आखिरकार भाजपा घाटी की सियासत में बुरी तरह चूक गई. धारा 370 हटा कर ‘नया कश्मीर’ का वादा करने वाली भाजपा, कश्मीरी पंडितों को घर वापसी का सपना दिखाने वाली भाजपा और अराजकता और अशांति फैलाने के नाम पर क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं को लम्बे समय तक नजरबंद रखने वाली भाजपा कश्मीरी जन के मिजाज को भांपने में पूरी तरह असफल हुई.
जम्मू-कश्मीर में 10 साल बाद हुए विधानसभा चुनाव में जनता ने भाजपा को नकार कर अपना मत नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस गठबंधन की झोली में डाल दिया. वहीं क्षेत्रीय पार्टियों में किसी को दो तो किसी को चार सीटों पर विजय हासिल हुई है. पीडीपी और अवामी इत्तेहाद पार्टी जैसे दल इस बार किंगमेकर की भूमिका में आ गए हैं. जबकि पिछले विधानसभा चुनाव में पीडीपी ने भाजपा के साथ मिल कर सरकार बनाई थी.
इलेक्शन कमीशन की वेबसाइट के अनुसार जम्मू कश्मीर में 42 सीटों पर नेशनल कांफ्रेस, 29 सीटों पर बीजेपी, 6 सीटों पर कांग्रेस 3 पर पीडीपी और 8 पर अन्यों को जीत हासिल हुई है. चुनाव से पहले नेशनल कांफ्रेस और कांग्रेस का गठबंधन था तो दोनों की सीटें मिला कर 48 का आंकड़ा बनता है जो बहुमत के 46 सीटों के आंकड़े को पार करता है. इस लिहाज से माना जा रहा है कि यह दोनों पार्टियां राज्य में सरकार बना लेंगी.
लेकिन इस चुनाव से यह समझ आया है कि भारत में अब चुनाव बाईपोलर हो रहे हैं. जनता 2 धड़ों के बीच ही चुनाव चाह रही है और इन दोनों को भाजपा और कांग्रेस लीड कर रही हैं. क्षेत्रीय पार्टियां सभी राज्यों में सिकुड़ती जा रही हैं. कहीं कहीं तो क्षेत्रीय पार्टियों का अस्तित्व ही समाप्त होता नजर आ रहा है. दूसरी तरफ कांग्रेस का वोट प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है, और वह बांटो और राज करो की नीति पर चलने वाली भाजपा को हर जगह कड़ी टक्कर दे रही है.
उल्लेखनीय है कि आजादी के बाद जम्मू और कश्मीर का राजनीतिक परिदृश्य नाटकीय रूप से बदलता रहा है. जम्मू और कश्मीर की विधानसभा सीटें 1957, 1966, 1975 और 1995 में परिसीमन के कई दौर से गुजर चुकी हैं. आखिरी प्रक्रिया 1981 की जनगणना पर आधारित थी. उसने 1996 के राज्य चुनावों की नींव रखी थी. 2022 में हुए परिसीमन से विधानसभा सीटों की संख्या बढ़ कर 90 हो गयी. जम्मू के सांबा, राजौरी और कठुआ जिलों में नए निर्वाचन क्षेत्र जोड़े गए. कश्मीर में कुपवाड़ा को एक अतिरिक्त सीट मिली. बीते एक दशक के राजनीतिक बदलाव के बाद, जम्मू और कश्मीर ने आखिरकार 2024 में एक बार फिर विधानसभा चुनाव का मुंह देखा. अब देश के अन्य राज्यों की तरह यहां की जनता भी कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेतृत्व में अपनी नई सरकार, नई शासन व्यवस्था और उसमें अपनी जगह को देखने को बेताब है.
इस बात का विश्लेषण जरूर होना चाहिए कि जम्मू कश्मीर के लिए लम्बे समय से इतनी मशक्कत करने, इतनी उठापटक करने, लोगों को जेल भेजने, लम्बे समय तक नजरबंद रखने, आतंकवाद मुक्त नया कश्मीर गढ़ने का वादा करने के बाद भी आखिर भाजपा को वहाँ की जनता ने पटखनी क्यों दी?
गौरतलब है कि 2019 में केंद्र की मोदी सरकार ने 5 अगस्त 2019 में तत्कालीन राज्यपाल सत्यपाल मलिक के कार्यकाल में (सत्यपाल मलिक ने अगस्त 2018 से 30 अक्टूबर, 2019 तक कार्य किया.) अनुच्छेद 370 को निरस्त कर जम्मू-कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा समाप्त कर दिया था और इसे केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया था. इस महत्वपूर्ण बदलाव के बाद सभी प्रशासनिक और शासन संबंधित निर्णयों की देखरेख उप-राज्यपाल को सौंप दी गयी थी, जो इस क्षेत्र पर केंद्र सरकार के सीधे नियंत्रण को दर्शाता है. 2019 के बाद से उप-राज्यपाल के पास पुलिस और भूमि संबंधित निर्णयों सहित प्रमुख क्षेत्रों की कई अहम शक्तियां निहित हो गयीं. विशेष राज्य का दर्जा समाप्त होने के बाद गिरीश चंद्र मुर्मू पहले उप-राज्यपाल थे जिन्हें नए पुनर्गठित केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर का प्रबंधन करने के लिए नियुक्त किया गया. वे 31 अक्टूबर, 2019 से लेकर 6 अगस्त, 2020 तक कार्यरत रहे. उनके कार्यकाल ने एक नए प्रशासनिक युग की शुरुआत हुई. एलजी ने कई जिम्मेदारियां संभालीं जो पहले राज्य सरकार द्वारा प्रबंधित की जाती थीं. मुर्मू के जाने के बाद, मनोज सिन्हा को 7 अगस्त, 2020 को उप-राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया गया. लेकिन इन उप-राज्यपाल का काम घाटी के लोगों की समझ से परे रहा. उनकी अपनी रोजमर्रा की समस्याओं को सुनने और उनका निस्तारण करने वाला कोई नहीं था. अगर किसी की जमीन पर कब्जा हो गया या किसी की बात पुलिस नहीं सुन रही तो वह अपनी शिकायत लेकर सीधे उप-राज्यपाल के पास तो नहीं जा सकता. लिहाजा शासन से जनता का मोहभंग रहा.