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फूफा ने ब्लैकमेल कर रखी ऐसी घिनौनी डिमांड, प्रेमी ने उतारा मौत के घाट

‘‘रजनी, क्या बात है आजकल तुम कुछ बदलीबदली सी लग रही हो. पहले की तरह बात भी नहीं करती.

मिलने की बात करो तो बहाने बनाती हो. फोन करो तो ठीक से बात भी नहीं करतीं. कहीं हमारे बीच कोई और तो नहीं आ गया.’’ कमल ने अपनी प्रेमिका रजनी से शिकायती लहजे में कहा तो रजनी ने जवाब दिया, ‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है, मेरे जीवन में तुम्हारे अलावा कोई और आ भी नहीं सकता.’’

रजनी और कमल लखनऊ जिले के थाना निगोहां क्षेत्र के गांव अहिनवार के रहने वाले थे. दोनों का काफी दिनों से प्रेम संबंध चल रहा था.

‘‘रजनी, फिर भी मुझे लग रहा है कि तुम मुझ से कुछ छिपा रही हो. देखो, तुम्हें किसी से भी डरने की जरूरत नहीं है. कोई बात हो तो मुझे बताओ. हो सकता है, मैं तुम्हारी कोई मदद कर सकूं.’’ कमल ने रजनी को भरोसा देते हुए कहा.

‘‘कमल, मैं ने तुम्हें बताया नहीं, पर एक दिन हम दोनों को हमारे फूफा गंगासागर ने देख लिया था.’’ रजनी ने बताया.

‘‘अच्छा, उन्होंने घर वालों को तो नहीं बताया?’’ कमल ने चिंतित होते हुए कहा.

‘‘अभी तो उन्होंने नहीं बताया, पर बात छिपाने की कीमत मांग रहे हैं.’’ रजनी बोली.

‘‘कितने पैसे चाहिए उन्हें?’’ कमल ने पूछा.

‘‘नहीं, पैसे नहीं बल्कि एक बार मेरे साथ सोना चाहते हैं. वह धमकी दे रहे हैं कि अगर उन की बात नहीं मानी तो वह मेरे घर में पूरी बात बता कर मुझे घर से निकलवा देंगे.’’ रजनी के चेहरे पर चिंता के बादल छाए हुए थे.

‘‘तुम चिंता मत करो, बस एक बार तुम मुझ से मिलवा दो. हम उस की ऐसी हालत कर देंगे कि वह बताने लायक ही नहीं रहेगा. वह तुम्हारा सगा रिश्तेदार है तो यह बात कहते उसे शरम नहीं आई?’’ रजनी को चिंता में देख कमल गुस्से से भर गया.

‘‘अरे नहीं, मारना नहीं है. ऐसा करने पर तो हम ही फंस जाएंगे. जो बात हम छिपाना चाह रहे हैं, वही फैल जाएगी.’’ रजनी ने कमल को समझाते हुए कहा.

‘‘पर जो बात मैं तुम से नहीं कह पाया, वह उस ने तुम से कैसे कह दी. उसे कुछ तो शरम आनी चाहिए थी. आखिर वह तुम्हारे सगे फूफा हैं.’’ कमल ने कहा.

‘‘तुम्हारी बात सही है. मैं उन की बेटी की तरह हूं. वह शादीशुदा और बालबच्चेदार हैं. फिर भी वह मेरी मजबूरी का फायदा उठाना चाहते हैं.’’ रजनी बोली.

‘‘तुम चिंता मत करो, अगर वह फिर कोई बात करे तो बताना. हम उसे ठिकाने लगा देंगे.’’ कमल गुस्से में बोला.  इस के बाद रजनी अपने घर आ गई पर रजनी को इस बात की चिंता होने लगी थी.

ब्लैकमेलिंग में अवांछित मांग

38 साल के गंगासागर यादव का अपना भरापूरा परिवार था. वह लखनऊ जिले के ही सरोजनीनगर थाने के गांव रहीमाबाद में रहता था. वह ठेकेदारी करता था. रजनी उस की पत्नी रेखा के भाई की बेटी थी.

उस से उम्र में 15 साल छोटी रजनी को एक दिन गंगासागर ने कमल के साथ घूमते देख लिया था. कमल के साथ ही वह मोटरसाइकिल से अपने घर आई थी. यह देख कर गंगासागर को लगा कि अगर रजनी को ब्लैकमेल किया जाए तो वह चुपचाप उस की बात मान लेगी. चूंकि वह खुद ही ऐसी है, इसलिए यह बात किसी से बताएगी भी नहीं. गंगासागर ने जब यह बात रजनी से कही तो वह सन्न रह गई. वह कुछ नहीं बोली.

गंगासागर ने रजनी से एक दिन फिर कहा, ‘‘रजनी, तुम्हें मैं सोचने का मौका दे रहा हूं. अगर तुम ने मेरी बात नहीं मानी तो घर में तुम्हारा भंडाफोड़ कर दूंगा. तुम तो जानती ही हो कि तुम्हारे मांबाप कितने गुस्से वाले हैं. मैं उन से यह बात कहूंगा तो मेरी बात पर उन्हें पक्का यकीन हो जाएगा और बिना कुछ सोचेसमझे ही वे तुम्हें घर से निकाल देंगे.’’

रजनी को धमकी दे कर गंगासागर चला गया. समस्या गंभीर होती जा रही थी. रजनी सोच रही थी कि हो सकता है उस के फूफा के मन से यह भूत उतर गया हो और दोबारा वह उस से यह बात न कहें.

यह सोच कर वह चुप थी, पर गंगासागर यह बात भूला नहीं था. एक दिन रजनी के घर पहुंच गया. अकेला पा कर उस ने रजनी से पूछा, ‘‘रजनी, तुम ने मेरे प्रस्ताव पर क्या विचार किया?’’

‘‘अभी तो कुछ समझ नहीं आ रहा कि क्या करूं. देखिए फूफाजी, आप मुझ से बहुत बड़े हैं. मैं आप के बच्चे की तरह हूं. मुझ पर दया कीजिए.’’ रजनी ने गंगासागर को समझाने की कोशिश की.

‘‘इस में बड़ेछोटे जैसी कोई बात नहीं है. मैं अपनी बात पर अडिग हूं. इतना समझ लो कि मेरी बात नहीं मानी तो भंडाफोड़ दूंगा. इसे कोरी धमकी मत समझना. आखिरी बार समझा रहा हूं.’’ गंगासागर की बात सुन कर रजनी कुछ नहीं बोली. उसे यकीन हो गया था कि वह मानने वाला नहीं है.

रजनी ने यह बात कमल को बताई. कमल ने कहा, ‘‘ठीक है, किसी दिन उसे बुला लो.’’

इस के बाद रजनी और कमल ने एक योजना बना ली कि अगर वह अब भी नहीं माना तो उसे सबक सिखा देंगे. दूसरी ओर गंगासागर पर तो किशोर रजनी से संबंध बनाने का भूत सवार था.

सुबह होते ही उस का फोन आ गया. फूफा का फोन देखते ही रजनी समझ गई कि अब वह मानेगा नहीं. कमल की योजना पर काम करने की सोच कर उस ने फोन रिसीव करते हुए कहा, ‘‘फूफाजी, आप कल रात आइए. आप जैसा कहेंगे, मैं करने को तैयार हूं.’’

रजनी इतनी जल्दी मान जाएगी, गंगासागर को यह उम्मीद नहीं थी. अगले दिन शाम को उस ने रजनी को फोन कर पूछा कि वह कहां मिलेगी. रजनी ने उसे मिलने की जगह बता दी.

अपने आप बुलाई मौत

18 जुलाई, 2018 को रात गंगासागर ने 8 बजे अपनी पत्नी को बताया कि पिपरसंड गांव में दोस्त के घर बर्थडे पार्टी है. अपने साथी ठेकेदार विपिन के साथ वह वहीं जा रहा है.

गंगासागर रात 11 बजे तक भी घर नहीं लौटा तो पत्नी रेखा ने उसे फोन किया. लेकिन उस का फोन बंद था. रेखा ने सोचा कि हो सकता है ज्यादा रात होने की वजह से वह वहीं रुक गए होंगे, सुबह आ जाएंगे.

अगली सुबह किसी ने फोन कर के रेखा को बताया कि गंगासागर का शव हरिहरपुर पटसा गांव के पास फार्महाउस के नजदीक पड़ा है. यह खबर मिलते ही वह मोहल्ले के लोगों के साथ वहां पहुंची तो वहां उस के पति की चाकू से गुदी लाश पड़ी थी. सूचना मिलने पर पुलिस भी वहां पहुंच गई. पुलिस ने जरूरी काररवाई कर के लाश पोस्टमार्टम के लिए भेज दी और गंगासागर के पिता श्रीकृष्ण यादव की तहरीर पर अज्ञात लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर लिया.

कुछ देर बाद पुलिस को सूचना मिली कि गंगासागर की लाल रंग की बाइक घटनास्थल से 22 किलोमीटर दूर असोहा थाना क्षेत्र के भावलिया गांव के पास सड़क किनारे एक गड्ढे में पड़ी है. पुलिस ने वह बरामद कर ली.

जिस क्रूरता से गंगासागर की हत्या की गई थी, उसे देखते हुए सीओ (मोहनलाल गंज) बीना सिंह को लगा कि हत्यारे की मृतक से कोई गहरी खुंदक थी, इसीलिए उस ने चाकू से उस का शरीर गोद डाला था ताकि वह जीवित न बच सके.

पुलिस ने मृतक के मोबाइल की काल डिटेल्स निकलवा कर उस का अध्ययन किया. इस के अलावा पुलिस ने उस की सालियों, साले, पत्नी सहित कुछ साथी ठेकेदारों से भी बात की. एसएसआई रामफल मिश्रा ने काल डिटेल्स खंगालनी शुरू की तो उस में कुछ नंबर संदिग्ध लगे.

लखनऊ के एसएसपी कलानिधि नैथानी ने घटना के खुलासे के लिए एसपी (क्राइम) दिनेश कुमार सिंह के निर्देशन में एक टीम का गठन किया, जिस में थानाप्रभारी अजय कुमार राय के साथ अपराध शाखा के ओमवीर सिंह, सर्विलांस सेल के सुधीर कुमार त्यागी, एसएसआई रामफल मिश्रा, एसआई प्रमोद कुमार, सिपाही सरताज अहमद, वीर सिंह, अभिजीत कुमार, अनिल कुमार, राजीव कुमार, चंद्रपाल सिंह राठौर, विशाल सिंह, सूरज सिंह, राजेश पांडेय, जगसेन सोनकर और महिला सिपाही सुनीता को शामिल किया गया.

काल डिटेल्स से पता चला कि घटना की रात गंगासागर की रजनी, कमल और कमल के दोस्त बबलू से बातचीत हुई थी. पुलिस ने रजनी से पूछताछ शुरू की और उसे बताया, ‘‘हमें सब पता है कि गंगासागर की हत्या किस ने की थी. तुम हमें सिर्फ यह बता दो कि आखिर उस की हत्या करने की वजह क्या थी?’’

रजनी सीधीसादी थी. वह पुलिस की घुड़की में आ गई और उस ने स्वीकार कर लिया कि उस की हत्या उस ने अपने प्रेमी के साथ मिल कर की थी.

उस ने बताया कि उस के फूफा गंगासागर ने उस का जीना दूभर कर दिया था, जिस की वजह से उसे यह कदम उठाना पड़ा. रजनी ने पुलिस को हत्या की पूरी कहानी बता दी.

गंगासागर की ब्लैकमेलिंग से परेशान रजनी ने उसे फार्महाउस के पास मिलने को बुलाया था. वहां कमल और उस का साथी बबलू पहले से मौजूद थे. गंगासागर को लगा कि रजनी उस की बात मान कर समर्पण के लिए तैयार है और वह रात साढ़े 8 बजे फार्महाउस के पीछे पहुंच गया.

रजनी उस के साथ ही थी. गंगासागर के मन में लड्डू फूट रहे थे. जैसे ही उस ने रजनी से प्यारमोहब्बत भरी बात करनी शुरू की, वहां पहले से मौजूद कमल ने अंधेरे का लाभ उठा कर उस पर लोहे की रौड से हमला बोल दिया. गंगासागर वहीं गिर गया तो चाकू से उस की गरदन पर कई वार किए. जब वह मर गया तो कमल और बबलू ने खून से सने अपने कपड़े, चाकू और रौड वहां से कुछ दूरी पर झाड़ के किनारे जमीन में दबा दिया.

दोनों अपने कपड़े साथ ले कर आए थे. उन्हें पहन कर कमल गंगासागर की बाइक ले कर उन्नाव की ओर भाग गया. बबलू रजनी को अपनी बाइक पर बैठा कर गांव ले आया और उसे उस के घर छोड़ दिया. कमल ने गंगासागर की बाइक भावलिया गांव के पास सड़क किनारे गड्ढे में डाल दी, जिस से लोग गुमराह हो जाएं. पुलिस ने बड़ी तत्परता से केस की छानबीन की और हत्या का 4 दिन में ही खुलासा कर दिया. एसएसपी कलानिधि नैथानी और एसपी (क्राइम) दिनेश कुमार सिंह ने केस का खुलासा करने वाली पुलिस टीम की तारीफ की.

कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित. कथा में रजनी परिवर्तित नाम है.

अकेली औरत को अपमानजनक लगता है करवाचौथ

आज के समय में समाज में अकेली औरतों की संख्या बढ़ती जा रही है. अकेली औरतों में कुआरियां, तलाकशुदा और विधवा महिला शामिल है. करवा चौथ वहीं महिलायें मनाती है जिनके पति होते है. कुछ क्षेत्रों में कुंवारी लड़कियां व्रत रख सकती है वह चांद को देखकर अपना व्रत तोड़ती है. तलाकशुदा और विधवाएं इस व्रत को नहीं रखती. विधवाओं के लिये तो करवाचैथ का व्रत धर्मिक रूप से मना है. हालात यह होते है कि विधवा महिलाओं को इस व्रत से दूर ही रखा जाता है. एक तरह से देखे तो यह सामाजिक ब्लैकमेल है. हर अकेली औरत के लिये यह धर्मिक अपमानजनक बात है. जैसे जैसे समाज में अकेली औरतों की संख्या बढ़ती जा रही यह हालात सामने आते जा रहे है. अकेली औरतों के सामने करवा चैथ को लेकर कई अपमानजनक हालातों का सामना करना पड़ जाता है.

लखनउ की बहुमंजिली आवासीय इमारत में अलग अलग फ्लैट में अलग अलग तरह के लोग रहते है. इनमें से नेहा अपनी 4 साल की बेटी हिमानी के साथ रहती है. नेहा सिंगल मदर है. शादी के 2 साल के बाद ही उनका पति विशाल से तलाक हो गया था. नेहा ने बिना किसी तरह के विवाद के तलाक ले लिया. वह केवल अपनी बेटी को साथ रखना चाहती थी. नेहा खुद भी एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करती थी तो वह अपनी बेटी की खुद पेरेंट्स बनना चाहती थी. नेहा के लिये तलाक के बाद अपने बल पर बेटी की देखभाल मुश्किल काम था. इसके बाद भी नेहा ने किसी ना किसी तरह बेटी को संभालती रही. 4 साल की उम्र में बेटी अब खुद समझदार हो रही थी. नेहा के लिये अब दूसरी तरह की मुश्किल आ रही थी. बेटी हिमानी कई ऐसे सवाल करने लगी थी जिसके जवाब देना नेहा के लिये मुश्किल हो जाता था.

करवाचौथ के दिन जब सभी बच्चों की मम्मियां करवाचौथ का व्रत रखने के लिये सजने संवरने में व्यस्त रहती थी तो हिमानी अपनी मां से सवाल करती कि वह यह व्रत क्यो नहीं रख रही ? सबकी मम्मियों की तरह वह सज संवर नहीं रही ?  हिमानी को करवाचैथ का व्रत किसी फेस्टिवल की तरह लगता था. वह अपने साथ स्कूल में पढ़ने वाली कविता के साथ उसके घर में उसकी मम्मी के साथ करवाचैथ की तैयारी में लगी रहती. नेहा भी उसे मना नहीं कर पाती थी. उसे लगता था किसी तरह यह दिन निकल जाये हिमानी उससे कोई सवाल ना करे. रात में हिमानी अपनी मां के पास आती तो सबकी छतों पर रोशनी पूजा और पेफस्टिवल का उत्साह देखकर पूछ ही लेती थी कि मम्मी हम लोग यह फेस्टिवल क्यों नहीं मनाते ?

नेहा कोई ना कोई बहाना बनाकर उसको समझा देती. नेहा का प्रयास रहता था कि हिमानी जल्दी सो जाये जिससे दूसरों की छत पर पूजा होते देख वह सवाल ना करने लगे. कई बार नेहा को करवा चौथ के दिन सुबह से ही परेशानी होने लगती थी. जैसे जैसे वह बड़ी हो रही थी उसके सवाल बढ़ते जा रहे थे. आपस में उनके दोस्त बात करते तो यह बात भी सामने आ जाती कि हिमानी के पापा साथ नहीं रहते इसलिये उसकी मम्मी करवा चैथ व्रत नहीं रहती है. नेहा के लिये यह बहुत कष्टकारी होता था. उसे लगता था कि हिमानी के मन पर क्या प्रभाव पडेगा?  एक दिन नेहा ने रात में बेटी हिमानी को पूरी बात बताई. उसके बाद से हिमानी को भी करवाचौथ की पूजा से पहले वाला लगाव नहीं रह गया. उसे यह समझ आ गया कि करवाचौथ पर सवाल करके वह अपनी मम्मी को दुखी कर रही थी.

नेहा कोई अकेली महिला नहीं है. ऐसी महिलाओं की संख्या अध्कि है. सबसे बड़ी बात यह कि वह ना तो खुद कुछ कहना चाहती है और ना कोई उनकी बात को समर्थन देता है. इसका कारण बताते नेहा कहती है ‘मैंने एक बार अपनी की दोस्तों के बीच बोल दिया था कि मुझे यह त्यौहार पंसद नहीं. इसके बाद मेरे सामने तो किसी ने कुछ नहीं कहा पर मेरे पीछे सभी गौसिप कर रहे थे कि इसी कारण तो पति के साथ मेरे संबंध खराब हो गये. उन दोस्तों में से कई को मैं जानती थी जो पति के साथ होते हुये भी विवाहोत्तर संबंधों को ढो रही थी. पर इस त्यौहार के बहाने अकेली औरतों पर सवाल खड़े करने का मौका मिल जाता है.’

सबसे बुरी हालत में विधवाएं

पहले के जमाने में पतियो के जीवन में रिस्क का फैक्टर कम होता था. ऐसे में युवा उम्र में विधवाएं कम होती थी. बूढ़ापे में विधवाओं की संख्या अध्कि होती थी. ऐसे में करवा चौथ का यह अपमान उनको कम झेलना पडता था. आज के समय में युवा उम्र में विधवा लड़कियों की संख्या अधिक है. समाज में विधवा विवाह कर चलन भी बहुत कम है. ऐसे में युवा उम्र की विधवाओं को भी यह दर्द झेलना पडता है. सुनीता की शादी 20 साल की उम्र में उसके घर वालों ने कर दी. जल्दी जल्दी उसको 2 बच्चे भी हो गये. 26 साल की उम्र में उसके पति की एक सड़क दुर्घटना में मौत हो गई. सुनीता संयुक्त परिवार में रहती है. उसकी जेठानी और घर की दूसरी महिलाएं करवाचौथ का व्रत रखकर रात को घर में उत्साह से फेस्टिवल मनाती है.

सुनीता करवा चौथ के दिन खुद को अपने कमरे में बंद रखती है. उसके घर में इस रिवाज को माना जाता है कि किसी शुभ काम में विधवा की परछाई भी नहीं पड़नी चाहिए. ऐसे में वह पूजापाठ के किसी काम में आगे नहीं पड़ना चाहती. उसे लगता है कि उसके आगे पड़ते ही अगर कुछ गड़बड़ हो गया तो सारा दोष उसके उपर ही जायेगा. ऐसे में वह इस व्रत से दूर रहती है. सुनीता कहती है ‘पति की दुर्घटना में मेरा कोई हाथ नहीं था. इसके बाद भी मेरे भाग्य को लेकर बातें होती है. मुझे ही दुर्भाग्यशाली माना जाता है. मेरे लिये तो दोहरी मुसीबत है एक तो पति नहीं रहे दूसरे मुझे ही सामाजिक उलाहना सहन करनी पड़ रही है. इस पर करवा चौथ का त्यौहार मुझे बहुत दर्द देता है. मुझे लगता है यह त्यौहार आता ही क्यों है ?’

सुनीता कहती है ‘शादी के बाद मैं भी इस व्रत को रहती थी. इसके बाद भी मेरे पति की मौत हो गई. मेरा व्रत रहना किसी काम नहीं आया. हमने तो खबरों में भी पढ़ा है कि जिस रात पत्नी करवा चैथ का व्रत रखती है उसी रात भी उसके पति के साथ हादसा हो जाता है और वह नहीं रहता. ऐसी घटनायें कम भले ही होती है. जिससे यह बात सही नहीं लगती कि व्रत रहने से पति के प्राणों की रक्षा हो सकती है. इसके बाद भी इस व्रत को पति की उम्र से जोड़ कर देखा जाता है. ऐेसे में जिनके पति नहीं रहते उनके सामने तमाम संकट खड़े हो जाते है.’

असल बात है कि धर्म के नाम पर औरतों को हमेशा ही हाशिये पर रखा जाता है. उनके साथ भेदभाव किया जाता है. औरतों को कभी पति कभी पुत्रा के नाम पर डराया जाता है. जिससे वह धर्म की आस्था में फंसकर वह सब मानती रहे जिसे धर्म औरतों के लिये तय कर देता है. जैसे जैसे करवा चौथ का प्रभाव बढ़ता जा रहा अकेली औरतों के सामने ऐसे हालात भी बढ़ते जा रहे है. अब यह व्रत हर अकेली औरत को अपने अपमान का जरीया दिखने लगा है. धर्म की डर इस तरह है कि अपमान सहन करने के बाद भी अकेली औरतें इसे अपने भाग्य से जोड़कर देखती है. वह इसके खिलाफ खुलकर बोलना नहीं चाहती है. धर्म ने डरा रखा है कि अगर उसके खिलाफ बोलकर धर्म का अपमान करोगी तो अगले जन्म में भी ऐसे ही हो सकता है. इसी डर से कोई धर्म के खिलाफ आवाज नहीं उठाता है.

हाउसवाइफ नहीं हाउस हसबैंड

आप एक सिचुऐशन इमेजिन कीजिए जहां एक पत्नी एक वैलइस्टैबलिश्ड कंपनी में हायर पोस्ट पर है और उस का पति घर पर रह कर घर के सभी कामकाज उसी तरह संभाल रहा है, जिस तरह एक घरेलू पत्नी यानी हाउसवाइफ संभालती है. सुबह उठ कर बैड टी बनाता है. पत्नी के लिए ब्रेकफास्ट बनाता है, बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करता है और उन्हें बस स्टौप तक छोड़ने जाता है. पत्नी के औफिस जाने के बाद पीछे से घर की सारी जिम्मेदारी संभालता है. बाजार से सब्जी लाता है, मेड से काम कराता है यानी वह पूरी तरह हाउस हसबैंड बन जाता है.

आप कहेंगे यह तो पिछले दिनों रिलीज हुई आर बाल्की की फिल्म ‘की एंड का’ जैसी स्थिति है. जी हां, यह सिचुऐशन बिलकुल वैसी ही है और इस में हैरानी वाली कोई बात नहीं है. जब एक महिला घर से निकल कर कौरपोरेट जगत में अपनी पहचान बना सकती है, तो पुरुष हाउस हसबैंड क्यों नहीं बन सकता?

दरअसल, हमारी सामाजिक व्यवस्था ही कुछ ऐसी है, जिस में बचपन से लड़कियों को ही घर के काम जैसे खाना बनाना, कपड़े धोना, साफसफाई करना, सिलाईकढ़ाई करना आदि सिखाया जाता है और लड़कों को घर के बाहर के काम कराए जाते हैं. इस चक्कर में लड़कों को घरेलू कार्यों से कोई वास्ता नहीं रहता. उन्हें यह तक नहीं पता होता कि रसोई में कौन से डब्बे में चीनी और कौन से में नमक रखा है. इसलिए ऐसे लड़कों का जब विवाह हो जाता है, तो उन्हें घरेलू कार्यों की कोई समझ नहीं होती और वे पूरी तरह से अपनी पत्नी पर निर्भर रहते हैं. उस की गैरमौजूदगी में वे एक कप चाय भी न बना कर पी पाते. ऐसे में अगर पत्नी कामकाजी है, तो जब वह औफिस से घर पहुंचती है, तो रसोई और घर के काम उस का इंतजार कर रहे होते हैं. थकीहारी पत्नी को ही रसोई का सारा काम करना पड़ता है.

ऐसे में अगर पति यानी लड़के को बचपन से घर व रसोई का काम करना सिखाया गया होता, तो वह आज अपनी पत्नी का हाथ बंटा सकता था. खुद चाय बना कर पी लेता, औफिस से थकीहारी पत्नी को भी चाय बना कर दे देता और फिर दोनों मिल कर रसोई का काम संभाल लेते.

नहीं खानी पड़ती रोजरोज घिया या मूंग की दाल: वे लड़के जिन्हें बचपन से रसोई के कामों से दूर रखा जाता है ऐसे लड़के शादी के बाद पूरी तरह अपनी पत्नी पर निर्भर रहते हैं. आप ही सोचिए औफिस से थकीहारी आई पत्नी पति को छप्पन भोग बना कर तो खिलाएगी नहीं. मजबूरीवश पति को वही बोरिंग घिया और उबली मूंग की दाल खानी पड़ेगी. बेचारा पति ऐसे में उस के बनाए खाने में कोई नुक्स भी नहीं निकाल पाएगा, क्योंकि उसे तो खाना बनाना आता नहीं तो वह किस मुंह से खाने में वैरायटी की मांग कर पाएगा. अरे भई, अगर बचपन में रसोई में झांक लिए होते, दालमसालों से वाकिफ हो लिए होते तो अपनी पसंद का खाना बना कर खा सकते थे और पत्नी के लिए बना कर उसे भी खुश कर सकते थे. अगर लड़कों को भी बचपन से घर के कामकाज सिखाए जाएं तो वे भी हाउस हसबैंड की भूमिका अदा कर सकते हैं और लड़कियों यानी पत्नियों को घरबाहर दोनों की जिम्मेदारी अकेले नहीं संभालनी पड़ेगी. अगर पति को घर के काम आते होंगे तो वह अपनी कैरियर औरिऐंटेड पत्नी की घरेलू कामों में मदद करवाएगा और पत्नी कैरियर पर अपेक्षाकृत ज्यादा ध्यान दे सकेगी, साथ ही उस की पर्सनैलिटी में भी निखार आएगा.

घर का काम करना कमजोरी नहीं: भारतीय सामाजिक व्यवस्था में घरेलू कार्यों को कमतर माना जाता रहा है और लड़कियों को कमजोर मानते हुए उन्हें घर के और लड़कों को बाहर के काम सौपें जाते रहे हैं. लेकिन यह सोच सर्वथा गलत है कि घर के कार्यों में कम मेहनत लगती है या घर के काम कमजोरी के संकेत हैं. फिटनैस ऐक्सपर्ट भी मानते हैं कि औफिस में 8 घंटे कुरसी पर बैठ कर कार्य करने के बजाय घर के कामों में ज्यादा मेहनत लगती है और अधिक कैलोरी खर्च होती है. तभी वे डैस्क जौब करने वालों को हर आधे घंटे में सीट से उठ कर चहलकदमी करने की सलाह देते हैं. रसोई में आटा गूंधना, सब्जियां काटना, घर की साफसफाई करना, कपड़े धोना अपनेआप में पूर्ण ऐक्सरसाइज है, इसलिए यह काम कमजोरी का नहीं ताकत का प्रतीक है.

लड़के सीखें घर के काम करना: अगर लड़के जो आगे चल कर पति की पदवी हासिल करेंगे अगर उन्हें आने वाले समय में अपनी जिंदगी सुधारनी है, तो उन्हें बचपन से ही घर का हर काम सीखना चाहिए फिर चाहे वह खाना बनाना हो, कपड़े धोना हो या छोटीमोटी सिलाई करना हो, क्योंकि आने वाले समय में जब अधिक से अधिक लड़कियां घर से बाहर औफिस की जिम्मेदारी संभालेंगी तो आप को (लड़कों को) हाउस हसबैंड की भूमिका निभानी पड़ेगी. अगर उन्हें घर के काम नहीं आते होंगे तो या तो उन्हें भूखा रहना पड़ेगा या फिर रोजरोज बाहर का खाना खाना पड़ेगा, जो उन के स्वास्थ्य के लिए ठीक न होगा.

ऐसा नहीं है कि आज के पतियों को घर के काम नहीं आते, आते हैं लेकिन ऐसे पतियों की संख्या बहुत कम है. लेकिन जिन्हें घरेलू काम आते हैं, वे आप के इस हुनर के चलते आत्मनिर्भर हैं और अपनी कामकाजी पत्नी के साथ मिल कर जीवन की गाड़ी खींच रहे हैं और अपने इस नए रोल में वे बेहद खुश भी हैं, क्योंकि उन्हें घर के सारे काम आते हैं और वे अपनी रोजबरोज की घरेलू जरूरतों के लिए पत्नी पर निर्भर नहीं हैं. वे न केवल रोज नईनई डिशेज ट्राई करते रहते हैं, बल्कि पत्नी को खिला कर उसे भी खुश रखते हैं. वे घर की साफसफाई से ले कर बच्चों को स्कूल ड्रौप करने, उन का होमवर्क कराने तक में मदद करते हैं.

फिल्म क्रिटिक व फिल्म जर्नलिस्ट दीपक दुआ इसी श्रेणी में आते हैं. उन की वाइफ एक सरकारी अस्पताल में हैड नर्स हैं. उन की जौब शिफ्ट वाली है. जब उन की वाइफ की ड्यूटी नाइट शिफ्ट वाली होती है, तो वे अपनी ‘पापाज किचन’ खोल लेते हैं और बच्चों को नईनई डिशेज बना कर खिलाते हैं यानी पत्नी को रसोई की जिम्मेदारी से मुक्त रखते हैं. उन का कहना है कि वे कुकिंग को ऐंजौय करते हैं और रोज नईनई डिशेज ट्राई करना अच्छा लगता है. बच्चे भी उन के हाथ की बनी रैसिपीज को रैलिश करते हैं.

उन के अनुसार जब पत्नी घर से बाहर रह कर घर के फाइनैंशियल मैटर में पति का हाथ बंटाती है, तो पति को घरेलू कामों को कर के उस की जिम्मेदारी बांट लेनी चाहिए न कि उसे बाहर के साथसाथ घरेलू कार्यों में भी उलझा कर रखना चाहिए. जब पत्नी घर की जिम्मेदारी के साथ बाहर की जिम्मेदारी संभालती है, तो पति को भी हाउस हसबैंड बन कर घर की जिम्मेदारियां बांटने में कोई शर्म महसूस नहीं करनी चाहिए.

मगर यह बदलाव तभी संभव हो सकेगा, जब बचपन से लड़के और लड़की दोनों को हर काम बराबरी से सिखाया जाएगा न कि इस आधार पर कि यह काम लड़के का नहीं है या यह काम लड़के करते अच्छे नहीं लगते.

जरूरी है बदलाव: अरे भई, यह किस किताब में लिखा है कि लड़कियां हवाईजहाज नहीं उड़ा सकतीं और लड़के रसोई में गोल रोटी नहीं बना सकते? आप बचपन से जैसा सिखाओगे वैसा लड़कालड़की दोनों सीख जाएंगे. शैफ राकेश सेठी, संजीव कपूर, रिपू दमन हांडा देश के बेहतरीन कुक हैं और लड़कियां और महिलाएं इन के हाथों की बनी डिशेज खा कर उंगलियां चाटती रह जाती हैं.

ठीक इसी तरह कौरपोरेट जगत जहां अब तक पुरुषों का दबदबा था, नैना लाल किदवई, मुक्केबाज मैरी कौम, बैडमिंटन खिलाड़ी ज्वाला गुट्टा, साइना नेहवाल, भारोत्तोलक कर्नक मल्लेश्वरी ने साबित कर दिया है कि अब पुरुषों व महिलाओं के कार्यक्षेत्र के बीच की सीमा रेखा खत्म होती नजर आ रही है. कमाई वाले क्षेत्र पुरुषों के और घर की जिम्मेदारी महिलाओं की वाली सोच धीरेधीरे बदल रही है. आज की

व्यस्त दिनचर्या में महिलाएं घरबारह दोनों की जिम्मेदारी बखूबी निभा रही हैं. पुरुष भी आगे बढ़ कर अपनी बेटरहाफ की मदद हाउस हसबैंड की भूमिका अपना कर निभा रहे हैं. महिलाएं भी उन्हें इस रोल में खुशी से ऐक्सैप्ट कर रही हैं, क्योंकि पति की भूमिका बदलने से उन्हें भी चूल्हेचौके से छुटकारा मिलने लगा है. अब उन्हें पति के हाथों का बना खाना चखने का मौका मिल रहा है.

जोरू का गुलाम नहीं बराबर की पार्टनरशिप: आज से पहले अगर कोई पुरुष घर की रसोई में काम करता या पत्नी के कामों में हाथ बंटाता दिख जाता था, तो उसे जोरू का गुलाम कह कर उस का मजाक उड़ाया जाता था, उस की मर्दानगी पर शक किया जाता था, लेकिन अब स्थितियां बदल रही हैं. आज पत्नी की घरेलू जिम्मेदारियों में हाथ बंटाने वाले पति को ट्रू लाइफपार्टनर कहा जाने लगा है. सही भी तो है जब दोनों जीवनरूपी गाड़ी के 2 पहिए हैं, तो जिम्मेदारी भी तो बांटनी होगी. अगर एक पहिए पर दोहरा बोझ होगा तो गाड़ी ज्यादा लंबे समय तक आगे नहीं बढ़ पाएगी. जब घर दोनों का है तो जिम्मेदारी भी दोनों की बराबरी की बनती है. इस में गुलाम और मालिक वाली बात कहां से आ गई? दरअसल, यह पुरुषों की चाल थी कि वे महिलाओं को घर की चारदीवारी में कैद कर के रखना चाहते थे, इसलिए उन्होंने घरेलू कार्यों, बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी महिलाओं के हिस्से बांट दी ताकि वे घर की चारदीवारी में रहें, बाहर की दुनिया में क्या हो रहा इस की उन्हें कोई खबर न लगे.

भूमिकाएं बदलने के फायदे

– जब पतिपत्नी एकदूसरे की भूमिकाएं निभाते हैं, मिल कर जिम्मेदारियां बांटते हैं, तो घर की गाड़ी व्यवस्थित ढंग से चलती है. किसी एक पर घरबाहर की जिम्मेदारी पूरी तहर से नहीं होती. जो जिस काम में परफैक्ट होता है वह उस जिम्मेदारी को संभाल लेता है. फिर चाहे वह हाउस हसबैंड हो या हाउस वाइफ, अर्निंग हसबैंड हो या अर्निंग वाइफ.

– भूमिकाएं बदलने से एक ही ढर्रे पर चल रही जिंदगी से बोरियत खत्म हो जाती है. जिंदगी में रोचकता व रोमांच बना रहता है और पतिपत्नी के रिश्ते में मजबूती आती है. जानेमाने लेखक चेतन भगत ने नौकरी छोड़ने के बाद हाउस हसबैंड की भूमिका न केवल बखूबी निभाई, बल्कि उसे ऐंजौय भी किया.

– जिम्मेदारियां बांटने से या भूमिकाएं बदलने से दोनों लाइफ पार्टनर में से एक के ही ऊपर घर या बाहर की पूरी जिम्मेदारी नहीं होगी, जिस से उसे अपना काम बोझ नहीं लगेगा और दोनों मिल कर घरबाहर दोनों की जिम्मेदारी उठाएंगे.

– जब पुरुष महिलाओं की जिम्मेदारियां मसलन रसोई, बच्चों को संभालने का कार्य करने लगते हैं, तो वे एकदूसरे की समस्याओं व परेशानियों को भी समझने लगते हैं. पुरुषों को एहसास होता है कि महिलाएं किस तरह अपनी जिम्मेदारियों को समझते हुए बच्चों की फिजिकल व मैंटल ग्रोथ में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं.

– बच्चों की देखभाल करते हुए पुरुषों की बच्चों के साथ अच्छी बौंडिंग व भावनात्मक रिश्ता जुड़ता है.

– घर की जिम्मेदारियां निभाते समय पुरुषों का धैर्य व स्तर बढ़ता है. वे महिलाओं के वर्किंग प्रैशर को समझ पाते हैं.

– महिलापुरुष दोनों अपनीअपनी रुचियों व खूबियों का बेहतर ढंग से प्रयोग कर पाते हैं. मसलन, पति की रुचि व टैलेंट कुकिंग में है और पत्नी का बिजनैस में तो दोनों उस में बेहतर प्रदर्शन कर पाते हैं.

हरियाणा चुनाव रिजल्ट : मुद्दों पर भारी पड़ा पुराणवाद, क्या सीएम होंगे नायब सिंह सैनी

हरियाणा चुनाव के नतीजे बताते हैं कि जनता अभी भी भाजपा के पौराणिकवाद में उलझी हुई है. भाजपा के पौराणिकवाद में फंस कर जनता अग्निवीर, किसानों की परेशानियों, पहलवान बेटियों के साथ जो कुछ हुआ सब को भूल गई. हरियाणा में पहली बार एक ही पार्टी ने लगातार तीसरी बार सरकार बनाई है. जब चुनाव शुरू हुआ तो भाजपा को इस बात का यकीन नहीं था कि वह सरकार बना पाएगी. इस कारण ही मनोहर लाल खट्टर की जगह नायब सिंह सैनी को मुख्यमंत्री बनाया गया था.

भाजपा ने हरियाणा में न तो 70 पार का नारा पूरे जोरशोर से उठाया और न ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नाम का बहुत प्रचार किया. भाजपा को लग रहा था कि हरियाणा उस के लिए सुखद नतीजे ले कर नहीं आएगा. एक्जिट पोल और मतगणना के पहले 2 घंटे बड़े उतारचढ़ाव वाले रहे. कांग्रेस ने मतगणना के परिणामों को चुनाव आयोग की वेबसाइट पर देरी से दिखाए जाने को ले कर शिकायत भी की. कांग्रेस ने भले ही सरकार बनाने लायक बहुमत हासिल नहीं किया लेकिन भाजपा को कडी टक्कर दी.

हरियाणा में कांग्रेस की गुटबाजी भी इस का सब से बड़ा कारण रही है. जिस ने राहुल गांधी की मेहनत पर पानी फेर दिया. जिस तरह की गलती मध्य प्रदेश के चुनाव कमलनाथ ने की थी हरियाणा में वही काम भूपेंद्र सिंह हुड्डा और उन के बेटे दीपेंद्र सिंह हुड्डा ने किया. इन का अति आत्मविश्वास कांग्रेस की हार का प्रमुख कारण बना. जेल से बाहर आने के बाद आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल कांग्रेस के साथ चुनावी तालमेल करना चाहते थे. भूपेंद्र सिंह हुड्डा इस के लिए तैयार नहीं हुए. मध्य प्रदेश में कमलनाथ भी समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन को तैयार नहीं हुए थे.

कांग्रेस ने मध्य प्रदेश के नतीजों से सबक नहीं लिया और हरियाणा भी हार गए. कांग्रेस में अभी भी कुछ लोग ऐसे हैं जो राहुल गांधी को सफल होते नहीं देखना चाहते हैं. राहुल गांधी जानतेसमझते हुए भी अपनी पार्टी के नेताओं की राय को टाल नहीं पाते. उन को कुछ निर्णय पूरी मजबूती से लेने चाहिए. इसी कारण से कांग्रेस हरियाणा और जम्मू कश्मीर में वह प्रदर्शन नहीं दोहरा पाई जिस की उसे उम्मीद थी.

हरियाणा में विधानसभा की 90 सीटों के लिए 5 अक्टूबर 2024 को आम चुनाव हुए थे. 65 फीसदी वोट यहां पड़े थे. मतगणना और परिणाम 8 अक्टूबर 2024 को घोषित किए गए. जिस में भाजपा को 48, कांग्रेस को 37 व अन्य को 5 सीटें मिलीं. हरियाणा में बहुमत से सरकार बनाने के लिए 46 सीटों की जरूरत होती है, भाजपा बहुमत से 2 सीटें अधिक लाने में कामयाब हुई.

हरियाणा विधानसभा का कार्यकाल 3 नवंबर 2024 को समाप्त हुआ था. पिछला विधानसभा चुनाव अक्तूबर 2019 में हुआ था. चुनाव के बाद भारतीय जनता पार्टी और जननायक जनता पार्टी के गठबंधन ने राज्य सरकार बनाई जिस में मनोहर लाल खट्टर मुख्यमंत्री बने थे. 12 मार्च 2024 को बीजेपी और जेजेपी गठबंधन टूट गया और मनोहर लाल खट्टर ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था. नायब सिंह सैनी ने नए मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली थी.

स्पष्ट बहुमत वाली सरकार चाहती है जनता:

हरियाणा में भले ही भाजपा के विधायकों की संख्या अधिक हो लेकिन उस का मत प्रतिशत घट कर 40 फीसदी रहा जबकि कांग्रेस को 41.24 प्रतिशत वोट मिले हैं. आम आदमी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी जैसे छोटे दल जो किंग मेकर बनने का दावा कर रहे थे वह पूरी तरह से हाशिए पर चले गए हैं. इस से यह साफ है कि देश की राजनीति दो दलीय होती दिख रही है. हरियाणा और जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनावों के फैसलों ने एक और संकेत दिया है कि जनता अब मिलीजुली सरकार बनाने के पक्ष में नहीं है. हरियाणा में भाजपा और जम्मू कश्मीर में कांग्रेस और उस के गठबंधन को पूर्ण बहुमत मिला है.

देश की राजनीति में अब मुकाबला इंडिया गठबंधन बनाम एनडीए है. इंडिया गठबंधन में कांग्रेस भाजपा के सामने चुनौती बनी हुई है. भाजपा देश को कांग्रेस मुक्त करना चाहती थी. हरियाणा और जम्मू कश्मीर चुनाव के नतीजे बता रहे हैं कि भाजपा कांग्रेस मुक्त देश नहीं बना पाई है. जीत के बाद भी हरियाणा में 60 फीसदी वोटर भाजपा के खिलाफ हैं. कांग्रेस को भाजपा से अधिक फीसदी वोट मिले हैं. आम आदमी पार्टी को 1.65 फीसदी वोट मिले हैं.

अगर हरियाणा में लोकसभा चुनाव की तरह विधानसभा चुनाव में भी इंडिया गठबंधन एकजुट हो कर मैदान में उतरता तो सीटों के हिसाब से रिजल्ट में बड़ा अंतर देखने को मिल सकता था. अगर कांग्रेस और भाजपा की आमनेसामने टक्कर होती तो सीटों की संख्या कुछ और होती. भाजपा को वोटों के बिखराव का लाभ मिला है. हरियाणा विधानसभा चुनाव में करीब 28 ऐसी सीटें हैं जहां बीजेपी और कांग्रेस के प्रत्याशियों के 5 हजार या उससे कम वोटों का अंतर दिख रहा है. ऐसे में आम आदमी पार्टी अगर कांग्रेस के साथ हरियाणा चुनाव में उतरती तो इस का कुछ और ही असर हो सकता था.

हरियाणा और जम्मू कश्मीर के विधानसभा चुनावों में इंडिया गठबंधन को अगर बनाए रखा जाता तो रिजल्ट कुछ और ही देखने को मिल सकता था. लोकसभा चुनाव के दौरान राहुल गांधी ने आगे बढ़ कर उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन किया था, जिस की वजह से भाजपा को हार का सामना करना पड़ा था. राहुल गांधी सहयोगियों की मांग मान कर भी आगे बढ़ते हैं. कांग्रेस के दूसरे नेता सहयोगी दलों के साथ समझौता करने में नापतौल करने लगते हैं. गठबंधन में चलने वाले नापतौल की जगह पर राजनीतिक बदलाव के लिए एकजुट होते थे. अगर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस समाजवादी पार्टी के साथ नहीं खड़ी होती तो वह एक सीट से बढ़ कर 6 सीट लोकसभा चुनाव में नहीं पाती.

भाजपा के लिए चुनौती

हरियाणा में भले ही भाजपा को जीत मिली हो लेकिन उस की चाहत पूरी नहीं हो सकी. कांग्रेस मुक्त भारत का उस का सपना पूरा नहीं हो सका. भाजपा को जिस बड़ी जीत की जरूरत थी वह भी उसे नहीं मिल सकी. ऐसे में उस की हालत 4 जून 2024 वाली है जब उसे अपने बल पर सरकार बनाने का मौका नहीं मिला था. हरियाणा में भाजपा 70 सीटें जीतने की बात कर रही थी. वहां तक दूरदूर वह नहीं पहुंच पाई है. कांग्रेस की ही तरह से भाजपा में भी गुटबाजी है. मुख्यमंत्री पद के लिए नायब सिंह सैनी के अलावा कई नेताओं के नाम चर्चा में हैं. जो मुख्यमंत्री नहीं बनेगा उस का असंतोष बना रहेगा.

मुख्यमंत्री की रेस मे अनिल विज का नाम भी चल रहा था. अभी भले ही भाजपा के नेता यह कह रहे हों कि नायब सिंह सैनी ही मुख्यमंत्री बनेंगे पर लोग जानते है कि मध्य प्रदेश में चुनाव जिता कर लाने वाले शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री बनाने की जगह मोहन यादव को मुख्यमंत्री बना दिया गया. इसी तरह से राजस्थान में दावा पेश करने वाली वसुंधरा राजे सिंधिया को मुख्यमंत्री बनाने की जगह पर भजन लाल शर्मा को मुख्यमंत्री बनाया गया. ऐेसे में यह मान कर लोग चल रहे हैं कि हरियाणा में भी बदलाव हो सकता है.

मेरा बेटा सारा दिन अपने स्मार्टफोन में औनलाइन जुआ खेलता रहता है. मुझे डर है कहीं उसको इसकी लत ना लग जाए.

अगर आप भी अपनी समस्या भेजना चाहते हैं, तो इस लेख को अंत तक जरूर पढ़ें..

सवाल –

मेरा बेटा 17 साल का है. वह दिनभर कमरे में बैठा रहता है और अपने फोन में लगा रहता है. यहां तक कि खाना खाने के लिए भी बाहर नहीं निकलता. स्कूल से आते ही अपने कमरे में घुस जाता है. मुझे अपने बेटे को ले कर काफी चिंता हुई. फिर जब वह स्कूल गया तो उस के पीछे से उस का फोन चैक किया. मैं देख कर हैरान हो गई कि वह सारा दिन अपने फोन में औनलाइन जुआ खेलता रहता है. मैं उसे जो भी पौकेट मनी देती हूं उसे वह औनलाइन जुए में लगा देता है. मैं ने उसे कई बार समझाने की भी कोशिश की लेकिन उसे कोई फर्क नहीं पड़ा. मुझे डर है कि उस को जुए की आदत न लग जाए. ऐसे में मुझे क्या करना चाहिए?

जवाब –

मोबाइल ने आजकल के किशोरों को बुरी तरह बिगाड़ दिया है. जहां एक तरफ इंटरनैट के अनगिनत फायदे हैं, तो वहीं दूसरी तरफ नुकसान भी हैं. आप की समस्या काफी कौमन है क्योंकि आजकल बच्चों से ले कर बड़ों तक इस औनलाइन जुए की गिरफ्त में हैं.

आप को यह जान कर हैरानी होगी कि शुरुआत में तो ₹50-100 का प्रलोभन दे कर पहले तो ये विश्वास जीतते हैं और फिर जब किसी को इस की आदत लग जाती है तब हराना शुरू कर देते हैं. यह एक मकङजाल है जिस में किशोर बच्चों को ये लोग आसानी से इस गंदी लत का शिकार बना देते हैं.

आश्चर्य तो यह भी है कि देश के सैलिब्रिटीज भी इन गेम्स का प्रोमोशन करते हैं और न चाहते हुए भी लोग इस जाल में फंसते चले जाते हैं.

आजकल हरकोई शौर्टकट तरीके से पैसा कमाना चाहता है और ऐसे लोगों का लालच ही उन्हें डूबो देता है. लोग मेहनत से ज्यादा शोर्टरट में विश्वास करने लगे हैं.

आप अपने बच्चे को समझाइए कि यह आदत बहुत गलत है और इस से उन का बहुत बड़ा नुकसान हो सकता है. अपने बच्चे की इस आदत को छुड़ाने के लिए आप उस के साथ जितना हो सके उतना समय बिताएं ताकि वह ज्यादा समय फोन पर न लगा रहे.

रात को सोने से पहले उस का फोन किसी बहाने अपने पास रख लें. फिलहाल अगर जरूरत पड़े तो आप अपने बेटे को पौकेट मनी न दें और इस के बदले आप ही उन के खर्चे पूरे करें ताकि आप को पता रहे कि पैसा गलत जगह नहीं लग रहा है.

आप अपने बच्चे को पैसों की अहमियत समझाएं कि लोग कितनी मेहनत कर पैसा कमा रहे हैं और उसे यह बात महसूस कराना बहुत जरूरी है.

उसे बताएं कि जिंदगी में पैसा कमाने के लिए कङी मेहनत करनी पड़ती है और शौर्टकट के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए. अपने बच्चे को कम से कम फोन दें यानि जब जरूरत हो तभी उसे फोन का इस्तेमाल करने दें वह भी सिर्फ आप के सामने ही. उसे अपनी पढ़ाई में ध्यान लगाने को बोलें.

आप उसे मोबाइल की लत से दूर करने के लिए अच्छा साहित्य और पत्रपत्रिकाएं भी पढ़ने को दें। इस से वह मोबाइल से दूर हो जाएगा और उस की दोस्ती किताबों तक ही रहेगी.

व्हाट्सऐप मैसेज या व्हाट्सऐप औडियो से अपनी समस्या इस नम्बर पर 8588843415 भेजें.

फलक तक : एक अच्छी पत्नी, अच्छी मां तो बन गई थी स्वर्णिमा

स्वर्णिमा खिड़की के पास खड़ी हो बाहर लौन में काम करते माली को देखने लगी. उस का छोटा सा खूबसूरत लौन माली की बेइंतहा मेहनत, देखभाल व ईमानदारी की कहानी कह रहा था. वह कहीं भी अपने काम में कोताही नहीं बरतता है…बड़े प्यार, बड़ी कोशिश, कड़ी मेहनत से एकएक पौधे को सहेजता है, खादपानी डालता है, देखभाल करता है.

गमलों में उगे पौधे जब बड़े हो कर अपनी सीमाओं से बाहर जाने के लिए अपनी टहनियां फैलाने लगते हैं, तो उन की काटछांट कर उन्हें फिर गमले की सीमाओं में रहने के लिए मजबूर कर देता है. उस ने ध्यान से उस पौधे को देखा जो आकारप्रकार का बड़ा होने के बावजूद छोटे गमले में लगा था. छोटे गमले में पूरी देखभाल व साजसंभाल के बाद भी कभीकभी वह मुरझाने लग जाता था.

रता है. थोड़ा और ज्यादा काटछांट करता है, अधिक खादपानी डालता है और वह फिर हराभरा हो जाता है. कुछ समय बाद वह फिर मुरझाने लगता. माली फिर उस की विशेष देखभाल करने में जुट जाता. पर उस को पूरा विकसित कर देने के बारे में माली नहीं सोचता. नहीं सोच पाता वह यह कि यदि उसे उस पौधे को गमले की सीमाओं में बांध कर ही रखना है तो बड़े गमले में लगा दे या फिर जमीन पर लगा कर पूरा पेड़ बनने का मौका दे. यदि उस पौधे को उस की विस्तृत सीमाएं मिल जाएं तो वह अपनी टहनियां चारों तरफ फैला कर हराभरा व पुष्पपल्लवित हो जाएगा.

लेकिन शायद माली नहीं चाहता कि उस का लगाया पौधा आकारप्रकार में इतना बड़ा हो जाए कि उस पर सब की नजर पडे़ और उसे उस की छाया में बैठना पड़े. एक लंबी सांस खींच कर स्वर्णिमा खिड़की से हट कर वापस अपनी जगह पर बैठ गई और उस लिफाफे को देखने लगी जो कुछ दिनों पहले डाक से आया था.

वह कविता लिखती थी स्कूलकालेज के जमाने से, अपने मनोभावों को जाहिर करने का यह माध्यम था उस के पास, अपनी कविताओं के शब्दों में खोती तो उसे किसी बात का ध्यान न रहता. उस की कविताएं राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में छपती थीं और कुछ कविताएं उस की प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिकाओं में भी छप चुकी थीं. साहित्यिक पत्रिकाओं में छपी उस की कविताएं साहित्य के क्षेत्र में प्रतिष्ठा पा चुके लोगों की नजरों में भी आ जाती थीं.

उस का कवि हृदय, कोमल भावनाएं और हर बात का मासूम पक्ष देखने की कला अकसर उस के पति वीरेन के विपरीत स्वभाव से टकरा कर चूरचूर हो जाते. वीरेन को कविता लिखना खाली दिमाग की उपज लगती. किताबों का संगसाथ उसे नहीं सुहाता था. शहर में हो रहे कवि सम्मेलनों में वह जाना चाहती तो वीरेन यह कह कर ना कर देता, ‘क्या करोगी वहां जा कर, बहुत देर हो जाती है ऐसे आयोजनों में…ये फालतू लोगों के काम हैं…तुम्हें कविता लिखने का इतना ही शौक है तो घर में बैठ कर लिखो.’

उस के लिए ये सब खाली दिमाग व फालतू लोगों की बातें थीं. जब कभी बाहर के लोग स्वर्णिमा की तारीफ करते तो वीरेन को कोई फर्क नहीं पड़ता. उस के लिए तो घर की मुरगी दाल बराबर थी. कहने को सबकुछ था उस के पास. बेटी इसी साल मैडिकल के इम्तिहान में पास हो कर कानपुर मैडिकल कालेज में पढ़ाई करने चली गई थी. वीरेन की अच्छी नौकरी थी. एक पति के रूप में उस ने कभी उस के लिए कोई कमी नहीं की. पर पता नहीं उस के हृदय की छटपटाहट खत्म क्यों नहीं होती थी, क्या कुछ था जिसे पाना अभी बाकी था. कौन सा फलक था जहां उसे पहुंचना था.

उसे हमेशा लगता कि वीरेन ने भी एक कुशल माली की तरह उसे अपनी बनाई सीमाओं में कैद किया हुआ है. उस से आगे उस के लिए कोई दुनिया नहीं है. उस से आगे वह अपनी सोच का दायरा नहीं बढ़ा सकती. जबजब वह अपनी टहनियों को फैलाने की कोशिश करती, वीरेन एक कुशल माली की तरह काटछांट कर उसे उस की सीमा में रहने के लिए बाध्य कर देता.

उसे ताज्जुब होता कि बेटी की तरक्की व शिक्षा के लिए इतना खुला दिमाग रखने वाला वीरेन, पत्नी को ले कर एक रूढि़वादी पुरुष क्यों बन जाता है. वह लिफाफा खोल कर पढ़ने लगी. देहरादून में एक कवि सम्मेलन का आयोजन होने जा रहा था, जिस में कई जानेमाने कविकवयित्रियां शिरकत कर रहे थे और उसे भी उस आयोजन में शिरकत करने का मौका मिला था.

पर उसे मालूम था कि जो वीरेन उसे शहर में होने वाले आयोजनों में नहीं जाने देता, क्या वह उसे देहरादून जाने देगा. जबकि देहरादून चंडीगढ़ से कुछ ज्यादा दूर नहीं था. पर वह अकेली कभी गई ही नहीं, वीरेन ने कभी जाने ही नहीं दिया. वीरेन न आसानी से खुद कहीं जाता था न उसे जाने देता था.

वीरेन की तरफ से हमेशा न सुनने की आदी हो गई थी वह, इसलिए खुद ही सोच कर सबकुछ दरकिनार कर देती. वीरेन से ऐसी बात करने की कोशिश भी न करती. पर पता नहीं आज उस का मन इतना आंदोलित क्यों हो रहा था, क्यों हृदय तट?बंध तोड़ने को बेचैन सा हो रहा था.

हमेशा ही तो वीरेन की मानी है उस ने, हर कर्तव्य पूरे किए. कहीं पर भी कभी कमी नहीं आने दी. अपना शौक भी बचे हुए समय में पूरा किया. क्या ऐसा ही निकल जाएगा सारा जीवन. कभी अपने मन का नहीं कर पाएगी. और फिर ऐसा भी क्या कर लेगी, क्या कुछ गलत कर लेगी. इसी उधेड़बुन में वह बहुत देर तक बैठी रही.

कुछ दिनों से शहर में पुस्तक मेला लगा हुआ था. वह भी जाने की सोच रही थी. उस दिन वीरेन के औफिस जाने के बाद वह तैयार हो कर पुस्तक मेले में चली गई. किताबें देखना, किताबों से घिरे रहना उसे हमेशा सुकून देता था.

मेले में वह एक स्टौल से दूसरे स्टौल पर अपनी पसंद की कुछ किताबें ढूंढ़ रही थी. एक स्टौल पर प्रसिद्ध कवि व कवयित्रियों के कविता संकलन देख कर वह ठिठक कर किताबें पलटने लगी.

‘‘स्वर्णिमा,’’ एकाएक अपना नाम सुन कर उस ने सामने देखा तो कुछ खुशी, कुछ ताज्जुब से सामने खड़े राघव को देख कर चौंक गई.

‘‘राघव, तुम यहां? हां, लेकिन तुम यहां नहीं होंगे तो कौन होगा,’’ स्वर्णिमा हंस कर बोली, ‘‘अभी भी कागजकलमदवात का साथ नहीं छूटा, रोटीकपड़ामकान के चक्कर में…’’

‘‘क्यों, तुम्हारा छूट गया क्या,’’ राघव भी हंस पड़ा, ‘‘लगता तो नहीं वरना पुस्तक मेले में कविता संकलन के पृष्ठ पलटते न दिखती.’’

‘‘मैं तो चंडीगढ़ में ही रहती हूं, पर तुम दिल्ली से चंडीगढ़ में कैसे?’’

‘‘हां, बस औफिस के काम से आया था एक दिन के लिए. मेरी भी किताबें लगी हैं ‘किशोर पब्लिकेशन हाउस’ के स्टौल पर. फोन पर बताया था उन्होंने, इसलिए समय निकाल कर यहां आ गया.’’

‘‘किताबें?’’ स्वर्णिमा खुशी से बोली, ‘‘मुझे तो पता ही नहीं था कि तुम्हारे उपन्यास भी छप चुके हैं और वह भी इतने बडे़ पब्लिकेशन हाउस से. पर किस नाम से लिख रहे हो?’’

‘‘किस नाम से, क्या मतलब… विवेक दत्त के नाम से ही लिख रहा हूं.’’

‘‘ओह, मैं ने कभी ध्यान क्यों नहीं दिया. पता होता तो किताबें पढ़ती तुम्हारी.’’

‘‘तुम ने ध्यान ही कब दिया,’’ अपनी ही बोली गई बात को अपनी हंसी में छिपाता हुआ राघव बोला.

स्वर्णिमा ने राघव की बात को लगभग अनसुना सा कर दिया. ‘‘बहुत दिनों बाद मिले हैं. चलो, चल कर थोड़ी देर कहीं बैठते हैं,’’ स्वर्णिमा चलतेचलते बोली, ‘‘और किसकिस के संपर्क में हो कालेज के समय के दोस्तों में से?’’

‘‘बस, शुरू में तो संपर्क था कुछ दोस्तों से, समय के साथ सब खत्म हो गया.’’

‘‘और अपनी सुनाओ स्वर्णिमा. तुम तो कितनी अच्छी कविताएं लिखती थीं. कहां तक पहुंचा तुम्हारा लेखन, कितने संकलन छप चुके हैं?’’

‘‘एक भी नहीं, गृहस्थी के साथ यह सब कहां हो पाता है. बस, छिटपुट कविताएं यहांवहां पत्रिकाओं में छपती रहती हैं. कुछ साहित्यिक पत्रिकाओं में भी छपी हैं,’’ वह राघव से नजरें चुराती हुई  बोली.

‘‘जब मैं नौकरी के दौरान लिख सकता हूं तो तुम गृहस्थी के साथ क्यों नहीं?’’

‘‘बस, शायद यही फर्क है स्त्रीपुरुष का. स्त्री घर के लिए खुद को पूरी तरह समर्पित कर देती है, जबकि पुरुष का समर्पण आंशिक रूप से ही रहता है.’’

‘‘यह तो तुम सरासर इलजाम लगा रही हो मुझ पर,’’ राघव हंसता हुआ बोला, ‘‘मैं भी गृहस्थी के प्रति अपनी सभी जिम्मेदारियां पूरी करता हूं…’’

‘‘पर फिर भी पत्नी के लिए पति एक सीमारेखा तो खींच ही देता है. उस का शौक पति के लिए महत्त्वपूर्ण नहीं होता. पौधे को अगर जड़ें फैलाने को ही न मिलें तो मजबूती कहां से आएगी राघव? पौधे को अगर गमले की सीमाओं में पनपने के लिए ही बाध्य किया जाए तो वह अपनी पूर्णता कैसे प्राप्त करेगा? परिंदे अगर पिंजरे के बाहर पंख न फैला पाएं तो फिर…’’ स्वर्णिमा ने अपनी बात अधूरी छोड़ दी. राघव ने कोई जवाब नहीं दिया.

‘‘अच्छा छोड़ो इन बातों को, अपने परिवार के बारे में कुछ बताओ…’’ स्वर्णिमा बात टालने की गरज से बोली.

‘‘बैंक में जौब करता हूं. 2 छोटे बच्चे हैं, पत्नी है. और तुम्हारे बच्चे? ’’

‘‘मेरी बेटी ने इसी साल कानपुर मैडिकल कालेज में दाखिला लिया है.’’

‘‘इतनी बड़ी बेटी कब हो गई तुम्हारी?’’

‘‘तुम भूल रहे हो राघव कि मेरा विवाह, बीकौम फाइनल ईयर में ही हो गया था.’’

‘‘कैसे भूल सकता हूं वह सब,’’ राघव एक लंबी सांस खींच कर बोला, ‘‘अचानक गायब हो गई थी गु्रप से,’’ राघव का स्वर संजीदा हो गया, ‘‘पीछे मुड़ कर भी न देखा.’’

‘‘शादी के बाद ऐसा ही होता है, नई जिम्मेदारियां आ जाती हैं…’’

‘‘और नए अपने भी बन जाते हैं,’’ राघव लगभग व्यंग्य करता हुआ बोला.

‘‘बहुत बोलना सीख गए हो राघव…’’

‘‘हां, तब के कालेज में बीकौम कर रहे राघव और अब के राघव में बहुत फर्क भी तो है उम्र का.’’

‘‘और रुतबे का भी,’’ स्वर्णिमा बात पूरी करती हुई बोली, ‘‘अब तो साहित्यकार भी हो, सफल इंसान भी हो जिंदगी में हर तरह से.’’

‘‘क्यों, ईर्ष्या हो रही है क्या?’’

‘‘हां, हो तो रही है थोड़ीथोड़ी,’’ दोनों हंस पड़े.

‘‘नहीं स्वर्ण, सौरी स्वर्णिमा, मैं तो वैसा ही हूं अभी भी.’’

‘‘स्वर्ण ही बोलो न राघव. कालेज में तो मुझे सभी इसी नाम से बुलाते थे. ऐसा लगता है, वापस कालेज के प्रांगण में पहुंच गई हूं मैं. थोड़े समय तुम्हारे साथ उन बीती यादों को जी लूं. जब दिल में सिर्फ भविष्य की मनभावन कल्पनाएं थीं, न कि अतीत की अच्छीबुरी यादों की सलीब.’’

‘‘कवयित्री हो, उसी भाषा में अपनी बात कहना जानती हो. मैं कहता था न तुम्हें हमेशा कि कविता में दिल की भावनाओं को जाहिर करना ज्यादा आसान होता है, बजाय कहानी के.’’

‘‘लेकिन मुझे तो हमेशा लगता है कि गद्य, पद्य से अधिक सरल होता है और पढ़ने वाले को कहने वाले की बात सीधे समझ में आ जाती है,’’ स्वर्णिमा अपनी बात पर जोर डाल कर बोली.

‘‘नहीं स्वर्ण, कविता पढ़ने वाला जब कविता पढ़ता है, तो बोली हुई बात उसे सीधे खुद के लिए बोली जैसी लगती है. और कविता का भाव सीधे उस के दिल में उतर जाता है. फिर कविता में तुम कम शब्दों में बिना किसी लागलपेट के अपनी बात जाहिर कर सकती हो, लेकिन कहानी के पात्र जो कुछ बोलते हैं, एकदूसरे के लिए बोलते हैं और बात पात्रों में उलझ कर रह जाती है. कभीकभी तो पूरी कहानी लिख कर लगता है कि जो कहना चाहते थे, ठीक से कह ही नहीं पाए.’’

‘‘चलो, यही सही. बहुत समय बाद कोई मिला राघव, जिस से इस विषय पर ऐसी बात कर पा रही हूं,’’ स्वर्णिमा मुसकराती हुई बोली, ‘‘ऐसा लगता था जैसे मैं अपनी तर्कशक्ति ही खो चुकी हूं, हर बात मान लेने की आदत सी पड़ गई है.’’

‘‘तर्कशक्ति तो तुम सचमुच खो चुकी हो स्वर्ण,’’ राघव हंसता हुआ बोला, ‘‘कालेज के जमाने में तो तर्क में तुम से जीतना मुश्किल होता था और आज तुम ने सरलता से हार मान ली.’’

‘‘अब हार मानना सीख गई हूं. तुम ने जो जीतना शुरू कर दिया है,’’ स्वर्णिमा हंस कर बात को हवा में उड़ाते हुए बोली.

‘‘जब से जिंदगी में बड़ी हार से सामना हुआ, तब से जीतने की आदत डाल ली.’’

स्वर्णिमा को लगा, बहुत बड़ा मतलब है राघव के इस वाक्य का. बात को अनसुनी सी करती हुई बोली, ‘‘कब तक हो चंडीगढ़ में, वापसी कब की है?’’

‘‘बस, कल जा रहा हूं,’’ वह उठता हुआ बोला, ‘‘तुम 5 मिनट बैठो, मैं अभी आया,’’  कह कर राघव चला गया.

स्वर्णिमा उसे जाते हुए देखती रही. सचमुच कालेज के जमाने के राघव और आज के राघव में जमीनआसमान का फर्क था. उस का निखरा व्यक्तित्व उस की सफलता की कहानी बिना कहे ही बयान कर रहा था. उस का हृदय कसक सा गया.

6 लड़केलड़कियों का गु्रप था उन का. कालेज में खूब मस्ती भी करते थे और खूब पढ़ते भी थे. राघव और वह दोनों ही पढ़नेलिखने के शौकीन थे. वह कविताएं लिखती थी और राघव कहानियां व लेख वगैरह लिखा करता था. राघव ने ही उसे उकसाया कि वह अपनी कविताएं पत्रिकाओं में भेजे और उसी की कोशिश से ही उस की कविताएं पत्रिकाओं में छपने लगी थीं. पढ़ने के लिए भी वे एकदूसरे को किताबें दिया करते थे. एकदूसरे को किताबें लेतेदेते, अपना लिखा पढ़तेपढ़ाते कब वे एकदूसरे करीब आ गए, उन्हें पता ही नहीं चला.

समान रुचियां उन्हें एकदूसरे के करीब तो ले आईं पर दोनों के दिलों में फूटी प्यार की कोंपलें अविकसित ही रह गईं. सबकुछ अव्यक्त ही रह गया. उन्हें मौका ही नहीं मिल पाया एकदूसरे की भावनाओं को ठीक से समझने का. वह राघव की आंखों में अपने लिए बहुतकुछ महसूस करती, पर कभी राघव ने कुछ कहा नहीं. वह भी जानती थी कि राघव अभी बीकौम ही कर रहा है, वह भी इतनी दूर तक उस का साथ नहीं दे पाएगी. उस के पिता उस के विवाह की पेशकश करने लगे थे. इसलिए उस ने भी उस की आंखों की भाषा पढ़ने की कोशिश नहीं की.

और फाइनल ईयर के इम्तिहान से पहले ही उस का विवाह तय हो गया. उस ने जब अपने विवाह का कार्ड अपने गु्रप को भेजा, तो सभी चहकने लगे, उसे छेड़ने लगे. लेकिन राघव हताश, खोयाखोया सा उसे देख रहा था जैसे उस के सामने उस का सारा संसार लुट गया हो और वह कुछ नहीं कर पा रहा था.

इम्तिहान के बाद उस का विवाह हो गया और उन दोनों के दिलों में सबकुछ अव्यक्त, अनकहा ही रह गया. वीरेन से विवाह हुआ तो वीरेन एक अच्छे पिता थे, अच्छे पति थे, पर ठीक उस माली की तरह. वे उसे प्यार से सहेजते, देखभाल करते पर सीमाओं में बांधे रखते. पति से अलग जाने की, अलग सोचने की उस की क्षमता धीरेधीरे खत्म हो गई. उस का लेखन बस, थोड़ाबहुत इधरउधर पत्रिकाओं तक ही सीमित रह गया. तभी किताबें हाथ में उठाए राघव सामने से आता दिखाई दिया.

‘‘ये सब क्या?’’

‘‘मेरी किताबें हैं और कुछ तुम्हारी पसंद के प्रसिद्ध कवि व कवयित्रियों के संकलन हैं. तुम्हारे लिए पैक करवा लाया हूं,’’ वह बैग उस की तरफ बढ़ाता हुआ बोला.

‘‘ओह, थैंक्स राघव,’’ वह राघव को देख रही थी. सोचने लगी, भूख क्या सिर्फ शरीर या पेट की होती है. मानसिक और दिमागी भूख भी तो एक भूख है, जिसे हर कोई शांत नहीं कर सकता. क्यों इतने बेमेल जोड़े बन जाते हैं. राघव और उस के बीच एक मजबूत दिमागी रिश्ता है, जो किताबों से होता हुआ एकदूसरे तक पहुंचता है.

‘‘क्या सोच रही हो,’’ राघव उस की आंखों के  आगे हथेली लहराता हुआ बोला.

‘‘कुछ नहीं,’’ वह संभल कर बैठती हुई बोली, ‘‘तुम्हारी पत्नी को तो बहुत गर्व होता होगा तुम पर. उसे भी पढ़नेलिखने का शौक है क्या?’’

‘‘उसे स्वेटर बुनने का बहुत शौक है,’’ राघव ठहाका मार कर हंसता हुआ बोला, ‘‘हम तीनों को उसी के बुने हुए स्वेटर पहनने पड़ते हैं.’’ यह सुन कर वह भी खिलखिला कर हंस पड़ी.

‘‘स्वर्ण, कभी कालेज का समय याद नहीं करतीं तुम, कभी दोस्तों की याद नहीं आती?’’ राघव की आवाज एकाएक गंभीर हो गई थी.

स्वर्णिमा ने नजरें उठा कर राघव के चेहरे  पर टिका दीं. कितना कुछ था उन निगाहों में पढ़ने के लिए, कितने भाव उतर आए थे. पर उन भावों को तब न पढ़ा, अब तो वह पढ़ना भी नहीं चाहती थी.

‘‘आती है राघव, क्यों नहीं आएगी भला, दोस्तों की याद. यादें तो इंसान की सब से बड़ी धरोहर होती हैं,’’ कह कर स्वर्णिमा उठ खड़ी हुई, ‘‘चलती हूं राघव, समय ने चाहा तो इसी तरह किसी पुस्तक मेले में फिर मुलाकात हो जाएगी.’’

‘‘स्वर्ण,’’ राघव भी उठ खड़ा हुआ, ‘‘कुछ कहना चाहता हूं तुम से,’’ उस के चेहरे पर निगाहें टिकाता हुआ वह बोला, ‘‘दोबारा ऐसी स्वर्ण से नहीं मिलना चाहता हूं मैं. कहां खो गई वह स्वर्णिमा जिस के होंठों से ही नहीं, चेहरे और आंखों के हावभावों से भी कविता बोलती थी. स्वर्ण, अगर पौधा गमले की सीमाएं तोड़ कर जड़ें जमीन की तरफ फैलाने की कोशिश नहीं करेगा, तो माली पौधे की बेचैनी कैसे समझेगा. परिंदा उड़ने के लिए पंख फैलाने की कोशिश नहीं करेगा, पंख नहीं फड़फड़ाएगा तो दूसरे तक उस की फड़फड़ाहट पहुंचेगी कैसे. कोशिश तो खुद ही करनी पड़ती है.

‘‘स्वर्ण, परिस्थितियों से हार मत मानो,’’ वह क्षणभर रुक कर फिर बोला, ‘‘मैं यह नहीं कहता कि जिंदगी को उलटपलट कर रख दो, अपनी गृहस्थी को आग लगा दो या अपने वैवाहिक जीवन को बरबाद कर दो पर अपने पंखों को विस्तार देने की कोशिश तो करो. कितनी बार रोक सकेगा कोई तुम को. अपनी जड़ों को फैलाने की कोशिश तो करो. बढ़ने दो टहनियों को, कितनी बार काटेगा माली. थक जाएगा वह भी. कोई साथ नहीं देता तो अकेले चलो स्वर्ण. तुम्हें चलते देख, साथ चलने वाला, साथ चलने लगेगा.’’

स्वर्णिमा एकटक राघव का चेहरा देख रही थी. ‘‘स्वर्ण, कवि सम्मेलनों में शिरकत करो, बाहर निकलो, अपनी कविताओं का संकलन छपवाने की दिशा में प्रयास करो. कवि सम्मेलनों में दूसरे कविकवयित्रियों से मिलनेजुलने से तुम्हारे लेखन को विस्तार मिलेगा, नया आयाम मिलेगा, तुम्हारा लेखन बढ़ेगा, विचार बढ़ेंगे, प्रेरणा मिलेगी और जानकारियां बढ़ेंगी तुम्हारी.

‘‘और मुझ से कोई मदद चाहिए तो निसंकोच कह सकती हो. मुझे बहुत खुशी होगी. मेरी किताबों के पीछे मेरा फोन नंबर व पता लिखा है, जब चाहे संपर्क कर सकती हो. मेरी बात याद रखना स्वर्ण, तुम्हारा शौक व जनून तुम्हें खुश व जिंदा रखता है, स्वस्थ रखता है…अभिनय, नृत्य, संगीत, गाना, लेखन ये सब विधाएं कला हैं, हुनर हैं, जो प्रकृतिदत्त हैं. ये हर किसी को नहीं मिलतीं. ये सब कलाएं नियमित अभ्यास से ही फलतीफूलती व निखरती हैं. यह नहीं कि जब कभी पात्र भर जाए, मन आंदोलित हो जाए तो थोड़ा सा छलक जाए. बस, उस के बाद चुप बैठ जाओ. किसी भी कला से लगातार जुड़े रहने से कला को विस्तार मिलता है, लिखते रहने से नए विचार मिलते हैं.

‘‘अपने शौक को मारना, मरने जैसा है. खुद को मत मारो स्वर्ण.’’

‘‘मैं तुम्हारी बात का ध्यान रखूंगी राघव,’’ स्वर्णिमा किसी तरह बोली. उस का कंठ अवरुद्ध हो गया था. उस ने किताबों का बैग उठाया और जाने के लिए पलट गई. थोड़ी दूर गई. राघव उसे जाते हुए देख रहा था. एकाएक कुछ सोच कर स्वर्णिमा पलट कर वापस राघव के पास आ गई.

‘‘मुझे माफ कर देना राघव. दरअसल, उम्र का वह वक्त ही ऐसा होता है जब हम अपने निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र नहीं होते.’’

आंसू छलक आए राघव की आंखों में. स्वर्णिमा की हथेली अपने हाथों में ले कर थपक दी उस ने. ‘‘नहीं स्वर्ण, तुम माफी क्यों मांग रही हो. मैं भी तो कुछ नहीं बोल पाया था तब. बहुतों के साथ ऐसा हो जाता होगा जिन के दिल का एक कोना अनकहा, अव्यक्त और कुंआरा ही रह जाता है, सबकुछ बेमेल और गड्डमड्ड सा हो जाता है जीवन में.’’

दोनों ने एकदूसरे को एक बार भरीआंखों से निहारा. स्वर्णिमा पलटी और चली गई. राघव सजल, धुंधलाती निगाहों से उसे जाते देखता रहा. पता नहीं कहां किस मोड़ पर जिंदगी अनचाहा मोड़ ले लेती है. इंसान समझ नहीं पाता और पूरी जिंदगी उसी मोड़ पर चलते रहना पड़ता है. समान रुचि वाले 2 इंसान हमसफर क्यों नहीं बन पाते. उस ने लंबी सांस खींच कर अपनी उंगलियों से अपनी आंखों को जोर से दबा कर आंसू पोंछ डाले.

स्वर्णिमा घर पहुंची तो वीरेन औफिस से आ चुका था, ‘‘बहुत देर कर दी तुम ने, मैं ने फोन भी मिलाया था. पर तुम मोबाइल घर पर ही छोड़ गई थीं.’’

‘‘हां, भूल गई थी,’’ स्वर्णिमा व्यस्तभाव से बोली.

‘‘यह क्या उठा लाई हो?’’ उस के हाथों में बैग देख कर वीरेन बोले.

‘‘किताबें हैं, पुस्तक मेले से खरीदी हैं,’’ वह किताबें बाहर निकाल कर मेज पर रखती हुई बोली.

वीरेन ने एक उड़ती हुई नजर किताबों पर डाली. स्वर्णिमा जानती थी कि वीरेन की किताबों में कोई दिलचस्पी नहीं है. इसलिए उस की बेरुखी पर उसे कोई ताज्जुब नहीं हुआ. वह किचन में गई, 2 कप चाय बना कर ले आई और वीरेन के सामने बैठ गई.

‘‘वीरेन, मैं कल देहरादून जा रही हूं 2 दिनों के लिए.’’

‘‘देहरादून? क्या, क्यों, किसलिए, क्या मतलब, किस के साथ,’’ वीरेन उसे घूरने लगा.

‘‘इतने सारे क्या, क्यों किसलिए वीरेन,’’ वह मुसकराई, ठंडे स्वर में बोली, ‘‘वहां एक कवि सम्मेलन है, मुझे भी निमंत्रण आया है,’’ वह निमंत्रणपत्र उस के हाथ में पकड़ाते हुए बोली.

‘‘क्या जरूरत है वहां जाने की. कवि सम्मेलनों में ऐसा क्या हो जाता है?’’ वह तल्ख स्वर में बोला, ‘‘यहां भी कवि सम्मेलन होते रहते हैं, तब तो तुम नहीं गईं.’’

‘‘वही गलती हो गई वीरेन. पर कल मैं जा रही हूं. जहां तक साथ की जरूरत है, तो हमारी कुंआरी खूबसूरत जवान बेटी कानपुर से चंड़ीगढ़ अकेली आतीजाती है, तब तुम नहीं डरते. मेरे लिए इतना डरने की क्या जरूरत है. किसी एक दिन तो कोई काम पहली बार होता ही है, फिर आदत पड़ जाती है.’’

यह कह कर स्वर्णिमा उठ खड़ी हुई और कमरे में जा कर अपना बैग तैयार करने लगी. वीरेन चुप खड़ा स्वर्णिमा की कही बात को सोचता रह गया. इतनी मजबूती से स्वर्णिमा ने अपनी बात पहले कभी नहीं कही थी.

दूसरे दिन सुबह जल्दी उठ कर वीरेन के लिए सभी तैयारियां कर खुद भी तैयार हुई. अपना बैग ले कर बाहर आई तो लौबी में वीरेन खड़ा था.

‘‘तुम कहां जा रहे हो?’’ वह आश्चर्य से बोली.

‘‘तुम्हें बसस्टौप तक छोड़ देता हूं. कैसे जाओगी, पहले बताती तो मैं भी देहरादून चलता तुम्हारे साथ,’’ वीरेने की आवाज धीमी व पछतावे से भीगी हुई थी.

वीरेन की भीगी आवाज से उस का दिल भर आया. उस का हाथ सहलाते हुए बोली, ‘‘नहीं वीरेन, इस बार तो मैं अकेले ही जाऊंगी. अब तो इधरउधर आतीजाती रहूंगी. कितनी बार जाओगे तुम मेरे साथ. मैं ने आटो वाले को फोन कर दिया था, वह बाहर आ गया होगा गेट पर. मुझे कोई दिक्कत नहीं होगी. मोबाइल पर बात करते रहेंगे.’’

और स्वर्णिमा निकल गई. बाहर लौन में देखा तो माली काम कर रहा था, ‘‘आज बहुत जल्दी आ गए माली, क्या कर रहे हो?’’

‘‘कुछ नहीं मेमसाहब, इस पौधे की जड़ों ने गमला तोड़ दिया है नीचे से. और जड़ें बाहर फैलने लगी हैं. अभी तक यह पौधा 4 गमले तोड़ चुका है, इसलिए मैं ने थकहार कर इसे जमीन पर लगा दिया है. लगता है, अब यह गमले में नहीं रुकेगा.’’

माली बड़बड़ा रहा था और वह खुशी से उस पौधे को देख रही थी जो जमीन पर लग कर लहरा व इठला रहा था. वह भी अपने अंदर एक नई स्वर्णिमा को जन्म लेते महसूस कर रही थी, जो अपनी जड़ों को मजबूती देगी और टहनियों को विस्तार देगी. यह सोच कर उस ने गेट खोला और एक नई उमंग व स्फूर्ति के साथ बाहर निकल गई.

पिताजी का अफेयर चल रहा है और मां इस बात से अनजान है. क्या मुझे यह बात मां को बतानी चाहिए?

अगर आप भी अपनी समस्या भेजना चाहते हैं, तो इस लेख को अंत तक जरूर पढ़ें..

सवाल –

मेरे पिताजी एक मल्टीनैशनल कंपनी में जौब करते हैं और काफी मौर्डन विचारों वाले हैं. हमारे घर में मेरे पिताजी, मेरी मां, मेरा छोटा भाई और मैं ही रहते हैं. हाल ही में मैं ने अपने पिताजी के फोन में कुछ ऐसा देखा जिसे देख कर मैं पूरी तरह शौक्ड रह गया. दरअसल, मैं ने अपने पिताजी के फोन में उन की और उन के औफिस में काम करने वाली एक कलीग की फोटो देखी जिस में वे एकदूसरे के काफी नजदीक दिख रहे थे. यह देखने के बाद मुझे यकीन नहीं हुआ तो मैं ने सचाई जानने के लिए उन की और उन की कलीग की चैट देखी तो फिर मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई. मैं यह जान कर हैरान रह गया कि मेरे पिताजी का उन के औफिस में अफेयर चल रहा है. मैं ने यह बात किसी को नहीं बताई और पिताजी को भी इस बात का पता नहीं चलने दिया है. कृपया मुझे बताइए कि क्या मुझे इस बात के बारे में अपनी मां को बताना चाहिए?

जवाब –

जैसाकि आप ने बताया कि आप के पिताजी काफी मौडर्न विचार रखते हैं तो ऐसे में उन का अफेयर चलना उन के लिए कोई बड़ी बात नहीं होगी. वे मल्टीनैशनल कंपनी में काम करते हैं तो ऐसे में उन के आसपास काफी ऐसे लोग होंगे जो उन की तरह ही आजाद विचारों वाले होंगे लेकिन आप के पिताजी को अफेयर करने से पहले सोचना चाहिए था कि वे न सिर्फ शादीशुदा हैं बल्कि बच्चों के बाप भी हैं.

अगर आप यह बात अपनी मां को बताएंगे तो ऐसे में आप खुद सोच भी नहीं सकते कि इस से उन के मन पर क्या बीतेगी. हो सकता है कि बसबसाया घर पलभर में बिखर जाए.

ऐक्सट्रा मैरिटल अफेयर यानि विवाहेत्तर संबंध कोई छोटी बात नहीं होती और जब एक महिला को पता चलता है कि उस के पति को बाहर किसी और लड़की के साथ अफेयर चल रहा है तो वे टूट कर बिखर जाती है.

अगर आप अपना घर बिखरने से बचाना चाहते हैं तो आप को यह बात किसी से शेयर नहीं करनी चाहिए और आप ने जो कुछ भी देखा उसे भूल जाना चाहिए.

अगर आप की मां को इस बात की भनक भी लग गई तो आप सोच भी नहीं सकते कि उस के परिणाम क्या हो सकते हैं.

हां, अगर आप अपने पिताजी से खुले हुए हैं और उन से हर तरह की बात कर लेते हैं तो ऐसे में आप उन से अकेले में इस बारे में बात कर सकते हैं और उन्हें समझा सकते हैं कि वे जो कर रहे हैं बिलकुल गलत है और उन को यह सब जल्दी ही खत्म कर देना चाहिए.

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पदचिह्न : आखिर पूजा ने अपने पति के साथ क्या किया था

बात बहुत छोटी सी थी किंतु अपने आप में गूढ़ अर्थ लिए हुए थी. मेरा बेटा रजत उस समय 2 साल का था जब मैं और मेरे पति समीर मुंबई घूमने गए थे. समुद्र के किनारे जुहू बीच पर हमें रेत पर नंगे पांव चलने में बहुत आनंद आता था और नन्हा रजत रेत पर बने हमारे पैरों के निशानों पर अपने छोटेछोटे पांव रख कर चलने का प्रयास करता था. उस समय तो मुझे उस की यह बालसुलभ क्रीड़ा लगी थी किंतु आज 25 वर्ष बाद नर्सिंग होम के कमरे में लेटी हुई मैं उस बात में छिपे अर्थ को समझ पाई थी.

हफ्ते भर पहले पड़े सीवियर हार्टअटैक की वजह से मैं जीवन और मौत के बीच संघर्ष करती रही थी, मैं समझ सकती हूं वे पल समीर के लिए कितने कष्टकर रहे होंगे, किसी अनिष्ट की आशंका से उन का उजला गौर वर्ण स्याह पड़ गया था. माथे पर पड़ी चिंता की लकीरें और भी गहरा गई थीं, जीवन की इस सांध्य बेला में पतिपत्नी का साथ क्या माने रखता है, इसे शब्दों में जाहिर कर पाना नामुमकिन है.

नर्सिंग होम में आए मुझे 6 दिन बीत गए थे. यद्यपि मुझे अधिक बोलने की मनाही थी फिर भी नर्सों की आवाजाही और परिचितों के आनेजाने से समय कब बीत जाता था, पता ही नहीं चलता था. अगली सुबह डाक्टर ने मेरा चेकअप किया और समीर से बोले, ‘‘कल सुबह आप इन्हें घर ले जा सकते हैं किंतु अभी इन्हें बहुत एहतियात की जरूरत है.’’

घर जाने की बात सुनते ही हर्षित होने के बजाय मैं उदास हो गई थी. मन में बेचैनी और घुटन का एहसास होने लगा था. फिर वही दीवारें, खिड़कियां और उन के बीच पसरा हुआ भयावह सन्नाटा. उस सन्नाटे को भंग करता मेरा और समीर का संक्षिप्त सा वार्तालाप और फिर वही सन्नाटा. बेटी पायल का जब से विवाह हुआ और बेटा रजत नौकरी की वजह से दिल्ली गया, वक्त की रफ्तार मानो थम सी गई है. शुरू में एक आशा थी कि रजत का विवाह हो जाएगा तो सब ठीक हो जाएगा. किंतु सब ठीक हो जाएगा जैसे शब्द इनसान को झूठी तसल्ली देने के लिए ही बने हैं. सबकुछ ठीक होता कभी नहीं है. बस, एक झूठी आशा, झूठी उम्मीद में इनसान जीता रहता है.

मैं भी, इस झूठी आशा में कितने ही वर्ष जीती रही. सोचती थी, जब तक समीर की नौकरी है, कभी बेटाबहू हमारे पास आ जाया करेंगे, कभी हम दोनों उन के पास चले जाया करेंगे और समीर के रिटायरमेंट के बाद तो रजत अपने साथ हमें दिल्ली ले ही जाएगा किंतु सोचा हुआ क्या कभी पूरा होता है? रजत के विवाह के बाद कुछ समय तक आनेजाने का सिलसिला चला भी. पोते धु्रव के जन्म के समय मैं 2 महीने तक दिल्ली में रही थी. समीर रिटायर हुए तो दिल्ली के चक्कर अधिक लगने लगे. बेटेबहू से अधिक पोते का मोह अपनी ओर खींचता था. वैसे भी मूलधन से ब्याज अधिक प्यारा होता है.

धु्रव की प्यारी मीठीमीठी बातों ने हमें फिर से हमारा बचपन लौटा दिया था. धु्रव के साथ खेलना, उस के लिए खिलौने लाना, छोटेछोटे स्वेटर बनाना, कितना आनंददायक था सबकुछ. लगता था धु्रव के चारों तरफ ही हमारी दुनिया सिमट कर रह गई थी. किंतु जल्दी ही मुट्ठी में बंद रेत की तरह खुशियां हाथ से फिसल गईं. जैसेजैसे मेरा और समीर का दिल्ली जाना बढ़ता गया, नेहा का हमारे ऊपर लुटता स्नेह कम होने लगा और उस की जगह ले ली उपेक्षा ने. मुंह से उस ने कभी कुछ नहीं कहा. ऐसी बातें शायद शब्दों की मोहताज होती भी नहीं किंतु मुझे पता था कि उस के मन में क्या चल रहा था. भयभीत थी वह इस खयाल से कि कहीं मैं और समीर उस के पास दिल्ली शिफ्ट न हो जाएं.

ऐसा नहीं था कि रजत नेहा के इस बदलाव से पूरी तरह अनजान था, किंतु वह भी नेहा के व्यवहार की शुष्कता को नजरअंदाज कर रहा था. मन ही मन शायद वह भी समझता था कि मांबाप के उस के पास आ कर रहने से उन की स्वतंत्रता में बाधा पड़ेगी. उस की जिम्मेदारियां बढ़ जाएंगी जिस से उस का दांपत्य जीवन प्रभावित होगा. उस के और नेहा के बीच व्यर्थ ही कलह शुरू हो जाएगी और ऐसा वह कदापि नहीं चाहता था. मैं ने अपने बेटे रजत का विवाह कितने चाव से किया था. नेहा के ऊपर अपनी भरपूर ममता लुटाई थी किंतु…

मैं ने एक गहरी सांस ली. मन में तरहतरह के खयाल आ रहे थे. शरीर में और भी शिथिलता महसूस हो रही थी. मन न जाने कैसाकैसा हो रहा था. मांबाप इतने जतन से बच्चों को पालते हैं और बच्चे क्या करते हैं मांबाप के लिए? बुढ़ापे में उन का सहारा तक बनना नहीं चाहते. बोझ समझते हैं उन्हें. आक्रोश से मेरा मन भर उठा था. क्या यही संस्कार दिए थे मैं ने रजत को?

इस विचार ने जैसे ही मेरे मन को मथा, तभी मन के भीतर कहीं छनाक की आवाज हुई और अतीत के आईने में मुझे अपना बदरंग चेहरा नजर आने लगा. अतीत की न जाने कितनी कटु स्मृतियां मेरे मन की कैद से छुटकारा पा कर जेहन में उभरने लगीं.

मेरा समीर से जिस समय विवाह हुआ, वह आगरा में एक सरकारी दफ्तर में एकाउंट्स अफसर थे. वह अपने मांबाप के इकलौते लड़के थे. मेरी सास धार्मिक विचारों वाली सीधीसादी महिला थीं. विवाह के बाद पहले दिन से ही उन्होंने मां के समान मुझ पर अपना स्नेह लुटाया. मेरे नाजनखरे उठाने में भी उन्होंने कमी नहीं रखी. सारा दिन अपने कमरे में बैठ कर मैं या तो साजशृंगार करती या फिर पत्रिकाएं पढ़ती रहती थी और वह अकेली घर का कामकाज निबटातीं.

उन में जाने कितना सब्र था कि उन्होंने मुझ से कभी कोई गिलाशिकवा नहीं किया. समीर को कभीकभी मेरा काम न करना खटकता था, दबे शब्दों में वह अम्मां की मदद करने को कहते, किंतु मेरे माथे पर पड़ी त्योरियां देख खामोश रह जाते. धीरेधीरे सास की झूठीझूठी बातें कह कर मैं ने समीर को उन के खिलाफ भड़काना शुरू कर दिया, जिस से समीर और उन के मांबाप के बीच संवादहीनता की स्थिति आ गई. आखिर एक दिन अवसर देख कर मैं ने समीर से अपना ट्रांसफर करा लेने को कहा. थोड़ी नानुकूर के बाद वह सहमत हो गए. अभी विवाह को एक साल ही बीता था कि मांबाप को बेसहारा छोड़ कर मैं और समीर लखनऊ आ गए.

जिंदगी भर मैं ने अपने सासससुर की उपेक्षा की. उन की ममता को उन की विवशता समझ कर जीवनभर अनदेखा करती रही. मैं ने कभी नहीं चाहा, मेरे सासससुर मेरे साथ रहें. उन का दायित्व उठाना मेरे बस की बात नहीं थी. अपनी स्वतंत्रता, अपनी निजता मुझे अत्यधिक प्रिय थी. समीर पर मैं ने सदैव अपना आधिपत्य चाहा. कभी नहीं सोचा, बूढ़े मांबाप के प्रति भी उन के कुछ कर्तव्य हैं. इस पीड़ा और उपेक्षा को झेलतेझेलते मेरे सासससुर कुछ साल पहले इस दुनिया से चले गए.

वास्तव में इनसान बहुत ही स्वार्थी जीव है. दोहरे मापदंड होते हैं उस के जीवन में, अपने लिए कुछ और, दूसरे के लिए कुछ और. अब जबकि मेरी उम्र बढ़ रही है, शरीर साथ छोड़ रहा है, मेरे विचार, मेरी प्राथमिकताएं बदल गई हैं. अब मैं हैरान होती हूं आज की युवा पीढ़ी पर. उस की छोटी सोच पर. वह क्यों नहीं समझती कि बुजुर्गों का साथ रहना उन के हित में है.

आज के बच्चे अपने मांबाप को अपने बुजुर्गों के साथ जैसा व्यवहार करते देखेंगे वैसा ही व्यवहार वे भी बड़े हो कर उन के साथ करेंगे. एक दिन मैं ने नेहा से कहा था, ‘‘घर के बड़ेबुजुर्ग आंगन में लगे वट वृक्ष के समान होते हैं, जो भले ही फल न दें, अपनी छाया अवश्य देते हैं.’’

मेरी बात सुन कर नेहा के चेहरे पर व्यंग्यात्मक हंसी तैर गई थी. उस की बड़ीबड़ी आंखों में अनेक प्रश्न दिखाई दे रहे थे. उस की खामोशी मुझ से पूछ रही थी कि क्यों मम्मीजी, क्या आप के बुजुर्ग आंगन में लगे वट वृक्ष के समान नहीं थे, क्या वे आप को अपनी छाया, अपना संबल प्रदान नहीं करते थे? जब आप ने उन के संरक्षण में रहना नहीं चाहा तो फिर मुझ से ऐसी अपेक्षा क्यों?

आहत हो उठी थी मैं उस के चेहरे के भावों को पढ़ कर और साथ ही साथ शर्मिंदा भी. उस समय अपने ही शब्द मुझे खोखले जान पड़े थे. इस समय मन की अदालत में न जाने कितने प्रसंग घूम रहे थे, जिन में मैं स्वयं को अपराधी के कटघरे में खड़ा पा रही थी. कहते हैं न, इनसान सब से दूर भाग सकता है किंतु अपने मन से दूर कभी नहीं भाग सकता. उस की एकएक करनी का बहीखाता मन के कंप्यूटर में फीड रहता है.

मैं ने चेहरा घुमा कर खिड़की के बाहर देखा. शाम ढल चुकी थी. रात्रि की परछाइयों का विस्तार बढ़ता जा रहा था और इसी के साथ नर्सिंग होम की चहल पहल भी थक कर शांत हो चुकी थी. अधिकांश मरीज गहरी निद्रा में लीन थे किंतु मेरी आंखों की नींद को विचारों की आंधियां न जाने कहां उड़ा ले गई थीं. सोना चाह कर भी सो नहीं पा रही थी, मन बेचैन था. एक असुरक्षा की भावना मन को घेरे हुए थी. तभी मुझे अपने नजदीक आहट महसूस हुई, चेहरा घुमा कर देखा, समीर मेरे निकट खड़े थे.

मेरे माथे पर हाथ रख स्नेह से बोले, ‘‘क्या बात है पूजा, इतनी परेशान क्यों हो?’’

‘‘मैं घर जाना नहीं चाहती हूं,’’ डूबते स्वर में मैं बोली.

‘‘मैं जानता हूं, तुम ऐसा क्यों कह रही हो? घबराओ मत, कल का सूरज तुम्हारे लिए आशा और खुशियों का संदेश ले कर आ रहा है. तुम्हारे बेटाबहू तुम्हारे पास आ रहे हैं.’’

समीर के कहे इन शब्दों ने मुझ में एक नई चेतना, नई स्फूर्ति भर दी. सचमुच रजत और नेहा का आना मुझे उजली धूप सा खिला गया. आते ही रजत ने अपनी बांहें मेरे गले में डालते हुए कहा, ‘‘यह क्या हाल बना लिया मम्मी, कितनी कमजोर हो गई हो? खैर कोई बात नहीं. अब मैं आ गया हूं, सब ठीक हो जाएगा.’’

एक बार फिर से इन शब्दों की भूलभुलैया में मैं विचरने लगी. एक नई आशा, नए विश्वास की नन्हीनन्ही कोंपलें मन में अंकुरित होने लगीं. व्यर्थ ही मैं चिंता कर रही थी, कल से न जाने क्याक्या सोचे जा रही थी, हंसी आ रही थी अब मुझे अपनी सोच पर. जिस बेटे को 9 महीने अपनी कोख में रखा, ममता की छांव में पालपोस कर बड़ा किया, वह भला अपने मांबाप की ओर से आंखें कैसे मूंद सकता है? मेरा रजत ऐसा कभी नहीं कर सकता.

नर्सिंग होम से मैं घर वापस आई तो समीर और बेटेबहू क्या घर की दीवारें तक जैसे मेरे स्वागत में पलकें बिछा रही थीं. घर में चहलपहल हो गई थी. धु्रव की प्यारीप्यारी बातों ने मेरी आधी बीमारी को दूर कर दिया था. रजत अपने हाथों से दवा पिलाता, नेहा गरम खाना बना कर आग्रहपूर्वक खिलाती. 6-7 दिन में ही मैं स्वस्थ नजर आने लगी थी.

एक दिन शाम की चाय पीते समय रजत ने कहा, ‘‘पापा, मुझे आए 10 दिन हो चुके हैं. आप तो जानते हैं, प्राइवेट नौकरी है. अधिक छुट्टी लेना ठीक नहीं है.’’

‘‘तुम ठीक कह रहे हो. कब जाना चाहते हो?’’ समीर ने पूछा.

‘‘कल ही हमें निकल जाना चाहिए, किंतु आप दोनों चिंता मत करना, जल्दी ही मैं फिर आऊंगा.’’

अपनी ओर से आश्वासन दे कर रजत और नेहा अपने कमरे में चले गए. एक बार फिर से निराशा के बादल मेरे मन के आकाश पर छाने लगे. हताश स्वर में मैं समीर से बोली, ‘‘जीवन की इस सांध्य बेला में अकेलेपन की त्रासदी झेलना ही क्या हमारी नियति है? इन हाथ की लकीरों में क्या बच्चों का साथ नहीं लिखा है?’’

‘‘पूजा, इतनी भावुकता दिखाना ठीक नहीं. जिंदगी की हकीकत को समझो. रजत की प्राइवेट नौकरी है. वह अधिक दिन यहां कैसे रुक सकता है?’’ समीर ने मुझे समझाना चाहा.

मेरी आंखों में आंसू आ गए. रुंधे कंठ से मैं बोली, ‘‘यहां नहीं रुक सकता किंतु हमें अपने साथ दिल्ली चलने को तो कह सकता है या इस में भी उस की कोई विवशता है. अपनी नौकरी, अपनी पत्नी, अपना बच्चा बस, यही उस की दुनिया है. बूढ़े होते मांबाप के प्रति उस का कोई कर्तव्य नहीं. पालपोस कर क्या इसीलिए बड़ा किया था कि एक दिन वह हमें यों बेसहारा छोड़ कर चला जाएगा.’’

‘‘शांत हो जाओ, पूजा,’’ समीर बोले, ‘‘तुम्हारी सेहत के लिए क्रोध करना ठीक नहीं. ब्लडप्रेशर बढ़ जाएगा, रजत अभी उतना बड़ा नहीं है जितना तुम उसे समझ रही हो. हम ने आज तक उसे कोई दायित्व सौंपा ही कहां है? पूजा, अकसर हम अपनों से अपेक्षा रखते हैं कि हमारे बिना कुछ कहे ही वे हमारे मन की बात समझ जाएं, वही बोलें जो हम उन से सुनना चाहते हैं और ऐसा न होने पर दुखी होते हैं. रजत पर क्रोध करने से बेहतर है, तुम उस से अपने मन की बात कहो. देखना, यह सुन कर कि हम उस के साथ दिल्ली जाना चाहते हैं, वह बहुत प्रसन्न होगा.’’

कुछ देर खामोश बैठी मैं समीर की बातों पर विचार करती रही और आखिर रजत से बात करने का मन बना बैठी. मैं उस की मां हूं, मेरा उस पर अधिकार है. इस भावना ने मेरे फैसले को बल दिया और कुछ समय के लिए नेहा की उपस्थिति से उपजा एक अदृश्य भय और संकोच मन से जाता रहा.

मैं कुरसी से उठी. तभी दूसरे कमरे में परदे के पीछे से नेहा के पांव नजर आए. मैं समझ गई परदे के पीछे खड़ी वह हम दोनों की बातें सुन रही थी. मेरा निश्चय कुछ डगमगाया किंतु अधिकार की बात याद आते ही पुन: कदमों में दृढ़ता आ गई. रजत के कमरे के बाहर नेहा के शब्द मेरे कानों में पड़े, ‘मम्मी ने स्वयं तो जीवनभर आजाद पंछी बन कर ऐश की और मुझे अभी से दायित्वों के बंधन में बांधना चाहती हैं. नहीं रजत, मैं साथ नहीं रहूंगी.’

नेहा से मुझे कुछ ऐसी ही नासमझी की उम्मीद थी. अत: मैं ने ऐसा दिखाया मानो कुछ सुना ही न हो. तभी मेरे कदमों की आहट सुन कर रजत ने मुड़ कर देखा, बोला, ‘‘अरे, मम्मी, तुम ने आने की तकलीफ क्यों की? मुझे बुला लिया होता.’’

‘‘रजत बेटा, मैं तुम से कुछ कहना चाहती हूं,’’ कहतेकहते मैं हांफने लगी.

रजत ने मुझे पलंग पर बैठाया फिर स्वयं मेरे नजदीक बैठ मेरा हाथ सहलाते हुए बोला, ‘‘हां, अब बताओ मम्मी, क्या कह रही हो?’’

‘‘बेटा, अब मेरा और तुम्हारे पापा का अकेले यहां रहना बहुत कठिन है. हम दोनों तुम्हारे पास दिल्ली रहना चाहते हैं. अकेले मन भी नहीं लगता.’’

इस से पहले कि रजत कुछ कहता, समीर भी धु्रव को गोद में उठाए कमरे में चले आए. बात का सूत्र हाथ में लेते हुए बोले, ‘‘रजत, तुम तो देख ही रहे हो अपनी मम्मी की हालत. इन्हें अकेले संभालना अब मेरे बस की बात नहीं है. इस उम्र में हमें तुम्हारे सहारे की आवश्यकता है.’’

‘‘पापा, आप दोनों का कहना अपनी जगह ठीक है किंतु यह भी तो सोचिए, लखनऊ का इतना बड़ा घर छोड़ कर आप दोनों दिल्ली के हमारे 2 कमरों के फ्लैट में कैसे एडजस्ट हो पाएंगे? जहां तक मन लगने की बात है, आप दोनों अपना रुटीन चेंज कीजिए. सुबहशाम घूमने जाइए. कोई क्लब अथवा संस्था ज्वाइन कीजिए. जब आप का यहां मन नहीं लगता है तो दिल्ली में कैसे लग सकता है? वहां तो अगलबगल रहने वाले आपस में बात तक नहीं करते हैं.’’

‘‘मन लगाने के लिए हमें पड़ोसियों का नहीं, अपने बच्चों का साथ चाहिए. तुम और नेहा जौब पर जाते हो, इस कारण धु्रव को कै्रच में छोड़ना पड़ता है. हम दोनों वहां रहेंगे तो धु्रव को क्रैच में नहीं भेजना पड़ेगा. हमारा भी मन लगा रहेगा और धु्रव की परवरिश भी ठीक से हो सकेगी.’’

‘‘क्रैच में बच्चों को छोड़ना आजकल कोई समस्या नहीं है पापा. बल्कि क्रैच में दूसरे बच्चों का साथ पा कर बच्चा हर बात जल्दी सीख जाता है, जो घर में रह कर नहीं सीख पाता.’’

‘‘इस का मतलब तुम नहीं चाहते कि हम दोनों तुम्हारे साथ दिल्ली में रहें,’’ समीर कुछ उत्तेजित हो उठे थे.

‘‘कैसी बातें करते हैं पापा? चाहता मैं भी हूं कि हम लोग एकसाथ रहें किंतु प्रैक्टिकली यह संभव नहीं है.’’

तभी नेहा बोल उठी, ‘‘इस से बेहतर विकल्प यह होगा पापा कि हम लोग यहां आते रहें बल्कि आप दोनों भी कुछ दिनों के लिए आइए. हमें अच्छा लगेगा.’’

‘कुछ’ शब्द पर उस ने विशेष जोर दिया था. उन की बात का उत्तर दिए बिना मैं और समीर अपने कमरे में चले आए थे.

शाम का अंधेरा गहराता जा रहा था. मेरे भीतर भी कुछ गहरा होता जा रहा था. कुछ टूट रहा था, बिखर रहा था. हताश सी मैं पलंग पर लेट कर छत को निहारने लगी. वर्तमान से छिटक कर मन अतीत के गलियारे में विचरने लगा था.

आगरा में मेरे सासससुर उन दिनों बीमार रहने लगे थे. समीर अकसर बूढ़े मांबाप को ले कर चिंतित हो उठते थे. रात के अंधेरे में अकसर उन्हें फर्ज और कर्तव्य जैसे शब्द याद आते, खून जोश मारता, बूढ़े मांबाप को साथ रखने को जी चाहता किंतु सुबह होतेहोते भावुकता व्याव- हारिकता में बदल जाती. काम की व्यस्तता और मेरी इच्छा को सर्वोपरि मानते हुए वह जल्दी ही मांबाप को साथ रखने की बात भूल जाते.

एक बार मैं और समीर दीवाली पर आगरा गए थे. उस समय मेरी सास ने कहा था, ‘समीर बेटे, मेरी और तुम्हारे बाबूजी की तबीयत अब ठीक नहीं रहती. अकेले पड़ेपड़े दिल घबराता है. काम भी नहीं होता. यह मकान बेच कर तुम्हारे साथ लखनऊ रहना चाहते हैं.’

इस से पहले कि समीर कुछ कहें मैं उपेक्षापूर्ण स्वर में बोल उठी थी, ‘अम्मां मकान बेचने की भला क्या जरूरत है? आप की लखनऊ आने की इच्छा है तो कुछ दिनों के लिए आ जाइए.’ ‘कुछ’ शब्द पर मैं ने भी विशेष जोर दिया था. इस बात से अम्मां और बाबूजी बेहद आहत हो उठे थे. उन के चेहरे पर न जाने कहां की वेदना और लाचारी सिमट आई थी. फिर कभी उन्होंने लखनऊ रहने की बात नहीं उठाई थी. काश, वक्त रहते अम्मां की आंखों के सूनेपन में मुझे अपना भविष्य दिखाई दे जाता.

तो क्या इतिहास स्वयं को दोहरा रहा है? जैसा मैं ने किया वही मेरे साथ भी.. मन में एक हूक सी उठी. तभी एक दीर्घ नि:श्वास ले कर समीर बोले, ‘‘मैं सोच भी नहीं सकता था पूजा कि हमारा रजत इतना व्यावहारिक हो सकता है. किस खूबसूरती से उस ने अपने फर्ज, अपने दायित्व यहां तक कि अपने मांबाप से भी किनारा कर लिया.’’

‘‘इस में उस का कोई दोष नहीं, समीर. सच पूछो तो मैं ने उसे ऐसे संस्कार ही कहां दिए जो वह अपने मांबाप के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह करे. उन की सेवा करे. मैं ने हमेशा रजत से यही कहा कि मांबाप की सेवा से बड़ा कोई धर्म नहीं है. इस बात को मैं भूल ही गई कि बच्चों के ऊपर मांबाप के उपदेशों का नहीं बल्कि उन के कार्यों का प्रभाव पड़ता है.’’

‘‘चुप हो जाओ पूजा, तुम्हारी तबीयत खराब हो जाएगी.’’

‘‘नहीं, आज मुझे कह लेने दो, समीर. रजत और नेहा तो फिर भी अच्छे हैं. बीमारी में ही सही कम से कम इन दिनों मेरा खयाल तो रखा. मैं ने तो कभी अम्मां और बाबूजी से अपनत्व के दो शब्द नहीं बोले. कभी नहीं चाहा कि वे दोनों हमारे साथ रहें, यही नहीं तुम्हें भी सदैव तुम्हारा फर्ज पूरा करने से रोका. जब पेड़ ही बबूल का बोया हो तो आम के फल की आशा रखना व्यर्थ है.’’

समीर ने मेरे दुर्बल हाथ को अपनी हथेलियों के बीच ले कर कहा, ‘‘इस में दोष अकेले तुम्हारा नहीं, मेरा भी है लेकिन अब अफसोस करने से क्या फायदा? दिल छोटा मत करो पूजा. बस, यही कामना करो, हम दोनों का साथ हमेशा बना रहे.’’

मैं ने भावविह्वल हो कर समीर का हाथ कस कर थाम लिया, हृदय की संपूर्ण वेदना चेहरे पर सिमट आई, आंखों की कोरों से आंसू बह निकले, जो चेहरे की लकीरों में ही विलीन हो गए. आज मुझे समझ में आ रहा था कि समय की रेत पर हम जो पदचिह्न छोड़ जाते हैं, आने वाली पीढ़ी उन्हीं पदचिह्नों का अनुसरण कर के आगे बढ़ती है.

हाय, ये कातिल नजरें : नजरें कयामत तक चैन नहीं लेने देती

नजरें जितनी रसीली और नशीली होती हैं, उस से ज्यादा कातिल होती हैं. नाजनीनों की नायाब नजरें खंजर होती हैं, तीर और तलवार होती हैं. नजरें गोली होती हैं, पिस्तौलें और तोप होती हैं. नजर का मारा पानी तक नहीं मांगता है. नजरें कहर ढाती हैं, कयामत लाती हैं. नजरें बेसुध करती हैं, बेहोश करती हैं, मदहोश करती हैं. नजरें चोट करती हैं, नजरें कत्ल करती हैं. नजरें कयामत तक चैन नहीं लेने देती हैं. नजर से जीते हैं, तो नजर से मरते हैं.

एक शायर फरमाते हैं :

‘जीना भी आ गया मुझे, मरना भी आ गया,

पहचानने लगा हूं, तुम्हारी नजर को मैं.’

नजरों से कैसेकैसे हादसे होते हैं, तभी तो शायर सचेत करते हुए कहता है:

‘देखा न आंख भर के, किसी की तरफ कभी,

तुम को खबर नहीं, जो तुम्हारी नजर में है.’

मिर्जा गालिब को अपनी माशूका की मदभरी नजर का आधा खिंचा तीर ऐसा लगा कि वे तड़प उठे. अब उन्हीं की जबानी सुन लीजिए :

‘कोई मेरे दिल से पूछे, तेरे तीरेनीमकश को,

ये खलिश कहां से होती, जो जिगर के पार होता.’

उधर दाग साहब का दिल उन की माशूका की नजर के तीर का शिकार हुआ, लेकिन उन का जिगर बच गया. अब जिगर अपनी माशूका से कहते हैं :

‘शिकारे तीरे नजर दिल हुआ, जिगर न हुआ,

ये बच रहा है, जरा उस की भी खबर लेना.’

एक शायर फरमाते हैं :

‘तिरछी नजरों से न देखो, आशिक दिलगीर को,

कैसे तीरंदाज हो, सीधा तो कर लो तीर को.’

एक और शायर फरमाते हैं :

‘जिस को तीरे नजर लगा हो,

एकदम वो मर गया होगा.’

नजरों से ऐसा निशाना लगता है कि किसी तीर, तलवार या खंजर की जरूरत नहीं है. सुनिए ऐसे :

‘जरा नजरों से कह दो जी, निशाना चूक न जाए.’

तिरछी नजर का तीर बड़ी मुश्किल से निकलता है और जब निकलता है, तो दिल के साथ ही निकलता है, देखिए यों:

‘तेरी तिरछी नजर का तीर है, मुश्किल से निकलेगा,

दिल उस के साथ निकलेगा, अगर ये दिल से निकलेगा.’

शायर अजीज की महबूबा की नजर ने तो उन के सीने को चीर कर उन के दिल में ही अपना आशियाना बना लिया है. देखिए ऐसे :

‘तोड़ कर सीने को मेरे दिल में अपना घर किया,

कौन कहता है कि वे तीरे नजर नहीं.’

शायर नातिक लखनवी तो जमाने के सैकड़ों तीरों से ज्यादा तेज नजर का तीर बतलाते हैं और जब वह तीरे नजर किसी दिल का निशाना बने, तो सिवाय तड़पन के और कुछ नहीं होता है. वे फरमाते हैं:

‘सौ तीर जमाने के, इक तीरे नजर तेरा,

अब क्या कोई समझेगा, दिल किस का निशाना है.’

एक और शायर फरमाते हैं:

‘क्या पूछते हो शोख निगाहों का माजरा,

दो तीर थे, जो मेरी नजर में उतर गए.’

एक शायर की प्रेमिका के हुस्न की रंगत तो ऐसी है कि कोई भी दीवाना हो जाए, लेकिन एक तीरे नजर से लाखों दिल चाक हो जाते हैं :

‘तेरे हुस्न की रंगत ऐसी है, हर कोई दीवाना हो जाए,

इक तीरे नजर के चलने से, दिल लाखों निशाना हो जाए.’

एक शायर शाद विसवानी की माशूका की तिरछी नजर देखिए, जो बेगुनाहों का भी कत्ल कर देती है. वह भी यों :

‘शायद करोगे कत्ल किसी बेगुनाह का,

जाते हो आज खींच के तेगे नजर कहां.’

एक शायर को अपनी महबूबा की नजर तलवार जैसी पैनी महसूस हुई :

‘उफ, वो नजर कि सब के लिए दिलनवाज थी,

मेरी तरफ उठी, तो तलवार हो गई.’

शायर समर की जबानी सुनिए :

‘रहरह के देखता है, तिरछी नजर से हम को,

खंजर लगा रहा है कातिल संभलसंभल के.’

दाग देहलवी फरमाते हैं :

‘शोखी से ठहरती नहीं कातिल की नजर आज,

ये वर्के बला देखिए गिरती है किधर आज.’

कमाल लखनवी फरमाते हैं :

‘जरा आंख ऊपर उठा कर तो देखो,

मिला खाक में कौन नीची नजर से.’

नजरें इतनी मारू होती हैं कि वे जिस की तरफ कर के फेर ली जाएं, तो उस आशिक की मरते दम तक परेशानी नहीं जाती है. शायर आनंद नारायण मुल्ला की माशूका इतनी कमाल की है कि उस की मारू नजरों से कयामत आ जाती है. देखिए यों :

‘नजर जिस की तरफ कर के निगाहें फेर लेते हो,

कयामत तक फिर उस दिल की परेशानी नहीं जाती.’

एक शायर की माशूका की नजर कयामत की है. उस का अंदाज बला का है और जलवा ऐसा कि किसी को भी दीवाना बना दे. देखिए यों :

‘अंदाज बला के हैं, कयामत की नजर है,

जलवे का वह आलम है कि दीवाना बना दे.’

नजरें चोट करती हैं और वह भी सीधे दिल पर. देखिए यों :

‘दिल पे इस तरह लगें, उन की नजर की चोट,

आईना चूर हो, आवाज न होने पाए.’

शायर फानी की जबानी सुनिए :

‘हर नजर खराब हो के रही,

दिल की बस्ती खराब हो के रही.’

एक शायर की माशूका तो अपनी नजरों से सीधा कत्ल ही करती है. उस की नजर बड़ी जुल्मी है. धनुष जैसी टेढ़ी हो कर नजर के छोटे से तीर चलाती है और फिर नजर से कत्ल भी करती है :

‘अदा से झुक के मिलते हैं, नजर से कत्ल करते हैं,

सितम ईजाद हो, नावक चलाते हो, कमां हो कर.’

शायर मोमिन की माशूका ने तो अपनी एक नजर से पूरे जहां का कत्ल कर दिया. आप उन की माशूका की नजर का कमाल देखिए :

‘किया तुम ने कत्लेजहां इक नजर में,

किसी ने देखा, तमाशा किसी का.’

शायर बिस्मिल तो अपनी माशूका के तीरे नजर को कलेजे में रखे हुए हैं. तीरे नजर की कद्र करना तो शायर से सीखे :

‘करने का नहीं कद्र, कोई इस से ज्यादा,

रखता हूं कलेजे में, तेरे तीरे नजर को.’

शायर अर्शी भोपाली की माशूका की नीची नजर का तो यह आलम है, मानो किसी ने दिल में चुभो कर तीर या नश्तर को तोड़ डाला हो. वे फरमाते हैं :

‘तेरी नजर की याद का आलम, अरे तोबा,

चुभो कर दिल में जैसे तोड़ डाले, कोई पैकां को.’

शफक इलाहाबादी फरमाते हैं कि माशूका की सीधी नजर ही जानलेवा होती है और फिर वह तिरछी हो, तो फिर उस का असर तो और भी खतरनाक हो सकता है. देखिए :

‘तिरछी हो तो कुछ और भी बढ़ जाए असर में,

तासीर ये है जब तेरी सीधी सी नजर में.’

शायर फिराक गोरखपुरी अपनी माशूका की नजरों से खराब हो उठे. वे फरमाते हैं :

‘खराब हो उठा हूं तेरी निगाह से,

मैं सोचता हूं कि दुनिया संवर गई होगी.’

शायर हफीज की माशूका तो ऐसी कातिल और शरारत भरी नजरों से देखती है कि ईमान संभालने के लिए उपदेशक को बुलाना पड़ता है. कहते हैं :

‘नासेह को बुलाओ, मेरा ईमान संभाले,

फिर देख लिया उस ने शरारत की नजर से.’

एक शायर की माशूका प्यार भरी नजरोें से भी देखे, तो उन्हें ऐसा महसूस होता है कि उन की जान पे बन आई. देखिए ऐसे :

‘तुम ने देखा मुझे प्यार भरी नजरों से

मैं यह समझा कि मेरी जान पे बन आई है.’

एक शायर की माशूका जिस को देख लेती है, वह बेहोश हो जाता है. उस की जालिम नजर का कोई जवाब ही नहीं है. वफा मेरठी फरमाते हैं :

‘जिसे भी देख ले तू, वो ही होश खो बैठे,

तेरी नजर का भी जालिम कोई जवाब नहीं.’

दामादोफोबिया : दामाद क्यों बेटे जैसा नहीं हो सकता

 मेरा दामाद तो लाखों में एक है जो बेटे की तरह मेरा ख्याल रखता है. ऐसा कहने और मानने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है तो इस की वजहें भी हैं जिन के चलते ससुर दामाद का रिश्ता पहले की तरह उबाऊ और औपचारिक नहीं रह गया है.

ज्यादा नहीं अब से कोई 30 – 40 साल पहले दामाद को उस के नाम से पुकारने की मजाल कोई नहीं कर सकता था. बहुत संपन्न और बड़े शहरों में रह रहे परिवारों में ही दामाद को नाम से बुलाया जाता था. यह शिक्षा का असर था या जागरूकता का या फिर बदलते दौर के रिश्तों का यह कह पाना मुश्किल है लेकिन यह बात बहुत आम थी कि दामाद को बुलाने कई सम्मानजनक शब्द चलन में थे, मसलन जवाई राजा, कुंवर साहब, लालाजी, पाहुन, बटुकजी या फिर बाबू साहब. कहने का मतलब यह नहीं कि दामाद कोई हव्वा या अजूबा हुआ करता था बल्कि यह एक तरह का प्रोटोकाल था जिस के तहत दामाद को हद से ज्यादा आदर और सम्मान दिया जाता था.

हालिया राजनीतिक उठापटक में देखें तो एक बार फिर स्पष्ट हो जाता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गांधी परिवार के दामाद राबर्ट वाड्रा का उतना ही सम्मान करते हैं जितना पहले कभी गांवदेहातों में किया जाता था. एक का दामाद पूरे गांव का दामाद हुआ करता था. जिस से मनमुटाव या दुश्मनी होती थी उस के दामाद को भी लोग इज्जत देते थे. हरियाणा विधान सभा चुनाव के वक्त मोदी ने कितनी शिद्दत से राबर्ट बाड़ा को याद किया यह हर कोई जानता है. उन्होंने कांग्रेस को दामादों और दलालों की पार्टी कहते भले ही तंज कसा हो लेकिन उस में दामाद का नाम न लेने का रिवाज, पौराणिक संस्कार और सम्मान तो शामिल थे.
हालांकि जब बारबार उन्होंने दामादजी, दिल्ली में बैठे दामादजी किया तो वाड्रा भी झल्ला कर बोल ही पड़े कि “अगर मैं ने कुछ गलत किया है तो ये लोग मुझे गिरफ्तार क्यों नहीं कर लेते. 10 साल से तो इन्ही की सरकार है. इस दौरान सारी जांच एजेंसिया लगा दीं. ये एक भी आरोप साबित नहीं कर पाए खुद मनोहरलाल खट्टर मुझे दो बार क्लीन चिट दे चुके हैं.”

बकौल वाड्रा दामाद हमारे समाज और देश में सम्मान के साथ देखा जाता है. लेकिन वे गाली गलोच की भाषा इस्तेमाल करते हैं. उन्होंने दलाल की बात की जो पढ़ेलिखे व्यक्ति नहीं कर सकते. देखा जाए तो इनडायरेक्टली उन्होंने मोदी की डिग्री पर उंगली ही उठाई. यह काम आप संयोजक और दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी हर कभी किया करते हैं जिस पर जाने क्यों सारे भाजपाई तिलमिला उठते हैं.

ये वही नरेंद्र मोदी हैं जो आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू के बारे में सार्वजनिक तौर पर बोलते थे कि उन्होंने अपने ससुर एनटी रामाराव की पीठ में छुरा भोंका है ( गुंटूर 10 फरवरी 2019 ). जवाब में नायडू भी तुरंत यह कड़वा सच उगलने से खुद को रोक नहीं पाए थे कि उन्होंने तो अपनी पत्नी को ही छोड़ रखा है ( अमरावती 10 फरवरी 2019 ). पिछले लोकसभा चुनाव में टीडीपी, एनडीए का दौबारा हिस्सा बनी तो फिर मोदी ने कभी कहीं दामाद पीठ और छुरे वाली बात नहीं कही. क्योंकि उन के साथ आने मात्र से नायडू का यह कथित पाप धुल गया था. अब नायडू भी मोदी की पत्नी जसोदाबेन को छोड़े जाने का जिक्र नहीं करते. यही वह मौकापरस्त सियासत कही जाती है जिस में कोई किसी का परमानेंट दोस्त या दुश्मन नहीं होता.

इस दामादोफोबिया को राजनीति से हट कर देखें तो 4 दशकों में जो बहुत कुछ बदला है. उस में एक अहम बदलाव यह भी शामिल है कि दामाद से खासतौर से ससुर के संबंध अनौपचारिक होने लगे. नहीं तो पहले दामाद का घर आना ही एक महत्वपूर्ण घटना हुआ करती थी. उस के स्वागत में पलक पांवड़े बिछाए जाते थे. घर की साफ़ सफाई होती थी, चादर परदे और सोफे के कवर वगैरह बदल दिए जाते थे. खाना दामाद की पसंद का बनता था और दामाद पूरे महल्ले का दामाद हुआ करता था घर में. सभी को सलीके से रहने और पेश आने की हिदायत दी जाती थी. कुल जमा माहौल किसी उत्सव जैसा रहता था जिस में थोड़ी सी दहशत और बहुत ज्यादा लिहाज रहता था. ऐसा कोई काम करने से सभी यथासंभव बचते थे जिस से दामादजी के नाराज रहने की संभावना रहती हो.

अब ऐसा कुछ नहीं है दामाद का सम्मान तो पूर्ववत है लेकिन उस का तरीका बदल गया है. दामाद को अब नाम ले कर ही पुकारा जाता है. खासतौर से ससुर अधिकारपूर्वक दामाद को नाम से पुकारता है. यह संबंध दोस्ती और लिहाज की सीमा रेखा पर आ गया है और बहुत हद तक भावनात्मक भी हो गया है. बहुत कम शब्दों में कहें तो दामाद बेटे जैसा हो चला है.
ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ ससुराल वाले या ससुर ही बदले हों बल्कि बदले दामाद भी हैं. वे पिता और ससुर में खास अंतर नहीं करते. मौडर्न दामादों की माने तो ससुर उन के लिए पिता समान ही है ठीक वैसे ही जैसे उस की पत्नी के लिए उस के पेरैंट्स हैं. ऐसा क्यों, इस की एक बड़ी वजह यह है कि जब से एक या दो संतानों का रिवाज चला और संयुक्त परिवार टूटने लगे तो हर लिहाज से दामाद की उपयोगिता बढ़ गई. दूसरे बेटियों की शिक्षा और आर्थिक आत्मनिर्भरता ने भी इस में अहम रोल निभाया.

जिन के सिर्फ एक या दो बेटियां हैं उन के लिए तो दामाद वाकई बेटे जैसा सहारा बन रहा है जो बीमारी में उन की देखभाल भी करता है, आर्थिक मामले भी निबटाता है और घर आने पर उन का उतना ही सम्मान करता है और उन के साथ जितना संभव हो वक्त भी गुजारता है जिस से कोई भी बुजुर्ग अभिभूत हो सकता हैं. फिर बुढ़ापा उन्हें भार या अभिशाप नहीं लगता. भोपाल के एक रिटायर्ड अधिकारी की मानें तो वे पत्नी सहित रहते हैं दोनों बेटियां पुणे में हैं. साल में वे दो चक्कर पुणे के लगाते हैं और 15 – 15 दिन बेटियों के यहां रुकते हैं. इस दौरान दामाद उन्हें पेरैंट्स जैसा ही ट्रीट करते हैं. सुबह की सैर पर साथ जाते हैं, घुमातेफिराते हैं, होटल में खाना खिलाने ले जाते हैं, पीवीआर में सिनेमा दिखाने भी ले जाते हैं और मैडिकल चेकअप भी करवा देते हैं, जिस से बेटा न होने की टीस नहीं सालती.

बेटियां भी इस से राहत की सांस लेती हैं क्योंकि उन्हें अपने पापा की चिंता रहती है. जब यह काम पति संभाल ले तो दोनों की बौंडिंग और बढ़ती है. इंदौर की एक बेंक कर्मी निधि की मानें तो शादी से पहले पेरेंट्स की बहुत चिंता रहती थी लेकिन पति विशाल ने सब कुछ कुछ इस तरह मैनेज किया कि आज शादी के आठ साल बाद भी सब कुछ पूर्ववत चल रहा है. शादी के वक्त निधि का भाई बेंगलुरु में बीटेक की पढ़ाई कर रहा था और डिग्री मिलने के तुरंत बाद उसे अमेरिका की एक सौफ्टवेयर कम्पनी में अच्छी नौकरी मिल गई. उस के विदेश जाने के बाद विशाल ने तमाम वे जिम्मेदारियां निभाई जो आमतौर पर बेटे के हिस्से में आती हैं. अब निधि के पिता हर कभी बड़े गर्व से कहते हैं कि एक बेटा तो विदेश चला गया लेकिन दूसरे ने अपना रोल बखूबी निभाया.

बात इन मानों में भी फिट बैठती है कि जब बहू बेटी जैसी होती है या हो सकती है तो दामाद बेटे जैसा या बेटा क्यों नहीं हो सकता. अब वह दौर भी गया कि ससुर सिर्फ इसलिए दामाद का एहसानमंद रहे कि उस ने उन की बेटी से शादी की है लिहाजा उसे हर तरह से खुश रखा जा कर ही बेटी सुखी रह सकती है. लड़कियों की आत्मनिर्भरता ने सही मानों में हालात और समीकरण बदले हैं. वे शादी के पहले ही होने वाले पति के सामने साफ़ कर देती हैं कि तुम रखो न रखो लेकिन मैं अपने पेरैंट्स का ख्याल शादी के बाद भी रखूंगी और इस का यह मतलब नहीं कि मैं तुम्हारे पेरेंट्स के प्रति अपनी जिम्मेदारियां नहीं निभाऊंगी. हम दोनों ही मिल कर एक दूसरे के पेरैंट्स का ख्याल बराबरी से रखेंगे.

हालांकि है नहीं लेकिन यह अगर शर्त है तो आजकल के लड़कों को इस से कोई गुरेज परहेज नहीं है क्योंकि वे उस दौर के दामाद नहीं है जो ससुराल में खुशामद और खातिरदारी का आदी हो कर इसे ससुराल वालों की मजबूरी समझे. भोपाल की एक गृहिणी सुविधा प्रकाश बताती हैं कि 70 – 80 के दशक में लड़कियों को ससुराल से मायके जाने पति और सास ससुर की इजाजत चाहिए रहती थी. तब शर्त यह भी रहती थी कि बहू मायके से अकेले नहीं लौटेगी उसे बेटा या देवर या कोई और सगा संबंधी लिवाने जाएगा तभी वह आएगी इसी तरह वह मायके तभी जा पाएगी जब लिवाने पिता या भाई आएगा. अब ऐसा कुछ नहीं है सुविधा कहती हैं कि खुद उन की बहू अकेले मायके चली जाती है और बेटी भी अकेले आ जाती है. नहीं तो पहले आमतौर पर दामाद पत्नी को लेने ही ससुराल जाता था.

मुमकिन है दामादों का दामाद होने का अहम और दंभ टूट रहा हो. मुमकिन यह भी है कि ससुर को भी लगने लगा है कि रीतिरिवाजों और परम्पराओं के नाम पर दामाद को इतना आदर सम्मान देने का मतलब उसे एक तरह से अछूत बना देना था. दामाद को खुश इसलिए रखा जाता था कि वह बेटी की खुशियों का ख्याल रखें अब उल्टा हो रहा है कि बेटियों की खुशियों और सुखों से पिता बेफिक्र हैं और दामाद को मेहमान नहीं बल्कि घर का सदस्य मानने लगे हैं. जिस से कई वर्जनाएं और पूर्वाग्रह टूटे और खत्म हुए हैं.

ससुर दामाद से दोस्ती कर उसे वे काम भी सौंपने लगे हैं जो वे बुढ़ापे के चलते नहीं कर सकते. जमीन जायदाद के मसले निबटाने उसे पावर आफ अटार्नी दे देना इन में से एक है. हालांकि दामाद का ससुर की जायदाद पर कोई क़ानूनी दावा नहीं बनता है लेकिन उस पर बेटे के बराबर भरोसा कर उसे जिम्मेदारियां सौंपना बदलते माहौल और परिभाषा की तरफ ही इशारा करता है. दामाद भी ससुरों के तजुर्बों का फायदा उठाने से नहीं चूकते. देश के सब से बड़े बिजनेस मेन मुकेश अम्बानी ने अपने दामाद आनन्द पिरामल को कुछ टिप्स दिए थे. जिन के चलते आनंद का असमंजस दूर हुआ था और वे पूरे दमखम के साथ कारोबार में लग गए थे जबकि वे खुद बड़े कारोबारी घराने से हैं.

इस छोटे बड़े की मानसिकता और अहम से अब मध्यमवर्ग भी लगभग उबर चुका है. लेकिन निचले तबके में ऐसा नहीं है जहां आएदिन ससुर दामाद में विवाद और फसाद हुआ करते हैं. आएदिन ऐसी खबरें सामने आती रहती हैं कि दामाद ने ससुर की या ससुर ने दामाद की हत्या की या जानलेवा हमला किया. इस के पीछे अशिक्षा के साथ साथ पुरुषोचित अहम भी है जिस के तहत ससुर दामाद दोनों एक दूसरे को खुद से नीचा समझने लगते हैं. इन की लड़ाई में पिसती है तो लड़की क्योंकि वह न तो शिक्षित है और न ही अपने पैरों पर खड़ी होती है. यह वह निम्न वर्ग है जिस में दामाद आमतौर पर ठसियल होता है और ससुराल में राजाओं जैसी खातिरदारी न होने पर आसमान सर पर उठा लेता है. इस की सजा और खामियाजा भी बेटी को ही भगतने पड़ते हैं.

अहम या ठसियलपन की मानसिकता मध्यमवर्गीय दामादों में भी हुआ करती थी जो शिक्षित और सभ्य होने के चलते हिंसा वगैरह नहीं कर सकते थे. लेकिन दूसरे तरीकों से ससुर को परेशान कर डालते थे जिन में पत्नी को मायके नहीं जाने देना, सालेसालियों की शादी का बहिष्कार कर देना और न भी करें तो उन में नेग और रिवाजों की आड़ ले कर कलह और तनाव फैला देना प्रमुख टोटके हुआ करते थे. अब नए दौर के दामादों के साथ ऐसा कुछ नहीं है इसलिए ससुर उन के लिए पत्नी के पिता की जिम्मेदारी बनने लगा है.

इस से दो बातें साफ होती हैं कि दरअसल में लड़की पहले से काफी सशक्त, शिक्षित, जागरूक और मजबूत हुई है. वह जिम्मेदारियों के साथसाथ अपने अधिकार भी समझती है. दूसरी बात लड़कों की बदली मानसिकता है कि जब पत्नी हमारे मांबाप का ख्याल रखती है तो हम उस के मांबाप का ख्याल जरूरत पड़ने पर क्यों न रखें. अब तो नजदीकी क्या दूर की रिश्तेदारी में भी कोई यह ताना कसने नहीं बचा है कि यह तो जोरू और ससुराल का गुलाम हो गया है. क्योंकि ताना मारने वाले भी ससुर को पिता का दर्जा देने लगे हैं और कई ज्ञानचन्दो को भी समझ आ गया है कि दामाद से नजदीकियां घाटे का नहीं बल्कि फायदे का ही सौदा है इस के बाद भी कोई दामाद को ले कर सार्वजनिक सभा में मंच से ताने मारे तो यह जनता को तय करना रहता है कि वह इस पुराने सड़ेगले फलसफे से इत्तफाक रखती है या नहीं.

 

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