मेरा दामाद तो लाखों में एक है जो बेटे की तरह मेरा ख्याल रखता है. ऐसा कहने और मानने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है तो इस की वजहें भी हैं जिन के चलते ससुर दामाद का रिश्ता पहले की तरह उबाऊ और औपचारिक नहीं रह गया है.

ज्यादा नहीं अब से कोई 30 – 40 साल पहले दामाद को उस के नाम से पुकारने की मजाल कोई नहीं कर सकता था. बहुत संपन्न और बड़े शहरों में रह रहे परिवारों में ही दामाद को नाम से बुलाया जाता था. यह शिक्षा का असर था या जागरूकता का या फिर बदलते दौर के रिश्तों का यह कह पाना मुश्किल है लेकिन यह बात बहुत आम थी कि दामाद को बुलाने कई सम्मानजनक शब्द चलन में थे, मसलन जवाई राजा, कुंवर साहब, लालाजी, पाहुन, बटुकजी या फिर बाबू साहब. कहने का मतलब यह नहीं कि दामाद कोई हव्वा या अजूबा हुआ करता था बल्कि यह एक तरह का प्रोटोकाल था जिस के तहत दामाद को हद से ज्यादा आदर और सम्मान दिया जाता था.

हालिया राजनीतिक उठापटक में देखें तो एक बार फिर स्पष्ट हो जाता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गांधी परिवार के दामाद राबर्ट वाड्रा का उतना ही सम्मान करते हैं जितना पहले कभी गांवदेहातों में किया जाता था. एक का दामाद पूरे गांव का दामाद हुआ करता था. जिस से मनमुटाव या दुश्मनी होती थी उस के दामाद को भी लोग इज्जत देते थे. हरियाणा विधान सभा चुनाव के वक्त मोदी ने कितनी शिद्दत से राबर्ट बाड़ा को याद किया यह हर कोई जानता है. उन्होंने कांग्रेस को दामादों और दलालों की पार्टी कहते भले ही तंज कसा हो लेकिन उस में दामाद का नाम न लेने का रिवाज, पौराणिक संस्कार और सम्मान तो शामिल थे.
हालांकि जब बारबार उन्होंने दामादजी, दिल्ली में बैठे दामादजी किया तो वाड्रा भी झल्ला कर बोल ही पड़े कि “अगर मैं ने कुछ गलत किया है तो ये लोग मुझे गिरफ्तार क्यों नहीं कर लेते. 10 साल से तो इन्ही की सरकार है. इस दौरान सारी जांच एजेंसिया लगा दीं. ये एक भी आरोप साबित नहीं कर पाए खुद मनोहरलाल खट्टर मुझे दो बार क्लीन चिट दे चुके हैं.”

बकौल वाड्रा दामाद हमारे समाज और देश में सम्मान के साथ देखा जाता है. लेकिन वे गाली गलोच की भाषा इस्तेमाल करते हैं. उन्होंने दलाल की बात की जो पढ़ेलिखे व्यक्ति नहीं कर सकते. देखा जाए तो इनडायरेक्टली उन्होंने मोदी की डिग्री पर उंगली ही उठाई. यह काम आप संयोजक और दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी हर कभी किया करते हैं जिस पर जाने क्यों सारे भाजपाई तिलमिला उठते हैं.

ये वही नरेंद्र मोदी हैं जो आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू के बारे में सार्वजनिक तौर पर बोलते थे कि उन्होंने अपने ससुर एनटी रामाराव की पीठ में छुरा भोंका है ( गुंटूर 10 फरवरी 2019 ). जवाब में नायडू भी तुरंत यह कड़वा सच उगलने से खुद को रोक नहीं पाए थे कि उन्होंने तो अपनी पत्नी को ही छोड़ रखा है ( अमरावती 10 फरवरी 2019 ). पिछले लोकसभा चुनाव में टीडीपी, एनडीए का दौबारा हिस्सा बनी तो फिर मोदी ने कभी कहीं दामाद पीठ और छुरे वाली बात नहीं कही. क्योंकि उन के साथ आने मात्र से नायडू का यह कथित पाप धुल गया था. अब नायडू भी मोदी की पत्नी जसोदाबेन को छोड़े जाने का जिक्र नहीं करते. यही वह मौकापरस्त सियासत कही जाती है जिस में कोई किसी का परमानेंट दोस्त या दुश्मन नहीं होता.

इस दामादोफोबिया को राजनीति से हट कर देखें तो 4 दशकों में जो बहुत कुछ बदला है. उस में एक अहम बदलाव यह भी शामिल है कि दामाद से खासतौर से ससुर के संबंध अनौपचारिक होने लगे. नहीं तो पहले दामाद का घर आना ही एक महत्वपूर्ण घटना हुआ करती थी. उस के स्वागत में पलक पांवड़े बिछाए जाते थे. घर की साफ़ सफाई होती थी, चादर परदे और सोफे के कवर वगैरह बदल दिए जाते थे. खाना दामाद की पसंद का बनता था और दामाद पूरे महल्ले का दामाद हुआ करता था घर में. सभी को सलीके से रहने और पेश आने की हिदायत दी जाती थी. कुल जमा माहौल किसी उत्सव जैसा रहता था जिस में थोड़ी सी दहशत और बहुत ज्यादा लिहाज रहता था. ऐसा कोई काम करने से सभी यथासंभव बचते थे जिस से दामादजी के नाराज रहने की संभावना रहती हो.

अब ऐसा कुछ नहीं है दामाद का सम्मान तो पूर्ववत है लेकिन उस का तरीका बदल गया है. दामाद को अब नाम ले कर ही पुकारा जाता है. खासतौर से ससुर अधिकारपूर्वक दामाद को नाम से पुकारता है. यह संबंध दोस्ती और लिहाज की सीमा रेखा पर आ गया है और बहुत हद तक भावनात्मक भी हो गया है. बहुत कम शब्दों में कहें तो दामाद बेटे जैसा हो चला है.
ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ ससुराल वाले या ससुर ही बदले हों बल्कि बदले दामाद भी हैं. वे पिता और ससुर में खास अंतर नहीं करते. मौडर्न दामादों की माने तो ससुर उन के लिए पिता समान ही है ठीक वैसे ही जैसे उस की पत्नी के लिए उस के पेरैंट्स हैं. ऐसा क्यों, इस की एक बड़ी वजह यह है कि जब से एक या दो संतानों का रिवाज चला और संयुक्त परिवार टूटने लगे तो हर लिहाज से दामाद की उपयोगिता बढ़ गई. दूसरे बेटियों की शिक्षा और आर्थिक आत्मनिर्भरता ने भी इस में अहम रोल निभाया.

जिन के सिर्फ एक या दो बेटियां हैं उन के लिए तो दामाद वाकई बेटे जैसा सहारा बन रहा है जो बीमारी में उन की देखभाल भी करता है, आर्थिक मामले भी निबटाता है और घर आने पर उन का उतना ही सम्मान करता है और उन के साथ जितना संभव हो वक्त भी गुजारता है जिस से कोई भी बुजुर्ग अभिभूत हो सकता हैं. फिर बुढ़ापा उन्हें भार या अभिशाप नहीं लगता. भोपाल के एक रिटायर्ड अधिकारी की मानें तो वे पत्नी सहित रहते हैं दोनों बेटियां पुणे में हैं. साल में वे दो चक्कर पुणे के लगाते हैं और 15 – 15 दिन बेटियों के यहां रुकते हैं. इस दौरान दामाद उन्हें पेरैंट्स जैसा ही ट्रीट करते हैं. सुबह की सैर पर साथ जाते हैं, घुमातेफिराते हैं, होटल में खाना खिलाने ले जाते हैं, पीवीआर में सिनेमा दिखाने भी ले जाते हैं और मैडिकल चेकअप भी करवा देते हैं, जिस से बेटा न होने की टीस नहीं सालती.

बेटियां भी इस से राहत की सांस लेती हैं क्योंकि उन्हें अपने पापा की चिंता रहती है. जब यह काम पति संभाल ले तो दोनों की बौंडिंग और बढ़ती है. इंदौर की एक बेंक कर्मी निधि की मानें तो शादी से पहले पेरेंट्स की बहुत चिंता रहती थी लेकिन पति विशाल ने सब कुछ कुछ इस तरह मैनेज किया कि आज शादी के आठ साल बाद भी सब कुछ पूर्ववत चल रहा है. शादी के वक्त निधि का भाई बेंगलुरु में बीटेक की पढ़ाई कर रहा था और डिग्री मिलने के तुरंत बाद उसे अमेरिका की एक सौफ्टवेयर कम्पनी में अच्छी नौकरी मिल गई. उस के विदेश जाने के बाद विशाल ने तमाम वे जिम्मेदारियां निभाई जो आमतौर पर बेटे के हिस्से में आती हैं. अब निधि के पिता हर कभी बड़े गर्व से कहते हैं कि एक बेटा तो विदेश चला गया लेकिन दूसरे ने अपना रोल बखूबी निभाया.

बात इन मानों में भी फिट बैठती है कि जब बहू बेटी जैसी होती है या हो सकती है तो दामाद बेटे जैसा या बेटा क्यों नहीं हो सकता. अब वह दौर भी गया कि ससुर सिर्फ इसलिए दामाद का एहसानमंद रहे कि उस ने उन की बेटी से शादी की है लिहाजा उसे हर तरह से खुश रखा जा कर ही बेटी सुखी रह सकती है. लड़कियों की आत्मनिर्भरता ने सही मानों में हालात और समीकरण बदले हैं. वे शादी के पहले ही होने वाले पति के सामने साफ़ कर देती हैं कि तुम रखो न रखो लेकिन मैं अपने पेरैंट्स का ख्याल शादी के बाद भी रखूंगी और इस का यह मतलब नहीं कि मैं तुम्हारे पेरेंट्स के प्रति अपनी जिम्मेदारियां नहीं निभाऊंगी. हम दोनों ही मिल कर एक दूसरे के पेरैंट्स का ख्याल बराबरी से रखेंगे.

हालांकि है नहीं लेकिन यह अगर शर्त है तो आजकल के लड़कों को इस से कोई गुरेज परहेज नहीं है क्योंकि वे उस दौर के दामाद नहीं है जो ससुराल में खुशामद और खातिरदारी का आदी हो कर इसे ससुराल वालों की मजबूरी समझे. भोपाल की एक गृहिणी सुविधा प्रकाश बताती हैं कि 70 – 80 के दशक में लड़कियों को ससुराल से मायके जाने पति और सास ससुर की इजाजत चाहिए रहती थी. तब शर्त यह भी रहती थी कि बहू मायके से अकेले नहीं लौटेगी उसे बेटा या देवर या कोई और सगा संबंधी लिवाने जाएगा तभी वह आएगी इसी तरह वह मायके तभी जा पाएगी जब लिवाने पिता या भाई आएगा. अब ऐसा कुछ नहीं है सुविधा कहती हैं कि खुद उन की बहू अकेले मायके चली जाती है और बेटी भी अकेले आ जाती है. नहीं तो पहले आमतौर पर दामाद पत्नी को लेने ही ससुराल जाता था.

मुमकिन है दामादों का दामाद होने का अहम और दंभ टूट रहा हो. मुमकिन यह भी है कि ससुर को भी लगने लगा है कि रीतिरिवाजों और परम्पराओं के नाम पर दामाद को इतना आदर सम्मान देने का मतलब उसे एक तरह से अछूत बना देना था. दामाद को खुश इसलिए रखा जाता था कि वह बेटी की खुशियों का ख्याल रखें अब उल्टा हो रहा है कि बेटियों की खुशियों और सुखों से पिता बेफिक्र हैं और दामाद को मेहमान नहीं बल्कि घर का सदस्य मानने लगे हैं. जिस से कई वर्जनाएं और पूर्वाग्रह टूटे और खत्म हुए हैं.

ससुर दामाद से दोस्ती कर उसे वे काम भी सौंपने लगे हैं जो वे बुढ़ापे के चलते नहीं कर सकते. जमीन जायदाद के मसले निबटाने उसे पावर आफ अटार्नी दे देना इन में से एक है. हालांकि दामाद का ससुर की जायदाद पर कोई क़ानूनी दावा नहीं बनता है लेकिन उस पर बेटे के बराबर भरोसा कर उसे जिम्मेदारियां सौंपना बदलते माहौल और परिभाषा की तरफ ही इशारा करता है. दामाद भी ससुरों के तजुर्बों का फायदा उठाने से नहीं चूकते. देश के सब से बड़े बिजनेस मेन मुकेश अम्बानी ने अपने दामाद आनन्द पिरामल को कुछ टिप्स दिए थे. जिन के चलते आनंद का असमंजस दूर हुआ था और वे पूरे दमखम के साथ कारोबार में लग गए थे जबकि वे खुद बड़े कारोबारी घराने से हैं.

इस छोटे बड़े की मानसिकता और अहम से अब मध्यमवर्ग भी लगभग उबर चुका है. लेकिन निचले तबके में ऐसा नहीं है जहां आएदिन ससुर दामाद में विवाद और फसाद हुआ करते हैं. आएदिन ऐसी खबरें सामने आती रहती हैं कि दामाद ने ससुर की या ससुर ने दामाद की हत्या की या जानलेवा हमला किया. इस के पीछे अशिक्षा के साथ साथ पुरुषोचित अहम भी है जिस के तहत ससुर दामाद दोनों एक दूसरे को खुद से नीचा समझने लगते हैं. इन की लड़ाई में पिसती है तो लड़की क्योंकि वह न तो शिक्षित है और न ही अपने पैरों पर खड़ी होती है. यह वह निम्न वर्ग है जिस में दामाद आमतौर पर ठसियल होता है और ससुराल में राजाओं जैसी खातिरदारी न होने पर आसमान सर पर उठा लेता है. इस की सजा और खामियाजा भी बेटी को ही भगतने पड़ते हैं.

अहम या ठसियलपन की मानसिकता मध्यमवर्गीय दामादों में भी हुआ करती थी जो शिक्षित और सभ्य होने के चलते हिंसा वगैरह नहीं कर सकते थे. लेकिन दूसरे तरीकों से ससुर को परेशान कर डालते थे जिन में पत्नी को मायके नहीं जाने देना, सालेसालियों की शादी का बहिष्कार कर देना और न भी करें तो उन में नेग और रिवाजों की आड़ ले कर कलह और तनाव फैला देना प्रमुख टोटके हुआ करते थे. अब नए दौर के दामादों के साथ ऐसा कुछ नहीं है इसलिए ससुर उन के लिए पत्नी के पिता की जिम्मेदारी बनने लगा है.

इस से दो बातें साफ होती हैं कि दरअसल में लड़की पहले से काफी सशक्त, शिक्षित, जागरूक और मजबूत हुई है. वह जिम्मेदारियों के साथसाथ अपने अधिकार भी समझती है. दूसरी बात लड़कों की बदली मानसिकता है कि जब पत्नी हमारे मांबाप का ख्याल रखती है तो हम उस के मांबाप का ख्याल जरूरत पड़ने पर क्यों न रखें. अब तो नजदीकी क्या दूर की रिश्तेदारी में भी कोई यह ताना कसने नहीं बचा है कि यह तो जोरू और ससुराल का गुलाम हो गया है. क्योंकि ताना मारने वाले भी ससुर को पिता का दर्जा देने लगे हैं और कई ज्ञानचन्दो को भी समझ आ गया है कि दामाद से नजदीकियां घाटे का नहीं बल्कि फायदे का ही सौदा है इस के बाद भी कोई दामाद को ले कर सार्वजनिक सभा में मंच से ताने मारे तो यह जनता को तय करना रहता है कि वह इस पुराने सड़ेगले फलसफे से इत्तफाक रखती है या नहीं.

 

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