट्यूबलाइट ज्यादा टिक नहीं पाती थी. माल की क्वालिटी घटिया थी. पांडुराव ने जले पर नमक छिड़का था. आर्डर सीधा ही कंपनी के डीलर को दे दिया था. उस ने कमीशन देने से मना कर दिया था. अकाउंट आफिसर अलग नाराज था. वह कमीशन के बदले बिल पर ही टे्रड डिस्काउंट दे रहा था. बात यहीं बिगड़ गई थी. अब परिषद ही माल नहीं उठा रही थी.

कमेटी वाले चौराहे पर फ्यूज ट्यूबलाइट लगा रहे थे. जहां आदमी मुखर थे वहां के बल्ब ज्यादा फ्यूज हो रहे थे. बात यहीं तक रहती तो गनीमत थी. पांडुराव ज्यादा ही सख्त हो चले थे. बोले, ‘‘कच्ची भरती बंद…रखना हो तो पक्के आदमी रखो.’’ 50 हरिजनों की स्वीकृति की बात चल रही थी. झगड़ा उस को भी ले कर था. हैल्थ आफिसर ने हरिजन नेताओं से बात कर रखी थी. सौदा पट गया था. पर देशमुख पहले बिजली की खरीद तय करना चाह रहे थे. तय हो चुका था ठेके पर आदमी रखो पर किस के, विधायक महोदय अपने आदमी रखना चाह रहे थे. चुनाव का पता नहीं कब घंटी बज जाए. पांडुराव ने सदस्यों की कमेटियां बनाईं, पर विधायक ने ऊपर से रुकवा दीं. उन के आदमी रह गए थे.

झगड़ा ही झगड़ा. जन सेवा नहीं हुई आग में जलना हो गया है. उधर सत्ता सुख खींच रहा था. इधर कार्यकर्ता भी संभल नहीं रहे थे. देशमुख को पता था कि ताज उन्हीं को पहनना था पर आखिरी समय में सी.एम. का ही मानस बदल गया था. विरोधी कान भर आए थे कि ये आप के नहीं रहेंगे. पांडुरावजी भीड़ में थे, वे विधायक को पटा आए थे, ‘‘सर, मेरा तो कोई गुट है नहीं, मैं तो आप का ही हूं, हमेशा रहूंगा.’’

बस, फिर क्या था, उन का ही नाम आया. आम सहमति बन गई. देशमुख आज काफी खुश थे कि काफी धूल उड़ा आए हैं. अखबार वालों को भी दावत दे आए थे. पत्रकार भी विज्ञापन न मिलने से नाराज थे. नगर परिषद से महीने भर में 10-20 हजार के जो विज्ञापन मिल जाते थे वे भी अब तक नहीं मिले थे. इस बार जो खालीपन आ गया था, वे भी ऊब गए थे. उन को भी कुछ आस बंधने लगी थी.

कमिश्नर अकेले नहीं आए, पांडेजी भी साथ थे. आज देशमुख बहुत खुश थे. पार्टी कार्यकर्ता अभीअभी मिल कर गए थे. शर्मा मेंबर भी बहुत नाराज थे, क्योंकि सफाई का काम वह ही देख रहे थे. सक्सेनाजी और उन की अच्छी पट रही थी, जो पांडे को पसंद नहीं था. समिति तो बन नहीं पाई थी पर मेंबरों का दबाव उन के साथ था. वाइस चेयरमैन तो वह ही थे. पार्टी नेताओं के भी वह चहेते थे. उन्हें हैल्थ आफिसर समझा आए थे, ‘‘महीने भर अभियान चलेगा, तो 20 ट्रैक्टर किराए पर चलेंगे. 500 रुपया रोज से कम किराया नहीं. 20 प्रतिशत कमीशन होता है. आप अपने आदमियों को लगवा दीजिए, जो कचरा निकलेगा वह डंपिंग ग्राउंड में नहीं डलवा कर खेतों में डलवा देंगे. मुनाफा ही मुनाफा है.’’

‘‘सर, यह सोना होता है. खाद 400 रुपए ट्रिप की मिल जाती है. दिन भर में 50 ट्रिप, महीने भर चलेगा. सीजन भी यही है. परिषद के ट्रैक्टर अपना काम अलग करते रहेंगे. सी.एस.आई. सब कर लेगा. सामान भी खरीदना होगा. फिनाइल में कमीशन बढ़ गया है. अभियान में नाली मरम्मत भी हो जाएगी. सहायक अभियंता आप से मिल लेगा. ‘‘40 वार्ड का मामला है. 5 लाख प्रति वार्ड भी खर्च किया तो 2 करोड़ का विकास होगा. आप देख लीजिए, आप वाइस चेयरमैन हैं. गंदगी नहीं हटेगी तो लोग हमें हटा देंगे. आप कुछ भी कीजिए, नहीं तो हम कहीं के नहीं रहेंगे.’’

शर्माजी तभी से अकड़ गए थे. वह पांडुराव से कह आए थे, ‘‘चाहे तो आप पार्टी मीटिंग में वोट करवा लें.’’ देशमुख को सफाई की सारी बात समझ में आ गई थी. पर सफाई से बिजली भी जुड़ी हुई है. बिजली का सामान दुकान से निकल नहीं रहा था. ग्राहकी पहले ही नहीं थी. नाम तो जैसा चाहो लिखवा लो, दिल्ली में सब ठप्पा लग जाता है पर ग्राहक दोबारा कहां आता है. परिषद के चक्कर में मंगाया था, अभी तक सप्लाई यहीं से होती थी पर इस बार पतंग कट गई थी. हां, देशमुख घोषणा कर ही आए थे, ‘‘अगर अभियान नहीं होता है तो वह सदस्यता छोड़ देंगे.’’

शर्माजी कह रहे थे कि वह अपना इस्तीफा पार्टी हाईकमान को भेज रहे हैं. शहर की गंदगी पार्टी के मुंह पर तमाचा है. पांडुरावजी को कमिश्नर ने जब लौन में गंभीर मुद्रा में टहलते देखा तो वे चौंक गए. पांडेजी ने टोका, ‘‘मामला गड़बड़ है.’’

कुरसी पर बैठते ही कमिश्नर चौंक गए. पांडुराव बोले, ‘‘आप तो जानते ही हैं, सक्सेनाजी कि यह आप लोगों का प्रयास ही था, जो मैं चेयरमैन बना. आप से कुछ छिपा नहीं है. कितना खर्च हुआ सब आप को पता है. सोचता हूं अभियान शुरू कर दिया जाए. 1 जून से 1 माह का रख लेते हैं. फिर बारिश आ रही है. नालों की सफाई भी होनी है. शहर में सफाई और सौंदर्यीकरण आवश्यक है. आप लोग हैं ही. तैयारी शुरू कीजिए, सरकार के आदेश भी आने वाले हैं. ‘‘सर,’’ सक्सेनाजी की आंखों में चमक आ गई थी.

‘‘हां, ज्यादा नहीं लाख 2 लाख का उधार है…पुराना चल रहा है. पांडेजी को पता है. वे चुकता करवा देंगे. आप उन से सलाह लें ले. वह जो बताएं वैसी योजना बना लें. देशमुखजी को इस अभियान का संयोजक बनाना है. विधायकजी की यही इच्छा है. आप आदेश निकलवा लें अकाउंटेंट अपना ही आदमी है.’’ तब तक चाय आ गई थी.

कमिश्नर सक्सेना को लगा वह उस खेत की तरह हो गए हैं जिसे भेड़ों का रेवड़ जड़ से चर गया हो और वह परती धरती की तरह रह गए हों, जहां अब कुछ उगने की संभावना ही नहीं रह गई है. पांडेजी पास ही बैठे मुसकरा रहे थे. पांडुराव की आंखों में चमक थी और सक्सेना को लग रहा था, वह चाय नहीं गिलोयसत्व की फंकी लगा गए हों…

बीवी मुझ से ज्यादा कमाती है और आएदिन मुझ पर रोब जमाती है

अगर आप भी अपनी समस्या भेजना चाहते हैं, तो इस लेख को अंत तक जरूर पढ़ें..

सवाल –

मैं और मेरी बीवी दोनों एकदूसरे के काफी अच्छे दोस्त हुआ करते थे. हम दोनों एक ही कंपनी में जौब करते थे और वहीं हमारी पहली मुलाकात हुई थी. देखते ही देखते हम कब एकदूसरे को दिल दे बैठे, नहीं जानते. हम दोनों की एकजैसी पोस्ट होने के कारण एकदूसरे को अच्छी तरह समझने लगे थे. फिर हम ने शादी कर ली. शादी के बाद कुछ समय तो बिलकुल ठीक गुजरा लेकिल हाल ही में मेरी पत्नी को एक मल्टीनैशनल कंपनी से बहुत अच्छा औफर आया जिस में उस को काफी अच्छी सैलेरी मिल रही है. ऐसे में कुछ दिनों से उस का व्यवहार काफी बदलाबदला सा लग रहा है. उस की सैलरी मुझ से अधिक है तो मुझे ऐसा लग रहा है कि वह मुझ पर पैसों का रोब जमाने लगी है. मुझे क्या करना चाहिए ?

जवाब –

जैसाकि आप ने बताया कि आप की बीवी को हाल ही में एक मल्टीनैशनल कंपनी से औफर आया जिसे उन्होनें ऐक्सैप्ट कर लिया तो हो सकता है कि उस जगह काम का काफी प्रेशर रहता हो जिस वजह से वह चिड़चिड़ी रहने लगी हो और आप को ऐसा लग रहा है कि वह आप के ऊपर रोब जमा रही है.

नई जगह काम करना, नए लोगों से मिलना और नए काम को समझने में थोड़ा समय तो लगता ही है। ऐसे में, उन को थोड़ा स्पेस दीजिए और वक्त भी.

अगर आप की बीवी औफिस के साथसाथ घर का भी काम करती है तो ऐसे में तो वह और भी ज्यादा परेशान हो जाती होगी क्योंकि अगर औफिस में ज्यादा काम है और घर आ कर भी काम करती है तो ऐसे में आप को घर के कामों में बीवी की मदद करनी चाहिए.

अगर आप भी अपने काम में बिजी रहते हैं तो आप अपने घर में कामवाली भी लगा सकते हैं जो घर के कामों में बीवी की मदद कर सकें.

अगर फिर भी आप को लगे कि आप की बीवी आप के ऊपर रोब जमा रही है और ठीक से बात नहीं कर रही तो घर के खर्चे आप को उठाने चाहिए जैसेकि इलैक्ट्रिसिटी बिल, बच्चों की पढ़ाई और अपने पेरैंट्स और उन के पैरेंट्स की भी जिम्मेदारी आप उठाएं. आप की बीवी को यह न लगे कि सब खर्चे वह उठा रही है.

अगर आप सारी जिम्मेदारी खुद उठाएंगे तो आप की बीवी आप के ऊपर रोब जमाने से पहले सोचेगी कि आप के घर का खर्चा उन की सैलेरी से नहीं चल रहा.

हो सके तो आप भी अपनी जौब बदल कर किसी अच्छी कंपनी में ट्राई करें जहा आप को भी एक अच्छा पैकेज मिल पाए. दोनों पतिपत्नी अच्छा कमाएंगे तभी इस महंगाई में ठीक से रह पाएंगे.

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सामाजिक असमानता के लिए धर्म जिम्मेदार

धर्म बारबार यह समझाता है कि दान देने वाला बड़ा होता है. दान देते समय यह भी देखा जाता है कि किस ने कितना दिया है. दान देने वाला भी दिखावा करता है. वह चाहता है कि उस के नाम का पत्थर वहां लग जाए जिस से जब तक निर्माण रहे उस का नाम बना रहे. किसी भी मंदिर में ऐसे पत्थरों के शिलापट लिखे देखे जा सकते हैं. जितना बड़ा दान उतना बड़ा नाम लिखा होता है. जो छोटा दान करता है मंदिर वाले उस का नाम तो लिखते ही नहीं, वह खुद भी वहां रखे बौक्स में चुपचाप पैसे दान कर के चला आता है. वहीं ज्यादा दान करने वाला पूरा दिखावा करता है. यहीं सामाजिक असमानता का भाव आना शुरू हो जाता है. आज के समाज में आदमी का बड़प्पन उस के कामों से, सामजिक योगदान से नहीं बल्कि दान से जाना जाता है.

मंदिरों से चल कर यह समाज में, दफ्तरों में, बाजारों में और घरों के अंदर तक आ जाता है. जो घर वालों के लिए महंगे उपहार लाता है उस की कद्र ज्यादा होती है. बड़े बेटे और छोटे बेटे में भेदभाव होता है. घर में रहने वाले और शहर में रहने वाले के बीच अंतर होता है.

क्यों बराबर नहीं होता हर भक्त

कहते हैं कि भगवान के घर भेदभाव नहीं होता, हर भक्त बराबर होता है. बात दान की रकम में इनकम टैक्स से छूट की हो या फिर वीआईपी दर्शन की, यह भेदभाव-असमानता हर जगह पर दिखाई देता है. ऐसे में दिखावा करने वाले लोग अपनी क्षमता से अधिक खर्च करते हैं. मंदिरों में वीआईपी दर्शन की एक नई संस्कृति का उदय हो चुका है. वीआईपी दर्शन उन लोगों के लिए है जो लोग एक विशेष शुल्क देते हैं.

भगवान के दरबार में भी 2 तरह की व्यवस्थाएं हो गईं. एक, आम जनता के लिए और एक, उन लोगों के लिए जो आर्थिक रूप से सक्षम हैं. यहां भी असमानता आ गई.

एक आम आदमी जो घंटों लाइन में लगने के बाद मंदिर के अंदर प्रवेश करता है, उसे बाहर से ही दर्शन करने के लिए बाध्य किया जाता है जैसे वह कोई अछूत हो. दूसरी ओर कुछ वीआईपी लोग बड़े आराम से मंदिर के गर्भगृह में दर्शन लाभ करते हुए नजर आते हैं. एक आम आदमी इसी में खुश हो जाता है कि भले वह अछूत की तरह मंदिर से बाहर निकाल दिया जाता है लेकिन उस ने दूर से ही सही दर्शन तो कर ही लिया.

भारत के लोग सदियों से गुलाम रहे हैं. इन के डीएनए में ही गुलामी करने की मानसिकता भर गई है. इन में स्वाभिमान नाम की कोई चीज बची ही नहीं है. सोचने वाली बात है कि क्या भगवान वीआईपी दर्शन करने वालों पर विशेष कृपा बरसाएंगे? यह दोयम दर्जे का व्यवहार कदापि स्वीकार नहीं करना चाहिए. हमारे देश के लोगों की मानसिकता में कुछ पाने की लालसा भरी होती है. इस कारण वह कभी भी लालच के दलदल से बाहर ही नहीं आ पाता है. यही लालच उस के शोषण का सब से बड़ा कारण होता है. मंदिर में अपने लालच के कारण ही लोग शोषित होते हैं.

मंदिर में दान के नाम पर भेदभाव होता है जो सामाजिक असमानता का प्रतीक है. यह सामजिक असमानता जीवन के हर हिस्से में घुन की तरह घुस चुकी है. जो दान नहीं कर सके वे अपने को हीन समझते हैं और बजाय अतिरिक्त परिश्रम के, जीवन सुधारने के, पूजापाठ में घंटों और ज्यादा लगाते हैं. जो लोग इस गुत्थी को समझ चुके हैं वे मेहनत करते हैं, रातदिन लगते हैं और जीवनस्तर सुधार लेते हैं.

कर्मक्षेत्र में सामाजिक असमानता

धर्म के बाद कर्मक्षेत्र में भी असमानता देखने को मिलती है. यहां असमानता का आलम यह है कि जिस से लाभ होता है उस का खयाल ज्यादा रखा जाता है. सरकार ने अपने कर्मचारियों को जनता का दामाद बना डाला है, उन्हें ही सारी सुविधाएं दे दी हैं.

एक प्राइवेट प्राइमरी स्कूल में टीचर को 12 से 15 हजार रुपए महीना नौकरी जौइन करने के समय मिलता है. वहीं सरकारी प्राइमरी स्कूल के टीचर की सैलरी 54 हजार रुपए से शुरू होती है. निजी कंपनी में काम करने वाले क्लर्क की सैलरी शुरुआत में 10 से 12 हजार रुपए होती है. सरकारी नौकर 55 हजार रुपए से नौकरी शुरू करता है. एक सरकारी डिग्री कालेज में प्रिंसिपल रिटायरमैंट तक 2 लाख 30 हजार रुपए की सैलरी पाने लगता है. रिटायर होने के बाद उस की पैंशन 80 हजार रुपए से ऊपर होती है. कर्मक्षेत्र में इस तरह की असमानता के अनगिनत उदाहरण हैं. इस असमानता के कारण समाज में बराबरी का दर्जा नहीं मिलता है. यह सरकार द्वारा थोपी गई असमानता है. सरकारी कर्मचारी देश को बंधक बनाए रख रहे हैं.

श्रम का भेदभावपूर्ण बंटवारा सामाजिक असमानता का कारण होता है. आज समाज में जाति के साथसाथ पैसे का भी प्रभाव है. अगर आप के पास पैसा है तो आप अपना रहनसहन बेहतर कर सकते हैं. जाति से कितने ही बड़े क्यों न हों, अगर गरीब हैं तो आप की औकात नाली में रहने वाले कीड़े से अधिक नहीं है. हां, नाली में रहने वाले अपने जैसे दूसरों से आप जाति के कारण श्रेष्ठ हैं, असमान हैं, खास हैं. गरीब को जाति के बावजूद न तो मंदिर में वीवीआईपी दर्शन मिल पाएगा, न ही वह अपने लिए अच्छा घर बना पाएगा और न ही वह अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दे पाएगा कि जिस से वे अगली पीढ़ी में बेहतर बन सकें. शिक्षा का वर्गीकरण कर दिया गया है. असमानता लाने के लिए तकनीकी शिक्षा केवल पैसों वाले बच्चों को मिल पा रही जो फिर और ज्यादा पैसा कमा रहे हैं.

आईफोन 16 के लिए लगी लंबीलंबी लाइनों में वे लोग खड़े हैं जिन की जेब में 1 लाख रुपए से अधिक का खर्च करने की औकात है. इतने लोग आखिर कहां से आ गए? शायद विदेशी उत्पादकों को अंदाजा नहीं था कि भारत में आसमानता कितनी गहरी है. आईफोन की सब से कम कीमत 50 हजार रुपए और सब से अधिक कीमत 1 लाख 84 हजार रुपए है.

इसी तरह सामान्य मोटरबाइक, जिस की कीमत 1 लाख रुपए के करीब है, असमानता की प्रतीक है. रीवोल्ट आरवीवन 84,990 रुपए, टीवीएस रेडर 125 97,180 रुपए, हीरो एक्सट्रीम 125 97,484 रुपए, बजाज फ्रीडम 95,055 रुपए, सुजूकी बर्गमैन स्ट्रीट 125 96,827 रुपए, सुजूकी एवेनिस 125 94,786 रुपए, बेनलिंग औरा 91,667 रुपए से शुरु होती है. घर तक पंहुचने में इन सभी की कीमत 1 लाख रुपए से ऊपर पहुंच जाती है. ये लोग आम बस में चलने वालों के मुकाबले खास हैं.

फिर भी इन बाइक वालों को उस समाज की नजर से कभी अच्छा नहीं माना जाता है जो कार को महत्त्व देते हैं. घरपरिवार, नातेरिश्तेदार के घर जब तीजत्योहार, शादीविवाह में मोटरबाइक से जाते हैं तो उन को सम्मान की नजर से नहीं देखा जाता. सामाजिक असमानता का भाव यहां साफ दिखता है. कार से आने वाले के प्रति एक अलग भाव होता है और मोटरबाइक से आने वाले के प्रति अलग भाव होता है भले ही कार से आने वाला कितना ही बड़ा भ्रष्टाचार कर के आया हो. बहुत से बाइक वाले इसलिए टैक्सी कर के शादीब्याह में जाते हैं.

दूर की जाए अमीरगरीब की खाई

देश में धन का सही तरह से बंटवारा न होने से यह हालत हो गई है. अमीरगरीब के बीच की खाई गहरा गई है. आज जमीन के साथ शेयर बाजार और सत्ता असमानता फैला रही है.

2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कहा था कि उन की सरकार आएगी तो आर्थिक सर्वे करा कर संपत्ति का बंटवारा होगा. यह कैसा होगा और कैसे होगा, यह अभी नहीं मालूम पर हो सकेगा, इस पर संदेह है. यह सिर्फ चुनावी स्टंट भर है. हां, आज आर्थिक सर्वे और समान आर्थिक बंटवारे की देश को जरूरत अवश्य है. पूंजी देश के गिनेचुने हाथों में पहुंच गई है. क्या सामाजिक असमानता दूर करने के लिए अमीरों से पूंजी ले कर गरीबों को देनी चाहिए जैसे जमींदार उन्मूलन के समय जमीने दे कर किया गया था. राहुल गांधी जीतेंगे और यह कर पाएंगे, पहले तो इस में संदेह है, पर अगर कर भी लिया तो जो चतुर हैं, वे फिर मुफ्त का पाने वालों से फीस लेंगे. ऐसा पहले कई बार हो चुका है.

देश में एक तरफ 1 से 2 करोड़ रुपए की कार से चलने वाले लोग हैं तो दूसरी तरफ सही तरह की साइकिल भी नहीं है. इस असमानता का कारण देश की आर्थिक नीतियां हैं, हाथ की लकीरें नहीं. मेहनत करने वाला मजदूर केवल दूसरों के लिए घर बनाता रह जा रहा है. उस के पास अपना घर बनाने लायक पैसा नहीं है. पूंजीपति केवल गरीब का शोषण करता है बल्कि उस की मेहनत का पूरा हक भी नहीं देता है. मुनाफाखोरी की असीमित इच्छा के कारण ही असमानता है. इस को दूर करना जरूरी है.

जाति नहीं ‘बिलियनायर राज’

घर बनाने या व्यापार शुरू करने के लिए बैंक जब लोन देता है तो यह देखता है कि आप की लोन अदा करने की क्षमता कितनी है. कम वेतन और लगातार वेतन न पाने वाले को वह लोन नहीं देता. सरकार बिना गारंटी के लोन लेने की स्कीम की कितनी भी योजनाएं चला ले, बैंक बिना गारंटी के लोन नहीं देता है. दूसरी तरफ बड़ीबड़ी कंपनियां लोन ले कर भी बच जाती हैं. इस तरह की सरकारी नीतियों के कारण ही सामाजिक असमानता बढ़ रही है. सामाजिक असमानता का सब से बड़ा कारण आर्थिक असमानता है और गरीबअमीर के बीच बढ़ती खाई है.

वर्ल्ड इनइक्वैलिटी लैब के मुताबिक, वर्ष 2022-23 में देश की कुल आय में टौप एक फीसदी अमीर आबादी की हिस्सेदारी बढ़ कर 22 फीसदी हो गई है. आंकड़े बताते हैं कि देश में अमीरों और गरीबों के बीच खाई काफी बढ़ गई है. साल 2000 के दशक की शुरुआत से यह लगातार बढ़ती जा रही है. इस के मुताबिक, देश की कुल आबादी अगर 100 रुपए कमाती है, तो इस में 22 रुपए केवल एक फीसदी अमीर लोगों के पास है. देश की कुल संपत्ति में इन एक फीसदी अमीर आबादी की हिस्सेदारी बढ़ कर 40.1 फीसदी हो गई है.

आर्थिक असमानता के मामले में भारत अमेरिका, साउथ अफ्रीका और ब्राजील से भी आगे है. अन्य देशों की बात करें तो अमेरिका में टौप एक फीसदी अमीर आबादी की आय में हिस्सेदारी 20.9 फीसदी है. ब्राजील के मामले में यह आंकड़ा 19.7 फीसदी, साउथ अफ्रीका में 19.3 फीसदी, चीन में 15.7 फीसदी है. इनइक्वैलिटी लैब की रिपोर्ट बताती है कि 1991 के आर्थिक उदारीकरण के बाद अमीरगरीब के बीच असमानता की खाई तेजी से बढ़ी है.

1975 तक भारत और चीन के लोगों की औसत आय लगभग बराबर थी. लेकिन वर्ष 2000 तक इस मामले में चीन हम से 35 फीसदी आगे बढ़ गया. 21वीं सदी में चीन की रफ्तार और तेज हुई और अब चीन में प्रतिव्यक्ति आय हम से ढाई गुना ज्यादा हो गई है. परेशानी की बात यह है कि पूंजीवादी लोग भारत में जातीय असमानता की बात करते हैं जिस से आर्थिक असमानता का मुद्दा दबा रहे, जमींदारी उन्मूलन जैसे फैसले लेने की दिशा में सरकार सोच न सके.

आज देश पर जातीय व्यवस्था का नहीं आर्थिक व्यवस्था का राज है. आर्थिक व्यवस्था में चुनावी चंदा दे कर राजनीतिक दलों को मजबूर किया जाता है कि वे गरीबी के लिए जातीय व्यवस्था को कोसते रहें. चुनाव जीतने के लिए नेता और राजनीतिक दलों की सब से बडी जरूरत पैसा होता है. इस से गरीबों को और गरीब रखने की योजनाएं चलाई जाती हैं. पूंजीपतियों के लिए ऐक्सप्रैसवे, मौल्स और गोदाम बनाने के लिए सड़क, बिजली, पानी दिया जा रहा है. कृषि कानूनों का उद्देश्य भी यही था, किसानों की जमीन अमीरों को दी जा सके.

देश में सामाजिक असमानता को दूर करने के लिए पहले आर्थिक असमानता को दूर करना होगा. सिद्धांत के रूप में यह स्वीकार करना होगा कि देश में अमीरों का राज है. उस के हिसाब से गरीबों को हक देना होगा. जब तक इस को स्वीकार कर के योजनाएं नहीं बनेंगी तब तक अमीर केवल ऐप्स बना कर देश की जनता को गरीब करते जाएंगे. जनता को मुफ्त का राशन दे कर मेहनतमजदूरी करने से दूर रख कर लाचार बना दिया जाएगा. इस के बाद वह वोट दे कर मुफ्त का चंदन घिसती रहेगी, इस से आर्थिक असमानता बढ़ती रहेगी.

गर्लफ्रैंड के साथ सैक्स करने को मन करता है, कैसे मनाऊं ?

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सवाल –

मेरी उम्र 19 साल है और मैं ने हाल ही में स्कूल पास करके कालेज में ऐडमिशन लिया है. शुरुआत से ही मुझे कालेज जाने का बहुत शौक था क्योंकि कालेज नाम सुनते ही मेरे मन में बहुत सी हसीन चीजें आती थीं जैसेकि कालेज में लोग खुलेआम अपनी गर्लफ्रैंड्स के साथ घूमते हैं, साथ में ट्रिप्स पर जाते हैं, रोमांस करते हैं और अपनी जिंदगी के हसीन पल जीते हैं. कालेज के पहले दिन से ही मेरे कई सारे दोस्त बने और जैसा मैं ने सोचा था वैसा ही हुआ. हम सब पूरा दिन साथ रहते और खूब घूमते. इसी दौरान मेरी एक गर्लफ्रैंड भी बनीं जोकि मेरी लाइफ की पहली गर्लफ्रैंड है. मैं उसे बहुत प्यार करता हूं और वह भी मेरा बहुत खयाल रखती है. हम दोनों में कई बार रोमांस भी हुआ है लेकिन वह कभी मुझे किसिंग से आगे बढ़ने ही नहीं देती. मैं ने उसे कई बार समझाया है कि रिलेशनशिप में यह सब चलता है पर वह नहीं मानती. मुझे उस के साथ सैक्स करने का बहुत मन करता है और ऐसे में मैं ने उसे कई बार अपने साथ होटल जाने को भी कहा पर वह तैयार नहीं होती. मैं क्या करूं ?

जवाब –

इस उम्र में ऐसे खयाल आना स्वभाविक हैं. बौलीवुड फिल्म्स और आजकल की वैब सीरिज ने लोगों के मन में कालेज की एक अलग ही इमेज सैट की हुई है जो कि बिलकुल गलत है. कालेज में मौजमस्ती करना अच्छी बात होती है लेकिन मौजमस्ती और ऐयाशी में काफी अंतर होता है जोकि हमें समझना चाहिए. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हम कालेज में सिर्फ मौजमस्ती या ऐयाशी करने नहीं, बल्कि पढ़ने भी गए हैं.

आप ने कालेज में अपनी लाइफ में पहली गर्लफ्रैंड बनाई है तो जाहिर है कि आप को इस से पहले रिलेशनशिप का ज्यादा अनुभव नहीं है, तभी आप इतनी जल्दबाजी कर रहे हैं.

सैक्स लड़कियों के लिए कोई छोटी चीज नहीं होती और सैक्स करने के लिए दोनों की ही रजामंदी जरूरी है.

आप को पहले उस लड़की का विश्वास जीतना चाहिए. उस के साथ अच्छे पल बिताने चाहिए. अगर सच में आप उस लड़की से प्यार करते हैं तो उस की फीलिंग्स की रिस्पैक्ट करें.

अगर आप उस ल़ड़की को दिल से रिस्पैक्ट करेंगे और उन्हें प्यार करेंगे तो हो सकता है वस आप के साथ सैक्स करने को मान जाए पर याद रहे कि आप को अपनी गर्लफ्रैंड के साथ किसी तरह की कोई जबरदस्ती नहीं करनी है.

सैक्स हमेशा दोनों की रजामंदी से किया जाता है. अगर आप अपनी गर्लफ्रैंड से शादी करना चाहते हैं तो उस के बारे में अपने घर वालों को भी बताएं ताकि आप की गर्लफ्रैंड को आप के ऊपर विश्वास होने लगे.

जैसाकि आपने बताया कि आप के मन में कालेज को ले कर एक अलग ही खुमार था तो ऐसे में यह खुमार पढ़ाई के लिए को बिलकुल नहीं था. आप शुरुआत से ही कालेज में मौजमस्ती करने गए हैं जोकि गलत है. आप को कालेज में मौजमस्ती के साथसाथ पढ़ाई पर भी ध्यान देना चाहिए.

यह समय आप की पढ़ाई का है और फिर लौट कर नहीं आएगा. बाद में पछताने से अच्छा है आप साथसाथ पढ़ाई पर भी उतना ही ध्यान दें.

अलबत्ता, पहले कैरियर बना लें और फिर सैक्स और शादी के बारे में सोचें. हां, सैक्स कुदरत का दिया एक अनमोल तोहफा है. अगर आप की गर्लफ्रैंड इस के लिए तैयार है तो सैक्स करने में बुराई नहीं, मगर फिलहाल आप दोनों ही अपनी पढ़ाई और कैरियर पर फोकस करें.

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डिंक कपल्स, डबल कमाई और लाइफ के अंतिम पड़ाव में अकेलेपन की खाई

बेंगलुरु के एक DINK कपल (डबल इनकम नो किड्स) के दोनों पार्टनर्स सौफ्टवेयर इंजीनियर हैं. उन की टैक्स पे करने के बाद मंथली इनकम 7 लाख रुपए है. उन्हें समझ नहीं आ रहा कि सारे खर्चों के बाद अपने बचे 3 लाख रुपए को कहां खर्च करें तो उन्होंने एक इंडियन प्रोफैशनल प्लेटफौर्म ग्रेपवाइन ऐप पर पोस्ट शेयर कर के कम्युनिटी से सजेशन मांगा कि वे बचे हुए पैसे का क्या करें.

ग्रेपवाइन ऐप पर शेयर की गई उन की पोस्ट वायरल हो गई और पोस्ट पर करीब 200 कमैंट्स भी आए और कुछ यूजर ने मजाक उड़ाते हुए सुझाव दिया कि दंपती उन्हें गोद ले लें. कहीं आप भी DINK कपल बनने की राह पर तो नहीं हैं?

DINK कपल्स की सोच

पिछले कुछ सालों में DINK कपल्स ट्रैंड काफी देखने में आ रहा है और सोशल मीडिया पर इस की बहुत चर्चा हो रही है. DINK कपल्स वो होते हैं जो शादी के बाद बेबी प्लानिंग में जल्दी नहीं करते और यहां तक कि बिना बच्चों के ही जिंदगी गुजारना चाहते हैं. उन का सारा फोकस पैसे कमाने और अच्छी लाइफस्टाइल पर होता है. ऐसे कपल्स ज्यादा से ज्यादा पैसे कमाने, घूमनेफिरने, अपने कैरियर और रिश्ते को मज़बूत बनाने पर ध्यान देते हैं. वे बच्चों के पालनपोषण की ज़िम्मेदारी से फ्री रहने, आजाद जीवनशैली का आनंद लेने और अपनी लाइफ को भरपूर से जीने में यकीन रखते हैं, वे बच्चों की जिम्मेदारी ले कर अपनी रातों की नींद खराब करने में यकीन नहीं रखते.

DINK कपल्स मानते हैं कि बच्चे को दुनिया में लाना एक बड़ा फैसला और निजी मामला है और अपने बुढ़ापे को सुरक्षित करने के लिए बच्चा पैदा करने में खुद को निवेश करने को वे सही फैसला नहीं मानते.

रिसर्चगेट की एक स्टडी के मुताबिक, भारत में अब धीरेधीरे DINK कपल्स की संख्या बढ़ती जा रही है और यह देखा गया है कि लगभग 65 फीसदी न्यूली वैडेड कपल बच्चे नहीं करना चाहते हैं. काम के बाद बचा हुआ समय वे अपने पार्टनर और दोस्तों के साथ पार्टी व ट्रैवल कर के बिताते हैं. ये कपल्स परिवार के बजाय अपने निजी जीवन, अपनी खुशी और कैरियर को ज़्यादा अहमियत देते हैं.

DINK कपल्स सोसाइटी के लिए एक चैलेंज

पिछले दिनों एक मार्केटिंग फर्म द्वारा किए गए सर्वे में यह बात भी सामने आई कि भारत में डिंक यानी डबल इनकम नो किड ग्रुप की संख्या हर साल 30 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है. महिलाएं कम बच्चों को जन्म दे रही हैं. भारत में फर्टिलिटी रेट भी तेजी से घट रही है. साल 1950 में जो फर्टिलिटी रेट 6.2 फीसदी थी वह अब घट कर 2 फीसदी रह गई है.

आगे क्या होगा?

माना कि इस ट्रैंड को फौलो करने वाले कपल्स के बच्चे नहीं होने की वजह से उन की फाइनैंशियल सिचुएशन अच्छी रहती है, खुद के लिए समय मिलने, अपनी चाहतों को पूरा करने के अलावा वे एकदूसरे को क्वालिटी टाइम दे पाते हैं, एकदूसरे को समझने का समय मिलता है, वे अपने सपनों और लक्ष्यों पर फोकस कर पाते हैं. लेकिन यह सोच रखने वाले लोगों को इस बात का एहसास नहीं है कि वे कब तक नौकरियां कर पाएंगे, इस बात की कोई गारंटी नहीं. एक दिन ऐसा जरूर आएगा जब उन्हें रिटायर्ड जीवन बिताना होगा और तब वे फिजिकली इतने ऐक्टिव भी नहीं होंगे कि रोज कहीं घूमने जा सकें, दोस्तों के साथ पार्टियां कर सकें. तब, क्या होगा?

अकेलेपन की खाई

खाओपियो मौज उड़ाओ की स्वार्थी सोच वाले इन कपल्स को एक समय के बाद अपनी लाइफ में कई नुकसान भी उठाने पड़ते हैं. ऐसे कपल्स को समाज, परिवार से सपोर्ट नहीं मिलता. वे सब से अलगथलग हो जाते हैं और एक समय के बाद ऐसे कपल्स अकेलेपन को महसूस करते हैं.

डगमग फाइनैंशियल प्लानिंग

बच्चे न होना आर्थिक रूप से किसी भी कपल को आजादी का एहसास दे सकता है क्योंकि आप को उन की शिक्षा या अन्य जरूरतों के लिए सेविंग करने की चिंता नहीं करनी पड़ती लेकिन अधिकांश केसेज में देखा गया है कि फाइनैंशियल गोल नहीं होने से डिंक कपल्स बिना सोचेसमझे खर्च करते हैं और उन की फाइनैंशियल प्लानिंग गड़बड़ा जाती है. एसोसिएटेड चैंबर औफ कौमर्स एंड इंडस्ट्री औफ इंडिया द्वारा किए गए एक सर्वे से भी पता चला है कि DINK कपल्स बहुत ज्यादा खर्च करने वाले लोग होते हैं. वे ज्यादातर बाहर खाते हैं और एंटरटेन्मेंट व वैकेशन पर बहुत ज्यादा खर्च करते हैं.

DINK कपल्स में से 60 फीसदी लोग हर दो महीने में कुछ दिनों के लिए छुट्टियों पर जाते हैं. 45 प्रतिशत लोग अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा EMI चुकाने में खर्च करते हैं जो मासिक 20 हजार रुपए से अधिक हो सकती है. 45 फीसदी लोग गैरजरूरी वस्तुओं पर 5,000-10,000 रुपए खर्च करते हैं.

कहीं देर न हो जाए

डिंक कपल्स पहले तो अपनी ज़िंदगी जीने की चाहत में बच्चा अपनी जिंदगी में नहीं चाहते लेकिन जब वे अपने साथी कपल्स को पेरैंट्स बनते देखते हैं और अपने ग्रुप में अकेले पड़ जाते हैं तो फिर अपनी लाइफ में बच्चा चाहते हैं लेकिन तब उन की उम्र आड़े आती है और नौर्मल प्रैग्नैंसी की उम्र निकल चुकी होती है और अनेक तरह की परेशानियां सामने आती हैं.

अपना सकते हैं निम्न उपाय

• सोशल वर्क करें. इस से अकेलापन और स्ट्रैस कम होता है और नया सोशल सर्कल और नए दोस्त भी बनते हैं व जुड़ाव बढ़ता है.

• करीबी कपल्स से दोस्ती बढ़ाएं, उन से कनेक्टेड रहें, उन के साथ पार्टी प्लान करें, साथ में ट्रैवल प्लान करें. इस से अकेलापन दूर होगा और उन के साथ नजदीकी भी बढ़ेगी.

• क्रिएटिव एक्टिविटीज में इन्वौल्व हों. अपनी हौबीज पर काम करें. अपने शहर के कल्चरल प्रोग्राम का हिस्सा बनें चाहे बोरियत ही क्यों न हो.

• अकेलेपन को दूर करने के लिए भूल कर भी धर्म के चक्कर में न पड़ें. धर्म आप का समय बरबाद करने के अलावा दानदक्षिणा के चंगुल में फंसा कर आप की सेविंग्स भी लूट लेगा.

• DINK कपल्स की लाइफ में बच्चों के न होने से उन के पास समय की कमी नहीं होती तो वे पौलिटिक्स भी जौइन कर सकते हैं.

सोने का झुमका : पूर्णिमा का सोने का झुमका खोते ही मच गया कोहराम    

जगदीश की मां रसोईघर से बाहर निकली ही थी कि कमरे से बहू के रोने की आवाज आई. वह सकते में आ गई. लपक कर बहू के कमरे में पहुंची.

‘‘क्या हुआ, बहू?’’

‘‘मांजी…’’ वह कमरे से बाहर निकलने ही वाली थी. मां का स्वर सुन वह एक हाथ दाहिने कान की तरफ ले जा कर घबराए स्वर में बोली, ‘‘कान का एक झुमका न जाने कहां गिर गया है.’’

‘‘क…क्या?’’

‘‘पूरे कमरे में देख डाला है, मांजी, पर न जाने कहां…’’ और वह सुबकसुबक कर रोने लगी.

‘‘यह तो बड़ा बुरा हुआ, बहू,’’ एक हाथ कमर पर रख कर वह बोलीं, ‘‘सोने का खोना बहुत अशुभ होता है.’’

‘‘अब क्या करूं, मांजी?’’

‘‘चिंता मत करो, बहू. पूरे घर में तलाश करो, शायद काम करते हुए कहीं गिर गया हो.’’

‘‘जी, रसोईघर में भी देख लेती हूं, वैसे सुबह नहाते वक्त तो था.’’ जगदीश की पत्नी पूर्णिमा ने आंचल से आंसू पोंछे और रसोईघर की तरफ बढ़ गई. सास ने भी बहू का अनुसरण किया.

रसोईघर के साथ ही कमरे की प्रत्येक अलमारी, मेज की दराज, शृंगार का डब्बा और न जाने कहां-कहां ढूंढ़ा गया, मगर कुछ पता नहीं चला.

अंत में हार कर पूर्णिमा रोने लगी. कितनी परेशानी, मुसीबतों को झेलने के पश्चात जगदीश सोने के झुमके बनवा कर लाया था.

तभी किसी ने बाहर से पुकारा. वह बंशी की मां थी. शायद रोनेधोने की आवाज सुन कर आई थी. जगदीश के पड़ोस में ही रहती थी. काफी बुजुर्ग होने की वजह से पासपड़ोस के लोग उस का आदर करते थे. महल्ले में कुछ भी होता, बंशी की मां का वहां होना अनिवार्य समझा जाता था. किसी के घर संतान उत्पन्न होती तो सोहर गाने के लिए, शादीब्याह होता तो मंगल गीत और गारी गाने के लिए उस को विशेष रूप से बुलाया जाता था. जटिल पारिवारिक समस्याएं, आपसी मतभेद एवं न जाने कितनी पहेलियां हल करने की क्षमता उस में थी.

‘‘अरे, क्या हुआ, जग्गी की मां? यह रोनाधोना कैसा? कुशल तो है न?’’ बंशी की मां ने एकसाथ कई सवाल कर डाले.

पड़ोस की सयानी औरतें जगदीश को अकसर जग्गी ही कहा करती थीं.

‘‘क्या बताऊं, जीजी…’’ जगदीश की मां रोंआसी आवाज में बोली, ‘‘बहू के एक कान का झुमका खो गया है. पूरा घर ढूंढ़ लिया पर कहीं नहीं मिला.’’

‘‘हाय राम,’’ एक उंगली ठुड्डी पर रख कर बंशी की मां बोली, ‘‘सोने का खोना तो बहुत ही अशुभ है.’’

‘‘बोलो, जीजी, क्या करूं? पूरे तोले भर का बनवाया था जगदीश ने.’’

‘‘एक काम करो, जग्गी की मां.’’

‘‘बोलो, जीजी.’’

‘‘अपने पंडित दयाराम शास्त्री हैं न, वह पोथीपत्रा विचारने में बड़े निपुण हैं. पिछले दिनों किसी की अंगूठी गुम हो गई थी तो पंडितजी की बताई दिशा पर मिल गई थी.’’

डूबते को तिनके का सहारा मिला. पूर्णिमा कातर दृष्टि से बंशी की मां की तरफ देख कर बोली, ‘‘उन्हें बुलवा दीजिए, अम्मांजी, मैं आप का एहसान जिंदगी भर नहीं भूलूंगी.’’

‘‘धैर्य रखो, बहू, घबराने से काम नहीं चलेगा,’’ बंशी की मां ने हिम्मत बंधाते हुए कहा.

बंशी की मां ने आननफानन में पंडित दयाराम शास्त्री के घर संदेश भिजवाया. कुछ समय बाद ही पंडितजी जगदीश के घर पहुंच गए. अब तक पड़ोस की कुछ औरतें और भी आ गई थीं. पूर्णिमा आंखों में आंसू लिए यह जानने के लिए उत्सुक थी कि देखें पंडितजी क्या बतलाते हैं.

पूरी घटना जानने के बाद पंडितजी ने सरसरी निगाहों से सभी की तरफ देखा और अंत में उन की नजर पूर्णिमा पर केंद्रित हो गई, जो सिर झुकाए अपराधिन की भांति बैठी थी.

‘‘बहू का राशिफल क्या है?’’

‘‘कन्या राशि.’’

‘‘ठीक है.’’ पंडितजी ने अपने सिर को इधरउधर हिलाया और पंचांग के पृष्ठ पलटने लगे. आखिर एक पृष्ठ पर उन की निगाहें स्थिर हो गईं. पृष्ठ पर बनी वर्गाकार आकृति के प्रत्येक वर्ग में उंगली फिसलने लगी.

‘‘हे राम…’’ पंडितजी बड़बड़ा उठे, ‘‘घोर अनर्थ, अमंगल ही अमंगल…’’

सभी औरतें चौंक कर पंडितजी का मुंह ताकने लगीं. पूर्णिमा का दिल जोरों से धड़कने लगा था.

पंडितजी बोले, ‘‘आज सुबह से गुरु कमजोर पड़ गया है. शनि ने जोर पकड़ लिया है. ऐसे मौके पर सोने की चीज खो जाना अशुभ और अमंगलकारी है.’’

पूर्णिमा रो पड़ी. जगदीश की मां व्याकुल हो कर बंशी की मां से बोली, ‘‘हां, जीजी, अब क्या करूं? मुझ से बहू का दुख देखा नहीं जाता.’’

बंशी की मां पंडितजी से बोली, ‘‘दया कीजिए, पंडितजी, पहले ही दुख की मारी है. कष्ट निवारण का कोई उपाय भी तो होगा?’’

‘‘है क्यों नहीं?’’ पंडितजी आंख नचा कर बोले, ‘‘ग्रहों को शांत करने के लिए पूजापाठ, दानपुण्य, धर्मकर्म ऐसे कई उपाय हैं.’’

‘‘पंडितजी, आप जो पूजापाठ करवाने  को कहेंगे, सब कराऊंगी.’’ जगदीश की मां रोंआसे स्वर में बोली, ‘‘कृपा कर के बताइए, झुमका मिलने की आशा है या नहीं?’’

‘‘हूं…हूं…’’ लंबी हुंकार भरने के पश्चात पंडितजी की नजरें पुन: पंचांग पर जम गईं. उंगलियों की पोरों में कुछ हिसाब लगाया और नेत्र बंद कर लिए.

माहौल में पूर्ण नीरवता छा गई. धड़कते दिलों के साथ सभी की निगाहें पंडितजी की स्थूल काया पर स्थिर हो गईं.

पंडितजी आंख खोल कर बोले, ‘‘खोई चीज पूर्व दिशा को गई है. उस तक पहुंचना बहुत ही कठिन है. मिल जाए तो बहू का भाग्य है,’’ फिर पंचांग बंद कर के बोले, ‘‘जो था, सो बता दिया. अब हम चलेंगे, बाहर से कुछ जजमान आए हैं.’’

पूरे सवा 11 रुपए प्राप्त करने के पश्चात पंडित दयाराम शास्त्री सभी को आसीस देते हुए अपने घर बढ़ लिए. वहां का माहौल बोझिल हो उठा था. यदाकदा पूर्णिमा की हिचकियां सुनाई पड़ जाती थीं. थोड़ी ही देर में बंशीं की मां को छोड़ कर पड़ोस की शेष औरतें भी चली गईं.

‘‘पंडितजी ने पूरब दिशा बताई है,’’ बंशी की मां सोचने के अंदाज में बोली.

‘‘पूरब दिशा में रसोईघर और उस से लगा सरजू का घर है.’’ फिर खुद ही पश्चात्ताप करते हुए जगदीश की मां बोलीं, ‘‘राम…राम, बेचारा सरजू तो गऊ है, उस के संबंध में सोचना भी पाप है.’’

‘‘ठीक कहती हो, जग्गी की मां,’’ बंशी की मां बोली, ‘‘उस का पूरा परिवार ही सीधा है. आज तक किसी से लड़ाई-झगड़े की कोई बात सुनाई नहीं पड़ी है.’’

‘‘उस की बड़ी लड़की तो रोज ही समय पूछने आती है. सरजू तहसील में चपरासी है न,’’ फिर पूर्णिमा की तरफ देख कर बोली, ‘‘क्यों, बहू, सरजू की लड़की आई थी क्या?’’

‘‘आई तो थी, मांजी.’’

‘‘लोभ में आ कर शायद झुमका उस ने उठा लिया हो. क्यों जग्गी की मां, तू कहे तो बुला कर पूछूं?’’

‘‘मैं क्या कहूं, जीजी.’’

पूर्णिमा पसोपेश में पड़ गई. उसे लगा कि कहीं कोई बखेड़ा न खड़ा हो जाए. यह तो सरासर उस बेचारी पर शक करना है. वह बात के रुख को बदलने के लिए बोली, ‘‘क्यों, मांजी, रसोईघर में फिर से क्यों न देख लिया जाए,’’ इतना कह कर पूर्णिमा रसोईघर की तरफ बढ़ गई.

दोनों ने उस का अनुसरण किया. तीनों ने मिल कर ढूंढ़ना शुरू किया. अचानक बंशी की मां को एक गड्ढा दिखा, जो संभवत: चूहे का बिल था.

‘‘क्यों, जग्गी की मां, कहीं ऐसा तो नहीं कि चूहे खाने की चीज समझ कर…’’ बोलतेबोलते बंशी की मां छिटक कर दूर जा खड़ी हुई, क्योंकि उसी वक्त पतीली के पीछे छिपा एक चूहा बिल के अंदर समा गया था.

‘‘बात तो सही है, जीजी, चूहों के मारे नाक में दम है. एक बार मेरा ब्लाउज बिल के अंदर पड़ा मिला था. कमबख्तों ने ऐसा कुतरा, जैसे महीनों के भूखे रहे हों,’’ फिर गड्ढे के पास बैठते हुए बोली, ‘‘हाथ डाल कर देखती हूं.’’

‘‘ठहरिए, मांजी,’’ पूर्णिमा ने टोकते हुए कहा, ‘‘मैं अभी टार्च ले कर आती हूं.’’

चूंकि बिल दीवार में फर्श से थोड़ा ही ऊपर था, इसलिए जगदीश की मां ने मुंह को फर्श से लगा दिया. आसानी से देखने के लिए वह फर्श पर लेट सी गईं और बिल के अंदर झांकने का प्रयास करने लगीं.

‘‘अरे जीजी…’’ वह तेज स्वर में बोली, ‘‘कोई चीज अंदर दिख तो रही है. हाथ नहीं पहुंच पाएगा. अरे बहू, कोई लकड़ी तो दे.’’

जगदीश की मां निरंतर बिल में उस चीज को देख रही थी. वह पलकें झपकाना भूल गई थी. फिर वह लकड़ी डाल कर उस चीज को बाहर की तरफ लाने का प्रयास करने लगी. और जब वह चीज निकली तो सभी चौंक पड़े. वह आम का पीला छिलका था, जो सूख कर सख्त हो गया था और कोई दूसरा मौका होता तो हंसी आए बिना न रहती.

बंशी की मां समझाती रही और चलने को तैयार होते हुए बोली, ‘‘अब चलती हूं. मिल जाए तो मुझे खबर कर देना, वरना सारी रात सो नहीं पाऊंगी.’’

बंशी की मां के जाते ही पूर्णिमा फफक-फफक कर रो पड़ी.

‘‘रो मत, बहू, मैं जगदीश को समझा दूंगी.’’

‘‘नहीं, मांजी, आप उन से कुछ मत कहिएगा. मौका आने पर मैं उन्हें सबकुछ बता दूंगी.’’

शाम को जगदीश घर लौटा तो बहुत खुश था. खुशी का कारण जानने के लिए उस की मां ने पूछा, ‘‘क्या बात है, बेटा, आज बहुत खुश हो?’’

‘‘खुशी की बात ही है, मां,’’ जगदीश पूर्णिमा की तरफ देखते हुए बोला, ‘‘पूर्णिमा के बड़े भैया के 4 लड़कियों के बाद लड़का हुआ है.’’ खुशी तो पूर्णिमा को भी हुई, मगर प्रकट करने में वह पूर्णतया असफल रही.

कपड़े बदलने के बाद जगदीश हाथमुंह धोने चला गया और जाते-जाते कह गया, ‘‘पूर्णिमा, मेरी पैंट की जेब में तुम्हारे भैया का पत्र है, पढ़ लेना.’’

पूर्णिमा ने भारी मन लिए पैंट की जेब में हाथ डाल कर पत्र निकाला. पत्र के साथ ही कोई चीज खट से जमीन पर गिर पड़ी. पूर्णिमा ने नीचे देखा तो मुंह से चीख निकल गई. हर्ष से चीखते हुए बोली, ‘‘मांजी, यह रहा मेरा खोया हुआ सोने का झुमका.’’

‘‘सच, मिल गया झुमका,’’ जगदीश की मां ने प्रेमविह्वल हो कर बहू को गले से लगा लिया.

उसी वक्त कमरे में जगदीश आ गया. दिन भर की कहानी सुनतेसुनते वह हंस कर बिस्तर पर लेट गया. और जब कुछ हंसी थमी तो बोला, ‘‘दफ्तर जाते वक्त मुझे कमरे में पड़ा मिला था. मैं पैंट की जेब में रख कर ले गया. सोचा था, लौट कर थोड़ा डाटूंगा. लेकिन यहां तो…’’ और वह पुन: खिलखिला कर हंस पड़ा.

पूर्णिमा भी हंसे बिना न रही.

‘‘बहू, तू जगदीश को खाना खिला. मैं जरा बंशी की मां को खबर कर दूं. बेचारी को रात भर नींद नहीं आएगी,’’ जगदीश की मां लपक कर कमरे से बाहर निकल गई.

इकलौते बच्चे को जरूरत से ज्यादा प्रोटैक्ट करना ठीक नहीं

सारंग की पत्नी का देहांत शादी के 10 साल बाद हो गया. अचानक आए तेज बुखार ने एक हफ्ते में उस की इहलीला समाप्त कर दी. तब सारंग का बेटा अनुज मात्र 7 साल का था. पत्नी की अचानक मौत से सारंग टूट गया था. घर में उस के बूढ़े बीमार मांबाप, नन्हा सा बच्चा और अकेला सारंग जिसे इन तीनों की जिम्मेदारी उठानी थी. पत्नी का ग़म धीरेधीरे कम हुआ तो सारंग ने फिर से नौकरी पर जाना शुरू किया.

वह एक स्कूल में टीचर था. पहले उस का बेटा जिस स्कूल में पढ़ रहा था, वहां से उस को निकाल कर सारंग ने उस का एडमिशन अपने ही स्कूल में करवा लिया ताकि वह उस के साथ ही स्कूल आएजाए. पहले उस की पत्नी ही बच्चे का खयाल रखती थी. उस को स्कूल लाना, ले जाना, पेरैंटटीचर मीटिंग अटेंड करना, बच्चे की जरूरत का सामान खरीदना सारी जिम्मेदारी पत्नी की थी. मगर अब सुबह बच्चे को उठाना, तैयार करना, उस को नाश्ता कराना, उस का बैग पैक करना, लंच बनाना, मातापिता को नाश्ता देना और उन के लिए लंच तैयार कर के जाना सब काम अकेले सारंग के जिम्मे आ गया था.

बच्चे को ले कर सारंग बहुत प्रोटैक्टिव हो गया था. वह उसे हर वक्त अपने साथ रखता था. उस को अकेले घर से बाहर नहीं जाने देता था. सामने पार्क में शाम को अनेक बच्चे खेलते थे मगर सारंग अपने बेटे को नहीं भेजता था. दरअसल, पत्नी की अचानक मौत ने सारंग को डरा दिया था. वह नहीं चाहता था कि उस के बेटे को कोई खरोंच भी आए.

अनुज भी मां के जाने के बाद अपने पिता के बहुत निकट आ गया था. वह बड़ा हो रहा था मगर फिर भी रात में वह पिता से ही लिपट कर सोता था. हर बात अपने पिता सारंग से पूछ कर करता था. जिस उम्र में बच्चे अपनी साइकिल ले कर पूरा शहर नाप आते हैं, अनुज अपने पिता की बाइक पर उन के पीछे बैठ कर हर जगह जाता था. हालांकि उस के पास साइकिल थी, मगर वह साइकिल उस ने बस अपनी गली में ही चलाई. बाहर सड़क पर नहीं. सारंग ही कभी उस को अकेले निकलने नहीं देता. यहां तक कि सामने की दुकान से ब्रेड भी लानी हो तो सारंग खुद ही लाता कि कहीं सड़क पार करते समय कोई दुर्घटना न हो जाए.

अनुज को ले कर सारंग बहुत प्रोटैक्टिव रहा. बापबेटे में प्रेम तो बहुत था मगर इस प्रेम के कारण अनुज चूंकि बाहरी दुनिया के लोगों से घुलमिल नहीं पाया, लिहाजा आज 18 साल की उम्र में जब वह इंटरमीडिएट में आ चुका है, बहुत इंट्रोवर्ट नैचर का हो गया है. क्लास में उस का कोई दोस्त नहीं है. वह चुपचाप एक कोने में बैठता है. किसी ने खुद आगे बढ़ कर बात कर ली, तो जवाब दे देता है मगर खुद किसी से बात करने की कोई चाहत नहीं होती. उस के क्लास के लड़कों की स्कूल की लड़कियों से दोस्ती है, कुछ की तो बाकायदा गर्लफ्रैंड हैं, मगर अनुज लड़कियों की तरफ आंख उठा कर भी नहीं देखता.

अनुज के न तो कालेज में कोई दोस्त हैं न महल्ले में. वह अकेला रहना पसंद करता है. अपनी ख्वाहिशों और जरूरतों को बताने में झिझकता है. बाजार से कुछ सामान लाना हो तो दुकानदार से मोलतोल नहीं कर पाता. अब उस के इस नैचर से सारंग को बहुत परेशानी होती है. वह हर वक्त शिकायत करता है कि अनुज को बाहर का काम करना पसंद नहीं है, सारे काम मुझे अकेले ही करने पड़ते हैं, हर वक्त वह अपने कमरे में ही बंद रहना चाहता है, किसी से बात नहीं करता, कोई मेहमान घर में आ जाए तो सामने आ कर उस को नमस्ते तक करने में इस को परेशानी है, आगे भविष्य में क्या करना है, क्या बनना है उस के बारे में कोई सोच ही नहीं है आदिआदि.

दरअसल, सारंग के अत्यधिक प्रोटैक्शन ने ही अनुज को अकेला कर दिया है. हर वक़्त बाप से चिपके रहने के कारण जिस उम्र में उस के अच्छे दोस्त बनने चाहिए थे, वे नहीं बने. दोस्तों के साथ बच्चे बाहर घूमते हैं, मिल कर पढ़ाई करते हैं तो कंपीटिशन की भावना जागती है. वे अपने भविष्य और कैरियर के बारे में सोचने लगते हैं. दोस्तों के साथ बहुत सारे अच्छबुरे एक्सपीरियंस होते हैं, जो इंसान को बेहतर जिंदगी की तरफ धकेलते हैं. मगर यहां तो सारंग ने अनुज को कभी दूसरे बच्चों के साथ घुलनेमिलने ही नहीं दिया. इतने सालों हर वक्त उसे अपने से ही चिपटाए रखा. तो, अब उस की गलती नहीं है अगर उसे अकेला रहना ही अच्छा लगने लगा है.

कुछ ऐसी ही कहानी कल्पना बनर्जी और उन की बेटी मधुलिका की है. कल्पना बनर्जी एक बैंक में काम करती हैं. उन के पति का देहांत शादी के 3 साल बाद ही हो गया था. उन का संयुक्त परिवार है. लिहाजा कल्पना बनर्जी अपनी ससुराल में ही रहीं. उन के एक जेठ और दो देवरों के भी अपनेअपने परिवार हैं, पत्नी और बच्चे हैं जो एक ही बिल्डिंग में अलगअलग फ्लोर पर रहते हुए भी आपस में घुलेमिले हैं. सब का सब के घर आनाजाना है. त्योहारों पर पूरा परिवार इकट्ठा हो कर त्योहार मनाता है. पति की मौत के बाद कल्पना अपने फ्लैट में बिलकुल अकेली रह गईं. तब किसी ने उन को सलाह दी कि वे बच्चा गोद ले लें. पहाड़ सी जिंदगी अकेले कैसे काटेंगी. उन को बात जम गई. उन्होंने बच्चा गोद लेने के लिए सरकारी एजेंसी में अप्लाई किया और सरकारी अनाथाश्रम से सालभर के भीतर उन्हें एक डेढ़ साल की बच्ची गोद मिल गई जिस का नाम उन्होंने मधुलिका रखा.

बच्ची के आ जाने से कल्पना जैसे जीवित हो उठीं. बच्ची उन की खुशियों का केंद्र बन गई. वे उसे सुबह तैयार कर के अपने साथ औफिस ले जातीं. औफिस में उन की सहकर्मियों ने भी उन की काफी मदद की और बेटी धीरेधीरे बड़ी होने लगी. कल्पना को डर था कि कहीं कोई उन की बेटी को यह न बता दे कि वह उन की नहीं बल्कि गोद ली हुई बच्ची है. इस डर से कल्पना अपने देवर या जेठ के फ्लैट में मधुलिका को अकेले नहीं जाने देती थी और न ही उन के बच्चों से ज्यादा घुलनेमिलने देती थी. मधुलिका को ले कर कल्पना बनर्जी इतनी प्रोटैक्टेड थीं कि उन्होंने कभी उस को दोस्तों के साथ भी कहीं अकेले नहीं जाने दिया.

मांबेटी एकदूसरे के साथ हमेशा रहीं और दोनों में अथाह प्रेम रहा. मगर 20 साल की उम्र में जब कल्पना ने बेटी के हाथ पीले किए और उस को ससुराल विदा किया तो मधुलिका पति के साथ एक महीना भी नहीं रह पाई. उस को मां की कमी परेशान करती थी. मां ने खाना खाया कि नहीं, मां ने दवाई खाई कि नहीं, मां अपनी आर्थराइटिस के इलाज के लिए डाक्टर के पास गईं या नहीं, मां अकेले राशन कैसे लाई होंगी जैसी बातें करकर के उस ने पति को परेशान कर डाला. आखिरकार एक महीने बाद वह अपने घर लौट आई और अब साल पूरा होने को आ रहा है, वह ससुराल वापस जाने को तैयार ही नहीं है. उस की जिद है कि उस का पति अगर उस के और उस की मां के साथ उन के फ्लैट में आ कर रह सकता है तो ठीक, वरना तलाक ले ले.

यह देखा गया है कि जिन परिवारों में इकलौता बच्चा होता है वे परिवार बच्चे की सुरक्षा के प्रति बहुत सजग रहते हैं. आखिर वही एक उन का वंश जो आगे बढ़ाएगा, लिहाजा उस को कहीं कुछ न हो, इस डर से हर वक्त उस को अपनी निगरानी में रखते हैं. उस की हर जरूरत तुरंत पूरी करते हैं. उसे इतना लाड़प्यार करते हैं कि बच्चा भी अपने परिवार से इतर देख नहीं पाता. लेकिन यह निगरानी और इतना लाड़प्यार उस के भविष्य और कैरियर के लिए ठीक नहीं है. कहते हैं, ठोकर खाए बिना अक्ल नहीं आती. मगर ठोकर तो तब मिलेगी जब बच्चे अकेले घर से बाहर निकलेंगे और दुनिया का सामना करेंगे.

जिन परिवारों में ज्यादा बच्चे होते हैं, वहां अकसर मांबाप उन्हें खुला छोड़ देते हैं, उन पर सौदा वगैरह लाने की जिम्मेदारी भी डालते हैं, घर की सफाई, बड़ों की देखभाल और छोटे भाईबहन का खयाल रखने का काम भी उन के जिम्मे होता है. ऐसे में वे जीवन के संघर्ष को सीखते हैं. कैसे आपस में लड़भिड़ कर एकदूसरे से आगे निकलने की कोशिश में लगे रहते हैं. स्कूलकालेज में भी दूसरे छात्रों से कंपीटिशन करते हैं, लड़तेभिड़ते हैं और इस से उन में जोश जागता है, कौन्फिडेंस आता है, जिंदगी के तौरतरीके सीखने का मौका मिलता है. वे समझने लगते हैं कि कहां प्यार से काम लेना है और कहां चालाकी से.

ऐसे बच्चे डल या इंट्रोवर्ट हो ही नहीं सकते जिन्होंने बचपन से अपने निर्णय खुद लिए हों. डल और इंट्रोवर्ट वही बच्चे होते हैं जिन्हें बचपन में बहुत प्रोटैक्ट कर रखा गया हो. तो अगर आप अपने बच्चे को जोशीला और तेजतर्रार बनाना चाहते हैं तो उसे अकेले घर से बाहर निकलने दीजिए, उस के कंधों पर जिम्मेदारी डालिए, उस से घर का सामान मंगवाइए, स्कूलकालेज के बच्चों के साथ पिकनिक पर जाने दीजिए. हर वक्त उन की चौकीदारी करेंगे तो वह आप की कैद को ही जिंदगी समझने लगेगा और फिर आप शिकायत करेंगे कि ये दूसरे बच्चों जैसा नहीं है.

व्यथा दो घुड़सवारों की : क्या बींद राजा ने मेरी बात मानी

जो  भी घोड़ी पर बैठा उसे रोता हुआ ही देखा है. घोड़ी पर तो हम भी बैठे थे. क्या लड्डू मिल गया, सिवा हाथ मलने के. एक दिन एक आदमी घोड़ी पर चढ़ रहा था. मेरा पड़ोसी था इसलिए मैं ने जा कर उस के पांव पकड़ लिए और बोला, ‘‘इस से बढि़या तो बींद राजा, सूली पर चढ़ जाओ. धीमा जहर पी कर क्यों घुटघुट कर मरना चाहते हो?’’

मेरा पड़ोसी बींद राजा, मेरे प्रलाप को नहीं समझ सका और यह सोच कर कि इसे बख्शीश चाहिए, मुझे 5 का नोट थमाते हुए बोला, ‘‘अब दफा हो जा, दोबारा घोड़ी पर चढ़ने से मत रोकना मुझे,’’ यह कह कर पैर झटका और मुझ से पांव छुड़ा कर वह घुड़सवार बन गया. बहुत पीड़ा हुई कि एक जीताजागता स्वस्थ आदमी घोड़ी पर चढ़ कर सीधे मौत के मुंह में जा रहा है.

मैं ने उसे फिर आगाह किया, ‘‘राजा, जिद मत करो. यह घोड़ी है बिगड़ गई तो दांतमुंह दोनों को चौपट कर देगी. भला इसी में है कि इस बाजेगाजे, शोरशराबे तथा बरात की भीड़ से अपनेआप को दूर रखो.’’

बींद पर उन्माद छाया था. मेरी ओर हंस कर बोला, ‘‘कापुरुष, घोड़ी पर चढ़ा भी और रो भी रहा है. मेरी आंखों के सामने से हट जा. विवाह के पवित्र बंधन से घबराता है तथा दूसरों को हतोत्साहित करता है. खुद ने ब्याह रचा लिया और मुझे कुंआरा ही देखना चाहता है, ईर्ष्यालु कहीं का.’’

मैं बोला, ‘‘बींद राजा, यह लो 5 रुपए अपने तथा मेरी ओर से यह 101 रुपए और लो, पर मत चढ़ो घोड़ी पर. यह रेस बहुत बुरी है. एक बार जो भी चढ़ा, वह मुंह के बल गिरता दिखा है. तुम मेरे परिचित हो इसलिए पड़ोसी धर्म के नाते एक अनहोनी को मैं टालना चाहता हूं. बस में, रेल में, हवाईजहाज में, स्कूटर पर या साइकिल पर चढ़ कर कहीं चले जाओ.’’

बींद राजा नहीं माने. घोड़ी पर चढ़ कर ब्याह रचाने चल दिए. लौट कर आए तो पैदल थे. मैं ने छूटते ही कहा, ‘‘लाला, कहां गई घोड़ी?’’

‘‘घोड़ी का अब क्या काम? घोड़ी की जहां तक जरूरत थी वहीं तक रही, फिर चली गई.’’

‘‘इसी गति से तुम्हें साधनहीन बना कर तुम्हारी तमाम सुविधाएं धीरेधीरे छीन ली जाएंगी. कल घोड़ी पर थे, आज जमीन पर. कल तुम्हारे जमीन पर होने पर आपत्ति प्रकट की जाएगी. तब तुम कहोगे कि मैं ने सही कहा था.’’

इस बार भी बींद ने मेरी बात पर गौर नहीं फरमाया तथा ब्याहता बींदणी को ले कर घर में घुस गया. काफी दिनों बाद बींद राजा मिले तो रंक बन चुके थे. बढ़ी हुई दाढ़ी तथा मैले थैले में मूली, पालक व आलूबुखारा ले कर आ रहे थे. मैं ने कहा, ‘‘राजा, क्या बात है? क्या हाल बना लिया? कहां गई घोड़ी. इतना सारा सामान कंधे पर लादे गधे की तरह फिर रहे हो?’’

‘‘भैया, यह तो गृहस्थी का भार है. घोड़ी क्या करेगी इस में.’’

‘‘लाला, दहेज में जो घोड़ी मिली है, उस के क्या हाल हैं. वह सजीसंवरी ऊंची एड़ी के सैंडलों में बनठन कर निकलती है और आप चीकू की तरह पिचक गए हो. भला ऐसे भी घोड़ी से क्या उतरे कि कोई सहारा देने वाला ही नहीं रहा?’’

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है. इस बीच मुझे पुत्र लाभ हो चुका है तथा अन्य कई जिम्मेदारियां बढ़ गई हैं. बाकी विशेष कुछ नहीं है,’’ बींद राजा बोले.

‘‘अच्छाभला स्वास्थ्य था राजा आप का. किस मर्ज ने घेरा है कि अपने को भुरता बना बैठे हो.’’

‘‘मर्ज भला क्या होगा. असलियत तो यह है, महंगाई ने इनसान को मार दिया है.’’

‘‘झूठ मत बोलो भाई, घोड़ी पर चढ़ने का फल महंगाई के सिर मढ़ रहे हो. भाई, जो हुआ सो हुआ, पत्नी के सामने ऐसी भी क्या बेचारगी कि आपातकाल लग जाता है. थोड़ी हिम्मत से काम लो. पत्नी के रूप में मिली घोड़ी को कामकाज में लगा दो, तभी यह उपयोगी सिद्ध होगी. किसी प्राइवेट स्कूल में टीचर बनवा दो,’’ मैं ने कहा.

‘‘बकवास मत करो. तुम मुझे समझते क्या हो? इतना कायर तो मैं नहीं कि बीवी की कमाई पर बसर करूं.’’

‘‘भैया, बीवी की कमाई ही अब तुम्हारे जीवन की नैया पार लगा सकती है. ज्यादा वक्त कंधे पर बोझ ढोने से फायदा नहीं है. सोचो और फटाफट पत्नी को घोड़ी बना दो. सच, तुम अब बिना घुड़सवार बने सुखी नहीं रह सकते,’’ मैं ने कहा.

पर इस बार भी राजा बनाम रंक पर मेरी बातों का असर नहीं हुआ और हांफता हुआ घर में जा घुसा तथा रसोईघर में तरकारी काटने लगा.

एक दिन बींद राजा की बींदणी मिली. मैं ने कहा, ‘‘बींदणीजी, बींद राजा पर रहम खाओ. दाढ़ी बनाने को पैसे तो दिया करो और इस जाड़े में एक डब्बा च्यवनप्राश ला दो. घोड़ी से उतरने के बाद वह काफी थक गए हैं?’’

बींदणी ने जवाब दिया, ‘‘लल्ला, अपनी नेक सलाह अपनी जेब में रखो और सुनो, भला इसी में है कि अपनी गृहस्थी की गाड़ी चलाते रहो. दूसरे के बीच में दखल मत दो.’’

मैं ने कहा, ‘‘दूसरे कौन हैं. आप और हम तो एकदूसरे के पड़ोसी हैं. पड़ोसी धर्म के नाते कह रहा हूं कि घोड़े के दानापानी की व्यवस्था सही रखो. उस के पैंटों पर पैबंद लगने लगे हैं. कृपया उस पर इतना कहर मत बरपाइए कि वह धूल चाटता फिरे. किस जन्म का बैर निकाल रही हैं आप. पता नहीं इस देश में कितने घुड़सवार अपने आत्मसम्मान तथा स्वाभिमान के लिए छटपटा रहे हैं.’’

बींदणी ने खींसें निपोर दीं, ‘‘लल्ला, अपना अस्तित्व बचाओ. जीवन संघर्ष में ऐसा नहीं हो कि आप अपने में ही फना हो जाओ.’’

वह भी चली गई. मैं सोचता रहा कि आखिर इस गुलामी प्रथा से एक निर्दोष व्यक्ति को कैसे मुक्ति दिलाई जाए. अपनी तरह ही एक अच्छेभले आदमी को मटियामेट होते देख कर मुझे अत्यंत पीड़ा थी. एक दिन फिर राजा मिल गए. आटे का पीपा चक्की से पिसा कर ला रहे थे. मैं ने कहा, ‘‘अरे, राजा, तुम चक्की से पीपा भी लाने लगे. मेरी सलाह पर गौर किया?’’

‘‘किया था, वह तैयार नहीं है. कहती है हमारे यहां प्रथा नहीं रही है. औरत गृहशोभा होती है और चारदीवारी में ही उसे अपनी लाज बचा कर रहना चाहिए.’’

‘‘लेकिन अब तो लाज के जाने की नौबत आ गई. उस से कहो, तुम्हारे नौकरी करने से ही वह बचाई जा सकती है. तुम ने उसे घोड़ी पर बैठने से पहले का अपना फोटो दिखाया, नहीं दिखाया तो दिखाओ, हो सकता है वह तुम्हारे तंग हुलिया पर तरस खा कर कोई रचनात्मक कदम उठाने को तैयार हो जाए. स्त्रियों में संवेदना गहनतम पाई जाती है.’’

इस पर पूर्व घुड़सवार बींद राजा बिदक पड़े, ‘‘यह सरासर झूठ है. स्त्रियां बहुत निष्ठुर और निर्लज्ज होती हैं. तुम ने घोड़ी पर बैठते हुए मेरा पांव सही पकड़ा था. पर मैं उसे समझ नहीं पाया. आज मुझे सारी सचाइयां अपनी आंखों से दीख रही हैं.’’

‘‘घबराओ नहीं मेरे भाई, जो हुआ सो हुआ. अब तो जो हो गया है तथा उस से जो दिक्कतें खड़ी हो गई हैं, उन के निदान व निराकरण का सवाल है.’’

इस बार वह मेरे पांव पड़ गया और रोता हुआ बोला, ‘‘मुझे बचाओ मेरे भाई. मेरे साथ अन्याय हुआ है. मैं फिल्म संगीत गाया करता था, तेलफुलेल तथा दाढ़ी नियमित रूप से बनाया करता था. तकदीर ने यह क्या पलटा खाया है कि तमाम उम्मीदों पर पानी फिर गया.’’

मैं ने उसे उठा कर गले से लगाया और रोने में उस का साथ देते हुए मैं बोला, ‘‘हम एक ही पथ के राही हैं भाई. जो रोग तुम्हें है वही मुझे है. इसलिए दवा भी एक ही मिलनी चाहिए. परंतु होनी को टाले कौन, हमें इसे तकदीर मान कर हिम्मत से काम करना चाहिए.’’

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