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लकीरें : अपनी छोटी सोच पर शर्मसार व्यक्ति की कथा

शाम को औफिस से लौटा तो पत्नी ने खबर दी, ‘‘आलिया के मकान का सौदा हो गया है. इसी महीने रजिस्ट्री भी हो जाएगी.’’

यह सुन कर मेरा मन खिन्न हो गया. चाय का कप लिए मैं छत पर आ गया. मेरी छत से लगा हुआ आलिया का मकान सुनसान पड़ा था. बहारों के मौसम में भी पौधों से लदे गमले सूखे, मुरझाए पड़े थे. मैं ने छत से झुक कर उन के पोर्च पर नजर डाली तो सिर्फ नारंगी फूलों वाली बेल फूलों से लदी हुई थी. याद आ गया पिछले महीने ही तो 25 वर्षीया आलिया ने अपनी बेहद नर्म आवाज से बतलाया था- ‘राजू भाई, पूरे 2 साल हो गए इस बेल को लगाए हुए. लेकिन इक्कादुक्का से ज्यादा फूल खिलते ही नहीं. इस बार नहीं फूल खिले तो काट दूंगी.’ यह सुन कर अम्मा बीच में बोली, ‘न न बिटिया, ऐसा न करना. हरी बेल को कभी काटना नहीं चाहिए. पाप लगता है. खादपानी डालती रहो, देखना इस बार लहकेगी.’ ‘ठीक है चाची,’ कह कर आलिया छोटे से लौन की सफाई में लग गई. और वाकई इस साल बेल ऐसी लहकी की पत्तियां दिखलाई नहीं दे रही थीं लेकिन उसे देख कर गद्गद् होने वाली मांबेटी न जाने जीवन की किस उलझन को सुलझाने में लगी थीं. लहकती बेल की खूबसूरती को जी भर कर देखने का वक्त ही नहीं निकाल सकी थीं.

पांच साल पहले मुसलमान परिवार ने घर के बगल में अपना घर बनाना शुरू किया तो अम्मा बड़बड़ाई थी-

‘ये मुसलमान तो बड़े गुस्से वाले और लड़ाकू होते हैं. कहीं हमारी शांति न भंग कर दें.’

मकान बनने में पूरा एक साल लगा. इस बीच आलिया और उस की अम्मी के मृदुल एवं सहयोगी स्वभाव से अम्मा का डर धीरेधीरे कम होता चला गया. गृहप्रवेश के बाद जब वे रहने आ गए तो पंडिताइन अम्मा ने उन के रहनसहन, खानपान और रोजमर्रा की गतिविधियों का बड़ी बारीकी से अध्ययन करना शुरू कर दिया.

‘ग्वालियर वाली जिज्जी तो कह रही थीं कि मुसलमान हफ्ते में एक बार शुक्रवार को ही नहाते हैं. पास बैठते हैं तो तेज गरममसाले और लहसनप्याज की बदबू आती है उन के कपड़ों से. लेकिन आलिया के घर तो…’

मेरी पत्नी बीच में बोल पड़ी, ‘सुबह 5 बजे उठ जाती हैं मांबेटियां. फिर पूरे घर का झाड़ूपोंछा. 9 बजे तक आलिया के दोनों भाई और वो खुद अपनी बुटीक के लिए नहाधो कर, खापी कर निकल जाते हैं. दिन में आलिया की अम्मी किताबें पढ़ती है. पूरा घर चमचमाता रहता है उन का.’ यह सुन कर मुझे तसल्ली हुई.

एक दिन मैं ने देखा अम्मा अपनी सफेद धोती के आंचल से एक कटोरी ढ़ांक कर आलिया के घर दाखिल हो रही है. लौटी तो कटोरी को वैसे ही ढांक कर ले आई और अपनी थाली लगाने लगी. मैं ने उत्सुकतावश पूछ लिया, ‘‘क्या लाई हो अम्मा? और क्या ले गई थी?’

‘कुछ नहीं राजू, आलिया को अर्वी के पत्तों की बेसन वाली सब्जी पसंद है, वही देने गई थी. उस की अम्मी ने पकौड़ों वाली कढ़ी दे दी. ले, थोड़ी तू भी चख ले. खाना बहुत अच्छा बनाती है आलिया की अम्मी.’

छूताछूत पर विश्वास रखने वाली अम्मा मुसलमान के घर उठनाबैठना और खाने की चीजों का अदानप्रदान करने लगी है, देख कर बेहद आश्चर्य हुआ.

मेरा बेटा विक्की 4 साल का होने वाला था लेकिन स्कूल के नाम पर दहाड़ें मारमार कर रोता था. जितने दिन भी नर्सरी स्कूल गया, क्लास की खिडक़ी से बाहर बैठी दादी को बारबार आवाजें देता रहा. आलिया का छोटा भाई 12वीं के बाद प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने लगा था. महल्ले के चारपांच बच्चे शाम को उस के पास ट्यूशन पढऩे आते थे. अम्मा विक्की को बैग के साथ रोज उस के पास ले जाने लगी. अम्मा दूसरे कमरे में आलिया की अम्मी से बातें करती हुर्ई कभी सब्जी काटने लगती, कभी बुटीक की साडिय़ों और ब्लाउज में पीकोफौल करने या बखिया करने लगती. दादी बैठी है इसी भरोसे से और विक्की हमउम्र बच्चों के साथ बैठ कर पढऩे लगा. धीरेधीरे विक्की खुद ही, 3 बजते ही बस्ता उठा कर आलिया के घर जाने लगा.

पढ़ाई खत्म होने के बाद आलिया की अम्मी बच्चों को चौकलेट, बिस्कुट देते हुए कहती, ‘शुक्रिया बोलिए.’ जब मुसलमान बच्चे घर जाते हुए ‘अल्लाह हाफिज’ कहते तो देखादेखी विक्की भी ‘अल्लाह हाफिज’ बोलने लगा. अब वह घर में किसी भी चीज को लेते हुए ‘शुक्रिया’ कहता और घर से जाते हुए अल्लाह हाफिज कहने लगा. घर में तो वह धमाचौकड़ी मचाए रहता लेकिन आलिया के घर बड़ी ही तहजीब से बैठता और आपआप कर के छोटेबड़े सभी से बातें करने लगा.

कट्टर रूढि़वादी पंडित घर की मेरी पत्नि ने विक्की के संस्कारों में उर्दू एवं मुसलिम संस्कृति को घुलतेमिलते देखा तो उस के दिमाग में अलगाववादी कीड़ा कुलबुलाने लगा. क्या सीख रहा है विक्की ये. क्यों धन्यवाद की जगह बातबात पर शुक्रिया कहने लगा है और ट्यूशन पढऩे जाते समय मेरे और अम्मा के पैर छू कर अल्लाह हाफिज कहता है. अगर हमारे परिवार वाले सुनेंगे तो क्या कहेंगे. यही न कि ब्राह्मïण को मुसलिम संस्कार सिखा रहे हो. बचपन में सीखी गई बातें ही तो बच्चा जीवनभर याद रखता है. हमारे वार्त्तालाप के समय मैं ने देखा की विक्की पूजाघर में अम्मा के साथ बैठा श्लोक दोहरा रहा है और बीचबीच में हाथ उठा कर घंटी भी बजा देता है. इत्मीनान की सांस ले कर मैं बोल उठा, ‘रजनी, अब समय बदल गया है. अब हमें बच्चे को अपने संस्कारों के अलावा दूसरे धर्मों, खासतौर पर इसलाम धर्म, के अच्छे संस्कारों से भी परिचित कराना चाहिए ताकि बड़े होने के बाद मुसलमानों के साथ मेलजोल बढ़ाने, साथ रहने, काम करने में जरा भी हिचक पैदा न हो. लोगों ने हिंदू-मुसलमानों के बीच लकीरें खींच कर देश के 2 टुकड़े कर दिए. और अब कितने टुकड़े होते देखते रहेंगे हम.’

‘रजनी हमारे विक्की को अप्रत्यक्ष रूप से बचपन में ही मुसलिम तहजीब वालों के साथ रहने का मौका मिल रहा है, इस से वह अपनी संकीर्ण सोच के दायरे से बाहर निकाल कर दूसरे कल्चर के साथ घुलमिल कर अपने व्यक्तित्व का विकास ही करेगा. उसे सोच का विस्तृत आकाश मिलेगा. वह अपनी कुंठाओं और धार्मिक दायरों से बाहर आ कर हिंदूमुसलमानों के बारे में अलगअलग नहीं साचेगा बल्कि वह सिर्फ इंसानों के बारे में सोचेगा. धर्मनिरपेक्षता का पाठ हम नहीं पढ़ाएंगे बच्चों को तो देश सिर्फ जातिवाद और धर्म को ले कर होने वाले दंगेफसादों का ही मैदान बना रहेगा. बच्चों को बचपन से सिखलाया जाना चाहिए कि हिदू धर्म और इसलाम को मानने वालों में मूलभूत रूप से कोई भेदभाव नहीं है. बच्चों के बड़े होने तक तथाकथित कट्टर पंडित और मौलवियों को अपने रोटी सेंकने व स्वार्थपर्यताभरी कुचालों को तर्कवितर्क कर के समझने की सूझबूझ पैदा करना हमारा कर्तव्य है, तभी तो हम धर्मनिरपेक्ष देश की कल्पना कर सकते हैं.’ मेरी भारीभरकम बातें सुनती रही रजनी लेकिन उस दिन के बाद उस ने कभी भी विक्की को रोका नहीं.

आलिया का परिवार मेरे परिवार के साथ बहुत घुलमिल गया. पत्नि दूसरी बार मां बनने वाली थी. विक्की कभीकभी आलिया के साथ सो जाता. आलिया की सुंदरता और शालीनता देख कर मेरी पत्नी अकसर उसे छेड़ते हुए कहती, ‘जब तुम्हारी शादी होगी तो जवाई बाबू को पहले ही समझा देना कि हम तुम्हारे जैसी ही बहू लाएंगे विक्की के लिए. समझ गई न. सुन कर शर्म से आलिया की कान की लोलकी लाल बिरबुहटी हो जाती. सोच लो हम हिदू हैं. बाद में मुकर तो न जाओगी.’

आलिया तपाक से कहती, ‘हिंदूमुसलमान तो हम ने बनाए हैं, भाभी. पहले तो हम इंसान हैं. वादा रहा. जिंदगी रही तो निभाऊंगी जरूर.’ यह सुन कर कट्टरवादिता मुंह छिपाने लगती और धर्मनिरपेक्षता मस्तीभरी अंगड़ाइयां लेने लगती.

अम्मा ईद के समय आलिया के लिए जोड़ा, मेहंदी और सेवइयों के साथ चूडिय़ां जरूर भिजवाती. दीवालीहोली पर आलिया की मम्मी अपने हाथ से दहीबड़े, खोये के गुलाबजामुन और स्वादिष्ठ गुजिया बना कर भिजवाती. अम्मा और आलिया की अम्मी दोनों शाम को पोर्च में कुरसी डाले दुनियाजहान की बातें करते हुए ठहाके लगातीं.

दोनों पड़ोसी परिवार एकदूसरे के पूरक बन गए थे, लेकिन अचानक आलिया के मकान बेचने के फैसले ने हम सब को विचलित कर दिया.

आलिया ने बुटीक के पेपर गिरवी रख कर लोन ले कर बड़ी मेहनत से मकान बनवाया था. मकान बेचने का उस का अप्रत्याशित फैसला मुझे हजारों सवालों के रेगिस्तान ले गया जहां दूरदूर तक जवाबों की कोई झील नहीं थी. धीरगंभीर आलिया अपनी समस्याओं को अपनी अम्मी के साथ भी नहीं बांटती थी. कहीं सुन कर अम्मी ने सदमा ले लिया तो क्या होगा. आठ साल से अब्बू के इंतेकाल के बाद अम्मी ही तो उस का एक मात्र सहारा थी. भाई की अचानक मौत के बाद आलिया के अब्बू ने उस के दोनों बच्चों को अपने पास रख कर परवरिश की. उन के मरने के बाद आलिया ने उन के कौल को पूरा करने के लिए कमसिन भाइयों को अपने हाथ ही रखा. एक बुटीक की कमाई और खाने वाले 5 पेट. रबर की तरह कहां तक खिंचती उस की आमदनी. मकान के लोन की किस्त भी हर महीने बदस्तूर जमा करनी पड़ती थी.

आलिया से पूछने की हिम्मत नहीं हुई, लेकिन इतना तो समझ में आ गया कि जरूर कोई बड़ी और गहरी वजह है जिस ने आलिया को इतनी मेहनत और प्यार से बनाए गए मकान का सौदा करने के लिए मजबूर किया है.

आलिया का मकान बिक गया. अम्मा तो काठ की हो गई और विक्की का रोरो कर बुरा हाल था. अग्निहोत्री के परिवार का सामान ट्रक से उतरने लगा. तीन बेटियां, दो बेटे, भरापूरा घर. अग्निहोत्री जी नगर निगम में इंजीनियर थे.

बमुश्किल एक रात ही कटी थी कि दूसरे दिन मजदूरों ने मेन गेट उखाडऩे की प्रक्रिया में इतनी जोर से सब्बल की चोटें मारी कि में दिमाग की नसें तडक़ने लगीं. मेन गेट को चेंज किया गया. कमरों के फर्श की मोजाक उखाड़ कर संगमरमर बिठाया गया. लकड़ी की अलमारियां और कबर्ड बनने लगे. पूरे दिन ठकठक की आवाजें आती रहतीं.

झांसी जैसे कसबे में लोग कहीं न कहीं आपस में टकरा ही जाते. उस दिन औफिस में सहकर्मी ने बर्थडे की पार्टी दी तो मैं ने अग्निहोत्री के मंझले बेटे को उसी होटल में दोस्तों के साथ बियर पीते, मटन खाते देखा. इत्तेफाकन एक दिन देररात को औफिस से लौटने लगा तो अग्निहोत्री को इंग्लिश शराब की दुकान से अखबार में बोतल लपेटे गाड़ी में रखते देखा. कट्टर ब्राह्मण परिवार अपने संस्कारों एवं क्रियाकलापों से वास्तव में कितना ब्राह्मण रह गया है, यह सोच कर ही मन अफसोस से भर गया.

उस दिन शाम को सामान लेने मैं पत्नी और विक्की के साथ खरीदारी कर रहा था कि विक्की जोरजोर से चिल्लाने लगा, ‘आलिया दीदी, आलिया दीदी.’ और स्कूटर से उतर कर भीड़भरी सडक़ की दूसरी तरफ खड़ी आलिया और अम्मी की तरफ तेजी से भागने लगा. आलिया उसे गोद में उठा कर प्यार करने लगी और धीरेधीरे सडक़ पार कर के हमारे पास आ कर खड़ी हो गई.

आलिया की अम्मी दुबली हो गई थी और आलिया का गुलाब सा चेहरा वक्त के थपेड़ों में कुम्हला गया था.

‘‘अम्मा बहुत याद करती हैं आंटी आप लोगों को,’’ पत्नी बोली.

आलिया की आंखें पनीली हो गईं और वह मेरी पत्नी के कंधे पर सिर रख कर फफक पड़ी.

‘‘क्यों बेच दिया आलिया तुम ने मकान? ऐसी क्या मजबूरी थी?’’ मैं अपने अंदर की तल्खी को दबा नहीं सका.

भर्राए गले से हिचकियों के साथ बोले गए आलिया के एकएक शब्द मुझे भीतर तक चीरते चले गए.

‘‘मेरे चचाजात दोनों भाई 28-29 साल के हो कर भी आर्थिक रूप से मेरी कोई मदद नहीं करते थे. सिलाई में कम्पीटिशन और कारीगरों की मनमानी की वजह से बुटीक की आमदनी से 5 लोगों का गुजारा नहीं हो पा रहा था. पिछले 6 महीनों से मैं बैंकलोन की क़िस्त भी जमा नहीं कर सकी थी. बेरोजगार भाई ने लवमैरिज कर एक और जिम्मेदारी मेरे कंधों पर डाल दी. अम्मी काम करने के लिए कहती तो वे दोनों सीनाजोरी पर उतर कर कहते, ‘मकान में हमारा भी हिस्सा है. हम यहीं रहेंगे, जब काम मिलेगा तभी तो करेंगे न.’ तो मैं क्या करती, राजू भाई.”

‘‘लडक़े ने शादी करने से पहले एक बार भी नहीं सोचा कि हमें आसरा देने वाली बड़ी बहन अभी तक कुंआरी है. पहले उस की शादी करना चाहिए. इसलिए मकान बेच कर बैंकलोन चुकाया और एक प्लौट लिया शहर से जरा बाहर. अब वहां दोदो कमरों के 2 मकान बनाए जा रहे हैं. एक दोनों लडक़ों के लिए, एक हम मांबेटी के लिए,’’ आलिया की अम्मी ने खुलासा किया, “अपने की खुदगर्जी और बेहिसी, बेमुरव्वती ही इंसान को तोड़ देती है. जिन भाइयों को पालतेपालते आलिया ने अपनी पूरी कमाई, अपनी उम्र का खुशनुमां वक्त सहरा बना कर गंवा दिया, उन निकम्मे भाइयों ने एक बार भी उम्र गंवाती खुशियों से बेदखल हुई बहन के बारे में नहीं सोचा. बस, यही दस्तूर रह गया अब हमारे समाज का.”

‘‘आलिया बूआ घर चलिए न, दादी आज पंजीरी बनाएंगी. आप को बहुत पसंद है न,’’ विक्की आलिया के गले में नन्हींनन्हीं बांहें डाल कर बोला.

‘‘आएंगे बेटा, आएंगे. जब अग्निहोत्री जी गृहप्रवेश करेंगे तब जरूर आएंगे.’’

घर में घुसते ही विक्की ने सब से पहले अम्मा को आलिया से मुलाकात का विवरण दिया तो अम्मा की आंखों में दरिया उतर आया. बूढ़े चेहरे पर अफसोस और उदासी की रेखाएं खिंच गईं.

पड़ोस से घिसाई मशीन की घर्रघर्र और ठोंकनेपीटने की आवाजें बदस्तूर आ रही थीं.

शाम को दूध लेने डोलची ले कर बाहर निकला तो अग्निहोत्री कार से उतर रहे थे. औपचारिक मुसकान के अदानप्रदान के साथ हाथ मिलाते हुए मैं ने पूछ लिया, “कब कर रहे है गृहप्रवेश. मुझे आलिया के आने का बेसब्री से इंतजार था.”

‘‘अभी समय लगेगा. बहुत सारा काम करवाना बाकी है.’’

‘‘लेकिन मकान तो पूरी तरह से रहने लायक था. आलिया का परिवार 7 सालों से रह रहा था और बहुत अच्छा मेनटेन भी किया था.’’

‘‘ऐक्चुअली, अब हम किचन ओटे की टाइल्स और नीचे का फर्श बदल रहे हैं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘वे लोग मुसलमान थे. सालों से नानवेज पका-खा रहे थे. मसालों के और नानवेज के छींटे टाइल्स और नीचे के फर्श पर पड़े होंगे, फर्श पर रख कर मटनमछली काटा और साफ किया होगा. हम सूर्यकुल के ब्राह्मण हैं. ऐसी जगह भाग का कच्चापक्का खाना कैसे पका सकते हैं. और कमरों की जिस फर्श पर उन्होंने नमाजें और फातेहा पढ़ी होगी, वहां भगवान की मूर्तियां कैसे स्थापित कर सकते हैं. वाइफ तो लैट्रीन के इंडियन और कमोड पौट भी बदलने के लिए जोर दे रही है. मुसलमानों द्वारा उपयोग में लाई गई चीजों का हम ब्राह्मण कैसे प्रयोग कर सकते हैं?’’ अग्निहोत्री जी की तर्कहीन बातें सुन कर मेरे कानों में हजारों अलावे धधकने लगे और दिल में अफसोस का हाहाकार मच गया.

खुद को बहुत संयत करने के बावजूद अपने रोष को छिपा नहीं सका. ‘‘अग्निहोत्री जी, जिन की रसोई के मांसाहारी खानों के छींटे पडऩे के भ्रम में आप ने इतना ज्यादा रुपया और समय बरबाद किया है कि वे लोग मांसाहारी थे, हालांकि वे मांसाहारी नहीं थे. मुसलमान हो कर भी पूरी तरह से शाकाहारी भोजन का सेवन करते थे. प्रतिदिन नहाधो कर घर को मंदिर की तरह साफ रखते थे. रहा सवाल नमाज और फातेहा पढऩे के लिए मुसलमान परिवार द्वारा इस्तेमाल किए गए फर्श को उखाड़ कर नया फर्श लगाने का, तो मुसलमान तो अपनी नमाजों में अपने शरीर के अलावा हिंदुओं की तरह रोली, चंदन, दीयाबाती, फूलपत्ती, नारियल धूप प्रसाद, पानी आदि किसी सामग्री का इस्तेमाल नहीं करते, फिर फर्श के अपवित्र या गंदा होने का प्रश्न ही कहां उठता है?”

अग्निहोत्री मेरी बातें सुन कर स्तब्ध रह गए. और निरुत्तर से बोझिल कदम उठाते हुए मेन गेट से टिके, जड़, मूर्तिवत खड़े के खड़े रह गए.

आत्मनिर्भर औरतें : क्या अपने आत्मविश्वास पर टिकी रही मालती?

“भाभी, ऊपर के टैंक में पानी नहीं चढ़ रहा. सब नहाने के लिए इंतज़ार कर रहे हैं,” नेहा ने धीरे से कान में कहा तो मालती ने अपनी आंसुओं से तर आंखें ऊपर उठाईं.

“मेरे मोबाइल में ‘पानी वाला’ के नाम से नंबर सेव है, उसे फोन कर के बुला लो,” मालती ने जवाब दिया. नेहा ने मालती का मोबाइल ले जा कर अपने छोटे भाई विशाल को दिया और विशाल ने पानी वाले को बुला कर मोटर चालू करवाई.

“मिस्त्री 200 रुपए मांग रहा है,” विशाल ने मालती से आ कर कहा तो अब मालती को उठना ही पड़ा. वह अलमारी में रखे पर्स में से रुपए निकाल कर लाई और विशाल को थमा दिए. महिलाओं के बीच आ कर बैठते ही उस की रुलाई एक बार फिर से फूट पड़ी.

अभी 3 दिन ही तो हुए हैं पति विनय को अंतिम सांस लिए. 10 दिनों की हौस्पिटल की भागदौड़ और डाक्टरों के चक्करों के बाद भी वह अपने पति की सांसें लौटा लाने में कामयाब नहीं हो पाई थी. इस बीच परिवार के किसी सदस्य ने एक बार भी आ कर उस से नहीं पूछा कि उसे किसी प्रकार की कोई जरूरत तो नहीं है. पता नहीं सब ने विनय की बीमारी को गंभीरता से नहीं लिया या मालती की आत्मनिर्भरता को अधिक गंभीरता से लिया.

अरे मालती अकेली ही सब संभाल लेगी. आत्मनिर्भर है वह, जानती है कि कौन सा काम कैसे करना है. सब की सोच यही थी. और शादी के बाद से आज तक वह सब संभाल भी रही थी लेकिन यही आत्मनिर्भरता उस के लिए अभिशाप बन गई.

बेटे की बीमारी की खबर सुन कर सास आई तो थी उस की मदद करने के लिए लेकिन उस के आने से भी उस का काम आसान होने के बजाय बढ़ा ही था. सास भी हर बात के लिए उसी पर निर्भर हो गई थी. यहां तक कि सब्जी-राशन तक के फैसले भी मालती को खुद ही लेने पड़ रहे थे. और फिर अचानक विनय का यों साथ छोड़ जाना… बेचारी मालती तो पति की मृत्यु पर खुल कर रो भी नहीं पा रही थी. क्या करती. जैसे ही कोई नई समस्या आती, सब मालती का मुंह ताकने लगते और फिर उसे अपने आंसुओं को भीतर समेट कर उस समस्या का हल निकालने में जुटना पड़ता, आत्मनिर्भर जो ठहरी.

ससुराल का भरापूरा परिवार छोड़ कर जब मालती विनय के साथ उस की पोस्टिंग पर आई तो एकल परिवार की जिम्मेदारियों से घबरा गई थी. विनय तो सुबह का गया देर शाम तक घर लौटता था और उस पर भी अकसर टूर पर ही रहता था. ऐसे में बिजलीपानी के बिल भरवाने से ले कर बैंकबीमे आदि के काम भी अटकने लगे और बारबार पनेल्टी लगने लगी तो विनय ने उसे आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में पहल करनी शुरू कर दी. धीरेधीरे सारी जिम्मेदारियां मालती अपने ऊपर ओढ़ती गई और विनय चिंतामुक्त हो कर अपनी नौकरी करने लगा.

अपने हिस्से के हर काम उसे सिखाता विनय अनजाने ही उस के भीतर बोए आत्मविश्वास के बीज को पोषितपल्लवित करता जा रहा था. और एक दिन वह आत्मनिर्भरता का बीज वयस्क पेड़ बन उस के भीतर लहलहाने लगा था. लेकिन तब मालती कहां जानती थी कि आत्मनिर्भर होना उस के लिए इतना कष्टदायक हो जाएगा कि पति को याद कर के खुल कर रो भी न सकेगी वह.

उस से कहीं अच्छी दशा में तो मांजी और नेहा ही हैं जो बेशक हर बात में किसी सबल साथ का मुंह ताकती रहती हैं लेकिन कम से कम अपने बेटे और भाई की मृत्यु पर जीभर कर रो तो सकती हैं, यह सोचते ही मालती की हिचकियां बंध जातीं.

सामाजिक औपचारिकताएं पूरी होने के बाद सभी एकएक कर अपने कामधंधे और घरों को लौट गए.

‘यों तो मालती आत्मनिर्भर है, सब संभाल ही लेगी, बस कुछ दिन तुम उस के पास रह भर जाओ ताकि उसे अकेलापन न लगे,’ कहते हुए ससुरजी ने मांजी को उस के पास छोड़ दिया था. मालती कहती भी क्या, रह गईं दोनों सासबहू अकेली.

विनय के जाने के बाद उस की पैंशन, बीमा और ग्रेज्युएटी का भुगतान, अनुकंपा के आधार पर मालती को नौकरी आदि सब के लिए मालती अकेली ही जूझती रही थी.

ओह विनय, क्या इसी दिन के लिए तुम ने मुझे आत्मनिर्भर बनाया था? यह सोच कर मालती रो पड़ती थी. पति की यादों और उन की रिक्तता से उत्पन्न हुए शोक को मजबूती से भीतर दबा कर शारीरिक व मानसिक रूप से थकीहारी जब शाम को लौटती तो मांजी पानी के गिलास के साथ दिनभर की डाक के रूप में समस्याओं का पिटारा भी साथ ही थमा देती थीं.

विनय भी न, गज़ब इंसान था, कहांकहां पांव फंसा रखे थे कुछ नहीं पता…डाक देखतेदेखते मालती का सिर चकराने लगता. कोई म्यूच्यूअल फंड का कागज तो कोई इनकम टैक्स का रिटर्न; कोई किसी पत्रिका की सदस्यता तो कोई किसी सामाजिक संस्था से जुडाव… विनय में जैसे पूरा एक समाज समाया हुआ था. और वह ये सब मालती के भरोसे ही तो किया करता था. कागज संभालती मालती की आंखें भर आतीं.

‘बहू देख तो, यह एक कागज आया था आज,’ मांजी ने एक रजिस्टर्ड पत्र उस के सामने रख दिया. देखा तो विनय के नाम इनकम टैक्स विभाग का नोटिस था. उस के खाते में बीस हजार रुपए का टैक्स बकाया था.

‘यह कैसे संभव है. मैं तो नियम से विनय का टैक्स भरवाती आई हूं. फिर यह चूक कैसे हो गई,’ मालती ने माथा पकड़ लिया. रातभर सोचतीविचारती रही कि पैसे की व्यवस्था कैसे करेगी. कोई राह नहीं सूझ रही थी.

सुबह 10 बजते ही मालती अपने सीए से मिलने पहुंची. उसे नोटिस दिखाया.

‘कहीं किसी अमाउंट की पोस्टिंग में गड़बड़ी है, फ़िक्र की कोई बात नहीं है. मैं ठीक कर देता हूं. विनय जी का कोई टैक्स बकाया नहीं है. आप को तो बल्कि 15 हजार रुपए का रिफंड मिलेगा. बस, थोड़ी सी फौर्मेलिटी करनी पड़ेगी,’ सीए ने विनय का खाता चैक कर बताया तो मालती ने राहत की सांस ली. इसलिए नहीं कि 15 हजार रुपए का रिफंड हो रहा था बल्कि इसलिए कि वह विनय की अपेक्षाओं पर खरी उतरी थी. जिस भरोसे के साथ विनय उसे आत्मनिर्भर बनाना चाहता था आज वह उस विश्वास को हासिल कर पाई थी.

इसी तरह विनय की यादों को सहेजतेसमेटते और जीने के लिए लड़तेजूझते साल बीत गया. जिंदगी एक बार फिर से दबीदबी सी मुसकराने लगी थी. घने पेड़ों को चीरती हुई एक आशा की किरण जमीन पर उतरने को आतुर थी.

मालती को विनय की जगह उस के औफिस में नौकरी मिल गई. आर्थिक तंगी दूर हो गई. अपने काम में डूबने से मालती का मन अवसाद से बाहर आ रहा था. उस का घर और नौकरी के तराजू पर संतुलन बहुत अच्छे से चलने लगा था. ठीक वैसे ही जैसे बांस पर चढ़ी नटनी का चलता है. हां, यह जीवन नट का खेल ही तो है जिसे सब अपनेअपने तरीके से खेलते हैं. कोई रस्सी पर चल कर दूसरे किनारे पहुंच जाता है तो कोई बीच राह में ही गिर पड़ता है.

जिंदगी की गाड़ी फिर से रफ़्तार पकड़ने लगी थी लेकिन वो रास्ते ही क्या जो सीधे गुजरते जाएं. बिना मोड़ के भी कहीं जिंदगी कटी है भला? इसी महीने ससुरजी का रिटायरमैंट है. मांजी तो पहले ही चली गई थीं. मालती भी एक सप्ताह की छुट्टी ले कर गई है. बेटे के जाने के बाद से ससुरजी उसे ही अपना बेटा समझने लगे थे. रिटायरमैंट वाले दिन परिवार सहित सभी दोस्तरिश्तेदार ससुरजी को लिवाने उन के औफिस गए थे.

‘इस औफिस की परंपरा रही है कि रिटायर होने वाले कर्मचारी को विदा करते समय विदाई में भुगतान का चैक दिया जाता है लेकिन कुछ शासकीय समस्याओं के चलते इस बार यह नहीं हो सका, हमें इस का खेद है. जल्द ही सारी औपचारिकताएं पूरी कर ली जाएंगी. हम इन के उत्तम स्वास्थ्य की कामना करते हैं.’ ससुर जी के बौस ने उन के सम्मान में अपना वक्तव्य दिया. सुनते ही विशाल भड़क गया.

‘यह क्या बाबूजी, न पैंशन बनी न ग्रेज्युएटी के पेपर. अगले ही महीने हाथ तंग हो जाएगा. मुझे तो इन सरकारी कामों की अधिक समझ भी नहीं है और अब तो भैया भी नहीं हैं. आप भी इस उम्र में कहांकहां चक्कर काटेंगे,’ विशालजी ने जरा नाराजगी से अपने पिताजी से कहा.

‘कोई बात नहीं. यह मेरी आत्मनिर्भर बहू है न, सब संभाल लेगी,’ ससुरजी ने भरपूर स्नेह के साथ मालती की तरफ देखा तो मालती का चेहरा आत्मविश्वास से दमक उठा लगा मानो विनय ही ससुरजी के चेहरे में से झांक रहा है.

टीस का अंत : प्रेमी की अमानत को संभालती प्रेमिका की कहानी

लेखक – नितेंद्र सागर

स्कूल के पते पर खत आया आराधना मैडम का. आश्चर्य हुआ उन को कि इस मोबाइल के जमाने में खत भी लिख सकता है कोई. अपना पता देखने के बाद जब भेजने वाले का नाम देखा तो आश्चर्यचकित हो कर रह गई. वह भेजने वाला कोई चंद्र था. खत का मजमून इस प्रकार था-
‘मेरा अंतिम समय निकट है, शायद जब तक तुम्हें यह खत मिले, मैं इस दुनिया में न रहूं. हो सके तो मेरे इकलौते बेटे रोहन को अपना लेना. ‘आप का चंद्र.’

खत पढ़ कर आराधना  के पैरों की  जमीन खिसक गई. बीता हुआ कल अचानक वर्तमान में आ कर खड़ा हो गया. जो सोचा नहीं था उस ने   वह हो गया. ‘ओ चंद्र, ओ चंद्र,’ बुदबुदाई वह.  चंद्र जिसे तनमन से चाहा था, जिस के सिवा किसी और की चाह नहीं थी, दुनिया में जिस के बगैर एक पल रहना मुश्किल था उस का खत. उस का दोस्त, उस का प्रेम,  उस का साथी, उस का सबकुछ. चंद्र वक्त की आंधी में कैसे खो गया था. साथ में पढ़ते थे दोनों. चंद्र आराधना को अपना सबकुछ मानता था. मगर आराधना की हिम्मत नहीं हो पाई बगावत करने की. पापा ने जब आनंद से शादी करने को बोला, तो अपने ही मकड़ी के जाल में उलझी हुई आराधना इनकार न कर सकी. देखने में सुंदर और पढ़ने में होशियार आराधना के पिता उसे आगे नहीं पढ़ाना चाहते थे. आराधना  पढ़ना चाहती थी. सौतेली मां ने कहा, ‘नाक कटवाएगी यह हमारी. अगर हम ने इसे आगे पढ़ने दिया तो.’ मजबूरीवश  आराधना ने पापा से कहा कि, ‘मुझे अपनी मरजी से पढ़ने दो, फिर आप जब कहेंगे, जहां कहेंगे, वहां शादी कर लूंगी.’

किसी शायर ने क्या खूब कहा है- ‘प्रेमिकाएं विवाही  जाती हैं सरकारी नौकरियों से, जमीनों से, दुकानों से, नहीं विवाही जातीं वो अपने प्रेमियों से.’ आराधना जानती थी मेरे बगैर चंद्र जिंदा न रहेगा. उस की दुनिया उजड़ जाएगी. उस ने चंद्र से कभी कहा भी था कि चंदर, मैं बहुत कमजोर लड़की हूं. लेकिन तब तक चंद्र अपना सबकुछ आराधना पर वार चुका था. निदा फाजली के शेर को याद करते हुए ‘कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता, कहीं जमीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता’ आराधना शादी कर के आनंद के साथ अपनी ससुराल चली गई. छोड़ गई चंद्र को जीवन की मुसीबत का सामना करने इस भरी दुनिया में. अकेला हो गया चंद्र. पहले ही उस का कोई नहीं था. अब दुनिया उजड़ गई उस की.  बीमार हो गया. सरकारी अस्पताल में भरती हुआ. वहां की एक विधवा नर्स, जिस का एक बेटा था, ने चंद्र की बहुत सेवा की. लता नाम था उस का. लता भी अकेली थी, चंदर भी अकेला. दुख ने दुख से बात की बिन चिट्ठी बिन तार. एकदूसरे के मन में सहानुभूति उमड़ी. उन्होंने शादी कर ली. कुदरत जिन के हिस्से में गम लिखती है फिर उस को परेशानियां देती ही जाती है. कुछ लोगों पर कुदरत को कभी रहम नहीं आता. कुछ अपना कर्ज चुकाने के लिए दुनिया में आते हैं. कुछ समय साथ रहने के बाद लता भी चंद्र को छोड़ कर दुनिया से चली गई. एक ऐक्सिडैंट ने उस की जीवनलीला समाप्त कर दी.  रह गया चंद्र और रोहन.  पर जब चंद्र को पता चला किडनी की बीमारी उसे ज्यादा दिन तक दुनिया में नहीं रहने देगी तो उस ने अपने बेटे को अनाथालय में डालने से पहले एक खत आराधना को उस के घर के पते पर न भेज कर उस के स्कूल के पते पर भेजा.

आराधना समझ नहीं पा रही थी क्या किया जाए. चंद्र के बेटे को कैसे अपनाया जाए. अपने पति को कैसे बताया जाए कि, चंद्र कौन था? रोहन कौन था? उस के अपने भी 2 बच्चे थे स्वामी और सोनू. घर पर  आराधना के पति ने उस को परेशान सा देखा तो पूछा, ‘क्या बात है, आराधना, इतनी परेशान क्यों हो? शादी जरूर कर ली थी आराधना ने, मगर अपने मन से दिल से चंद्र को न भुला सकी. जब भी  उसे चंद्र की याद आती थी, उस के मन में एक टीस उभर आती थी. आराधना के मम्मीपापा तो इस दुनिया से चले गए थे, आराधना को दे गए थे चंद्र के नाम की टीस. उस का पति आनंद कभीकभी उस से पूछता था अचानक कभीकभी क्यों खो जाती हो अपनी सुधबुध भूल कर. इस समय आराधना के आंसू बह रहे थे. बहुत सोचने पर उस ने एक निर्णय ले ही लिया. आनंद के  बारबार पूछने पर आज उस ने चंद्र के बारे में सबकुछ बता दिया  और कहा, “यदि तुम रोहन को नहीं अपनाओगे तो मैं रोहन को ले कर तुम्हारी जिंदगी से कहीं दूर चली जाऊंगी और अपने दोनों बेटों को तुम्हें दे जाऊंगी.” इतना कह कर आराधना रोने लगी.

आनंद बहुत देर तक आराधना को देख कर बोला, “तुम ने मुझे अब तक नहीं समझा, आराधना. तुम जबजब सुधबुध खो कर बैठ जाती थी तब मैं समझता था तुम्हारे अंदर कोई सैलाब छिपा हुआ है जो बाहर आना चाहता है. मगर शायद तुम्हारी शर्म है  जो उसे बाहर आने नहीं देती. तुम ने कभी मुझे अपना दोस्त नहीं समझा. बस, एक आदर्श पत्नी का धरम निभाती रही. आज जब तुम ने सब बात  मुझे बता दी है तो मेरा भी निर्णय सुन लो, रोहन को हम सब मिल कर पालेंगे. आज से हमारे दो नहीं, तीन बच्चे हैं.” यह सुन कर आराधना आनंद के चरणों में गिर पड़ी.

सासससुर अजनबियों सा व्यवहार करते हैं, क्या करूं?

अगर आप भी अपनी समस्या भेजना चाहते हैं, तो इस लेख को अंत तक जरूर पढ़ें..

सवाल –

मेरे मम्मीपापा नहीं हैं. मुझे मेरी बूआ ने बड़े लाड़प्यार से पाला. कालेज में साथ पढ़ने वाले फ्रैंड से मेरा अफेयर हुआ और फिर शादी. मैं वर्किंग हूं. मेरे पति इकलौती संतान हैं. खुद के मातापिता न होने के कारण मैं ने शुरू से चाहा था कि अपने सासससुर से बहुत प्यार करूंगी, उन की सेवा करूंगी. लेकिन यहां तो मेरे सासससुर मुझ से दूरदूर रहते हैं. रिश्ते में कोई मिठास नहीं. एक ठंडापन है, पता नहीं क्यों? क्या करूं कि उन का दिल जीत सकूं?

जवाब –

अफसोस की बात है कि आप सासससुर को मानसम्मान देना चाहती हैं जबकि वे आप से दूरी बनाए हुए हैं. क्या आप ने उन से उन के इस व्यवहार का कारण जानने की कोशिश की? क्या वे आप से इसलिए तो नाराज नहीं कि उन के बेटे ने आप से प्रेमविवाह किया? क्या आप दोनों के फैमिली स्टेटस में अंतर है?

वजह कोई भी हो. अब रिश्तों के बीच जमी बर्फ को पिघला कर घर का माहौल खुशनुमा बनाना आप का ही काम है. सब से पहले, इस बात से इन्कार नहीं कर सकते कि रिश्तों को बनने में समय लगता है. सासससुर के साथ समय बिताएंगी तो रिश्तों के बीच की दूरी कुछ समय में घट जाएगी. उन के साथ समय बिताने के लिए आप उन्हें टैक्नोलौजी से रूबरू करा सकती हैं. आप उन्हें मोबाइल चलाना सिखा सकती हैं ताकि वे भी समय के साथ स्मार्ट बन जाएं.

अगर आप उन के साथ समय बिताएंगी तो अपने बौंड को और स्ट्रौंग कर पाएंगी. आप उन के साथ समय बिताने के लिए साथ में टीवी भी देख सकती हैं. औनलाइन गेम्स खेल सकती हैं, बागबानी कर सकती हैं, उन की क्रिएटिविटी को उजागर कर सकती हैं, उन के साथ पार्क जा सकती हैं या आप जिम जाती हैं तो उन्हें भी जिम जौइन करा सकती हैं ताकि वे भी फिट रहें.

फैमिली ट्रिप प्लान करें. वैसे भी फैमिली डे-आउट रिश्तों को करीब लाते हैं और हम अपने प्रियजनों के शौक जान पाते हैं. साथ ही, मन में पड़ चुकी गांठें, नाराजगी दूर कर एकदूसरे को सुनने का बेहतर मौका देती है आउटिंग.

उन की मनपसंद डिश बना सकती हैं. नहीं बना सकतीं तो उन्हें लंच या डिनर पर बाहर ले जाएं या फिर औफिस से आते हुए उन के लिए उन का कुछ मनपसंद खाना ला सकती हैं. आप की इन कोशिशों को देख कर वे खुश हो जाएंगे.

जन्मदिन, शादी की सालगिरह, मदर्सडे व फादर्स डे जैसे खास मौकों पर सरप्राइज गिफ्ट या पार्टी दे कर उन्हें स्पैशल फील करवा सकती हैं. उन्हें उन की पसंद की शौपिंग करवाएं, मूवी दिखलाने ले जाएं. इस सब से उन्हें फील होगा कि आप उन्हें मांपिता का दर्जा देती हैं.

सब से पहले उन्हें अपना दोस्त बनाएं. उन से दोस्ती करें और घर में कोई भी फैसला लेने से पहले एक दोस्त की तरह उन से राय मांगें और उन की अनुमति अवश्य लें. ऐसा करने से उन्हें अच्छा फील होगा.

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फिल्म रिव्यू : औरों में कहां दम था (2 स्टार)

निर्देशक नीरज पांडे को अपनी शानदार थ्रिलर फिल्मों के लिए जाना जाता है. इस बार उस ने यह रोमांटिक फिल्म बनाई है लेकिन वह रोमांस और थ्रिलर में उलझ कर रह गया है. फिल्म शुरुआत में एक बढ़िया लवस्टोरी होने की उम्मीद जगाती है. लेकिन फिल्म की धीमी रफ्तार से दर्शक बोर होने लगते हैं. फिल्म के कई दृश्य रिपीट हैं. फिल्म वर्तमान और फ्लैशबैक में झूलती है.

कहानी कृष्णा (अजय देवगन) और वसुधा (तब्बू) की है. यह कहानी 2001 से 2024 के पीरियड में चलती है. दोनों मुंबई की एक चाल में पड़ोसी थे और एकदूसरे से बहुत प्यार करते थे. कृष्णा को कंपनी की ओर से जरमनी जाने का औफर मिला था. दोनों भविष्य के सुनहरे सपने संजोते, इस से पहले कृष्णा का कुछ बदमाशों से झगड़ा हुआ, जो वसुधा को निशाना बनाने आए थे. कृष्णा ने उन बदमाशों में से 2 को मौत के घाट उतार दिया. उसे उम्रकैद की सजा हो गर्ई थी.

अच्छे चालचलन की वजह से कृष्णा की सजा 2 साल कम हो जाती है. जेल से बाहर आने पर उस का सामना वसुधा से होता है. वसुधा अभिजीत (जिमी शेरगिल) से शादी कर चुकी है लेकिन वह कृष्णा को भुला नहीं पाई है.

यहां कहानी में ट्विस्ट आता है. निर्देशक ने फ्लैशबैक में कृष्णा और वसुधा की मस्त लाइफ को दिखाया है. युवा कृष्णा और वसुधा की भूमिका शांतनु माहेश्वरी और सई मांजरेकर ने निभाई है. दोनों की देहभाषा, चेहरे के भाव, चलना, ठिठकना, शरमाना, मुसकाना सहज ही दिखता है, उस में कोई बनावटीपन नहीं.

कृष्णा की कोई फैमिली नहीं है. जेल से निकल कर वह अपनी पुरानी चाल में आता है. वसुधा, जो अब अभिजीत की पत्नी है, उस से मिलने आती है. अब वसुधा पति को सब सच बताती है कि उन 2 बदमाशों की जान कृष्णा ने नहीं ली थी, बल्कि उस ने (वसुधा ने) खुद ली थी. कृष्णा ने सच्चे प्यार का परिचय देते कत्ल का इलजाम अपने सिर ले लिया था.

फिल्म में अजय देवगन और तब्बू के किरदारों को ज्यादा फुटेज दी गई है. शांतनु माहेश्वरी और सई मांजरेकर ने इन किरदारों में जान डाल दी है. फिल्म की कहानी कमजोर है, रफ्तार धीमी है. क्लाइमैक्स में दर्शक खुद को ठगा सा महसूस करते हैं. फिल्म में अजय देवगन और तब्बू ने अपनी रहस्यमयी चुप्पी से जान डालने की असफल कोशिश की है. फिल्म की 5 मिनट की कहानी को सवा दो घंटे में दिखाया गया है.

सई मांजरेकर और शांतनु महेश्वरी की जोड़ी खूब जमी है. निर्देशक का कहानी कहने का तरीका बहुत उबाऊ लगता है. फिल्म का संगीत कमजोर है. जिमी शेरगिल का काम छोटा है, सिनेमेटोग्राफी अच्छी है.

अगस्त माह का पहला सप्ताह बौलीवुड का कारोबारः दर्शकों ने जान्हवी कपूर, अजय देवगन व तब्बू को सिरे से ठुकराया

बौलीवुड की हालत आंकलनों से ज्यादा खराब चल रही है. 7 माह बीत गए, एक भी फिल्म अपनी लागत तक नहीं वसूल पाई. कुछ फिल्में तो अपनी लागत का दो प्रतिशत भी बौक्सऔफिस पर इकट्ठा नहीं कर पाई लेकिन कलाकारों के अहम चरम सीमा पर हैं. तो वहीं फिल्मों की असफलता के चलते यह कलाकार फ्रस्ट्रेशन के शिकार हो रहे हैं. अब तो हालात ऐसे हो गए हैं कि प्रैस कौन्फ्रैंस में बुलाए गए किराए के अपने ‘नकली फैंस’ के सामने कलाकार पत्रकार को हड़काने से बाज नहीं आ रहा.

ऐसे हालात में अगस्त के पहले सप्ताह यानी कि दो अगस्त को जब अजय देवगन और तब्बू की फिल्म ‘औरों में कहां दम था’ तथा एक लघु फिल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुके निर्देशक सुधांशु सरिया व अभिनेत्री जान्हवीं कपूर की फिल्म ‘उलझ’ प्रदर्शित हुई तो उम्मीदें थीं कि यह दोनों फिल्में बौलीवुड को कम से कम उंट के मुंह जीरा वाली सफलता का स्वाद चखा देंगी. लेकिन हुआ उल्टा. फिल्म की शूटिंग के दौरान चाय पीने पर जो धनराशि खर्च हुई होगी, वह राशि भी यह दोेनों फिल्में बौक्स औफिस पर इकट्ठा नहीं कर पाईं.

अजय देवगन,तब्बू, शांतनु माहेश्वरी और साई मांजरेकर अभिनीत तथा ‘बेबी’ सहित तमाम सफलतम फिल्मों के निर्देशक नीरज पांडे द्वारा लिखित व निर्देशित फिल्म ‘औरों में कहां दम था’ प्रेम कहानी नहीं टौर्चर कहानी ही महसूस हुई. लोगों ने एक टिकट पर एक फ्री का औफर भी स्वीकार नहीं किया. इस फिल्म की रिलीज दो बार टाली गई. हर बार रिलीज टालने की वजह यह बताई गई थी कि फिल्म का प्रचार सही नहीं हो पाया लेकिन अंत तक अजय देवगन, तब्बू, शांतनु माहेश्वर या साई मांजरेकर ने पत्रकारों से बात नहीं की. अब इस के लिए यह कलाकार स्वयं दोषी हैं अथवा इन की पीआर टीम व मार्केटिंग टीम दोषी हैं, यह तो यह कलाकार ही बेहतर जानते होंगे.

हां, फिल्म के रिलीज से पहले दोतीन नामचीन गोदी मीडिया वाले टीवी चैनलों पर अजय देवगन और तब्बू गए थे, पर वहां पर भी ये फिल्म के संबंध में चर्चा करने की बजाय अपनी दोस्ती की ही चर्चा करते रहे. अजय देवगन व तब्बू को मान लेना चाहिए कि दर्शक को आप का चेहरा नहीं देखना है. दर्शक को इस बात में रुचि नहीं है कि आप लोग कितने वर्षों से दोस्त हैं. दर्शक मनोरंजन व अच्छा कंटैंट चाहता है. यही वजह है कि निर्माताओं के अनुसार पूरे 8 दिन के अंदर 100 करोड़ रूपए की लागत में बनी फिल्म ‘ओरों में कहां दम था’ महज 10 करोड़ ही कमा सकी. जिस में से निर्माता की जेब में बामुश्किल 4 करोड़ जाएंगे. मगर जानकारी के मुताबिक ,उस के अनुसार इस फिल्म ने बौक्सऔफिस पर 8 दिन में 5 करोड़ रुपए भी नहीं कमाए. फिल्म की इस दुर्गति की वजह खराब प्रचार, खराब कहानी, खराब निर्देशन, कलाकारों का बेमन अभिनय ही रहा. केवल साई मांजरेकर ने बेहतरीन अभिनय किया है.

कथानक के स्तर पर नीरज पांडे ने जो गलतियां की हैं,कम से कम उन के जैसे अनुभवी निर्देशक उसे तो उम्मीद नहीं थी.

अगस्त माह के पहले सप्ताह यानी कि दो अगस्त को प्रदर्शित फिल्म ‘उलझ’ के असफल होने पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ. यदि निर्देशक सुधांशु सरिया को ले कर यह कहा जाए कि ‘बंदर के हाथ में उस्तरा’ दे दिया गया तो गलत नहीं होगा. सुधांशु सरिया इस से पहले चारपांच लघु फिल्में बना कर राष्ट्रीय पुरस्कार जरूर जीत चुके थे, पर फिल्म ‘उलझ’ देख कर समझ में आ गया कि उन के अंदर निर्देशकीय प्रतिभा का घोर अभाव है. फिल्म के प्रदर्शन से पहले वह हवा में उड़ रहे थे.

जब पत्रकारों ने उन से फिल्म के संबंध में बातचीत करने के लिए संपर्क किया तो वह एक ही जवाब देते रहे कि मेरी फिल्म की मार्केटिंग टीम और पीआरओ से संपर्क कीजिए. शायद इसीलिए दर्शकों ने कह दिया कि पीआर टीम क्या तय करेगी, हम ही तय कर देते हैं. जी हां, लंदन में सब्सिडी ले कर लगभग 40 करोड़ में फिल्माई गई जान्हवी कपूर की फिल्म ‘उलझ’ सात दिन में सात करोड़ रुपए ही इकट्ठा कर सकी, इस में से निर्माता को मिलेंगे तीन करोड़ रुपए. वैसे सूत्रों का दावा है कि इस फिल्म ने 4 करोड़ से भी कम कमाए हैं. फिल्म ‘उलझ’ की नायिका जान्हवी कपूर ने तो अपने कैरियर की पहली फिल्म ‘धड़क’ से ही साबित कर दिया था कि उन के अंदर अभिनय प्रतिभा नहीं है, मगर वह तो ‘नेपो किड’ यानी कि निर्माता बोनी कपूर व अभिनेत्री श्रीदेवी की बेटी हैं, इसलिए उन्हें काम मिलता रहेगा.

तलाक : अदालती फैसला एहसान जैसा क्यों, हक जैसा क्यों नहीं

कानपुर की रहने वाली अवनि की शादी हरिद्वार के कार्तिक (दोनों बदले नाम) से 2 मई, 2019 को हुई थी. शादी के 4 दिन बाद ही दोनों को समझ आ गया था कि उन की पटरी किसी भी कीमत पर नहीं बैठेगी. लिहाजा, उन्होंने तलाक लेने का फैसला ले लिया. शादी के महज 25 दिन बाद, 27 मई को दोनों अलग हो गए.

आगे क्या हुआ, इसे जानने से पहले इन दोनों की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने परिवार, समाज और दुनिया की परवाह नहीं की कि लोग क्या कहेंगे. कार्तिक और अवनि दोनों की उम्र सिर्फ 20 साल थी, लेकिन जो हिम्मत, समझ और परिपक्वता उन्होंने दिखाई, वह काबिले तारीफ थी. एक बोझिल जिंदगी जीने से तो बेहतर है कि दोनों अलग हो कर आजाद जिंदगी जिएं और अपनी मर्जी के मुताबिक नए सिरे से इस अफसाने को एक खूबसूरत मोड़ पर ले जाएं. क्योंकि अंजाम उन्हें समझ आ गया था कि अच्छा तो होने से रहा.

जब उन्होंने अदालत का रुख किया, तो थोक में बिचौलियों की समझाइशें मिलीं, जिन का कोई असर न होते देख, इन्हें यह ज्ञान भी मिला कि तलाक कोई गुड्डेगुड़ियों का खेल नहीं. इस के लिए कोई आधार तो होना चाहिए. इस पर अवनि ने कार्तिक के खिलाफ दहेज मांगने की रिपोर्ट दर्ज करा दी. मामला परिवार न्यायालय में कोई 2 साल चला, जहां से तलाक तो नहीं मिला, लेकिन अदालत ने कार्तिक को आदेश दिया कि वह अवनि को 20 हजार रुपए महीने भरणपोषण के रूप में दे. इस पर झल्लाए कार्तिक ने नैनीताल हाईकोर्ट की शरण लेते हुए इस फैसले को चुनौती दी.

हाईकोर्ट में कोई 3 साल मामला चला. मुख्य न्यायधीश राकेश थपलियाल और जस्टिस ऋतु बाहरी ने बीती 4 अगस्त को फैसला देते हुए कहा कि पतिपत्नी के बीच कोई भावनात्मक जुड़ाव नहीं है. ऐसे में यह शादी एक बेजान मिलन के अलावा कुछ नहीं है. अगर दोनों पक्षों को तलाक नहीं दिया गया, तो यह दोनों पक्षों के लिए क्रूरता होगी. दोनों के बीच सुलह की कोई गुंजाइश नहीं है. समझौते के तहत हुए इस तलाक में कार्तिक को हुक्म दिया गया कि वह अवनि को स्थायी गुजारा भत्ते के रूप में एकमुश्त 25 लाख रुपये 26 सितंबर तक दे और अदालत को इस की पुष्टि करे.

अब थोड़ी देर के लिए इस मामले को होल्ड पर रखते हुए तलाक के आंकड़ों पर गौर करें, तो भारत उन गिनेचुने देशों में शामिल है जहां तलाक की दर सब से कम है. यहां तलाक की दर महज 0.01 फीसदी है. फोर्ब्स एडवाइजर के मुताबिक, दुनिया में तलाक की सब से ज्यादा दर मालदीव में 5.52 है. कजाकिस्तान में यह दर 4.6 फीसदी और रूस में 3.9 फीसदी है. भारत में तलाक की कम दर के बारे में फोर्ब्स की वेबसाइट झिझकते हुए गोलमोल शब्दों में कहती है कि कम दरों को सख्त कानूनों द्वारा समझाया जा सकता है, जो विवाह को भंग करने की सीमा को सीमित करते हैं. भारत ने 2023 में बिना किसी गलती के तलाक की शुरुआत की, जबकि अमेरिका में यह अधिक उदार नजरिया दशकों से आदर्श रहा है.

अब यह तो भुक्तभोगी ही बेहतर बता सकते हैं कि कानून ही सख्त नहीं हैं, बल्कि कानूनी प्रक्रिया उस से ज्यादा सख्त है. नहीं तो हिंदू मैरिज एक्ट की धारा 13 बी में परस्पर सहमति से तलाक का प्रावधान है, लेकिन उस का उपयोग न के बराबर होता है. वकील से ले कर अदालत का बाबू और जज भी नहीं चाहते कि तलाक आसानी से हो. वजह साफ है कि ये सभी पूजापाठी होते हैं और शादी को ऐसा धार्मिक संस्कार मानते हैं जिस का टूटना धर्म और संस्कृति के लिए खतरा पैदा कर सकता है.

कार्तिक और अवनि का मामला इस का अपवाद नहीं कहा जा सकता क्योंकि तलाक का मुकदमा लगभग 5 साल चला. इस अवधि में दोनों ने कितनी पारिवारिक, सामाजिक और मानसिक पीड़ा भुगती होगी, इस का अंदाजा लगाना सहज नहीं है. इस पर भी हाईकोर्ट ने तलाक की डिक्री अहसान सा थोपते दी, जबकि यह उन दोनों का अधिकार था. हाईकोर्ट को तो इस बाबत खेद व्यक्त करना चाहिए था कि कानूनी खामियों के चलते इन दोनों को खामख्वाह 5 साल परेशानी उठानी पड़ी.

ऐसा कभी होगा, लगता नहीं, क्योंकि विवाह व्यवस्था पंडेपुजारियों की गिरफ्त में है. जो नहीं चाहते कि तलाक की दर बढ़े, क्योंकि ऐसा होने से लोगों का भरोसा धार्मिक रस्मों और मंडप के नीचे ली गई कसमों से उठने लगेगा. आजादी के 77 साल बाद शादी के तौरतरीकों में जो बदलाव आए हैं, उनसे हर कोई वाकिफ है. मसलन पहले तो जमीन पर बैठ कर पंगत खिलाई जाती थी, शादी 10-15 दिन तक चलती थी, बरात 3 दिन किसी स्कूल या खेत में रुकती थी वगैरहवगैरह. इन चर्चाओं और यादों में एक चीज ज्यों की त्यों है, वह है मंडप के नीचे पंडित की अनिवार्य मौजूदगी.

धर्म के इस कारोबार को समझना मुश्किल भले ही न हो, लेकिन इस से छुटकारा पाना नामुमकिन है क्योंकि कोर्ट मैरिज को किसी भी स्तर पर प्रोत्साहन नहीं दिया जा रहा है. विवाह को धार्मिक संस्कार ही मानने की जिद की कीमत अवनि और कार्तिक जैसे लाखों कपल चुकाते हैं, जिन पर वैवाहिक जीवन भले ही वह नर्क तुल्य हो, को ढोने के लिए तरहतरह के दबाव बनाए जाते हैं. जो इस दबाव को मानने से इंकार करते हैं, उन के अदालत की चौखट पर पांव रखते ही ढीले पड़ने लगते हैं. अवनि और कार्तिक को शादी तोड़ने का फैसला लेने में महज 25 दिन लगे थे, लेकिन अदालत ने मंजूरी देने में 5 साल लगा दिए.

यह ठीक है कि अब दोनों आजाद हैं और मर्जी से रह और जी सकते हैं, और चाहें तो दूसरी शादी भी कर सकते हैं. लेकिन अहम सवाल यह है कि तलाक के बाद ही दूसरी शादी क्यों? तलाक की सालोंसाल चलती तकलीफदेह प्रक्रिया के दौरान ही क्यों नहीं? इस सवाल का जवाब बेहद साफ है कि पहली शादी के कानूनी तौर पर न टूटने यानी तलाक होने तक दूसरी शादी करना अपराध है. हालांकि यह एक ऐसा अपराध है, जो पतिपत्नी में से किसी ने नहीं किया होता, लेकिन सजा दोनों को ही भुगतनी पड़ती है.

बेहतर तो यह है कि ‘सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे’ की तर्ज पर पतिपत्नी को शादी कर लेनी चाहिए और कोई सुबूत उस का नहीं छोड़ना चाहिए. ‘लिविंग टूगेदर’ इस के एक आकर्षक और बेहतर विकल्प के रूप में उभरा है, जो लगभग शादी ही होता है. खासतौर से महानगरों में यह तरीका लोकप्रिय है और अब बी-टियर शहरों में भी दिखने लगा है. ‘पहले इस्तेमाल करें, फिर विश्वास करें’ वाला फंडा हर्ज की बात नहीं है. तलाक जब होगा, तब होगा, लेकिन तब तक शादी से जुड़ी सुख और जरूरतें क्यों कोई छोड़े? इस बात पर अब अदालतों को सोचना चाहिए कि तलाक कोई शौक नहीं, बल्कि जरूरत और हक भी है. ठीक वैसे ही जैसे शादी है. लेकिन जब शादी में अदालत का कोई रोल नहीं तो तलाक में इतना लंबा क्यों?

सुप्रीम कोर्ट ने क्यों कहा ‘जेल नहीं, जमानत ही नियम है’

दिल्ली शराब घोटाले में आम आदमी पार्टी के नेता और दिल्ली के डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया को सुप्रीम कोर्ट ने 17 माह के बाद जमानत दी. जमानत देते कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत स्वतंत्रता के पहलू को सामने रखते निचली अदालतों को तमाम नसीहत भी दी. सवाल उठता है कि तमाम फैसलों में इस तरह दी जाने वाली नसीहतों को निचली अदालतें किस तरह से लेती हैं? जमानत देने में अदालतों को इतनी दिक्कत क्यों होती है? आरोपी देश छोड़ कर भाग नहीं रहा होता है. जमानत आरोपी का अधिकार है. अदालतें जमानत देने में संकोच क्यों करती हैं?

मनीष सिसोदिया जैसे लोगों पर तो हो हल्ला खूब मचता है. इन के पास अच्छे वकीलों की कमी नहीं होती है. पैसा कोई समस्या नहीं है तब यह हालत है. देश की जेलों में तमाम लोग जमानत मिलने की प्रतीक्षा में रह रहे हैं. इन की बात सुनने वाला कोई नहीं है. हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक जाना इन की आर्थिक क्षमता से बाहर होता है. जब नेता सत्ता में होते हैं तो उन को यह परेशानी क्यों नहीं पता चलती कि जमानत के लिए आरोपी का घर द्वार बिक जाता है. जमानत का इंतजार कर रहे हर आदमी के पास नेताओं की तरह मंहगे वकील और पैसा नहीं होता है. वह जमानत को ले कर समाज सुधार का कोई कानून क्यों नहीं बनाते?

‘जेल नहीं, जमानत ही नियम है’

हाई कोर्ट से जमानत के लिए जाने का कम से कम खर्च 3 से 5 लाख के बीच आता है. सुप्रीम कोर्ट में यह 5 से 10 लाख कम से कम हो जाता है. आम आदमी किस तरह से अपना मुकदमा वहां ले कर जाए. खासतौर पर तब जब घर का कमाने वाला ही जेल में जमानत की राह देख रहा हो. जमानत के अधिकार पर केवल सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से काम नहीं चलने वाला. इस को ले कर न्याय प्रणाली में एक स्पष्ट व्यवस्था होनी चाहिए जिस से कम से कम समय जमानत के इंतजार में लोगों को जेल में रहना पड़े.

सुप्रीम कोर्ट ने मनीष सिसोदिया को जमानत देते वक्त कहा कि जमानत को सजा के तौर पर नहीं रोका जा सकता. निचली अदालतों को यह समझने का समय आ गया है कि ‘जेल नहीं, जमानत ही नियम है’. मुकदमे के समय पर पूरा होने की कोई संभावना नहीं है. सिसोदिया को लंबे दस्तावेजों की जांच करने का अधिकार है.

अदालत ने यह देखने के बाद याचिका मंजूर की कि मुकदमे में लंबी देरी ने मनीष सिसोदिया के शीघ्र सुनवाई के अधिकार का उल्लंघन किया है. कोर्ट ने कहा कि शीघ्र सुनवाई का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत स्वतंत्रता का एक पहलू है. बेंच ने कहा कि मनीष सिसोदिया को शीघ्र सुनवाई के अधिकार से वंचित किया गया है.

हाल ही में जावेद गुलाम नबी शेख मामले में भी हम ऐसे ही निपटे थे. हम ने देखा कि जब अदालत, राज्य या एजेंसी शीघ्र सुनवाई के अधिकार की रक्षा नहीं कर सकती हैं तो अपराध गंभीर होने का हवाला दे कर जमानत का विरोध नहीं किया जा सकता है. अनुच्छेद 21 अपराध की प्रकृति के बावजूद लागू होता है.

कानून बना कर समाज सुधार से भागती सरकारें

मनीष सिसोदिया की जमानत पर सांसद संजय सिंह ने कहा कि “दिल्ली का नागरिक खुश है. सब मानते थे कि हमारे नेताओं के साथ जोर जबरदस्ती और ज्यादती हुई है. हमारे मुखिया अरविंद केजरीवाल और सत्येंद्र जैन को जेल में रखा है. वो भी बाहर आएंगे. केंद्र की सरकार की तानाशाही के खिलाफ जोरदार तमाचा है. ईडी ने कोई न कोई जवाब दाखिल करने का बहाना बनाया. एक पैसा मनीष सिसोदिया के घर, बैंक खाते से नहीं मिला. सोना और प्रौपर्टी नहीं मिला. दिल्ली के विधानसभा चुनाव के लिए और आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता के लिए खुशखबरी है. हमें ताकत मिलेगी.”

संजय सिंह का बयान राजनीतिक है. प्रधानमंत्री के साथसाथ उन को न्याय प्रणाली से सवाल करना चाहिए कि जमानत देने में हिचक क्यों होती है ? संजय सिह और आम आदमी पार्टी सत्ता में हैं जहां कानून बनते हैं. उन को राज्यसभा में यह बात उठानी चाहिए कि जमानत के अधिकार में रोड़ा न लगाया जा सके. असल में सरकारों के साथ यह दिक्कत होती है कि वह शोषक होती है. कानून के जरिए समाज सुधार के काम नहीं करती. संजय सिंह और आम आदमी पार्टी आज भी दूसरे आरोपियों की चिंता नहीं कर रही जो जमानत के इंतजार में जेल में हैं. वह केवल अपनी पार्टी के लोगों के लिए आवाज उठा रहे हैं.

आम आदमी पार्टी जब विपक्ष में थी तब उस के नेता अरविंद केजरीवाल कहते थे कि ‘दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को पहले जेल में डालो फिर मुकदमा चलाओ. सब कबूल कर देंगी. कहां कैसे भ्रष्टाचार और घोटाले हुए हैं.’ अब जब उन कर यही हथियार चल पड़ा तो समझ में आ रहा कि जेल, जमानत, सुनवाई में देरी, ईडी और सीबीआई क्या करती है उस का क्या प्रभाव पड़ता है. जो पार्टी सत्ता में हो तो उसे इस तरह के कानून बनाने चाहिए कि समाज सुधार हो सके. जनता को राहत मिले.

जमानत का अधिकार एक बड़ा मुद्दा है. सुप्रीम कोर्ट बारबार निचली अदालतों को प्रवचन देती है लेकिन निचली अदालतें कहानी की तरह सुन कर भूल जाती है. ऐसे में कानून बनाने वाली सरकारों की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वह कि ‘जेल नहीं, जमानत ही नियम है’ के सिद्वांत को लागू कराए. जिस से जमानत के लिए लोगों को अपना घर द्वार न बेचना पड़े. हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक पंहुच सकने वाले आरोपियों को भी जल्दी जमानत मिल सके.

17 माह बाद मिली जमानत

सुप्रीम कोर्ट ने कथित दिल्ली शराब घोटाले में मनीष सिसोदिया की जमानत पर फैसला सुना दिया. मनीष सिसोदिया को सुप्रीम कोर्ट ने जमानत दे दी है. 17 माह के बाद वह जेल से बाहर आ रहे हैं. उन्हें 10 लाख के निजी मुचलके पर जमानत मिल गई है. मनीष सिसोदिया पर दिल्ली आबकारी नीति में गड़बड़ी के आरोप हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने कुछ शर्तों के साथ जमानत दी है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार, सिसोदिया को अपना पासपोर्ट जमा करना होगा, इस का मतलब सिसोदिया देश छोड़ कर बाहर नहीं जा सकते. मनीष सिसोदिया को हर सोमवार को थाने में हाजिरी देनी होगी.

आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह ने इस फैसले का स्वागत करते कहा है कि “यह सत्य की जीत हुई है. पहले से कह रहे थे इस मामले में कोई भी तथ्य और सत्यता नहीं थी. जबरदस्ती हमारे नेताओं को जेल में रखा गया. क्या भारत के प्रधानमंत्री इस 17 महीने का जवाब देंगे

जिंदगी के 17 महीने जेल में डाल कर बर्बाद किया ? जब ‘जेल नहीं, जमानत ही नियम है’ का सिद्वांत लागू होगा तो किसी के जीवन का कीमती समय जमानत के इंतजार में जेल में नहीं कटेगा.”

30-35 की उम्र में फीमेल फ्रैंड्स होने के हैं ढेरों फायदे

आप 30 -35 साल की हैं और शादी नहीं हुई या आप ने अपनी मर्जी से नहीं की हो तो समाज को और खुद को हैंडल करने के अपनी लाइफ एंजौय करने के कई तरीके हैं. अपनी हमउम्र लड़कियों, शादी शुदा, डाइवोर्सी, कुंवारी लड़कियों से दोस्ती करें. ऐसा करने के अनेक फायदे भी हैं.

महिला मित्र के साथ आप एकदूसरे के घर बेफिक्र हो कर स्टे करने के लिए जा सकती हैं, शहर से बाहर बिना किसी टेंशन के आउटिंग के लिए जा सकती हैं. सेम जैंडर के साथ यानी महिलाओं के साथ दोस्ती से अपोजिट सैक्स के चक्कर में फंसने का डर नहीं होता. किसी लड़की की बजाय अगर आप की दोस्ती किसी पुरूष के साथ है तो समाज के डर से आप को घर से बाहर घूमने जाने पर अलगअलग रूम लेने होंगे,समाज की नजरों से बच कर रहना होगा.

अगर मूवी देखने जा रहे हैं तो लाइन में लग कर टिकट कौन खरीदेगा इस बारे में सोचना पड़ेगा,अगर बाहर लंच या डिनर के लिए साथ गए तो खाने का बिल कौन भरेगा, गाड़ी का टायर पंचर हो गया तो टायर कौन बदलेगा यह सब सोचना पड़ेगा. जबकि अगर वही दोस्ती महिला के साथ होगी तो सब काम मिल बांट कर होंगे, समाज की नजरों और सवालों से बचने की टेंशन नहीं होगी. सारी फीमेल गैंग मिल कर सारे काम एक साथ करेगी और फुल औन मौज मस्ती होगी.

धर्म और समाज के कटाक्षों की चिंता न करें

हमारे टिपिकल भारतीय समाज के मुताबिक लड़कियों को 24-25 तक शादी कर लेनी चाहिए और 30 की उम्र तक उन का कम से कम एक बच्चा तो हो ही जाना चाहिए. लेकिन अगर कोई लड़की ऐसा न कर पाए या न करने का चुनाव करे तो समाज उसे कटघरे में खड़ा कर के उस से रोज 10 तरह के सवाल करता है. लड़कियों को शादी कब करनी चाहिए, बच्चे कब और कितने करने चाहिए, उस के लिए ये सारे फैसले हमेशा से समाज के लोग ही करते आए हैं. लड़की की मर्जी जानना कोई जरूरी नहीं समझता. लेकिन वे लड़कियां जो आज अपने लिए फैसले ले रही हैं समाज और धर्म उन पर भी उंगलियां उठाने और उन्हें समाज से अलग करने से बाज नहीं आता. कई सामाजिक आयोजनों में अधिक उम्र की अविवाहित लड़कियों को हेय दृष्टि से देखा जाता है, उन्हें आमंत्रित नहीं किया जाता ऐसे में 30-35 वर्ष की अविवाहित लड़कियां अपनी खुशी के आयोजनों की प्लानिंग खुद करें और धर्म और समाज के कटाक्षों की बिल्कुल चिंता न करें.

आंटियों की गौसिप व सवालों की परवाह न करें

आज की लड़कियां 30 की उम्र में में अपने लिए मिस्टर परफैक्ट खोजने के बजाय अपनी पर्सनल ग्रोथ कर ध्यान दे रही हैं. किसी दूसरे को खुद के लिए चुनने, उसे खुद पर हावी होने देने से पहले खुद को समझ रही हैं. नोएडा की 32 वर्ष की दीपा एक मल्टीनैशनल कंपनी में उच्च पर कार्यरत है. उस का कहना है, ‘बेटा, तुम्हारी उम्र बढ़ती जा रही है. तुम कब शादी कर रही हो? यह मैं अपने पड़ोस की आंटियों से हमेशा सुनती रहती हूं. समाज के हिसाब से तो इतनी उम्र में मुझे शादी और बच्चे दोनों कर लेने चाहिए थे लेकिन मेरे लिए शादी कर के किसी के साथ घर बसाने से ज्यादा जरूरी कैरियर में सैटल होना है और मैं अपनी महिला मित्रों के साथ अपनी लाइफ बहुत अच्छे से एंजौय कर रही हूं और यह निर्णय ले कर मुझे अपनी ताकत को पहचानने का मौका मिला है. शादी न करना मेरे लिए बहुत एंपावरिंग रहा है. इस उम्र में सिंगल रहना मेरे लिए खुद को, अपने सपने, अपनी सीमाओं को जानने का मौका है. मैं ने सोलो एडवेंचर, पर्सनल ग्रोथ को चुना है. किसी के साथ अब तक सैटल न होना मेरी अहमियत को कम नहीं करता है. यह मेरे जीवन का एक निर्णय है, जिस में मुझे खुद की ताकत को पहचानने का मौका मिला है.’

सिंगल महिलाएं दुखी होने की बजाय खुश होने के अवसर तलाशें

लाइफस्टाइल जर्नलिस्ट श्रीमती पियू कुंडू ने भारत की सिंगल महिलाओं पर एक किताब लिखी ‘स्टेटस सिंगल’ जिस में उन्होंने बताया है कि भारत में 74.1 मिलियन से भी अधिक महिलाएं सिंगल हैं. वे या तो तलाक ले चुकी हैं, विधवा हैं या अलग रह रही हैं या फिर किन्हीं कारणों से उन्होंने शादी नहीं की. कुंडु भी अपनी किताब में सुझाव देती हैं कि सिंगल महिलाएं दुखी होने की बजाय खुश होने के अवसर तलाशें और जीवन को आनंदपूर्ण बनाएं.

सिंगल होने का मतलब यह नहीं कि जीवन अधूरा है

30-35 वर्ष की अनमैरिड लड़कियां के लिए खुश रहने के लिए सब से जरूरी है खुद को प्राथमिकता देना, खुद की खुशियों पर फोकस करना. आप की खुशियां समाज के रवैये पर निर्भर नहीं रहनी चाहिए और किसी और के लिए अपनी इच्छा और अपनी प्रायोरिटी को कभी भी छोड़ना नहीं चाहिए. यह बात दिमाग में अच्छी तरह से बैठा लें कि यदि आप सिंगल है, तो इस का मतलब यह नहीं कि आप का जीवन अधूरा है. 30-35 वर्ष की अनमैरिड लड़कियां अकेले रहने से न डरें, जिज्ञासु बनें तथा अपने पैशन को फौलो करें. आप को कभी भी अकेलापन नहीं लगेगा और फिर भाई बहन, दोस्त तो हैं ही.

भय बिनु होत न प्रीति : पुत्र मोह में अंधे पिता के कारगुजारियों की कहानी

लेखिका – संयुक्ता त्यागी

“मुबारक हो, बेटा हुआ है.”

नर्स ने आलोक की गोद में बच्चे को देते हुए कहा. आलोक ने अपने नवजात बेटे को गोद में लेने‌ के लिए हाथ आगे बढ़ाए तो आंखों से आंसू बह निकले. पिता बनने की खुशी हर आदमी के लिए खास होती है लेकिन आलोक के लिए ‘बहुत खास’ थी. गोद में ले बेटे को एकटक देखता रहा.

चेहरे पर संतुष्टिभरी मुसकराहट खिल गई और उस ने बेटे को सीने से लगा लिया. मन ही मन खुद से वादा किया कि मैं सारी दुनिया की ख़ुशी अपने बच्चे को दूंगा, वह भी बिना मांगे.

आलोक और वाणी की शादी को 8 साल बीत चुके थे लेकिन वे संतानसुख से वंचित थे. इन 8 सालों में उन दोनों ने न जाने कितने डाक्टर बदले और कितने ही मंदिरों की चौखटों पर माथे रगडे, अनगिनत मिन्नतें, हवनयज्ञ, जिस ने जो उपाय बता दिया, वह किया. कोई फायदा न हुआ.

रिश्तेदार तरहतरह के उपायउपचार बताने के साथ ही कभी सामने तो कभी पीछे ताने मारने से भी नहीं चूकते थे. कोई सहानुभूति के नाम पर हेयदृष्टि से देखता तो कोई अपने बच्चों को वाणी से दूर रखने की कोशिश करता. आलोक और वाणी सब समझने के बाद भी कुछ न बोलते, बस, खून का घूंट पी कर रह जाते. वाणी ने दबी आवाज में बच्चा गोद लेने के लिए कहा तो परिवार में बवाल मच गया.

‘पता नहीं किस का बच्चा होगा?’

‘कौन सी बिरादरी का होगा?’

‘अगर बच्चा लेना ही है तो रिश्तेदारी में से ही लो.’

एकदो धनलोलुप रिश्तेदारों ने तो अचानक उन से मेलजोल बढ़ाना भी शुरू कर दिया. आलोक और वाणी सब समझते थे, इसलिए उन्होंने रिश्तेदारों का बच्चा गोद लेने से साफ़ मना कर दिया. इस के बाद जो ताने दबी जबान में दिए जाते थे वो मुंह पर मिलने लगे.

‘बांझ है, हम तो तरस खा कर अपना बच्चा दे रहे थे लेकिन एटिट्यूड तो देखो ज़रा, हूंह, हमें क्या, रहो ऐसे ही बेऔलाद.’

वाणी आलोक के सीने से लग रो लेती लेकिन किसी को पलट कर जवाब न देती. उस वक्त दोनों ने संतान की उम्मीद छोड़ दी. लेकिन ऊपर वाले ने किस के लिए क्या सोचा होता है, यह कोई जानता तो जिंदगी कितनी आसान लगती.

इतने बरस के इंतज़ार के बाद वाणी की प्रैग्नैंसी की खबर ने रेगिस्तान से तपते मन को शीतल कर दिया था. पूरे 9 महीने आलोक ने वाणी का हद से ज्यादा ध्यान रखा. रैगुलर चैकअप, खानपान, मूड स्विंग आदि सब को संभालता आलोक एकएक दिन गिन रहा था. वहीं रिश्तेदारों के मुंह पर ताले लग गए थे.

आलोक और वाणी की सारी दुनिया अब उन के बच्चे तक सिमट गई थी. जिस बच्चे के लिए उन्होंने सालों तपस्या की थी वह अब उन के सामने था. बड़े चाव से नाम रखा ‘शिखर’.

आलोक ने सारा घर खिलौनों से भर दिया. सोतेजागते, बस, शिखर ही उस के दिमाग में रहता. जितने समय घर में रहता, बेटे को गोद में रखता, इस बात पर अकसर वाणी से उस की बहस भी हो जाती.

“आलोक, शिखर को हर वक्त गोद में रखोगे तो यह चलना कैसे सीखेगा?”

“चलने लगेगा. मैं अभी इसे नीचे नहीं छोड़ूंगा, कहीं चोट लग गई तो?”

वाणी, आलोक के इस रवैए से खीझ जाती लेकिन आलोक का प्यार करने का यही तरीका था. नतीजा यह हुआ कि शिखर ने चलना देर से शुरू किया और अपने हाथ से खाना तो उसे 9 साल की उम्र में आया.

“मम्मा, आज मैम ने मुझे डांटा.”

“क्यों?”

“मैं ने सान्या को धक्का दिया था,” कह कर वह शरारत से मुसकरा दिया.

उस की बात से वाणी को बहुत तेज गुस्सा आया तो आलोक ने हंस कर बात टाल दी, “मैं कल तुम्हारी टीचर से मिल कर आता हूं. ऐसे कैसे डांट सकती हैं मेरे क्यूट से बच्चे को.”

“आलोक, यह गलत है. शिखर ने गलती की है और तुम उसे शह दे रहे हो.”

आलोक ने वाणी की बात अनसुनी कर शिखर को गोद में उठा लिया.

वक्त अपनी रफ्तार से आगे बढ़ रहा था और शिखर भी बड़ा होने लगा. आलोक बेटे के मुंह से निकली हर बात पूरी करता, फिर वह जायज़ हो या नाजायज़. ऐसा नहीं था कि वाणी अपने बेटे को कम प्यार करती थी लेकिन वह समझती थी कि अच्छी परवरिश के लिए सख्ती भी जरूरी है और आलोक को भी समझाती लेकिन आलोक न तो खुद शिखर को कुछ कहता और न ही वाणी को कहने देता. आलोक के इसी रवैए के कारण 14 साल का शिखर एक जिद्दी और बिगड़ैल किशोर बन गया.

अपनी जिद मनवाने के लिए उसे बहुत ज्यादा कोशिश नहीं करनी पड़ती थी. जिस दोस्त के पास जो चीज देख लेता वही उस को भी चाहिए होती थी. अगर कभी वाणी मना कर देती तो शिखर जोरजोर से चिल्लाता और हंगामा खड़ा कर देता क्योंकि उसे तो बचपन से ही मन की करने की आदत थी. वाणी के लिए यह सब बरदाश्त से बाहर था लेकिन आलोक उसे कुछ कहने नहीं देता. सच तो यह था कि आलोक अब खुद भी शिखर के जिद्दी स्वभाव के चलते अंदर ही अंदर परेशान था लेकिन धृतराष्ट्र की तरह पुत्रमोह में बंधा था, ऐसा मोह संतान का सर्वनाश करता है, यह बात उस की समझ में नहीं आ रही थी.

आज शिखर ने स्कूल से वापस आते ही स्कूलबैग एक तरफ़ फेंक, जूते उतारते हुए फरमान जारी किया, “मम्मा, मुझे मोबाइल चाहिए.” उस के स्वर में रिक्वैस्ट नहीं और्डर था.

वाणी ने शिखर को पलट कर देखा और खाना लगाते हुए ही बोली, “तुम्हें फोन की क्या जरूरत है?”

“मेरे सब दोस्तों के पास फोन है, एक मेरे ही पास नहीं है.”

“ठीक है, मेरा पुराना फोन रखा है, उसे ले लेना.”

“पुराना? क्या बोल रही हो, मैं पुराना फोन यूज़ करूंगा? मुझे नया फोन चाहिए,” रोब के साथ चिल्लाते हुए वह बोला.

“शिखर…”

“रहने दो मम्मा, मैं पापा से बात कर लूंगा. आप तो मुझे प्यार ही नहीं करतीं,” वाणी की बात बीच में ही काट शिखर पैर पटकता हुआ अपने कमरे में चला गया.

वाणी ने उस से बहस करना ठीक नहीं समझा.

पिछले कुछ समय से खर्चें बढ़ गए थे. नया मकान लिया था और कार की इंस्टौलमैंट भी जाती थी, ऐसे में किसी और ख़र्च की गुंजाइश नहीं थी.

शाम को आलोक के घर में घुसते ही शिखर ने फिर वही बात छेड़ दी. आलोक ने भी उसे पुराना फोन लेने को कहा. लेकिन शिखर कहां मानने वाला था.

“पापा, बता रहा हूं, नया फोन चाहिए, वह भी आईफोन.”

आलोक पहली बार किसी बात के लिए शिखर को मना करते हुए बोला,

“नहीं बेटा, अभी मैं इतना खर्चा नहीं कर सकता. नया फोन कुछ महीने बाद दिलवा दूंगा, तब तक पुराने फोन से काम चला लो.”

शिखर के लिए यह अविश्वसनीय था कि पापा किसी बात के लिए उसे मना कर दें. वह आंखें फाड़ कर आलोक को देख रहा था. गुस्से से शरीर कांप रहा था, चेहरा लाल हो गया था.

“मतलब, आप मुझे फोन नहीं दिलवा रहे हो?”

“बेटा, मेरी बात तो समझो, मैं मजबूर हूं.”

वाणी वहीं खड़ी सब देख रही थी और उसे आलोक का बेटे के सामने इस तरह मजबूरी जताना बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था. इस से पहले वह कुछ कहती, शिखर चिल्लाया,

“पापा, अगर कल मेरा फोन नहीं आया तो…”

“तो?” आलोक ने थूक गटकते हुए कहा.

“मैं सुसाइड कर लूंगा, पापा.”

आलोक सुन्न हो गया. उस का 14 साल का वह बेटा जो उस की जिंदगी का केंद्र था, उसे मरने की धमकी दे रहा था. सहसा आंखों के सामने आएदिन अखबारों में आने वाली आत्महत्या की खबरें घूम गईं. आलोक से खड़ा नहीं रहा गया, वहीं फर्श पर बैठ गया. अगर शिखर ने कुछ कर लिया तो? मैं कैसे जी पाऊंगा, चक्कर आ गया. दोनों हाथों से सिर पकड़ लिया. तभी, एक आवाज से चौंक कर ऊपर देखा,

“चटाक,” वाणी ने शिखर को खींच कर चांटा लगाया और एक पर नहीं रुकी, लगातार मारती रही.

“तुझे मरना है न, ठीक है, इस घर में आज तक तेरी हर बात मानी जाती रही है, यह भी मानी जाएगी, बोल कैसे मरना है?” और शिखर को खींचते हुए बालकनी की ओर ले जाने लगी.

“चल, तुझे यहीं 10वें फ्लोर से धक्का दे कर किस्सा खत्म करती हूं.”

शिखर को ऐसी उम्मीद बिलकुल भी न थी, वह तो सिर्फ डरा रहा था लेकिन मां का यह रूप देख बुरी तरह घबरा गया. वाणी का गुस्सा देख उसे लगा वह सच में शिखर को बालकनी से फेंक देगी.

“नहीं  मम्मा, मुझे नहीं  मरना. सौरी मम्मा, सौरी.”

वाणी ने शिखर का गिरेबान पकड़ लिया, “कान खोल कर सुन ले, आज कह रही हूं दोबारा नहीं कहूंगी, बेशक तुझे हम ने बड़ी मन्नतों से पाया है और तू हमें बेहद प्यारा है लेकिन हमारे प्यार का गलत फायदा उठाने की कोशिश कभी मत करना. तेरी कोई भी ज़िद और बद्तमीज़ी आज के बाद इस घर में बरदाश्त नहीं होगी. और हां, जब मरने की इच्छा हो, मुझ से कहना. मैं अपने हाथों से तेरी जान लूंगी लेकिन इस तरह की सुसाइड की धमकी से डर कर नहीं रहेंगे हम.”

“तेरे पापा ने हमेशा तुझे हद से ज्यादा प्यार दिया, बहुत बार समझाया भी मैं ने लेकिन उन्हें तेरे प्यार के सामने और कुछ दिखता ही नहीं था. वे भूल गए थे कि ‘भय बिनु होय न प्रीति.’

आलोक ने वाणी की तरफ़ देख सहमति में सिर हिला दिया.

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