Download App

अपनी ही मां का कत्ल कर दे रहे बच्चे, गुस्से का कारण सख्ती तो नहीं

अगस्त, 2024 : यमुनानगर, हरियाणा में बेटे ने मां से ड्रग्स खरीद कर नशा करने के लिए पैसे मांगे, मां ने नहीं दिए, तो उस ने लोहे के रौड से पीटपीट कर अपनी ही मां मार डाला.

जुलाई, 2024 : पूर्णिया, बिहार में बेटे ने पत्नी के साथ मिल कर मां के सिर पर हथौड़े पर हमला किया. मामला संपत्ति विवाद से जुड़ा था.

जून, 2024 : दौसा, राजस्थान के विकास बैरवा की शादी नहीं हो रही थी, इस वजह से उस ने परिवार को दोषी मानना शुरू कर दिया. एक दिन मां के सिर पर लोहे के पाइप से मार कर उस की हत्या कर दी.

मई, 2024 : श्योरपुर, मध्य प्रदेश में गोद लिए बेटे ने ही मां की हत्या कर दी। उस ने सब से पहले मां को छत से नीचे फेंका, उस के बाद गला दबा, घर के बाथरूम में खुदाई कर वहीं दफन कर दिया.

ऊपर दी हुई कुछ घटनाएं मई से अगस्त तक के महीने की हैं. यहां लगातार 4 महीने की केवल एकजैसी घटना का उदाहरण दिया गया है, जिस की संख्या अधिक भी हो सकती है. वजह कुछ भी हो, सभी घटनाओं में बेटे ने मां का कत्ल किया है.

रिश्तों में मां का दरजा, दुनिया के हर धर्म और जाति में सब से ऊपर रखा गया है, जिस की वजह है मां का जननीस्वरूप. इस के बावजूद ऐसी दुखद घटनाएं क्यों घट रही हैं? क्या इस के लिए पूरी तरह से मौडर्न लाइफस्टाइल जिम्मेदार है? क्या पूर्व में इस तरह की कोई घटना नहीं घटी?

परशुराम ने भी की थी मां की हत्या

शिव के अवतार माने जाने वाले परशुराम को भी मातृहंता कहा जाता है. पाैराणिक कथाओं के अनुसार, उन्होंने अपने पिता ऋषि जमदाग्नि के कहने पर अपनी मां का वध कर दिया था. ग्रंथों में ऐसा लिखा गया है कि ऋषि ने पत्नी रेणुका को यज्ञ के लिए जल लाने को कहा, लेकिन रेणुका जल में खेल रहे गंधर्व को देख कर मोहित हो गई और यज्ञ वाली बात भूल गई. गुस्से में ऋषि ने अपने सभी बेटों से मां की हत्या करने को कहा लेकिन कोई आगे नहीं आया. तब उन का सब से आज्ञाकारी बेटा परशुराम सामने आया और माता के सिर को धड़ से अलग कर दिया.

ऐसी प्राचीन कथाएं कहीं न कहीं समाज की उस पारंपरिक सोच को पुख्ता करती है जिस में स्त्री को चाकर समझा जाता है, फिर चाहे वह पत्नी हो, बेटी हो या फिर जन्म देने वाली माता ही क्यों न हो.

पुरुष को जब गुस्सा आता है, तो उस के सामने सब से कमजोर शख्स के रूप में महिला ही होती है, जिसे दंड दे कर वह अपने व्यक्तित्व की मजबूती बनाए रखना है और शक्तिशाली होने के अपने भ्रम को टूटने नहीं देता चाहता.

अगर परशुराम के पिता ने मां को उन की नाफरमानी करने के लिए दंड जारी किया, तो उन्होंने उन पुत्रों के लिए यह फरमान जारी क्यों नहीं किया जिन्हों ने पिता की आज्ञा टालते हुए अपनी मां का वध करने से इनकार कर दिया था, जब पिता ने उन्हें मां का वध करने को कहा था?

महिलाओं की कमजोर छवि को गढ़ने के लिए धर्म को भी उतना ही जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए, जितना इन घटनाओं के लिए मौडर्न लाइफस्टाइल को ब्लैम किया जाता है.

टीनऐजर्स और युथ का ब्रैन गुस्से का टाइमबम

हत्या मां की हो या परिवार के दूसरे सदस्यों की, ज्यादातर मामलों में यह देखा गया है कि इस तरह की घटनाएं गुस्से के आवेग में होती हैं. जब गुस्सा बेकाबू होता है तो हत्या जैसी घटनाओं के रूप में यह सामने आता है. कोई जरूरी नहीं कि गुस्से में व्यक्ति सामने वाले को ही नुकसान पहुंचाए, बल्कि वह खुद पर भी गुस्सा उतारता है, इस का उदाहरण सुसाइड के रूप में सामने आता है. एक स्टडी में गुस्से की कई वजहें सामने निकल कर आईं जैसे तनाव, पारिवारिक समस्याएं, आर्थिक दिक्कतें वगैरह।

इस के अलावा शरीर को तकलीफ पहुंचने की स्थिति में, किसी से नाराजगी होने पर, किसी तरह का नुकसान होने पर या फिर मन में किसी तरह का असंतोष हो, तो ये सभी कारक भी गुस्से को ट्रिगर करने का काम करते हैं. इन ट्रिगर्स की वजह से गुस्सैल इंसान खुद को या किसी दूसरे को नुकसान पहुंचाता है, फिर चाहे वह उस की मां ही क्यों न हो।

उत्तर प्रदेश के प्रयागराज जिले में ऐंगर मैनेजमैंट को ले कर 386 लोगों पर एक स्टडी की गई. इस में 193 किशोर और 193 किशोरियों को शामिल किया गया. इस स्टडी में गुस्से की कई वजहें सामने निकल कर आईं. इस के अलावा शरीर को तकलीफ पहुंचने की स्थिति में, किसी से नाराजगी होने पर, किसी तरह का नुकसान होने पर या फिर मन में किसी तरह का असंतोष हो, तो ये सभी कारण गुस्से को ट्रिगर करने का काम करते हैं. इन ट्रिगर्स की वजह से गुस्सैल इंसान खुद को या किसी दूसरे को नुकसान पहुंचाता है, फिर चाहे वह उस की मां ही क्यों न हो ? सवाल यह उठता है कि ज्यादातर मामलों में पुरुष को ही हिंसक पाया गया है, जैसाकि मां की हत्या के मामलों में देखा गया, इस की वजह क्या है?

इसी अध्ययन के दौरान यह देखा गया कि गुस्सा करने के सभी ट्रिगर्स लड़कियों की तुलना में लड़कों पर अधिक असर करते हैं, इस वजह से किशोरियों की तुलना में किशोरों में गुस्से का स्तर अधिक होता है.

ऐंगर मैनेजमैंट घर में सिखाएं

अमेरिकन साइकोलौजिकल एसोसिएशन के अनुसार, गुस्सा एक सामान्य इंसानी भावना है लेकिन जब यह कंट्रोल से बाहर हो जाता है, तो प्रौब्लम शुरू होती है.

मनोवैज्ञानिक, पीएचडी चार्ल्स स्पीलबर्गर के अनुसार, गुस्सा होने की स्थिति में फिजिकल और बायोलौजिकल दोनों में चेंज आता है, जैसे हार्ट रेट और ब्लड प्रैशर बढ़ जाता है. इस के साथ ही ऐनर्जी से जुड़े हारमोन जैसे ऐड्रेनालाइन और नौरएड्रेनालाइन का लैवल भी बढ़ जाता है इसलिए ऐंगर मैनेजमैंट कर इन पर लगाम लगाया जा सकता है.

ऐंगर मैनेजमैंट के लिए साइकोलौजिस्ट की मदद लेने में कोई हरज नहीं होना चाहिए, पर पेरैंट्स को कोशिश करना चाहिए कि वह घर में ही ऐंगर मैनेजमैंट करने पर ध्यान दें.

टीनऐजर्स और युवाओं को यह करना सिखाएं :

– गुस्सा आते ही रिलैक्सेशन करना शुरू करें जैसे गहरी सांस लें, मन में रिलैक्स, रिलैक्स दोहराएं (दोहरान के लिए किसी और शब्द का प्रयोग कर सकते हैं).

– मन को सुकून पहुंचाने वाली किताब पढ़ें, किताब पढ़ना नहीं पसंद है, तो गाना सुनें.

– तुरंत किसी क्रिऐटिव काम में जुट जाएं जैसे गार्डेनिंग, पेंटिंग, ड्राइंग वगैरह।

– ऐसे विषयों में खो जाएं जो दिमाग को आराम पहुंचाएं जैसे, जब आप की तारीफ की गई, जब किसी बेहतरीन काम करने की वजह से शाबाशी मिली हो.

– कुछ देर के लिए पार्क में दौड़ आएं, इस से मसल्स रिलैक्स होंगे और शांति महसूस होगी, गुस्से वाला मन इधरउधर भटक जाएगा.

– जब भी गुस्सा आए, तो खुद को यह समझाना शुरू करें कि तोड़फोड़, मारपीट गुस्से का सौल्यूशन नहीं है.

पैरेंट्स को भी यह सीखने की जरूरत है :

– हमेशा बच्चों पर हावी होने की कोशिश नहीं करें.

– टीनऐजर्स और यूथ की जायज मांगों को मानने से इनकार न करें.

– अपने घर के बड़े बच्चों में भरोसा जताएं, उन्हें मन की करने की छूट दें.

– उन कामों को न करें, जिस से टीनऐजर्स को गुस्सा आएं जैसे दोस्तों के बारे में ज्यादा पूछताछ, बारबार किसी बात के पीछे पड़ जाना, हर बात में कमियां गिनाना, दूसरों से उन की तुलना करना.

– पेरैंट्स को चाहिए कि बहुत ही छोटी उम्र से ही बच्चों के जिद या गुस्से की आदत को कंट्रोल करें.

– अपने घर के टीनऐजर और युवा की तारीफ करना सीखें, जब भी वे अच्छा काम करें उन की सराहना करें, अपने दोस्तों या घर के बुजुर्गों के सामने भी उसे सराहें.

– पेरैंट्स अपने गुस्से पर कंट्रोल करना सीखें क्योंकि कई बार बच्चे इन को देखदेख कर गुस्सा करने के पैटर्न को अपना लेते हैं.

मेरी पत्नी सैक्स टौयज का इस्तेमाल करती है

अगर आप भी अपनी समस्या भेजना चाहते हैं, तो इस लेख को अंत तक जरूर पढ़ें..

सवाल :

मैं एक प्राइवेट कंपनी में जौब करता हूं और मुझे अकसर काम के सिलसिले में अपने बौस के साथ शहर से बाहर जाना पड़ता है. कई बार तो मुझे मीटिंग्स और कौन्फरैंस के चलते 1-2 हफ्ते भी घर से दूर रहना पड़ता है. ऐसे में जब मैं घर आता हूं तो अपनी पत्नी के साथ जम कर सैक्स करता हूं क्योंकि मुझे भी इतने दिनों उस से दूर रह कर अधूरापन सा लगता है. मैं अपनी पत्नी से बेहद प्यार करता हूं. लेकिन मुझे हाल ही में पता चला कि जब मैं अपने औफिस के काम से बाहर जाता हूं तो मेरे पीठ पीछे मेरी पत्नी सैक्स टौयज का इस्तेमाल करती है. क्या वह कुछ गलत तो नहीं कर रही? इस से कोई साइडइफैक्ट्स तो नहीं है?

जवाब :

सैक्स नीड्स और सैक्स डिजायर्स हर इंसान के अंदर होती है. हर इंसान को सैक्स करना बेहद अच्छा भी लगता है. ऐसे में अगर आप अपनी पत्नी से दूर रहते हैं, तो आप के पीठ पीछे उन का भी सैक्स करने का मन करता ही होगा. कई लोग खुद को कंट्रोल कर पाते हैं, तो वहीं दूसरी तरफ कुछ लोग ऐसे भी हैं जो खुद को ज्यादा दिन तक कंट्रोल नहीं कर पाते.

सैक्स टौयज इस्तेमाल करना कोई गलत बात नहीं है. कई ऐसी लड़कियां हैं जो सैक्य टौयज इस्तेमाल कर के ही खुद को संतुष्ट कर पाती हैं. ऐसे में आप को खुश होना चाहिए कि आप के पीठ पीछे आप की पत्नी ने अपनी सैक्स जरूरतों को पूरा करने के लिए नाजायज संबंध नहीं बनाए और वे आप के लिए पूरी तरह से वफादार है.

आप को कोशिश करनी चाहिए कि जब आप अपने औफिस के काम से बाहर गए हुए हों उस दौरान आप अपनी पत्नी के साथ वीडियो कौल या चैटिंग से लगातार संपर्क में रहें.

आप ऐसा भी कर सकते हैं कि रात को सोने से पहले अपनी पत्नी के साथ कुछ देर सैक्स चैटिंग कर लें या फिर वीडियो कौल पर एकदूसरे के साथ कुछ प्यारभरी बातें कर लें. ऐसा करने से आप की पत्नी सिर्फ और सिर्फ आप के बारे में सोचेगी।

आप को उन्हें एक बात जरूर समझानी चाहिए कि सैक्स टौयज का इस्तेमाल बहुत ज्यादा जरूरत पड़ने पर ही करें. ऐसा देखा गया है कि कुछ लोगों को इन की इतनी आदत पड़ जाती है कि समय मिलते ही वे खुद को अकेला पा कर सैक्स टौयज इस्तेमाल करने लग जाते हैं और उन का किसी और चीज में मन ही नहीं लगता. उन्हें सैक्स टौइज को कम से कम इस्तेमाल करना चाहिए ताकि उन को इस की आदत न लगें.

व्हाट्सऐप मैसेज या व्हाट्सऐप औडियो से अपनी समस्या इस नम्बर पर 9650966493 भेजें.

रील के चक्कर में जान गंवाते युवा

हमारे देश में सोशल मीडिया पर रील्स देखने का शौक तेजी से बढ़ता जा रहा है. देश का एक बड़ा हिस्सा अपना समय इसी में गुजार रहा है. रील्स देखने के शौक ने पढ़ाई, कैरियर और बिजनेस को प्रभावित किया है. अखबारों, किताबों और पत्रिकाओं को पढ़ना छोड़ रहे हैं.

पुस्तकालय खाली है. तमाम बंद हो गए हैं. हालत यह हो गई है कि तमाम युवा रील्स बनाने में ही अपना कैरियर देखने लगे हैं.

युवाओं को लगता है कि रील्स बना कर पैसा कमाया जा सकता है. मजबूरी यह है कि केवल रील्स बनाने से काम नहीं चलता है. जरूरी यह होता है कि रील्स वायरल हो. जब रील वायरल होगी तब उन के फौलोवर्स बढ़ेंगे. उन की पहचान इन्फ्लुएंसर के रूप में होगी. इन्फ्लुएंसर बनने के बाद ही कमाई के रास्ते खुलेंगे. अब युवा इस फिराक में रहते हैं कि किस तरह से उन की रील वायरल हो जाए. वायरल होने का यह गणित ही जीवन को संकट में डाल रहा है.

स्टंटबाजी का जोखिम

हाल के दिनों में कई इन्फ्लुएंसर को बिग बौस या दूसरे चैनलों पर दिखने का मौका मिला. यहां से इन को फिल्म और सोशल मीडिया पर पहचान मिलने लगी है. ऐसे में इन की देखादेखी दूसरे युवा भी इस प्रयास में लग गए. सोशल मीडिया पर रील देखने वाले या तो सैक्सी कटेंट देखते हैं या भौंडा मजाक पंसद करते हैं. इस में लड़कियों को सफलता जल्दी मिल जाती है. जहां तक लड़कों का सवाल है उन की रील कम लोग देखते हैं. लड़कों में सब से ज्यादा रील स्टंटबाजी की देखी जाती है.

अब लड़के इस बात को समझते हैं. वह ज्यादा से ज्यादा स्टंट करने लगे हैं. रेलवे लाइन, नदी, झरना जैसी खतरनाक जगहों पर वीडिया शूट करते हैं. कई बार रेल और चलती गाड़ियों पर भी वीडियो बनाते हैं. यह लोग एक्शन फिल्मों के सीन देख कर उसे करने का प्रयास करते हैं. उन को यह समझ नहीं आता कि फिल्मों में इस तरह के सीन सुरक्षा के साथ अलग तरह से फिल्माए जाते हैं. इन को बिना सुरक्षा के करना खतरनाक होता है. रील को वायरल होने की चाहत जान की दुश्मन बन जा रही है.

क्राफ्टिंग इमेज की फांउडर डायरैक्टर और इंटरनैशनल इमेज कल्सटेंट निधि शर्मा कहती हैं, “युवा सड़कों पर जिस तरह की स्टंटबाजी कर रहे हैं उस से वह अपनी जान के साथ ही साथ दूसरों की जान से खिलवाड़ कर रहे हैं. सड़क पर चलने के कानून भी तोड़ रहे हैं. कहानी किसी एक दो शहरों की नहीं है पूरे देश में यह चलन बढ़ रहा है. युवा रील देखने और बनाने के नशेड़ी बन रहे हैं. तो वीडियो देखते रहते हैं या फिर वीडियो बनाते रहते हैं. जब से सोशल मीडिया पर कंटेंट के जरिये पैसे कमाने का औप्शन आ गया है, तब से लोगों में ट्रेंडिंग रील्स बनाने का चलन बढ़ गया है. लोग ऐसे कंटेंट बनाने की कोशिश करते हैं, जिस में ज्यादा से ज्यादा व्यूज आए. इस चक्कर में लोग अपनी जान तक जोखिम में डाल देते हैं.”

कुछ घटनाओं पर नजर डालें तो हालात साफ पता चल जाते हैं. लोग वायरल कंटेंट बनाने के चक्कर में अपनी जान से हाथ धोते नजर आते हैं. एक कपल रील बनाने के दौरान अचानक ट्रेन आ जाने पर पुल के नीचे कूद गया. वहीं एक इन्फ्लुएंसर का पैर पहाड़ी से फिसल जाने पर वो खाई में गिर गई. इस तरह से सोशल मीडिया पर मुरादाबाद के एक युवक का वीडियो शेयर किया गया है. युवक तेज रफ्तार मालगाड़ी के किनारे डांस करता नजर आया. इस दौरान उस का दोस्त वीडियो बना रहा था. लेकिन रील बनाने के चक्कर में ऐसा हादसा हुआ कि युवक अपनी जान गंवा बैठा.

वायरल हो रहे इस वीडियो में एक युवक रेलवे पुल के किनारे डांस करता नजर आया. युवक ने चश्मा लगाया हुआ था और पुल के किनारे खड़ा हो कर डांस कर रहा था. युवक के बगल से एक मालगाड़ी तेज रफ्तार में जा रहा था. शख्स का दोस्त आगे खड़ा हो कर वीडियो बना रहा था. डांस करते हुए अचानक युवक का हाथ रेलगाड़ी से टकराया. इस के कारण युवक का बैलेंस बिगड़ गया और वो सीधे नीचे पुल में बने गड्ढे में जा कर नीचे गिर गया.

मध्य प्रदेश के उज्जैन में इंस्टाग्राम पर रील बनाने के चक्कर में दो माह में हुए तीन हादसों में 7 युवाओं अपनी जान गंवाई. कई लोग घायल भी हुए. कार से सांवरियाजी दर्शन करने जा रहे 4 युवा इंस्टाग्राम पर रील बनाते समय सामने चल रहे ट्राले से टकरा गए, जिस में 3 की मौत हो गई. 19 अप्रैल को रात 1.30 बजे देवास रोड पर पोलिटैक्निक कालेज के सामने तेज रफ्तार कार डिवायडर से टकरा गई थी. हादसे में नागझिरी में रहने वाले अदनान उम्र 20 साल, अफसान काजी उम्र 17 साल, कैफ मंसूरी उम्र 20 साल की मौके पर ही मौत गई.

16 मई को मंदसौर के पास मुल्तानपुरा रोड पर उज्जैन के रहने वाले रितिक उर्फ रजनीश उम्र 27 साल, संजय राणा उम्र 22 साल, विजय उर्फ नोडी उम्र 24 साल और लकी धाकड़ की कार सामने चल रहे ट्राले से टकरा गई थी. लकी को छोड़ तीनों की मौत हो गई. दो दिन बाद इन का आखिरी वीडियो भी आया जिस में यह चारों कार चलाते समय शराब पीते हुए रील बना रहे थे, और हादसे का शिकार हो गए.

उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले में 4 युवक एक ही बाइक पर सवार थे. वह तेज रफ्तार से बाइक चला कर रील बना रहे थे. रील बनाते समय युवक तेज रफ्तार से बाइक चला कर सीट पर ही ऊपर नीचे बैठते और खड़े हो रहे थे. इसी बीच बाइक अनियंत्रित हो गई और बाइक पर सवार 4 में 3 की मौके पर ही मौत हो गई. इटियाथोक कोतवाली क्षेत्र के बेंदुली मोड़ के पास सड़क हादसा हुआ. किसी ने हेलमेट तक नहीं पहन रखा था. यह युवक एक ही बाईक पर सवार हो कर खरगूपुर बाजार से अपने घर इटियाथोक बाजार के नौशहरा महल्ले में जा रहे थे.

झारखंड के साहिबगंज जिले में रील बनाने के चक्कर में एक युवक ने 100 फीट की ऊंचाई से छलांग लगाई. गहरे पानी में डूबने से उस की मौत हो गई. इस घटना का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ. वीडियो में युवा तेजी से भाग कर जंप करता दिख रहा है. साहिबगंज जिले के करम पहाड़ी के नजदीक एक पत्थर खदान है. यहां पर पानी की झील सी बनी हुई है. तौसीफ नाम का एक युवक यहां अपने कुछ दोस्तों के साथ नहाने आया था. इस दौरान उसने लगभग 100 फीट की ऊंचाई से गहरे पानी में छलांग लगा दी और वो डूब गया. इस दौरान झील में नहा रहे उस के दोस्तों ने उसे बचाने की कोशिश की लेकिन असफल रहे. वीडियो में ऊपर खड़ा हुआ एक शख्स इस पूरी घटना को रिकौर्ड कर रहा था.

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में पूर्वोत्तर रेलवे लखनऊ मंडल में ही पटरियां पार करने के समय ट्रेनों साथ सेल्फी बनाते, ईयर फोन लगाने और रील बनवाते समय 7 महीने में 277 लोगों ने जान गंवाई है. इन में सेल्फी बनाते समय ही 83 लोगों की जान गई. अब आरपीएफ ने ऐसी ही कई कीमती जान को बचाने के लिए आपरेशन जीवन रक्षक की शुरुआत की है.

देखने वाले दोषी

निधि शर्मा कहती हैं, “पूरे मामले को समझने की कोशिश करें तो जितना दोष खतरनाक किस्म की रील बनाने वालों का है उस से कहीं ज्यादा दोश रील देखने वालों का है. देखने वाले जिस तरह से कंटेट देखते हैं बनाने वाले उसी तरह का बनाने का काम करते हैं. देखने वालों को खतरनाक किस्म के स्टंट वाली रील देखना बंद करना चाहिए. तभी लोग इस को बनाना बंद करेंगे. वरना जब तक यह वायरल होती रहेगी लोग सस्ती लोकप्रियता की चाहत में इस को बनाते रहेंगे. अपनी और राह चलते दूसरों की जान जोखिम में डालते रहेंगे.”

आखिरी रास्ता : निर्मला और विमल को क्या अपने प्यार की मंजिल मिल सकी ?

‘‘यार, इस में इतना परेशान होने की क्या बात है? तुम दोनों पहले सोच कर फैसला कर लो कि तुम अपने पापामम्मी की मरजी के बिना शादी कर सकते हो या नहीं?’’ रौनक ने अपने दोस्त विमल से कहा.

‘‘तुम सभी लोग जानते हो कि मैं और निर्मला कालेज के फर्स्ट ईयर से ही एकदूसरे को चाहते हैं, फिर भी सामाजिक मर्यादाओं की सीमा में ही रहे हैं. मुश्किल तो यह है कि हम दोनों में से किसी का परिवार गैरजातीय शादी के लिए तैयार नहीं है,’’ विमल बोला.

‘‘अब आगे से प्यार करने के पहले हमें एकदूसरे की जाति और धर्म पूछ लेना चाहिए वरना आगे चल कर हमारा भी यही हश्र हो सकता है,’’ निर्मला की एक सहेली ने कहा.

इस पर वहां मौजूद सभी दोस्त हंस पड़े.

‘‘तुम लोग हंस रहे हो और हम दोनों कितने परेशान हैं, शायद इस का अंदाजा तुम्हें नहीं है,’’ निर्मला बोली.

‘‘अरे नहीं. हम सभी तुम्हारे साथ हैं और चाहते भी हैं कि तुम दोनों की शादी हो पर पहले तुम दोनों में इतना साहस हो कि अपने परिवार की मरजी के खिलाफ जा कर शादी कर सको. तुम अब मैच्योर्ड हो और अपने पैरों पर खड़े हो,’’ कुछ दोस्तों ने कहा.

‘‘मेरे मामू वकील हैं, तुम दोनों बोलो तो मामू को बोल कर तुम्हारी कोर्ट मैरिज की औपचारिकताएं शुरू करा दें. गवाही के लिए हम लोग तैयार हैं ही,’’ रौनक बोला.

सभी लोगों ने कुछ देर आपस में सलाहमशवरा किया. विमल और निर्मला कोर्ट मैरिज के लिए तैयार हो गए. सभी दोस्तों ने फैसला किया कि यह बात दोनों परिवारों तक नहीं पहुंचनी चाहिए. रजिस्ट्रार के औफिस में कोर्ट मैरिज के लिए 30 दिन का नोटिस दिया गया. विमल और निर्मला दोनों अपने मातापिता की इकलौती संतानें थीं, उन की जातियां अलग थीं. दोनों के मातापिता उन की शादी के लिए रिश्ते तलाश रहे थे.

उन्हें अपनी जाति में मनलायक अच्छे रिश्ते भी मिल रहे थे पर विमल और निर्मला दोनों ही किसी न किसी बहाने शादी टाल रहे थे.

एक महीने बाद विमल और निर्मला ने कोर्ट मैरिज कर ली. शादी के बाद उन्होंने अपने दोस्तों के साथ होटल में लंच लिया. इस के बाद विमल और निर्मला अपनेअपने घर चले गए. उसी दिन शाम को विमल मिठाइयां और कुछ उपहार के पैकेट ले कर निर्मला के घर पहुंचा. उस के पापामम्मी दोनों बाहर लौन में ही बैठे थे. निर्मला घर के अंदर थी.

वह बोला, ‘‘नमस्ते अंकल, नमस्ते आंटी. आप लोग कैसे हैं?’’

‘‘नमस्ते, हम ठीक हैं. और यह सब क्या है, कैसे आना हुआ?’’ निर्मला के पिता महेश दूबे ने पूछा.

‘‘अंकल, आंटी, अब मुझे आप दोनों को मम्मीपापा बोलना होगा. आज कोर्ट में मैं ने निर्मला से शादी कर ली है. उसे विदा कराने आया हूं. मेरे मातापिता इसे बहू स्वीकार करने के लिए तैयार हैं.’’

‘‘लगता है तुम्हारा दिमाग ठिकाने नहीं है, चलो भागो यहां से,’’ बोल कर दूबेजी गुस्से से आगबबूला हो कर उठ खड़े हुए और उन्होंने मिठाई व गिफ्ट पैकेट्स को जमीन पर फेंक दिया.

फिर दूबेजी ने बेटी को चिल्ला कर आवाज दी, ‘‘निर्मला, इधर आओ.’’

निर्मला को इस स्थिति का आभास पहले से ही था. वह चुपचाप आ कर दूबेजी के सामने खड़ी हो गई.

‘‘देखो, यह क्या बके जा रहा है. यह बोल रहा है कि तुम दोनों ने शादी कर ली है,’’ विमल की ओर इशारा करते हुए वे बोले.

निर्मला कुछ देर तक सिर झुकाए खामोश खड़ी रही. तब फिर दूबेजी ने गरजते हुए कहा, ‘‘मैं ने तुम से कुछ पूछा है, जवाब दो.’’

पर निर्मला से कुछ बोलते नहीं बना, वह अभी भी खामोश थी. तभी विमल ने आगे बढ़ कर कोर्ट मैरिज का सर्टिफिकेट उन्हें देते हुए कहा, ‘‘यह क्या बोलेगी, खुद ही देख लीजिए मैरिज रजिस्ट्रेशन का सर्टिफिकेट है यह.’’

दूबेजी ने सर्टिफिकेट पढ़ा और फाड़ कर फेंक दिया.

‘‘यह तो सिर्फ एक जेरौक्स कौपी है.’’

दूबेजी ने पत्नी पर गुस्सा उतारते हुए कहा, ‘‘देखा तुम ने, दुलार में बेटी को कितना बिगाड़ दिया है. मैं ने कहा था न कि इसे कालेज भेजने की जरूरत नहीं है. 12वीं के बाद ही इस के लिए अच्छे अच्छे रिश्ते आने लगे थे.’’

उस समय विमल और निर्मला के कुछ मित्र वहां आए और वे एकसाथ बोले, ‘‘अंकल, शादी मुबारक.’’

‘‘काहे की शादी? मैं नहीं मानता इस शादी को.’’

‘‘पर कानून तो मानता है. आप कानून को नहीं मानते हैं तो इस में गलती आप की है. जरा ठंडे दिमाग से सोचिए, इन दोनों ने कोई गलत काम नहीं किया है. इन्होंने मर्यादा के विरुद्ध कोई काम नहीं किया है. कोर्ट मैरिज ही इन के लिए आखिरी रास्ता था. इस रिश्ते को स्वीकार करने में ही सब की खुशी है.’’

दूबेजी अपनी पत्नी और बेटी निर्मला को ले कर अंदर चले गए. उन्होंने फोन कर स्थानीय रिश्तेदार व दोस्त को बुलाया. विमल अपने दोस्तों के साथ बरामदे में कुरसी और झूले पर बैठा था. उस के दोस्त रौनक ने भी फोन कर अपने वकील मामू को बुला लिया. आधे घंटे के अंदर 2 कारें आईं जिन में दूबेजी के मित्र और रिश्तेदार थे.

कार से उतर कर वे सभी सीधे घर के अंदर गए. इस के दस मिनट बाद एक अन्य कार से वकील मामू सादे लिबास में आए. वे विमल और उस के मित्रों के बीच बैठ गए. घर के अंदर से कभी दूबेजी की गुस्से वाली तेज आवाज आती तो कभी उन के मित्रों या रिश्तेदारों की धीमी आवाज में उन्हें समझाने की.

कुछ मिनट इंतजार के बाद वकील ने पूछा, ‘‘क्या मैं भी अंदर आ सकता हूं?’’

‘‘आप की तारीफ?’’ दूबेजी ने पूछा.

‘‘मैं ने ही इन दोनों की कोर्ट मैरिज कराई है.’’

‘‘तो आप जले पर नमक छिड़कने आए हैं?’’

‘‘जी नहीं, मुझे क्या पड़ी है. मैं तो सिर्फ आप को सम?ाने आया हूं. मैं वकील हूं, मेरे बेटे ने भी घर से भाग कर कोर्ट मैरिज की थी. बाद में जब उस के ससुर बेटी को उस के साथ नहीं जाने दे रहे थे तब बेटे ने पुलिस की मदद ली और वह अपनी पत्नी को साथ ले गया.

हम मानें या न मानें, ऐसी शादी को कानून की मान्यता है. मुझे भी अपनी बहू को स्वीकार करना ही पड़ा था. इसलिए मेरी सलाह है कि कोर्टकचहरी के चक्कर में न पड़ें, इसी में सब की भलाई है. मुझे बस इतना ही कहना था, बाकी आप की मरजी.’’

कुछ देर तक सब लोग आपस में बातें करते रहे. ज्यादातर लोग दूबेजी को ही सम?ा रहे थे कि इस रिश्ते को मान लेना ही सही होगा. तभी वकील ने फिर कहा, ‘‘ठीक है भाईसाहब, मैं अब चलता हूं. एक बार फिर ठंडे दिमाग से सोचिए, आप खुद एक सरकारी नौकर हैं, कानून तो आप भी जानते ही होंगे.’’

दूबेजी को फिर लोगों ने सम?ाया कि अब इस रिश्ते को कबूल करने में ही उन की भलाई है वरना अपनी इकलौती संतान से भी हाथ धो बैठेंगे. उन का गुस्सा धीरेधीरे ठंडा पड़ने लगा. वकील मामू तब तक जा चुके थे. उन के जाने के कुछ देर बाद विमल ने कहा, ‘‘निर्मला मेरे साथ चल रही है न?’’

दूबेजी ने कहा, ‘‘बेशर्म, चल भाग यहां से. जा कर बाप को बोल, बरात ले कर आए और अपनी बहू को विदा करा के ले जाए.’’
उन की बात सुन कर सभी खुशी से झूम उठे. विमल ने भी निर्मला को आंख मारी और अपने दोस्तों के साथ लौट गया.

दर्पण : गलत राह पर जाने से खुद को संभालती पत्नी की कथा

लेखिका – मंजरी सक्सेना

‘‘आजकल बड़ा लजीज खाना भेजती हो बेगम,’’ आफिस से आ कर जूते खोलते हुए सुजय ने कहा.

‘‘क्यों, अच्छा खाना न भेजा करूं,’’ मैं ने कहा, ‘‘इन दिनों कुकिंग कोर्स ज्वाइन किया है. सोचा, रोज नईनई डिश भेज कर तुम्हें सरप्राइज दूं.’’

‘‘शौक से भेजिए सरकार, शौक से. आजकल तो सभी आप के खाने की तारीफ करते हैं,’’ सुजय ने हंस कर कहा.

मैं ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘सभी कौन?’’

‘‘अरे भई, अभी आप यहां किसी को नहीं जानती हैं. हमें यहां आए दिन ही कितने हुए हैं. जब एक बार पार्टी करेंगे तो सब से मुलाकात हो जाएगी. यहां ज्यादातर अधिकारी मैस में ही खाना खाते हैं. हां, मैं तुम्हें बताना भूल गया था कि निसार भी पिछले हफ्ते ट्रांसफर पर यहीं आ गया है. उसे मेरी सब्जियां बहुत पसंद आती हैं. एक दिन कह रहा था कि जब ठंडे खाने में इतना मजा आता है तो गरम कितना लजीज होगा,’’ सुजय मेरे खाने की तारीफों के पुल बांध रहे थे.

मैं ने पूछा, ‘‘यह निसार क्या सरनेम हुआ?’’

‘‘वह निसार नाम से गजलें लिखता है, वैसे उस का नाम निश्चल है,’’ सुजय ने बताया.

‘‘अच्छा,’’ कह कर मैं चुप हो गई पर चाय के उबाल के साथसाथ मेरे विचारों में भी उबाल आ रहे थे.

‘‘तुम्हें याद नहीं क्या मौली? हमारी शादी में भी निसार आया था.’’

‘‘हूं, याद है,’’ अतीत की यादें आंधी की तरह दिल के दरवाजे में प्रवेश करने लगी थीं.

मुंह दिखाई की रस्म शुरू हो चुकी थी. घर के सभी बड़े, ताऊ, चाचा, मामी, मामा कोई भी उपहार या गहना ले कर आता और पास बैठी छोटी ननद मेरा घूंघट उठा देती. बड़ों को चरण स्पर्श और छोटों को प्रणाम में मैं हाथ जोड़ देती थी. इतना सब करने पर भी मेरी पलकें झुकी ही रहतीं. घूंघट की ओट से अब तक बीसियों अनजान चेहरे देख चुकी थी. अचानक स्टेज के पास निश्चल को देखा तो हैरत में पड़ गई. सोचा, कोई दोस्त होगा, पर वह जब पास आया तो वही अंदाज.

‘भाभी, ऐसे नहीं चलेगा. आप को मुंह दिखाई के समय आंखें भी दिखानी होंगी. कहीं भेंगीवेंगी आंख वाली तो नहीं?’ कह कर किसी ने घूंघट उठाना चाहा तो आवाज सुन कर मेरा मन हुआ कि आंखें खोल कर पुकारने वाले को देख तो लूं, पर संकोचवश पलक झपक कर रह गए थे.

‘अरे, दुलहन, दिखा दो अपनी आंखें वरना तुम्हारा यह देवर मानने वाला नहीं,’ किसी बूढ़ी औरत का स्वर सुन कर मैं ने आंखें खोल दीं. ऐसा लगा जैसे शिराओं में खून जम सा गया हो. तो यह निश्चल और सुजय आपस में रिश्तेदार हैं. मन ही मन सोचती मैं कई वर्ष पीछे लौट गई थी.

निश्चल और कोई नहीं, मेरे स्कूल के दिनों का सहपाठी था जो रिकशे में मेरे साथ जाता था. सारे बच्चे मिल कर धमा- चौकड़ी मचाते थे. इत्तेफाक से कालिज में भी वह साथ रहा और 2-3 बार हमारा पिकनिक भी साथ ही जाना हुआ था. पता नहीं क्यों निश्चल की आंखों की भाषा पढ़ कर हमेशा ऐसा लगता था जैसे उस की आंखें कुछ कहनासुनना चाहती हैं. तब कहां पता था कि एक दिन पापा मेरे रिश्ते के लिए उसी का दरवाजा खटखटाने पहुंचेंगे.

निश्चल का बायोडाटा काफी दिनों तक पापा की जेब में पड़ा रहा था. वह उस समय न्यूयार्क में कंप्यूटर इंजीनियर था. 2 महीने बाद भारत आने वाला था. घर वालों को फोटो पसंद आ चुकी थी. बस, जन्मपत्री मिलानी बाकी थी. हरसंभव कोशिशों के बाद भी जन्मपत्री नहीं मिली थी. चूंकि निश्चल के मातापिता जन्मपत्री में विश्वास करते थे इसलिए शादी टल गई थी. उन्हीं दिनों वैवाहिक विज्ञापन के जरिए सुजय से शादी की बात चली. सुजय से जन्मपत्री मिलते ही शादी की रस्म पूरी होगी.

‘‘क्या सोच रही हो, मौली?’’ सुजय की आवाज से मैं अतीत से वर्तमान में आ गई.

‘‘कुछ नहीं,’’ होंठों पर बनावटी हंसी लाते हुए मैं ने कहा.

निश्चल कुछ ज्यादा मजाकिया स्वभाव का है. उस की बातों का बुरा नहीं मानना तुम. वैसे भी बेचारा अकेला है. न्यूयार्क में किसी अमेरिकन लड़की से शादी कर ली थी पर वह छोड़ कर चली गई…’’ उदार हृदय, पति बताते रहे और मैं हूं, हां करती चाय के कप से उड़ती हुई भाप देखती रही.

निरीक्षण भवन में सुजय ने पार्टी का इंतजाम कराया था. खाने की प्लेट हाथ में लिए मैं खिड़की से बाहर का नजारा देखने लगी थी. रात के अंधेरे में मकानों की रोशनी आसमान में चमकते सितारों सी जगमगा रही थी.

‘‘आप बिलकुल नहीं बदलीं,’’ किसी ने पीछे से आवाज दी.

निश्चल को देख कर मैं चौंक कर बोली, ‘‘आप ने मुझे पहचान लिया?’’

‘‘लो, जिस के साथ बचपन से जवान हुआ उसे न पहचानने की क्या बात है. तब आप संगमरमर की तरह गोरी थीं, आज दूध की तरह सफेद हैं,’’ निश्चल ने कहा.

‘‘पर समय के साथ शक्ल और यादें दोनों बदल जाती हैं,’’ मैं ने यों ही कह दिया.

‘‘आप गलत कह रही हैं. समय का अंतराल यहां नहीं चल पाया. आप 13 साल पहले भी ऐसी ही थीं,’’ निश्चल ने हंसते हुए कहा तो शर्म से मेरी पलकें झुक गई थीं.

तभी किसी को अपने आसपास यह कहते सुना, ‘‘ओहो, इस उम्र में भी क्या ब्लश कर रही हैं आप?’’ सुन कर मेरे गाल लाल हो गए थे. प्लेट रख कर हाथ धोने के बहाने दर्पण में अपना चेहरा देख कर मैं खुद ही शरमा गई थी.

जब से निश्चल ने मेरी तारीफ में कसीदे पढ़े, मेरी जिंदगी ही बदल गई. जेहन में बारबार यह सवाल उठते कि क्यों कहा निश्चल ने मुझे संगमरमर की तरह गोरी और दूध की तरह सफेद…तब तो चौराहे की भीड़ की तरह मुझे छोड़ कर निश्चल ने पीछे मुड़ कर देखा तक नहीं और अपना रास्ता ही बदल लिया था. अब, जब हमारे रास्ते अलग हो गए, मंजिलें बदल गईं फिर उस कहानी को याद दिलाने की जरूरत किसलिए?

मुझे किसी से भी किसी बात की शिकायत नहीं है, न क्षोभ न पछतावा, पर नियति ने क्यों मेरी जिंदगी में उस व्यक्ति को सामने खड़ा कर दिया जिस को मैं ने बचपन से चाहा. मैं सोच नहीं पाती, क्यों मन बारबार संयम का बांध तोड़ना चाहता है? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि उस से मुलाकात का कोई रास्ता ही न रह जाए.

क्लब में तो हर हफ्ते ही मुलाकात होती है. उस पर भी अगर संतोष कर लिया जाए तो ठीक लेकिन गुस्सा तो मुझे अपने ऊपर इसलिए आता था कि जिस का अब जिंदगी से कोई वास्ता नहीं तो फिर क्यों मन उस चीज को पाना चाहता है.

क्यों तिरछी बौछार में भीगने की चाहत है, क्या मैं समझती नहीं, निश्चल की आंखों की भाषा?

सोचसोच कर मेरी रातों की नींद उड़ने लगी थी.

मुलाकातों का सिलसिला अपने आप चलता जा रहा था. अपनी भांजी की शादी में जाना था. व्यस्तताओं के चलते सुजय दिल्ली आ कर मुझे प्लेन में बैठा गए थे. वहीं निश्चल को भी प्लेन में बैठा देख कर मैं हैरान थी कि अचानक उस का कार्यक्रम कैसे बन गया था, मैं समझ नहीं पा रही थी. प्लेन में कई सीटें खाली पड़ी थीं. निश्चल मेरे पास ही आ कर बैठ गया. धरती से हजारों मील ऊपर क्षितिज को अपने बहुत पास देख कर मन पुलकित हो रहा था या निश्चल का साथ पा कर, यह मैं समझ नहीं पा रही थी.

एक दिन पेट में तेज दर्द से अचानक तबीयत खराब हो गई. फोन कर के डाक्टर को घर पर बुला लिया था. उन्होंने ब्लड टेस्ट, अल्ट्रासाउंड की रिपोर्ट देख कर कहा था कि आपरेशन करना पड़ेगा. डाक्टर ने ब्लड का इंतजाम करने को कहा क्योंकि मेरा ब्लड गु्रप ‘ओ पाजिटिव’ था.

‘‘अब क्या होगा?’’ मैं घबरा गई.

‘‘होना क्या है, कोई न कोई दाता तो मिल ही जाएगा,’’ डाक्टर ने कहा.

‘‘यहां कौन है? अभी तो हम ने किसी को खबर भी नहीं दी है,’’ सुजय ने कहा.

मैं ने निश्चल को फोन मिलाया.

‘‘क्या कोई खास बात, आप परेशान लग रही हैं, मैं अभी आता हूं,’’ कह कर निश्चल ने फोन रख दिया.

10 मिनट के बाद ही निश्चल मेरे सामने था. उस को देखते ही सुजय ने कहा, ‘‘ब्लड का इंतजाम करना पड़ेगा.’’

निश्चल तुरंत अपना ब्लड टेस्ट कराने चला गया और लौट कर बोला, ‘‘सुनो, तुम्हारा और मेरा एक ही ब्लड गु्रप है.’’

‘‘काश, घर वाले जन्मपत्री की जगह ‘ब्लड गु्रप’ मिला कर शादी करने की बात सोचते तब तो मैं जरूर ही तुम्हें कहीं न कहीं से ढूंढ़ निकालता.’’

अवाक् सी मैं निश्चल को देखती रह गई. शर्म से मेरे गाल लाल हो गए.

सुजय ने हंस कर कहा, ‘‘फिर तो हम घाटे में रहते.’’

आपरेशन के बाद होश में आने में कई घंटे लग गए थे. पानीपानी कहते हुए मैं ने आंखें खोलीं तो सामने निश्चल को देखा. मेरी आंखें सुजय को तलाश रही थीं. मुझे देख कर निश्चल ने कहा, ‘‘सुजय सब को फोन करने गया है कि आपरेशन ठीक हो गया और होश आ गया है, लेकिन पता है भाभी, आपरेशन के बाद से अब तक सुजय ने एक बूंद पानी तक नहीं पिया है, क्योंकि आप को भी पानी नहीं देना है. वैसे आप को तो ड्रिप चढ़ाई जा रही है,’’ रूमाल से मेरे होंठों को गीला कर के निश्चल बाहर सुजय के इंतजार में खड़ा रहा.

निश्चल के कहे शब्दों से मैं अंदर तक हिल गई. जिस दर्पण में भावुक, टूट कर चाहने वाले इनसान का प्रतिबिंब हो उसे मैं खंडित करने की सोच भी नहीं सकती. अगर उस में जरा सी दरार आ जाए तो वह बेकार हो जाता है. अपने मन के दर्पण को मैं खंडित नहीं होने दूंगी. ‘खंडित दर्पण नहीं बनूंगी मैं,’ मन ही मन बुदबुदा रही थी. सुजय की मेरे प्रति आस्था ने मेरी दिशा ही बदल दी. जरा सी दरार जो दर्पण को खंडित कर देती है उस से मैं अपने को संयत कर पाई.

बिना बोले हंसाने का हुनर बस चार्ली चैप्लिन में ही था

दुनिया का सब से मुश्किल काम लोगों को हंसाना है, और वह भी यदि बिना बोले सिर्फ अपनी भावभंगिमा से हंसाना तो यह अति मुश्किल है, मगर चार्ली चैपलिन को इस में महारत हासिल थी. आज ओटीटी और नेटफ्लिक्स के जमाने जिस भयावह शोर और चीखों के दौर से हम गुजर रहे हैं, उस के बीच चार्ली चैपलिन की खामोश फिल्मों की छोटीछोटी क्लिप्स जब सोशल मीडिया के किसी प्लेटफौर्म पर दिख जाती हैं तो ऐसा जान पड़ता है मानों तपते रेगिस्तान में बारिश की फुहारें पड़ गई हों. चार्ली चैपलिन एक ब्रिटिश हास्य अभिनेता, निर्माता, लेखक, निर्देशक और संगीतकार थे, जिन्हें व्यापक रूप से स्क्रीन के सब से महान हास्य कलाकार और मोशन-पिक्चर के इतिहास में सब से महत्वपूर्ण हस्तियों में से एक माना जाता है. वे अपने स्क्रीन व्यक्तित्व, द ट्रैम्प के माध्यम से दुनिया भर में एक आइकन बन गए.

बोलती फिल्में चाहे वे ब्लैक एंड वाइट थीं या रंगीन, उन में गिनीचुनी कुछ ही फिल्में हैं जो हमें हंसा गईं, गुदगुदा गईं, वरना अधिकांश में वही रोनाधोना, लड़ाईझगड़ा, साजिशें, मिलान और जुदाई, चीखनाचिल्लाना, मारकाट और कानफोड़ू संगीत भरा पड़ा है. फिर चाहे हमारा देसी सिनेमा हो या विदेशी. परंतु खालिस हंसी का मजा लेना हो तो उस दौर में गोता लगाना होगा जहां चार्ली चैपलिन हैं, जहां खामोशी है और उस खामोशी में जबरदस्त खिलखिलाहट है. चार्ली चैपलिन बिना कुछ बोले ही लोगों को हंसाते थे. वे इंग्लैंड की फिल्म इंडस्ट्री में उस दौर के कलाकार थे जब फिल्में साउंड रहित और ब्लैक एंड वाइट होती थीं.

यूट्यूब पर चार्ली चैपलिन की फिल्मों के अनेक वीडियो हैं. एक निर्देशक के रूप में चार्ली की पहली फिल्म थी ‘द किड’. यह फिल्म एक ओर जहां ठहाके लगाने को मजबूर करती है वहीं आप की आंखें भी नम कर जाती है. और यह सब बिना किसी डायलौग डिलीवरी के होता है. उन की सब से मजेदार फिल्म – ‘द गोल्ड रश’ है, जिस में सब से अच्छी कामेडी है. ‘द गोल्ड रश’ मूवी में एक अकेला इन्स्पेक्टर सोने की तलाश में जाता है और वह कुछ दबंग किरदारों के साथ घुलमिल जाता है. ‘द गोल्ड रश’ उन की सब से बड़ी और सब से महत्वाकांक्षी मूक फिल्म है. यह उस समय तक बनी सब से लंबी और सब से महंगी कामेडी फिल्म भी थी.

इस फिल्म में चैप्लिन के कई मशहूर कामेडी सीक्वेंस शामिल हैं, जिन में उन के बूट को उबालना और खाना, रोल का डांस और डगमगाता हुआ केबिन शामिल है. ‘द वुमन औफ पेरिस’ 1923 की आकर्षक फिल्म है जो निर्देशक के रूप में चार्ली चैप्लिन की अनोखी प्रतिभा को बखूबी प्रदर्शित करती है. यह फिल्म मैरी नाम की एक युवा महिला की कहानी है. फिल्म ‘सर्कस’ चैप्लिन के कैरियर की सब से महत्वपूर्ण फिल्म थी. इस फिल्म के जरिये एक जबरदस्त निर्माता और एक जबरदस्त हास्य कलाकार के रूप में चार्ली ने अपनी प्रतिभा की छाप सिनेमा जगत पर छोड़ी.

1931 में आई चार्ली की फिल्म ‘सिटी लाइट्स’ भी एक बेहतरीन मूवी है जिस में चार्ली को एक खूबसूरत मगर अंधी लड़की से प्यार हो जाता है. अपनी फिल्म ‘द ग्रेट डिक्टेटर’ में चार्ली ने हिटलर का किरदार निभाया था और उस के सामान खड़ी मूंछों के साथ जो अदाकारी उन्होंने परदे पर की उस को देख कर हंसतेहंसते लोग अपने पेट पकड़ लेते थे.

आज के फिल्म निर्माता और कलाकार कितनी ही कोशिश कर लें मगर चार्ली की मूक फिल्मों के आसपास नहीं पहुंच सकते हैं. साइलेंट फिल्में सिनेमा के इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है. जब आवाज को फिल्मों में शामिल नहीं किया जाता था तब दृश्य और भावनाएं ही कहानी कहने का माध्यम होती थीं. इस में चार्ली चैपलिन को जो महारत हासिल थी, उन के बाद किसी कलाकार में उस दर्जे की कला नहीं दिखी. हां, रोवन एटकिन्सन जो एक ब्रिटिश अभिनेता और हास्य अभिनेता हैं और जिन्होंने अपनी हास्य रचना मिस्टर बीन से टेलीविजन और फिल्म दर्शकों को आनंदित किया, कुछ हद तक चार्ली चैपलिन की कमी को पूरा करते हैं.

मूक फिल्मों में कलाकार को अपनी बात बिना बोले दर्शकों तक पहुंचाने के लिए बहुत ही प्रभावी अभिनय करना होता था. 1920 का दशक मूक फिल्मों का स्वर्णिम समय माना जाता है. इस दौरान कई महान फिल्म निर्माता और अभिनेता हुए. जिन्होंने सिनेमा के इतिहास में अपना नाम अमर कर दिया.

कुछ मशहूर साइलेंट फिल्में जैसे ‘द कैबिनेट औफ डा. कैलीगरी’, यह एक जर्मन हौरर फिल्म थी जिसे साइलेंट सिनेमा का एक क्लासिक माना जाता है. फिल्म ‘मेट्रोपोलिस’ एक जर्मन फिक्शन फिल्म है. जो अपने भव्य दृश्यों और सामाजिक विषयों के लिए जानी जाती है. फिल्म ‘द किड’, चार्ली चैपलिन की यह मूक हास्य फिल्म एक अनाथ बच्चे और एक आवारा व्यक्ति के बीच के रिश्ते की कहानी बताती है.

चार्ली चैपलिन के अलावा भी कई निर्माता निर्देशक थे जिन्होंने साइलेंट फिल्में बनाईं. भारत में भी सिनेमा का उदय मूक फिल्मों से ही हुआ, मगर चार्ली की बराबरी कोई नहीं कर सका. उन के जैसा हास्य परदे पर कोई और कलाकार कभी उतार ही नहीं पाया. बाद की मूक फिल्में सामाजिक परिदृश्य के मुताबिक बनीं. कुछ मूक फिल्मों में संवाद प्रस्तुत करने के लिए मूक अभिव्यक्तियों और संकेतों के साथ शीर्षक कार्डों का इस्तेमाल भी होने लगा. विदेशी सिनेमा में कहीकहीं इन मूक फिल्मों के साथ लाइव म्यूजिक भी प्रस्तुत किया जाने लगा. सिनेमाघरों में परदे के एक कोने में साजिंदे अपने साजों या पियानो के साथ बैठते थे और परदे पर चल रहे दृश्यों के अनुरूप धीमे या तेज संगीत से भावों की अभिव्यक्ति को मजबूती देते थे. यह संगीत फिल्म की भावनाओं को और गहरा बनाता था.

हां, साइलेंट फिल्मों ने ही सिनेमा की नींव रखी और आधुनिक फिल्म निर्माण के लिए रास्ता प्रशस्त किया. इन फिल्मों ने हमें सिखाया कि कैसे कोई दृश्य बिना शब्द के एक कहानी कह सकता है. भारतीय फिल्मों की शुरुआत भी मूक फिल्मों से ही हुई थी. मगर वह हास्य फिल्में नहीं थीं बल्कि उन में भारतीय संस्कृति और सामाजिक कहानियों को परदे पर उतारा गया था. पहली भारतीय मूक फिल्म राजा हरिशचंद्र थी जिसे 1913 में दादा साहेब फाल्के ने बनाया था. इस फिल्म को 21 अप्रैल, 1913 को ओलंपिया थिएटर में कुछ प्रमुख लोगों के सामने प्रदर्शित किया गया था. यह फिल्म भारतीय इतिहास की एक प्रसिद्ध कहानी पर आधारित थी और इस फिल्म के निर्माण में उस जमाने में 15 हजार रुपए का खर्च आया था.

दादा साहब फाल्के की एक और कृति लंका दहन रामायण पर आधारित थी. यह 1917 में रिलीज हुई थी और इसे लोगों ने खूब सराहा. इस तरह, यह भारत में पहली बौक्स औफिस हिट बनी. इस फिल्म में ट्रिक फोटोग्राफी और स्पेशल इफैक्ट्स का इस्तेमाल किया गया था, जो भारतीय सिनेमा में पहले कभी इस्तेमाल नहीं किए गए थे. इस के अलावा, मजेदार तथ्य यह है कि इस फिल्म में राम और सीता दोनों ही किरदार एक ही कलाकार ए. सालुंके ने निभाए थे.

मूक फिल्मों का निर्माण लगभग दो दशक तक होता रहा. 1913 में कुल तीन मूक फिल्मों का निर्माण हुआ था. लेकिन धीरेधीरे यह संख्या बढ़ती गई और 1934 तक लगभग 1300 मूक फिल्मों का निर्माण हुआ. 1931 में जब पहली बोलती फिल्म (टौकी) का निर्माण हुआ था, वह वर्ष मूक फिल्मों के चरमोत्कर्ष का वर्ष था.

यह है हमारा शिल्पशास्त्र : भाग-2

पिछले अंक में आप ने भूमि की जातियों के बारे में शिल्पशास्त्रम् में क्याक्या गलत था, पढ़ा. अब आगे…

भविष्य जानने की भोंड़ी विधि

यदि भविष्य के गर्भ में स्थित बातों को जानना आसान होता तो कोई भी अपने भविष्य को इस तरीके से जान सकता था. शिल्पशास्त्र ऐसी ऊलजलूल बातों से भरा पड़ा है.

शिल्पशास्त्र ने यदि पहले कृषि विज्ञान की बातों को हथिया कर उन्हें जातियों से जोड़ा है तो आगे वह ज्योतिषी की भूमिका निभाता हुआ दिखाई देता है. जब वह कहता है कि जिस जमीन पर घर बनाना हो, वहां एकसाथ लंबाचौड़ा गड्ढा खोद कर उस में एक दीपक जला दो. यदि दीये की शिखा काला धुआं दे तो वह जमीन भाग्यकारक व संपत्तिकारक होती है; यदि धुआं पूर्व को जाए तो वृद्धिकारक; यदि दक्षिणपूर्व में जाए तो सम?ा घर को आग लगेगी; यदि दक्षिण में जाए तो घर बनाने वाले की मृत्यु निश्चित है; यदि दक्षिणपश्चिम में जाए तो जीवन में दुख होगा; यदि पश्चिम में जाए तो धन का नाश होगा; यदि पश्चिमउत्तर में जाए तो बीमारी आएगी; उत्तर में जाए तो संपत्ति आएगी तथा यदि उत्तरपूर्व को जाए तो सुख की प्राप्ति होगी.

वास्तोर्मध्ये तु विवरं कृत्वा बाहुप्रमाणतर्;
दीपं तत्र स्थापयित्वा चिन्तयेत् च फलादिकम्.
श्रीदा दीपशिखा धूम्रा, वृद्धि :प्राचीगता भवेत्,
आग्नेये वेश्मदाह : स्याद् याम्ये मृत्युर्न संशय :
नैर्नहते च भवेद् दुर्ख वारुण्ये धननाशनम्.
वायण्ये व्याधिपीडा स्यादूत्तरस्यां च संपद :
ऐशान्ये सुखवृद्धि : स्यादित्याशाभागनिर्णय : (शिल्पशास्त्रम् 1/13-15)

यदि भविष्य के गर्भ में स्थित बातों को आग लगा कर जानना इतना आसान होता तो कोई भी अपने भविष्य को इस तरीके से जान सकता था परंतु क्या इस तरीके का और भविष्य की घटनाओं का कोई आपसी संबंध, विशेषतया कारण-कार्य संबंध, जुड़ता है? हवा का चलना भविष्य-निरपेक्ष है – उस का किसी के भविष्य से कुछ लेनादेना नहीं. जब गड्ढे में दीया जालाएंगे, तब जिस दिशा की हवा होगी, धुआं उस ओर चला जाएगा.

यदि शिल्पशास्त्र में बताए अनुसार फल मिलता, तब तो मिलों, ईंट के भट्ठों आदि के सब मालिक उस दिन मर जाते जिस दिन धुआं दक्षिण को जाता; जिस दिन उन का धुआं दक्षिणपूर्व में जाता उस दिन सब मिलों में आग लग जाती; जिस दिन पश्चिमउत्तर को जाता उस दिन वहां काम करने वाले सारे बीमार पड़ जाते पर ऐसा क्या कभी हुआ है?

स्पष्ट है, यह नुस्खा लालबु?ाक्कड़ मार्का है. शिल्पशास्त्र के ऐसी बेहूदा बातों का क्या संबंध हो सकता है? दुनियाभर में शिल्पशास्त्र पर पुस्तकें हैं और उन की संख्या हमारी पुस्तकों से कहीं ज्यादा है परंतु किसी में भी इस तरह की बातों के लिए कोई स्थान नहीं, जबकि हमारा शिल्पशास्त्र है ही इन्हीं का संग्रह.

लिफ्ट का कुतर्की वास्तुशास्त्र

धार्मिक इंसान ज्यादा डरपोक होता है. उस के हर काम कर्मकांड पर शुरू और खत्म होते हैं. बच्चे के पैदा होने से ले कर मरने तक हर काम में कर्मकांड ही कर्मकांड. जैसे शराबी शराब पीने के लिए सुख व दुख का बहाना ढूंढ़ता है, वैसे ही धार्मिक इंसान हर मौके पर पूजापाठ, हवन, कथाकीर्तन, जादूटोना और वास्तु करता/कराता है.

हाल देखिए कि मल्टीस्टोरीज बिल्डिंग में रहने जा रहे लोग फ्लैट लेते समय वास्तु तो देख ही रहे हैं, साथ में उस फ्लैट में लिफ्ट किस दिशा में हो, कैसी हो, उस से कैसी तरंगें निकलें, इस के लिए भी वास्तु देख रहे हैं. वे इस के लिए वैसे ही आर्किटैक्ट के बनाए स्ट्रक्चर को पसंद करते हैं जो वास्तुशास्त्र के अनुसार काम करे. तमाम बिल्डर्स और डीलर्स अपनी दुकान चलाने के लिए ज्योतिषियों के साथ मिल कर इन अंधविश्वासी लोगों का फायदा उठा रहे हैं. इन्होंने लिफ्ट तक का ऊटपटांग वास्तु हर जगह फैला रखा है.

जैसे, लिफ्ट के वास्तु में ये बताते हैं कि इसे उत्तरपश्चिम दिशा में लगाना चाहिए. लिफ्ट का दरवाजा पूर्व या दक्षिण दिशा में होना चाहिए. अगर ऐसा नहीं होता तो घर में कुछ बुरा हो सकता है. अगर लिफ्ट के अंदर मिरर लगा रहे हैं तो उसे दक्षिण या पश्चिम दिशा में नहीं होना चाहिए. उत्तर व पूर्व दिशा में बिलकुल न लगाएं. ये लिफ्ट में शीशे लगाने के फायदे बताते हैं, कहते हैं कि इस से लिफ्ट में एनर्जी बनी रहती है और डर कम लगता है. वहीं यह भी बताते हैं कि वास्तु के अनुसार लिफ्ट को साफसुथरा रखना चाहिए, क्योंकि इस से नैगेटिविटी नहीं आती.

इन के बताए लिफ्ट के वास्तु को कोई पढ़े तो इन की आधी बातों से कोई एतराज नहीं करेगा, जैसे लिफ्ट में शीशा लगाना चाहिए या लिफ्ट साफ रखनी चाहिए. मसलन, शीशा लगाने से लिफ्ट सुंदर और चमकदार दिखाई देती है, साथ में, बड़ी भी दिखाई देती है और साफ रखने से लिफ्ट में बीमारियों का खतरा कम रहता है. यह तो वैसी ही बात हुई कि भारत में अगर कोई भी व्यक्ति किसी बच्चे के जन्म पर जाए और कहे कि बड़े हो कर इस के बाल काले होंगे और बुढ़ापे में सफेद हो जाएंगे.

लिफ्ट का वास्तु बताने वाले क्या यह बता सकते हैं कि यह तकनीक आई कहां से? आज से तकरीबन 144 साल पहले, जरमनी में वार्नर वोन सीमेंस द्वारा लिफ्ट की तकनीक को खोजा, लेकिन इसे भी इंसानों द्वारा नियंत्रित किया जाता था. जिस औटोमेटिक इलैक्ट्रोनिक लिफ्ट को आज हम अपने आसपास देख रहे हैं, जिस के वास्तु पर घर के खरीदारों को बिल्डर्स चूना लगा रहे हैं, वह सैकंड वर्ल्डवार के अंत में न्यूयौर्क में चलाई गई.

हालांकि इन बातों को दरकिनार कर दें तो कोई इन से पूछे कि लिफ्ट का यह वास्तु आया कहां से? कौन सी वास्तुशास्त्र की किताब में इस का जिक्र है? लिफ्ट की दिशाओं के गलत होने से कौन सी केस स्टडी इन्होंने की है और किस तरह के नुकसान या फायदे लोगों को इस से हुए हैं? अगर ये कुछ बताएं तो बात बढ़े.

(अगले अंक में जारी…)

 

हैवान : स्त्री के धोखे से तबाह युवक की कहानी

लेखक – डा. पी.के. सरीन

सोचतेसोचते डा. पटेल का सिर दर्द से फटने लगा था. उन्होंने घड़ी देखी तो सुबह के 4 बजे थे. पूरा कमरा सिगरेट की गंध से भरा हुआ था. उन्हें याद है कि इस से पहले उन्होंने जीवन में 2 बार सिगरेट पी थी पर इस एक रात में वह 4 पैकेट सिगरेट पी गए थे. दरअसल, शाम को अनीता का फोन आने के बाद डा. पटेल इतना आंदोलित हो गए थे कि अपने बीवीबच्चों से काम का बहाना बना कर रात को अपने नर्सिंग होम में ही रुक गए थे.

हां, उसी अनीता का फोन आया था जिस के लिए मैं पिछले 5 सालों से अपना घरपरिवार, व्यवसाय, यारदोस्त, यहां तक कि अपने 2 मासूम बच्चों को भी भूले बैठा था. उसी अनीता के जहर बुझे शब्द अब भी मेरे कानों में गूंज रहे थे, ‘तुम ने जो कुछ किया वह सब एक सोचीसमझी योजना के तहत किया है. तुम इनसान नहीं, हैवान हो. मेरे देवता समान पति को तुम ने बरबाद कर दिया.’

डा. पटेल सोच रहे थे कि बरबाद तो मैं हुआ, समाज में मेरी बदनामी हुई, शारीरिक रूप से अपंग मैं हुआ, प्रोफेशनल रूप से जमीन पर मैं आ गया, और वह सिर्फ अनीता की खातिर, फिर भी उस का पति देवता और मैं हैवान. इसी के साथ डा. पटेल के दिमाग में पिछले कुछ सालों की घटनाएं न्यूजरील की तरह उभरने लगीं.

मैं डा. पटेल. इसी उदयपुर में पलाबढ़ा और यहीं से सर्जरी में एम.एस. करने के बाद सरकारी नौकरी में न जा कर अपना निजी नर्सिंग होम खोला. छोटा शहर, काम करने की लगन और कुछ मेरे मिलनसार व्यक्तित्व ने मिल कर मरीजों पर इस कदर असर छोड़ा कि 3-4 साल के भीतर ही मेरा नर्सिंग होम शहर का नंबर एक नर्सिंग होम कहलाने लगा था.

शहर और आसपास के डाक्टर भी मेरे नर्सिंग होम में सर्जरी के लिए अपने मरीजों को पूरे विश्वास के साथ भेजने लगे. मेरी पत्नी उदयपुर विश्वविद्यालय में लेक्चरर थी, हर तरह से सुखी, संतुष्ट जीवन गुजर रहा था कि अनीता से मेरी मुलाकात हो गई. अनीता मेरे ही एक नजदीकी दोस्त गजेश की बीवी थी. गजेश रामकरण अंकल का बेटा था और रामकरण अंकल के एहसानों तले मैं पूरी तरह से दबा हुआ था.

यह बात तब की है जब अपने नर्सिंग होम को जमाने के लिए मुझे कुछ सर्जरी के उपकरण खरीदने के लिए एक बैंक गारंटर की जरूरत थी. ऐसे में काम आए मेरी पत्नी के दूर के एक रिश्तेदार रामकरण अंकल, जो उदयपुर में ही शिक्षा विभाग में क्लर्क थे. रामकरण अंकल ने बैंक गारंटर बन कर मेरी समस्या को हल किया था और मैं यह कभी न भूल सका कि इसी बैंक गारंटी की वजह से मेरा यह नर्सिंग होम स्थापित हो पाया जोकि बाद में नई ऊंचाइयों तक पहुंचा.

रामकरण अंकल का बेटा गजेश एक तेजतर्रार, महत्त्वाकांक्षी नौजवान था जिसे पिता ने जोड़तोड़ कर के डिगरी कालिज में तकनीशियन की नौकरी दिलवा दी थी. रामकरण अंकल द्वारा बैंक गारंटी दिए जाने के बाद गजेश का मेरे नर्सिंग होम में आनाजाना बहुत बढ़ गया और अपने कालिज के बजाय वह अपना आधा दिन मेरे नर्स्ंिग होम में गुजारता था. वैसे इस के पीछे भी एक कारण था जो मुझे बाद में पता चला था, और वह था अनीता से उस का अफेयर. जी हां, इसी अनीता से जिस के आज के फोन के बाद मैं अपने अतीत में झांकने को मजबूर हुआ हूं.

अनीता गजेश की रिश्तेदारी में ही एक खूबसूरत मृगनयनी थी जो उसी डिगरी कालिज से एम.फिल. कर रही थी, जिस में गजेश तकनीशियन था. अपने पिता के पैसे के बल पर मोटरसाइकिल पर घूमने और अकड़ कर रहने वाले गजेश पर अनीता ऐसी फिदा हुई कि वह अपने घर वालों के सख्त विरोध के बावजूद गजेश के साथ प्रेम बंधन में बंध गई.

मुझे तो बाद में पता चला कि यह प्रेम की लता भी मेरे ही नर्सिंग होम में पलीबढ़ी और परवान चढ़ी थी. और प्रेम का यह खेल तब शुरू होता था जब मैं दोपहर में खाना खाने घर जाता था. गजेश तब मेरे वापस आने तक अनीता को वहीं नर्सिंग होम में ही बुला लेता था और दोनों कबूतर की तरह तब तक गुटरगूं करते रहते थे. मुझे जब यह सब पता चला तो बुरा लगा था लेकिन गजेश की खुशी को ही उस समय मैं ने अपनी खुशी समझा और रामकरण अंकल पर दबाव बना कर मैं ने उन दोनों के प्रेम को विवाह के अंजाम तक पहुंचाया था.

दरअसल, अनीता के घर वालों की जिद को देखते हुए रामकरण अंकल ने भी गजेश की शादी कहीं और करने का मन बना लिया था. और गजेश को भी अपनी इज्जत का वास्ता दे कर तैयार कर लिया था, जबकि अनीता के घर वाले अपनी एम.फिल. कर रही बेटी के भविष्य को देखते हुए मात्र एक तकनीशियन और वह भी सिर्फ एक स्नातक, को उस के लायक न मानते थे.

गजेश महत्त्वाकांक्षी था और अपनी महत्त्वाकांक्षा के चलते एक बार वह शेयर बाजार में 50 हजार की रकम डुबो चुका था. इस के बाद भी गजेश ने 2-3 ऐसे बिजनेस अपने पुराने दोस्तों के साथ मिल कर किए थे जिस का ‘कखग’ भी वह नहीं जानता था. नतीजा उस घुड़सवार जैसा ही हुआ था जो पहली बार घुड़सवारी करता है.

इस तरह अपने पिता के लगभग 2 लाख रुपए गजेश डुबो चुका था. मजे की बात यह है कि मेरे साथ लगभग आधा दिन गुजारने वाले गजेश ने अपने इन कारनामों को भी मुझ से छिपा कर अंजाम दिया था. मुझे तो तब पता चला जब तकाजे वाले गजेश को ढूंढ़ते हुए मेरे नर्सिंग होम के चक्कर लगाते नजर आए.

एक दिन मैं ने गजेश को अपने पास बैठा कर कहा था, ‘यह सब क्या है गजेश, अगर तुम्हें कोई काम करना ही था तो पहले मुझ से सलाह ले ली होती. बड़े होने के नाते कुछ अनुभव तो मैं भी रखता हूं, कोई अच्छी सलाह ही तुम्हें देता.’

गजेश ने उस दिन अपनी महत्त्वाकांक्षा फिर मेरे सामने दोहराई थी कि वह सारी उम्र तकनीशियन बन कर नहीं सड़ना चाहता है, बल्कि किसी व्यापार के जरिए धन कमा कर बहुत बड़ा आदमी बनना चाहता है. उस की योजना के बारे में पूछने पर गजेश ने मुझे बताया था कि यह शहर विस्तार के पथ पर अग्रसर है तो क्यों न हम इस नर्सिंग होम को ‘अस्पताल शृंखला’ के रूप में फैलाएं.

एक बार तो मैं ने गजेश की योजना को उस की कल्पना की कोरी उड़ान बता कर नजरअंदाज कर दिया लेकिन जब उस ने यह बताया कि वह शहर से 10 किलोमीटर दूर एक नई निर्माणाधीन कालोनी में सस्ते में जगह ले चुका है और अगर मैं अपना नाम दे कर अनीता को साथ ले कर इस दिशा में कदम उठाऊं तो भविष्य में उस के लिए बहुत अच्छा रहेगा. इस प्रस्ताव पर मैं ने गंभीरता से सोचा था.

एक तो मैं अपनी स्थिति से पूर्णतया संतुष्ट था, दूसरे, रामकरण अंकल के एहसानों का कुछ बदला चुकाने का मौका देख कर मैं ने हामी भर दी. तुरंत युद्धस्तर पर भवननिर्माण का काम शुरू हो गया और अब से ठीक 5 साल पहले वह घड़ी भी आ गई थी जब विधिवत ‘पटेल गु्रप्स आफ हास्पिटल्स’ अस्तित्व में आया था, जिस का मैनेजिंग डायरेक्टर मैं ने अनीता को बनाया था. बस, यहीं से शुरू होती है मेरी चाहत की कहानी, कदम दर कदम धोखे की, जो आज इस अंजाम पर पहुंची है.

गजेश के साथ यह तय हुआ कि मैं अनीता को अपने साथ रख कर डेढ़ साल तक उसे अस्पताल मैनेजमेंट के गुर सिखाऊंगा जिस से कि वह सबसेंटर को पूरी तरह संभाल सके और मैं घूमघूम कर अपनी शाखाओं को संभालता रहूंगा.

मैं शुरू से ही अपने इस काम में पूरे उत्साह से लग गया. अपने हर डाक्टर को अनीता से मिलवाया, किस को कैसे हैंडल करना है, इस के गुर बताए, यहां तक कि मैं खुद परदे के पीछे हो गया और सामने परदे पर अनीता की छवि पेश करने लगा. मुझ पर उसे आगे बढ़ाने का जैसे जनून सा सवार हो गया था. मैं चाहने लगा था कि दुनिया अनीता को शहर की नंबर वन बिजनेस लेडी के रूप में जाने, क्योंकि उस ने मुझे अपनी यही चाहत बताई थी और उस की चाहत को पूरा करना मैं ने अपना लक्ष्य बना लिया था.

अनीता की ओर से मुझे पहला धक्का तब लगा जब 6 महीने बाद उस ने यह बताया कि वह गर्भवती है. न जाने क्यों पहली बार मैं अपने को ठगा सा महसूस करने लगा. कहां तो मैं कल्पना कर रहा था कि साल भर में वह मेरे कंधे से कंधा मिला कर इस अस्पताल शृंखला को आगे बढ़ाने में मेरी मदद करेगी और कहां अभी से वह परिवार बढ़ाने में ही अपना सुख देख रही है, जबकि उस की बड़ी बच्ची अभी मात्र डेढ़ साल की ही थी.
हालांकि मुझे यह सोचने का हक नहीं था मगर उस से भावनात्मक रूप से शायद मैं इतना जुड़ गया था कि अपने सिवा किसी और से उस के रिश्ते को भी नकारने लगा था. अब तक अनीता सिर्फ दोपहर तक ही मेरे साथ रहती थी, जबकि मैं चाहता था कि वह सुबह से शाम तक मेरे साथ रहे और अस्पताल के संचालन में मेरी तरह वह भी पूरी डूब जाए.

मैं ने किसी तरह से यह कड़वा घूंट हजम किया ही था कि अनीता ने एक नई योजना बना ली. उस के कहने पर मैं ने अपनी अस्पताल शृंखला को कंप्यूटरी- कृत किया और अब वह चाहती थी कि स्वयं कंप्यूटर सेंटर जा कर कंप्यूटर सीखे. मैं ने उसे समझाया कि अभी तुम अस्पताल में 5-6 घंटे ही दे पाती हो, कंप्यूटर सीखने जाओगी तो यह समय और भी कम हो जाएगा, और फिर तुम्हें कंप्यूटर सीख कर करना भी क्या है. लेकिन उस की जिद के आगे मेरी एक न चली और अब अस्पताल में उस का समय केवल 2 घंटे का ही रह गया. मैं ने दिल को यह सोच कर तसल्ली दी कि 6 महीने बाद तो अनीता मुझे पूरा समय देगी ही, लेकिन तभी उस ने एक बेटी को जन्म दिया और 3 महीने के लिए वह घर बैठ गई.

शहर में पहला फैशन डिजाइनिंग कोर्स खुला तो अनीता ने नर्सिंग होम के कामों में मुझे सहयोग करने के बजाय 2 साल का डिजाइनिंग कोर्स करने की जिद पकड़ ली और मैं ने उस की यह इच्छा भी पूरी की. धीरेधीरे मैं उस के इस नए काम में इतना डूब गया कि मेरे मिलने वाले मजाक में मुझे टेलर मास्टर कहने लगे.

ड्रेस डिजाइनिंग के कोर्स में अनीता के फर्स्ट आने के जनून में मैं इतना खो गया कि अब अपने अस्पताल को एक जूनियर सर्जन के हवाले कर के अनीता के साथ घूमता, कभी उसे क्लास में ले जाता तो कभी प्रेक्टिकल के लिए कपड़ा, धागे, सलमेसितारे लेने बाजार के चक्कर काटने लग जाता. नतीजा, मेरा बिजनेस घट कर आधा रह गया, लेकिन मैं न चेता क्योंकि तब मुझ पर अनीता का नशा छाया हुआ था.

मेरी एकमात्र चाहत यही थी कि अनीता जिस क्षेत्र में भी जाए, नंबर वन रहे और वह दुनिया से कहे कि देखो, यह वह इनसान है जिस के कारण आज मैं तरक्की की बुलंदी पर हूं. जब वह एकांत में मुझे यह श्रेय दे कर कहती कि मैं उस का सबकुछ हूं तो मैं फूला नहीं समाता था. और इसी तरह की एक भावनात्मक घड़ी में एकदिन वह समर्पित भी हो गई.

आखिर वह दिन आया जब अनीता को डिजाइनिंग सेंटर द्वारा आयोजित एक शानदार समारोह में बेस्ट फैशन डिजाइनर की उपाधि हासिल हुई. मुझे धक्का तो उस दिन लगा जब मुझे उस समारोह में अपने साथ ले जाने लायक उस ने न समझा. अगले दिन के अखबार भी मुझे मुंह चिढ़ा रहे थे. शहर की बेस्ट फैशन डिजाइनर अनीता ने अपनी सफलता का पूरा श्रेय अपने पति को दिया, जिन के ‘मार्गदर्शन’ और ‘सहयोग’ के बिना वह यह उपलब्धि हासिल न कर पाती.

उस दिन मुझे पहली बार लगा कि मैं सिर्फ एक सीढ़ी मात्र हूं जिस पर पैर रख कर अनीता सफलता के पायदान चढ़ना चाहती है और इस काम में उस के पति गजेश का उसे पूरा समर्थन हासिल है. होता भी क्यों न. मुझ जैसा एक काठ का उल्लू जो उसे मिल गया था, जिस के बारे में वह समझ चुकी थी कि मैं उस की किसी भी इच्छा के खिलाफ नहीं जा सकता था. उस की सब इच्छाएं मैं ने पूरी कीं और जब श्रेय लेने की बारी आई तो पतिदेव सामने आ गए.

अब मैं अंदर ही अंदर घुटने लगा, किसी से कुछ कह सकता नहीं था क्योंकि मैं ने अपनी बीवी तक को इस जनून के चलते पिछले 3 साल से अनदेखा कर रखा था और हमारे बीच के संबंध तनावपूर्ण नहीं तो कम से कम मधुर भी नहीं रह गए थे. वह पढ़ीलिखी समझदार औरत थी लेकिन सबकुछ देखजान कर भी चुप थी, तो वजह अनीता का रामकरण अंकल की बहू होना था, जिसे वह अपने पिता के समान ही मानती थी.

अनीता की बेवफाई से टूटा मैं अपने दर्द किस के साथ बांटता, क्योंकि घरपरिवार, नातेरिश्तेदार, यारदोस्त सब तो मुझ से दूर हो गए थे. ऐसे मौके पर मैं नशे की गोलियों का सहारा लेने लगा. डाक्टर होने की वजह से मुझे ये गोलियां सहज उपलब्ध थीं. धीरेधीरे हालत यह हो गई कि मैं अस्पताल में सुबह ही नशे में गिरतापड़ता पाया जाने लगा. घर पर भी नशे की झोंक में अनीता का गुस्सा मैं अपने बीवीबच्चों पर निकालने लगा और धीरेधीरे बच्चे मुझ से दूर होने लगे.

नशे की मेरी लत अब और भी बढ़ गई थी. तभी एक दिन सुबह उठने पर मुझे लगा कि मेरे दाएं हाथ ने लकवे के कारण काम करना बंद कर दिया है, मैं अपाहिज हो गया. 2 दिन तो मैं ने शौक की स्थिति में गुजारे लेकिन फिर इसे ही अपनी नियति मान कर काम पर आना शुरू कर दिया. नए रखे कारचालक की मदद से कार में बैठ कर अस्पताल आ जाता. सर्जरी के लिए तो अब मैं पूरी तरह से अपने जूनियर सर्जन पर निर्भर हो गया, लेकिन दिल में फिर भी एक चाह थी कि शायद अब अनीता आएगी और गंभीरतापूर्वक अस्पताल को संभालेगी.

मेरी यह हसरत कभी पूरी न हो पाई. हां, मेरी बीमारी का सहारा ले कर अस्पताल में गजेश की दखलंदाजी बढ़ती गई. उस दिन तो हद ही हो गई जब एक पार्टी में मेरे सीनियर डा. हेमेंद्र ने मेरा परिचय किन्हीं मि. सिंघवी से ‘पटेल गु्रप्स आफ हास्पिटल्स’ के रूप में करवाया तो सिंघवी अविश्वास से मेरी तरफ देखते हुए कहने लगे कि उस के मालिक तो मेरे दोस्त मि. गजेश हैं, ये कौन हैं? दूसरा झटका मुझे गजेश के पड़ोसी वर्माजी ने यह पूछ कर दिया कि और आप भी गजेशजी के अस्पताल में कार्यरत हैं?

मैं दंग रह गया. अपने ही अस्पताल में मैं अपरिचित हो गया. मेरी आंखें खुलीं, लेकिन अभी भी अनीता के प्यार के खुमार ने जकड़ रखा था मुझे, हालांकि वह अब मुझ से खिंची सी रहने लगी थी.

इसी दौरान मेरे अस्पताल में एक मरीज की मौत को ले कर हंगामा मच गया. शहर के सभी अखबारों ने इस घटना को नमकमिर्च लगा कर छापा. इस घटना के बाद मेरे रहेसहे व्यापारिक संबंध भी कन्नी काटने लगे और व्यावसायिक दृष्टि से मैं धरातल पर आ गया. अब अनीता ने नजरें बिलकुल फेर लीं और खुलेआम मेरी बरबादी का जिम्मेदार वह मुझे ही बताने लगी. उस वक्त तो मेरी हैरानी की सीमा न रही जब उस ने मुझे कहा कि पिछले कई सालों से उस के पति गजेश ने अस्पताल को संभाल रखा था, वरना तुम्हारी वजह से तो यह अस्पताल चलने से पहले ही बंद हो जाता.

आज शाम को एक छोटी सी बात पर गजेश बदतमीजी पर उतर आया और मेरे कर्मचारियों के सामने वह चिल्ला- चिल्ला कर कहने लगा कि पिछले कई सालों से मैं तुम्हें सहन कर रहा हूं. यह सुन कर मैं सन्न रह गया, लेकिन फिर मैं ने संभल कर कहा, ‘मेरे दोस्त, तुम वाकई मुझे सहन कर रहे हो तो अब कोई मजबूरी नहीं है मुझे सहन करने की, अब तो मैं अपाहिज हो चुका हूं.’

गजेश चीख कर बोला, ‘तू मुझ से कह दे, मैं कल से तेरे अस्पताल में झांकूंगा भी नहीं.’ मैं ने कहा, ‘कल किस ने देखा है, मैं आज ही कह रहा हूं,’ वह तुरंत मुड़ा और निकल गया वहां से, जैसे कि वह यहां से जाने का बहाना ही तलाश रहा हो.

उस के जाने के घंटे भर बाद अनीता का फोन आया, ‘तुम ने जो कुछ किया वह सब एक सोचीसमझी स्कीम के तहत किया. तुम्हें मेरा शरीर पाना था सो वह तुम पा गए. तुम इनसान नहीं, हैवान हो. मेरे देवता समान पति को तुम ने बरबाद कर दिया.’ अनीता के कहे ये शब्द मुझे अतीत की इन कड़वी यादों में झांकने को मजबूर कर रहे थे और मैं अब भी यही सोच रहा हूं कि प्लान से मैं चला या गजेश, हैवान मैं हुआ या गजेश, उत्तर आप ही दें, न्याय आप ही करें.

पिछवाड़े की डायन : ओझाओं और पुजारियों की ऐशगाह क्यों था वह गांव

इस वीरान घाटी में रहते हुए मुझे तकरीबन एक साल हो गया था. वहां तरहतरह के किस्से सुनने को मिलते थे. घाटी के लोग तमाम अंधविश्वासों को ढोते हुए जी रहे थे.

तांत्रिक और पाखंडी लोग अपने हिसाब से तरहतरह की कहानियां गढ़ कर लोगों को डराते रहते थे. वह घाटी ओझाओं और पुजारियों की ऐशगाह थी. पढ़ाईलिखाई का वहां माहौल ही नहीं था.

जब मैं घाटी में आया था, तो लोगों द्वारा मुझे तमाम तरह की चेतावनियां दी गईं. मुझे बताया गया कि मधुगंगा के किनारे दिन में पिशाच नाचते रहते हैं और रात में भूत सड़क पर खुलेआम बरात निकालते हैं.

एकबारगी तो मैं बुरी तरह से डर गया था, लेकिन नौकरी की मजबूरी थी, इसलिए मुझे वहां रुकना पड़ा. बस्ती से तकरीबन सौ मीटर दूर मेरा सरकारी मकान था. वहां से मधुगंगा साफ नजर आती थी. मेरे घर और मधुगंगा के बीच 2 सौ मीटर चौड़ा बंजर खेत था, जिस में बस्ती के जानवर घास चरते थे.

मेरे घर से एकदम लगी कच्ची सड़क आगे जा कर पक्की सड़क से जुड़ती थी. अस्पताल भी मेरे घर से आधा किलोमीटर दूर था.

मैं एक डाक्टर की हैसियत से वहां पहुंचा था. जाते ही डरावनी कहानियां सुन कर मेरे होश उड़ गए. कुछ दिनों तक मैं वहां पर अकेला रहा, लेकिन मुझे देर रात तक नींद नहीं आती थी.

विज्ञान पढ़ने के बावजूद वहां का माहौल देख कर मैं भी डरने लगा था. रात को जब खिड़की से मधुगंगा की लहरोें की आवाज सुनाई देती, तो मेरी घिग्घी बंध जाती थी. आखिरकार मैं ने गांव के ही एक नौजवान को नौकर रख लिया. वह भग्गू था. बस्ती के तमाम लोगों की तरह वह भी घोर अंधविश्वासी निकला.

मेरे मना करने के बावजूद वह उन्हीं बातों को छेड़ता रहता, जो भूतप्रेतों और तांत्रिकों के चमत्कारों से जुड़ी होती थीं.भग्गू के आने से मुझे बड़ा सुकून मिला था. वह मजेदार खाना बनाता था और घर के तमाम काम सलीके से करता था. वह रहता भी मेरे साथ ही था. उसे साथ रखना मेरी मजबूरी भी थी. उस बड़े घर में अकेले रहना ठीक नहीं था.

कहीसुनी बातों से कोई खौफ न भी हो, तो भी बात करने के लिए एक सहारा तो चाहिए ही था. भग्गू ने मेरा अकेलापन दूर कर दिया था.

वहां नौकरी करते हुए एक साल बीत गया. इस बीच मैं ने पिशाचों की कहानियां तो खूब सुनीं, पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी भूतपिशाच या चुड़ैल का सामना करना पड़ा हो.

अब तो मैं वहां रहने का आदी हो गया था. इलाके के लोग मुझ से खुश रहते थे. दिन हो या रात, मैं मरीजों को हर समय देखने के लिए तैयार रहता था. मुझे इन गरीब लोगों की सेवा करने में बड़ा सुकून मिलता था.

आमतौर पर मेरे पास मरीज तब आते थे, जब बहुत देर हो चुकी होती थी. पहले वे लोग झाड़फूंक कराते थे, फिर तंत्रमंत्र आजमाते थे और आखिर में अस्पताल आते थे. इसी वजह से कई लोग भयानक बीमारियों की चपेट में आ गए थे.

मैं ने महसूस किया था कि तांत्रिक, ओझा और नीमहकीम जानबूझ कर लोगों का सही इलाज न कर अपने जाल में फंसा लेते हैं और फिर उन का जम कर शोषण करते हैं. घाटी में मैं इलाज के लिए मशहूर हो गया था. मुझ से उन पाखंडी लोगों को बेहद चिढ़ होती थी.

स्वोंगड़ शास्त्री की अगुआई में उन्होंने मेरी खिलाफत भी की, लेकिन वे अपने मकसद में कामयाब नहीं हुए. यहां तक कि उन्होंने मुझे नीचा दिखाने के लिए तमाम तरह के हथकंडे अपनाए. आखिरकार उन्होंने हार मान ली.

स्वोंगड़ शास्त्री के लिए मेरे मन में ऐसी नफरत भर गई थी कि मैं ने उस से बात करना ही बंद कर दिया था. उस धूर्त से शायद मैं कभी नहीं बोलता, मगर एक घटना ने मेरा मुंह खुलवा दिया. वह पूर्णिमा की रात थी. धरती चांदनी की दूधिया रोशनी में नहा रही थी. घर के पिछवाड़े की खिड़की से मैं मधुगंगा की मचलती लहरों को साफ देख सकता था. धरती का यह रूप कभीकभार ही देखने को मिलता था. उस रात को मैं ने जो कुछ भी देखा, वह रोंगटे खड़ा कर देने वाला था.

रात के 10 बज चुके थे. बस्ती के लोग गहरी नींद में सो रहे थे. पिछलीरात भयंकर तूफान आया था, इसलिए बिजली गुल थी. मैं चारपाई पर बैठा पिछवाड़े की खिड़की से बाहर का नजारा देख रहा था.

अभी मैं मस्ती में डूबा ही था कि सामने बंजर खेत में झाडि़यों के बीच एक चेहरा दिखाई दिया. सफेद धोती में लिपटी एक औरत घुटनों के बल बैठी थी. उस के सिर का पल्लू पूरे मुंह को ढके हुए था. उस का दायां हाथ नहीं हिल रहा था, लेकिन बायां हाथ लगातार हिलता जा रहा था. ऐसा लगता था, मानो अपना हाथ हिला कर वह मुझे अपनी तरफ बुला रही है.

मेरी रगों में दौड़ता खून जैसे जम कर बर्फ बन गया. मेरे माथे पर पसीने की बूंदें निकल आईं. काफी देर तक मैं उस चेहरे को देखता रहा.

वह अपनी जगह उसी तरह बैठी हाथ हिला रही थी. मैं टौर्च जला कर भग्गू के कमरे की ओर गया. वह सो रहा था. मैं ने उसे जोर से हिला कर जगाना चाहा, पर वह बारबार ‘घूंघूं’ करता और करवट बदल कर मुंह फेर लेता था हार कर मैं ने उस के कान में फुसफुसाया, ‘‘उठो भग्गू, पिछवाड़े में देखो तो क्या है?’’

‘‘क्या है…?’’ उस की नींद उड़ गई. वह सकपका कर उठ बैठा.

‘‘चलो मेरे साथ… अपनी आंखों से देख लो…’’ कहते हुए मैं भग्गू को अपने कमरे तक ले आया.

भग्गू ने ज्यों ही उस चेहरे को देखा, वह कांपता हुआ मुझ से लिपट गया. सामने का नजारा देखते ही वह देर तक हांफता रहा और फिर बोला, ‘‘आज तो मौत सामने आ गई, साहब. डायन है वह. उस ने हमें देख लिया है, इसलिए हाथ हिला कर बुला रही है.

‘‘अब स्वोंगड़ शास्त्री ही हमें बचा सकते हैं. पर उन के घर जाएं कैसे? बाहर निकलते ही दुष्ट डायन हमारा खून पी जाएगी. मर गए आज…’’

अचानक बाहर सड़क से खांसी की आवाज सुनाई दी. मेरी जान लौट आई. जान बचाने को आतुर भग्गू ने लपक कर दरवाजा खोला और बाहर झांका. अचानक उस का चेहरा खिल उठा. कंधे पर झोला लटकाए स्वोंगड़ शास्त्री आते हुए दिखे.

उन्हें देखते ही भग्गू जोर से चिल्लाया, ‘‘बचाओबचाओ… शास्त्रीजी, इस दुष्ट डायन से हमें बचाओ…’’

मैं ने पिछवाड़े की ओर देखा. वह डायन अभी भी हाथ हिला कर हमें बुला रही थी. इसी बीच स्वोंगड़ शास्त्री भी वहां आ गया.डरा हुआ भग्गू उन के पैर पकड़ कर गिड़गिड़ाने लगा, ‘‘किस्मत से ही आप इतनी रात को दिख गए, शास्त्रीजी. आप नहीं आते, तो डायन हमें मार डालती…’’

‘‘मैं तो पास वाले गांव से पूजा कर के लौट रहा था, भग्गू. तू चिल्लाया तो चला आया, वरना साहबों की चौखट लांघना मेरे जैसे तांत्रिक की हैसियत में कहां…?’’

शास्त्री मुझे ही सुना रहा था, लेकिन मेरी समस्या यह थी कि उस समय मुझे उस की मदद चाहिए थी. मैं ने मुड़ कर पिछवाड़े की ओर देखा. डायन अभी भी हाथ हिलाए जा रही थी.

मैं डर गया और माफी मांगते हुए बोला, ‘‘माफ करना, शास्त्रीजी. भूलचूक हो ही जाती है. इस समय आप ही हमें बचा सकते हैं. वह देखिए पिछवाड़े में. 2 घंटे बीत गए, पर वह डायन अभी भी वहीं बैठी है. आप कुछ कीजिए.’’

पिछवाड़े में बैठी डायन का चेहरा देख कर एकबारगी स्वोंगड़ शास्त्री भी डर गया. उस के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. डर के मारे उस का हलक सूख गया. भग्गू से एक लोटा पानी मांग कर उस ने पूरा लोटा गटक लिया.

फिर स्वोंगड़ शास्त्री बोला, ‘‘पहली बार मैं इतनी अनाड़ी चुड़ैल को देख रहा हूं. आज यह यहां तक आ पहुंची है. बहुत भयंकर है यह… लेकिन, तुम चिंता न करो. मैं मंत्र पढ़ता हूं.’’स्वोंगड़ शास्त्री मंत्र पढ़ने लगा. मंत्र पढ़ते हुए उस का चेहरा इतना भयानक हो रहा था कि डायन से कम, उस से ज्यादा डर लग रहा था. उस ने आंखें मूंद ली थीं और मंत्रों की आवाज के साथ हाथों से अजीबअजीब इशारे भी कर रहा था.

अचानक जोर की हवा चली और पिछवाड़े में बैठी डायन ने दिशा बदल ली. उस ने सिर झुका लिया और उस का हिलता हाथ भी थम गया. भग्गू के चेहरे पर मुसकान तैर गई, लेकिन मेरा माथा ठनक गया.

‘‘धन्यवाद शास्त्रीजी, आप ने बहुत मंत्र पढ़ लिए, लेकिन यह डायन अपनी जगह से हिल नहीं रही है. अब मैं खुद जा कर इस से निबटता हूं,’’ कहते हुए मैं बाहर को लपका.

‘‘पगला गया है क्या? खून चूस डालेगी वह तेरा…’’ शास्त्री ने गुस्से में आ कर कहा, लेकिन मैं बाहर निकल कर डायन की ओर बढ़ा.

‘‘रुक जाओ साहब…’’ भग्गू चिल्लाया, मगर तब तक मैं डायन के एकदम सामने जा पहुंचा था.

एक सूखी झाड़ी पर पुरानी धोती कुछ इस तरह से लिपटी थी कि दूर से देखने पर वह घुटनों के बल बैठी किसी औरत की तरह लगती थी. टहनी पर लटका पल्लू जब हवा के झोंकों से डोलता, तो ऐसा लगता था जैसे वह हाथ हिला कर किसी को बुला रही हो.

सचाई जान कर मुझे अपनी बेवकूफी पर हंसी आने लगी. मैं ने झाड़ी पर लिपटी वह पुरानी धोती समेटी और वापस लौट आया. मुझे देखते ही स्वोंगड़ शास्त्री का चेहरा उतर गया. सिर झुकाए चुपचाप वह अपने घर को चल दिया.

‘‘इस निगोड़ी झाड़ी ने कितना डराया साहब, मैं तो डर के मारे अकड़ ही गया था,’’ भग्गू ने कहा.

‘‘तुम ने अपने मन को इस तरह की किस्सेकहानियां सुनसुन कर इतना डरा लिया है कि तुम्हारी नजर भूतप्रेतों के अलावा अब कुछ देखती ही नहीं. तुम्हारे इसी डर के सहारे स्वोंगड़ शास्त्री जैसे लोग चांदी काट रहे हैं,’’ मैं ने भग्गू को समझाया.

‘‘ठीक कहते हो साहब…’’ घड़ी की ओर देख कर भग्गू ने कहा.

रात के 12 बज चुके थे. मैं रातभर यही सोचता रहा कि भूतों का भूत इन सीधेसादे लोगों के दिमाग से कब भागेगा? स्वोंगड़ शास्त्री जैसे तांत्रिकों की दुकानदारी आखिर कब तक चलती रहेगी?

सैक्स में ऐसे करें पार्टनर को संतुष्ट

आजकल के कपल्स सैक्स को सिर्फ एक प्रक्रिया न मान कर उस का भरपूर आनंद उठाना चाहते हैं और यह बात बेहद अच्छी भी है. सैक्स करने से कपल्स के बीच की बौंडिंग और भी ज्यादा अच्छी बनती है और सैक्स आप को अपने पार्टनर के और भी करीब ले जाता है. कहा जाता है कि हैल्दी सैक्स मतलब हैल्दी रिलेशन.

पार्टनर से करें सैक्स की बातें

कपल्स को अपने पार्टनर की हर बात जानने का पूरा पूरा हक है और जब बात सैक्स की आती है तो कपल्स को पता होना चाहिए कि उन के पार्टनर को किन चीजों से आनंद मिलता है.

सैक्स हमेशा एकदूसरे की रजामंदी से किया जाता है ताकि दोनों पार्टनर्स सैक्स का भरपूर आनंद उठा सकें। पर आज भी कई लोग हैं जो अपने पार्टनर से सैक्स की बात नहीं कर पाते और उन्हें नहीं बता पाते कि उन्हें सैक्स में क्या सब करना पसंद है.

ऐक्सट्रा मैरिटल अफेयर का बड़ा कारण

सैक्स हमारे रिलेशन का वह पार्ट है जिसे हम कभी भी इग्नोर नहीं कर सकते और न ही हमें इसे इग्नोर करना चाहिए. ऐक्सट्रा मैरिटल अफेयर का सब से बड़ा कारण भी यही है कि वे अपने पार्टनर के साथ अच्छे से सैक्स का आनंद नहीं ले पाते.

इसलिए हमें हमेशा इस बात का खास खयाल रखना चाहिए कि हमें अपने पार्टनर के साथ क्याक्या करना चाहिए जिस से कि हमारा पार्टनर पूरी तरह संतुष्ट हो जाएं.

ऐसे करें पार्टनर को संतुष्ट

हमें सिर्फ सैक्स पर फोकस नहीं करना चाहिए बल्कि सैक्स से पहले और सैक्स के बाद हमें अपने पार्टनर के साथ रोमांटिक बातें करनी चाहिए और जानने की कोशिश करनी चाहिए कि वे सैक्स को किस तरह ऐंजौय करना चाहते हैं. ऐसा करने से आप का पार्टनर न सिर्फ पूर्ण संतुष्टी का अनुभव करेगा, बल्कि रिश्ते में ताउम्र गरमाहट बनी रहेगी.

सैक्स के दौरान अगर आप को अपने पार्टनर की कोई बात या कोई ऐक्शन अच्छा नहीं लग रहा तो आप उन से डाइरैक्ट बोल सकते हैं ताकि वे इस बात का खास खयाल रख सकें.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें